भावुकतावादी क्रान्तिवाद बनाम मार्क्सवादी-लेनिनवादी अप्रोच एवं पद्धति

भावुकतावादी क्रान्तिवाद बनाम मार्क्सवादी-लेनिनवादी अप्रोच एवं पद्धति

  • कात्यायनी

अनुभववादी भावुकतावादी क्रान्तिवादियों और मार्क्सवादियों में एक बुनियादी फर्क होता है। भावुकतावादी क्रान्तिवादी विचारधारा को मार्गदर्शक नहीं बनाते, इसलिए किसी क्रान्तिकारी संघर्ष से वे अति-आशावादी होकर उम्मीदें पाल लेते हैं, उसकी दिशा और विकास की गतिकी को नहीं समझ पाते और उस प्रयोग का विचारधारात्मक विचलन जब विफलता के नतीजे के रूप में सामने आ जाता है, तो फिर वे निराशा में डूब जाते हैं या मिथ्या आशा के किसी और स्रोत की तलाश में जुट जाते हैं।

जिन लोगों ने 1956 में सोवियत पार्टी के विचारधारात्मक विपथगमन को नहीं समझा और उसके बाह्य स्वरूप को देखकर उसके समाजवादी मानते रहे, वे उस समय मायूस हो गये जब सोवियत समाज का राजकीय पूँजीवादी चरित्र नंगा हो गया। कुछ फिर भी उसे समाजवादी मानते रहे, पर जब सोवियत संघ अपनी स्वाभाविक आंतरिक गति से विघटित हो गया और पूरे सोवियत ब्लॉक में “समाजवादी” मुखौटे वाला राजकीय पूँजीवाद नवउदारवादी निजी पूँजीवाद में बदल गया तब वे निराश हो गये। जो लोग 1976 में चीन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना को मार्क्सवादी विज्ञान के आधार पर नहीं समझ सके, वे “बाजार समाजवाद” का नंगा चेहरा सामने आने के बाद पस्तहिम्मत हैं। ऐसे ही कुछ लोग समाजवादी संक्रमण की प्रकृति और समस्याओं को समझे बिना, सोवियत संघ और चीन के अनुभवों से निराश होकर इक्कीसवीं सदी के नये समाजवाद के मॉडल की तलाश में निकल पड़े और वेनेजुएला के “यूगो शावेज में उन्हें समाजवाद का नया मसीहा दीखने लगा। सच्चाई यह है कि वेनेजुएला में ज़्यादा से ज़्यादा एक साम्राज्यवाद-विरोधी, लोकप्रिय, कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य है जो पेट्रो डॉलर (तेल-राजस्व) से पोषित बहुत सारे जनकल्याणकारी कदम उठा रहा है (ऐसा तो एक हद तक लीबिया और इराक में भी हुआ था)। वहाँ अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसकी कठपुतली संस्थाओं से लम्बे संघर्ष के अनुभव ने स्वतःस्फूर्त ढंग से आम जनता के बहुत सारे संगठनों, मंचों और संस्थाओं को जन्म दिया है, जिनका दबाव ‘बोलिवारियन क्रान्ति’ के जनपरक, रैडिकल चरित्र को बनाये रखने में फिलहाल एक भूमिका निभा रहा है। लेकिन यह इतिहास की एक अल्पजीवी परिघटना है। ‘बोलिवारियन क्रान्ति’ समाजवादी संक्रमण की आगे की मंजिलों में न तो कदम बढ़ा रही है, न ही बढ़ा सकती है। आर्थिक-सामाजिक गतिकी के सामान्य नियमों से इस प्रयोग को कालान्तर में ठहराव और विघटन का शिकार होना ही है। फिर भावुक क्रान्तिवादियों के लिए आशाओं का एक और स्रोत सूख जायेगा।

क्यूबा कुछ लोगों के लिए अभी भी आशाओं का स्रोत बना हुआ है। बेशक क्यूबाई क्रान्ति एक महान क्रान्ति थी और चे और फिदेल का क्रान्तिकारी नायकत्व निर्विवाद है। क्यूबा ने अमेरिकी साम्राज्यवाद की घेरेबन्दी और साज़िशों का शौयपूर्वक सामना करते हुए जनशक्ति की लामबंदी करके उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के समाजीकरण, अर्थतंत्र के समाजवादी नियोजन तथा शिक्षा-स्वास्थ्य आदि के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कदम उठाये। अमेरिका और पश्चिमी ब्लॉक के साथ अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा में सोवियत साम्राज्यवाद ने क्यूबा को अपना संश्रयकारी बनाया, अफ्रीका महाद्वीप में उसका इस्तेमाल भी किया और बदले में उसे तकनोलॉजी, औद्योगिक उपकरणों, अनाज आदि (क्यूबा की चीनी के बदले) देकर काफ़ी मदद की। इस निर्भरता का नकारात्मक प्रभाव यह पड़ा कि क्यूबा में उत्पादन के सभी क्षेत्रों में संतुलित-सर्वांगसम विकास नहीं हो सका और वहाँ का अर्थतंत्र मुख्यतः कृषि (गन्ना-तम्बाकू आदि) आधारित बना रहा तथा चीनी और खनिजों को सोवियत संघ निर्यात करने पर टिका रहा। सोवियत संघ के विघटन के बाद, इसी वजह से एक दशक से भी अधिक समय तक क्यूबा की गम्भीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। यह मानना पड़ेगा कि जनता में व्याप्त समाजवादी स्पिरिट और अमेरिकी साम्राज्यवाद-विरोधी घृणा के चलते व्यापक जन-लामबन्दी करके क्यूबा की सरकार उस संकट से उबरने में सफल रही और एक हद तक स्वावलंबिता भी हासिल की। वेनेजुएला से तेल की मदद और अमेरिका-विरोधी अन्य लातिन अमेरिकी देशों से व्यापार सम्बन्धों ने भी उसकी समस्या को हल करने में एक भूमिका निभायी। लेकिन बेहद पिछड़ी उत्पादक शक्तियों और उत्पादन-सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण के आगे न बढ़ पाने की मूल समस्या क्यूबा में अभी भी बनी हुई है। बुनियादी बात यह है कि क्यूबाई क्रान्ति का नेतृत्व कभी भी इस बात को नहीं समझ सका कि समाजवाद के अन्तर्गत उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ-साथ समाजवादी उत्पादन-सम्बन्धों का निरन्तर उच्चतर रूप क़ायम करना होता है, मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के अन्तर, कृषि और उद्योग के अन्तर, गाँव और शहर के अन्तर – इन तीनों को क्रमशः कम करते हुए इनके आधार पर क़ायम बुर्जुआ अधिकारों को कम करते जाना होता है, और साथ ही साथ अधिरचना का निरन्तर क्रान्तिकारीकरण करते जाना होता है। यानी समाजवादी संक्रमण के दौरान, उत्पादक शक्तियों के विकास पर वर्ग संघर्ष को प्राथमिकता देकर, सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत् क्रान्ति और अधिरचना में सतत् क्रान्ति चलाकर ही समाजवाद को आगे ले जाया जा सकता है तथा पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोका जा सकता है। चीन की सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की यही शिक्षा थी, जो वहाँ की पार्टी ने सोवियत संघ के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों से और अपने देश के वर्ग संघर्ष से हासिल की थी। हालाँकि इस नतीजे तक पहुँचने तक चीन में भी नये बुर्जुआ तत्व पार्टी, राज्य और समाज में अपनी जड़ें इतनी मज़बूत कर चुके थे और वर्ग-शक्ति सन्तुलन इस हद तक बदल चुका था कि पहली सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति (1966-76) के बाद ही, वहाँ भी प्रतिक्रान्तिकारी तख़्तापलट के बाद पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत हो गयी। पर सांस्कृतिक क्रान्ति की जो सैद्धान्तिक निष्पत्ति थी, उसका सार्वभौमिक महत्व लगातार बना रहेगा। क्यूबा की पार्टी ने चीनी सांस्कृतिक क्रान्ति से कुछ भी नहीं सीखा और यह ज़रा भी आश्चर्यजनक नहीं है। यह क्यूबा की पार्टी की विचारधारात्मक कमज़ोरी ही थी कि उसने ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध चीनी पार्टी के विचारधारात्मक संघर्ष में तटस्थता की अवस्थिति अपनाई थी और बाद में तो उसने सोवियत संघ के इशारे पर खुला चीन-विरोधी रुख़ भी अपनाया था। इसका एक पहलू यह भी था कि विचारधारात्मक प्रश्नों और अन्तरराष्ट्रीयतावाद से हटकर इस पूरे विवाद में क्यूबा ने अपने संकीर्ण राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी थी, जो अपने आपमें मार्क्सवाद-लेनिनवाद से एक विचलन है। 2012 में हुई क्यूबा की पार्टी की कांग्रेस ने साफ़ कर दिया कि अपने समाज के गतिरोध को तोड़ने के लिए क्यूबा की पार्टी समाजवादी संक्रमण की अग्रवर्ती मंज़िलों की ओर बढ़ने का साहस जुटाने और आंतरिक वर्ग संघर्ष के तूफ़ानों में उतरने के बजाय कुछ-कुछ उसी तरह “नियंत्रित खुले दरवाज़े की नीति” या “बाज़ार समाजवाद” की नीति अपनाने की दिशा में आगे बढ़ रही है, जैसे माओ की मृत्यु के बाद चीन की पार्टी बढ़ी थी। क्यूबा की पार्टी की पिछली कांग्रेस की तुलना कई मायनों में चीन की पार्टी की ग्यारहवीं कांग्रेस से की जा सकती है। क्यूबाई समाज में इन परिवर्तनों के प्रभाव अभी से ही दीखने लगे हैं। वहाँ की मुद्रा की अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त दो और समानान्तर अर्थव्यवस्थाएँ चल रही हैं: वैध डॉलर की सीमित अर्थव्यवस्था और अवैध डॉलर की समान्तर अर्थव्यवस्था। कालाबाज़ारी, बाहर से डॉलर लाने वाले पर्यटकों द्वारा लायी जा रही अपसंस्कृति, वेश्यावृत्ति और अपराध बढ़ रहे हैं। निजी स्वामित्व और निजी व्यापार के लिए दी गयी “नियंत्रित” छूटें अपना रंग दिखा रही हैं। जो मार्क्सवादी विज्ञान के आधार पर समाज की गतिकी को समझता है, वह बता सकता है कि देर-सबेर क्यूबा का भविष्य भी चीन और वियतनाम के “बाज़ार समाजवाद” जैसा ही होगा। या पूर्वी यूरोपीय देशों (प्रतिक्रान्तिकारी तख़्तापलट के बाद बुर्जुआ जनवाद का आना) जैसा भी हो सकता है। पर ऐसा कहने पर भावुक क्रान्तिवादी निराश हो जाते हैं, उन्हें लगता है कि समाजवाद की अनिष्टता की भविष्यवाणी करके उसे श्राप दिया जा रहा है और कोई पाप किया जा रहा है।

1990 के बाद कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी दुनिया में बेकली से आसन्न विजयोन्मुख क्रान्तिकारी संघर्ष का कोई प्रकाश स्तम्भ तलाश रहे थे और उनका ध्यान पेरू की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) द्वारा चलाये जा रहे उस लोकयुद्ध की ओर बरबस गया जिसने पहले अलेन गार्सिया और फिर फूजीमोरी की सरकारों की नाक में दम कर दिया था। लेकिन उस पार्टी के कुछ विचारधारात्मक विचलन शुरू से ही स्पष्ट थे। पार्टी का ज़ोर शुरू से ही विचारधारा और राजनीति से अधिक हथियार पर था। थोड़ी सफलताओं के बाद पार्टी ने चेयरमैन गोंजालो के नाम पर ‘गोंजालो चिन्तन’ जोड़कर ‘मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद-गोंजालो चिन्तन’ कहना शुरू कर दिया जबकि ‘गोंजालो चिन्तन’ में ऐसी कोई भी मौलिक और सार्वभौमिक महत्व की बात नहीं थी जिसे विचारधारा में कोई आंशिक गुणात्मक इज़ाफ़ा भी माना जा सके। पेरू का ग्रामीण क्षेत्र विशाल है, लेकिन आबादी का बहुलांश शहरी है। देश की 48 प्रतिशत आबादी अकेले राजधानी लीमा और उसके उपनगरीय इलाकों में रहती है। ऐसे देश में पेरू की पार्टी नवजनवादी क्रान्ति की बात कर रही थी। वहाँ सुदूरवर्ती क्षेत्रों में छापामार युद्ध तो लम्बे समय से चलाया जा सकता था, लेकिन भारी शहरी आबादी को छोड़कर राज्यसत्ता कब्ज़ा करने की बात सोची भी नहीं जा सकती थी। पेरू की पार्टी की क्रान्ति की मंज़िल की पूरी समझ ही ग़लत थी। नतीजा सामने है। गोंजालो की गिरफ़्तारी के बाद संघर्ष जल्दी ही बिखर गया और उस मॉडल से अतिशय उम्मीद पाल बैठे भावुकतावादी कम्युनिस्ट निराश हो गये।

फिर जल्दी ही उम्मीदों का नया केन्द्र नेपाल में उभरा। 1996 में प्रचण्ड के नेतृत्व में नेकपा (माओवादी) ने जनयुद्ध की शुरुआत की तो बहुतों को लगा कि जल्दी ही सगरमाथा पर लाल झण्डा फहरा जायेगा। पर वह झण्डा लेकर नेपाल की माओवादी पार्टी संसद में घुसी तो फिर उसी खेल में लग गयी। सच यह है कि पार्टी में शुरू से ही विचारधारात्मक विचलन मौजूद थे, जिनकी निरन्तरता में पेण्डुलम “वाम” से दक्षिण की ओर गया, प्रचण्ड इक्कीसवीं शताब्दी में सर्वहारा अधिनायकत्व-विषयक लेनिन की स्थापना में इजाफ़ा करते हुए बहुदलीय संसदीय जनवाद की समझदारी लेकर आये, फिर संविधान सभा चुनावों में भागीदारी ‘टैक्टिक्स’ से ‘स्ट्रैटेजी’ बन गयी, सरकार चलाना और संविधान बनाना ही परम पुनीत लक्ष्य बन गया, जन सेना को शासक वर्ग की सेना में मिला दिया गया, आधारक्षेत्र में विकसित लोक संस्थाओं को भंग कर दिया गया, भूस्वामियों से छीनी गयी ज़मीनें वापस कर दी गयीं, तरह-तरह के शब्दजालों के बावजूद, शान्तिपूर्ण संक्रमण का नया रास्ता सामने आ ही गया और “प्रचण्ड पथ” संसद पथ में रूपान्तरित हो गया। प्रचण्ड-भट्टराई के नवसंशोधनवाद की आलोचना करते हुए किरण वैद्य आदि ने विद्रोह करके नयी पार्टी बनायी जिसने नयी संविधान सभा का बॉयकाट करते हुए जनविद्रोह की धमकियाँ भी दी, लेकिन ग़ौरतलब है कि किरण वैद्य ने अपनी पूर्व पार्टी की मूल विचारधारात्मक अवस्थिति के संशोधनवादी चरित्र और उसके विकास की प्रक्रिया की, “प्रचण्ड पथ” की (यह नाम उन्होंने ही दिया था) कभी बुनियादी स्तर की आलोचना नहीं की, केवल लक्षणों और अभिव्यक्तियों की ही आलोचना की। अब यह पार्टी भी कहने लगी है कि सशस्त्र लोकयुद्ध के रास्ते की बजाय वह जनता की शिक्षा, स्वास्थ्य आदि प्रश्नों पर आन्दोलन करते हुए आगे बढ़ेगी क्योंकि आज की बहुध्रुवीय दुनिया में शान्तिपूर्ण संघर्ष की सम्भावनाएँ प्रचुर हैं। यह पार्टी भी यही कह रही है कि फिलहाल बाहर से दबाव बनाया जायेगा कि संविधान सभा ज़्यादा से ज़्यादा जनपरक संविधान बनाये। तय है कि यह नयी पार्टी भी, चाहे जितना भी रैडिकल तेवर अपनाये, अपने जन्मकाल से ही विचारधारात्मक रूप से कमज़ोर और संशोधनवादी विचलन की शिकार है। इससे अधिक उम्मीद पालने वाले भावुकतावादी क्रान्तिवादियों को भी भविष्य में फिर सदमा लगने वाला है। बार-बार ऐसे सदमों से दिल का दौरा पड़ने और कोमा में चले जाने की प्रचुर सम्भावना रहती है।

1980 में दुनिया के कई मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठनों और पार्टियों को लेकर एक ‘क्रान्तिकारी अन्तरराष्ट्रीयतावादी आन्दोलन’ (रिम) नामक मंच गठित करने की कोशिश शुरू हुई और 1984 में उसका घोषणापत्र जारी हुआ। इस मंच का विचारधारात्मक आधार शुरू से ही कमज़ोर था और कुछ को छोड़कर अधिकांश की अपने देश में न कोई ताक़त थी, न कोई आधार, न संघर्षों का कोई अनुभव। फिर भी कुछ लोगों को इस मंच से अधिक ही उम्मीदें पैदा हो गयीं थीं और वे ‘रिम’ की कोई भी विचारधारात्मक-राजनीतिक आलोचना सुनने को तैयार नहीं होते थे। इस मंच के घटक माओ विचारधारा (जिसे पेरू की पार्टी और आर.सी.पी., यू.एस.ए. की पहल पर बाद में माओवाद कहा जाने लगा) में नया इज़ाफ़ा करने की बेहद जल्दबाज़ी में थे। सबसे पहले रिम के एक भारतीय घटक सी.आर.सी., सी.पी.आई. (एम.एल.) के सचिव के. वेणु सर्वहारा अधिनायकत्व की लेनिनवादी अवधारणा को ज़्यादा “जनवादी” बनाने के लिए बहुदलीय संसदीय जनवाद के रंग-गंध वाली सोच लेकर आये और ‘रिम’ से बाहर कर दिये गये। फिर उनका संगठन भी विसर्जित हो गया। फिर माओ त्से-तुङ बनाम माओ विचारधारा के सवाल पर मोहन विक्रम सिंह के नेतृत्व वाली पार्टी रिम का घटक बनी और संसदमार्गी होने के बाद उसे भी बाहर कर दिया। इस बीच रिम के कई घटक टूटते या विलुप्त होते रहे। कुछ क्रान्तिकारी संघर्षों में तो लगे थे, पर चीनी क्रान्ति के कार्यक्रम के जड़सूत्रवादी अंधानुकरण के चलते वे लम्बे समय से या तो एक ही जगह खड़े हैं या छीजते जा रहे हैं। ‘रिम’ लगभग एक दशक से सुषुप्त ही रहा है। इधर रिम के गठन में पहल लेने वाली प्रमुख पार्टी आर.सी.पी., यू.एस.ए. के चेयरमैन बॉब अवाकिएन विचारधारा में इज़ाफ़ा करते हुए माओ से भी काफ़ी आगे निकल गये हैं, उनकी पार्टी इक्कीसवीं शताब्दी की विश्व सर्वहारा क्रान्ति के लिए अवाकिएन के ‘नये संश्लेषण’ के सिद्धान्त को मार्गदर्शक मानती है, जिसने माओवाद की तमाम कमियों का “समाहार” करके विचारधारा को एक “नयी ऊँचाई” प्रदान कर दी है। ‘नया संश्लेषण’ (न्यू सिन्थेसिस) राजनीति और दर्शन का भोंड़ा प्रहसन है, पर उसमें इतनी लफ्फाज़ी है कि उसकी चर्चा अलग से विस्तार की माँग करती है। उसमें कुछ बातें तो माओ की हैं, जिन्हें चुराकर नयी भाषा में रख दिया गया है। दूसरे ‘निरपेक्ष सत्य’ की नयी घोर अमार्क्सवादी अवधारणा प्रस्तुत की गयी है। तीसरे, मार्क्सवाद और माओवाद को जोड़ने वाली कड़ी लेनिनवाद को बताते हुए मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की अब तक की अवधारणा को विचित्र सारसंग्रहवादी खिचड़ी बना दिया गया है। मूल बात है कि यह सारी सोच वर्ग संघर्ष के किसी अनुभव का नतीजा नहीं, बॉब अवाकिएन के दिमाग़ की उपज है। यह पार्टी घोर हरावलपन्थी (वैंगार्डिस्ट) पार्टी है, जिसका कोई अपना जनसंगठन या मज़दूर संगठन नहीं है। इसके लोग अश्वेत लोगों के और अन्य जनउभारों एवं आन्दोलनों में हिस्सा लेते रहते हैं। पार्टी बस विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रचार-प्रसार, लेखन-चिन्तन-विमर्श का काम करती रही है। इतिहास ने एक जोकर के इर्दगिर्द ‘कल्ट-बिल्डिंग’ का इतना फूहड़ प्रहसन शायद कभी नहीं देखा होगा।

अब “बॉब अवॉकिएनवाद” के आलोचक ‘रिम’ के कई घटक और अन्य मार्क्सवादी-लेनिनवादी ग्रुप कोई अन्तरराष्ट्रीय संगठन नये सिरे से बनाने की कोशिश कर रहे हैं। समस्या यह है कि (1) ये ग्रुप, संगठन या पार्टी, स्वयं अपने देश के ही कई संगठनों में से एक (या दो) हैं, (2) अपने देश में ही मा-ले शिविर के दीर्घकालिक बिखराव और ठहराव को हल करने की दिशा में ये दो क़दम भी आगे नहीं बढ़ सके हैं, (3) इनमें से अधिकांश का कोई संघर्ष-निर्मित जनाधार नहीं है और कुछ “वाम” तथा कुछ दक्षिणपन्थी विचलन के शिकार हैं, (4) माओवाद/माओ विचारधारा की हिफ़ाजत ये स्वयं ही बेहद कठमुल्लावादी अवस्थिति से करते हैं, माओ के प्राधिकार को स्वीकारने का मतलब यह मानते हैं कि माओकालीन समाजवादी संक्रमण के किसी प्रयोग की भी (लाख तर्क होने के बावजूद) आलोचना वर्जनीय है, (5) ये संगठन प्रायः माओवाद/माओ विचारधारा की हिफ़ाजत कठमुल्लावादी अवस्थिति से करते हैं, विचारधारा और कार्यक्रम के अन्तर को ही नहीं समझते और तीसरी दुनिया के हर देश में (कुछ तो आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड और तुर्की तक में) नवजनवादी क्रान्ति की मंज़िल मानना माओ के प्राधिकार को मानने की शर्त मानते हैं, नवउदारवाद के दौर को उपनिवेशवाद/नवउपनिवेशवाद की वापसी मानते हैं, तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में पूँजीवादी विकास और “प्रशियाई मार्ग” से हुए क्रमिक पूँजीवादी विकास को मानना तो दूर, उस पर सोचने और बहस करने तक करने को तैयार नहीं होते। यदि ऐसा एक अन्तरराष्ट्रीय संगठन बनेगा, तो इसके घटक संगठनों के देशों के ही अन्य मा-ले संगठन मिलकर अन्य (सम्भवतः एकाधिक) अन्तरराष्ट्रीय संगठन बनायेंगे जो परस्पर प्रतिस्पर्द्धी होंगे। हम समझते हैं कि माओवादी संगठनों का जो भी अन्तरराष्ट्रीय संगठन आज की स्थिति में बनेगा, वह अपना उद्देश्य पूरा करने की जगह ग़ैर मुद्दों पर कठहुज्जती वाली बहसों को जन्म देगा और कालान्तर में बिखर जायेगा। लेकिन भावुकतावादी क्रान्तिवादियों का क्या, वे तो फिर उम्मीद पाल लेंगे, बहुत ही जल्दी फिर मायूस हो जाने के लिए। थोड़ी चिन्ता तो हमें उनकी है ही, क्योंकि थोड़ी-बहुत दुनियादारी में लिथड़ी होने के बावजूद प्रायः वे निर्मल आत्माएँ होती हैं।

