स्तालिन – बीसवीं शताब्दी के महानतम व्यक्तित्व / लूडो मार्टेन्स

स्तालिन के निधन के पचास वर्ष बाद

  • लूडो मार्टेन्स (बेल्जियम की वर्कर्स पार्टी के अध्‍यक्ष)

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इंस्टीट्यूट ऑफ मार्क्सिस्ट स्टडीज“ द्वारा फ्री युनिवर्सिटी ऑफ ब्रुसेल्स में 5 मार्च 2003 को आयोजित स्मृति सभा में दिया वक्तव्य

‘‘स्तालिन बीसवीं शताब्दी के महानतम व्यक्तित्व थे, एक महानतम राजनीतिक प्रतिभा’’ ऐसा कहा था भूतपूर्व सोवियत विरोधी अलेक्सांद्र जिनोविएव ने। उसके शब्दों में, ‘‘मैं सत्रह वर्ष की आयु में ही पक्का स्तालिन विरोधी बन चुका था – स्तालिन की हत्या का विचार मेरी सोच और भावनाओं में घर कर चुका था…हमने हमले की तकनीकी संभावनाओं का अध्‍ययन किया और यहां तक कि उसका अभ्यास भी किया। यदि उन्होंने 1939 में ही मुझे मृत्युदण्ड दे दिया होता तो उनका निर्णय न्यायसंगत होता। जब स्तालिन जीवित थे तो मैं चीजों को भिन्न नजरिए से देखता था, परन्तु अब, जबकि मैं इस सदी को पीछे मुड़कर देखता हूं, मैं यह कह सकता हूं कि स्तालिन इस सदी के महानतम व्यक्तित्व थे, महानतम राजनीतिक प्रतिभा।’’

1994 में मैंने पेरिस में स्तालिन पर एक व्याख्यान दिया था। एक अल्जीरियाई ने 5 मार्च 1953 को याद करते हुए बीच में हस्तक्षेप किया : ‘‘उस सुबह मैं अपने पिता का हाथ थामे बाहर निकला। मैंने देखा कि सभी अल्जीरियाई कैसे उदास दिखाई दे रहे थे और फ्रांसीसी खुशियां मना रहे थे। मैंने अपने पिता से पूछा कि क्या हुआ था। उन्होंने गम्भीरता से जवाब दिया, ‘स्तालिन का देहांत हो गया है…’। मैंने पूछा कि स्तालिन कौन था? मेरे पिता ने कहा, ‘‘वह हमारे समय का सबसे महान व्यक्ति था। वह महानतम क्रान्तिकारी राष्ट्र सोवियत संघ का नेता था। स्तालिन एक मोची का बेटा था।’ मैंने सोचा : ‘मोची का लड़का, मेरे ही जैसा कोई…’ उन अल्जीरियाई देशभक्तों के लिए स्तालिन साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष का प्रतिनिधित्व करते थे जिनके मुक्ति युद्ध के दौरान फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों ने दस लाख लोगों को मौत के घाट उतारा था।’’

आज उनके निधन की पचासवीं बरसी पर दुनियाभर के क्रान्तिकारी स्तालिन को आज तक विश्व के महानतम क्रान्तिकारी के रूप में याद कर रहे हैं। मानवता के इतिहास के एक मील के पत्थर सोवियत संघ में स्तालिन के नेतृत्व में ही असाधारण राजनीतिक और आर्थिक रूपान्तरण सम्पन्न हुए थे। स्तालिन ही थे जिन्होंने सोवियत संघ की रक्षा के लिए फासीवाद विरोधी महान क्रान्तिकारी युद्ध का नेतृत्व किया था। स्तालिन ने दुनियाभर में उपनिवेश बने राष्ट्रों, विशेषकर एशिया में चीन और भारत के मुक्तिसंघर्षों को प्रोत्साहन दिया था।

आज हम स्तालिन को इसलिए याद कर रहे हैं क्योंकि उनकी उपलब्धियां मानवता के भविष्य के लिए भारी महत्व रखती हैं। स्तालिन का नाम उन चार महान क्रान्तिकारी संघर्षों का प्रतीक है जो 21वीं शताब्दी में मानवता के भाग्य का निर्णय करेंगे। ये हैं-आर्थिक विकास, स्वतंत्रता, शांति और समाजवाद के लिए संघर्ष।

स्तालिन और साम्राज्यवाद विरोधी स्वतंत्रता संग्राम

लेनिन और स्तालिन का अनुभव यह बताता है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए लड़ाई और समाजवाद के लिए संघर्ष अलग करके नहीं देखा जा सकता। वह यह भी बताता है कि अवसरवाद साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के लिए एक आरक्षित बल के रूप में काम करता है।

25 अक्टूबर (नये कैलेण्डर के अनुसार 7 नवम्बर) 1917 को महान समाजवादी क्रान्ति की विजय हुई थी। अगले ही दिन मेंशेविक पार्टी ने बोल्शेविकों पर ‘‘दासता की व्यवस्था’’ को लागू करने का आरोप लगाते हुए उन्हें उखाड़ फेंकने के इरादे की घोषणा कर दी। रूस के सामाजिक जनवादियों ने ‘‘रूस को बोल्शेविक क्रूरता से मुक्त करने’’ के लिए साम्राज्यवादी फौजों से अपील की। समाजवादी शिशु सोवियत संघ के विरुद्ध ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, इटली और अमेरिका के सैनिकों के हस्तक्षेप में चर्चिल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

हस्तक्षेप करने वाली फौजों के विरुद्ध जनयुद्ध के निर्णायक मोर्चे को नेतृत्व देने के लिए लेनिन द्वारा भेजे गये प्रमुख नेता स्तालिन थे। लम्बे समय तक भूमिगत रहने के कारण बोल्शेविकों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी। साम्राज्यवादियों का आकलन था कि आठ विदेशी फौजों, जिन्हें जार की सेना के अवशेषों, बड़े भूस्वामियों, पूंजीपतियों और सामाजिक जनवादी पार्टी का समर्थन प्राप्त था, के विरुद्ध सोवियत संघ टिक नहीं पायेगा। लेनिन और स्तालिन ने वास्तविक अर्थों में व्यापक जनता की लड़ाई को संगठित किया जिसने सभी आक्रमणकारियों और उनके सहयोगियों पर विजय प्राप्त की।

सोवियत संघ की स्वतंत्रता कायम रखने के लिए लेनिन और स्तालिन के नेतृत्व में चलाये गये राजनीतिक और सैन्य संघर्ष साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण की वर्तमान परिस्थिति में विशिष्ट अर्थ ग्रहण कर लेते हैं। आज मानवता की भारी बहुसंख्या के समक्ष प्रमुख समस्या वास्तविक राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करना है।

यह समस्या उस राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य और सांस्कृतिक पुनर्उपनिवेशीकरण के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की है जो 19वीं शताब्दी के उपनिवेशवाद से अधिक खूनी व आक्रामक है।

पिछले छह वर्षों में, मुझे इस यथार्थ का अनुभव पहली बार कांगो में हुआ। कांगो, दुनिया के समृद्धतम देशों में से एक होने की क्षमता रखता है लेकिन 37 वर्षों की नवऔपनिवेशिक तानाशाही में वहां की जनता गरीब व वंचित रही आज वह अमेरिका द्वारा प्रोत्साहित आक्रमण का शिकार है और भयावह गरीबी में अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है।

