दुख के कारणों की तलाश का कवि
- मोहन थपलियाल
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (असली नाम आयगन बर्थोल्ड फ्रीडरिख ब्रेष्ट) के लिए कविता करना और नाटक लिखना दो अलग चीज़ें नहीं रहीं। अपनी कविताओं के बारे में ब्रेष्ट का कहना था कि उन्होंने अक़सर नाटक के लिए काम किया है, इसलिए हमेशा ही बोलचाल की भाषा में सोचा है। बोलचाल की इस भाषा को कविता में एक ख़ास ढंग से रखने की तकनीक को वह ‘भंगिमा’ कहते थे। प्रतीकवाद और रूमानियत को ख़त्म करने में ब्रेष्ट का ज़बरदस्त हाथ रहा और साथ ही साथ जर्मन साहित्य की कुछ पुरानी परम्पराओं का सहारा लेते हुए उन्होंने छन्द, कथाशैली, लोकगीत और मुहावरों का इस्तेमाल अपनी कविता में उतने ही सशक्त ढंग से किया, जितना कि पुराने कवियों में हाइनरिख हाइने ने। ब्रेष्ट की कविताओं में तीखी लेकिन सीधी-सादी भाषा मिलती है। आयरनी (Irony) का प्रवाह शैली को बाँधते हुए चलता है। एक ही कविता में कई उतार-चढ़ाव, असम्बद्धता या तेल और तेज़ाब की गन्ध एक साथ देखने को मिल जाती है।
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट का जन्म 10 फ़रवरी 1898 को जर्मनी के बावेरिया प्रान्त के ऑग्सबुर्ग क़स्बे में हुआ था। ऑग्सबुर्ग में इनके पिता एक पेपरमिल में प्रबन्ध निदेशक थे। माता-पिता का सम्बन्ध किसान परिवारों से था। इनके पिता एक रोमन कैथोलिक और माता लूथर मत की अनुयायी थी। बचपन में ब्रेष्ट का लालन-पालन लूथर पद्धति से ही हुआ। प्राथमिक व सेकेण्डरी स्कूल तक की शिक्षा ऑग्सबुर्ग में पूरी करने के बाद 1917 के पतझड़ में ब्रेष्ट ने म्यूनिख यूनिवर्सिटी में मेडिकल साइंस की पढ़ाई में दाखि़ला लिया। मगर डाक्टरी पढ़ने के दौरान इनका रुझान ज़्यादातर कविता और नाट्यलेखन की ओर ही बना रहा। उनकी कुछ प्रारम्भिक कविताएँ ऑग्सबुर्ग के एक अख़बार में पहले ही प्रकाशित हो चुकी थीं। प्रथम विश्वयुद्ध के अन्तिम वर्ष में ब्रेष्ट को फ़ौज से भर्ती होने का बुलावा आ गया। क्योंकि वह मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, इसलिए उन्हें अग्रिम मोर्चे पर न भेजकर सेना के चिकित्सा कोर में भर्ती कर दिया गया। पिता की सिफ़ारिश के चलते उनकी नियुक्ति ऑग्सबुर्ग के सैनिक अस्पताल में ही कर दी गयी। अस्पताल में उनकी ड्यूटी यौन रोग विभाग में लगा दी गयी थी। सेना की नौकरी ने उनके जीवन पर जो प्रभाव छोड़ा, उसकी वजह से वह जि़न्दगी-भर युद्धविरोधी या शान्तिप्रिय बने रहे। इस शान्तिकामी दर्शन का असर बाद में उनके राजनीतिक दृष्टिकोण पर भी पड़ा।
शुरू के वर्षों में ब्रेष्ट के कुछ ख़ास दोस्तों में सर्वाधिक जिगरी दोस्त पेण्टर व डिजायनर कैस्पर नेहर थे, जो अन्तिम समय तक ब्रेष्ट के घनिष्ठ सहयोगी बने रहे। ब्रेष्ट अपनी गाथा-कविताओं (Ballads) को ख़ुद लिखते थे, ख़ुद उनका संगीत तैयार करते थे और फिर इन गीतों को अपनी मित्र मण्डली के बीच ख़ुद ही गाकर सुनाया करते थे। साहित्यिक जीवन के शुरुआती दौर में लिखे गये नाटकों को भी वह दोस्तों के बीच पढ़कर सुनाया करते थे। अपना पहला नाटक ‘बाल’ (Ball) उन्होंने 1918 में लिखा। इस नाटक में एक युवा कवि की ऐसी उदात्त भावनाओं को नाट्यकथा का आधार बनाया गया है, जो जीवन के नशे में चूर होकर इतना अधिक उन्मत्त हो गया है कि तमाम सामाजिक रस्मों को तिलांजलि देकर वह आवारा और हत्यारा बन जाता है।
