आपातकाल के कुछ अनुत्तरित यक्ष-प्रश्न और हमारा समय

आपातकाल के कुछ अनुत्तरित यक्ष-प्रश्न और हमारा समय

  • सम्‍पादक मण्‍डल 

पच्चीस वर्ष पूरे होने के अवसर पर, आपातकाल के काले दिनों को एक बार फिर याद किया गया। अलग-अलग राजनीतिक धाराओं के लोगों ने अलग-अलग आयोजनों में अपने-अपने ढंग से यह काम किया। पूंजीवादी मीडिया में भी काफी कुछ छपा। क्रान्तिकारी वामपंथी संगठनों और जन संगठनों ने भी इस अवसर पर कुछ सभाएं-गोष्ठियां, जुलूस-प्रदर्शन आयोजित किये और आपातकाल के अनुभवों से सीखकर हिन्दू कट्टरपंथी शक्तियों के वर्तमान फासीवादी उभार के कारगर प्रतिरोध की नीति-रणनीति तैयार करने पर बल दिया।

कट्टरपंथी हिन्दुत्व की फासीवादी लहर पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचने वाली भाजपा ने भी आपातकाल को याद करते हुए यह घोषणा की कि वह तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के अत्याचारों का सिलसिलेवार पर्दाफाश करेगी। रंग पोतकर शहीद बनने वाले संघियों को यह याद दिलाया जाना चाहिए कि उनमें से कितने लोग आपातकाल के दौरान माफीनामा लिखकर जेलों से बाहर आये थे और किस तरह तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने जेल से रिहाई और आर.एस.एस. से प्रतिबंध हटाने की शर्त पर बीस-सूत्री कार्यक्रम को समर्थन देने के लिए श्रीमती गांधी को संदेश भिजवाया था। और यह भी कि आपातकाल के कई चर्चित चेहरे, जैसे कि मेनका गांधी, ममता बनर्जी, जगमोहन आदि आज सत्ता में भाजपा के पार्टनर हैं। वैसे यह सवाल तो जार्ज फर्नाण्डीस से भी पूछा जा सकता है और एक दूसरे स्तर पर वी.पी. सिंह से भी। आज वी.पी. सिंह दिल्ली के झुग्गी-झोंपड़ी वासियों के मसीहा बने फिर रहे हैं, पर इसी जगमोहन की रहनुमाई में आपातकाल के दौरान जब जामा मस्जिद क्षेत्र के गरीबों पर बुलडोजर चला था, तब वे एक निहायत वफादार कांग्रेसी थे और आपरेशन ब्लू स्टार के समय भी वे कांग्रेस में ही थे। बहरहाल, यह चर्चा बेमानी है क्योंकि बुर्जुआ राजनीति का कोई भी पैंतरापलट या कायाकल्प आज किसी को चौंकाता नहीं।

जिन सर्वोदयियों-गांधीवादियों-समाजवादियों और बुर्जुआ दलों ने तथा जिन चुनावी वामपंथियों ने (भाकपा को छोड़कर, जो आपातकाल का समर्थन कर रही थी) आपातकाल का विरोध किया था, उनकी राजनीति का चरित्र आज साफ हो चुका है। मौजूदा दौर में फासीवादी उभार ने जो नई चुनौती पेश की है, उसके रस्मी और दन्त-नखहीन विरोध से आगे इनमें से कोई नहीं जाने वाला। फासीवादी शक्तियों के विरुद्ध सांस्कृतिक-वैचारिक मोर्चे की महत्ता निर्विवाद है और बुर्जुआ संसदीय राजनीति के प्लेटफार्मों के रणकौशलात्मक (टैक्टिकल) इस्तेमाल से या मध्यमार्गी, सुधारवादी निम्न-बुर्जुआ शक्तियों के साथ मोर्चा बनाने की जरूरत से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन सबसे बुनियादी बात यह है कि व्यापक मेहनतकश आबादी को गोलबन्द किये बगैर फासीवाद की नई चुनौतियों का कारगर जवाब नहीं दिया जा सकता। जनता के राजनीतिक संघर्षों को तिलांजलि देकर संसद में बैठा हुआ और राज्यों में सरकार चलाने वाला परम्परागत संसदीय वाम तो आज मजदूरों के आर्थिक हितों और न्यूनतम अधिकारों की भी हिफाजत नहीं कर पा रहा है। फिर उससे रस्मी कवायदों से अधिक कुछ की उम्मीद करना वैसे भी बेकार है। इस मायने में अपेक्षाएं और उम्मीदें, फिर भी, गतिरोध और बिखराव की तमाम दुरवस्था के बावजूद, क्रान्तिकारी वाम की शक्तियों से ही की जा सकती हैं, और उन्हीं से की भी जानी चाहिए।

इस सन्दर्भ में, आज की स्थितियों की जमीन पर खड़े होकर, पश्चदृष्टि से आपातकाल को देखना और समाहार करना तथा आने वाले समय के लिए जरूरी सबक निकालना क्रान्तिकारी वाम धारा के लिए बहुत जरूरी है।

साथ ही, आपातकाल के ऐतिहासिक मूल्यांकन का सवाल पूरे भारतीय पूंजीवादी जनतंत्र के चरित्र और विकास-प्रक्रिया से जुड़ा है, जिसकी एक सुसंगत समझ हासिल किये बिना हिन्दू कट्टरपंथी फासीवादी उभार की परिघटना को भी सही ढंग से नहीं समझा जा सकता।

