माओ त्से-तुङ की बारह कविताएंं

जन्मदिन (26 दिसम्बर) के अवसर पर
माओ त्से-तुङ की बारह कविताएंं

अनुवाद व विस्तृत टिप्पणियां – सत्यव्रत

कुनलुन[1]

(अक्टूबर, 1935)

 

बहुत-बहुत ऊपर इस धरती से,
नीले आकाश की गहराइयों में
तुमने देखा है, ओ बीहड़, उद्धत कुनलुन,
वह सब कुछ जो सबसे बढ़िया है
इंसानों की इस दुनिया में।
उड़ते हैं तुम्हारे तीस लाख श्वेत-धवल जेङ से अजदहे[2]
और हड्डियां छेदती ठण्ड से
जम-सा जाता है यह पूरा आकाश।
गर्मियों में पिघलती है तुम्हारी बर्फ
और प्रचण्ड धाराएं उफनाने लगती हैं
झरनों और नदियों में।
किसने फैसले दिये हैं
उन अच्छाइयों और बुराइयों पर
जो तुमने कर डाले हैं
इन हजारों शरद ऋतुओं के दौरान?
सुन लो कुनलुन! अब मेरा यह कहना है
नहीं चाहिए हमें तुम्हारी यह ऊंचाई
और न ही दरकार है हमें
बर्फ के तुम्हारे इस अम्बार की।
यदि मैं खींच सकूं अपनी यह तलवार
आसमान को चीरती हुई
तो तीन टुकड़े कर दूं तत्क्षण तुम्हारेः
एक टुकड़ा यूरोप के लिए,
दूसरा अमेरिका के लिए
और तीसरा संजो कर रख लूं पूरब के लिए।
पूरी दुनिया पर छा जाता फिर शान्ति का साम्राज्य,
एक-सी गरमी
और एक-सी ठंडक
पूरी इस धरती पर

 

ल्यूफान पर्वत[3]

(अक्टूबर, 1935)

ऊंचा आकाश, निस्तेज विरल बादल,
देख रहे हैं हम जंगली हंसों के झुंडों को
उड़ते हुए दक्षिण की ओर, ओझल होते हुए।
इंसान नहीं है हम, अगर नहीं पहुंच पाते
महान लम्बी दीवार तक,
हम, जो तय कर चुके हैं
बीस हजार ली की दूरियां।
ल्यूफान पर्वत-शिखरों की ऊंचाइयों पर
पश्चिमी हवाओं में पूरी आजादी के साथ
लहराते हैं लाल झंडे और परचम
थामे हैं आज हम अपने हाथों में लम्बी जंजीर,
कब हम जकड़ लेंगे भूरे अजदहे को[4]
अपनी गिरफ्त में?

ल्यू या-त्जू को उत्तर[5]

(29 अप्रैल, 1949)

याद करता हूं अभी भी मैं
क्वाङचओ में चाय पीना हमारा
साथ-साथ
और चुङकिङ में तुम्हारा आग्रह करना
कविताओं के लिए
जब पत्तियां पीली पड़ रही थीं।
इकतीस वर्षों बाद पुरानी राजधानी में वापस आकर
फूलों के झरने के मौसम में
मैं पढ़ रहा हूं तुम्हारी कविता की
परिपक्व-परिष्कृत पंक्तियां।
तनिक सम्भलना, दुखों से लबरेज कहीं
दिल न तोड़ लेना अपना,
सुदूर परिदृश्य पर केन्द्रित करना अपनी निगाहें।
मत कहो कि कुनमिङ झील[6] का पानी
सिर्फ उथला है,
मछलियों को देखते रहने के लिए
बेहतर है यह
फूचुन नदी[7] के मुकाबले

 

ल्यू या-त्जू की कविता
अध्यक्ष माओ को समर्पित मेरे विचार

 

श्रेष्ठ हो तुम
एक नये युग के निर्माता के रूप में।
मेरे लिए कठिन था
अंधेरे दौरों में
रोशनी की बातें करना पूरे जोर-शोर से।
व्याख्यान देता हूं क्लासिकी ग्रंथों पर,
नहीं हूं ऐसा विद्वान जो
कर सके समयानुवर्तन
और अफसोस,
नहीं हुआ मेरा कहीं कोई गर्मजोशी भरा स्वागत।
भर उठता हूं पश्चाताप से
जब सोचता हूं व्यर्थ ही गंवाये गये
अपने जीवन के बारे में,
फिर भी मेरा हृदय सच्चा बना रहेगा अंतिम सांस तक।
विकल प्रतीक्षा है
दक्षिणी अभियान से खुशखबरियों की!
फिर तो फेनहू झील[8] होगा
मेरा एकान्त निवास।

 

ल्यू या-त्जू को उत्तर[9]

(अक्टूबर, 1950)

(1950 में राष्ट्रीय दिवस समारोह के अवसर पर जब हम एक संगीत-नृत्य का कार्यक्रम देख रहे थे तो श्री ल्यू या-त्जू ने ‘वान सी-शा’ छन्द की लय में एक आशु कविता लिखकर मेरे पास भेजी। उत्तर में मैंने भी उसी छन्द का प्रयोग करते हुए निम्नलिखित कविता की रचना की।- माओ)

रात लम्बी थी।
भोर उतरी रक्तिम धरा[10] पर
धीरे-धीरे।
एक सदी तक जारी रहा यहां
प्रेतों और राक्षसों का
उन्मत्त पैशाचित नृत्य,
और पचास करोड़ लोग आपस में विभाजित रहे।
अब मुर्गा बांग दे रहा है
और आलोकमय है सबकुछ
इस आकाश के नीचे।
यहां गूंज रहा है संगीत हमारे तमाम लोगों का,
युतिएन[11] का भी
और कवि-मन हो रहा है अनुप्राणित
जैसा पहले कभी नहीं हुआ था।

ल्यू या-त्जू की कविता

(3 अक्टूबर को मैं हुआइ ज़ेन ताङ भवन में आयोजित एक सांध्य समारोह में सम्मिलित हुआ। इस अवसर पर दक्षिणी-पश्चिमी चीन, की विभिन्न राष्ट्रीयताओं तथा सिंकियाङ, किरिन प्रांत के येनपिएन और भीतरी मंगोलिया की कला मण्डलियों ने अपने-अपने कार्यक्रम प्रस्तुत किये। अध्यक्ष माओ के अनुरोध पर, चीन की सभी राष्ट्रीयताओं की महान एकता की प्रशंसा में मैंने निम्नलिखित पंक्तियों की रचना की। : ल्यू या-त्जू)

अग्नि-वृक्षों और रजत-पुष्पों से सजी हुई
अंधेरे से मुक्त एक रात।
थिरकते हुए मनोहर नृत्य मुद्राओं- भंगिमाओं से
आकर्षित करते हैं हमारे ये भाई-बहन।
पूनम के चांद[12] की उल्लासमय स्वरलहरियां
तैरती हैं हवाओं में।
हासिल नहीं होता यदि हमें उस एक व्यक्ति का
कुशल नेतृत्व,
कैसे जुट पातीं भला ये
सौ के आसपास राष्ट्रीयताएं एक साथ?
बेमिसाल है
खुशियों भरी शाम का यह आनन्दोत्सव!