हमारी तो यह स्पष्ट और दृढ़ सोच है कि आज की परिस्थिति में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों को विचारधारा और कार्यक्रम (रणनीति एवं आम रणकौशल) के अन्तर को तो समझना होगा! बात बहुत सीधी-सपाट है। जो भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन वर्ग संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व को मानता है, शान्तिपूर्ण संक्रमण का विरोधी है, समाजवादी समाज में वर्ग और वर्ग संघर्ष की मौजूदगी तथा सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत् क्रान्ति एवं अधिरचना में क्रान्ति के सिद्धान्त को मानता है, जो भी चुनाव को रणनीति नहीं बल्कि रणकौशल मानता है, जो भी पार्टी की लेनिनवादी ढाँचे और कार्यप्रणाली को लागू करता है और जो भी अपनी ताक़त और योजना के हिसाब से जनता के बीच काम कर रहा है, उसे विचारधारात्मक रूप से हमसफ़र तो मानना ही होगा। पर कार्यक्रम का सवाल तो किसी भी काल विशेष की दुनिया में देश विशेष में मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के हिसाब से उत्पादन-सम्बन्धों के अध्ययन से, तदनुरूप वर्ग-सम्बन्धों के (क्रान्ति के मित्र व शत्रु वर्गों के निर्धारण) निर्धारण से तय होता है। कार्यक्रम निर्धारण के उपकरण हमें विचारधारा से मिलते हैं, लेकिन कार्यक्रम विचारधारा का संघटक अवयव कदापि नहीं हो सकता। आज की दुनिया न तो 1949 की दुनिया है, न ही 1963 की दुनिया है। कार्यक्रम चीनी पार्टी द्वारा 1963 में प्रस्तुत विश्व सर्वहारा क्रान्ति की आम दिशा के दस्तावेज़ से नहीं तय होगा, बल्कि देश विशेष के उत्पादन-सम्बन्धों और फिर अधिरचना के ठोस अध्ययन से तय होगा। पहली पद्धति निगमनात्मक (डिडक्टिव) होगी, जबकि दूसरी आगमनात्मक (इण्डक्टिव) होगी। मार्क्सवादी दर्शन तर्क की मूल गतिकी को आगमनात्मक मानता है और निगमनात्मक को उसका सहायक मानता है। बहरहाल, यह अलग से एक विस्तृत चर्चा का विषय है। हमारा कहना यह है कि आज ज़्यादा से ज़्यादा, दुनिया के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन विचारधारात्मक साझा उद्देश्य से मंच बना सकते हैं, बशर्ते कि वे विचारधारा और कार्यक्रम के बीच का अन्तर समझते हों, वे सच्चे बोल्शेविक संगठन के समान जनता के बीच काम करते हों, उनके पास विचारधारात्मक परिपक्वता के साथ ही एक हद तक वर्ग संघर्ष का व्यावहारिक अनुभव भी हो और वे अपने देश में भी पार्टी निर्माण एवं पार्टी गठन के लिए मज़दूर वर्ग की सच्ची जुझारू एकजुटता बनाते जाने के आधार पर प्रयत्नशील हों। (1) सर्वहारा वर्ग एक अन्तरराष्ट्रीयतावादी वर्ग होता है, मात्र इसी आधार पर मनोगत ढंग से कोई नया इण्टरनेशनल या अन्तरराष्ट्रीय संगठन वस्तुगत स्थितियों और घटक संगठनों/पार्टियों की मनोगत स्थिति को दरकिनार करके नहीं बन सकता। (2) पहले, दूसरे और तीसरे इण्टरनेशनल के विश्व रंगमंच अलग-अलग थे। तीसरा इण्टरनेशनल जनवादी केन्द्रीयता पर आधारित एक विश्व पार्टी की सोच पर आधारित था। शुरू में उसकी भूमिका पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रसारक, पथ-प्रदर्शक और शिक्षक के रूप में सकारात्मक थी, पर जब पिछड़े देशों में कम्युनिस्ट पार्टियाँ वर्ग संघर्ष की भट्ठी में तप-मँजकर तैयार हो गयीं तो विश्व क्रान्ति के केन्द्र का पूर्ववर्ती ढाँचा पार्टियों के स्वतंत्र अध्ययन और सोच को प्रतिकूल रूप में प्रभावित करने लगा। (चीन का उदाहरण सर्वाधिक प्रातिनिधिक है और अन्तरराष्ट्रीय लाइन से राष्ट्रीय लाइन निगमित कर लेने की अन्धानुकरणवादी प्रवृत्ति ने तो भारत सहित कई देशों में काफ़ी नुक़सान पहुँचाया)। होना यह चाहिए था कि कोमिण्टर्न के सांगठनिक ढाँचे को बदल दिया जाता, उसे विश्व-पार्टी के बजाय मुख्यतः संघात्मक आधार पर पुनर्गठित किया जाता, यानी, विचारधारा की बुनियादी एकता के आधार पर वह एक संगठन होता जिसमें अलग-अलग देशों की पार्टियों की यह ज़िम्मेदारी स्वतंत्र और सुपरिभाषित होती कि वे अपने देशों में क्रान्ति का कार्यक्रम और रास्ता तय करें। पर ढाँचे के पुनर्गठन के बजाय कोमिण्टर्न को ही भंग कर दिया गया। इससे भविष्य में अन्तरराष्ट्रीय विचारधारात्मक संघर्ष में संशोधनवाद को लाभ मिला। अब आज की परिस्थितियों में यदि कुछ लोग सभी उत्तर-औपनिवेशिक देशों में नवजनवादी क्रान्ति के कार्यक्रम को मानने की शर्त रखते हुए मंच के बजाय कोई विश्व संगठन बनाना चाहते हैं तो वे दो-चार अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन करके ज़रूर बना लेंगे, पर वह किसी काम का नहीं होगा और कालान्तर में विसर्जित हो जायेगा। दूसरी ओर, विज्ञान के बजाय “ठोस उपलब्धियों” से उम्मीद पाल बैठने वाले भावुकतावादी क्रान्तिकारी बौद्धिक और पिछड़ी चेतना वाले कम्युनिस्ट कार्यकर्ता फिर कुछ दिनों के लिए झूठी उम्मीद पाल बैठेंगे ताकि जल्दी ही फिर और अधिक निराशा में डूब सकें।

हमारे देश में भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन के बौद्धिक हमदर्दों और युवा रंगरूटों में यह विज्ञान-विरोधी संकीर्ण अनुभववादी प्रवृत्ति आम है कि ‘अरे छोड़ो ये सैद्धान्तिक बातें, देखो, फलाँ संगठन कितना लड़ रहा है, कितनी कुर्बानी दे रहा है, क्या गज़ब चुनौती उपस्थित किया है सत्ता के सामने, वही सही होगा!’ यही संकीर्ण अनुभववाद है। यह मार्क्सवादी पद्धति की ऐसी-तैसी करना है! अपने समय के मज़दूर आन्दोलन में कई बार अलग-थलग पड़कर भी मार्क्स-एंगेल्स और उनके पक्षधर अपने विश्लेषण के आधार पर धारा के विरुद्ध खड़े रहे और इतिहास ने उन्हें सही साबित किया। रूस के तत्कालीन क्रान्तिकारी सामाजिक जनवादी आन्दोलन में लेनिन हमेशा विज्ञान के सहारे खड़े रहे और धारा के विरुद्ध तैरते रहे। माओ और चीन की पार्टी ने भी यदि पहले वाली लीक नहीं छोड़ी होती और केवल द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी पद्धति की पतवार से धारा के विरुद्ध नाव नहीं खेयी होती तो न 1949 की नवजनवादी क्रान्ति हो पाती, न ही 1966-76 की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति।

पिछले एक लम्बे समय से भाकपा (माओवादी) के नेतृत्व में जारी सशस्त्र संघर्ष को क्रान्तिकारी वाम बौद्धिक हलकों में आशा के एक नये स्रोत के रूप में प्रक्षेपित किया जाता रहा है और इस हद तक महिमामण्डित किया जाता रहा है विचारधारात्मक-राजनीतिक लाइन पर कोई बहस ही सम्भव न हो सके। किसी समर्थक बुद्धिजीवी या निचले स्तर कैडर से सवाल कीजिए तो वे बस यही कहेंगे कि ‘हमारे साथी इतने वर्षों से लड़ रहे हैं, टिके हैं, अपार कुर्बानियाँ दी हैं और दण्डकारण्य में जनताना सरकार का एक मॉडल खड़ा किया है, लाइन पर और क्या बात करनी है? गौतम नवलखा, अरुंधति राय और जॉन मिर्डल भी हमारे मुक्त क्षेत्रों को देख आये और अभिभूत होकर आये? – यही है वह भावुकतावादी क्रान्तिवाद, जो अन्ततोगत्वा गहरी निराशा के दलदल में घसीट ले जाता है। हमारे स्पष्ट सवाल मार्क्सवादी-लेनिनवादी मानकों पर आधारित हैं। जिस नवजनवादी क्रान्ति और दीर्घकालिक लोकयुद्ध के फ्रेमवर्क में यह सशस्त्र संघर्ष चल रहा है, क्या वह पूरे भारत के उत्पादन सम्बन्धों (और क्रान्ति की मंज़िल) के ठोस अध्ययन पर आधारित है, क्या यह दण्डकारण्य के बाहर पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों में लागू हो सकता है, देश के शहरों और गाँवों के 75 करोड़ सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी के बीच काम की पार्टी की क्या योजना है, नवजनवादी क्रान्ति के ‘लैण्ड टु द टिलर’ के रणनीतिक नारे को पार्टी ग्रामीण क्षेत्रों में कैसे लागू करेगी, ‘चार वर्गों के रणनीतिक संश्रय’ में खुशहाल मालिक किसानों के साथ ग्रामीण सर्वहारा को कैसे लायेगी, शहरों के मुख्यतः असंगठित 25-27 करोड़ (मुख्यतः असंगठित) सर्वहारा वर्ग को छोड़कर पिछड़ी उत्पादन प्रणाली से जुड़े पिछड़ी चेतना की उत्पीड़ित आबादी के “मुक्त द्वीप” बना लेने से भी क्या सर्वहारा क्रान्ति हो जायेगी? – भावुकतावादी क्रान्तिवादी कहता है, ‘छोड़िये इन बातों को, वे लड़ रहे हैं, उन्होंने दिखा दिया।’ अनुभववाद वैज्ञानिक तर्कणा को हमेशा से ही यही उत्तर देता आया है! हमारी यह स्पष्ट सोच है कि क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल का निर्धारण सर्वोपरितः उत्पादन सम्बन्धों के मूलाधार और फिर अधिरचना के अध्ययन के आधार पर होता है, किसी एक इलाका-विशेष में खड़े सफल संघर्ष के मॉडल के आधार पर नहीं। पूरे देश की भू-राजनीतिक परिस्थितियों से वाक़िफ़ लोग जानते हैं कि जो अधिकतम लगभग 7-8 प्रतिशत दुर्गम पर्वतीय वन्य और दुर्गम क्षेत्र हैं, उनमें भी दण्डकारण्य जैसे इलाके विरले ही मिलेंगे। छत्तीसगढ़, छत्तीसगढ़-महाराष्ट्र सीमान्त क्षेत्र और झारखण्ड के एक हिस्से में छापामार कार्रवाइयाँ सम्भव हो सकती हैं, दण्डकारण्य के एक दुर्गम क्षेत्र में आधार इलाका लम्बे समय तक चलाया जा सकता है, पर विशाल भारत की विस्तीर्ण ग्रामीण क्षेत्रों के पूँजीवादी विकास और पिछड़ी किसानी अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों में दीर्घकालिक लोकयुद्ध की सामरिक रणनीति सम्भव ही नहीं है, स्वयं भाकपा (माओवादी) का अनुभव भी यही बताता है, लेकिन वह उससे सीख लेने को तैयार नहीं है। वह अपने पुराने दुर्गम क्षेत्रों में टिके रहने और प्रतिरोध के पहलू को देखती है, लेकिन मैदानी क्षेत्रों की घोर विफलता और शहरी सर्वहारा के बीच लगभग पूर्ण विफलता या अनुपस्थिति के पहलू की अनदेखी करती है। भावुकतावादी क्रान्तिवादियों को हम समझाना चाहते हैं कि असमान विकास वाले पिछड़े पूँजीवादी देशों में आबादी के बहुलांश को पूँजीवादी देशों में आबादी के बहुलांश को पूँजीवादी उत्पादन एवं विनिमय की प्रणाली में समेट लेने के बावजूद कुछ पूँजीवाद-सहयोजित प्राक् पूँजीवादी अवस्थाओं के ऐसे दूरवर्ती द्वीप बचे रह जाते हैं, जहाँ की उत्पीड़ित जनता लम्बे समय तक सशस्त्र संघर्ष चलाती रहती है, लेकिन राज्यसत्ता के सामने अस्तित्व का संकट नहीं उपस्थित कर पाती। लातिन अमेरिका के कई देशों में छापामार संघर्ष चालीस और पचास वर्षों से जारी हैं। फिलिप्पींस की कम्युनिस्ट पार्टी पूँजीवादी विकास के केन्द्रों से दूर, सुदूरवर्ती दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों को आधार बनाकर लगभग आधी सदी से लड़ रही है, पर फिलिप्पींस की राज्यसत्ता के लिए वह कोई चुनौती नहीं है, क़ानून-व्यवस्था की एक ग़म्भीर समस्या है। सीमित अति उत्पीड़ित आबादी को लेकर हथियारबंद संघर्ष लम्बे समय तक जारी रखना और मुक्त क्षेत्र तक बना लेना एक बात है और पूरे देश की राज्यसत्ता को ध्वस्त करके नयी राज्यसत्ता स्थापित करने का मामला इससे सर्वथा अलग मामला है। सर्वहारा क्रान्ति हमेशा वैज्ञानिक दृष्टि और प्रणाली विज्ञान आधारित होगी, भावुकतावादी क्रान्तिवादी इसी बात को कभी नहीं समझ पाते।

भावुकतावादी क्रान्तिवादी, विशेषकर इस नस्ल के बुद्धिजीवी, पवित्रत्मा होते हैं पर वे इस बात को समझ ही नहीं पाते हैं कि संघर्ष के किसी कथित मॉडल की फिलहाली क़ामयाबी-नाक़ामयाबी से किसी क्रान्तिकारी संगठन के सही-ग़लत होने का फैसला नहीं किया जाना चाहिए। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट का पैमाना हर हाल में मार्क्सवादी विज्ञान का प्रणाली-विज्ञान होना चाहिए। भावुकतावादी क्रान्तिवादियों को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक दसवीं कांग्रेस (1973) की रिपोर्ट का यह अंश बार-बार पढ़ना चाहिए, “यदि किसी की लाइन ग़लत है तो उसका पतन अवश्यम्भावी है, भले ही केन्द्रीय, स्थानीय स्तर पर और सेना के नेतृत्व पर उसका नियंत्रण हो, उसका पतन अवश्यम्भावी है। यदि किसी की लाइन सही है तो भले ही शुरू में उसके पास एक भी सैनिक न हो, बाद में सैनिक जुट जायेंगे, और भले ही (उसके पास) राजनीतिक सत्ता न हो, (बाद में) राजनीतिक सत्ता भी आ जायेगी। यह हमारी पार्टी के अनुभवों का और मार्क्स के समय से लेकर अब तक के अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट अनुभवों का नतीजा है।”

हमें माओ त्से-तुङ की यह शिक्षा कभी नहीं भूलनी चाहिए कि, “विचारधारात्मक और राजनीतिक लाइन का सही या ग़लत होना ही सब कुछ तय करता है।”

लेनिन की इस उक्ति के मर्म को समझा जाना ज़रूरी है, “ठोस परिस्थिति का ठोस विश्लेषण मार्क्सवाद की आत्मा है।”

एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी तर्कणा के सतत् विकास और ठोस परिस्थितियों के विश्लेषण के आधार पर निर्णय लेने और ज़िम्मेदारी तय करने की चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारी से बने-बनाये फार्मूलों और अतीत के गौरवशाली इतिहास की आड़ लेकर बच नहीं सकता, उसे यह काम तो ख़ुद करना ही होगा। पूर्वजों के अनुभव आपको आम दिशा दिखाते हैं, पर पूर्वज आकर आपका काम नहीं कर जाते, न ही पूर्वजों की चली राह पर हूबहू चला जा सकता है। मार्क्सवाद विज्ञान है, धर्मशास्त्र नहीं। लेनिन के इस उद्धरण को रट लेना आसान है, पर व्यवहार में उतारना बेहद मुश्किल, “मार्क्सवाद एक निष्प्राण जड़सूत्र नहीं है, न ही यह सम्पूर्ण बना दिया गया, बना-बनाया, अपरिवर्तनीय मत है, बल्कि कार्रवाई का जीवन्त मार्गदर्शक है।”

सर्वहारा वर्ग का क्रान्तिकारी आशावाद विज्ञान पर आशावाद विज्ञान पर आधारित व्यावहारिक चीज़ होता है। वह मिथ्या आशाओं और सदिच्छाओं पर आधारित नहीं होता। क्रान्ति के विज्ञान की समझ, उस पर आधारित अपने देश के वर्ग-सम्बन्धों की समझ और उस पर आधारित सही कार्यक्रम एवं मार्ग की समझ के बिना कोई भी पार्टी क्रान्ति को अंजाम तक नहीं पहुँचा सकती। इनके अभाव में क्रान्तिकारी संघर्ष आगे बढ़कर भी ठहरावग्रस्त हो जाते हैं और टूट-बिखर जाते हैं। क्रान्ति अधैर्य और मात्र क्रान्तिकारी स्पिरिट से सम्भव नहीं। क्रान्ति मॉडलों का अनुकरण करके आगे नहीं बढ़ती, मार्क्सवाद-लेनिनवाद के आलोक में वह अपना पथसंधान स्वयं करती है। वैज्ञानिक समझ से रिक्त भावुकतावादी क्रान्तिवाद एक निम्न पूँजीवादी प्रवृत्ति है जो किसी भी देश में ठोस परिस्थितियों के ठोस अध्ययन, पूर्वाग्रह मुक्त सोच-विचार एवं बहस तथा क्रान्तिकारी सामाजिक प्रयोगों को बाधित करती है, उन्हें नुक़सान पहुँचाती है।

दिशा सन्धान – अंक 3  (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित

भारत में अन्धराष्ट्रवाद की आँधी और कश्मीरी जनता का बढ़ता अलगाव

कश्मीर में बाढ़,  भारत में अन्धराष्ट्रवाद  की आँधी और कश्मीरी जनता का बढ़ता अलगाव

यह लेख 2014 में कश्मीर में आयी बाढ़ के समय ही ‘दिशा सन्धान’के लिए लिखा गया था। प्रकाशन में देर होने के कारण यह पुराना ज़रूर हो गया है लेकिन इसमें उठाये गये मूल मुद्दों की प्रासंगिकता अब भी बनी हुई है।
– सम्पादक

  • पुरुषोत्तम

सितम्बर के पहले सप्ताह में जम्मू एवं कश्मीर में आये सैलाब के बाद विशेषकर कश्मीर घाटी में आयी बाढ़ की वजह से जितनी जान-माल की तबाही हुई उसको देखते हुए इसे हाल के दशकों में कश्मीर में आयी सबसे भयंकर आपदा बताया जा रहा है। इस आपदा में लगभग 300 लोग जान से हाथ धो बैठे, लाखों लोग बेघर हो गये और ग्रामीण क्षेत्रों मे फसलें तबाह हो गयीं। इस आपदा की भीषणता का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि इसमें गाँव के गाँव डूब गये और भूस्खलन से कई गाँवों का तो नामोनिशान भी नहीं बचा। श्रीनगर के गली-मुहल्लों में हफ्तों तक पानी का जमावड़ा लगा रहा। कई दिनों तक लोग अपने घरों की ऊपरी मंजिलों और छतों पर भोजन-पानी के अभाव में फँसे रहे। संचार व्यवस्था के पूरी तरह से ठप्प हो जाने की वजह से लाखों लोग कई दिन तक पूरी दुनिया से कटे रहे। जम्मू एवं कश्मीर सरकार के अनुसार इस आपदा में कुल 1 लाख करोड़ रुपये का नुक़सान हुआ। सितम्बर के अन्त तक हालाँकि श्रीनगर के अधिकांश इलाकों से पानी का जमावड़ा हट चुका था, परन्तु भोजन तथा पीने के पानी की किल्लत और बीमारी-महामारी का ख़तरा लगातार बना हुआ है। स्थिति सामान्य होने में महीनों लग सकते हैं।

पिछले साल केदारनाथ में आयी तबाही की तरह इस भीषण आपदा की शुरुआत भी बादल फटने की घटना से हुई जिसमें बेहद कम समयान्तराल में अत्यधिक वर्षा (सितम्बर के पहले सप्ताह में ही श्रीनगर में 500 मिमी वर्षा हुई जबकि वहाँ की औसत मासिक वर्षा 56.4 मिमी है) होने से नदियों एवं जलाशयों में पानी भर आया और तटबन्धों और डूब क्षेत्र को पार करता हुआ रिहायशी इलाकों में फैल गया। हिमालय के समूचे क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में भीषण वर्षा को पर्यावरणविद् जलवायु परिवर्तन की परिघटना से जोड़कर देख रहे हैं जो अन्धाधुन्ध पूँजीवादी विकास की तार्किक परिणति है। इसके अतिरिक्त हिमालय के क्षेत्र में बेतहाशा तरीके से जंगलों की कटाई की वजह से वर्षा का पानी पहाड़ के ढलान पर तेज़ी से नीचे की घाटियों की ओर आता है और बड़े पैमाने पर तबाही मचाता है। साथ ही जंगलों की बेतहाशा कटाई से पिछले कुछ वर्षों में भूस्खलन की घटनाओं में भी ज़बरदस्त बढ़ोतरी देखने में आयी है जिसकी वजह से निचले इलाकों में बाढ़ की विभीषिका कई गुना बढ़ जाती है। इसके अलावा कश्मीर में आयी इस आपदा की भीषणता की एक प्रमुख कारण तमाम पर्यावरण नियमों को ताक पर रखकर पिछले कुछ दशकों में झेलम नदी के डूब क्षेत्रों एवं डल, अंचल और वूलर जैसी झीलों के किनारे अन्धाधुन्ध रिहायशी एवं वाणिज्यिक निर्माण कार्य भी रहा। श्रीनगर की प्रसिद्ध डल झील अपने मूल आकार का एक बटा छठाँ हिस्सा ही रह गयी है। श्रीनगर जैसे शहर के अनियोजित विकास की वजह से जहाँ एक ओर एक दूसरे से जुड़े हुए जलाशयों द्वारा जलनिकासी का प्राकृतिक संरचना तबाह हुई वहीं दूसरी ओर जलनिकासी का वैकल्पिक तरीका नहीं विकसित किया गया जिसकी वजह से श्रीनगर में बाढ़ का पानी लम्बे समय तक जमा रहा।

किसी देश के एक हिस्से में इतनी भीषण त्रासदी आने पर होना तो यह चाहिए कि पूरे देश की आबादी प्रभावित क्षेत्र की जनता के साथ तदनुभूति दिखाते हुए उसे हरसम्भव मदद करे और साथ ही साथ ऐसी त्रासदियों की वजह पर विमर्श करे और भविष्य में ऐसी आपदाओं को टालने के तरीकों पर गहन विचार-विमर्श हो। परन्तु कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानने का दावा करने वाले भारत में कश्मीर की इस भीषण आपदा के बाद जिस तरीके से अन्धराष्ट्रवाद की आँधी चलायी गयी वह कश्मीर की जनता के जले पर नमक छिड़कने के समान था। भारतीय सेना ने इस मौके का फ़ायदा उठाते हुए भारतीय बुर्जुआ मीडिया की मदद से अपने पक्ष में एक क़िस्म का प्रचार अभियान सा चलाया जिसमें कश्मीर की बाढ़ के बाद वहाँ भारतीय सेना द्वारा चलाये जा रहे राहत एवं बचाव कार्यों का महिमामण्डन करते हुए कश्मीर में भारतीय सेना की मौजूदगी को न्यायोचित ठहराने की कोशिश की गयी। मीडिया ने इस बचाव एवं राहत कार्यों को कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया मानो भारतीय सेना राहत और बचाव कार्य करके कश्मीरियों पर एहसान कर रही है। यही नहीं कश्मीरियों को “पत्थर बरसाने वाले” एहसानफ़रामोश क़ौम के रूप में भी चित्रित किया गया। कुछ टेलीविज़न चैनलों पर भारतीय सेना के इस “नायकत्वपूर्ण” अभियान को एक “ऐतिहासिक मोड़बिन्दु” तक करार दिया गया और यह बताया गया कि इस अभियान से कश्मीरी जनता में सेना की छवि सुधरेगी और उनका भारत से अलगाव कम होगा।

परन्तु कश्मीर की स्थानीय मीडिया में स्थानीय लोगों के हवाले से तथा सोशल मीडिया पर कश्मीरियों की जो राय आयी, उनसे एकदम अलग तस्वीर उभर कर आती है। इस तस्वीर में यह साफ़ दिखता है कि इस आपदा के प्रबन्धन, सेना की भूमिका एवं विशेष रूप से भारतीय मीडिया की अतिरंजनापूर्ण कवरेज ने कश्मीरियों के भारत से अलगाव को कम करने की बजाय बढ़ाया ही है। कश्मीर घाटी में अनियंत्रित और और अनियोजित विकास के मद्देनज़र एक लम्बे अरसे से पर्यावरणविद कश्मीर घाटी में इस किस्म की आपदा आने की बात करते रहे थे। नियोजित शहरी विकास एवं जलाशयों तथा नहरों की हिफ़ाजत करके श्रीनगर जैसे शहर में इस विभीषिका की भयावहता को कम किया जा सकता था। परन्तु जलाशयों एवं नहरों के किनारे एवं नदियों के डूब क्षेत्र में अन्धाधुन्ध रिहायशी, वाणिज्यिक एवं सरकारी निर्माण कार्य को बेरोकटोक जारी रहने दिया गया। कई नहरों को पाट कर उनपर सड़कें बनायी गयीं जिससे झेलम नदी के बाढ़ झेलने की श्रीनगर शहर की क्षमता काफ़ी कम हुई। वर्ष 2010 में बाढ़ के ख़तरे को कम करने के लिए उत्तरी कश्मीर की वूलर झील की काई साफ़ करने की एक योजना भी बनायी गयी थी। परन्तु जैसा कि अन्य क्षेत्रों में होता है, यह योजना भी सिर्फ़ सरकारी फाइलों की धूल फाँकती रही। झेलम नदी पर बाढ़ की चेतावनी देने की कोई व्यवस्था उपलब्ध न होने की वजह से भी इस आपदा की आकस्मिकता बढ़ी। पर्यावरणविदों द्वारा ऐसी आपदा की चेतावनी दिये जाने के बावजूद जम्मू एवं कश्मीर सरकार व केन्द्र सरकार ऐसी आपदा से निपटने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी। पिछले कुछ दशकों से भारत सरकार ने जम्मू एवं कश्मीर को महज़ सुरक्षा के दृष्टिकोण से देखते हुए अपना पूरा ध्यान आतंकवादियों से निपटने में लगाया और यही वजह थी कि उसके पास ऐसी आपदा से निपटने की कोई योजना नहीं थी। जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी माना कि घाटी में बाढ़ आने के शुरफ़आती कुछ दिनों में तो मानो वहाँ का सिविल प्रशासन बाढ़ के पानी में बह-सा गया था।

सिविल प्रशासन के विलुप्त हो जाने की स्थिति में बचाव और राहत का काम पूरी तरह से कश्मीर घाटी में तैनात सैन्य बलों के हाथों में आ गया। सैन्य बलों ने जिस तरीके से राहत एवं बचाव कार्यों में आम कश्मीरियों की बजाय पर्यटकों, बाहरी लोगों एवं धनिकों तथा वीआईपी लोगों को बचाने को प्राथमिकता दी, उससे भी आम कश्मीरियों में असन्तोष की भावना पनपी। जहाँ एक ओर भारतीय मीडिया में राहत एवं बचाव कार्यों में सेना की बहादुरी का गौरवगान चल रहा था, वहीं दूसरी ओर कश्मीरियों का कहना था कि आम कश्मीरियों के लिए अधिकांश राहत, बचाव एवं पुनर्वास का काम स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने किया। यंग कश्मीर वालिंटियर एलायंस (वाईकेवीएल) नामक कश्मीरी स्वयंसेवी संस्थाओं के एक समूह ने अपने अध्ययन में बताया है कि इस बाढ़ में 96 फ़ीसदी लोगों को स्थानीय स्वयंसेवकों ने बचाया और बाकी 4 फीसदी लोगों को सेना और राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) ने बचाया। इस संस्था ने अपने अध्ययन में यह भी पाया कि 92.3 फीसदी पुनर्वास केन्द्रों को भोजन सामग्री स्थानीय स्वयंसेवक समुदायों ने पहुँचायी। राहत एवं बचाव कार्यों में नौका, टेंट, खाद्य एवं पेय सामग्री की किल्लत के मद्देनज़र कश्मीरियों का मानना था कि भारत को अन्तररष्ट्रीय मदद स्वीकार करनी चाहिए। परन्तु भारत सरकार ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न मानते हुए किसी भी प्रकार की अन्तरराष्ट्रीय मदद से साफ़ इन्कार कर दिया जिसकी वजह से भी कश्मीरियों में रोष देखा गया। नौका की किल्लत को देखते हुए स्थानीय स्वयंसेवक दस्तों ने लकड़ी, प्लास्टिक, पानी के खाली टैंक, ट्यूब आदि जो कुछ भी तैर सकता था उसको नौका के रूप में इस्तेमाल करते हुए ज़्यादा से ज़्यादा जान-माल की रक्षा करने का भरसक प्रयास किया। नौकाओं एवं अन्य सामग्रियों की किल्लत के बावजूद भारतीय मीडिया के तमाम पत्रकार सेना की नौकाओं एवं हेलीकाप्टर में बैठकर रिपोर्टिंग करते हुए पाये गये जिससे कश्मीरियों के इस आरोप को बल मिलता है कि भारतीय सेना ने इस मौके का इस्तेमाल अपनी छवि बनाने में किया और भारतीय शासक वर्ग ने इसका इस्तेमाल पूरे देश में अन्धराष्ट्रवाद की आँधी चलाने में किया। कश्मीर में बाढ़ और भारतीय सेना एवं मीडिया द्वारा चलायी गयी इस अन्धराष्ट्रवादी मुहिम का कुल नतीजा यह हुआ कि कश्मीरी जनता का भारतीय राज्यसत्ता से अलगाव कम हाने की बजाय बढ़ता ही गया। कश्मीरी जनता के इस अलगाव का एक लम्बा इतिहास रहा है, आइये इस लम्बे इतिहास पर एक नज़र दौड़ा लेते हैं ताकि हम यह समझ सकें कि इसकी प्रकृति क्या है और क्यों यह समय बीतने के साथ बढ़ता ही गया है।

