अनश्वर हैं सर्वहारा संघर्षों की अग्निशिखाएँ

अनश्वर हैं सर्वहारा संघर्षों की अग्निशिखाएँ

  • दीपायन बोस

प्रकाशकीय

यह निबन्ध हिन्दी पत्रिका ‘दायित्वबोध’ के मई-जून 1992 के अंक में प्रकाशित हुआ था। राहुल फ़ाउण्डेशन से पुस्तिका के रूप में 1995 में इसे प्रकाशित किया गया और तब से इसके कई संस्करण निकल चुके हैं। दो वर्ष पूर्व इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी हमने प्रकाशित किया है।

सर्वहारा क्रान्ति की फ़िलहाली हार, पूँजीवादी पुनर्स्थापना, विपर्यय और गतिरोध के वर्तमान विश्व ऐतिहासिक दौर का विश्लेषण करते हुए इसमें विश्व सर्वहारा आन्दोलन की इतिहास-विकास यात्रा पर एक विहंगम दृष्टि डाली गयी है और इसके समाहार के आधार पर क्रान्तियों के भविष्य के बारे में कुछ सम्भावनाएँ, कुछ विचार प्रस्तुत किये गये हैं। इसे लिखे जाने के समय से दुनिया में बहुत से बदलाव आ चुके हैं लेकिन इसमें सर्वहारा की मुक्ति के लिए विश्व-ऐतिहासिक वर्ग महासमर के पहले चक्र का जो समाहार प्रस्तुत किया गया है और जो भविष्यवाणियाँ की गयी हैं, वे मूलतः आज भी सही हैं। वस्तुतः, आज दुनिया की परिस्थितियाँ विश्व ऐतिहासिक वर्ग महासमर के दूसरे चक्र के बारे में इसके कथनों को सही साबित कर रही हैं। हम समझते हैं कि सर्वहारा क्रान्तिकारियों और वामपन्थी बुद्धिजीवियों के साथ ही उन सबके लिए यह उल्लेखनीय और विचारोत्तेजक सामग्री है जो मार्क्सवादी विज्ञान के विकास के बारे में जानने में दिलचस्पी रखते हैं। ।

– राहुल फ़ाउण्डेशन (10.1.2010)

हम समय के युद्धबन्दी हैं

युद्ध तो लेकिन अभी हारे नहीं हैं हम।

लालिमा है क्षीण पूरब की

पर सुबह के बुझते हुए तारे नहीं हैं हम।

 

सच यही, हाँ, यही सच है

मोर्चे कुछ हारकर पीछे हटे हैं हम

जंग में लेकिन डटे हैं, हाँ, डटे हैं हम!

 

बुर्ज कुछ तोड़े थे हमने

दुर्ग पूँजी का मगर टूटा नहीं था!

कुछ मशालें जीत की हमने जलायी थीं

सवेरा पर तमस के व्यूह से छूटा नहीं था।

नहीं थे इसके भरम में हम!

 

चलो, अब समय के इस लौह कारागार को तोड़ें

चलो, फिर ज़िन्दगी की धार अपनी शक्ति से मोड़ें

पराजय से सबक़ लें, फिर जुटें, आगे बढ़ें फिर हम!

 

न्याय के इस महाकाव्यात्मक समर में

हो पराजित सत्य चाहे बार-बार

जीत अन्तिम उसी की होगी

आज फिर यह घोषणा करते हैं हम!

 

हम समय के युद्धबन्दी हैं…

 

शशि प्रकाश

आठ घण्टे के कार्यदिवस के लिए जारी मज़दूर वर्ग के संघर्ष के दौरान 1886 की पहली मई को शिकागो के मज़दूर जब अपने ख़ून से विश्व इतिहास के महाकाव्य के नये सर्ग की रचना कर रहे थे, उस समय पेरिस कम्यून को बीते हुए सिर्फ़ सोलह वर्ष ही हुए थे।

23 मई, 1871 को, जब कम्यूनार्डों का वीरतापूर्ण संघर्ष अभी जारी ही था और मज़दूरों के पेरिस तथा बुर्जुआ वर्साय के बीच प्रचण्ड युद्ध अभी चल ही रहा था, ‘इण्टरनेशनल वर्किंग मेन्स एसोसिएशन’ की आम परिषद की एक बैठक को सम्बोधित करते हुए कार्ल मार्क्स ने कहा था, “…यदि पेरिस कम्यून को कुचल दिया जाता है, तो भी संघर्ष केवल स्थगित होगा। कम्यून के सिद्धान्त शाश्वत हैं तथा उन्हें मिटाया नहीं जा सकता, वे बार-बार तब तक अपने को उद्घोषित करते रहेंगे, जब तक मज़दूर वर्ग अपनी मुक्ति नहीं प्राप्त कर लेता।” फ़्रांसीसी बुर्जुआ वर्ग की धोखेबाज़ थियेर हुकूमत ने जर्मन कसाई बिस्मार्क की मदद से इतिहास की प्रथम सर्वहारा सत्ता को ख़ून के दलदल में डुबो दिया पर पेरिस कम्यून के आदर्शों का और यशस्विता का कीर्तिस्तम्भ उसके बाद भी उन्नतशिर खड़ा रहा और दुनियाभर के मज़दूरों की समर-यात्रा जारी रही। आज़ादी की मशाल बुझी नहीं। मुक्ति का परचम गिरा नहीं। मई दिवस का शहीद नायक अल्बर्ट पार्सन्स और उसके साथी स्पाइस, फ़िशर और एंजिल पेरिस के वीर कम्यूनार्डों के ही वंशज थे। सोवियत समाजवादी क्रान्ति के सेनानी, उन्मादी फ़ासिस्टों को धूल चटाने वाले सोवियतों की सर्वहारा सत्ता के पहरुए, चिङकाङशान के पहाड़ों में नयी जनवादी क्रान्ति का रणघोष करने वाले चीन के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के बहादुर युवा रेड गार्ड तथा दुनिया की तमाम अन्य सफल-असफल सर्वहारा क्रान्तियों के सिपाही भी पेरिस के कम्यूनार्डों और पार्सन्स एवं उनके साथियों के ही उत्तराधिकारी थे। जोहान्न फ़िलिप्प बेकर और इवान बाबुश्किन जैसे क्रान्तिकारी मज़दूर चरित्रों के निर्माण का सिलसिला लगातार ज़िन्दा रहा और आज, विपर्यय और पराजय के प्रतिकूलतम दौर में भी, पुनर्स्थापना के कठिनतम दिनों में भी, इसकी सतत प्रवहमानता बाधित नहीं हुई है।

आज साम्राज्यवादी सरगनाओं की विजयोन्मत्त चीख़ों, पूँजीवादी भाडे़ के टट्टू कलमघसीटों की किलकारियों, पूरी दुनिया को नये सिरे से लूट के माल के रूप में बाँट लेने के लिए विश्व पूँजीवाद के चौधरियों के बीच मची हुई हड़बोंग और गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा, मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की आहों-कराहों और अकादमिक मार्क्सवादियों के समयानुकूल ‘मुक्त चिन्तन’ के अन्तहीन सिलसिलों के बीच, अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के हरावल दस्ते फिर से सुसज्जित हो रहे हैं। वे अपनी क़तारों को गोलबन्द और संगठित कर रहे हैं। वे अब तक के वर्गीय विश्व महासमर के अनुभवों का समाहार कर रहे हैं और आगे की लड़ाई की नीति और रणनीति तय कर रहे हैं। वे अपने विचारधारात्मक शस्त्रगार की साज-सँभार कर रहे हैं तथा अतीत के अनुभवों, विश्व-परिस्थितियों और अलग-अलग देशों की क्रान्तियों को लेकर जुझारू बहस चला रहे हैं। वे विचारधारात्मक सुदृढ़ीकरण कर रहे हैं और विपथगामियों की पहचान कर रहे हैं। वे बुर्जुआओं के कुत्सा प्रचार के घटाटोप में दृढ़तापूर्वक खडे़ होकर मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु और बुनियादी प्रस्थापनाओं की हिफ़ाज़त कर रहे हैं। वे धूल और राख से ढँकी इतिहास की विरासत को नये अनुभवों से निःसृत विचारधारात्मक आलोक में निरख-परख रहे हैं। वे विश्व-पूँजीवाद की अहंकारी, उन्मत्त हुंकारों के पीछे छिपी उसकी निरुपाय संकटग्रस्तता की भावी परिणतियों का, साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच उभरते हुए नये ध्रुवीकरण का, दुनियाभर के अलग-अलग स्तरों के पूँजीवादी शासकों के बीच बनते नये समीकरणों का, वित्तीय पूँजी की नयी वैश्विक रणनीतियों का, सांस्कृतिक आक्रमण के नये औज़ारों एवं भूमण्डलीय (ग्लोबल) संचार तन्त्र के प्रभावों का, राजनीतिक धौंसपट्टी के नये-नये रूपों का, साम्राज्यवाद की सर्वाधिक कमज़ोर कड़ियों का तथा लम्बे समय से विश्व पूँजीवादी तन्त्र के नासूर बने हुए मध्य पूर्व और मध्य अमेरिका सहित पूरे लातिन अमेरिका के साथ ही सभी वैश्विक अन्तरविरोधों की नयी गाँठ के रूप में पूर्वी यूरोप में नयी रणस्थली की निर्माण-प्रक्रिया का सावधानीपूर्वक, गहराई के साथ अध्ययन कर रहे हैं ताकि क्रान्तिकारी संकट के भावी विस्फोट-बिन्दुओं को क्रान्ति की शक्ल में रूपान्तरित किया जा सके। इतिहास विकास की यही सुनिश्चित दिशा है। यहीं से सम्भावनाओं के नये द्वार खुलने वाले हैं। उम्मीद की किरणें यहीं से फूटने वाली हैं।

पराजय आज का सच है समर तो शेष है फिर भी…

मानव इतिहास के आधुनिक युग में सम्पन्न हुई सर्वहारा क्रान्तियों के प्रथम संस्करणों की वर्तमान पराजय किसी इतिहास-प्रबुद्ध अध्येता के लिए आकस्मिक या अप्रत्याशित क़तई नहीं है। क्रान्तियों के प्रारम्भिक संस्करण इतिहास में पहले भी बहुधा असफल होते रहे हैं या प्रायः ऐसा होता रहा है कि शताब्दियों लम्बे संघर्ष के बाद एक वर्ग (विकासमान सामाजिक शक्तियाँ) दूसरे वर्ग (ह्रासमान सामाजिक शक्तियाँ) पर विजय हासिल करता रहा है और सामाजिक क्रान्तियों को मुकम्मिल बनाता रहा है। सामन्त वर्ग से संघर्ष करते हुए बुर्जुआ वर्ग को सत्ता पर क़ाबिज़ होने में और उत्पादन सम्बन्धों को अपने वर्ग हितों के अनुरूप ढालने तथा तदनुरूप अधिरचनात्मक अट्टालिका का निर्माण करने में लगभग चार सौ वर्षों का समय लग गया। ‘सुधार-पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति’ की प्रक्रिया शताब्दियों लम्बे कालखण्ड तक फैली हुई थी। तब कहीं जाकर बुर्जुआ समाज अस्तित्व में आया। ब्रिटेन में पूँजीवाद और बुर्जुआ शासन व्यवस्था को अन्तिम विजय हासिल करने में सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक दो सौ वर्षों से भी अधिक का समय लग गया। ब्रिटेन से राष्ट्रीय मुक्ति हासिल करने के सौ वर्षों बाद अमेरिकी बुर्जुआ वर्ग पूरे अमेरिका से दास-प्रथा का ख़ात्मा कर सका और राष्ट्रीय स्तर पर शोषण-शासन और समाज-विज्ञान की पूँजीवादी व्यवस्था को समग्र और सुदृढ़ रूप से स्थापित कर सका।

सिर्फ़ इतने ही ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है, और माओ त्से-तुङ बार-बार इसे कहते भी रहते थे, कि यदि सामन्तवाद पर कमोबेश मुकम्मिल जीत हासिल करने में पूँजीवाद को कई सौ वर्षों का समय लग गया और इस दौरान उसे कई बार पराजयों और विपर्ययों का सामना करना पड़ा, तो फिर भला इसमें निराश, हतप्रभ या विभ्रमग्रस्त होने की क्या बात हो सकती है कि सर्वहारा क्रान्ति को लगातार जीत हासिल करते जाने के बजाय विभिन्न आरोहों-अवरोहों, पराजयों-विपर्ययों और बुर्जुआ पुनर्स्थापनाओं के दौरों से गुज़रना पड़ता है। दूसरी बात यह है कि इतिहास से यह सादृश्य-निरूपण करते हुए हमें एक और बात भी ध्यान में रखनी चाहिए। सर्वहारा क्रान्तियाँ बुर्जुआ क्रान्तियों समेत अब तक की सभी क्रान्तियों से अधिक व्यापक और अधिक सूक्ष्म, अधिक चौतरफ़ा और अधिक गहरी, अधिक युगान्तरकारी और अधिक उग्रपरिवर्तनवादी (रैडिकल) क्रान्तियाँ हैं। सभी पूर्ववर्ती क्रान्तियों के विपरीत सर्वहारा क्रान्ति का लक्ष्य शोषण की एक व्यवस्था की जगह दूसरी व्यवस्था क़ायम करना मात्र नहीं बल्कि इसका लक्ष्य सभी वर्ग-व्यवस्थाओं का, सभी शोषणयुक्त सम्बन्धों का, सामाजिक असमानता और दमन के सभी रूपों का, समाज और विश्व के सभी असमानतापूर्ण बँटवारों का समूल नाश करना है। जैसाकि मार्क्स और एंगेल्स ने ज़ोर देकर कहा था, यह क्रान्ति सभी परम्परागत सम्पत्ति सम्बन्धों और परम्परागत विचारों से सर्वाधिक उग्रपरिवर्तनवादी और निर्णायक विच्छेद है। सर्वहारा वर्ग का संघर्ष केवल पूँजीवाद से नहीं, बल्कि पूरे वर्ग-समाज से; केवल बुर्जुआ वर्ग-सम्बन्धों से नहीं, बल्कि सभी वर्ग-सम्बन्धों से है। बुर्जुआ समाज और अब तक के सभी वर्ग समाजों के विकास एवं पतन की राजनीतिक अर्थशास्त्रीय विवेचना हमें बताती है कि वर्ग-समाज के सम्पूर्ण विश्व ऐतिहासिक विस्तार के दायरे के भीतर उत्पादक शक्तियों का अधिकतम सम्भव विकास पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों के भीतर ही सम्भव था। पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों की सीमा में विकास की सम्भावनाएँ सन्तृप्त हो चुकने के बाद मौजूदा उत्पादक शक्तियों – सर्वहारा वर्ग की अगुवाई में सभी मेहनतकश वर्गों को, यूँ कहें कि पूरे मानव समाज को, वर्ग समाज की सीमाओं का अतिक्रमण करना ही होगा। एक ओर सर्वहारा क्रान्तियों के प्रारम्भिक संस्करणों के (पेरिस कम्यून से लेकर चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति तक) एक सौ वर्षों के कालखण्ड ने, और दूसरी ओर, बीसवीं शताब्दी में साम्राज्यवाद की अवस्था में संक्रमण के बाद, पूँजीवाद के ऊपर आवर्ती चक्रीय क्रम में लगातार बरपा होते रहने वाली मन्दी एवं दुश्चक्रीय निराशा के क़हर ने, तथा आज के दौर में जबकि सामयिक तौर पर समाजवाद का खेमा समाप्त हो चुका है, तब भी विश्व पूँजीवादी तन्त्र के लगातार मौजूद अभूतपूर्व, असाध्य ढाँचागत संकट ने, यह सिद्ध कर दिया है कि रणनीतिक तौर पर, सर्वहारा वर्ग आज विश्व के समस्त जनगण को लिये हुए इसी सीमान्त पर खड़ा है।

इस परिप्रेक्ष्य में हम सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक मिशन की अन्तिम सफलता तक की मंज़िल तक पहुँचने के आरोहों-अवरोहों भरे कठिन लम्बे रास्ते और उस रास्ते पर जारी असफलताओं-पराजयों-विपर्ययों भरी यात्रा को आसानी से समझ सकते हैं। साथ ही, इस बात को भी आसानी से समझ सकते हैं कि पूर्ववर्ती क्रान्तियों की तुलना में सर्वहारा क्रान्ति के अधिक कठिन और सर्वाधिक रैडिकल होने का यह मतलब कदापि नहीं है कि निर्णायक जीत हासिल करने में इसे अन्य सभी क्रान्तियों की अपेक्षा अधिक समय लगेगा। सर्वहारा क्रान्ति यदि इतिहास की सर्वाधिक कठिन और रैडिकल क्रान्ति है, तो सर्वहारा वर्ग भी इतिहास का सर्वाधिक प्रगतिशील वर्ग है। यही कारण है कि अतीत के क्रान्तिकारी वर्गों के विपरीत, सर्वहारा वर्ग के संघर्ष किसी भी पराजय के बाद (चाहे वह पेरिस कम्यून की पराजय हो, रूस में स्तालिन की मृत्यु के बाद हुई पूँजीवादी पुनर्स्थापना हो या महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के बाद भी माओ की मृत्यु के पश्चात चीन में आया विकट प्रतिगामी बदलाव हो) दशाब्दियों तो क्या, कुछ एक वर्षों के लिए भी रुके नहीं। उनका अविराम क्रम लगातार जारी रहा और आज भी जारी है। इस आधार पर और आर्थिक नवउपनिवेशवाद के वर्तमान दौर में असाध्य रोगग्रस्त विश्व पूँजीवाद की दारुण दशा के परीक्षण के आधार पर – इन दो वस्तुगत आधारों पर निष्कर्ष यही निकलता है कि सर्वहारा क्रान्तियों के उत्तरवर्ती संस्करणों की सर्जना का दौर और फिर से दुनिया के एक या कई देशों में समाजवादी संक्रमण और सतत सांस्कृतिक क्रान्ति का वह नया दौर शुरू होना ही है जिसमें विपर्यय की सम्भावनाएँ क्रमशः कम होती चली जायेंगी। यूँ तो क्रान्तियों का टाइमटेबल नहीं बनाया जा सकता है पर फिर भी वस्तुगत और मनोगत उपादानों के समग्र एवं सूक्ष्म आकलन के आधार पर आज यह ज़रूर कहा जा सकता है कि यह दशाब्दियों की बात हो सकती है, पर शताब्दियों की कदापि नहीं। इस कालखण्ड को सिकोड़कर छोटा करने का काम केवल आत्मगत शक्तियों, यानी सर्वहारा के हरावलों की – दुनियाभर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की तैयारी पर निर्भर है। कोई भी व्यवस्था, लाख संकटग्रस्त हो, ख़ुद अपनेआप नहीं गिरती। उसे गिराना पड़ता है। यही मानव इतिहास का नियम है।

ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टि हमें सकर्मक आशावादी और रणनीतिक तौर पर सर्वहारा क्रान्तियों के बारे में सुनिश्चिततावादी बनाती है, अकर्मण्य नियतिवादी नहीं।

