गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों और दाता एजेंसियों का असली चरित्र
तीसरा क्षेत्र (थर्ड सेक्टर):पूंजीवाद के एक सुरक्षा-कवच के रूप में
- जोन रोयलोव्स
व्यवस्था-परिवर्तन की लड़ाई को आगे बढ़ाने की इच्छा रखने वालों को इस बात पर बारीकी से गौर करना चहिए कि वे कौन-कौन सी. चीजें हैं जो वर्तमान व्यवस्था को टिकाये हुए हैं। पूंजीवाद अगर अपनी तमाम कमजोरियों और बहादुराना प्रतिरोध संघर्षों के बावजूद धराशायी नहीं हो पा रहा है तो उसका एक कारण यह “मुनाफारहित क्षेत्र”(‘नॉन प्रॉफिट सेक्टर’) भी है। फिर भी पूंजीवाद के आलोचक इस क्षेत्र की “लोकहितैषी” पूंजी, इसके निवेश और इसके वितरण को आमतौर पर नजरअंदाज कर देते हैं। इस विषय पर किये जाने वाले अधिकांश अध्ययनों के लिए यही मुनाफारहित क्षेत्र उदारतापूर्वक अनुदान भी देता रहता है, कुछेक अनुसंधानकर्ताओं ने इस विषय पर मार्क्स और एंगेल्स द्वारा द कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो में की गयी इस टिप्पणी पर गौर भी किया हैः
बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा सामाजिक शिकायतों को दूर करने का इच्छुक बन जाता है, ताकि बुर्जुआ समाज के अस्तित्व को टिकाये रखना सुनिश्चित किया जा सके…। अर्थशास्त्री, मानवप्रेमी, मानवतावादी, मजदूर वर्ग की दशा सुधारने वाले कार्यकर्ता, खैराती संस्थाओं के संगठनकर्ता, जानवरों के प्रति निर्दयता रोकने वाली संस्थाओं के सदस्य, आत्मसंयम के दुराग्रही और भांति-भांति के ख्याली पुलाव पकाने वाले सुधारक इसी हिस्से से संबंधित होते हैं।
इस क्षेत्र के आकार और कार्यक्षेत्र के लिहाज से संयुक्त राज्य अमेरिका अपने आप में अद्वितीय है जो सालाना 400 अरब डॉलर से अधिक ही खर्च करता है। इसकी कर-मुक्त सम्पदा तो भारी रूप में बेहिसाब ही हैः जमीन, इमारतें, उनकी साज-सज्जा, और चर्चों, निजी विश्वविद्यालयों एवं स्कूलों, अजायबघरों, चिड़ियाखानों, शैक्षणिक अस्पतालों, संरक्षण ट्रस्टों, ओपेरा-गृहों आदि में किये गये निवेशों पर जरा गौर तो करें।
यह मॉडल एक शताब्दी से भी अधिक समय से सर्वत्र निर्यात किया जा रहा है। वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका का मानव-प्रेम नेटवर्क संपूर्ण “मुनाफारहित” क्षेत्रों को पूर्वी एशियाई देशों में स्थापित करने की कोशिश में लगा हुआ है। “बाइबिल साम्राज्यवाद” इसका एक आरंभिक रूप था, 1920 और 1930 के दशकों के दौरान लन्दन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में व्यापक रॉकफेलरी मिलावट के तौर पर इसका दूसरा रूप प्रकट हुआ।
कुछ को यह सब अच्छा काम कर रहे संगठनों की एक आकाशगंगा के रूप में दिखायी दे सकता है- लाखों-लाख प्रकाश दीपों के रूप में- लेकिन यह मुनाफारहित लोक भी सत्ता की ही एक व्यवस्था है जो कारपोरेट जगत के हितों की सेवा में समर्पित है।
यह मुनाफारहित क्षेत्र है क्या? संयुक्त राज्य अमेरिका में, इसके अन्तर्गत चर्च, निजी स्कूल और विश्वविद्यालय, सांस्कृतिक संस्थाएं, जनमत समूह (एडवोकेसी ग्रुप), राजनीतिक आन्दोलन, अनुसंधान संस्थान, खैराती-संस्थाएं और फाउण्डेशन शामिल हैं। इनमें से एक श्रेणी खासतौर से गौरतलब हैः इसके अन्तर्गत वे संगठन आते हैं जो इंटरनल रेवेन्यू कोर्ट के सेक्शन 501 (सी) (3) के अधीन संचालित हैं। ये परोपकारी संगठन है। जिनको प्राप्त होने वाला धन करमुक्त होता है, और इनको दान देने वाला भी दान की रकम के अनुरूप कर में रियायत प्राप्त कर लेता है। आमतौर पर मात्र ये ही ऐसे संगठन हैं जिन्हें फाउण्डेशन अनुदान प्राप्त होता है। इसके एवज में, इनकी राजनीतिक तरफदारी पर अंकुश लगा होता है और ये चुनाव अभियान में भाग नहीं ले सकते। ये शेयरधारकों को मुनाफे का वितरण भी नहीं कर सकते।
