खाद्य सुरक्षा के नाम पर जनता के लिए खाद्य असुरक्षा पैदा करने की तैयारी
- तपीश मैन्दोला
खाद्य सुरक्षा अधिनियम के सवाल पर पूरे देश में सिविल सोसायटी संगठनों, संशोधनवादी पार्टियों और तमाम स्वयंसेवी संगठनों के बीच गरमा-गरम बहस जारी है। सरकार ने खाद्य सुरक्षा अधिनियम का जो मसौदा पेश किया है, उसे लेकर सरकार के अलग-अलग हिस्से भी बहस का स्वाँग कर रहे हैं। हाल ही में खाद्य सुरक्षा के मसले पर संसदीय स्टैण्डिंग कमेटी ने अपनी अनुशंसाएँ पेश की हैं। इस कमेटी के अलावा सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने भी अपने सुझाव दिये थे। और अन्त में, मनमोहन सिंह ने सी-रंगराजन के नेतृत्व में जो विशेषज्ञ कमेटी बनायी थी, उसने भी अपनी सिफ़ारिशें सरकार के सामने रख दी हैं। इस प्रायोज़ित बहस के ज़रिये सरकार एक काम करने में सफल रही है। कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार का मक़सद यह था कि वह खाद्य सुरक्षा के मसले पर बहस के मूल मुद्दे को किनारे कर दे। मूल मुद्दा यह था कि एक सच्चे और ईमानदार खाद्य सुरक्षा अधिनियम को सार्वभौमिक खाद्य वितरण को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए या नहीं। ज़ाहिर है, कि संसदीय वामपन्थी जब भी सरकार का अंग नहीं होते हैं (बाहर से या अन्दर से) तो वे हमेशा कल्याणकारी नीतियों को छोर पर जाकर लागू करने की माँग करते हैं। मिसाल के तौर पर, इस मूल मुद्दे पर संशोधनवादियों की अवस्थिति यह थी कि सार्वभौमिक खाद्य वितरण की ज़िम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए। लेकिन जिन-जिन राज्यों में संशोधनवादियों की सरकारें रही हैं, उन्होंने स्वयं ऐसा कदम कभी नहीं उठाया है, हालाँकि भारत का संघीय ढाँचा उन्हें इस बात की पूरी इजाज़त देता है कि वह अपने प्रदेश की आबादी के बड़े हिस्से को सब्सिडी पर खाद्यान्न उपलब्ध कराये। ख़ैर, यहाँ हमें संशोधनवादियों के इरादों और नीयत के बारे में चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि अब देश के उन्नत मज़दूर भी उनकी असलियत को समझने लगे हैं।
हमारी चर्चा का मुख्य मुद्दा है खाद्य सुरक्षा अधिनियम के सरकारी मसौदे के पेश होने के बाद आये प्रस्ताव और उन पर चल रही बहस। सरकार ने मूल मुद्दे से बहस को खिसका दिया है, जो कि सार्वभौमिक सब्सिडाइज़्ड खाद्यान्न वितरण का था। अब बहस इस बात पर होने लगी है कि आबादी के कितने हिस्से को किस दर पर सब्सिडाइज़्ड खाद्यान्न मुहैया कराया जाय। तो पहली मुश्किल सरकार ने दूर कर ली है।
संसदीय स्टैण्डिंग कमेटी ने यह प्रस्ताव रखा है कि आबादी के 67 प्रतिशत हिस्से को सरकार छूट वाली दरों पर अनाज मुहैया कराये। इसके लिए उसने आबादी को दो हिस्सों में बाँटने का प्रस्ताव दिया है “शामिल” और “गैर-शामिल”। लेकिन इसने सभी शामिल परिवारों के लिए सब्सिडाइज़्ड अनाज की सीमा को 5 किलोग्राम पर निर्धारित करने का सुझाव दिया है। यानी कि अगर एक परिवार में 5 सदस्य हैं, तो उस परिवार को रियायती दरों पर कुल 25 किलोग्राम अनाज प्राप्त होगा। इसमें चावल की रियायती दर रु. 3/किग्रा होगी, गेहूँ की रु. 2/किग्रा और जौ की रु. 1/किग्रा। इस समिति के कुछ सदस्यों ने इस पर आपत्ति दर्ज़ करायी, जैसा कि हमेशा ही संसदीय कमेटियों में होता है। इन सदस्यों ने सही आपत्ति भी उठायी; ऐसा भी अक्सर होता ही है! इनका कहना था कि अगर खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत सार्वभौमिक सब्सिडाइज़्ड खाद्य वितरण का लक्ष्य नहीं रखा जाता है, तो इस कानून का कोई फ़ायदा नहीं होगा। लेकिन जैसा कि होना था, उनकी आपत्तियों को ख़ारिज कर दिया गया।
