‘दिशा सन्धान’ क्यों?

‘दिशा सन्धान’ क्यों?

  • सम्‍पादक मण्‍डल 

हम ‘दिशा सन्धान’ के पहले अंक के साथ आपके बीच हैं। जैसा कि हमने पत्रिका से पहले जारी किये गये परिपत्र में बताया था, ‘दिशा सन्धान’ कई मायनों में उसी परियोजना की निरन्तरता में है, जो हमने करीब दो दशक पहले ‘दायित्वबोध’ के साथ शुरू की थी। कुछ वर्ष पहले कुछ बाध्यताओं के कारण ‘दायित्वबोध’ का प्रकाशन रुक गया था। उसके बाद से ही हम गम्भीर सैद्धान्तिक मुद्दों पर केन्द्रित एक नयी पत्रिका के प्रकाशन की आवश्यकता महसूस कर रहे थे और कुछ देर से सही लेकिन हम इस नयी पत्रिका के पहले अंक के साथ प्रस्तुत हैं।
निरन्तरता के बावजूद कुछ अर्थों में ‘दिशा सन्धान’ का स्वरूप और उद्देश्य थोड़े ज़्यादा व्यापक, ज़्यादा गम्भीर और ज़्यादा बहुआयामी हैं। इसका एक प्रमुख कारण पिछले दशक के दौरान दुनिया में हो रहे बदलाव हैं। 1990 में सोवियत संघ में नकली लाल झण्डे के गिरने के साथ शुरू हुआ पूँजीवादी विजयवाद समाप्त हो चुका है। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का संकट नयी सहस्राब्दि के शुरू होने से पहले ही गम्भीर रूप लेना शुरू कर चुका था और 2007 में अमेरिका में शुरू हुए सबप्राइम संकट के साथ इसने 1930 के दशक की महामन्दी के बाद सबसे बड़ी मन्दी का रूप ग्रहण कर लिया है। आज अधिकांश प्रेक्षक इस बात पर एकमत हैं कि ‘दूसरी महामन्दी’ कई मायनों में पहली महामन्दी से ज़्यादा संरचनागत है और इसके बाद किसी तेज़ी (बूम) का दौर नहीं आने वाला है। ज़्यादा से ज़्यादा कुछ समय के लिए मन्दी के प्रभावों को कुछ कम किया जा सकता है, जो कि अगले चक्र में और ज़्यादा भयंकर होकर उभरते हैं। हमेशा की तरह पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े की हवस से पैदा होने वाली मन्दी का बोझ आम मेहनतकश जनता के कन्धों पर डाल रहा है। आम मेहनतकश जनता भी इस ज़्यादती के ख़िलाफ़ दुनिया भर में सड़कों पर उतर रही है। जनान्दोलनों में छाया हुआ सन्नाटा भी टूट रहा है। अरब विश्व से लेकर, यूनान, स्पेन, इटली, अमेरिका और बंगलादेश तक में जनता सड़कों पर स्वतःस्फूर्त रूप से उतर रही है। आज की स्थिति का एक पहलू विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का गहराता संकट और जनता के स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोधी प्रतिरोध आन्दोलनों का फूटना है।
लेकिन एक दूसरा पहलू भी है, जो कि मौजूदा स्थिति को विशिष्ट बनाता है। जनता दुनिया भर में स्वयंस्फूर्त रूप से सड़कों पर उतर रही है क्योंकि उसके सब्र का प्याला छलक रहा है, लेकिन यह भी सच है कि इन स्वतःस्फूर्त जनउभारों को एक सही क्रान्तिकारी दिशा देने वाली हिरावल ताक़त आज किसी देश में मौजूद नहीं है। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन दुनिया भर में बिखरा हुआ है। पूँजीवाद अपने ढाँचागत संकटों के बावजूद मार्क्सवाद पर अपने वैचारिक-सांस्कृतिक हमले जारी रखे हुए है। दुनिया और देश के पैमाने पर अधिकांश कम्युनिस्ट ताक़तों के बीच या तो कठमुल्लावाद की प्रवृत्ति गहरायी से जड़ जमाये हुए है, या फिर धुरीविहीन “मुक्त-चिन्तन” और सारसंग्रहवाद की रुझान हावी है। कुछ लोग पुरानी क्रान्तियों से आलोचनात्मक सम्बन्ध स्थापित करते हुए नयी सदी के क्रान्तिकारी प्रयोग के विभिन्न आयामों को समझने की बजाय, उनका अन्धानुकरण करने पर आमादा हैं, तो कुछ अन्य लोग पुरानी क्रान्तियों के आलोचनात्मक विवेचन के बिना ही उन्हें ख़ारिज कर देने, और शून्य से नयी शुरुआत करने के मंसूबे बाँधे हुए हैं। इन दोनों रुझानों में साझा बात यह है कि दोनों ही बीसवीं सदी के महान समाजवादी प्रयोगों से किसी भी किस्म का आलोचनात्मक रिश्ता कायम नहीं करना चाहते हैं। ऐसे में, कम्युनिस्ट आन्दोलन दुनिया भर में विचारधारात्मक, राजनीतिक और कार्यक्रम-सम्बन्धी मसलों पर बौद्धिक तौर पर विभ्रम का शिकार है। यही कारण है कि अधिकांश हालिया जनान्दोलनों में क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों का प्रभाव पर्याप्त नहीं रहा। उनकी बजाय अराजकतावाद, संघाधिपत्यवाद और ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवादी धाराओं का प्रभाव इन आन्दोलनों पर ज़्यादा था। यही इन आन्दोलनों की असफलता का कारण भी बना। मिस्र में जनता के शानदार आन्दोलन के बाद इस्लामी कट्टरपन्थी ताक़तों का सत्ता में आना, ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ आन्दोलन का विसर्जित हो जाना इसी को सिद्ध करता है। हर संकट हमेशा की तरह क्रान्तिकारी और प्रतिक्रियावादी सम्भावनाओं को जन्म देता है और अगर क्रान्तिकारी हिरावल क्रान्तिकारी सम्भावना को यथार्थ में बदलने के लिए मौजूद नहीं है, तो प्रतिक्रियावादी, फासीवादी ताक़तें प्रतिक्रियावादी सम्भावना को हक़ीकत में तब्दील कर देती हैं।
आज कम्युनिस्ट आन्दोलन में जो वैचारिक विभ्रम की स्थिति बनी हुई है, उसके केन्द्र में मार्क्सवाद के कोर सिद्धान्त हैं जैसे वर्ग, पार्टी, राज्यसत्ता, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व की अवधारणाएँ। सोवियत समाजवादी प्रयोग और चीन में समाजवादी प्रयोगों के पतन के बाद जो संशयवाद कम्युनिस्ट आन्दोलन में फैला, उसका असर आज भी मौजूद हैं। इन समाजवादी प्रयोगों की कोई सुसंगत आलोचनात्मक समझदारी न होने के कारण ही अन्धानुकरणवाद और ख़ारिज कर देने के दो अतिवादी छोर कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद हैं। जो संशयवाद की लहर में बह गये हैं वे पार्टी और वर्ग अधिनायकत्व की ही अवधारणा पर प्रश्न खड़े करने लगे हैं, और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद के सिद्धान्तों को ही नये शब्दों में पेश कर रहे हैं, तो कुछ ऐसे भी हैं जो संशयवाद की लहर पर अतिरेकी प्रतिक्रिया देते हुए या नये का सन्धान करने की ज़हमत से बचने के लिए सोवियत समाजवाद और चीन के समाजवादी प्रयोगों के किसी भी आलोचनात्मक विवेचन के ख़िलाफ़ हैं। इस स्थिति के कारण ही आज कम्युनिस्ट आन्दोलन में एक वैचारिक विभ्रम और बिखराव की स्थिति बनी हुई है। इस स्थिति को दूर करने के लिए ज़रूरी है कि बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों का गम्भीर आलोचनात्मक विवेचन किया जाय, नयी क्रान्तियों में नये का सन्धान किया जाय और इस बात की भी निशानदेही की जाय कि बीसवीं सदी की महान और मौलिक क्रान्तियों से आज भी क्या सीखा जा सकता है; ज़रूरी है कि मार्क्सवादी सिद्धान्त के कोर तत्वों की हिफ़ाज़त की जाय और इस बात को मज़बूती के साथ स्थापित किया जाय कि नये के सन्धान का अर्थ नयी सदी की क्रान्तियों की रणनीति और आम रणकौशल में नये का सन्धान है, न कि मार्क्सवादी सिद्धान्त के मूलभूत और बुनियादी तत्वों को तिलांजलि दे देना; विश्व का कम्युनिस्ट आन्दोलन पहले भी ऐसे “मुक्त-चिन्तन” की पर्याप्त कीमत अदा कर चुका है और अब इस बाबत एक विचारधारात्मक संजीदगी की ज़रूरत है। इसके लिए इन सभी मुद्दों को सभी पूर्वाग्रहों को छोड़कर, खुले दिमाग़ के साथ बहस-मुबाहसे की ज़रूरत है और ‘दिशा सन्धान’ का एक लक्ष्य होगा कि वह ऐसी गम्भीर सैद्धान्तिक बहसों का मंच बने और कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद वैचारिक विभ्रम और अस्पष्टता को दूर करने में योगदान करे।
इसके अतिरिक्त, मार्क्सवाद पर विचारधारात्मक हमलों का सिलसिला थमा नहीं है। यह सच है कि पूँजीवाद स्वयं अपने ढाँचागत अन्तकारी संकट से बुरी तरह से ग्रस्त है; यह भी सच है कि नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध का पूँजीवादी विजयवादी उन्माद शान्त हो चुका है; लेकिन यदि पूँजीवाद आज संकट का शिकार है तो कम्युनिस्ट आन्दोलन भी आज बिखराव और वैचारिक विभ्रम का शिकार है। ऐसे में, पूँजीवाद के प्रचार तन्त्र ने हिरावल को संगठित होने से रोकने के लिए अपने विचारधारात्मक और सैद्धान्तिक हमले जारी रखे हैं। अपने सांस्कृतिक माध्यमों और भाड़े के बुद्धिजीवियों का वह इसमें कुशलतापूर्ण इस्तेमाल कर रहा है। ऐसे में, आज का एक अहम कार्यभार यह भी बन जाता है कि ऐसे विचारधारात्मक हमलों के बरक्स न सिर्फ मार्क्सवाद की दृढ़ता से हिफ़ाज़त की जाय, बल्कि इन हमलों का मुँहतोड़ जवाब भी दिया जाय और दिखलाया जाय कि एक बार फिर से, इन नये हमलों में कुछ भी नया नहीं है और दरअसल पुराने बुर्जुआ सिद्धान्तों को ही नयी चाशनी में परोस दिया गया है। यह भी ‘दिशा सन्धान’ के लक्ष्यों में से एक होगा।
ज़िन्दा लोग ज़िन्दा सवालों पर सोचते हैं। लिहाज़ा, हमारा एक मकसद होगा पूँजीवादी समाज और व्यवस्था से जुड़ी रोज़मर्रा की घटनाओं, विशेष घटनाओं और प्रतीक घटनाओं के गम्भीर वैचारिक विश्लेषण के ज़रिये आज की मानवद्रोही व्यवस्था और समाज की सच्चाई को बेपर्द करना। ‘दिशा सन्धान’ में हम नियमित तौर पर समसामयिक घटनाओं पर संजीदा विश्लेषात्मक टिप्पणियाँ देंगे।
हम उम्मीद करते हैं कि हम जो लक्ष्य अपने लिए तय कर रहे हैं, उस पर अनुशासन और नियमितता के साथ और अपने द्वारा तय मानकों और पैमानों के साथ वफ़ादार बने रहते हुए अमल करने में सफल होंगे और हमें यह भी उम्मीद है कि हमारे इस प्रयास में सभी सरोकार रखने वाले पाठक, जनता का पक्ष चुनने वाले बुद्धिजीवी और राजनीतिक कार्यकर्ता भी हमारा साथ देंगे। इन उम्मीदों के साथ ही हम ‘दिशा सन्धान’ का प्रवेशांक आपके हाथों में थमा रहे हैं।

