लोग लोहे की दीवारों में क़ैद, मगर घुटते हुए, जगते हुए…

लोग लोहे की दीवारों में क़ैदमगर घुटते हुए, जगते हुए…

  • सम्‍पादक मण्‍डल 

चर्चा विश्व पूँजीवाद के वर्तमान संकटों की असमाधेयता जैसी स्थिति और उसके नये-नये रूपों की हो रही थी कि एक मित्र ने कहा, “…फिर भी, दुनिया में एक निराशा और अकर्मण्यता भरी चुप्पी है। कोई यह मानने को तैयार नहीं कि कुछ होने वाला है। और कुछ बुद्धिजीवी हैं जो बस अवसाद भरे स्वर में मूर्त समस्याओं पर अमूर्त बकवास किये चले जा रहे हैं।”

यह कहने में हमें क्षणभर भी सोचने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई, और अब भी हम यही मानते हैं कि ऐसा नहीं है।

लू शुन ने अपनी रचनात्मक सक्रियता की पूर्वबेला के निराशापूर्ण दौर के बारे में एक संस्मरण लिखा है जब वे एक हॉस्टल में एकाकी निरुद्देश्य जीवन बिता रहे थे। उनका पुराना मित्र चिन-शिन-ई, जो चीन के क्रान्तिकारी नवजागरण के प्रथम अग्रदूत की भूमिका निभाने वाली पत्रिका ‘नया नौजवान का सम्पादक था, प्रायः उनसे मिलने आता था और कुछ सार्थक करने के लिए प्रेरित करता रहता था। एक बार लू शुन ने उससे कहा, “कल्पना करो, लोहे की मोटी दीवारों वाला मकान है। न कोई दरवाज़ा है और न खिड़की या रोशनदान। हवा आने के लिए कोई रास्ता नहीं है। दीवारें बेहद मज़बूत हैं। मकान में बहुत से लोग बेसुध सोये हुए हैं। निश्चय ही वे लोग घुटकर मर जायेंगे। परन्तु बेसुधी से मरेंगे, इसलिए उन्हें कोई कष्ट अनुभव नहीं होगा। तुम चीख़-चिल्लाकर उन्हें जगाना चाहो तो सम्भव है कुछ एक की नींद उचट भी जाये। और निश्चित मृत्यु की यातना अनुभव करें तो इससे उनका क्या भला होगा?

“अगर अभेद्य दुर्ग में बाहरी आवाज़ से कुछ की नींद उचट सकती है तो यह कैसे कहा जा सकता है कि उस लौह कारागार को तोड़ने की कोई आशा नहीं है? यह चिन-शिन-ई का उत्तर था।

आज पूरी दुनिया की और हमारे देश की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है कि लोग मानो लोहे की मोटी दीवारों वाले एक अभेद्य मकान में क़ैद हैं। पर सबसे अहम बात यह है कि वे बेसुध सोये नहीं पड़े हैं। सभी घुट रहे हैं और जगते जा रहे हैं। यदि इतिहास से सबक लेने का कोई मतलब है तो विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि लौह कारागार टूटेगा।

यह वर्ष भारतीय स्वाधीनता संग्राम की महान घटना नाविक विद्रोह (1946) की पचासवीं वर्षगाँठ का वर्ष है और इसी विद्रोह के एक सेनानी सुरेन्द्र कुमार के एक संस्मरण की ये अन्तिम पंक्तियाँ उपरोक्त प्रश्न पर विचार करते समय मेरे जेहन में उमड़-घुमड़ रही हैं:

“जहाँ तक क्रान्ति के मील के पत्थरों का प्रश्न है, उन पत्थरों के नीचे पवित्र आदर्शों के जो बीज दबे पड़े हैं वे, आशा करनी चाहिए, सड़ नहीं गये हैं, शायद कभी अंकुरित हो उठें, प्रस्फुटित हो जायें और वे आदर्श अपना रंग लाने लगें। 1871 की पेरिस क्रान्ति ने, 1917 में रूस की अक्टूबर क्रान्ति का पथ प्रशस्त किया, उस अक्टूबर क्रान्ति को उसकी सन्तान सम्हाल नहीं पायी, परन्तु उसकी जड़ें तो इतनी मज़बूत हैं कि पता नहीं कब और कहाँ किसी और भी भव्य, उत्तुंग, प्रलयंकारी क्रान्ति को जन्म दें। संसार से क्या भूख, ग़रीबी, शोषण, नवउपनिवेशवादी अभिशाप मिट गये हैं? इसी में समकालीन विभ्रान्तियों के निवारण का बीज छुपा है।” (नाविक विद्रोह की याद: ‘पहल’-53, जनवरी-मार्च ’96)