फिर भी ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में सभी के सभी अहानिकर रूप से व्यवस्था की रक्षात्मक गतिविधियों तक ही सीमित हैं, इनमें से कुछ स्वतंत्र संगठन भी हैं, लेकिन ये आमतौर पर दीन-हीन और गुमनाम ही हैं। बहरहाल, ज्यादातर संगठन आपस में और बड़े कारपोरेशनों के साथ अपनी फण्डिंग, अपनी निवेशित परिसम्पत्तियों, तकनीकी सहयोग, एक-दूसरे को अन्तर्बन्धित करने वाले निदेशालयों, तथा इण्डिपेण्डेण्ट सेक्टर और काउन्सिल ऑन फाउण्डेशन जैसे शीर्षस्थ संगठनों के मार्फत जुड़े होते हैं।1
इस मुनाफारहित क्षेत्र के व्यापार संगठन के तौर पर इण्डिपेण्डेण्ट सेक्टर की स्थापना 1980 में हुई। इसका बजट 50 लाख डॉलर का है, तथा इसकी सदस्य-संख्या 800 है (नवम्बर 1988 की स्थिति के अनुसार) जिसमें एटी एण्ड टी फाउण्डेशन, आगा खान फाउण्डेशन, अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ कम्युनिटी एंड जूनियर कालिजेज, अमेरिकन एसोसियेशन ऑफ यूनिवर्सिटी वीमेन, बी नाई बी रिथ इंटरनेशनल, बॉय स्काउट्स ऑफ अमेरिका, कोअर्स फाउण्डेशन, इन वाइरॅन मेंटल लॉ इंस्टीट्यूट, मेक्सिकन-अमेरिकन लीगल डिफेन्स एंड एड्यूकेशनल फंड, मदर्स अगेन्स्ट ड्रंक ड्राइविंग, एनए ए. सी. पी लीगल डिफेंस एंड एड्यूकेशनल फंड, नेशनल ऑड्यूबॉन सोसाइटी, सिएरा क्लब और वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फाउण्डेशन शामिल हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में कोई 1500 से अधिक ऐसे फाउण्डेशन हैं जो मुनाफाखोर कारपोरेशनों से संबद्ध हैं, और जो परम्परागत खैराती संस्थाओं एवं फाउण्डेशनों के साथ मिलकर मुनाफाखोरी के इस विशाल जहाज को चलाने का काम करते हैं।
लेकिन यह क्षेत्र पूंजीवाद के एक सुरक्षा-कवच के रूप में काम कैसे करता है?
पहली बात तो यह है कि मुनाफारहित गतिविधियां मुनाफाखोर क्षेत्र के लिए पूंजी के संकेन्द्रण और वितरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। उदाहरण के तौर पर, मुनाफारहित अस्पताल के ट्रस्टियों की परिषदों में व्यापारी, बैंकर, स्थायी परिसम्पत्तियों के विकासकर्ता, बीमा अधिकारी आदि ही हावी होते हैं। इनके द्वारा लिये जाने वाले कारोबार विस्तारीकरण के फैसले क्षेत्र विशेष की अर्थव्यवस्था में एक भारी बढ़त की गुंजाइश तो पैदा करते ही हैं, साथ ही अलग-अलग कारपोरेशनों की भी चांदी हो जाती है। इसके अतिरिक्त, फाउण्डेशन और अन्य खैराती संस्थाएं स्टॉकों और बांडो में अपनी परिसम्पत्तियों का निवेश भी करती हैं और ऐसा करके वे दूसरी संस्थाओं के निवेशकर्ताओं के साथ अपनी शक्तिमत्ता का इजहार भी करती हैं।
दूसरी बात यह है कि मुनाफारहित गतिविधियां ऐसे माल और सेवाएं मुहैया करती हैं, जिन्हें बाजार द्वारा मुहैया नहीं कराया जा सकता, मसलन बेघरों के लिए आवास से लेकर ओपेरा और बी बी सी. टीवी ड्रामा तक। इनमें से आखिर वाली चीजें अच्छी-खासी अहमियत रखती हैं, कारण कि बुद्धिजीवियों का इधर-उधर बहकाव घोर कंगाली से कहीं अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