आंग्ल–अमेरिकी साम्राज्यवाद ‘‘अफ्रीका के लिए एक नया युद्ध’’ देख रहा है, ‘‘क्योंकि औद्योगिक विश्व में कच्चे माल समाप्त हो रहे हैं।’’ अमेरिका ने घोषणा कर दी है कि ‘‘अफ्रीका में अमेरिकी हितों के लिए कांगो बहुत महत्वपूर्ण है’’ क्योंकि उसके पास विश्व की 13 प्रतिशत पनबिजली संपदा है, 28 प्रतिशत कोबाल्ट के सुरक्षित भण्डार हैं और 18 प्रतिशत औद्योगिक हीरा के सुरक्षित भण्डार हैं।’’1

आंग्ल–अमेरिकी साम्राज्यवाद अब कांगो और अफ्रीका को फिर से उपनिवेश बनाने के अपने अधिकार का तकरीबन खुलेआम दावा करने लगा है और स्पष्ट तौर पर किसी भी प्रकार की वास्तविक स्वतंत्रता से इंकार करता है। कांगो की संपदा ‘‘अमेरिकी हितों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण’’ भला कैसे हो सकती है जब तक कि अमेरिकियों ने कांगो पर हाथ डालने का निर्णय न ले लिया हो, वह भी किसी भी कीमत पर? अमेरिका–रवांडा-युगांडा का आक्रमणकारी युद्ध पहले ही कांगो में 4,000,000 जानें ले चुका है। लेकिन कौन इसकी चर्चा करता है? दूसरी ओर, कामरेड स्तालिन के निधन की पचासवीं बरसी पर, पूरा बुर्जुआ प्रेस उन्हीं आरोपों पर वापस लौट गया है जिसमें बरसों पहले नाजियों द्वारा स्तालिन को ‘‘रक्तपिपासु’’ कहा गया था।

स्तालिन और समाजवादी विकास के लिए संघर्ष

सोवियत संघ में विकास की रफ्तार तेज करने की पूर्वशर्त थी स्वतंत्रता। स्वतंत्रता के कारण ही यह संभव हुआ कि समाजवादी राज्य के हाथों में केन्द्रित हो गये। उत्पादन के अति महत्वपूर्ण साधन और रिकार्ड समय में औद्योगिक, कृषि, सांस्कृतिक व सैन्य विकास की मुख्य समस्याओं के समाधान के लिए उनका नियोजित उपयोग किया जा सका। 1928 में स्तालिन ने जबर्दस्त आर्थिक विकास के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना का आरम्भ किया।

4 फरवरी 1931 को स्तालिन ने घोषणा की ‘‘हम उन्नत देशों से 50 से 100 वर्ष पीछे हैं। हमें इस दूरी को 10 वर्षों में नापना होगा। या तो हम सफल होंगे या डूब जायेंगे।’’ स्तालिन ने शर्त जीत ली, एक ऐसी चुनौती जिसके बारे में सोचना भी किसी बुर्जुआ के लिए असंभव होता।

उन्होंने दो जादुई हथियारों का प्रयोग किया। बोल्शेविक पार्टी से जुड़े मजदूरों और किसानों के हरावल तत्वों को संगठित करना, और दूसरे, जनता की चेतना का स्तरोन्नयन और उसे आर्थिक विकास के लिए गोलबन्द करना।

जार के शासनकाल में रूस में 37 वर्षों तक रहे एक विदेशी ने कहा ‘‘बोल्शेविकों ने पांच करोड़ से अधिक उदासीन, जीवित से ज्यादा मृत मनुष्यों को गतिमान किया है और उनके अंदर एक नई जान फूंक दी है। क्रान्तिकारी उत्साह की गर्मी बड़ी से बड़ी बाधाओं को गला डाल रहा है। इस तरह की चीज आज तक कभी नहीं देखी गई।’’

देहात में पले–बढ़े अलेक्सांद्र जिनोविएव ने कृषि के सामूहिकीकरण और आधुनिकीकरण के लिए चले तीखे संघर्षों के बीच जीवन व्यतीत किया था। उनका कहना है, ‘‘जब मैं गांव वापस लौटा तो मैंने अपनी मां और ‘कोलखोज (सामूहिक फार्म) के अन्य सदस्यों से पूछा कि अगर उन्हें निजी काश्त दिये जाने की संभावना बनती है तो क्या वे उसे स्वीकार करेंगे? उन सभी ने स्पष्ट तौर पर इंकार कर दिया। सामूहिकीकरण के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों ने एक अभूतपूर्व सांस्कृतिक क्रान्ति का अनुभव कियाथा : प्राथमिक विद्यालय खोले गये थे, साथ ही साथ सेकेंडरी और तकनीकी विद्यालय भी खोले गये थे जिनमें पशु चिकित्सकों, मिस्त्री, ट्रैक्टर चालकों और कृषि वैज्ञानिकों के प्रशिक्षण की सुविधा थी। ग्रामीण जनसंख्या की संरचना शहरी समाज के करीब आ गयी थी। ग्रामीण समाज में इस त्वरित परिवर्तन से नई व्यवस्था से जनसंख्या के बड़े हिस्से का भारी समर्थन प्राप्त हुआ।’’

1928 से 1937 तक औद्योगिक उत्पादन प्रतिवर्ष 16.5 प्रतिशत की दर से बढ़ा। 1920 में लेनिन ने सोवियत संघ के विद्युतीकरण के लिए एक व्यापक योजना प्रस्तावित की थी। पंद्रह वर्षों बाद स्तालिन ने योजना को 230 प्रतिशत लागू कर लिया था।

कृषि का सामूहिकीकरण अभूतपूर्व रूप से व्यापक जनांदोलन था जिसने छोटे और मध्‍यम किसानों को पुराने भूस्वामियों के शोषण से मुक्त होने, और आधुनिक औजारों व मशीनों के प्रयोग से सामूहिक कृषि द्वारा समृद्ध होने का अवसर प्रदान किया। 1929 के आरम्भ में रूस के पास 19000 ट्रैक्टर थे। 12 वर्षों बाद 1941 में ‘कोलखोज’ (सामूहिक फार्म) और ‘सोविरखोज’ (राजकीय फार्म) को मिलाकर कुल 684,000 ट्रैक्टर थे।

जनता में ऐसी गतिमानता ने, जो इतिहास में इसके पूर्व कभी नहीं देखी गयी, मात्र बारह वर्षों में एक पिछड़े और बरबाद देश को यूरोप की सबसे ताकतवर साम्राज्यवादी शक्ति नाजी जर्मनी के बराबर ला खड़ा कर दिया। आज की तीसरी दुनिया में निजीकरण, विदेशी प्रतिबंधों और फरमानों, अनऔद्योगीकरण तथा व्यापक गरीबी का सामना कर रहा कौन ऐसा देश होगा जो स्तालिन की उपलब्धियों से ईर्ष्या नहीं करता होगा?

