मदर टेरेसा और उनके उत्तराधिकारियों का ‘‘मिशन’’: सेवा का सच!
- भूपेश कुमार सिंह
पिछले वर्ष, भारत रत्न, नोबेल पुरस्कार विजेता मदर टेरेसा के अन्तिम समारोह में उन्हें श्रद्धांजलि देने दुनिया भर की विभूतियां और राष्ट्राध्यक्ष गण कलकत्ता में उमड़ पड़े। महीनों तक अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में मदर की सादगी, सौम्यता, सेवा, समर्पण और उनके उदात्त मिशन की महानता की चर्चा रही।
मदर टेरेसा एक विशाल संस्था की अधिष्ठात्री और सत्तातंत्र द्वारा सुपूजित थीं। जाहिरा तौर पर उनकी जगह लेने वाली सिस्टर निर्मला भी अब एक काफी बड़ी हस्ती हैं। मदर टेरेसा की मृत्यु के बाद ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ ने सिस्टर निर्मला की प्रेस वार्ता का एक समाचार 13 सितम्बर, 1997 को प्रकाशित किया (‘पावर्टी इज़ गिफ्ट ऑफ गॉड’, सेज़ निर्मला)। यहां पहले हम इस समाचार का अविकल अनुवाद दे रहे हैं:
कलकत्ताः मिशनरीज ऑफ चैरिटी की सुपीरियर जनरल सिस्टर निर्मला ने यहां शुक्रवार को अपने पहले पत्रकार सम्मेलन में कहा, ‘‘गरीबी ईश्वर का उपहार है और यह हमेशा बनी रहेगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि यदि दुनिया से गरीबी का उन्मूलन हो जाये तो ‘‘हम बेरोजगार हो जायेंगे।’’
‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के काम के बारे में पूछे जाने पर सिस्टर निर्मला ने, जो इसी वर्ष मार्च में मदर टेरेसा की उत्तराधिकारिणी बनी हैं, बताया, ‘‘हम गरीबों की सिर्फ सहायता कर सकते हैं।’’ गरीबी ईश्वर का उपहार है, इस कथन का स्पष्टीकरण पूछे जाने पर कहा कि गरीबों को ‘‘अपनी गरीबी का सही ढंग से इस्तेमाल करना चाहिए।’’
गरीबी के इस्तेमाल का सही रास्ता यह है कि ‘‘वे अपनी गरीबी को स्वीकार करें और जो कुछ भी ईश्वर ने उन्हें दिया है उससे सन्तुष्ट रहें,’’ उन्होंने इसके आगे कहा।
गरीबी को स्वीकार करने के बारे में पूछे जाने पर सिस्टर निर्मला ने कहा कि गरीबों को ‘‘कलपना-कराहना नहीं चाहिए।’’ सरकार के गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम और उसके बारे में मिशनरीज ऑफ चैरिटी की राय पूछे जाने पर सिस्टर निर्मला ने कहा कि यह सरकार का मामला है और बताया कि यदि गरीबी खतम हो जायेगी तो वे अपनी नौकरियां गंवा बैठेंगी।
सिस्टर निर्मला का कहना था कि मदर टेरेसा के जरिए, ईश्वर ने मिशनरीज आफ चैरिटी के रूप में गरीबों की सेवा के साधन प्रदान किये हैं। उन्होंने कहा कि गरीबी हमेशा बनी रहेगी और मिशनरीज ऑफ चैरिटी भी हमेशा गरीबों की सेवा करती रहेगी।
यह पूछे जाने पर कि मिशनरीज ऑफ चैरिटी अस्पताल क्यों नहीं बनवाती है, सिस्टर निर्मला ने स्पष्ट किया कि यह उनका काम नहीं है। उनका मकसद सिर्फ सन्त बनना है। मदर टेरेसा ने कहा था कि मिशनरीज ऑफ चैरिटी का उद्देश्य मदर चर्च के लिए सन्त उपलब्ध कराना है और गरीबों की सेवा इसका साधन है।…
‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ की ‘फण्डिंग’ के बारे में पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देते हुए सिस्टर निर्मला का रवैया रक्षात्मक और टालने वाला था। उन्होंने कहा कि लोग जब पैसा देते हैं तो यह ईश्वर के प्यार के लिए होता है। ‘‘हम नहीं जानते कि यह कहां से आता है,’’ उन्होंने कहा।…
उपरोक्त साक्षात्कार अपने आप में ही काफी कुछ स्पष्ट करने वाला है। वैसे इतना स्पष्ट है कि सिस्टर निर्मला अभी इस पूरे खेल की कुशल खिलाड़ी नहीं बन सकी हैं, तभी उनका उपरोक्त साक्षात्कार न केवल मिशनरीज ऑफ चैरिटी की अबतक उत्पादित-विनिर्मित छवि को ध्वस्त करता है, वरन् ‘‘लाभहीन क्षेत्र’’ (नॉन-प्रॉफिट सेक्टर) के पीछे क्रियाशील पूंजी के कुत्सित षड्यंत्र की ओर भी इंगित-सा कर जाता है।