“निजी सम्पत्ति अपनी आर्थिक गति के दौरान अपने को स्वयं अपने विघटन की ओर बढ़ाती है, परन्तु ऐसा वह अपने विकास के ज़रिये करती है, जो उस पर निर्भर नहीं करता, जो अचेतन है तथा जो ठीक वस्तु के स्वरूप के कारण निजी सम्पत्ति की इच्छा के विरुद्ध जन्म लेता है, केवल इसलिए कि वह जन्म देती है, सर्वहारा को, सर्वहारा के रूप में उस दरिद्र को, जो अपनी आत्मिक तथा शारीरिक दरिद्रता से अवगत होता है, उस विमानवीकृत वर्ग को, जो अपने विमानवीकरण से अवगत होता है और इसलिए जो आत्मविघटनकारी है। निजी सम्पत्ति सर्वहारा को पैदा कर अपने को जो सज़ा सुनाती है, उसकी सर्वहारा ठीक उसी तरह तामील करता है, जिस तरह सर्वहारा उस सज़ा की तामील करता है, जो उजरती श्रम ने दूसरों के लिए दौलत और अपने लिए ग़रीबी पैदा कर अपने को दी थी। जब सर्वहारा विजयी हो जाता है, तो वह समाज का कदापि निरपेक्ष पहलू नहीं बनता, क्योंकि वह केवल अपना और अपने विरोधी का उन्मूलन करके ही विजयी होता है। तब सर्वहारा लुप्त हो जाता है और साथ ही, उसके विरोधी का, निजी सम्पत्ति का भी, जो उसे जन्म देती है, लोप हो जाता है।” (मार्क्स-एंगेल्स: ‘पवित्र परिवार’)

यही है वह मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि जो तमाम सामयिक असफलताओं के बावजूद अन्ततोगत्वा सर्वहारा क्रान्तियों की विजय को ही सुनिश्चित प्रमाणित करती है। यह बताती है कि वर्ग और राज्य मानव समाज के विकास के एक ख़ास दौर में पैदा हुई सुनिश्चित ऐतिहासिक श्रेणियाँ (Categories) हैं और हर ऐतिहासिक श्रेणी की तरह अन्ततोगत्वा इनका भी विलोपन होना ही है और नयी ऐतिहासिक श्रेणियों को इनका स्थान लेना ही है।

बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग के बीच विगत लगभग डेढ़ शताब्दी से जारी विश्व ऐतिहासिक महासमर में, समाजवादी व्यवस्थाओं की समाप्ति और समाजवादी देशों में हुई पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ऐतिहासिक सादृश्य निरूपण, और दृष्टान्तों के व्यापक निगमनात्मक तर्कों, अन्ततोगत्वा पूँजीवादी व्यवस्था के अपरिहार्य पतन के सामान्य आगमनात्मक तर्कों और सर्वहारा क्रान्ति की प्रकृति की अपूर्व विशिष्टताओं के निरूपण, के साथ ही, वर्तमान विपर्यय के सूक्ष्म, ठोस और प्रत्यक्ष सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक, वस्तुगत और मनोगत कारणों को जानने के लिए समाजवादी समाज की प्रकृति तथा विगत समाजवादी प्रयोगों की सकारात्मक-नकारात्मक शिक्षाओं की संक्षिप्त चर्चा भी ज़रूरी है।

समाजवाद की वर्तमान पराजयों और अन्ततोगत्वा पूँजीवाद पर उसकी विजय की सुनिश्चितता को समझने के लिए समाजवादी समाज की प्रकृति के बारे में हर तरह की आदर्शवादी समझ एवं भ्रान्त धारणा से मुक्त होना और समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के बारे में वस्तुगत समझदारी हासिल करना ज़रूरी है। समाजवाद के राजनीतिक अर्थशास्त्र और अधिरचना की गतिकी का विवरण एक विशद ग्रन्थ का विषय है। यहाँ पर हम केवल कुछ आधारभूत बिन्दुओं को रेखांकित करनेभर का काम कर सकते हैं।

समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ और चुनौतियाँ:

रण कठिन है और इसमें जीतने का प्रण कठिन है…

जैसाकि ऊपर ही हमने उल्लेख किया है, समाजवाद वर्ग समाज और वर्गविहीन समाज के बीच का एक लम्बा संक्रमण काल है, इस दौरान समाज में वर्ग मौजूद रहते हैं, और इसलिए, ज़ाहिरा तौर पर, वर्ग-संघर्ष भी लगातार जारी रहता है। समाजवाद एक स्थायी, समरूप या समाकलित (इण्टीग्रेटेड) सामाजिक-आर्थिक संरचना नहीं होती। समाजवादी समाज-व्यवस्था के अन्तर्गत एक ही साथ कई सामाजिक-आर्थिक संरचनाएँ मौजूद होती हैं। इसमें समाजवाद की संक्रमणशील उत्पादन प्रणाली के अतिरिक्त पूँजीवादी, और यहाँ तक कि (पिछड़े हुए देशों में समाजवादी क्रान्तियाँ होने पर) प्राक्-पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली भी मौजूद होती है। समाजवादी संक्रमण काल में पूर्ववर्ती पूँजीवादी समाज की विचारधाराएँ, मूल्य-मान्यताएँ, सामाजिक संस्थाएँ, संस्कृति आदि अधिरचना के अवयव लम्बे समय तक मौजूद रहते हैं और समाजवादी समाज में काफ़ी लम्बे समय तक क़ायम रहने वाला छोटे पैमाने का पूँजीवादी उत्पादन लगातार ऐसे बुर्जुआ मूल्यों-मान्यताओं-विचारों को जन्म देता रहता है जो पूँजीवादी पुनर्स्थापना का नया भौतिक आधार तैयार करते रहते हैं।

समाजवादी संक्रमण के एक लम्बे दौर से गुज़रने के बाद ही मानव समाज विकास की उस उन्नत मंज़िल पर पहुँच सकता है जब चीज़ों का विनिमय मूल्य समाप्त हो जाये और केवल उपयोग मूल्य और प्रभाव मूल्य बचा रह जाये। अतिउत्पादन की इस मंज़िल में वस्तुओं का माल के रूप में अस्तित्व समाप्त हो जायेगा, मुद्रा के नियम विलुप्त हो जायेंगे और लोग अपनी क्षमतानुसार काम करेंगे तथा आवश्यकतानुसार प्राप्त करेंगे। केवल इसी मंज़िल पर पहुँचकर वर्गों. वर्गीय विचारों, संस्थाओं, राज्य और वर्ग-संघर्ष का, विलोपीकरण की प्रक्रिया में, ख़ात्मा हो सकेगा। समाजवादी संक्रमण के लम्बे दौर में चीज़ों का बाज़ार मूल्य बना रहेगा, माल-अर्थव्यवस्था मौजूद रहेगी, बाज़ार और मूल्य के नियम काम करते रहेंगे, और ‘प्रत्येक को उसके काम के अनुसार’ का सिद्धान्त लागू रहेगा, यानी श्रम का माल के रूप में अस्तित्व बना रहेगा।

समाजवाद के अन्तर्गत सार्वजनिक स्वामित्व की निर्णायक तौर पर स्थापना के बाद भी निजी स्वामित्व के छोटे-छोटे रूप और तत्त्व उद्योग और कृषि के क्षेत्र में लम्बे समय तक मौजूद रहते हैं। सहकारी खेती की अन्तर्वस्तु बुर्जुआ ही होती है। एक लम्बी प्रक्रिया के बाद ही, छोटे पैमाने का समाजवादी सामूहिक स्वामित्व बड़े पैमाने के समाजवादी सामूहिक स्वामित्व में और फिर बड़े पैमाने का समाजवादी सामूहिक स्वामित्व समाजवादी राज्य-स्वामित्व में रूपान्तरित हो पाता है। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि सामूहिक स्वामित्व वाली आर्थिक इकाइयाँ (जैसे सामूहिक फ़ार्म) पूरी जनता की सम्पत्ति नहीं होतीं और वे माल का विनिमय करती हैं जबकि राज्य के स्वामित्व वाली आर्थिक इकाइयाँ पूरी जनता की सम्पत्ति होती हैं और वे वस्तुओं का विनिमय करती हैं। पर साथ ही, यहाँ इस वैधिक विभ्रम का भी शिकार होने की ज़रूरत नहीं है कि सम्पत्ति का राष्ट्रीकरण सम्पत्ति के समाजीकरण का समानार्थक होता है। समूचे राज्य की सम्पत्ति निजी स्वामित्व का एक निषेध तो होती है, पर स्वामित्व की पूरी व्यवस्था का सम्पूर्ण निषेध नहीं होती। राष्ट्रीकरण की मंज़िल तक पहुँचने के बाद भी समाजवादी समाज में असमानताएँ बनी रहती हैं, बुर्जुआ अधिकार बने रहते हैं, वेतनों में अन्तर, गाँव और शहर के बीच अन्तर, मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच अन्तर, माल उत्पादन और विनिमय तथा साथ ही भौतिक प्रोत्साहन भी अत्यधिक नियन्त्रित और सीमित होने के बावजूद मौजूद रहते हैं। उपभोग की वस्तुओं के वितरण में राज्य की भूमिका भी बनी रहती है। ऐसी स्थिति में यदि सर्वहारा की पार्टी अपनी विचारधारा से विपथगमन करके अपने विपरीत में बदल जाये तो सर्वहारा का अधिनायकत्व भी तत्काल ही अपना रूप बदल देगा और समाजवाद अपने इस उन्नत दौर में भी राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद में निरपवाद रूप से प्रतिगामी संक्रमण कर जायेगा।

और फिर इसके साथ ही अधिरचना का सवाल है। मूलाधार के रूपान्तरण के साथ ही समाजवाद के अन्तर्गत यदि अधिरचना का सतत क्रान्तिकारी रूपान्तरण जारी नहीं रहता तो पुराने समाज की वर्गीय अधिरचना या समाजवाद के अन्तर्गत पैदा होने वाली नयी बुर्जुआ अधिरचना आर्थिक सम्बन्धों के धरातल पर विपर्यय की शक्तियों को लगातार नयी संजीवनी शक्ति प्रदान करती रहेगी। समाजवादी संक्रमणकाल की इस दीर्घकालिक प्रकृति, इस दौरान कठिन वर्ग-संघर्ष और पुनर्स्थापना के ख़तरों की चर्चा मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिज़्म के सिद्धान्त की शैशवावस्था में ही की थी। रूस में सोवियत प्रयोगों के दौरान लेनिन ने समाजवाद की समस्याओं को और अधिक ठोस रूप में देखा और इनके निराकरण की दिशा में सोचना शुरू किया। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान माओ त्से-तुङ ने पहली बार समाजवाद की प्रकृति और समस्याओं का तथा उनके समाधान का सर्वाधिक सुसंगत और सम्यक निरूपण प्रस्तुत किया। 1850 में ही मार्क्स ने समाजवाद को “क्रान्ति की निरन्तरता की घोषणा” और “सर्वहारा के वर्ग अधिनायकत्व के रूप में सभी वर्ग विभेदों के उन्मूलन के अनिवार्य संक्रमण बिन्दु” की संज्ञा दी थी (फ़्रांस में वर्ग संघर्ष 1848-50)। उन्होंने एकदम दोटूक शब्दों में कहा था कि इस संक्रमणकाल में “राज्य केवल सर्वहारा का क्रान्तिकारी अधिनायकत्व ही हो सकता है” (गोथा कार्यक्रम की आलोचना)। लेनिन ने समाजवाद को “मरणशील पूँजीवाद और नवजात कम्युनिज़्म के बीच संघर्ष का काल” (‘सर्वहारा अधिनायकत्व के युग में अर्थनीति एवं राजनीति’) बताते हुए इस अवधि में सर्वहारा के अधिनायकत्व को समाजवाद की केन्द्रीय अभिलाक्षणिकता बताया था। माओ त्से-तुङ ने इतिहास के समस्त अनुभवों के आधार पर समाजवादी संक्रमण की दिशा और स्वरूप को सर्वाधिक ठोस रूप में सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान प्रस्तुत किया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि बुर्जुआ समाज से प्रकृति और रूप की भिन्नता के बावजूद, उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच के अन्तरविरोध तथा मूलाधार और अधिरचना के बीच के अन्तरविरोध ही समाजवादी समाज के भी बुनियादी अन्तरविरोध हैं जो सर्वहारा और बुर्जुआ के बीच के अन्तरविरोध के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। समाजवादी समाज के विकास की कुंजीभूत कड़ी सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत वर्ग-संघर्ष की निरन्तरता है। माओ ने यह स्पष्ट किया कि सर्वहारा अधिनायकत्व बुर्जुआ वर्ग, बुर्जुआ अधिकार और बुर्जुआ उत्पादन सम्बन्धों पर लगातार अंकुश लगाता है, बुर्जुआ विचारों-मूल्यों-मान्यताओं के विरुद्ध सतत संघर्ष चलाता है और वर्ग-संघर्ष की कमान में उत्पादक शक्तियों का विकास करते हुए क्रमशः कम्युनिज़्म की ओर संक्रमण को सुनिश्चित बनाता है।

विचारधारा के सामाजिक प्रयोगों में रूपान्तरण की अपनी अपरिहार्य सीमाएँ-समस्याएँ होती हैं और दार्शनिक-वैचारिक स्तर पर किसी विचारधारा के स्थापित हो जाने तथा विरोधी विचारधारा पर निर्णायक जीत हासिल कर लेने के बाद भी बहुत सारे प्रयासों, अनुभवों और सफलताओं के समाहार के बाद ही अमल के ठोस रूप और रास्ते अस्तित्व में आते हैं। प्रकृति, प्रयोगशाला और समाज में प्रयोग कभी भी भूलों-ग़लतियों से रहित नहीं हो सकते और समाज में तो इनकी सम्भावना सर्वाधिक होती है। इतिहास की इस कटु सच्चाई का एकदम तर्कपरक आधार है कि आज जब सर्वहारा क्रान्ति के अगुवा दस्तों के पास समाजवाद के अन्तर्गत वर्ग-संघर्ष को जारी रखने के रूपों की सर्वाधिक सुसंगत समझदारी मौजूद है तो सर्वहारा के पास कोई भी समाजवादी राज्य शेष नहीं बचा है। समाजवादी संक्रमण की सैद्धान्तिक आधारभूत समझदारी सर्वहारा वर्ग ने निरन्तर प्रयोगों के बाद, महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति तक की यात्रा करके, पर साथ ही अपने सभी दुर्गों को खोकर अर्जित की है। यहाँ तक पहुँचकर उसके अन्तिम दुर्ग पर भी, कुछ समय के लिए बुर्जुआ वर्ग का झण्डा लहराने लगा है। विश्व इतिहास ने एक बार फिर सिद्ध किया है कि वही महानतम महाकाव्यात्मक त्रासदियों का रचयिता है। सबसे बड़ा महाकवि वही है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि इतिहास के रंगमंच की वस्तुगत सीमाओं-समस्याओं के साथ ही विश्व सर्वहारा के महान नेताओं और पार्टियों से कुछ भूलें भी हुईं और पूँजीवादी पुनर्स्थापना में इन मनोगत उपादानों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। विशेषकर, समाजवादी संक्रमण की बुनियादी प्रकृति और समस्याओं को समझने में स्तालिन की कुछ गम्भीर भूलों ने और सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के युगान्तरकारी विचारों के प्रवर्तक माओ द्वारा भी राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विचारधारात्मक संघर्ष चलाने में हुए विलम्ब और एक हद तक, शत्रु वर्गों के साथ नरमी बरतने की कुछ ग़लतियों की पूँजीवादी पुनर्स्थापना के मनोगत उपादानों के रूप में अहम भूमिका रही है। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मुख्य तौर पर ये ग़लतियाँ वर्ग-संघर्ष की नीति और रणनीति तय करने में, साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के कुचक्रों, षड्यन्त्रें और जटिल रूपों को समझने के दौरान एक वैज्ञानिक से हुई ग़लतियाँ थीं। इनमें से कुछ ग़लतियों से इतिहास की वस्तुगत सीमाओं के कारण बचना मुश्किल था, पर कुछ ग़लतियों से बचा भी जा सकता था। लेकिन, फिर यह भी इतिहास की ही एक बुनियादी अभिलाक्षणिकता है कि सामाजिक प्रयोगों के दौरान हमेशा कुछ ऐसी ग़लतियाँ होती ही हैं जिनके बारे में भविष्य में किया जाने वाला कोई समाहार या सिंहावलोकन बताता है कि उनसे बचा जा सकता था। समाजवादी प्रयोगों के दौरान हुई इन ग़लतियों की समीक्षा अलग से काफ़ी विस्तार की माँग करती है। यहाँ पर, फ़िलहाल हम इस चर्चा को स्थगित करके आगे बढ़ते हैं।

दो वर्गों के बीच जारी वर्ग-संघर्ष का सर्वप्रमुख बुनियादी संघटक विचारधारा का संघर्ष है। इस संघर्ष में हार-जीत का निर्णय होते ही भविष्य की यह दिशा भी तय हो जाती है कि दीर्घकालिक वर्ग-युद्ध के अनेक चढ़ावों-उतारों से गुज़रने के बाद अन्ततोगत्वा किस वर्ग की विजय सुनिश्चित है। विचारधारात्मक संघर्ष में श्रेष्ठता प्रमाणित करना किसी भी वर्ग की पहली और बुनियादी निर्णायक जीत होती है। कुछ देशों में किसी समाज व्यवस्था की पराजय का अर्थ उसकी मार्गदर्शक विचारधारा की पराजय कदापि नहीं हो सकता।

विचारधारा के क्षेत्र में आज भी अक्षुण्ण है

सर्वहारा की विजय!

