अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव – डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के निहितार्थ

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव – डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के निहितार्थ

  • आनन्द सिंह

अमेरिका में नवम्बर 2016 में हुए राष्ट्रपति चुनावों में नस्लवादी, स्त्रीद्वेषी, मुस्लिम-विरोधी व धुर-दक्षिणपन्थी ख़रबपति डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के बाद पश्चिम जगत का उदारवादी तबक़ा स्तब्ध है। ग़ौरतलब है कि इन चुनावों में अमेरिका के पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्से ने हिलेरी क्लिंटन पर अपना दाँव लगाया था क्योंकि उनका मानना था कि क्लिंटन पूँजी के हितों की हिफ़ाज़त करने में ज़्यादा सक्षम उम्मीदवार थी। ट्रम्प एक पूँजीपति होते हुए भी वाॅल स्ट्रीट के वित्तीय महाप्रभुओं का चहेता नहीं बन पाया था क्योंकि उनकी नज़रों में वह बहुत अस्थिर और अननुमेय था और उसके बड़बोलेपन से अमेरिकी शासक वर्ग के चेहरे से उदारवादी मुखौटे के उतरने का ख़तरा था जिसको उन्होंने साम्राज्यवाद की चौधराहट के पूरे कालखण्ड में लगाया हुआ था। अमेरिकी मीडिया का बड़ा हिस्सा भी अमेरिका के इतिहास में पहली बार एक महिला राष्ट्रपति बनने की भविष्यवाणियाँ कर रहा था। ऐसे में ट्रम्प की जीत ने अमेरिकी राजनीतिक समीकरणों में बहुत बड़ा उलटफेर कर दिया। ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के फ़ैसले (ब्रेक्जि़ट) के बाद अब ट्रम्प जैसे व्यक्ति के साम्राज्यवाद के नये सिरमौर के रूप में पदासीन होने के निहितार्थ अमेरिका ही नहीं समूचे विश्व के लिए गहरे हैं और इसीलिए दुनिया भर में तमाम राजनीतिक विश्लेषक इसकी तरह-तरह से व्याख्याएँ कर रहे हैं।

उदारवादी बुर्जुआ विश्लेषक ट्रम्प की इस अप्रत्याशित जीत के लिए अमेरिका में बढ़ते नस्लभेद, मुस्लिम-विरोध और स्त्री-विरोधी मानसिकता को मुख्य रूप से जि़म्मेदार मानते हैं। ग़ौरतलब है कि ये वही विश्लेषक हैं जो 8 साल पहले बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी लोकतन्त्र की शान में कसीदे पढ़ रहे थे और यह दावा कर रहे थे कि अमेरिका में नस्लभेद इतिहास की चीज़ बन चुकी है क्योंकि उस चुनाव में बड़ी संख्या में गोरे अमेरिकियों ने ओबामा को वोट दिया था। दरअसल ऐेसे विश्लेषकों के विश्लेषण में वर्ग-विश्लेषण सिरे से गायब होता है जिसकी वजह से वे कभी इस छोर तो कभी उस छोर पर दोलन करते रहते हैं। ज़ाहिरा तौर पर वर्ग-विश्लेषण के मार्क्सवादी उपकरण के द्वारा ही हम इस अन्तर्विरोधी परिघटना को समझ सकते हैं कि जिस समाज में अभी कुछ वर्षों पहले ही एक अश्वेत व्यक्ति राष्ट्रपति चुना गया था उसी समाज में एक घोर नस्लवादी व्यक्ति कैसे चुनाव जीत सकता है।

