बर्तोल्‍त ब्रेख्‍त की अट्ठाइस कविताएं

बर्तोल्‍त ब्रेख्‍त की अट्ठाइस कविताएं
मूल जर्मन से अनुवाद – मोहन थपलियाल 

1. भूखों की रोटी हड़प ली गई है

भूखों की रोटी हड़प ली गई है
भूल चुका है आदमी मांस की शिनाख्त
व्यर्थ ही भुला दिया गया है जनता का पसीना।
जय पत्रों के कुंज हो चुके हैं साफ।
गोला बारूद के कारखानों की चिमनियों से
उठता है धुआं।

(1933-47)

 

2. लड़ाई का कारोबार

एक घाटी पाट दी गयी है
और बना दी गयी है एक खाई।

(1933-47)

 

3. आने वाले महान समय की रंगीन कहावत

जंगल पनपेंगे फिर भी
किसान पैदा करेंगे फिर भी
मौजूद रहेंगे शहर फिर भी
आदमी लेंगे सांस फिर भी।

(1933-47)

4. युद्ध जो आ रहा है

युद्ध जो आ रहा है
पहला युद्ध नहीं है।
इसे पहले भी युद्ध हुए थे।
पिछला युद्ध जब खत्म हुआ
तब कुछ विजेता बने और कुछ विजित-
विजितों के बीच आम आदमी भूखों मरा
विजेताओं के बीच भी मरा वह भूखा ही।

(1936-38)

5. दीवार पर खड़िया से लिखा था:

दीवार पर खड़िया से लिखा था:
वे युद्ध चाहते हैं
जिस आदमी ने यह लिखा था
पहले ही धराशायी हो चुका है।

(1936-38)

6. ऊपर बैठने वालों का कहना है:

ऊपर बैठने वालों का कहना है:
यह महानता का रास्ता है
जो नीचे धंसे हैं, उनका कहना हैः
यह रास्ता कब्र का है।

(1936-38)

7. नेता जब शान्ति की बात करते हैं

नेता जब शान्ति की बात करते हैं
आम आदमी जानता है
कि युद्ध सन्निकट है
नेता जब युद्ध का कोसते हैं
मोर्चे पर जाने का आदेश
हो चुका होता है

(1936-38)

8. जब कूच हो रहा होता है

जब कूच हो रहा होता है
बहुतेरे लोग नहीं जानते
कि दुश्मन उनकी ही खोपड़ी पर
कूच कर रहा है
वह आवाज जो उन्हें हुक्म देती है
उन्हीं के दुश्मन की आवाज होती है
और वह आदमी जो दुश्मन के बारे में बकता है
खुद दुश्मन होता है।

(1936-38)

9. वे जो शिखर पर बैठे हैं, कहते हैं:

वे जो शिखर पर बैठे हैं, कहते हैं:
शान्ति और युद्ध के सार तत्व अलग-अलग हैं
लेकिन उनकी शान्ति और उनका युद्ध
हवा और तूफान की तरह हैं
युद्ध उपजता है उनकी शान्ति से
जैसे मां की कोख से पुत्र
मां की डरावनी शक्ल की याद दिलाता हुआ
उनका युद्ध खत्म कर डालता है
जो कुछ उनकी शान्ति ने रख छोड़ा था।

(1936-38)

10. 1940 (6)

मेरा छोटा लड़का मुझसे पूछता हैः क्या मैं गणित सीखूं?
क्या फायदा है, मैं कहने को होता हूं
कि रोटी के दो कौर एक से अधिक होते हैं
यह तुम एक दिन जान ही लोगे।

मेरा छोटा लड़का मुझसे पूछता हैः
क्या मैं फ्रांसीसी सीखूं?
क्या फायदा है, मैं कहने को होता हूं
यह देश नेस्तनाबूद होने को है।
और यदि तुम अपने पेट को हाथों से मसलते हुए
कराह भरो, बिना तकलीफ के झट समझ लोगे।

मेरा छोटा लड़का मुझसे पूछता हैः क्या मैं इतिहास पढूं?
क्या फायदा है, मैं कहने को होता हूं
अपने सिर को जमीन पर धंसाए रखना सीखो
तब शायद तुम जिन्दा रह सको।

(1936-38)

 

