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Jul92000
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Mar302000
कम्युनिस्ट घोषणापत्र से मेरा प्रथम परिचय 1960 के दशक के अन्तिम वर्षों में हुआ था। उस समय मैं उग्रपरिवर्तनवादी (रैडिकल) विचारों का छात्र था और मेरी पीढ़ी मार्क्स और मार्क्सवाद की खोज कर रही थी। मैं यह स्वीकार करूंगा कि उस समय मैं इसे पूरी तरह समझ नहीं पाया था। लेकिन, मुझे इतना जरूर याद है कि मैं दो चीजों से बेहद प्रभावित हुआ था – कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने इतिहास का एक विराट दृश्यपटल मेरे सामने उपस्थित किया और इसमें न केवल अतीत का विश्लेषण था वरन् यह उस भविष्य के बारे में भी बात करता था, समाज जिस दिशा में अग्रसर है। घोषणापत्र का यह दो टूक नजरिया बेहद प्रभावशाली था। यह वाक्यांश मेरी स्मृतियों में बैठा हुआ है – ‘‘परिवार और शिक्षा के बारे में बुर्जुआ वर्ग का गला फाड़कर चिल्लाना।’’ मैं उस समय 19 वर्ष का था और मुझे यह बहुत भाया। और मार्क्स उस समय सिर्फ 29 वर्ष के थे, जब उन्होंने इसे लिखा।
एक दस्तावेज जिसने इतिहास को बदल डाला
यह मध्य-फरवरी 1848 की बात है, जब इस युवा क्रान्तिकारी आन्दोलनकर्ता, कार्ल मार्क्स ने एक महत्वपूर्ण पुस्तिका का अन्तिम प्रारूप तैयार किया। एक छोटे से क्रान्तिकारी समूह द्वारा उन्हें और उनके सहकर्मी फ्रेडरिक एंगेल्स को एक राजनीतिक दस्तावेज तैयार करने का जिम्मा सौंपा गया था। इसके पीछे सोच यह थी कि विभिन्न देशों के क्रान्तिकारियों का एकीकरण और मार्गदर्शन हो सके और जनसमुदाय को एकजुट किया जा सके।
आप जानते हैं कि 1830 और 1840 के दशक यूरोप में उथल-पुथल के वर्ष थे। इस महाद्वीप के पुराने साम्राज्य और निरंकुश राज्य अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहे थे। असन्तोष और विरोध बढ़ता जा रहा था। उसी दौर में, शोषण के कारखानों और औद्योगिक मलिन बस्तियों के साथ पूंजीवाद का नया कारखाना तंत्र भी फैलता जा रहा था। इंग्लैण्ड में यह अपनी जकड़ मजबूत बना चुका था और फ्रांस एवं जर्मनी में इसकी शुरुआत हो गयी थी। किसान जगह-जमीन से उजड़ते जा रहे थे। श्रमजीवियों का एक नया वर्ग, सर्वहारा वर्ग विकसित हो रहा था… और साथ ही उसकी बगावती चेतना भी विकसित हो रही थी।
इन परिस्थितियों में इस दस्तावेज को छपवाना अत्यावश्यक हो गया था। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स ने पहले प्रारूप पर, जो धर्मोपदेशों की भांति प्रश्नोत्तरी के रूप में लिखा गया था, स्वीकृति की मुहर लगाने से इन्कार कर दिया था। ऐसे में, एंगेल्स ने स्वयं और मार्क्स को इसका पुनर्लेखन करने के लिए प्रस्तुत किया। उन्होंने मार्क्स को लिखा कि ‘‘मेरे ख्याल से सर्वोत्तम बात यह होगी कि इसके प्रश्नोत्तरी रूप से पिण्ड छुड़ा लिया जाये और इसका शीर्षक दिया जाये-कम्युनिस्ट घोषणापत्र।’’
और इस तरह मार्क्स ने सर्वकालिक महत्व के घोषणापत्र की रचना की। यह अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन का एक स्वप्नदर्शी आधारभूत दस्तावेज था। यह इस चीज का एक संक्षिप्त निरूपण है कि इतिहास का निर्माण वास्तव में किस प्रकार हुआ है – यह कि इतिहास महान व्यक्तियों के कारनामों, या ईश्वर की इच्छा या महज दुर्घटनाओं की एक श्रृंखला का परिणाम नहीं है। नहीं, इतिहास विभिन्न सामाजिक समूहों या वर्गों के संघर्षों से बनता है और इस वर्गसंघर्ष की जड़ें समाज की आर्थिक बुनियाद में निहित हैं। कम्युनिस्ट घोषणापत्र सर्वहारा क्रान्ति के उद्देश्यों और लक्ष्यों का सर्वप्रथम और संक्षिप्ततम सूत्रीकरण भी है। और इस सैद्धान्तिक कृति में कविता और भावावेगों की अनुगूंजे भी सुनायी देती हैं।
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने इतिहास के मार्ग को बदल दिया है। सम्भवतः यह अब तक लिखा गया सर्वाधिक प्रभावकारी राजनीतिक दस्तावेज है, जिसे दुनिया भर में करोड़ों-करोड़ लोग पढ़ते हैं। यह आज भी एक गैरकानूनी पुस्तक मानी जाती है। तीन साल पहले जब मैं फिलिप्पीन्स में था, दो किसान क्रान्तिकारियों ने मुझे बताया कि वे किस तरह बच-बचाकर मार्क्स की किताबें ले आते थे और उन्हें खेतों में छुपा देते थे।
कम्युनिस्ट घोषणापत्र के साथ हमेशा कुछ खतरनाक चीजें जुड़ी हुई हैं। पुस्तक की शुरुआत इन प्रसिद्ध पंक्तियों से होती है – ‘‘समूचे यूरोप को एक भूत आतंकित कर रहा है – कम्युनिज्म का भूत।’’ उसमें शासक वर्गों को लक्षित व्यंग्य बाण और कटारें हैं। ‘‘निजी स्वामित्व का अन्त कर देने के हमारे इरादे से आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन आपके मौजूदा समाज में दस में से नौ आदमियों के लिए निजी सम्पत्ति का पहले ही खात्मा हो चुका है; चन्द लोगों के पास अगर निजी सम्पत्ति है तो उसका एकमात्र कारण यही है कि दस में से उन नौ लोगों के पास वह नहीं है।… आपका आरोप यह है कि हम आपके स्वामित्व का अन्त कर देना चाहते हैं। बिल्कुल यही बात है; हम ठीक यही करने की मंशा रखते हैं।’’ और यह अपने इस प्रसिद्ध आह्वान के साथ समाप्त होता है – ‘‘सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है। उसके पास जीतने के लिए समूचा विश्व है।’’
हम आज बीसवीं सदी के अन्त पर खड़े हैं। इस बीतती सदी में उत्पीड़ित जन महान संघर्षों में उठ खड़े हुए हैं। हमने बोल्शेविक और चीनी क्रान्तियों को सत्तासीन होते और नये समाज की रचना करते देखा है। लेकिन ये दोनों क्रान्तियां नयी पूंजीवादी ताकतों द्वारा धूल में मिला दी गयीं। निश्चित रूप से विश्व पूंजीवाद की उम्र मार्क्स के अनुमान से कहीं ज्यादा निकली। हम लगातार जारी बुर्जुआ वर्ग की इस वैचारिक गोलाबारी से घिरे हुए हैं कि कम्युनिज्म असफल है, एक अव्यावहारिक यूटोपिया है जो दुःस्वप्न में बदल गया है। वे हमें इस बात पर विश्वास दिलाना चाहते हैं किकृपूंजीवाद ही वह सर्वोत्तम चीज है जिसे हासिल किया जा सकता है। ‘‘लालच और असमानता जिन्दाबाद।’’
तो क्या कम्युनिस्ट घोषणापत्र हमारे लिए आज भी प्रासंगिक है? हां, यह है। यह पूंजीवादी समाज के अपने विश्लेषण के द्वारा आज भी प्रासंगिक है। वर्गों से रहित विश्व के स्वप्न के द्वारा यह आज भी प्रासंगिक है। इस सदी में सर्वहारा क्रान्ति के वास्तविक अनुभव के जरिए यह आज भी प्रासंगिक है – इस रूप में कि क्या पूरा किया जा चुका है और इस रूप में कि इस व्यवस्था का नाश करने के लिए इन अनुभवों से सीखते हुए क्या किया जाना बाकी है। हमारे लिए यह आज भी प्रासंगिक है क्योंकि अगली सहस्राब्दी की दहलीज पर मानव समाज क्रान्ति से कम किसी चीज द्वारा आगे नहीं बढ़ सकता।
बुर्जुआ वर्ग के उद्भव और उसके मिशन के बारे में मार्क्स के विचार
जैसा कि मैं इंगित कर चुका हूं कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मुख्यतः दो बातें हैं। विशेष रूप से, यह वर्ग समाज और वर्ग संघर्ष का और पूंजीवादी समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण है और साथ ही यह स्वप्न है कि कौन सी चीज इसका स्थान लेगी। मैं घोषणापत्र में मौजूद पूंजीवादी समाज के विश्लेषण से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। मार्क्स पूंजीवाद की छानबीन ऐतिहासिक भौतिकवादी परिप्रेक्ष्य में करते हैं। और इसके अनेक अर्थ हैं।
सर्वप्रथम, इसका अर्थ यह है कि पूंजीवाद शाश्वत नहीं है। पूंजीवाद सामाजिक उत्पादन का एक ऐतिहासिक रूप है। इसके उद्भव का एक इतिहास रहा है। सोलहवीं सदी में, पूंजीवाद के भावी विकास की परिस्थितियां अस्तित्व में आ रही थीं। और पूंजीवाद का अन्त भी सुनिश्चित है। पूंजीवाद मानव समाज के विकास की एक निश्चित मंजिल में उभरकर सामने आया है। सामन्ती समाज में उत्पादक शक्तियां विकसित हो रही थीं और इसके साथ ही बुर्जुआ वर्ग के रूप में एक नया वर्ग भी विकसित हो रहा था। उत्पादक शक्तियों से मेरा तात्पर्य औजारों, उपकरणों, कच्चे मालों और स्वयं जनता से है। अब बुर्जुआ वर्ग इन उत्पादक शक्तियों के उपयोग और उत्पादन के संगठन के नये तरीकों का प्रतिनिधित्व कर रहा था। लेकिन उत्पादन के ये नये सम्बन्ध उत्पादन के पुराने सामन्ती सम्बन्धों से घिरे हुए थे।
उत्पादन के सम्बन्धों से मेरा तात्पर्य उत्पादन के साधनों के साथ समाज के विभिन्न समूहों के सम्बन्धों से है – कौन उनका स्वामी है और नियंत्रित करता है; उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान लोगों द्वारा निभायी जाने वाली विभिन्न भूमिकाएं; और समाज के इन विभिन्न समूहों द्वारा उत्पादित सम्पदा का किस अनुपात में वितरण होता है। वर्ग समाज में ये विभिन्न सामाजिक समूह और सम्बन्ध वर्ग और वर्गसम्बन्ध होते हैं।
कृषि की सामन्ती जागीरदारी और हस्तशिल्प उत्पादन की गिल्ड व्यवस्था इस बुर्जुआ वर्ग को बाजारों का विकास करने और उत्पादन के नये उपकरणों और नयी विधियों का उपयोग करने में बाधक थी। इसलिए बुर्जुआ वर्ग के लिए सामन्ती शासन को उखाड़ फेंकना और अपनी राज्यसत्ता एवं सामाजिक व्यवस्था को कायम करना लाजिमी था।
कार्ल मार्क्स पूंजीवाद से घृणा करते थे। उन्होंने लिखा कि ‘‘दुनिया में पूंजी नस-नस से खून चूसकर आती है।’’ लेकिन ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्लेषण ने उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुंचाया कि बुर्जुआ वर्ग को एक वस्तुगत ऐतिहासिक मिशन को पूरा करना है। वह मिशन है – उत्पादक शक्तियों को गुणात्मक रूप से नये तरीके से विकसित करना।
बुर्जुआ वर्ग ने उत्पादन के निजी साधनों को-जैसे छोटे दस्तकारों के औजारों को उत्पादन के सामाजिक साधनों में – जैसे मशीन औजार, असेम्बली लाइन और इसी प्रकार अन्य साधनों में – बदल डाला, जो लोगों की बड़ी संख्या द्वारा ही उपयोग में लाये जा सकते हैं। यह सामाजिक उत्पादन की व्यवस्था को जन्म देता है जिसमें उत्पाद किसी एक या थोड़े-से लोगों के प्रयासों का फल नहीं होते बल्कि बहुत-से लोगों के व्यापक और अन्तर-निर्भर गतिविधियों के परिणाम होते हैं। एक कार और इसके उत्पादन में लगी सभी चीजों के बारे में सोचिए। किसी दस्तकार या किसान की भांति कोई स्कूटर या कार बनाने वाला मजदूर यह नहीं कहेगा कि ‘‘इसे मैंने बनाया’’-यह तो हजारों लोगों का सामूहिक उत्पाद है।
लेकिन पूंजीवाद के अन्तर्गत उत्पादन किसलिए होता है और किसके लिए होता है? यह मुनाफे और मुनाफा बढ़ाते ही जाने के लिए होता है। यह उत्पादन बुर्जुआ वर्ग के वर्गहितों की सेवा के लिए होता है – उनके लिए जो उत्पादन के साधनों के मालिक होते हैं। और यह मुनाफा आता कहां से है? यह सर्वहारा वर्ग के शोषण से आता है, सर्वहाराओं का वह वर्ग जिसके पास अपनी श्रमशक्ति बेचने के सिवा कुछ नहीं होता।
पूंजीवाद गतिशील है। यह कम्युनिस्ट घोषणापत्र की प्रमुख विषयवस्तु है। पूंजीवाद अपने विस्तार और नयी-नयी चीजें पैदा करने के लिए प्रतियोगिता की शक्ति से चालित होता है। बुर्जुआ वर्ग के बारे में घोषणापत्र यह बात कहता है – ‘‘अपने मुश्किल से सौ साल के शासनकाल में बुर्जुआ वर्ग ने उससे अधिक शक्तिशाली और प्रचण्ड उत्पादक शक्तियां उत्पन्न कर दी हैं कि जितनी पिछली तमाम पीढ़ियों ने मिलकर नहीं की थीं।’’ मार्क्स यहां इस्पात मिलों, बिजली, वाष्पचालित जहाजरानी और रेलवे की चर्चा कर रहे हैं।
पूंजीवाद अनवरत गतिमान और रूपान्तरणशील होता है। मार्क्स कहते हैं – ‘‘उत्पादन का निरन्तर क्रान्तिकारीकरण, सभी सामाजिक अवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल, चिरन्तन अनिश्चितता और हलचल-ये चीजें बुर्जुआ वर्ग को सभी पूर्ववर्ती युगों से अलग करती हैं।’’ लोग एक साथ कारखानों और शहरों में फेंक दिये जाते हैं। और पूंजीवाद मानवीय सम्बन्धों को नग्न स्वार्थों और आना-पाई के हिसाब-किताब में तार-तार कर देता है – मैं किस चीज का मालिक हूं, मेरा मोल क्या है, तुम्हारा मोल क्या है?
पूंजीवाद राष्ट्रों की सीमाओं को तोड़ देता है और उसके रास्ते में अड़ंगा डालने वाली हर चीज को चकनाचूर कर देता है। मार्क्स ने यह बात इस ढंग से कही है – ‘‘अपने उत्पादों के लिए निरन्तर विस्तारमान बाजार की जरूरत बुर्जुआओं का दुनिया भर में पीछा करती है।’’ जब मार्क्स यह लिख रहे थे तो इंग्लैण्ड भारत को बर्बरतापूर्वक लूट रहा था और उसे अपना उपनिवेश बना रहा था और चीन को बन्दूक की नोंक पर जबरिया अपने व्यापारिक-तंत्र के अधीन ला रहा था। माल उत्पादन जिसमें व्यवहारतः हर उत्पादन विनिमय के लिए होता है, समूचे विश्व में फैल रहा था। और ऐसा करते हुए पूंजीवाद समूची आबादी को अपनी चपेट में ले रहा था और नये सर्वहाराओं को पैदा कर रहा था और उनका शोषण कर रहा था।
मार्क्स विश्लेषित करते हैं कि पूंजीवादी विकास की प्रक्रिया किस प्रकार उत्पादन के साधनों को कुछ थोड़े से लोगों के हाथों में संकेन्द्रित करती जाती है। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत समाज में ध्रुवीकरण बढ़ता जाता है – एक तरफ समृद्धि तो दूसरी तरफ हाड़तोड़ मेहनत, गरीबी और बर्बादी। इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति कारखानों के भीतर भीषण जकड़बन्दी, चौदह घण्टे कार्य दिवस और बाल श्रम पर आश्रित थी और इसने शहरी झुग्गी-झोपड़ियों को बीमारी और कुपोषण के जबड़े में जकड़ लिया था। पूंजीवाद के अन्तर्गत मजदूर मशीन का विस्तार बन गये और उन्हें तभी तक काम मिलता था जबतक वे पूंजी के विस्तार में मदद करते थे।
1825 में, पूंजीवादी विश्व पहले बड़े आर्थिक संकट से डांवाडोल हो उठा। पहली बार, करोड़ों लोग इसलिए नहीं भूख की चपेट में आ गये कि उन्होंने कम उत्पादन किया था बल्कि इसलिए कि उन्होंने ज्यादा उत्पादन कर दिया था – इतना अधिक उत्पादन कि उसे बेचा नहीं जा सकता था, उत्पादन के इतने अधिक साधन हो गये कि उन्हें मुनाफा कमाने के उपयोग में नहीं लाया जा सकता था। पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के साथ-इन उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के खिलाफ नयी और विशाल उत्पादक शक्तियों की यह पहली बगावत थी।
पूंजीवाद उत्पादन का एक अराजक तंत्र है। समाज के पैमाने पर उत्पादन का कोई सचेतन तालमेल नहीं होता। स्टील का उत्पादन कितना हुआ, कितनी बिल्डिंगे खड़ी हुईं-यह सब किसी युक्तिसंगत योजना के तहत निश्चित नहीं किया जाता। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में इस अविश्वसनीय-सी लगने वाली चीज की छवि उतारी गयी है। मार्क्स कहते हैं: ‘‘वह समाज जिसने तिलिस्म जैसे ऐसे विराट उत्पादन तथा विनिमय साधनों का सृजन किया है, ऐसे जादूगर की तरह है, जिसने अपने जादू से पाताल लोक की शक्तियों को बुला तो लिया है, पर अब उन्हें वश में रखने में असमर्थ है।’’ और घोषणापत्र में मार्क्स एक अन्य ऐतिहासिक भौतिकवादी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। पूंजीवाद अपनी उपयोगिता पूरी कर चुका है। बुर्जुआ वर्ग शासन करने में अक्षम हो गया है।
आज का पूंजीवाद
आज हम यहां 1998 में खड़े हैं। क्या यह विश्लेषण आज की दुनिया के लिए अर्थवान है?