कश्मीरी जनता का भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता से अलगाव का इतिहास

भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता के जन्मकाल से ही कश्मीरी राष्ट्रीयता का उससे अलगाव होना शुरू हो गया था। बर्तानवी गुलामी से भारत के आज़ाद होने के वक़्त जम्मू एवं कश्मीर राज्य उन 562 रियासतों में से एक था जो अंग्रेजी राज्य के अधीन थे। आज़ादी मिलने के तुरन्त बाद हैदराबाद, जूनागढ़ तथा जम्मू एवं कश्मीर को छोड़कर अन्य सभी राजों-रजवाड़ों ने भारत या पाकिस्तान में से किसी एक डोमिनियन में शामिल होने का फैसला कर लिया। हैदराबाद का निज़ाम एक स्वतंत्र राष्ट्र के ख़्वाब देख रहा था जबकि जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान में मिलने का पक्षधर था। इन दो रियासतों में भारत का तर्क था कि उनके भविष्य का फैसला वहाँ के शासक नहीं बल्कि जनता करेगी। उन दो रियासतों की बहुसंख्यक आबादी भारत में विलय की पक्षधर थी और इसलिए वे भारत में शामिल हुए। जूनागढ़ में तो फरवरी 1948 में बाकायदे रिफरेंडम भी करवाया गया जिसमें वहाँ की जनता ने भारी बहुमत से भारत में शामिल होने के पक्ष में मत दिया। परन्तु जम्मू एवं कश्मीर में स्थिति इसके ठीक उलट थी। वहाँ की अधिकांश जनसंख्या मुस्लिम थी, परन्तु वहाँ का शासक महाराजा हरी सिंह हिन्दू था। हरी सिंह भारत या पाकिस्तान में मिलने की बजाय जम्मू एवं कश्मीर को एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाना चाहता था ताकि उसके वंश का शासन बरकरार रहे। ग़ौरतलब है कि जम्मू एवं कश्मीर राज्य को हरी सिंह के पूर्वज गुलाब सिंह ने कुख़्यात अमृतसर की संधि में अंग्रेज़ों से 75 लाख रुपये में खरीदा था। अंग्रेज़ों को डोगरा राजा गुलाब सिंह की वफ़ादारी पर पूरा भरोसा था क्योंकि वह पहले सिख शासन से दग़ाबाजी करते हुए अंग्रेजों के पाले में आ खड़ा हुआ था। भारत की आज़ादी के वक़्त जम्मू एवं कश्मीर में लगभग 77 फ़ीसदी आबादी मुस्लिम थी। यदि सिर्फ़ कश्मीर घाटी की बात की जाये तो वहाँ 94 फ़ीसदी से भी ज़्यादा आबादी मुस्लिम थी। जम्मू एवं कश्मीर में डोगरा राजाओं के शासन में अधिकांश जागीरदार और भूस्वामी हिन्दू थे जबकि आम ग़रीब किसान आबादी में मुस्लिमों की बहुतायत थी। इस प्रकार वहाँ वर्गीय ध्रुवीकरण और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण में संगति होने से बाद में वर्षों में हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्मों की कट्टरपन्थी ताक़तों को अपना आधार जमाने में मदद मिली। हालाँकि ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि वैष्णव, शैव, सूफ़ी परम्पराओं के मिलेजुले प्रभाव की वजह से कश्मीर में इस्लाम की प्रकृति भारतीय महाद्वीप के अन्य हिस्सों से बिल्कुल अलग है। इसी वजह से कश्मीरी अवाम की लड़ाई को पाकिस्तानपरस्ती की दिशा में ले जाने की पाकिस्तान की तमाम कोशिशों के बावजूद अभी तक कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई ने एक स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखा है।

india-pakistan-kashmir-cartoonबर्तानवी गुलामी से भारत की आज़ादी के वक़्त कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला थे। शेख अब्दुल्ला 1931 में मुस्लिम कान्फ्रेंस नामक दल से जुड़े हुए थे जो शुरू में कश्मीर में सरकारी नौकरियों में कश्मीरी मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने के लिए संघर्ष करता था। परन्तु बाद में यह आन्दोलन जनवाद के लिए संघर्ष की शक़्ल अख्‍त़ियार करने लगा और डोगरा सामन्ती शासन के विरोध में कश्मीरी किसानों का आन्दोलन बनता गया। शीघ्र ही सामन्तवाद विरोधी इस जनवादी आन्दोलन को कश्मीर के गैर-मुस्लिम नेतृत्व मसलन पंडित प्रेमनाथ बजाज एवं सरदार बुद्ध सिंह के साथ ही साथ गाँधी, नेहरू, आज़ाद, खान अब्दुल ग़फ्फ़ार खान जैसे भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के नेताओं का भी समर्थन मिलने लगा। शेख अब्दुल्ला भी भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष और उसके नेताओं से प्रभावित होते गये और उन्हें इस सच्चाई का एहसास होने लगा कि आन्दोलन को व्यापक रूप देने के लिए उन्हें उसे धर्म निरपेक्ष बनाना होगा। इसीलिए शेख अब्दुल्ला ने अपनी पार्टी का नाम मुस्लिम कान्फ्रेंस से बदलकर नेशनल कान्फ्रेंस रखने का प्रस्ताव रखा जो 11 जून 1939 को पारित हुआ। उसी समय शेख अब्दुल्ला ने पंडित प्रेमनाथ बजाज, सरदार बुध सिंह, पंडित सुदमा सिधा, जिया लाल कीलम, कश्यप बन्धु जैसे ग़ैर-मुस्लिम प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर ‘राष्ट्रीय माँगें’ नामक मांगपत्रक का मसौदा तैयार किया जो भविष्य के ‘नया कश्मीर’ घोषणापत्र की पूर्वपीठिका थी जिसमें कश्मीर के जनता के कल्याण के लिए एक जनवादी संविधान की माँग की गयी थी। शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कान्फ्रेंस मुस्लिम लीग और जिन्ना द्वारा प्रचारित ‘टू नेशन थियरी’ का विरोध करती थी और मज़हब के आधार पर बने मुल्क पाकिस्तान में विलय की हरगिज़ पक्षधर नहीं थी। साथ ही शेख अब्दुल्ला भारत में पूर्ण विलय को लेकर भी संशंकित थे।

5 मई 1946 के एक बयान में शेख अब्दुल्ला ने सांस्कृतिक और भाषायी समरसता को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक आधार पर भारत के राज्यों का पुनर्विभाजन करने के बाद भारत की सभी राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार की बात की। ग़ौरतलब है कि शेख अब्दुल्ला की यह सोच तत्कालीन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की लाइन से प्रभावित थी। मई 1946 में ही शेख ने महाराजा हरी सिंह के खि़लाफ़ ‘कश्मीर छोड़ो’ आन्दोलन का आग़ाज़ किया जिसके बाद उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और तीन साल की सजा हुई। परन्तु वे 16 महीने बाद 29 सितम्बर 1947 को रिहा कर दिये गये। रिहाई के फौरन बाद शेख ने बयान दिया कि ‘यदि जम्मू एवं कश्मीर में रहने वाले 40 लाख लोगों को दरकिनार कर राज्य भारत अथवा पाकिस्तान में विलय की घोषणा करता है तो मैं विद्रोह का परचम थाम लूँगा और हमें संघर्ष करना होगा’। (स्रोतः ए जी नूरानी की पुस्तक ‘दि कश्मीर डिस्प्यूट’, अनुवाद हमारा)। अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान द्वारा समर्थित कबायलियों ने कश्मीर पर हमला कर दिया जिसका सामना करने में हरीसिंह की सेना सर्वथा असमर्थ थी। यही नहीं जम्मू एवं कश्मीर के पुँछ इलाके में महाराजा की सेना में ही बग़ावत हो गयी। इसके अतिरिक्त भारत और पाकिस्तान के विभाजन के बाद राज्य में शरणार्थियों की आवाजाही की वजह से भी वहाँ साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा हो गयी। पाकिस्तान द्वारा समर्थित कबायली हमले और पुँछ में हरी सिंह की सेना में बग़ावत ने एक स्वतंत्र राज्य का शासक बने रहने की उसकी सारी महत्वकांक्षाओं पर पानी फेर दिया और उस हमले का मुक़ाबला करने के लिए उसे मजबूरन भारतीय सेना से मदद की गुहार करनी पड़ी। भारत ने इस सैन्य मदद की एवज़ में हरी सिंह से जम्मू एवं कश्मीर के भारत में विलय के दस्तावेज़ पर दस्तख़त करवा लिये। परन्तु यह विलय आरज़ी और सशर्त था, जैसा कि विलय के दस्तावेज़ के साथ संलग्न दस्तावेज़ो और जम्मू एवं कश्मीर पर भारत सरकार के श्वेत पत्र में स्पष्ट तौर पर उल्लिखित था। 1948 में जारी इस श्वेत पत्र में भारत सरकार ने स्पष्ट तौर पर लिखा थाः ‘जैसे ही कश्मीर में कानून और व्यवस्था क़ायम हो जायेगी और उसकी ज़मीन से आक्रमणकारियों को खदेड़ दिया जायेगा, राज्य के विलय के फैसले के बारे में वहाँ की जनता से निर्देश लिया जायेगा।’ (स्रोतः ए जी नूरानी की पुस्तक ‘दि कश्मीर डिस्प्यूट’, अनुवाद हमारा)

1947 से ही भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अनेक अवसरों पर इस बात को ज़ोर देते हुए कहा कि जम्मू एवं कश्मीर के भारत में विलय के बारे में अन्तिम फैसला वहाँ की जनता करेगी और वहाँ की जनता की मर्ज़ी के बग़ैर उसको भारत में मिलाने की उनकी कोई मंशा नहीं है। कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले जाने के पहले ही नेहरू वहाँ जनमतसंग्रह कराने की बात सार्वजनिक रूप से कह चुके थे। कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा समर्थित कबायली हमले के बाद भारत सरकार ने यह मसला संयुक्त राष्ट्रसंघ में रखा। 20 जनवरी 1948 को संयुक्त राष्ट्रसंघ की सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव संख्या 39 पारित किया जिसमें इस मसले की तथ्यों के आधार पर जाँच करने के मक़सद से एक आयोग बनाने की बात की गयी। इसके बाद 21 अप्रैल 1948 को सुरक्षा परिषद ने एक अन्य प्रस्ताव (प्रस्ताव संख्या 47) पारित किया जिसमें जम्मू एवं कश्मीर के भारत अथवा पाकिस्तान में विलय को वहाँ एक मुक्त और निष्पक्ष जनमतसंग्रह के द्वारा कराने की बात कही गयी थी। 1953 तक भारत कश्मीर में जनमतसंग्रह की बात करता रहा, लेकिन उसके बाद वह इस वायदे से मुकर गया।

अक्टूबर 1947 में कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित कबायली हमले के बाद महराजा हरीसिंह ने जम्मू एवं कश्मीर राज्य के भारत में विलय के दस्तावेज़ पर दस्तख़त करने के साथ ही साथ एक आपातकालीन प्रशासन की नियुक्ति की और इस सरकार के नेतृत्व की जिम्मेदारी शेख अब्दुल्ला को सौंपी गयी। मार्च 1948 में जम्मू एवं कश्मीर में अन्तरिम सरकार का गठन किया गया और शेख अब्दुल्ला ने औपचारिक रूप से जम्मू एवं कश्मीर के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इस अन्तरिम सरकार की एक ज़िम्मेदारी यह थी कि वह राज्य का संविधान बनायेगी। इसके अलावा शेख अब्दुल्ला व कुछ अन्य कश्मीरियों को भारत की संविधान सभा में भी शामिल किया गया। भारत की संविधान सभा ने जो संविधान बनाया उसमें धारा 370 में जम्मू एवं कश्मीर को विशेष राज्य का दर्ज़ा गया जिसके अनुसार जम्मू एवं कश्मीर को भारतीय संघ के तहत अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार था; जम्मू एवं कश्मीर के सन्दर्भ में भारत की संसद का अधिकार महज़ रक्षा, विदेशी मसलों एवं संचार तक सीमित था।

1948 से 1953 तक जम्मू एवं कश्मीर के प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान शेख अब्दुल्ला कश्मीर के पाकिस्तान में विलय अथवा जनमतसंग्रह की बजाय उसकी स्वायत्तता के पक्षधर थे। परन्तु जम्मू में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में भारतीय जनसंघ द्वारा समर्थित प्रजा परिषद् आन्दोलन के बाद कश्मीर मसले का ज़बरदस्त साम्प्रदायिकीकरण हुआ जिसके बाद कश्मीरी अवाम का भारत से अलगाव बढ़ा और शेख अब्दुल्ला भी अपने रुख़ पर पुनर्विचार करने लगे। प्रजा परिषद आन्दोलन जम्मू के डोगरा भूस्वामियों के हितों की नुमाइन्दगी करता था जिनकी आर्थिक शक्ति में शेख अब्दुल्ला सरकार द्वारा लागू किये गये रैडिकल भूमि सुधारों के बाद ज़बरदस्त कमी आयी थी। परन्तु प्रजा परिषद् ने अपने इन वर्गीय हितों को छिपाने के लिए समूचे कश्मीर मसले को साम्प्रदायिक रंग दे दिया। इस आन्दोलन की मुख्य माँग यह थी कि जम्मू एवं कश्मीर राज्य को जम्मू, लद्दाख और कश्मीर इन तीन हिस्सों में बाँटकर जम्मू एवं लद्दाख से धारा 370 हटाकर उनका पूरी तरह भारत में विलय कर दिया जाये। जम्मू में इस आन्दोलन के बढ़ते आधार को देखकर शेख अब्दुल्ला और नेहरू दोनों सकते में आ गये। शेख अब्दुल्ला जो पहले ही कश्मीर मसले पर पटेल के साम्प्रदायिक बयानों से कश्मीर से भारत में विलय के मसले पर सशंकित हो उठे थे, प्रजा परिषद् आन्दोलन के बाद से और भी ज़्यादा सशंकित हो गये। नेहरू इस साम्प्रदायिक आन्दोलन की बढ़ती ताक़त से इसलिए भयभीत थे क्योंकि धर्म के आधार पर जम्मू को भारत में पूरी तरह मिलाने का निहितार्थ यह था कि कश्मीर घाटी पर भारत के दावे का आधार कमज़ोर हो जाता।

जम्मू में प्रजा परिषद् आन्दोलन के ज़ोर पकड़ने की वजह से कश्मीर मसले के साम्प्रदायिकीकरण के बाद शेख अब्दुल्ला भारतीय राज्य के भीतर स्वायत्तता की बजाय कश्मीर की आज़ादी के बारे में भी सोचने लगे थे। यही वह दौर था जब नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच रिश्तों में भी कड़वाहट पैदा होनी शुरू हुई। इसकी इन्तेहाँ तब हो गयी जब 8 अगस्त 1953 को अचानक शेख अब्दुल्ला को बख़ार्स्त कर उनको गिरफ़्तार कर लिया गया। तब से 11 वर्षों तक का अधिकांश समय उन्हें जेल में ही बिताना पड़ा। शेख अब्दुल्ला की जगह भारत ने अपने पिट्ठू बख़्शी गुलाम मोहम्मद को जम्मू एवं कश्मीर के प्रधानमंत्री पद पर बिठा दिया। उसके बाद नेहरू कश्मीर में जनमतसंग्रह के अपने वायदे से साफ़ मुकरने लगे। 6 फरवरी 1954 को कश्मीर की संविधान सभा ने कश्मीर के भारत में विलय को अविच्छिन्न क़रार दिया।

1953 में शेख अब्दुल्ला सरकार की बख़ार्स्तगी और उनकी गिरफ़्तारी ने कश्मीरी अवाम और भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता के बीच के अलगाव को नयी ऊचाइयों पर पहुँचाया। जम्मू एवं कश्मीर में नई दिल्ली की शह पर 1951 से ही की गयी चुनावी धाँधली ने भी कश्मीरी अवाम के अलगाव को बढ़ाने में एक अहम भूमिका निभायी। 1951 के संविधान सभा के चुनावों में 75 में से 73 सीटों पर नेशनल कान्फ्रेंस के उम्मीदवार निर्विरोध चुने गये क्योंकि विपक्षी उम्मीदवारों के नामांकन मामूली आधार पर रद्द कर दिये गये। संविधान सभा के इन्हीं चुनावों के आधार पर राज्य की विधान सभा का गठन हुआ था जिसने भारतीय संविधान की धारा 370 में जम्मू एवं कश्मीर को दिये गये विशेष दर्ज़े को तनु करने पर मोहर लगायी। उसके बाद 1957 और 1962 के चुनावों में भी धाँधली हुई जिसके आधार पर बख़्शी गुलाम मोहम्मद ने कमोबेश भारत के एजेंट के रूप में जम्मू एवं कश्मीर में सरकार चलायी। 1967 के विधान सभा चुनावों एवं 1971 के लोकसभा चुनावों में धाँधली का काम नेशनल कान्फ्रेंस के ही एक अन्य नेता जी एम सादिक़ के नेतृत्व में किया गया। 1967 के चुनावों में बड़े पैमाने पर हुई धाँधली का कश्मीर घाटी में ज़बरदस्त विरोध हुआ।

उधर शेख अब्दुल्ला अप्रैल 1964 में जेल से रिहा कर दिये गये थे। परन्तु अगले ही वर्ष उन्हें कोडईकनाल में नज़रबन्द कर दिया गया क्योंकि उन्होंने चीन के प्रधानमंत्री चाउ एनलाई से अल्जीयर्स में मुलाकात की थी। अन्ततः जनवरी 1968 को ही जाकर वे मुक्त हो सके। डेढ़ दशक की इस गिरफ़्तारी और नज़रबन्दी के बाद शेख अब्दुल्ला कमज़ोर पड़ चुके थे और रिहा होने के बाद वे भारत सरकार से समझौते के बारे में सोचने लगे थे। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद उन्होंने भारत सरकार के सामने पूरी तरह से घुटने टेक दिये। 1975 के इंदिरा गाँधी-शेख अब्दुल्ला समझौते के तहत उन्होंने कश्मीर की स्वायत्तता की माँग भी छोड़ दी और भारत सरकार द्वारा धारा 370 के तनुकरण को भी मंजूरी दे दी।

इंदिरा गान्धी और शेख अब्दुल्ला के बीच 1975 में हुए समझौते के पहले ही कश्मीर घाटी में कुछ ऐसे ग्रुप बन चुके थे जो सशस्त्र संघर्ष के ज़रिये कश्मीर की आज़ादी की बात करते थे। इस समझौते में शेख अब्दुल्ला द्वारा घुटने टेकने के बाद ऐसे ग्रुपों की ताक़त बढ़ी और कश्मीरी राष्ट्रीयता के संघर्ष के एक नये दौर की शुरुआत हुई। इस समझौते का सबसे मुखर रूप में विरोध करने वाले संगठनों में ‘जम्मू एवं कश्मीर पीपुल्स लीग’ प्रमुख था जो कश्मीर की आज़ादी की बात करता था। इसके संस्थापकों में शेख अब्दुल अजीज़, मुसादिक आदिल, बशीर अहमद टोटा, आज़म इंक़लाबी, अब्दुल हमीद वानी थे। शब्बीर शाह इस संगठन के महासचिव थे। बाद में यह संगठन भी कई फूटों का शिकार हुआ।

बहरहाल शेख अब्दुल्ला 1982 तक जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री बने रहे। 1982 में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र फारूख़ अब्दुल्ला ने मुख्यमंत्री पद की कमान संभाली। जुलाई 1984 में इंदिरा गान्धी ने फारूख अब्दुल्ला की सरकार को बख़ार्स्त कर दिया जिससे घाटी में एक बार फिर असन्तोष बढ़ने लगा। श्रीनगर में 72 दिनों तक कर्फ्यू लगा रहा। लेकिन 1986 में फारूख अब्दुल्ला ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के साथ समझौता किया और वे एक बार फिर मुख्यमंत्री बने। मार्च 1987 में जम्मू एवं कश्मीर विधानसभा का चुनाव सम्पन्न हुआ जिसमें नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस ने गठबन्धन बनाया। इन चुनावों में बड़े पैमाने पर धाँधली हुई। विपक्षी मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) की कश्मीर घाटी में ज़बरदस्त लोकप्रियता होने के बावजूद चुनावी धाँधली की वजह से उसे विधानसभा में सीटें नहीं जीत पायी। इन चुनावों में धाँधली के बाद कश्मीरी युवाओं की बड़ी आबादी को चुनावी प्रक्रिया से भरोसा उठ गया और बड़ी संख्या में युवाओं ने बन्दूकें थामी। इसके बाद से ही कश्मीर में सशस्त्र संघर्ष प्रभावी होकर सामने आया। ग़ौरतलब है कि जिन नेताओं ने बाद में आतंकवाद की राह पर जाने का फैसला किया उनमें से अधिकांशं ने 1987 के चुनावों में हिस्सा लिया था और चुनावी धाँधली की वजह से उनका मोहभंग हुआ। 1986 में गठित इस्लामिक स्टूडेंट्स लीग के चार प्रमुख सदस्यों – अब्दुल हमीद शेख, अश्फ़ाक माज़िद वानी, जावेद अहमद मीर और यासीन मलिक – जिन्हें हाजी ग्रुप कहा जाता था, ने एमयूएफ के समर्थन में चुनाव प्रचार किया था। यहाँ तक कि हिजबुल मुजाहिद्दीन का मुखिया सैयद सलाहुद्दीन जिसका असली नाम मोहम्मद यूसुफ शाह है, ने भी एमयूएफ के उम्मीदवार के रूप में 1987 के चुनाव में भागीदारी की थी।

शुरुआती दौर में कश्मीर की आज़ादी के लिए सशस्त्र संघर्ष का नेतृत्व जम्मू एंड कश्मीर लिबरेशन फ्रण्ट (जेकेएलएफ) के हाथों में था। जेकेएलएफ की स्थापना 1978 में इंग्लैण्ड में अमानुल्ला खान ने की थी जो मक़बूल बट की कश्मीर लिबरेशन आर्मी का एक सदस्य था। मक़बूल बट भारतीय कब्जे़ में सक्रिय था और अमानुल्लाह खान पाक अधिकृत कश्मीर में। शुरफ़आती दौर में जेकेएलएफ एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था और वह भारत और पाक दोनों द्वारा कब्ज़ा किये गये कश्मीर की आज़ादी की बात करता था। परन्तु भारतीय राज्य द्वारा बर्बर दमन के बाद जेकेएलएफ में इस्लामिक कट्टरपंथियों का दबदबा बढ़ने लगा। 11 फरवरी 1984 को मकबूल बट को तिहाड़ जेल में फाँसी दे दी गयी थी जिसके बाद से कश्मीरी युवाओं में असंतोष बढ़ रहा था। 1987 के चुनावों में भारी धाँधली के बाद कश्मीर में जो जनउभार देखने को आया उसके पीछे पिछले 40 सालों का कुशासन, आर्थिक बदहाली, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार भी प्रमुख कारण थे। 1988 में बिजली की दरों में वृद्धि के खि़लाफ़ प्रदर्शन के दमन से कश्मीर घाटी की जनता में ज़बरदस्त आक्रोश देखने को आया। उसी साल मकबूल बट की बरसी पर पुलिस ने कश्मीरी आज़ादी के समर्थकों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलायीं। दिसम्बर 1989 में कश्मीर समूची कश्मीर घाटी में बग़ावत की ज्वाला भड़क उठी। इस बग़ावत को बर्बरता से कुचलने के लिए कश्मीर में सैन्य बल विशेष अधिकार कानून (आफ्सपा) लगाकर सेना को असीमित अधिकार दे दिये गये। लेकिन 1990 तक आते-आते कश्मीर घाटी में लाखों लोग आज़ादी के नारे लगाते हुए उतर पड़े थे। यही वह दौर था जब पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खि़लाफ़ लड़ाई में प्रशिक्षित मुजाहिद्दीनों को कश्मीर में जेहाद के लिए भेजना शुरू किया और कश्मीर की आज़ादी के संघर्ष को इस्लामिक कट्टरपन्थी रंग देने की कुटिल चाल चली। इसी दौर में कश्मीर की छोटी सी अल्पसंख्यक कश्मीरी पण्डित आबादी के ऊपर भयंकर जुल्म ढाये गये। सैकड़ों कश्मीरी पण्डितों का नरसंहार किया गया और लाखों पण्डितों को परिवार समेत घाटी छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके बाद ही संघ परिवार के फ़ासिस्टों ने कश्मीरी पण्डितों के बीच अपना आधार मज़बूत किया और कश्मीर मसले के साम्प्रदायिकीकरण करने की घृणित योजना को अमली जामा पहनाया। यही वह दौर था जब कश्मीर में हरकत-उल-मुजाहिद्दीन और लश्कर-ए-तोयबा जैसे पाकिस्तानपरस्त संगठनों का दबदबा भी बढ़ा।

कश्मीर घाटी में सशस्त्र जनउभार और आतंकवाद का भारतीय सेना के बर्बरतापूर्वक दमन किया। 1990 के दशक के अन्त तक कश्मीर में सशस्त्र संघर्ष और आतंकवादियों पर काफ़ी हद तक काबू पा लिया गया था। 1995 तक जेकेएलएफ के यासीन मलिक ने भारत के सामने घुटने टेक दिये और सशस्त्र संघर्ष का रास्ता छोड़ दिया। परन्तु इस प्रक्रिया में भारतीय सेना ने जिस क़दर कश्मीरी अवाम के मानवाधिकारों का धड़ल्ले से हनन किया उससे कश्मीरी अवाम के दिलों में भारत के प्रति नफ़रत की भावना अभूतपूर्व रूप से बढ़ी। कश्मीरियों के ज़ेहन में 1991 में भारतीय सेना द्वारा किये गये कुनान-पोशपोरा जैसे सामूहिक बलात्कार और यातना की घटनाओं की यादें अभी भी ताज़ा है। इसके अलावा अन्य बलात्कार काण्डों, फर्ज़ी मुठभेड़ों, गुमशुदगी की घटनाओं आदि की एक लम्बी दास्तान है। पिछले डेढ़ दशकों में कश्मीर में 60,000 से भी ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं और 700 लोग लापता हैं। हाल ही में कश्मीर में पायी गयी हज़ारों गुमनाम कश्मीरियों की सामूहिक कब्रें पायी गयी हैं। इसके अलावा पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों और भारतीय सेना के ख़ूनी खेल की वजह से कश्मीरियों में भारत से अलगाव की भावना गहराई तक जड़ जमा चुकी है।