वे जीतकर जीते नहीं हम हारकर हारे नहीं

पराजय मार्क्सवाद की नहीं हुई है इसका सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण तो पूँजीवादी सिद्धान्तकारों के तेवर और अन्दाज़ ही हैं। कम्युनिज़्म का हौव्वा उन्हें आज भी सता रहा है और विश्व पूँजीवाद के संकट के स्वरूप में आने वाले अभूतपूर्व बदलाव उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा बदहवास बनाते जा रहे हैं। मार्क्सवाद की मृत्यु की घोषणा कर चुकने के बाद भी पूरी दुनिया के सभी बुर्जुआ ‘थिंक टैंक’ लगातार मार्क्सवाद के खि़लाफ़ ही सबसे ज़्यादा लिख रहे हैं। सकारात्मक रूप से राजनीति से लेकर संस्कृति तक के क्षेत्र में वे जो भी सिद्धान्त प्रतिपादित कर रहे हैं, वह या तो अतीत के सिद्धान्तों की ही भोंड़ी प्रहसनात्मक पैरोडी है या निराशा, अन्धकार और ‘अन्त के दर्शन’ का सिद्धान्त। कोई इतिहास के अन्त की बात कर रहा है तो कोई विज्ञान के। कोई विचारधारा के अन्त की बात कर रहा है तो कोई कविता और उपन्यास के। वस्तुतः यह बुर्जुआ वर्ग के अपने अन्त की वह कँपा देने वाली आशंका है जिसे वह लगातार पूरी दुनिया पर आरोपित करके विचारों की दुनिया में प्रक्षेपित कर रहा है।

आज चाहे वे मार्क्सवाद का मुखौटा लगाये हुए देङपन्थी संशोधनवादी हों, पश्चिम के भाँति-भाँति के नव वामपन्थी और सामाजिक जनवादी हों या जनवाद और आज़ादी की गला फाड़कर दुहाई देने वाले किसी भी रंग-रूप के बुर्जुआ चिन्तक-बुद्धिजीवी हों, उनके मार्क्सवाद विरोधी सभी तर्क दशाब्दियों पुराने और यहाँ तक कि सौ वर्षों से भी अधिक पुराने हैं जिनका मुँहतोड़ उत्तर मार्क्सवाद उसी समय दे चुका है। वर्ग-संघर्ष और विशेषकर सर्वहारा अधिनायकत्व के विरुद्ध मार्क्सवाद विरोधियों की मण्डलियाँ समाजवाद की विगत असफलताओं का साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए जब इनके कारणों की तलाश सैद्धान्तिक आधार की कमज़ोरी या ग़लती में करने लगती हैं तो उनके तर्क न केवल काउत्स्की, त्रात्स्की, ख्रुश्चेव या अलब्राउडर के तर्क होते हैं (हालाँकि इनमें भी सर्वाधिक बुनियादी काउत्स्की के ही तर्क थे, जो बाद में नये-नये रूपों में प्रस्तुत होते रहे), बल्कि उससे भी पीछे लासाल और बाकुनिन के, प्रूदों और ड्यूहरिंग के तर्क होते हैं। सर्वहारा अधिनायकत्व के विरुद्ध लगाये जाने वाले सर्वसत्तावाद के आरोप और छाती पीट-पीटकर किये जाने वाले ‘जनवाद’ के विलाप के पीछे दिये जाने वाले सभी तर्क गोथा कार्यक्रम और दूसरे इण्टरनेशनल के ग़द्दारों के तर्कों से नया कुछ भी नहीं कहते। दर्शन, सौन्दर्यशास्त्र और राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी पूरी तरह यही स्थिति बनी हुई है।

संशोधनवाद और पूँजीवाद विज्ञान और तर्क को कमान में रखकर आज भी मार्क्सवाद के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष में नहीं उतर सकते। केवल तथ्यों को विकृत करके या छुपाकर, झूठ-फ़रेब और अफ़वाहों का सहारा लेकर तथा बुनियादी सैद्धान्तिक मुद्दों से कतराकर ही वे लड़ाई के मैदान में आ सकते हैं।

क्या बुर्जुआ सिद्धान्तकार और प्रचारतन्त्र कभी भी, कहीं भी यह बताते हैं कि पूँजीवादी समाज के आर्थिक सम्बन्धों की विशद विवेचना प्रस्तुत करते हुए मार्क्स ने उसकी जो सर्वतोमुखी आलोचना प्रस्तुत की थी और पूरे मानव इतिहास के अतीत और विकास की दिशा को ठोस साक्ष्यों-तर्कों सहित बताते हुए पूँजीवाद के अनिवार्य पतन और इसी के गर्भ से समाजवाद के जन्म की जो भविष्यवाणी की थी, उसके बुनियादी तर्कों में ग़लती, कमज़ोरी या विसंगति क्या है? वर्ग और राज्य समाज-विकास के एक ख़ास दौर में पैदा हुई सुनिश्चित ऐतिहासिक श्रेणियाँ हैं और हर ऐतिहासिक श्रेणी की भाँति विकास की प्रक्रिया में अन्ततोगत्वा इनका विलोपन भी होना ही है। क्या पूँजीवादी विचारक यह बताते हैं कि वर्ग और राज्य का विलोपन कब और कैसे होगा और इनका स्थान कौन-सी श्रेणियाँ लेंगी? पूँजीवादी उत्पादन तन्त्र की जिन लाइलाज बीमारियों के गम्भीर होते जाने की भविष्यवाणी मार्क्सवाद ने शुरू में ही की थी और अपने विकसित होते जाने के साथ जिनके विविध रूपों की ज़्यादा से ज़्यादा स्पष्ट पहचान की थी तथा जो असाध्य रोग विश्व पूँजीवाद के लिए आवर्ती चक्रीय क्रम में आने वाले संकटों के बजाय आज ढाँचागत संकट का रूप ले चुका है, अन्ततः इनका क्या समाधान है? गोर्बाचोव के ‘मानवीय चेहरे वाले समाजवाद’ ने बाज़ार अर्थव्यवस्था और विश्व पूँजीवाद के साथ समेकित होने के बाद रूस और पूर्वी यूरोप की जनता को क्या दिया? अन्ततोगत्वा उसकी परिणति पश्चिमी, खुले, बाज़ार-पूँजीवाद के रूप में क्यों सामने आयी? बाज़ार-समाजवाद क्या सारतः बाज़ार-पूँजीवाद ही नहीं था? शीतयुद्ध की समाप्ति की घोषणा के बाद दुनिया की साम्राज्यवादी शक्तियों-जापान, जर्मनी और अमेरिका के इर्द-गिर्द बनता नया ध्रुवीकरण, क्रमशः तीखा होता व्यापार युद्ध और तेज़ी से उग्र हो रहे अन्तरविरोध क्या इस सच्चाई को साबित नहीं करते कि अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतियोगिता और सर्वहारा क्रान्तियों का एक नया दौर शुरू हो रहा है और यह कि क्या “सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों की सर्वोपरिता” से विश्व राजनीति के निर्देशित होने के दावे एकदम थोथे नहीं साबित हो चुके हैं? खुले बुर्जुआ बुद्धिजीवी और भाँति-भाँति के “वामपन्थी मुक्त चिन्तक” बदलती दुनिया की सच्चाइयों के मद्देनज़र लेनिन की साम्राज्यवाद सम्बन्धी बुनियादी प्रस्थापनाओं के पुराने पड़ जाने या ग़लत साबित होते जाने की रट लगाये रहते हैं पर वे यह कभी नहीं बताते कि क्या आज वित्तीय पूँजी, विश्वव्यापी इज़ारेदारियाँ और विश्व बाज़ार पर प्रभुत्व के लिए उनकी आपसी प्रतिस्पर्द्धा समाप्त हो चुकी है? क्या विश्व स्तर पर अधिशेष के विनियोजन (सरप्लस एप्रोप्रियेशन) की गलाकाटू प्रतियोगिता और युद्ध की सम्भावनाएँ समाप्त हो चुकी हैं?

आखि़र क्या कारण है कि स्तालिन की आलोचना करते हुए बुर्जुआ भाड़े के टट्टू कभी भी बुनियादी नीतियों, सिद्धान्तों की और उस दौर के आर्थिक-सामाजिक विकास की नीतियों-परिणामों की चर्चा नहीं करते। इसकी जगह वे केवल स्तालिन की ‘तानाशाही और दमन’ की मिसालों की फ़ेहरिस्त प्रस्तुत करते हैं। माओ और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति पर कीचड़ उछालते हुए देङपन्थी तथा अन्य संशोधनवादी और पश्चिमी बुद्धिजीवी या उनकी जूठन चाटने वाले तीसरी दुनिया के बुर्जुआ बुद्धिजीवी कभी भी इसे बहस का मुद्दा नहीं बनाते कि महान बहस के दौरान ख्रुश्चेवी कम्युनिज़्म को ग़लत सिद्ध करने वाले माओ के तर्क ग़लत कहाँ थे। सांस्कृतिक क्रान्ति को ‘महाविपदा’ घोषित करते हुए सिर्फ़ अतिरेक और अत्याचार की क़िस्सागोइयाँ की गयीं। इसके दर्शन और सिद्धान्त पर कोई बहस नहीं की गयी और इसके किसी भी बुनियादी दस्तावेज़ का जवाब देना तो दूर, उनका उल्लेख तक नहीं किया गया। ऐसे सैकड़ों और उदाहरण दिये जा सकते हैं जो बताते हैं कि पूँजीवादी सिद्धान्तकार और बुद्धिजीवी आज अपनी समग्र बौद्धिक ऊर्जा लगाकर और व्यापक बुर्जुआ प्रचार तन्त्र की समस्त शक्ति को झोंककर सिर्फ़ झूठ, कपट और धूर्तता के सहारे इतिहास को ग़लत और विकृत ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं। आज अपने लिए सर्वाधिक अनुकूल माहौल में भी वे भयाक्रान्त हैं और सोच रहे हैं कि यदि मार्क्सवादी विज्ञान का तरकश वे सर्वहारा वर्ग की पीठ से उतार नहीं फेंकेंगे तो आने वाले दिनों में बार-बार मेहनतकशों की फ़ौजें उनके दुर्गों को तहस-नहस करती रहेंगी। तभी आज ख़ुशी के अतिरेक में भी उन्हें नींद नहीं आती। कम्युनिज़्म का हौव्वा आज भी उन्हें सता रहा है। बुर्जुआ विश्व की सभी शक्तियों – बुश, कोल और मियाजावा और मितराँ और मेजर, साम्राज्यवादी गिरोहों के युद्ध सरदार और अल्पविकसित पूँजीवादी देशों के शासक, धुर दक्षिणपन्थी और उदारवादी सामाजिक जनवादी और देङपन्थी संशोधनवादी, पुराने बुर्जुआ पुरोहित और येल्त्सिन जैसे नये मुल्ले, पश्चिम के थिंक टैंक और तीसरी दुनिया के पत्तलचाटू छुटभैया बुर्जुआ बुद्धिजीवी सभी आपसी अन्तरविरोधों-मतभेदों के बावजूद कम्युनिज़्म की आत्मिक-भौतिक शक्ति के विरुद्ध आज एक नया ‘पवित्र गठबन्धन’ क़ायम किये हुए हैं। यही सर्वहारा के पक्ष की ऐतिहासिक-रणनीतिक शक्ति है और यही बुर्जुआ विश्व की कमज़ोरी का कुंजीभूत संकेत है। यही हमारे आशावाद का रणनीतिक स्रोत है और बुर्जुआओं की निराशाभरी बेचैनी का कारण भी यही है।

वर्तमान अभूतपूर्व संकट की विश्व ऐतिहासिक चुनौतियाँ…

‘हम समय के युद्धबन्दी हैं, युद्ध तो लेकिन अभी हारे नहीं हैं

पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल

आज नष्ट हो गये हैं

अँधेरे के स्वामी

रोशनी की दुनिया का ख़ौफ़ देख

ख़ुश हैं

मगर उस फूल के फल ने              

पनाह ली है जन्म देने वाली मिट्टी में,

माँ के गर्भ में,

आँखों से ओझल गहरे रहस्य में

विचित्र उस कण ने अपने को जिला रखा है

मिट्टी उसे ताक़त देगी, मिट्टी उसे गर्मी देगी

उगेगा वह एक नया जन्म लेकर

एक नयी आज़ादी का बीज वह लायेगा

फाड़ डालेगा बर्फ़ की चादर वह विशाल वृक्ष

लाल पत्तों को फैलाकर वह उठेगा

दुनिया को रौशन करेगा

सारी दुनिया को, जनता को

अपनी छाँह में इकट्ठा करेगा।

                                                                – लेनिन

विश्व सर्वहारा क्रान्ति के रणनीतिक सन्दर्भों में मौजूद क्रान्तिकारी आशावाद, आत्मविश्वास के उपरोक्त रेखांकन के पीछे हमारा तात्पर्य समाजवादी देशों में हुए विपर्ययों के बाद और विश्व पूँजीवाद के चौतरफ़ा आक्रमण के बाद अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के खेमे में आज पैदा हुए अभूतपूर्व संकट की अनदेखी करना या इसकी चुनौतियों को कम करके आँकना नहीं, बल्कि इसे विश्व-ऐतिहासिक सन्दर्भों में अवस्थित करना है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की मनोगत शक्तियाँ आज अत्यधिक कमज़ोर और बिखरी हुई हालत में हैं। वे सामयिक तौर पर संकट के जिस दौर से गुज़र रही हैं, वह पहले इण्टरनेशनल की स्थापना से लेकर अब तक के विश्व मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में अभूतपूर्व है। चीन में माओ की मृत्यु के बाद हुए प्रतिक्रान्तिकारी तख़्तापलट के बाद ही समाजवाद के अन्तिम दुर्ग का अस्तित्व भी समाप्त हो चुका था। पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ की संशोधनवादी कुलीनतान्त्रिक सत्ताओं के पतन और राजकीय इज़ारेदार पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के विघटन को समाजवाद के मत्थे मढ़ते हुए और ख्रुश्चेव काल से उत्पन्न होकर गोर्बाचोव काल तक शीर्ष बिन्दु पर पहुँचने वाले चौतरफ़ा गतिरोध और संकट के लिए स्तालिन को, यहाँ तक कि लेनिन को, और फिर सर्वहारा अधिनायकत्व तथा पूरे मार्क्सवादी विज्ञान को ज़िम्मेदार ठहराते हुए, दुनियाभर के बुर्जुआ प्रचारकों ने कुत्सा प्रचार की जो मुहिम चला रखी है, उसका विश्व जनगण और आम मेहनतकश अवाम पर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा है। चारों ओर विभ्रम, निराशा और दुविधा का माहौल है।

अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा का आज मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन या माओ जैसा कोई अनुभवी, मान्य और तपा-तपाया नेतृत्व नहीं है। पहले, दूसरे और तीसरे इण्टरनेशनल के समय के विपरीत आज, दुनियाभर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का कोई अन्तरराष्ट्रीय संगठन या व्यापक और प्रभावी अन्तरराष्ट्रीय मंच भी नहीं है और यहाँ तक कि, पूरी दुनिया में, ख़ासकर विश्व पूँजीवादी तन्त्र की कमज़ोर कड़ियाँ बने हुए, अधिक क्रान्तिकारी वस्तुगत सम्भावनाओं से युक्त एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिका के देशों में प्रायः क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों की एकीकृत पार्टियाँ नहीं हैं। विचारधारा, अन्तरराष्ट्रीय आम लाइन तथा रणनीति और आम रणकौशल आदि अहम मुद्दों पर इन देशों में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आपस में बँटे हुए हैं। आज विश्व सर्वहारा के हाथों में कोई ऐसा राज्य नहीं है जो दुनियाभर के मेहनतकशों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सके। ऐसे में, एक अनुकूल मौक़ा देखकर अन्तरराष्ट्रीय पूँजी ने और उसकी समग्र बौद्धिक शक्ति ने सर्वहारा वर्ग और उसकी विचारधारा पर चौतरफ़ा हमला बोल दिया है। सर्वहारा की संगठित प्रतिकार की शक्ति, अन्तरराष्ट्रीय मंच के अभाव और उसके प्रचारतन्त्र की कमज़ोरी का लाभ उठाकर आज बुर्जुआ वर्ग काले को सफ़ेद, दिन को रात और पूरब को पश्चिम बताते हुए अतीत की सभी सच्चाइयों पर काफ़ी हद तक सफलतापूर्वक पर्दा डाल रहा है और सर्वहारा संघर्षों की पूरी विरासत को धूल और राख से ढँक रहा है। यहाँ तक कि मुख्यतः वह उन्हीं पुराने मार्क्सवाद विरोधी तर्कों को दुहरा रहा है, जिनका उत्तर मार्क्स और लेनिन द्वारा ही दिया जा चुका है। आज काउत्स्की, त्रात्स्की, टीटो, ख्रुश्चेव और ल्यू शाओ-ची ही नहीं प्रूदों, लासाल और बाकुनिन तक तलवारें भाँजते हुए अपनी-अपनी क़ब्रों से बाहर निकल आये हैं। अतिगत्यात्मक मार्क्सवादी विज्ञान को आज दो कौड़ी के बुर्जुआ अख़बारी कलमघसीट भी “19वीं शताब्दी का पुराना पड़ चुका दर्शन” बता रहे हैं। अब यह दीगर बात है कि उनके आका शीर्षस्थ बुर्जुआ ‘थिंक टैंक’ भी इस “19वीं शताब्दी के पुराने दर्शन” का मुक़ाबला 18वीं शताब्दी के दर्शन से कर रहे हैं।

 

सर्वहारा और बुर्जुआ के बीच वर्ग महासमर के दीर्घकालिक पहले विश्व-ऐतिहासिक चक्र

की समाप्ति और नये चक्र की शुरुआत

न उनकी जीत अन्तिम है न अपनी हार अन्तिम है

विगत डेढ़ शताब्दी की कालावधि के सर्वहारा संघर्षों, क्रान्तियों, बुर्जुआ पुनर्स्थापनाओं, मार्क्सवाद की पूँजीवाद के ऊपर निर्णायक विचारधारात्मक विजय, विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के असाध्य ढाँचागत रोगों के वर्तमान दौर के लक्षणों और इसके सिर पर लगातार मँडराते गहन मन्दी के ख़तरों, अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा के नये दौर की शुरुआत, विपर्यय की कठिनतम स्थितियों में भी आज दुनिया के विभिन्न कोनों में जारी साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी अदम्य जुझारू संघर्षों, समाजवाद की समस्याओं और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बारे में चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं की रोशनी में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की विकसित समझदारी और मार्क्सवाद के नयी ऊँचाइयों तक विकास तथा भूतपूर्व सोवियत संघ के देशों व पूर्वी यूरोप में नक़ली लाल झण्डे के गिरने और वहाँ पश्चिमी निजी पूँजीवाद के आगमन के साथ ही आर्थिक संकट के विस्फोटक हो उठने और नये सिरे से मेहनतकश जनता के सड़कों पर उतर पड़ने के सभी अनुभवों के निचोड़ के आधार पर, मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा के आलोक में इस पूरे विश्व परिदृश्य और इसके विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के समाहार के आधार पर, हमारा मानना है कि सर्वहारा और बुर्जुआ वर्ग के बीच जारी वर्ग-महायुद्ध का पहला विश्व-ऐतिहासिक चक्र (राउण्ड) समाप्त होने के साथ ही अब एक नये चक्र की शुरुआत हो चुकी है। यूँ भी कहा जा सकता है कि इतिहास विकास के एक कुण्डल (स्पाइरल) से गुज़रकर विश्व सर्वहारा क्रान्ति अब नये कुण्डल में प्रविष्ट हो गयी है। सर्वहारा वर्ग ने अपने संघर्ष की एक मंज़िल पार करके दूसरी मंज़िल में प्रवेश किया है। यहाँ हम मंज़िल शब्द का इस्तेमाल उन अर्थों में नहीं कर रहे हैं, जिन अर्थों में लेनिन ने साम्राज्यवाद को पूँजीवाद की सर्वोच्च मंज़िल की संज्ञा दी थी। उन अर्थों में हम आज भी, तमाम महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के बावजूद, साम्राज्यवाद की मंज़िल में ही, और जैसाकि स्तालिन ने सूत्रबद्ध करके कहा था, साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियों के युग में ही, जी रहे हैं। यहाँ हम सर्वहारा क्रान्ति को कई मंज़िलों में बाँटकर, इसके एक मंज़िल के समाप्त होने और नयी मंज़िल के शुरू होने की बात कर रहे हैं। फिर भी किसी तरह के विभ्रम से बचने के लिए आम सूत्रीकरण के रूप में हम इस शब्दावली का इस्तेमाल करेंगे कि विश्व सर्वहारा क्रान्ति ने अब संघर्ष का एक चक्र पूरा करके नये चक्र में प्रवेश किया है। संघर्ष का पहला चक्र सर्वहारा वर्ग के सचेतन रूप से संगठित होकर वर्ग-संघर्ष शुरू करने और राज्य सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के प्रयासों की प्रक्रिया शुरू होने के साथ शुरू हुआ, पेरिस कम्यून, सोवियत क्रान्ति, चीन की जनवादी क्रान्ति से होता हुआ महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति तक पहुँचा और सत्तर के दशक के उत्तरार्द्ध में चीन में प्रतिक्रियावादी तख़्तापलट के बाद विश्व सर्वहारा के अन्तिम आधार-क्षेत्र के पतन के साथ समाप्त हो गया।