साक्षात्कार से स्पष्ट है कि अगर सिस्टर निर्मला को लगे कि सेवा छोड़ किसी अन्य कार्यकलाप द्वारा सन्त भर्ती किये जा सकते हैं तो वे बेहिचक अपनी सेवा का धंधा छोड़ देंगी। यदि कोई संस्था सिर्फ अपने धंधे को चलाते रहने के लिए गरीबी जैसी अमानवीय दुरवस्था के बने रहने की कामना करती है तो उसके कार्य-कलापों को निःस्वार्थ सेवा भला कैसे कहा जा सकता है? वास्तव में दया-करुणा से पूरित हृदय वाला कोई व्यक्ति क्या यह सोच सकता है कि दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा भोजन, कपड़ों, दवा-इलाज की सुविधाओं से सिर्फ इसलिए वंचित बना रहे कि सेवा का उसका धंधा चलता रहे और वह बेरोजगार न हो। गरीबी को ईश्वरीय उपहार कहकर जब उसे स्वीकारने के उपदेश दिये जाते हैं तो उसका लक्ष्य यही होता है कि गरीबों को धार्मिक चेतना के भुलावे में रखकर शोषकों के सामने सुलभ शिकार के रूप में प्रस्तुत किया जा सके और यह कि वे पूरी व्यवस्था को देख पाने और नष्ट कर पाने के लिए कभी क्रियाशील न हो सकें।
गरीबी की अपरिहार्यता के पक्ष में भांति-भांति के तर्क गढ़ने वाली सिस्टर निर्मला ने अपनी संस्था के आर्थिक स्रोतों के बारे में टालू रुख अपनाया। स्मरणीय है कि मदर टेरेसा के सामने भी जब यह प्रश्न आया कि वे साम्राज्यवादियों और यहां तक कि रक्तपिपासु तानाशाहों तक से सहायता क्यों लेती हैं, तो उन्होंने भी दो टूक शब्दों में कहा था कि उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि उनके मकसद में लगने वाले पैसे का स्रोत क्या है।
सच यह है कि गरीबी को मिटाना या बनाये रखना-दोनों ही किसी मदर टेरेसा, सिस्टर निर्मला या किसी मिशनरीज या सेवाव्रती सर्वोदयी, सन्त-महात्मा आदि के बस की बात नहीं है। गरीबी पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का सुनिश्चित सामाजिक सम्बन्धों का उप-उत्पाद (बाइ-प्रोडक्ट) है। मिशनरीज ऑफ चैरिटी या सिस्टर निर्मला उसी विश्व-व्यवस्था का एक औजार मात्र हैं, जिसके अन्तर्गत पूंजी के मुख्य क्रीड़ांगन से परे सुदूर एशिया में भूमण्डलीय तंत्र के स्वामी भांति-भांति की संस्थाएं खड़ी करते हैं। इनमें से कोई संस्था गरीबों को भाग्यवाद का पाठ पढ़ाती है, कोई पूंजीवादी सुधारवाद का और कोई सुधारों की मांग वाले आन्दोलनों तक की रहनुमाई करके इसी व्यवस्था के ‘सेफ्रटीवॉल्व’ और विभ्रम-उत्पादक मशीनरी का काम करती है। कुल मिलाकर इनका काम है जन-क्रान्तियों की चेतना के विकास के मार्ग में भांति-भांति से अवरोध उत्पन्न करना!
जोन रोयलोव्स के अनुसार, अपनी तमाम कमजोरियों और शक्तिशाली प्रतिरोध आन्दोलनों के बावजूद यदि पूंजीवाद ध्वस्त नहीं हुआ है तो इसके पीछे इसके लाभरहित क्षेत्र (नॉन-प्रॉफिट सेक्टर) यानी मिशनरीज व तमाम अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं की सक्रिय भूमिका है। अकेले संयुक्त राज्य अमेरिका में इस क्षेत्र में 400 बिलियन डालर की पूंजी लगी हुई है। इसपर न कोई आयकर देना होता है, न ही इसका कोई हिसाब-किताब रखना होता है। इसमें राकफेलर और फोर्ड फाउण्डेशन के धन से लेकर अकिंचन नागरिकों द्वारा चर्च को दान में दिये सिक्के तक शामिल हैं। इस पूरे लाभरहित क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य वस्तुतः पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक प्रणाली को बनाये रखना है।
लाभ रहित क्षेत्र की जो संस्थाएं शिक्षण संस्थानों-अस्पतालों आदि का (और भारत में मन्दिरों का भी) निर्माण करती हैं, वे आयकर मुक्त नियोजन द्वारा समाज में शक्तिशाली स्थान अर्जित करती हैं जो उनकी सकल पूंजी की शक्ति से इतर किस्म की होती हैं। साथ ही शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से वे समाज के बौद्धिक तबके को भी प्रलोभित-नियंत्रित करती हैं। इस कोटि के छद्म कल्याणकारी संस्थान समाज के वंचित तबकों में से कुछ को वे सेवाएं और सुविधाएं उपलब्ध कराते हैं जो अन्यथा बाजार-व्यवस्था उन्हें नहीं दे सकती थी। इससे वंचित आबादी की चेतना कुन्द करने का काम किया जाता है। ये संस्थान पूंजीवाद की दूसरी सेवा यह करते हैं कि ये शासक वर्गों की नाकारा संतानों को जो पूंजीवाद के लिए अनुपयोगी सिद्ध होते हैं तथा अन्य वर्गों के असन्तुष्ट एवं विद्रोह की संभावना से युक्त लोगों को सेवायोजित कर एक ऐसी औषधि बनाते हैं जो पूंजीवाद का नजला-जुकाम ठीक करती है।
दायित्वबोध, नवम्बर 1997 – फरवरी 1998