कैसर की जर्मनी का पतन होने के बाद ब्रेष्ट पुनः म्यूनिख चले आये। यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पर इस बार भी उनका ध्यान कम रहा और नाटकों के लेखन-मंचन की ओर ही उनकी दिलचस्पी ज़्यादा बनी रही। कुछ समय तक वह ऑग्सबुर्ग से प्रकाशित होने वाले एक वामपन्थी अख़बार – ‘देर फॉक्सविले’ (Der Volkswill) के नाट्य समीक्षक भी रहे। 1919 में ब्रेष्ट ने अपना दूसरा नाटक ‘ट्रामेल्न्न इन देर नाख्त’ (ड्रम्स इन द नाइट) मंचन के लिए लियोन फायख्तवेंगर के सुपुर्द किया। फायख्तवेंगर उन दिनों म्यूनिख स्थित ‘कामरस्पीले थियेटर’ के साहित्यिक सलाहकारों में से एक थे। बाद में उन्होंने उपन्यास लेखन में भी काफ़ी नाम कमाया। ब्रेष्ट के साथ फायख्तवेंगर की दोस्ती भी आजीवन चली। फायख्तवेंगर ने – ‘ड्रम्स इन द नाइट’ को उच्चस्तरीय नाटक करार देकर उसकी ख़ूब प्रशंसा की। 29 सितम्बर 1922 को इस नाटक का पहला मंचन हुआ और इसी के साथ एक सफल एवं सक्षम नाटककार के रूप में ब्रेष्ट को मान्यता मिलने में ज़्यादा देर नहीं लगी। मेधावी युवा प्रतिभा को दिया जाने वाला उस वर्ष का ‘क्लाइस्ट पुरस्कार’ भी इस नाट्य रचना पर ब्रेष्ट को दिया गया। नाटककार के रूप में मिली इस पहली सफलता के उल्लास में ब्रेष्ट ने उसी वर्ष नवम्बर माह में युवा अभिनेत्री मारियाने शोल्फ से शादी कर ली। ब्रेष्ट के नाटक ‘ड्रम्स इन द नाइट’ की कहानी में मार्क्सवाद का प्रभाव नहीं है। इसकी कहानी संक्षेप में इस प्रकार है: प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान युद्ध के मोर्चे से घर लौटने पर एक सिपाही देखता है कि उसकी प्रेमिका को किसी अन्य व्यक्ति ने गर्भवती बना डाला है। ऐसी स्थिति में वह सिपाही बजाय इसके कि प्रेमिका के करतब से खिन्न होकर जनवरी 1919 में स्पार्टाकिस्ट्स के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी विद्रोह में हिस्सा लेता, वह उसी प्रेमिका के साथ सुविधाभोगी जीवन बिताने पर राजी हो जाता है। इस नाटक के बाद ब्रेष्ट ने ‘इन द जंगल ऑफ़ सिटीज़’ लिखा, जिसमें कि उनका दिशाहीन नज़रिया जारी रहा। इस नाटक का पहला प्रदर्शन मार्च 1923 में म्यूनिख में हुआ था।
1924 में ब्रेष्ट बर्लिन चले आये, जो कि उस वक़्त जर्मनी की राजनीतिक और रंगमंचीय दोनों गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। बर्लिन में ब्रेष्ट ने मैक्स राइनहार्ट्स के ‘डॉयचे थियेटर’ (जर्मन थियेटर) में कुछ समय तक नाटक लेखक एवं सम्पादन सहयोगी के रूप में काम किया। बर्लिन में वह वामपन्थी कलाकार और बुद्धिजीवियों के बीच में ख़ासकर लोकप्रिय होते गये और कुछ ही समय में इस गोल के केन्द्रबिन्दु के रूप में स्थापित हो गये। 1928 में उन्होंने अपनी पहली पत्नी मारियाने शोल्फ से तलाक़ लेकर अभिनेत्री हेलने वाइगल से शादी कर ली।
ब्रेष्ट की कला की मुख्य प्रवृत्ति पूँजीवादी नज़रिये पर तीखा प्रहार करना रहा। दरअसल प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर जर्मनी की जनता बुरी तरह अपमानित और सन्त्रस्त हो चुकी थी। उस समय ब्रेष्ट के कुछ साहित्यिक मित्र ऐसे भी थे, जिनका सम्बन्ध कला एवं साहित्य के ‘दादा मूवमेण्ट’ से रहा था। स्थापित व्यवस्था के खि़लाफ़ एक नकारवादी आन्दोलन के रूप में ‘दादा मूवमेण्ट’ की शुरुआत 1916 के आसपास ज्यूरिख़ (स्विट्ज़रलैण्ड) में हुई थी और 1920 के मध्य तक इस आन्दोलन की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र पेरिस हो गया था। ‘दादा मूवमेण्ट’ के समर्थक पूँजीवादी कला मूल्यों को नेस्तनाबूद करने का बीड़ा उठाये हुए थे। पूँजीवादी मूल्यों पर तीखे प्रहार का उदाहरण ब्रेष्ट की उस दौर की लिखी ‘हाउस पाउस टीले’ (घरेलू स्रोत संग्रह) शीर्षक कविताओं में मिलता है। इन कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद एरिक बेण्टले ने 1927 में ‘मैनुअल ऑफ़ पायटी’ नाम देकर छापा था। इन कविताओं में एक युवा व्यक्ति की ऐसी भावनाएँ हैं, जो बार-बार यह महसूस करता है कि उस पर चारों तरफ़ से क़ुदरत, युद्ध, यौनाकांक्षा और मौत ने हमला बोल दिया है और इस हमले से वह ख़ुद को बेहद डरा-डरा पाता है। इसके बाद ब्रेष्ट ज्यों-ज्यों इतिहास की सुसंगत एवं वैज्ञानिक विवेचना वाले मार्क्सवादी विचारों के प्रभाव में आये, त्यों-त्यों इस अराजक नकारवाद का असर उनकी रचनाओं से अदृश्य होने लगा। आगे चलकर ब्रेष्ट ने मार्क्सवादी विचारधारा को ही वह एकमात्र उपाय माना, जिसके ज़रिये आदमी के दुखों का अन्त हो सकता है। बीसवीं सदी के तीसरे दशक के अन्तिम वर्षों में जिस व्यक्ति ने ब्रेष्ट को मार्क्सवादी विचारधारा से परिचित कराया था, उसका नाम कार्ल कोर्श (karl korsch) था, जो एक प्रखर मार्क्सवादी चिन्तक होने के साथ-साथ राइखस्टाग (जर्मन संसद) में कम्युनिस्ट सदस्य भी रह चुका था।
प्रयोगधर्मी नाटक ‘बाल’ के दौर में ब्रेष्ट अत्यधिक मस्तमौलेपन के शिकार रहे। इसके बाद कुछ समय तक उन पर फ्रांसीसी प्रतीकवादी कवि पॉल वरलीन, आर्थर रिम्बाउ, अंग्रेज़ी उपन्यासकार रुडयार्ड किपलिंग, जर्मन नाटककार ग्यार्ग (ज्यार्ज) बूखनेर और फ्रैंक वेडेकिण्ड का काफ़ी प्रभाव रहा। मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर लिखी गयी उनकी पहली रचना ‘मन इस्ट मन’ (A man is a man)) है। यह नाटक पहली बार ड्रामस्टट में सितम्बर 1926 को मंचित किया गया था। लगभग दो वर्ष बाद बर्लिन के ‘सिफबाउरदम’ थियेटर में उनके नाटक ‘ड्राइ ग्रोशेन ओपर’ (थ्री पेनी ओपेरा) का मंचन हुआ, जिसने ब्रेष्ट को आशातीत ख्याति दिलायी। इस नाटक के अत्यधिक लोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण कुर्त वाइल्स का मोहक संगीत भी था। 9 मार्च 1930 को लाइपत्सिग में एक और ओपेरा ‘राइज़ एण्ड फ़ॉल ऑफ़ द सिटी महोगनी’ का सफल मंचन हुआ। इसका संगीत भी कुर्त वाइल्स ने ही तैयार किया था।
इन नाटकों में ब्रेष्ट ने अराजकता, यौनलिप्सा, लालच और हिंसा को पूँजीवादी समाज की निरंकुशता और ख़ुदगर्जी की देन माना है। इसी क्रम में ब्रेष्ट ने और भी कई शिक्षात्मक नाटक व ओपेरा (Didactie plays-opersa) लिखे, जिनका मक़सद आम जनता को मार्क्सवाद का आत्मानुशासन और आत्मनिषेध समझाना था। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इन शिक्षात्मक नाटकों में भी ब्रेष्ट ने कलात्मकता के बेहतरीन मानदण्डों को बरकरार रखा है। ज़ाहिर है ऐसा करने में उन्होंने अपने शुरुआती लेखन की ओजस्विता और बेलाग कथन-शैली का बख़ूबी निर्वाह किया है। इस कड़ी के अन्तर्गत लिखे गये नाटकों में मार्क्सवादी आत्मानुशासन का यहाँ तक अनुपालन किया गया है कि व्यक्ति ख़ुद अपना बलिदान तक करने को राजी हो जाता है। ‘देर या जागर उण्ट देर नाइनजागर’ (ही हू सेज़ यस एण्ड ही हू सेज़ नो) नाटक भी एक सामूहिक उद्देश्य के लिए आत्मोत्सर्ग की समस्या पर केन्द्रित है। 1930 में मंचित दो नाटक ‘दी आउसनामे उण्ट दी रेगल’ (द एक्सेप्शन एण्ड द रूल) और ‘दी मासनामे’ (द मेज़र्स टेकन) भी शिक्षात्मक नाटकों में उत्तम ठहरते हैं। ‘दी मासनामे’ (हिन्दी में ‘फ़ैसला’) ब्रेष्ट के शिक्षात्मक नाटकों में उत्कृष्ट कृति मानी जाती है। इसका संगीत हंस आइसलर ने तैयार किया था। इस नाटक की कहानी में यह दिखाया गया है कि चीनी क्रान्ति के दौरान एक कम्युनिस्ट युवा क्रान्तिकारी जो पार्टी अनुशासन तोड़ डालता है, बाद में इस बात के लिए राजी हो जाता है कि उसका सफ़ाया कर दिया जाये। वह तर्क देता है कि ऐसा करने पर जिस जनसंघर्ष को उसने ख़तरे में डाला है, वह पुनः जारी रह सकता है।