 

तैरना[13]

(जून, 1956)

अभी-अभी मैंने पिया है चाङशा का पानी
और आया हूं अब चखने ऊचाङ की मछली।
तैर रहा हूं मैं अब याङत्सी महानदी में
इस पार से उस पार तक,
देखते हुए चू प्रदेश[14] के खुले आकाश में दूर-दूर तक।
चलें हवाएं जोरदार और
पछाड़ खायें लहरें, टकराएं उन्मत्त करने से तो
बेहतर ही है यहां होना
इन लहरों के बीच।
आज मैं निश्चिन्त हूं।
ऐसी ही किसी एक धारा के सन्निकट कहा था कन्फ्यूशियस ने-
“यूँ चीजें बहती जाती हैं अविरल गति से।”
हवा के झकोरों से हिलते हैं मस्तूल।
निश्चल खड़े हैं सर्प और कच्छप पर्वत।
अमल हो रहा है आज महान योजनाओं परः
एक पुल[15] उड़ता हुआ-सा हवा में
उत्तर को जोड़ेगा दक्षिण से,
एक गहरी खाई है जहां,
वहां एक रास्ता होगा
इस पार से उस पार तक;
उधर पश्चिम की ओर बहती प्रतिकूल धारा में
खड़ी होंगी पत्थर की दीवारें
ऊशान पर्वत[16] से आने वाले बादलों
और बारिश को रोकती हुई,
तबतक तंग दर्रों में
तरंगायित होने लगेगी एक चौरस झील
पर्वत की देवी, यदि होगी अभी भी वहां,
चकित रह जायेगी
इस कदर बदली हुई दुनिया को देखकर।

ली शू-ई को उत्तर[17]

(11 मई, 1957)

मैंने खो दिया अपना गर्वीला पॉपलर[18]
और तुमने अपना विलो[19],
पॉपलर और विलो ऊपर उठते हुए
सीधे जा पहुंचते हैं नवें आसमान तक।
पूछते हैं ऊ काङ[20] से कि
वह उन्हें क्या दे सकता है?
पेश करता है वह उनकी खिदमत में
जयपत्रों से निकाली गई शराब।
एकाकी चांद की देवी[21] फैला देती है
अपनी बांहें, लहराते हुए विस्तृत आंचल
उन्मुक्त आकाश में
नृत्य करती है इन ध्येयनिष्ठ आत्माओं के लिए।
तभी अचानक धरती से आती है यह खबर
कि बाघ[22] को पराजित किया जा चुका है।
बारिश की झड़ी में
बरस पड़ते हैं धारासार
खुशी के आंसू।

महामारी के देवता[23] को विदाई

(दो कविताएं)

(1 जुलाई, 1958)

(30 जून, 1958 के रेन मिन रिबाओ (जन दैनिक) में जब मैंने यह पढ़ा कि ऊकियाङ काउण्टी[24] से सिस्टोसोमियासिस (घोंघा-ज्वर) को जड़मूल से नष्ट कर दिया गया है, तो मेरे मन में अनेक विचार-तरंगे उठने लगीं और मैं रातभर सो न सका। सुबह की गुनगुनी, सुहावनी बयार में जब सूरज की किरणें मेरी खिड़की पर पड़ी तो मैने दूर पश्चिम की ओर नजर दौड़ाई और खुशी के उन क्षणों में निम्नलिखित पंक्तिया लिख डाली।- माओ)

I

इतनी सारी हरितवर्णी जलधाराएं
इतने सारे नीलवर्णी पहाड़कृमगर भला ये किस काम के?
इस क्षुद्र प्राणी ने अवश कर डाला था हुआ तो[25] तक को
सैकड़ों गांवों में नहीं बचा इंसानों का नामोनिशान तक,
उग आये बीहड़ जंगल-झाड़।
हजारों घर उजड़ गये,
घूमती रही गलियों में प्रेतात्माएं बिलखती हुई।
इस धरती पर एक दिन मैं तय करता हूं
अस्सी हजार ली[26] की दूरी
और कहीं नहीं दिखता है जीवन का कोई चिन्ह,
सुदूर आकाश में निगाहें दौड़ाता हूं
देखता हूं अनगिन आकाश-गंगाएं[27]
पूछता यदि ग्वाला नक्षत्र[28]
खबर-महामारी के देवता की,
यही कहा जाता है,
समय की धारा में बहता जा रहा है
वही शोक-संताप।

II

सरपत के जंगलों में डोलती हैं
बासंती हवाएं,
साठ करोड़ लोगों की इस दैवी धरती[29] पर
सभी बराबर हैं, याओ और शुन[30]
रक्ताभ जलवृष्टि जलधाराओं की लहरें बन
उमड़ने लगती है।
हमारी इच्छा के वशीभूत होकर
और हरितवर्णी पर्वत हमारे चाहने भर से
पुलों में बदल जाते हैं।
आसमान छूते पांच पहाड़ों[31] पर
गिरती हैं चमकती हुई गैंतियां
तीन नदियों के इर्दगिर्द की
धरती[32] को हिला देने के लिए
आगे बढ़ती हैं शक्तिशाली भुजाएं
पूछते हैं हम महामारी के देवता सेः
“कहां चल दिए तुम?”
जलने लगती हैं कागज की नावें
और मोमबत्तियों की रोशनी[33] से
आसमान जगमगाने लगता है।

लूशान पर चढ़ते हुए[34]

(1 जुलाई, 1959)

याङत्सी के ऊपर
यह गगनचुम्बी पर्वत,
ज्यों उड़कर जा टिका है आसमान में;
आ पहुंचा हूं मैं
इसके हरित शिखर तक
चार सौ मोड़ों को लांघने के बाद।
ठण्डी आंखों से निहारता हूं
समुद्रों के पार इस धरती का विस्तार;
आसमान में छितरे बादलों पर
गरम हवा छिड़कती है बारिश की बूंदें,
नौ जलधाराओं[35] पर उमड़ते-घुमड़ते
गहराते जाते हैं बादल
मानो पंख पसारे तैरते हुए
पीले सारस वाली मीनार[36] के ऊपर से
और प्रचंड लहरे-पछाड़ खाती हैं पूर्वी किनारे पर,
उड़ता है सफेद झाग।
कौन जानता है, कहां चला गया प्रिफेक्ट ताओ युआन-मिङ[37]
अब सतालू-पुष्पों की इस धरती पर[38]
वह कर सकता था खेती।

मिलिशिया की औरतें

(फरवरी, 1961)

(एक फोटोग्राफ के पीछे अंकित)

कंधों पर उठाये हुए पांच फुट की राइफलें
दिखती हैं वे कितनी तेजस्वी और बहादुर
दिन की पहली किरणों से आलोकित
परेड के मैदान में।
चीन की बेटियों के दिलो-दिमाग में
उफन रही हैं ऊंची आकांक्षाएं,
रेशम-साटन से नहीं,
प्यार करती हैं वे
अपने युद्ध-परिधानों से।

एक मित्र को उत्तर[39]

(1961)