दिशा सन्धान – अंक 1  (अप्रैल-जून 2013) में प्रकाशित

दिशा सन्धान, उद्धेश्य और स्वरूप [परिपत्र]

साथियो!

हम एक संक्रमणकाल में जी रहे हैं। पहले रूस में और फिर चीन में संशोधनवादियों के सत्ता में आने के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर पूँजी की शक्तियाँ निर्णायक तौर पर श्रम की शक्तियों पर हावी हो चुकी थीं। प्रतीतिगत धरातल पर जो छद्म समाजवादी सत्ताएँ बची हुर्इं थी, 1960 के दशक से पूर्वी यूरोप में उनके बिखरने की जो प्रक्रिया शुरू हुर्इ उसकी पराकाष्ठा 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने और 1990 में सोवियत संघ के विघटन के रूप में सामने आ गयीं। इन संशोधनवादी सत्ताओं के पतन के साथ और 1976 में चीन के खुले तौर पर पूँजीवादी रास्ते को अख़तियार करने के साथ पूँजीवादी विजयवाद का एक दौर शुरू हुआ। तरह-तरह के रुग्ण और अन्तवादी सिद्धान्‍त पेश किये जाने लगे। फ्रांसिस फुकुयामा ने समाजवादी प्रयोगों की असफलता को उदार पूँजीवादी जनतन्त्र की अन्तिम विजय करार दिया और ‘इतिहास के अन्त’ की घोषणा कर दी तार्किक निर्णय करने वाले बुर्जुआ व्यक्ति को अन्तिम मनुष्य घोषित कर दिया गया। दर्शन के धरातल पर उत्तर-विचार सरणियों का बोलबाला हो गया जो किसी भी प्रकार की मुक्तिकामी परियोजना को महाख्यान कहकर ख़ारिज कर रही थीं। ऐसी विचारधाराओं का अंकुरण तो वस्तुत: 1960 के दशक से ही होने लगा था, जब सोवियत संघ में संशोधनवादी सत्ता आयी थी और शीत युग के दौरान शुरू हो गया था, जिसने अमेरिकी साम्राज्यवाद और सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के बीच प्रतिस्‍पर्धा और साथ ही जनता के सभी आन्दोलनों के खिलाफ़ इन दोनों महाशक्तियों के अपवित्र प्रणय को भी देखा। लेकिन 1990 में सोवियत संघ में नकली लाल झण्डे के गिरने के साथ ये विचार सरणियाँ दार्शनिक, अकादमिक से लेकर राजनीतिक हलकों तक में छा गयीं। न सिर्फ़ भाड़े के बुद्धीजीवियों ने इसकी फेरी लगानी शुरू कर दी, बल्कि तमाम भूतपूर्व वामपंथी चिन्तकों आदि ने भी दर्शनान्तरण कर लिया! कहीं भी क्रान्ति, परिवर्तन, मार्क्सवाद की बात करना अपनी खिल्ली उड़वाने का पर्याय बन गया। विश्व पैमाने पर श्रम की ताक़तें आन्दोलनों और संघर्षों में भी पीछे धकेल दी गयीं और इसी का प्रतिबिम्बन वैचारिक-राजनीतिक जगत में भी हो रहा था।

लेकिन नयी सहस्राब्दि की शुरुआत से ही इस उन्मादपूर्ण पूँजीवादी विजयवाद ने हिचकियाँ लेनी शुरू कर दीं थीं। इस सहस्राब्दि की शुरुआत के साथ जो मन्द मन्दी डाट काम बुलबुले के फूटने और फर हाउसिंग बुलबुले के फूटने के साथ अमेरिका में शुरू हुर्इ, उसने धीरे- धीरे समूचे पूँजीवादी विश्व को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया। 2007 की शुरुआत में शुरू हुए विश्व आर्थिक संकट ने विलम्बित ताल में बज रहे मन्दी के हताशापूर्ण संगीत को द्रुत ताल में बजने वाले विनाशकारी संगीत में तब्दील कर दिया। 2009-10 तक यह मन्दी पूर्व की ओर स्थानान्तरित होते हुए यूरोप तक आ पहुँची और अब इसकी धमक उन अर्थव्यवस्थाओं में भी सुनायी दे रही है, जिन्हें बुर्जुआ अर्थशास्त्री विश्व पूँजीवाद की नैया का तारणहार मान रहे थे, यानी चीन, भारत, दक्षिण अफ्रीका, आदि की तथाकथित ‘उभरती हुर्इ’ अर्थव्यवस्थाएँ। यह संकट एक उलझे हुए ऐसे ऊन के गोले के समान पूँजीवादी व्यवस्था के नियन्ताओं के सामने पड़ा हुआ है, जिसका कोर्इ भी छोर दिखलायी नहीं दे रहा है। प्रत्यक्षत: उन्होंने मुनाफ़े की हवस में पागल होकर एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था का निर्माण कर दिया है जिसे वे खु़द नहीं समझ पा रहे हैं। उनमें से कुछ तो अपनी बनायी इस व्यवस्था को समझने के लिए मार्क्स को पढ़ने की नसीहतें भी देने लगे हैं!

जाहिर है, पूँजीवादी विजयवाद की चीख-चीत्कार अब सर्वव्यापी आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक संकट की कड़कड़ाती ठण्ड से बिलबिलाए हुए कुत्ते की कूँ-कूँ में तब्दील हो चुकी है। हमेशा की तरह पूँजीवादी सरकारें सारी दुनिया में अपने द्वारा पैदा किये गये संकट का बोझ आम ग़रीब और मेहनतकश जनता पर डाल रही है और इसके खि़ालाफ़ सारी दुनिया में जनता सड़कों पर उतर रही है और स्वत:स्फूर्त आन्दोलन और विद्रोह कर रही है। मज़दूरों, आम ग़रीब किसानों, छात्रों-युवाओं और स्त्रियों के आन्दोलनों में भारी बढ़ोत्तरी हुर्इ है। आर्थिक संकट ने पूँजीवाद के लिए एक राजनीतिक और सामाजिक संकट पेश करना शुरू कर दिया है। इसीलिए हमने कहा कि हम एक संक्रमणकाल में जी रहे हैं। पिछले तीन-चार दशकों से जारी सन्नाटा टूट रहा है।

लेकिन यह समूची स्थिति का केवल एक पहलू है। पूँजीवाद का संकट ख़तरनाक हदों तक जा रहा है, इसका यह अर्थ नहीं कि क्रान्तिकारी वामपंथी आन्दोलन का संकट समाप्त हो गया है। मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की विचारधारा की बुर्जुआ विचारधारा पर वैज्ञानिक तौर पर विजय तो बहुत पहले ही निर्णायक तौर पर हो चुकी थी। जब पूँजीवादी विजयवाद का दौर जारी था, तभी तमाम मार्क्सवादी चिन्तकों और संगठनों ने उत्तरवादी विचारसरणियों की धज्जियाँ उड़ाते हुए साबित किया था, कि उनमें नया कुछ भी नहीं है और वह क्वाण्टम विज्ञान की नवकाण्टीय व्याख्याओं से पुनर्जीवन प्राप्त अज्ञेयवाद, 19वीं सदी के सर्वखण्डनवाद, नीत्शे व स्पेंग्लर के मानवतावाद-विरोध, अराजकतावाद आदि जैसी विचारधाराओं के विचित्र मिश्रण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था, जिसे फ्रांसीसी नवदार्शनिकों की फैशनपरस्त शब्दावली में परोसा जा रहा था। इन विचारधाराओं को मार्क्सवाद बहुत पहले ही वैचारिक तौर पर खणिडत कर चुका था और इनका जवाब देने के लिए मार्क्सवादी दार्शनिकों और चिन्तकों को कोर्इ नया आविष्कार नहीं करना था। सिप़र्फ पिछली सदी की बहसों की जानकारी ही पर्याप्त थी। इसलिए विचारधारात्मक धरातल पर मार्क्सवाद के समक्ष कोर्इ संकट नहीं था, बस नयी परिसिथतियों द्वारा पेश कुछ नये सवाल थे, जिनका कोर्इ भी वैज्ञानिक विचारधारा स्वागत करेगी, क्योंकि ये नये सवाल ही तो किसी भी विज्ञान की प्राणदायी शक्ति होते हैं।