स्तालिन और क्रान्तिकारी बोल्शेविक पार्टी

बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में ही यह सारी जीतें हासिल हुर्इं। 1917 में क्रान्ति की सफलता के वक्त जब पार्टी भूमिगत थी उस समय पार्टी में मात्र 30,000 तपे–तपाये क्रान्तिकारी थे। 1921 में 14 विदेशी शक्तियों के खिलाफ प्रतिरोध युद्ध के समय पार्टी में 600,000 सदस्य हो चुके थे। स्तालिन ने संगठन और शिक्षा को अभूतपूर्व उद्वेग दिया और 1932 में, जो औद्योगीकरण व सामूहिकीकरण की सफलता के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण वर्ष था, पार्टी के पच्चीस लाख सदस्य थे। यह उस महान राजनीतिक सेना के अदम्य त्याग की भावना, जनता के प्रति समर्पण और काम करने का उत्साह ही था जिसने पिछड़ेपन के विरुद्ध लड़ने के लिए मजदूरों में जोश भर दिया।

आधुनिक क्रान्तिकारी पार्टी के सिद्धान्तों की स्थापना और पार्टी की रीढ़ का निर्माण करने वाले लेनिन थे, लेकिन वह स्तालिन ही थे जिन्होंने पार्टी को एक शानदार राजनीतिक सेना में रूपान्तरित किया और जनता को शिक्षित और प्रेरित किया।

पार्टी की निर्णायक नेतृत्वकारी भूमिका के बिना कोई भी ऐतिहासिक जीत संभव नहीं थी, चाहे वह जारशाही से स्वतंत्रता का संघर्ष रहा हो, विकास के लिए संघर्ष रहा हो अथवा फासीवाद विरोधी महान युद्ध।

स्तालिन ‘सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास’ पुस्तक के प्रमुख लेखक थे, एक ऐसी आवश्यक पुस्तक जो आज भी दुनिया भर में क्रान्तिकारियों की नई पीढ़ी को शिक्षित करने के लिए उपयोग में लायी जाती है।

स्तालिन और अवसरवाद व घुसपैठ का घातक खतरा

सोवियत समाजवाद के अंदर उसके शत्रु पार्टी की निर्णायक भूमिका को प्रारम्भ से ही अच्छी तरह समझते थे और उसमें घुसपैठ करने और उसे अंदर से नष्ट करने के लिए उन्होंने हर संभव कोशिशें शुरू कर दीं।

युवा प्रतिक्रान्तिकारी बोरिस बोझनोव 19 वर्ष का था जब उसने 1919 में बोल्शेविक पार्टी में घुसपैठ करने का निर्णय किया। 1923 में वह कामरेड स्तालिन और पोलित ब्यूरो का सचिव बन गया। अपनी आत्मकथा में उसने बाद में लिखा :

‘‘बोल्शेविक विरोधी सेना के सैनिक के रूप में मैंने अपने सामने शत्रु के मुख्यालय में प्रवेश करने का कठिन और खतरनाक काम रखा। मैंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया था।’’

इसके अलावा पुराने शोषणकारी समाज की आहतें जिद्दी थीं और नये समाजवादी शासन के कुछ नेता धीरे–धीरे इनके प्रभाव में आ गये।

पार्टी के अंदर विभिन्न राजनीतिक रूझानों के बीच का संघर्ष हमेशा सोवियत संघ में व्याप्त वर्ग हितों के बीच के संघर्ष को प्रतिबिम्बित करता था। 1917 की विजय के बाद से ही बोल्शेविक पार्टी के अंदर के अवसरवादी रूझान लेनिन और स्तालिन की नीतियों का विरोध करने लगे थे।

1927 में त्रात्स्की, जिनेविएव और कामेनेव को उनकी दुश्मनाना गतिविधियों के कारण पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। हालांकि कुछ ही समय बाद जिनोविएव और कामेनेव को वापस पार्टी में ले लिया गया। 1928 और 1930 के बीच त्रात्स्की, जिनोविएव, कामेनेव और बुखारिन ने बलात औद्योगीकरण और सामूहिकीकरण का विरोध किया। 1931 में एक बार फिर जिनोविये और कामेनेव को बोल्शेविक–विरोधी कार्यक्रम को सार्वजनिक समर्थन देने के कारण पार्टी से निकाल दिया गया। इस कार्यक्रम का बुखारिन ने पोलित ब्यूरो का सदस्य होते हुए भी समर्थन किया था।

1934 में पार्टी की 17वीं कांग्रेस हुई, यह विजय और एकता की कांग्रेस थी। करोड़ों मजदूरों के शौयपूर्ण कार्यों के दम पर हासिल विराट उपलब्धियों से अब इंकार नहीं किया जा सकता था। स्तालिन को भरोसा था कि पार्टी और जनता द्वारा हासिल की गई उपलब्धियों और प्रगति से असहमत और विरोधी तत्व सही दृष्टिकोण अपना लेंगे। निष्कासित किये गये काडरों की सदस्यता वापस देकर उनके अधिकारों को बहाल कर दिया गया। इनमें प्याताकोव, रादेक, स्मिरनोव, प्रेयोबाझेन्स्की, जिनोविएव और कामेनेव भी थे। इन सभी ने 17वीं कांग्रेस में भाग लिया और अपने वक्तव्य दिये।

यह कहा जाना चाहिए कि स्तालिन कभी संकीर्ण सोच के नहीं रहे, वह काडरों को पिछली गलतियों के लिए माफ करके उन्हें दूसरा मौक देते थे। पहली दिसम्बर, 1934 को पार्टी की कमान में दूसरे स्थान के नेता किरोव की उनके दफ्तर में हत्या कर दी गयी। हत्यारों का पता नहीं चला।

पार्टी को 1936–37 में पता चला कि किरोव के विरुद्ध षड्यंत्र एक भूमिगत संगठन ने अंजाम दिया था जिसमें जिनोविएव, कामेनेव, स्मिरनोव, रादेक और अन्य कॉडर शामिल थे और उस संगठन के त्रात्स्की के साथ भी सम्बन्ध थे।

त्रात्स्की एक ऐसे कम्युनिस्ट का प्रतिरूप था जो घोर कम्युनिस्ट–विरोधी होने की हद तक पतित हो जाता है। 1934 में उसने लिखा, ‘‘हिटलर की विजय स्तालिन की आपराधिक नीतियों का परिणाम थी।’’ ‘‘हिटलर को उखाड़ फेंकने के लिए पहले कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को खत्म करना होगा।’’

त्रात्स्की ने नंगे शब्दों में जर्मनी को रूस पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। 1938 में उसने लिखा-‘‘बर्लिन जानता है कि शासक गुट ने सेना और जनता को हताशा के किस स्तर तक पहुंचा दिया है। स्तालिन देश के नैतिक बल और प्रतिरोध को अभी भी लगातार कमजोर कर रहे हैं। समय आने पर स्तालिनवादी कैरियरवादी देश के साथ विश्वासघात करेंगे।’’ जब नाजी सोवियत संघ पर आक्रमण की तैयारी कर ही रहे थे, त्रात्स्की ने सोवियत संघ की जनता से पार्टी और स्तालिन के विरुद्ध उठ खड़े होने का आह्वान किया। उसने घोषणा की, ‘‘नये परजीवियों की कुख्यात तानाशाही के विरुद्ध सोवियत सर्वहारा की आवाज ही अक्टूबर क्रान्ति की उपलब्धियों में जो भी शेष हैं, उसको बचा सकती है’’। त्रात्स्की की भड़काऊ भाषा जर्मनी के फासीवादियों की सीधे सेवा करती थी।