तैर रहे हैं श्वेत-धवल बादल
च्यूई पर्वत के ऊपर,
हवा पर सवार शहजादियां[40]
उतर रही हैं हरी-भरी पहाड़ियों में।
कभी उनके बेशुमार आंसुओं से
बांस के पेड़ों पर चित्तियां पड़ गई थीं,
अब वे सजी हुई हैं
गुलाबी-लाल बादलों के परिधानों में।
तुङतिङ[41] झील की बर्फ-सी सफेद लहरें
उफनती हैं ऊपर आसमान की ओर,
धरती को हिला देने वाले तराने की लय के साथ
कांप उठता है यह विशाल द्वीप[42]
और मैं खो जाता हूं सपनों में,
सुबह की रोशनी में चमकते जवाकुसुम की धरती[43]
के निबार्ध-उन्मुक्त सपनों में।

परी गुफा[44]

कामरेड लि चिन (चियाङ-चिङ) द्वारा लिये गये एक फोटोग्राफ के पीछे अंकित

(9 सितम्बर, 1961)

शाम की गहराती छाया में
खड़े हैं देवदारु के कड़ियल दरख्त
तेजी से उमड़ते-घुमड़ते हुए
गुजर रहे हैं तूफानी बादल
एक गहरी शान्ति धारे हुए।
परी गुफा में प्रकृति
बिखेर रही है अभिभूत कर देने वाली छटाएं।
दुर्गम खतरनाक ऊंचाइयों पर ही
दिखती है सुन्दरता
अपने अनन्त रूपों में।

कामरेड कुओ मो-जो को उत्तर[45]

(17 नवम्बर, 1961)

टूट पड़ता है धरती पर
एक तूफानी झंझावत
और इस तरह सफेद हड्डियों के ढेर से
उठता है एक शैतान।
परे नहीं था प्रकाश से भ्रमित भिक्षु,
लेकिन वह दुष्ट पिशाच
कहर तो बरपा करता ही हर हाल में।
स्वर्णिम वानरराज ने क्रुद्ध होकर
घुमाई अपनी भारी गदा
और जेड-समान समूचे आसमान में
छंट गया सारा गर्दो-गुबार।
आज, जब एक बार फिर
उमड़ रहा है जहरीला कुहासा,
चमत्कार करने वाले सुन ऊ-कुङ का
हम करते हैं आह्वान।

कुओ मो-जो की कविता
वानरराज के हाथों पिशाच की पराजय ऑपेरा देखने के बाद

आदमियों और पिशाचों में, सही और गलत में
अन्तर नहीं कर पाता है भ्रमित भिक्षु;
रहम करता है दुश्मनों पर
और कुढ़ता है दोस्तों से।
अविरत वह करता रहा
“स्‍वर्णचक्र” का सस्वर मंत्रपाठ,
और तीन बार उसने
बच निकलने दिया सफेद हड्डियों के शैतान को।
इसी लायक था वह भिक्षु
कि उसकी बोटी-बोटी काट डाली जाती।
चमत्कारी वानरराज के लिए
कोई फर्क नहीं पड़ता एक बाल तोड़े जाने से।
ऐसी समयोचित शिक्षा के लिए ही है
सारी प्रशंसा,
एक सुअर भी मूर्खों से
अधिक समझदार बन जाता है।

कामरेड कुओ मो-जो को उत्तर[46]

(9 जनवरी, 1963)

इस छोटे-से भूमण्डल[47] पर
कुछ थोड़ी-सी मक्खियां[48]
सिर टकराती हैं दीवारों से,[49]
बिना रुके भनभन करती हैं
कभी चीखती हैं
तो कभी कराहने लगती हैं।
बबूल के पेड़ पर चढ़ी चीटियां
बड़े राष्ट्र का दर्प दिखाती हैं
और कुछ चीटें, जिनके पंख उग आये हैं
शेखचिल्ली की तरह मंसूबे बांधते हैं
विशाल, वृक्ष को उखाड़ फेंकने का[50]
पश्चिमी हवा चाड़आन नगर[51] पर
बिखेर देती है पत्तियां[52]
और उड़ते हैं तीर[53],
गूंजती है टंकार-प्रत्यंचाओं से।
इतने सारे काम करने को पड़े हैं
हमारे सामने,
और हर हाल में इन्हें निपटाना है तत्काल;
दुनिया घूम रही है लगातार
समय बनाये हुए हैं अपना दबाव।
दस हजार वर्ष बहुत अधिक हैं
मूल्यवान है हर दिन, हर घंटा
जिसे यूं ही नहीं निकल जाने देना है!
उमड़ रहे हैं चारों महासमुद्र,
बादल क्रोधोन्मत्त हो रहे हैं और
लहरे प्रचंड होती जा रही हैं
प्रकम्पित हो रहे हैं पांचों महाद्वीप
गरज रही हैं तूफानी हवाएं
और बिजलियां कड़क रही हैं।[54]
खात्मा होना ही है सभी बलाओं का,
टिक नहीं सकता है कोई भी
हमारी ताकत के सामने!

कुओ मो-जो की कविता

जब महासमुद्रों को आलोड़ित करता है तूफान
वीरों का पराक्रम प्रचण्ड हो उठता है।
साठ करोड़ लोग ऐक्यबद्ध सुदृढ़ होकर,
अडिग रहकर सिद्धान्तों पर
थाम सकते हैं गिरते हुए विराट आकाश को
और अराजकता के घटाटोप के भीतर से
रच सकते हैं व्यवस्था।
मुर्गें की बांग सुन रही है दुनिया
और पूरब में फूट रही है दिन की उजास।
सूरज उग रहा है
पिघल रहे हैं हिमशिलाखंड,
आग की लपटों पर तपकर
सोना दे रहा है अपने असली होने का सबूत।
चार महान खंड[55]
हमें रास्ता दिखाते हैं।
कैसी बेतुकी है यह बात कि चियेह का कुत्ता
भौंकता है याओ पर[56];
मिट्टी की सांड-कूद पड़ते हैं सागर में
और गलकर बिला जाते हैं।[57]
पूर्वी हवाओं में लहरा रहा है
क्रान्ति का लाल परचम,
रक्तिम आभा से दीप्तिमान हो उठा है पूरा ब्रह्माड!

टिप्पणियां

[1] कुनलुन पश्चिमी चीन में स्थित एक पर्वत श्रृंखला है, जो सिनच्याङ वेवुर स्वायत्त प्रदेश और तिब्बत के बीच फैली हुई है। इसी पर्वत श्रृंखला की एक शाखा मिनशान पर्वतमाला भी है, जिसका उल्लेख कवि ने अपनी टिप्पणी में किया है (देखें टिप्पणी सं-2)।

यह कविता इतिहास-प्रसिद्ध लम्बे अभियान (लांग मार्च) के दौरान तब लिखी गई थी, जब अक्टूबर 1935 में माओ त्से-तुङ की कमान में केन्द्रीय लाल सेना ने कानसू के पूर्वी भाग से निङश्या के दक्षिणी भाग में प्रवेश करके ल्यूफान पर्वत में दुश्मन की घेरेबंदी को तोड़ डाला था और विजयपूर्वक उत्तरी शेनशी के क्रान्तिकारी आधार-क्षेत्र में जा पहुंची थी। अभियान के समापन के महीने में लिखी गई यह कविता सर्वहारा शौर्य, युयुत्सा, जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति में अटूट आस्था तथा सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की भावना को स्वर देती है।