और अधिक ठोस एवं स्पष्ट शब्दों में कहा जा सकता है कि विश्व सर्वहारा क्रान्ति का, आरोहों-अवरोहों भरे कई चरणों से होकर गुज़रने वाला पहला चक्र विगत शताब्दी के पाँचवें दशक में मार्क्सवाद की मूल प्रस्थापनाओं की प्रस्तुति, मज़दूरों के पहले अन्तरराष्ट्रीय मंच ‘कम्युनिस्ट लीग’ के गठन, जनवरी 1848 तक मार्क्स-एंगेल्स द्वारा कम्युनिस्ट घोषणापत्र की पाण्डुलिपि तैयार कर लेने और जून 1848 में पेरिस की आम बग़ावत का विस्फोट और पराजय (एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र के 1888 के अंग्रेज़ी संस्करण की भूमिका में पेरिस बग़ावत को “सर्वहारा और बुर्जुआ के बीच पहले महान संघर्ष” की संज्ञा दी थी) के साथ शुरू हुआ। पेरिस के मज़दूर विद्रोह को कुचल दिये जाने और प्रसिद्ध ‘कोलोन कम्युनिस्ट मुक़दमे’ (अक्टूबर-नवम्बर, 1852) के बाद, लगभग एक दशक का दौर यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन में उतार का दौर रहा, पर जैसे ही सर्वहारा वर्ग ने आघातों से उबरकर “शासक वर्गों पर दूसरे आक्रमण के लिए पर्याप्त शक्ति फिर से हासिल कर ली, इण्टरनेशनल वर्किंग मेन्स एसोसिएशन का गठन हो गया” (फ़्रेडरिक एंगेल्स)। इससे पहले इण्टरनेशनल के पूरे जीवनकाल (1864-1874) के दौरान यूरोप और अमेरिका के मज़दूरों ने पूँजी-विरोधी जुझारू संघर्ष से, उनमें अर्जित जीतों और उनसे भी अधिक हारों से ज़रूरी सबक़ हासिल किये तथा वैज्ञानिक समाजवाद ने मज़दूर आन्दोलन में व्याप्त बुर्जुआ यूटोपियाई पेटी-बुर्जुआ सुधारवादी और अराजकतावादी प्रकृतियों के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष में निर्णायक जीतें हासिल करने के साथ ही उनके प्रभाव को कम करने में भी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल कीं। 1874 में जब पहला इण्टरनेशनल भंग हुआ, उस समय तक यूरोप-अमेरिका का मज़दूर उस वक़्त की अपेक्षा काफ़ी बदल चुका था, जैसाकि वह 1864 में था।

इसी बीच 18 मार्च, 1871 को पेरिस की मेहनतकश जनता एक शौर्यपूर्ण सशस्त्र जनविद्रोह के रूप में उठ खड़ी हुई और मानवजाति के इतिहास में उसने प्रथम सर्वहारा सत्ता की स्थापना की। पेरिस कम्यून ने बुर्जुआ राज्य की नौकरशाही को पूरी तरह भंग करके सच्चे सार्विक मताधिकार के आधार पर पहली बार मज़दूर सरकार की स्थापना की। कम्यून को कार्यपालिका और विधायिका दोनों का काम करना था। चर्च को राज्य से पृथक कर दिया गया। सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद के उसूलों पर कम्यून अडिग रहा। सर्वहारा का यह पहला, ओजस्वी राज्य मात्र 72 दिनों तक ही क़ायम रहा। पूरे यूरोप के प्रतिक्रियावादियों ने एकजुट होकर इसे कुचल दिया, पर भावी विश्व इतिहास के मार्ग पर इसने अपनी अमिट छाप छोड़ी। कम्यून की अनश्वर अग्निशिखा निरन्तर जलती रही और सर्वहारा का पथ आलोकित करती रही। सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना के इस प्रथम प्रयास का सार-संकलन करते हुए मार्क्स और एंगेल्स ने सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा में बहुमूल्य इज़ाफ़ा किया। “मज़दूर वर्ग राज्य की बनी-बनायी मशीनरी पर सिर्फ़ क़ब्ज़ा करके ही अपने उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकता।” उसे पुरानी राज्य मशीनरी को अनिवार्यतः ध्वस्त करना होगा – यह कम्यून की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शिक्षा थी। और जैसाकि लेनिन ने बताया है, पुरानी राज्य मशीनरी को ध्वस्त करने के रास्ते पर पेरिस कम्यून ने “पहला विश्व-ऐतिहासिक क़दम रखा… और सोवियत सरकार ने दूसरा।” लेनिन के अनुसार, “सर्वहारा अधिनायकत्व (जैसाकि पेरिस कम्यून के पश्चात मार्क्स और एंगेल्स कहने लगे थे) का विचार राज्य के विषय में मार्क्सवाद के सर्वाधिक उल्लेखनीय तथा सबसे महत्त्वपूर्ण विचारों में से एक है।” तब से लेकर आज तक बुर्जुआ वर्ग अपने वैचारिक हमलों और कुत्सा प्रचार का निशाना लगातार सर्वहारा अधिनायकत्व को ही बनाता रहा है। पेरिस कम्यून ने ही व्यवहार में बुर्जुआ वर्ग को यह बता दिया था कि सर्वहारा अधिनायकत्व को, यानी मज़दूर वर्ग की राज्य मशीनरी को ध्वस्त करना समाजवाद की पराजय की पहली शर्त है। द्वितीय इण्टरनेशनल के अवसरवादियों द्वारा मार्क्सवाद पर पहले बडे़ संशोधनवादी हमले के काफ़ी पहले ही एंगेल्स ने उस “सामाजिक जनवादी कूपमण्डूक” से सावधान किया था जो “सर्वहारा का अधिनायकत्व – इन शब्दों के भीषण आतंक से भर उठा था।” पेरिस कम्यून के पतन और पहले इण्टरनेशनल के विघटन के साथ ही सर्वहारा क्रान्ति के प्रथम विश्व-ऐतिहासिक उभार के दौर का समापन हो जाता है।

इस तरह, कहा जा सकता है कि 1848 के आसपास से लेकर पेरिस कम्यून और प्रथम इण्टनेशनल के विघटन (1871-1874) तक का कालखण्ड विश्व सर्वहारा क्रान्ति के प्रथम चक्र का पहला चरण था, जिसमें विजित सर्वोच्च शिखर पेरिस कम्यून था।

पेरिस कम्यून से लेकर अक्टूबर क्रान्ति का कालखण्ड (1871-1917) इस प्रथम चक्र की ऐतिहासिक अवधि का दूसरा चरण था। एक कीर्तिस्तम्भ से दूसरे कीर्तिस्तम्भ तक की यह यात्रा विश्व पूँजीवाद की प्रकृति में महत्त्वपूर्ण गुणात्मक परिवर्तनों के समय में सम्पन्न हुई। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक पूँजीवाद की प्रकृति में कुछ बुनियादी परिवर्तन होने लगे थे और स्वतन्त्र प्रतियोगितात्मक पूँजीवाद इज़ारेदार पूँजीवाद में संक्रमण करने लगा था, जिसके लक्षणों को एंगेल्स ने भी पहचाना था। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक पूँजीवाद साम्राज्यवाद की चरम अवस्था तक विकसित हो चुका था। यह साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियों का युग था, जिस युग में हम आज भी जी रहे हैं। वित्तीय पूँजी की अदृश्य सत्ता ने राष्ट्रीय बाज़ारों की सीमा को भी लाँघकर पूरे विश्व बाज़ार का निर्माण कर डाला था। पुरानी औपनिवेशिक लूट की प्रकृति भी इस दौर में बदल चुकी थी। साथ ही, पूँजीवाद की परजीविता और क्षरण ने कुछ थोडे़ से असामान्य तौर पर समृद्ध और शक्तिशाली राज्यों को छाँटकर अलग कर दिया था जो पूरी दुनिया को मात्र कूपन काटकर लूटते थे और इस अर्जित अतिलाभ से अपने देश के मज़दूरों तक के ऊपरी हिस्से को घूस देते थे। विश्व इज़ारेदारियों की भूमण्डलीय होड़ इस युग के शुरू में “अभूतपूर्व रूप से तीखी” हो उठी थी और उनकी लूट के बढ़ने के साथ ही, उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों के उठ खडे़ हुए उद्योगों में पैदा हुआ नया मज़दूर वर्ग भी अब साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय संघर्षों में उतर पड़ा था। अब क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ ‘स्वतन्त्र प्रतियोगिता के युग’ के प्रतिकूल अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के बजाय रूस, पूर्वी यूरोप और एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिका के देशों में केन्द्रित हो गयी थीं। ये ही विश्व पूँजीवादी तन्त्र की कमज़ोर कड़ियाँ थे और पहले इन्हें ही टूटना था। क्रान्तियों का झंझा-केन्द्र अब पश्चिम से हट गया था। लेनिन ने नये युग की इन सभी अभिलाक्षणिक विशिष्टताओं को पहचानने के साथ ही विश्व सर्वहारा क्रान्ति की आम दिशा प्रस्तुत की। इस दौर में, अब विश्व सर्वहारा क्रान्ति के दो संघटक तत्त्व थे – साम्राज्यवादी देशों की समाजवादी क्रान्ति और उपनिवेशों में चल रहे राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष। चीन और एशिया-लातिन अमेरिका के कई देशों में तो सर्वहारा वर्ग साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में नेतृत्वकारी या अग्रणी भूमिका निभा रहा था, पर जिन देशों में वह रैडिकल बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में बने संयुक्त मोर्चे के तहत राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष में शामिल था, वहाँ भी उसकी भूमिका विश्व पूँजीवाद विरोधी ही थी क्योंकि यह भी साम्राज्यवाद के इस युग की एक विशिष्टता ही थी कि बुर्जुआ नेतृत्व में लडे़ जाने वाले राष्ट्रीय संघर्ष भी उपनिवेशवाद के दौर को क्रमशः ख़ात्मे की ओर धकेल रहे थे और इस तरह विश्व पूँजीवादी तन्त्र को ही क्षति पहुँचा रहे थे, साम्राज्यवादी देशों के संकट को बढ़ा रहे थे और पिछडे़ देशों में समाजवादी क्रान्तियों की पूर्वपीठिका तैयार कर रहे थे।

इस दौरान एक के बाद एक चक्रीय संकटों के भँवरजाल में उलझता हुआ पूँजीवादी विश्व पहले विश्वयुद्ध के विनाश-कूप में जा गिरा। साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच घनीभूत होते अन्तरविरोधों का परिणाम पहले महायुद्ध के रूप में सामने आया जिसने वस्तुगत तौर पर पहली समाजवादी क्रान्ति के लिए रूस में परिस्थितियों को अधिक अनुकूल बना दिया। इस क्रान्तिकारी संकट की परिस्थितियों का लाभ उठा कर क्रान्ति को विजय तक पहुँचाने में लेनिन और बोल्शेविकों ने ज़रा भी चूक न की। साथ ही पहले महायुद्ध ने उपनिवेशों में भी राष्ट्रीय संघर्षों को नया संवेग प्रदान किया जिसके चलते लातिन अमेरिका और एशिया में भी राष्ट्रीय क्रान्तियों के प्रस्फोटों का सिलसिला शुरू हो गया।

सर्वहारा क्रान्तियों के प्रथम चक्र के इस दूसरे चरण के प्रारम्भ में, पेरिस कम्यून की पराजय और पूरे बुर्जुआ वर्ग के दमनकारी रवैये के बावजूद यूरोप के देशों और अमेरिका में संगठित मज़दूर आन्दोलन लगातार ज़ोर पकड़ता जा रहा था। ट्रेडयूनियन आन्दोलन आर्थिक माँगों और जनवादी अधिकारों के प्रश्नों पर संघर्ष चलाते हुए राजनीतिक संघर्षों के लिए मज़दूर वर्ग को तैयार कर रहा था। मज़दूर आन्दोलन के भीतर वैज्ञानिक समाजवाद और अन्य सभी तरह के अराजकतावादी, संघाधिपत्यवादी, “वामपन्थी” और सुधारवादी अवसरवादी विचारों के विरुद्ध यह घनीभूत विचारधारात्मक संघर्ष का दौर था।

1875 की गोथा कांग्रेस में दो मज़दूर पार्टियों की एकता से जर्मनी में ‘सोशलिस्ट लेबर पार्टी ऑफ़ जर्मनी’ की स्थापना हुई, जो लासालपन्थ को कई बुनियादी महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर छूट देने के बावजूद अपने कार्यक्रम का विचारधारात्मक आधार वैज्ञानिक समाजवाद को मानती थी। मार्क्स-एंगेल्स और बेबेल, लीबनेख़्त, ब्राक आदि ने जर्मन पार्टी में “वाम” और दक्षिण – दोनों सिरों के अवसरवादियों के विरुद्ध लगातार तीखा संघर्ष चलाया और शताब्दी के अन्तिम दशक तक यह अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन का सर्वाधिक सशक्त हिस्सा बना रहा। उल्लेखनीय है कि बिस्मार्क के समाजवाद-विरोधी क़ानून के दमनकारी आन्दोलन के दौर में जर्मन पार्टी के अनुभवों ने पहली बार अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा को पार्टी के खुले और गुप्त, क़ानूनी और ग़ैरक़ानूनी कामों के तालमेल के बारे में तथा एक हद तक क्रान्तिकारी पार्टी के भूमिगत ताने-बाने के बारे में आवश्यक शिक्षाएँ दीं। बाद में बोल्शेविक सांगठनिक उसूलों का प्रतिपादन करते हुए लेनिन ने इन अनुभवों के समाहार का भी लाभ उठाया।

पेरिस कम्यून के बाद फ़्रांस के मज़दूर आन्दोलन में वैज्ञानिक समाजवाद को स्वीकारने वालों का एक व्यापक आधार लगातार मौजूद रहा। 1880 में ल’ इगेलाइट नामक पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसे मार्क्स ने “सही अर्थों में पहला फ़्रांसीसी मज़दूर पत्र” बताया था। इसी वर्ष हुई कांग्रेस में, वर्कर्स पार्टी ने सुधारवादियों के प्रबल प्रभाव के बावजूद, कुल मिलाकर मार्क्सवाद की स्पिरिट के साथ बनाये गये पार्टी कार्यक्रम को स्वीकार किया। 1882 में पार्टी कांग्रेस के प्रतिनिधियों के बहुमत द्वारा भूतपूर्व प्रूदोंवादियों द्वारा प्रस्तुत सुधारवादी कार्यक्रम के स्वीकार किये जाने के बाद जूल्स गेल्डे और पॉल लफ़ार्ग के नेतृत्व में मार्क्सवादियों ने अलग होकर अपनी कांग्रेस आयोजित की। नवें दशक में मार्क्सवादी ‘वर्कर्स पार्टी’ का आधार तेज़ी से विस्तारित हुआ और शताब्दी के अन्तिम दशक में यह फ़्रांसीसी मज़दूरों की सर्वाधिक सशक्त पार्टी बन गयी, लेकिन ट्रेडयूनियन आन्दोलन में कुछ संकीर्णतावादी ग़लतियों के कारण पुनः इसका नेतृत्व अराजकतावादी संघाधिपत्यवादियों के हाथों में चला गया। शताब्दी के अन्त में बिखरे हुए फ़्रांसीसी मज़दूर आन्दोलन में आठ समाजवादी पार्टियाँ मौजूद थीं। फ़्रांस के मज़दूर आन्दोलन में संघाधिपत्यवाद, प्रूदोंपन्थी सुधारवाद, अराजकतावाद, संकीर्णतावाद आदि विविध अवसरवादी धाराओं-प्रवृत्तियों के विरुद्ध – वैज्ञानिक समाजवाद के विचारधारात्मक संघर्ष से और इसमें पफ़ूट की नकारात्मक शिक्षाओं से अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग और उत्तरवर्ती काल में विकसित कम्युनिस्ट आन्दोलन ने बहुत क़ीमती सबक़ हासिल किये।

जर्मनी और फ़्रांस के अतिरिक्त ब्रिटेन, आस्ट्रिया, इटली, स्पेन, पुर्तगाल, बेल्जियम, नीदरलैण्ड्, स्विट्ज़रलैण्ड, डेनमार्क, नार्वे, स्वीडन, पोलैण्ड, हंगरी आदि देशों में भी इस दौरान सामाजिक जनवादी और मज़दूर पार्टियों का गठन हुआ, जिनमें से अधिकांश ने वैज्ञानिक समाजवाद को अपने विचारधारात्मक आधार के रूप में स्वीकार किया। लेकिन इनमें से अधिकांश देशों के सर्वहारा आन्दोलनों में विभिन्न प्रकार की अवसरवादी धाराओं-प्रवृत्तियों और मार्क्सवादी विचारधारा के बीच तीखे संघर्ष चलते रहे जिनके कारण कई देशों में सामाजिक जनवादी पार्टियों को एकाधिक फूटों का भी सामना करना पड़ा। 1883 में प्लेख़ानोव, वेरा ज़ासुलिच और विदेशों में रह रहे कुछ अन्य भूतपूर्व नरोदवादियों द्वारा ‘इमैंसिपेशन ऑफ़ लेबर ग्रुप’ नामक मार्क्सवादी ग्रुप की स्थापना रूस में समाजवादी आन्दोलन के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी।

कुल मिलाकर, पहले इण्टरनेशनल ने अलग-अलग देशों में सर्वहारा वर्ग की स्वतन्त्र पार्टियों के निर्माण का जो मार्ग प्रशस्त किया था, उस पर यात्रा की शुरुआत 1889 में दूसरे इण्टरनेशनल की स्थापना से पहले ही हो चुकी थी। लेकिन मुख्य तौर पर इस अवधि की विशिष्टता थी दर्शन और राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में तथा निम्न पूँजीवादी समाजवादी विचारों के ऊपर मार्क्सवाद की निर्णायक विजय। दूसरे इण्टरनेशनल की स्थापना के समय तक यूरोप और अमेरिका का मज़दूर वर्ग एक ओर तो सड़कों पर उतरकर अपनी माँगों को लेकर जुझारू संघर्ष चला रहा था (1 मई 1886 को शिकागो में मज़दूरों के जुलूस पर गोली वर्षा और फिर पार्सन्स, स्पाइस, फ़िशर और एंजिल को दी गयी फाँसी इसी संघर्ष और शासक वर्ग के दमन की एक ऐतिहासिक मिसाल थी), दूसरी ओर विश्व सर्वहारा के नेता मार्क्स-एंगेल्स विचारधारा के क्षेत्र में जुझारू संघर्ष चला रहे थे और तीसरी ओर, मार्क्स-एंगेल्स के निर्देशन और लीबनेख़्त, मेहरिंग, लफ़ार्ग, बेबेल, दियेत्ज़गेन, काउत्स्की, ब्राक आदि के नेतृत्व में यूरोप के विभिन्न देशों में सर्वहारा वर्ग की पार्टियाँ सामाजिक जनवाद के आधार पर गठित हो रही थीं तथा इस प्रक्रिया में अवसरवादी प्रवृत्तियों-रुझानों के विरुद्ध, तमाम ग़ैरसर्वहारा विजातीय विचारों के विरुद्ध जुझारू संघर्ष चला रही थीं।