ट्रम्प की जीत की वजहें

ट्रम्प की जीत के कारणों को गहराई से समझने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा पीछे जाना होगा क्योंकि अमेरिका की जिन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने ट्रम्प रूपी दानव को जन्म दिया है उनके समकालीन इतिहास की शुरुआत 2007 की मन्दी में देखी जा सकती है। ग़ौरतलब है कि 2007 में अमेरिका में आवासीय बुलबुले के फटने के साथ शुरू हुई विश्वव्यापी महामन्दी अभी तक जारी है। वैसे तो पूँजीवाद अपने जन्म से ही एक चक्रीय मन्दी का शिकार होता रहा है, लेकिन मौजूदा महामन्दी 1930 के दशक की महामन्दी के बाद से सबसे बड़ी मन्दी है और उससे उबरने की प्रक्रिया भी उस 1930 के दशक की उस महामन्दी के बाद से सबसे सुस्त रही है। मन्दी की मार से जहाँ एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के मेहनतकश लोग कंगाली और भुखमरी की समस्या से जूझ रहे हैं वहीं अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों का मज़दूर और मध्यवर्गीय तबक़ा भी इसकी चपेट में आ गया है। वैसे विकसित देशों की मेहनतकश जनता की समृद्धि द्वितीय व‍िश्वयुद्ध के बाद के कुछ वर्षों तक ही रही थी जिसे अमेरिकी पूँजीवाद का स्वर्ण युग कहा जाता है। 1960 के दशक से ही अमेरिका के मज़दूर वर्ग की आमदनी में कमी की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। 1980 के दशक में नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण के प्रादुर्भाव ने अमेरिका के मेहनतकश वर्ग को और झटका दिया जब मुनाफ़़े की गिरती दर को रोकने के लिए अमेरिकी पूँजीपति सस्ते श्रम के लालच में अपने कारख़ाने अमेरिका से हटाकर तीसरी दुनिया के देशों की ओर रुख़ करने लगे थे। इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप अमेरिका का डेट्रॉयट जैसा शहर, जो कभी ऑटोमोबाइल मैन्युफ़ैक्चरिंग का गढ़ माना जाता था, उजाड़ हो गया।

हालाँकि मौजूदा विश्वव्यापी महामन्दी के दौरान अमेरिकी अर्थव्यवस्था अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में थोड़ा बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन निरपेक्ष रूप में देखने पर यह प्रदर्शन बेहद फिसड्डी रहा है। इस मन्दी के बाद से अमेरिका में प्रति व्यक्ति वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर मात्र 1.4 प्रतिशत रही जो इस मन्दी के पहले के दौर की तुलना में बेहद कम है। उससे भी भयावह बात यह है कि भविष्य में भी इससे उबरने के आसार नहीं नज़र आ रहे हैं। उल्टे कुछ अर्थशास्त्री तो भविष्य में एक दूसरी मन्दी की बातें भी कर रहे हैं जो मौजूदा मन्दी से भी ख़तरनाक साबित हो सकती है।

जब मौजूदा मन्दी की शुरुआत हुई थी तब अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी का जाॅर्ज बुश राष्ट्रपति था। 2008 के राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिकी जनता ने रिपब्लिकन पार्टी को ख़ारिज़ कर डेमोक्रैटिक पार्टी के बराक ओबामा को इस उम्मीद में राष्ट्रपति चुना था कि उसकी नीतियाँ मन्दी से उबारेंगी। उस चुनाव में ओबामा बदलाव और आशा के खोखले नारे देकर अमेरिकी जनता के अच्छे-ख़ासे हिस्से को बरगलाने में क़ामयाब हो गया था क्योंकि अमेरिका के लोग मन्दी के असर से ख़ौफ़ज़दा थे। बुर्जुआ विश्लेषक जिसे नस्लवाद पर जीत की संज्ञा दे रहे थे वह दरअसल अमेरिकी जनता की मन्दी से निजात पाने की तड़प की अभिव्यक्ति थी। लेकिन ओबामा के दो कार्यकाल पूरा होने पर भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था मन्दी के भँवरजाल से बाहर नहीं निकल पायी है। ओबामा ने जनता की गाढ़ी कमाई से कई ट्रिलियन डॉलर के बेलआउट पैकेज देकर बैंकों और वित्तीय महाप्रभुओं को जीवनदान दिया जिसका फ़ायदा बैंकों और उनके शीर्ष अधिकारियों को ही हुआ, जबकि आम लोगों की जि़न्दगी की परेशानियाँ कम होने की बजाय बढ़ती ही गयीं।