[2] इस बिम्ब के बारे में माओ त्से-तुङ ने स्वयं जो टिप्पणी दी है, वह निम्नलिखित हैः “एक प्राचीन कवि ने कहा हैः ‘जब तीस लाख धवल-जेड अजदहे लड़ रहे थे, तो सारा आकाश उनके छिन्‍न-भिन्‍न केंचुलों से भर गया था।’ इस प्रकार उन्होंने उड़ती हुई बर्फ का वर्णन किया है। यहां मैंने हिमाच्छादित पर्वतों का वर्णन करने के लिए उक्त बिम्ब को ग्रहण कर लिया है। ग्रीष्मकाल में यदि आप मिनशान पर्वत पर चढ़ें तो आपको पर्वतों का जमघटा-सा दिखाई देगा, बिल्कुल श्वेत, मानो वे नृत्य में रत हों। स्थानीय जनता में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि वर्षों पहले जब वानरराज यहां से गुजरा था, तो ये सभी पर्वत आग की ज्वालाओं में लिपटे हुए थे। किन्तु वानरराज ने ताड़ के पत्ते के पंखे से इन ज्वालाओं को बुझा दिया था और इस प्रकार ये पर्वत श्वेत बन गये थे।”

[3] इस कविता की पृष्ठभूमि भी वही है जो ‘कुनलुन’ कविता की। दोनों के लिखे जाने का समय भी एक ही है। ल्यूफान निङ श्या हेइ स्वायत्त प्रदेश के दक्षिण में और कानसू के पूर्व में स्थित एक पर्वत है। लम्बे अभियान के विशिष्ट संदर्भ में इसकी चर्चा पूर्ववर्ती कविता की टिप्पणी-1 में आ चुकी है।

[4] चीन के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित एक राक्षस। यहां कवि का अभिप्राय च्याङ काई-शेक से है।

[5] यह कविता अप्रैल 1949 में लिखी गई थी। यही वह समय था जब चीनी जन-मुक्ति सेना ने बलपूर्वक ताङत्सी नदी पार की और 23 अप्रैल को नानकिङ को मुक्त करा लिया। इस प्रकार क्वोमिन्ताघ के 22 वर्ष के प्रतिक्रियावादी शासन का अन्त हो गया।

कवि ल्यू या-त्जू (1987-1958ई-) च्याङसू प्रांत की ऊच्याङ काउंटी के निवासी थे। 1949 में चीन लोक गणराज्य की स्थापना के बाद ल्यू या-त्जू को केन्द्रीय जन सरकार परिषद का सदस्य और राष्ट्रीय जन प्रतिनिधि सभा का स्थाई समिति का सदस्य चुन लिया गया।

[6] पेकिङ के पश्चिमी उपनगर में स्थित कुनमिङ झील।

[7] च्याङ प्रान्त की च्येनताङ नदी का ऊपरी भाग।

[8] च्याङसू प्रान्त की ऊच्याङ काउंटी में स्थित झील, जिसके उत्तरी तट पर कवि ल्यू या-त्जू का जन्मस्थान हैं।

[9] यह कविता अक्टूबर, 1950 में राष्ट्रीय दिवस समारोह के दिन लिखी गई थी, जब चीन लोक गणराज्य की स्थापना हुए ठीक एक वर्ष हुआ था।

क्रान्तिपूर्व चीन के काले दिनों और दीर्घकालीक लोक युद्ध के दौर की यंत्रणाओं, कुर्बानियों और शौर्य-प्रदर्शन की स्मृतियों की पृष्ठभूमि में यह कविता क्रान्ति के उल्लासमय प्रभाव और निर्बंध जनाकांक्षाओं के उछाह को स्वर देती है।

[10] रक्तिम धरा का अभिप्राय यहां चीन से है।

[11] यह वर्तमान सिनच्याङ बेवुर स्वायत्त प्रदेश में स्थित खोतान व उसके आसपास के इलाके का पुराना नाम है, जहां के लोग नाचने-गाने में बहुत निपुण होते हैं। यहां कवि का अभिप्राय चीन लोक गणराज्य की स्थापना की पहली वर्षगांठ के उपलक्ष्य में अपना प्रोग्राम दिखाने पेकिङ आई सिनच्याङ की कला-मंडली से है।

[12] कवि ल्यू या-त्जू की टिप्पणी के अनुसार, पूनम का चांद सिनच्याङ में कजाक जति के एक लोकगीत का नाम है।

[13] यह कविता क्रान्तिकारी चीन के इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण संक्रमण-काल (1955-56) की स्पिरिट को, उसकी चुनौतियों को और उस दौरान विभिन्‍न धरातलों पर जारी वर्ग संघर्ष में जूझने की सर्वहारा युयुत्सा को स्वर देती है तथा साथ ही भविष्य के प्रति अमिट आशावाद और स्वप्नदर्शी कल्पनाशीलता को भी।

नई जनवादी क्रान्ति के बाद समाजवादी क्रान्ति एवं निर्माण के काम को 1955 में एक नया संवेग मिला। स्वयं माओ के ही शब्दों में, “चीन में 1955 का साल समाजवाद और पूंजीवाद के बीच के संघर्ष में फैसले का साल था।” 1953 में पहली पंचवर्षीय योजना की शुरुआत होने के बाद गांवों में ‘पारस्परिक सहायता टीमों’ से ‘अर्द्धसमाजवादी’ कृषि-उत्पादक सहकारी फार्मों में रूपान्तरण का काम शुरू हो चुका था। ‘अर्द्धसमाजवादी’ इन अर्थों में कि इन सहकारी फार्मों की आय का बंटवारा अंशतः सदस्यों के श्रम के आधार पर और अंशतः उनके द्वारा लगाई गई पूंजी और जमीन के हिसाब से होता था। जुलाई 1955 तक चीन के किसान परिवारों में से सिर्फ पन्द्रह प्रतिशत ही ऐसे सहकारी उपक्रमों में संगठित हो सके थे। 31 जुलाई,1955 को माओ ने सामूहिकीकरण की रफ्तार तेज करने का जो आह्वान किया उसके चलते इस प्रक्रिया ने चमत्कारी रफ्तार पकड़ ली। 1956 तक चीन में कृषि, दस्तकारी बड़े उद्योगों और वाणिज्य के क्षेत्र में उत्पादन के साधनों के मिल्कियत के समाजवादी रूपान्तरण का काम मुख्य तौर से पूरा हो चुका था। 1956 आते-आते अब माओ का मुख्य जोर इस बात पर था कि सहकारिता के प्रबंधन में उच्च मध्यम किसानों की मुख्य भूमिका को गरीब और भूमिहीनों के द्वारा विस्थापित कर दिया जाये तथा कृषि फार्मों की आय का वितरण सदस्यों में सिर्फ उनके द्वारा किये गये श्रम के हिसाब से हो। यह प्रक्रिया भी तेज गति से आगे बढ़ी और वह पृष्ठभूमि तैयार हो गई। जिसके आधार पर चीन की किसान आबादी तीन वर्षों बाद कम्यून बनाने के महान साहसिक प्रयोग में उतर सकी। 1955-56 के जाड़े के दौरान ही माओ ने उद्योगों के समाजवादी आधार पर निर्माण के क्षेत्र में भी ‘एक अग्रवर्ती छलांग का आह्वान किया था, जो दो वर्षों बाद शुरू होने वाली ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ (ग्रेट लीप फॉरवर्ड) की पूर्वपीठिका तैयार करने का ही एक हिस्सा था। सोवियत प्रयोग से अलग, इस दौर में माओ ने इस बात पर जोर दिया कि उद्योग का समाजवादी रूपांतरण एवं विकास कृषि की कीमत पर नहीं बल्कि उसके साथ-साथ होना चाहिए, वर्ना समाजवादी समाज में वर्ग विभेद का नया आधार तैयार होने लगेगा।