दूसरे इण्टरनेशनल की पहली कांग्रेस जुलाई, 1889 में पेरिस में हुई जिसमें यूरोप के लगभग सभी देशों के अतिरिक्त अमेरिका और अर्जेण्टीना की वैज्ञानिक समाजवाद को स्वीकारने वाली पार्टियों के कुल 390 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। दूसरे इण्टरनेशनल के जीवनकाल के शुरुआती वर्ष मज़दूर आन्दोलन में अवसरवादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध जुझारू संघर्ष और मार्क्सवाद के व्यापक प्रचार-प्रसार का काल था। एंगेल्स की मृत्यु के बाद भी इस दिशा में पाल लफ़ार्ग, बेबेल, दियेत्ज़गेन, प्लेख़ानोव, काउत्स्की, लैब्रियोला, मेहरिंग, लीबनेख़्त, रोज़ा लक्ज़मबर्ग आदि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। विगत शताब्दी के अन्तिम दशक का उत्तरार्द्ध संशोधनवाद के विरुद्ध मार्क्सवाद के संघर्ष का काल था। सुधारवादी अवस्थिति से मार्क्सवाद को तोड़ने-मरोड़ने वाले पहले चोटी के संशोधनवादी बर्नस्टीन के बुर्जुआ जनवाद के “वर्गेतर चरित्र” की अवधारणा, बुर्जुआ समाज के दायरे के भीतर “अंशतः समाजवाद को लागू करने” की अवधारणा तथा वर्ग-संघर्ष और इतिहास की द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी व्याख्या को उसके द्वारा ख़ारिज किये जाने के विरुद्ध बेबेल, रोज़ा लक्ज़मबर्ग, क्लारा ज़ेटकिन, लीबनेख़्त, मेहरिंग, कार्ल काउत्स्की, प्लेख़ानोव आदि ने तीखा संघर्ष चलाया। इस संघर्ष ने पूरे यूरोप के सर्वहारा वर्ग के विचारधारात्मक शस्त्रगार को समृद्ध किया। लेनिन ने भी रूस के अर्थवादियों, क़ानूनी मार्क्सवादियों और मार्क्स के रूसी “आलोचकों” के विचारों से तुलना करते हुए बर्नस्टीन के विचारों की सांगोपांग आलोचना प्रस्तुत की।

बीसवीं सदी के प्रारम्भ तक पूँजीवाद के साम्राज्यवाद की मंज़िल में संक्रमण के साथ ही क्रान्तियों के तूफ़ान का केन्द्र कमोबेश पश्चिम से खिसककर पूरब में आ चुका था। रूस जैसे जिन देशों में पूँजीवादी विकास के चलते सर्वहारा वर्ग तेज़ी से विकसित हुआ था और संगठित होने लगा था वहाँ क्रान्तियों का सूत्र भी मुख्यतः उसके हाथों में आने लगा था। लातिन अमेरिका के बहुतेरे देशों में भी मार्क्सवाद के आधार पर मज़दूर पार्टियों का गठन हो चुका था। एशिया और लातिन अमेरिका के अधिकांश उपनिवेशों में राष्ट्रीय जनवाद के लिए संघर्ष तीव्र हो उठे थे। नवोदित सर्वहारा वर्ग अपनी आर्थिक माँगों को लेकर संघर्ष करने के साथ ही उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में भागीदारी के माध्यम से विश्व पूँजीवाद के विरुद्ध मोर्चा लेने की शुरुआत कर चुका था। इन अनुकूल वस्तुगत परिस्थितियों में लेनिन के नेतृत्व में रूस में क्रान्तिकारी सामाजिक जनवाद यूरोप के मज़दूर आन्दोलन के अनुभवों को आत्मसात करके और रूस की समृद्ध क्रान्तिकारी परम्परा की निरन्तरता में क्रमशः पूरे विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन की अगली क़तार के रूप में विकसित हुआ।

नरोदवादियों के काल्पनिक “कीसानी समाजवाद” और निम्न-पूँजीवादी अराजकतावादी विचारों का विरोध करते हुए तथा बर्नस्टीन के विचारों के रूसी संस्करण – “क़ानूनी मार्क्सवाद” के विरुद्ध समझौताविहीन विचारधारात्मक संघर्ष चलाते हुए लेनिन ने रूसी मज़दूर आन्दोलन में मार्क्सवाद की पुख़्ता बुनियाद तैयार की और विभिन्न मार्क्सवादी ग्रुपों और मज़दूर मण्डलों को एकत्र करके 1897 में रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी के गठन में अग्रणी भूमिका निभायी। पार्टी के भीतर उसके जन्म के समय से ही जारी विभिन्न अर्थवादी-सुधारवादी रुझानों-प्रवृत्तियों के विरुद्ध लम्बे संघर्ष में लेनिन ने पहली बार एक क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी के सांगठनिक उसूलों को विकसित किया। जनवादी केन्द्रीयता, पेशेवर क्रान्तिकारियों पर आधारित पार्टी, पार्टी के भूमिगत ढाँचे की अपरिहार्यता, आर्थिक संघर्षों और राजनीतिक संघर्ष के अन्तर्सम्बन्ध तथा मज़दूर वर्ग के राजनीतिक कार्यभारों के बारे में लेनिन ने इस दौरान पहली बार सुस्पष्ट सोच प्रस्तुत की। साथ ही उन्होंने इसी दौरान बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति और सर्वहारा समाजवादी क्रान्तियों के दौरान सर्वहारा वर्ग की रणनीति और रणकौशलों का पहली बार सांगोपांग निरूपण किया। सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद की सोच को लेनिन ने और अधिक ठोस बनाया और उसके व्यावहारिक रूपों पर और अधिक प्रकाश डाला। प्लेख़ानोव की सोच के विपरीत लेनिन ने सर्वहारा क्रान्ति में किसान वर्गों की भूमिका का सही आकलन प्रस्तुत किया और मार्क्स-एंगेल्स और फिर कार्ल काउत्स्की के बाद, पहली बार पूँजीवाद के अन्तर्गत भूमि प्रश्न का सम्यक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कई चरणों से होकर बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति और समाजवादी क्रान्ति के भूमि कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार की। साथ ही उन्होंने साम्राज्यवाद के अन्तर्गत राष्ट्रीय उत्पीड़न के बदलते स्वरूप का विश्लेषण करते हुए यह स्पष्ट प्रस्थापना प्रस्तुत की कि राष्ट्रीयताओं के अलग होने सहित आत्मनिर्णय का अधिकार बहुराष्ट्रीय देशों की सर्वहारा क्रान्तियों के कार्यक्रम का एक अनिवार्य अंग है।

बोल्शेविक पार्टी का निर्माण और गठन सभी सुधारवादी मेंशेविक एवं अन्य धाराओं-प्रवृत्तियों और रुझानों के विरुद्ध समझौताविहीन संघर्ष की प्रक्रिया में ही सम्भव हो सका। इस संघर्ष के विचारधारात्मक पक्षों का अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व था। इस समय तक यूरोप और अमेरिका में मज़दूर आन्दोलन का बड़ा हिस्सा बुर्जुआ विचारों के प्रभाव में आ चुका था। मज़दूर अभिजात और मज़दूर नौकरशाही का सामाजिक आधार साम्राज्यवादी देशों में काफ़ी मज़बूत हो चुका था, निजी इज़ारेदार पूँजीवाद के साथ राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद के विकास ने भी इसे काफ़ी मज़बूत बनाया था और यूरोप-अमेरिका के मज़दूर आन्दोलन के नेतृत्व का एक बड़ा हिस्सा इनका प्रतिनिधित्व करता हुआ संशोधनवादी राह का राही बन चुका था। पश्चिम में उस समय “मार्क्सवाद की मृत्यु” या फिर उसमें “परिस्थिति अनुकूल यथोचित सुधार” की बातें ज़ोर-शोर से हो रही थीं। ऐसे में रूसी सर्वहारा आन्दोलन में तमाम विजातीय विचारों के विरुद्ध जारी संघर्ष पश्चिमी देशों के मज़दूर आन्दोलन में भी ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को संवेग प्रदान कर रहा था और इसका प्रतिबिम्बन एवं प्रभाव दूसरे इण्टरनेशनल में भी नज़र आ रहा था।

1905-’07 की रूसी क्रान्ति के बाद विचारधारात्मक संघर्ष का दायरा पूरे विश्व मज़दूर आन्दोलन तक विस्तारित हो गया और दूसरे इण्टरनेशनल के भीतर भी ग़ैरसर्वहारा लाइनों के विरुद्ध संघर्ष क्रमशः और तीखा होता चला गया, जिसकी चरम परिणति प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान फूट के रूप में सामने आयी। काउत्स्की और उसके अनुयायियों के विरुद्ध तीखे संघर्ष में लेनिन ने राज्य के मार्क्सवादी सिद्धान्त की हिफ़ाज़त की, उसे विकसित किया, सर्वहारा के अधिनायकत्व की अपरिहार्यता पर बल दिया और उसकी प्रकृति को और अधिक स्पष्ट किया। काउत्स्कीपन्थी संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए लेनिन ने उसके अधिसाम्राज्यवाद (“सुप्रा इम्पीरियलिज़्म”) की थीसिस की बुर्जुआ अन्तर्वस्तु का पर्दाफ़ाश किया, साम्राज्यवाद की विशिष्ट अभिलाक्षणिकताओं एवं इसके अन्तर्निहित अन्तरविरोधों पर प्रकाश डाला और इसकी राजनीति एवं अर्थनीति की विवेचना करते हुए बताया कि पूँजीवाद की यह चरम अवस्था सर्वहारा क्रान्तियों के युग की उद्घोषिका है।

साम्राज्यवाद की आन्तरिक गतिकी की एक तार्किक परिणति और अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतियोगिता के अपरिहार्य परिणाम के रूप में विश्वयुद्ध का विश्लेषण करते हुए लेनिन ने साम्राज्यवादी देशों के सर्वहारा वर्ग के लिए, अपने-अपने देशों के पूँजीपति वर्ग की ओर से युद्ध में भागीदारी के काउत्स्की द्वारा निगमित कार्यभार के विपरीत युद्धकाल में आम बग़ावत के प्रयास का कार्यभार प्रस्तुत किया। उन्होंने उपनिवेशों की राजनीतिक आज़ादी के संघर्षों की प्रासंगिकता को नकारने के काउत्स्की के प्रयासों को भी ग़लत सिद्ध किया और बताया कि साम्राज्यवाद के युग में साम्राज्यवादी देशों में समाजवादी क्रान्तियों के साथ ही उपनिवेशों में चल रहे राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्ष भी विश्व सर्वहारा क्रान्ति के ही संघटक अवयव हैं।

अक्टूबर क्रान्ति ने कम्युनिस्ट विचारधारा के प्राधिकार को मुकम्मिल तौर पर स्थापित कर दिया और विश्व सर्वहारा आन्दोलन से दूसरे इण्टरनेशनल के संशोधनवादियों के प्रभाव को समाप्त करके उसे पश्चिमी समृद्ध देशों के मुट्ठीभर पूँजीवादीकृत मज़दूरों और निम्नपूँजीवादी वर्गों तक (जोकि दूसरे इण्टरनेशनल के संशोधनवादियों की विचारधारा के वास्तविक सामाजिक आधार थे) सीमित कर दिया।

विश्व मज़दूर आन्दोलन को आवश्यक शिक्षाएँ देने वाला जर्मनी का सामाजिक जनवादी आन्दोलन फ़्रांसीसी समाजवादी आन्दोलन और ब्रिटिश ट्रेडयूनियन आन्दोलन के “कन्धों पर” (एंगेल्स) खड़ा हुआ था। इस शिक्षा को अमल में लाने का काम पेरिस कम्यून में फ़्रांसीसी मज़दूरों ने किया। ठीक इसी तरह अक्टूबर क्रान्ति पेरिस कम्यून के “कन्धों पर” (लेनिन) खड़ी हुई थी। 1905-’07 की असफल क्रान्ति इसका “ड्रेस रिहर्सल” थी और फ़रवरी 1917 की बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति इसका प्राक्कथन थी।

पेरिस कम्यून और उसके बाद के अनुभवों से सीखकर तथा विचारधारात्मक संघर्षों के दौरान क्रमशः समृद्धि अर्जित करते हुए सर्वहारा वर्ग ने दूसरी बार अक्टूबर 1917 में राज्यसत्ता पर क़ब्ज़ा किया। इस बार उसने बुर्जुआ राज्य मशीनरी को ध्वस्त कर मज़दूर वर्ग की राज्यसत्ता क़ायम की। पहली बार सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत क़ायम समाजवादी जनवाद के अन्तर्गत कम्युनिज़्म की ओर संक्रमण के अभूतपूर्व प्रयोग की शुरुआत हुई। पेरिस कम्यून के बाद यह विश्व सर्वहारा क्रान्ति का दूसरा मील का पत्थर था।

अक्टूबर 1917 की सोवियत समाजवादी क्रान्ति से 1949 की चीन की नयी जनवादी क्रान्ति तक का कालखण्ड विश्व सर्वहारा क्रान्ति के प्रथम चक्र का तीसरा चरण था। पेरिस कम्यून के अनुभवों के बाद सर्वहारा अधिनायकत्व पहली बार रूस में स्थापित हुआ और वह इतिहास के पहले समाजवादी प्रयोगों की प्रयोगशाला बना। सोवियत सत्ता का नेतृत्व करते हुए लेनिन ने सर्वहारा अधिनायकत्व सम्बन्धी मार्क्सवाद की पूर्व प्रस्थापनाओं को आगे विकसित करना शुरू किया। समाजवादी राज्य एवं समाज के विशिष्ट गुणधर्मों को व्याख्यायित करते हुए उन्होंने इसके बारे में पूर्ववर्ती मार्क्सवादी अवधारणाओं से इसकी भिन्नता को स्पष्ट किया, सर्वहारा सत्ता के स्वरूप और कार्यभारों के बारे में विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन को शिक्षित किया तथा बुर्जुआ वर्ग द्वारा सोवियत सत्ता के विरोध के विविध रूपों और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के सभी तरह के और सभी ओर से उपस्थित होने वाले ख़तरों को बार-बार तथा लगातार रेखांकित करते हुए इन सबके प्रतिकार के लिए सर्वहारा अधिनायकत्व के “लोहे के हाथ” की अपरिहार्यता पर निरन्तर बल दिया।

गृहयुद्ध के संकट, साम्राज्यवादी देशों के हमले, अकाल, भुखमरी आदि आपदाओं से जूझते हुए भी और इन आसन्न अस्तित्व के संकटों से उबरने तथा दीर्घकालिक बुनियादी आर्थिक संकट की शुरुआत होने के बाद भी लेनिन ने समाजवादी प्रयोगों का अविराम क्रम जारी रखा। साथ ही वे समाजवादी संक्रमण के दीर्घकालिक, रणनीतिक, नीतिगत और वैचारिक प्रश्नों से – यथा, पार्टी, राज्य और वर्ग के अन्तर्सम्बन्धों के प्रश्न, सर्वहारा अधिनायकत्व के ठोस रूप और सत्ता में सर्वहारा वर्ग की क्रमशः ज़्यादा से ज़्यादा प्रत्यक्ष भागीदारी के प्रश्न, पूँजीवादी उत्पादन और स्वामित्व के छोटे से छोटे रूपों की समाप्ति के प्रश्न आदि से जूझते रहे और भविष्य के सूत्रीकरणों के लिए बहुमूल्य पूर्वाधार तैयार करते रहे। लेनिन ने अपने अन्तिम दिनों में समाजवाद की समस्याओं की विवेचना करते हुए उन नौकरशाहाना विकृतियों व बुर्जुआ विरूपताओं को चिह्नित किया जो पार्टीतन्त्र और राज्यतन्त्र के भीतर पैदा हुई थीं। अन्तिम साँस तक वे इस समस्या से टकराते रहे कि समाजवाद के अन्तर्गत वर्ग-संघर्ष और क्रान्ति को कैसे जारी रखा जाये।

और यह सब कुछ करते हुए लेनिन ने अपने अन्तरराष्ट्रीय दायित्व को रत्तीभर भी और क्षणभर के लिए भी किनारे नहीं किया। तीसरे इण्टरनेशनल की स्थापना करने के साथ ही उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की आम कार्यदिशा तय की और यह भी स्पष्ट किया कि उपनिवेशों में जारी मुक्ति-संघर्षों को समर्थन देना विकसित पूँजीवादी देशों के सर्वहारा वर्ग का क्रान्तिकारी कर्त्तव्य है।

अक्टूबर क्रान्ति की तोपों का घनगर्जन दुनियाभर के मुक्ति संघर्षों में अनुगुंजित हो उठा था। इसने उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय संघर्षों को भी नयी दिशा तथा संवेग प्रदान किया। एशिया, लातिन अमेरिका और अरब अफ़्रीका के तमाम देशों में इसके प्रभाव में कम्युनिस्ट पार्टियों के गठन की प्रक्रिया दूसरे दशक के अन्त में ही शुरू हो चुकी थी, जिसे तीसरे इण्टनेशनल के प्रयासों ने तीसरे दशक में विशेष उत्प्रेरण प्रदान किया। विश्व पूँजीवाद की कमज़ोर कड़ियों के साथ ही, प्रथम विश्वयुद्ध के अन्तिम दौर की विशेष परिस्थितियों में जर्मनी का सर्वहारा भी क्रान्ति की विजय के काफ़ी निकट तक जा पहुँचा था। यद्यपि यह क्रान्ति कुचल दी गयी पर यूरोप में नवगठित लेनिनवादी पार्टियों के नेतृत्व में सर्वहारा संघर्षों का क्रम जारी रहा।

लेनिन के बाद स्तालिन ने अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा का नेतृत्व सँभाला, सर्वहारा विचारधारा में लेनिन के अवदानों की हिफ़ाज़त की, त्रात्स्की, जिनोवियेव, कामेनेव, बुखारिन आदि के विजातीय विचारों तथा उनके पार्टी विरोधी गुटों का निर्मूलन किया, समाजवादी सामूहिक स्वामित्व की स्थापना के साथ ही अर्थतन्त्र के समाजवादी नियोजन की शुरुआत की और दो दशकों से भी कम समय में एक शक्तिशाली समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण कर डाला। स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत लाल सेना और सोवियत जनता ने फ़ासीवादी धुरी को पराजित किया। एक शक्तिशाली समाजवादी शिविर अस्तित्व में आया जिसने पूरे विश्व के मज़दूर आन्दोलनों और राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों को नयी प्रेरणा और नया संवेग प्रदान किया।