मुनाफारहित लेकिन जरूरी गतिविधियां सरकारों द्वारा भी संचालित की जाती हैं, जैसा कि तमाम देशों में हो रहा है। लेकिन दान, संस्कृति, शिक्षा और सुधार-कार्य के निजीकरण के भी कई फायदे हैं। अगर लोकहितैषी पूंजी पर टैक्स लगाया जाता है तो इस पर राजनीतक विवाद उठ खड़ा हो जाता है। दूसरी तरफ, मुनाफारहित संगठन स्वयं-निर्मित परिषदों द्वारा संचालित होते हैं, और उनके निजी नीति निर्धारण पर कोई जनतांत्रिक दखल नहीं कर सकता। उनके स्टाफ-सदस्यों को कोई नागरिक अधिकार या सुरक्षा नहीं होती, वे मानव-प्रेम और उसकी प्रत्यक्ष आलिंगनबद्धता पर ही निर्भर होते हैं। लगभग सारे के सारे संगठन फंड के लिए कारपोरेशनों और फाउण्डेशनों का मुंह जोहते रहते हैं। छोटी-छोटी दान-राशियां या पावतियां किसी बड़े काम के लिए शायद ही पूरी पड़ जाती हैं, और उन्हें एकत्र करने में भी काफी ऊर्जा का अपव्यय हो जाता है। इसीलिए एन. ए. ए. सी. पी लीगल डिफेंस एण्ड एड्यूकेशन फंड तक को भी 1954 में ब्राउन बनाम बोर्ड ऑफ एड्यूकेशन के मामले में कानूनी कार्यवाही हेतु धन प्राप्त करने के लिए फाउण्डेशन पर भारी रूप से निर्भर होना पड़ा था।
इन मुनाफारहित कार्यवाहियों में से कुछ का संपादन तो राजनीतिक पार्टियों, यूनियनों या सामाजिक आंदोलनों द्वारा कर दिया जाता है। सारी दुनिया में कहीं भी देखें, राजनीतिक पार्टियां युवा समूहों, दैनन्दिन देख-भाल केन्द्रों, शिशु शिविरों तथा दूसरी खैराती एवं शैक्षणिक गतिविधियों का संचालन करती रहती है। किसी को ऐसा लग सकता है कि एक जनतांत्रिक व्यवस्था में यह खासतौर से उचित ही है कि राजनीतिक पार्टियां समाज-सुधार और सार्वजनिक नीतिगत अनुसंधान एवं जनमत के बुनियादी पथ-प्रदर्शक बनें। फिर भी स्थिति यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जनमत और सुधार कार्यों पर ज्यादातर फाउण्डेशन समर्थित मुनाफारहित क्षेत्र का ही कब्जा है।
इस मुनाफारहित तीसरे क्षेत्र का एक और दूसरा सुरक्षात्मक कार्य धनवानों के बेटों-बेटियों को रोजगार मुहैया करना है जो इसके बगैर अन्य किसी भी वर्ग के बेटों-बेटियों की भांति ही बेरोजगार और विद्रोही बनकर विरोधी और सिरदर्द बन जाते। तब फिर क्यों न ढेरों तैरते सोने के साथ संभावित और वास्तविक ‘परेशानी पैदा करने वालों’ को मिलाकर एक ऐसा “शोरबा” तैयार किया जाये जो दुखते गलों और दुखते सिरों को बड़ी आसानी से रास आ जाये और उन्हें राहत दे सके।
इन संगठनों की गैर-सरकारी और गैर-पक्षधर स्थिति परोपकारिता और स्वतंत्रता का एक आभामंडल उत्पन्न करती है, और यही तो उनकी अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। उनका भौगोलिक एवं कारोबारी क्षेत्र अत्यंत व्यापक है, जिसमें अपने मानव-प्रेम की घुसपैठ कराने में उन्हें किसी उल्लेखनीय प्रतिरोध का सामना शायद ही करना पड़ता है। आज उनकी ताजा गतिविधियां हैं: पूरे लातिन अमेरिका में ईसाई जनतांत्रिक पार्टियों, यूनियनों और जमीनी संगठनों की मदद करना, पूर्वी यूरोप और पूर्व सोवियत संघ में एक मुनाफारहित क्षेत्र निर्मित करना, दक्षिण अफ्रीका में एक गैर-नस्ली, गैर-समाजवादी नुस्खे की पेशकश करना, और तीसरी दुनिया में शोषण की आलोचना करने वालों के जवाब में “टिकाऊ” विकास की मुहिम चलाना। स्वयं राष्ट्रसंघ भी, अपने जन्म और विकास के चरित्र के अनुरूप, बहुराष्ट्रीय मानव-प्रेम पर काफी जोर दे रहा है।