सरकार ने जो मसौदा अधिनियम पेश किया था, उसके मुताबिक आबादी के 63.5 प्रतिशत हिस्से को सब्सिडाइज़्ड खाद्यान्न आपूर्ति के तहत रखा गया था। इसमें से 75 प्रतिशत आबादी ग्रामीण थी, जबकि 60 प्रतिशत आबादी शहरी। इन श्रेणियों को बाद में “प्राथमिकता” और “सामान्य” की उपश्रेणियों में विभाज़ित किया जाना था। इसमें से पहली श्रेणी को प्रति व्यक्ति प्रति माह 7 किलोग्राम खाद्यान्न की आपूर्ति रियायती दरों पर की जाती, जबकि दूसरी श्रेणी को 3 किलोग्राम खाद्यान्न की। ये रियायती दरें इस तरीके से निर्धारित होतीं कि वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दरों से कम से कम आधी होतीं।
सरकार के इस मसौदे पर संसद की स्टैण्डिंग कमेटी के अलावा सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने भी अपने सुझाव दिये। जैसा कि हमेशा होता है, सोनिया गाँधी की कमेटी सबसे ज़्यादा कल्याणकारी सुझाव देती है। सोनिया गाँधी अपने आपको सरकार की ऐसी संरक्षक के रूप में पेश करना पसन्द करती हैं, जो कि जनता के प्रति बेहद उदार है! लेकिन उनकी सलाह बिरले ही मानी जाती है; अन्त में, सरकार कारपोरेटों के हितों के अनुसार ही निर्णय लेती है। ऐसा नहीं है कि सोनिया गाँधी को इससे कोई दुःख पहुँचता है, क्योंकि वह भी जानती हैं कि होना यही है। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् तो महज़ एक उदार मुखौटा है जो दिखावे के लिए बनाया गया है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम के सवाल पर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने जो सुझाव दिये वे इस प्रकार हैं: आबादी के 75 प्रतिशत को खाद्य सुरक्षा अधिनियम के घेरे में लाया जाय, ज़िसमें 90 प्रतिशत ग्रामीण आबादी हो, जबकि 50 प्रतिशत शहरी आबादी हो (यह भी एक मज़ाकिया प्रावधान है, क्योंकि कई सर्वेक्षण यह बता रहे हैं कि शहरी ग़रीबों में कुपोषण और भुखमरी कई मायनों में ग्रामीण ग़रीबों से ज़्यादा है, लेकिन वोट के समीकरण राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् को हमेशा गाँव की ओर खड़ा कर देते हैं!); इसके बाद शामिल की गयी आबादी को “प्राथमिकता” और “सामान्य” के श्रेणियों में विभाज़ित किया जाना चाहिए ज़िसमें से 46 प्रतिशत ग्रामीण और 28 प्रतिशत शहरी परिवार “प्राथमिकता” की श्रेणी में, और 39 प्रतिशत ग्रामीण और 12 प्रतिशत शहरी परिवार “सामान्य” के श्रेणी में आयेंगे। पहली श्रेणी के परिवारों को हर माह 35 किग्रा अनाज रियायती दरों पर मिलेगा; दूसरी श्रेणी के परिवारों को 20 किग्रा अनाज रियायती दरों पर मिलेगा। ये रियायती दरें न्यूनतम समर्थन मूल्य की कम-से-कम आधी होनी चाहिए।
इसके बाद प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने सी. रंगराजन के नेतृत्व में एक विशेषज्ञ कमेटी बनायी। इस विशेषज्ञ कमेटी ने तय किया कि आबादी को “वाकई ज़रूरतमन्द” व “अन्य” के हिस्सों में विभाज़ित किया जाय। जो “वाकई ज़रूरतमन्द” परिवार हैं, उन्हें रु. 3/किग्रा की रियायती दर से चावल और रु. 2/किग्रा की रियायती दर से गेहूँ मुहैया कराया जाय। बाकी बची आबादी को अनाज की उपलब्धता के आधार पर एक विशेष कार्यकारी आदेश के ज़रिये (सम्भव) रियायती दरों पर अनाज दिया जाय। “वाकई ज़रूरतमन्द” परिवारों की परिभाषा क्या है? तेन्दुलकर समिति द्वारा प्रस्तावित ग़रीबी रेखा (जो अभी भी मज़ाक का विषय बनी हुई है) से ऊपर 10 प्रतिशत परिवार और उसे रेखा से नीचे के सभी परिवार। इस समिति का प्रस्ताव सबसे दिलचस्प है। अगर यह माना जाता है तो निश्चित तौर पर रही-सही खाद्य सुरक्षा (अगर कोई बची है तो!) भी जनता के लिए समाप्त हो जायेगी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को ख़त्म कर आधार कार्ड के आधार पर नकदी खाद्य कूपन दिये जाने और व्यापारियों और जमाखोरों को लाभ पहुँचाने का पूरा इन्तज़ाम तो कर ही दिया गया है, और अब इस बात की गणना को भी सरकार पर छोड़ दिया गया है कि “वाकई ज़रूरतमन्द” परिवार कौन-से हैं!