यदि स्तालिन की मृत्यु के समय तक की परिस्थितियों पर हम एक सरसरी नज़र डालें तो ऐसा लगता है कि उनके सामने एक के बाद एक लगातार गम्भीर फ़ौरी समस्याएँ आती रहीं और लम्बे समय की नीतियों एवं कार्यक्रमों पर सोचने के लिए समय का अभाव लगातार बना रहा। पर यह एक सच्चाई है कि क्रान्ति की शैशवावस्था के गम्भीर संकटपूर्ण अल्पकाल में ही लेनिन ने समाजवाद की समस्याओं पर जिस गहराई के साथ सोचना शुरू किया था, वह स्तालिन काल में जारी न रह सका। पर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सर्वहारा सत्ता के सुदृढ़ीकरण के बाद, स्तालिन काल में ही पूरे तौर पर समाजवादी रूपान्तरण का काम शुरू हुआ और इसी दौरान समस्याओं के कुछ ऐसे ठोस रूप और ऐसे नये आयाम भी सामने आये जो लेनिन के जीवनकाल में स्पष्ट नहीं हुए थे। समाजवाद की कुछ बुनियादी समस्याओं को न देख पाने और कुछ का आंशिक और कुछ का ग़लत समाधान प्रस्तुत करने के बावजूद, कुछ सैद्धान्तिक भूलों और कुछ गौण ग़लतियों के बावजूद, स्तालिन के जीवनकाल में सर्वहारा अधिनायकत्व क़ायम रहा, समाजवाद ने आगे की ओर लम्बे डग भरे और फ़ासिज़्म को पराजित करने के साथ ही पूरी दुनिया में क्रान्ति की धारा को आगे बढ़ाने में सोवियत संघ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस पूरी अवधि में समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष के नियमों की समझ के अभाव के बावजूद बुर्जुआ तत्त्वों एवं बुर्जुआ अधिकारों को नियन्त्रित करने का काम जारी रहा, समाजवादी सार्वजनिक स्वामित्व की व्यवस्था सफलतापूर्वक लागू हुई, समाजवादी निर्माण का कार्य निरन्तर जारी रहा, मेहनतकश जनता की पहलक़दमी बनी रही और उत्पादन सम्बन्धों में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पादक शक्तियों को लगातार विकसित करता रहा।

विश्व सर्वहारा क्रान्ति के प्रथम चक्र के इस तीसरे चरण के दौरान ही, वर्तमान शताब्दी के चौथे दशक में पूँजीवादी विश्व उस समय तक की सर्वाधिक गम्भीर मन्दी और दुश्चक्रीय निराशा की महाविपत्ति में जा धँसा। दूसरा विश्वयुद्ध इस महाविपत्ति को टालने के लिए उपनिवेशों के पुनर्विभाजन के लिए लड़ा गया। इसके पूर्व ही मेक्सिको की बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति हो चुकी थी। जिस समय साम्राज्यवादी युद्ध-सरदार दुनिया को युद्ध के महाप्रलय की ओर धकेल रहे थे, उसी समय विश्व सर्वहारा क्रान्ति के ही एक संघटक तत्त्व के रूप में वियतनाम, कोरिया, बर्मा, मलाया, भारत आदि उपनिवेशों में मुक्ति-संघर्ष बढ़ रहे थे और युद्ध के दौरान वे निर्णायक मुक़ाम तक जा पहुँचे। चीन के अतिरिक्त वियतनाम और कोरिया में भी राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध में कम्युनिस्टों की नेतृत्वकारी भूमिका स्थापित हो चुकी थी और अन्य अधिकांश देशों के संघर्षों में भी उनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। पूरे विश्व सर्वहारा के विचारधारात्मक रणनीतिक शस्त्रगार को समृद्ध करने वाले और उपनिवेशवाद एवं नवउपनिवेशवाद के पूरे ऐतिहासिक दौर के लिए राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की आम लाइन, दीर्घकालिक लोकयुद्ध की पूरी दिशा और स्वरूप तय करने वाले महान सामाजिक प्रयोग तीसरे दशक से पाँचवें दशक तक के दौरान माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सम्पन्न कर रही थी।

अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक चीनी समाज में क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल विकसित करते हुए माओ ने नवजनवादी क्रान्ति के सिद्धान्त प्रतिपादित किये तथा उसे अमल में लाते हुए महाकाव्यात्मक शौर्यपूर्ण दीर्घकालिक लोकयुद्ध में चीनी जनता को नेतृत्व प्रदान किया। जनता की जनवादी क्रान्ति के तीन चमत्कारी हथियारों – कम्युनिस्ट पार्टी, लाल सेना और संयुक्त मोर्चा की प्रकल्पना और सर्जना करते हुए माओ ने मज़दूर-किसान संश्रय की मार्क्सवादी अवधारणा को एकदम नयी ऊँचाइयों तक विकसित किया। इसके साथ ही इसी दौरान माओ ने तत्कालीन विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन में व्याप्त यान्त्रिक भौतिकवादी एवं आधिभौतिकवादी विच्युतियों के समान्तर विज्ञान को सही दिशा में आगे बढ़ाया। अपने क्लासिकीय प्रतिपादनों – ‘अन्तरविरोध के बारे में’ और ‘व्यवहार के बारे में’ के ज़रिये उन्होंने अन्तरविरोधों के सिद्धान्त को तथा द्वन्द्ववाद की समझदारी को नयी ऊँचाइयों तक विकसित किया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पूर्वी यूरोप के देशों की मुक्ति और वहाँ सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनवादी सत्ताओं की स्थापना पहले ही हो चुकी थी। चीन की नयी जनवादी क्रान्ति ने दुनिया के सबसे पिछडे़ देशों में भी सर्वहारा क्रान्तियों के सिलसिले की शुरुआत कर दी। वियतनाम, कोरिया, कम्बोडिया आदि देशों की सर्वहारा क्रान्तियाँ इसी सिलसिले की उत्तरवर्ती कड़ियाँ थीं।

1917 में सोवियत संघ के रूप में अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के मुक्त क्षेत्र के निर्माण के साथ ही जिस यात्रा की शुरुआत हुई थी, वह 1949 में चीन की नयी जनवादी क्रान्ति तक अनेकशः अनुभवों से समृद्ध होती हुई काफ़ी आगे आ चुकी थी। बुर्जुआ वर्ग पर निर्णायक विचारधारात्मक विजय अब कई देशों में राज्यसत्ता पर सर्वहारा वर्ग के क़ब्ज़े के साथ ही तथा उसके सृदृढ़ीकरण की शुरुआत के साथ ही अब एक राजनीतिक-सामाजिक विजय में रूपान्तरित हो चुकी थी। पर समाजवाद की सुनिश्चित विजय की सैद्धान्तिक गारण्टी अभी तक हासिल नहीं की जा सकी थी।

विश्व सर्वहारा क्रान्ति के प्रथम चक्र के चौथे और अन्तिम चरण (1949-1976) में समाजवादी संक्रमण की प्रकृति और समस्याओं की सांगोपांग-सुसंगत समझदारी हासिल करने और समाजवाद की पूरी अवधि के लिए आम लाइन तय करने का ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण कार्य माओ के नेतृत्व में पूरा हुआ। और उदात्त त्रासदियों का रचयिता महानतम कवि – विश्व इतिहास कितना बड़ा द्वन्द्ववादी है, यह तो देखिये! सर्वहारा विचारधारा जब वर्ग समाज से वर्गविहीन समाज में दीघर्कालीन संक्रमण की आम दिशा की समझदारी से समृद्ध होने के सर्वोच्च शिखर तक पहुँची तो इसकी क़ीमत कठिन वर्ग-संघर्षों में विश्व सर्वहारा ने अपने सभी मुक्त क्षेत्रें को खोकर चुकायी। 1976 में चीन में समाजवाद का अन्तिम दुर्ग भी ढह गया।

अपने जन्मकाल से ही मार्क्सवाद का विकास निरन्तर विजातीय विचारधाराओं से भीषण घात-प्रतिघात-संघात के दौरान हुआ। भयंकर रक्तपातपूर्ण, दुर्द्धर्ष, निरन्तर और दीर्घकालिक वर्ग-युद्धों और जय-पराजयों के बीच उन्हीं के अंग के रूप में विचारधारात्मक वर्ग-संघर्ष भी विगत डेढ़ सौ वर्षों से अविरल-अविराम जारी रहा है। लासाल, बाकुनिन, प्रूदों और प्रथम संशोधनवादी बर्नस्टीन के बाद, मार्क्सवाद पर पहला सबसे बड़ा हमला कार्ल काउत्स्की के नेतृत्व में दूसरे इण्टरनेशनल के भगोड़ों ने किया था। इसके बाद त्रात्स्की और उसके अनुयायियों ने भी मार्क्सवाद पर ज़बरदस्त आक्रमण किया और पराजित हुए। अलब्राउडर, टीटो, तोग्लियाती जैसे संशोधनवादियों की सूची तो काफ़ी लम्बी है, पर वास्तव में कार्ल काउत्स्की के बाद मार्क्सवादी विचारधारा पर ख्रुश्चेव और उसके आधुनिक संशोधनवादी अनुयाइयों द्वारा किया गया चौतरफ़ा हमला दूसरा सबसे बड़ा हमला था। मार्क्सवाद पर तीसरा सबसे बड़ा हमला ल्यू शाओ-ची – देङ सियाओ-पिङ आदि के चीनी संशोधनवादी गिरोह ने किया। बाद के इन दोनों विचारधारात्मक महायुद्धों में विश्व सर्वहारा शिविर का नेतृत्व माओ त्से-तुङ ने किया। मृत्युशैया पर पड़े हुए, 1976 में अन्तिम साँस लेने तक माओ देङपन्थियों से लोहा लेते हुए मार्क्सवादी विज्ञान को अपने प्रतिपादनों से समृद्ध करते रहे।

यूँ तो 1949 के पहले ही माओ ने स्तालिन की यान्त्रिक भौतिकवादी पद्धति में निहित आधिभौतिक विच्युतियों पर तथा सोवियत समाजवादी प्रयोगों की समस्याओं पर सोचना शुरू कर दिया था, पर 1949 के बाद समाजवादी निर्माण की समस्याओं से जूझते हुए उनका अहसास और अधिक गहरा होता चला गया और 1956 में ख्रुश्चेव द्वारा पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद उन्होंने इस विपर्यय के वस्तुगत और आत्मगत आधारों के बारे में समाजवादी समाज की प्रकृति एवं समस्याओं के हर पहलू के बारे में और समाजवादी प्रयोगों की हर तरह की ग़लतियों के बारे में व्यापक और गहरे चिन्तन की शुरुआत कर दी थी। उस समय तक चीन में भी समाजवादी क्रान्ति को लेकर दो दिशाओं का संघर्ष शुरू हो चुका था, जो अन्ततः 1976 में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की चरम परिणति तक जा पहुँचा।

अपने जिस महानतम अवदान से विचारधारा को समृद्ध करके माओ त्से-तुङ ने उसे सर्वोच्च शिखर तक पहुँचाया, वह सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का दर्शन था। यह महत्त्वपूर्ण सूत्रीकरणों एवं स्थापनाओं का एक समुच्चय था जो समाजवाद की पूरी ऐतिहासिक अवधि के लिए सर्वहारा क्रान्ति की आम दिशा प्रस्तुत करता था। समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की पूरी प्रकृति, पूँजीवादी पुनर्स्थापना के सभी ख़तरों और उसे रोकने के कारगर उपायों की समझ तक माओ कुछ दिनों या कुछ वर्षों में नहीं पहुँचे। उन्होंने समाजवाद की समस्याओं पर चिन्तन के लेनिन के समय से छूटे सिरे को पकड़ा, सोवियत संघ के प्रयोगों और वहाँ समाजवाद की पराजय से आवश्यक सबक़ निकाले तथा अपने देश में जारी वर्ग-संघर्ष के ठोस अनुभवों का समाहार करते हुए सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का सूत्रपात किया।

माओ ने पिछडे़ हुए देशों की सर्वहारा पार्टियों को अपने प्रयोगों के माध्यम से पहली बार राष्ट्रीय जनवाद के कार्यभार को पूरा करने और समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में प्रविष्ट होने की समस्याओं के सभी पक्षों से – राष्ट्रीय बुर्जुआ और धनी किसानों के साथ रणनीतिक वर्ग-संश्रय के भंग होने से पैदा हुई समस्याओं, भूमि-प्रश्न के विविध पहलुओं और पिछड़े देशों में स्वामित्व के समाजवादी रूपान्तरण की समस्याओं से तथा इनके समाधानों से अवगत कराया। सोवियत अनुभवों से सबक़ लेकर उन्होंने कृषि को समाजवादी निर्माण का आधार और उद्योग को नेतृत्वकारी सेक्टर बताया। उन्होंने चीन में समाजवादी क्रान्ति के नये मार्ग की रूपरेखा तैयार की।

1956 में आधुनिक संशोधनवादियों ने सोवियत संघ में जब पार्टी और राज्य को हथिया लिया और ख्रुश्चेव ने स्तालिन की ग़लतियों के बहाने जब मार्क्सवाद-लेनिनवाद की मूल प्रस्थापनाओं को ही हमले का निशाना बनाया, जब उसने शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता और शान्तिपूर्ण संक्रमण की नीतियाँ प्रतिपादित करके मार्क्सवाद को उसकी आत्मा से ही यानी वर्ग-संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व से ही पृथक कर देने की कुचेष्टा की, तो “महान बहस” के दौरान माओ ने तथा चीन और अल्बानिया की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्सवाद की हिफ़ाज़त की। दुनिया के पहले समाजवादी देश में पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा के लिए एक भारी धक्का थी, पर महान बहस, चीन में जारी समाजवादी प्रयोग और चीनी पार्टी के इर्द-गिर्द दुनियाभर के सच्चे कम्युनिस्टों के गोलबन्द होने की प्रक्रिया पर विश्व मज़दूर आन्दोलन की समस्त आशाएँ संकेन्द्रित होकर टिकी हुई थीं।

माओ त्से-तुङ ने समाजवादी निर्माण के सोवियत अनुभव से – उसकी उपलब्धियों और पराजयों से आवश्यक निष्कर्षों का आसवन किया, समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष जारी रखने की लेनिन की शिक्षा के निहितार्थ को पकड़ा और आगे विकसित किया तथा यह सिद्ध किया कि “उत्पादक शक्तियों का सिद्धान्त” मार्क्सवाद से विचलन है। उन्होंने पहली बार ठोस और व्यावहारिक स्तर पर प्रतिपादन के साथ ही इस स्थापना का सत्यापन भी किया कि वर्ग-संघर्ष और सर्वहारा के अधिनायकत्व में क्रान्ति को जारी रखना पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने की और समाजवादी मार्ग पर यात्रा जारी रखने की कुंजीभूत कड़ी है।

सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत क्रान्ति को जारी रखने का सिद्धान्त और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति (1966-1976) के रूप में इसका सत्यापन माओ का महानतम अवदान है जिसने समाजवादी संक्रमण की पूरी अवधि के लिए – एक पूरे ऐतिहासिक युग के लिए आम लाइन प्रस्तुत की और मार्क्सवाद-लेनिनवाद को आधारभूत एवं गुणात्मक रूप से आगे विकसित किया। माओ ने पूरे समाजवादी संक्रमण के दौरान जारी वर्ग-संघर्ष की दीर्घकालिक प्रकृति के बारे में मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन द्वारा प्रस्तुत शिक्षाओं को आगे विकसित किया और बताया कि सर्वहारा पार्टी के भीतर दो लाइनों का संघर्ष समाज में जारी वर्ग-संघर्ष का ही प्रतिबिम्बन, अंग और एक रूप है। उन्होंने बताया कि संशोधनवाद और पूँजीवादी पुनर्स्थापना की जड़ों को केवल महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के ज़रिये ही नष्ट किया जा सकता है और यह कि इस नयी क्रान्ति का निशाना पार्टी और राज्य में मौजूद वे लोग हैं जिन्होंने पूँजीवादी मार्ग चुन लिया है।

महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान माओ ने मूलाधार और अधिरचना के द्वन्द्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों का प्रतिभाशाली विश्लेषण करते हुए मूलाधार के समाजवादी रूपान्तरण के लिए अधिरचना के सतत क्रान्तिकारीकरण को अनिवार्यतः आवश्यक बताया। उन्होंने बताया कि बुर्जुआ वर्ग को धीरे-धीरे आगे बढ़कर फिर से सत्ता हथिया लेने से रोकने के लिए सर्वहारा वर्ग को उस पर सर्वतोमुखी अधिनायकत्व लागू करना होगा, पार्टी के भीतर लगातार दो लाइनों का संघर्ष चलाना होगा, पार्टी नेतृत्व में आगे बढ़कर समाज की सभी नियन्त्रणकारी चोटियों पर क़ब्ज़ा जमा लेना होगा, राज्यसत्ता के अतिरिक्त अर्थतन्त्र, शिक्षा, विज्ञान और साहित्य-कला-संस्कृति के क्षेत्र में भी सतत संघर्ष जारी रखते हुए अपना निर्णायक नियन्त्रण क़ायम कर लेना होगा, समाज में समाजवादी जनवाद को और पार्टी में जनवादी केन्द्रीयता को व्यापक और गहरा बनाना होगा तथा पार्टी को हर तरह की बुर्जुआ विरूपताओं एवं नौकरशाहाना विच्युतियों से सतत संघर्ष करके बचाना होगा। पूँजीवादी पुनर्स्थापना के भौतिक आधारों और संशोधनवाद के सामाजिक आधारों को उद्घाटित करते हुए माओ ने बताया कि सर्वहारा अधिनायकत्व में क्रान्ति को जारी रखते हुए बुर्जुआ अधिकारों पर बन्दिशें लगाना तथा पूँजीवादी सम्बन्धों के पैदा होते रहने की ज़मीन को उत्तरोत्तर नष्ट करते जाना एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। अन्तिम तौर पर बुर्जुआ सम्बन्धों के नाश और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों के निर्मूलन के लिए एक या दो नहीं, बल्कि कई पीढ़ियों की और एक या दो नहीं बल्कि कई सांस्कृतिक क्रान्तियों की आवश्यकता होगी। उन्होंने एकाधिक बार इस बात पर भी बल दिया था कि यदि चीन में भी संशोधनवादी सत्ता में आ जायें तो यह दुनियाभर के कम्युनिस्टों और अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा का कर्त्तव्य होगा कि वे उनके विरुद्ध समझौताविहीन दृढ़ संकल्पयुक्त संघर्ष छेड़ दें और सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं को लेकर आगे बढ़ें।

महान बहस के संघर्ष को विस्तार देते हुए महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के प्रखर आलोक ने एक बार फिर ख्रुश्चेवी संशोधनवाद और भाँति-भाँति के अवसरवादियों द्वारा फैलाये गये विभ्रम के अँधेरे को चीरकर रख दिया और दुनियाभर में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की नयी पार्टियों के गठन की प्रक्रिया नये सिरे से शुरू हो गयी। यह सांस्कृतिक क्रान्ति की ही देन है कि विपर्यय और पराजय के वर्तमान कठिन दौर में भी तमाम बिखराव एवं गतिरोध के बावजूद दुनिया के अधिकांश देशों में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ, संगठन और ग्रुप मौजूद हैं, विचारधारा की हिफ़ाज़त करते हुए पार्टी निर्माण एवं पार्टी गठन के प्रयासों में लगे हुए हैं और वर्ग-संघर्ष को लगातार आगे बढ़ा रहे हैं।