इन मुनाफारहित व्यवस्था का स्वरूप तब और भी स्पष्ट हो जाता है जब हम इसके नियोजन और फंड संबंधी हथकंडों यानी इसके फाउण्डेशनों पर गौर करते हैं। ये मनोरंजन पर खर्च करते हैं, कलाकारों को तुष्ट करने पर खर्च करते हैं, जीव-रसायनी अनुसंधान पर खर्च करते हैं और दैनंदिन खैरात बांटते हैं। पर इनकी सबसे दिलचस्प कवायदें सामाजिक सुधार संचालित करने में दिखायी देती है ये और इनके ईजाद किये गये नुस्खे राजनीतिक परिवर्तन के लिए विचार सप्लाई करते हैं। ऐसे भारीभरकम बहुउद्देशीय फाउण्डेशन सबसे पहले इस बीसवीं शताब्दी के आरंभ में उठ खड़े हुए, और जी-जान से प्रगतिवाद और सामाजिक विज्ञानों के विकास में जुट गये। कुख्यात लुटेरे अभिजात-तंत्र के नव-धनपतियों को ये फाउण्डेशन ढेरों मकसदे पूरे करने वाले उपकरण नजर आने लगे। पहला यह कि इनसे उन्हें अपनी बेशुमार दौलत को सुव्यवस्थित कर लेने का एक बढ़िया तरीका मिल गया। दूसरा यह कि इनके जरिये मानव-प्रेम की दुहाई देकर भारी सामाजिक नियंत्रण हासिल कर लेने की सुविधा मिल गयी। जॉन डी. रॉकफेलर ने “एक बड़ा फाउण्डेशन स्थापित करने” का फैसला कर लिया। यह फाउण्डेशन अकेले केन्द्रीय नियंत्रण करने वाली एक ऐसी कंपनी के रूप में स्थापित होने वाला था जो किसी को तथा अन्य सभी प्रकार के लोकोपकारी संगठनों को वित्तीय सहायता देने, और इस प्रकार आवश्यक रूप से उन्हें अपनी आम निगरानी के अधीन कर लेने वाला था।2 और तीसरा मकसद यह था कि फाउण्डेशनों के जरिये सार्वजनिक संबंधों को बेहतर बनाया जा सके, कई लोगों का यह भी मानना था कि रॉकफेलर फाउण्डेशन लुडलो नरसंहार के कलंक को मिटाने के लिए खड़ा किया गया।
प्रथम विश्वयुद्ध से पहले के काल में, फाउण्डेशनों ने जन-साधारण की माली हालत में सुधार करने का काम हाथ में लिया और इसी के साथ-साथ ऐसे बुद्धिजीवियों का सहयोग भी लिया जो अक्सर समाजवादी सहानुभूति जताते रहते थे। इन फाउण्डेशनों ने एक ऐसी विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया जिसके अनुसार समाजिक बुराइयों को ऐसी समस्याएं माना गया जो समाज-वैज्ञानिकों द्वारा हल की जा सकती थीं। इसमें वर्ग संघर्ष, या यहां तक कि हितों के टकराव को तनिक भी तवज्जोह नहीं दी गयी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, नीति-निर्धारण प्रक्रिया में फाउण्डेशनों का हस्तक्षेप नाटकीय ढंग से बढ़ चला। उदाहरण के तौर पर, राजनीतिक उपद्रव के भय से निजात पाने की रणनीति फोर्ड फाउण्डेशन से ली गयी। 1949 की इसकी रिपोर्ट में यह दलील दी गयी कि हमें साम्यवाद की चुनौती का सामना करने के लिए अपनी व्यवस्था को मजबूत बनाना होगा। इसके तहत जो समस्याएं गिनायी गयीं वे थीं गृहयुद्ध का बाकी बचा काम, राजनीतिक भागीदारी की कमी और अव्यवस्थित व्यक्तियों की देखरेख। फोर्ड की आरंभिक रणनीति सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के लिए होने वाले मुकदमों के खर्च की फण्डिंग करने की थी, ताकि इस सुविधा को पा कर काले लोग कानूनी तौर पर बराबरी हासिल कर सकें, फौजदारी अदालती व्यवस्था में सुधार किया जा सके और विधायिकाओं को फिर से बहाल किया जा सके।