ओबामा की नीतियों का फ़ायदा किस तरह से समाज की मुट्ठी भर रईस आबादी को हुआ, यह इस आँकड़े से स्पष्ट है कि अमेरिका में 2009-2012 के दौरान 95 प्रतिशत आय में बढ़ोतरी शीर्ष की 1 फ़ीसदी आबादी के खाते में गयी। 2015 में अमेरिका के शीर्ष 500 सीईओ की आय वहाँ के मज़दूरों की औसत आय का 335 गुना थी। यही नहीं अमेरिका में रोज़गार के नये अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं और पिछले आठ वर्षों के दौरान मज़दूर वर्ग के साथ ही साथ टटपुँजिया मध्य वर्ग की भी आमदनी और क्रयशक्ति में तेज़ी से गिरावट देखने में आयी है। आर्थिक संकट की परिस्थिति में अमेरिकी राज्य के लिए  जनता को सामाजिक सुरक्षा और बुनियादी सुविधाओं को जारी रखना मुमकिन नहीं रह गया और ‘ऑस्टेरिटी’ (किफ़ायतशाही) इन सुविधाओं में भी ज़बरदस्त कटौती की जानी लगी। इसका नतीजा अमेरिकी समाज में आर्थिक असमानता की खाई के चौड़ा होने के रूप में सामने आया। इस घोर आर्थिक असमानता की अभिव्यक्ति टटपुँजिया वर्ग के नेतृत्व में चले ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ आन्दोलन में भी हुई थी जिसका निशाना कॉरपोरेट पूँजी थी। 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में हालाँकि ओबामा को जीत हासिल हुई थी, लेकिन उसे 2008 के मुक़ाबले बहुत कम वोट मिले थे जो डेमोक्रैटिक पार्टी की घटती लोकप्रियता का ही संकेत था।

अमेरिका का बुर्जुआ लोकतन्त्र वहाँ के लोगों को राष्ट्रपति चुनने का जो अधिकार देता है उसका इस्तेमाल करके ज़्यादा से ज़्यादा लोग यह कर सकते हैं कि बुर्जुआ वर्ग के एक नुमाइन्दे से त्रस्त आकर बुर्जुआ वर्ग के दूसरे नुमाइन्दे को चुन लें। इस बार के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में अमेरिकी जनता का गुस्सा डेमोक्रैटिक पार्टी ही नहीं बल्कि पूरे बुर्जुआ लोकतन्त्र के ख़िलाफ़ देखने में आया। यह इस बात से समझा जा सकता है कि इस बार के चुनाव में 45 प्रतिशत मतदाताओं ने किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में वोट नहीं डाला। हिलेरी क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रम्प दोनों को महज़ 26-26 प्रतिशत के आसपास ही वोट मिले। हालाँकि ट्रम्प को पिछले चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार मिट रॉमनी के मुक़ाबले ज़्यादा वोट नहीं मिले लेकिन वह अपने चुनाव प्रचार के दौरान कुशलतापूर्वक हिलेरी क्लिंटन को जो शासक कुलीन तबक़े के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करने में और ख़ुद को उस कुलीन तबक़े से बाहर का आदमी साबित करने में सफल रहा। हिलेरी क्लिंटन की तमाम कोशिशों के बावजूद उसकी कॉरपोरेट-परस्ती जनता की निगाहों से नहीं छिप सकी। इसका नतीजा हिलेरी क्लिंटन और डेमोक्रैटिक पार्टी के पक्ष में डाले गये वोटों में ज़बरदस्त कमी के रूप में सामने आया जिसका लाभ ट्रम्प को हुआ। विस्कॉन्सिन, पेन्सिलवेनिया और मिशीगन जैसे राज्य जो कभी डेमोक्रैटिक पार्टी के गढ़ हुआ करते थे उनमें मज़दूर वर्ग का गुस्सा हिलेरी क्लिंटन और डेमोक्रैटिक पार्टी पर जमकर फूटा जिसका लाभ डोनाल्ड ट्रम्प को हुआ। ग़ौरतलब है कि ये वे राज्य हैं जो कभी अमेरिका के मैन्युफ़ैक्चरिंग के केन्द्र हुआ करते थे, लेकिन जो भूमण्डलीकरण के दौर में अब उजड़ चुके हैं। इन राज्यों को ‘रस्ट बेल्ट’ (जंग खाये इलाक़े) कहा जाता है क्योंकि भूमण्डलीकरण के दौर से पहले के ये समृद्ध राज्य अब तबाह हो चुके हैं।