1956 में ही माओ ने समाजवादी क्रान्ति की वैकल्पिक रणनीति प्रस्तुत करने की शुरुआत ‘दस मुख्य संबंधों के बारे में’ शीर्षक प्रसिद्ध लेख लिखकर की। इस समय तक वे स्पष्टतः इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि निजी स्वामित्व के समाजवादी रूपान्तरण का काम पूरा हो जाने के बाद भी समाज में वर्ग-अन्तरविरोध मौजूद रहते हैं और वर्ग संघर्ष ही समाजवाद की कुंजीभूत कड़ी होता है। इसके विपरीत ल्यू शाओ-ची आदि की रहनुमाई में पार्टी के भीतर ही एक दूसरा धड़ा भी मौजूद था जो ‘उत्पादक शक्तियों के विकास’ के सिद्धांत का प्रवर्तन करते हुए वर्ग संघर्ष को खारिज कर रहा था।

विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में भी  स्तालिन की मृत्यु के बाद ख्रुश्चेव के नेतृत्व में तेजी से उभर रहा संशोधनवाद चीनी क्रान्ति के समक्ष बाहर से गंभीर समस्याएं उत्पन्‍न करने के साथ ही चीनी पार्टी के भीतर-जारी दो लाइनों के संघर्ष में भी संशोधनवादी लाइन को बल प्रदान कर रहा था। बीसवीं कांग्रेस में अपने कुख्यात गुप्त रिपोर्ट में स्तालिन पर हमले की आड़ लेकर खुश्चेव वस्तुतः समाजवाद पर हमले की शुरुआत कर चुका था। अप्रैल, 1956 में ‘सर्वहारा अधिनायकत्व के ऐतिहासिक अनुभव के बारे में’  नामक संपादकीय टिप्पणी लिखकर चीनी पार्टी ने जवाबी कार्रवाई भी शुरू कर दी थी। उधर विश्व स्तर पर शीतयुद्ध का घटाटोप सघनतम था। अमेरिकी साम्राज्यवाद चतुर्दिक आक्रामक था। हंगरी में प्रतिक्रान्तिकारी उभार भी इसी वर्ष हुआ था।

अभूतपूर्व संकट के इसी दौर में माओ ने ‘सौ फूलों को खिलने दो और हजारों विचारों को एक दूसरे से टकराने दो’ का नारा देकर आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र के साथ ही विचाराधारात्मक राजनीतिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में भी वर्ग-संघर्ष के उस नये उन्‍नत चरण का सूत्रपात कर दिया था जो आगे ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ के रूप में अपने शिखर पर जा पहुंचा था।

‘तैरना’ कविता इस कठिन दौर में सर्वहारा शौर्य, आशावाद और भविष्य के प्रति अडिग विश्वास को प्रकट करती है। याङत्सी महानदी को तैर कर पार करने का बिम्ब मानो उक्त कठिन दौर के वर्ग संघर्ष से जूझने और धारा के विरुद्ध तैरने का सूचक है। कवि का खुले आकाश में दूर-दूर तक देखना क्रान्तिकारी कल्पनाशीलता और दूर-दृष्टि का परिचायक है। तूफानी हवाओं और लहरों का आह्वान वर्ग-संघर्ष का आह्वान है और इन लहरों के बीच निश्चिन्त होना बीहड़ सघर्षों में जीने की क्रान्तिकारी आदत की अभिव्यक्ति है। “यूँ चीजें बहती जाती हैं अविरल गति से”-यह इतिहास की सतत् परिवर्तनशीलता के प्रति विज्ञान-सम्मत आस्था को स्वर देता है।

कवि तूफानों में अविचल अडिग पर्वतों के रूप में क्रान्तिकारी जनता और कम्युनिस्ट पार्टी को देखता है। “पश्चिम की ओर बहती प्रतिकूल धारा” में दोहरे अर्थ संकेत हैं जो चीनी पार्टी के भीतर के संशोधनवादियों की ओर भी इंगित करते हैं और पश्चिम के समक्ष घुटने टेकने की ओर आतुर ख्रुश्चेव की ओर भी। इस प्रतिकूल धारा में खड़ी पत्थर की दीवार के रूप में चीन के क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग और उसकी पार्टी को देखा गया है।

कविता का मूल भाव यह है कि इन तमाम प्रतिकूल स्थितियों में भी चीन में युगांतरकारी समाजवादी रूपान्तरण का काम निर्बाध रूप से जारी रहेगा।

[14] युद्धरत राज्य काल का एक राज्य, जिसका क्षेत्र मुख्य रूप से आज के हुए और हुनान प्रान्तों में फैला हुआ है।

[15] यहां ऊहान के याङत्सी पुल का उल्लेख है, जो उन दिनों निर्माणाधीन था।

[16] सेचुआन प्रान्त की ऊशान काउंटी के दक्षिण-पूर्व में स्थित एक पर्वत, जिसकी चोटी का नाम देवी शिखर है। एक पौराणिक कहानी के अनुसार, मेघ और वर्षां की देवी यही निवास करती है।

[17] कामरेड ली शू-ई पहले हुनान प्रान्त के चाङशा शहर के नं-10 मिडिल स्कूल में चीनी भाषा की अध्यापिका थीं। 1957 के बसंत में अपने शहीद पति ल्यू चिह-सुन की स्मृति में लिखी अपनी एक कविता माओ त्से-तुङ के पास भेजी। ल्यू चिह-सुन 1932 के युद्ध के दौरान शहीद हुए थे। ल्यू चिह-सुन माओ के पुराने सहयोद्धा थे। 1923 में वे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और बाद में हुनान प्रान्त के किसान संघ के महासचिव भी रहे। 1927 में उन्होंने “1 अगस्त” नानचाङ विद्रोह में भाग लिया। 1932 में वे छुपे प्रान्त के हुङहू क्षेत्र में चलाई गई मुहिम में खेत रहे।

ली शू-ई की कविता के उत्तर में माओ ने ल्यू चिह-सुन और अपनी शहीद पत्नी याङ काइ-हुई (1901-1930ई-) को याद करते हुए यह कविता लिखी। ताङ काइ-हुई 1921 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुई थीं। 1923 में उन्होंने माओ त्से-तुङ के साथ चाघशा, शंघाई, शाओशान, क्वाघचओ और ऊहान आदि स्थानों पर मजदूरों, किसानों और महिलाओं के आंदोलन में काम किया। 1925 में वे माओ के साथ शाओशान लौट गईं, जहां उन्होंने पार्टी-संगठन कायम करने और किसान संघर्ष चलाने में माओ की मदद की। 1927 में क्रान्ति की असफलता के बाद, माओ क्रान्तिकारी सशस्त्र सेना के साथ चिघकाघशान पर्वत पर चले गये और कामरेड ताङ काई-हुई उनके आदेशानुसार चाघशा में पार्टी की भूमिगत गतिविधियों में और उस इलाके में किसानों का सशस्त्र संघर्ष संगठित करने के काम में लगी रहीं। 1930 में प्रतिक्रियावादी क्वोमिन्ताघ ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। दुश्मन के सामने उन्होंने असाधारण साहस और निर्भिकता प्रदर्शित की और वीरता के साथ अपने प्राण न्यौछावर कर दिये।