लेकिन यह भी सच है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के सामने एक संकट खड़ा था। और एक रूप में वह संकट आज भी खड़ा है। क्रान्तिकारी शकितयाँ पूँजीवादी विजयवाद के दौर में पस्तहिम्मत और निराश थीं, उन्हें पीछे धकेल दिया गया था। मज़दूर आन्दोलन में एक सन्नाटा पसरा हुआ था, और इसी माहौल में कुछ बुद्धीजीवी और संगठन धुरीविहीन मुक्‍त चिन्तन करते हुए, जाने या अनजाने विचारधारात्मक समझौते करने की हदों तक जा पहुँचे थे, जबकि यह समय था जब अपने बुनियादी विचारों पर मज़बूती से अटल रहा जाय। बहरहाल, वह दौर अब बीत चुका है और तमाम लोग जो इस दौर में क्रानितकारी विचारधारा से दूर चले गये थे, वे वापस भी लौट रहे हैं। चारों तरफ़ ‘मार्क्सवाद के पुनरुत्थान’, ‘मार्क्स की वापसी’ आदि की बातें हो रही हैं। यह दीगर बात है कि हममें से बहुत इन ‘पुनरुत्थानों और वापसियों’ को मार्क्स और मार्क्सवाद की बजाय किसी और ही चीज़ की वापसी और पुनरुत्थान मान सकते हैं। फिर भी इतना तो तय है कि पूँजीवादी संकट के साथ वैचारिक, राजनीतिक और अकादमिक दायरों में भी माहौल बदला है। लेकिन इन सबके बावजूद जो संकट अभी भी हमारे सामने खड़ा है वह यह है: एक तरफ़ पूँजीवादी विश्व व्यवस्था महामन्दी के बाद सबसे भयंकर मन्दी की चपेट में है, और आकार-प्रकार में वैसी न होने के बावजूद एक रूप में यह मन्दी ज़्यादा ढाँचागत, ज़्यादा स्थायी और ज़्यादा भयंकर है। पिछली महामन्दी के बाद जो तेज़ी आयी थी, वैसी कोर्इ तेज़ी अब नहीं आने वाली भूमण्डलीकरण के दौर में अब वैसी ‘रिकवरी’ सम्भव ही नहीं है और 1970 के दशक की शुरुआत से ही पूँजीवादी विश्व ने कोर्इ तेज़ी का दौर नहीं देखा है। यह भी सच है कि जनता स्वत:स्फूर्त रूप से सड़कों पर उतर रही है और आन्दोलनों में मौजूद सन्नाटा टूट रहा है। लेकिन यह भी सच है कि क्रानितकारी खेमा दुनिया के पैमाने पर कोर्इ व्यावहारिक विकल्प पेश नहीं कर पा रहा है। कहीं पुरानी क्रान्तियों की पुनरावृत्ति करने का अतीतग्रस्त हठ मौजूद है, तो कहीं पुरानी क्रान्तियों और उनके प्रयोगों को सिरे से ख़ारिज कर देने और फिर से शून्य से नयी शुरुआत करने का अनैतिहासिक आग्रह। एक तरफ़ कठमुल्लावाद का छोर मौजूद है, तो दूसरी तरफ़ धुरीविहीन मुक्‍त चिन्तन का। तमाम ऐसे लोग भी हैं जो इन छोरों से अलग रचनात्मक तरीके से सोच-विचार रहे हैं, अतीत के समाजवादी प्रयोगों का विश्लेषण-समाहार कर रहे हैं, पूँजीवादी विश्व व्यवस्था की कार्य-प्रणाली में आये बदलावों का अध्‍ययन कर रहे हैं और नये समाजवादी प्रयोगों का नक्शा बनाने का प्रयास कर रहे हैं। एक राजनीतिक-वैचारिक अस्पष्टता और अपूर्णता की सिथति है। कोर्इ बना-बनाया विकल्प और कोर्इ पहले से तैयार राजनीतिक ताक़त मौजूद नहीं है जो कि मौजूदा जनउभारों को एक सही दिशा देकर क्रान्ति की तरफ़ मोड़ सके। ऐसे में एक विडम्बनापूर्ण सिथति पैदा हो गयी है। एक तरफ़ पूँजीवादी व्यवस्था असमाधेय संकटों से घिरी हुर्इ है और पहले हमेशा से ज़्यादा खोखली, मानवद्रोही और तमाम सैन्य शक्तिमत्ता के बावजूद अन्दर से कमज़ोर हो चुकी है, और केवल जड़त्व की शक्ति से टिकी हुर्इ है। लेकिन दूसरी तरफ़ श्रम का खेमा भी विचारधारात्मक विभ्रम, बिखराव और अस्पष्टता का शिकार है और स्वयं एक प्रकार के राजनीतिक संकट का शिकार है। और इस संकट के बीच जनता के स्वत:स्फूर्त आन्दोलन हो रहे हैं। और इसी व्यापक विचारधारात्मक, राजनीतिक और सामाजिक माहौल में हम ‘दिशा सन्‍धान’ के प्रस्ताव को लेकर आपके बीच उपस्थित हैं।

हमारा मानना है कि संक्रमण का यह दौर खुलकर सोचने, बहस-मुबाहसा करने, आन्दोलन और विचारधारा के सवालों पर सकर्मक विमर्श करने का है। यह समय है कि ऐसे सभी लोगों के बीच एक सही विचारधारात्मक, राजनीतिक अवस्थिति के नि:सरण के लिए खुले विचारधारात्मक-राजनीतिक विनिमय, विमर्श और बहस-मुबाहसे का आयोजन किया जाय, जो अभी भी संशयवाद के हामी नहीं बने हैं, जो अभी भी किसी क्रान्तिकारी परियोजना के साथ हैं और उसके प्रति एक वैज्ञानिक आशावाद रखते हैं और जिन्होंने ऐसी क्रान्तिकारी परियोजना के साथ किसी न किसी रूप में खड़े होने के संकल्प को छोड़ा नहीं है। हम विनम्रता के साथ ऐसे सभी साथियों के बीच एक संवाद स्थापित करने के प्रस्ताव के साथ उपसिथत हैं।

हमें लगता है कि हिन्दी जगत में एक ऐसी गम्भीर वैचारिक पत्रिका की ज़रूरत लम्बे समय से महसूस की जा रही है। यह पत्रिका मार्क्सवादी विचारधारा गम्भीर और विवादित प्रश्नों को उठायेगी और उन पर खुले विचार-विमर्श को आगे बढ़ायेगी। हमारा इरादा है कि इसके हर अंक को हम गम्भीर वैचारिक मुददों पर केनिद्रत शोधपरक निबन्‍धों के एक संकलन के रूप में पेश करें। हर अंक में तीन से चार शोधपरक निबन्‍ध होंगे। हम इन शोधपरक निबन्‍धों पर आने वाली आलोचनाओं को भी प्रकाशित करेंगे और उन पर लम्बी बहसों को स्थान देंगे। इसके अतिरिक्त, पत्रिका में कुछ अन्य लेख और समसामयिक मुददों पर टिप्पणियाँ भी होंगी। हमारा प्रयास होगा कि हर वर्ष इसके कम-से-कम तीन अंक प्रकाशित किये जायें और प्रत्येक अंक लगभग 250 पृष्ठों का हो। यह पत्रिका वास्तव में उसी परियोजना की निरन्तरता में है, जिसे ‘दायित्वबोध’ नामक पत्रिका चला रही थी। हम सभी उस परियोजना के भागीदार थे। लेकिन 2008 में पत्रिका के सम्पादक मण्डल के एक प्रमुख सदस्य साथी अरविन्द के निधन के बाद ‘दायित्वबोध’ का प्रकाशन जारी नहीं रह सका। हाल ही में, पत्रिका के प्रधान सम्पादक साथी विश्वनाथ मिश्र का भी आकस्मिक निधन हो गया। हम लम्बे समय से इस परियोजना को नये ढंग से पुनर्जीवित करने के बारे में सोच रहे थे और अब हम इसे कुछ नये संकल्पों के साथ शुरू कर रहे हैं।

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सम्पादक, ‘दिशा सन्धान’

69 ए-1, बाबा का पुरवा

पेपर मिल रोड, निशातगंज,

लखनऊ – 226006

हमें पूरी आशा है, बल्कि विश्वास है कि इस परियोजना को जारी रखने और जि़न्दा रखने के लिए हमारे पास ढेरों साथियों, हमदर्दों और सहयोगियों की कमी नहीं होगी। आपके सुझावों, प्रतिक्रिया व सहयोग के इन्तज़ार में…

क्रानितकारी अभिवादन के साथ,

सम्पादक मण्डल,

दिशा सन्धान

सम्पादकः कात्यायनी, सत्यम

मूल्यः 100 रुपये

वार्षिक सदस्यता: 400 रुपये (डाक व्यय अतिरिक्त), त्रैमासिक

सम्पादकीय पताः 69 ए-1, बाबा का पुरवा, पेपरमिल रोड, निशातगंज, लखनऊ-226006

ईमेलः dishasandhaan@gmail.com, फोनः 9936650658/8853093555

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The worst illiterate is the political illiterate – Bertolt Brecht

The worst illiterate is the political illiterate, he doesn’t hear, doesn’t speak, nor participates in the political events. He doesn’t know the cost of life, the price of the bean, of the fish, of the flour, of the rent, of the shoes and of the medicine, all depends on political decisions. The political illiterate is so stupid that he is proud and swells his chest saying that he hates politics. The imbecile doesn’t know that, from his political ignorance is born the prostitute, the abandoned child, and the worst thieves of all, the bad politician, corrupted and flunky of the national and multinational companies.