इन छोटे शिक्षात्मक नाटकों के बाद ब्रेष्ट ने दो लम्बे शिक्षात्मक नाटक और लिखे। इस कड़ी में पहला लम्बा नाटक उन्होंने मैक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘द मदर’ की कथा को आधार बनाकर यही शीर्षक देकर लिखा, जिसका मंचन 12 जनवरी 1932 को हुआ। दूसरा नाटक उन्होंने ‘स्टॉकयार्डस का सेण्ट जुआन’ लिखा। इस नाटक के ज़रिये उन्होंने 1929 की भयानक आर्थिक मन्दी के कारणों का पर्दाफ़ाश – शिकागो गोश्तमण्डी के उतार-चढ़ाव के ज़रिये दिखाया था। यह नाटक जिन दिनों लिखा गया, तब तक जर्मनी की राजनीतिक स्थिति काफ़ी बदहाल हो चुकी थी, अतः इस नाटक का मंचन सम्भव नहीं हो सका। अलबत्ता काफ़ी काँट-छाँट करने के बाद 11 अप्रैल 1932 को इस नाटक का रेडियो रूपान्तरण अवश्य प्रसारित किया गया था।
30 जनवरी 1933 को जब हिटलर जर्मनी की सत्ता पर काबिज़ हुआ, तब तक यह साफ़ हो चुका था कि ब्रेष्ट अब जर्मनी में नहीं रह सकेंगे। फलस्वरूप ब्रेष्ट के जीवन में निर्वासन का लम्बा सिलसिला शुरू हुआ। सबसे पहले वह जर्मनी से निकलकर डेनमार्क आये, जहाँ फिन टापू पर सेवेण्डबोर्ग नामक क़स्बे में उन्होंने अपना ठिकाना जमाया। हिटलर के शासन के पहले वर्ष के दौरान सेवेण्डबोर्ग में रहते हुए उन्होंने जो नाटक लिखे, उनकी विषयवस्तु ज़्यादातर प्रचारात्मक थी। अतः इनका महत्व काफ़ी हद तक अल्पकालिक ही रहा। मसलन नस्लवाद पर करारा व्यंग्य के रूप में लिखित उनका नाटक ‘द राउण्ड हेड्स एण्ड द पीकहेड्स’ तथा उस दौरान हिटलर की जर्मनी में छाये खौफ़ को दर्शाने वाले छोटे-छोटे एकांकी नाटकों का संग्रह ‘फ़ीयर्स एण्ड मिज़रीज़ ऑफ़ द थर्ड राइख’। एक और नाटक उन्होंने स्पेनी गृहयुद्ध की विभीषिका पर भी लिखा, जिसका शीर्षक ‘सेनेरा कारार की रायफ़ल’ (सेनेरा कारार्स रायफ़ल) था।
मार्च 1938 में जर्मनी द्वारा आस्ट्रिया का अधिग्रहण करने के बाद ब्रेष्ट को यह महसूस होने लगा था कि अब किसी भी सूरत में युद्ध को टाला जाना सम्भव नहीं है और ऐसी परिस्थिति में भविष्य में जो कुछ होने वाला है, उसे बदलना उनके बूते के बाहर है। यह सोचकर उन्होंने अपने लेखन को गम्भीर वैचारिक दर्शन की ओर मोड़ना ही सर्वोपरि समझा और पूरे मनोयोग से इसी दिशा में जुट गये। इस प्रकार ब्रेष्ट के रचनात्मक संसार का सर्वाधिक सर्जनात्मक युग शुरू हुआ। ब्रेष्ट ने अपने शुरुआती जीवन की रचनात्मक ऊर्जा और शिक्षात्मक युग के वैचारिक अनुशासन को मिलाकर इस दौरान अपनी रचनाओं में एक गहरी काव्यरूपकता देकर उसे नवीनीकृत किया। इस दौर का सर्वाधिक उल्लेखनीय नाटक ‘द लाइफ़ ऑफ़ गैलीलियो’ है, जो एक ऐसे संसार में रह रहे प्रतिभाशाली वैज्ञानिक की साहसपूर्ण जि़म्मेदारी व्यक्त करता है, जो चारों ओर अपने को प्रतिद्वन्द्वियों से घिरा हुआ पाता है। इस दौर का दूसरा महत्वपूर्ण नाटक ‘द गुड वीमेन ऑफ़ सेजुआँ’ है। इस नाटक का कथासार यह है कि लालच पर आधारित समाज में यह क़तई सम्भव नहीं है कि वहाँ अच्छे आदमी मिल जायें। एक और नाटक ब्रेष्ट ने ‘तीस वर्षीय युद्ध’ (थर्टी इयर्स वार) की त्रासदी पर ‘मदर करेज एण्ड हर चिल्ड्रन’ नाम से लिखा। इस नाटक में ब्रेष्ट ने यह दिखाया है कि युद्ध की क्रूरताओं के लिए सीधे-सरल लोग भी दोषी होते हैं, ख़ासकर जब ऐसे लोग अपने छोटे-मोटे क्रियाकलापों की वजह से युद्ध में सहायक होकर उसे तरजीह देते हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध का ख़तरा ज्यों-ज्यों सामने आ रहा था, ब्रेष्ट को यह लगने लगा था कि अब उनका डेनमार्क में रह पाना भी सुरक्षित नहीं होगा। यह सोचकर वह अप्रैल 1939 में स्वीडन और एक वर्ष