इस कविता के संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि ताङ काइ-हुई ली-शुई की सहपाठिन और घनिष्ठ मित्र भी थीं।

[18] ल्यू और ताङ जो वास्तव में गोत्रनाम हैं, चीनी भाषा में क्रमशः विलो (भिंसा) और पॉपलर वृक्षों की संज्ञा भी हैं। इस दोहरे अर्थसंकेत का माओ ने काव्याभिव्यंजना के रूप में खूबसूरत इस्तेमाल किया है।

[19] ल्यू और ताङ जो वास्तव में गोत्रनाम हैं, चीनी भाषा में क्रमशः विलो (भिंसा) और पॉपलर वृक्षों की संज्ञा भी हैं। इस दोहरे अर्थसंकेत का माओ ने काव्याभिव्यंजना के रूप में खूबसूरत इस्तेमाल किया है।

[20] चीनी मिथक-शास्त्र के हिसाब से नवां आसमान सबसे ऊपर होता है। वहां इन दोनों आत्माओं का स्वागत ऊकाङ करता है। ऊकाङ ने अपने को अमर बनाने के प्रयत्न में देवताओं को नाराज कर दिया था। उसे चन्द्रमा पर बंदी बनाकर रखा गया था और एक विशाल जयपत्र (बनबहेड़ा) के वृक्ष को काटने का दंड दिया गया था जो काटे जाने के साथ ही फिर बढ़ आता है। इस पेड़ के फल से बनी शराब देवताओं का पेय थी जिसे पीकर ऊकाङ भी अमर हो गया था और चाङ ओ भी, जिसकी चर्चा कविता में ‘एकांकी चांद की देवी’ के रूप में आती है।

[21] ‘एकाकी चांद की देवी’ चाङ ओ है जो शिया साम्राज्य (2205-1776 ई-पूर्व) की एक खूबसूरत राजकुमारी थी जिसने अमृत चुराया था और चन्द्रलोक की देवी बन गई थी। वह वहां अकेली है और धरती पर वापस आना चाहती है।

[22] यहां कवि का संकेत प्रतिक्रियावादी क्वोमिंताङ और च्याङ काई-शेक की ओर है।

[23] पुराने चीन में यह समझा जाता था कि सभी महामारियां महामारी के देवता की देवता की देन हैं। कविता में महामारी के देवता का अभिप्राय सिस्टोसोमियासिस (घोंघा ज्वर) से है।

[24] च्याङशी प्रान्त के पूर्वी भाग में स्थित एक काउंटी जहां पहले सिस्टोसोमियासिस का भारी प्रकोप मौजूद था।

[25] चीन का एक प्राचीन श्रेष्ठ चिकित्सक।

[26] यहां अभिप्राय भूमध्य रेखा की लम्बाई और पृथ्वी की परिधि से है।

[27] यहां अभिप्राय आकाश गंगा के भीतर और बाहर स्थित तारामंडल से हैं।

[28] आकाशगंगा का प्रथम श्रवण नक्षत्र चीन में ग्वाला नक्षत्र कहलाता है। पौराणिक कथाओं में यह नक्षत्र किसानों का प्रतीक माना जाता है।

[29] यहां दैवी धरती से कवि का अभिप्राय चीन से है।

[30] जनश्रुति के अनुसार चीन के दो विवेकशील प्राचीन सम्राट।

[31] दक्षिण चीन में स्थित पांच पर्वत मालाएं। यहां कवि का संकेत दक्षिण चीन के विशाल क्षेत्र की ओर है।

[32] “तीन नदियों के इर्दगिर्द की धरती” से कवि का अभिप्राय मध्य चीन स्थित पीली नदी के मध्य भाग के आसपास के भूभाग से है।

[33] चीन के पुराने रिवाज के अनुसार कागज की नौकाएं भस्म करके और मोमबत्तियां जलाकार देवताओं को विदाई दी जाती थी अथवा भूतप्रेतों को भगाया जाता था।

[34] लूशान च्याङशी प्रान्त में ताङत्सी नदी के दक्षिणी तट पर च्यूच्याङ शहर के उत्तर में स्थित एक पर्वत है।

यह कविता माओ त्से-तुङ ने लूशान में ही हुई चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की आठवीं प्लेनम से ठीक एक माह पहले लिखी थी। इसी प्रसिद्ध तूफानी बैठक में उन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगाकर पार्टी के नेतृत्व में बैठे उन लोगों का विरोध करने का आह्वान किया था जो समाजवादी रास्ते को तिलांजलि देना चाहते थे और जो ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ पर्दे के पीछे से विध्वंसक विरोध कर रहे थे।

यह कविता जब लिखी गई थी, उस समय न केवल चीन में, बल्कि विश्वस्तर पर भी संशोधनवाद और क्रान्तिकारी कम्युनिज्म के बीच निर्णायक संघर्ष की विभाजक रेखा खींच चुकी थी। जून के महीने में, माओ जब हुनान में थे, उसी समय ख्रुश्चेव ने चीन के साथ नई सामरिक तकनोलॉजी संबंधी समझौते को एकतरफा ढंग से रद्द कर दिया और चीनी पार्टी पर आर्थिक-राजनीतिक दबाव बनाने लगा कि वह अपनी सिद्धान्तनिष्ठ अवस्थिति को बदल दे और आधुनिक संशोधनवाद के समक्ष घुटने टेक दे। इधर चीन में भी पार्टी के भीतर के दक्षिणपंथी तत्वों का दबाव चरम पर था।

इस चतुर्दिक घेरेबंदी के बीच माओ एक नये निर्णायक संघर्ष के लिए कमर कस रहे थे। इस समय के अपने मनोभावों को इस कविता में बांधते हुए माओ ने गहराते संघर्ष को उमड़ते-घुमड़ते गहराते बादलों के रूप में देखा है। पूर्वी किनारे पर पछाड़ खाती प्रचंड लहरों से अभ्रिपाय क्रान्ति की धारा से हैं।

[35] लूशान के निकट, पूरब में ताङत्सी में कई सहायक नदियां आकर मिलती हैं, जिनकी चर्चा चीनी क्लासिकी कविता में बहुता नौ जलधाराओं के नाम से आती है।

[36] यह मीनार वुचाङ के पश्चिम में ऊंचाई पर स्थित है, जहां से नीचे ताङत्सी बहती हुई दिखाई देती है। पौराणिक कथा के अनुसार, एक ताओपंथी पीले सारस पर सवार यहां से गुजरा था, तभी से इसका नामकरण पीले सारस वाली मीनार हो गया।