11. अच्छे कारण के लिए खदेड़ा गया

खाते-पीते घर के बच्चों की तरह
मेरा लालन-पालन हुआ
मेरे मां-बाप ने मेरे गले में
एक कालर बांधा और
खूब टहल-खिदमत करते हुए
मुझे पाला-पोसा और बड़ा किया
उन्होंने मुझे ऐसी शिक्षा दी ताकि
मैं दूसरों के ऊपर हुक्म वा रौब
गालिब कर सकूं
लेकिन मैं जब सयाना हुआ
और अपना अड़ोस-पड़ोस देखा तो
अपने खेमे के लोग मुझे कतई नहीं भाये
न मुझे हुक्म देना भाता
न अपनी खिदमत
सो अपने खेमे के लोगों से नाता तोड़कर
मैं तुच्छ श्रेणी के लोगों के बीच जा बैठा।

इस प्रकार
उन्होंने एक विश्वासघाती को पाला-पोसा
अपनी सभी चालें उसे सिखाईं और
उसने वे सारे भेद दुश्मन को जाकर खोल दिए।

हां, मैं उनके भेद खोलकर रख देता हूं
मैं लोगों के बीच जाकर उनकी
ठगी का पर्दाफाश कर देता हूं
मैं पहले ही बता आता हूं
कि आगे क्या होगा, क्याेंकि मैं
उनकी योजनाओं की अन्दरूनी जानकारी रखता हूं।

उनके भ्रष्ट पंडितों की संस्कृत
मैं बदल डालता हूं शब्द-ब-शब्द
आम बोलचाल में और वह
दिखने लगती है साफ-साफ गप्प-गीता।

इंसाफ के तराजुओं पर
वे कैसे डंडी मारते हैं
यह पोल भी मैं खोल देता हूं।
और उनके मुखबिर बता आते हैं उन्हें
कि मैं ऐसे मौकों पर बेदखल लोगों के बीच
बैठता हूं, जब वे बगावत
की योजना बना रहे होते हैं।

उन्होंने मेरे लिए चेतावनी भेजी
और मैंने जो कुछ भी जोड़ा था अपनी मेहनत से
वह छीन लिया
इस पर भी मैं जब बाज न आया
वे मुझे पकड़ने के लिए आए
हालांकि उन्हें मेरे घर पर कुछ भी नहीं मिला
सिवाय उन पर्चों के
जिनमें जनता के खिलाफ
उनकी काली करतूतों का खुलासा था
सो, चटपट उन्होंने मेरे खिलाफ
एक वारंट जारी किया
जिसमें आरोप था कि मैं तुच्छ विचारों का हूं
यानी तुच्छ लोगों के तुच्छ विचार।

मैं जहां कहीं जाता
धनकुबेरों की आंख का कांटा सिद्ध होता,
लेकिन जो खाली हाथ होते
वे मेरे खिलाफ जारी वारंट पढ़कर
मुझे यह कहते हुए
छुपने की जगह देते कि :
‘‘तुम्हें एक अच्छे कारण
के लिए खदेड़ा गया है।’’

(1936-38)

 

12. अगली पीढ़ी के लिए

1-
सचमुच मैं अंधेरे युग में जी रहा हूं
सीधी-सादी बात का मतलब बेवकूफी है
और सपाट माथा दर्शाता है उदासीनता
वह, जो हंस रहा है
सिर्फ इसलिए कि भयानक खबरें
अभी उस तक नहीं पहुंची हैं

कैसा जमाना है
कि पेड़ों के बारे में बातचीत भी लगभग जुर्म है
क्योंकि इसमें बहुत सारे कुकृत्यों के बारे में हमारी चुप्पी भी शामिल है।
वह जो चुपचाप सड़क पार कर रहा है
क्या वह अपने खतरे में पड़े हुए दोस्तों की पहुुंच से बाहर नहीं है?
यह सच है: मैं अभी भी अपनी रोजी कमा रहा हूं
लेकिन विश्वास करो, यह महज संयोग है
इसमें ऐसा कुछ नहीं है कि मेरी पेट-भराई का औचित्य सिद्ध हो सके
यह इत्तफाक है कि मुझे बख्श दिया गया है
(किस्मत खोटी होगी तो मेरा खात्मा हो जायेगा)
वे मुझसे कहते हैं: खा, पी और मौज कर
क्योंकि तेरे पास है
लेकिन मैं कैसे खा पी सकता हूं
जबकि जो मैं खा रहा हूं, वह भूखे से छीना हुआ है
और मेरा पानी का गिलास एक प्यासे मरते आदमी की जरूरत है।
और फिर भी मैं खाता और पीता हूं।