इन 150 वर्षों में पूंजीवाद विस्तारित होता गया है और अधिकाधिक संकेन्द्रित होता गया है। नयी-नयी तकनीकों और उद्योगों द्वारा, जिन्होंने पूरी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है, इसने अपना प्रभाव-विस्तार किया है। पूंजी संचय ने मानव इतिहास में मानव श्रम की उत्पादकता में तीव्रतम विकास किया है। उत्पादक तकनीकें भाप संचालित यांत्रिक करघों से आगे बढ़कर औद्योगिक रोबोटों तक जा पहुंची हैं। मानवता को पाल जहाज का आविष्कार करने में एक लाख वर्ष लगे; वाष्प चालित पोत का आविष्कार करने में महज पांच हजार वर्ष लगे लेकिन अन्तरिक्ष यान का आविष्कार करने में महज 100 वर्ष लगे। पूंजीवाद आज विशाल पैमाने पर भूमण्डलीकृत हो चुका है। इसने श्रम का नया भूमण्डलीय विभाजन पैदा किया है। एक जोड़ी नाइक कम्पनी के जूते का उदाहरण लीजिएः इसका बाहरी चमड़ा ब्राजील और आस्टेªलिया में उत्पादित होता है, रबर के तल्ले थाईलैण्ड में बनते हैं और इनको मिलाकर जूतों की सिलाई चीन में होती है।
लेकिन इस सबके पीछे की गतिकी और सामाजिक यथार्थ क्या है? इसका उत्तर है: विश्व मानवता का तीव्रतर शोषण, इस ग्रह की और अधिक बर्बर लूट। पिछली डेढ़ शताब्दी अतुलनीय विकास के साथ ही अतुलनीय विनाश और मुसीबतों की शताब्दी रही है। एक ऐसी शताब्दी जिसमें एक महामन्दी आयी, दो विश्वयुद्ध हुए और तीसरी दुनिया को भयानक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है।
यह लेनिन थे, जिन्होंने यह विश्लेषित किया कि पूंजीवाद उच्चतर अवस्था की ओर, जिसे साम्राज्यवाद कहा जाता है, दरअसल किस प्रकार विकसित हुआ। दरअसल, यह पूंजी के संगठन और संरचना में परिवर्तन के कारण, विशेषकर इजारेदारी और वित्तीय पूंजी के विकास के कारण घटित हुआ। और इसने विश्व को गुणात्मक रूप से ज्यादा मजबूती के साथ समेकित कर दिया। लेकिन, लेनिन ने यह भी उद्घाटित किया कि एक ऐसी दुनिया में जिसमें एक तरफ मुट्ठी भर नियंत्रणकारी, उत्पीड़क साम्राज्यवादी देश हैं और दूसरी तरफ तीसरी दुनिया के उत्पीड़क राष्ट्र हैं, पूंजी का भूमण्डलीकरण असमान ढंग से होता है। इसके साथ ही उन्होंने यह रेखांकित किया कि सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में, जिसके साथ परिवर्तन की चेतना से लैस और जमीन की चाहत रखने वाला किसान समुदाय भी खड़ा होगा, इन उत्पीड़ित राष्ट्रों का मुक्तिसंघर्ष विश्व सर्वहारा क्रान्ति की चालक शक्ति होगा।
लेकिन साम्राज्यवाद पूंजीवाद की बुनियाद पर खड़ा होता है और इसके गति के नियम वही होते हैं, जैसा मार्क्स ने विश्लेषित किया था।
आइये, आज की दुनिया की कुछ विशेषताओं पर सरसरी नजर डालें।
पहला उदाहरण: 300 राष्ट्रपारीय निगम विश्व की एक चौथाई उत्पादक परिसम्पत्तियों के मालिक हैं। दुनिया की सबसे धनी बीस प्रतिशत आबादी का दुनिया की आय के 85 प्रतिशत पर नियंत्रण है। अमेरिका के 200 सबसे बड़े विनिर्माण निगम विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षमता के 60 प्रतिशत के स्वामी हैं।
दूसरा उदाहरण: घोषणापत्र के बाद के समय में विश्व में सर्वहारा आबादी में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई है। तीसरी दुनिया में दसियों लाख किसान हर वर्ष कुचले और जगह-जमीन से उखाड़े जा रहे हैं। बीस साल पहले बांग्लादेश में कोई कपड़ा उद्योग नहीं था। आज वहां दस लाख मजदूर कपड़ा उद्योगों में काम करते हैं, जिसमें से ज्यादातर राजधानी ढाका में रहने वाली औरतें हैं। भूमण्डलीय पैमाने पर सस्ते श्रम पर आधारित विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) अर्थव्यवस्था विश्व पूंजीवाद की कार्यप्रणाली का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसके नये सर्वहारा सुरक्षा गार्डों की चौकसी में औद्योगिक बैरकों में और रक्त-मज्जा निचोड़ लेने वाली कार्यशालाओं में पाये जाते हैं, जहां जानलेवा दुर्घटनाओं और यौन-उत्पीड़न की आशंकाएं हर पल मौजूद रहती हैं। ये आसपास की उन श्रमिक-बस्तियों में पाये जाते हैं जहां पीने के लिए जहर जैसा पानी मिलता है और इन बस्तियों से लगभग दो करोड़ बालश्रमिकों के श्रम को निचोड़ा जाता है। वास्तविक सर्वहाराओं की आबादी तो अमेरिका में है – वस्त्र बनाने वाली कार्यशालाओं में, मुर्गी पालन उद्योगों में, खेतिहर मजदूर, अस्पतालों के कर्मचारी और भारी तादाद में वे किशोर जो दक्षिण ब्रांक्स और दक्षिण-मध्य लास एंजेल्स के नुक्कड़ों पर मारे-मारे फिरते हैं।
तीसरा उदाहरण: इस धरती के आधे से अधिक लोग 100 रुपये प्रतिदिन की आय से कम पर गुजारा करते हैं। अगले चौबीस घण्टे में तीसरी दुनिया के देशों में चालीस हजार बच्चे उन रोगों और कुपोषण से काल-कवलित हो जायेंगे, जिनसे बचा जा सकता है। विश्व की लगभग तीस प्रतिशत श्रमशक्ति या तो पूर्ण बेरोजगार है या अर्द्धबेरोजगार है। यूरोप में नौ में से एक मजदूर काम से निकाल दिया गया है। हर साल साढ़े सात करोड़ आप्रवासी मजदूर काम की तलाश में अपना मुल्क छोड़कर दूसरे मुल्कों में चले जाते हैं।
चौथा उदाहरण: दुनिया के सबसे धनी देश, अमेरिका में 40 प्रतिशत काले और लैटिनो मूल के बच्चे गरीबी में रहते हैं; सत्तर लाख लोग बेघर हैं; 3 करोड़ तीस लाख लोग स्वास्थ्य बीमा की सुविधाओं से वंचित हैं और तीन में से एक काला नौजवान या तो जेल में है या आपराधिक न्याय-तंत्र की गिरफ्त में है। अमेरिका में एक तिहाई श्रम शक्ति बेहद कम तनख्वाह वाली नौकरियां करती हैं। 1992 से 1995 के बीच दस साल या उससे अधिक समय तक नौकरियां करने वाले 15 प्रतिशत लोगों को इन नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है और वे औसतन 14 प्रतिशत कम वेतन पर नया काम कर रहे हैं।
पांचवां उदाहरण: एशिया में आर्थिक ध्वंस। याद कीजिए कि मार्क्स ने उस जादूगर की चर्चा किस तरह की थी जो उन शक्तियों को नियंत्रित नहीं कर पाता जिन्हें उसने स्वयं बनाया होता है? एशिया का वित्तीय संकट इसका एक सटीक उदाहरण है। 1990 के दशक में, भारी परिमाण में वैश्विक वित्तीय पूंजी, जो नयी इलेक्ट्रानिकी और सूचना तकनोलाजी द्वारा उपलब्ध करायी गयी थी, एशियाई सट्टा एवं मुद्रा बाजार में उड़ेल दी गयी। भारी परिमाण में विनिर्माण पूंजी का कारों से लेकर कम्प्यूटर चिप्स तक हरेक चीज के उत्पादन में निवेश किया गया। मलेशिया में दुनिया की दो सबसे ऊंची इमारतें उठ खड़ी हुईं। और देखते ही देखते सब कुछ भरभरा पड़ा। ये अर्थव्यवस्थाएं रीढ़विहीन थीं। कारखाने बन्द हो गये, और भारी तादाद में लोगों की बचतें और आय छू-मन्तर हो गयी।
और अन्त में: हमारी पृथ्वी अभूतपूर्व अनुपात में पर्यावरण के संकट की शिकार है। विश्व का आधे से अधिक उष्ण कटिबन्धीय वनाच्छादन समाप्त हो चुका है। प्रतिदिन, 74 वन्य जीव-जन्तुओं की प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। ओजोन परत का विनाश, वैश्विक ऊष्मीभवन (ग्लोबल वार्मिंग), समुद्री संसाधनों का विनाश और तीसरी दुनिया को जहरीले कचरे का कूड़ाघर बना देना-ये सभी पूंजीवाद के इस तर्क के दुष्परिणाम हैं कि सबकुछ मुनाफे के लिए है।
पूंजीपति मुक्त बाजार को विश्व की आशा के रूप में प्रशंसा करते नहीं अघाते। लेकिन उनकी व्यवस्था पूर्ण विनाश की ओर ले जाने वाली व्यवस्था है। यह बर्बर है, यह पुरानी पड़ चुकी है और अब इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए, अब इससे गुणात्मक रूप से भिन्न किसी चीज की आवश्यकता है और यह सम्भव है।
एक बिल्कुल अलग दुनिया सम्भव है
सच्चाई यह है कि विश्व की उत्पादक शक्तियां विश्व के हरेक व्यक्ति के लिए पर्याप्त खाद्यसामग्री, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य सुविधाओं और अन्य बुनियादी सुविधाओं का पर्याप्त उत्पादन करने में सक्षम है और साथ ही व्यापक परिमाण में इतना अतिरिक्त उत्पादन फिर भी बचा रहेगा कि मानव समाज और इसे बनाने वाले लोगों के सर्वांगीण विकास के लिए उपयोग में लाया जा सकते।
लेकिन, स्पष्ट है कि आज जो हो रहा है वह सब इसके उल्टा है। रास्ते में कौन सा अवरोध खड़ा है? पूंजीवाद के सम्पत्ति सम्बन्ध और पूंजी का वर्गीय राजनीतिक शासन!
जो कुछ मैं यहां बयान कर रहा हूं, वह बुर्जुआ वर्ग के बुनियादी अन्तरविरोधों की अभिव्यक्ति है। यह समाजीकृत उत्पादन और निजी विनियोग (अर्थात स्वामित्व) के बीच का अन्तरविरोध है। सर्वहारा वर्ग वह वर्ग है जो समग्रतः उस सामूहिक श्रम और सामूहिक प्रयासों का प्रतिनिधित्व करता है जो उत्पादक शक्तियों की अत्यधिक समाजीकृत प्रकृति से जुड़ा हुआ है। यह उत्पादक शक्तियों के विकास की सम्भावनाओं पर पड़ी बेड़ियों को तोड़ सकता है।
कम्युनिस्ट घोषणापत्र में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण वाक्यांश है। बुर्जुआ वर्ग द्वारा उद्योगों के विकास की चर्चा करते हुए मार्क्स कहते हैं ‘‘बुर्जुआ वर्ग जो भी उत्पादित करता है उसमें, सर्वोपरि तौर पर, वह अपनी कब्र खोदने वालों को पैदा करता है।’’ वह सर्वहारा वर्ग के बारे में यह बात कह रहे होते हैं। याद कीजिए मैंने कहा था कि बुर्जुआ वर्ग ने एक वस्तुगत मिशन पूरा किया है। ठीक इसी प्रकार, सर्वहारा वर्ग का भी एक वस्तुगत मिशन है – वह है एक क्रान्ति सम्पन्न करना, जिसका लक्ष्य है उत्पादन के साधनों का समाजीकृत, साझा स्वामित्व और श्रम करने के लिए लोगों को सहकारिता के आधार पर संगठित करना और लोगों की आवश्यकता के अनुसार उत्पादों का वितरण करना।
सर्वहारा वर्ग एक अद्वितीय क्रान्ति का नेतृत्व करता है। पहली बार एक ऐसी क्रान्ति सम्पन्न करना सम्भव हुआ है जो बहुसंख्यक मानवता के हित में है – शोषण और उत्पीड़न के एक रूप के स्थान पर दूसरा रूप कायम करना नहीं बल्कि शोषण और उत्पीड़न के सभी रूपों का खात्मा करना। जैसाकि पहले मैं इस बात पर जोर देकर कह रहा था कि आज की उत्पादक शक्तियां अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक दूसरे से अत्यधिक अन्तर्सम्बन्धित हो चुकी हैं और दरअसल उनका अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ही सर्वाधिक युक्तिसंगत ढंग से उपयोग किया जा सकता है। इसलिए, अन्तिम विश्लेषण में सर्वहारा क्रान्ति एक अन्तरराष्ट्रीय क्रान्ति है। इस क्रान्ति का लक्ष्य वर्गों का उन्मूलन और विश्व स्तर पर एक नये समाज का निर्माण करना है। यही वह स्वप्नदर्शिता है, वह मिशन है जिसका कम्युनिस्ट घोषणापत्र में वर्णन किया गया है। और, यही वह चीज है जिसकी चर्चा मैं ज्यादा गहराई से करना चाहता हूं।
कम्युनिस्ट स्वप्नदर्शिता
कम्युनिस्ट घोषणापत्र एक नये समाज और एक नये विश्व की गौरवपूर्ण स्वप्न प्रस्तुत करता है। मार्क्स ने इसे कई स्थानों पर वर्णित किया है: ‘‘एक ऐसे संघ की स्थापना होगी जिसमें व्यष्टि का स्वतंत्र विकास समष्टि के स्वतंत्र विकास की शर्त होगा।’’ एक अन्य स्थान पर मार्क्स कहते हैं: ‘‘कम्युनिस्ट क्रान्ति पारम्परिक सम्पत्ति सम्बन्धों से आमूलतम विच्छेद है; फिर इसमें आश्चर्य क्या कि इस क्रान्ति के विकास का अर्थ है पारम्परिक विचारों से आमूलतम सम्बन्धविच्छेद?’’
दो ‘‘आमूलतम विच्छेदों’’ की यह धारणा सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी मिशन के बारे में हमें बहुत कुछ बताती है। मैं स्पष्ट कर चुका हूं कि सम्पत्ति सम्बन्धों का तात्पर्य यह है कि उत्पादन के साधनों का मालिक कौन है, सामाजिक उत्पादन में लोगों के विभिन्न समूहों की भूमिका क्या है और उत्पादित सम्पत्ति का समाज में किस प्रकार वितरण होता है। जैसा कि मैंने पहले इंगित किया था, कि कम्युनिस्ट क्रान्ति का लक्ष्य उत्पादन के साधनों का समाजीकरण करना और उन्हें निरन्तर विकसित करते जाना है – और यह सिर्फ विभिन्न मंजिलों से गुजरकर ही घटित हो सकता है जब वे समाज की साझा सम्पत्ति बन जायेंगे।
कम्युनिस्ट क्रान्ति मुनाफे के लिए उत्पादन का खात्मा कर देती है ओर आम भौतिक वस्तुओं के प्रचुर सृजन का लक्ष्य निर्धारित करती है और माल उत्पादन एवं मुद्रा के जरिए विनिमय को समाप्त कर देती है। इसका लक्ष्य काम करने की समूची संरचना और लोगों के बीच के सम्बन्धों का रूपान्तरण करना है जिससे हर व्यक्ति समवेत रूप से समाज को अपना सर्वाधिक योगदान दे सके और बदले में समाज से अपनी जरूरतें पूरी कर सके। व्यष्टि अब अपनी ओजस्वी जीवन शक्ति को उस परायी शक्ति को नहीं सौंपेगा; व्यष्टि अब दासतापूर्ण श्रम विभाजन के अधीन नहीं होगा, जिसमें कुछ लोग नियंत्रित करते हैं, कुछ लोग योजनाएं बनाते हैं, कुछ लोग सृजित करते हैं और कुछ लोग खटते हैं।
यह क्रान्ति मानसिक और शारीरिक श्रम के अन्तर को समाप्त कर देगी। लोग उत्पादक भी होंगे और सर्जक भी। समाज का कोई भी पहलू कुछ लोगों के लिए संरक्षित नहीं होगा, हर व्यक्ति समाज को संचालित करने के काम में लगेगा। इस क्रान्ति का लक्ष्य सभी वर्ग विभेदों एवं वर्ग शत्रुओं का उन्मूलन और लोगों के एक समूह द्वारा समाज पर प्रभुत्व कायम करने के आधारों का उन्मूलन है। संक्षेप में, यह राज्य के ही उन्मूलन को अपना लक्ष्य निर्धारित करता है।
ये सभी रूपान्तरण उस दूसरे ‘‘आमूलगामी विच्छेद’’ से जुड़े हुए हैं, जिसका सूत्रीकरण मार्क्स ने किया है – परम्परागत विचारों के साथ विच्छेद। इसका तात्पर्य सोचने के तरीकों, प्रेरणाओं और नैतिकता के रूपान्तरण से है। इसका तात्पर्य है अतीत के मृत हाथों, पिछड़े विश्वासों, मूल्यों और अन्धविश्वासों से विच्छेद करना। इसका तात्पर्य है कि कम्युनिस्ट क्रान्ति पूंजीवाद को पराजित नहीं कर सकती यदि वह ‘‘पहले मैं’’ वाली बुर्जुआ विचारधारा के विरुद्ध संघर्ष नहीं करती।
स्वतंत्रता के बारे में कम्युनिज्म की अपनी अलग अवधारणा है। स्वतंत्रता के बारे में बुर्जुआ विचार, जिसके बारे में घोषणापत्र में मार्क्स ने चर्चा की है, मूलतः खरीदने और बेचने की स्वतंत्रता से बंधा हुआ है, जिसका अर्थ है प्रभुत्व जगाने और शोषण की स्वतंत्रता। स्वतंत्रता के बारे में बुर्जुआ विचार की धुरी व्यष्टि है – स्वार्थों के पीछे व्यक्ति की अन्धी दौड़, दूसरों की कीमत पर समृद्धि और सत्ता के लिए व्यक्तिपरक अधिकार, दूसरों को नियंत्रित करने लेकिन दूसरों द्वारा नियंत्रित न होने का अधिकार।
स्वतंत्रता का कम्युनिस्ट नजरिया इससे भिन्न है। अलग-अलग व्यक्ति शोषण-उत्पीड़न से मुक्त हो जायेंगे और उनका सर्वांगीण विकास होगा। लेकिन यह लोगों के सम्पूर्णतः नये ढंग से सम्बन्ध कायम करने के सन्दर्भ में होगा। जैसा कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी, अमेरिका के अध्यक्ष बॉब अवैकियन ने कहा है: ‘‘लोग यह आत्मसात करेंगे कि सबका हित समाज के रूपान्तरण, सबके लिए स्वतंत्रता की परिधि के विस्तार के द्वारा होगा’’
कम्युनिस्ट क्रान्ति एक अन्तरराष्ट्रीय क्रान्ति है जिसका उद्देश्य विश्व स्तर पर वर्गों का उन्मूलन है। इसका लक्ष्य लोगों और राष्ट्रों के बीच हर प्रकार के असमान और उत्पीड़नकारी सम्बन्धों और पृथक-पृथक राष्ट्रों में विश्व के विभाजन के खात्मे पर आधारित, एकता और विविधता दोनों से युक्त सच्चे विश्व समुदाय की रचना करना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति मानवता को पृथ्वी एवं इसके संसाधनों का सच्चा रखवाला बना देगा जिसके सरोकार के दायरे में केवल वर्तमान नहीं बल्कि भविष्य और साथ ही भावी पीढ़ियां भी होंगी। कम्युनिज्म मानव जनों के स्वतंत्र सहमेल एवं सहकार से युक्त विश्व समुदाय को जन्म देगा। माओ त्से-तुङ ने इसे सुन्दर ढंग से कहा है: ‘‘कम्युनिज्म का युग तब आयेगा जब मानवजाति स्वेच्छा से एवं सचेत ढंग से स्वयं एवं विश्व को बदलेगी।’’
घोषणापत्र को लिखने के पीछे मार्क्स का एक बुनियादी उद्देश्य यह स्पष्ट करना था कि कम्युनिज्म की स्वप्नदर्शिता क्या है और इसके उद्देश्यों को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। घोषणापत्र को पढ़ते समय आप देखेंगे कि उसके अन्त में एक हिस्सा है, जिसमें मार्क्स ने समाजवाद और कम्युनिज्म के अन्य विचारों की आलोचना की है। उस हिस्से में और अन्य स्थानों पर अपने लेखन में मार्क्स ने बुनियादी तौर पर यह स्पष्ट किया है कि अन्याय को समाप्त करने के विभिन्न अन्य रास्ते-चाहे यह अपेक्षाकृत ‘‘प्रबुद्ध’’ शासकों के साथ तालमेल बनाने का रास्ता हो, या समझदार लोगों द्वारा राज्य को अपने हाथों में लेकर उसकी नीतियों को सुधार करने का मार्ग हो या समाज से बाहर जाकर काल्पनिक कम्युनिस्ट समुदायों का निर्माण करने का मार्ग हो-ये सभी रास्ते कारगर नहीं होंगे और इनसे काम नहीं चलने वाला। इसलिए, क्योंकि ये सभी पूंजीवादी आर्थिक सम्बन्धों और पूंजीवादी राजनीतिक शासन को जस-का-तस छोड़ देते हैं।
सर्वहारा वर्ग की मुक्ति केवल सर्वहारा द्वारा स्वयं हासिल की जा सकती है। जैसाकि प्रसिद्ध कम्युनिस्ट गान ‘इण्टरनेशनल’ का सन्देश है: ‘‘हमें नहीं चाहिए कृपालु मुक्तिदाता… हम मजदूर, निश्चित करेंगे स्वयं अपना कर्तव्य, हम निश्चित करेंगे स्वयं और निभायेंगे उसे बखूबी।’’ घोषणापत्र में और अन्य उत्तरवर्ती राजनीतिक लेखन में मार्क्स ने जिस बात पर जोर दिया है कि वह यह है कि सर्वहारा को अनिवार्य रूप से एक वर्ग के रूप में स्वयं को संगठित करना चाहिए और अनिवार्य रूप से सम्पूर्ण मानवता की मुक्ति के अपने मिशन के प्रति सचेत होना चाहिए। उसे अनिवार्य रूप से बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंकना चाहिए और उसके राज्य के उपकरण को नष्ट कर देना चाहिए। साथ ही, उसे अनिवार्य रूप से स्वयं को शासक वर्ग का स्थान ले लेना चाहिए एवं बुर्जुआ वर्ग के ऊपर अपना अधिनायकत्व कायम करना चाहिए।
सर्वहारा वर्ग का यह अधिनायकत्व वर्ग विहीन समाज तक पहुंचने का साधन है। यह सर्वहारा द्वारा समाज पर शासन और उसका रूपान्तरण है। यह समाजवाद है: पूंजीवाद और कम्युनिज्म के बीच का संक्रमणकालीन समाज।
हमारे उद्देश्य के मार्ग में तीन मील के पत्थर:
लेकिन बुर्जुआ वर्ग कहता है कि जहां भी और जब भी कम्युनिज्म लाने की कोशिशें हुईं, परिणाम विनाशकारी रहे हैं। वे हमसे कहते हैं कि पिछले 150 वर्षों का यही सबक है। लेकिन मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी इसके विपरीत निष्कर्ष निकालते हैं। जहां और जब भी यह क्रान्ति सम्पन्न हुई है, इसके परिणाम गम्भीर और मुक्तिदायी रहे हैं। इसके साथ ही, इस क्रान्ति को सम्पन्न करने के ऐतिहासिक अनुभव, इसकी जीतें और इसकी हारें, मानवता की मुक्ति के रास्ते के बारे में बेशकीमती सबक मुहैया कराते हैं। अब मैं इस चीज के बारे में चर्चा करूंगा।
सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास में तीन महान मील के पत्थर रहे हैं – इसमें से हरेक जनता के शौर्य और पहलकदमी से हासिल एक मुकाम है और हरेक मुकाम अगले के लिए एक प्रस्थान-बिन्दु है।
पहला फ्रांस में गाड़ा गया-1871 के पेरिस कम्यून द्वारा। यह पहला अवसर था जब मजदूर वर्ग ने सत्ता पर कब्जा किया। बुर्जुआ वर्ग पेरिस छोड़कर भाग खड़ा हुआ। 70 गौरवशाली दिनों के लिए बिलकुल नयी और पहले कभी न देखी गयी चीजें अस्तित्व में आयीं। मजदूर वर्ग की एक सरकार अस्तित्व में आयी। जनता के हित में सुधारों के नये कानून बनाये गये। मजदूरों ने नगर का प्रशासन सीधे अपने हाथ में ले लिया। स्त्रियां इस युद्ध और प्रयोग की अग्रिम कतारों में थीं। लेकिन यह अल्पजीवी ही रहा। बुर्जुआ वर्ग फिर से संगठित होने में सफल हो गया और कम्यून को खून की नदियों में डुबो दिया गया।
इससे एक महत्वपूर्ण सबक हासिल हुआ। जैसाकि मार्क्स ने स्वयं इसका समाहार किया था और घोषणापत्र के बाद के संस्करणों की भूमिकाओं में इसे शामिल किया गया था, ‘‘सर्वहारा वर्ग केवल राज्य की बनी-बनायी मशीनरी पर कब्जा करके ही इसे अपने उद्देश्यों की पूर्ति में नहीं लगा सकता।’’ पेरिस के सर्वहारा वर्ग आगे बढ़ने और शत्रु को कुचलने के महत्व को नहीं देख सका था।
अगली महान छलांग 1917 में रूस में लगायी गयी। यहां लेनिन और बोल्शेविकों ने पेरिस कम्यून के सबकों को गांठ बांधा। लेनिन ने सर्वहारा वर्ग को क्रान्तिकारी चेतना से लैस करने और क्रान्तिकारी संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए एक हिरावल पार्टी की आवश्यकता को भी दिखाया।