-Bertolt Brecht

सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में चुने हुए उद्धरण / लेनिन

सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में चुने हुए उद्धरण

  • वी.आई. लेनिन

जो लोग केवल वर्ग संघर्ष को मानते हैं, वे अभी मार्क्सवादी नहीं है, वे सम्भवत: अभी बुर्जुआ चिन्तन और बुर्जुआ राजनीतिक के दायरे में ही चक्कर काट रहे हैं। मार्क्सवाद को वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त तक ही सीमित करने के मानी हैं मार्क्सवाद की काट–छाँट करना, उसको तोड़ना–मरोड़ना, उसे एक ऐसी चीज़ बना देना, जो बुर्जुआ वर्ग को मान्य हो। मार्क्सवादी केवल वही है, जो वर्ग संघर्ष की मान्यता को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की मान्यता तक ले जाता है। मार्क्सवादी और एक साधारण छोटे (और बड़े) बुर्जुआ के बीच सबसे गम्भीर अन्तर यही है। यही वह कसौटी है जिस पर मार्क्सवाद की वास्तविक समझ और मान्यता की परीक्षा की जानी चाहिए।

– राज्य और क्रान्ति, (अगस्त–सितम्बर, 1917)

सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व एक अत्यन्त नि:स्वार्थ और निर्मम युद्ध है, जो एक नया वर्ग अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु, बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ चलाता है, जिसकी पराजय से (भले ही वह केवल एक देश में पराजित हुआ हो) उसका प्रतिरोध दस गुना बढ़ जाता है और जिसकी शक्ति न केवल अनतरराष्ट्रीय पूँजी की शक्ति में, बुर्जुआ वर्ग के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों की ताकत और मजबूती में, बल्कि आदत की ताकत में, छोटे पैमाने के उत्पादन की शक्ति में भी निहित है। कारण कि दुर्भाग्य से, छोटे पैमाने का उत्पादन अब भी दुनिया में बहुत, बहुत बचा हुआ है और यह छोटे पैमाने का उत्पादन लगातार हर दिन, हर घण्टे, अपनेआप और बड़े पैमाने पर पूँजीवाद और बुर्जुआ वर्ग को पैदा करता रहता है। इन सभी कारणों से, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व अत्यन्त आवश्यक है, और एक लम्बा, कठोर, और निर्मम युद्ध चलाये बिना जीवन और मरण की लड़ाई लड़े बिना, एक ऐसी लड़ाई लड़े बिना, जिसमें धैर्य, अनुशासन, अदम्य साहस और इच्छा की एकता की आवश्यकता होती है, बुर्जुआ वर्ग पर विजय पाना असम्भव है।

– “वामपन्थी” कम्युनिज्म, एक बचकाना मर्ज़,

(अप्रैल–मई, 1920)

…पूँजीवाद से समाजवाद में हर संक्रमण के दौरान दो मुख्य कारणों से, या दो मुख्य रास्तों से अधिनायकत्व जरूरी होता है। पहला, पूँजीवाद को तब तक हटाया और मिटाया नहीं जा सकता जब तक उन शोषकों के प्रतिरोध का निर्ममतापूर्वक दमन न किया जाये, जिन्हें एकाएक उनकी सम्पत्ति से, संगठन और ज्ञान के उनके लाभों से वंचित नहीं किया जा सकता, और फलत: जो काफी लम्बे समय तक अपरिहार्यत: गरीबों के घृणित राज को उखाड़ फेंकने की कोशिश करते रहेंगे। दूसरे, यदि बाह्य युद्ध न भी तो भी, किसी भी महान क्रान्ति, खासकर समाजवादी क्रान्ति की कल्पना आन्तरिक युद्ध, यानी गृहयुद्ध के बिना नहीं की जा सकती, जो बाह्य युद्ध से भी ज़्यादा विनाशकारी होता है, और जिसमें ढुलमुलपन और एक पक्ष को छोड़कर दूसरे पक्ष में चले जाने के दसियों लाख मामले होते हैं, तथा अत्यधिक अनिश्चितता, सन्तुलन का अभाव और अराजकता अन्तर्निहित होते हैं। और बेशक, पुराने समाज के विघटन से निकले सभी तत्व, जो अपरिहार्यत: असंख्य होते हैं और मुख्यत: निम्न–बुर्जुआ से जुड़े होते हैं (क्योंकि हर युद्ध और हर संकट सबसे पहले निम्न बुर्जुआ को तबाह–बर्बाद करता है) ऐसी किसी व्यापक क्रान्ति के दौरान “मजे लूटे” बिना नहीं रह सके। और विघटन के ये तत्व अपराध, गुण्डागर्दी, भ्रष्टाचार, मुनाफाखोरी और हर किस्म की बदमाशियों के बना “मज़ा” नहीं “लूट” सकते। और उन्हें दबाने में समय लगता है और इसके लिए लोहे के हाथों की जरूरत होती है।

दुनिया में एक भी ऐसी महान क्रान्ति नहीं हुई है जिसमें लोगों ने सहज प्रेरणा से इस बात को जान न लिया हो, और चोरों को फौरन गोली से उड़ाकर शानदार दृढ़ता का परिचय न दिया हो। पिछली क्रान्तियों का यह दुर्भाग्य था कि जनसाधारण का क्रान्तिकारी उत्साह, जो उन्हें तनाव की स्थिति में बनाये रखता था और उन्हें विघटन के तत्वों का निर्ममतापूर्वक दमन करने की शक्ति प्रदान करता था, ज्यादा दिनों तक टिका नहीं रहता था। जनसाधारण के क्रान्तिकारी उत्साह की इस अस्थिरता का सामाजिक, यानी वर्गीय कारण था सर्वहारा वर्ग की कमजोरी, क्योंकि केवल वही (यदि वह पर्याप्त संख्या में, वर्ग सचेत और अनुशासित हो) मेहनतकश तथा शोषित जनता की बहुसंख्या को (और सीधे–सरल तथा लोकप्रिय ढंग से कहें, तो गरीबों की बहुसंख्या को) अपनी ओर खींच सकता है तथा सत्ता को इतने समय तक कायम रख सकता है जो सभी शोषकों तथा विघटन के सभी तत्वों को पूरी तरह दबाने के लिए पर्याप्त हो।

सभी क्रान्तियों के इसी ऐतिहासिक अनुभव, इसी विश्व–ऐतिहासिक–आर्थिक एवं राजनीतिक सबक का समाहार करते हुए मार्क्स ने अपना संक्षिप्त, तीक्ष्ण, और अभिव्यंजनापूर्ण सूत्र दिया : सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व।

– सोवियत सरकार के तात्कालिक कार्यभार (मार्च–अप्रैल 1918)

शोषकों, जमींदारों और पूंजीपतियों का वर्ग सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत न तो लुप्त हुआ है और न तत्काल लुप्त हो सकता है। शोषकों को चकनाचूर तो कर दिया गया है, परन्तु उनका उन्मूलन नहीं हुआ है। उनके पास अन्तर्राष्ट्रीय आधार बचा हुआ है, यह है अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी, जिसकी वे एक शाखा हैं। उनके पास उत्पादन के कुछ साधनों का एक भाग बचा हुआ है, उनके पास धन बचा हुआ है, उनके पास विशाल मात्रा में सामाजिक संबंध हैं। ठीक उनकी पराजय के कारण उनके प्रतिरोध की स्फूर्ति सौगुनी, हजार गुनी बढ़ी है। राजकीय, सैनिक, आर्थिक प्रशासन की ‘‘कला’’ उनका पलड़ा बहुत ज्यादा भारी बनाती है, जिसकी वजह से उनका महत्व आबादी की आम संख्या में उनके हिस्से से अतुलनीय रूप से अधिक है। शोषितों के विजयी हरावल के विरुद्ध, याने सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध शोषकों का, जिनका तख्ता उलटा जा चुका है, वर्ग संघर्ष अपरिमित रूप से अधिक कटु बन गया है। अन्यथा हो भी नहीं सकता, बशर्ते क्रांति की अवधारणा के स्थान पर (जैसा कि दूसरे इंटरनेशनल के सारे सूरमा करते हैं) सुधारवादी भ्रम न रख दिये जायें।

– सर्वहारा अधिनायकत्व के युग में अर्थनीति और राजनीति, (अक्टूबर, 1919)