मैं बुद्धिमान भी होना पसन्द करता
पुरानी पोथियां बतलाती हैं कि क्या है बुद्धिमानी:
दुनिया के टंटों से खुद को दूर रखना
और छोटी सी जिन्दगी निडर जीना
अहिंसा का पालन
और बुराई के बदले भलाई
अपनी इच्छाओं की पूर्ति के बजाय
उन्हें भूल जाना
यही बुद्धिमानी है
यही सब मेरे वश का नहीं
सचमुच मैं अंधेरे युग में जी रहा हूं।

2-
मैं अराजकता के दौर में आया शहरों में
जब भूख का साम्राज्य था
बगावतों के दौरान मैं लोगों से मिला
और मैंने भी उनमें शिरकत की
इस तरह गुजरा मेरा वक्त
जो मुझे दुनिया में मिला था।

कत्लेआम के बीच मैंने खाना खाया
नींद ली हत्यारों के बीच
प्रेम में रहा निपट लापरवाह
और कुदरत को देखा हड़बड़ी में
इस तरह गुजरा मेरा वक्त
जो मुझे दुनिया में मिला था।

मेरे जमाने की सड़कें दलदल तक जाती थीं
भाषा ने मुझे कातिलों के हवाले कर दिया
मैं ज्यादा कर ही क्या सकता था
फिर भी शासक और भी चैन से जमे रहते मेरे बगैर
यही थी मेरी उम्मीद
इस तरह गुजरा मेरा वक्त
जो दुनिया से मिला था।

ताकत बहुत थोड़ी थी लक्ष्य था बहुत दूर,
वह दीखता था
साफ, गो कि मेरे लिए पहुंचना था कठिन
इस तरह गुजरा मेरा वक्त
जो मुझे दुनिया में मिला था।

3-
तुम जो कि इस बाढ़ से उबरोगे
जिसमें कि हम डूब गये
जब हमारी कमजोरियों की बात करो
तो उस अंधेरे युग के बारे में भी सोचना
जिससे तुम बचे रहे
जूतों से ज्यादा देश बदलते हुए
वर्ग-संघर्षों के बीच से हम गुजरते रहे चिन्तित
जब सिर्फ अन्याय था और कोई प्रतिरोध नहीं था।

हम यह भी जानते हैं कि
कमीनगी के प्रति घृणा भी
थोबड़ा बिगाड़ देती है
अन्याय के खिलाफ गुस्सा भी
आवाज को सख्त कर देता है
आह हम
जो भाईचारे की जमीन तैयार करना चाहते थे
खुद नहीं निभा सके भाईचारा
लेकिन तुम जब ऐसे हालात आएं
कि आदमी, आदमी का मददगार हो
हमारे बारे में सोचना
तो रियायत के साथ!

(1936-38)

13. हालीवुड

रोजाना रोटी कमाने की खातिर
मैं बाजार जाता हूं, जहां झूठ खरीदे जाते हैं
उम्मीद के साथ
मैं विक्रेताओं के बीच अपनी जगह बना लेता हूं।

(1941-47)

 

14. शरणार्थी वाल्टर बेंजामिन की आत्महत्या पर

कत्ल का अहसास होने पर
मुझे बताया गया कि तुमने
खुद के ही खिलाफ उठा दिये अपने हाथ
आठ वर्षों तक निर्वासन में रहने के बाद
दुश्मन का उत्थान देखते हुए
आखीर में एक अ-पार सीमा पर रोकते हुए
वे कहते हैं, तुम पार कर गये, एक पारणीय सीमा।

साम्राज्यों का पतन होता है
गैंग लीडरान चल रहे हैं अकड़ कर
राजनेताओं की तरह
फौजी वर्दियों के अलावा अब कहीं नहीं दिखेंगे आदमी

अतः भविष्य अब अंधेरे में है और
न्याय की ताकतें कमजोर हैं
यह सब कुछ साफ था तुम्हारे सामने
जब तुमने अपने कष्टयोग्य शरीर को नष्ट किया।

(1941-47)