और फिर लेनिन की ये पंक्तियाँ:

“एक क़दम पीछे, दो क़दम आगे….यह व्यक्तियों की ज़िन्दगी में भी होता है और राष्ट्रों के इतिहास में तथा पार्टियों के विकास में भी। एक क्षण के लिए भी क्रान्तिकारी सोशल डेमोक्रेसी (यानी क्रान्तिकारी सर्वहारा आन्दोलन के दर्शन – मार्क्सवाद) के सिद्धान्तों की अपरिहार्य तथा पूर्ण विजय में सन्देह करना, घोर अपराधपूर्ण कायरता होगी।” (कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड-7, पृ. 414)

इन पंक्तियों को भूल जाना, और फिर भी अपने को सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान में विश्वासी बताना – यह भी शायद एक घोर अपराधपूर्ण कायरता ही होगी।

विश्व पूँजीवाद के अभेद्य से प्रतीत हो रहे लौह कारागार की वास्तविकता यह है कि उसकी दीवारें जंग खाकर भीतर से जर्जर हो चुकी हैं और उन पर, जगह-जगह जन-प्रतिरोध का दबाव बढ़ता जा रहा है। घुटते हुए लोग जगते जा रहे हैं और इस दुर्ग की दीवारों से जूझ रहे हैं।

औपनिवेशिक और फिर नवऔपनिवेशिक लूटमार की सदियों पुरानी प्रयोग भूमि लातिनी अमेरिका में, जो अदम्य जन-संघर्षों, उभारों और दुर्द्धर्ष जन-क्रान्तियों की भी प्रयोग भूमि रही है, एक बार फिर लोग उठ खड़े हो रहे हैं। इन देशों के पूँजीपति शासक वर्गों ने निजीकरण-उदारीकरण की पश्चिमाभिमुखी पूँजीवादी नीतियों को भारत से भी लगभग डेढ़ दशक पहले लागू करना शुरू किया था। वहाँ वे नतीजे सामने हैं जो आगे, बहुत जल्दी ही भारत में भी सामने आयेंगे। अमेरिकी साम्राज्यवाद के पूरे सहयोग के बावजूद पेरू की जन-क्रान्ति की आग बुझ नहीं सकी है। कोलम्बिया, अल-सल्वाडोर, ग्वाटेमाला आदि देशों में नये सिरे से शुरू हुए सशस्त्र छापामार संघर्षों के साथ मज़दूर हड़तालों, छात्र आन्दोलनों और महँगाई-बेरोज़गारी विरोधी जन-आन्दोलनों का सिलसिला भी लगातार जारी है। मेक्सिको के चियापास प्रान्त से शुरू हुए जपाटिस्टा किसान संघर्ष को आगे बढ़ने से भले रोक दिया गया हो, पर उसे नष्ट नहीं किया जा सका है और धीरे-धीरे असन्तोष की आग देश के अन्य हिस्सों में भी फैलती जा रही है। यही नहीं, चियापास के अतिरिक्त दक्षिण मेक्सिको के कुछ अन्य प्रान्तों में भी छापामार संघर्ष शुरू हो चुके हैं। ताज़ा समाचारों के अनुसार, (रिवोल्यूशनरी वर्कर, सं. 875, सितम्बर 29, 1996, शिकागो, अमेरिका) ग्वेर्रेरो, चियापास और अन्य दक्षिण मेक्सिकी प्रान्तों में पीपुल्स रिवोल्यूशनरी आर्मी (ई.पी.आर.) नामक एक नये छापामार संगठन की सशस्त्र कार्रवाइयों ने इन दिनों जेडिल्लो सरकार और उसके अमेरिकी सरपरस्तों की नींद हराम कर रखी है। स्पष्ट है कि भूमण्डलीकरण की “सौग़ातों” को जनता चुपचाप बस स्वीकार नहीं कर रही है, बल्कि वह जवाबी “सौग़ातें” भी भेज रही है। लोग चुप नहीं हैं।

