विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन : इतिहास, समस्याएं व चुनौतियां

नेपाली क्रान्तिः गतिरोध और विचलन के बाद विपर्यय और विघटन के दौर में

आमतौर पर इतिहास में पहले भी यह देखा गया है कि कोई पार्टी यदि अपने ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव को साहसपूर्ण आत्मालोचना और दोष-निवारण द्वारा दूर नहीं करती है, तो पेण्डुलम फिर दूसरे छोर तक, यानी दक्षिणपन्‍थी भटकाव तक जाता ही है। एनेकपा (माओवादी) के साथ भी ऐसा ही हुआ। प्रचण्ड की लाइन में लोकयुद्ध के पूरे दौर में ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव एक सैन्यवादी लाइन के रूप में मौजूद था, राजनीति के ऊपर बन्‍दूक की प्रधानता थी, जुझारू कार्यकर्ताओं की राजनीतिक शिक्षा पर और उन्हें बोल्शेविक संस्कृति में ढालने पर जोर बहुत कम था। ऐसी पार्टी जब बुर्जुआ जनवाद के दाँवपेंच में उतरी तो फिर पूरी पार्टी उसी भँवर में उलझकर रह गयी। read more

आधुनिक यूनानी त्रासदी के त्रासद नायक के विरोधाभास

क्रान्तिकारी स्थिति हमेशा क्रान्तिकारी नेतृत्व और संगठन के खड़े होने का इन्तज़ार नहीं करेगी। हर पूँजीवादी संकट हमेशा की तरह यूनान में भी प्रतिक्रियावादी और क्रान्तिकारी, दोनों ही सम्भावनाओं को जन्म दे रहा है। अगर क्रान्तिकारी ताक़तें अपनी सम्भावना को हक़ीकत में तब्दील करने में नाकाम रहीं, तो यह काम प्रतिक्रियावादी ताक़तें करेंगी और यूनान की जनता को फ़ासीवाद की सज़ा भुगतनी पड़ेगी। मार्क्सवाद-लेनिनवाद की राज्यसत्ता और क्रान्ति के सम्बन्ध में स्थापित और सिद्ध शिक्षा पर अमल न करने की सज़ा इतिहास में पहले भी यूरोपीय जनता भोग चुकी है, और एक बार फिर इस बात की सम्भावना पैदा हो रही है। सिरिज़ा की असफलता यूनान के इतिहास में वही भूमिका निभायेगी, जो कि जर्मन सामाज़िक जनवादियों की असफलता ने 1920 और 1930 के दशक में जर्मनी में निभायी थी। इसलिए यूनान में मौजूद मार्क्सवादी लेनिनवादी ताक़तों को संगठित होना होगा और अपने आपको विकल्प के तौर पर जनता के सामने पेश करना होगा। read more

स्लावोय ज़िज़ेक की पुस्तक ‘दि इयर ऑफ ड्रीमिंग डेंजरसली’ की आलोचना

ज़िज़ेक का पूरा विश्लेषण एक सट्टेबाज़ मनोवैज्ञानिक-राजनीतिक खेल बन जाता है, जिसका आखि़री मकसद कुछ भी नहीं सिर्फ बौद्धिक विलास है। उनका लेखन आम तौर पर आज के मनोरंजन उद्योग के समान है, जो वास्तव में अनुत्पादक है। ज़िज़ेक के लेखन में आपको लगातार यौनिक और स्कैटोग्राफिकल वक्रोक्तियाँ मिलती हैं। गम्भीर दार्शनिक और राजनीतिक विमर्श की गरिमा को और गम्भीरता को भी ज़िज़ेक देर तक बर्दाश्त नहीं कर पाते और थोड़ी ही देर में ऐसी वक्रोक्तियों के प्रयोग के गड्ढे में गिर पड़ते हैं। यह पाठक को एक ‘कॉमिक रिलीफ’ और एक प्रकार का टिटिलेशन देता है, और इसलिए ऊबने नहीं देता। लेकिन इस क्षणिक सुख के अलावा इसमें समृद्ध करने वाली कोई चीज़ बिरले ही मिलती है। जब कोई उपयोगी बात या अन्तर्दृष्टि मिलती भी है, तो उसमें ज़िज़ेक का कुछ भी मौलिक नहीं होता। यानी, एक तरीके से कहा जा सकता है कि ज़िज़ेक के लेखन में जो कुछ भी काम का है, वह आम तौर पर उनका मौलिक नहीं है, और बाकी जो बचता है वह अक्सर सट्टेबाज़ बहेतू दर्शन का कचरा होता है। read more

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पहली किस्त)

सोवियत समाजवादी प्रयोगों की नये सिरे से व्याख्या क्यों? बहुत से समकालीन विचारक, जैसे कि नववामपन्थी व उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तक, सोवियत समाजवाद को इतिहास को हमेशा के लिए बन्द हो चुका अध्याय मानते हैं; कुछ अन्य सोवियत समाजवाद को एक दुर्गति/विपदा में समाप्त हुए प्रयोग के रूप में ख़ारिज कर देते हैं और 21वीं सदी में नये किस्म के समाजवाद/कम्युनिज़्म की बात कर रहे हैं। उनका मानना है कि सोवियत संघ के समाजवाद का ज़िक्र भर करने से नयी सदी की कम्युनिस्ट परियोजनाएँ दूषित हो जायेंगी! ऐसे सट्टेबाज़, नववामपन्थी और उत्तर-मार्क्सवादी विचारकों व दार्शनिकों को छोड़ भी दिया जाय, तो मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर ही ऐसी प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं, जो सोवियत समाजवाद के आलोचनात्मक विवेचन की ज़रूरत को नहीं मानती हैं, या फिर इसे एक हल हो चुका प्रश्न मानती हैं। जो सोवियत समाजवाद के प्रयोगों के विश्लेषण को एक हल हो चुका प्रश्न मानते हैं, उनमें दो किस्म के लोग हैं। read more

सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में चुने हुए उद्धरण / लेनिन

जो लोग केवल वर्ग संघर्ष को मानते हैं, वे अभी मार्क्सवादी नहीं है, वे सम्भवत: अभी बुर्जुआ चिन्तन और बुर्जुआ राजनीतिक के दायरे में ही चक्कर काट रहे हैं। मार्क्सवाद को वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त तक ही सीमित करने के मानी हैं मार्क्सवाद की काट–छाँट करना, उसको तोड़ना–मरोड़ना, उसे एक ऐसी चीज़ बना देना, जो बुर्जुआ वर्ग को मान्य हो। मार्क्सवादी केवल वही है, जो वर्ग संघर्ष की मान्यता को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की मान्यता तक ले जाता है। मार्क्सवादी और एक साधारण छोटे (और बड़े) बुर्जुआ के बीच सबसे गम्भीर अन्तर यही है। यही वह कसौटी है जिस पर मार्क्सवाद की वास्तविक समझ और मान्यता की परीक्षा की जानी चाहिए।

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स्तालिन – बीसवीं शताब्दी के महानतम व्यक्तित्व / लूडो मार्टेन्स

‘‘स्तालिन बीसवीं शताब्दी के महानतम व्यक्तित्व थे, एक महानतम राजनीतिक प्रतिभा’’ ऐसा कहा था भूतपूर्व सोवियत विरोधी अलेक्सांद्र जिनोविएव ने। उसके शब्दों में, ‘‘मैं सत्रह वर्ष की आयु में ही पक्का स्तालिन विरोधी बन चुका था – स्तालिन की हत्या का विचार मेरी सोच और भावनाओं में घर कर चुका था…हमने हमले की तकनीकी संभावनाओं का अध्‍ययन किया और यहां तक कि उसका अभ्यास भी किया। यदि उन्होंने 1939 में ही मुझे मृत्युदण्ड दे दिया होता तो उनका निर्णय न्यायसंगत होता। जब स्तालिन जीवित थे तो मैं चीजों को भिन्न नजरिए से देखता था, परन्तु अब, जबकि मैं इस सदी को पीछे मुड़कर देखता हूं, मैं यह कह सकता हूं कि स्तालिन इस सदी के महानतम व्यक्तित्व थे, महानतम राजनीतिक प्रतिभा।’’

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Stalin- Greatest Individual of the Twentieth Century

“Stalin was the greatest individual of the Twentieth century, the greatest political genius” So spoke the ex-Soviet dissident, Alexander Zinoviev in 1993: “I was already a confirmed anti-Stalinist at the age of seventeen… The idea of killing Stalin filled my thoughts and feelings… We studied the ‘technical’ possibilities of an attack… We even practised. If they had condemned me to death in 1939, their decision would have been just…When Stalin was alive, I saw things differently, but as I look back over this century, I can state that Stalin was the greatest individual of this century, the greatest political genius.”

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आज के समय में कम्युनिस्ट घोषणापत्र: आज भी सही, आज भी खतरनाक, आज भी नाउम्मीदों की उम्मीद

कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने इतिहास का एक विराट दृश्यपटल मेरे सामने उपस्थित किया और इसमें न केवल अतीत का विश्लेषण था वरन् यह उस भविष्य के बारे में भी बात करता था, समाज जिस दिशा में अग्रसर है। घोषणापत्र का यह दो टूक नजरिया बेहद प्रभावशाली था। यह वाक्यांश मेरी स्मृतियों में बैठा हुआ है – ‘‘परिवार और शिक्षा के बारे में बुर्जुआ वर्ग का गला फाड़कर चिल्लाना।’’ मैं उस समय 19 वर्ष का था और मुझे यह बहुत भाया। और मार्क्स उस समय सिर्फ 29 वर्ष के थे, जब उन्होंने इसे लिखा। read more

बच्चों की सामूहिक देखभाल ने औरतों को किस तरह आजाद किया

‘बच्चों की देखभाल कौन करे’ यह प्रश्न स्त्रियों और पुरुषों के बीच एक बड़ा मुद्दा बना रहता है। कुछ स्त्रियां चाहती हैं कि उनके पति घर के कामों और बच्चों की देखभाल में और अधिक से अधिक जिम्मेदारी उठायें। इस प्रकार एक अन्तहीन संघर्ष चलता रहता है। दुनिया भर की औरतें इस स्थिति से निपटने की राह ढूंढ़ रही हैं। गरीब स्त्रियां महसूस करती हैं कि न्यूनतम मजदूरी पर उन्हें कोई काम मिलता भी है तो बच्चों की देखभाल इस नौकरी की इजाजत उन्हें नहीं देती। और बहुत सी नौजवान औरतों को तो इसके लिए अपनी मां पर निर्भर रहना पड़ता है। मध्य वर्ग की औरतें अपने बच्चों की देखभाल के लिए ऐसी आयाओं की नियुक्ति करती हैं जो ज्यादातर आप्रवासी होती हैं और बहुत कम वेतन पर बिना किसी लाभ के काम करने को विवश होती हैं। और हम ज्यादा से ज्यादा यही सुनते आ रहे हैं कि कोई स्त्री, चाहे कितना ही जरूरी काम उसके पास क्यों न हो, ‘सबसे पहले वह एक मां होती है। यह परिस्थितियां वाकई पागल बना देने वाली होती हैं। read more