माओ के नेतृत्व में जिस समय विश्व सर्वहारा रूस में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बावजूद संघर्ष की नयी-नयी चोटियों पर जीत के परचम लहरा रहा था, ठीक उसी समय एशिया-अफ़्रीका के राष्ट्रीय मुक्ति-संघर्षों का दौर भी पूरा हो रहा था, पुराने उपनिवेशवाद का स्थान मुख्यतः नवऔपनिवेशिक तन्त्र ले रहा था और यह औपनिवेशिक तन्त्र भी जनमुक्ति संघर्षों के प्रचण्ड प्रहारों से विघटित होता जा रहा था। सातवें दशक के अन्त तक सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद एक अतिमहाशक्ति बनकर अमेरिका को चुनौती देने लगा था और इन दो अतिमहाशक्तियों की होड़ ने एक और विश्वयुद्ध के महाविनाश की पूर्वपीठिका तैयार करनी शुरू कर दी थी। हालाँकि दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जारी जनसंघर्षों के दबाव, अपने ही आन्तरिक कारणों से साम्राज्यवादी सोवियत संघ के विघटन और अन्य कुछ वैश्विक कारणों से कुल मिलाकर विश्व इतिहास युद्ध की दिशा में आगे नहीं बढ़ा, पर नयी महाशक्तियों के बीच बनते नये ध्रुवीकरणों, गहराती प्रतिस्पर्द्धा और विश्व पूँजीवाद के गहराते अपूर्व संकट के वर्तमान दौर में भी हम विश्वयुद्ध की सम्भावनाओं से पूरी तरह इन्कार नहीं कर सकते।

1976 में माओ की मृत्यु के समय तक समाजवादी चीन ने विश्व शक्ति सन्तुलन को दुनिया की मुक्तिकामी जनता, उत्पीड़ित राष्ट्रों और क्रान्तियों के पक्ष में काफ़ी हद तक बनाये रखा। साथ ही, चीन में भी अन्तिम साँस तक माओ पूँजीवादी पथगामियों के साथ जीवन-मरण का संघर्ष चलाते रहे। उनकी मृत्यु के बाद संशोधनवादियों ने वहाँ राज्य और पार्टी का नेतृत्व हथिया लिया, पर तीखा वर्ग-संघर्ष आज भी वहाँ जारी है। विगत 16 वर्षों के दौरान नये सत्ताधारी एक क्षण के लिए भी चैन की साँस नहीं ले सके हैं।

महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति कम्युनिस्ट समाज की ओर अपने आरोहण के दौरान अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा द्वारा विजित सर्वोच्च चोटी है। यह मार्क्सवाद के विकास में नवीनतम मील का पत्थर है। इसके पीछे सर्वहारा वर्ग के समग्र ऐतिहासिक अनुभवों का कुल योग है। इसने मार्क्सवादी विज्ञान के हर अंग-उपांग को विकसित एवं समृद्ध किया है। पेरिस कम्यून और अक्टूबर क्रान्ति के बाद यह विश्व सर्वहारा क्रान्ति की यात्रा का तीसरा मील का पत्थर है।

 

 

ऐतिहासिक वर्गयुद्ध के दो चक्रों के

बीच का संक्रमण-काल

पुराने महानाटक का भरतवाक्य…

नये महानाटक का नान्दीपाठ…

उपरोक्त चार चरणों से होकर गुज़रने वाला सर्वहारा वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के महासमर का जो पहला विश्व ऐतिहासिक चक्र 1976 में माओ की मृत्यु और चीन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के मुकम्मिल होने के साथ ही पूरा हुआ है, उस प्रथम चक्र के अन्त में हम एक बार फिर वहाँ खड़े हैं जहाँ विश्व सर्वहारा के पास अपने मुक्त क्षेत्र या आधार इलाक़े के रूप में कोई भी समाजवादी राज्य नहीं है। उसके पास आज मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन-माओ जैसा कोई मान्य अन्तरराष्ट्रीय नेता या लेनिन-स्तालिन और माओ की पार्टियों जैसी संघर्षों की आग में तपी-मँजी कोई अनुभवी पार्टी या कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल जैसा कोई अन्तरराष्ट्रीय मंच भी नहीं है। यह एक अभूतपूर्व परिस्थिति है। यह सामयिक तौर पर, पराजय और विपर्यय का अँधेरा दौर है। पर इन कठिनतम दिनों में भी विश्व सर्वहारा आज वहाँ नहीं खड़ा है जहाँ पेरिस कम्यून के पहले या अक्टूबर क्रान्ति के पहले खड़ा था। आज उसके पास मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ त्से-तुङ विचारधारा है। यह पूरे पूँजीवादी समाज के इतिहास के तमाम संघर्षों और सभी क्रान्तियों के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों का कुल योग है। इसका नाभिक पेरिस कम्यून, अक्टूबर क्रान्ति और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के सारतत्त्व से संघटित हुआ है। इन सभी महान सामाजिक प्रयोगों के अनुभवों से समृद्ध सर्वहारा आज संघर्ष के एक नये चक्र में प्रवेश करने को उद्यत है। क्रान्तियों के नये संस्करणों की सर्जना के लिए वह अतीत की आत्माओं का आवाहन कर रहा है। पेरिस कम्यून, अक्टूबर क्रान्ति और महान सांस्कृतिक क्रान्ति की अमर ज्वालाएँ निष्प्रभ नहीं हुई हैं। संघर्ष के भावी नये चक्र में ये तीन प्रकाश स्तम्भ विश्व सर्वहारा के पथ को नित-निरन्तर आलोकित करते रहेंगे।

1976 में चीन के प्रतिक्रियावादी तख़्तापलट से लेकर पूर्वी यूरोप के देशों में संशोधनवादी कुलीनतान्त्रिक राज्यसत्ताओं के पतन एवं राजकीय इज़ारेदार अर्थतन्त्र के विघटन और अन्ततोगत्वा सोवियत संघ के विघटन तक का दौर सर्वहारा संघर्षों के दो चक्रों के बीच का एक ऐसा संक्रमणकाल रहा है जब दुनियाभर में सर्वहारा वर्ग की आत्मगत शक्तियों के विघटन और पुनस्संगठन की प्रक्रियाएँ एक साथ चलती रही हैं।

सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में छठे दशक में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद समाजवादी मुखौटे वाला जो नये ढंग का राजकीय इज़ारेदार पूँजीवादी तन्त्र क़ायम हुआ था और उसके आधार पर पार्टी और राज्य के जिन मुट्ठीभर नौकरशाहों पर संशोधनवादी कुलीनतन्त्र टिका हुआ था, वह आज ढह चुका है। पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बाद के विगत छत्तीस वर्षों के दौरान सोवियत खेमे के इन सभी देशों में बुर्जुआ दायरे के भीतर मूलाधार और अधिरचना के अन्तरविरोधों की उग्रता चरम बिन्दु पर जा पहुँची थी। अर्थतन्त्र एवं सामाजिक जीवन के ठहराव को तोड़ने के लिए अब मूलाधार और पूरी अधिरचनात्मक अट्टालिका का पुनर्गठन ज़रूरी हो गया था। राजकीय इज़ारेदार पूँजीवादी ढाँचे में निहित प्रतियोगिता का सापेक्षिक अभाव बुर्जुआ दायरे के भीतर उत्पादक शक्तियों के पैरों की बेड़ी बन चुका था और इस संकट से निजात पाने के लिए निजीकरण और उदारीकरण का सहारा लेना, यानी पूँजीवाद को उसके नवक्लासिकीय रूप में या यूँ कहें कि पश्चिमी ढंग के खुले पूँजीवाद के रूप में बहाल करना आवश्यक हो गया था। और इसकी तार्किक परिणति यह होनी ही थी कि पश्चिमी पूँजी भूतपूर्व सोवियत खेमे के सभी देशों को रौंदकर रख दे क्योंकि इन देशों की उत्पादक शक्तियाँ अभी सापेक्षतः पिछड़ी हुई थीं (वस्तुतः समाजवाद की समाप्ति के बाद ही उनका विकास मन्थर होते हुए रुक-सा गया था) और निजी पूँजीवाद का मार्ग चुनकर बाज़ार की शक्तियों को निर्बन्ध करने के बाद पूरी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था से अलग-थलग रहना भी नामुमकिन था। कालान्तर में, इन देशों में से रूस पुनः सँभलकर साम्राज्यवादी होड़ में किसी नयी धुरी का अंग बन सकता है। अन्य देशों के नये पूँजीपति इन देशों की उत्पादक शक्तियों के विकास के अनुपात में विश्व स्तर के अधिशेष विनियोजन में नीचे के संस्तरों पर ही कुछ एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के देशों की बराबरी में और कुछ उनसे ऊपर खड़े हो सकेंगे। चीन में अभी भी संशोधनवादी बुर्जुआ वर्ग की राजकीय इज़ारेदारी पर टिकी हुई कुलीनतान्त्रिक सत्ता क़ायम है, पर अर्थतन्त्र के विकास की उसी तार्किक परिणति के रूप में उसका भी पतन सुनिश्चित है। अब यह केवल कुछ समय की बात है।

संशोधनवादी पार्टी के नेतृत्व में समाजवादी मुखौटे वाले नये बुर्जुआ शासन के अन्तर्गत राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद का जन्म इतिहास-विकास की सहज-सामान्य धारा में कुछ समय के लिए पैदा हुई एक विच्युति, आम प्रवृत्ति से एक विचलन था। इतिहास में ऐसी ही कुछ परिघटनाएँ प्रायः समय-समय पर प्रकट और विलुप्त होती रही हैं। अपनी स्वाभाविक गति से पुनः आगे बढ़ने को उद्यत इतिहास अपने मार्ग में समय-समय पर आने वाली ऐसी बाधाओं को ठोकर मारकर किनारे कर देता है। आज ऐसा ही हुआ है। संशोधनवादी पूँजीवाद की बाधा को इतिहास ठोकर मारकर किनारे लगा चुका है। समाजवाद के बारे में तरह-तरह के भ्रम पैदा करने वाला एक स्रोत समाप्त हो चुका है। अब संशोधनवादियों के कुकर्मों को समाजवाद के मत्थे मढ़कर उसे बदनाम करने की पूँजीवादी रणनीति का आधार ही समाप्त हो चुका है। वर्ग-संघर्ष का स्वरूप अब एक बार फिर साफ़ हो चुका है। बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग अब एक बार फिर एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े हैं। नयी वास्तविकताओं ने ख़ुद ही संशोधनवाद के चरित्र को लेकर चल रही बहसों का अन्त कर दिया है, लेनिन और माओ की प्रस्थापनाओं को सत्यापित कर दिया है, समाजवाद को बदनाम करने वाले संशोधनवादियों के नक़ली लाल झण्डे को चींथ-चींथकर धूल में फेंक दिया है और असली लाल झण्डे लहराने के लिए समूचा आसमान दे दिया है। 1976 से 1991 तक की अवधि की – विश्व सर्वहारा क्रान्ति के बीते हुए और शुरू होने वाले चक्रों के बीच के अल्पकालीन संक्रमणकाल की यही विशिष्टता रही है।

और संक्रमणकाल की यह अल्पावधि भी ठहराव और गतिरोध का काल नहीं थी। यह भी सर्वहारा वर्ग की अपनी वर्ग प्रकृति की ऐतिहासिक विशिष्टता का ही परिणाम है। विश्व इतिहास की पूर्ववर्ती क्रान्तियों के दौरान, पराजय के बाद कुछ समय के लिए एकदम गतिरोध-सा छा जाता रहा है, गति रुक-सी जाती रही है और अँधेरे की शक्तियों का एकछत्र-निर्द्वन्द्व राज्य-सा स्थापित हो जाता रहा है। पर अब तक की सभी क्रान्तियों के वारिस, पूरे वर्ग समाज के विरुद्ध क्रान्ति के लिए सन्नद्ध सर्वहारा वर्ग की लड़ाई की प्रकृति और मार्ग भी ज़ाहिरा तौर पर पूर्ववर्ती क्रान्तियों से इस मायने में भी भिन्न है। अपने विश्व ऐतिहासिक युद्ध के प्रथम चक्र की समाप्ति के बाद सर्वहारा वर्ग ने विराम नहीं लिया और पुराने संघर्षों की निरन्तरता में ही नये संघर्षों की श्रृंखला की सर्जना करते नये चक्र की भूमिका तैयार करने लगा। विश्व सर्वहारा क्रान्ति के प्रथम चक्र का जो पश्चलेख था वही उसके दूसरे चक्र का प्राक्कथन भी था। जब विश्व प्रेक्षागृह के एक मंच पर मंचित मानव इतिहास की महानतम त्रासदियों में से एक का भरतवाक्य बोला जा रहा था, ठीक उसी समय दूसरे मंच पर एक नये महाकाव्यात्मक नाटक का नान्दीपाठ शुरू हो चुका था।

सर्वहारा और बुर्जुआ के बीच वर्ग महासमर

का नया विश्व ऐतिहासिक चक्र

नये सर्वहारा नवजागरण के लिए, नये सर्वहारा प्रबोधन के लिए

आगे बढ़ो! जीतने के लिए आगे बढ़ो, लड़ो!!

एक बार फिर

सर्वहारा क्रान्तियों के नये संस्करण की सर्जना के लिए

दुनिया के मज़दूरो, एक हो!

एक बार फिर

खोने के लिए सिर्फ़ बेड़ियाँ, जीतने के लिए सारा विश्व!

सजेंगे फिर नये लश्कर मचेगा रण महाभीषण

जैसाकि अब तक की विवेचना से स्पष्ट हो जाना चाहिए, संघर्ष के नये चक्र की बात हम इतिहास की सुनिश्चित वैज्ञानिक समझदारी के आधार पर कर रहे हैं। इतिहास के विकास की गति अराजक नहीं है, न ही इसकी आम दिशा अनिश्चित या अज्ञेय है। जो बुनियादी तर्क मानवसमाज के अब तक के ज्ञात इतिहास को वर्ग-संघर्षों और क्रान्तियों का इतिहास बताते हैं, वे ही तर्क पूँजीवाद विरोधी क्रान्तियों की सुनिश्चितता भी प्रमाणित करते हैं। पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक संरचना का अध्ययन बताता है कि इस कार्य के निष्पादन में सर्वाधिक क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ही पूरी मेहनतकश जनता की अगुवाई करेगा। सर्वहारा क्रान्तियों की पराजय के बावजूद आज भी यह बात उतनी ही सच है कि उत्पादन सम्बन्ध जब उत्पादक शक्तियों के विकास का मार्ग अवरुद्ध करेंगे तो वे उन उत्पादन सम्बन्धों को अन्ततोगत्वा नष्ट करके नये उत्पादन सम्बन्धों की सर्जना करेंगी ही। पूँजीवाद के जिस बुनियादी असमाधेय अन्तरविरोध की और आवर्ती चक्रीय क्रम से आने वाली मन्दी और दुष्चक्रीय निराशा के पूँजीवादी संकट के जिन बुनियादी कारणों की चर्चा मार्क्स ने की थी, वे आज की दुनिया पर भी लागू होते हैं। पूँजी के चरम संकेन्द्रण तथा वित्तीय इज़ारेदारियों और उनकी प्रतिस्पर्द्धा के भूमण्डलीकरण के साथ ही साम्राज्यवाद की अवस्था में पूँजीवाद के सभी अन्तरविरोधों के घनीभूत हो जाने, विश्व पूँजीवाद के ऐतिहासिक रूप से ह्रासमानता एवं विघटन के दौर में जा पहुँचने की स्थिति और इसके जिन कारणों की लेनिन ने सविस्तार चर्चा की थी तथा साम्राज्यवाद को सर्वहारा क्रान्तियों के युग का उद्घोषक बताया था, वह विवेचना आज भी मूलतः और मुख्यतः सही है। द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में वित्तीय पूँजी के विश्वव्यापी संचलन के रूपों, साम्राज्यवादी देशों की रणनीति और वैश्विक सेटिंग में बहुत सारे परिवर्तन – यहाँ तक कि कुछ आंशिक गुणात्मक परिवर्तन भी हुए हैं। उपनिवेशवाद और नवउपनिवेशवाद के चरणों को पार कर आज दुनिया आर्थिक नवउपनिवेशवाद के चरण में प्रविष्ट हो चुकी है। आज दुनिया सही अर्थों में भूमण्डलीय ग्राम बन चुकी है। आर्थिक वैश्वीकरण के ही समान्तर आज संस्कृति और संचारतन्त्र पर भी साम्राज्यवादी शक्तियों का विश्वव्यापी एकाधिकार क़ायम हो चुका है। अब प्रत्यक्ष-परोक्ष राजनीतिक नियन्त्रण के बिना ही विकसित उत्पादक शक्तियों वाले साम्राज्यवादी देश पिछड़े, अर्द्धऔद्योगीकृत देशों को विश्व बाज़ार और तकनोलॉजी पर अपने एकाधिकार की बदौलत लूट सकते हैं और राजनीतिक धौंसपट्टी का शिकार बना सकते हैं।

विश्व स्तर के अधिशेष विनियोजन में दुनियाभर के पूँजीपति वर्गों की हिस्सेदारी आज उनकी पूँजी की शक्ति के हिसाब से तय हो रही है। तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों का पूँजीपति वर्ग भी अब साम्राज्यवाद के विरुद्ध क्रान्तिकारी संघर्ष की शक्ति खो चुका है और उसकी सारी लड़ाई अब लूट के माल में अपने हिस्से को लेकर ही रह गयी है। साम्राज्यवाद की कमज़ोर कड़ियों में भी अब (कुछेक देशों को छोड़कर) राष्ट्रीय जनवाद का दौर बीत चुका है। इन देशों में कोई भी पूँजीपति वर्ग अब आम जनता का रणनीतिक संश्रयकारी नहीं रह गया है और अपने को विश्व पूँजीवाद के चौधरियों के साथ नत्थी कर चुका है। अब केवल तीन वर्गों के रणनीतिक संश्रय पर आधारित पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी समाजवादी क्रान्तियाँ ही इन देशों की जनता को सही मुक्ति प्रदान कर सकती हैं और विश्व पूँजीवाद की इन कमज़ोर कड़ियों के टूटने के साथ ही साम्राज्यवादी देशों का गहराता संकट भी क्रान्तिकारी विस्फोटों को जन्म दे सकता है। सोवियत संघ और सोवियत खेमे के विघटन के बाद फ़िलहाल सतह पर तो ऐसा लग रहा है मानो हम एकध्रुवीय दुनिया में जी रहे हैं जहाँ अमेरिका पूरी दुनिया को “नयी विश्व व्यवस्था” के ‘टर्म्स डिक्टेट’ कर रहा है। पर वास्तविकता यह है कि अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रभुत्व का अन्तकाल निकट आ गया है। अतिउत्पादन और अतिसंचय के संकटों से निरन्तर पीड़ित, यह आवर्ती मन्दियों के अनवरत क्रम से अशक्त पड़ गया है और जापान, जर्मनी तथा यूरोपीय आर्थिक समुदाय की सामूहिक आर्थिक शक्ति से इसे लगातार चुनौती मिल रही है। कई क्षेत्रें में आज यह पीछे छूट गया है। नये ध्रुवीकरण बन रहे हैं। अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतियोगिता का नया दौर शुरू हो रहा है।