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आपातकाल समकालीन भारतीय इतिहास की कोई अप्रत्याशित या अनपेक्षित घटना या परिघटना कदापि नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि इसके कारण इन्दिरा गांधी के व्यक्तित्व में या कांग्रेस के शासन में निहित थे। इन्दिरा गांधी के चुनाव को उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित कर दिये जाने या जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहे देशव्यापी आन्दोलन जैसी कुछ महत्वपूर्ण तात्कालिक घटनाओं में ही इसका कारण खोजना भी बेमानी होगा। इस घटना को भारतीय पूंजीवादी जनवाद की विकास-प्रक्रिया की एक कड़ी या मुकाम के रूप में देख-समझकर ही सही नतीजों तक पहुंचा जा सकता है और जरूरी सबक हासिल किये जा सकते हैं।

साठ के दशक के उत्तरार्द्ध से ही भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था का जो संकट गहराता जा रहा था, वह 1974.75 तक विस्फोटक रूप ले चुका था। व्यापक जन असंतोष उभारों-आन्दोलनों के रूप में लगातार यहां-वहां फूटते हुए 1974 तक देशव्यापी बन चुका था। संकट ने शासक वर्गों के बीच के अन्तरविरोधों-टकरावों को भी तीखा कर दिया था। तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी ने इन्हीं संकटों से निजात पाने के लिए, संविधान के ही प्रावधान का इस्तेमाल करते हुए जून, 1975 में आन्तरिक आपातकाल लागू कर दिया। जनता के अति सीमित जनवादी अधिकार भी छीन लिये गये और निरंकुश स्वेच्छाचारी दमनतंत्र स्थापित कर दिया गया जो उन्नीस महीनों तक जारी रहा।

आपातकाल का आतंक-राज्य खुले तौर पर और अचानक कायम किया गया था। जनता के जीने के बुनियादी अधिकार तक को घोषित तौर पर स्थगित कर दिया गया था। आज यह काम, अघोषित तौर पर, किश्तों में और शातिराने ढंग से किया जा रहा है। भाजपा-गठबंधन के सत्तासीन होने के एक दशक पहले से ही यह प्रक्रिया जारी रही है। आडवाणी की रथयात्रा के समय से लेकर अबतक, हिन्दू कट्टरपंथ की संघ परिवार-प्रणीत फासीवादी लहर ने व्यापक आम जनता पर जो कहर बरपा किया है, वह आपातकालीन सर्वसत्तावादी शासन के दमन-चक्र से किसी मायने में कमतर नहीं ठहराया जा सकता। फासीवादी उभार के वर्तमान दौर की दो बातें अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। पहली यह कि भाजपा गठबंधन सत्ता में रहे या न रहे, भारतीय समाज के सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में संघ परिवार और इस तरह की अन्य फासीवादी शक्तियों की मौजूदगी बनी रहेगी, क्योंकि उदारीकरण-निजीकरण के मौजूदा जारी दौर के स्वाभाविक परिणाम के रूप में संभावित मेहनतकश अवाम की प्रतिरोधात्मक एकता को तोड़ने के लिए आज बड़े पूंजीपति वर्ग का बहुलांश और साम्राज्यवादी शक्तियां ‘‘नियंत्रित’’ फासीवाद की लगातार मौजूदगी की पक्षधर हैं। वे उसे जंजीर से बंधे शिकारी कुत्ते की तरह मजदूर वर्ग और व्यापक जनता के खिलाफ लगातार तैनात रखना चाहती हैं।