विरोधियों और घुसपैठियों के भूमिगत तंत्र की जांच के दौरान सैन्य अफसरों में ऐसे भूमिगत समूहों के बारे में ज्ञात हुआ जो तख्तापलट की तैयारी कर रहे थे। मार्शल तुखाचेव्स्की और जनरल ओसेप्यान काशीरिन और आल्सनिस उन दर्जनों सैन्य षडयंत्रकारियों में से थे जिन्हें गोली से उड़ा दिया गया। एक ओर जहां फ्रांस और बेल्जियम में बुर्जुआ वर्ग का आधिसंख्य हिस्सा आक्रान्ता शत्रु से सांठ–गांठ कर चुका था, वहीं इसके विपरीत सोवियत संघ में गद्दारों का सफाया हो चुका था।

स्तालिन द्वारा किये गये विश्वासघातियों के सफाये के बारे में, हिटलर के विस्तारवाद के विरुद्ध युद्ध के समर्थक ब्रिटेन के चर्चिल का कहना था : ‘‘प्राग में रूसी दूतावास के माध्‍यम से जर्मनी की सरकार कुछ महत्वपूर्ण रूसी व्यक्तित्वों से संपर्क में थी। षड्यंत्र का उद्देश्य स्तालिन को उखाड़ फेंकना और रूस में जर्मनीपरस्त सत्ता की स्थापना करना था। सोवियत संघ ने राजनीतिक और आर्थिक हलकों से ऐसे तत्वों का सफाया करके एक निर्मम लेकिन निस्संदेह उपयोगी काम किया है। सोवियत सेना को जर्मनी के समर्थकों से मुक्त कर दिया गया था।’’

इन कार्रवाइयों के बारे में नाजी गोएबेल्स  ने 8 मई 1943 को अपनी डायरी में लिखा : ‘‘फ्यूरर ने तुखाचेव्स्की के विषय में विस्तार से बताया और कहा कि हम पूरी तरह गलत होंगे अगर हम सोचते हैं कि स्तालिन लाल सेना को बरबाद कर देगा। सच इसके विपरीत था : स्तालिन ने विरोधी तबकों को लाल सेना से निकाल बाहर किया, इस तरह यह सुनिश्चित किया कि सेना में कोई भी पराजयवादी समूह अब नहीं रह गये हैं।’’

सामाजिक जनवादी बुखारिन से संशोधनवादी गोर्बाचोव तक

जहां एक ओर 1937–38 के सफाये ने नाजी आक्रमण के लिए समझौताहीन प्रतिरोध का निर्माण किया वहीं इसने उन अवसरवादी रुझानों पर भी सांघातिक प्रहार किया जिनका लक्ष्य पार्टी नेतृत्व में बहुमत हासिल कर धीरे–धीरे पूंजीवाद की ओर वापसी करना था। इस संदर्भ में 1938 का बुखारिन का मुकदमा एक ऐतिहासिक महत्व रखता है। बुखारिन उस समय का गोर्बाचोव था।

1938 में बुखारिन उन लोगों में से पार्टी का सबसे सम्मानित नेता, और सबसे ऊंचे ओहदे पर था जो साम्यवादी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए षडयंत्र कर रहे थे। अमरीका के राजदूत जोसेफ डेविस जो मुकदमे के समय उपस्थित थे, ने लिखा : ‘‘मुकदमे में उपस्थित राजनयिकों की आम भावना यह है कि एक अत्यन्त गम्भीर षडयंत्र सिद्ध हो चुका है।’’

इतने प्रबल साक्ष्यों का सामना करने पर बुखारिन का कम्युनिस्ट आत्मसम्मान फूट पड़ा और उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया। उसने राजनीतिक पतन की उस पूरी प्रक्रिया का खुलासा कर दिया जिसके तहत उस जैसे पुराने बोल्शेविक और लेनिन के सबसे प्रिय शिष्य ने सोवियत क्रान्ति के साथ विश्वासघात किया।

उसकी आत्मस्वीकृति इस अर्थ में विशिष्ट है कि पचास वर्षों बाद गोर्बाचोव के प्रति–क्रान्तिकारी गुट ने ठीक बुखारिन वाली लाइन अपनाई और इसे उसके तार्किक अंजाम तक पहुंचाया-पूंजीवाद की, बल्कि पूंजीवाद के सबसे माफिया जैसे रूप की पुनर्स्थापना कर डाली।

आज ‘‘बुखारिनवादियों और त्रात्स्कीवादियों के सोवियत विरोधी गुट पर मुकदमे की सुनवाई’’ की रिपोर्ट को पढ़ा जाना अत्यन्त आवश्यक है।

मुकदमे के दौरान बुखारिन, त्रास्तकी और उनके अनुयायियों पर छद्म–लेनिनवादी भाषा का प्रयोग कर समाजवादी शासन की बुनियाद पर हमला करने, रूस में समाजवाद को उखाड़ फेंकने को तत्पर ताकतों, सामंती तत्वों और पुराने बुर्जुआ वर्ग को सैद्धान्तिक मंच प्रदान कराने का आरोप लगाया गया।

त्रात्स्कीवादी और बुखारिनवादी चमकदार पदावली की आड़ में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना की तैयारी कर रहे थे। ठीक यही गोर्बाचोव ने भी छद्म ‘‘लेनिनवादी’’ शब्दावली का प्रयोग करके किया।

बुखारिन के मुकदमे का ब्योरा यह बताता है कि इस पुनर्स्थापना को आसान बनाने के लिए विरोधी तत्वों ने साम्राज्यवादी ताकतों से सम्पर्क किया जिनमें नाजी जर्मनी भी था। आरोप पत्र में यह कहा गया है, ‘‘बुखारिनवादी और त्रात्स्कीवादी अंतरराष्ट्रीय फासीवाद की अगुवा टुकड़ी है; वे विश्वासघातियों का एक गुट है।’’

यह मुकदमा हमें याद दिलाता है कि पूंजीवाद और समाजवाद परस्पर विरोधी जानी दुश्मन हैं, और इनके रूप में दो विश्व आमने– सामने हैं। वर्ग शत्रुता का तर्क रूस के अंदर बचे रहे गये शोषण वर्ग और सीमापार के शोषकों को मजदूरों की राजसत्ता पर उग्रतर हमलों के लिए प्रवृत्त कर रहा है। ठीक इसी तरीके से गोर्बाचोव के अनुयायियों ने पचास वर्षों बाद समाजवाद के विश्वासघातियों और अमेरिकी साम्राज्यवाद व अंतरराष्ट्रीय फासीवाद की अगुवा टुकड़ियों की भूमिका निभाई। येल्त्सिन के रूस में व्लासोव का फासीवादी संगठन खुले तौर पर अपनी गतिविधियां चलाता रहा।