बोल्शेविक क्रान्ति ने जनता के शासन के नये राजनीतिक और सामाजिक अंगों को स्थापित किया। इसने पुराने रूसी साम्राज्य के उत्पीड़ित राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता प्रदान की और राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं एवं भाषायी समानता पर आधारित एक बहुराष्ट्रीय राज्य का निर्माण किया। स्त्रियों को तलाक का अधिकार मिला तथा पारिवारिक सम्बन्धों में अन्य परिवर्तन हुए और उन्होंने अभूतपूर्व ढंग से उत्पादन और राजनीति दोनों क्षेत्रों में प्रवेश किया। सोवियत संघ ने दुनिया भर में क्रान्तिकारी आन्दोलनों को प्रेरणा दी और अन्तरराष्ट्रीय समर्थन किया। इस क्रान्ति ने मानवजाति के इतिहास में पहली नियोजित समाजवादी अर्थव्यवस्था का सृजन किया। इसने पहले के शासक वर्गों की सम्पत्ति का अधिग्रहण कर लिया और सार्वजनिक-राज्य स्वामित्व की व्यवस्था कायम की। उत्पादन को समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने की सचेतन योजना के तहत आगे बढ़ाया गया।
लेकिन आरम्भ से ही क्रान्ति को अविराम एवं अविश्वसनीय रूप से कठिन स्थितियों का सामना करना पड़ा। मजदूरों के राज्य की स्थापना होते ही उसे साम्राज्यवादी आक्रमण का सामना करना पड़ा। उसे भीषण साम्राज्यवादी घेरेबन्दी का शिकार होना पड़ा। इसके साथ ही, अन्ततः मजदूरों के इस तरुण राज्य को नाजी युद्ध मशीन के मुख्य प्रहार को झेलना पड़ा। चालीस वर्षों तक, समाजवाद की हिफाजत की जाती रही। लेकिन इसके बाद सोवियत संघ में समाजवाद की पराजय हो गयी जो जबर्दस्त बाहरी दबावों और उत्तरोत्तर आन्तरिक क्षरण का परिणाम था। 1950 के दशक के आरम्भिक वर्षों में स्तालिन की मृत्यु के बाद एक नया पूंजीपति वर्ग सत्ता में आ गया।
सर्वहारा क्रान्ति के ध्येय के मार्ग में अगली महान प्रगति 1949 में चीन में हुई। मजदूर वर्ग और माओ त्से-तुङ के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में एक लम्बे क्रान्तिकारी युद्ध की जीत हुई। चीनी क्रान्ति ने मानवता के एक चौथाई हिस्से को शोषण से मुक्त कर दिया। जरा इस चीज के बारे में सोचिए-चीन में हुए भूमि सुधारों ने मानव इतिहास में धनी से गरीब के बीच में विशालतम सम्पत्ति हस्तान्तरण को अंजाम दिया।
माओ त्से-तुङ ने सोवियत संघ में समाजवाद के अनुभव और पूंजीवादी पुनर्स्थापना का समाहार किया। लेकिन विराट उपलब्धियों के बावजूद, सोवियत क्रान्तिकारियों से कुछ गलतियां भी हुईं और समाजवादी समाज की प्रकृति के बारे में कुछ चीजों को ठीक ढंग से समझा नहीं जा सका।
माओ ने समाजवादी समाज के अन्दर पूंजीवादी समाज के अवशेषों की मौजूदगी का विश्लेषण किया। ये अवशेष इस तथ्य के रूप में प्रकट होते थे-कुछ लोग मुख्यतः मानसिक श्रम में लगे हुए थे और अन्य लोग मुख्यतः शारीरिक श्रम में और प्रशासनिक एवं नेतृत्व की जिम्मेदारियों का अभी भी समान बंटवारा नहीं हुआ था। देहात और शहर के बीच, विभिन्न क्षेत्रों के बीच और स्त्री-पुरुष के बीच असमानता अब भी मौजूद थी। साथ ही, वेतन में भी अन्तर था और समाजवाद के भीतर मुद्रा एवं माल-उत्पादन की महत्वपूर्ण भूमिका अभी भी बनी हुई थी।
इन चीजों को रातोंरात नहीं खत्म किया जा सकता। लेकिन, उन पर अनिवार्य रूप से लगाम लगायी जानी चाहिए एवं उनका रूपान्तरण किया जाना चाहिए और उनके साथ-साथ चलने वाली विचारधारा से अनिवार्य रूप से संघर्ष किया जाना चाहिए। लेकिन जब तक ये चीजें रहेंगी, वे बुर्जुआ वर्ग शक्तियों को जन्म देती रहेंगी जो अपने वर्ग-स्वार्थों के अनुसार समाज को ढालने की कोशिश करती रहेंगी। माओ ने कहा था कि समाजवाद पूंजीवादी मार्ग और समाजवादी मार्ग के बीच, शत्रुतापूर्ण वर्गों के बीच लम्बे संघर्ष का काल है और किसी विशेष समय में कौन जीतेगा, यह सवाल अभी हल नहीं हुआ है।
माओ ने समाजवाद के निर्माण में सोवियत पहुंच की कमजोरियों का भी विश्लेषण किया। बड़े उद्योगों के निर्माण पर वहां अत्यधिक जोर था। चीजों को संगठित करने के पूंजीवादी तरीकों की बहुत अधिक स्वीकार्यता थी और लोगों के आपसी सम्बन्धों में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ था। उदाहरण के लिए, सोवियत संघ में कारखानों के अन्दर एक व्यक्ति द्वारा प्रबन्धन की प्रणाली अभी भी लागू थी। समस्याओं को हल करने में विशेषज्ञों पर बहुत अधिक निर्भरता थी और जनता पर निर्भरता पर्याप्त नहीं थी। माओ ने इस चीज का इस ढंग से समाहार किया है कि उस दूसरे ‘‘आमूलगामी विच्छेद’’-लोगों की विश्व दृष्टि को बदलने और विचारधारा के मुद्दों पर संघर्ष करने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया था।’’
यह एक गम्भीर ऐतिहासिक महत्व की बात है कि सोवियत क्रान्तिकारी नयी बुर्जुआ शक्तियों द्वारा पूंजीवादी पुनर्स्थापना की कोशिशों, विशेष रूप से कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर से होने वाली कोशिशों के खिलाफ संघर्ष का रास्ता नहीं ढूंढ सके। लेकिन, माओ ने जनता के साथ मिलकर इसके साधनों और तौर-तरीकों को ढूंढ़ निकाला। और यह था – महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति।
सांस्कृतिक क्रान्ति 1966 में शुरू हुई और 1976 में समाप्त हो गयी। यह विश्व सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास का तीसरा महान मील का पत्थर है। यह अब तक सर्वहारा वर्ग द्वारा हासिल उपलब्धियों का शिखर है। लोग पूछते हैं कि ‘‘क्या इस चीज के बारे में ठोस और सार्थक ढंग से बताया जा सकता है कि सर्वहारा वर्ग द्वारा समाज कैसे चलाया जायेगा?’’ हां, बताया जा सकता है।
सांस्कृतिक क्रान्ति ने नई राह निकाली
सांस्कृतिक क्रान्ति, क्रान्ति के अन्तर्गत होने वाली क्रान्ति थी-समाजवाद के अन्तर्गत क्रान्ति के साथ विश्वासघात करने वालों के विरुद्ध और पूंजीवाद की पुनर्स्थापना रोकने के लिए लड़ा गया एक खुल्लम-खुल्ला वर्गसंघर्ष। माओ त्से-तुङ और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर के उनके अनुयाइयों के नेतृत्व में नयी पूंजीवादी शक्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए, जो समाजवादी समाज की संरचना और उसकी संस्थाओं के भीतर से ही उभरे थे और जिनकी सत्ता का केन्द्र स्वयं कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर ही था, जनता उठ खड़ी हुई थी।
विश्व इतिहास की यह सर्वाधिक गहनतम और सर्वाधिक सम्पूर्ण क्रान्ति थी। इसने इस चीज की जीवन्त अभिव्यकि्त प्रदान की कि क्रान्ति का तात्पर्य क्या है और जनता के लिए मार्क्स के एक वाक्यांश का प्रयोग करते हुए मैं कहना चाहूंगा कि समाज ‘‘एक झटके से जाग उठा था।’’
सांस्कृतिक क्रान्ति ने, समाज में घट रही घटनाओं पर क्रान्तिकारी युवाओं को गर्मागर्म बहसों में शामिल होते देखा। इसने बड़े शहरों में घेरा डालते हुए अभिजातों से सत्ता वापस लेने के लिए मजदूरों को बहादुराना ढंग से गोलबन्द होते और सर्वहारा शासन के नये, अधिक आमूलगामी और विस्तृत रूपों को कायम करने की जटिल प्रक्रिया से गुजरते देखा।
सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान, दैनिक जीवन की दिनचर्या खुल्लमखुल्ला सड़कों पर आ गयी और जीवन के हर क्षेत्रों के लोग आर्थिक नीति के बारे में, शिक्षा व्यवस्था के बारे में और कम्युनिस्ट पार्टी एवं जनता के बीच के सम्बन्धों के बारे में व्यापक बहसों में मशगूल हो गये। कोई भी सरकारी अधिकारी आलोचना से बरी नहीं रहा। साधारण लोग वैज्ञानिकों और प्रशासकों से उनकी अहम्मन्यता और वर्गीय पूर्वाग्रह के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे।
सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान, मार्क्सवाद की कुछ विशेष अवधारणाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए अभियान चलाये गये। इनमें से एक अवधारणा जिसका व्यापक अध्ययन किया गया, मार्क्स की एक रचना से ली गयी थी। इसके अनुसार ‘‘कम्युनिज्म क्रान्ति के स्थायित्व की घोषणा है और सर्वहारा का वर्गीय अधिनायकत्व सामान्यतया सभी वर्गविभेदों के उन्मूलन, उन उत्पादन सम्बन्धों के उन्मूलन जिस पर वे टिके हुए हैं, उन सामाजिक सम्बन्धों के उन्मूलन जिसे ये उत्पादन सम्बन्ध व्यक्त करते हैं और इन सामाजिक सम्बन्धों से निकलने वाले सभी विचारों के क्रान्तिकारीकरण का एक आवश्यक संक्रमण-बिन्दु है।’’
माओवादी इसे ‘‘समस्त चार’’ (‘‘the 4 alls’’) कहते हैं। इसका अर्थ है कि क्रान्ति आधे रास्ते में नहीं रुकेगी। सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में सभी प्रणालियों, सभी सम्बन्धों, सभी संस्थाओं और वर्ग विभाजन को मजबूत बनाने और उसे मूर्त रूप देने वाले सभी विचारों के क्रान्तिकारीकरण के लिए क्रान्ति का जारी रहना।
ठोस ढंग से इसका क्या अर्थ निकलता है? उत्पादन के सम्बन्धों के सवाल को लें। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान औद्योगिक एवं कारखाना प्रबन्धन का क्रान्तिकारीकरण किया गया। उत्पादकता एवं अनुशासन के नाम पर मजदूरों की पहलकदमी को सीमित करने वाले उत्पीड़नकारी श्रम कानूनों की आलोचना की गयी और उनका खात्मा कर दिया गया। एक व्यक्ति द्वारा प्रबन्धन का स्थान सामूहिक प्रबन्धन ने ले लिया। मजदूर प्रबन्धन के कामों में हिस्सा लेते थे और प्रबन्धक भी कार्यशालाओं में काम करते थे। तकनीकीकर्मी मजदूरों के साथ मिलकर समस्याओं का विश्लेषण करते थे और मजदूरों के बीच से तकनीकी टीम भी विकसित की गयी। एक ही रूटीन को भंग करने और अत्यधिक विशिष्टीकरण को खत्म करने के लिए मजदूरों के कामों की अदला-बदली भी होती रहती थी। सबसे अधिक तनख्वाह पाने वाले प्रबन्धकों की आय अकुशल मजदूरों से सिर्फ पांच गुना अधिक थी। इसकी तुलना अमेरिका के उन बड़े अधिकारियों से कीजिए जो आम मजदूरों से 150 गुना अधिक वेतन पाते हैं।
कारखाने पड़ोस के समुदायों से सहकार चलाते थे और अपने प्रतिनिधि देहातों में भेजते थे। शहर और देहात के बीच विभेद को पाटने का यह ठोस तरीका था। इसके साथ ही, कार्यस्थलों पर सिर्फ उत्पादन करने के अलावा जीवन के और भी रंग थे। आपको बतायें कि माओ के अनुयाइयों ने सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान यह नारा दिया था – ‘‘कारखाने सिर्फ उत्पादों का उत्पादन ही नहीं करते बल्कि वे मनुष्यों का उत्पादन भी करते हैं।’’ और कारखानों में राजनीतिक बहस-मुबाहसे, सांस्कृतिक और शैक्षिक गतिविधियां कामों का अंग बन गयी थीं।
सामाजिक सम्बन्ध एवं संस्थाएं ‘‘समस्त चार’’ के अन्य महत्वपूर्ण अंग थे। आइये शिक्षा व्यवस्था में हुई क्रान्ति पर विचार करते हैं। विश्वविद्यालयों में मजदूरों और किसानों को बड़ी तादाद में प्रवेश दिया गया। पुराने पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया गया और एक समतामूलक समाज बनाने की आवश्यकताओं के अनुरूप इसे ढाला गया। परम्परागत प्रतियोगिता परीक्षाएं और ग्रेड प्रणाली का खात्मा कर दिया गया; पढ़ाने की निरंकुश प्रणालियों की आलोचना की गयी; प्रोफेसरों से यह अपेक्षा की गयी कि वे छात्रों से सीखें; और मजदूरों एवं किसानों को कक्षाओं में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। नयी शिक्षा व्यवस्था में अध्ययन को शारीरिक काम से जोड़ा गया। उच्च स्तरीय विद्यालयों में प्रवेश लेने से पूर्व छात्रों को एक या दो वर्ष किसानों और मजदूरों के बीच व्यतीत करना पड़ता था और वे प्रवेश के लिए इस आधार पर जनता द्वारा नामित किये जाते थे कि जनता की सेवा करने की उनके अन्दर कितनी तत्परता है।
ये गम्भीर परिवर्तन थे। किन्तु वे आसानी से नहीं हुए। और उन्हें हमलों का शिकार होना पड़ा। इसका मुकाबला चीनी समाज में वर्ग संघर्ष के एक अंग के रूप में किया गया और इसे आगे बढ़ाया गया। यह संघर्ष इस बात के लिए था कि समाज की दिशा कौन निर्धारित करेगा और अन्ततोगत्वा, इस बात के लिए कि समाज पर शासन कौन करेगा-सर्वहारा वर्ग या नया बुर्जुआ वर्ग। 1970 के दशक में यह संघर्ष तीव्र हो उठा और चीन में वर्ग संघर्ष के बिखर जाने में अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों ने जबर्दस्त प्रभाव डाला। क्रान्तिकारी शक्तियों ने सर्वहारा शासन की हिफाजत के लिए प्रचण्ड एवं बहादुराना संघर्ष किया। लेकिन देङ सियाओ पिङ के नेतृत्व में पूंजीवादी पथगामी शक्ति बटोरने और सैनिक तख्तापलट करने में सफल हो गये। 1976 में उन्होंने मजदूर वर्ग की सत्ता को उखाड़ फेंका।
चीजों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए
सर्वहारा वर्ग ने तीन बार-पहली बार पेरिस में, दूसरी बार सोवियत संघ में और उसके बाद चीन में – ‘‘स्वर्ग में हलचल’’ मचा दी थी। इस शताब्दी में दो बार अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा ने वास्तव में लम्बे डग भरे और समाज पर शासन करने और एक नयी दुनिया बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत की-30 वर्षों से अधिक समय तक सोवियत संघ में और 25 वर्षों तक चीन में। परन्तु दोनों बार क्रान्ति पराजित हो गयी। वे ‘‘असफल’’ नहीं हुईं, पराजित हो गयीं। सर्वहारा वर्ग को यह पराजयें एक प्रतिद्वंद्वी वर्ग और प्रतिद्वंद्वी विश्व व्यवस्था द्वारा मिलीं।
दोनों बार एक नये किस्म का समाज बनाने के प्रयास उस देश में हुए जो विरोधी शक्तियों से घिरे हुए और उनके दबावों में थे। और केवल यही नहीं, ये प्रयास एक ऐसी दुनिया में हुए जिसमें पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली और इसके विचार एवं इसी विश्वदृष्टि का वर्चस्व कायम था। इससे महत्वपूर्ण सबक हासिल होते हैं। किसी अकेली क्रान्ति की नियति अन्ततोगत्वा इस बात से जुड़ी हुई है कि विश्व क्रान्ति आगे बढ़ रही है या नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी जगह यदि जनता सत्ता पर कब्जा करने और समाजवाद का निर्माण करने के लिए आगे डग भरती है, तो नये समाज को सर्वप्रथम और सबसे आगे विश्व क्रान्ति को आगे बढ़ाने के लिए एक आधार क्षेत्र के रूप में होना चाहिए।
सर्वहारा वर्ग तीन चक्रों में सत्ता में रहा है। लेकिन, जहां से इसने शुरुआत की है, वहीं यह वापस नहीं लौटा है। क्योंकि सर्वहारा वर्ग ने इन अनुभवों से सीखा है। इसने सीख लिया है कि शासन करने का अर्थ क्या होता है और समाज को नये सिरे से बनाने का क्या अर्थ होता है। इसने क्रान्तिकारी प्रक्रिया की अपनी समझदारी गहरी बनायी है और मार्क्सवाद-लेनिनवाद- माओवाद ने इसे संश्लेषित किया है। ऐसे लोग भी हैं जो यह कहते हैं कि पूंजीवाद का विश्लेषण करते समय तो मार्क्स सही हैं लेकिन सर्वहारा वर्ग द्वारा मुक्तिदायी क्रान्ति का नेतृत्व करने के सवाल पर वह गलत हैं। लेकिन सर्वहारा वर्ग ने इन 150 वर्षों में यह दिखा दिया है कि वही एकमात्र वर्ग है जो समाज का क्रान्तिकारीकरण कर सकता है।
यह महत्वपूर्ण है कि चीजों के बारे में एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य अपनाया जाये। यहां, गौरतलब बात दरअसल यह है – एक नयी एवं उदीयमान व्यवस्था और पुरानी एवं पराभव की ओर अग्रसर पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की व्यवस्था अर्थात अन्तिम और सामाजिक शत्रुता पर आधारित सामाजिक उत्पादन के सर्वाधिक सुसंगत रूप-के बीच विश्व-ऐतिहासिक संघर्ष। सही है कि पुरानी व्यवस्था मार्क्स के अनुमानों से ज्यादा समय तक टिकी हुई है। लेकिन ऐसा नहीं है कि यह अधिकाधिक लोकहितकारी होती गयी है। यह ऐसी दुनिया है जिसमें समृद्ध और वंचितों के बीच इतना अधिक ध्रुवीकरण पहले कभी नहीं था, एक ऐसी दुनिया जिसमें लोग एक दूसरे से और अपनी सर्जनात्मकता से दूर होते जा रहे हैं। यह ऐसी दुनिया है, जिसमें तकनोलाजी गुलाम बनाती है, मुक्त नहीं करती। यह व्यवस्था सचमुच पुरानी पड़ गयी है। इसकी दशाएं और मुसीबतें जनता को संघर्षों के लिए उठ खड़े होने के लिये बाध्य कर रही हैं। और केवल सर्वहारा क्रान्ति इस व्यवस्था के अन्तरविरोधों को हल कर सकती है और मानवता को इतिहास की इस बर्बर मंजिल से आगे जाने की इजाजत दे सकती है।
लेकिन हमने जो सीखा है, वह यह कि इसके लिए एक दीर्घकालिक और जटिल संघर्ष की, एक समूचे युग की, दरकार होगी जब इसका खात्मा कर दिया जायेगा। हमने यह सीखा है कि विश्व सर्वहारा क्रान्ति का मार्ग मार्क्स के आकलनों से कहीं ज्यादा लम्बा और टेढ़ा-मेढ़ा होगा। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि इतालवी नगर राज्यों से आरम्भ करके अपना शासन अन्तिम रूप से सुदृढ़ बनाने में बुर्जुआ वर्ग को चार शताब्दियां लग गयीं। दरअसल, वे शोषण की एक नयी व्यवस्था के लिए संघर्ष कर रहे थे।
सर्वहारा क्रान्ति पूर्व के सभी मानवीय उद्यमों से भिन्न है। इसलिए, यदि हमारी क्रान्ति को कठिनाइयों और पराजयों का सामना करना पड़ रहा है तो हमें दिल छोटा नहीं करना चाहिए।
हम यहां अगली सहस्राब्दी के उदय की पूर्ववेला में खड़े हैं। बुर्जुआ वर्ग हमारी दृष्टि को संकुचित करने की कोशिश कर रहा है। वे हमें यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, पूंजीवाद से आगे कोई भविष्य नहीं है। लेकिन, हमारे पास एक भिन्न दुनिया का सृजन करने का ऐतिहासिक अनुभव मौजूद है। और आज की दुनिया में कम्युनिज्म जीवित और भला-चंगा है।
भाइयो और बहनो! कम्युनिस्ट घोषणापत्र आज भी सही है, आज भी खतरनाक है और आज भी नाउम्मीदों की उम्मीद है।
(माओवादी राजनीतिक अर्थशास्त्री रेमण्ड लोट्टा द्वारा कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर न्यूयार्क सिटी में आयोजित समारोह में 1 मई 1998 को दिया गया भाषण।)
(‘रिवोल्यूशनरी वर्कर’ से साभार)
अनुवाद: अरविन्द सिंह
दायित्वबोध, जनवरी-मार्च 2000
Jan92000
Oct91999
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Sep301999
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जब कभी औरतें आपस में मिलती जुलती हैं और अपनी समस्याओं के बारे में बातचीत करती हैं तो घरेलू कामकाज और बच्चों की देखभाल हमेशा उनकी चर्चा का मुख्य विषय होता है। समाज में जिस ढंग से कामों का बंटवारा हुआ है उसमें घर के कामों को निपटाने और बच्चों की देखभाल करने की मुख्य जिम्मेदारी उन्हीं की होती है। ज्यादातर नौकरीपेशा औरतें इस बात को महसूस करती हैं कि उन्हें ‘दोहरी नौकरी’ का बोझ उठाना पड़ता है – पूरे दिन बाहर काम करना और घर लौटने के बाद फिर चूल्हा-चौखट और बच्चे सम्हालना।
समाज में इस तरह का श्रम विभाजन औरतों के दमन-उत्पीड़न का कारण बनता है। वे अलग-थलग पड़ कर घर के दायरे में सिमट जाती हैं जहां बच्चों की चिन्ता और घर के कामों का बोझ उन्हें शारीरिक रूप से थका डालता है और दिमाग को सुन्न बना देता है। यह क्रान्तिकारी संघर्षों में उनकी भागीदारी को असम्भवप्राय ही नहीं बनाता वरन् उन्हें अपने ढंग से जी लेने की गुंजाइश भी नहीं छोड़ता। जाहिर है जिसकी जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा बच्चों के पालन-पोषण और घर के काम काज में व्यतीत होता हो वह समाज के प्रति अपने देय को पूरा करने के लिए पूर्णतः स्वतंत्र नहीं हो सकता। जब तक श्रम विभाजन की इस दमनकारी व्यवस्था से छुटकारा नहीं पा लिया जायेगा औरतों की मुक्ति असम्भव है।