[37] प्रिफेक्ट ताओ युआन-मिङ (365-427 ई-) चिन राजवंश का एक कवि था जो कुछ समय के लिए काउंटी मजिस्ट्रेट भी रहा। उसका जन्मस्थान लू शान पर्वत के निकट था। ताओ युआन-मिङ से जब कहा गया कि वह यथोचित अदब और तामझाम के साथ अपने ऊपर के एक अधिकारी की आगवानी करे तो उसने यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि ‘वह महज पांच बोरी चावल के लिए एक क्षुद्र फूहड़ व्यक्ति के सामने सिर भला कैसे झुकायेगा? ऐसे करने के बजाय उसने अपना पद त्याग दिया। कविता में माओ ने चीन की पार्टी के क्रान्तिकारियों को और स्वयं को ताओ युआन-मिङ के रूप में देखा है जो सोवियत संशोधनाद (और व्यक्ति के रूप में ख्रुश्चेव) के फूहड़ व्यक्तित्व के सामने आर्थिक-सामरिक सहायता के लिए सिर झुकाने से इनकार कर देता है।

[38] ताओ युआन-मिङ ने “सतालू पुष्प से सुशोभित भूमि” नामक एक कृति की रचना की थी जिसमें एक सुखी समाज का काल्पनिक चित्र उपस्थित किया गया था। माओ ने यहां इंगित किया है कि ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ और कम्यूनों के निर्माण के बाद चीन का समाज एक ऐसा ही सुखी समाज होगा और यह वास्तविक होगा जबकि ताओ द्वारा चित्रित समाज काल्पनिक था।

[39] यह कविता माओ ने चीन में समाजवादी क्रान्ति एवं निर्माण के एक कठिनतम दौर में लिखी थी। चीन को पश्चिमी साम्राज्यवादियों के घेरेबंदी के अतिरिक्त सोवियत संघ के असहयोग और भितरघाती कार्रवाईयों का भी सामना करना पड़ रहा था। 1960-61 का जाड़ा चीन के लिए बेहद कठिन था। उस दौरान जनता को जबर्दस्त अकाल का सामना करना पड़ा था।

इन कठिन स्थितियों से जूझने के लिए संकल्प बांधते हुए माओ चीन के अतीत को याद करते हैं और भविष्य में अपनी गहरी आस्था प्रकट करते हैं।

[40] यहां कवि का अभिप्राय सम्राट याओ की दो बेटियों से है। पौराणिक कथा के अनुसार इन दोनों बहनों ने याओ के उत्तराधिकारी सम्राट शुन से विवाह किया था। दक्षिण प्रदेश का दौरा करते समय हुनान प्रान्त में सम्राट शुन का देहान्त हो गया और च्यूई पर्वत पर उसकी समाधि बना दी गई। सम्राट के निधन का समाचार पाते ही दोनों रानियां हुनान पहुंच गईं। कहा जाता है कि सिताङ नदी कि किनारे उन्होंने इतने आसूं बहाये कि नदी तट पर स्थित बांस वन के सभी बांसों पर चित्तियां पड़ गईं।

यहां माओ का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार शहजादियों के शोक से बांस के वृक्षों में एक नया सौन्दर्य पैदा हो गया, उसी तरह चीनी जनता का दुःख भरा कठिन समय भी अन्ततः एक सुंदर भविष्य का निर्माण करेगा। यही भौतिकवादी द्वंद्ववाद का नियम है। इसीलिए माओ ने उपरोक्त शहजादियों को हवा पर सवार और गुलाबी लाल परिधानों से सजा हुआ दिखाया है, जो चीनी जनता की खुशहाली का एक भविष्य-चित्र है।

[41] हुनान प्रान्त की एक झील।

[42] यहां माओ का अभिप्राय चाङशा के निकट सिताङ नदी में स्थित नारंगी टापू से है। “धरती को हिला देने वाले तराने” के रूप में माओ अपने युवावस्था के क्रान्तिकारी अनुभवों को याद करते हैं और इंगित करते हैं कि उन दिनों की स्मृतियां अभी भी जनता के हृदय को आलोड़ित कर रही हैं।

[43] “जवा कुसुम की धरती” हुनान का साहित्यिक नाम है जो ताङ राजवंश कालीन कविता से लिया गया है। निर्बाध-उन्मुक्त सपने में  ‘जवाकुसुम’ की धरती को सुबह की रोशनी में चमकते हुए देखना वस्तुतः एक दिन चीन में कम्युनिज्म के अवतरण का सपना देखना है।

[44] यह कविता माओ ने अपनी पत्नी और सहयोद्धा चिताङ चिङ द्वारा खींचे गये एक कलात्मक छायाचित्र के पीछे लिखी थी। चिताङ चिङ कलात्मक फोटोग्राफी लि चिन नाम से करती थीं। यह चित्र लुशान नगर के बाहर पहाड़ के कगार पर खड़े देवदारु के वृक्ष को दर्शाता है। यह छायाचित्र 1959 में लूशान की उस तूफानी बैठक के ठीक बाद लिया गया था, जिसकी चर्चा ‘लूशान पर चढ़ते हुए’ कविता पर ऊपर दी गई टिप्पणी-1 में की गई है।

चित्र पर लिखी गई कविता लूशान बैठक की स्थितियों की भी याद दिलाती है और 1961 के कठिन समय को भी प्रतिबिम्बित करती है। “दुर्गम खतरनाक ऊंचाईयो पर ही/ दिखती है सुन्दरता/ अपने अनन्त रूपों में”-इन पंक्तियों का यह अभिप्राय स्पष्ट है कि कठिन साहसिक संघर्षों से गुजरकर ही समाजवादी जीवन के सौन्दर्य के अनन्त रूपों से साक्षात्कार किया जा सकता है।

[45] कुओ मो-जो द्वारा माओ को भेजी गई कविता और उसके उत्तर में लिखी गई कविता में सोलहवीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध पौराणिक उपन्यास में वर्णित कथा का संदर्भ है जिसके माध्यम से ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरोध में संघर्ष की तत्कालीन स्थितियों को अभिव्यक्त किया गया है।

उपरोक्त उपन्यास पर आधारित एक ऑपेरा को देखने के बाद ही कुओ मो-जो ने अपनी कविता लिखी थी। ऑपेरा में बौद्ध भिक्षु सियेन च्वाङ अपने तीन शिष्यों-दिव्य वानरराज (यानी ऊ कुङ), सूअर और भिक्षु शा को लेकर बौद्ध सूत्र लेने भारत की तीर्थयात्रा करने जाता है। रास्ते में उसे “सफेद हड्डियों का शैतान” मिलता है जो दीर्घजीवी होने की आकांक्षा से प्रेरित होकर भिक्षु का मांस खाना चाहता है। तीन बार वह क्रमशः एक सुन्दर युवती, एक बुढ़िया और बूढ़े आदमी का रूप धारण करके आता है। तीनों बार दिव्य वानरराज उसे पहचान लेता है, पर भिक्षु उसे जाने देता है। उल्टे वह वानरराज को ही आदेश न मानने के लिए दंडित करता रहता है। यात्रा के दौरान वानरराज को वश में रखने के लिए वह उसके सिर पर एक स्वर्णचक्र पहनाये रहता है जब वानरराज उसके गलत आदेशों का पालन नहीं करता है तो वह स्वर्णचक्र को सिकोड़ने के लिए सस्वर मंत्रपाठ करता है जिससे वानरराज के सिर में असह्य पीड़ा होने लगती है। उक्त कथा में, अन्त में दिव्य वानरराज अपनी भारी गदा से शैतान को मार डालता है।