दूसरी बात, जो और अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह कि राष्ट्रीय आन्दोलन और स्वातंत्रयोत्तर काल में (विकलांग और बाधित ही सही) पूंजीवादी विकास के लगभग ढाई-तीन दशकों की सापेक्षिक गतिशीलता और फिर ठहराव के एक अन्तराल के बाद पिछले दशक में भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था के ढांचागत संकट का एक नया दौर शुरू हो चुका है। कहना नहीं होगा कि यह संकट विश्व-पूंजीवाद के मौजूदा अभूतपूर्व ढांचागत संकट का ही एक अंग और प्रतिफल है। भूमण्डलीकरण की नीतियां विश्व-पूंजीवाद के संकट का ज्यादा से ज्यादा बोझ गरीब देशों में स्थानान्तरित कर रही हैं। आर्थिक तौर पर, भारत जैसे इन देशों में पूंजीवादीकरण की प्रक्रिया आज भी जारी है, पर देशी-विदेशी पूंजी की ‘‘अतिलाभ’’ निचोड़ने की हवस और परजीवी वित्तीय पूंजी के निर्णायक, सम्पूर्ण वर्चस्व ने इन देशों की पूरी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक अधिरचना के फासिस्टीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी है। भारतीय पूंजीवाद का सर्वग्रासी संकट आज इस स्थिति में पहुंच चुका है कि इसके दबाव से भारतीय पूंजीवादी जनवाद के सीमान्तों की बाड़ेबन्दी चरमरा रही है, पूंजीवादी राज्यसत्ता अत्यन्त व्यवस्थित ढंग से, विश्व पूंजी के बौद्धिक चाकरों और देशी पूंजीवादी सिद्धान्तकारों की देखरेख में सर्वसत्तावादी चरित्र अपनाती जा रही है तथा संविधान और बुर्जुआ जनवाद की अन्य संस्थाएं महज खोखल में तब्दील होती जा रही हैं। आधी सदी की उम्र पार करके भारत का (जन्मना रुग्ण और विकलांग) बुर्जुआ जनवाद क्षरित-स्खलित होकर बुर्जुआ सर्वसत्तावाद के एक नये दौर में प्रविष्ट हो रहा है। यह पूरे शासक वर्ग की विवशता है। यही उसके सामने एकमात्र विकल्प है। उसने अपनी आवश्यकता और बाध्यता के रूप में निर्बंध बाजारीकरण का जो मार्ग चुना है, उसके लिए एक निरंकुश सत्ता-तंत्र अनिवार्य होगा। और यह स्वाभाविक ही है कि इसके गठन और ‘ट्रायल’ की जिम्मेदारी आज मुख्यतः भाजपा के कंधों पर है, जो क्लासिकी अर्थों में फासिस्ट संगठन आर.एस.एस. की संसदीय राजनीतिक शाखा है और जो भारतीय राजनीति में गत आधी सदी से (पहले जनसंघ के रूप में) सक्रिय उपस्थिति बनाये हुए है। धार्मिक कट्टरपंथी उभार का, पूरी दुनिया, और हमारे देश के स्तर पर आर्थिक कट्टरपंथ के उभार से बुनियादी रिश्ता है। भारत में हिन्दुत्ववादी धार्मिक कट्टरपंथ हमेशा आर्थिक कट्टरपंथ के लिए उपयोगी भूमिका निभाये या न निभाये, आज वह इसके लिए उपयुक्त राजनीतिक ढांचा खड़ा करने तथा सामाजिक आधार तैयार करने में अहम भूमिका निभा रहा है। कल यदि भाजपा शासन में न भी रहे, तो भी राज्यतंत्र के व्यवस्थित फासिस्टीकरण की प्रक्रिया रुकने वाली नहीं है। शासन चाहे बुर्जुआ वर्ग की किसी भी पार्टी या गठबंधन के हाथों में हो, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों पर अमल जारी रहेगा और इसके लिए सत्तातंत्र का ज्यादा से ज्यादा निरंकुश सर्वसत्तावादी होते जाना भी अनिवार्य होगा। इसलिए, हमारी यह स्पष्ट मान्यता है कि भले ही क्लासिकी अर्थों में फासिस्ट चरित्र वाली अग्रणी और प्रतिनिधि पार्टी भाजपा है, लेकिन आने वाले दिनों में फासिस्ट निरंकुशशाही का खतरा हर उस बुर्जुआ पार्टी की ओर से हो सकता है, जिसे सत्तासीन होने का अवसर प्राप्त हो।

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आज पीछे मुड़कर देखने पर यह लगता है कि भारत में पूंजीवादी जनवाद के अमल की आधी सदी के दौरान उन्नीस महीने का आपातकाल एक अल्पकालिक विचलन था, जिससे भारतीय शासक वर्ग, यदि अनुभवी होता, या शासन-सूत्र यदि उसके अधिक परिपक्व एवं कुशल प्रतिनिधियों के हाथों में होता, तो बचा भी जा सकता था। उन्नीस महीने बाद संसदीय चुनाव हुए और बुर्जुआ जनवाद बहाल हो गया, इसीलिए कि ऐसा उस समय तक सम्भव था। बुर्जुआ व्यवस्था में इसके लिए अभी गुंजाइश बची हुई थी।

आज समाज में फासीवादी शक्तियां अपने सामाजिक आधार को जिस व्यवस्थित ढंग से मजबूत बना रही हैं ओर जिस व्यवस्थित ढंग से बुर्जुआ राज्यसत्ता का फासिस्टीकरण हो रहा है, उसका कारण यह है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक धरातल पर भारतीय पूंजीवाद आज जिस प्रक्रिया से गुजर रहा है, वह अनुत्क्रमणीय (इर्रिवर्सिबल) है। इसे पलटा नहीं जा सकता। व्यापक जनउभार के खतरों के बावजूद जो ढांचागत संकट भारतीय पूंजीपति वर्ग को निर्बाध उदारीकरण-निजीकरण की नीतियां अपनाने के लिए विवश कर रहा है, वही पूंजीवादी जनवाद के विरूपण-क्षरण-विघटन का भी बुनियादी कारण है।

विश्व-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो पूंजीवादी जनवाद का क्षरण एक भूमण्डलीय प्रवृत्ति या परिघटना प्रतीत होती है जो तीसरी दुनिया के देशों में यदि एकदम स्पष्ट है, तो तमाम जनवादी विभ्रमों, भ्रामक प्रतीतियों और बहुतेरी बुर्जुआ जनवादी संस्थाओं की मौजूदगी के बावजूद विकसित पूंजीवादी देशों में भी व्यापक और सूक्ष्म धरातल पर इसकी शिनाख्त की जा सकती है। निस्सन्देह, इसका सम्बन्ध विश्व पूंजीवाद के ढांचागत संकट से है। साथ ही, विश्व-स्तर पर परजीवी, अनुत्पादक वित्तीय पूंजी का वर्चस्व और विशेषकर सट्टा पूंजी का प्रसार आज जिस रूप में सामने आया है, वह सर्वसत्तावादी, निरंकुश, फासिस्ट प्रवृत्तियों के फलने-फूलने के लिए अनुकूल उपजाऊ जमीन का काम कर रहा है।

विश्व-पूंजीवाद के मौजूदा ढांचागत संकट के विगत लगभग चौथाई दशक से जारी लम्बे दौर को पूंजीवादी जनवाद के क्षरण-विघटन की प्रक्रिया के साथ जोड़कर देखने पर, यह स्पष्ट हो जाता है कि पूंजीवाद-विरोधी नई, फैसलाकुन क्रान्तियों की वस्तुगत जमीन नई सदी में तेजी से तैयार हो रही है। मानवता के सामने सिर्फ दो ही भविष्य हैं – या तो समाजवाद या फिर बर्बरता-रोजा लक्जेमबुर्ग की यह उक्ति आज नये निहितार्थों के साथ उद्घाटित हो रही है और नये सन्दर्भों से सम्पुष्ट हो रही है।