‘बच्चों की देखभाल कौन करे’ यह प्रश्न स्त्रियों और पुरुषों के बीच एक बड़ा मुद्दा बना रहता है। कुछ स्त्रियां चाहती हैं कि उनके पति घर के कामों और बच्चों की देखभाल में और अधिक से अधिक जिम्मेदारी उठायें। इस प्रकार एक अन्तहीन संघर्ष चलता रहता है। दुनिया भर की औरतें इस स्थिति से निपटने की राह ढूंढ़ रही हैं। गरीब स्त्रियां महसूस करती हैं कि न्यूनतम मजदूरी पर उन्हें कोई काम मिलता भी है तो बच्चों की देखभाल इस नौकरी की इजाजत उन्हें नहीं देती। और बहुत सी नौजवान औरतों को तो इसके लिए अपनी मां पर निर्भर रहना पड़ता है। मध्य वर्ग की औरतें अपने बच्चों की देखभाल के लिए ऐसी आयाओं की नियुक्ति करती हैं जो ज्यादातर आप्रवासी होती हैं और बहुत कम वेतन पर बिना किसी लाभ के काम करने को विवश होती हैं। और हम ज्यादा से ज्यादा यही सुनते आ रहे हैं कि कोई स्त्री, चाहे कितना ही जरूरी काम उसके पास क्यों न हो, ‘सबसे पहले वह एक मां होती है। यह परिस्थितियां वाकई पागल बना देने वाली होती हैं। स्त्री और पुरुष के बीच इस प्रकार का उत्पीड़नकारी श्रम विभाजन एक विश्व ऐतिहासिक समस्या है। पूंजीवादी समाज में पारिवारिक जीवन को नितान्त निजी बना दिया जाता है। करोड़ों की संख्या में औरतें अपने घरों में प्रतिदिन रात को वापस लौटती हैं जहां उन्हें वही चूल्हा-चौखट, कपड़ा बासन, झाड़ू-पोछा, हाट-बाजार और बच्चों को खिलाने-सुलाने के कामों से रोज-रोज जूझना पड़ता है। रोजमर्रा के यही घरेलू काम अपने-अपने घरों में अलग-अलग करने से उन करोड़ों औरतों की ऊर्जा और समय की व्यर्थ बरबादी होती है और जिसकी थकान उनके शरीर को तोड़ डालती है। जब कि ऐसे ही घरेलू काम और साथ-साथ बच्चों की परवरिश भी सामूहिक रूप में और समाजीकृत तरीके से हो सकती है। यह मानव संसाधन का भारी अपक्षय है और पूरी दुनिया के पैमाने पर सर्वहारा के लिए एक बड़ी समस्या है। क्योंकि जब तक ऐसे हालात रहेंगे मानव जाति का यह आधा हिस्सा सामाजिक विकास में कभी पूरी तरह से सहयोग नहीं कर सकता। इसलिए हम कहते हैं कि ‘‘क्रान्ति के एक प्रचण्ड शक्ति के रूप में औरतों के आक्रोश को उन्मुक्त करो।’’
ऐसी तमाम बातें हमें यह सोचने को बाध्य करती हैं कि इस समस्या का समाधान कहीं पूरे समाज को एक भिन्न तरीके से संगठित करने में तो नहीं है और क्या इसके लिए कोई राह निकाली जा सकती है? और रास्ता निकला था। क्रान्तिकारी चीन में माओ त्से-तुङ की अगुवाई में मेहनतकश जनता 1949 में सत्ता पर कब्जा करने के बाद एक नये समाजवादी समाज के निर्माण में पच्चीस वर्षों से अधिक समय तक लगी रही। माओ ने इस बात की अनिवार्यता को समझा कि क्रान्ति स्त्रियों को उनके रोजमर्रा के घरेलू कामों और बच्चों के परवरिश से मुक्त करे। अन्यथा इस मुक्ति के बिना सभी प्रकार के शोषण-उत्पीड़न से युक्त एक नये समाजवादी समाज के निर्माण में आधी आबादी बराबरी की हैसियत से और पूरी क्षमता के साथ लग कर काम कर सके, यह सम्भव ही नहीं है। और यही वह माओवादी दृष्टिकोण था जिसकी रोशनी में चीनी जनता ने बच्चों की समस्या का सच्चा समाधान पाया।
आज अमरीकी शासक लोगों से कहते हैं, ‘‘परम्परागत पारिवारिक मूल्यों की ओर लौट चलो।’’ लेकिन क्रान्तिकारी चीन में स्त्रियां उन तमाम ‘परम्परागत पारिवारिक मूल्यों’ के खिलाफ उठ खड़ी हुई थीं जिन्होने हजारों हजार साल से उन्हें दबाये रखा था। माओ के क्रान्तिकारी चीन ने बच्चों की समस्या का समाधान किस प्रकार किया था यह वृतान्त ऐसे तमाम लोगों के लिए जानना प्रासंगिक होगा जो मूलभूत और क्रान्तिकारी बदलाव के लिए संघर्षरत हैं। क्योंकि यह बताता है कि किस प्रकार जब जनता मौजूदा ढांचे को गिराकर वास्तविक अर्थों में राजनीतिक सत्ता पर कब्जा जमा लेती है, तो उन सभी समस्याओं का समाधान ढूंढ लेती है जो पूंजीवादी समाज में कभी सम्भव नहीं रहा। और यह दिखाता है कि किस तरह केवल माओवादी क्रान्ति ही औरतों को आजाद कर सकती है।
पुराने चीन में कनफ्यूशियस का प्राचीन दर्शन लोगों के जीवन को नियंत्रित करता था और स्त्रियों को उत्पीड़ित करने में परम्पराओं की महती भूमिका होती थी। औरतों को हर हालत में पुरुषों से कमतर समझा जाता था। उनके लिए एक ही तयशुदा काम था – अपने पतियों की सेवा करना और उनके लिए कई-कई बेटे पैदा करना।
शुरू से ही माओ ने स्त्रियों की मुक्ति को क्रान्ति का अविभाज्य अंग बनाया। 1949 के पूर्व जिन क्षेत्रों को लाल सेना ने मुक्त किया वहां स्त्रियों को दबाने वाली तमाम सामन्ती परम्पराओं के विरुद्ध जबर्दस्त संघर्ष चला। और शहरी एवं ग्रामीण इलाकों से औरतों की अच्छी-खासी आबादी क्रान्ति की कतारों में आकर शामिल हुई।
1949 के बाद ऐसे कानून बनाये गये जिसमें औरतों को जमीन पर बराबर का मालिकाना हक मिला और काम करने तथा शासन व्यवस्था चलाने में उनकी समान भागीदारी सुनिश्चित हुई। लेकिन पूरे चीनी समाज में एक पिछड़ी और स्त्री विरोधी सोच मौजूद थी। और समाजवाद के निर्माण के लिए स्त्रियों को पूरी तरह और बराबर की भागीदारी के लिए आगे लाने का काम आसानी से या एक झटके में नहीं हो गया।
कम्युनिस्ट पार्टी ने स्त्रियों के ‘घर से बाहर निकलने और स्त्री समुदाय के राजनीतिक-आर्थिक जीवन में हिस्सेदारी की जरूरत पर बल दिया। लेकिन इसका भारी प्रतिरोध हुआ – पुरुषों और साथ-साथ परिवार के दूसरे सदस्यों द्वारा भी। जैसे सासें चाहती थीं कि उनकी बहुएं घर सम्हालें और बच्चों की देखभाल करें। क्रान्ति के लिए यह एक आसन्न समस्या थी।
ग्रामीण इलाकों में, जहां चीनी समाज की बहुसंख्यक आबादी रहती थी, और शहरों में नारी सभाएं स्थापित की गईं। औरतों के ये संगठन उत्पीड़नकारी पारिवारिक सम्बन्धों को बरकरार रखने वाले पतियों, पिताओं और सासों के खिलाफ संघर्ष में स्त्रियों के मददगार होते थे। उदाहरण के लिए यदि कोई पति बच्चों की देखभाल से इंकार करता था या अपनी पत्नी को नौकरी ढूंढने अथवा राजनीतिक बैठकों में शामिल होने की इजाजत नहीं देता था तो संगठन का एक प्रतिनिधिमंडल जाकर उसके साथ उन तौर-तरीकों को बदलने के लिए संघर्ष चलाता था। यदि किसी स्त्री को किसी राजनीतिक बैठक में शामिल होने के लिए रात को बाहर निकलना पड़ता था तो बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी पति को दे दी जाती थी। औरत राजनीतिक बैठक में जाये और बच्चों की देखभाल पति करे ऐसी चीजें पुराने चीन में कभी सुनी नहीं गई थी। और जब पुरुषों ने बच्चों की देखभाल में और अधिक जिम्मेदारी उठानी शुरू कर दी तो सच्चे अर्थों में यह एक आगे बढ़ा हुआ कदम था। लेकिन इस समस्या का समाधान तब तक नहीं ढूंढा जा सका जब तक दायित्व का यह बंटवारा केवल पति-पत्नी के बीच बना रहा। हर परिवार का अलग-अलग और निजी मसला बना रहा। दरअसल होता यह था कि परम्परा के दबाव में बच्चों की देखभाल का ज्यादा से ज्यादा बोझ औरतों पर ही आ पड़ता था। इस समस्या का सही समाधान तभी सम्भव था जब बच्चों के देखभाल की समूची जिम्मेदारी समाज उठाये। प्रत्येक परिवार के वैयक्तिक स्तर पर जूझने की जगह जरूरत इस बात की थी कि बच्चों के पालन-पोषण और अन्य घरेलू कामों का समाजीकरण किया जाये।
और समाजीकरण की यह प्रक्रिया नये समाज के निर्माण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था जिसमें लोग सहकार के साथ और सामुदायिक रूप से रहते और काम करते थे।
बच्चों के पालन-पोषण की समस्या का सामूहिक ढंग से समाधान
पचासवें दशक के आरम्भ में बच्चों की देखभाल सम्बन्धी सुविधाओं का एक तानाबाना शहर के निकटवर्ती क्षेत्रों और देहाती इलाकों में स्थापित कर लिया गया। इसके अन्तर्गत शिशुओं के लिए पालनाघर खोले गये जहां मांएं काम के घंटों के बीच अपने बच्चों को दूध पिला सकती थीं और उनकी देखभाल कर सकती थीं। इसके अतिरिक्त सात वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए, जो अभी स्कूल नहीं जाते थे, शिशु-सदनों (नर्सरी) और बालविहारों (किन्डरगार्टेन) की स्थापना की गई। ये नर्सरी और बालविहार निकटस्थ संगठनों, विद्यालयों और कारखानों द्वारा अथवा देहाती इलाकों में किसानों की सहकारी समितियों के द्वारा चलाये जाते थे। बच्चों के पालन-पोषण में उपचारिकाओं और शिक्षिकाओं को प्रशिक्षित करने के लिए स्कूल खोले गये। बड़े शहरों में लोगों को बच्चों के सामूहिक देखभाल में प्रशिक्षित करने के लिए महिला संघ ने अल्पकालिक कक्षाओं की श्रृंखला की शुरुआत की।
ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों के देखभाल की सुविधा शुरू में तो बहुत व्यापक स्तर तक नहीं पहुंची थी और उनमें से कई तो प्रयोगों के दौर में तथा छोटे पैमाने पर उपलब्ध थीं। लेकिन 1958-59 में महान अग्रवर्ती छलांग के साथ ही इस स्थिति में एक भारी परिवर्तन आया। महान अग्रवर्ती छलांग एक वृहद जनान्दोलन था जिनका सूत्रपात माओ ने किया था। आर्थिक विकास के क्षेत्र में यह एक जबर्दस्त कदम था – खासकर ग्रामीण इलाके में जहां कृषि तथा छोटे स्थानीय उद्योगों के वास्तविक विकास के लिए किसानों को गोलबन्द किया गया इसने गुलाम बनाने वाली परम्पराओं और विचारों पर जबर्दस्त प्रहार किया।
राष्ट्रीय स्तर पर चलने वाले इस अभियान में स्त्रियों की मुक्ति एक केन्द्रीय मुद्दा था। गांवों में सामूहिक खेती के रूप विकसित किये गये और कम्यूनों की स्थापना की गई जहां दसियों हजार किसान साथ-साथ रहते और काम करते थे। इससे परिवार के एक इकाई के रूप में लोगों के जीवन की धुरी बने रहने पर जोर कम पड़ने लगा। जैसे-जैसे लोगों का आर्थिक जीवन अधिकाधिक समाजीकृत होता गया अन्य चीजों जैसे बच्चों के पालन पोषण के समाजीकरण का भी आधार तैयार होने लगा। समाज द्वारा बच्चों की यह सामूहिक देखभाल चीन में एकदम नई चीज थी।
शिशुसदन और बाल विहार खोले जा सकें, इसके लिए कम्युनिस्ट पार्टी को वास्तव में महिलाओं की आबादी पर निर्भर होना पड़ा। यदि वे ऐसा नहीं करते तो महिलाओं की जरूरतों और सरोकारों को ध्यान में रखे बिना ही शिशु केन्द्रों की स्थापना होती। और अपनी भागीदारी के बगैर निर्मित संस्था में वे अपने बच्चों को अपरिचितों के साथ छोड़ने में हिचकतीं। इससे भी ज्यादा जरूरी चीज यह थी कि इसके बिना उन पिछड़े विचारों और परम्पराओं के खिलाफ संघर्ष के लिए औरतों की आबादी को गोलबन्द नहीं किया जा सकता था क्योंकि यदि उन्हें ‘घर से बाहर निकालना था’ तो इसके लिए आवश्यक था कि ऐसे पिछड़े विचारों और परम्पराओं पर प्रहार किया जाये। किसी गांव या निकटवर्ती क्षेत्रों में (जिला, प्रांत) जांच-पड़ताल करने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के नेता वहां की महिलाओं को विचार-विमर्श के लिए तथा अपनी दिक्कतों और परेशानियों के बारे में विस्तार से और खुलकर बातचीत करने के लिए बुलाते थे। वे सबके साथ मिलबैठ कर तय करते थे कि बाल केन्द्रों की स्थापना किस ढंग से की जाये जिससे कि समूचे समुदाय के बच्चों की देखभाल हो सके। इसी क्रम में वे विभिन्न प्रकार के कार्यों का बंटवारा और उन कार्यों के लिए वेतन की अदायगी के सम्बन्ध में बातचीत कर लेते थे। बाल केन्द्रों की स्थापना के बाद उसमें काम करने वाले स्टाफ तथा बच्चों के माता-पिता की तमाम समस्याओं अथवा चिन्ताओं के निराकरण के लिए नियमित बैठकें हुआ करती थीं। एक बार किसी गांव में नये शिशु केन्द्रों के लिए स्टाफ जुटाने में उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ी। अधिकांश महिलाएं पुरुषों के साथ खेतों पर जाकर काम करना ज्यादा पसंद करती थीं। और दोनों ही बच्चों के देखभाल के काम को नीची नजर से देखा करते थे।
अवकाश प्राप्त बूढ़ी औरतों के लिए भी धमाचौकड़ी मचाते जिंदादिली से भरपूर बच्चों और किशोरों से भरे कमरे को सम्हाल पाना सम्भव नहीं होता था। अंततः इस गांव में समस्या का समाधान ढूंढ निकाला गया। वहां की युवा अविवाहित औरतों को शिशु पालन और सामूहिक रूप से बच्चों के देखभाल के लिए एक अल्पकालिक ट्रेनिंग कोर्स के लिए भेजा गया। प्रशिक्षित होकर लौटने के बाद छोटे-छोटे बालकेन्द्रों की जिम्मेदारी उनको सौंप दी गई जहां सहयोगी के रूप में अवकाश प्राप्त बूढ़ी औरतें उनके कामों में मददगार होती थीं। और वे बूढ़ी औरतें पुराने समाज में जनता के अमानवीय उत्पीड़न के किस्से बच्चों को सुनाती थीं, यह भी उनके कामों का एक हिस्सा था। इस तरह बच्चों के पालन-पोषण की समाजीकृत व्यवस्था जैसे-जैसे व्यापक रूप से स्थापित होती गयी करोड़ों की संख्या में औरतें भी समाजवाद के निर्माण में भाग लेने के लिए स्वतंत्र होने लगीं। 1952 तक आते-आते कारखानों में, खदानों में सरकारी संगठनों में, शिशु केन्द्रों तथा स्कूलों की संख्या में 1949 के मुकाबले 22 गुना तक की वृद्धि हुई। और उन्नीस सौ पचास के पूरे दशक में खासकर ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ के दौर में यह लगातार बढ़ता ही गया क्योंकि उस समय तक घरेलू श्रम के कई रूपों का जैसे रसोई, सिलाई और अनाज पीसने के कामों का समाजीकरण हो चुका था। अनुमान था कि 1959 तक देहाती इलाकों में लगभग 5 करोड़ शिशु केन्द्र और बालविहार, 3.5 करोड़ से अधिक सार्वजनिक भोजन कक्ष और अनगिनत आटे की मिलें तथा सिलाई केन्द्र स्थापित हो चुके थे। शहरों में सामूहिक सेवा सुविधाओं की व्यवस्था निकटवर्ती संगठनों द्वारा की जाती थी। और इसमें ‘नुक्कड़ शिशु केन्द्र’ (Street Nursing) और सामुदायिक भोजन कक्ष की सुविधायें भी थीं। इसमें से कुछ तो काफी बड़े थे और सैकड़ों परिवारों को खाना खिलाने की क्षमता रखते थे व कुछ छोटे और साधारण थे जहां कुछ दर्जन परिवार ही खाना खा सकते थे। नौकरीपेशा माता-पिता काम के बाद अपने बच्चों को इन सामुदायिक रसोई घरों में भोजन के लिए ले जाते अथवा उन्हें साथ लेकर अपने परिवार के साथ खाने के लिए घर पर जाते। कुछ शहरों ने ‘पहिए गाड़ी पर भोजन (meals on wheels) पहुंचाने की व्यवस्था ऐसे लोगों के लिए शुरू की जिन्हें अपनी बीमारी की वजह से अथवा बीमार बच्चों के देखभाल के लिए घर पर रुकना पड़ता था। कारखानों में काम करने वाली मजदूर औरतों के लिए स्थापित शिशु केन्द्रों में बच्चों के देखभाल की अलग-अलग व्यवस्थाएं की गईं। वहां आधे दिन की, पूरे दिन की, चौबीस घंटों तथा पूरे सप्ताह के लिए बच्चों के देखभाल की व्यवस्था थी। इन शिशु केन्द्रों में समय का निर्धारण कारखानों की समय-सारिणी के अनुरूप होता था और औरतों के कार्य स्थल से इनकी दूरी कम से कम रखी गई थी।
समाजवादी चीन में बच्चों के देखभाल के ऐसे केन्द्रों की स्थापना को समाज ने भारी प्राथमिकता दी। नतीजतन बाल केन्द्रों का तेजी से विस्तार हुआ। उदाहरण के लिए 1959 में राजधानी पीकिङ में लगभग 1,250 नुक्कड़ बाल विहार और शिशु केन्द्र थे जिनमें करीब 62,000 बच्चों की देखभाल होती थी। 1960 तक इन बाल विहारों और शिशु केन्द्रों की संख्या छलांग लगा कर 18,000 तक जा पहुंची, जहां 600,000 से भी अधिक बच्चों की देखभाल होने लगी।
सामूहिक देखभाल के व्यापक विस्तार के साथ ही पीकिङ में लोगों ने 12,000 सामुदायिक भोजन-कक्ष बनाये तथा 1200 से अधिक सफाई व मरम्मत की दुकानें और 3,700 सेवा केन्द्रों की स्थापना की जहां वे अपने कपड़ों को मरम्मत तथा धुलाई के लिए छोड़ सकते थे। इसके साथ ही छोटे-छोटे शिशु केन्द्र (नर्सरी) भी खोले गये जहां महिलाएं कुछ घंटों के लिए अपने बच्चों को छोड़कर खरीददारी करने, फिल्म देखने अथवा अंशकालिक कक्षाओं के लिए स्कूल जा सकती थी।
सांस्कृतिक क्रान्ति ने रुढ़ियों की जकड़बन्दी पर गहरा प्रहार किया
1966 में माओ ने महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। इसका लक्ष्य स्वयं कम्युनिस्ट पार्टी के ही अन्दर बैठे हुए उन नेताओं को बाहर निकाल फेंकना था जो पूंजीवाद की पुनर्स्थापना चाहते थे, समाज की दिशा क्या होगी? इस पर वाद-विवाद चलाने और संघर्षों में उतर पड़ने के लिए पूरे समाज के उतर पड़ने के लिए पूरे समाज के करोड़ों-करोड़ लोगों केा लामबन्द किया गया। यह तय होना था कि क्या वर्ग समाज के भेदभाव और गैरबराबरी को मिटा कर जनता समाजवाद के निर्माण में लगी रहेगी अथवा ‘एक दूसरे की हड्डी चिचोड़ने वाला’ और ‘मुनाफे को हर चीज के ऊपर रखने वाला’ पूंजीवाद फिर से बहाल हो जायेगा?
सर्वहारा क्रान्ति ने वर्ग समाज के सभी पिछड़े रुढ़ियों और रिवाजों पर जबर्दस्त प्रहार किया तथा औरतों के उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष इस ‘क्रान्ति के भीतर चल रही क्रान्ति’ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बना। जो लोग चीन में पूंजीवाद का समर्थन कर रहे थे वे क्रान्ति को बीच में ही रोक देना चाहते थे। वे परम्परावादी पारिवारिक ढांचे को तोड़ने के खिलाफ थे और पिछड़े नारी विरोधी विचारों को बढ़ावा दे रहे थे।
कम्युनिस्ट पार्टी में रहते हुए पूंजीवाद की राह पकड़ने वाले लिन पियाओ जैसे लोगों ने कुछ इस प्रकार की चीजों जैसे कन्फ्रयूशियस की उक्ति ‘अपने पर संयम रखो और (बुर्जुआ-अनु) अधिकारों को पुनर्स्थापित करो’ (Restrain one-self and restore the right) को प्रचारित किया जिसका तात्पर्य यह निकलता था कि प्रत्येक व्यक्ति को इस श्रेणीबद्ध समाज में अपनी ‘स्थिति’ को स्वीकार कर लेना चाहिए। उन्होंने इस विचार को बढ़ावा दिया कि औरतों को अपने परिवार और बच्चों के अलावा किसी चीज से मतलब नहीं रखना चाहिए। उन्होंने बच्चों की देखभाल करने वाले बाल-केन्द्रों की आलोचना की और कहा कि यहां बच्चों की उचित देखभाल नहीं होती तथा इसके पहले कि इनके पालन-पोषण का सामूहिकीरण हो उनके विचार से समाज का और अधिक आर्थिक विकास होना आवश्यक था।
पार्टी के इन नेताओं ने समाज के ऐसे लोगों को गोलबन्द किया और उनकी अगुवाई की जो पिछड़े और परम्परागत नारी विरोधी विचारों का समर्थन करते थे। वे घरेलू कामों और बच्चों के पालन पोषण के समाजीकरण के प्रयासों पर कुठाराघात करते थे। ये चीजें इस बात को और अधिक पुख्ता ढंग से रेखांकित करती हैं कि समूचे चीन में औरतों के इतने अधिक घरेलू कामों का सामूहिकीकरण कितनी महान उपलब्धि थी। घरेलू कार्यों और बच्चों की देखभाल के समाजीकरण का स्तर क्रान्ति के बाद के चीन में एक समान नहीं था, विशेषकर गांवों और शहरों के बीच। 1971 तक चीन में 90 प्रतिशत औरतें घर से बाहर निकलकर काम कर रही थीं लेकिन शिशु देखभाल के सामूहिकीकरण की गति इतनी तेज नहीं थी। शहरों में एक से तीन वर्ष के आयु के लगभग 50 प्रतिशत बच्चे ही शिशु केन्द्रों में जाते थे जब कि शेष 50 प्रतिशत घर पर ज्यादातर अपने दादी-दादा के देखरेख में रहते थे तथा ग्रामीण इलाके में सामूहिक देखरेख में रहने वाले बच्चों का प्रतिशत तो और भी कम था। लेकिन चीन में शिशु देखभाल का समाजीकरण वर्ग संघर्ष का एक अंग था और औरतों की मुक्ति के लिए यह एक बड़ा कदम था। बच्चों के सामूहिक देखभाल जैसी ‘नई समाजवादी चीजें’ स्थापित करने के लिए समाज में भीषण राजनीतिक व विचारधारात्मक संघर्ष चला। हजारों साल की रुढ़ियों को चुनौती मिली और परम्पराओं की ये बेड़ियां उस समय टूट गई जब औरतों ने घर से बाहर कदम निकाला और समूचे चीनी समाज में आमूल चूल परिवर्तन के संघर्षों का हिस्सा बनीं। माओ के नेतृत्व में करोड़ों की संख्या में लोग हर प्रकार के उत्पीड़न और गैरबराबरी के खात्मे के लिए सचेतन रूप से काम कर रहे थे। और इस संघर्ष ने समाजीकृत शिशु देखभाल जैसी समाजवादी जिन ‘नई चीजों’ को सृजित किया वह एक जबर्दस्त उपलब्धि व ऐतिहासिक प्रगति थी।
क्रान्तिकारियों की नई पीढ़ी तैयार करना
सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान चीन में ‘शिशु देखभाल केन्द्रों का उद्देश्य क्या था इस बात पर मतभेद था। कुछ लोगों का तर्क था कि सामूहिक देखभाल का मुख्य उद्देश्य बच्चों को महज भोजन, वस्त्र तथा एक सुरक्षित शरणस्थली देना था जबकि क्रान्तिकारियों का कहना था कि इन बाल केन्द्रों की महती जिम्मेदारी ‘‘क्रान्तिकारी उत्तराधिकारी’’ तैयार करना था। बच्चों को सिखाया गया ‘जनता की सेवा करो’। उन्हें आपसी सहकार और सामूहिक रूप से पढ़ने, खेलने तथा समस्याओं को सुलझाने की शिक्षा दी गई। और उन्हें शारीरिक श्रम के महत्व के बारे में समझाया गया। उन्हें बताया गया कि जिस अनाज को वे खाते हैं , जो कपड़े वे पहनते हैं और जीवन की सभी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करने वाले किसान और मजदूर ही हैं।
दायित्वबोध, जुलाई-सितम्बर 1999
Sep301999
Courtesy – Revolutionary Worker #956, May 10, 1998
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When women get together and discuss their problems, there’s always a lot of talk about housework and childcare. The ways things are divided up in society, women do most of the housework and have the main responsibility for taking care of children. And as many working women feel in their tired bones, this amounts to “TWO JOBS”–working all day, then coming home to kids and household chores.