…सत्ता पर सर्वहारा का अधिकार होने के बाद भी वर्ग अभी बाक़ी हैं और बरसों सर्वत्र बाक़ी रहेंगे। हो सकता है कि इंगलैण्ड में, जहाँ किसान नहीं है (लेकिन फिर भी छोटी मिल्की तो हैं ही!), यह अवधि न्यूनतर हो। वर्गों का उन्मूलन करने का मतलब सिर्फ भूस्वामियों और पूँजीपतियों को निकालना ही नहीं है, – यह तो हमने अपेक्षाकृत आसानी से कर लिया है, -इसका मतलब लघु पण्य–उत्पादकों का उन्मूलन भी है और उन्हें निकाल बाहर नहीं किया जा सकता, उन्हें कुचला नहीं जा सकता, उनके साथ मिल–जुलकर रहना होगा, उन्हें सिर्फ़ बहुत दीर्घकालिक, बहुत मंथर और बहुत सावधानीपूर्ण संगठनात्मक कार्य द्वारा ही फिर से ढाला और पुन:शिक्षित किया जा सकता है (और यिका जाना चाहिये)। वे सर्वहारा को सभी ओर से निम्नबुर्जुआ परिवेश में घेरे हैं, उसे उससे सराबोर करते हैं, उसे भ्रष्ट करते हैं, सर्वहारा में निरंतर निम्नबुर्जुआ ढुलमुलयक़ीनी, फूट, व्यक्तिवादिता, बारी–बारी से हर्षोतिरेक से घोर निराशा के दौरों का आवर्तन लाते हैं। इसके लिए सर्वहारा की राजनीतिक पार्टी के भीतर कठोरतम केन्द्रीयता और अनुशासन की आवश्यकता है कि इसका मुक़ाबला किया जा सके, कि सर्वहारा की संगठनात्मक भूमिका (और यही उसकी मुख्य भूमिका है) को सही तरीके से, सफलतापूर्वक और विजय के साथ निबाहा जा सके। सर्वहारा अधिनायकत्व पुराने समाज की शक्तियों और परम्पराओं के विरुद्ध अनवरत – रक्तमय और रक्तहीन, हिंसापूर्ण और शांतिमय, सैनिक और आर्थिक, शैक्षिक और प्रशासनिक-संघर्ष है। लाखों और करोड़ों इन्सानों की आदत एक दुर्दम्य शक्ति है। संघर्ष में तपी एक फौलादी पार्टी के बग़ैर, ऐसी पार्टी के बग़ैर कि जिसे उस वर्ग के सभी ईमानदार लोगों का विश्वास प्राप्त हो, ऐसी पार्टी के बग़ैर कि जिसमें जनसाधारण की भावनाओं को समझने और उन पर प्रभाव डालने की क्षमता हो, इस संघर्ष को सफलतापूर्वक चलाना सम्भव नहीं है। करोड़ों छोटे मिल्कियों को “हराने” की बनिस्पत केंद्रीकृत बड़े बुर्जुआज़ी को हराना हज़ार गुना आसान है, लेकिन ये छोटे मिल्की अपने रोज़मर्रा के साधारण, अदृश्य, अननुभूत, हतोत्साहकारी कार्यकलाप से वे ही परिणाम पैदा करते हैं, जिनकी बुर्जुआज़ी को आवश्यकता है, जो बुर्जुआज़ी की पुन:स्थापना करते हैं। जो कोई भी सर्वहारा पार्टी के लौह अनुशासन को ज़रा भी कमज़ोर करता है (ख़ासकर उसके अधिनायकत्व के समय), वह वास्तव में सर्वहारा के विरुद्ध बुर्जुआज़ी की सहायता करता है।…

– “वामपन्थी” कम्युनिज्म, एक बचकाना मर्ज़, (अप्रैल–मई, 1920)

हाँ, मज़दूर वर्ग को पुराने पूँजीवादी समाज से अलग करने वाली कोई चीन की दीवार नहीं है। और जब कोई क्रान्ति होती है, तो वह इस तरह नहीं होती जैसे कोई व्यक्ति मर जाता है, जब मृत व्यक्ति को सीधे उठा ले जाया जाता है। जब पुराना समाज मरता है, तो आप उसके मृत शरीर को ताबूत में बन्द करके कब्र में दफ्न नहीं कर सकते। वह हमारे बीच ही विघटित होता है मृत शरीर सड़ता है और हमारे बीच ज़हर फैलता है।

– अकाल का मुकाबला करने पर रिपोर्ट मज़दूरों, किसानों और लाल सेना के प्रतिनिधियों तथा ट्रेड यूनियनों की मास्कों सोवियत की अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारिणी के संयुक्त अधिवेशन में प्रस्तुत (4 जून, 1918)

इस प्रकार कम्युनिस्ट समाज की प्रथम अवस्था में (जिसे आम तौर से समाजवाद कहा जाता है) पूर्ण “बुर्जुआ अधिकार” का नहीं, बल्कि उसके केवल एक भाग का, तब तक हो चुकनेवाली आर्थिक क्रान्ति के अनुपात में ही, अर्थात उत्पादन के साधनों के सम्बन्ध में ही, उन्मूलन होता है। “बुर्जुआ अधिकार” उन्हें अलग–अलग व्यक्तियों की निजी सम्पत्ति मानता है। समाजवाद उन्हें सब की सम्पत्ति बना देता है। उस हद तक-और केवल उसी हर तक-“बुर्जुआ अधिकार” लुप्त होता है।

लेकिन जहाँ तक उसके दूसरे भाग का सम्बन्ध है, वह अब भी मौजूद रहता है, वह समाज के समदस्यों के बीच उत्पादित चीज़ों के वितरण और श्रम के विनियोजन में एक नियामक (निर्धारक शक्ति) की हैसियत में मौजूद रहता है। यह समाजवादी उसूल कि “जो काम नहीं करता, वह खायेगा भी नहीं” अमल में आ चुका है; दूसरा समाजवादी उसूल भी कि “श्रम की बराबर मात्रा के लिए उत्पादित चीजों की बराबर मात्रा”, अमल में आ चुका है। लेकिन अभी यह कम्युनिज़्म नहीं होता और यह उस “बुर्जुआ अधिकार” का, जो असमान व्यक्तियों को मेहनत की असमान (वास्तव में असमान) मात्रा के बदले में उत्पादित चीज़ों की समान मात्रा देता है, अभी ख़ात्मा नहीं करता।

– राज्य और क्रान्ति, (अगस्त–सितम्बर, 1917)

मार्क्स न केवल मनुष्यों की अनिवार्य असमानता का ही अधिकतम अचूक ध्‍यान रखते हैं, बल्कि वह इस बात का भी ध्‍यान रखते हैं कि केवल उत्पादन के साधनों को सम्पूर्ण समाज की सम्पत्ति बना देने से ही (जिसे आम तौर से “समाजवाद” कहा जाता है) बँटवारे की बुराइयाँ और “बुर्जुआ अधिकार” की असमानता दूर नहीं हो जातीं, जो उस हद तक निरन्तर हावी रहता है, जिस हद तक उपजों का बँटवारा मेहनत की मात्रा के अनुसार” होता रहता है।

– राज्य और क्रान्ति, (अगस्त–सितम्बर, 1917)

…निस्संदेह उपभोग की चीज़ों के वितरण के सम्बन्ध में बुर्जुआ अधिकार की पूर्वकल्पना अनिवार्य रूप से इस बात में निहित है कि बुर्जुआ राज्य अब भी मौजूद है, क्योंकि अधिकार के मानकों को मनवाने के उपकरण के बिना अधिकार कोई माने नहीं रखता।

इसलिए कम्युनिज़्म के अन्तर्गत न केवल बुर्जुआ अधिकार, बल्कि बुर्जुआ राज्य भी – बुर्जुआ वर्ग के बिना – कुछ समय तक बना रहता है!

– राज्य और क्रान्ति, (अगस्त–सितम्बर, 1917)

कारोबार (टर्नओवर) की स्वतंत्रता का मतलब है व्यापार की स्वतंत्रता को मतलब है पूँजीवाद में वापसी। कारोबार की स्वतंत्रता और व्यापार की स्वतंत्रता का मतलब है व्यक्तियों यानी छोटे मालिकों के बीच माल विनिमय। हम सब जिन्होंने मार्क्सवाद का क ख ग भी सीखा है, यह जानते हैं कि यह कारोबार और व्यापार की स्वतंत्र अपरिहार्यत: माल उत्पादकों के पूँजी के मालिकों और उजरती मजदूरों के बीच विभाजन तक ले जाते हैं यानी पूँजीवादी उजरती गुलामी की बदहाली की ओर ले जाते हैं, जो आसमान से नहीं टपक पड़ती है, बल्कि पूरी दुनिया में माल–उत्पादन करने वाली कृषि से ही पैदा होती है। हम इस बात को अच्छी तरह जानते हैं, सिद्धान्त रूप में, और रूस में जिसने भी छोटे किसान के जीवन और आर्थिक दशाओं को देखा है वह इस पर ध्‍यान दिये बिना नहीं रह सकता।

– वी.आई.लेनिन, रिपोर्ट ऑन दि सबस्टीट्यूशन ऑफ ए. टैक्स इन काइण्ड फॉर दि सरप्लस ग्रेन एप्रोप्रिएशन सिस्टम, रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की दसवीं कांग्रेस में प्रस्तुत (15 मार्च, 1925)

…बुर्जुआ वर्ग माल उत्पादन से पैदा होता है और माल उत्पादन की इन दशाओं में जिस किसान के पास सैकड़ों पूड अनाज है जिसकी उसे अपने परिवार को खिलाने के लिए जरूरत नहीं है और वह उसे भूखे मजदूरों की मदद के लिए मजदूरों के राज को उधार नहीं होता वह क्या है? क्या वह एक बुर्जुआ नहीं है? क्या बुर्जुआ इसी ढंग से नहीं पैदा होता है?