21वीं सदी आते-आते भारत ने कश्मीर में आतंकवाद को काफ़ी हद तक काबू में कर लिया गया था। 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका के विश्व व्यापार केन्द्र पर आतंकी हमले के बाद अमेरिका द्वारा पाकिस्तान पर नकेल कसने की वजह से पाकिस्तान से कश्मीर में जेहाद के लिए आने वाले आतंकियों पर रोक लगी। सरकारी आँकड़ों के भी इस बात की गवाही देते हैं कि आतंकवाद की घटनाओं में ज़बरदस्त कमी आयी है। एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक पूरी घाटी में अब 1,000 आतंकवादी भी नहीं है। लेकिन अभी भी घाटी में 7 लाख से भी ज़्यादा भारतीय सैनिक और अर्द्ध सैन्य बलों के जवान डेरा डाले हुए हैं। कुख़्यात काला कानून आफ्सपा अभी तक वहाँ लागू है। वहाँ खुफिया एजेंसियाँ ऐसे काम करती हैं मानो वो किसी दुश्मन देश में काम करती हों। सेना द्वारा की गयी नृशंस हत्याओं, बलात्कारों और यातनाओं के अलावा घाटी में इतने लम्बे अरसे से इतनी बड़ी तादाद में सेना की उपस्थिति मात्र अपने आप में कश्मीरी अवाम में आतंक पैदा करती है। कश्मीरी इस सेना की उपस्थिति को भारतीय कब्ज़े की निशानी के रूप में देखते हैं।

हालिया वर्षों में भारतीय मीडिया ने कश्मीर मसले की ऐसी रिपोर्टिंग की है मानो आतंकवादियों पर नकेल कसने के बाद अब वहाँ अमन-चैन कायम हो गया है क्योंकि वहाँ जाने वाले पर्यटकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है और चुनावों में भागीदारी बढ़ी है। खाते-पीते भारतीय मध्यवर्ग को यह लगने लगा था कि आख़िरकार कश्मीर समस्या का समाधान हो चुका है। लेकिन 2009 में अमरनाथ यात्रा के लिए भूमि अधिग्रहण के खि़लाफ़ हुए आन्दोलन के बाद से कश्मीरियों का संघर्ष एक नयी शक़्ल अख्‍त़ियार करता नज़रा आया। उस आन्दोलन में काफ़ी समय बाद ‘भारत वापस जाओ’ के नारों से समूची कश्मीर घाटी गूँज उठी। चूँकि यह एक शान्तिपूर्ण नागरिक प्रतिरोध था, इसलिए भारतीय सेना के लिए इसका बर्बर दमन करना आसान न था। अब जो कश्मीरी नौजवान सड़कों पर उतर रहे थे उनके हाथों में एके 47 या हैंड ग्रेनेड नहीं होते बल्कि पत्थर होते हैं। वे हिजबुल मुजाहिद्दीन या लश्करे तोयबा के दुर्दान्त आतंकवादी नहीं बल्कि इनमें स्कूल जाने वाले किशोर, बेरोज़गार नौजवान, प्रौढ़ और अधेढ़ महिलायें और आम जनता शामिल थी जो भारतीय सेना के दमन और उत्पीड़न के खि़लाफ़ सड़कों पर उतरे थे। अमरनाथ यात्रा विवाद के बाद शोपियाँ में दो महिलाओं के साथ सशस्त्र बलों द्वारा बलात्कार और हत्या, माछिल फर्जी मुठभेड़ में हत्या और जुलाई 2010 में तुफैल मुट्टू नामक 17 वर्षीय किशोर की सेना की गोलीबारी में मौत के बाद हुआ पूरी कश्मीर घाटी में व्यापक जनउभार देखने को आया जिसे इन्तिफ़ादा या जनविद्रोह की भी संज्ञा दी गयी जिसमें सैन्य बल की गोलियों से सौ से ज़्यादा युवाओं, किशोरों और बच्चों की जानें गयीं।

कश्मीरी अवाम की आकांक्षाएँ और उनका भविष्य

जम्मू एवं कश्मीर में हाल में आयी बाढ़ के बाद भारतीय बुर्जुआ मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक हिस्से ने यह उम्मीद बाँधनी शुरू कर दी की भारतीय सेना के राहत और बचाव कार्यों से कश्मीरी जनता भारत पर फिदा हो जायेगी और इस प्रकार यह राहत और बचाव कार्य कश्मीर में भारत के लिए ‘टर्निंग प्वाइण्ट’ साबित होगा। लेकिन इस किस्म के बचकाने विश्लेषण से भारत के टीवी दर्शक मध्यवर्ग को आत्ममुग्ध करने से ज़्यादा और कुछ नहीं करते। भारतीय मध्यवर्ग सेना के इस मानवीय चेहरे की तारीफ़ करता नहीं अघाता। परन्तु यदि कश्मीरियों की बात की जाये तो उनमें सेना के बचाव कार्यों में कुलीनों और पर्यटकों का तवज्जो देने और अन्तर्राष्ट्रीय मदद न स्वीकार करने से असन्तोष ही देखने में आया। बाढ़ से पीड़ितों के पुनर्वास का कोई इन्तज़ाम न होता देख कश्मीरियों की ग़रीब आबादी में ख़ास तौर पर गुस्सा देखने में आया। जिन लोगों के पास बहुमंज़िला घर थे वे तो अपने घरों की ऊपरी मंज़िलों और छतों पर चले गये, लेकिन झोपड़पट्टी में रहने वाले ग़रीबों की तो मानो इस बाढ़ ने पूरी दुनिया ही उजाड़ दी। सेना के खि़लाफ़ असन्तोष इस हद तक था कि बचाव और राहत कार्य के दौरान भी कश्मीर में कुछ स्थानों पर स्थानीय लोगों द्वारा सेना का पत्थरों से स्वागत किया गया। ज़ाहिर है कि पिछले 67 सालों लगातार बढ़ रहे कश्मीरियों के भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता से अलगाव को एक प्राकृतिक आपदा में राहत एवं बचाव कार्य करके उसका ढिंढोरा पीटने से ख़त्म नहीं किया जा सकता।

पिछले 67 सालों के भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता के दमन, उत्पीड़न और वायदाखि़लाफ़ी की वजह से कश्मीरी अवाम का भारत से अलगाव बढ़ा है और उसमें आज़ादी की आकांक्षा कम होने की बजाय बढ़ी ही है। लेकिन यह भी सच है कि निकट भविष्य में इस आकांक्षा के पूरा होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे। इस समय कश्मीरी अवाम की आज़ादी की आकांक्षा की सबसे मुखर रूप से पैरोकारी ऑल पार्टी हुर्रियत कान्फ्रेंस कर रही है। लेकिन हुर्रियत के सबसे रैडिकल धड़े का नेतृत्व कर रहे सैयद अली शाह गिलानी कश्मीर की आज़ादी के नाम पर उसको मज़हब के नाम पर बने राष्ट्र पाकिस्तान में मिलाना चाहते हैं। गिलानी बड़ी ही चालाकी से कश्मीर को इस्लामिक राज्य बनाने की अपनी योजना को जानबूझकर अस्पष्ट बनाये रखते हैं ताकि कश्मीरी अवाम, जो ऐतिहासिक रूप से इस्लाम की सूफ़ी धारा से प्रभावित है, उनको पाकिस्तानपरस्त नेता की बजाय कश्मीर की आज़ादी का रहनुमा ही समझती रहे। लेकिन उनके सिपाहसलार मसर्रत आलम और आसिया अन्द्राबी की खुले रूप से इस्लामिक कट्टरपन्थी हरकतों से गिलानी की मंशा साफ़ हो जाती है। यदि आज कश्मीरी अवाम का विचारणीय हिस्सा गिलानी को अपने प्रतिरोध का नेता मानता है तो उसकी वजह यह है कि गिलानी ने भारतीय राज्यसत्ता के दमन के खि़लाफ़ सबसे मुखर तरीके से विरोध किया है और अभी तक भारतीय राज्यसत्ता के सामने घुटने नहीं टेके हैं। लेकिन वे भारतीय राज्यसत्ता के सामने जितने कठोर दिखायी देते हैं, पाकिस्तानी शासकों के प्रति उनका रूख़ उतना ही नरम दिखायी देता है। पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर में पाकिस्तान के दमन और उत्पीड़न के खि़लाफ़ वे चूँ तक नहीं करते। साथ ही वे इस बात पर गोलमटोल जवाब देते हैं कि जम्मू एवं कश्मीर में इस्लामिक राज्य स्थापित होने पर जम्मू के हिन्दुओं, लद्दाख के बौद्धों एवं गुज्जर व बकरवाल जैसे नृजातीय समूहों का भविष्य क्या होगा। कश्मीरी पण्डितों के घाटी में पुनर्वास पर भी उनकी कोई ठोस नीति नहीं है। ज़ाहिरा तौर पर इस प्रकार का संकीर्ण नेतृत्व कश्मीरियों के न्यायपूर्ण संघर्ष को अन्तिम विश्लेषण में कमज़ोर ही करता है। परन्तु धर्मनिरपेक्ष बुर्जुआ नेतृत्व की समझौतापरस्ती के चलते आज कश्मीर में जो विकल्पहीनता की स्थिति बनी है उसी का लाभ गिलानी जैसे इस्लामिक कट्टरपंथियों को मिल रहा है। लेकिन कश्मीर की जनता से गिलानी जैसे इस्लामिक कट्टरपंथियों की आज़ादी के नाम पर पाकिस्तानपरस्ती बहुत ज़्यादा दिन तक नहीं छिप सकती। कश्मीर में बाढ़ की त्रासदी के बाद वहाँ की आम ग़रीब जनता ने भारतीय राज्य के भेदभावपूर्ण आचरण के साथ ही साथ तथाकथित अलगाववादी नेताओं की उनसे दूरी भी देखी है। कश्मीरियों की जो ग़रीब आबादी भारी पैमाने पर बाढ़ के बाद बेघर हुई है उनको अब अस्थायी पुनर्वास केन्द्रों से निकाल बाहर किया जा रहा है और ये कश्मीरियों के रहनुमा होने का दावा करने वाले ये नेता भी उनको पूछने नहीं आ रहे हैं। ये नेता भी भारतीय सेना की ही तरह राहत कार्यों के नाम पर मीडिया में फोटो खिंचवाने से अलग हटकर जनता के दुखों-तकलीफों से जुड़ने में असमर्थ रहे।

आज के दौर में दुनिया भर में राष्ट्रीयताओं की लड़ाई कमज़ोर हुई है। दुनिया के किसी भी हिस्से में आज बुर्जुआ वर्ग इतना रैडिकल नहीं रह गया है कि राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय की लड़ाई में जीत हासिल कर सके। कश्मीर में भी भारत जैसे ताक़तवर बुर्जुआ राज्यसत्ता से कश्मीरी बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में आत्मनिर्णय की लड़ाई में जीत हासिल करना संभव नहीं जान पड़ता। कश्मीरी बुर्जुआ वर्ग का एक बड़ा हिस्सा इस लड़ाई के दौरान ही भारतीय बुर्जुआ वर्ग द्वारा सहयोजित कर लिया गया। निम्न बुर्जुआ वर्ग का जो हिस्सा आज कश्मीर की जनता के संघर्ष का नेतृत्व कर रहा है वह भी इस्लामिक कट्टरपन्थ के पंककुण्ड में कूद पड़ने की अपनी इच्छा के चलते इस लड़ाई को कमज़ोर ही कर रहा है। लेकिन भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता के दमन और उत्पीड़न की वजह से कश्मीर की जनता में अलगाव आगे भी बढ़ेगा। नरेन्द्र मोदी सरकार की साम्प्रदायिक फ़ासिस्ट सरकार की नीतियाँ आने वाले दिनों में कश्मीरियों के भारत से अलगाव को और ज़्यादा बढ़ायेगी। भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों की बुर्जुआ राजनीति में जिस तरीके से कश्मीर का प्रश्न राष्ट्रीय प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है और जिस तरीके से दोनों देशों का तेज़ी से सैन्यकरण हो रहा है, ऐसे में बुर्जुआ व्यवस्था के दायरे में कश्मीर समस्या का कोई समाधान नज़र नहीं आता। इस जटिल समस्या का समाधान तो भारत में सर्वहारा क्रान्ति के बाद समाजवादी सरकार ही कर सकती है जो कश्मीर सहित सभी दमित और उत्पीड़न राष्ट्रीयताओं को आत्मनिर्णय के अधिकार के साथ एक समाजवादी संघ में शामिल होने के लिए उनके जनमानस को तैयार करेगी। परन्तु इसके लिए हमें सर्वहारा क्रान्ति आने तक इन्तज़ार नहीं करना चाहिए। सर्वहारा क्रान्ति के लिए संघर्षरत सभी लोगों को आज से ही कश्मीरी जनता के संघर्षों से एकता क़ायम करने की कोशिश करनी होगी और उनके बीच इस बात की पैठ बनानी होगी कि उनको आत्मनिर्णय का अधिकार एक सच्चे अर्थों में समाजवादी सत्ता ही दे सकती है। यानी कश्मीर सहित सभी राष्ट्रीयताओं के संघर्ष को भारत में सर्वहारा के संघर्ष से जोड़कर ही इस समस्या के वास्तविक समाधान की ओर बढ़ा जा सकता है।

दिशा सन्धान – अंक 3  (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित

उद्धरण : दिशा सन्धान-3, अक्टूबर-दिसम्बर 2015

लेनिन, क्या करें?, ‘कठमुल्लावाद और ‘आलोचना की स्वतन्त्रता’’ (1901)

“हम एक छोटे-से समूह में एक ढलान भरे और मुश्किल रास्ते पर मार्च कर रहे हैं, एक दूसरे का हाथ मज़बूती से पकड़े हुए। हम हर तरफ़ से शत्रुओं से घिरे हैं और हमें लगभग लगातार उनकी गोलाबारी के बीच आगे बढ़ना है। हम शत्रु से लड़ने के मकसद से एक मुक्त रूप से अपनाये गये निर्णय से साथ आये हैं, न कि आस-पास के उस दलदल में जाने के लिए जिसके निवासी शुरू से ही हमें एक अलग समूह में अलग हो जाने के लिए और मेल-मिलाप की बजाय संघर्ष का रास्ता चुनने के लिए धिक्कारते रहे हैं। और अब हममें से ही कुछ लोग चीख-चिल्लाहट मचा रहे हैं: चलो दलदल में चलें! और जब हम उन्हें शर्मसार करना शुरू करते हैं, तो वे कठोरता से प्रत्युत्तर देते हैं: कैसे पिछड़े लोग हो तुम! क्या तुम्हें हमारी इस आज़ादी को छीनने पर शर्म नहीं आती कि हम तुम्हें एक बेहतर रास्ते पर ले जाने का आमन्त्रण दे रहे हैं! ओह, हाँ, भद्रजनो! आप हमें आमन्त्रण देने के लिए ही नहीं बल्कि जहाँ भी आपको जाना है, वहाँ जाने के लिए स्वतन्त्र हैं, यानी दलदल में। दरअसल, हमें लगता है कि दलदल ही आपकी सही जगह है, और हम वहाँ पहुँचने आपको हर मदद देने को तैयार हैं। बस हमारा हाथ छोड़ दीजिये, हमें पकड़ कर मत रखिये और महान शब्द आज़ादी को मैला मत करिये, क्योंकि हम भी जहाँ चाहें जाने को “आज़ाद” हैं, न सिर्फ़ दलदल के विरुद्ध लड़ने के लिए बल्कि उनके ख़िलाफ़ लड़ने के लिए भी जो दलदल की ओर मुड़ रहे हैं!”

लेनिन (“वामपन्थी” कम्युनिज़्म: एक बचकाना मर्ज़)

Lenin-quote-DS-3जीवन का तकाज़ा पूरा होकर रहेगा। बुर्जुआ वर्ग को भागदौड़ करने दो, पागलपन की हद तक क्रुद्ध होने दो, हद पार करने दो, मूर्खताएँ करने दो, कम्युनिस्टों से पेशगी में ही प्रतिशोध लेने दो, गुज़रे कल के और आने वाले कल के सैकड़ों, हज़ारों, लाखों कम्युनिस्टों को (हिन्दुस्तान में, हंगरी में, जर्मनी में, आदि) कत्ल करने का प्रयत्न करने दो। ऐसा करके, बुर्जुआ वर्ग उन्हीं वर्गों की तरह पेश आ रहा है जिनके लिए इतिहास मौत का हुक़्म सुना चुका है। कम्युनिस्टों को जानना चाहिए कि भविष्य हर हाल में उनका है, इसलिए हम महान क्रान्तिकारी संघर्ष में उग्रतम उत्साह के साथ-साथ बहुत शान्ति और बहुत धीरज से बुर्जुआ वर्ग की पागलपनभरी भागदौड़ का मूल्यांकन कर सकते हैं, और हमें करना ही चाहिए।

रजनी पाम दत्त

Rajani-Palme-Dutt“चीखते-चिल्लाते महत्वोन्मादियों, गुण्डों, शैतानों और स्वेच्छाचारियों की यह फ़ौज जो फासीवाद के ऊपरी आवरण का निर्माण करती है, उसके पीछे वित्तीय पूँजीवाद के अगुवा बैठे हैं, जो बहुत ही शान्त भाव, सा़फ़ सोच और बुद्धिमानी के साथ इस फ़ौज का संचालन करते हैं और इनका ख़र्चा उठाते हैं। फासीवाद के शोर-शराबे और काल्पनिक विचारधारा की जगह उसके पीछे काम करने वाली यही प्रणाली हमारी चिन्ता का विषय है। और इसकी विचारधारा को लेकर जो भारी-भरकम बातें कही जा रही हैं उनका महत्व पहली बात, यानी घनघोर संकट की स्थितियों में कमज़ोर होते पूँजीवाद को टिकाये रहने की असली कार्यप्रणाली के सन्दर्भ में ही है।”

पियेर माशेरी (‘ए थियरी ऑफ़ लिटररी प्रोडक्शन’)

“इसलिए, पुस्तक की चुप्पी कोई कमी नहीं है जिसे दुरुस्त किया जाना है, कोई अनुपयुक्तता जिसका मुआवज़ा भरा जाना हो। यह कोई अस्थायी चुप्पी नहीं है जिसका अन्त में उन्मूलन हो सकता है। हमें इस चुप्पी की ज़रूरत को अलग करके देखना चाहिए। मिसाल के तौर पर, यह दिखलाया जा सकता है कई अर्थों को एक-दूसरे के बरक्स खड़ा किया जाना और उनके बीच का टकराव वह चीज़ है जो एक आमूलगामी अन्यता पैदा करती है, जो कि रचना को एक रूप-आकार प्रदान करती हैः यह इस टकराव को हल नहीं करती है और न ही सोख लेती है, यह बस उसे प्रदर्शित कर देती है।”

अन्तोनियो ग्राम्शी (प्रिज़न नोटबुक्स)

 

“आज का संकट ठीक इस बात में निहित है कि जो पुराना है वह मर रहा है और नया पैदा नहीं हो सकता है; इस अन्तराल में रुग्ण लक्षणों का ज़बर्दस्त वैविध्य प्रकट होता है।”

दिशा सन्धान – अंक 3  (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित

दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

दिशा सन्‍धान-2 की पीडीएफ डाउनलोड करने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें। अलग-अलग लेखों को यूनिकोड फॉर्मेट में आप नीचे दिये गये लिंक्स से पढ़ सकते हैं। 

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सम्‍पादकीय

अपनी बात

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन का इतिहास, समस्‍याएं व चुनौतियां

भारत में पूँजीवादी कृषि का विकास और मौजूदा अर्द्ध-सामन्ती सैद्धान्तिकीकरण की भ्रान्ति के बौद्धिक मूल / अभिनव सिन्‍हा

विश्‍व कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन का इतिहास, समस्‍याएं व चुनौतियां

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (दूसरी किस्त) / अभिनव सिन्‍हा

नेपाली क्रान्तिः गतिरोध और विचलन के बाद विपर्यय और विघटन के दौर में / आलोक रंजन

‘कम्युनिज़्म’ का विचार या उग्रपरिवर्तनवाद के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी / शिवानी

आज के ज्‍वलंत सवाल

जाति प्रश्न और उसका समाधान: एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण / शोध टीम, अरविन्‍द मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान

आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार के निहितार्थ / शिशिर

संघर्षरत्‍त्‍ जन

गहराता वैश्विक पूँजीवादी संकट और जुझारू मज़दूर संघर्षों का तेज़ होता सिलसिला / सत्‍यम

फासीवाद

फ़ासीवाद की बुनियादी समझ नुक्तेवार कुछ बातें / कात्‍यायनी

नमो फासीवाद : नवउदारवादी पूँजीवाद की राजनीति और असाध्य संकटग्रस्त पूँजीवादी समाज में उभरा धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन / कविता कृष्‍णपल्‍लवी

महान क्रान्तिकारियों की कलम से

उद्धरण : दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

श्रद्धांजलि

नेल्सन मण्डेला / आनन्‍द सिंह

आपकी बात

पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

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Errata (भूल सुधार) :
‘दिशा संधान’ के अंक-2, जुलाई-सितम्बर 2013 के प्रिंट संस्करण के कई लेखों में कुछ शब्दों के अंग्रेजी अनुवाद कोष्ठक में दिए गए हैं जिनके फाण्ट ग़लती से हिन्दी रह गए, जिनके कारण वे अपठनीय हो गए हैं। उनको पढ़ने के लिए वेब संस्करण को संदर्भित करें, जिसमें यह ग़लती नहीं है।

प्रिंट संस्करण में कृपया उन्हें इस प्रकार सुधार कर पढ़ें :

पृष्ठ संख्या/ पैरा/लाइन अशुद्ध छपाई सही शब्द

पृष्ठ 20, पैरा 1, लाइन 9 (चंतबमससप्रमक ‘जंजम)  (parcellized state)

पृष्ठ 20, पैरा 1, लाइन 13 (कमइज इवदकंहम) (debt bondage)

पृष्ठ 51, ऊपर से लाइन 9-10 (नदपदजमततनचजमक तमअवसनजपवद) (uninterrupted revolution)

पृष्ठ 75, ऊपर से लाइन 9  (नईजपजनजपवदपेउ) (substitutionism)

पृष्ठ 97, नीचे से लाइन 12 (बिजपवदंसपेउ) (factionalism)

पृष्ठ 102, पैरा 1, लाइन 10 (नदपदजमततनचजमक तमअवसनजपवद) (uninterrupted revolution)

पृष्ठ 114, पैरा 1, लाइन 8 (चतवअपेपवदंस लचवजीमेपे) (provisional hypothesis)

पृष्ठ 125, नीचे से लाइन 12 (वतजीवकवगजीमवबतंबल) (orthodox theocracy)

पृष्ठ 133, पैरा 1, लाइन 3-4 (दंजप.बिजपवदंसपेज बिजपवद) (anti-factionalist faction)

पृष्ठ 213, पैरा 2, लाइन 10 (बंचपजंसपेज तमदजपमत संदकसवतक.) (capitalist rentier landlord)

पृष्ठ 233 (कककककक) (सामयिक)

– सम्पादक (अक्‍टूबर 2013)

भारत में पूँजीवादी कृषि का विकास और मौजूदा अर्द्ध-सामन्ती सैद्धान्तिकीकरण की भ्रान्ति के बौद्धिक मूल

भारत में पूँजीवादी कृषि का विकास और मौजूदा अर्द्ध-सामन्ती सैद्धान्तिकीकरण की भ्रान्ति के बौद्धिक मूल

  • अभिनव सिन्हा

भूमिका

भारतीय कृषि में पूँजीवादी विकास का प्रश्न लम्बे समय से मार्क्सवादी अकादमीशियनों और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शिविर में एक विवादित विषय बना हुआ है। आज़ादी के छह दशकों बाद भी कर्इ मार्क्सवादी अकादमीशियन (अमित भादुरी, टी. नागीरेडडी, के. बालगोपाल, डी. वेंकटेश्वर राव, प्रधान एच. प्रसाद इत्यादि) और अधिकांश मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारी पार्टियाँ/संगठन/ग्रुप भारतीय सामाजिक संरचना को मुख्य रूप से एक अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक सामाजिक संरचना मानते हैं। उनके अनुसार जो कारण हमें भारतीय सामाजिक संरचना को अर्द्धसामन्ती मानने की ओर ले जाते हैं, उनमें राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में कृषि की प्रधानता, काश्तकारी का प्रचलन, उत्पादक शकितयों का पिछड़ापन, सूदखोर पूँजी की प्रधानता मुख्य हैं और यहाँ तक कि कुछ तो सामाजिक जीवन में धार्मिक र्और जातिगत चेतना की प्रधानता को भी अर्द्धसामन्ती थीसिस के पक्ष में एक साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यद्यपि, ऐसे विश्लेषण अक्सर मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की विशेष श्रेणियों की शुद्धता की उपेक्षा करते हैं या उन्हें मनमाने तरीके से इस्तेमाल करते हैं। रूस में पूँजीवाद के विकास के अपने शानदार अध्ययन में लेनिन ने दिखाया है कि किस प्रकार उन्हीं आँकड़ों का प्रयोग रूस में कृषि में पूँजीवाद के विकास को सत्यापित करने के लिए किया जा सकता है जिनका प्रयोग नरोदनिक यह साबित करने के लिए कर रहे थे कि रूसी कृषि में पूँजीवाद नहीं था, और यह भी कि रूसी गाँवों की किसानी अर्थव्यवस्था में काम करने वाले तथाकथित समानतामूलक नियमों व रूसी किसान आबादी के तथाकथित समरूप/अविभेदीक्रत चरित्र के कारण रूस के विशिष्ट मामले में पूँजीवादी विकास की मंजिल को लाँघ सकना सम्भव है! लेनिन ने यह भी बताया कि कृषि में पूँजीवाद के विकास की जटिलताएँ कर्इ प्रकार के विभ्रमों को जन्म दे सकती है। हमारी समझ में, भारत में अर्द्धसामन्ती सैद्धान्तिकीकरण मुख्य रूप से इन्हीं विभ्रमों का परिणाम है। यहाँ हम मार्क्सवादी सैद्धान्तिकीकरण ढाँचे के उन मूलभूत तत्वों की चर्चा करेंगे जिनसे यह तय किया जाता है कि कोर्इ विशेष सामाजिक संरचना अर्द्धसामन्ती है या पूँजीवादी। उसके बाद हम ग्रामीण भारत में उत्पादन के सम्बन्धों और अधिशेष विनियोजन की पद्धतियों से जुड़े आर्थिक प्रमाणों पर एक संक्षिप्त विवरण देंगे, जिसमें आदिम पूँजी संचय और भूमि सुधार, एक घरेलू बाज़ार और खेतिहर उजरती मज़दूरों के वर्ग का निर्माण, काश्तकारी का प्रश्न, सूदखोर पूँजी की भूमिका और ग्रामीण ऋण की संरचना, भूमि लगान का चरित्र, भूमि सम्पत्ति का उद्भव और चरित्र, दास/बंधुआ/अस्वतन्त्र श्रम का प्रश्न और बाजार/उपभोग के लिए उत्पादन का प्रश्न शामिल होंगे।