This division of labor in society oppresses women. It keeps many women isolated in the home where housework and childcare numb the mind and exhaust the body. And it puts a lot of restrictions on what women can do with their lives and how much they can participate in the revolutionary struggle. A woman who has to spend a large part of her life raising and taking care of children isn’t free to fully contribute to society. And until this oppressive division of labor is gotten rid of, woman cannot be liberated.
The question of “who takes care of the kids” is a big issue between men and women. A lot of women end up waging an endless struggle with men to do more housework and childcare. And women all over the world are trying to figure a way out of this situation. Poor women find the cost of childcare doesn’t even make it worth taking a minimum wage job–if there’s one to be found. And many young women have to rely on their mothers to take care of their kids. Middle class women hire nannies who are frequently immigrants, forced to work for low pay and no benefits. And more and more, we hear that a woman, even if she has important work, must “be a mother first.” This whole situation is really crazy. And this oppressive division of labor between men and women is a world historic problem. In capitalist society family life is privatized. Millions of women, in millions of individual homes, go home every night and face the same repetitive jobs of shopping, cooking, cleaning, doing laundry, and putting children to bed. Millions of women are tired out as energy and hours are wasted doing tasks alone that could be organized in a collective, socialized way.
This is a major drain of human resources. And for the proletariat, this is a big problem all around the world. Because as long as this situation exists, half of humanity cannot contribute fully to the development of society. This is why we say, “Unleash the fury of women as a mighty force for revolution.”
All this should make us wonder: Isn’t there a way to organize all of society differently in order to deal with this problem? Yes, there is! In revolutionary China, Mao Tse tung led the people to form a Red Army, seize power in 1949, and go on to build a new socialist society for over 25 years. Mao understood that the revolution must free women from the daily tasks of housework and childcare. Otherwise half of society would be prevented from playing a full and equal role in building a new socialist society–free of all oppression. And it was with this Maoist point of view that the masses of people in China found a REAL solution to the problem of childcare.
Today, the U.S. rulers tell people “to get back to traditional family values.” But in revolutionary China, the women had to go up AGAINST all the “traditional family values” that had kept women down for thousands of years. This story of how Mao’s revolutionary China solved the problem of childcare is very relevant for all those who, today, are struggling to bring about radical and revolutionary change. For it shows how when the people get rid of the present system and seize real political power, they can solve problems that can never be solved under capitalism.
And it shows how only Maoist revolution can liberate women.
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In Old China, the ancient philosophy of Confucius governed people’s lives and tradition was a big part of how women were oppressed. Women were considered inferior to men in every way. And a woman’s only role was to serve her husband and give him many sons.
From the very beginning, Mao made the liberation of women an integral part of the revolution. In areas liberated by the Red Army before 1949 there was a lot of struggle against all the feudal traditions which kept women down. And many women from the countryside and the cities joined the ranks of the revolution.
After 1949 laws were passed giving women equal rights to own land, work and participate in the governing of society. But backward, anti-women thinking existed throughout Chinese society. And bringing women forward to play a full and equal role in building socialism didn’t happen easily, or all at once.
The Communist Party stressed the importance of women “getting out of the home” and participating in the economic and political life of the community. But there was a lot of resistance to this–from men as well as other family members, like mothers-in-law who expected their son’s wife to do all the housework and take care of the children. So this was a problem for the revolution right away.
In the countryside, where most of the Chinese people lived and in the cities women’s associations were established. And these organizations helped women struggle against husbands, fathers, and mothers-in-law who wanted to maintain oppressive family relationships. For instance, when a husband refused to take care of the children and wouldn’t allow his wife to get a job or go to a political meeting, the women’s association would organize a delegation to go over and struggle with him to change his ways. If a woman wanted to go out at night to attend a political meeting, the husband would be asked to watch the children. A woman going to a political meeting AND getting her husband to watch the children was unheard of in Old China. And when men took more responsibility for childcare this was a real advance. But the problem of childcare couldn’t be solved as long as it was just a question of sharing this task between husband and wife. Given the weight of tradition, women were bound to end up doing most of the childcare as long as it remained a private, family-by-family problem. The real solution was for childcare to be taken up by society as a whole. Taking care of children, along with other household duties, which each individual family faced, needed to be socialized.
And this process of socializing all the things women did in the home was an important part of building a new society in which people worked and lived in a cooperative and communal way.
In the early 1950s a network of childcare facilities in city neighborhoods and rural villages was established. These included “nursing rooms” for infants where mothers could feed and care for their babies during the work day. And it included nurseries and kindergartens for children under seven years old, who were not yet in school. These nurseries and kindergartens were run by neighborhood organizations, factories, schools, or peasant cooperatives in the countryside. Schools were set up to train childcare nurses and teachers. And in major cities, the Women’s Federation started a series of short-term classes to train people in collective childcare. In the rural areas childcare facilities were, at first, less widely distributed, and many of them were small and experimental. But with the Great Leap Forward in 1958-59, there was a big change in the situation. The Great Leap Forward was a huge mass movement launched by Mao. It was a big step forward in economic development–especially in the countryside where peasants were mobilized to really develop agriculture and small, local industry. It challenged enslaving tradition and thinking.
And the liberation of women was a central issue in this nationwide campaign. Collective forms of farming were developed in the countryside and communes were established where tens of thousands of peasants lived and worked in common. This put less emphasis on the family unit as the center of people’s lives. And as the economic life of people became more socialized, this laid the basis for other things, like childcare, to be socialized. The establishment of socialized child-care was a brand new thing in China. And the Communist Party had to really rely on the masses of women to start these nurseries and kindergartens. If they didn’t do this, the childcare centers would be set up without taking into account the women’s needs and concerns. The women would be reluctant to leave their children with strangers in an institution that had been created without their participation. And more importantly, the masses of women would not be mobilized to struggle against all the backward ideas and practices that had to be struck down if women were to “get out of the house.” After doing some investigation in a village or neighborhood, Communist Party leaders would call the women together to talk things over and air their problems and worries. Together they would figure out how to set up childcare centers to accommodate the whole community. They would divide up the different tasks to be done and how it would be paid for. And after the center was established, there were regular meetings to discuss problems or worries that the children’s parents or the staff might have. In one village they had a hard time finding people to staff the new nurseries. Most of the women preferred to go out with the men to farm the land. Both men and women tended to look down on the task of childcare.
And older retired women weren’t able to take care of a room full of lively youngsters or babies all by themselves. This village eventually solved this problem by sending young unmarried women to take short training courses in nursing and collective childcare. These women were then put in charge of small childcare centers, where they were assisted by older retired women. And the older women “spoke bitterness” as part of their job, telling the children stories about how the people were brutally oppressed in the old society. The widespread establishment of socialized childcare helped to free up millions of women so they could participate in building socialism. By 1952, the number of nurseries in factories, mines, government organizations and schools had expanded to 22 times what they had been in 1949. And throughout the 1950s this trend continued, especially during the Great Leap Forward, as many forms of household labor, like cooking, sewing and grain grinding, were also socialized. By 1959, it was estimated that in rural areas there were almost five million nurseries and kindergartens, more than 3.5 million public dining rooms and numerous flour mills and sewing centers. In the cities, collective service facilities were organized by neighborhood organizations. And this included “street nurseries” and community dining halls. Some of these were quite large, servicing hundreds of families. But others were more simple and small, serving only a few dozen families. Working mothers and fathers could pick their children up after work and either eat with them at a community kitchen or take them home for a family meal. Some cities set up “meals on wheels” delivery services for people who were sick or had to stay home to take care of sick children. Nurseries set up for women factory workers instituted different systems of childcare. There was half-day, whole-day, 24-hour and weekly care. The time schedules of these nurseries were fitted in with the factory schedules and they were located as closely as possible to where the women worked.
In socialist China, society put a big priority on the establishment of these childcare centers. And this was reflected in how fast these centers were expanded. For instance, in 1959, in the capital city of Peking, there were about 1,250 street kindergartens and nurseries taking care of about 62,000 children. By 1960, these figures had jumped to 18,000 nurseries and kindergartens taking care of more than 600,000 children!
Alongside this great expansion of collective childcare, people in Peking also set up 12,000 community dining rooms, more than 1,200 service repair shops, and 3,700 service centers, where people could drop off clothes to be mended and washed. Smaller nurseries were also set up where women could leave their children for a few hours to go shopping, see a film or go to part-time school.
In 1966 Mao launched the Great Proletarian Cultural Revolution, which was aimed at overthrowing those leaders right inside the Communist Party who wanted to bring back capitalism. Millions of people throughout society were mobilized to debate and struggle over which way society would go. Would the people keep building socialism and getting rid of all the in-equalities and difference of class society? Or would the nightmare of capitalism and its dog-eat-dog, profit-above-everything system be restored? The Cultural Revolution hit at all the backward traditions and practices of class society. And the struggle against women’s oppression was a big part of this “revolution within the revolution.” Those who promoted capitalism in China wanted to stop the revolution half-way. They were against breaking down the traditional family structure and they promoted backward, anti-women ideas. Top “capitalist roaders” inside the Communist Party like Lin Piao tried to popularize things like the Confucius saying, “restrain oneself and restore the rights”–the view that everyone should accept their “place” in a hierarchical society. They promoted the view that women should narrowly concern themselves with family and children. And they criticized childcare centers, saying the children were not well taken care of and that society had to be more economically developed before things like childcare could be collectivized.
These party leaders led and mobilized people in society who promoted backward and traditional anti-women ideas. And they sabotaged efforts to socialize housework and childcare. All this underscores even more what a great accomplishment it was that so much of women’s work in the home was collectivized throughout China. The socialization of housework and childcare in revolutionary China was uneven, especially between the cities and the countryside. By 1971, 90 percent of women in China were working outside the home but the collectivization of childcare lagged behind this. In the cities about 50 percent of children between the ages of one and three went to nurseries, while the other 50 percent were taken care of in the home, mostly by grandparents. And in the countryside, the percentage of children in collective child-care was even lower. But socializing childcare in China was a part of the class struggle and it was a big step in the liberation of women. It took tremendous ideological and political struggle in society to create “new socialist things” like collective childcare. And thousands of years of tradition’s chains were challenged and broken when women in China stepped out of the home and joined the struggle to revolutionize all of society. Under Mao’s leadership, millions of people were consciously working to eliminate all inequalities and forms of oppression. And the socialist “new things” this struggle created, like socialized childcare, were a tremendous accomplishment and historic advance.
Jul91999
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Dec301998
पचास वर्ष पहले लेनिन ने लिखा था:
मार्क्स ही वह प्रतिभाशाली व्यक्ति थे जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में मानवता का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन सबसे विकसित देशों के तीन प्रमुख विचारधारात्मक प्रवाहों – क्लासिकीय जर्मन दर्शन, क्लासिकीय अंग्रेजी राजनीतिक अर्थशास्त्र, फ्रांसीसी क्रान्तिकारी सिद्धान्तों से युक्त फ्रांसीसी समाजवाद – का सिलसिला आगे बढ़ाया और उसे पूर्णता तक पहुंचाया।
इस व्याख्यान में मैं आपको बताना चाहूंगा कि जिस समय लेनिन ने तीन विचारधारात्मक प्रवाहों का जिक्र किया उसके बाद उनमें एक चौथा अर्थात चीनी क्लासिकीय दर्शन भी आ जुड़ा है; और कि यह चौथा प्रवाह, जिसे आज चीन के मजदूर और किसान अमल में ला रहे हैं, माओ द्वारा विकसित मार्क्सवादी सिद्धान्त की कुछ स्पष्ट विशिष्टताओं का स्रोत है।
विचारधारात्मक वातावरण
ल्यू शाओ-ची ने 1945 में नये पार्टी संविधान के बारे में अपनी रिपोर्ट में लिखा:
‘‘मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और स्तालिन के एक शिष्य के रूप में कामरेड माओ त्से-तुङ ने यह किया है कि मार्क्सवाद के सिद्धान्तों को चीनी क्रान्ति के वास्तविक व्यवहार से जोड़ दिया है, और इस प्रकार, चीनी साम्यवाद – माओ त्से-तुङ विचारधारा – का अवदान दिया है, जिसने पूर्ण मुक्ति हासिल करने के लिए चीनी जनता का मार्गदर्शन किया है, और कर रहा है। यह सभी लोगों, और खास तौर से पूर्व के लोगों की मुक्ति के संघर्ष में एक महान योगदान करने वाला है।
‘‘माओ त्से-तुङ की विचारधारा, उनकी कार्यशैली के विश्व-दृष्टिकोण के हिसाब से, चीन में विकास और प्रवीणीकरण की प्रक्रिया में इस्तेमाल किया गया मार्क्सवाद है …। इसमें वर्तमान विश्व-परिस्थिति और चीन की विशिष्ट परिस्थितियों के बारे में उनका विश्लेषण समाहित है। यह नये जनवाद, किसानों की मुक्ति, क्रान्तिकारी संयुक्त मोर्चा, क्रान्तिकारी युद्ध, क्रान्तिकारी आधार, नये जनवाद के गणतंत्र की स्थापना, पार्टी-निर्माण, और संस्कृति के बारे में उनके सिद्धान्तों और उनकी नीतियों का समुच्चय है। ये सारे के सारे सिद्धान्त और ये सारी की सारी नीतियां एकदम मार्क्सवादी भी हैं और चीनी भी, तथा ये चीनी जनता की प्रतिभा की सर्वोच्च सैद्धान्तिक उपलब्धि भी हैं।’’
बात को दूसरे ढंग से रखते हुए, कहा जा सकता है कि मार्क्स और एंगेल्स जिस विचारधारात्मक वातावरण में पैदा हुए थे वह पूंजीवादी और प्रभावी तौर पर ईसाई वातावरण था। अपनी युवावस्था में वे महान बुर्जुआ दार्शनिक, हेगेल के शिष्य थे, जिनके रचना-कर्म के स्रोत यूरोपीय दार्शनिक परम्परा के संस्थापक, प्लेटो और अरस्तू से लेकर हेराक्लीतस और पाइथागोरस तक में देखे जा सकते हैं।
लेकिन माओ त्से-तुङ जिस वातावरण में पैदा हुए थे वह प्रभावी तौर पर सामन्ती और कनफ्यूशियाई था। अपनी युवावस्था में उन्होंने कनफ्यूशियस की रचनाओं एवं चीनी दर्शन के अन्य क्लासिकीय ग्रन्थों का अध्ययन किया, जिनका इतिहास उतना ही पुराना था जितना कि यूरोपीय दर्शन का, और कनफ्यूशियस तो पाइथागोरस का समकालीन ही था, लेकिन इन दोनों दर्शनों के इतिहासों में बहुत अन्तर था, और यह अन्तर यूरोपीय और चीनी समाजों के ऐतिहासिक विकास के अन्तरों की वजह से था। माओ त्से-तुङ जब बीस-एक वर्ष की आयु में ही थे, तभी उन्होंने चीनी भाषा में अनूदित होने वाली पहली मार्क्सवादी क्लासिकी रचना, कम्युनिस्ट घोषणापत्र पढ़ी, और उस समय तक वह चीनी क्लासिकी दर्शन में भी पारंगत हो चुके थे।
यूनानी दर्शन में भौतिकवाद और भाववाद
मार्क्सवाद में, माओ त्से-तुङ का, दार्शनिक दृष्टि से, सबसे उल्लेखनीय योगदान द्वंद्ववाद के बारे में उनके निरूपण में निहित है: और द्वंद्ववाद निश्चय ही मार्क्सवाद के सारतत्व से सम्बन्धित है, जो इसी नाते, एक तरफ, फ्रांसिसी बुर्जुआ दर्शन के यांत्रिक भौतिकवाद से, तथा दूसरी तरफ, हेगेल के द्वंद्वात्मक भाववाद से फर्क करने के लिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के रूप में भी जाना जाता है। इसीलिए मेरे लिए जरूरी हो जाता है कि मैं हेराक्लीतस से लेकर हेगेल तक के यूरोपीय दर्शन में द्वंद्ववाद के इतिहास के बारे में तथा साथ ही क्लासिकीय चीनी दर्शन में इसके द्वारा ग्रहण किये गये स्थान के बारे में भी कुछ कहूं।
शुरुआत के यूनानी दार्शनिकों की अवस्थिति को आदिम भौतिकवाद या आद्य भौतिकवाद कहा जा सकता है। यह परवर्ती कालों के भौतिकवाद से इस मायने में भिन्न है कि यह भाववाद का सचेत रूप से विरोधी नहीं है, जो कि अभी एक दार्शनिक सिद्धान्त के रूप में उद्भूत ही नहीं हुआ था, और जो अन्तर्निहित तौर पर द्वंद्वात्मक था। हेराक्लीतस के शब्दों में इसका समाहार इस प्रकार किया जा सकता है: ‘‘यह है और यह नहीं है।’’ सारी की सारी चीजें निरन्तर अपनी विरोधी चीजों में तब्दील होती रहती हैं, और इसीलिए प्रत्येक चीज के बारे में कहा जा सकता है कि ‘‘यह है और यह नहीं है।’’