हम देख सकते हैं कि सरकार को जनता के लिए खाद्य सुरक्षा से कुछ भी लेना-देना नहीं है। सरकार का मानना है कि अगर समूची जनता को खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत लाया गया तो सरकारी बजट चरमरा जायेगा। सरकार का दूसरा तर्क यह है कि इसके लिए पर्याप्त खाद्यान्न आपूर्ति भी नहीं है। वास्तव में, यह दोनों ही तर्क बेकार हैं। पहली बात तो यह कि कृषि क्षेत्र के अपेक्षाकृत ख़राब प्रदर्शन के लिए सरकार की नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं। सरकार ने खेती का जो अन्धाधुन्ध व्यापारीकरण किया है, उससे खेती में पूँजी निवेश का बड़ा हिस्सा नकदी फसलों की तरफ़ स्थानान्तरित हो गया है।
इसके अलावा, सरकार ने रियल एस्टेट के पूँजीपतियों को खुश करने के लिए और देश के उच्च मध्यवर्ग की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए खेती योग्य ज़मीनों को औने-पौने दामों पर विशेष आर्थिक क्षेत्र, अवसंरचनात्मक परियोजनाओं और पूँजीपतियों के कारखानों के लिए अधिग्रहीत करने की जो नीतियाँ लागू कर रखी हैं, उनका भी खेती पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। और अन्त में खाद्यान्न में ‘फ्रयूचर्स ट्रेड’ जैसी घातक नीतियों को अपना कर सरकार ने खाद्यान्न सुरक्षा को हर प्रकार से ख़त्म करने का रास्ता अपनाया है, वह भी सिर्फ इसलिए कि कृषि और सम्बन्धित क्षेत्र की कारपोरेट कम्पनियों को मुनाफ़ा पहुँचाया जा सके। लेकिन इन सबके बावजूद देश का खाद्यान्न उत्पादन लगभग हर वर्ष ही रिकार्ड तोड़ता है। और उसके बाद भी सरकार आपूर्ति की समस्या का रोना रोती है, तो इसे ढोंग न समझा जाय तो और क्या समझा जाय? अगर सरकार सूखे की समस्या से निपटने के लिए सिंचाई की उपयुक्त व्यवस्था करे और ऐसी परियोजनाओं में निवेश करे तो खाद्यान्न उत्पादन को और भी बढ़ाया जा सकता है। लेकिन ऐसा सरकार क्यों करने लगी? नतीजतन, कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन अन्य क्षेत्रों के मुकाबले अपेक्षाकृत कमज़ोर रहता है। लेकिन निरपेक्ष रूप में देखा जाय तो देश का खाद्यान्न उत्पादन इस समय भी देश की आबादी का पेट भरने के लिए कम नहीं है। वर्तमान समय में तो अगर खाद्यान्न के भण्डारण और संरक्षण के काम को भी ठीक तरीके से अंजाम दिया जाय, और खाद्यान्न के उत्पादन को निरपेक्ष रूप से न भी बढ़ाया जाय तो देश की आबादी की ज़रूरतों को काफ़ी हद तक पूरा किया जा सकता है।
दूसरा तर्क जो सरकार देती है, वह भी एक सफेद झूठ है। सरकार बजट पर पड़ने वाले बोझ की बात करती है, जो कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के चलते पड़ता है और सार्वभौमिक खाद्य सुरक्षा की वजह से और भी बढ़ जायेगा। हम आपको सिर्फ इतना बताते हैं कि सरकार सकल घरेलू उत्पाद के कितने हिस्से को केन्द्रीय खाद्यान्न सब्सिडी के रूप में खर्च करती है, और तस्वीर साफ़ हो जायेगी। सन 2000-01 में यह प्रतिशत 0.63 था, 2001-02 में 0.84 प्रतिशत, 2002-03 में 1.07 