बाद फ़िनलैण्ड चले आये। फ़िनलैण्ड की पृष्ठभूमि पर उन्होंने वहाँ अपना नया नाटक – ‘मिस्टर पुन्तीला और उसका सेवक माती’ (मिस्टर पुण्टीला एण्ड हिज़ सर्वेण्ट माटी) लिखा। इस नाटक में ब्रेष्ट ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि पूँजीवादी निपुणता और मानवीय उदारता – इन दो तत्वों का सामंजस्य होना असम्भव है। इसी दौर में उन्होंने ‘द रेज़स्टिबल राइज़ ऑफ़ अर्तुरी उई’ लिखा, जो तानाशाह हिटलर के उत्थान पर एक ज़बरदस्त प्रहसन (कैरीकेचर) है। इस नाटक में हिटलर की तुलना शिकागो के गैंगस्टरों से की गयी है।
ब्रेष्ट शायद यूरोप में चारों तरफ़ मँडरा रहे युद्ध के ख़तरों से बचना चाहते थे। इसीलिए प्रतिबद्ध मार्क्सवादी विचारक और कम्युनिस्ट समर्थक होते हुए भी उन्होंने सोवियत संघ में रुकना उचित नहीं समझा, जब कि 1936 से 1939 तक मास्को से प्रकाशित होने वाली एक जर्मन साहित्यिक पत्रिका में वह बतौर सहायक सम्पादक के रूप में जुड़े रहे थे। अतः मई 1941 में अमरीकी वीसा प्राप्त होने पर वह पूरे सोवियत संघ की यात्रा करने के बाद व्लादीवोस्तक पहुँचे और वहाँ से समुद्री जहाज़ पर बैठकर अमरीका चले आये। ब्रेष्ट के अमरीका पहुँचने के कुछ ही दिन बाद जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला बोल दिया था।
अमरीका में आकर ब्रेष्ट सान्ता मोनिका (कैलीफ़ोर्निया) में रहे, लेकिन बीच-बीच में लम्बे पड़ावों पर वह न्यूयार्क भी जाते रहे। हॉलीवुड फ़िल्म इण्डस्ट्री के लिए भी उन्होंने काम करने की कोशिश की, लेकिन इस दिशा में वह ज़्यादा सफल नहीं हो सके। उन्होंने केवल एक ही पटकथा सिनेमा वालों को बेची, जिसका शीर्षक ‘हैंगमेन आल्जो दी’ (Hangman also die) था, 1942 में इस फ़िल्म का निर्देशन प्रसिद्ध निर्देशक फ्रित्स लांग ने किया था। अमरीका प्रवास में ब्रेष्ट ने अपना अन्तिम महान नाटक ‘द काकेशियन चॉक सर्किल’ पूरा किया। इस नाटक में भी नेकी (Goodnes) की समस्या का ज्वलन्त चित्रण किया गया है और यह दिखाया गया है कि एक आततायी समाज में इंसाफ़ पाने के रास्ते में क्या-क्या कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं?
हॉलीवुड में ब्रेख्त ब्रितानी अभिनेता चार्ल्स लाफ्टन से भी मिले। ‘द लाइफ़ ऑफ़ गैलीलियो’ के अंग्रेज़ी रूपान्तर पर उन्होंने लाफ्टन के साथ काम किया। लाफ्टन ने ‘गैलीलियो’ के अंग्रेज़ी संस्करण का सफल मंचन जुलाई 1947 में लास एंजलीस में किया। एक समर्थ नाटककार और कवि के बतौर अमरीका में ब्रेष्ट को काफ़ी प्रसिद्धि और मान्यता मिलने लगी थी, लेकिन इसी बीच 30 अक्टूबर 1947 को उन्हें अमरीकी विरोधी गतिविधियों की जाँच के लिए गठित मैकार्थी कमेटी के समक्ष बतौर गवाह हाजि़र होना पड़ा। यह कमेटी हॉलीवुड के सिनेमाजगत में कम्युनिस्ट समर्थकों की जाँच-पड़ताल कर रही थी। मैकार्थी कमेटी के सामने ब्रेष्ट ने अपनी हाजि़रजवाबी और तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता का अद्भुत परिचय दिया, लेकिन कुल मिलाकर यह अुनभव उन्हें बेहद नागवार लगा और उसी के अगले दिन उन्होंने अमरीका को अलविदा कहकर यूरोप के लिए प्रस्थान कर दिया।