प्राचीन यूनान में दास-समाज के सुदृढ़ीकरण के साथ ही, शासक वर्ग उत्पादन के श्रम से कट गया, और उसने एक ऐसा दृष्टिकोण विकसित किया जो प्रभावी तौर पर भाववादी और आधिभौतिक था: अर्थात इसमें पदार्थ के ऊपर चेतना की प्राथमिकता का दावा किया गया और परिवर्तन की वास्तविकता को नकार दिया गया। यह नयी प्रवृत्ति प्लेटो और अरस्तू में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची, जिनकी रचनाओं ने यूरोपीय चिन्तन के परवर्ती इतिहास पर एक दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ा। प्लेटो दार्शनिक भाववाद का जनक था, और अरस्तू औपचारिक तर्क का।
अरस्तू के अनुसार, एक चीज ‘‘या तो अ है, या अ नहीं है’’, अर्थात यह अ और अ नहीं दोनों नहीं हो सकती। यह हेराक्लीतस द्वारा सूत्रित सिद्धान्त, अर्थात ‘‘यह है और यह नहीं है’’, से प्रत्यक्ष इंकार था।
प्लेटो के विचार-सिद्धान्त और अरस्तूवादी तर्क ने ईसाई धर्मशास्त्र का दार्शनिक आधार निर्मित किया, जो हाल तक यूरोपीय चिन्तन पर हावी रहा। फिर, आधुनिक बुर्जुआ वर्ग के उदय के साथ, भौतिकवाद और भाववाद के बीच, द्वंद्ववाद और आधिभौतिकता के बीच, नये सिरे से मतभेद उठ खड़ा हुआ। इसका चरम विकास महान जर्मन दार्शनिकों, काण्ट और हेगेल की रचनाओं में हुआ, और जब सर्वहारा वर्ग का उदय हुआ, तब इसका समाधान नये द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त मार्क्सवाद के रूप में हुआ, जो भविष्य में साम्यवाद की दिशा का संकेत करता है।
इस प्रकार, मार्क्सवाद को, उस दृष्टिकोण की एक अपरिमित रूप से उन्नत धरातल पर पुनर्पुष्टि माना जा सकता है जिसे शुरुआती यूनानी दार्शनिक आदिम साम्यवाद की विरासत के रूप में प्राप्त किये हुए थे, जो परवर्ती दौर में, जैसा कि मार्क्स ने कहा है, वर्ग-समाज के ‘रहस्यावरण’ में धुंधला दिया गया था।
प्राचीन चीन में द्वंद्ववाद का अभिप्राय
जब हम चीन की ओर रुख करते हैं, तो वहां भी हमें, आरंभिक दार्शनिकों में एक ऐसा ही दृष्टिकोण देखने को मिलता है जिसे एक सशक्त द्वंद्वात्मक अभिप्राय वाला आदिम भौतिकवादी (दृष्टिकोण – अनु.) कहा जा सकता है, जिसका कारण भी वही था (जो यूनान में ऐसे आरम्भिक दृष्टिकोण का था – अनु.): अर्थात, जैसे यूनान में, वैसे ही चीन में भी, दर्शन की शुरुआत वर्ग-पूर्व समाज से विरासत में मिले विचारों के सूत्रीकरण के साथ हुई। लेकिन चीन में दर्शन का परवर्ती इतिहास भिन्न हो गया। वहां, दासता उतनी नहीं विकसित हुई जितनी कि यूनान में: इसीलिए (चीन में – अनु.) चिन्तन की आदिम पद्धतियों से विच्छेद कम मुकम्मल रहा।
यह सच है कि, कनफ्यूशियस के समय से लेकर बाद तक, भाववाद प्रचलन में रहा, परन्तु चीनी दार्शनिकों का दृष्टिकोण आधिभौतिक के बजाय आनुभविक ही बना रहा, और उन्होंने औपचारिक तर्क की एक प्रणाली कभी नहीं विकसित की। इसमें लाभ और हानि दोनों सम्मिलित थे। खास तौर पर, द्वंद्ववाद का अभिप्राय अक्ष्क्षुण बना रहा। इसके लिए, उदाहरण के तौर पर, चीन के सबसे बड़े क्लासिकीय रचनाकारों में से एक, ताओ ते चिङ का यह अवतरण दृष्टव्य है:
‘‘अस्तित्व अनस्तित्व को और अनस्तित्व अस्तित्व को जन्म देता है, कठिन आसान को और आसान कठिन को पूरा करता है, दीर्घ लघु को और लघु दीर्घ को प्रदर्शित करता है, ऊंच नीच को और नीच ऊंच को प्रकट करता है, पूर्ववर्ती परवर्ती का और परवर्ती पूर्ववर्ती का अनुसरण करता है।’’
इसमें मुझे अरस्तूवादी तर्क पर डॉ. जोसेफ नीडहैम की टिप्पणी भी जोड़ देने दें। उसका कहना है कि अरस्तूवादी तर्क ने
‘‘प्राकृतिक विज्ञानों को प्रकृति के उस महानतम तथ्य – परिवर्तन – को समझने का एक अपर्याप्त उपकरण ही प्रदान किया, जिसको इतने अच्छे ढंग से ताओवादियों ने निरूपित कर रखा था। एकता, अन्तरविरोध और बहिष्कृत मध्य के तथाकथित नियम, जिनके अनुसार य या तो अ होगा या अ नहीं होगा और या तो ब होगा या ब नहीं होगा, निरन्तर हास्यास्पद बनते रहे…। प्राकृतिक विज्ञान तो हमेशा यही कहने की स्थिति में रहे कि ‘यह है और यह नहीं भी है।’ इसीलिए आगे चलकर उत्तर-हेगेलियाई विश्व के द्वंद्वात्मक और विविध मान वाले तर्क अस्तित्व में आये। इसीलिए प्राचीन चीनी चिन्तकों के द्वंद्वात्मक या गत्यात्मक तर्क के संकेतों के प्रति असाधारण दिलचस्पी पैदा हुई…।’’ (साइन्स एण्ड सिविलाइजेशन इन चाइना, खण्ड II पृ. 201)।
माओ त्से-तुङ का उल्लेखनीय योगदान
यही वह पृष्ठभूमि है जिसके मद्देनजर हमें मार्क्सवादी दर्शन में माओ त्से-तुङ के योगदान का मूल्यांकन करना चाहिए, जो मुख्य रूप से अन्तरविरोधों के बारे में उनके निरूपण तथा सिद्धान्त और व्यवहार के बीच सम्बन्ध के बारे में उनके द्वंद्वात्मक सिद्धान्त में निहित है। हेगेल पर टिप्पणी करते हुए, लेनिन ने लिखा:
‘‘विरोधों की एकता…- मन और समाज समेत, प्रकृति की सभी परिघटनाओं एवं प्रक्रियाओं की अन्तरविरोधी, परस्पर बहिष्कृत करने वाली, विरोधी प्रवृत्तियों की स्वीकृति है, खोज है। विश्व की सभी प्रक्रियाओं की ‘स्वतःर्स्फूत गति’, उनके स्वतःस्फूर्त विकास, और उनकी यथार्थ प्राणवत्ता का ज्ञान उनकी विरोधों की एकता का ही ज्ञान है। विकास विरोधों का ही ‘संघर्ष’ है…।’’
दर्शन के ऐसे पश्चिमी छात्रों के लिए, जो मार्क्सवाद के ज्ञान के बगैर ही प्रशिक्षित हुए हैं, जैसा कि आज भी बहुतेरे ऐसे ही हैं, यह कथन लगभग अर्थहीन ही लगेगा; परन्तु इसको समझने में पुराने चीन के छात्रों को कोई कठिनाई नहीं हुई, कारण कि वे सभी के सभी प्राचीन चीनी क्लासिकी साहित्य के साथ पले-बढ़े थे।
क्लासिकी चीनी दर्शन के इस विषय को छोड़कर आगे बढ़ने से पहले, मैं कुछेक शब्द कनफ्यूशियसवाद पर भी कहना जरूरी समझता हूं, कारण कि यह हान राजवंश से लेकर वर्तमान सदी तक, या यों कह लें कि पूरे चीनी साम्राज्य-काल का एक स्थापित धर्म रहा है। कनफ्यूशियसवाद प्रकृति के साथ मनुष्य के आचरण तथा समाज के साथ व्यक्ति के आचरण से सम्बन्धित है: यह ईसाइयत के विपरीत, मानवतावादी और इहलौकिक है। पश्चिमी नीतिशास्त्र का व्यक्तिवाद – चाहे वह कैथोलिक रहस्यवाद का आत्म-विस्मृत कर देने वाला व्यक्तिवाद हो या काल्विनवाद का आत्म-प्रस्तुति करने वाला व्यक्तिवाद हो – कनफ्यूशियाई नीतिशास्त्र के लिए विजातीय ही रहा है। कनफ्यूशियसवाद अनिवार्यतः युद्ध-विरक्त होने के नाते भी ईसाइयत से भिन्न रहा है।
स्तालिन और माओ के प्रतिपादनों की तुलना
आइए अब हम द्वंद्ववाद के बारे में माओ त्से-तुङ के प्रतिपादन की तुलना स्तालिन के प्रतिपादन से करें। यह तुलना, कुल मिलाकर, बहुत शिक्षाप्रद है क्योंकि इन दोनों से सम्बन्धित दो शोध-प्रबन्धात्मक कृतियां – अन्तरविरोध के बारे में, और द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद – करीब-करीब एक ही समय में, 1937-38 के वर्षों में, प्रकाशित हुईं, और यह भी कि दोनों एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से लिखी गयी थीं।
स्तालिन द्वारा प्रतिपादित द्वंद्ववाद के चार सिद्धान्तों को इस प्रकार सारांशित किया जा सकता हैः 1. सभी चीजें एक दूसरे से अन्तर्सम्बन्धित हैं; 2. सारी चीजें सतत परिवर्तनशील हैं; 3. विकास मात्रत्मक परिवर्तनों से गुणात्मक परिवर्तनों में रूपान्तरण के जरिए होता है; 4. विकास विरोधों की एकता के जरिए, आन्तरिक अन्तरविरोधों की वृद्धि के जरिए होता है।
स्तालिन का चार सिद्धान्तों वाला सूत्रीकरण समग्र रूपेण इस प्रकार उद्द्धृत किया जा सकता है: ‘‘आन्तरिक अन्तरविरोध प्रकृति की सभी चीजों और परिघटनाओं में अन्तर्निहित हैं क्योंकि इन सभी में इनके नकारात्मक और सकारात्मक पक्ष होते हैं, एक अतीत होता है और एक भविष्य, कोई चीज खत्म हो रही होती है और कोई चीज विकसित हो रही होती है: और इन विरोधों के बीच का संघर्ष, पुराने और नये के बीच का संघर्ष, खत्म हो रही चीज और विकसित हो रही चीज के बीच का संघर्ष ही विकास-प्रक्रिया की आन्तरिक अन्तर्वस्तु, मात्रत्मक परिवर्तनों से गुणात्मक परिवर्तनों के रूप में रूपान्तरण की अन्तर्वस्तु निर्मित करता है।’’
माओ द्वारा अन्तरविरोधों का निरूपण अपेक्षाकृत अधिक सूक्ष्म और अधिक गहन है। इसे उन्हीं के शब्दों में इस प्रकार सारांशित किया जा सकता है:
‘‘अन्तरविरोध वस्तुगत तौर पर अस्तित्वमान सभी चीजों और व्यक्तिगत चिंतन की सभी प्रक्रियाओं में मौजूद होता है और शुरू से लेकर आखिर तक इन सभी प्रक्रियाओं में व्याप्त रहता है; यही अन्तरविरोध की सार्वभौमिकता और निरपेक्षता है। प्रत्येक अन्तरविरोध की और उसके प्रत्येक पहलू की अपनी-अपनी अभिलाक्षणिकताएं होती हैं; यही अन्तरविरोध की विशिष्टता और सापेक्षता है। दी गयी दशाओं में, विरोधों में एकता होती है, और इसी नाते वे एक ही अस्तित्व में साथ-साथ रह सकते हैं और अपनेआप को एक दूसरे में रूपान्तरित कर सकते हैं; यह भी अन्तरविरोध की विशिष्टता और सापेक्षता ही है। लेकिन विरोधों का संघर्ष अविराम होता है: यह तब भी चलता रहता है जब दोनों साथ-साथ रहते हैं और तब भी चलता है जब वे अपनेआप को एक दूसरे में रूपान्तरित कर रहे होते हैं: यह पुनः अन्तरविरोध की सार्वभौमिकता और निरपेक्षता है। अन्तरविरोध की विशिष्टता और सापेक्षता के अध्ययन में, हमें निश्चय ही प्रधान और गैर-प्रधान अन्तरविरोधों के बीच के फर्क पर तथा अन्तरविरोध के प्रधान पहलू और गैर प्रधान पहलू के बीच के फर्क पर ध्यान देना चाहिए; अन्तरविरोध की सार्वभौमिकता और अन्तरविरोध में विरोधों के संघर्ष के अध्ययन में, निश्चित तौर पर, हमें संघर्ष के विविध रूपों के बीच के फर्क पर ध्यान देना चाहिए।’’
इतने कसे हुए रूप में प्रस्तुत होने के कारण, इसका तर्क अमूर्त बन गया है और इसीलिए समझने में कठिन लगता है; लेकिन इसके विस्तारपूर्वक किये जाने वाले प्रतिपादन में, जिसके बारे में यह निष्कर्षात्मक सारांश भर ही है, इस तर्क का प्रत्येक चरण सरल और ठोस उदाहरणों द्वारा विवेचित किया गया है।
मैं माओ द्वारा संघर्ष के विविध रूपों पर दिये गये जोर की तरफ विशेष ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। यह शत्रुतापूर्ण और गैर-शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोधों के बीच के फर्क पर – एक ऐसे फर्क पर आधारित है जिस पर इस विषय से सम्बन्धित चर्चा स्तालिन की शोध-प्रबन्धात्मक कृति में नहीं की गयी है, हालांकि यह (फर्क-अनु.) लेनिन पहले ही कर चुके थे। माओ सिर्फ इतना ही नहीं करते कि इस फर्क पर ध्यान आकृष्ट करते हैं, बल्कि वह एकाधिक बार वह इस बात को भी इंगित करते हैं कि किसी चीज के विकास में, शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध यदि सही ढंग से संचालित किये जायें तो, गैर-शत्रुतापूर्ण बन सकते हैं, और इसके विपरीत, गैर-शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध यदि गलत ढंग से संचालित किये जाये तो, शत्रुतापूर्ण भी बन सकते हैं।
‘‘अन्तरविरोधों को सही ढंग से संचालित करने के बारे में’’
इस बात को उन्होंने आगे चलकर अपनी शोध-प्रबन्धात्मक कृति, जनता के बीच अन्तरविरोधों को सही ढंग से संचालित करने के बारे में में विकसित किया, जो 1957 में प्रकाशित हुई। मेरा विश्वास है कि यह मार्क्सवाद के प्रति उनके सबसे महत्वपूर्ण अवदानों में से एक है, जिस पर पश्चिम के मार्क्सवादियों द्वारा अब तक जितना ध्यान दिया गया है उससे कहीं अधिक निकटता के साथ ध्यान देने की जरूरत है।
इससे मैं समझता हूं कि एक तरफ, यह स्पष्ट हो जायेगा कि स्तालिन की गलतियां ज्यादातर शत्रुतापूर्ण और गैर-शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोधों को सही ढंग से न समझ पाने के कारण हुईं, और दूसरी तरफ, यह भी कि द्वंद्ववाद के इस पहलू का माओ त्से-तुङ द्वारा किया गया विकास अक्टूबर क्रान्ति और सोवियत संघ में समाजवादी निर्माण के ऐतिहासिक अनुभव के बगैर सम्भव ही नहीं हुआ होता: दूसरे शब्दों में, वह मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और स्तालिन द्वारा किये गये काम को ही और आगे बढ़ा रहे थे।
इसके साथ ही, मेरे विचार से, यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी कि मार्क्सवादी द्वंद्ववाद का यह विकास एक ऐसी प्राचीन दार्शनिक परम्परा वाले देश में हुआ जो यूरोपीय परम्परा से इस मायने में भिन्न थी कि इसने चिन्तन की द्वंद्वात्मक पद्धति को कभी नहीं छोड़ा। संक्षेप में, यह मार्क्सवादी सिद्धान्त के समृद्ध होने का उदाहरण है जिसके बारे में आशा की जा सकती है कि मार्क्सवाद की सार्वभौमिक सच्चाइयों को एक पिछड़े हुए देश की ठोस परिस्थितियों में सफलतापूर्वक लागू करके उसे और भी समृद्ध किया जा सकता है।
अब यह देखने के लिए कि कैसे मार्क्सवादी द्वंद्ववाद को चीन की राजनीतिक समस्याओं के समाधान हेतु लागू किया जा रहा है, आइए हम माओ त्से-तुङ द्वारा साम्राज्यवाद का कागजी शेर के रूप में किये गये बहुचर्चित चरित्र-चित्रण पर गौर करें।
लेनिन ने साम्राज्यवाद को ‘मिट्टी के पैर वाली एक विशालकाय मूर्ति’ के रूप में वर्णित किया था। एक विशालकाय भारी-भरकम मूर्ति पत्थर की बनी होने के कारण बहुत मजबूत होती है, परन्तु इस मूर्ति के पैर मिट्टी के हैं और इसीलिए यह धराशायी हो सकती है। यह मजबूत और कमजोर दोनों ही है। यही विरोधों की एकता है। विशालकाय मूर्ति की यह धारणा प्राचीन यूनानियों से ली गयी है। इसीलिए इसका सम्बन्ध भी यूरोपीय परम्परा से ही है।
परन्तु चीनी लोग एक दूसरी धारणा इस्तेमाल करते हैं, जो उनकी अपनी परम्परा से ली गयी है। वे कहते हैं कि साम्राज्यवाद एक ‘कागजी शेर’ है, लेकिन यह भी कि इसके साथ ही वह असली शेर भी है; यह शेर है और शेर नहीं भी है। इसी ढंग से माओ त्से-तुङ ने इस विषय को स्पष्ट किया है:
‘‘जिस तरह दुनिया में एक भी ऐसी चीज नहीं है जिसकी उभयधर्मी प्रकृति न हो (यही तो विरोधों की एकता का नियम है), ठीक उसी तरह साम्राज्यवाद और सारे के सारे प्रतिक्रियावादियों की भी उभयधर्मी प्रकृति है – वे एक ही साथ असली शेर भी हैं और कागजी शेर भी। विगत इतिहास में, दास-स्वामी वर्ग, सामन्ती भूस्वामी वर्ग और बुर्जुआ वर्ग, राज्यसत्ता पर विजय हासिल करने से पहले और उसके कुछ समय बाद तक, ओजस्वी, क्रान्तिकारी और प्रगतिशील रहे; तब वे असली शेर रहे। लेकिन समय गुजरने के साथ-साथ, जब उनके विरोधीकृदास वर्ग, किसान वर्ग और सर्वहारा वर्ग – कदम-ब-कदम ताकतवर होते गये, उनके विरुद्ध संघर्ष करने लगे और ज्यादा से ज्यादा दुर्जेय होते गये, तब वे सत्ताधारी वर्ग पिछड़े लोगों में तब्दील हो गये, कागजी शेर बन गये, और अन्ततोगत्वा जनता द्वारा उखाड़ फेंके गये या उखाड़ फेंके ही जायेंगे। इस तरह, वे पहले तो, असली शेर थे, जो जनता को खाते थे, लाखों-लाख जनता को खा जाते थे…-। तब फिर क्या ये जिन्दा शेर, लोहे के शेर, असली शेर नहीं थे? लेकिन अन्त में वे कागजी शेर, मुर्दा शेर, नुमाइशी शेर में तब्दील हो गये…। इसीलिए साम्राज्यवाद और सभी प्रतिक्रियावादियों के सारतत्व पर एक दीर्घकालिक दृष्टि से, एक रणनीतिक दृष्टि से, गौर करते हुए, यह जानना जरूरी है कि वे कागजी शेर हैं। इस आधार पर हमें अपनी रणनीतिक सोच बनानी चाहिए। लेकिन दूसरी तरफ यह भी है कि वे जिन्दा शेर, लोहे के शेर, असली शेर भी हैं जो लोगों को खा सकते हैं। और इस आधार पर हमें अपनी रणकौशलात्मक सोच बनानी चाहिए।’’
ज्ञान का सिद्धान्त
आइए अब हम ज्ञान के उस मार्क्सवादी सिद्धान्त पर चर्चा करें जिसका प्रतिपादन माओ ने किया है और देखें कि कैसे यह ‘जन-दिशा’ (‘मास लाइन’) सम्बन्धी चीनी सिद्धान्त और व्यवहार का आधार बनता है।
मानव-ज्ञान सामाजिक व्यवहार से अर्थात बाहरी दुनिया से, और खासतौर से, उत्पादक-श्रम से भौतिक सम्पर्क के जरिए पैदा होता है। अपनी आरम्भिक अवस्था में यह इन्द्रियबोधी ज्ञान होता है, यानी ऐसा ज्ञान होता है जो सीधे इन्द्रियों द्वारा ग्रहीत छापों या प्रभावों पर आधारित होता है; लेकिन मनन-चिन्तन और विचार-विमर्श के जरिए, तथा और व्यावहारिक कार्यकलापों के जरिए, यह एक उच्चतर धरातल पर, तर्कसंगत ज्ञान के धरातल पर विकसित हो जाता है और सिद्धान्तों को जन्म देता है। फिर इस तर्कसंगत ज्ञान को बाह्य दुनिया को बदलने के उद्देश्य से व्यवहार में लागू किया जाता है और ऐसा करने के दौरान यह ज्ञान अपनेआप में और गहरा और समृद्ध बनता जाता है।
बाह्य दुनिया में समाज और प्रकृति दोनों शामिल हैं, और मानवीय अभिकर्ता जो इसे बदलते और स्वयं इसके द्वारा बदले जाते हैं, कोई पृथक-पृथक व्यक्ति नहीं बल्कि एक समूह या समुदाय या सामाजिक वर्ग में साथ-साथ जीने और काम करने वाले व्यक्ति होते हैं; अतः उनके ज्ञान में सिर्फ उतनी ही बातें नहीं शामिल होती जिन्हें वे स्वयं अपने व्यवहार से अर्जित करते हैं; बल्कि वे बातें भी शामिल होती हैं जिन्हें उन्होंने बोल-चाल और लिखने-पढ़ने से विरासत में प्राप्त किया होता हैं। इस प्रकार यह समूची प्रक्रिया ज्ञान और व्यवहार के बीच एक चक्रीय अन्तःक्रिया है।
स्वयं माओ के ही शब्दों में:
‘‘सच्चाई को व्यवहार से खोजो, और फिर व्यवहार से ही उस सच्चाई को जांचो और विकसित करो, इन्द्रियबोधी ज्ञान से शुरुआत करो और सक्रिय रूप से उसे तर्कसंगत ज्ञान में विकसित करो, तब फिर तर्कसंगत ज्ञान से शुरुआत करो तथा मनोगत और वस्तुगत दुनिया को बदलने के लिए सक्रिय रूप से क्रान्तिकारी व्यवहार का मार्गदर्शन करो। व्यवहार, ज्ञान, फिर व्यवहार और फिर ज्ञान। इस ढंग से यह क्रिया-विधान अन्तहीन चक्रों में दुहराया जाता रहता है, तथा प्रत्येक चक्र के साथ व्यवहार और ज्ञान की अन्तर्वस्तु एक उच्चतर धरातल पर उठती जाती है। यही है ज्ञान का समूचा द्वंद्वात्मक भौतिकवादी सिद्धान्त, और यही है ज्ञान और कर्म की एकता का द्वंद्वात्मक भौतिकवादी सिद्धान्त।’’
व्यावहारिक इस्तेमाल
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने जन-दिशा (मास लाइन) के सिद्धान्त के अनुसार जनसमुदायों को सही नेतृत्व प्रदान करने के उद्देश्य से अपनी व्यावहारिक कार्यवाही में ज्ञान के इस सिद्धान्त को व्यवस्थित ढंग से इस्तेमाल किया है।
फिर माओ को उद्धृत करें:
‘‘हमारी पार्टी की समूची व्यावहारिक कार्यवाही में, सही नेतृत्व सिर्फ ‘जनसमुदायों से, जनसमुदायों को’ के सिद्धान्त पर ही विकसित किया जा सकता है। इसका मतलब है जनसमुदायों के दृष्टिकोणों (अर्थात बिखरे और अव्यवस्थित दृष्टिकोणों) का समाहार (अर्थात सतर्क अध्ययन के पश्चात संयोजन और व्यवस्थापन) करना, फिर निष्कर्षित विचारों को लेकर जनसमुदायों तक पहुंचाना, उन्हें तब तक स्पष्ट और प्रचारित करते रहना जब तक कि जनसमुदाय स्वयं उन्हें अपने विचार समझ कर अपने दिलों में न रचा-बसा लें, फिर उनको लेकर उठ खड़े होना और उनके सहीपन की जांच करते हुए पुनः उन्हें कार्रवाई में उतार देना। तब एक बार फिर जनसमुदायों के दृष्टिकोणों का समाहार करना जरूरी हो जाता है ताकि जनसमुदाय तहे-दिल से अपना समर्थन दे सकें…। यही क्रम बार-बार दुहराना होगा, ताकि हर बार ये विचार और अधिक सहीपन के साथ निखरते जायें तथा अधिकाधिक जीवन्त और सार्थक बनते जायें। ज्ञान का मार्क्सवादी सिद्धान्त हमें यही शिक्षा देता है।’’
साथ ही, पार्टी जन-दिशा (मास लाइन) को प्रभावी ढंग से लागू कर सके, इसके लिए जरूरी है कि उन अन्तरविरोधों पर भी ध्यान दिया जाये जो स्वयं पार्टी के भीतर मौजूद हैं, जनता के समुदायों के भीतर मौजूद हैं, तथा जनता और पहले के शासक वर्गों, जैसे भूस्वामियों एवं पूंजीपतियों के अवशेषों के बीच मौजूद हैं।
अन्तरविरोधों को हल करना
पार्टी के भीतर नेतृत्व और कतारों के बीच एक अन्तरविरोध होता है। इसे जनवादी केन्द्रीयता के सिद्धान्त पर हल किया जाता है, जो कि उसी किस्म की एक चक्रीय अन्तःक्रिया है जो पार्टी और जनसमुदायों के बीच चलती रहती है, सिवाय इस अपवाद के कि पार्टी के भीतर यह एक उच्चतर धरातल पर चलती है।
एक और भी अन्तरविरोध है जो नेतृत्व और कतारों दोनों ही के भीतर, अधिक विकसित सदस्यों और कम विकसित सदस्यों के बीच होता है। इसे आलोचना और आत्मालोचना के सिद्धान्त पर हल किया जाता है।
लेनिन ने इस बात पर जोर दिया था कि अपनी कतारों के भीतर उनकी गलतियों को चिन्हित करने और उनसे जरूरी सबक निकालने की दृष्टि से आलोचना की कार्यवाही चलाये बगैर यह सम्भव ही नहीं है कि पार्टी जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर सके। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में आलोचना और आत्मालोचना का व्यवस्थित व्यवहार अन्य कहीं की अपेक्षा एक उच्चतर धरातल पर विकसित हो चुका है। और निश्चय ही यह पार्टी की कतारों से बाहर भी फैल चुका है, जिसे मजदूर समुदायों, किसानों, सैनिकों और बुद्धिजीवियों तक ने भी अपना लिया है, जो इसे एक आदत की भांति अपनी रोजमर्रा की गतिविधियों में इतना अधिक इस्तेमाल कर रहे हैं कि पश्चिम से आने वाले पर्यटक देखकर अक्सर दंग रह जाते हैं।
इस मामले में भी, चीनी मार्क्सवादी समुदाय की सेवा के लिए व्यक्ति के आत्म-परिष्कार की प्राचीन कन्फ्युशियाई परम्परा का लाभ उठाते रहे हैं।
जनसमुदायों में एक अन्तरविरोध औद्योगिक मजदूरों और किसानों के बीच है, जिसे अब कृषि के यंत्रीकरण और जनता के कम्यूनों के विकास के जरिए हल किया जा रहा है। औद्योगिक सर्वहारा वर्ग और किसान समुदाय के बीच एक संश्रय कायम किये बगैर क्रान्ति सम्भव ही नहीं हुई होती।
संश्रयों के भीतर अन्तरविरोध
मैं औद्योगिक सर्वहारा वर्ग और किसान समुदाय के बीच अन्तरविरोध की चर्चा करते हुए, औद्योगिक सर्वहारा वर्ग और किसान समुदाय के बीच संश्रय में मौजूद अन्तरविरोध की भी चर्चा करना चाहूंगा। संश्रय की प्रकृति में भी अन्तरविरोध निहित है। मजदूर और किसान अपने मुश्तरका दुश्मन से लड़ने और इस प्रकार प्रधान अन्तरविरोध को हल करने के लिए आपस में संश्रय कायम करते हैं, लेकिन इसी में उनके बीच एक गैर-प्रधान अन्तरविरोध भी मौजूद होता है, जिसे विचारधारात्मक संघर्ष के जरिए हल किया जाता है, जिसकी बदौलत अधिक पिछड़ा वर्ग अधिक विकसित वर्ग के धरातल पर उठ जाता है।
सर्वहारा वर्ग और किसान समुदाय के बीच संश्रय का यह मसला सामाजिक क्रान्ति में एक निर्णायक कारक है। अक्सर यह सवाल पूछा जाता है कि कैसे समाजवादी क्रान्ति एक ऐसे देश में (यानी रूस में -अनु.) सफल हो गयी जहां औद्योगिक सर्वहारा वर्ग आबादी की उतनी ही छोटी अल्पसंख्या में था जितनी कि वह मुक्ति से पूर्व चीन में था?