15. गौरव

अमरीकी सिपाही ने जब मुझसे कहा
कि खाते-पीते मध्यवर्ग की जर्मन लड़कियां
तंबाकू के बदले और निम्न मध्य वर्ग की
चाकलेट के बदले में
खरीदी जा सकती हैं।
लेकिन भूख से तड़पते रूसी मजदूर
कभी नहीं खरीदे जा सकते
मुझे गौरव महसूस हुआ।

(1941-47)

16. हर चीज बदलती है

हर चीज बदलती है।
अपनी हर आखिरी सांस के साथ
तुम एक ताजा शुरुआत कर सकते हो।
लेकिन जो हो चुका, सो हो चुका।
जो पानी एक बार तुम शराब में
उंडेल चुके हो, उसे उलीच कर
बाहर नहीं कर सकते।

जो हो चुका, सो हो चुका है।
वह पानी जो एक बार तुम शराब में उंडेल चुके हो
उसे उलीच कर बाहर नहीं कर सकते
लेकिन
हर चीज बदलती है
अपनी हर आखिरी सांस के साथ
तुम एक ताजा शुरुआत कर सकते हो।

(1941-47)

 

17. एम. (मायकोवस्की) के लिए समाधिलेख

शार्क मछलियों को मैंने चकमा दिया
शेरों को मैंने छकाया
मुझे जिन्होंने हड़प लिया
वे खटमल थे।

(1941-47)

 

18. जब हमारे शहर बरबाद हुए

जब हमारे शहर बरबाद हुए
बूचड़ों की लड़ाई से नेस्तनाबूद
हमने उन्हें फिर से बनाना शुरू किया
ठंड, भूख और कमजोरी में।

मलबे लदे ठेलों को
खुद ही खींचा हमने, धूसर अतीत की तरह
नंगे हाथों खोदीं ईंटें हमने
ताकि हमारे बच्चे दूसरों के हाथों न बिकें
अपने बच्चों के लिए हमने बनाये तब
स्कूलों में कमरे और साफ किया स्कूलों को
और मांजा, पुराना कीचड़ भरा शताब्दियों का ज्ञान
ताकि वह बच्चों के लिए सुखद हो।

(1947-53)

19. समाधान

सत्रह जून के विप्लव के बाद
लेखक संघ के मंत्री ने
स्तालिनाली शहर में पर्चें बांटे
कि जनता सरकार का विश्वास खो चुकी है

और तभी दुबारा पा सकती है यदि दोगुनी मेहनत करे
ऐसे मौके पर क्या यह आसान नहीं होगा
सरकार के हित में
कि वह जनता को भंग कर कोई दूसरी चुन ले।

(1953)

20. महान युग खत्म हुआ

मैं खूब जानता था कि शहर बनाये जा रहे हैं
मैं नहीं गया उन्हें देखने
इसका सांख्यिकी वालों से ताल्लुक है मैंने सोचा
न कि इतिहास से
क्या होगा शहरों के बनाने से,
यदि उन्हें बगैर लोगों की बुद्धिमानी के बनाया?

(1953)

21. सच हमें जोड़ता है

दोस्तो मैं चाहता हूं तुम सच को जानो और उसे बोलो!
मैदान छोड़ते थके मांदे सम्राटों की तरह नहीं
कि ‘आटा कल पहुंच जायेगा!’
बल्कि लेनिन की तरह
कि कल रात तक सब चौपट्ट हो जायेगा
यदि हम कुछ करें नहीं—
ठीक जैसे कि यह छोटा गीत –
‘‘भाइयो यह किस के बारे में है
मैं तुमसे साफ-साफ कहूंगा
कि जिन मुश्किलात में हम आज फंसे हैं
उनसे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है’’
दोस्तो इसे दृढ़ता से स्वीकारो
और स्थिति का सामना करो, जब तक कि…।

(1953)

22. लोहा

कल रात स्वप्न में
मैंने एक भयंकर तूफान देखा
एक पाड़ भी उसकी चपेट में आया
सारी सलाखें उखड़ गयीं
जो सख्त लोहे की थीं
लेकिन जो कुछ लकड़ी का था
वह झुका और कायम रहा।

(1953)

 