बहरहाल, भारतीय सन्दर्भों की ओर वापस लौटें। भारतीय संसदीय जनवाद आज पराभव की जिस प्रक्रिया से गुजर रहा है, उसे आम नागरिक भी लगभग अनुत्क्रमणीय मानते हैं। आजादी के पच्चीस-तीस वर्षों बाद तक, लगभग आपातकाल के जमाने तक, बुर्जुआ राष्ट्रवाद और जनवाद की ऐतिहासिक कथा को एक आम भारतीय नागरिक खण्डित नायकत्व और पराभूत गौरव की त्रासद गाथा के रूप में देखता था। पर आज उसे यह घृणित पतनशीलता की काली किताब से अधिक कुछ नहीं लगता। तब जयप्रकाश नारायण और उनकी ‘‘सम्पूर्ण क्रान्ति’’ के बैनर तले किसिम-किसिम के गैर कांग्रेसी दलों-धड़ों की एकजुटता, चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही, गांधीवादी यूटोपिया के अमल में आने या पचास के दशक के नेहरू काल की गतिशीलता की वापसी की भ्रामक आशाएं जगा सकती थी। आज यह कोई सोच भी नहीं सकता। मौजूदा ढांचे से आम जनता में जो नाउम्मीदी पैदा हुई है, उसी में भविष्य के लिए नई उम्मीदें छिपी हुई हैं।

आपातकाल लागू करने के प्रश्न पर 1975 में शासक वर्गों के बीच, उनके राजनीतिक दलों के बीच या उनके सिद्धान्तकारों-सलाहकारों के बीच-किसी भी धरातल पर, आम सहमति नहीं थी। 1947 से ही भारतीय पूंजीपति वर्ग की जो पार्टी केन्द्र में सत्तारूढ़ थी, उसके सामने चौतरफा संकट इस विस्फोटक रूप में पहली बार सामने आया था। यह करीब एक दशक पुराना आर्थिक संकट था जो ‘‘हरित क्रान्ति’’ नामधारी कृषि के पूंजीवादी विकास के उपक्रमों, बैंकों के राष्ट्रीकरण के ‘‘समाजवादी’’ फैसले द्वारा राजकीय इजारेदार पूंजीवाद को मजबूत बनाने और ‘‘गरीबी हटाओ’’ जैसे लोकरंजक नारे के बावजूद, एक राजनीतिक संकट में रूपान्तरित हो गया। एक स्पष्ट बहुमत वाली सरकार के विरुद्ध व्यापक जनअसंतोष का यह अपने ढंग का पहला देशव्यापी विस्फोट था जिसने तत्कालीन सरकार को हिला दिया। श्रीमती गांधी और सत्तारूढ़ कांग्रेस का बड़ा हिस्सा इसे आम तौर पर संसदीय जनतंत्र के लिए, और खास तौर पर कांग्रेस के शासन एवं श्रीमती गांधी के नेतृत्व के लिए एक खतरे के रूप में देख रहा था जबकि जयप्रकाश नारायण और अन्य घुटे हुए बुर्जुआ राजनीतिज्ञ इसे पूरी व्यवस्था के लिए एक चेतावनी एवं चुनौती के रूप में देख रहे थे और इसके समाधान के तौर पर भारतीय पूंजीवादी जनवाद के पुनःसंस्कार की योजनाएं प्रस्तुत कर रहे थे। ऐसा जोर-शोर से करते हुए वे व्यापक जनान्दोलन की पहलकदमी और नेतृत्व अपने हाथों में केन्द्रित कर रहे थे और क्रान्तिकारी सम्भावनाओं को कुशलतापूर्वक विघटित करने का काम कर रहे थे। इसी तनाव की परिणति आपातकाल के रूप में सामने आई जिसने भारतीय राज्यसत्ता, भारतीय संविधान और भारतीय पूंजीवादी जनवाद के चरित्र और सीमाओं को एकबारगी उजागर कर दिया।

क्रान्तिकारी शक्तियों को जरूरी शिक्षा और सोचने की नई दिशा देने के साथ ही, आपातकाल ने शासकवर्ग को भी शासन चलाने की जरूरी शिक्षाओं से लैस किया। आपातकाल बुनियादी तौर पर व्यवस्था के आर्थिक-राजनीतिक संकट की उपज था, पर अनुभव ने भारतीय पूंजीपति वर्ग को सिखाया कि पूंजीवादी जनवाद का स्थगन ही उस संकट से निपटने का एकमात्र रास्ता नहीं था। पूंजीवादी संसदीय राजनीति के खेल में कभी-कभी ऐसे विचलन यूं भी आते रहते हैं जब सबकुछ वैसे नहीं चलता जैसे शासक वर्ग चाहते हैं। ऐसा विशेषकर संकटों के दौर में होता है जब विभिन्न अन्तरविरोधी शक्तियां विभिन्न धरातलों पर परस्पर संघात करने लगती हैं, शासक वर्गों के आपसी अन्तरविरोध और बुर्जुआ नीति-निर्माताओं के मतवैभिन्य उग्र हो जाते हैं तथा कुछ समय के लिए सत्तारूढ़ पार्टी, उसका कोई धड़ा या व्यक्ति वर्ग से स्वतंत्र-स्वायत्त सा आचरण करता प्रतीत होने लगते हैं (जबकि वस्तुतः ऐसा होता नहीं, शासक वर्ग के तीखे अन्दरूनी मतभेदों के चलते सत्तारूढ़ दल की भूमिका कुछ समय के लिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, पर उस समय भी उसके फैसलों के पीछे शासक वर्ग के एक हिस्से की ताकत काम कर रही होती है)।