– वी.आई.लेनिन, अखिल रूसी केन्द्रीय समिति और जन कमिसार परिषद की रिपोर्ट पर समापन भाषण, सोवियत की सातवीं अखिल रूसी कांग्रेस में प्रस्तुत (दिसम्बर, 1919)

हाँ, भूस्वामियों और पूँजीपतियों को उखाड़ फेंककर हमने रास्ता साफ कर लिया लेकिन हमने समाजवाद के ढाँचे निर्माण नहीं किया। एक बुर्जुआ पीढ़ी से साफ की गयी ज़मीन पर अपरिहार्यत: नयी पीढ़ियाँ इतिहास में हमेशा पैदा होती रही हैं, जब तक कि उन्हें पैदा करने वाली जमीन रहेगी, और यह जमीन वास्तव में अनगिनत संख्याओं में बुर्जुआओं को पैदा करती है। जहाँ तक उन लोगों का सवाल है जो पूँजीपतियों पर जीत को छोटे मालिकों की नजर से देखते हैं – “वे लूटते थे, अब हमें मौका, मिलना चाहिए” बिलाशक, उनमें से हरेक बुर्जुआओं की एक नयी पीढ़ी का स्रोत है।

– सोवियत सरकार के तात्कालिक कर्मभारों पर रिपोर्ट, अखिल रूसी के कार्यकारणी की बैठक वे प्रस्तुत (29 अप्रैल, 1918)

…कामरेड राइकोव, जो आर्थिक दायरे के तथ्यों को बहुत अच्छी तरह जानते हैं, ने हमारे देश में मौजूद नये बुर्जुआ के बारे में हमें बताया। यह सच है। यह सिर्फ हमारी सोवियत सरकार के कर्मचारियों के बीच से ही नहीं पैदा हो रहा है – बहुत कम महत्वपूर्ण स्तर तक यह उनके बीच से भी पैदा हो सकता है – यह किसानों और दस्तकारों के बीच से पैदा हो रहा है जो पूँजीवादी बैंकों के जुवे से मुक्त हो गये है और जो अब रेल परिवहन से कट गये है। यह एक तथ्य है। आप इस तथ्य की अनदेखी कैसे कर सकते हैं। आप महज अपने भ्रमों की पुष्टि कर रहे हैं, या खराब ढंग से रचाये–पचाये गये किताबी ज्ञान को यथार्थ में घुसाने की कोशिश कर रहे हैं जो कि कहीं अधिक जटिल है। यह दिखाता है कि हर पूँजीवादी समाज की तरह, रूस में भी पूँजीवादी माल उत्पादन जीवित है, सक्रिय है, विकसित हो रहा है और एक नये बुर्जुआ को पैदा कर रहा है।

– पार्टी कार्यक्रम पर रिपोर्ट पर समाम्पन भाषण। रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की सातवीं कांग्रेस में प्रस्तुत

(19 मार्च 1919)

सोवियत इंजीनियरों में, सोवियत अध्‍यापकों में और सोवियत कारख़ानों में विशेष सुविधाएँ प्राप्त, यानी सबसे अधिक कार्य–निपुण और सबसे अच्छी स्थिति में बैठे मजदूरों में हम बिल्कुल उन सभी अवगुणों को लगातार पैदा होते देखते हैं, जो बुर्जुआ संसदवाद की विशेषता हैं, और इस बुराई पर हम केवल सर्वहारा संगठन तथा अनुशासन के अथक, अनवरत, दृढ़ और दीर्घ संघर्ष के जरिए -धीमी गति से- क़ाबू पा रहे हैं।

– “वामपन्थी” कम्युनिज्म, एक बचकाना मर्ज़,

(अप्रैल–मई, 1920)

पूँजीवाद और मज़दूरों का प्रवास

पूँजीवाद और मज़दूरों का प्रवास

  • सुखविन्दर

रोज़ी–रोटी तथा बेहतर जीवन के लिये इंसानों के एक जगह से दूसरी जगह प्रवास की परिघटना युगों पुरानी है। जब मानव समाज अभी वर्गों में विकसित नहीं हुआ था, उस समय भी इंसानी आबादी मैदानी इलाकों, उपजाऊ ज़मीनों, चरागाह तथा बेहतर सहनीय मौसम वाले इलाकों की तलाश में जहाँ–तहाँ अपने ठिकाने बदलते रहती थी। लेकिन जब समाज वर्गों में विभाजित हो गया तो वर्गीय शोषण–उत्पीड़न लोगों के प्रवास का मुख्य कारण बन गया। दास समाज में बड़े पैमाने पर गुलामों का व्यापार होता था, इन गुलामों की अपनी कोई धरती, अपना कोई देश नहीं होता था। बस जहाँ उनके खरीदार ले जाते थे वही उनका अपना देश हो जाता था। मानव इतिहास के इस काल दौर में गुलामों का व्यापार इंसानों के प्रवास की मुख्य वजह बना, गुलाम मालिकों द्वारा गुलामों पर यह ज़ोर–जबरदस्ती से थोपा गया प्रवास था। गुलाम मालिकों का शोषण–उत्पीड़न भी गुलामों को एक से दूसरी जगह भागने को मजबूर कर देता था।

सामन्तवादी दौर में अकाल प्रवास की मुख्य वजह बने। भुखमरी से बचने के लिये लोग दूसरी जगहों पर रोजी–रोटी की तलाश में निकल पड़ते थे। पूँजीवाद में पूँजी की वजह से लोग प्रवास करते हैं, यानी वे विकसित पूँजीवादी देशों की तरफ, जहाँ कि रोजगार के अधिक अवसर होते हैं, चल पड़ते हैं। वर्ग विभाजित समाज में हज़ारों साल पहले जो प्रवास की बुनियादी वजह थी, उत्पादक शक्तियों के तमाम विकास के बावजूद आज भी प्रवास की बुनियादी वजह वही है-यानी रोज़ी–रोज़गार की तलाश।

पूँजीवाद में प्रवास

आज हम इंसानी आबादी के बड़े पैमाने पर प्रवास के साक्षी बन रहे हैं। यह प्रवास एक ही देश के भीतर, एक इलाके से दूसरे इलाकों में तथा एक देश से दूसरे देश या एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप की तरफ हो रहा है। आज लगभग 20 करोड़ लोग जो कि विश्व की आबादी का 3 प्रतिशत बनते है अपने देश के बाहर काम कर रहे हैं। यह संख्या 25 साल पहले के प्रवासियों की संख्या से दोगुनी है।

असमान आर्थिक विकास पूँजीवाद की अन्तर्निहित विशिष्टता है। यह एक देश के भीतर भी होता है तथा विश्व स्तर पर भी। जहाँ पर पूँजी निवेश के लिये बेहतर हालात, यानी कच्चे माल की आपूर्ति, तैयार माल के लिए बाजार आदि होते हैं पूँजीपति उन्हीं जगहों पर पूँजी लगाना अधिक पसन्द करते हैं। इसके कारण देश के भीतर पूँजी का कुछेक औद्योगिक नगरों के इर्द–गिर्द सघन संकेन्द्रण होता है तो देश के बाकी इलाकों को सस्ती श्रम शक्ति के आपूर्ति केन्द्रों में बदल दिया जाता है। भारत में यही प्रक्रिया हम आज अपनी आँखों के सामने देख सकते हैं, जहाँ पर पिछड़ी कृषि के इलाकों जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, झारखण्ड, मध्यप्रदेश आदि राज्यों से बड़े पैमाने पर आबादी औद्योगिक नगरों तथा विकसित कृषि वाले इलाकों की तरफ़ प्रवास कर रही है। यह प्रक्रिया दुनिया के हर पूँजीवादी देश में चली है या विकासमान पूँजीवादी देशों में चल रही है।

विश्व स्तर पर देखें तो भी पूँजीवाद का असमान विकास दिखाई देता है। एक ओर विकसित पूँजीवादी–साम्राज्यवादी देश हैं, जहाँ पूँजी का अत्यधिक संकेन्द्रण है, तो दूसरी तरफ तीसरी दुनिया के पिछड़े पूँजीवादी देश हैं, जो कि कभी साम्राज्यवादी देशों के उपनिवेश, अर्द्ध–उपनिवेश या नव–उपनिवेश रहे हैं। औपनिवेशिक गुलामी ने इन देशों के विकास को तोडा़–मरोड़ा, औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त होने के बाद भी यह देश साम्राज्यवादी शोषण उत्पीड़न के शिकार रहे हैं, जिसके चलते जहाँ पूँजीवाद का स्वस्थ विकास न हो सका, बल्कि एक रुग्ण– विकलांग पूँजीवाद पनपा। औपनिवेशिक गुलामी के गर्भ से पैदा हुआ यह 20वीं सदी के उत्तरार्ध का ऐसा पूँजीवाद था जिसे जवानी में ही बुढ़ापे के रोग लगे थे। नतीजतन उत्पादक शक्तियों के विकास के लिहाज़ से ये देश आज भी साम्राज्यवादी–विकसित पूँजीवादी देशों से दशकों पीछे हैं। उत्पादक शक्तियों के इसी पिछड़ेपन के चलते आज अफ्रीका, एशिया तथा लातिनी अमेरिका के ये देश साम्राज्यवादी देशों के लिये सस्ते कच्चे माल तथा सस्ती श्रम शक्ति के मुख्य स्रोत हैं।

आज की दुनिया में जो अन्तर्देशीय तथा अन्तर्महाद्वीपीय प्रवास हो रहा है, वह मुख्य तौर पर तीसरी दुनिया के पिछड़े पूँजीवादी देशों से विकसित पूँजीवादी– साम्राज्यवादी देशों की तरफ़ हो रहा है। हालाँकि पिछड़े पूँजीवादी देशों तथा विकसित पूँजीवादी देशों में भी एक से दूसरे देश में बड़े पैमाने पर प्रवास जारी है। जैसे कि भारत में ही देखें जहाँ नेपाल, बंगलादेश तथा श्रीलंका से लाखों लाख प्रवासी भारत के श्रम बाजार में बिकने के लिये आ बसे हैं। उधर विकसित पूँजीवादी देशों में भी एक से दूसरे देश में आबादी का प्रवास देखा जा सकता है। यूरोपीय यूनियन के विस्तार (पूर्वी यूरोप के 10 देशों को शामिल करने) के बाद पूर्वी यूरोप से पश्चिमी यूरोप में बड़े पैमाने पर आबादी का प्रवास नज़र आता है। मई 2004 में जबसे पूर्वी यूरोप के देश ‘यूरोपीय यूनियन’ में शामिल हुए, इन देशों के 2,90,000 नागरिकों ने ब्रिटेन में नौकरी के लिये आवेदन किया है।