और अब यह लहर एशिया के देशों में भी फैल रही है। तीस वर्षों पहले दस लाख कम्युनिस्टों को मौत के घाट उतारकर, अमेरिकी साम्राज्यवादियों के पूरे समर्थन से निरंकुश सत्ता स्थापित करने वाले सुहार्तो के खि़लाफ़ इण्डोनेशिया में व्यापक जन-आन्दोलन फूट पड़ा है और हालाँकि जनतन्त्र के मुद्दे को लेकर आन्दोलन का नेतृत्व मुख्यतः मेघावती सुकर्णपुत्री की बुर्जुआ जनवादी, सुधारवादी पार्टी कर रही है, पर सत्ता और पूँजीवादी मीडिया को “लाल आतंक” का हौवा सताने लगा है और वे गला फाड़-फाड़कर इस बारे में चिल्लाने लगे हैं। फिलिप्पीन्स में तानाशाह मार्कोस के उत्तराधिकारियों का बुर्जुआ जनवादी मुखौटा उतर चुका है और दशाब्दियों से वहाँ क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के नेतृत्व में जारी सशस्त्र संघर्ष ठहराव तोड़कर एक बार फिर नया संवेग ग्रहण करने लगा है। थाइलैण्ड, दक्षिण कोरिया, ताइवान आदि जिन देशों को साम्राज्यवादी, पिछड़े देशों में पूँजीवादी विकास के मॉडल के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे, उनकी अर्थव्यवस्थाओं में ठहराव के लक्षण प्रकट होने के साथ ही इस “विकास” की क़ीमत अपनी ग़रीबी और बदहाली से चुकाते आ रहे लोग सड़कों पर उतर पड़े हैं, इनमें दक्षिण कोरिया अग्रणी है। भारत भी आज एक ऐसी ही स्थिति के ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब पहुँचता जा रहा है।

चुप्पी या शान्ति भूतपूर्व सोवियत संघ के घटक देशों और पूर्वी यूरोप के देशों में भी नहीं है। पश्चिमी पूँजी के प्रवाह से स्वर्ग-निर्माण के सपनों को धूल में मिलने में चन्द-एक वर्षों का समय भी नहीं लगा। समाजवादी मुखौटा लगाये संशोधनवादियों के भ्रष्टाचार और वर्णसंकर राजकीय पूँजीवाद से ऊबे लोगों ने पश्चिमी ढंग के खुले पूँजीवाद का विकल्प चुना।

पश्चिमी साम्राज्यवाद का दशाब्दियों का कुचक्र सफल हुआ। पर मोहभंग होते एक वर्ष भी नहीं लगा। भूख, ग़रीबी, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी-महँगाई, अपराध और भीषण असमानता में डूबा नये ज़ार येल्त्सिन का रूस खौल रहा है। सड़कों पर गत चार वषों से प्रदर्शनों-झड़पों का सिलसिला जारी है। रूस, सोवियत संघ के अन्य घटक देशों और पूर्वी यूरोप के देशों में, भूतपूर्व सत्ताधारी संशोधनवादी अपना ख्रुश्चेवी चोला उतारकर और काउत्स्की के पुराने सोशल डेमोक्रेटिक चोले को पैबन्द लगाकर, रफू करके पहनकर या तो सत्ता में आ चुके हैं या आने के लिए प्रयासरत हैं। पर स्थितियाँ यहीं रुकी नहीं हैं। लगातार बढ़ती ज़िन्दगी की परेशानियाँ जनता को एक बार फिर अक्टूबर क्रान्ति और स्तालिन काल (1953 तक) की समाजवादी उपलब्धियों की याद दिला रही हैं। रूस, उक्रेन और अन्य देशों में ऐसे क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठन भी अस्तित्व में आ चुके हैं जो पूँजीवादी जनवाद के संसदीय मोतियाबिन्द से मुक्त होकर अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण की बात कर रहे हैं। स्तालिन काल के बाद से ही पूँजीवादी पुनर्स्थापना को आज ये संगठन माओ के नेतृत्व वाली चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की ही तरह स्वीकार कर रहे हैं तथा शान्तिपूर्ण संक्रमण के सिद्धान्त को ख़ारिज कर रहे हैं। अपनी बहुतेरी गम्भीर विचारधारात्मक कमज़ोरियों और समाजवाद की समस्याओं एवं पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बुनियादी आर्थिक एवं अधिरचनात्मक कारणों को पूरी तरह न समझ पाने के बावजूद ये नये राजनीतिक संगठन सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी हिरावल हैं – यह तय है। मुख्य बात यह नहीं है कि आज ये कितने शक्तिशाली हैं। मुख्य बात है इन नयी राजनीतिक प्रवृत्तियों – परिघटनाओं का अस्तित्व में आना।