प्रतिशत, में 1.00 प्रतिशत, 2004-05 में 0.78 प्रतिशत, 2005-06 में 0.68 प्रतिशत, 2006- 07 में 0.61 प्रतिशत, 2007-08 में 0.68 प्रतिशत, 2008-09 में 0.83 प्रतिशत, 2009-10 में 0.95 प्रतिशत, 2010-11 में 0.85 प्रतिशत और 2011-12 में 0.73 प्रतिशत। विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार भारत में विश्व की कुल भुखमरी से पीड़ित आबादी का एक-चौथाई हिस्सा रहता है, जबकि 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की 43 प्रतिशत आबादी कुपोषित है।
ऐसे में, सकल घरेलू उत्पाद का कम-से-कम डेढ़ प्रतिशत हिस्सा केन्द्रीय खाद्य सब्सिडी के तौर पर नहीं दिया जायेगा तो यह स्थिति और बिगड़ेगी, बेहतर किसी सूरत में नहीं होगी। लेकिन सरकार इसके बावजूद कुछ निरपेक्ष आँकड़ों को पेश करती है। मिसाल के तौर पर, सी. रंगराजन विशेषज्ञ कमेटी ने कहा कि 2004-05 में खाद्यान्न सब्सिडी रु. 23,280 करोड़ थी, जो कि 2001-12 में बढ़कर रु. 60,573 करोड़ हो गयी। बस रंगराजन महोदय यह बताना भूल गये कि अगर मुद्रास्फीति से इस रकम को समायोज़ित किया जाय तो यह मात्र रु. 30,239 करोड़ बैठती है। और अगर हम इसे बढ़ती माँग के साथ समायोज़ित करें तो हम पायेंगे कि खाद्यान्न सब्सिडी में बढ़ोत्तरी शून्य है! अब अगर में बजट घाटे के मूल कारण की बात करें तो इससे साफ़ हो जाता है कि सरकार को बजट घाटा जनता के भोजन, शिक्षा, चिकित्सा और आवास पर होने वाले खर्चों के कारण नहीं होता है, क्योंकि इन सब पर कुल मिलाकर सरकारी बजट को एक छोटा हिस्सा ही ख़र्च किया जाता है। लेकिन सांसदों, विधायकों, विभिन्न पार्टी के नेताओं, पुलिस, सेना और नौकरशाही पर जो विराट खर्च होता है, वह बजट घाटे के तमाम कारणों में से एक है। यह खर्च महज़ इसलिए किया जाता है कि इस देश की आबादी को दबा और कुचलकर रखा जा सके और शासक वर्गों के हितों को सुरक्षित किया जा सके।
बजट घाटे का दूसरा कारण भी महत्वपूर्ण है। यह है लगातार धनी वर्गों पर से कर का बोझ हटाना और उसे अधिक से अधिक ग़रीब वर्गों पर डालना। मिसाल के लिए पिछले बजट में ही सरकार ने प्रत्यक्ष करों के तहत आने वाली आबादी को और भी सीमित कर दिया, जो कि कुल आबादी का बेहद छोटा सा हिस्सा है, जबकि अप्रत्यक्ष करों को हर स्लैब पर बढ़ा दिया ज़िसे कि इस देश के बहुसंख्यक ग़रीब आबादी देती है। इसके नतीजे के तौर पर महँगाई और भयंकर तरीके से बढ़ी है। स्पष्ट है कि सरकार अपनी ‘ट्रिकल डाउन थियरी’ पर काम करते हुए करों का सारा बोझ ग़रीब और निम्न मध्यवर्गीय आबादी पर डाल रही है, और धनपशुओं को इसके बोझ से मुक्त कर रही है, ताकि कारों, टीवी, मोटरसाईकिल, आवास, आदि की ख़रीद को बढ़ावा दिया जा सके और बड़े.बड़े पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाया जा सके। इसके साथ ही सरकार कारपोरेट घरानों को जो छूट दे रही है उसके चलते उसे ज़बर्दस्त घाटा हो रहा है। 2005-2006 में कारपोरेट घरानों को दी गयी कर छूटों व अन्य छूटों के कारण हुआ नुकसान सकल घरेलू उत्पाद का 1.02 प्रतिशत था, 2006-07 में यह 1.14 प्रतिशत था, 2007-08 में यह 1.36 प्रतिशत था, 2008-09 में यह 1.27 प्रतिशत था, 2009-10 में 1.19 प्रतिशत, 2010-11 में 0.81 प्रतिशत, और 2011-12 में 0.62 प्रतिशत था।