कुओ मो-जो की कविता में भ्रमित भिक्षु (संशोधनवादी) ख्रुश्चेव गुट का प्रतीक है जो अमेरिकी साम्राज्यवाद (सफेद हड्डियों वाला शैतान) के प्रति नरमी बरतता है लेकिन चीन लोक गणराज्य की क्रान्तिकारी जनता और चीनी कम्युनिष्ट पार्टी (दिव्य वानरराज) के प्रति अन्यायपूर्ण जोर-जबदस्ती का व्यवहार करता है।

माओ त्से-तुङ ने अपनी कविता में यह भाव प्रकट किया है कि चीनी क्रान्ति का तूफान आते ही पश्चिमी साम्राज्यवाद का शैतान भी सक्रिय हो गया है। ख्रुश्चेवी गुट इस सच को जानते हुए भी नरमी बरत रहा है। माओ की कविता में यह कहा गया है कि अतीत में जिस तरह क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ने अपनी पार्टी के नेतृत्व में विश्व पूंजीवाद को शिकस्त दी थी, उसी तरह आगे भी होगा। कविता इसके लिए सर्वहारा वर्ग और कम्युनिस्टों का आह्वान करती है।

[46] 7 जनवरी, 1963 को ‘प्रावदा’ ने अल्बानिया की पार्टी को निशाना बनाकर या “वामपंथी” और “कठमुल्लावादी” लोगों की आलोचना का बहाना बनाकर प्रहार करने के बजाय, पहली बार चीन की पार्टी पर सीधे प्रहार किया। इसके ठीक दो दिनों बाद, कुओ मो-जो की कविता का जवाब देने के बहाने से माओ ने अपने मनोभावों को इस कविता में बांधा, जिसमें अपने देश की जनता और अपनी पार्टी में अटूट विश्वास, संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष में विजय के प्रति अडिग आस्था और गहरे क्रान्तिकारी आत्मविश्वास को प्रकट किया गया है।

अंशतः ‘प्रावदा’ के कीचड़ उछालने से प्रेरित होने के बावजूद यह कविता संपूर्ण विश्व परिस्थिति पर भी प्रतिक्रिया प्रकट करती है। चीनी पार्टी की एक टिप्पणी के अनुसार, “1963 वह वर्ष था जब विश्व स्तर पर सभी प्रतिक्रियावादी शक्तियों का चीन-विरोधी कोरस अपने शिखर पर जा पहुंचा। पर साथ ही, इसी वर्ष एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका की जनता की क्रान्तिकारी लहर भी अपने चरमोत्कर्ष पर जा पहुंची। यह मार्क्सवाद-लेनिनवाद विरोधी विचारधारात्मक लहर की प्रचण्डता का समय था, लेकिन इसके बावजूद सत्य के साहसिक योद्धाओं के अविराम संघर्ष का सिलसिला भी जारी था।”

इसी स्थिति को माओ ने इस कविता में क्रान्तिकारी और परंपरागत बिम्ब-विधान के असाधारण संयोजन के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

[47] कविता में भूमंडल को छोटा इसीलिए कहा गया है कि सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावादी क्रान्तिकारी की दृष्टि में इसकी विशालता कोई अर्थ नहीं रखती क्योंकि सर्वहारा वर्ग अपनी क्रान्तिकारी कार्रवाइयों के द्वारा इसे बदल डालने में सक्षम हैं।

[48] बिना रुके भनभनाने, चीखने और कराहने वाली मक्खियों से तात्पर्य साम्राज्यवादियों और आधुनिक संशोधनवादियों से है।

[49] ये दीवारें मार्क्सवाद-लेनिनवाद की क्रान्तिकारी विचारधारा की हैं।

[50] इन पंक्तियों में जिन चीटियों और चींटों की चर्चा की गई है उनसे कवि का अभिप्राय सोवियत संशोधनवादियों से है जो चीन पर बडे़ राष्ट्र की धौंसपट्टी (बिग नेशन शॉवनिज्म) दिखाते थे। विशाल वृक्ष चीन की पार्टी और उसकी विचारधारा का प्रतीक है। चीनी पार्टी के एक मुखपत्र के अप्रैल 1964 के एक संपादकीय के अनुसार, “माओ और उनके विचारों पर कीचड़ उछालने के अनथक प्रयासों में लगे सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतागण वस्तुतः उन चींटों के समान हैं जो हास्यास्पद ढंग से अपनी औकात बढ़ाचढ़ाकर आंक रहे हैं और एक विशाल वृक्ष को उखाड़ देने के मसूंबे बांध रहे हैं।” इससे कविता का संदर्भ स्पष्ट हो जाता है। बबूल के पेड़ का संदर्भ ताङ राजवंश की एक कहानी से जुड़ा हुआ है। उक्त कहानी में कहा गया है कि एक आदमी शराब के नशे में सो गया और सपने में “बबूल राज्य” के राजा का दामाद और उसकी दक्षिणी शाखा का प्रिफेक्ट बन गया। “बबूल राज्य” वास्तव में बबूल के पेड़ के नीचे एक छोटा सा छिद्र था, जिसमें चींटियां रहती थीं।

[51] चाङआन नगर शेनशी प्रांत का वर्तमान चीआन नगर है जो प्राचीन काल में चीन की प्रसिद्ध राजधानी था। कविता में यह पूरे चीन के प्रतीक के रूप में आया है।

[52] ‘पंक्तियां’ प्रतिक्रियावादी शक्तियां हैं जो क्रान्तिकारी विस्फोट से बिखर गई हैं। पर साथ ही, माओ का तात्पर्य शायद यहां सोवियत और अन्य संशोधनवादियों के प्रोपेगैण्डा से भी है।

[53] तीर मार्क्सवादी-लेनिनवादी सच्चाई के प्रतीक हैं जिनसे चीन की पार्टी अपने दुश्मनों को जवाब देती है।

[54] कविता के इस अंतिम हिस्से में विश्व स्तर पर क्रान्तिकारी धारा के नये उत्कर्ष का उल्लेख किया गया है और क्रान्तिकारियों को उनके चुनौतीपूर्ण कार्यभारों की याद दिलाते हुए बिना रुके लगातार संघर्षरत रहने के लिए उनका आह्वान किया गया हैं।

[55] यहां माओ त्से-तुङ की संकलित रचनाओं के चार खंडों का हवाला दिया गया है।

[56] यह एक चीनी कहावत है। प्राचीन जनश्रुति के अनुसार चियेह एक निरकुंश सम्राट था जबकि याओ एक दयालु और विवेकशील सम्राट। चियेह यहां साम्राज्यवाद को और चियेह का कुत्ता सोवियत संशोधनवाद को कहा गया है। याओ यहां चीन की पार्टी और माओ त्से-तुङ को कहा गया है।

[57] मिट्टी के सांड से यहां तात्पर्य साम्राज्यवाद और आधुनिक संशोधनवाद से है।

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