उत्पादक शक्तियों के विकास के लिहाज़ से, विश्व सकल घरेलू उत्पाद में अपने हिस्से के लिहाज़ से, प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज़ से विकसित पूँजीवादी–साम्राज्यवादी देश बाकी दुनिया से बहुत आगे हैं। इन देशों में श्रमिकों का जीवनस्तर भी बाकी दुनिया के श्रमिकों के जीवन स्तर से कहीं बेहतर है। इन देशों में श्रम शक्ति की कीमत काफ़ी ‘ऊँची’ है। साम्राज्यवादी देशों में किसी कम्पनी की 70 प्रतिशत लागत श्रम शक्ति से आती है तथा 30 प्रतिशत पूँजी से। चीन तथा भारत जैसे देशों में स्थिति इसके ठीक विपरीत है।

इन देशों में जीवन की मुकाबलतन बेहतर परिस्थितियों के चलते, एशिया, अफ्रीका, लातिनी अमेरिका के पिछड़े पूँजीवादी देशों से लाखों–लाख श्रमिक क़ानूनी–गैर क़ानूनी तरीके से इन देशों में घूसने की कोशिश करते हैं। इन देशों तक गैर क़ानूनी तरीकों से पहुँचने की कोशिश में अनेकों लोग अपनी जान तक जोखिम में डालते हैं, अनेकों जानें जाती हैं। गैर क़ानूनी तरीके से अमीर मुल्कों में पहुँचने की कोशिश करने वालों को जो–जो मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं, उनकी दिल दहला देने वाली रिपोर्टें अक्सर अखबारों में पढ़ने को मिल जाती हैं।

तीसरी दुनिया के पिछड़े पूँजीवादी देशों से विकसित पूँजीवादी–साम्राज्यवादी देशों की तरफ़ आबादी का यह प्रवास इन देशों के पूँजीपतियों के लिए सस्ते श्रम का बड़ा जरिया है।

यूरोप को आज आप्रवासियों का महाद्वीप कहा जाता है। भले ही परम्परागत तौर पर यूरोप को प्रवासन का महाद्वीप माना जाता रहा है, मगर यह भी एक निर्विवाद तथ्य है कि आप्रवास भी यूरोप की धरती का अटूट अंग रहा है। प्रवास की पिछली पाँच शताब्दियों के चलते, यूरोपीय अब मिले–जुले लोग हैं। आज फ़्रांसीसी आबादी की एक चौथाई आबादी के माता–पिता या उनके माता–पिता विदेशी मूल के थे। वियना के लिए यह आँकड़ा 40 प्रतिशत है।

यूरोप प्रवास की की इतालवी शताब्दी (1876–1976) का मुख्य गन्तव्य रहा है। लगभग 12 करोड़ 60 लाख इटलीवासी अन्य यूरोपीय देशों को गये-ग़ैर यूरोपीय देशों में जाने वालों से दस लाख अधिक। सबसे अधिक इतालवी प्रवासियों का लक्ष्य अमेरिका (57 लाख) था। फ़्रांस में 41 लाख इतालवी प्रवासी बसे, छोटे से स्विट्जरलैण्ड में 40 लाख, जर्मनी में 24 लाख तथा आस्ट्रेलिया में 12 लाख। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप दो करोड़ प्रवासियों का घर बना।

पूँजीवाद ने जब साम्राज्यवाद की मंजिल में प्रवेश किया तो साम्राज्यवादी देशों में आप्रवास में कमी आई जबकि इन देशों में पिछड़े देशों से प्रवास बढ़ा। 19वीं शताब्दी के अन्त तथा 20वीं शताब्दी की शुरुआत में साम्राज्यवादी देशों से बाहर की ओर तथा अन्य पिछड़े गरीब देशों से साम्राज्यवादी देशों में प्रवास के पलायन से इस बात की पुष्टि होती है। अपनी सुप्रसिद्ध कृति ‘साम्राज्यवाद, पूँजीवाद की चरम अवस्था’ में लेनिन इस प्रक्रिया से सम्बन्धित आँकड़े देते हैं, “1884 से इंग्लैण्ड से प्रवास कम हो रहा है। उस साल प्रवासियों की संख्या 2,42,000 थी जबकि 1900 में यह संख्या 1,69,000 थी। जर्मनी से प्रवास 1881 तथा 1890 के दरमियान अपने चरम पर था जब प्रवासियों की संख्या 14,53,000 थी। बाद के दो दशकों में यह घटकर 5,44,000 तथा फिर 3,41,000 रह गई। दूसरी ओर, आस्ट्रेलिया, इटली तथा रूस से जर्मनी में दाखिल होने वाले मज़दूरों की संख्या में इजाफा हुआ। 1907 की जनगणना के मुताबिक जर्मनी में 13,42,294 विदेशी थे, जिनमें से 4,40,800 औद्योगिक मज़दूर थे तथा 2,57,329 कृषि मज़दूर थे। फ़्रांस में खनन उद्योग में करने वाले मज़दूरों का ‘बड़ा हिस्सा’ विदेशियों पोल, इतालवी तथा स्पेनियों का है।”

साम्राज्यवादी देशों की ओर प्रवास का यह रुझान बाद में भी जारी रहा। जिनेवा आधारित संगठन ‘इण्टरनेशनल आर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन’ ने अपनी रिपोर्ट ‘वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट 2003, मैनेजिंग माइग्रेशन’ में कहा है, “1990 के दशक में यूरोप आप्रवास का महाद्वीप बन गया।” इसी रिपोर्ट के मुताबिक दूसरे विश्व युद्ध के बाद से पश्चिमी यूरोप में प्रवासियों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। 1950 में पश्चिमी यूरोप में 38 लाख विदेशी नागरिक थे, 2003 में इनकी संख्या बढ़कर 2 करोड़ 5 लाख हो गई। इसमें अतिरिक्त 1 करोड़ की संख्या उन प्रवासियों की थी जो अब विदेशी नागरिक नहीं रह गये थे।

2000 तक अमेरिका में कुल साढ़े तीन करोड़, जर्मनी में 3 लाख, फ़्रांस में 63 लाख, कनेडा में 58 लाख, आस्टेलिया में 47 लाख तथा इंग्लैण्ड में 45 लाख प्रवासी थे। 1980 से 2003 के दरमियान सिर्फ़ 5 सालों में स्पेन में प्रवासियों की संख्या 4 गुना बढ़कर 30 लाख हो गई जोकि स्पेन की 4 करोड़ 20 लाख आबादी का 7 प्रतिशत थे।

2001 की जनगणना के मुताबिक इंग्लैण्ड की आबादी का 7.53 प्रतिशत आप्रवासी थे (इसमें उत्तरी आयरलैण्ड के आप्रवासियों की संख्या शामिल नहीं है।)

1980 में इंग्लैण्ड में सालाना प्रवास की संख्या 40,000 थी। 1994–97 के दौरान यह बढ़कर 60,000 सालाना हो गई। 1998 में और अधिक बढ़कर यह 1,33,500 हो गई। इंग्लैण्ड में आने वाले आप्रवासियों में सबसे अधिक संख्या अमेरिकियों की थी, उसके बाद पूर्वी यूरोप और फिर भारतीय उपमहाद्वीप से आने वाले आप्रवासियों की। पूँजीवादी दौर में, पूँजीवाद का असमान विकास पिछड़े इलाकों तथा देशों से, विकसित इलाकों तथा देशों की तरफ़ आबादी के प्रवास की मुख्य वजह है। भुखमरी तथा गरीबी से बचने के लिये लोग, विकसित पूँजीवादी इलाकों तथा देशों की तरफ़ चल देते हैं।

साम्राज्यवादियों द्वारा दूसरे मुल्कों पर थोपे जाने वाले युद्ध तथा दूसरे मुल्कों द्वारा भड़काये जाने वाले गृहयुद्ध भी लोगों को अपना देश छोड़ने के लिये मजबूर करते हैं। इससे दूसरे देशों में शरण लेने वालों की संख्या में भावी इजाफा हुआ है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एवं मानवाधिकार आयोग के मुताबिक 1990 के दशक में 60 लाख से भी अधिक लोगों ने विकसित देशों में शरण लेने के लिए आवेदन किया था, यह संख्या 1980 (22 लाख) में शरण के लिये आवेदन करने वालों से लगभग तीन गुना ज़्यादा थी।

भूतपूर्व पूर्वी ब्लाक के गिरने, यूगोस्लाविया के टूटने, जिसमें यूरोपीय तथा अमेरिकी साम्राज्यवादियों का बड़ा हाथ था, इसके नतीजे के तौर पर छिड़ी बाल्कन जंगों, और खाड़ी जंग ने शरणार्थियों की संख्या को तेज़ी से बढ़ाया है। 1988 में यूरोपीय यूनियन के 15 सदस्य देशों में प्रवास के लिए 2 लाख आवेदन आये थे जोकि 1992 में बोस्निया की जंग के दौरान बढ़कर 6,76,000 हो गये। 1999 में कोसोवो जंग के दौरान 3,66,000 लोगों ने दूसरे देशों में शरण के लिय आवेदन किये। 2001 में जिन देशों ने सर्वाधिक शरणार्थियों को पैदा किया वे इस प्रकार हैं : सबसे अधिक शरणार्थी अफगानिस्तान से पैदा हुए, फिर इराक, सूडान, अंगोला, बोस्निया की बारी आती है। ये सभी देश साम्राज्यवादियों द्वारा थोपे युद्धों, नस्ली जनसंहार तथा साम्राज्यवादियों द्वारा भड़काये गये गृहयुद्धों के शिकार रहे हैं।