इसके जवाब में दो महत्वपूर्ण बातों पर विचार करना आवश्यक है: पहली बात वस्तुगत परिस्थिति में मौजूद अन्तरविरोधों और उनके द्वारा पैदा की जाने वाली क्रान्ति की सम्भावना से सम्बन्धित है, और दूसरी बात सर्वहारा वर्ग द्वारा प्रदान किये जाने वाले नेतृत्व की प्रकृति से सम्बन्धित है – दूसरे शब्दों में, सवाल सर्वहारा वर्ग के संख्या बल का नहीं बल्कि राजनीतिक-बल का है। इसका नेतृत्व इस बात पर निर्भर करता है कि यह वस्तुगत अन्तरविरोधों, यानी जनता और दुश्मन के बीच के अन्तरविरोधों और जनता के भीतर मौजूद अन्तरविरोधों – इन दोनों को ही सही ढंग से इस्तेमाल कर पाने में कितना और कैसे समर्थ होता है।
जब मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखा तो उनका विश्वास था कि जर्मनी एक बुर्जुआ क्रान्ति के कगार पर था, जिसके तुरन्त बाद ही एक सर्वहारा क्रान्ति होती। लेकिन घटनाक्रम ने अलग ही मोड़ लिया, फिर भी, यह गौरतलब है कि, उनके विचार से पहली सर्वहारा क्रान्ति इंग्लैण्ड में नहीं ही होने वाली थी, भले ही वह सबसे विकसित और सबसे अधिक संख्या में सर्वहारा वर्ग रखने वाला देश क्यों न था, बल्कि उनके विचार से, यह पहली सर्वहारा क्रान्ति जर्मनी में ही होने वाली थी, जो कि अभी भी एक सामन्ती देश था, जहां किसान समुदाय और सामन्ती कुलीन तंत्र के बीच के पुराने अन्तरविरोध सामन्ती कुलीन तंत्र और बुजुर्आ वर्ग के बीच एवं बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच के बढ़ते अन्तरविरोध के साथ-साथ मौजूद थे।
एक बुर्जुआ क्रान्ति और उसके तत्काल बाद एक सर्वहारा क्रान्ति अन्ततः हुई जरूर – परन्तु जर्मनी में नहीं, न ही अन्य किसी भी विकसित पूंजीवादी देश में बल्कि पिछड़े हुए देश रूस में हुई, जहां संख्या में छोटा लेकिन राजनीतिक रूप से विकसित सर्वहारा वर्ग लेनिन के नेतृत्व में किसान समुदाय के साथ संश्रय कायम करने में, जारशाही कुलीन तंत्र को उखाड़ फेंकने में, और बुर्जुआ क्रान्ति को सर्वहारा क्रान्ति में तब्दील कर देने में समर्थ हुआ।
एकता को संघर्ष के साथ जोड़ना
जैसा कि माओ त्से-तुङ ने कहा है, यह अक्टूबर क्रान्ति की लहर ही थी जिसने मार्क्सवाद को चीन में प्रवाहित किया। उस वक्त चीन जारशाही रूस से भी कहीं अधिक पिछड़ा हुआ था – जो सिर्फ सामन्ती ही नहीं, बल्कि अर्द्ध-औपनिवेशिक भी था। इसमें सर्वहारा वर्ग भी संख्या की दृष्टि से नगण्य ही था; लेकिन इसे एक ऐसी पार्टी का नेतृत्व मिला जो सिर्फ मार्क्सवाद से ही नहीं, बल्कि मार्क्सवाद के व्यावहारिक प्रयोग में अक्टूबर क्रान्ति द्वारा प्रदान किये गये अनुभव से भी लैस थी।
इस ढंग से, सारे अन्तरविरोधों का पूरा-पूरा फायदा उठाते हुए, पार्टी अपने इर्द-गिर्द आबादी के विशाल बहुसंख्यक किसान समुदाय को, पूंजीपति वर्ग के एक काफी बड़े हिस्से को, और राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग को भूस्वामियों एवं विदेशी साम्राज्यवादियों के खिलाफ लामबन्द कर लेने, मुख्य दुश्मन को अलगाव में डाल देने, और जनता के बीच के अन्तरविरोधों का कुशल संचालन करते हुए एकता को संघर्ष के साथ जोड़ने में समर्थ हो गयी।
इस प्रकार, जैसे-जैसे समाजवादी क्रान्ति दुनिया में फैलती जा रही है, वैसे-वैसे जो देश अभी भी साम्राज्यवाद द्वारा शोषित हैं – उन देशों के सर्वहारा वर्ग के छोटे आकार की भरपायी वर्ग-अन्तरविरोधों की बढ़ती प्रचण्डता और जमा होते क्रान्तिकारी अनुभव से होती जा रही है। इन्हीं सब बातों को मिलाकर ‘माओ त्से-तुङ विचारधारा’ निर्मित हुई है जो अभी तक मुक्ति-संघर्ष में लगे हुए अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के लोगों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण बनी हुई है।
सशस्त्र संघर्ष का सिद्धान्त
ये सारी की सारी उपलब्धियों गतिरोधी धक्कों और गलतियों के बगैर ही नहीं हासिल हुई हैं। 1949 की राष्ट्रव्यापी विजय पूर्ववर्ती वर्षों के सशस्त्र संघर्ष और मुक्त क्षेत्रों को प्रशासित करने के अनुभव के बगैर सम्भव नहीं हो सकती थी। यह पार्टी नेतृत्व के ही अन्तर्गत हुआ कि जन-मुक्ति सेना ने अपना स्वरूप ग्रहण किया और सशस्त्र संघर्ष का एक नया सिद्धान्त विकसित किया, जिसे निरन्तर आजमाया गया, जांचा-परखा गया तथा संघर्ष की बढ़ती कार्यवाहियों में विजयों और पराजयों से गुजरते हुए विकसित किया गया। यह जन-मुक्ति सेना एक ऐसी ताकत थी जो पहले मुक्त क्षेत्रों में और फिर पूरे देश में, शान्तिपूर्ण निर्माण के कामों के लिए भी अनुकूलित थी, जो सिर्फ उत्पादक श्रम में ही नहीं बल्कि अपनी मिसालें कायम करती हुईं समूची जनता के विचारधारात्मक और नैतिक स्तर को उन्नत करने में भी सक्रिय थी।
और फिर, अनुभव की कमी और अति विश्वास के चलते जनता के कम्यूनों के निर्माण में गलतियां भी हुईं, जिनमें वस्तुगत कठिनाइयां भी कारण थीं, लेकिन जन-दिशा (मास लाइन) के इस्तेमाल से इन गलतियों को चिन्हित और ठीक कर लिया गया। ये जन कम्यून ही थे जो 1956-61 के दुर्दिन भरे वर्षों में, अर्थव्यवस्था को बिना किसी जान-माल की क्षति के, खड़े रहने में समर्थ बना सके; लेकिन इसी के साथ उन वर्षों की कठिनाइयों ने कम्यूनों की कमजोरियों को भी उजागर कर दिया, जिसके नाते यह आवश्यक हो गया कि उन्हें दूर किया जाये। इस ढंग से खराब चीज अच्छी चीज में तब्दील कर ली गयी।
विचारधारात्मक संघर्ष को जारी रखना
लेकिन, निश्चय ही इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि चीन में वर्ग-संघर्ष खत्म हो गया है। बेशक अर्थव्यवस्था को एक समाजवादी आधार पर पुनर्गठित कर लिया गया है, फिर भी बुर्जुआ और निम्न-बुर्जुआ और यहां तक कि सामन्ती विचार भी अभी जीवित हैं, और इसीलिए आवश्यक है कि यह संघर्ष विचारधारात्मक और आर्थिक दोनों ही स्तरों पर जारी रहे। समाजवादी व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण और साम्यवाद में संक्रमण एक लम्बी ऐतिहासिक प्रक्रिया है, जो विचारधारात्मक संघर्ष में कोई भी ढील दिये जाने पर अवरुद्ध हो सकती है, या यहां तक कि उलट भी सकती है। यह बात भी माओ त्से-तुङ के अन्तरविरोध के सिद्धान्त के अनुरूप ही है।
आम तौर पर, जैसा कि वह स्पष्ट करते हैं, समाज को गति देने में, विचारधारात्मक अधिरचना के विपरीत, आर्थिक मूलाधार ही अन्तरविरोध का प्रधान पहलू होता है, जबकि विचारधारात्मक अधिरचना उसका गैर-प्रधान पहलू; परन्तु कुछ निश्चित दशाओं में अन्तरविरोध का यह गैर-प्रधान पहलू ठीक वैसे ही उसके प्रधान पहलू में तब्दील हो सकता है, जैसे एक गैर-शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध, गलत ढंग से संचालित होने पर, शत्रुतापूर्ण बन सकता है।
पुराने विचार अपनेआप ही नहीं खत्म होते: इसके विपरीत, वे बरकरार रहते हैं, और अगर उनसे लड़ा न जाये तो वे पुनः आर्थिक मूलाधार को प्रभावित करने के बिन्दु तक भी प्रभावी बन सकते हैं, और इस तरह पुराने वर्ग-विभाजनों को फिर से प्रकट भी कर सकते हैं।
इस मामले में, युवाओं की देख-रेख पर खास तौर पर ध्यान दिया जा रहा है। एक तरफ, युवा लोगों को अपने मां-बाप से अधिक अनुकूल स्थिति तो प्राप्त हुई है कि उनकी परवरिश और शिक्षा-दीक्षा एक समाजवादी वातावरण में हो रही है। लेकिन, दूसरी तरफ, इसी के नाते यह भी है कि उनके पास वर्ग-उत्पीड़न या तकलीफ झेलने का वैसा कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है जैसा उनके बाप-दादाओं को समाजवाद के लिए संघर्ष करते हुए झेलना पड़ा था।
स्कूलों में विशेष उपाय यह सुनिश्चित करने के लिए किये जा रहे हैं कि वे उस संघर्ष से पूरी तरह वाकिफ होते हुए पलें-बढ़ें जो उनको सुलभ हुए इन अवसरों को पैदा करने के लिए करना पड़ा था। फैक्टरियों में, ऐसे उम्रदराज मजदूरों को, जिन्होंने ऐसे संघर्षों में भाग लिया था, विशेष ओहदे दिये जाते हैं – मसलन फैक्टरी लाइब्रेरी का काम – और अपने अनुभवों को दूसरों तक पहुंचाने के लिए उन्हें विशेष अवसर भी सुलभ कराये जाते हैं। जनता के कम्यूनों में, जब नये घर बनते हैं तो एक या दो पुरानी मड़इयों को जस का तस रहने दिया जाता है, ताकि बड़े-बूढ़े लोग उनकी ओर देखकर यह कह सकें कि ‘‘यही वह जगह है जहां हम मुक्ति से पहले रहा करते थे।’’ इन सबका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि क्रान्तिकारी भावना नवोदित पीढ़ी में रिसती रहे।
विचारधारात्मक संघर्ष बहस-मुबाहसों के रूप में चलाया जाता है – कामगार समूह के सदस्यों के बीच बहस, फैक्टरी अखबार में बहस, स्थानीय प्रेस में बहस, और राष्ट्रीय प्रेस में बहस। हर जगह बहसें चलती रहती हैं, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय दोनों ही मुद्दों पर और सिर्फ चालू मुद्दों पर ही नहीं, बल्कि वैसे सैद्धान्तिक सवालों पर भी, जिनकी चर्चा मैं इस व्याख्यान में करता आ रहा हूं। अब आगे मैं इन्हीं सैद्धान्तिक बहसों की चर्चा करूंगा, जो खासतौर से मार्क्सवाद के अध्ययन से सम्बन्धित है।
‘‘सिद्धान्त जनसमुदायों को ओतप्रोत कर देता है’’
मार्क्स ने कहा था कि जब सिद्धान्त जनसमुदायों को ओतप्रोत कर देता है तो वह एक भौतिक शक्ति बन जाता है। आज पूरे चीन में यही हो रहा है।
इसके साथ-साथ इतना और कहा जा सकता है कि जब सिद्धान्त मजदूर वर्ग के समुदायों को ओतप्रोत कर देता है, तब बुद्धिजीवी फिर से व्यवहार के साथ जुड़ने लगते हैं, और इस प्रकार शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के बीच का विभाजन, जो कि वर्ग-समाज की अभिलाक्षणिक विशिष्टता है, गायब होने लगता है।
दस वर्ष पहले मैंने चीनी भाषा का अध्ययन करने के सिलसिले में छः माह पीकिङ युनिवर्सिटी में गुजारे। मेरे कमरे की देखभाल एक मजदूर किया करता था जो करीब तीस वर्ष का था, जिससे मैं खूब अच्छी तरह परिचित हो गया था कारण कि हम दोनों रोजाना कई-कई बार मिलते रहते थे। वह सायंकालीन कक्षाएं करता था, जिनमें वह पढ़ना और लिखना सीखता था, और हम दोनों लिपि पर पूरा अधिकार कर लेने के अपने संघर्ष में एक दूसरे की मदद भी किया करते थे।
जहां तक मार्क्सवाद की बात है, तो वह यही कहा करता था कि वह मार्क्सवाद में यकीन करता है – भला वह ऐसा क्यों नहीं कहता, वह देख रहा था कि पार्टी इसमें यकीन करती थी, और पार्टी ने ही उसके लिए इतना सब कुछ किया भी था, फिर वह अपने आंखों में आंसू भरकर, पुराने चीन में अपनी जिन्दगी का बयान करता और उन परिवर्तनों की चर्चा करता जो मुक्ति के बाद हो चुके थे, इन सबका श्रेय वह पार्टी को ही देता, लेकिन जहां तक मार्क्सवाद की बात थी, तो वह इसे समझने की आशा नहीं कर सकता था, कारण कि उसने अभी-अभी तो पढ़ना सीखने की शुरुआत की थी। पिछली सितम्बर में मैंने फिर पीकिङ यूनिवर्सिटी का दौरा किया और उससे मुलाकात की। अब वह मार्क्सवाद का अध्ययन कर रहा था।
वर्ग-चेतना और शैक्षिक स्तर
बुद्धिजीवियों की तुलना में वहां के मजदूरों और किसानों की वर्ग-चेतना ऊंची है, परन्तु उनका शैक्षिक स्तर नीचा है। इसके कारण लम्बे समय तक उनके लिए मार्क्सवादी सिद्धान्त का अध्ययन करना कठिन बना रहा, लेकिन अब यह कठिनाई दूर होती जा रही है।
1958 में जहाज के कारखाने में काम करने वाले कुछ मजदूरों ने स्वयं अपनी पहलकदमी पर शंघाई में दर्शन पर एक कक्षा का आयोजन किया, और यह बहुत ही सफल रहा। इसकी रिपोर्ट प्रेस में प्रकाशित हुई, और उनके इस उदाहरण का अनुसरण पूरे देश के मजदूरों और किसानों के समूहों ने किया। वैसे इस अभियान को 1959-61 के वर्षों में एक गतिरोधी धक्का भी लगा, परन्तु उसके बाद इसने अपनी रफ्तार फिर पकड़ ली और अब तो यह पहले हमेशा से कहीं अधिक वेगवान और व्यापक बन चुका है।
पिछले वर्ष के आरम्भ में, पार्टी की केन्द्रीय कमेटी के एक सदस्य याङ सिएन-चेन ने एक अखबार में द्वंद्ववाद पर एक आलेख प्रकाशित किया, जिसको लेकर एक राष्ट्रव्यापी विवाद उठ खड़ा हुआ है। इस आलेख में याङ सिएन-चेन ने क्लासिकीय चीनी दर्शन के एक सूत्र ‘दो एक में शामिल’ को लेकर अपनी बात की शुरुआत करते हुए इसकी ऐसी व्याख्या की थी कि इससे यह नतीजा निकलता था कि द्वंद्ववाद का मुख्य काम अन्तरविरोधों को विरोधों के बीच उभाड़ना नहीं, बल्कि इसके विपरीत उन विशिष्टताओं पर जोर देना है जो उनमें उभयनिष्ठ हैं। दूसरे शब्दों में, उसका दावा यह था कि विरोधों की एकता प्राथमिक है और विरोधों के बीच संघर्ष गौण।
इस दृष्टिकोण को तत्काल चुनौती दी गयी। देश के सभी भागों से सैकड़ों लेख प्रेस में प्रकाशित हुए, जिनमें से ज्यादातर मजदूरों और किसानों के लेख थे। शुरू-शुरू में जो विचार प्रकट हुए वे कमोबेश समान रूप से दो दृष्टिकोणों में बंट गये, और विवाद इस रूप में हो गया कि ‘दो-एक में या एक-दो में,’ परन्तु उसके बाद सन्तुलन बदलने लगा, और पिछले कुछ महीनों से इस विवाद में शिरकत करने वालों का भारी बहुमत दूसरे दृष्टिकोण का समर्थक बन चुका है, जो द्वंद्ववाद पर लेनिन की इस व्याख्या के अनुरूप है कि विरोधों के बीच सम्बन्ध के मामले में संघर्ष निरपेक्ष है और एकता सापेक्षिक।
पहले कभी भी दर्शन के इतिहास में एक सैद्धान्तिक सवाल को लेकर इतने बड़े पैमाने पर जनसमुदायों के बीच बहस नहीं हुई थी।
सैद्धान्तिक ज्ञान को उत्पादन में लगाना
पिछले कुछ वर्षों के दौरान, एक लगातार बढ़ते पैमाने पर, फैक्टरियों में, खेतों में, और जन मुक्ति सेना की यूनिटों में, मजदूर और किसान अपने सैद्धान्तिक ज्ञान को सीधे उत्पादन की समस्याओं के समाधान में लगाने लगे हैं। और यह बार-बार देखने में आ रहा है कि मार्क्सवादी दर्शन पर कक्षाओं का एक सिलसिला चलने के बाद उत्पादन में बढ़ोत्तरी हो जा रही है।
वहां, व्यवहार के बारे में, अन्तरविरोध के बारे में, और जनता के बीच अन्तरविरोधों को सही ढंग से हल करने के बारे में सबसे लोकप्रिय पाठ्यपुस्तकें हैं। मुझे एक ऐसे फैक्टरी मजदूर के बारे में बताया गया जो, अन्तरविरोध के बारे में का अध्ययन कर लेने के बाद वह जिस फैक्टरी में काम करता था उसमें, उत्पादन-प्रक्रिया में प्रधान अन्तरविरोध को पहचानने के काम में लग गया और कुछ ऐसी-ऐसी समस्याओं को हल कर लेने में सफल हो गया जिन्हें पहले वह मशीनों के इंचार्ज तकनीशियनों के जिम्मे छोड़ चुका था। उसने अपने निष्कर्षों पर अपने कामगार साथियों के साथ विचार-विमर्श किया और उसके कामगार समूह ने प्रस्ताव बनाकर तर्कसंगत निरूपण के लिए अग्रसारित कर दिया, जिन्हें प्रबन्धतंत्र ने स्वीकार कर लिया।
मुझे एक किसान औरत के बारे में बताया गया जो पांच बच्चों की मां थी, और खेतों में काम करती थी। अपने काम से फुरसत के समयों में उसने माओ त्से तुङ की सारी रचनाओं और अन्तरराष्ट्रीय विवाद के मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष के सारे मुख्य दस्तावेजों का अध्ययन कर डाला। उसके बाद से तो उसे अपने कम्यून के अन्य हिस्सों में तथा दूसरे कम्यूनों में भी खुली बहसों में भाग लेने और यह बताने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा है कि कैसे वह सिद्धान्त और व्यवहार को इस ढंग से समेकित करने में सफल हुई कि उत्पादन का स्तर बढ़ सके।
इस तरह लोग अपने सैद्धान्तिक स्तर को उन्नत करके अपने व्यवहार को उन्नत कर रहे हैं, और ऐसा करते हुए अपने उन मजदूर-साथियों के लिए एक मिसाल कायम कर रहे हैं जो इसका अनुसरण करते हुए और भी व्यापक अध्ययन समूहों के नाभि-केन्द्र बनते जा रहे हैं, और उत्पादन में और सुधार करते हुए क्रमशः पूरे समुदाय के विचारधारात्मक और नैतिक स्तर को उन्नत करते जा रहे हैं।
इस प्रकार, माओ ने व्यवहार, ज्ञान, फिर व्यवहार और फिर ज्ञान की जो चक्रीय प्रक्रिया बतायी, वह अब पूरे चीन में फैलती जा रही है। और यह तो अभी शुरुआत भर है।
शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के बीच की खाई को पाटना
मैंने जिन मजदूरों का जिक्र किया है, उनके अलावा, मेरे सबसे घनिष्ठ मित्र पीकिङ युनिवर्सिटी के शिक्षक समुदाय के सदस्य थे, जिनमें से ज्यादातर युवा थे, और एक को छोड़कर सभी के सभी निम्न बुर्जुआ और बुर्जुआ वर्ग से आये हुए थे, एक अपवाद था जो एक भूतपूर्व भूस्वामी परिवार का था। वे सभी के सभी मार्क्सवाद को खूब अच्छी तरह पढ़े हुए थे, परन्तु मजदूरों से उनका कोई सम्पर्क न था। यह उनके लिए एक भारी समस्या थी। उनके लिए यह प्रस्ताव रखा गया था कि वे मार्क्सवाद पर मजदूरों की कक्षाएं लें, परन्तु जब ऐसी कक्षाओं का प्रयोग आजमाया गया तो सफल नहीं हुआ, कारण कि उनकी समझ में ही नहीं आता था कि मजदूर क्या चाहते थे। हमने भी इस समस्या पर कई बार विचार-विमर्श किया परन्तु कोई हल न निकल सका। लेकिन यह स्थिति भी अब बदल चुकी है। कारण कि विगत कई वर्षों से पार्टी के और सरकार के सभी पदाधिकारियों के लिए यह आवश्यक बना दिया गया है कि वे अपना एक निश्चित समय शारीरिक श्रम करने में लगायें। अब काम की नियमित अवधियों में – जैसे वर्ष में महीने भरकृ फैक्टरी प्रबन्धक फैक्टरी शाप में काम करता है, जन-कम्यून का चेयरमैन खेतों में काम करता है, और फौजी जनरल साधारण सैनिकों की कतारों में काम करता है।