मार्क्सवादी सैद्धान्तिक फ्रेमवर्क तथा मौजूदा अर्द्धसामन्ती सैद्धान्तिकरणों के नव-नरोदनिक-सिस्मोन्दीय स्रोत

आदिम संचय और इसके नतीजों का प्रश्न

पूँजी, खण्ड-3 में मार्क्स कृषि में पूँजीवादी विकास और पूँजीवादी भूमि लगान के बारे में विस्तार से चर्चा करते हैं। हमें वही से शुरू करना चाहिए और इसके बाद इस विषय पर काऊत्स्की और लेनिन के मतों पर आना चाहिए। मार्क्स तर्क करते हैं कि सम्पत्ति सम्बन्धों और अधिशेष विनियोजन की पद्धतियाँ उत्पादन पद्धति को निर्धारित करती है। सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों का सार सामन्ती लगान में अभिव्यक्त होता है। सामन्ती लगान श्रम, वस्तु तथा मुद्रा तीनों रूपों में विधमान हो सकता है। मुद्रा लगान सामन्ती उत्पादन पद्धति के ढलान के दौर में अस्तित्व में आया क्योंकि मुद्रा परिचलन के एक विचारणीय स्तर तक विकसित होने और बाज़ार तन्त्र के साथ ही यह अस्तित्व में आ सकता था। मुद्रा लगान ने किसानों को काफी स्वायत्तता प्रदान की क्योंकि अब वे उत्पादन और बिक्री योग्य अधिशेष बढ़ाकर पूँजी संचय कर सकते थे। फिर भी, मार्क्स स्पष्ट करते हैं कि किसी भी रूप में लगान (मुद्रा लगान भी) सामन्ती लगान ही रहता है जब तक कि भूस्वामी-भूदास सम्बन्ध विधमान रहते है; जबतक कृषि श्रम अमुक्त हो; सामन्ती ज़मीन्दार मुद्रा, वस्तु या श्रम के रूप में लगान वसूल करे; किसान उत्पादन-सम्बन्द्धित निर्णयों को लेने के लिए आज़ाद न हो; भूदास/काश्तकार/किसान उत्पादन के साधनों से अलग नहीं हुए हों; सामन्ती ज़मीन्दार विधायिका, कार्यकारिणी और न्यायपालिका की शक्तियों के साथ वस्तुत: एक खण्डित राज्य की तरह कार्य करता हो;  किसान का आर्थिकेत्तर उत्पीड़न मौजूद हो;  और उत्पादन मुख्यत: किसान के परिवार के उपभोग के लिए किया जाता हो और अधिशेष को बदले में कुछ लिए बिना ही ज़मीन्दार के हवाले कर दिया जाता हो। मार्क्स आगे बताते हैं कि पूँजीवादी कृषि के विकास का मुख्य पैमाना कृषि सर्वहारा का निर्माण है। देहाती उजरती मज़दूरों का यह वर्ग आदिम-संचय की प्रक्रिया द्वारा निर्मित होता है, जो कि साथ ही साथ पूँजी के लिए घरेलू बाज़ार का भी निर्माण करता है। घरेलू बाज़ार का निर्माण इसीलिए होता है क्योंकि श्रम स्वयं एक माल बन जाता है, सामन्तवाद के अन्तर्गत किसानों के उपभोग के संसाधन अब विक्रय के लिए उपलब्ध होते हैं, उत्पादन के साधनों का उत्पादक से अलगाव हो चुका होता है और इसलिए उन्हें अब खरीदा और बेचा जाना होता है, और अब उत्पादन मुनाफ़े और बाज़ार के लिए किया जाता है। मार्क्स आदिम संचय की प्रक्रिया को विस्तार से समझाते हैं और यह दिखाते हैं कि किस प्रकार 13वीं और 16वीं शताब्दी के मध्य में इंग्लैण्ड में माटायर्स (अर्द्धकिसान) और सामान्य माल उत्पादकों के मध्यवर्ती संस्तर से होकर सामन्ती ज़मीन्दार, भू-दास और सामन्ती काश्तकार के वर्ग संकुल (class complex) से पूँजीवादी लगानजीवी ज़मीन्दार, पूँजीवादी किसान ज़मीन्दार, पूँजीवादी काश्तकार किसान और खेतिहर उजरती मज़दूरों के वर्ग संकुल में संक्रमण हुआ। हम यहाँ पर स्थानाभाव के कारण इस प्रक्रिया की बारीकियों में नहीं जा सकते और पाठक इसके एक विस्तृत और चित्रात्मक वर्णन के लिए पूँजी, खण्ड-3 देख सकते हैं।

पूँजीवादी भूमि लगान का प्रश्न तथा इस प्रश्न पर कि नव-उदारवादी व मौजूदा अर्द्धसामन्‍ती सिद्धान्‍तकारों में क्या साझा है?

इसके बाद, मार्क्‍स पूँजीवादी भूमि लगान के रूपों पर चर्चा की ओर बढ़ते हैं। मार्क्‍स भूमि लगान की एडम स्मिथ द्वारा दी गयी परिभाषा को स्वीकार करते हैं और यह स्पष्ट करते हैं कि भूमि लगान की रिकार्डो की संकल्पना असल में अतिरिक्त-मुनाफा है जो विभिन्न फार्मों में उत्पादन की अलग-अलग स्थितियों की मौजूदगी के कारण अस्तित्व में आता है और ठीक इसी वजह से ‘‘लगान’’ का यह रूप उद्योगों में भी हो सकता है। मार्क्‍स स्मिथ की संकल्पना को निरपेक्ष भूमि लगान कहते हैं और रिकार्डो की संकल्पना को विभेदक भूमि लगान कहते हैं। विभेदक भूमि लगान वास्तव में उन किसानों का अतिरिक्त मुनाफा है जिनकी उत्पादन की लागत औसत लागत से कम और जिनकी मुनाफे की दर उस सेक्टर में प्रचलित औसत मुनाफे की दर से अधिक है। उद्योगों से अलग (जहाँ उत्पादन की औसत किस्म की परिस्थितियाँ मुनाफे की औसत दर को निर्धारित करती है), कृषि में निम्नतम कोटि की जमीन उत्पादन की औसत दर को निर्धारित करती है। अतः, इस निम्नतम कोटि की भूमि से बेहतर भूमि वाले सभी फार्मों पर अतिरिक्त मुनाफा प्राप्त होगा क्योंकि सामान्य बाजार मूल्य निम्नतम कोटि की जमीन से तय होंगे। रिकार्डो यह तर्क पेश करते हैं कि लगान का एकमात्र रूप यह अतिरिक्त मुनाफा ही है, जिसे वह लगान कहते हैं। अतः रिकार्डो के अनुसार, निम्नतम कोटि की जमीन से कोई अतिरिक्त मुनाफा/विभेदक लगान नहीं उत्पादित होगा और इसलिए यह जमीन कभी भी जुताई के अन्‍तर्गत नहीं आयेगी क्योंकि कोई भी पूँजीवादी भूस्वामी मुफ्त में अपनी जमीन नहीं देगा। वह ऐसा केवल लगान के बदले में ही करेगा। स्मिथ, रिचर्ड जोन्स और बाद में मार्क्‍स यह प्रदर्शित करते हैं कि निम्नतम कोटि की जमीन भी खेती के काम लायी जाती है और वह लगान भी उत्पादित करती है। यह लगान वास्तव में निरपेक्ष भूमि लगान है और पूँजीवाद के तहत जमीन के निजी मालिकाने में विद्यमान एकाधिकार के कारण अस्तित्व में आता है। यह भूमि लगान तब भी मौजूद रहता है जब भूस्वामी द्वारा भूमि की गुणवत्ता में सुधार के लिए कोई पूँजी निवेश नहीं किया जाता, जब कोई अतिरिक्त मुनाफा नहीं होता और जब कोई उत्पादन/खेती नहीं होता (और भूमि का उपयोग लकड़ी, टिम्बर, जल प्रपात आदि प्राकृतिक सम्पदाओं के दोहन के लिए किया जाता है)। मार्क्‍स यह प्रदर्शित करते हैं कि रिकार्डो इस संकल्पना को समझने में असफल रहते हैं क्योंकि वे मूल्य और दाम के बीच के अन्‍तर और अतिरिक्त मूल्य और मुनाफे के बीच के अन्‍तर को नहीं समझ पाते। उन्होंने सोचा कि अगर किसी माल के बाजार मूल्य में उसकी उत्पादन लागत से अधिक कुछ भी और शामिल है स्थिर पूँजी + परिवर्तनशील पूँजी + औसत मुनाफा (इक्वलाइज्ड बेशी मूल्य), तो मूल्य का श्रम सिद्धान्‍त का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। लेकिन मार्क्‍स ने यह दिखलाया है कि रिकार्डो की यह भयाकुलता इस गलत आधार धारणा पर आधारित है कि – दाम मूल्य है! उन्होंने यह दिखलाया कि माल की बाजार कीमत उसकी उत्पादन कीमत से उस स्तर तक जरूर ऊपर उठनी चाहिए कि वह भूस्वामी को लगान (निरपेक्ष) उपलब्‍ध करा सके। अतः मूल्य के श्रम सिद्धान्‍त का प्रकार्य बाजार तन्त्र की मध्यस्थता के जरिये क्रियान्वित होता है। इसका यह अर्थ नहीं होता कि मूल्य के श्रम सिद्धान्‍त ने काम करना बन्‍द कर दिया है। यह सिर्फ प्रदर्शित करता है कि अलग-अलग सेक्टरों में, मुनाफा अधिक, कम या (दुर्लभ स्थितियों में) अतिरिक्त मूल्य के बराबर हो सकता है, लेकिन कुल मुनाफा हमेशा कुल अतिरिक्त मूल्य के बराबर ही रहेगा। काऊत्स्की कृषि में पूँजीवाद के अपने शानदार अध्ययन में इसे स्पष्ट रूप से समझाते हैं। वह बताते हैं, ‘‘मालों का मूल्य केवल एक प्रवृति के रूप में प्रकट होता है, एक नियमबद्ध गति के रूप में जो विनिमय या बिक्री की प्रक्रिया को विनियमित करने की ओर उन्मुख हो। इस प्रक्रिया का उत्पाद वास्तविक विनिमय-अनुपात या बाजार में प्राप्त होने वाला दाम होता है। स्वाभाविक रूप से, कोई नियम और उसके परिणाम दो अलग-अलग चीजें है।’’ (‘द कैपिटलिस्ट कैरेक्टर ऑफ माडर्न एग्रीकल्चर’, द एग्रेरियन क्वेश्चन, काऊत्स्की, उत्सा पटनायक (सम्‍पादित) ‘द एग्रेरियन क्वेश्चन इन मार्क्‍स एण्ड हिस सक्सेसर्स’, खण्ड 1, पृष्‍ठ 188, अनुवाद हमारा)। एक अन्य जगह, ‘‘परिणामतः, ‘‘उत्पादन की लागतों’’ द्वारा निर्धारित उत्पादन की कीमतें उत्पादों के मूल्यों से भिन्न हो जाती हैं हैः हालाँकि यह केवल मूल्य के नियम का एक संशोधन है, उसका निष्प्रभावन नहीं। उत्पादन की कीमत के पीछे यह अपना विनियमनकारी प्रकार्य जारी रखता है और मालों की सम्पूर्णता व अधिशेष-मूल्य के कुल योग लिये यह अपनी सम्पूर्ण वैधता कायम रखता है, और इस प्रकार वह कीमतों और मुनाफे की दर के लिए आधार उपलब्‍ध कराता रहता है – जो इसकी अनुपस्थिति में हवा में तैरते रह जायेंगे।’’ (पृष्‍ठ 202-03, वही)। अतः यह स्पष्ट है कि निरपेक्ष लगान के कारण उत्पादन कीमतों में वृद्धि मूल्य के श्रम सिद्धान्‍त की सेहत और तन्‍दुरुस्ती को रत्ती भर हानि नहीं पहुँचाती है और रिकार्डो बिना किसी ठोस कारण के विचलित हो गये और निरपेक्ष लगान के अस्तित्व को खारिज कर दिया। रिकार्डो का विभेदक लगान केवल उसी सूरत में अस्तित्वमान हो सकता है जब मालिक और उत्पादक दो अलग-अलग व्यक्ति हों क्योंकि केवल तभी निरपेक्ष लगान के साथ अतिरिक्त मुनाफा भूस्वामी को हस्तान्‍तरित किया जायेगा। जैसा कि काऊत्स्की प्रदर्शित करते हैं, भूस्वामी को लगान हस्तान्‍तरित किये जाने के बाद निरपेक्ष और विभेदक लगान में भेद करना बेहद मुश्किल है। ‘रूस में पूँजीवादी विकास’ में लेनिन भी निरपेक्ष लगान और विभेदक लगान के सवाल को काफी महत्व देते हैं। वह पूँजीवादी लगान (निरपेक्ष और विभेदक लगान) और सामन्‍ती लगान के बीच अन्‍तर को समझाते हैं। काऊत्स्की भी इस अन्‍तर को काफी स्पष्ट रूप से दिखाते हैं, ‘‘पूँजीवादी भूमि लगान को सामन्‍ती कुलीन-तन्त्र द्वारा किसानों पर लादे गये बोझों के साथ घालमेल नहीं करना चाहिए। शुरूआती दौर में, और कमोबेश पूरे मध्यकाल में, ये वे महत्वपूर्ण प्रकार्य थे जो मालिक को पूरे करने पड़ते थे – वे प्रकार्य जो कि बाद में राज्य द्वारा अपने हाथों में ले लिये गये और जिनके लिए किसानों को कर अदा करने होते थे। सामन्‍ती भूस्वामियों के वर्ग को न्याय व्यवस्था की निगरानी करनी होती थी, पुलिस उपलब्‍ध करानी होती थी और बाह्यजगत के समक्ष अपने मातहती जागीरदारों के हितों का प्रतिनिधित्व करना पड़ता था, हथियारों की ताबेदारी के द्वारा उनकी रक्षा करनी पड़ती थी और उनकी ओर से सैनिक सेवा पूरी करनी पड़ती थी।

‘‘इनमें से कोई भी चिन्‍ता या सरोकार पूँजीवादी समाज के भूस्वामी के लिए प्रासंगिक नहीं है। विभेदक लगान के रूप में, भूमि लगान प्रतिस्पर्धा का उत्पाद है; निरपेक्ष लगान के रूप में यह एकाधिकार का उत्पाद है। यह तथ्य कि ये लगान भूस्वामी को प्राप्त होते हैं, उसके किन्हीं सामाजिक प्रकार्यों के कारण नहीं बल्कि केवल और केवल भूमि और जमीन में निजी सम्पत्ति का परिणाम होते हैं।’’ (पृष्‍ठ 216, वही)

उत्सा पटनायक ने उचित ही इंगित किया है कि अर्द्धसामन्‍ती थीसिस के पुरोधाओं के गलत विचार इस कारण से हैं कि वे निरपेक्ष भूमि लगान की अवधारणा को नहीं समझते हैं और आश्चर्य की बात यह है कि अपनी इस मिथ्याधारणा को वे नव-उदारवादी अर्थशास्त्रियों के साथ साझा करते हैं! नव-उदारवादी सैद्धान्तिकीकरणों में, काश्तकार किसान मुद्रा में उजरत पाने वाले मजदूर के समतुल्य समझा जाता है, बस इतने फर्क के साथ कि काश्तकार किसान की उजरत मुद्रा में नहीं बल्कि वस्तु (जिंस) के रूप में होती है। वे इस तथ्य की पूरी तरह उपेक्षा कर देते हैं कि एक काश्तकार अपने उत्पादन के साधनों का मालिक होता है, वह पूँजी निवेश करता है, श्रम प्रक्रिया को नियन्त्रित करता है और उत्पादन सम्‍बन्‍धी निर्णय लेता है। इसका कारण यह है कि नव-उदारवादी अर्थशास्त्री निरपेक्ष भूमि लगान से अपरिचित, बल्कि कहना चाहिए कि अनभिज्ञ होते हैं। पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी (capitalist rentier landlord. सी.आर.एल.एल.) को पूँजीवादी किसान को कह दिया जाता है; काश्तकार को मजदूर (उजरती मजदूर) कह दिया जाता है; और लगान को मुनाफे के साथ गड्डमड्ड कर दिया जाता है; बटाईदार काश्तकार के हिस्से को मनमाने तरीके से उजरत (चाहे नकद में या वस्तु के रूप में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता!) कह दिया जाता है; और यह सारा गड़बड़झाला इसलिए होता है कि नव-उदारवादी अर्थशास्त्री केवल पूँजीवादी किसान भूस्वामी और उजरती मजदूर के सम्‍बन्‍धों को ही जानते हैं, वे केवल मुनाफे की अवधारणा को ही समझते हैं, लगान को नहीं। अब हम इसकी तुलना भारत में प्रचलित अर्द्धसामन्‍ती सैद्धान्तिकीकरणों की भ्रान्ति से कर सकते हैं।

अर्द्ध-सामन्‍ती सिद्धान्‍तकार इस काश्तकार को एक ऐसा ‘लगभग मजदूर’ कहते हैं जो दरिद्र है, कंगाल है, जिसका उत्पादन निर्णयों और श्रम प्रक्रिया पर कोई नियन्‍त्रण नहीं है; इसलिए वह ‘‘सामन्‍ती’’ जमींदारों और सूदखोरों के जुए तले दबा हुआ है और इसलिए ‘‘अस्वतन्त्र’’ है। जैसा कि हम देख सकते हैं, वे भी निरपेक्ष लगान की अवधारणा को नहीं समझते और पूँजीवादी काश्तकार को अस्वतन्त्र, गैर-पूँजीवादी मजदूर या लगभग मजदूर, करीब-करीब एक भूदास/बँधुआ मजदूर समझने की गलती करते हैं। वे पूँजीवाद के अन्‍तर्गत कृषि उत्पादन में सूदखोर पूँजी की भूमिका को भी नहीं समझते हैं। इस पर हम बाद में आयेंगे। उनके लिए यह काश्तकार एक अस्वतन्त्र, कंगाल श्रमिक है, न कि एक पूँजीवादी काश्तकार किसान जो कि उत्पादन के साधनों का स्वामी है। भूस्वामी केवल पूँजी लगाता है और साझेदार काश्तकार केवल श्रम! यह कंगाल बटाईदार केवल वस्तु के रूप में मजदूरी प्राप्त करता है और जमींदार लगान (रिकार्डो वाला!)। लेकिन अगर हम नजदीकी से देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसे ये सिद्धान्‍तकार ‘‘मजदूरी’’ कहते हैं वह असल में पूँजीवादी काश्तकार किसान का मुनाफा है; जिसे वे ‘‘लगान’’ कहते हैं वह वास्तव में भूस्वामी द्वारा दी गयी पूँजी पर ब्याज के रूप में मिलने वाला मुनाफा है। उदाहरण के लिए, अमित भादुरी की भारतीय बटाईदार काश्तकार (sharecropper) के विषय में अवधारणा यह है कि यह बटाईदार काश्तकार वह है जिसके पास बहुत थोड़े उत्पादन के साधन हों या फिर बिल्कुल न हों, कोई बचत न हो, उत्तरजीविता के कोई साधन न हों, अतः वह जमींदार से ‘‘उपभोक्ता ऋण’’ लेता हो। लेकिन वास्तविकता में यह ‘‘उपभोक्ता कर्ज’’ और कुछ नहीं बल्कि पहले से दी गयी अग्रिम मजदूरी है जो उपज में से ब्याज सहित वसूल ली जाती है। प्रत्यक्षतः जिसे भादुरी ‘‘लगान’’ कहते हैं वह असल में पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी द्वारा उजरती मजदूर को दी गयी अग्रिम पूँजी पर होने वाला मुनाफा है। जिसे भादुरी ‘‘काश्तकार’’ कहते हैं वह असल में मजदूर है, जिसे वह ‘‘लगान’’ कहते हैं वह प्राप्त होने वाला मुनाफा है; जिसे वह ‘‘उपभोक्ता ऋण’’ कहते हैं वह असल में अग्रिम मजदूरी है जो बाद में उपज के हिस्से के रूप में मजदूरी (harvest share wage) में से ब्याज सहित समायोजित कर ली जाती है।

भारत की ठोस सच्चाई इस प्रकार है (जिसे हम बाद में तथ्यों द्वारा भी सत्यापित करेंगे) : निरपेक्ष भूमि लगान पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी द्वारा ले लिया जाता है, चाहे वह काश्तकार को अग्रिम पूँजी को ऋण के रूप में देता हो या न देता हो। जमीन और उत्पादन में किये जाने वाले किसी भी पूँजी निवेश के बदले में वह जो ले सकता है वह और कुछ नहीं बल्कि पूँजीवादी काश्तकार किसान को दिये गये अग्रिम कर्ज पर ब्याज है। काश्तकार किसान उजरती मजदूर नहीं है। वह अधिशेष का उत्पादन अपने स्वयं के उत्पादन के साधनों, अपने परिवार व भाड़े के श्रम और पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी द्वारा पट्टे पर दी गयी जमीन पर अपने खुद के निवेश द्वारा करता है और इस जमीन के बदले वह लगान अदा करता है जो कि अधिशेष का ही एक हिस्सा होता है जिसे वह उत्पादन लागत के ऊपर पैदा करता है जिसमें कि उसके जीवन-निर्वाह की लागत भी शामिल होती है।

अब, उत्पादन की परिस्थितियों के अनुसार पूँजीवादी कृषि पर पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी या पूँजीवादी फार्मर भूस्वामी (Capitalist Farmer Landlord. सी.एफ.एल.एल.) का अधिक प्रभाव हो सकता है। जब तकनीकी विकास और भूमि में सुधार के द्वारा लगान इतना बढ़ जाये कि पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी के पास निवेश के लिए पर्याप्त पूँजी हो तो पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी खुद पूँजीवादी फार्मर भूस्वामी में परिवर्तित हो सकता है। लेकिन, यह परिवर्तन किसी भी तरह से अनुत्क्रमणीय (irreversible) नहीं है ओर अनेक प्रकार के कारणों से पूँजीवादी फार्मर भूस्वामी वापस अपने आप को पुनः पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी में बदल सकता है। उत्सा पटनायक ने इस रूपान्‍तरण की अस्थिरता को दर्शाया है। वह तर्क देती हैं कि हरित क्रान्ति के दौरान, लगान अवरोध (rent barrier) का अतिक्रमण हो गया था और कई लगानजीवी भूस्वामी खेती की ओर मुड़ गये थे। आज परिस्थिति भिन्न है। भूमण्डलीकरण के दौर में आज हम कृषि में एक पूँजीवादी संकट से गुजर रहे हैं (जिसे अर्द्धसामन्‍ती सिद्धान्‍तकार अर्द्धसामन्‍ती सम्‍बन्‍धों के लिए एक साक्ष्य के रूप में लेते हैं, जबकि हकीकत में, जैसा कि मार्क्‍स, काऊत्स्की और लेनिन पहले ही दिखला चुके हैं, यह कृषि में पूँजीवादी विकास का प्रमाण होता है, पूँजीवादी संकट के सार्वभौमिक प्रक्रिया का कृषि क्षण होता है)। इस समय तो हम फिर से लगानजीविता की ओर वापसी और निवेश के अन्य क्षेत्रों जैसे रियल एस्टेट, सूदखोरी और सट्टेबाज वित्तीय पूँजी की ओर झुकाव के प्रत्यक्षदर्शी बन रहे हैं। इस दौर में काश्तकारी का प्रश्न महत्वपूर्ण बन जाता है, इसलिए अब हम काश्तकारी के सवाल पर आते हैं।