चीन में भी, जहाँ माओ के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने आज से 40 वर्षों पूर्व ख्रुश्चेव के नक़ली कम्युनिज़्म के विरुद्ध संघर्ष चलाया था और 30 वर्षों पूर्व महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के सिद्धान्त और व्यवहार के जरिये पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों का समाधान प्रस्तुत किया था, आज चुप्पी नहीं है। सच तो यह है कि 1976 में प्रतिक्रान्तिकारी तख़्तापलट करके “चार आधुनिकीकरण” के नाम पर पूँजीवाद बहाल करने की नीतियाँ लागू करने वाले देङपन्थी शासक बीस वर्षों के दौरान कभी भी चैन की साँस नहीं ले सके। माओ की यह भविष्यवाणी अक्षरशः सही साबित हुई कि पहली सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के बाद, यदि चीन में पूँजीवादी पथगामी सत्ता पर क़ाबिज़ होने में कामयाब हो भी गये, तो कभी चैन की साँस नहीं ले पायेंगे। और अब स्थितियाँ और आगे विकसित हो रही हैं। पूँजीवादी मीडिया में गत वर्ष ऐसी रिपोर्टें आयी थीं जिनमें चीन के ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों के विद्रोहों की ख़बरें आयी थीं। ‘फानशेन’ और ‘शेनफान’ के लेखक विलियम हिण्टन ने भी अपने ताज़ा चीन प्रवास के बाद इस बात की पुष्टि की थी कि चीन के किसान और मज़दूर आज फिर मानो माओ-काल के ‘नास्टैल्जिया’ में जीने लगे हैं। चीन के कुछ गाँवों में पिछले दिनों किसानों ने भंग किये गये कम्यूनों को ख़ुद ही फिर से गठित कर लिया। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौर के कला-साहित्य और फ़िल्मों के प्रति व्यापक रुचि फिर से पैदा हुई है। चीन की नयी पूँजीवादी सत्ता के आन्तरिक अन्तरविरोध तीखे होते जा रहे हैं और जनता के बग़ावती तेवर भी मुखर होते जा रहे हैं।

समाजवाद पर अन्तिम विजय का दम भरते विश्व पूँजीवाद के सुदृढ़तम दुर्गों में भी खलबली है। फ़्रांस और ब्रिटेन में पिछले दिनों हुई हड़तालें और 1992 में अमेरिका में भड़क उठे अश्वेत जन-उभार जैसी घटनाएँ अब पश्चिमी दुनिया में अपवाद नहीं मानी जा रही हैं, बल्कि भावी तूफ़ान के पूर्व संकेत मानी जा रही हैं।