हालाँकि ट्रम्प ख़ुद एक पूँजीपति और धनपशु है लेकिन उसने आर्थिक मुश्किलों से जूझ रहे अमेरिकी मध्यवर्ग और मज़दूर वर्ग के गुस्से को अपनी सस्ती लोकरंजक जुमलेबाज़ी के ज़रिये जमकर भुनाया। किसी क्रान्तिकारी ताक़त की अनुपस्थिति में अमेरिकी जनता के पास भविष्य के किसी विकल्प न होने की सूरत में ट्रम्प की बातें जँचीं। ट्रम्प ने उन्हें अमेरिका को फिर से महान बनाने के सब्ज़बाग दिखाये। जिस तरह 2008 में लोगों ने बदलाव की आशा में ओबामा को वोट दिया दिया था उसी तरह इस बार तमाम लोगों ने ट्रम्प को आज़माना चाहा है, हालाँकि ट्रम्प की जीत ओबामा की जीत से बहुत छोटी है। ट्रम्प ने मन्दी और छँटनी से जूझ रहे लोगों को यह यक़ीन दिलाया कि उनकी समस्याओं की वजह बाहर से आ रहे प्रवासी मज़दूर हैं जो मेक्सिको, चीन व एशिया-अफ़्रीका के देशों से आकर उनकी नौकरियाँ छीन रहे हैं। उसने यहाँ तक कहा कि राष्ट्रपति बनने के बाद आप्रवासन रोकने के लिए वह अमेरिका और मेक्सिको की सीमा पर ऊँची दीवार बनवायेगा और उसका ख़र्च मेक्सिको की सरकार से वसूलेगा। उसने मेक्सिको के लोगों को बलात्कारी और हत्यारा तक कहा। यही नहीं उसने मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत को चरम पर ले जाते हुए कहा कि राष्ट्रपति बनने के बाद वह मुसलमानों को अमेरिका में आने पर प्रतिबन्ध लगा देगा। भूमण्डलीकरण की मार से कराह रही आम आबादी को उसने यक़ीन दिलाया कि सत्ता में आने के बाद वह ऐसी नीतियाँ लायेगा जिससे अमेरिकी कम्पनियाँ विदेशों में निवेश करने की बजाय अमेरिका में ही निवेश करेंगी जिससे कि वहाँ नये रोज़गार के अवसर पैदा होंगे। उसने लोगों को बताया कि अमेरिकी कम्पनियों का मुनाफ़़ा इसलिए कम हो रहा है क्योंकि पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर उनका ख़र्च बहुत बढ़ जाता है। उसने सत्ता में आने के बाद पर्यावरण सुरक्षा सम्बन्धी नीतियों को किनारे लगाकर पूँजीपतियों का मुनाफ़़ा बढ़ाने के बात की और लोगों को यक़ीन दिलाया कि पूँजीपतियों का मुनाफ़़ा बढ़ेगा तो उनकी जि़न्दगी में भी बेहतरी आयेगी। उसने मध्य-पूर्व में अमेरिकी सैन्य कार्रवाइयों को और ज़्यादा आक्रामक करने की ज़रूरत पर बल देते हुए कहा कि अमेरिका को फिर से महान बनाने के लिए दुनिया को डराकर रखना होगा। उसने मुस्लिमों, महिलाओं, अश्वेतों, प्रवासियों को निशाने पर लिया जो गोरे टटपुँजिया वर्ग और मज़दूर वर्ग के एक हिस्से के लिए ‘पराये’ थे। ट्रम्प ने उन्हें यक़ीन दिलाया कि वे ‘पराये’ ही दरअसल उनकी बरबादी के लिए जि़म्मेदार हैं। उसने अपनी छवि एक ”निर्णायक और सशक्त” नेता के तौर पर बनायी जो टटपुँजिया वर्ग को बहुत अपील करता है। वर्ग चेतना के अभाव, लम्बे समय से किसी सशक्त मज़दूर आन्दोलन की अनुपस्थिति और अमेरिकी ट्रेड यूनियन आन्दोलन में नस्लवाद के लम्बे इतिहास को देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अमेरिका के मज़दूर वर्ग के एक हिस्से को ट्रम्प की घनघोर मज़दूर-विरोधी बातें भी रास आयीं और उन्होंने ट्रम्प जैसे लम्पट और अय्याश पूँजीपति के पक्ष में वोट देने से भी गुरेज़ नहीं किया।