काश्तकारी का प्रश्न

सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि कृषि अर्थव्यवस्था में काश्तकारी की प्रधानता का अपने आप में अर्द्ध-सामन्‍ती सम्‍बन्‍धों से कुछ भी लेना-देना नहीं है, जैसा कि अर्द्ध-सामन्‍ती सिद्धान्‍तकार दावा करते हैं। काऊत्स्की अपनी रचनाओं में 19वीं शताब्दी के अन्‍त के इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी, संयुक्त राज्य अमेरिका और उत्तरी अटलाण्टिक संघ के उदाहरणों से प्रचुर मात्रा में साक्ष्य देते हुए दर्शाते हैं कि पूँजीवादी कृषि के विकास के साथ काश्तकारी प्रथा अधिकाधिक प्रचलित होती जाती है। वह दर्शाते हैं कि पूँजीवादी कृषि में स्वत्वधारी खेत (स्वामी किसानों के खेत) और साथ ही साथ काश्तकार किसानों के भी खेत होते हैं। काश्तकार किसान पट्टे पर लिये गये खेत पर अपने परिवार और भाड़े के मजदूरों के साथ अधिशेष का उत्पादन करते हैं। इस अधिशेष का एक हिस्सा भूस्वामी को लगान के रूप में, एक हिस्सा सूदखोर/ऋणदाता को ब्याज के रूप में जाता है और शेष वह अपने मुनाफे के रूप में रख लेता है; स्वत्वधारी किसान यदि कोई ऋण है, तो उस पर ब्याज के भुगतान के बाद अपना मुनाफा प्राप्त करता है और पूँजीवादी भूस्वामी अपना लगान प्राप्त करता है। हालाँकि काऊत्स्की इंगित करते हैं कि स्वत्वधारी किसान के स्वामित्व के अधिकार पूँजीवादी कृषि के विकास के साथ केवल एक औपचारिक न्यायिक-वैधिक तथ्य बनकर रह जाते हैं। स्वत्वधारी किसान को बाजार की प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहने के लिए अधिकाधिक पूँजी की आवश्यकता होती है। वह इसे अपनी सम्पत्ति पर रेहन ऋण (mortgage loan) के रूप में प्राप्त करता है। इस ऋण के बदले में उसे रेहन ऋणदाता (mortgage creditor) को अपना भूमि लगान हस्तान्‍तरित करना पड़ता है और यह रेहन ऋणदाता एक राजकीय संस्था या फिर एक गैर-संस्थागत ऋणदाता जैसे सूदखोर हो सकता है। वास्तविकता में, यह उत्पादक का जमीन से अलगाव होना है। काऊत्स्की इसे इस प्रकार समझाते हैं, ‘‘भूस्वामी और उद्यमी के बीच विभाजन अब भी मौजूद होता है, यद्यपि विशेष न्यायिक-वैधिक रूपों के पीछे छिपे हुए रूप में। पट्टेदारी प्रथा के अन्‍तर्गत भूमि-स्वामी को प्राप्त होने वाला भूमि लगान रेहनदारी प्रथा के अन्‍तर्गत रेहन ऋणदाता के पास पहुँचता है। परिणामतः भूमि लगान के मालिक के रूप में, वह (रेहन ऋणदाता) परिणामतः जमीन का असली मालिक होता है। इसके उलट, जमीन का नाममात्र का मालिक पूँजीवादी उद्यमी है जो उद्यम पर मुनाफा और भूमि लगान प्राप्त करता है और फिर रेहन ऋणदाता को रेहन ऋण पर ब्याज के रूप में भुगतान करता है…पट्टेदारी प्रथा और रेहनदारी प्रथा में अन्‍तर यह होता है कि रेहनदारी प्रथा में जमीन के वास्तविक मालिक को पूँजीपति कहा जाता है और वास्तविक पूँजीवादी उद्यमी को एक भूस्वामी। इसी भ्रम की कृपा से हमारे फार्मर (यहाँ कोई भारत में अर्द्ध-सामन्‍ती सिद्धान्‍तकारों/नव-नरोदनिकों को पढ़ सकता है – लेखक), जो कि वास्तव में स्वयं पूँजीवादी कार्यकलापों को अंजाम देते हैं, ‘‘चलायमान पूँजी’’ अर्थात रेहन ऋणदाता के द्वारा किये जाने वाले शोषण पर काफी गुस्से में आ जाते हैं, जो वास्तव में वही आर्थिक भूमिका निभाता है जो पट्टेदारी प्रथा के तहत भूस्वामी निभाता है।’’ (पृष्‍ठ 225, वही)। वह तर्क देते हैं कि इस प्रक्रिया से सम्पत्तिधारी सर्वहारा में नहीं, बल्कि एक काश्तकार किसान में रूपान्‍तरित हो जाते हैं। काऊत्स्की आगे स्पष्ट करते हैं, ‘‘फिर भी, कृषि में प्रगति और समृद्धि अपने आपको अपरिहार्य रूप से रेहन ऋणग्रस्तता की बढ़ोत्तरी के रूप में अभिव्यक्त करती है, पहले तो इस वजह से कि ऐसी वृद्धि पूँजी की बढ़ती आवश्यकता को जन्म देती है और दूसरा इस वजह से कि कृषि ऋण का विस्तार भूमि-लगान को बढ़ने देता है।’’ (पृष्ठ 226, वही) ऐसा पूँजीवादी रूपान्‍तरण को अक्सर गलती से खेती की तबाही के रूप में देखा जाता है और कुछ लोगों को ‘‘किसानों को बचाओ’’ के आह्वान तक लेता जाता है। लेनिन इस भ्रम को साफ-साफ खण्डित करते हैं ओर काऊत्स्की को उद्धृत करते हैं, ‘‘किसानों के संरक्षण (der Bauernschutz) का अर्थ व्यक्ति किसान (the person of peasant) का संरक्षण नहीं होता (अवश्य ही कोई भी इसका विरोध नहीं करेगा), बल्कि किसानों की सम्पत्ति का संरक्षण होता है। वैसे वास्तव में यह ठीक किसान की सम्पत्ति ही है जो उसके दरिद्रीकरण और उसकी दुर्दशा का मुख्य कारण होती है। भाड़े के खेतिहर मजदूर अब अक्सर ही छोटे किसानों की तुलना में बेहतर स्थिति में होते हैं। किसानों की सुरक्षा गरीबी से सुरक्षा नहीं है बल्कि उन बेडि़यों की सुरक्षा है जो उसको गरीबी में जकड़े हुए हैं।’’ (लेनिन, रिव्यू ऑफ काउत्स्कीज डी अग्रारफ्रगे, पृष्‍ठ 226, वही)। और ‘‘इस प्रक्रिया को रोकने के प्रयास प्रतिक्रियावादी और नुकसानदेह होंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वर्तमान समाज में इस प्रक्रिया के परिणाम कितने कष्टदायक होते हैं, इस प्रक्रिया को रोकने के परिणाम और भी बदतर होंगे और मेहनतकश आबादी को और भी दयनीय और निराशाजनक स्थिति में पहुँचा देंगे।’’ (पृष्‍ठ 267, वही)

माओ का अर्द्ध-सामन्‍ती अर्द्ध-औपनिवेशिक सामाजिक संरचना का सिद्धान्‍त और वर्तमान अर्द्ध-सामन्‍ती सिद्धान्‍तकारों द्वारा इसका त्रासद विनियोजन

स्पष्टतः, पर्याप्त मात्रा में काश्तकारी अपने आप में अर्द्ध-सामन्‍ती सम्‍बन्‍धों की सूचक नहीं है। माओ ने साफ-साफ परिभाषित किया है कि अर्द्ध-सामन्‍ती सम्‍बन्‍धों से उनका क्या तात्पर्य है। माओ दलील देते हैं कि क्रान्ति-पूर्व चीन में अधिकांश भूमि जमींदारों, कुलीन वर्ग और सम्राट के मालिकाने में थी; किसानों को दासों के रूप में काम करने के लिए बाध्य किया जाता था; प्राकृतिक आत्म-निर्भर अर्थव्यवस्था के आधारों को नष्ट किया जा रहा था लेकिन सामन्‍ती जमींदारों द्वारा किसान आबादी का आर्थिकेतर शोषण जस का तस बरकरार रखा गया था और यह दलाल पूँजीपति वर्ग और सूदखोर पूँजी से जुड़ गया था। (माओ, संकलित रचनाएं, खण्ड 2, 1976, पृष्ठ सं. 312-13) माओ के लिए अर्द्ध-सामन्‍तवाद एक पृथक उत्पादन पद्धति नहीं बल्कि साररूप में यह पूँजीवाद की ओर संक्रमणशील अवस्था या रूप में सामन्‍तवाद है, लेकिन एक ऐसा संक्रमण जो सामन्‍ती जमींदारों, दलाल बुर्जुआ और साम्राज्यवाद द्वारा अवरुद्ध कर दिया गया था, और इसी कारण यह संक्रमण नव-जनवादी क्रान्ति के बिना पूरा नहीं हो सकता था। यहाँ वह चीज जो सबसे मूलभूत महत्व की है वह है लगान का सामन्‍ती चरित्र, अस्वतन्त्र दास श्रम, सामन्‍ती वर्ग की विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियों के रूप में विखण्डित राज्य की मौजूदगी, दलाल बुर्जुआ और साम्राज्यवाद का प्रभुत्व। स्पष्टतः अर्द्ध सामन्‍ती सम्‍बन्‍ध मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त और राजनीतिक अर्थशास्त्र की विशेष श्रेणियाँ हैं और इन्हें भारतीय वास्तविकता पर आज के अर्द्धसामन्‍ती सिद्धान्‍तकारों की सनक व कल्पनाओं के अनुसार लादा नहीं जा सकता। क्या हम कह सकते हैं कि भारत में भूस्वामी-भूदास सम्‍बन्‍ध कृषि सम्‍बन्‍धों का प्रभावी रूप है? तथाकथित बँधुआ श्रम ग्रामीण श्रम शक्ति का एक प्रतिशत भी नहीं है। अन्यत्रवासी जमींदारी भाड़े के श्रम से स्वयं कृषि उत्पादन (self-cultivation) द्वारा, जैसा कि हम बाद में देखेंगे, विस्थापित हो रही है। और अगर ऐसा विस्थापन न हो रहा होता तो भी इसे अनिवार्य रूप से सामन्‍तवाद के एक प्रमाण के रूप में नहीं लिया जा सकता।

सांख्यिकीय तथ्यों के आइने में वास्तविकता

काश्तकार खेती के अन्‍तर्गत आने वाला क्षेत्रफल भारत में 1951-52 में 12 प्रतिशत से गिरकर 1991-92 में 8.28 प्रतिशत पर आ गया है। अपंजीकृत काश्तकारी भी अपनी ढलान पर है। बटाईदारी वाली खेती काश्तकारी का प्रमुख रूप है। उत्तर और पूर्वी भारत के 334 गाँवों के अपने नमूना सर्वेक्षण में बर्धन ने दिखाया है कि बटाईदार खेती अधिकांशतः 50:50 के आधार पर की जाती है (पी. बर्धन, ‘टर्म्‍स एण्ड कण्डीशंस ऑफ शेयरक्रॉपिंग कॉण्ट्रैक्ट्स’, जर्नल ऑफ डेवेलपमेण्ट स्टडीज, खण्ड 16, 1977)। यह एक बहुत बड़ी भ्रामक सोच है कि बटाईदार खेती वाली काश्तकारी अर्द्ध-सामन्‍तवाद का एक प्रमाण है। बटाईदारी खेती वाली काश्तकारी के अन्‍तर्गत भूस्वामी कृषि के सुधार में रुचि दिखाता है। अन्यत्रवासी भूस्वामी से भिन्न, नया भूस्वामी अक्सर कृषि में पूँजी का निवेश बीज, खाद, मशीन आदि के लिए करता है। वह केवल जमीन का मालिक ही नहीं होता बल्कि पूँजी उधार देने वाला भी होता है। अशोक रूद्रा और पी. बर्धन ने दर्शाया है कि तथाकथित अटैचमेण्ट/सेमीअटैचमेण्ट (खेतिहर मजदूर और भूस्वामी के बीच करारनामे की एक किस्म जिसके कई संस्करण पाये जाते हैं) श्रम की सुनिश्चित और समयबद्ध आपूर्ति के लिए भूस्वामी की चिन्‍ता को दिखाता है, न कि आर्थिकेत्तर उत्पीड़न को। (बर्धन, रूद्रा, ‘लेबर एम्प्लॉयमेण्ट एण्ड वेजेस इन एग्रीकल्चर’, इपीडब्‍ल्‍यू, नवम्बर 1980)। भूस्वामी की आय का अधिकांश हिस्सा सूदखोरी से नहीं बल्कि लगान और मुनाफे से आता है। 1952 में गैर-संस्थागत ऋण का हिस्सा 95 प्रतिशत था जो 1981-82 तक घटकर 60 प्रतिशत हो गया। यद्यपि, पिछले दो दशकों के दौरान यह बढ़ा है, लेकिन नये सूदखोर पेशेवर सूदखोर नहीं हैं, बल्कि पेशेवर निम्न-पूँजीपति वर्ग के अन्य सदस्य हैं जैसा कि बसोले और बसु ने अपने शानदार अध्ययन (‘रीलेशन्स ऑफ प्रोडक्शन एण्ड मोड ऑफ सरप्लस एक्सट्रैक्शन इन इण्डिया’, अमित बसोले एण्ड दीपांकर बसु, अर्थशास्त्र विभाग, मैसाच्युसेट्स यूनिवर्सिटी, एमहर्स्‍ट, एम.ए., यू.एस.ए.) में दर्शाया है। इसके अलावा, यह ऋण प्रणाली के निजीकरण और ऋण सेवाओं से राज्य के हाथ वापस लेने के कारण अधिक है। लेकिन, यह किसानी (काश्तकार और मालिक किसान दोनों) के सूदखोर पूँजी द्वारा सामन्‍ती प्रभुत्व के समान नहीं है। जैसा कि हम पहले ही दिखा चुके हैं, अगर अस्वतन्त्र/दास श्रम नहीं है तो ग्रामीण ऋणग्रस्तता अपने आप में अर्द्ध-सामन्‍ती सम्‍बन्‍धों का प्रमाण नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त, यहाँ तक कि पूँजीवाद के अन्‍तर्गत भी श्रम पूरी तरह ‘‘स्वतन्त्र’’ नहीं होता है। जैसा कि टॉम ब्रास और उत्सा पटनायक ने तर्क पेश किया है कि सभी पूँजीवादी करारनामों में अन्‍तर्निहित रूप से विभिन्न प्रकार की अस्वतन्त्रताएँ मौजूद रहती हैं। श्रम की स्वतन्‍त्रता सामान्य नियम या प्रवृत्ति होते हैं। लेकिन जो कोई भी इसे शब्दशः लेता है वह एक भारी भ्रम का शिकार है। इसलिए ग्रामीण ऋणग्रस्तता और सूदखोर पूँजी कृषि के पूँजीवादी रूपान्‍तरण को और अधिक सघन बना सकते हैं, बशर्ते कि पूँजीवादी विकास की अन्य पूर्वशर्तें पूरी होती हों (उदाहरण के लिए, श्रम शक्ति और जमीन का माल में तब्दील होना, पूँजीवादी भूमि लगान का अस्तित्व में आना, एकीकृत घरेलू बाजार का निर्माण, इत्यादि)। आइये इस विषय पर मार्क्‍स के विचार देखते हैं। मार्क्‍स कहते हैं कि सूदखोरी उत्पादन के कोने-कोने में व्याप्त होती है; यह पूँजी होती है क्योंकि यह अधिशेष श्रम को विनियोजित करती है, लेकिन उत्पादन पद्धति से बिना कोई सम्‍बन्‍ध रखे हुए ही; यह उसी उत्पादन-पद्धति को और अधिक निन्‍दनीय बनाकर मजबूत करती है, चाहे वह सामन्‍ती हो या पूँजीवादी। सूदखोर पूँजी मुद्रा पूँजी है जो उत्पादन प्रक्रिया के नियन्‍त्रण/संगठन के द्वारा अधिशेष को विनियोजित नहीं करती है, बल्कि ब्याज के उपकरण के जरिये ऐसा करती है; यह उत्पादक का स्वामित्वहरण करती है लेकिन उन्हें एक बड़ी उत्पादक गतिविधि में संकेन्द्रित नहीं करती और उन्हें बिखरा हुआ व और भी अधिक दरिद्र, ऋणग्रस्त छोटे उत्पादक के रूप में छोड़ देती है। लेकिन, सूदखोरी पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के तहत भी जारी रहती है और यहाँ तक कि पूँजीवादी विकास का एक उपकरण बन सकती है, अगर पूँजीवादी उत्पादन पद्धति की अन्य शर्तें मौजूद हों। (कार्ल मार्क्‍स, पूँजी, खण्ड 3, मास्को, फॉरेन लैंग्वेजेज पब्लिशिंग हाउस, 1959, पृष्‍ठ 580-599)

बसु और बसोले ने यह भी दिखलाया है कि समग्रता में काश्तकारी अपनी ढलान पर है। वे इसके लिए पर्याप्त तथ्य देते हैं। पट्टे पर भूमि देने वाले परिवारों का हिस्सा 1971-72 में 25 प्रतिशत से गिरकर 2003 में 12 प्रतिशत हो गया; पट्टे पर दी गयी भूमि का क्षेत्रफल 1971-72 में 12 प्रतिशत से घटकर 2003 में 7 प्रतिशत हो गया; आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से पट्टे पर दी गयी जमीन का हिस्सा 1960-61 में 24 प्रतिशत से गिरकर 2002-03 में 10 प्रतिशत हो गया; सम्पूर्ण प्रयुक्त क्षेत्रफल में पट्टे पर चढ़ी भूमि का हिस्सा 10.7 प्रतिशत से घटकर 2002-03 में 6.5 प्रतिशत हो गया। अतः अविवादित रूप से काश्तकारी खेतों से भाड़े को श्रम की सहायता से की जाने वाली स्व-उत्पादित कृषि की ओर परिवर्तन हुआ है। अर्द्ध-सामन्‍ती सिद्धान्‍तकार दावा कर सकते हैं कि छोटे उत्पादकों में काश्तकारी बढ़ी है। लेकिन ऐसा मामला भी नहीं है। सभी क्षेत्रफल प्रवर्गों में काश्तकार जोत का हिस्सा घटा है। वास्तव में बड़ी जोतों में काश्तकारी बढ़ी है, जो पूँजीवादी काश्तकारी के पूर्ण प्रभुत्व को दर्शाता है। 2003 में, काश्तकारी भूमियों का 70 प्रतिशत बड़ी जोतों (झ 2.5 एकड़) द्वारा संचालित किया जाता था, अर्थात सभी संचालित जोतों के केवल 3 प्रतिशत द्वारा। काश्तकारी की शर्तें साफ-साफ दिखाती हैं कि पूँजीवादी सम्‍बन्‍ध निस्सन्‍देह रूप से प्रभावी बन चुके हैं। तय लगान (मुद्रा रूप में और वस्तु रूप में) 2002-03 में कुल लगान का 51 प्रतिशत बनाता था, जो 1960-61 में 38 प्रतिशत था। फसल हिस्सेदारी (बटाईदारी) 2002-03 में 40 प्रतिशत थी जो 1960-61 में 40 प्रतिशत थी। पंजाब और हरियाणा, जो सर्वाधिक विकसित पूँजीवादी कृषि वाले राज्य हैं, में अधिकतम काश्तकारी पायी गयी। विपरीत काश्तकारी सभी राज्यों में अब पर्याप्त रूप से विचारणीय परिघटना बन चुकी है। बसु और बसोले ने यह भी दिखाया है कि गैर-संस्थागत ऋण की मात्रा में हालिया वृद्धि को मुख्यतः सर्वाधिक उन्नत पूँजीवादी कृषि वाले राज्यों से आया हुआ माना जा सकता है (पंजाब, तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेश)। ऐसा इसलिए क्योंकि गैर-संस्थागत ऋण में यह वृद्धि और कुछ नहीं बल्कि ऋण प्रणाली का पूँजीवादी निजीकरण और वित्तीयकरण है। फिर भी, अभी भी कृषि में सम्पूर्ण ऋण का आधा हिस्सा संस्थागत स्रोतों से आता है।

कृषि में बाजार का प्रवेश भी आँकड़ों के माध्यम से देखा जा सकता है। अधिकांश खाद्य फसलों में अधिशेष का 85 प्रतिशत से भी अधिक विपणित कर दिया जाता है। कुल कृषि उत्पादन में कृषकों के विभिन्न वर्गों के लिए विपणित अधिशेष इस प्रकार है : प्रभावी रूप से भूमिहीन के लिए 44 प्रतिशत; सीमान्‍त किसानों के लिए 54 प्रतिशत; छोटे किसानों के लिए 65 प्रतिशत; मध्यवर्ती किसानों के लिए 66 प्रतिशत; और बड़े किसानों के लिए 71 प्रतिशत। कृषि में सकल पूँजी निर्माण (Gross Capital Formation in Agriculture) 1961 और 1999 के बीच 3 प्रतिशत की दर से बढ़ा है जो अपने आप में एक विचारणीय वृद्धि है।

किसानों के विभेदीकरण को समझने के लिए, जो कि लेनिन के अनुसार कृषि के पूँजीवादी रूपान्‍तरण के लिए सबसे महत्वपूर्ण पैमाना है, हमें भूमिहीनता और भूमि मालिकाने की संरचना से भी सम्‍बन्धित आँकड़ों को देखने की जरूरत है। कृषि श्रम का 62 प्रतिशत उन घरों से आता है जो 0.025 से लेकर 1 एकड़ जमीन तक के मालिक हैं। ये ‘‘प्रभावी रूप से भूमिहीन’’ हैं; ये परिवार अपनी आय का 60 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा उजरत के रूप में पाते हैं, और उनके उत्पादन का 44 प्रतिशत विपणित होता है, जो कि भूमिहीन आबादी के इस वर्ग के लिए पर्याप्त रूप से बड़ा हिस्सा है। 2004-5 में 1 एकड़ से कम भूमि वाले परिवारों का हिस्सा 76.6 प्रतिशत था; 1-2 एकड़ जमीन वाले परिवारों का हिस्सा 12.2 प्रतिशत था; 2 एकड़ से अधिक जमीन वालों का हिस्सा 11.2 प्रतिशत था। प्रभावी भूमिहीनता 1960-61 में 44.2 प्रतिशत से बढ़कर 2002-3 में 60.1 प्रतिशत हो गयी; गरीब ग्रामीण परिवारों का 60 प्रतिशत खेती के अन्‍तर्गत जमीन के मात्र 6 प्रतिशत का स्वामित्व रखते हैं। प्रभावी रूप से भूमिहीन और सीमान्‍त किसानी का हिस्सा कुल ग्रामीण परिवारों के 1961 में 66 प्रतिशत से बढ़कर 2003 में 80 प्रतिशत हो गया; बहुत बड़े खेतों (झ10 एकड़) का हिस्सा 1961 में 12 प्रतिशत से घटकर 2003 में 3.6 प्रतिशत हो गया; 2.5-10 एकड़ वाले किसान भूमि का हिस्सा 1961 में 23 प्रतिशत से घटकर 2003 में 17 प्रतिशत हो गया; छोटे किसान परिवारों (2.5 एकड़ से कम) के स्वामित्व की भूमि 1961 में 8 प्रतिशत से बढ़कर 2003 में 23 प्रतिशत हो गयी; बड़े किसानों (झ10 एकड़) का हिस्सा 1961 में 60 प्रतिशत से घटकर 2003 में 35 प्रतिशत हो गया और मध्यवर्ती किसानों (2.5-10 एकड़) का हिस्सा 1961 में 33 प्रतिशत से बढ़कर 2003 में 42 प्रतिशत हो गया।

निष्कर्ष

ये आँकड़े स्पष्ट रूप से किसानों के विभेदीकरण और खेतिहर उजरती मजदूरों के एक विशाल वर्ग के निर्माण को दर्शाता है। हम बाजार के लिए उत्पादन, ऋण प्रणाली और जमीन के मालकरण (commodification) के प्रभुत्व से जुड़े हुए आँकड़े भी पहले ही उद्धृत कर चुके हैं। ये आँकड़े भारत में लागू भूमि-सुधारों की प्रकृति को भी दर्शाते हैं। हम निश्चित रूप से भूमि-सुधार के प्रशियन पथ के साक्षी बने हैं, जिसमें भूमि काश्तकारों और भूमिहीन मजदूरों को पुनर्वितरित नहीं की गयी; पहले के सामन्‍ती जमींदारों को अपने आपको पूँजीवादी लगानजीवी भूस्वामी या पूँजीवादी फार्मर भूस्वामी में रूपान्‍तरित होने दिया गया। कृषि के बाजारीकरण, संस्थागत और गैर-संस्थागत पूँजीवादी ऋण प्रणाली के विकास, किसानों के विभेदीकरण, एक एकीकृत घरेलू बाजार के निर्माण, आदि से जुड़े हुए आँकड़ों को प्रचुर मात्रा में पेश किया जा सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से जगह की कमी हमें इस लेख में ऐसा करने की आज्ञा नहीं देती।

इससे पहले कि हम उपसंहार करें, एक और गौरतलब सवाल सामने रख दिया जाना चाहिए। हमारे विचार में, कृषि के पूँजीवादी रूपान्‍तरण की बात को निश्चित ही अनम्य और पुराने पड़ चुके अर्द्ध-सामन्‍ती सैद्धान्तिक फ्रेमवर्क से कोई चुनौती नहीं दी जा सकती है, जैसा कि उपरोक्त तथ्यों से साफ-साफ दर्शाते हैं; लेकिन अर्द्ध-सामन्‍ती थीसिस की अरक्षणीयता और अन्‍तरविरोधों के कारण अर्द्ध-सामन्‍ती सिद्धान्‍तकारों का पूरा तर्क बुर्जुआजी के चरित्र पर आकर अटक जाता है। इस विषय के लिए अलग से विस्तृत लेख की जरूरत पड़ेगी, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है : पिछले 6 दशकों के दौरान भारतीय बुर्जुआजी का व्यवहार किसी भी तरह से दलाल बुर्जुआजी का बर्ताव नहीं रहा है; भारतीय राज्य एक विशेष प्रकार का उत्तर-औपनिवेशिक (देरिदियन अर्थों में नहीं) पूँजीवादी राज्य है जो एक ऐसी बुर्जुआजी द्वारा पहचाना जा सकता है जो कि न तो राष्ट्रीय है (क्योंकि इसका कोई भी हित भारतीय जनता के साथ साझा नहीं होता), न ही दलाल (क्योंकि, यह राजनीतिक रूप से आश्रित नहीं है और स्वेज नहर विवाद, सोवियत एशिया मैत्री संघ के मुद्दे से लेकर कोपेनहेगेन शिखर बैठक आदि तक के मामलों में इसने मेट्रोपोलिटन साम्राज्यवादी बुर्जुआजी के विरोध में जाकर अपने स्वतन्त्र राजनीतिक निर्णय लिये हैं), और न ही एक साम्राज्यवादी बुर्जुआजी (क्योंकि भारतीय बुर्जुआजी का पूँजी आयात अभी भी इसके पूँजी निर्यात से कहीं ज्यादा है जो कि निश्चित रूप से पिछले दो दशकों के दौरान लगातार वृद्धि करता रहा है) है। तो फिर भारतीय बुर्जुआजी का चरित्र क्या है? हमारे विचार में भारतीय बुर्जुआजी साम्राज्यवादियों के जूनियर पार्टनर के रूप में पहचानी जा सकती है (किसी एक अकेले साम्राज्यवादी देश की नहीं, बल्कि पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था की); यह राजनीतिक रूप से स्वतन्‍त्र है लेकिन आर्थिक रूप से आश्रित; मेट्रोपोलिटन बुर्जुआजी द्वारा कभी-कभी इसकी बाँहें मरोड़ी जाती हैं (क्योंकि यह जूनियर पार्टनर है!) लेकिन यह अपनी राजनीतिक स्वतन्‍त्रता कभी नहीं छोड़ता है और विभिन्न साम्राज्यवादी शिविरों के बीच मोलतोल के द्वारा अपने ‘‘राष्ट्रीय’’ वर्ग हितों में सन्‍तुलन और प्रति-सन्‍तुलन बनाते हुए एक ‘टाइट रोप वॉकिंग’ करता है। साम्राज्यवादी विश्व की एकध्रुवीयता केवल अस्थायी और भ्रामक परिघटना ही हो सकती है। जैसा कि लेनिन ने दर्शाया है एकाधिकार अपनी विरोधी गति यानी कि प्रतिस्पर्द्धा के साथ-साथ चलता है और यह द्वन्‍द्व अन्य कारकों के साथ मिलकर क्रान्तिकारी परिस्थिति का निर्माण करता है।