पश्चिम विजयोन्माद के बजाय भयोन्माद से ग्रस्त है। पश्चिमी दुनिया के थिंकटैंक लगातार समाजवाद (जिसे वह “हरा” चुकी है) की बुराइयाँ गिना रहे हैं, आलोचनाएँ कर रहे हैं, पर लाख चाहकर भी वे पूँजीवाद के भविष्य के बारे में आशावादी बातें नहीं कर पा रहे हैं। वर्तमान दीर्घकालिक मन्दी और ठहराव की अभूतपूर्व स्थिति की बहुतेरी व्याख्याएँ प्रस्तुत की जा रही हैं, पर समाधान के नाम पर कुछ फ़ौरी नुस्ख़ों से अधिक कुछ भी प्रस्तुत कर पाना सम्भव नहीं हो पा रहा है। अमेरिकी प्रतिक्रियावादी पत्रिकाएँ भी इधर स्वीकारने लगी हैं कि समाजवादी देशों की बाहरी चुनौती की अनुपस्थिति के बावजूद, “परिधि के देशों” में संकट क्रान्तिकारी विस्फोट की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और विकसित पश्चिमी विश्व के भीतर अपनी आन्तरिक गति से प्रबल सामाजिक विस्फोटों की सम्भावनाएँ जन्म ले रही हैं।

आज से ठीक एक वर्ष पूर्व ‘दायित्वबोध’ के इन्हीं पन्नों पर हमने लिखा था: “सिर्फ़ यही एक बात, पूँजीवाद की सिद्धावस्था – विश्वव्यापी बाज़ार अर्थतन्त्र की मुक्तावस्था – में इन्सानियत की सभी भीषण समस्याओं का समाधान देखने के दावों को थोथा सिद्ध कर देती है कि पूँजी का जो भी विश्वव्यापी प्रसार आज दिखायी दे रहा है, वह विश्व के सभी मुद्रा-बाज़ारों में ऋण सर्जन में सतत वृद्धि, मुद्रा-पूँजी के अन्तरराष्ट्रीय आवागमन और सट्टेबाज़ी के रूप में है। विनिर्माण (मैन्यूफ़ैक्चरिंग) और कच्चे माल के दोहन जैसी उत्पादक कार्रवाइयों से दूर, जो भी निवेश हो रहा है वह मुख्यतः शेयर बाज़ार, बीमा आदि अन्य वित्तीय क्षेत्रों, विज्ञापन, मीडिया आदि में हो रहा है। यानी आज वित्तीय प्रसार को गति एक स्वस्थ वास्तविक अर्थव्यवस्था के विकास से नहीं बल्कि उसके ठहराव से मिल रही है। यानी पूँजी संचय की क्रिया आज पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक दायरे में परिमाणात्मक विकास या प्रगति का भी द्योतक नहीं रह गयी है, बल्कि इसके विपरीत एक भीषण विध्वंसक शक्ति बन गयी है – पूँजीवाद के लिए भी आम जनता के लिए भी। इस नये क़िस्म की वित्तीय संरचना का गठन द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में शुरू हुआ और 1974-75 की तीव्र मन्दी के बाद के गुज़रे पाँच वर्षों में, एक के बाद एक – नये-नये अप्रत्याशित रूपों में इसके आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक परिणाम इस क़दर सामने आये हैं, मानो इतिहास ने दुलकी चाल से चलना शुरू कर दिया हो। सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत संघ के विघटन के बाद पश्चिम की विश्व-विजय की दम्भकारी घोषणाओं के बीच और समाजवाद की मृत्यु के दावों के बीच, विश्व पूँजीवाद, जो भूमण्डलीकरण के बाद हूबहू शाब्दिक अर्थों में बहुत अधिक विश्व पूँजीवाद है, गत पाँच वर्षों के दौरान शताब्दी के गम्भीरतम संकट का सामना कर रहा है और आने वाले दशकों में इससे मुक्ति का कोई मान्य नुस्ख़ा उसके किसी भी सिद्धान्तकार को नहीं सूझ रहा है। तब क्या अपनी तमाम दहाड़ों के बावजूद, वह अपने को पहले हमेशा से भी अधिक स्पष्ट रूप में काग़ज़ी बाघ नहीं सिद्ध कर रहा है? (दायित्वबोध, नवम्बर ’95-फ़रवरी ’96)