लगभग सभी विकसित पूँजीवादी– साम्राज्यवादी देशों में इस समय जनसंख्या की वृद्धि दर कम हो रही है, इस घट रही आबादी की वजह से इन देशों को श्रम शक्ति की आपूर्ति अन्य देशों से करनी पड़ती है। विकसित पूँजीवादी देशों की तरफ अन्य देशों से आबादी के प्रवास की यह भी एक महत्वपूर्ण वजह है। पूँजीवाद में नस्ली उत्पीड़न भी आबादी के प्रवाह की एक महत्वपूर्ण वजह रहा है। 20वीं सदी की शुरुआत में बड़े पैमाने पर जारशाही रूस से यहूदियों ने उत्पीड़न से बचने के लिये अपना देश छोड़ा। इसी तरह से 1930 के दशक में जर्मनी में फासीवादी आतंक से बचने के लिये बड़े पैमाने पर यहूदियों को अपना देश छोड़ना पड़ा था। फिलिस्तीन में भी यही हुआ जहाँ पर इस्रायली जियनवादियों के हाथों हत्याओं और उत्पीड़न से बचने के लिये लाखों फिलिस्तिनियों ने अपना देश छोड़ा है।

प्रवास के प्रति शासक वर्गों का रवैया

शासक वर्गों के लिये प्रवासी मज़दूर सस्ती श्रम शक्ति का बड़ा स्रोत है। इस सस्ती श्रम शक्ति के शोषण से शासक वर्ग अपार मुनाफ़े कमाते हैं। मज़दूरों का यह प्रवास भले ही एक देश के भीतर हो या एक से दूसरे देश की तरफ़।

साम्राज्यवादी देशों में श्रम शक्ति की कीमत पिछड़े पूँजीवादी देशों से कहीं अधिक है। इन देशों के पूँजीपतियों के लिये तो अन्य देशों से मज़दूरों का प्रवास वरदान ही साबित होता है। इन देशों में क़ानूनी प्रवास के साथ–साथ बड़े पैमाने पर गैर–क़ानूनी प्रवास भी होता है। इन प्रवासियों को खासकर गैर–क़ानूनी प्रवासियों को सभी नागरिक अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। इन देशों में इन प्रवासियों को अमानवीय शोषण उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा हाल ही में शुरू किया गया नया ‘गैसर वर्कर कार्यक्रम’ इसका एक उदाहरण है। अमेरिका में इस कार्यक्रम से तहत लाये जाने वाले लाखों मेक्सिकन तथा मध्‍य अमेरिकी मज़दूरों को, अमेरिकी मज़दूरों को आमतौर पर मिलने वाले सभी अधिकारों से वंचित रखा जायेगा। क्योंकि प्रवासी मज़दूरों का सस्ता श्रम इन देशों के पूँजीपतियों के लिये अपार मुनाफ़ों का स्रोत है, इसलिए इन देशों की सरकारें इन पूँजीपतियों के लिये सस्ती श्रम शक्ति की आपूर्ति यकीनी बनाने में जुटी रहती हैं। 20 सितम्बर 2000 में इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपने एक भाषण में ब्रिटेन के प्रवास क़ानूनों को नर्म बनाये जाने की बात कही थी। इसी समय, लम्बी बहसों के बाद जर्मन केबिनेट ने ‘गरीब कार्ड’ स्कीम को स्वीकृति दी थी ताकि उच्च शिक्षा प्राप्त सूचना तकनीक श्रमिकों को खींचा जा सके और अमेरिकी फेडरल रिर्जव के चैयरमैन तो वृद्धि को बढ़ाने के लिये प्रवास को उत्साहित करने पर बार–बार ज़ोर देते हैं।

जुलाई 2000 में, यूरोपीय यूनियन के गृह मंत्रियों के एक मीटिंग में ज्यां–पियरे शेवेनमेंट ने कहा कि यूरोपीय यूनियन को 2050 तक खाली नौकरियाँ भरने के लिये पाँच से लेकर साढ़े सात करोड़ तक प्रवासियों को दाखिला देना पड़ेगा। 22 अक्टूबर 2000 को यूरोपीय यूनियन ने प्रवास पर एक बहस की शुरुआत की ताकि प्रवास पर एक साझा नीति बनाई जा सके।

संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या डिवीजन की एक रिपोर्ट के मुताबिक जन्म दर कम होने तथा जीवन प्रत्याशा बढ़ने के चलते, 2000 से 2050 के बीच यूरोप की आबादी 13 प्रतिशत तक कम हो जायेगी। अब और 2050 के बीच जन्म–मृत्यु की वर्तमान दर पर जर्मनी को सालाना 4,87,000 प्रवासियों का आयात करना पड़ेगा। फ़्रांस को 1,09,000 तथा पूरे यूरोपीय यूनियन को 16 लाख सालाना।

पूँजीवादी–साम्राज्यवादी देशों में प्रवास जहाँ इन देशों के लिये सस्ती श्रम शक्ति का एक बड़ा जरिया है वहीं इन देशों के शासकों के हाथों में मज़दूरों को आपस में बाँटने लड़ाने का एक हथियार भी है। खास तौर पर मन्दी को समय, बढ़ते जनअसन्तोष से बचने के लिये, मज़दूरों का ध्यान असल मुजरिम, सारी मुसीबतों की जड़ इस पूँजीवादी सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था से हटाने के लिये, इन देशों के शासक प्रवासियों को ही सारी मुसीबतों की जड़ बताकर, स्थानीय मज़दूरों में प्रवासियों विरोधी भावनाओं, नस्लवाद को हवा देते हैं। लगभग सभी साम्राज्यवादी देशों में ऐसी पार्टियाँ हैं, जो खुलेआम प्रवासी विरोधी भावनाओं को हवा देती हैं। फ़्रांस में निकोलस सारकोज़ी की ‘यूनियन फार ए. पापुलर मूवमेण्ट’, इटली में उम्बर्टो बोस्सी की ‘उत्तरी लीग’, आस्ट्रिया में जोर्ग हेदर की ‘फ्रीडम पार्टी’, नीदरलैण्ड में पिम फोर्टविन की ‘फोर्टविन लिस्ट’, बेल्जियम में फिलिप डे विंटर की ‘व्लाम्स ब्लॉक़, डेनमार्क में पिया क्लेरगार्ड की ‘पीपुल्स पार्टी’, नार्वे में कार्ल हेगन की ‘प्रोग्रेस पार्टी’ तथा इंग्लैण्ड में निक गिफ्न की ‘ब्रिटिश नेशनल पार्टी’ आदि बहुतेरी अन्य ऐसी पार्टियों में से कुछेक ऐसे नाम हैं। इन देशों में चुनावों में हर बार इन देशों में होने वाला प्रवास एक अहम मुद्दा होता है। यह दक्षिणपंथी पार्टियाँ प्रवासियों विरोधी भावनाओं को भड़काकर ही सत्ता की कुर्सी तक पहुँचती हैं। फ़्रांस में हाल ही में हुए चुनावों में निकोलस सारकोजी ने सत्ता तक पहुँचने के लिये यही हथकण्डा अपनाया है।

इन साम्राज्यवादी देशों की सरकारें समय–समय पर प्रवास विरोधी क़ानून बनाती रहती हैं। हालाँकि ऐसे क़ानूनी कभी भी प्रवास को रोकने में कामयाब नहीं होते बस, शासक वर्गों के हाथों में मज़दूरों को आपस में बाँटने के लिये एक हथियार के तौर पर जरूर इस्तेमाल किये जाते हैं। इन देशों में क़दम–क़दम पर प्रवासी मज़दूरों को नस्ली नफरत का सामना करना पड़ता है।

ऐतिहासिक तौर पर मज़दूरों का प्रवास एक प्रगतिशील क़दम है

मज़दूरों का प्रवास विभिन्न राष्ट्रीयताओं, भाषाओं, संस्कृतियों के मज़दूरों को एक जगह इकट्ठा करता है। उनके बीच भाषा, संस्कृति, राष्ट्रीयता के बँटवारों को तोड़कर उन्हें वर्गीय आधार पर एक ही साझा सूत्र में जोड़ता है। फ़्रांस की राजधानी पेरिस के ट्रेपस इलाके का उदाहरण लें जहाँ पर कि 70 राष्ट्रीयताओं के मज़दूर एक जैसी ही जीवन परिस्थितियों में रहते हैं।

यह पिछड़े इलाकों, देशों के मज़दूरों को उन्नत उत्पादक शक्तियों, उन्नत सभ्यता, संस्कृति के सम्पर्क में लाकर उनकी चेतना की धार को तीखा करता है। यह मज़दूरों में विश्व व्यापी एकता का आधार तैयार करता है। मज़दूरों का प्रवास वह ज़मीन तैयार करता है यहाँ ‘दुनिया भर के मज़दूरो एक हो’ के नारे को व्यवहार में उतारा जा सकता हो।

जब मज़दूर आन्दोलन कमज़ोर होता है तो शासक वर्ग मज़दूरों को भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति आदि के आधार पर बाँटने में कामयाब रहते हैं, जैसा कि आज के समय में हो रहा है। मगर पूँजीवाद अपने ही तर्क से अपनी ही जरूरतों से दुनिया भर के मज़दूरों को एकजुट भी कर रहा है। यह अपनी कब्र खोदने वालों को पैदा कर रहा है और उन्हें भाषा, नस्ल, राष्ट्रीयता के किसी भेद के बगैर एक ही जैसी जीवन परिस्थितियों में धकेलता है। विश्व पूँजीवाद के केन्द्रों पर इकट्ठा हो रहे ये आधुनिक समय के उजरती गुलाम एक दिन अपनी एकता का वास्तविक आधार पहचानेंगे, और पूँजीवाद को उसकी कब्र में पहुँचा देंगे। आज खुद पूँजीवाद ने ही इसकी पहले किसी भी समय से अधिक पुख्ता ज़मीन तैयार कर दी है।

(इस लेख में दिये गये ज़्यादातर तथ्य हरपाल बराड़ के लेख “पूँजीवाद और प्रवास” से लिये गये हैं)

दायित्वबोध, जनवरी-मार्च 2008