क्या ट्रम्प की जीत के साथ ही अमेरिका में फ़ासीवाद आ गया है?

ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान अन्धराष्ट्रवादी, मुस्लिम-विरोधी, प्रवासी-विरोधी और नस्लवादी बयान ख़ूब दिये, जिसको देखते हुए अमेरिका की उदारवादी बुद्धि‍जीवी जमात और कुछ वाम हलक़ों में ट्रम्प को फ़ासीवादी क़रार दिया जाने लगा है। ट्रम्प की जीत निश्चय ही अमेरिका में फ़ासीवाद की ज़मीन के उपजाऊ होने का सूचक है, लेकिन यह कहना सटीक नहीं होगा कि ट्रम्प की जीत से अमेरिका में फ़ासीवाद आ गया है। विश्वव्यापी महामन्दी के मौजूदा दौर में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में प्रतिक्रियावादी एवं धुर-दक्षिणपन्थी राजनीति का उभार देखने में आया है। लेकिन हर प्रतिक्रियावादी उभार को फ़ासीवाद कहना भूल होगी। फ़ासीवाद एक काडर आधारित पार्टी के नेतृत्व में व्यापक सामाजिक आधार वाला टटपुँजिया वर्ग का एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन होता है जिसकी एक सुस्पष्ट विचारधारा होती है जो पूँजीवाद के संकट के काल में फलती-फूलती है और जिसके मुख्य निशाने पर मज़दूर आन्दोलन होता है। ट्रम्प के उभार में ये पहलू अनुपस्थित हैं। यह सच है टटपुँजिया वर्ग के बड़े हिस्से ने ट्रम्प की चुनावी लहर का समर्थन किया, लेकिन व्यापक साामाजिक आधार वाला ऐसा कोई प्रतिक्रियावादी आन्दोलन हो, यह नहीं कहा जा सकता। ट्रम्प की कोई गुण्डावाहिनी नहीं है जो हिटलर की ‘एसए’ या मुसोलिनी की ‘ब्लैक शर्ट्स’ की तरह सड़कों पर मज़दूर आन्दोलन और प्रगतिशीलों पर हमला करती हो। ट्रम्प एक पूँजीपति है जिसने रियल एस्टेट, शेयर बाज़ार, जुआघर, गोल्फ़ कोर्स और मनोरंजन उद्योग में निवेश किया है। अभी कुछ साल पहले तक वह राजनीति की दुनिया से बाहर था और रिपब्लिकन और डेमोक्रैट दोनों पार्टियों को चुनावों से पहले बतौर पूँजीपति फ़ण्ड देता रहा था। उसका किसी फ़ासीवादी संगठन या विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। अमेरिका में ‘कू-क्लक्स-क्लैन’ और ‘ओथ टेकर्स’ जैसे नव-फ़ासिस्ट और घोर-दक्षिणपन्थी समूह ज़रूर सक्रिय हैं और उन्होंने इन चुनावों में ट्रम्प को समर्थन भी दिया और उसकी जीत पर जश्न भी मनाया, लेकिन वे अभी भी हाशिये पर हैं।