बुखारिन के मुकदमे ने इस तथ्‍य को रेखांकित किया कि षडयंत्रकारियों और पश्चिमी गुप्तचर संस्थाओं के बीच संबंध थे। आरोप में ये तथ्य भी शामिल थे कि बुखारिनवादी और त्रात्स्कीवादी रूस को खंडित करने व यूक्रेन और बेलारूस को अलग करने की तैयारी कर रहे थे।

आज हम इस बात को समझ सकते हैं कि गोर्बाचोव और येल्तसिन ने उसी कार्यक्रम को क्रियान्वित किया जिसके लिए उनके पूर्वजों बुखारिन और त्रात्स्की को 1938 में मौत की सजा सुनाई गयी थी। गोर्बाचोव के समय के उच्च पदस्थ नौकरशाह इस बात का दम्भ भरते रहे हैं कि वे अमेरिकी गुप्तचर संस्थाओं के साथ दर्शकों से संपर्क में थे। इसलिए यह तथ्य कि गोर्बाचोव ने 1990 में बुखारिन और त्रात्स्की को आधिकारिक तौर पर प्रतिष्ठापित किया, कोई सामान्य बात नहीं लगती। त्रात्स्कीवादी नेता अर्नेस्ट मेंडल का 1989 में यह कहना महत्वपूर्ण है : ‘‘पेरेस्त्रोइका सही मायने में एक नई क्रान्ति है। 55 वर्षों से त्रात्स्कीवादी आंदोलन ने इसी विचार की वकालत की है, यही कारण है कि उसके ऊपर प्रतिक्रान्तिकारी होने का आरोप लगा। आज यह समझना आसान है कि सच्चे क्रान्तिकारी और सच्चे प्रतिक्रान्तिकारी कहां खड़े हैं।’’

बुखारिन और त्रात्स्की 1935 के गोर्बाचोव थे, लेकिन उनका पर्दाफाश हुआ और सजा दे दी गयी। तभी सोवियत संघ फासीवादी आक्रमण के विरुद्ध अपनी रक्षा की तैयारी और समाजवाद के निर्माण को आगे बढ़ा सका।

इतिहास ने दिखा दिया है कि सम्पूर्ण समाजवादी क्रान्ति के अंदर अवसरवाद और घुसपैठ अंदरूनी खतरों के रूप में मौजूद थे। त्रात्स्की, जिनोविएव और बुखारिन के रूप में अवसरवादियों की एक श्रृंखला थी जो देश के अंदर प्रतिक्रान्तिकारियों और देश के बाहर फासीवादियों से जुड़ी हुई थी। स्तालिन और पार्टी के नेतृत्व में गोलबंद क्रान्तिकारी मजदूरों, किसानों और बुद्धिजीवियों ने उन्हें कुचलकर रख दिया। भितरघातियों से मुक्त सोवियत संघ बर्बर फासीवादी ताकतों को पराजित कर सका। सोवियत जनता ने न केवल अपनी आजादी के लिए वीरतापूर्ण संघर्ष किये बल्कि उन सभी की आजादी के लिए लड़ी जो फासीवाद और उपनिवेशवाद कुचले गये थे। इन ऐतिहासिक संघर्षों में दो करोड़ सत्तर लाख से ज्यादा सैनिकों और नागरिक योद्धाओं की जानें गर्इं। एक नये विश्व की रचना के लिए इससे पहले कभी भी इतनी महान और निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ी गई। महान स्तालिन के निधन की पचासवीं बरसी पर बुर्जुआ मीडिया द्वारा पोसे गये भ्रष्ट और नशीले झूठ से जांबाजों के खून से लिखे गये सत्य का एक अंश भी नहीं बदलेगा।

स्तालिन और अंतरराष्ट्रीय फासीवाद विरोधी गठबंधन

स्तालिन ने न सिर्फ सोवियत संघ के अंदर कार्यरत नाजियों से जुड़े भितरघातियों को नष्ट किया बल्कि 1935 से फासीवाद विरोधी अंतरराष्ट्रीय ताकतों और देशों के गठबंधन को भी समर्थन दिया। 1935 में सोवियत संघ ने जर्मन और इतालवी फासीवादी विस्तारवाद के विरुद्ध यूरोप में एक सामूहिक सुरक्षा तंत्र के गठन का प्रस्ताव रखा। 1936 में जब फासीवादी ताकतों ने स्पेन में हस्तक्षेप कर जनरल फ्रांको की फासीवादी तानाशाही स्थापित करने में मदद की, तो लोकतांत्रिक ताकतों, ब्रिटेन और फ्रांस ने तटस्थता की नीति अपनाई और सोवियत प्रस्ताव को नकार दिया। फिर ब्रिटेन और फ्रांस ने म्यूनिख में फासीवादी ताकतों से समझौता किया और चेकोस्लोवाकिया के सुडेटनलेड के क्षेत्र को जर्मनी को सौंप दिया था। हिटलरी जर्मनी ने ग्रेट ब्रिटेन के साथ समझौता किया कि वे एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध नहीं छेड़ेंगे। एक सामूहिक रक्षा तंत्र के गठन के लिए स्तालिन की लगातार अपील अप्रभावी रही : यहां तक कि ब्रिटेन और फ्रांस ने हिटलर को मार्च 1939 में पूरे चेकोस्लाविया पर कब्जा कर लेने दिया। वास्तव में, वे हिटलर को पूर्वी यूरोप में लड़ाई छेड़ने के लिए उकसा रहे थे।

जून 1939 से अगस्त 1939 तक, फासीवाद विरोधी गठबंधन के लिए अंतिम मिनट तक रूस ने ब्रिटेन और फ्रांस से बातचीत चलायी। लेकिन जुलाई में, ब्रिटिश प्रधानमंत्री चेम्बरलेन की हिटलर के साथ गुप्त बातचीत हुई जिसको यह वादा करते हुए कि वह स्तालिन से संबंध विच्छेद कर लेगा, उसने हिटलर को पूर्वी और दक्षिण पूर्वी यूरोप में कार्रवाई करने की छूट दे दी। अगस्त 1939 में स्तालिन समझ गये कि लंदन और पेरिस ने हिटलर को पोलैण्ड पर कब्जा कर लेने देने का निर्णय ले लिया है ताकि हिटलरी फौजों के रूस तक पहुंचने के लिए रास्ता साफ हो जाये।

हिटलर रूस, फ्रांस और ब्रिटेन को युद्ध में हराने के लिए दृढ़ था। लेकिन वह एक साथ दो मोर्चों पर युद्ध नहीं चाहता था। वह चाहता था कि या तो फ्रांस और ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध हो या अकेले रूस के विरुद्ध। एक रणनीतिकार के रूप में उसने अपने कमजोर शत्रुओं से लड़ने और उन्हें हराने को प्राथमिकता दी। वह जानता था कि रूस के विरुद्ध लड़ाई निर्णायक और भयंकर होगी, क्योकि यह दो दुनियाओं की लड़ाई थी। हिटलर जानता था कि ब्रिटेन और फ्रांस में उसके कई मित्र और समर्थक हैं। 20 अगस्त को उसने सोवियत संघ के साथ अनाक्रमण संधि का प्रस्ताव रखा। नाजी बर्बरता का अकेले ही सामना करने की संभावना के कारण स्तालिन ने इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया।