अगर यह घाटा ख़त्म करके बचने वाली राशि को खाद्यान्न सुरक्षा पर ख़र्च किया जाय तो देश के हरेक नागरिक को रियायती दरों पर खाद्यान्न मुहैया कराया जा सकता है, भूख की समस्या से देश की आबादी को काफ़ी हद तक राहत पहुँचायी जा सकती है। लेकिन सरकार ऐसा नहीं करेगी। क्योंकि वास्तव में अगर देश में भूख की समस्या को समाप्त कर दिया गया, तो इससे पूँजीपतियों को कई तरीके से नुकसान पहुँचेगा। पहला तो यह कि कृषि व सम्बन्धित क्षेत्र के बड़े पूँजीपति तबाह हो जायेंगे, या कम-से.-कम उनका मुनाफ़ा कम हो जायेगा। दूसरी बात यह कि अगर देश की बड़ी आबादी को भूख की समस्या से निजात दिला दी गयी तो कुल मिलाकर देश की ग़रीब मेहनतकश आबादी की मजबूरी कम होगी, पूँजीपतियों से उनकी मोलभाव करने की क्षमता में बढ़ोत्तरी होगी। इससे भी पूँजीपति वर्ग की लागत में बढ़ोत्तरी होगी और उनके मुनाफ़े में गिरावट आयेगी। फिर आख़िर पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली यह सरकार खाद्यान्न सुरक्षा अधिनियम को लेकर इतनी “मगजपच्ची” और हल्ला कर ही क्यों रही है? क्योंकि, चाहे कैसा भी कानून बने, उससे जनता को कोई ख़ास फायदा नहीं पहुँचने वाला है। ऐसा इसलिए भी है कि कानून बनना तो सिर्फ औपचारिक कदम है, असली सवाल तो यह है कि वह लागू किस प्रकार से होगा। हम ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना का हश्र देख चुके हैं। वही नौकरशाही जो तमाम योजनाओं को लागू करती है, इस योजना को भी लागू करेगी। इसलिए जो भी कानून बने, अन्ततः होगा वही, ‘ढाक के तीन पात’! फिर यह हंगामा क्यों मचा हुआ है?
कारण साफ़ है2014 में आने वाले लोकसभा चुनाव! कांग्रेस 2013 के अन्त तक खाद्यान्न सुरक्षा अधिनियम को लेकर बहस ही करती रहेगी। और चुनावों से ठीक पहले अधिकतम सम्भव लोकरंजक अधिनियम पास करके कानून बनायेगी, और उसका उससे भी ज़्यादा लोकरंजक प्रचार करेगी। जैसा कि उसने मनरेगा योजना के मामले में किया था। योजना से देश की जनता को कुछ खास नहीं मिला। लेकिन कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन को वोट ज़रूर मिल गये। इस योजना को लेकर भी कांग्रेस का यही मकसद है। सही वक्त पर और सही तरीके से यह कानून पास होगा और कांग्रेस वोट की फसल काटेगी! खाद्यान्न सुरक्षा को लेकर सारी नकली बहस और पाखण्ड सिर्फ इसीलिए है। और जो कानून बनेगा वह अगर लागू भी हो जाये, तो ज़्यादा सम्भावना यही होगी कि उससे जनता को कुछ भी हासिल नहीं होगा। जो हासिल होगा, वह व्यापारियों और पूँजीपतियों को ही हासिल होगा। इसलिए यह वास्तव में खाद्यान्न सुरक्षा के नाम पर रही-सही खाद्यान्न सुरक्षा को भी ख़त्म करने की साज़िश है।
दिशा सन्धान – अंक 1 (अप्रैल-जून 2013) में प्रकाशित