अगर ट्रम्प फ़ासीवादी नहीं है तो फिर आख़िर उसकी राजनीति है क्या? क्या वह रिचर्ड निक्सन, रोनाल्ड रीगन और जॉर्ज बुश की ही तरह एक और दक्षिणपन्थी नेता है? जवाब है नहीं! दरअसल ट्रम्प की राजनीति व्यवहारवादी (प्रैगमैटिस्ट) दर्शन की धुर-दक्षिणपन्थी अभिव्यक्ति है। व्यवहारवाद के अनुसार सत्य इस्तेमाल से ही पैदा होता है। अमूर्तन और नियमबद्धता को ख़ारिज़ करते हुए वह सिद्धान्त की बजाय कार्रवाई पर ज़ोर देता है ज़रूरत के अनुसार किसी भी पद्धति का इस्तेमाल करने की बात करता है। ट्रम्प रिपब्लिकन पार्टी के उस धुर-दक्षिणपन्थी धड़े का प्रतिनिधित्व करता है जिसका सामाजिक आधार गोरे टटपुँजिया वर्ग व मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा है और जो अमेरिका के पूर्वी तट के वित्तीय महाप्रभुओं से उतनी ही नफ़रत करता है जितनी वह अश्वेतों और प्रवासियों से करता है।

ट्रम्प का उभार ऐसे दौर में हुआ है जब दुनिया के विभिन्न हिस्सों में आर्थिक संकट की परिस्थिति में जहाँ एक ओर शासक वर्ग पुराने तरीक़े से सत्ता नहीं चला पा रहा है और वहीं दूसरी ओर उसकी सत्ता को चुनौती देने वाला कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन भी अनुपस्थित है। ऐसी परिस्थिति में पूँजीवाद के भीतर से ही भाँति-भाँति की व्यवहारवादी-लोकरंजकतावादी (दक्षिणपन्थी और वामपन्थी दोनों कि़स्म के) ताक़तें उभर रही हैं। इस बार के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में दक्षिणपन्थी व वामपन्थी लोकरंजकतावाद की बानगी देखने को मिली। जहाँ ट्रम्प दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद का प्रतिनिधित्व कर रहा था वहीं बर्नी सैण्डर्स (जो डेमोक्रैटिक पार्टी के कन्वेंशन में हिलेरी क्लिंटन से हार गया था और जिसने बाद में क्लिंटन को अपना समर्थन दिया) वामपन्थी लोकरंजकतावाद की बानगी पेश कर रहा था। यूरोप में लोकरंजकतावाद की ये दोनों कि़स्में देखने में आ रही हैं। जहाँ यूनान में सिर‍िजा और स्पेन में पोदेमॉस के उभार में वामपन्थी लोकरंजकतावाद का उदाहरण देखने को आया वहीं फ़्रांस में फ़्रण्ट नेशनेल (एफ़एन) की मैरीन ली पेन, ब्रिटेन में यूकेआईपी के नाइजे़ल फै़राज़, जर्मनी में एएफ़डी का उभार दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद की बानगी पेश कर रहा है।

लेकिन साथ ही भविष्य में इस सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि ट्रम्प का उभार अमेरिका में फ़ासीवादी राजनीति के उपजाऊ होने का सूचक है। ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में फ़ासीवादी राजनीति की ज़मीन निश्चय ही मज़बूत होगी और जो रुझान अभी हाशिये पर हैं वे मुख्यधारा भी बन सकते हैं।