ब्रिटिश और फ्रांसीसी साम्राज्यवादी भी हिटलर का प्रयोग सोवियत संघ को नष्ट करने के लिए करना चाहते थे थे, अपने ही जाल में फंस चुके थे। हिटलर ने सोचा कि वह पहले फ्रांस, बेल्जियम और ब्रिटेन को फिर स्तालिन के विरुद्ध पूरे यूरोप की सैन्य शक्ति के साथ हमला बोलेगा।

रूस को अपनी सुरक्षा को निर्णायक रूप से मजबूत कराने के लिए 21 महीने का समय मिल गया। जर्मनी, जापान और इटली की धुरी ताकतों के विरुद्ध फासीवाद विरोधी मोर्चे के निर्माण और उसकी विजय के लिए यह एक निर्णायक कारक साबित हुआ।

महान फासीवाद विरोधी युद्ध में स्तालिन की निर्णायक भूमिका

पूरे युद्ध के दौरान, विशेषत: सबसे कठिन पहले वर्ष में, स्तालिन के धैर्य, दृढ़निश्चय, और कुशलता ने पूरे रूस की जनता को प्रेरित और प्रोत्साहित किया। निराशा के क्षणों में, स्तालिन ही थे जिन्होंने अंतिम विजय में विश्वास कायम रखा।

25 अक्टूबर 1941 को नाजी सेना मास्को के प्रवेशद्वार पर थी। स्तालिन ने हिटलर की फौजों को नजरंदाज करके लाल चौक में पारम्परिक सैन्य परेड की, जहां उन्होंने ऐतिहासिक भाषण दिया जिसे पूरे देश में प्रसारित किया गया। इसने उक्रेन के छापामारों को भावविह्वल कर दिया : स्तालिन कहते हैं-हम जीतेंगे, और जीतेंगे हम ही।

आने वाले हफ्तों में नाजी सेना मास्को के बाहरी इलाकों में प्रवेश कर गयी, लेकिन स्तालिन शांतचित्त शहर में ही डटे रहे और गुपचुप ढंग से सात लाख सैनिकों को जमा करने के काम में जुटे रहे।

नाजियों के विरुद्ध सोवियत संघ की विजय का आधार 1928 से 1941 के बीच स्तालिन की महान उपलब्धियों में खोजा जा सकता है। उस व्यक्ति की पचासवीं वर्षगांठ पर जिसने हिटलर को पराजित किया, इन्हीं भव्य उपलब्धियों के बारे में नये और पुराने फासीवादी कहते हैं आतंक अंधी हत्यायें, विध्‍वंस…। यह देखना मुश्किल नहीं है कि ये बुर्जुआ पत्रकार हमारे समय के फासीवादियों की चापलूसी करके बचते हैं कि इससे उन्हें अधिक सम्मान और ओहदा मिलेगा।

फासीवाद विरोधी महान युद्ध के सबसे प्रतिभावान वरिष्ठ अधिकारी मार्शल झुकोव ने बाद में धूर्त ख्रुश्चेव का साथ दिया, लेकिन कुछ वर्षों बाद उन्होंने ख्रुश्चेव के झूठों को गलत ठहराने के लिए स्तालिन का यह मूल्यांकन प्रस्तुत किया :

एक अत्यन्त विकसित उद्योग, सामूहिक कृषि, सारी जनता के लिए सार्वजनिक शिक्षा, देश की एकता, समाजवादी राज्य की ताकत, लोगों के बीच देशभक्ति की उत्कट भावना, नेतृत्व जो पार्टी के माध्‍यम से लड़ाई के मोर्चे पर और मोर्चे से इतर एकता बनाने में सक्षम रहा, साथ ये सभी तत्व फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में महान विजय का कारण रहे।

सोवियत उद्योग ने बड़ी संख्या में हथियारों के उत्पादन में खुद को सक्षम सिद्ध किया। तकरीबन 490,000 बंदूकें व मोर्टार, 102000 से अधिक टैंक व स्वचालित तोपें, 137000 लड़ाकू विमान-ये दिखाते हैं सैन्य दृष्टिकोण से आर्थिक आधार काफी सुदृढ़ था।’’

प्रतिक्रान्तिकारी और विश्वासघाती ख्रुश्चेव ने यह लिखने का दुस्साहस किया कि स्तालिन न किसी पर विश्वास करते थे और न किसी की सलाह लेते थे। वास्तव में, इतिहास के इस सबसे महान युद्ध में स्तालिन के पास कामों की भरमार थी, जिसमें आदेशों पर हस्ताक्षर करने के लिए सामूहिक बौद्धिक क्षमता का प्रयोग किया। स्तालिन की कार्यशैली हमेशा जनवादी रही। वे हर विरोधी दृष्टिकोण को सुनते, सभी उपयोगी सुझावों की एकत्रित करने और सभी उपयोगी विचारों का समाहार करते थे।

1942 से सैन्य प्रमुख वसीलेव्सकी ने लिखा कि स्तालिन जब भी किसी काम की तैयारी करते थे, तो हमेशा कमांड अधिकारियों को बुला लेते थे, जिससे कि आवश्यक जानकारियां और सुझाव लिये जा सकें, और उन्हें और उन्हें लिये गये निर्णय की प्राथमिक रूपरेखा दी जा सके। उन्होंने लिखा है : ‘‘स्तालिन हमेशा सामूहिक तर्कणा पर भरोसा करते थे।’’

उपसेना प्रमुख जनरल श्तेमेंको ने भी ख्रुश्चेव के झूठे आरोपों को गलत ठहराते हुए लिखा-‘‘स्तालिन युद्ध के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर न तो खुद ही निर्णय लेते थे और न वे ऐसा चाहते थे। इस संश्लिष्ट क्षेत्र में सामूहिक काम की महत्ता को वे अच्छी तरह समझते थे। वे संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञ की राय जरूर लेते थे।’’

प्रथम स्टाफ प्रमुख झुकोव ने इसे प्रमाणित किया : ‘‘जोसेफ स्तालिन ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिनके समक्ष कठिन समस्यायें नहीं उठाई जा सकती थीं, जिनके साथ विचार–विमर्श नहीं किया जा सकता था या पूरी ऊर्जा से वकालत नहीं की जा सकती थी। अगर कुछ लोगों की राय इसके विपरीत हैं तो मैं कहूंगा कि उनकी मान्यताएं गलत हैं। स्तालिन की विद्वता महान थी और स्मृति अद्भुत। उनके पास बहुत तीक्ष्ण नैसर्गिक बुद्धि था और वह अद्भुत रूप से ज्ञानी थे। वह ध्‍यान से सुनते थे, कभी–कभी प्रश्न भी पूछते, फिर जनाब देते थे। जब विचार–विमर्श समाप्त हो जाता तो वे सटीकता से निष्कर्षों को सूत्रबद्ध कर देते थे।’’

1945 में अमेरिका ने हिटलर का झण्डा उठा लिया

जर्मन, जापानी और इतालवी फासीवाद ताकतों की पराजय के तुरन्त बाद दुनिया पर, वर्चस्व कायम करने का हिटलरी स्वप्न अमेरिका ने अपना लिया और इसके लिए उसने भारी संख्या में पुराने नाजियों को अपने साथ ले लिया।