हम समझते हैं कि गुज़रे एक वर्ष के समय ने इस सचाई को और अधिक पुष्ट किया है तथा इसके कुछ और आयामों को उद्घाटित किया है। समाज और क्रान्ति के विज्ञान की औसत समझ को तिलांजलि देने के बाद ही यह माना जा सकता है कि यह विश्वव्यापी सामाजिक-आर्थिक संरचना अमर है और यह कि यह ‘इतिहास का अन्त’ है। यदि हमें आज विश्व पटल पर संगठित होती हुई क्रान्तियाँ दिखायी नहीं दे रही हैं, तो यह मान लेना कि अपनी स्वतःस्फूर्त आन्तरिक गति से बेरोज़गारी, असमानता, ग़रीबी, अन्याय, युद्धों और तमाम आपदाओं को जन्म देने वाले विश्व पूँजीवाद को दुनिया के अरबों मेहनतकशों ने अपनी नियति के रूप में स्वीकार कर लिया है, निरी मध्यवर्गीय निराशावादी कूपमण्डूकता होगी। और फिर यह तो आज साफ़ नज़र आने वाला सतह का यथार्थ है कि सन्नाटा टूट रहा है – लातिनी अमेरिका, पूर्वी यूरोप और अफ्रीका से लेकर एशिया तक।

राष्ट्रीय सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिदृश्य की ओर देखें। वर्तमान राजनीतिक संकट अस्थिरता और तमाम घपलों-घोटालों के रेलमपेल के रूप में सामने आये पूँजीवादी संसदीय राजनीति के कुरूपतम चेहरे को यदि नयी आर्थिक नीतियों पर अमल के क़रीब पाँच वर्षों के दौरान उत्पादन और विनिमय की पूरी प्रणाली में आये बदलावों, तज्जन्य मन्दी, ठहराव और अनिश्चितता के असमाधेय संकट और अभूतपूर्व रफ़्तार से बढ़ती ग़रीबी, महँगाई, बेरोज़गारी एवं असमानता के साथ, सामाजिक अराजकता और अपराध की संस्कृति के साथ और छिटपुट आन्दोलनों के रूप में इधर लगातार फूटते रहने वाले सुलगते जन-असन्तोष के विस्फोटों के साथ जोड़कर देखें, तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि एक ओर जहाँ बढ़ते संकटों के दबाव में भारतीय पूँजीवादी राज्यसत्ता निरंकुशशाही की ओर डग भर रही है, वहीं पूरा भारतीय समाज एक प्रचण्ड जन-ज्वार की ओर क़दम बढ़ा रहा है।

राजनीति अर्थनीति की ही सर्वाधिक घनीभूत अभिव्यक्ति होती है। आज केन्द्र से लेकर उत्तर प्रदेश सहित विभिन्न राज्यों में जो राजनीतिक अस्थिरता व्याप्त है, वह दरअसल आर्थिक अस्थिरता की ही घनीभूत अभिव्यक्ति है। घपलों-घोटालों, सांसदों-विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त और गुण्डागर्दी-दलाली की वर्तमान राजनीतिक संस्कृति आज के दौर के रुग्ण पूँजीवाद की राजनीतिक संस्कृति है। लाभ के आगे अतिलाभ और फिर उससे भी आगे खुली लूट को, किसी भी तरह से धनी हो जाने की प्रवृत्ति को खुली नैतिक स्वीकृति देने वाले पूँजीवाद की, हर वस्तु की ही नहीं बल्कि मनुष्य की बौद्धिक-शारीरिक श्रमशक्ति तक की उपयोगिता उसके ज़्यादा से ज़्यादा बिकाऊ माल होने की स्थिति में देखने वाले पूँजीवाद की, यही राजनीतिक संस्कृति हो सकती है। साम्राज्यवाद की सदी के इस अन्तिम दशक में, अमेरिका में या भारत में कहीं भी पूँजीवाद के पास कोई आदर्श तो दूर, कोई लोकरंजक नारा भी नहीं रह गया है। ज़ाहिरा तौर पर इस स्थिति में पूँजीवादी राजनीति का वीभत्सतम रूप सामने आना था। यही कारण है कि आज भारत की संसदीय राजनीति दलाली, गुण्डागर्दी, डकैती, मौक़ापरस्ती के अतिरिक्त कुछ नहीं रह गयी है।