अमरीका से लौटकर ब्रेष्ट ने सर्वप्रथम स्विट्ज़रलैण्ड में अपना ठिकाना जमाया। यहाँ रहते हुए वह उन सम्भावनाओं का पता भी लगाते रहे कि कहाँ रहकर वह अपनी विचारधारा के नाटकों का मंचन बेहतर ढंग से कर सकेंगे। इस दिशा में वह आस्ट्रिया को उपयुक्त समझते थे, क्योंकि वहाँ की भाषा भी जर्मन थी और वहाँ से वह पूर्वी और पश्चिमी दोनों जर्मन देशों के बीच आ-जा सकते थे। बीच में एक मौक़ा ऐसा भी आया जब उन्हें यह लगने लगा था कि साल्सबुर्ग महोत्सव में उन्हें कला निदेशक का पद दिया जा सकता है। फलस्वरूप उन्होंने आस्ट्रियाई नागरिकता के लिए प्रार्थनापत्र दे दिया था, परन्तु इसी बीच अक्टूबर 1948 में उन्हें ‘मदर करेज’ के मंचन के लिए पूर्वी बर्लिन आने का न्यौता मिला। पूर्वी बर्लिन में यह नाटक बेहद सफल रहा। नाटक के मंचन के बाद ब्रेष्ट पुनः 11 जनवरी 1949 को वापस ज्यूरिख़ चले आये। ज्यूरिख़ पहुँचकर उन्होंने एक बार फिर आस्ट्रिया की नागरिकता के लिए नये सिरे से दबाव डालना शुरू किया ही था कि तभी पूर्वी जर्मनी से उन्हें इस आशय का प्रस्ताव मिला कि वहाँ रहकर वह अपनी स्वयं की नाट्य मण्डली का संचालन कर सकते हैं। यह प्रस्ताव उनकी समझ में आ गया और आखि़रकार उन्होंने पूर्वी बर्लिन जाने का फ़ैसला कर लिया। यहाँ आकर वह ‘बर्लिनर इनसेम्बले’ की स्थापना में जुट गये। 12 नवम्बर 1949 को ‘पुन्तीला’ नाटक के मंचन के साथ उन्होंने विधिवत रूप से इनसेम्बले का उद्घाटन किया। पूर्वी बर्लिन में अपना काम शुरू कर चुकने के बावजूद ब्रेष्ट बराबर यह चाहते रहे कि अपने नाटकों का मंचन वह पूर्वी जर्मनी से बाहर भी करते रहें, इसलिए उन्होंने आस्ट्रियाई राष्ट्रीयता लेने की कोशिश की, जो उन्हें अप्रैल 1950 में स्वीकृत हुई। इसी के साथ उन्होंने अपने नाटकों के सर्वाधिकार भी पश्चिमी जर्मनी के प्रकाशक – ‘सुरकाम्प फेरलाग’ को दिये। इस तरह उन्होंने पूर्वी जर्मनी की बाध्यता (सेंसरशिप) से अपने को काफ़ी हद तक मुक्त कर लिया था और पश्चिम में थोड़ा-बहुत अपनी कमाई का ज़रिया भी खुला रख छोड़ा था।
पूर्वी बर्लिन में ब्रेष्ट ने अपने उन नाटकों का मंचन किया, जो उन्होंने अपने निर्वासन काल में लिखे थे। मंचन के दौरान उन्होंने अपनी विचारधारा के अनुरूप इन नाटकों में ज़रूरी संशोधन एवं संवर्द्धन भी किये। पूर्वी जर्मनी में आने से पहले 1948 में ज्यूरिख़ में रहते हुए उन्होंने अपना ‘संक्षिप्त नाट्यशास्त्र’ भी तैयार कर डाला था।
ब्रेष्ट ने अपने नाटकों के लिए जो विचारधारा प्रतिपादित की, उसे उन्होंने इपिक थियेटर (लोकनाटक) का नाम दिया। उन्होंने अभीष्ट मार्क्सवादी नाटक वही माना जो अरस्तूवादी नाटकों की उस परम्परा से अलग खड़ा हो, जिसमें यह माना जाता है कि दर्शक जो कुछ मंच पर घटित होते देख रहा है, यह मान कर देख रहा है कि वह सारा कुछ उसके सामने तत्काल घटित हो रहा है। इसके विपरीत ब्रेष्ट का यह मानना था कि यदि अतीत के नायकों – ओडीपस, किंग लीयर अथवा हेमलेट – के मनोभावों की आज के दर्शकों पर वही प्रतिक्रिया हो सकती है, जो उनके युगों में होती थी, तब मार्क्सवादी दर्शन की यह विचारधारा कि मानवीय स्वभाव स्थिर न रहकर निरन्तर बदलती परिस्थितियों में परिवर्तनशील है, ग़लत सिद्ध हो जायेगी। ब्रेष्ट ने इसीलिए यह तर्क दिया कि एक नाटक को – जो कुछ वह अपने पात्रों द्वारा मंच पर घटित होता दिखा रहा है, उससे – दर्शकों का तादात्म्य स्थापित करने की कोशिश हरगिज़ नहीं करनी चाहिए और न ही दर्शकों के दिमाग़ में पात्रों की ऐतिहासिकता का ‘सच’ घुसाने की कोशिश करनी चाहिए। बल्कि इसके विपरीत एक नाटक को ऐसी भूमिका अदा करनी चाहिए, जैसा लोकगायक की कला करती है – जिसमें कि दर्शक को बार-बार यह आगाह किया जाता है कि जो कुछ वह मंच पर घटित होते देख रहा है, वह महज़ अतीत का लेखा-जोखा है, जिसे उसे (दर्शक) अपनी पैनी निगाह के साथ कुछ फ़ासला रखकर (with detachment) देखना चाहिए। कुल मिलाकर ब्रेष्ट ने अपने इपिक थियेटर (लोकनाटक) का आधार कथनात्मक (नैरेटिव) अथवा अ-नाटकीय (अनड्रामाटिक) ही माना। इपिक थियेटर का सम्बन्ध उन्होंने सीधे-सीधे