जर्मनी में अमेरिकी सेना की गर्वनर रहे राबर्ट मर्फी ने 1945 में लिखा-“जनरल पैटन वैफन एसएस की दो टुकड़ियों को फिर हथियारबंद कर अमेरिका की तीसरी सेना में शामिल करके लाल सेना के विरुद्ध भेजना चाहते थे। उसने मुझे बताया-‘हम लाल सेना को वापस रूस भेज सकते हैं। अपनी जर्मन सेनाओं के साथ हम ऐसा करने में सक्षम हैं।’” पैटन ने यह डींग हांकी थी कि वह तीस दिनों के अंदर ही मास्को पहुंच सकता है।’’ युद्ध के दौरान नाजी जनरल गेहलेन रूस में नाजी खुफिया तंत्र का प्रमुख था। मई 1945 में उसने अमेरिकियों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। समझौते के अनुसार गेहलेन को अमेरिकियों द्वारा सोवियत संघ को सौंपा जाना था, चूंकि वह उन अपराधियों की सूची में मुख्य था जिसकी सोवियत संघ को तलाश थी। लेकिन उसने खुद गुप्तचर विभाग के प्रमुख एलेन डुलेस से समझौता वार्ता की। समझौते के अनुसार गेहलेन ने सोवियत संघ के बारे में सभी गुप्त सूचनायें अमेरिका को सौंप दीं और अमेरिका के नेतृत्व में रूस में अपने पुराने खुफिया तंत्र को पुनर्जीवित कर लिया। कुछ ही समय बाद गेहलेन संघीय जर्मन गणराज्य (पश्चिमी जर्मनी) के खुफिया विभाग का पहला प्रमुख बना जहां उसने अमेरिकी आदेश के तहत साम्यवाद विरोधी वही लड़ाई जारी रखी जो उसने हिटलर के नेतृत्व में लड़ी थी।

युद्ध के दौरान अमेरिकी गुप्तचर विभाग का प्रमुख था जान लाफ्टसन, जिसकी जिम्मेदारी थी अमेरिका में आने वाले हर पूर्व नाजी पर नजर रखना। 1944 से अमेरिका की अन्य गुप्तचर सेवाएं पूर्व नाजियों के देश में लाने का हर संभव प्रयास कर रही थीं। अपनी पुस्तक में लाफ्टसन ने अनुमान लगाया है कि अमेरिका में स्थापित पूर्व नाजियों की संख्या 10,000 के आसपास थी। शीत युद्ध में जर्मन, उक्रेनी, लातवियाई और रूसी पूर्व नाजियों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। इनमें से कुछ कुख्यात नाजी अपराधी थे जो 130,000 मौतों के जिम्मेदार थे जैसे क्लौस, बार्बी, एलोइस ब्रूनर, ओटो डान बोल्शविग, आइशमान के सहयोगी आदि।

1945 से अमेरिका ने सर्वाधिक आक्रमणकारी और युद्धकारी शक्ति के रूप में हिटलर के जर्मनी का स्थान और भूमिका अपना ली।

अमेरिका ने बिना किसी सैन्य कारण के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमों का प्रयोग किया। जापानी सेना को चीन में लाल सेना ने कुचल दिया था। हिरोशिमा और नागासाकी पर बम मूलत: स्तालिन को यह दिखाने के लिए गिराये गये थे कि अमेरिका क्या कुछ कर सकता है। अंग्रेज फील्डमार्शल एलन ब्रुक ने चर्चिल की इस सोच की पुष्टि की थी कि वह सोवियत संघ के औद्योगिक केन्द्रों को नष्ट करने में सक्षम है।

ग्रीस की जनता ने एक संगठित फासीवाद विरोधी क्रान्तिकारी सशस्त्र सेना का निर्माण कर जर्मन फासीवादियों से खुद को मुक्त कर लिया। ग्रीस की मुक्ति के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने एथेंस पर कब्जा कर लिया और देशभक्तों से लड़ने के लिए नाजी जर्मनी के पुराने समर्थकों से अपना नाता जोड़ लिया।

कोरिया में, राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट ताकतों ने जापानी सेना को माओ त्से–तुङ  के चीन और सोवियत संघ की सहायता से पराजित कर दिया था।

अमेरिकी कोरिया के दक्षिणी हिस्से में जहाज से उतरे जहां फासीवाद के समर्थकों को जेल से निकाला गया और अमेरिकी दुमछल्लों की अगुवाई में दक्षिण कोरिया का गठन किया गया।

अमेरिका का 1950 में कोरिया के विरुद्ध युद्ध एक कम्युनिस्ट विरोधी आम लड़ाई का प्रस्थान बिन्दु था। एक बार कोरिया को हराने के बाद अगला लक्ष्य चीन होता। अमेरिका के आधिपत्य में चीन सोवियत संघ के विरुद्ध युद्ध के लिए मुख्य आधार बन जाता, जिस पर पश्चिम जर्मनी से भी आक्रमण किया जा सकता था।

अमेरिका के कोरिया पर आक्रमण के समय जारी सोवियत संघ का घोषणापत्र आज फिर से प्रासंगिक हो उठा है :

‘‘अगर साम्राज्यवादी तीसरा विश्व युद्ध छेड़ते हैं तो वह अलग–अलग पूंजीवादी राज्यों की ही मौत नहीं बल्कि समूचे विश्व पूंजीवाद की मौत साबित होगा।’’ कोरिया पर अमेरिकी आक्रमण के विरुद्ध विश्व शान्ति परिषद के नेतृत्व में पूरी दुनिया में जो महान आंदोलन उभरा वह इसके पहले कभी देखने में नहीं आया था।

50 करोड़ लोगों ने आम निरस्त्रीकरण और परमाणविक हथियारों पर प्रतिबंध लगाने के लिए स्टाकहोम अपील पर हस्ताक्षर किये। अमेरिकी आक्रमणकारियों ने 30 लाख कोरियाइयों की जान ली, लेकिन विजय प्रतिरोध युद्ध की ही हुई, वह प्रतिरोध युद्ध जिसका नेतृत्व कामरेड किम इल सुंग और कोरिया की वर्कर पार्टी ने किया, जिसका समर्थन समाजवादी चीन, सोवियत संघ और युद्ध के खिलाफ विश्वव्यापी अभियान ने किया। अमेरिका के सोवियत संघ चीन में समाजवादी सत्ताओं के सफाये की योजना को छोड़ना पड़ गया।