आपातकाल के इतिहास को आज मूलतः इसी रूप में देखा जा सकता है, हालांकि कुछ अन्य विशिष्ट और गौण कारकों की भूमिका से इन्कार कतई नहीं किया जा सकता।

पिछले दस वर्षों से भी कुछ अधिक समय के दौरान जो देशव्यापी फासीवादी उभार हिन्दूवादी कट्टरपंथ के रूप में सामने आया है, उसकी चुनौतियां आपातकाल से अधिक खतरनाक हैं। यह शासक वर्ग या उसकी सत्तारूढ़ पार्टी के सामने सहसा आ खड़े हुए किसी राजनीतिक संकट या आर्थिक संकट के किसी सुनिश्चित चक्र के भंवर से निपटने के लिए अपनाया गया फौरी समाधान नहीं है। आपातकाल में इन्दिरा गांधी के सामने फिर भी यह सवाल था (और इसके लिए शासक वर्ग का दबाव भी था) कि आपातकाल को ज्यादा से ज्यादा ‘‘विधिसम्मत’’ और ‘‘अपरिहार्य’’ कैसे सिद्ध किया जाये तथा स्थिति नियंत्रण में आते ही किस प्रकार स्थगित संसदीय चुनाव सम्पन्न कराकर पूंजीवादी जनवाद को फिर से बहाल किया जाये। सबसे बड़ी बात यह थी कि पूंजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा और पूंजीवादी राजनीतिज्ञों का बड़ा हिस्सा ऐसा चाहता था, क्योंकि उसे विश्वास था, और इस विश्वास के पर्याप्त कारण थे, कि भारत में बुर्जुआ अधिनायकत्व अभी (सीमित) बुर्जुआ जनवाद के कार्यकारी-विधायी ढांचे के माध्यम से लागू किया जा सकता था।

आपातकाल लागू करने के लिए भारतीय संविधान में कुख्यात 42वां संशोधन करना पड़ा था, जिसका मतलब वस्तुतः संविधान को ही उठाकर ताक पर रख देना था। आज सत्ता का फासिस्टीकरण एकदम व्यवस्थित ‘‘संविधान सम्मत’’ ढंग से हो रहा है। और फासिस्टीकरण सिर्फ सत्ता का ही नहीं, पूरे सामाजिक ताने-बाने का हो रहा है। सवाल सिर्फ तरह-तरह के नये-पुराने काले कानूनों, जनान्दोलनों के बर्बर दमन, छापों, फर्जी मुठभेड़ों और हिरासत में ‘टार्चर’ आदि के जरिये कायम पुलिस-राज जैसी स्थिति, हड़ताल पर प्रतिबंध, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की जनता के लिए बर्बर सैनिक शासन जैसी दमनकारी स्थिति और प्रतिवर्ष सैकड़ों की तादाद में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की हत्या तथा हजारों की गिरफ्तारी का ही नहीं है। शिक्षा, संस्कृति, न्याय-व्यवस्था-इन सबका व्यवस्थित ढंग से फासिस्टीकरण किया जा रहा है। चाहे नया श्रम कानून हो या नई शिक्षा नीति, चाहे कृषि नीति हो या आयात-निर्यात नीति-हर मायने में कल्याणकारी राज्य के बुर्जुआ जनवादी ढकोसले को तिलांजलि दी जा चुकी है और सब कुछ बाजार की शक्तियों के निर्द्वन्द्व-निर्बाध आखेट के लिए मुक्त किया जा रहा है, काफी हद तक किया जा चुका है। बाजार-कट्टरपंथ (मार्केट-फण्डामेण्टलिज्म) का यह पुनरुत्थान एक भूमण्डलीय परिघटना है, जो भूमण्डलीय स्तर पर पूंजीवादी जनवाद के क्षरण-स्खलन को सीमान्तों के निकट पहुंचा रहा है और राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक दायरों में धार्मिक कट्टरपंथी, पुनरुत्थानवादी और विविधरूपा फासिस्ट धाराओं-प्रवृत्तियों-रुझानों की नर्सरी का काम कर रहा है। आज फासीवादी उभार का प्रश्न जिस रूप में हमारे सामने है, वह वस्तुतः, विश्व स्तर पर, और भारत में, पूंजीवादी जनवाद के अनिवार्य ऐतिहासिक पराभव का प्रश्न है और उसकी नियति एवं भवितव्य का प्रश्न है। यह प्रश्न आर्थिक नवउपनिवेशवाद के वर्तमान विश्व-ऐतिहासिक दौर की बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं की सुसंगत समझ के साथ जुड़ा हुआ है, जब एक बार फिर पूंजी और श्रम एकदम आमने-सामने खड़े हैं।