उपसंहार करते हुए हम इतना कहेंगे कि अगर भारतीय मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी आन्‍दोलन को प्रगति करनी है तो उसे अर्द्धसामन्‍ती अर्द्ध-औपनिवेशिक सैद्धान्तिकीकरण की बेडि़यों को तोड़ना होगा। हमारे विचार में अधिकांश माले पार्टियों और बुद्धिजीवियों को अर्द्ध-सामन्‍ती अर्द्ध-औपनिवेशिक सैद्धान्तिकीकरणों की वर्तमान भारतीय परिस्थिति और साथ ही भारतीय इतिहास पर भी इसकी प्रयोज्यता पर दोबारा सोचने की जरूरत है। कार्यक्रम के सवाल को विचारधारा के सवाल में नहीं बदल दिया जाना चाहिए, जैसा कि भारत में कठमुल्लावादी वाम ने किया है। अगर कोई पूँजीवादी विकास या समाजवादी क्रान्ति की मंजिल की बात करता है तो उन्हें अक्सर त्रात्स्कीपन्‍थी कह दिया जाता है क्योंकि यह लगभग एक आकाशवाणी या स्वयंसिद्ध तथ्य जैसा बन चुका है कि ऐसा कहना ही लेनिन के दो चरणों में क्रान्ति के सिद्धान्‍त को खारिज करने के समान है! यह एक विडम्बना की, बल्कि त्रासदी की, स्थिति है, जिससे जितनी जल्दी हो सके छुटकारा पा लिया जाना चाहिए।

(प्रसिद्ध बांग्ला पत्रिका ‘अनीक’ के अंक अक्टूबर 2012 में प्रकाशित)

(इस लेख का अंग्रेजी संस्करण इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है :

http://redpolemique.wordpress.com/2012/11/11/development-of-capitalist-agriculture-in-india-and-the-intellectual-origins-of-the-fallacy-of-present-semi-feudal-thesis/)

हिन्‍दी अनुवाद : प्रशान्‍त

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित

गहराता वैश्विक पूँजीवादी संकट और जुझारू मज़दूर संघर्षों का तेज़ होता सिलसिला

गहराता वैश्विक पूँजीवादी  संकट और जुझारू मज़दूर संघर्षों का तेज़ होता सिलसिला 

  • सत्यम

वर्ष 2006 से जिस विश्वव्यापी मन्‍दी ने पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी जकड़ में ले रखा है उससे उबरने के अभी कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। संकट को टालने के लिए पूँजीवाद के नीम-हकीमों और वैद्यों ने जितने नुस्खे सुझाये हैं उनके कारण संकट के नये रूपों में फिर वापसी ही होती रही है। इन सभी उपायों की एक आम विशेषता यह रही है कि पूँजीपतियों और उच्च वर्गों को राहत देने के लिए संकट का ज्यादा से ज्यादा बोझ मेहनतकशों और आम लोगों पर डाल दिया जाये। इसके कारण लगभग सभी देशों में सामाजिक सुरक्षा के व्यय में भारी कटौती, वास्तविक मजदूरी में गिरावट, व्यापक पैमाने पर छँटनी, तालाबन्‍दी आदि का कहर मेहनतकश आबादी पर टूटा है। पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में आये बदलावों के चलते भारी मजदूर आबादी जिस तरह असंगठित और खण्ड-खण्ड में बिखेर दी गयी है उस कारण पूँजी के इन हमलों के आगे वह लाचार और बेबस-सी दिखती रही है। लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में तस्वीर बदलती दिखायी दे रही है।

दुनिया भर में मजदूर इस बर्बर लूट का जमकर प्रतिरोध कर रहे हैं और अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। वैसे तो संकट की शुरुआत के साथ सरकारी खर्च घटाने के विभिन्न कदमों के विरोध में अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों में व्यापक प्रदर्शनों और हड़तालों का सिलसिला शुरू हो गया था जो अब भी जारी है। लेकिन पिछले 2-3 वर्षों के दौरान तीसरी दुनिया के पूँजीवादी देशों में उभर रहे मजदूर संघर्षों की प्रकृति इनसे काफी अलग है। उन्नत पूँजीवादी देशों के मजदूर, जो ज्यादातर यूनियनों में संगठित हैं, मुख्यतया अपनी सुविधाओं में कटौती और रोजगार के घटते अवसरों के विरुद्ध सड़कों पर उतर रहे हैं। इनका बड़ा हिस्सा उस अभिजन मजदूर वर्ग का है जिसे तीसरी दुनिया की जनता की बर्बर लूट से कुछ टुकड़े मिलते रहे थे और इसका जीवन काफी हद तक सुखी और सुरक्षित था। ग्रीस जैसे देशों की स्थिति अलग है जो पहले भी दूसरी दुनिया के देशों की निचली कतार में थे और वित्तीय संकट की मार से लगभग तीसरी दुनिया की हालत में पहुँच गये हैं। मगर भारत, बंगलादेश, पाकिस्तान से लेकर मलेशिया, इण्डोनेशिया, कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, मेक्सिको, चीन आदि देशों में एक के बाद उठ रहे जुझारू आन्‍दोलन इन देशों के उस मजदूर वर्ग की बढ़ती बेचैनी और राजनीतिक चेतना का संकेत दे रहे हैं जो हर तरह के अधिकारों से वंचित और सबसे बर्बर शोषण का शिकार है। बेहद कम मजदूरी पर और बहुत खराब व खतरनाक स्थितियों में 12-14 घण्टे रोज, अक्सर बिना साप्ताहिक अवकाश के काम करने वाली यह विशाल मजदूर आबादी तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में मजदूरों के 90 प्रतिशत से अधिक है। इनका भारी हिस्सा असंगठित है और ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल या पीसरेट पर काम करने वाले मजदूरों का है। इन देशों में हो रहा पूँजीवादी विकास इसी विराट मजदूर आबादी की अस्थि-मज्जा को निचोड़कर हो रहा है। विकसित पूँजीवादी देशों की कम्पनियों के मुनाफे का स्रोत भी इन्हीं रसातलवासी मजदूरों से चूसा गया खून है। बिखराव, संगठनविहीनता और पिछड़ी चेतना का शिकार यह मजदूर वर्ग अब तक प्रायः कुछ रक्षात्मक संघर्षों या बीच-बीच में फूट पड़ने वाली उग्र झड़पों के विस्फोट तक सीमित रहा था। लेकिन दुनिया भर में जगह-जगह हो रहे आन्‍दोलन बताते हैं कि इसमें तेजी से अपने अधिकारों और एकजुटता की चेतना का संचार हो रहा है और यह पूँजी की ताकतों से लोहा लेने के लिए तैयार हो रहा है। यह अलग बात है कि संघर्ष की दिशा, दूरगामी रणनीति और तैयारी के अभाव में ये आन्‍दोलन अभी ज्यादा दूर नहीं जा पा रहे।

दुनिया का शायद सबसे विशाल सर्वहारा वर्ग, चीन के मजदूर कम्युनिस्ट नामधारी पूँजीवादी शासकों की लुटेरी नीतियों के खिलाफ लगातार लड़ रहे हैं। नयी ‘‘महाशक्ति’’ के रूप में उभरते चीन के विकास की कहानी दुनियाभर की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए सस्ता और भरपूर उपलब्ध श्रम मुहैया कराने की चीनी शासकों की कुशलता पर टिकी है। बीजिंग, शंघाई, ग्वांगझाउ, चेंगदू, शेनझेन जैसे दर्जनों औद्योगिक इलाकों में करोड़ों-करोड़ मजदूर भारत के मजदूरों जैसे हालात में काम कर रहे हैं। बेहद कम मजदूरी और भयंकर दमघोटू माहौल में 12-14 घण्टे काम, किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा नहीं, दड़बे जैसे कमरों में नर्क जैसी जिन्‍दगी। अन्धाधुन्ध मुनाफे की हवस में सारे सुरक्षा उपाय ताक पर धरकर कराये जाने वाले उत्पादन के चलते औद्योगिक दुर्घटनाओं में चीन पूरी दुनिया में सबसे आगे है। सरकारी ट्रेड यूनियनें मजदूरों को कठोर नियन्त्रण में रखने के औजार भर हैं। वैसे भारी असंगठित मजदूर आबादी इनसे बाहर है और उसे यूनियन बनाने का अधिकार ही नहीं है। विशाल और बेहद संगठित सरकारी दमनतन्त्र के साथ ही उद्योगपतियों की निजी सुरक्षा सेनाएँ मजदूरों को आतंकित और नियन्त्रित करने के लिए तैनात रहती हैं। कठोर सरकारी नियन्त्रण में चलने वाले मीडिया में उनकी आवाज नहीं के बराबर आती है। लेकिन तमाम बन्दिशों के बावजूद चीन मजदूर लड़ाई के रास्ते पर हैं। चाइना लेबर बुलेटिन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2011 के मध्य से 2013 के अन्‍त तक चीन में मजदूरों की 1170 हड़तालें और अन्य सामूहिक कार्रवाइयाँ हुईं। इनमें से 40 प्रतिशत से अधिक हड़तालें मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में हुईं। सीएलबी के अनुसार वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा है। निर्माण क्षेत्र के मजदूरों ने पिछले कुछ महीनों में ही सैकड़ों हड़तालें और विरोध प्रदर्शन किये हैं। एप्पल कम्पनी के लिए आईपैड और आईफोन बनाने वाली कुख्यात चीनी कम्पनी फॉक्सकॉन की कई फैक्टरियों में पिछले वर्ष मजदूरों ने एक साथ की गयी हड़तालों की बदौलत कई माँगों पर कम्पनी को झुकने के लिए मजबूर कर दिया था। होण्डा की चीन स्थित कई इकाइयों के मजदूरों ने भी एक साथ की गयी कार्रवाइयों से अपनी ताकत दिखायी थी। इन दोनों ही मामलों में चीनी मजदूरों ने मोबाइल और इण्टरनेट के जरिये एक-दूसरे से सम्पर्क और तालमेल करने का रास्ता निकाला था। इस रास्ते का इस्तेमाल अब चीनी मजदूर बड़े पैमाने पर करने लगे हैं। मजदूरों की कार्रवाइयों की सिर्फ संख्या और जुझारूपन ही नहीं बढ़ रहे हैं बल्कि सीएलबी के अनुसार उनमें राजनीतिक चेतना भी तेजी से बढ़ रही है। सरकारी नियन्त्रण से छन-छनाकर आने वाली कुछ छोटी-छोटी खबरों से पता चलता है कि पार्टी और राज्य पर कब्जा जमाये संशोधनवादियों के खिलाफ क्रान्तिकारी माओवादी ग्रुप भी मजदूरों के बीच सक्रिय हैं। मजदूरों के बढ़ते जुझारूपन का ही नतीजा है कि चीनी सरकार को एक के बाद एक कई सेक्टरों में मजदूरी में बढ़ोत्तरी और सेवा-दशाओं में सुधार की घोषणाएँ करनी पड़ी हैं।

यूरोप में वित्तीय संकट की सबसे बुरी मार झेल रहे ग्रीस में मजदूरों ने पिछले तीन वर्षों के दौरान लगभग दो दर्जन देशव्यापी आम हड़तालें करके सरकार को मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा में प्रस्तावित कटौतियाँ लागू करने से कई बार रोकने में सफलता हासिल की है। अन्‍तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, यूरोपीय यूनियन और यूरोपीय केन्‍द्रीय बैंक सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छँटनी और वेतन-भत्तों में कटौती के लिए ग्रीस की सत्ता पर लगातार दबाव डाल रहे हैं। सत्ता के दलाल यूनियन नेताओं की टालमटोल और कई बार हड़ताल से सीधे इन्कार के बावजूद मजदूरों के भारी दबाव में उन्हें आम हड़तालों के आह्वान का समर्थन करने पर मजबूर होना पड़ा है। मजदूरों ने स्थानीय स्तर पर स्वतन्त्र हड़ताल समितियाँ गठित करके हड़तालों को अनुष्ठानिक बना देने की नेताओं की कोशिशों को भी नाकाम कर दिया है। ग्रीस में नवनाजीवाद के उभार के विरुद्ध जुझारू लड़ाई में भी मजदूर बढ़चढ़कर आगे रहे हैं। भूतपूर्व समाजवादी देशों में खुले पूँजीवाद के आने के बाद से अमीर-गरीब के बीच ध्रुवीकरण तेजी से बढ़ा है और महँगाई तथा बेरोजगारी ने मजदूरों की जिन्‍दगी बेहाल कर दी है। इनमें से कई देशों में भी पिछले दिनों जुझारू मजदूर आन्‍दोलन हुए हैं। 44 प्रतिशत बेरोजगारी झेल रहे बोस्निया में पिछले दिनों कई शहरों में हुए मजदूरों के उग्र प्रदर्शनों में हजारों मजदूरों ने पुलिस से मोर्चा लिया जिसमें करीब डेढ सौ पुलिसवाले जख्मी हो गये।

बंगलादेश में पिछले वर्ष राना प्लाजा की इमारत गिरने से 1100 से अधिक मजदूरों की मौत के बाद से गारमेण्ट मजदूरों के आन्‍दोलनों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। बंगलादेश में करीब 40 लाख मजदूर बेहद खराब हालात में गारमेण्ट उद्योग में काम करते हैं। इस घटना से कुछ ही महीने पहले ढाका की एक गारमेण्ट फैक्ट्री में आग से 150 मजदूर मारे गये थे। बंगलादेश में इस घटना से पहले पिछले 3 वर्ष में आग लगने या इमारत गिरने से 1800 से ज्यादा गारमेण्ट मजदूरों की मौत हो चुकी थी। राना प्लाजा की घटना के बाद सरकार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की ओर से कुछ दिखावटी घोषणाओं के अलावा कोई ठोस कार्रवाई न होने से क्रुद्ध मजदूरों ने मई दिवस के दिन देश के कई शहरों में जुझारू विशाल प्रदर्शन किये। उसके बाद सितम्बर और नवम्बर में भी गारमेण्ट मजदूरों ने व्यापक विरोध प्रदर्शन आयोजित किये जिसके दबाव में सरकार को उनकी न्यूनतम मजदूरी में 77 प्रतिशत बढ़ोत्तरी करनी पड़ी (हालाँकि अब भी यह बेहद कम है)। अभी हाल में आयी एक स्वतन्त्र रिपोर्ट के अनुसार बंगलादेश के कारखानों में मजदूरों के साथ जोर-जबर्दस्ती पहले की ही तरह जारी है। मन्‍दी के दौर में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के चलते ज्यादातर कम्पनियाँ बढ़ी हुई मजदूरी देने को तैयार नहीं हैं और काम के खतरनाक हालात अब भी बने हुए हैं। पाकिस्तान में भी गारमेण्ट मजदूरों, रेलवे मजदूरों और बन्‍दरगाह मजदूरों के जुझारू आन्‍दोलन पिछले दिनों हुए हैं।

इण्डोनेशिया, पापुआ-न्यू गिनी, फिलिप्पीन्स, मलेशिया आदि में पिछले दो वर्षों के दौरान अनेक जुझारू और लम्‍बे चलने वाले मजदूर आन्‍दोलन हुए हैं। कम्पूचिया में जनवरी 2014 में हुए मजदूरों के प्रदर्शनों के हिंसक दमन, जिसमें कम से कम पाँच मजदूर पुलिस की गोली से मारे गये, के बावजूद मजदूर संघर्षों का सिलसिला तेज हो रहा है। फरवरी के अन्तिम सप्ताह में 200 कारखानों के एक लाख से अधिक मजदूरों ने ओवरटाइम करने से इन्कार कर दिया जो 12 मार्च को होने वाली आम हड़ताल तक जारी रहेगा। कोरिया में मजदूरों के जुझारू प्रदर्शनों का सिलसिला पिछले 2-3 साल से लगातार जारी है।

दक्षिण अफ्रीका में सबसे बड़ी यूनियन, सत्तारूढ़ अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस से जुड़ी कोसाटू का चरित्र पार्टी के सत्ता में आने और पूँजीवादी विकास का रास्ता अपनाने के साथ ही बदल चुका था। इसके कई नेता तो खुद कम्पनियों के मोटे शेयरधारक बन चुके हैं। मगर वहाँ मजदूरों की भारी आबादी सत्ताधर्मी यूनियनों से अलग हटकर अपनी बेहद बुरी स्थितियों के विरुद्ध संघर्ष कर रही है। पिछले वर्ष मरिकाना प्लेटिनम खदान में मजदूरों के बर्बर हत्याकाण्ड के बाद से इसमें और तेजी आयी है और कोसाटू का चरित्र और नंगा हुआ है। पिछले दिनों मेटलवर्कर्स की सबसे बड़ी यूनियन भी उससे अलग हो गयी है और खदान मजदूरों की यूनियनों तथा अन्य वाम झुकाव वाले संगठनों से साथ आने का उसने आह्वान किया है।

मिस्र में जनवरी 2011 के प्रदर्शनों में भी मजदूरों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था, हालाँकि हुस्नी मुबारक को अपदस्थ करने वाले आन्‍दोलन में उन्हें उचित श्रेय नहीं दिया गया। उसके बाद भी मिस्र के मजदूर लगातार अपनी आर्थिक और राजनीतिक माँगों को लेकर संघर्षरत हैं।

भारत में भी मजदूरों की जुझारू लड़ाइयाँ देश के अलग-अलग कोनों में फूट पड़ रही हैं। इनमें भी असंगठित मजदूरों या बड़ी यूनियनों से स्वतन्त्र छोटी-छोटी यूनियनों के नेतृत्व में लड़ रहे मजदूरों की संख्या अधिक है। पिछले वर्ष केन्‍द्रीय यूनियनों द्वारा आयोजित अनुष्ठानिक हड़ताल में भी नेताओं की उम्मीद से आगे जाकर असंगठित मजदूरों ने कई जगह उग्र और जुझारू कार्रवाइयाँ कीं। अकेले ऑटोमोबाइल सेक्टर में पिछले दो-तीन साल में देशभर में 100 से अधिक हड़तालें और उग्र सामूहिक कार्रवाइयाँ दर्ज हुई हैं। तय ही है कि आने वाले समय में ऐसे संघर्षों का सिलसिला और तेज होगा। अपने असहनीय हालात के खिलाफ आज जगह-जगह मजदूरों के स्वतःस्फूर्त संघर्ष उठ रहे हैं। लेकिन इन संघर्षों में हस्तक्षेप करके उन्हें एक क्रान्तिकारी दिशा देने की कोशिश करने के बजाय अनेक क्रान्तिकारी संगठनों में इस स्वतःस्फूर्तता का जश्न मनाने की प्रवृत्ति दिखायी दे रही है। इसके विरुद्ध संघर्ष करना आज बेहद जरूरी है।

आज पूँजीवाद के बढ़ते संकट के दौर में अपना मुनाफा बनाये रखने के लिए पूँजीपति मजदूरों की हड्डियाँ तक निचोड़ डाल रहे हैं। लेकिन मजदूर भी अब चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर रहे। पूरी दुनिया में सन्नाटा टूट रहा है। मजदूर वर्ग नये सिरे से जाग रहा है। ऐसे में मजदूर वर्ग के क्रान्तिकारी हरावलों के सामने मजदूर आन्‍दोलन के क्रान्तिकारी पुनर्जागरण में जी-जान से जुट जाने की चुनौती है। अनौपचारिक क्षेत्र के जो मजदूर और औपचारिक क्षेत्र के जो अनौपचारिक मजदूर अदृश्य ‘ग्लोबल असेम्बली लाइन’ पर उजरती गुलामों की भाँति खट रहे हैं, वे सोचते हैं कि वे बहुत कम हैं, बिखरे हुए हैं, इसलिए मजबूर और कमजोर हैं। लेकिन यह उनकी मिथ्याभासी चेतना है। इस मिथ्याभासी चेतना को यदि तोड़ दिया जाये तो उन्हें इस सच्चाई का अहसास कराया जा सकता है कि एक अदृश्य भूमण्डलीय श्रृंखला के जरिये हजारों मील दूर, यहाँ तक कि अलग-अलग देशों में काम करने वाले समान नियति वाले उजरती गुलाम आज एक-दूसरे से जुड़ गये हैं। जापान या कोरिया की किसी एक कार निर्माता कम्पनी के भारत में चार या पाँच जगहों पर स्थित संयन्त्रों और पूरी दुनिया में स्थित दर्जनों संयन्त्रों में खटने वाले मजदूर एक-दूसरे को न जानते हुए भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। बिखराव की मिथ्याभासी चेतना को भेदकर जुड़ाव की वास्तविक चेतना तक पहुँचने के लिए, उसे मुखर बनाने के लिए मजदूर वर्ग के हरावल दस्तों को उनके बीच, बीसवीं शताब्दी के मजदूर आन्‍दोलनों की अपेक्षा ज्यादा सघन, ज्यादा विविधतापूर्ण, ज्यादा रचनात्मक, ज्यादा सूक्ष्म, ज्यादा व्यापक और ज्यादा दीर्घकालिक राजनीतिक प्रचार, शिक्षा एवं उद्वेलन की कार्रवाई चलानी होगी। यह सबसे बड़ी चुनौती है। इसे वही अंजाम दे सकते हैं जो नयी परिस्थितियों का पूर्वाग्रहमुक्त, साहसी वैज्ञानिक विश्लेषण कर सकते हैं, जो अनुभववादी कूपमण्डूकता और अतीत के अनुभवों को हूबहू दुहराने की कठमुल्लावादी जिद से अपने को मुक्त कर सकते हैं।

यह समझने की जरूरत है कि पिछले बीस वर्षों के दौरान उत्पादन के ढाँचों में बदलाव करके पूँजीपति वर्ग मजदूर वर्ग की संगठित शक्ति को बिखराने में काफी हद तक कामयाब हुआ है। कारखानों में अधिकांश काम अब ठेका, दिहाड़ी या कैजुअल मजदूरों से कराना आम चलन बन चुका है। मजदूर वर्ग के इस भौतिक बिखराव ने उसकी चेतना पर भी काफी नकारात्मक असर डाला है। वह अपनी ताकत को बँटा हुआ और पूँजीपति वर्ग की संगठित शक्ति के सामने खुद को कमजोर, असहाय और निरुपाय महसूस कर रहा है। आज मजदूर आबादी को संगठित करने की व्यावहारिक चुनौतियाँ बढ़ गयी हैं और संगठन के पुराने प्रचलित तरीकों और रूपों से काम नहीं चलने वाला है। लेकिन कोई भी परिस्थिति ऐसी नहीं हो सकती कि बुर्जुआ वर्ग द्वारा उपस्थित की गयी चुनौती के सामने सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि हाथ खड़े कर दें। मजदूर वर्ग को संगठित करने के नये रूपों और तरीकों को ईजाद करने की जरूरत है। दरअसल कारखाना-केन्द्रित ट्रेड यूनियनवाद से पीछा छुड़ाये बिना आज मजदूर आन्‍दोलन को नये सिरे से संगठित ही नहीं किया जा सकता। मजदूरों को संगठित करने की तात्कालिक व्यावहारिक चुनौतियों से निपटना मजदूरों के क्रान्तिकारी हरावलों का काम है। जमीनी संगठनकर्ताओं को पुरानी रूढ़ियों से मुक्त होकर सर्जनात्मक तरीके से संगठन के नये-नये रूप और तरीके खोज निकालने होंगे।

अगर आज की परिस्थिति पर थोड़ा गहराई से विचार किया जाये तो हमें वे छुपी हुई क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ नजर आयेंगी जो आँखों से ओझल होने पर सामने मौजूद फौरी चुनौतियाँ ज्यादा कठिन लगने लगती हैं। आज के दौर में औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूर वर्ग के काम के जो हालात हैं और पूँजीपतियों का समूचा गिरोह, उनकी सरकारें और पुलिस-कानून-अदालतें जिस तरह उसके ऊपर एकजुट होकर हमले कर रही हैं, उससे मजदूर वर्ग स्वयं यह सीखता जा रहा है कि उसकी लड़ाई अलग-अलग पूँजीपतियों से नहीं बल्कि समूची व्यवस्था से है। यह जमीनी सच्चाई अर्थवाद के आधार को अपनेआप ही कमजोर बना रही है और मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना के उन्नत होने के लिए अनुकूल जमीन मुहैया करा रही है। इसकी सही पहचान करना और इस आधार पर मजदूर आबादी के बीच घनीभूत एवं व्यापक राजनीतिक प्रचार की कार्रवाइयाँ संचालित करना जरूरी है। मजदूरों की व्यापक आबादी को यह भी बताया जाना चाहिए कि असेम्बली लाइन का बिखराव आज भले ही मजदूरों को संगठित करने में बाधक है लेकिन दूरगामी तौर पर यह फायदेमन्‍द है। यह मजदूर वर्ग की ज्यादा व्यापक एकता का आधार तैयार कर रहा है और कारखाना-केन्द्रित और पेशागत संकुचित मनोवृत्ति को दूर करने में भी मददगार साबित होगा। इसने मजदूर वर्ग की विश्वव्यापी एकजुटता का आधार भी मजबूत किया है। अब ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो!’ का विश्व ऐतिहासिक नारा एक व्यावहारिक नारे की ओर बढ़ता जा रहा है।

 

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (दूसरी किस्त)

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (दूसरी किस्त)

  • अभिनव सिन्हा

IV. क्रान्ति-पूर्व रूस की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन का उद्भव और विकास

पिछले अध्याय में ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और विसर्जनवादी सोच की आलोचना के बाद हम सोवियत समाजवादी प्रयोगों के अपने सकारात्मक आलोचनात्मक विश्लेषण की ओर आगे बढ़ सकते हैं। बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ कोई अलग-थलग अकेला उदाहरण नहीं है, बल्कि आज पूरे देश और दुनिया भर के कम्युनिस्ट आन्दोलन में हम इस प्रकार की अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी प्रवृत्ति के उभार को देख सकते है। इसलिए हमारी आलोचना महज़ ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ जैसे राजनीतिक नौदौलतियों पर लक्षित नहीं है, बल्कि यह इस पूरी रुझान की आलोचना है, जिसका सुजीत दास जैसे अधकचरे “सिद्धान्तकार” महज़ एक छोटी-सी मिसाल हैं।

जैसा कि हम पहले उल्लेख कर चुके हैं कि सोवियत समाजवाद के प्रयोगों पर सकारात्मक तौर पर अपना दृष्टिकोण रखने की प्रक्रिया में हम ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ द्वारा किये गये तथ्यों के विकृतिकरण को अनावृत्त करेंगे, सोवियत समाजवाद के कुछ प्रमुख अध्ययनों का आलोचनात्मक विवेचन और साथ ही सोवियत समाजवाद की समस्याओं की व्याख्या के कुछ नवीन प्रयासों पर अपना आलोचनात्मक दृष्टिकोण भी पेश करेंगे। इससे पहले कि हम आगे बढ़ें हम इस बारे में कुछ स्पष्टीकरण देना चाहेंगे कि आप इस रचना से क्या अपेक्षा न करें।