ट्रम्प की भावी नीतियाँ और मज़दूर आन्दोलन की चुनौतियाँ

हालाँकि अमेरिका के पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्से और वॉल स्ट्रीट ने ट्रम्प पर अपना दाँव नहीं लगाना श्रेयस्कर नहीं समझा था, लेकिन उसके राष्ट्रपति बनने के बाद उनको यह तसल्ली है कि ट्रम्प थोड़ा बड़बोला भले हो लेकिन उनका अपना ही आदमी है। इसके संकेत अमेरिकी शेयर बाज़ार से मिल रहे हैं, जोकि ट्रम्प की जीत के बाद से उछाल पर है। यही नहीं अमेरिकी डॉलर की क़ीमत में भी ट्रम्प की जीत के ठीक बाद उछाल देखने को आया है। यह लेख लिखे जाने तक ट्रम्प ने अपने मन्त्रालय में कैबिनेट पोस्ट के लिए जिन 17 लोगों को चुना है उनकी सम्पत्ति अमेरिका के एक-तिहाई घरों की कुल सम्पत्ति से ज़्यादा है। ट्रम्प के मन्त्रिमण्डल में बैंकरों से लेकर हेज फ़ण्ड मैनेजर और राष्ट्रपारीय निगमों के पूर्व सीईओ तक शामिल हैं। मौक़े की नज़ाक़त को समझते हुए वित्तीय पूँजी ने ट्रम्प को अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया है। ट्रम्प ने भी जीत के बाद अपने बयानों में कुछ विवादास्पद वायदों से पलटने के संकेत दे दिये हैं।

ट्रम्प ने जो वायदे किये हैं उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो अमेरिकी वित्तीय महाप्रभुओं के हितों से मेल खाते हैं। ज़ाहिरा तौर पर ऐसे वायदों को पूरा करने में ट्रम्प ज़रा भी देरी नहीं करेगा क्योंकि ऐसा करना वित्तीय पूँजी के भी हित में होगा। मसलन, उसका एक बड़ा वायदा कारॅपोरेट कर और आयकर में कटौती करने का है। ऐसी कोई भी कटौती अमेरिका के शीर्ष के 1 प्रतिशत धनपशुओं के हित में होगी जिसका पूँजीपति वर्ग पलक-पाँवड़े बिछाकर स्वागत करेगा। इसके अलावा ट्रम्प ने बैंकों के विनियमन और श्रम अधिकारों में कटौती करने का भी वायदा किया है जो पूँजीपति भी चाहते हैं। यही नहीं ट्रम्प ने यह भी कहा कि उसकी आने वाले 4 वर्षों में पूरे देश में नये इंफ़्रास्ट्रक्चर और निवेश प्रोज़ेक्टों में 1 ट्रिलियन डॉलर ख़र्च करने की योजना है। ग़ौरतलब है कि ट्रम्प जिस ख़र्च की बात कर रहा है वह सरकारी नहीं निजी खिलाि‍ड़‍यों की अगुवाई में होगा। सरकार बस ऐसे निवेश को प्रोत्साहन देगी। बड़ी निर्माण कम्पनियाँ व रियल एस्टेट कम्पनियाँ (ट्रम्प ख़ुद ऐसी कम्पनियों का मालिक है) इस घोषणा से बहुत ख़ुश हैं क्योंकि उनको मुनाफ़़ा कूटने के नये अवसर मिलेंगे।