इसी परिप्रेक्ष्य में हमारी इस स्थापना को समझा जा सकता है कि प्रश्न भाजपा-गठबंधन के सत्तारूढ़ होने और संघ परिवारी फासिस्ट गुण्डों के सड़कों पर कायम आतंक राज का तो है ही, पर इससे भी अधिक दूरगामी महत्व का प्रश्न यह है कि उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों पर अमल और उसकी विस्फोटक सामाजिक परिणतियों से निपटने के लिए एक फासिस्ट किस्म की राज्यसत्ता जरूरी है और भारतीय राजनीति की क्लासिकी ढंग की फासिस्ट पार्टी के नेतृत्व में यह रूपान्तरण कुशलता और तीव्रता के साथ क्रियान्वित हो रहा है। भाजपा सत्ता में न भी रहे, तो भी राज्यसत्ता के बढ़ते निरंकुशीकरण और सर्वसत्तावादीकरण की प्रक्रिया जारी रहेगी। जिस तरह वर्तमान आर्थिक नीतियां मौजूदा पूंजीवादी दायरे के भीतर अनुत्क्रमणीय (इर्रिवर्सिबल) हैं, उसीतरह राज्यसत्ता के फासिस्टीकरण की प्रक्रिया भी अनुत्क्रमणीय है। और प्रश्न सिर्फ राज्यसत्ता के क्रमिक फासिस्टीकरण का ही नहीं है, हमारे समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने से रहे-सहे जनवादी मूल्यों का भी तेजी से क्षरण हुआ है और तेजी से फले-फूले, बाजार-पूजक, माल-प्रेतपूजा (कमोडिटी फेटिशिज्म) के अन्धानुगामी, चरम परजीवी मध्यवर्ग के विभिन्न संस्तरों में फासीवाद ने अपना सामाजिक आधार तेजी से और बड़े पैमाने पर फैलाया और मजबूत बनाया है। आजादी के बाद के दशकों में जनसंघ जैसी फासिस्ट पार्टी का आधार शहरी व्यापारियों में और स्वतंत्र पार्टी जैसी अनुदारवादी पश्चिमपरस्त पार्टी का आधार परम्परागत अभिजातों-भूस्वामियों और पश्चिमपरस्त कूपमण्डूक बुद्धिजीवियों के बीच था। आज भाजपा का सामाजिक आधार भ्रष्ट नौकरशाहों-टेक्नोक्रैटों, स्वतंत्र पेशा बुद्धिजीवियों के अतिरिक्त औसत दर्जे के आम नौकरीपेशा लोगों में विस्तारित हुआ है और गांवों के कुलकों और नये अमीरों में भी उसने अपनी पैठ बढ़ाई है। सफेदपोश मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा संशोधनवादियों का साथ छोड़कर फासिस्टों की ट्रेड यूनियनों के झण्डे के नीचे जा खड़ा हुआ है और आम मध्यवर्गीय घरों के पीले बीमार चेहरों वाले, बेरोजगारी और सांस्कृतिक रुग्णता की मार झेल रहे नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा, जो क्रान्तिकारी प्रचार द्वारा मजदूरों का बगलगीर बनाया जा सकता था, आज फासिस्टों के गिरोहों का सिपाही बन रहा है।

आने वाले दिनों में भाजपा की जगह कोई भी दूसरी पार्टी सत्तारूढ़ होगी तो वर्तमान आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाते हुए वह जन असंतोष के विस्फोटों के विरुद्ध ज्यादा से ज्यादा सर्वसत्तावादी दमनतंत्र को लागू करने के लिए बाध्य होगी। दूसरी बात यह कि, भारतीय राजनीतिक पटल पर, भाजपा जैसी धार्मिक कट्टरपंथ फासिस्ट पार्टी की प्रभावी मौजूदगी आगे भी लगातार बनी रहेगी। इस धारा की इतिहास में और सामाजिक-आर्थिक संरचना में जड़ें हैं और साम्राज्यवाद और देशी पूंजीवाद के लिए आगे भी इसकी उपयोगिता लगातार बनी रहेगी।

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जब हम कहते हैं कि भारत में फासीवाद के मौजूदा उभार का सम्बन्ध मूलतः भारतीय पूंजीवाद के असाध्य ढांचागत आर्थिक संकट से है और भारतीय पूंजीवादी जनवाद के चरित्र और विकास-प्रक्रिया से है, तो इस तर्क का स्वतःविस्तार इस कार्यकारी परिणति में देखा जा सकता है कि मजदूर आन्दोलन के क्रान्तिकारीकरण के बिना और आज की परिस्थितियों की सही समझ के आधार पर एक सशक्त मजदूर-किसान संश्रय के निर्माण के बिना (यानी शहरी सर्वहारा और ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी के साथ पूंजी की मार से उजड़ते मध्यम किसानों के मध्यम संस्तरों का संयुक्त मोर्चा) फासिस्ट चुनौती का कारगर प्रतिकार कदापि नहीं किया जा सकता।

जहां तक भारतीय मध्य वर्ग, विशेषकर शहरी पढ़े-लिखे, नौकरीपेशा और स्वतंत्र पेशा तबकों का प्रश्न है, फासीवादी उभार के विरुद्ध इसकी सम्भावित भूमिका के आज वस्तुगत पुनर्मूल्यांकन की जरूरत है।