1960 के दशक के दौरान, तेजी से उठ खड़े हो रहे विरोधी आंदोलनों से निपटने के एक उपाय के तौर पर, फोर्ड फाउण्डेशन ने जनहित कानून के निर्माण की दिशा में एक अग्रणी भूमिका अदा की। इस काननू के तहत कानूनी संस्थाएं गठित की गयीं, कानून के स्कूलों में चिकित्सकीय कार्यक्रम चालू किये गये, विशिष्टीकृत कानूनी समीक्षाएं की जाने लगीं और एक उपयुक्त विचारधारा लागू की गयीं। मुकदमेबाजी से संबंधित जो संगठन उठ खड़े हुए वे थे वीमेन्स लॉ फंड, इनवाइरनमेंटल डिफेंस फंड, नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउसिंल और ढेर सारे लीगल डिफेंस एंड एड्यूकेशन फंडस (एल डी. ई. एफ) जिनमें प्योरटोरिको के एल. डी. ई. एफ., मेक्सिको-अमेरिका के एल. डी. ई. एफ और नेटिव अमेरिका के एल. डी. ई. एफ भी शामिल थे। नेशनल एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ कलइ पीपुल लीगल डिफेंस एंड एड्यूकेशन फंड तथा अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन जैसे पुराने संगठन भी फाउण्डेशन की फडिंग पर आश्रित हो गये।
कांफ्रेंसों, रिपोर्टों, और प्रायोजित अनुसंधानों एवं किताबों के जरिये प्रचारित-प्रसारित की जाने वाली फाउण्डेशन-विचारधारा का मानना है कि उग्रपरिवर्तनवादी विरोध-प्रदर्शन बहुलवाद की अपर्याप्तताओं के सूचक हैं। सुविधावंचित समूहों जैसे काले लोगों, चिकामो समुदाय, महिलाओं, बच्चों एवं गरीबों को उनके अधिकार दिलाने में मदद किये जाने की जरूरत है। गौरतलब है कि यहां गरीबों को एक अलग अल्पसंख्यक समूह माना जाता है। और गरीबी, सैन्यवाद, नस्लवाद तथा पर्यावरणीय विनाश को पूंजीवादी व्यवस्था के बाइप्रॉडक्ट मानने वाले किसी भी विचार को सिरे से ही खारिज कर दिया जाता है।
फाउण्डेशनों ने अपने सुविचारित, व्यावहारिक लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ने हेतु वर्तमान में कार्यरत संगठनों में भी खूब पैसा लगाया है। परन्तु वैसे संगठनों को एक पाई भी नहीं दिया है जो यह चाहते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका के काले लोग भी अपने आप को विश्वव्यापी उपनिवेशवाद-विरोधी जन-उभारों का हिस्सा समझें। अलबत्ता नेशनल अर्बन लीग, एन. ए. ए. सी. पी., एन. ए. ए. सी. पी./ एल. डी. ई. एफ., और सदर्न रिजनल कांउसिल जैसे नरमपंथी काले लोगों के संगठनों की फडिंग की गयी हैः इसके उग्रपरिवर्तनवादी समूहों को या तो नजरंदाज कर दिया गया है या दमित।
फाउण्डेशन ऐसे गठबंधनों को प्रोत्साहित करते हैं जो यथास्थिति बनाये रखने के पक्षधर हैं। इसी नीति के तहत 1967 में, नागरिक अधिकार संगठनों, फाउण्डेशनों, और बडे़ कारपोरेशनों के बीच एक गठबंधन के रूप में नेशनल अर्बन कोलीशन (एन. यू. सी.) की स्थापना की गयी। इसके पहले कारपोरेशनों का मानव-प्रेम आमतौर पर जनसंपर्कों, उत्पाद-प्रोत्साहन, कर्मचारी प्रशिक्षण और इसी तरह के अन्य उद्देश्यों तक ही सीमित था। परन्तु 1960 के दशक की शुरुआत होते ही अधिकांश बड़े कारपोरेशनों ने ऐसे फाउण्डेशन गठित कर लिए जो फोर्ड, कारनेगी, रॉकफेलर आदि के सुरताल में पूंजीवाद के पक्ष में आमतौर पर सहयोग करने लगे। वे इण्डिपेण्डेण्ट सेक्टर के सदस्य भी बन गये। वैसे कारपोरेट फंडों के जनकल्याणकारी इस्तेमाल की वैधता पर स्टॉकधारक तो अक्सर सवाल उठाते रहते हैं, परन्तु वामपंथी इस “मुनाफारहित क्षेत्र” के इस नये पहलू के महत्व को आमतौर पर नजरअंदाज ही करते रहते हैं।