इन सभी परिवर्तनों के बीच, हम कहना यह चाहते हैं कि विश्व पूँजीवादी तन्त्र के बुनियादी अन्तरविरोध आज भी वही हैं और उनका कोई भी समाधान इसी विश्व व्यवस्था के दायरे में सम्भव नहीं है। विश्व पूँजीवाद के युवा बनने के सभी प्रयास निष्फल सिद्ध हुए हैं। अमरत्व प्राप्ति के सभी नीमहक़ीमी नुस्ख़े बेकार साबित हुए हैं। आज भी हम साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियों के युग में ही जी रहे हैं। विपर्यय और पराजय के इस अँधेरे में भी सर्वहारा वर्ग के संघर्ष ही इतिहास की धुरी हैं। इतिहास कभी रुकता नहीं और उसका रथ कभी बिना धुरी के आगे नहीं बढ़ सकता। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक बुर्जुआ वर्ग के संघर्ष इतिहास की धुरी थे। उस समय से लेकर आज तक सर्वहारा वर्ग के संघर्ष इतिहास की धुरी बने हुए हैं और साम्राज्यवाद की अन्तिम तौर पर पराजय के बाद भी, समाजवादी संक्रमण के पूरे भावी ऐतिहासिक युग में, पूँजीवाद का समूल नाश होने तक, सर्वहारा वर्ग के संघर्ष ही इतिहास की धुरी बने रहेंगे। अकादमिक मार्क्सवादी इतिहासकार इसी बात को नहीं समझ पाते और इतिहास की धुरी को जाने बग़ैर उनका “द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी इतिहासलेखन” – दन्तनखहीन मार्क्सवादी इतिहास लेखन – ग़ैरपक्षधर, भोंड़ा भौतिकवादी इतिहासलेखन बनकर रह जाता है। यही कारण है कि उनका इतिहासलेखन इतिहास बनाने को प्रेरित नहीं कर सकता। आज ऐसे सभी “मार्क्सवादी” इतिहासकार “फ़्री थिंकर” हो गये हैं और मौलिक अन्दाज़ में सर्वहारा अधिनायकत्व या साम्राज्यवाद के मूल्यांकन या जनवादी केन्द्रीयता या पार्टी की भूमिका आदि पर उन्हीं प्रश्नों को उन्हीं तर्कों के साथ उठा रहे हैं जिन्हें लासाल, बर्नस्टीन, काउत्स्की, त्रात्स्की, ख्रुश्चेव आदि ने या यूरो कम्युनिस्टों ने उठाया था और जिनकी धज्जियाँ भी काफ़ी पहले उड़ाई जा चुकी हैं। धुरीविहीन मस्तिष्क की अराजक गतियों का यह समुच्चय ही आज के “फ़्री थिंकरों” का “नववामपन्थी” चिन्तन है। बहरहाल, हम मूल विषय पर वापस लौटें।

वर्तमान विश्व परिस्थितियाँ आज यही बता रही हैं कि पूँजीवाद के संकट एक नयी मंज़िल में प्रविष्ट हो चुके हैं। आवर्ती चक्रीय क्रम में लगातार क़हर की तरह बरपा होने वाली मन्दी के दौरों के बीच का अन्तराल इतना छोटा हो चुका है कि निरन्तरता का बोध-सा होने लगता है। अतिउत्पादन व अतिसंचय का पूँजीवादी संकट असमाधेय मालूम पड़ रहा है। विश्व पूँजीवाद आज निरन्तर मौजूद ढाँचागत संकट के दौर में प्रविष्ट हो चुका है। समय-समय पर दिखने वाले इसके स्वास्थ्यलाभ के लक्षण केवल क्षणिक और सतही होते हैं। यह पूँजीवाद की अन्तकारी (टर्मिनल) व्याधि है, जिससे केवल मृत्यु ही छुटकारा दिलायेगी। जर्मनी, जापान, अमेरिका में उग्र प्रतिस्पर्द्धा का नया दौर शुरू हो चुका है। पूर्वी यूरोप, भूतपूर्व सोवियत संघ के घटक देशों और उदारीकरण की लहर में बह रहे एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के देशों में नये बाज़ारों के निर्माण की जो भी सम्भावनाएँ हैं, वे बहुत जल्दी ही सन्तृप्त हो जायेंगी। ठीक इसी समय जब हम दुनिया में चल रहे संघर्षों पर नज़र डालते हैं तो साम्राज्यवाद के कई ‘हॉट स्पॉट्स’ के आने वाले दिनों में जल्दी ही ‘फ़्लैश प्वॉइण्ट्स’ में बदलने की सम्भावनाएँ स्पष्ट नज़र आती हैं।

पश्चिम एशिया पिछले लम्बे समय से साम्राज्यवादी विश्व के सभी अन्तरविरोधों की गाँठ बना हुआ है। इराक युद्ध, फ़िलिस्तीन समस्या के नये दौर तथा लीबिया प्रकरण के बाद इस रिसते नासूर के फूट पड़ने का समय और क़रीब आता जा रहा है। उधर लातिन अमेरिका में मेक्सिको, ब्राज़ील, अर्जेण्टीना, निकारागुआ, चीले मानो ज्वालामुखी के दहाने पर बैठे हुए हैं। अल सल्वाडोर, ग्वाटेमाला, होण्डुरास, कोलम्बिया आदि देशों में हथियारबन्द संघर्ष जारी हैं। और सबसे आगे, पेरू में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के नेतृत्व में जारी मुक्तियुद्ध का दबाव आज इतना अधिक बढ़ गया है कि सभी साम्राज्यवादी और पेरू के पूँजीवादी शासक इस मुद्दे पर आपस में बँट गये हैं और राष्ट्रपति फूजीमोरी ने संविधान और न्यायपालिका को निरस्त करके फ़ासिस्ट तानाशाही लागू कर दी है। अमेरिकी आर्थिक-सामरिक सहायता मुक्तियुद्ध को दबाने में पूरी तरह असफल सिद्ध हुई है। पश्चिम एशिया और लातिन विश्व के बाद अब पूर्वी यूरोप भी एक ऐसा रणस्थल बन चुका है जहाँ विश्व पूँजीवाद तन्त्र के समग्र अन्तरविरोध एक-दूसरे से गुँथे हुए हैं। पूर्व सोवियत संघ के कई गणराज्यों और युगोस्लाविया में गृहयुद्ध जारी है। “बाज़ार का स्वर्ग” एक मृग मरीचिका साबित हुआ है। बेरोज़गारी, छँटनी और तालाबन्दी के विरुद्ध रूस, पोलैण्ड, हंगरी, रूमानिया, चेकोस्लोवाकिया, बल्गारिया आदि देशों में मज़दूर सड़कों पर उग्र प्रदर्शन कर रहे हैं। और तूफ़ान सिर्फ़ अगवाड़े-पिछवाड़े ही नहीं, बल्कि दैत्य के दुर्ग के भीतर भी मचा हुआ है। जर्मनी में मज़दूरों के प्रदर्शनों-हड़तालों का सिलसिला जारी है और इनमें समाजवाद और मार्क्सवाद-लेनिनवाद का परचम उठाये हुए लोग भी शामिल हैं। फ़्रांस, ब्रिटेन, इटली आदि की भी यही स्थिति है। साठ के दशक के बाद, अमेरिका में मई 1992 के प्रथम सप्ताह में पहली बार अश्वेतों का इतना बड़ा उग्र जन-उभार एक विस्फोट के रूप में भड़क उठा। एक बार फिर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में मज़दूरों के साथ ही छात्रें के भी संघर्षों का सिलसिला शुरू हो गया है। 1976 से लेकर अब तक चीन में लाख दमन के बावजूद देङपन्थियों को चैन की नींद आने वाली एक भी रात नसीब नहीं हो सकी है।

अतिउत्पादन और अतिसंचय का ढाँचागत संकट और ग़रीब देशों एवं पूरी दुनिया के मेहनतकशों पर साम्राज्यवाद द्वारा ढाये जा रहे क़हर का नाश केवल सर्वहारा क्रान्तियाँ ही कर सकती हैं। आर्थिक नवउपनिवेशवाद के दौर में भी संकट का क्रान्तिकारी विस्फोट सबसे पहले तीसरी दुनिया कहलाने वाले देशों या पूर्वी यूरोप के पिछड़े हुए देशों में ही होगा। इन देशों में उत्पादक शक्तियाँ अपेक्षतया कमज़ोर हैं और मूलाधार एवं अधिरचना दोनों में विकास अधूरा है। ये विश्व पूँजीवाद के शरीर के कमज़ोर अंग हैं। पक्षाघात का प्रहार पहले इन्हीं पर होगा। ये ही विश्व सर्वहारा क्रान्ति के भावी केन्द्र हैं। इन देशों में साम्राज्यवादी व्यवस्था के ध्वंस के साथ ही क्रान्ति का तूफ़ान दुनिया के दूसरे भागों में भी फैल जायेगा। इनका पूर्वाधार विकसित पश्चिम में अभी से विकसित होता दिख रहा है। साम्राज्यवादी व्यवस्था को डुबोने का काम अन्ततोगत्वा समाजवाद की प्रचण्ड धारा ही करेगी। वह सभी तटबन्धों को आने वाले दिनों में तोड़ डालेगी।

यह बिल्कुल सही है कि क्रान्ति की आत्मगत शक्तियाँ आज कमज़ोर हैं। यह एक अभूतपूर्व परिस्थिति है, जैसीकि हमने ऊपर चर्चा की है। पर एक बार फिर यह रेखांकित कर दें कि इतिहास निरपेक्ष अर्थों में पीछे नहीं लौटा है। महासमर के प्रथम चक्र में पराजय के बावजूद दुनिया के कम्युनिस्ट आज 1848, 1871 या 1917 के पहले की स्थिति में वापस नहीं पहुँच गये हैं। आज उनके पास अतीत की सभी क्रान्तियों के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों का कुल योग, सभी का विचारधारात्मक सत्व मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा के रूप में मौजूद है। पूँजीवाद के पास अब केवल ‘अन्त का दर्शन’ है, संकटों का पुंज है। मनोरोगों की संस्कृति है, विघटित होते व्यक्तित्व व बिखरता सामाजिक ताना-बाना है। तात्कालिक राहतों के कुछ नुस्ख़े हैं, गलाकाटू आपसी प्रतिस्पर्द्धा है और खोखली दहाड़ है जो वास्तव में जराजीर्ण मृत्युभयग्रस्त रोगी की चीत्कार है। दर्शन और विचारधारा के क्षेत्र में अपनी मुकम्मिल विजय की ज़मीन पर संगठित होकर विश्व सर्वहारा के दस्ते अब संघर्ष के नये चक्र में पुनः साम्राज्यवादी दुर्गों पर धावा बोलने को आगे बढ़ेंगे।

इस अभूतपूर्व संकट की घड़ी में भी नेपाल, बांग्लादेश, भारत, अफ़गानिस्तान, ईरान और तुर्की से लेकर कोलम्बिया, ग्वाटेमाला, होण्डुरास, अर्जेण्टीना, चीले और ब्राज़ील तक और यही नहीं ग्रीस, इटली, जर्मनी, ब्रिटेन, फ़्रांस और स्कैण्डिनेवियाई देशों से लेकर अमेरिका और जापान तक आज कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शक्तियाँ – माओवादी क्रान्तिकारी ग्रुप और संगठन किसी न किसी रूप में मौजूद हैं। और सबसे आगे पेरू की कम्युनिस्ट पार्टी (शाइनिंग पाथ) के नेतृत्व में जारी मुक्ति युद्ध लगातार नयी जीतें हासिल करता जा रहा है। पेरू के प्रतिक्रियावादी शासक और साम्राज्यवाद हरचन्द कोशिश करके उसे कुचल नहीं सके हैं। वे निरुपाय हाथ मल रहे हैं और नीतियों को लेकर आपस में झगड़ रहे हैं। उनकी नींद हराम है। वे बख़ूबी समझ रहे हैं कि संघर्ष की यह आग जल्दी ही पूरे लातिन विश्व में फैल जायेगी। उधर पश्चिम एशिया भी सुलग रहा है। दूसरी ओर रूस और पूर्वी यूरोप की सड़कों पर मज़दूर वर्ग लाल झण्डे उड़ाता फिर समाजवाद के लिए संघर्ष का आवाहन कर रहा है। उस तक मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा के दर्शन का पहुँचना बारूद के ढेर में एक चिनगारी के प्रवेश के समान होगा। और अन्ततोगत्वा होना ही यही है।

आज दुनियाभर के सर्वहारा क्रान्तिकारियों का यही कार्यभार है कि वे अपने-अपने देशों में वर्ग-संघर्ष विकसित करें; पेरिस कम्यून, अक्टूबर क्रान्ति और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के तीन प्रकाश स्तम्भों के प्रखर आलोक में दृढ़ क़दमों से आगे बढ़ें; सघन विचारधारात्मक संघर्ष और प्रयोगों के अनुभवों के आधार पर लेनिन से लेकर माओ और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं के आधार पर पार्टी निर्माण एवं गठन की प्रक्रिया को त्वरान्वित करें, मार्क्सवाद की हिफ़ाज़त और प्रचार का काम एकजुट होकर करें, सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद के सिद्धान्तों को एक क्षण के लिए भी न भूलें और वर्ग-संघर्ष को लगातार आगे बढ़ाते हुए कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के एक व्यापक अन्तरराष्ट्रीय मंच और फिर एक नये क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के गठन की दिशा में भी आगे क़दम बढ़ायें।

मार्क्स की यह उक्ति आज भी सच है कि सर्वहारा तथा सम्पदा परस्पर विरोधी चीज़ें हैं। ये दोनों निजी सम्पत्ति की दुनिया के सृजन हैं। निजी सम्पत्ति सम्पदा के रूप में अपने अस्तित्व को क़ायम रखने के लिए अपने विरोधी सर्वहारा के अस्तित्व को क़ायम रखने के लिए विवश होती है। इसके विपरीत सर्वहारा अपना अस्तित्व निर्धारित करने वाली, अपनी विरोधी निजी सम्पत्ति को, सम्पदा को मिटाने के लिए विवश है। यही उसका ऐतिहासिक मिशन है। लेनिन की यह उक्ति आज भी ऐतिहासिक तौर पर सही है कि साम्राज्यवाद पूँजीवाद की चरम अवस्था है। इसके आगे पूँजीवाद की कोई नयी मंज़िल नहीं है और साम्राज्यवाद अमर भी नहीं है। साम्राज्यवाद का युग ही सर्वहारा क्रान्तियों का युग है। माओ की यह उक्ति रणनीतिक तौर पर आज भी सही है कि साम्राज्यवाद काग़ज़ी बाघ है और यह कि जनता ही इतिहास बनाने वाली शक्ति है।

आज सर्वहारा क्रान्तियों का नया चक्र एक नये सर्वहारा नवजागरण, एक नये सर्वहारा प्रबोधन और सर्वहारा क्रान्तियों के नये संस्करणों की सर्जना के आह्नान के साथ शुरू हो रहा है। यह सर्वहारा वर्ग की अपनी ऐतिहासिक विशिष्टता है कि इस नये सर्वहारा नवजागरण के पीछे शताब्दियों लम्बा अन्धकार युग नहीं है। संघर्ष के एक चक्र की समाप्ति के साथ ही इतिहास का यह सर्वाधिक क्रान्तिकारी वर्ग अपनी विचारधारा के बारे में फैलाये गये तमाम विभ्रमों की धूल-राख को उड़ाकर नवजागरण का कार्य कर रहा है, उसे व्यापक मेहनतकश अवाम तक पहुँचाने की चेष्टाओं द्वारा एक नये प्रबोधन का काम कर रहा है और साथ ही वर्ग-संघर्षों में इसे लागू करते हुए नयी क्रान्तियों की सर्जना का काम भी शुरू कर चुका है। ये तीनों प्रक्रियाएँ साथ-साथ जारी हैं। बल्कि यूँ कहें कि ये एक ही प्रक्रिया के विविध अन्तर्सम्बन्धित पक्ष हैं। यह प्रक्रिया एकदम प्राकृतिक अवस्था में है, पर इतना तय है कि यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। ‘लुई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रूमेर’ से शब्दावली उधार लेकर कहा जा सकता है कि पेरिस कम्यून के वीर कम्युनार्डों, अक्टूबर क्रान्ति के बोल्शेविक योद्धाओं और सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के रेडगार्डों की आत्माओं का आज सर्वहारा क्रान्तिकारी आवाहन कर रहे हैं, उन्हें पुनरुज्जीवित कर रहे हैं ताकि “नये संघर्षों को गौरवमण्डित” किया जा सके, “सम्मुख उपस्थित कार्यभार को कल्पना में वृहद आकार” दिया जा सके और “एक बार फिर क्रान्ति की आत्मा को जागृत” किया जा सके।

“अतीत द्वारा प्राप्त और अतीत द्वारा सम्प्रेषित” इन्हीं परिस्थितियों में मानवजन स्वयं अपना इतिहास बनाने के लिए एक बार फिर आगे क़दम बढ़ा रहे हैं।

पिछली शताब्दी के अन्त में सिसिली के समाजवादियों को अभिनन्दन सन्देश भेजते हुए एंगेल्स ने लिखा था, “… परन्तु उन्हें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। समस्त देशों के उत्पीड़ित वर्गों के लिए नये तथा बेहतर समाज की प्रभात वेला की किरणें फूटने लगी हैं। उत्पीड़ित सर्वत्र अपनी क़तारों को एकजुट कर रहे हैं, वे सर्वत्र सरहदों और विभिन्न भाषाओं को लाँघकर एक-दूसरे की ओर बढ़ रहे हैं। अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा की सेना गठित हो रही है और पास आती जा रही नयी शताब्दी उसे विजय की ओर ले जायेगी।”

अक्टूबर क्रान्ति ने और 1917 से 1976 तक की विश्व सर्वहारा की विजय यात्रा ने एंगेल्स की भविष्यवाणी को सही साबित किया। आज समाजवाद की सामयिक पराजय हुई है, पर सर्वहारा की विजय की सभी उपलब्धियाँ खोयी नहीं हैं। उनका सारतत्त्व आज भी सर्वहारा वर्ग के पास है। आज बीसवीं शताब्दी के अन्त में सर्वहारा क्रान्तियों के नये संस्करणों के निर्माण की पूर्ववेला में आने वाली शताब्दी के बारे में हमारी भविष्यवाणी भी कुछ वैसी ही होगी जैसी एंगेल्स ने पिछली शताब्दी के अन्त में की थी। माओ ने भी सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के उत्तरवर्ती दौर में कहा था – “अब से लेकर अगले पचास से सौ वर्षों तक का युग एक ऐसा महान युग होगा जिसमें दुनिया की सामाजिक व्यवस्था बुनियादी तौर पर बदल जायेगी, वह एक ऐसा भूकम्पकारी युग होगा जिसकी तुलना इतिहास के पिछले किसी भी युग से नहीं की जा सकेगी। एक ऐसे युग में रहते हुए, हमें उन महान संघर्षों में जूझने के लिए तैयार रहना चाहिए जो अपनी विशिष्ट चिन्ताओं में अतीत के तमाम संघर्षों से कई मायने में भिन्न होंगे।”

ऐसा ही होगा सर्वहारा और बुर्जुआ के बीच विश्व ऐतिहासिक महासमर का वह दूसरा चक्र जो अब शुरू हो रहा है।

मुट्ठी में जकड़ सकते हैं चाँद को

नवें आसमान में

और पकड़ सकते हैं कछुए

पाँच महासमुद्रों की गहराइयों में:

विजय के उल्लास भरे गीतों और हँसी के बीच

हम लौटेंगे।

साहस हो अगर ऊँचाइयों को जीतने का,

कुछ भी नहीं है असम्भव इस दुनिया में।

                                                                                 माओ त्से-तुङ

(‘चिङकाङशान पर फिर से चढ़ते हुए’ कविता का अंश)

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