जिन मुद्दों पर ट्रम्प के वायदों और पूँजीपति वर्ग के हितों में टकराहट होने की सम्भावना है वे हैं व्यापार संरक्षणवाद और आप्रवासन में बन्दिशें। अमेरिका में नौ‍करियाँ बढ़ाने के नाम पर ट्रम्प जापान और एशिया के साथ क्षेत्रीय व्यापार समझौते ट्रांस-पेसिफि़क पार्टनरशिप (टीपीपी) और यूरोप के साथ व्यापार समझौते ट्रांस एटलांटिक ट्रेड एण्ड इनवेस्टमेण्ट (टीटीआईपी) को ख़त्म करने की बात कर रहा है। यही नहीं वह मेक्सिको और कनाडा के साथ मुक्त व्यापार समझौते नॉर्थ अमेरिकन फ़्री ट्रेड एग्रीमेण्ट (नाफ़्टा) पर भी फिर से मोलभाव करने की बात कर रहा है। वह अमेरिकी कम्पनियों को दूसरे देशों में निवेश करने की बजाय अमेरिका में निवेश करने पर ज़ोर देने की भी बात कर रहा है। अपने चुनावी भाषणों में उसने दावा किया था कि वह एप्पल जैसी कम्पनी को कहेगा कि वह अपने कम्प्यूटर और आईफ़ोन चीन में बनाने की बजाय अमेरिका में बनाये ताकि अमेरिका के लोगों को रोज़गार मिल सके। उसने अमेरिका में चीनी उत्पादों के आयात पर 45 फ़ीसदी कर लगाने की भी बात की थी। ज़ाहिरा तौर पर ये वो जुमले थे जिनका इस्तेमाल ट्रम्प ने चुनाव जीतने के मक़सद से किया था। ख़ुद एक पूँजीपति होने के नाते ट्रम्प यह अच्छी तरह से जानता होगा कि अमेरिकी कम्पनियाँ विदेशों में निवेश इसलिए करती हैं क्योंकि उन्हें वहाँ सस्ता श्रम और कच्चा माल मिलता है जिससे उनका मुनाफ़़ा बढ़ता है। ज़ाहिरा तौर पर अमेरिका का पूँजीपति वर्ग राष्ट्रप्रेम में इतना अन्धा नहीं हो जायेेगा कि वह मुनाफ़़े में कटौती करके अपनी कब्र ख़ुद ही खोदने की ग़लती करेगा। ऐसे मुद्दों पर ट्रम्प को वित्तीय महाप्रभुओं के सामने घुटने टेकने ही पड़ेंगे।

ट्रम्प एक ऐसे समय अमेरिका के राष्ट्रपति का पद सँभालने जा रहा है जब विश्व पूँजीवाद अपने अन्तकारी संकट से बिलबिला रहा है। ट्रम्प की नीतियों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस संकट से छुटकारा दिला सकने में सक्षम हो। उस पर से तुर्रा यह कि अमेरिका में एक नयी मन्दी की भी सम्भावनाएँ जतायी जा रही हैं। ऐेसे में ट्रम्प जैसे धूर-दक्षिणपन्थी व्यक्ति का अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर होने से नस्लीय नफ़रत व मुस्लिम-विरोधी दुष्प्रचार को बढ़ावा दिया जाना तय है। मन्दी की मार झेल रहा अमेरिका का पूँजीपति वर्ग ट्रम्प के ज़रि‍ये दुनिया के विभिन्न हिस्सों को नये युद्धों की ओर झोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा ताकि उत्पादक शक्तियों को तबाह कर पूँजी के मुनाफ़़े की नयी सम्भावनाओं के द्वार खुल सकें। जीत के बाद ट्रम्प ने पर्यावरण क़ानूनों को धता बताने और नाभिकीय होड़ को बढ़ावा देने के संकेत भी दिये हैं। स्पष्ट है कि आने वाले वर्ष समूची दुनिया में ज़बरदस्त तबाही, उथल-पुथल और भीषण रक्तपात के होने वाले हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या ये परिस्थितियाँ मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी उभार को जन्म देंगी। इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्त में छिपा है।

 

 

दिशा सन्धान – अंक 4  (जनवरी-मार्च 2017) में प्रकाशित

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