फोर्ड फाउण्डेशन के नेतृत्व में एन. यू. सी. का एक कार्यक्रम कम्युनिटी डेवलपमेंट कारपोरेशनों की स्थापना करना था, जो “काले लोगों की सत्ता” के नारे को एक स्वीकार्य “काले लोगों के पूंजीवाद” के नारे के रूप में तब्दील कर देने के एक प्रयास के रूप में था। इस तरह के उपक्रम, जो सरकार से लेकर, कारपोरेशनों और फाउण्डेशनों तक वित्तीय गठबंधन करते हैं, कंगाली-बदहाली वाले क्षेत्रों में- चाहे वे गोरों के हो या कालों के, शहरी हों या ग्रामीण- छोटे-छोटे व्यवसाय और उद्योग चालू कर देते हैं। हालांकि ऐसे क्षेत्रों में उनके निवेश के लिहाज से उपलब्धि निहायत मामूली ही होती है, फिर भी उनकी उपलब्धि लोगों को आत्मतुष्ट और शांत बनाये रखने, नरमपंथी नेतृत्व पैदा करने और व्यक्तियों को सामाजिक रूप से गतिशील बनाने में तो देखी ही जा सकती है।
फाउण्डेशन-कारपोरेशन गठबंधन का एक दूसरा प्रोजेक्ट अटलांटा में नॉन-वायलेंट सोशल चेंज के लिए मार्टिन लूथर किंग जूनियर केन्द्र की स्थापना करना था। इसको बड़े-बड़े फाउण्डेशनों के साथ-साथ फोर्ड मोटर कंपनी, अटलांटिक रिचफील्ड, लेवी स्ट्रास, अमोको, जनरल मोटर्स, ह्यूबलिन, कॉनिंग, मोबिल, वेस्टर्न इलेक्ट्रिक, प्रॉक्टर एंड गैम्बल, यू. एस स्टील, मॉन्सैंटो, मॉरगन गांरटी ट्रस्ट आदि के कारपोरेट फाउण्डेशनों से भी वित्तीय सहायता प्राप्त हुई। अहानिकार कार्यक्रम जैसे दैनंदिन देखभाल केन्द्र, आवासीय पुनर्वास और डॉ. किंग का जन्मदिन कैसे मनाया जाये- इससे संबंधी सूचनाएं जुटाने के साथ-साथ दो और विस्मयकारी प्रोजेक्ट लिये गये। इनमें से पहला है किंग के जन्मदिन को सैनिक रीतिविधान के साथ सैनिक अड्डों पर मनाने की परंपरा डालना। और दूसरा है “द फ्री एंटरप्राइज सिस्टमः एन. एजेंट फॉर नॉन-वॉयलेंट सोशल चेन्ज” शीर्षक से एक वार्षिक व्याख्यान माला का संयुक्त आयोजन करना।
दूसरे अल्पसंख्यक आंदोलनों को स्टैण्डर्ड वाशिंगटन लॉबी के सांचे में ढाल दिया गया है। फोर्ड फाउण्डेशन ने साउथवेस्ट काउंसिल ऑफ लॅ रज़ा और नेशनल काउंसिल ऑफ लॅ रज़ा की स्थापना की, जहां से एक बार चिकानो लोगों के साउथवेस्ट में उग्र आन्दोलन उठ खड़े हुए थे।
विरोध और समर्थन करने वाले संगठनों के लिए नेतृत्व संबंधी प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता के कार्यक्रम भी व्यावहारिक लक्ष्यों पर जोर देते हैं। फाउण्डेशनों का दावा है कि उनके कार्यक्रम “बहुलवाद”(प्लूरलिज्म) को बढ़ावा देने के लिए हैं। परन्तु उनका मुख्य काम फाउण्डेशन-कारपोरेशन नेटवर्क को और विस्तृत और मजबूत बनाना ही होता है। कारण कि राजनीति में किसी भी रूप में जनता की भागीदारी और जनसाधारण पर जोर नहीं दिया जाता, और राजनीतिक बहस-मुबाहिसे पर फाउण्डेशन समर्थित नीतियों के विशेषज्ञ लगभग पूरी तरह अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं।
बड़े-बड़े फाउण्डेशन हमेशा से अपने अन्तर्राष्ट्रीय हित रखते आये हैं। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले उनकी विदेश नीति अमेरिकी सरकार से कहीं अधिक सक्रिय थी, जो काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स जैसे संगठनों और रॉकफेलर फाउण्डेशन एवं कारनेगी इनडाउमेंट जैसे विदेश नीति के उत्कृष्ट थिंक टैंकों के मार्फत कार्यरत थी। राष्ट्रसंघ के विचार और फंड काफी हद तक फाउण्डेशन और रॉकफेलर परिवार के मानव प्रेम से ही निःसृत होते हैं।