याद करें कि काफी पहले, तीस के दशक में जवाहरलाल नेहरू ने भारत के राष्ट्रवादी मध्यवर्ग, विशेषकर उच्च-मध्यवर्ग में फासीवाद के प्रसार की उर्वर जमीन की मौजूदगी को रेखांकित किया था। भारतीय मध्य वर्ग का राष्ट्रवाद अपने प्रारम्भ से ही पुनर्जागरण-प्रबोधन-प्रसूत जुझारू भौतिकवादी तर्कणा के बजाय औपनिवेशिक संरचना-प्रसूत पुनरुत्थानवाद से अभिप्रेरित था। आगे चलकर, इसका एक रैडिकल हिस्सा मध्यवर्गीय क्रान्तिकारी आन्दोलन और सर्वहारा आन्दोलन से जुड़ा, पर एक बड़ा हिस्सा ‘‘नेहरूवादी समाजवादी’’ नारों के व्यामोह में जकड़ा रहा या पुनरुत्थानवादी दुराग्रहों के साथ बुर्जुआ राष्ट्रवाद की अनुदारवादी धारा के साथ जुड़ा रहा। स्वातंत्रयोत्तर काल में ‘‘नेहरूवादी समाजवादी’’ रास्ते ने राजकीय पूंजीवाद के जिस विराट तंत्र का निर्माण किया उसमें हद दर्जे की भ्रष्ट नौकरशाही और सत्ता से नाभिनालबद्ध बुद्धिजीवियों का एक व्यापक संस्तर अस्तित्व में आया, जो प्रकृति से श्रम-विरोधी, जन-विरोधी और निरंकुश स्वेच्छाचारी था। इस मध्यवर्ग के ऊपरी हिस्से को आपातकाल की निरंकुश तानाशाही अपने हितों के लिए अत्यधिक अनुकूल प्रतीत हुई थी और इसके निचले हिस्से के बहुलांश ने भी या तो बिना किसी आपत्ति के, या क्षीण असंतोष के साथ उसे स्वीकार ही किया था। उदारीकरण के दौर में मध्यवर्ग के खाते-पीते हिस्से की भी जनवादी प्रक्रिया और संस्थाओं के प्रति रही-सही प्रतिबद्धता का तेजी से ह्रास हुआ है और निम्न-मध्य वर्ग के निराश युवाओं का एक बड़ा हिस्सा पूंजीवादी संकट के फासीवादी समाधान की ओर तेजी से आकृष्ट हुआ है। इस सन्दर्भ में पाल आर. ब्रास (द पॉलिटिक्स ऑफ इण्डिया सिंस इंडिपेंडेंस’) का यह निष्कर्ष गौरतलब है कि मध्यवर्गों को राजनीतिक लोकतंत्र का मुख्य समर्थक मानने की समझ आज बदलने की जरूरत है क्योंकि गरीब देशों में इन वर्गों की बढ़ती हुई उपभोग-सम्बन्धी मांगों को बहुसंख्यक जनता की जरूरतों की उपेक्षा करके या दमन के जरिए ही पूरा किया जा सकता है।

औसत दर्जे के मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा, सिर्फ बचत करके ही नहीं, हर तरह का भ्रष्टाचरण करके सुख-सुविधा और ऐशो-आराम के उन सभी साजो-सामानों को लपक लेना चाहता है, जिनसे बाजार उन्हें ललचा रहा है। आम मेहनतकशों की असहनीय होती जा रही जीवन-स्थितियों, उनसे अतिलाभ निचोड़ने की प्रक्रिया और उनके बढ़ते दमन से वह न सिर्फ असम्पृक्त हुआ है, बल्कि वह खुद जनान्दोलनों के मुखर विरोधी और उनके दमन के पैरोकार की भूमिका में आता चला गया है। बेशक इस मध्य वर्ग का जो बड़ा हिस्सा तबाह होकर सर्वहारा की कतारों में शामिल होता जा रहा है, वह क्रान्तिकारी सम्भावनाओं से लैस है और जो हिस्सा जैसे-तैसे जी रहा है और बेहतर जिन्दगी हासिल कर पाने में ज्यादा से ज्यादा पिछड़ते हुए क्रमशः मोहभंग का शिकार होता जा रहा है, उसे भी क्रान्तिकारी परिवर्तन की धारा प्रबलतर होते हुए आगे अपने प्रवाह में समेट लेगी। पर यहां हम इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं कि मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा पूंजीवादी विकास के पचास वर्षों के दौरान फलते-फूलते हुए, उदारीकरण के दौर तक आते-आते पूरी तरह प्रतिक्रियावादी बन चुका है और फासीवाद के सामाजिक आधार का काम कर रहा है। इस वर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज परजीवी, अनुत्पादक सट्टा-पूंजी के खेल में लिप्त है। यह आंख खोल देने वाला तथ्य है कि वर्ष 1999-2000 में आबादी के मात्र 0.5 प्रतिशत हिस्से ने सट्टा बाजार से 4,00,000 करोड़ रुपये की कमाई की जो उस पूरे कृषि क्षेत्र की आय के बराबर है, जिस पर 67 प्रतिशत जनसंख्या निर्भर है।

विडम्बना यह है कि शिक्षित मध्य वर्ग का जो हिस्सा साम्प्रदायिकता और फासीवाद का विरोध करता है, वह महानगरों के अकादमिक परिसरों, अखबारी दुनिया और सांस्कृतिक जगत तक सीमित है और वहां भी वह अल्पमत में ही है। मध्य वर्ग के इस हिस्से की धर्मनिरपेक्षता उसकी बुर्जुआ जीवन-शैली और अभिजात बौद्धिक विमर्श की चौहद्दी में कैद है। इसका फासीवाद-विरोध कुछ रस्मी प्रदर्शनों-कवायदों से आगे कभी नहीं जाता। अपने आसपास मौजूद उजरती गुलामी के महासागर में यह वर्ग भी अपनी सुख-सुविधाओं के सुरक्षित द्वीप पर रहता हुआ कभी ‘‘नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता’’ के दिनों की वापसी के लिए आहें भरता है तो कभी पश्चिमी देशों के ‘‘बुर्जुआ जनवादी विभ्रमों’’ को देख-देखकर हुलसता-ललकता है तो कभी ‘‘बाजार समाजवाद’’ या सामाजिक जनवाद के नये-नये नुस्खे-फार्मूले परसने का काम करता रहता है। मध्य वर्ग के इस हिस्से की कायर, सुविधाभोगी, नपुंसक धर्मनिरपेक्षता के एजेण्डे से आम मेहनतकश जनता का कोई जुड़ाव नहीं है और इस स्थिति का भरपूर लाभ अन्ततोगत्वा फासिस्ट ताकतों को ही मिलता है।