सोवियत संघ में प्रतिक्रान्ति से अमेरिकी युद्धों के विरुद्ध वैश्विक मोर्चे तक

कामरेड स्तालिन की दुखद मौत से लेकर अब तक घटनाओं और उलटफेरों से समृद्ध पचास वर्ष बीत चुके हैं। त्रात्स्की, जिनोविएव और बुखारिन के उत्तराधिकारी के रूप में खु्रश्चेव के नेतृत्व में एक संशोधनकारी समूह सत्ता पर काबिज हो गया। जिससे भ्रष्ट राजनीति और विचारधारा का पतन खुलकर सामने आ गया। समाजवाद से गहराई से जुड़ी सोवियत जनता से विश्वासघात करने के लिए कम्म्युनिस्ट ले आने का वादा किया। ब्रेझनेव के राज में असैनिक क्षेत्र पीछे छूट गया और उसमें पूंजीवादी तौर–तरीकों की घुसपैठ हो गयी। पार्टी नेतृत्व की संरचना में क्रमिक उत्तरोत्तर पतन साथ–साथ एक ऐसी समान्तर अर्थव्यवस्था का विकास हुआ जो स्पष्टत: पूंजीवाद ही था। सोवियत संघ अभी भी एक महान ताकत था जो अमेरिकी साम्राज्यवाद की सर्वाधिक आक्रमणकारी नीतियों का प्रतिरोध करने में सक्षम था। तीसरी दुनिया के क्रान्तिकारी संघर्षों ने भी साम्राज्यवाद के लिए दिक्कतें पैदा कर दीं। इनमें वियतनाम का विजयी युद्ध, अंगोला का मुक्तियुद्ध, तेल उत्पादक देशों और अन्य कच्चा माल पैदा करने वाले देशों का संघर्ष शामिल था। 1991 में सोवियत संघ धराशायी हो गया। इस पतन का बुर्जुआ वर्ग द्वारा विजयी भाव से स्वागत किया गया और उसने कम्युनिज्म और इतिहास के अंत की घोषणा कर दी।

लेकिन, इतिहास हमें द्वंद्वात्मकता की शिक्षा देता है, जैसा कोई भी प्रोफेसर नहीं पढ़ा सकता। 1989–91 में प्रतिक्रान्ति ने सोवियत संघ में एक ऐसे पूंजीवाद की बहाली की जो अपने पूर्ण विकसित माफिया के रूप में सामने आया। लेकिन साथ ही साथ उसने यह भी सिद्ध कर दिया कि पूंजीवाद का कोई भविष्य नहीं है। साम्राज्यवाद ने वादा किया था कि पूंजीवाद पूर्व सोवियत संघ में आश्चर्यजनक परिवर्तन लायेगा। वह इतिहास का अंत था।

खैर इतिहास के अंत के उपहारस्वरूप सोवियत जनता को एक ऐसी महाविपदा का सामना करना पड़ा जैसा किसी भी बड़े औद्योगिक राष्ट्र नहीं भुगता था। 1990 की तुलना में 1999 में रूस में औद्योगिक उत्पादन 41 प्रतिशत और यूक्रेन में 58 प्रतिशत नीचे गिर गया। 12 वर्षों में रूस की जनसंख्या में 1.2 करोड़ निवासी कम हो गये। प्रतिक्रान्ति के बाद से मृत्यु दर में 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई और जन्म दर में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है। आज रूस में 40 लाख बेसहारा बच्चे हैं। यह ऐसी परिस्थिति है जिसके बारे में समाजवादी शासन के दौरान सोचा भी नहीं जा सकता था। 1985 में सेकेण्डरी शिक्षा में उपस्थिति करीब 100 प्रतिशत थी जो आज 75 प्रतिशत रह गई है।

विजेता पूंजीवादी खेमे में इतिहास का अंत एक अलग ही मोड़ लेता है। भीषण आर्थिक संकट बारी–बारी से लगभग हर ‘मॉडल’ राष्ट्र में आता है। जापान, मेक्सिको, दक्षिण–पूर्वी एशिया, रूस, ब्राजील…सभी जगह मंदी छा जाती है।

आज हम वैश्विक स्तर पर भारी परिमाण में पूंजी के संकेन्द्रण को देख सकते हैं। विश्व अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को 5 से लेकर 10 बड़े बहुराष्ट्रीय निगम संचालित कर रहे हैं। वे शोषण को बढ़ाते जाते हैं, मजदूरों की संख्या को घटाते जाते हैं, और इस तरह उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि होती जाती है। यह सब बहुत ही विध्‍वंसक तरीके से पूंजीवादी व्यवस्था के मूलभूत असमाधेय अंतर्विरोधों के रूप में प्रतिबिम्बित होता है-अनियंत्रित उत्पादन क्षमता और सिकुड़ते बाजारों के बीच का अंतरविरोध।

विश्व अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख देने वाले इन संकटों से बच निकलने के लिए अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगम वही इकलौता रास्ता अपना रहे हैं, ऐसी स्थितियों में जो पूंजीवाद के सामने होता है। वे शस्त्रों के उत्पादन में तेजी से ला रहे हैं। जिससे शत्रुओं को कुचलकर उनके कच्चे माल और बाजार पर कब्जा किया जा सके। यह विश्व युद्ध के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। पिछले दो विश्व युद्ध द्वेष के कारण नहीं लड़े गये बल्कि उनका कारण साम्राज्यवादी व्यवस्था में निहित राजनीतिक और आर्थिक नियम हैं। आज अभूतपूर्व आर्थिक संकट के सामने खड़ा अमेरिका वापस 1945–1953 के दौर में लौट गया है जब उसने जर्मन नाजियों के बैनर तले अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास करके कोरिया, चीन और सोवियत संघ के विरुद्ध तीसरे विश्व युद्ध की तैयारी करनी शुरू कर दी थी।

आज हालांकि विश्व की जनता बीसवीं शताब्दी की महान क्रान्तिकारी विजयों और अवसरवाद के कारण हुई पराजयों से काफी कुछ सीख चुकी है।

2003 में विश्व की जनता के नंबर एक शत्रु अमेरिकी वर्चस्ववाद के खिलाफ अभूतपूर्व विश्व मोर्चा खड़ा हो चुका है। यह 1941 में बर्लिन–टोक्यो–रोम की फासीवादी धुरी के मुकाबले ज्यादा ताकतवर, बड़ा और ज्यादा अंतरराष्ट्रीय चरित्र का है।

आज कामरेड स्तालिन की मृत्यु की 50वीं बरसी पर वे सभी राजनीतिक बौने जो अमेरिकी बुर्जुआ वर्ग के टुकड़ों पर पलते हैं, 1941-1953 के क्रान्तिकारियों पर जहर उगल सकते हैं। लेकिन इससे बुश के फासीवाद और हजार सालों तक चलने का मंसूबा पालने वाली अमेरिकी हिटलरशाही की स्थापना के लिए छेड़े जाने वाले विश्वयुद्ध की उन्मादी योजनाओं के खिलाफ युद्ध विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलनों को उठ खड़े होने से नहीं रोका जा सकता जिनका इतिहास में कोई सानी नहीं होगा।

साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के खिलाफ करोड़ों आन्दोलनकारियों को संघर्ष के अनुभव और बीसवीं सदी के क्रान्तिकारी इतिहास से निश्चय ही दिशानिर्देश प्राप्त होगा।

1932 और 1953 के बीच कामरेड स्तालिन द्वारा फासीवादी ताकतों ओर अमेरिकी वर्चस्ववाद के खिलाफ विकसित की गयी रणनीति और रणकौशल उन सभी के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण सन्दर्भों का काम कर सकते हैं जो शान्ति, स्वतंत्रता, नियोजित और सन्तुलित विकास और समाजवाद की विजय के लिए कटिबद्ध हैं।

अनु– अभिषेक (‘ललकार’ से साभार)

दायित्वबोध, जुलाई-सितम्‍बर 2003

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