पेशेवर वर्गों के दूसरे तबकों के बीच शारीरिक श्रम स्वैच्छिक है, परन्तु स्वैच्छिक काम करने वालों की भी कोई कमी नहीं है। पीकिङ युनिवर्सिटी के प्रोफेसर और लेक्चरर पश्चिमी पहाड़ियों में एक गरीब ग्रामीण श्रमिक की भांति काम करने जाते हैं, कारण कि वहां की सारी लगभग वयस्क पुरुष आबादी को जापानियों ने मार डाला था। वहां वे काम करते हैं, किसानों के साथ रहते हैं, दिन में उनके साथ खेती के काम में भागीदारी करते हैं और शाम को उनकी कक्षाएं और व्याख्यान आयोजित करते हैं। मजदूरों के साथ इस सम्पर्क की बदौलत उनकी वर्ग-चेतना उन्नत हो गयी है।
यही बात छात्रों की भी है। वे हर साल एक या दो महीने, तीन ‘एक साथ’ – ‘एक साथ रहो, एक साथ खाओ, एक साथ काम करो’ – के सिद्धान्त के अनुसार, फैक्टरियों में या खेतों में मजदूरों और किसानों के साथ काम करते हुए गुजारते हैं।
इस बीच, युनिवर्सिटी में मजदूर वर्ग के छात्रों की संख्या तेजी से बढ़ी है, और हाल ही में एक नये प्रकार के स्कूल के प्रयोग भी चालू किये गये हैं, जिनमें बच्चे उत्पादक श्रम से जोड़ कर अध्ययन करते हैं। इस ढंग से मानसिक श्रम करने वाले शारीरिक श्रम करने वाले बन रहे हैं, और शारीरिक श्रम करने वाले मानसिक श्रम करने वाले बन रहे हैं।
कलाओं पर प्रभाव
युनिवर्सिटी और स्कूलों से बाहर, शारीरिक श्रम में भागीदारी का यह आन्दोलन सारे पेशेवर लोगों के बीच फैलता जा रहा है। इसमें लेखक, चित्रकार, वास्तुकार, अभिनेता, संगीतज्ञ, नर्तक – सभी के सभी शामिल हैं। हालांकि यह अभी कुछ ही वर्ष पहले शुरू हुआ है, फिर भी इसका कला पर प्रभाव अभी से दिखायी पड़ने लगा है।
चीन में चित्रकारी, कविता और संगीत की परम्परा बहुत पुरानी है। चित्रकारी और ओपेरा दोनों में ही परम्परागत शैली को समसामयिक विषयवस्तु के लिए अपनाया जा रहा है। बेशक इस बात को भी समझा जा रहा है कि अन्तर्वस्तु में बदलाव लाना तब तक संभव नहीं है जब तक कि रूप में भी बदलाव न लाया जाये – यहां भी हमें विरोधों की एकता दिखायी देती है; लेकिन इसका उद्देश्य यह है कि अन्तर्वस्तु को विकसित करके उसे ऐसे ढंग से अन्तरविरोध का प्रधान पहलू बना दिया जाये कि जैविक रूप से एक ऐसी नयी एकता विकसित हो जो कलाकारों और जनता के बीच एक नयी एकता के अनुरूप हो।
बेशक इसमें तमाम समस्याएं भी हैं जिनको हल करना जरूरी है, और जब भी कोई नयी चित्र प्रदर्शनी लगती है, जब भी कोई नया ओपेरा प्रस्तुत होता है, इन समस्याओं पर बड़ी शिद्दत से विचार-विमर्श किया जाता है। और समाधान की दिशा में पहला कदम उठाए भी गये हैं। कलाकार अब समझ गया है कि जनता को प्रेरणा देने के लिए उसे स्वयं भी जनता से प्रेरणा लेनी होगी। और इसी प्रक्रिया के तहत, कलाकारों से नजदीकी सम्पर्कों की बदौलत, जनता का कलात्मक स्तर भी उठता जा रहा है।
देश के सभी भागों में लोक-प्रचलित गीतों, कलाओं और शिल्पों को फिर से जिन्दा किया जा रहा है – जिनमें से कुछ तो पचास वर्ष पहले ही लुप्त हो जाने के कगार पर जा पहुंचे थे; पश्चिमी संगीत और बैले को भी शामिल किया जा रहा है, जिनकी अपनी विशेषताएं तो हैं ही, साथ ही यह भी है कि उनमें ऐसे तत्व हैं जिन्हें राष्ट्रीय परम्पराओं को विकसित करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इस ढंग से मजदूरों और किसानों की कलात्मक प्रतिभाएं अपनी अभिव्यक्ति के नये आयाम ग्रहण कर रही हैं। अब कलाएं अधिकाधिक रूप से समूची जनता की सृजनात्मक गतिविधि बनती जा रही हैं।
इसका प्रत्यक्ष सबूत मुझे 1 अक्टूबर के विशाल जुलूस में देखने को मिला। मैं 1952 में इस अवसर पर मौजूद था। वह मुक्ति की तीसरी वर्षगांठ थी। दूसरी बार मैं इसकी पांचवी वर्षगांठ के अवसर पर उपस्थित हुआ। तब तक हालात में जबर्दस्त बदलाव आ चुके थे।
अब स्वर्गिक शांति का दरवाजा एक विशाल प्रांगण में खुलता है, जिसकी बायीं तरफ क्रान्ति का संग्रहालय और दायीं तरफ जन-कांग्रेस का सभागार है, और सामने एकाश्मी स्मारक है जो इस परिदृश्य के आखिरी छोर पर उन शहीदों की याद में बनाया गया है जिन्होंने मुक्ति-युद्ध में अपने प्राणों की आहुति दी थी। जुलूस ठीक दस बजे शुरू हुआ और ठीक बारह बजे खत्म हुआ – जनता के सभी तबकों और राष्ट्रीय जीवन के हरेक क्षेत्र से आये साढ़े सात लाख लोगों का झण्डे लहराते हुए, संगीत की लय-ताल के साथ गुजरना – यह सब एक ऐसा कल्पनाप्रवण दृश्य था कि कभी-कभी तो सांस ही थम जाती थी, और यह सब बेहद खूबसूरत था – एक अति प्राचीन और समृद्ध सभ्यता की ऐसी प्रखर अभिव्यक्ति जो मार्क्सवाद से पुनः ऊर्जस्वित होकर एकबारगी एक नये जीवन के रूप में फूट पड़ी थी।
उसी शाम वह प्रांगण आतिशबाजियों की झड़ी के बीच एक बार फिर दस लाख से भी ज्यादा लोगों से भर उठा, जो लगातार रात भर नाचते रहे, खुशियां मनाते रहे, और बीथोवन की कोरल सिम्फनी की इन्सानी भाइचारे की पैगामभरी स्वरलहरी के उत्कर्ष का साक्षात जीवन्त रूप बनते रहे।
दर्शकों में, राष्ट्रीय नेताओं और दुनिया के सभी भागों से आये विदेशी दर्शकों के साथ, माओ त्से-तुङ भी थे।
मुझे उन्हीं के शब्दों में उपसंहार करने दें:
‘‘यह प्रक्रिया दुनिया को बदलने का यह व्यवहार, जो वैज्ञानिक ज्ञान के अनुसार निर्धारित है, अब इस दुनिया में और चीन में अपनी एक ऐतिहासिक मुकाम पर, यानी मानव इतिहास के एक ऐसे बड़े मुकाम पर आ पहुंचा है जो इस दुनिया से और चीन से अंधकार को पूरी तरह से मिटा देने और दुनिया को एक ऐसे प्रकाश-लोक में तब्दील कर देने का मुकाम है जो पहले कभी नहीं रहा।’’
निजी स्वार्थ से लड़ो
चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति के इस खास चरण में पूरे देश की जनता का आह्वान किया जा रहा है कि वह अपने निजी स्वार्थों से लड़े और संशोधनवाद को उखाड़ फेंके। इन दोनों धारणाओं के बीच क्या सम्बन्ध है? इनका एक समाजवादी समाज की रचना के सन्दर्भ में क्या अभिप्राय है?
ब्रिटेन जैसे एक बुर्जुआ समाज में – या ऐसे किसी भी देश में – मानव-व्यवहार की प्रमुख प्रेरणा निजी स्वार्थ ही है। ऐसे समाज में हरेक आदमी को बाकी के साथ – यहां तक कि अपने कामगार साथियों और पड़ोसियों के साथ भी – प्रतियोगिता करने में अपने निजी स्वार्थ हेतु लड़ना पड़ता है। और इस प्रतियोगिता को स्वाभाविक और प्रगति में सहायक भी माना जाता है। इसका सिद्धान्त यह है कि जब समाज के सभी व्यक्तियों में से हर कोई अपने-अपने निजी स्वार्थ और लाभ के पीछे लगा रहता है तो सबकी कार्यवाहियां मिलकर अपने आप ही कार्यवाहियों का एक ऐसा विराट योगफल बन जाती हैं जो समूचे समाज के लिए लाभदायक होता है।
जैसा कि एडम स्मिथ द वेल्थ आफ नेशन्स में बताते हैं, ‘‘हम कसाई, शराब-भट्टी चलाने वाले और नानबाई की कृपा से अपने डिनर की उम्मीद नहीं करते, बल्कि उनकी अपनी स्वार्थ-सिद्धि के चलते उम्मीद करते हैं। हम उनकी ओर उनकी मानवता के नाते नहीं बल्कि उनके निजी स्वार्थ-प्रेम के नाते मुखातिब होते हैं, और कभी भी अपनी जरूरतों के नाते नहीं, बल्कि उनके लाभों के नाते उनकी चर्चा करते हैं।’’
चूंकि पूंजीवादी समाज का मुख्य उत्तोलक उसका निजी स्वार्थ ही है, इसलिए इसका मतलब यह हुआ कि इसे एक समाजवादी समाज द्वारा विस्थापित करने के लिए बुर्जुआ उपयोगितावादी आचार-शास्त्र वाली स्वार्थ पूजा से कुछ भिन्न प्रेरणा की दरकार होगी। क्या यह मान लेना तर्कसंगत होगा कि पूंजीवादी समाज का चरित्र-निर्धारण करने वाले उत्प्रेरण और प्रोत्साहन समाजवाद को जन्म दे सकते हैं?
परन्तु, ब्रिटेन जैसे देश के जनवादी समाजवादी, फैबियन और लेबर पार्टी के वर्तमान सिद्धान्तकार हरदम यही कहते आ रहे हैं कि ऐसा होना तर्कसंगत है। उनकी पूंजीवादी समाज की आलोचना, उसे संचालित करने वाली प्रेरणाओं को नकारने पर नहीं बल्कि प्रतियोगिता में समान अवसर के अभाव पर आधारित होती है। उनका तरीका स्वयं इस प्रतियोगिता पर ही सवाल उठाने के बजाय, हरदम इस सुधारात्मक कोशिश का ही होता है कि सबके लिए खुले रूप से अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल शर्तों का युक्ति-विधान किया जाये।
लेकिन पूंजीवादी समाज की मार्क्सवादी आलोचना इससे गहरे जाती है। सामाजिक प्रेरणा और उसके नतीजों के सामान्य मुद्दे पर मार्क्स ने दो बातें स्पष्ट कही हैं: 1. पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत जिन निजी स्वार्थगत कार्रवाइयों को एक कल्याणकारी सामाजिक-व्यवस्था लाने का हेतु माना जाता है, वे दरहकीकत व्यवस्थित शोषण को ही जन्म देती हैं। इस शोषण के शिकार स्वयं पूंजीवादी देश के मजदूर तो होते ही हैं, इससे भी अधिक शोषण के शिकार औपनिवेशिक क्षेत्रों के मजदूर और किसान होते हैं, क्योंकि उन पर विजय के साथ-साथ पूंजीवाद भी अनिवार्यतः अपना विस्तार करता जाता है; 2. यह शोषण बुर्जुआ वर्ग की प्रभुत्वशाली अवस्थिति पर आधारित है, जो उत्पादन के साधनों पर अपने नियंत्रण के जरिए हमेशा ही अपनी निजी शर्तें थोपने की स्थिति में रहता है – और वह भी सिर्फ अपनी आर्थिक सत्ता के जरिए ही नहीं, बल्कि उस समूचे राज्य-उपकरण के इस्तेमाल के जरिए भी, जिस पर इसी का नियंत्रण है। अतः यह उम्मीद करना एकदम ख्याली पुलाव पकाना है कि शोषण, वर्ग-सम्बन्धों में एक बुनियादी बदलाव लाये बगैर, यों ही खत्म हो सकता है, जब कि इस तरह का बदलाव ही सामाजिक प्रेरणा की एक सर्वथा भिन्न अवधारणा का आधार और आवश्यकता पैदा कर सकता है।
लेकिन तथाकथित मार्क्सवादियों तक में भी ऐसे लोग रहे हैं जो पूंजीवाद से समाजवाद में ठीक वैसे ही विशुद्ध यांत्रिक संक्रमण का विश्वास रखते रहे हैं जैसे पूंजीवाद के समर्थक निजी स्वार्थों के सार्वजनिक हित में विशुद्ध यांत्रिक संक्रमण का विश्वास रखते रहे हैं।
शुरुआती दौर के संशोधनवादी काउत्स्की ने मार्क्स की यह कहकर आलोचना की कि उन्होंने दास कैपिटल में नैतिक गर्मजोशी दिखाई थी, जिसके विरोध में उसकी दलील यह थी कि नीतिशास्त्रीय सोच-विचार का वैज्ञानिक समाजवाद में कोई स्थान नहीं है; कि पूंजीवादी समाज के आर्थिक अन्तरविरोध तो स्वयमेव ही एक ऐसा संकट ला देंगे कि उसका समाधान समाजवाद में ही हो सकेगा। तब तो इस कहने का मतलब यह था कि शोषण के शिकार लोगों को महज चुपचाप बैठे रहने और यह इन्तजार भर करते रहने की जरूरत थी कि कब ऐसा होगा।
क्रान्तिकारी मानवतावाद
लेनिन ने इस प्रकार की चिन्तन-धारा के पूर्णतः गैर-मार्क्सवादी चरित्र को बेनकाब किया और स्पष्ट किया कि क्रान्तिकारी सामाजिक बदलाव को तिलांजलि दे देना वस्तुतः बुर्जुआ वर्ग के हितों की ही सेवा करना होगा। इसके विपरीत, क्रान्तिकारी सिद्धान्त के मार्गदर्शन में और क्रान्तिकारी नैतिकता से अनुप्राणित हो कर चलने वाला क्रान्तिकारी आन्दोलन ही समाज को इस रूप में रूपान्तरित करने में समर्थ हो सकता है कि शोषण का खात्मा हो सके। और यह क्रान्तिकारी नैतिकता सर्वहारा नैतिकता ही हो सकती है (जैसा कि चीन में मौजूद है) क्योंकि केवल मजदूर वर्ग ही ऐसी क्रान्ति कर सकता है।
लेकिन आज भी, स्वयं लेनिन के ही देश में, वर्तमान सोवियत नेतृत्व उसी पुरानी संशोधनवादी गलती की ओर बहक गया है जिसका कारण उसका यह मान लेना ही है कि समाजवादी, अर्थात सर्वहारा नैतिकता के बगैर भी एक समाजवादी समाज बनाया जा सकता है। इसी के चलते वहां का नेतृत्व गैर-बुर्जुआ सामाजिक उपलब्धियां हासिल करने के लिए बुर्जुआ प्रोत्साहन देने की कोशिश कर रहा है, और यह मानकर चल रहा है कि अर्थव्यवस्था की दुरुस्ती तो अपनेआप ही अच्छा समाज पैदा कर सकती है। इसीलिए चीनी नेतृत्व, लेनिन का अनुसरण करते हुए, भौतिक लाभों के जरिए लोगों को घूस देने की इस नीति को ‘अर्थवाद’ कहता है। चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति में आलोचना के मुख्य निशानों में से एक निशाना सामाजिक प्रेरणा के लिए की जा रही यह कोशिश ही है।
सोवियत संघ में सामाजिक विकास के इन हाल के अनुभवों ने सिर्फ इतना भर ही प्रदर्शित किया है कि उत्पादन के साधनों पर काबिज निजी स्वामियों का स्वत्वहरण करके समाज के आर्थिक आधार को बदल देने से समाजवाद की सिर्फ बुनियादी संभावना भर पैदा होती है। लेकिन बुर्जुआ विचारों की आदतों, बुर्जुआ प्रेरणा, और समूचे बुर्जुआ दृष्टिकोण से विचारधारात्मक स्तर पर अभी भी लड़ने और उन्हें शिकस्त देने की जरूरत होती है ताकि समाजवादी मनुष्य का प्रादुर्भाव हो सके। अपने निजी स्वार्थ से ही नहीं बल्कि और को प्राथमिकता देने, और अपने निजी भौतिक लाभ के लिए नहीं बल्कि समाज के हित में काम करने के समाजवादी संवेग से प्रेरित समाजवादी मनुष्य के बगैर, समाजवादी व्यवस्था सुदृढ़ नहीं हो सकती।
चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति इसी बात को लेकर चल रही है। यह बुर्जुआ सोच और कार्रवाई के पुराने स्वार्थपूर्ण रूपों को बेपर्द करने और खत्म करने तथा उनकी जगह पर सोच और कार्रवाई के सर्वहारा, यानी गैर-निजी रूपों को स्थापित करने के काम में लगी हुई है। यह कोई युटोपियाई, भाववादी या नीतिशास्त्रीय आन्दोलन नहीं है, कारण कि सोच और कार्रवाई के इन नये तौर तरीकों का समाजवादी आर्थिक आधार तो पहले ही तैयार हो चुका है।
सांस्कृतिक क्रान्ति इस प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ उक्ति का समाजवादी प्रत्युत्तर है कि ‘आप मानव-स्वभाव को नहीं बदल सकते’। चीन में, माओ त्से-तुङ विचारधारा के मार्गदर्शन में, और साथ ही पूरे देश की तसवीर बदल रहे प्रचण्ड भौतिक परिवर्तनों के चलते, स्वयं मानव-स्वभाव भी बदलता जा रहा है। बेशक ऐसा बदलाव रातोरात नहीं हो सकता। एक निजी स्वार्थ पर आधारित और दूसरी जनता की सेवा पर आधारित, इन दो वर्ग-विचारधाराओं के बीच संघर्ष ‘लम्बे समय तक और पेंचदार ढंग से चलता रहेगा तथा समय-समय पर बहुत तीखा भी होता रहेगा।’
यही माओ के महान अवदानों में से एक है जो दृढ़तापूर्वक किसी भी ऐसी कोशिश को खारिज करता है जो मार्क्सवाद को एक ऐसे यांत्रिक सूत्र में तब्दील करना चाहती है जिसमें मानवीय मूल्यों और आकांक्षाओं की कोई गुंजाइश न हो। अन्तरविरोध के बारे में जैसी कृतियों में आर्थिक मूलाधार और विचारधारात्मक अधिरचना की द्वंद्वात्मक अन्तःक्रिया की बात बताते हुए उन्होंने स्पष्ट दिखा दिया है कि एक ऐसा मुकाम आता ही है जब अधिरचना, जिसमें नीतिशास्त्र और संस्कृति शामिल हैं, समाजवादी आर्थिक मूलाधार के और विकास में बाधा बन जाती है। इसीलिए एक सांस्कृतिक क्रान्ति के जरिए इस बाधा को पार करना अनिवार्य तौर पर समाज का एक प्रमुख सरोकार बन जाता है। उदाहरण के लिए, यदि एक कम्यून में, कोई किसान, पुराने विचारों से चिपके रहकर, सिर्फ यही सोचता रहे कि अपने निजी खेत को कैसे अधिक उपजाऊ बना ले और कैसे एक और सुअर रख ले, तो वह पूरे समुदाय को और अन्ततोगत्वा अपने आपको भी अवरुद्ध ही करता रहेगा।
माओ पूंजीवाद के समर्थकों और मार्क्सवाद के संशोधनकर्ताओं के विरुद्ध, जिस बात की जोरदार ढंग से हिमायत करते हैं वह मानवतावाद की भूमिका ही है जो सामाजिक विकास में अदा की जानी है – लेकिन यह उदार मानवतावाद नहीं है जो यह मानकर चलता है कि हरेक सवाल के दो पक्ष होते हैं, बल्कि यह क्रान्तिकारी मानवतवावाद है जो उत्पीड़ितों के पक्ष में खड़ा होकर, हमारे समय की महान ऐतिहासिक घटनाओं का स्वरूप निर्धारित कर रहा है। जहां कुछ लोग इस भ्रम में हैं कि गरीब देशों के आर्थिक विकास के लिए बाहर से भौतिक सहायता जरूरी है, वहीं माओ हमें बताते हैं कि देश की सम्पदा तो उसकी जनता होती है जो, एक बार साम्राज्यवादी प्रभुत्व के चंगुल से मुक्ति पा लेने के बाद, स्वयं अपनी गरीबी का अन्त कर सकती है। जहां कुछ लोग इस भयादोहन के भी शिकार हो सकते हैं – यह जानकर – कि आज दुनिया में परमाणु बमों की विनाशक शक्ति एक प्रमुख शक्ति बन चुकी है, वहीं माओ यह बताते हैं (और वियतनामी जनता इसे साबित कर रही है) कि मनुष्य हथियारों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं और कि सबसे अधिक हथियारबन्द हमलावरों के खिलाफ जनता द्वारा छेड़े गये युद्धों में नैतिकता ही निर्णायक कारक बनती है।
आज चीन में, समाजवाद के निर्माण की प्रक्रिया में, एक चरण के रूप में, हम जो कुछ देख रहे हैं वह समाजवादी मनुष्य के विकास का चरण है जो निजी स्वार्थ से नहीं, बल्कि औरों के हित से प्रेरित है, चाहे वे उसी देश के वासी हों या पूरी दुनिया के लाखों-करोड़ों लोग हों, जिन्हें शोषण और उत्पीड़न से मुक्त होना है। यही सच्चा अर्थ है माओ के इन शब्दों का: निजी स्वार्थ से लड़ो और संशोधनवाद को उखाड़ फेंको।
अनुवाद: विश्वनाथ मिश्र
दायित्वबोध, जुलाई-दिसम्बर 1998
Nov81998
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