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि संसदीय वामपंथ के लिल्ली घोड़े पर सवार गत्ते की तलवारें भांजते ‘‘रणबांकुरे’’ साम्प्रदायिक फासीवाद-विरोधी अपनी तथाकथित प्रचारात्मक-आन्दोलनात्मक कार्रवाइयों को महानगरीय मध्यवर्ग के इसी छोटे-से हिस्से तक सीमित रखते हैं। व्यापक शहरी मेहनतकश आबादी और गांव के गरीबों को तो छोड़ ही दें, महानगरों से लेकर छोटे शहरों-कस्बों की निम्न मध्यवर्गीय युवाओं तक के सामने भी संसदीय वाममार्गी दल फासीवाद-विरोधी व्यापक जनसंघर्ष की तैयारी का कार्यक्रम तो दूर, आम दिशा तक प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। इनकी रणनीति संसद में ‘‘तीसरी ताकतों’’ के भाजपा-विरोधी गंठजोड़ की मामा-गोटी खेलने से लेकर कांग्रेस को समर्थन देने तक ही मुख्यतः सीमित है। इन अर्थवादियों और ट्रेड यूनियनवादियों ने रस्मी विरोध करते हुए आम मजदूर आबादी को उदारीकरण की नीतियों को निर्विकल्प मानने की पराजयवादी मानसिकता से लैस किया है और साथ ही बुर्जुआ सत्ता और फासीवादियों के सामने मेहनतकश आबादी को निरस्त्र करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाकर अपने को प्रारम्भिक सामाजिक जनवादियों का योग्य उत्तराधिकारी सिद्ध किया है।

यह स्थिति भी एक स्वतःप्रमाण है कि मजदूर आन्दोलन के क्रान्तिकारीकरण के बिना फासीवादी उभार की चुनौती का मुकाबला कदापि नहीं किया जा सकता। मजदूर आन्दोलन के क्रान्तिकारीकरण से हमारे दो मन्तव्य हैं। पहला, ट्रेड यूनियन आन्दोलन को अर्थवाद, सुधारवाद, ट्रेड यूनियनवाद की जकड़बन्दी से बाहर लाकर उसे क्रान्तिकारी जनदिशा देना, आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ राजनीतिक संघर्षों और क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई लगातार चलाना तथा मजदूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन की याद दिलाना। तभी मजदूर वर्ग फासीवाद के विरुद्ध लौह-दीवार की तरह खड़ा होगा, गरीब एवं मध्यम किसान आबादी को साथ लेकर अभेद्य व्यूह रचने में सफल हो सकेगा और आम मध्य वर्ग के व्यापक हिस्से को भी अपनी ओर खींच सकेगा। दूसरा, भारत में सर्वहारा वर्ग की एकीकृत पार्टी के निर्माण और गठन की प्रक्रिया को नये सिरे से आगे बढ़ाना होगा। लकीर की फकीरी करने के बजाय हमें तीन दशक पुराने गतिरोध के बुनियादी कारणों को समझना होगा और परिस्थितियों की सही वैज्ञानिक समझ के आधार पर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एकता की प्रक्रिया नये सिरे से शुरू करनी होगी।

कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन और ग्रुप क्रान्तिकारी जनदिशा की सही समझ के अभाव के कारण ट्रेड यूनियन आन्दोलन में अपनी प्रभावी पैठ बनाने और संशोधनवादियों के विरुद्ध प्रभावी मोर्चाबन्दी करने में असफल रहे हैं। प्रायः वे अलग से छोटी-मोटी यूनियनें खड़ी करके अर्थवाद के बरक्स जुझारू अर्थवाद की ही बानगी पेश करते रहे हैं। उन्हें सभी स्थापित ट्रेड यूनियनों में क्रान्तिकारी सेल-न्यूक्लियस बनाकर व्यापक मजदूर आबादी को अपने पक्ष में जीतने की लम्बी प्रक्रिया शुरू करनी होगी और ट्रेड यूनियन नौकरशाही के विरुद्ध लेनिनवादी ढंग से लम्बी, समझौताहीन लड़ाई लड़नी होगी। यह प्रक्रिया क्रान्तिकारी संगठनों के अग्रवर्ती बोल्शेविकीकरण में सहायक सिद्ध होगी और साथ ही पार्टी-गठन की जारी राजनीतिक बहस को भी नया संवेग प्रदान करेगी।

मजदूर आन्दोलन के क्रान्तिकरण का प्रश्न क्रान्तिकारी जनदिशा के अमल और क्रान्तिकारी वाम की शक्तियों की अखिल भारतीय एकजुटता से जुड़ा है। इस प्रक्रिया के द्वारा ही फासीवाद के विरुद्ध शहरी मजदूर आबादी को और उसके साथ गांव के गरीबों को और फिर गांव-शहर के आम, परेशानहाल मध्यम वर्गों को लामबन्द किया जा सकता है। यह प्रक्रिया लम्बी और चुनौतीपूर्ण है। पर यही वास्तविक और व्यावहारिक मार्ग है। यही सच है। और जो सच है, उसे स्वीकारना ही होगा।

दायित्वबोध, वर्ष 7, अंक 1, जुलाई-सितम्‍बर 2000

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