लातिन अमेरिका में चल रही अस्थिरता का स्वागत तो “हाई कॉप्स”, सी. आइ ए. और सेना ने किया ही है, साथ ही ऐसे तमाम फाउण्डेशन-समर्थित प्रोजेक्टों द्वारा भी स्वागत किया गया है जो सीधे या परोक्ष रूप से इन मुनाफारहित क्षेत्र से फंड प्राप्त करते रहते हैं। ऐसी सहायता गैर-कम्युनिस्ट जमीनी संगठनों (खासतौर से “ईसाई जनतांत्रिक” संगठनों) को, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए भावी नेता प्रशिक्षित करने, तथा यूनिवर्सिटी कार्यक्रमों को संचालित करने के लिए एवं छात्रों को दी जाती है।
फाउण्डेशनों ने दुनिया के दूसरे भागों के लिए ‘अमेरिकाज वाच’ जैसे संगठन भी खड़े किये हैं, जो सारे के सारे इस मूल अवधारणा के तहत काम करते हैं कि विद्रोह अंशतः इस कारण उठ खड़े होते हैं कि बहुतेरी सरकारें शायद अपनी बेढंगी चाल के कारण या अज्ञानता में या भ्रष्टाचार के चलते, मानवाधिकारों की कद्र नहीं करतीं। अतः अमेरिकास वाच अलग-अलग होने वाले मानवाधिकार-उल्लघंन की घटनाओं की ओर मीडिया और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का ध्यान आकर्षित करता रहता है। परन्तु यह इस बात पर कतई गौर नहीं करता रहता कि दमन, उत्पीड़न और विनाश सरकार की नीति के चलते हो रहा है, या जो तकनीकी सहायता कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं वे ही यातना की तकनोलॉजी का प्रसार किये जा रहे हैं।
पूर्वी यूरोप और भूतपूर्व सोवियत संघ में फाउण्डेशन, उदाहरण के तौर पर, ईस्टर्न यूरोपियन कल्चरल फाउण्डेशन लम्बे समय से व्यवस्था-विरोधियों की मदद करते आ रहे थे, तथा वहां के छात्रों एवं सरकारी अधिकारियों को प्रभावित करने के लिए आदान-प्रदान कार्यक्रम चला रहे थे। और जब कम्युनिष्ट (वस्तुतः संशोधनवादी-सं) सरकारों पर ग्रहण लगने लगा, तो अमेरिका के मुनाफारहित क्षेत्र ने सिर्फ इतना ही नहीं किया कि वहां अलग-अलग व्यक्तियों को अपने मुनाफारहित कारोबार से हरप्रकार की मदद देनी शुरू कर दी, बल्कि वहां अपनी छवि में एक पूरी दुनिया ही रच डालने का प्रयास शुरू कर दिया है। ऐसा वह इन देशों के संविधान लिखने, नागरिक कानूनों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में संशोधन करने, तथा पहले सरकारी जिम्मेदारियों के तहत पूरे किये जाते रहे खैराती, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक कामों को अब प्रत्येक राष्ट्र में एक मुनाफारहित क्षेत्र की स्थापना के जरिये संपादित करने की गरज से अपने विशेषज्ञ भेजकर कर रहा है। अब इन उद्देश्यों के लिए परंपरागत फंडदाताओं के साथ ज्यार्ज सोरोस द्वारा गठित फाउण्डेशनों की एक पूरी फौज शामिल हो गयी है। इसके साथ ही, अमेरिकी सरकार भी, अपने आप को इन फाउण्डेशनों की तर्ज पर ढालती हुई, 1983 में अमेरिकी कांग्रेस द्वारा गठित नेशनल इनडाउमेण्ट फॉर डिमॉक्रसी के मार्फत दूसरे देशों के राजनीतिक संगठनों को फंड प्रवाहित करने के काम में लग गयी है, और उन सारे कामों को खुले तौर पर कर रही है जिन्हें सी. आई ए. छिपे तौर पर करती है। मुनाफारहित क्षेत्र का यह नया करोबार बाजारीकरण के उस झटके को सहनीय बनाने की एक कोशिश के तौर पर है जिसने न सिर्फ बेरोजगारी और निराश्रयता पैदा की है, बल्कि तमाम महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाओं को धराशायी भी कर डाला है।
पर्यावरणीय आन्दोलन भी कारपोरेट क्षेत्र के “व्यवसाय के निरापद रूप से चलते रहने” में खतरा बनता जा रहा है, खासतौर से इस कारण कि पर्यावरणीय विनाश को कारपोरेट गतिविधियों से जोड़ा जाने लगा है। अतः इसके उपाय के तौर पर, फाउण्डेशन जगत की ओर से “टिकाऊ विकास” और टिकाऊ विकास की विचारधारा को लेकर ढेरों संगठन, थिंक टैंक, विश्वविद्यालय संस्थान और कांफ्रेंस गठित किये जा रहे हैं और उनकी फंडिग की जा रही है।