अलगाव/पृथकपन/अजनबीपन/दूरस्थता अथवा फ़ासला जैसे तत्वों से जोड़ा और इस तरह के अलगाव प्रभाव (Alienation effect) को पैदा करने के लिए उन्होंने कई तरह की विधियों का प्रयोग अपने नाटकों में किया, जिनके ज़रिये दर्शक को बार-बार यह चेताया जाता है कि उसके समक्ष मंच पर यथार्थ (रियलिटी) को किसी भ्रम (इल्यूजन) के रूप में न दिखाकर मानव स्वभाव के एक नमूने (मॉडल) के बतौर पेश किया जा रहा है। अर्थात दर्शक सिर्फ़ एक नाटक देख रहा है, कोई हक़ीक़त नहीं। वाल्टर बेंजामिन ने ब्रेष्ट के इपिक थियेटर पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि वह एक साथ दो तरह का प्रभाव दर्शक पर छोड़ता है: ब्रेष्ट जहाँ नाटकीय तत्वों को ध्वस्त करते हैं, वहाँ वह दर्शक को सोचने के लिए मजबूर करने के साथ-साथ एक अलग किस्म का हास्य पैदा करके उसे (दर्शक) तनावमुक्त भी करते हैं। बेंजामिन ब्रेष्टियन थियेटर (इपिक थियेटर) को समय के तल से फूटी हुई एक ऐसी वेगवती सतरंगी धारा मानते थे, जो कुछ क्षणों तक आकाश में मँडराती हुई फिर समय के तल पर आकर ख़त्म हो जाती है। युवा मार्क्सवादी आलोचकों में टेरी इगलटन का यह मानना है कि एन्र्स्ट ब्लाख, ग्यार्ग (ज्यार्ज) लूकाच, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, वाल्टर बेंजामिन और थियोडोर अडोर्नो में से सिर्फ़ ब्रेष्ट ही ऐसे लेखक हैं, जिनमें कामदी का तत्व मिलता है। कुछ आलोचकों ने ब्रेष्ट की रचनाओं में कामदी, विनोदप्रियता (ह्यूमर) और विचारों का एक साथ अद्भुत निचोड़ माना है। जीवन के अन्तिम वर्षों में ब्रेष्ट अपने नाटकों की विचारधारा को ‘द्वन्द्वात्मक नाटक’ (डायलेक्टिकल थियेटर) की संज्ञा देने लगे थे, लेकिन कमोबेश यह नया नाम भी ‘इपिक थियेटर’ का स्थानापन्न ही था। एक ख़ास विश्व दृष्टिकोण के ज़रिये ब्रेष्ट के नाटकों में जो रचनात्मक संश्लिष्टता पैदा हुई, उसके फलस्वरूप आधुनिक नाटक को ऐसी गहरी अन्तर्दृष्टि और चारित्रिक समृद्धता मिली, जो ब्रेष्ट से पूर्व लिखे जाने वाले तथाकथित आधुनिक नाटकों में एकदम ग़ायब थी।
1920 के आसपास जो ब्रेष्ट अपने रचना-संसार में बेहद उद्दण्ड और स्वेच्छाचारी थे, छठे दशक के पूर्वार्द्ध में वही ब्रेष्ट पूर्वी जर्मनी के समाजवादी समाज के शिखर पुरुष के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनके निर्देशन में बर्लिनर इनसेम्बले ने विश्वव्यापी ख्याति अर्जित की। सिर्फ़ उलब्रिख्त के शासनकाल (1951) में उन्हें कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उलब्रिख्त शासन ने ब्रेष्ट के एक ओपेरा – ‘द ट्रायल ऑफ़ लुकुलस’ को, जिसे उन्होंने 1940 में प्रसारित एक रेडियो नाटक के आधार पर लिखा था, कुछ मंचनों के बाद शान्तिवाद का पोषक होने का आरोप लगाकर प्रदर्शन की अनुमति देने से मना कर दिया था। 1954 में ‘बर्लिनर इनसेम्बले’ अपनी निजी इमारत – सिफबाउरडम थियेटर में चला गया, जहाँ 1928 में कभी ब्रेष्ट के नाटक ‘थ्री पेनी ओपेरा’ ने धूम मचाई थी।
मई 1955 में ब्रेष्ट को लेनिन शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिसे लेने वह मास्को गये। 27 अगस्त 1956 से बर्लिनर इनसेम्बले की टीम को लन्दन में अपने नाटकों का प्रदर्शन करने जाना था, लेकिन इससे कुछ ही दिन पहले मंगलवार 14 अगस्त 1956 को दिल का दौरा पड़ने से बीसवीं सदी के इस महान कवि-नाटककार का देहान्त हो गया।