23. एक रूसी किताब पढ़ते हुए

वोल्गा को पालतू बनाना
इतना आसान काम नहीं होगा, मैं पढ़ता हूं

यह अपनी बेटियों-ओका, कामा उंशा और यातुल्गा
को मदद के लिए बुला देगी
अपनी पोतियों चुसेवाया और यात्का को भी
वह अपनी सारी ताकत बुला लेगी
सात हजार सहायक नदियों के जल-प्रवाह के साथ
प्रचंड आक्रोश में वह ध्वस्त कर देगी स्तालिनग्राद के बांध को
आविष्कारों के फरिश्ते और ग्रीक आडिसस की
धूर्त चालबाजी की तरह
वह हर छिद्र का इस्तेमाल करेगी
दायें और बायें दोनों बाजुओं को पाटते हुए
और जमीन के नीचे भी सब कुछ रौंदते हुए
लेकिन मैं पढ़ता हूं
कि रूसी लोग जो उसे प्यार करते हैं
उसके गीत गाते हैं
हाल ही में उसे जान सके हैं
और 1958 के आने तक
उसे पालतू बना देंगे
और फिर कैस्पियन मैदानों के काली मिट्टीवाले खेत
और बंजर जो कि उसके सौतेले बच्चे रहे हैं
उन्हें रोटी का इनाम देंगे।

(1953)

 

24. कला की इष्टदेवियां

फौलादी कवि जब इन्हें पीटता है
देवियां और ऊंचे स्वरों में गाती हैं
सूजी आंखों से
वे उसका आदर करती हैं
पूंछ मटकाती हुई कुतियों की तरह
उनके नितंब फड़कते हैं पीड़ा से
और जांघें वासना से।

(1953)

 

25. सुख

सुबह खिड़की से बाहर का नजारा
फिर से मिली हुई पुरानी किताब
उल्लसित चेहरे
बर्फ, मौसमों की आवा-जाही
अखबार
कुत्ता
डायलेक्टिक्स
नहाना, तैरना
पुराना संगीत
आरामदेह जूते
जज़्ब करना
नया संगीत
लेखन, बागवानी
मुसाफिरी
गाना
मिलजुल कर रहना।

(1953-56)

 

26. जनता की रोटी

इंसाफ जनता की रोटी है
वह कभी काफी है, कभी नाकाफी
कभी स्वादिष्ट है तो कभी बेस्वाद
जब रोटी दुर्लभ है तब चारों ओर भूख है
जब बेस्वाद है, तब असंतोष।

खराब इंसाफ को फेंक डालो
बगैर प्यार के जो सेंका गया हो
और बिना ज्ञान के गूंदा गया हो!
भूरा, पपड़ाया, महकहीन इंसाफ
जो देर से मिले, बासी इंसाफ है!

यदि रोटी सुस्वादु और भरपेट है
तो बाकी भोजन के बारे में माफ किया जा सकता है
कोई आदमी एक साथ तमाम चीजें नहीं छक सकता।

इंसाफ की रोटी से पोषित
ऐसा काम हासिल किया जा सकता है
जिससे पर्याप्त मिलता है।

जिस तरह रोटी की जरूरत रोज है
इंसाफ की जरूरत भी रोज है
बल्कि दिन में कई-कई बार भी
उसकी जरूरत है।

सुबह से रात तक, काम पर, मौज लेते हुए
काम, जो कि एक तरह का उल्लास है
दुख के दिन और सुख के दिनों में भी
लोगों को चाहिए
रोज-ब-रोज भरपूर, पौष्टिक, इंसाफ की रोटी।

इंसाफ की रोटी जब इतनी महत्वपूर्ण है
तब दोस्तो कौन उसे पकायेगा?
दूसरी रोटी कौन पकाता है?
दूसरी रोटी की तरह
इंसाफ की रोटी भी
जनता के हाथों ही पकनी चाहिए
भरपेट, पौष्टिक, रोज-ब-रोज।

(1953-56)

 

27. जो बोलते हो उसे सुनो भी

अध्यापक, अक्सर मत कहो कि तुम सही हो
छात्रों को उसे महसूस कर लेने दो खुद-ब-खुद
सच को थोपो मत:
यह ठीक नहीं है सच के हक में
बोलते हो जो उसे सुनो भी।

(1953-56)

 

28. और मैं हमेशा सोचता था

और मैं हमेशा सोचता था:
एकदम सीधे-सादे शब्द ही पर्याप्त होने चाहिए
मैं जब कहूं कि चीजों की असलियत क्या है
प्रत्येक का दिल छलनी हो जाना चाहिए
कि धंस जाओगे मिट्टी में एक दिन
यदि खुद नहीं खड़े हुए तुम
सचमुच तुम देखना एक दिन।

(1953-56)

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