जून 1992 में रियो डि जेनरो में पर्यावरण और विकास पर राष्ट्रसंघ द्वारा आयोजित कांफ्रेंस के प्रत्येक पहलू पर फाउण्डेशनों का भारी प्रभाव छाया रहा। फाउण्डेशनों ने भले ही ग्लोबल फोरम के तौर पर इस “जमीनी मंच” का गठन नहीं किया, फिर भी इसमें शिरकत करने वाले तमाम गैर-सरकारी संगठनों की फंडिग की। यहां तक कि सरकारी तौर पर भाग लेने आये प्रतिनिधियों के लिए फाउण्डेशन नेटवर्क ने ट्यूटर की भी भूमिका निभायी और “बातचीत में पूरी तरह भागीदारी करने के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी वाले विकासशील देशों की सरकारों को तकनीकी सहायता प्रदान की, तथा उन सरकारों को बातचीत के मूल पाठ उपलब्ध कराये जो समझौते के लिए आवश्यक कुशल भाषा में तैयार किये जाने वाले मसविदे के मुद्दों से भलीभांति परिचित नहीं थे।”3
“नागरिक भागीदारी” को लेकर फाउण्डेशन जगत का सरोकार अब भूमंडलीय बन चुका है। पहले से चलाये जाते रहे नेतृत्व-प्रशिक्षण कार्यक्रमों की भांति ही अब यह निश्चय किया जा चुका है कि लोगों को व्यावहारिक, बुद्धिसंगत लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में प्रभावी बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जायेगा। अब सारी दुनिया में नागरिक भागीदारी और प्रभाव बढ़ाने के लिए फ्सिविस (सी. आइ. वी आइ सी. यू. एस) वर्ल्ड अलाइन्स फॉर सिटिजन पार्टिसिपेशन नाम से एक नये संगठन का गठन किया गया है– जिसमें अनुदानदाता और अनुदान प्राप्तकर्ता दोनों ही सदस्य होंगे…। वर्तमान में इसका प्रशासकीय कार्यालय वाशिंगटन डीसी के इण्डिपेण्डेण्ट सेक्टर में स्थित है।”4
यह “तीसरे क्षेत्र” की सुरक्षा कवच संबंधी गतिविधियों की एक छोटी सी. बानगी भर है। इसने पूंजीवाद के लिए काफी उपयोगी और बढ़िया काम शुरू किया है। बहरहाल, यह अलग सवाल है कि इससे इस ग्रह के आर्थिक पर्यावरणीय, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों पर मंडरा रही विनाश की महाविपदा टाली जा सकेगी या नहीं। वैसे देखने में तो ऐसा ही लग रहा है कि वर्तमान व्यवस्था का आमूल परिवर्तनवादी विकल्प ढूंढने, विकसित करने और उसे लागू करने की ऊर्जा इस तीसरे क्षेत्र के सुरक्षा-कवच द्वारा बिखरा सी. दी गयी हैं।
टिप्पणियां:
1- काउंसिल ऑन फाउण्डेशन संयुक्त राज्य अमेरिका और दूसरे देशों में कार्यरत 1300 फाउण्डेशनों का एक संघ है, जिसकी स्थापना 1949 में हुई। यह काउंसिल नेतृत्व और अनुसंधान कार्यक्रमों के तहत अनुदान प्राप्त करने वालों की मदद करती है। हाल ही में इसने शिक्षा, मानव सेवाओं, विज्ञान-अनुसंधान, कलाओं और शहरी विकास के प्रोजेक्टों के लिए करीब 6 अरब डॉलर अनुदान दिये हैं।
काउंसिल ऑन फाउण्डेशन, फैक्टशीट, 1195
2- बी-होवे, “द इमजॅन्स ऑफ साइन्टिफिक फिलैन्थ्रॉपी” आर्नोव, आर- (संपा-)फिलैन्थ्रॉपी एंड कल्चरल इम्पीरियलिज्म (बोस्टनः जी. के. हॉल, 1980), पृ.29
3- जे. माउगॅन, “द रोड फ्रॉमरियो”, द फोर्ड फाउण्डेशन रिपोर्ट, ग्रीम 1992, पृ.16
4- फ्वर्ल्ड अलाइअन्स,” फाउण्डेशन न्यूज, सित-/अक्तू- 1993, पृ.10
(स्रोतः मंथली रिव्यू वॉल्यूम 47 नं.-4 सित- 1995 पृ. 16-25)
अनुवाद: विश्वनाथ मिश्र
दायित्वबोध, नवम्बर 1997 – फरवरी 1998