नाटक के लिए एक अभीष्ट मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र का निर्माण करने की कोशिश में ब्रेष्ट कहाँ तक सफल हुए, इस प्रश्न पर विद्वानों में यद्यपि आज भी मतभेद क़ायम हैं, लेकिन एक समर्थ नाटककार और उससे भी बढ़कर एक सशक्त कवि के रूप में उनकी प्रतिष्ठा विश्व रंगमंच एवं कविता के फलक पर आज भी सन्देह से परे है। सामाजिक और राजनीतिक चेतना को लेखन की पहली शर्त मानते हुए ब्रेष्ट ने मार्क्सवाद के द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त को कविता में क़ायम रखा। व्यक्ति और समूह के बीच के वास्तविक तनावों को मज़बूती से पकड़ते हुए उन्होंने ख़ासकर छोटी कविताएँ ज़्यादा लिखीं। शब्दों की भरमार से कविता को बचाया और भाषा के सजीले कपड़ों को उतारते हुए नंगी और ठिठुरती हुई भाषा को समाज के निचले वर्गों तक पहुँचाया, जहाँ यह म्यान रहित भाषा कविता को हथियार की शक्ल दे सकी। दोनों बड़ी लड़ाइयों के दौरान और बाद में भी जब कि यूरोप और अमरीका के बुर्जुआ कवियों ने कविता को विलास का साधन मानते हुए उसे सिर्फ़ सुविधाभोगी, सम्पन्न और पढ़े-लिखे आदमियों की थाती समझ रखा था, ब्रेष्ट मुस्तैदी के साथ अपनी कविता में जनता के पक्षधर की हैसियत से लड़ते रहे। ब्रेष्ट की यह कविता जर्मन साहित्य के न सिर्फ़ समकालीन बल्कि किसी भी युग के साहित्य की अमूल्य धरोहर के रूप में सुरक्षित रखे जाने के योग्य है।
कला और राजनीति पर अपने विचारों को प्रकट करते हुए ब्रेष्ट ने यह स्पष्ट किया कि कला का महत्व तभी तक है, जब तक कि मनुष्य जाति का अस्तित्व बरकरार है, मनुष्य का अस्तित्व यदि समाप्त हो जाता है तो कला भी स्वयं नष्ट हो जायेगी। उनका यह भी कहना था कि बहुत सारे ख़ूबसूरत शब्दों को एक साथ रख देनेभर से वह कला नहीं बन जाती है। महज़ इसी कारण ब्रेष्ट ने अपनी कविता में एक गँवारू काव्य भाषा का संसार भी रचा और अन्त तक इस लोकभाषा के ज़बरदस्त समर्थक बने रहे।
नाटक और कविता के अलावा ‘कौयनर महाशय की कहानियों’ तथा ‘ब’ महाशय की कहानियों में ब्रेष्ट ने शब्दों की जिस क़िफ़ायतशारी का परिचय दिया है, वह भी अन्यत्र दुर्लभ है। जर्मन साहित्य के एक समीक्षक सीगफ्रीड ने ब्रेष्ट की इन छोटी कहानियों को जर्मन गद्य का रत्न कहा है। सीगफ्रीड का यह भी मानना है कि ‘‘क’ महाशय का मनपसन्द जानवर’ जैसी कहानी निश्चित रूप से ब्रेष्ट का ‘सेल्फ़ पोर्ट्रेट’ है। यानी ब्रेष्ट की नैतिकता, शिक्षाओं और बुद्धिमानी का मिलाजुला रूप। ‘क’ (कौयनर) सीरीज की कहानियों में ‘क’ महाशय या तो ब्रेष्ट स्वयं हैं, या फिर कम्युनिस्ट विचारों से लैस व्यक्ति है, जबकि ‘ब’ सीरीज में स्वयं ब्रेष्ट ही ‘ब’ हैं। ‘ब’ सीरीज के अंग्रेज़ी अनुवाद भी बहुत कम देखने को मिलते हैं।
मार्क्सवाद के प्रति ब्रेष्ट की प्रतिबद्धता ने उन्हें लिखने की गहरी आकुलता दी और साथ ही एक ऐसा सशक्त विश्व दृष्टिकोण भी दिया, जिसके ज़रिये वह दुनिया में जो कुछ घट रहा है, उसका वैज्ञानिक सर्वेक्षण-विश्लेषण साफ़-साफ़ करने में कामयाब रहे। इसी के साथ उनके भीतर एक मानवीय कवि की जो ईमानदारी और छटपटाहट थी, उसने उन्हें चरित्रों के जीवन्त सच से कभी अलग नहीं होने दिया। अपनी रचनाओं में उन्होंने महज़ दुख का बखान नहीं किया बल्कि दुख के कारणों की जाँच-पड़ताल में भी गहराई तक गये। इस प्रकार नाटक के पात्रों का चित्रण करते हुए उन्होंने एक ओर जहाँ ईमानदार नाटककार की भूमिका निभाई, वहीं दूसरी ओर इसी सत्यनिष्ठा के चलते अन्तिम दौर के नाटकों में, यद्यपि उनकी अवधारणा मार्क्सवादी पाठ (Text) के रूप में ही की गयी थी, वह मूलभूत उद्देश्यों से काफ़ी आगे निकल आये थे। एक सत्यनिष्ठ, ईमानदार और मानवीय व्यक्ति की रचनात्मक संवेदना की यह ऊँची छलाँग ही ब्रेष्ट को एक महान कवि और नाटककार के रूप में स्थापित कर गयी।
दायित्वबोध, नवम्बर 1997 – फरवरी 1998