नयी आर्थिक नीति समूचे भारतीय शासक वर्ग और साम्राज्यवाद की, सभी संसदीय बुर्जुआ पार्टियों की आम सहमति की नीति है। विवाद और मतभेद केवल निचोड़े गये अतिलाभ में अलग-अलग शासक वर्गों के हिस्से को लेकर है। इस आम सहमति का एकमात्र अर्थ यह है कि शासक वर्ग के सामने पूँजीवादी विकास के दायरे के भीतर विकल्प घटते-घटते अपने अन्तिम बिन्दु तक जा पहुँचे हैं तथा पूँजीवादी अर्थनीति और राजनीति के खेल के मैदान बेहद सिकुड़ गये हैं। बुनियादी नीतियों पर आम सहमति के ऐसे दौर में बुर्जुआ संसद के चुनाव यदि सिर्फ़ समाज के जातिगत-साम्प्रदायिक विभाजन के आधार पर लड़े जा रहे हैं और निकृष्टतम कोटि के अवसरवादी गठबन्धनों, पालाबदल और ख़रीद-फ़रोख़्त का बाज़ार गर्म है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

ऐसी स्थिति में, कोई चरम निराशावादी या परले दर्जे का मूर्ख ही यह सोच सकता है कि सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा और जनता गहरी नशे की नींद में पड़ी रहेगी। यह भी कोई कूपमण्डूक ही सोच सकता है कि मौजूदा आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था के दायरे के भीतर सुधार करके इसे जन-कल्याणकारी बना पाने की कोई गुंजाइश शेष बची है, क्योंकि यदि यह सम्भव होता तो अब तक हो चुका होता।

इसलिए यह तय है कि चीज़ें बदलनी हैं। लोगों को जागना ही है। लोग जागेंगे। और अब यह सुदूर भविष्य की बात नहीं है। इतिहास से ऐसे संकेत मिलने लगे हैं।

‘रिवोल्यूशनरी वर्कर’ (29 सितम्बर, 1996) में मेक्सिको में ई.पी.आर. की छापामार कार्रवाइयों पर प्रकाशित एक रिपोर्ट में मेक्सिको की आम जनता में व्याप्त असन्तोष की चर्चा करते हुए हुआतुल्को शहर के एक तीस वर्षीय व्यक्ति के उद्गार का हवाला दिया गया है, जो वहाँ के आम जन-मानस को प्रकट करता है। उस व्यक्ति ने रिपोर्टर से कहा, “लोग भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं और राष्ट्रपति के यह कहने से तंग आ चुके हैं कि हालात बेहतर हो रहे हैं जबकि वास्तव में उनकी ज़िन्दगी बद से बदतर होती जा रही है। यदि सरकार जनता की समस्याओं पर ध्यान नहीं देगी तो उसे एक क्रान्ति का सामना करना पड़ेगा। यही मेक्सिको की वास्तविकता है।”

यही वास्तविकता भारत की भी है। और भारत का आम मेहनतकश अवाम भी तेज़ी से इस नतीजे पर पहुँचता जा रहा है। राजनीति आज़ादी के गुज़रे पचास वर्षों के समय के अनुभव और रोज़मर्रे की ज़िन्दगी की बढ़ती परेशानियाँ उसे धकेलकर इस नतीजे पर पहुँचा रही है।

लोग लोहे की दीवारों वाले अभेद्य दुर्ग में क़ैद तो हैं, मगर जग रहे हैं। घुट रहे हैं। सवाल यह है कि आह्वान करने वाले लोगों में लगातार उन्हें आवाज़ देने की ज़िद, संकल्प और धीरज है या नहीं! सवाल यह है कि क्या वे जनता को लौह-कारागार को तोड़ डालने की तरकीब और तरीक़ा बताने की समझ और सूझ-बूझ भी रखते हैं या नहीं! सवाल यह है कि वे इसका जोखिम उठाने के लिए और क़ीमत चुकाने के लिए तैयार हैं या नहीं!

दायित्वबोध, वर्ष 3, अंक 6, सितम्बर-अक्टूबर 1996

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