यह अध्ययन सोवियत संघ में समाजवाद का विस्तृत तथ्यात्मक व आख्यानात्मक इतिहास आपके समक्ष नहीं रखेगा। सोवियत संघ के विस्तृत आख्यानात्मक इतिहास के कुछ महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय अध्ययन मौजूद हैं और सम्पूर्ण आख्यानात्मक इतिहास में दिलचस्पी रखने वाला कोई भी पाठक इन पुस्तकों को पढ़ सकता है। माँरिस डाँब, ई.एच.कार, इसाक डाँइशर, चार्ल्स बेतेलहाइम और पाँल स्वीज़ी ने अपने-अपने दृष्टिकोण से सोवियत समाजवादी प्रयोगों के ऐतिहासिक ब्यौरे पेश किये हैं और आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ने पर और ख़ास तौर पर लेनिन, स्तालिन व अन्य बोल्शेविक नेताओं की रचनाओं और साथ ही बोल्शेविक पार्टी के दस्तावेज़ों के साथ इन्हें पढ़ने पर सोवियत संघ में समाजवाद के पूरे इतिहास को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। इसलिए दोबारा सोवियत संघ में समाजवाद के इतिहास का सम्पूर्ण तथ्यात्मक ब्यौरा पेश करना एक ग़ैर-ज़रूरी कवायद होगी और इसे करने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए आप ऐसी अपेक्षा इस अध्ययन से नहीं कर सकते हैं। हम तथ्यात्मक ब्यौरों में केवल वहीं जाएँगे जहाँ हमारे उद्देश्य की पूर्ति के लिए आवश्यक हो।

हमारा उद्देश्य इस अध्ययन में सोवियत समाजवादी प्रयोग के विश्लेषण के ज़रिये सिद्धान्त और इतिहास के कुछ अहम सवालों को उठाना और उस पर अपनी अवस्थिति को पेश करना है जो कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद के विज्ञान और विशेष तौर पर समाजवादी संक्रमण की समस्याओं, और समाजवादी संक्रमण के पहले और उसके दौरान वर्ग और पार्टी के बीच, वर्ग और राज्यसत्ता के बीच, और पार्टी और राज्यसत्ता के बीच के अन्तर्सम्बन्धों की एक वैज्ञानिक समझदारी के लिए सामान्य रूप में महत्व रखते हैं। जहाँ कहीं इन प्रश्नों की चर्चा और व्याख्या के लिए तथ्यों का विवरण पेश करना होगा, वहाँ हम तथ्यों का सीमित विवरण पेश करेंगे और प्रासंगिक उपयोगी सन्दर्भों का सुझाव पेश करेंगे। इसके अतिरिक्त, हमारा ज़ोर विशेष तौर पर सोवियत समाजवादी क्रान्ति को नेतृत्व देने वाली बोल्शेविक पार्टी के भीतर दो लाइनों के संघर्ष के पूरे इतिहास के पुनरावलोकन और उस पर अपनी अवस्थिति पेश करने, सोवियत समाजवादी प्रयोगों को लेकर अतीत में चलीं और आज भी जारी महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक बहसों का विवेचन और उस पर अपनी अवस्थिति पेश करने और साथ ही सोवियत समाजवाद के इतिहास को लेकर मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारी संगठनों के बीच जारी बहसों पर अपनी अवस्थिति पेश करने पर होगा। ज़ाहिर है, इस प्रक्रिया में हम सोवियत समाजवाद के कुछ अग्रणी अध्येताओं के अध्ययन के बारे में अपना आलोचनात्मक दृष्टिकोण पेश करेंगे, जैसे कि माँरिस डाँब, ई.एच.कार, चार्ल्स बेतेलहाइम, पाँल स्वीज़ी, रणधीर सिंह आदि। और साथ ही हम कुछ नव- मार्क्सवादी और संशोधनवादी सिद्धान्तकारों द्वारा सोवियत समाजवाद की आलोचना के प्रयासों का भी आलोचनात्मक मूल्यांकन पेश करेंगे, जैसे कि लियो पैनिच, माइकल लेबोवित्ज़ व कुछ नव-संशोधनवादी सिद्धान्तकार।

हमारा मानना है कि सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों की सैद्धान्तिक और ऐतिहासिक समस्याओं के विश्लेषण के लिए सबसे पहले सोवियत समाजवाद के इतिहास के दो महत्वपूर्ण आयामों या पहलुओं को समझना हैः पहला, क्रान्ति से पहले रूस में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन का उद्भव और विकास और दूसरा, क्रान्ति से पहले रूस की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का एक ब्यौरा। क्रान्ति से पहले रूस में कम्युनिस्ट आन्दोलन के उद्भव और विकास को समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि क्रान्ति के बाद के दौर में बोल्शेविक पार्टी के भीतर जो दो लाइनों का संघर्ष विभिन्न मुद्दों को लेकर चला, उसका प्राक्-इतिहास कुछ मायनों में रूस में क्रान्ति-पूर्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के उद्भव और विकास में देखा जा सकता है। किसी भी देश में कम्युनिस्ट आन्दोलन का विकास भी एक द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया से होता है जो कि खुले तौर पर बुर्जुआ विचारों और क्रान्तिकारी विचारधारा के भीतर भेस बदलकर घुसपैठ करने वाले बुर्जुआ विचारों के विरुद्ध विचारधारात्मक और राजनीतिक संघर्ष के रूप में चलता है। रूस में मार्क्सवादी विचारधारा के आने और आगे बढ़ने की प्रक्रिया भी विभिन्न बुर्जुआ विचारधाराओं, टुटपुँजिया विचारधाराओं के विरुद्ध संघर्ष के रूप में चली। ये विचारधारात्मक और राजनीतिक संघर्ष दीर्घकालिक ऐतिहासिक महत्व रखने वाले थे क्योंकि सोवियत संघ में बोल्शेविक पार्टी के भीतर जारी दो लाइनों के संघर्ष पर इन क्रान्ति-पूर्व विचारधारात्मक व राजनीतिक संघर्षों की छाया लम्बे समय तक देखी जा सकती है। क्रान्ति-पूर्व रूस के सामाजिक-आर्थिक विकास के स्तर का एक ब्यौरा पेश करना ठीक इसीलिए ज़रूरी है कि इस ब्यौरे के बिना उस विचारधारात्मक व राजनीतिक संघर्ष को भी सही ऐतिहासिक सन्दर्भ में रखकर नहीं देखा जा सकता, जो कि क्रान्ति से पहले रूस में कम्युनिस्ट आन्दोलन के निर्मित होने की प्रक्रिया में जारी थे, या यूँ कहें कि जिन संघर्षों के ज़रिये ही कम्युनिस्ट आन्दोलन संघटित हुआ। इसलिए हम शुरुआत रूस में क्रान्ति से पहले मौजूद सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के एक संक्षिप्त ब्यौरे और उसके बाद क्रान्ति से पहले रूस में कम्युनिस्ट आन्दोलन के उद्भव और विकास के विवरण के साथ करेंगे।

1. क्रान्ति-पूर्व रूस में सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों की एक संक्षिप्त तस्वीर और सम्बन्धित इतिहास-लेखन का आलोचनात्मक ब्यौरा

जिस बिन्दु को हम क्रान्ति-पूर्व रूस की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के ब्यौरे के लिए आरम्भ-बिन्दु के तौर पर चुन सकते हैं, वह है 1861 में भूदास प्रथा का उन्मूलन। क्योंकि यही वह बिन्दु था जिससे कि रूस में पूँजीवादी विकास का रास्ता खुला और साथ ही रूस में मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन के विकास की ज़मीन तैयार हुई। 1861 में भूदास प्रथा उन्मूलन का रूस में पूँजीवाद के विकास के लिए वही महत्व था जो कि एक अलग रूप में और अलग ऐतिहासिक सन्दर्भ में इंग्लैण्ड में बाड़ेबन्दी कानूनों का था। पूँजीवाद के उद्भव के लिए जिस आदिम पूँजी संचय और दोहरे अर्थों में “मुक्त” श्रम की ज़रूरत होती है, उस ज़रूरत को पूरा करने में 1861 के भूदास प्रथा उन्मूलन कानून की अहम भूमिका थी। रूस में पश्चिमी यूरोप के देशों के समान एक स्वतन्त्र बुर्जुआ उद्यमी वर्ग बड़े पैमाने पर मौजूद नहीं था, जो कि दस्तकारी से विकसित होते हुए गिल्ड व्यवस्था के रास्ते और फिर मैन्युफैक्चर और कारखाना-व्यवस्था के रास्ते से होता हुआ पूँजीपति वर्ग के रूप में विकसित हुआ हो। निरंकुश सामन्ती राजतन्त्र की मौजूदगी और कुछ अन्य विशिष्ट ऐतिहासिक कारणों से वह प्रक्रिया रूस में बहुत आगे नहीं बढ़ पायी थी। पूँजीवाद के विकास में जो भूमिका पश्चिमी यूरोप में स्वतन्त्र उद्यमी बुर्जुआ वर्ग ने निभायी थी, वह भूमिका रूस में राज्य और बैंकों ने निभायी। 1860 के दशक से 1910 के दशक तक रूसी उद्योग के विकास का एक संक्षिप्त ब्यौरा हम आगे पेश करेंगे। लेकिन उससे पहले रूस में भूदास प्रथा उन्मूलन कानून पर और उसके बाद रूसी कृषि में 1910 के दशक के मध्य तक हुए पूँजीवादी विकास का ब्यौरा पेश करना ज़्यादा ज़रूरी है क्योंकि रूस में कृषि में पूँजीवादी विकास और किसान प्रश्न ही रूसी सामाजिक-जनवादी आन्दोलन के उद्भव और विकास में प्रमुख भूमिका निभाने वाले थे।

) रूसी कृषि में क्रान्ति-पूर्व दौर में पूँजीवादी सम्बन्धों का विकास

भूदास प्रथा उन्मूलन कानून ने रूस में सामन्ती सम्बन्धों पर एक प्राणान्तक चोट की। ऐतिहासिक तौर पर इसकी भूमिका निस्सन्देह रूप में प्रगतिशील थी और इसने रूसी ग्रामीण सामन्ती और टुटपुँजिया किसान अर्थव्यवस्था के ताबूत पर पहली कील का काम किया। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह पूँजीवादी सुधार किसी क्रान्तिकारी प्रक्रिया से किया गया था। भूदास प्रथा के उन्मूलन के कानून के प्रावधान भूदासों को अपनी मुक्ति के लिए एक निश्चित कीमत अपने पूर्व-स्वामी को अदा करने के लिए बाध्य करते थे। इस देनदारी का नतीजा यह था कि भूदास प्रथा के उन्मूलन के बावजूद किसानों की विशाल बहुसंख्या को यह कीमत अपनी ज़मीन गिरवी रखकर या भूस्वामियों को बेचकर चुकानी पड़ी और नतीजतन इस भूदास प्रथा के उन्मूलन से किसानों की बहुसंख्यक आबादी को कुछ भी नहीं मिला। जो किसान निर्भर किसान आबादी के अंग के तौर पर कुछ ज़मीन के भोगाधिकार के स्वामी थे, उन्होंने अधिकांश मामलों में अपना भोगाधिकार भी खो दिया। इस कानून के अमल का नतीजा यह हुआ कि रूस के किसानों में वर्ग विभाजन की शुरुआत हुई। एक बेहद छोटी आबादी ग्रामीण पूँजीपति वर्ग के रूप में उभरी जिनमें जुंकर भूस्वामी, कुलकों और धनी किसानों का वर्ग था। इस वर्ग को निर्मित करने वाली ताक़तों में एक था सामन्ती भूस्वामियों का वर्ग। इसके एक हिस्से ने अपने आपको पूँजीवादी भूस्वामियों में रूपान्तरित कर लिया और वे भूतपूर्व भूदासों से नव-निर्मित ग्रामीण मज़दूरों की आबादी को मज़दूरी पर रखकर बाज़ार के लिए खेती करने लगे। जो अपने आपको पूँजीवादी कुलक के रूप में रूपान्तरित नहीं करना चाहते थे, या किन्हीं कारणों से नहीं कर पाये, वे धीरे-धीरे अपनी ही ऐयाशी और पुरानी सामन्ती जीवन शैली के कारण ऋण के बोझ तले दबते गये और विलुप्त हो गये। नयी ग्रामीण बुर्जुआज़ी का निर्माण करने वाला दूसरा वर्ग था धनी मालिक किसानों व काश्तकार किसानों का एक वर्ग जो कि उजरती मज़दूरों को काम पर रख कर बाज़ार के लिए उत्पादन करने लगा। ग्रामीण बुर्जुआज़ी के निर्माण के साथ पूरक प्रक्रिया के तौर पर एक विशाल ग्रामीण सर्वहारा वर्ग और ग़रीब और मँझोले निर्भर किसानों का एक वर्ग तैयार हुआ। इस रूप में रूस के किसानों के बीच वर्ग विभेदीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत हुई।

प्लेखानोव ने इस पूरी प्रक्रिया की व्याख्या करते हुए कहा था कि 1861 के भूदास प्रथा उन्मूलन कानून के पहले रूस की किसान आबादी एक वर्ग नहीं बल्कि एक ‘एस्टेट’ (social estateèksoslovie) के समान थी; 1861 के सुधार ने इसे पूँजीवादी भूस्वामियों और भूमिहीन मजदूरों और गरीब किसानों के वर्गों में विभाजित कर दिया।

1861 के सुधार के बाद रूस में कृषि में पूँजीवाद का जो रास्ता अख्तियार किया गया था वह रैडिकल बुर्जुआ भूमि सुधारों का रास्ता नहीं था जो छोटे और मँझोले मालिक किसानों के एक विशाल वर्ग को जन्म देता। यह रास्ता फ्रांसीसी क्रान्ति या अमेरिकी क्रान्ति द्वारा अपनाये गये भूमि सुधार का रास्ता नहीं था जो कि ‘जो जमीन को जोते-बोए, वह जमीन का मालिक होए’ के नारे पर समझौता-विहीन ढंग से अमल करता। वस्तुतः रूसी पूँजीपति वर्ग सामन्‍ती भूस्वामी वर्ग से सीधे और खुले युद्ध का रास्ता अपनाने की स्थिति में था ही नहीं। निरंकुश जारशाही सामन्‍ती भूस्वामियों और उदीयमान पूँजीपति वर्ग और देशी-विदेशी वित्त पूँजी दोनों के ही हितों के बीच एक असुविधाजनक सन्‍तुलन को अंजाम दे रही थी। जाहिर है कि यह सन्‍तुलन बहुत समय तक बरकरार नहीं रह सकता था। रूसी राज्यसत्ता में देशी-विदेशी पूँजीपति वर्ग और वित्त पूँजी का असर धीरे-धीरे सामन्‍ती भूस्वामी वर्ग के हितों की तुलना में बढ़ने लगा और 1860 के दशक से लेकर 1910 के दशक तक निरंकुश जारशाही तन्त्र के दायरे के भीतर जो क्रमिक पूँजीवादी विकास हुआ वह इसी बदलते वर्ग सन्‍तुलन को प्रतिबिम्बित करता था। लेनिन ने 1905 में इस पूरी स्थिति को बेहद सटीक तरीके से चित्रित किया था। लेनिन ने लिखा था कि रूस में मुट्ठी भर सामन्‍ती भूस्वामियों का नेतृत्व जारशाही करती है जो कि वित्तीय पूँजी के दैत्यों के साथ करीबी तालमेल में काम करती है। यह वित्तीय पूँजीपति वर्ग अक्सर पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवाद के एजेण्ट में रूप में काम करता है। लेनिन ने आगे कहा कि रूसी जारशाही के ‘‘सैन्य-सामन्‍ती चरित्र’’ को इन्हीं वर्ग सम्‍बन्‍धों के आधार पर समझा जा सकता है। लेनिन ने लिखा कि रूस में एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसमें ‘‘आधुनिकतम पूँजीवादी साम्राज्यवाद एक प्रकार से विशेष रूप से सघन प्राक्-पूँजीवादी सम्‍बन्‍धों के एक जाल के साथ अन्‍तर्गुंथित है…जिसमें बेहद पिछड़ी हुई कृषि और बेहद आदिम ग्राम समुदाय, बेहद उन्नत औद्योगिक और वित्तीय पूँजीवाद के साथ सहअस्तित्वमान है।’’ (वी.आई. लेनिन, कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 19, पृ. 136 और खण्ड 20, पृ. 570, अंग्रेजी संस्करण, अनुवाद हमारा)

पूँजीवादी भूमि सुधार का जो रास्ता रूसी शासक वर्ग ने अपनाया उसे लेनिन ने प्रशा के ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर प्रशियाई पथ का नाम दिया था, और इसकी तुलना बुर्जुआ जनवादी क्रान्तियों द्वारा फ्रांस और अमेरिका में लागू किये गये रैडिकल भूमि सुधार से की थी, जिसे लेनिन ने भूमि सुधार के अमेरिकी पथ का नाम दिया था। रूस द्वारा भूमि सुधार का जो रास्ता अख्तियार किया गया था वह बेहद पिछड़े पूँजीवादी सम्‍बन्‍धों को ही पैदा कर सकता था। रूस में 1905 तक कृषि में पूँजीवादी विकास और किसानों की दशा पर निगाह डालने से इसकी एक तस्वीर उपस्थित होती है। मॉरिस डॉब ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक सोवियत इकोनॉमिक डेवलपमेण्ट सिंस 1917’ में लिखा है कि रूस में जीवन स्तर के बेहद नीचे होने का कारण कृषि का बेहद पिछड़ा और उत्पादकता का बेहद निम्न स्तर पर होना था; निश्चित तौर पर, यह एक तथ्यात्मक सत्य है लेकिन असल बात यह थी कि रूसी कृषि में प्रभावी उत्पादन सम्‍बन्‍ध उत्पादक शक्तियों के विकास में ठहराव का प्रमुख कारण थे और जिस रास्ते से रूस में भूमि सुधार हुए वे इस ठहराव को प्रभावी और तात्कालिक तौर पर तोड़ भी नहीं सकते थे। गौरतलब है कि रूस की कुल आबादी का करीब अस्सी फीसदी हिस्सा इस समय तक खेती पर ही निर्भर था। उस समय रूस में प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय 102 रूबल प्रति वर्ष थी जो कि जर्मनी से तीन गुणा, इंग्लैण्ड से चार गुणा और अमेरिका से सात गुणा कम थी। उन्नीसवीं सदी के अन्‍त पर यूरोपीय रूस का जनसंख्या घनत्व भी दुनिया के तमाम उन्नत पूँजीवादी देशों के मुकाबले ज्यादा था, जबकि कृषि के तहत लायी गयी भूमि इन देशों के मुकाबले कहीं कम थी। कुल खेती के तहत भूमि रूस के कुल क्षेत्रफल का मुश्किल से 25 फीसदी थी, जबकि फ्रांस और जर्मनी में यह 40 प्रतिशत के करीब था। नतीजतन, प्रति व्यक्ति उपलब्ध कृषि भूमि रूस में मात्र 3 एकड़ के करीब थी, जो कि अमेरिका में 13 एकड़, डेनमार्क में 8 एकड़ और फ्रांस और जर्मनी में 4 एकड़ थी। प्रति एकड़ उत्पादकता भी इंग्लैण्ड की एक-चौथाई, जर्मनी की एक तिहाई और फ्रांस की तुलना में आधी थी। गेहूँ की पैदावार इटली और सर्बिया से भी कम थी और ऑस्ट्रिया-हंगरी के मुकाबले यह आधी थी। उस समय गेहूँ की पैदावार की दर भारत में गेहूँ की पैदावार की दर के बराबर थी। (सभी आँकड़े मॉरिस डॉब की उपरोक्त पुस्तक से, पृ 39-40)। ऐसा नहीं था कि रूस में उत्पादकता पर कुछ प्राकृतिक सीमाएँ थीं। कई क्षेत्रों में रूस में मृदा उत्पादकता दुनिया में सबसे ज्यादा थी।

कृषि के इस पिछड़ेपन के पीछे प्राकृतिक कारक नहीं बल्कि रूस के पिछड़े पूँजीवादी उत्पादन सम्‍बन्‍ध जिम्मेदार थे। प्रशियाई पथ से हुए भूमि सुधारों ने रूसी ग्राम समुदाय मीर को ज्यों का त्यों छोड़ दिया था, जो कि आवर्ती भूमि पुनर्वितरण किया करता था। एक तो यह आवर्ती भूमि पुनर्वितरण पूरी तरह से धनी किसानों, काश्तकारों और कुलकों के पक्ष में किया जाता था और दूसरे, यह बेहद अवैज्ञानिक तरीके से किया जाता था जिससे कि किसानों के पास जो भूमि होती थी वह एक जगह केन्द्रित होने की बजाय बिखरी हुई होती थी। यह उत्पादकता को बहुत कम करता था। चूँकि एक बड़ी किसान आबादी बेहद गरीब, निम्न मँझोले और मँझोले किसानों की थी जिसके पास पूँजीवादी कुलकों और धनी किसानों द्वारा भारी भूमि लगान के जरिये, ऋण और सूद के जरिये लूटे जाने के बाद लगभग कुछ भी नहीं बचता था। इसलिए इनके बीच बाजार के लिए खेती की रुझान कम ही थी और ज्यादातर वे जीवन निर्वाह के लिए खेती करते थे। नतीजतन, पिछड़े उत्पादन सम्‍बन्‍धों के कारण इस आबादी में खेती के तकनीकी स्तरोन्नयन के लिए कोई भौतिक प्रोत्साहन मौजूद नहीं था। दूसरी तरफ, भूमि के अलावा अन्य कृषि-सम्‍बन्‍धी उत्पादन के साधनों में भी भयंकर असमानता बरकरार थी। पशुधन, कृषि के उपकरण और चरागाह बड़े भूस्वामियों के स्वामित्व में थे या उनके नियन्त्रण में थे। एक तो भूस्वामित्व में भारी असमानता पहले से ही मौजूद थी, वहीं जिन मँझोले किसानों के पास कुछ भूमि होती भी थी, वे पशुधन और उपकरणों की कमी के कारण भयंकर दरिद्रता और भुखमरी की स्थिति में जीने को मजबूर थे। किसानों की विशाल बहुसंख्या के पास पूँजी भी नहीं थी जिससे कि वे खेती के स्तर को और अपनी आजीविका को बेहतर बना पाते। नतीजतन, अधिकांश कार्य शारीरिक श्रम से करने पड़ते थे और यान्त्रिकीकरण लगभग नहीं के बराबर था। केवल धनी किसानों और कुलकों की एक छोटी-सी आबादी थी जो बड़े पैमाने की खेती करती थी, मशीनों का इस्तेमाल करती थी और बाजार के लिए, खास तौर पर निर्यात के लिए पैदा करती थी। हम देख सकते हैं कि रूस में खेती की उत्पादकता बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक कम रहने का मूल कारण प्राकृतिक कारक नहीं थे बल्कि सामाजिक-आर्थिक कारक, यानी कि अर्द्धसामन्‍ती और पिछड़े पूँजीवादी सम्‍बन्‍ध थे।

लेकिन इसके बावजूद किसानों के बीच विभेदीकरण काफी अधिक विकसित हो चुका था। 1905 में एक सरकारी सांख्यिकी समिति द्वारा किये गये सर्वेक्षण के मुताबिक ऊपर के 10 प्रतिशत धनी किसान कुल जमीन के 35 प्रतिशत के स्वामी थे; जबकि नीचे की आधी किसान आबादी कुल भूमि के मात्र 20 प्रतिशत की स्वामी थी। सबसे गरीब किसान आबादी जो कुल किसान आबादी का करीब 16 प्रतिशत थी, वह कुल भूमि के मात्र 4 प्रतिशत की मालिक थी। करीब 33 प्रतिशत सबसे गरीब किसान परिवारों के पास कोई पशुधन नहीं था और उन्हें हल चलाने के लिए पशु धनी कुलकों और किसानों से किराये पर लेने पड़ते थे, जिसके कारण उनके उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा भूमि लगान या किराये के रूप में चला जाता था। यह धनी किसान या कुलक धीरे-धीरे लगान, ऋण और सूद का ऐसा भयंकर दबाव गरीब और मँझोले किसानों पर निर्मित करते थे कि वे सभी व्यावहारिक अर्थों में एक प्रकार से उनके उजरती गुलाम बनकर रह जाते थे। इसी निर्भर किसानों की आबादी को लेनिन ने रूस का अर्द्ध-सर्वहारा कहा था। कुलकों और धनी किसान आबादी के बारे में रूसी किसानों के अध्येता स्तेपनियाक ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक रूसी किसान में जो टिप्पणी की है, वह इस वर्ग के पूरे चरित्र को समझने के लिए काफी उपयोगी है। स्तेपनियाक के अनुसार रूसी कुलक एक प्राणी है जिसकी पहचान ‘‘एक बिल्कुल अशिक्षित व्यक्ति की कठोर, अटल क्रूरता से की जा सकती है…जो किसी भी माध्यम से पैसे कमाने को एकमात्र लक्ष्य मानता है और मानता है कि किसी भी तार्किक व्यक्ति को अपने आपको इसी काम के लिए समर्पित कर देना चाहिए…और जो आर्थिक विकास की उस हिंस्र और लुटेरी मंजिल के पर्याप्त नमूने’’ पेश करता है, ‘‘जो कि राजनीतिक इतिहास में वही स्थान रखते हैं जो कि मध्य युग के दौर में जारी हिंस्र लूट का है।’’ (डॉब की उपरोक्त पुस्तक में उद्धृत, पृ. 44, अनुवाद हमारा)। वास्तव में, कुलक शब्द का अर्थ ही होता है ‘मुट्ठी’!

1861 से 1907 तक रूसी कृषि में पूँजीवाद के विकास की जो प्रक्रिया भूदास प्रथा के उन्मूलन के साथ शुरू हुई उसने एक बेहद पिछड़ी पूँजीवादी खेती को जन्म दिया जिसके तहत ग्रामीण आबादी बेहद धनी किसानों और कुलकों की एक मुट्ठी भर आबादी और भूमिहीन मजदूरों, बेहद गरीब और मँझोले किसानों की आबादी में विभाजित हो गयी। सबसे गरीब भूमिहीन खेतिहर मजदूरों और निम्न किसानों की आबादी का जीवन भयंकर भूख, बेकारी और कुपोषण का शिकार था। इसके कारण ही एक आबादी शहरों, उद्योगों और खदानों में काम हासिल करने के लिए प्रवास कर गयी। साथ ही, ज्यादा उन्नत खेती वाले क्षेत्रों में मजदूरी पाने के लिए एक ग्रामीण क्षेत्र से दूसरे ग्रामीण क्षेत्रों में भी काफी बड़े पैमाने पर प्रवास होता था। इसके अलावा जो आबादी प्रवासी नहीं बनती थी, वह भी भयंकर दरिद्रता में जीवन व्यतीत करती थी। यह जीवन स्थितियाँ ही थीं जिनके कारण किसानों की आबादी में विद्रोह की भावना लम्‍बे समय से पनप रही थी। 1905 में जब शहरों के मजदूरों की हड़तालों की लहर शुरू हुई तो साथ ही गाँवों में किसानों के विद्रोह की लहर भी शुरू हो गयी। 1905 की असफल रूसी क्रान्ति में हम शहरों के मजदूरों के उभार और गाँवों के किसान विद्रोहों के बीच एक ढीला-ढाला तालमेल देख सकते हैं।

मॉरिस डॉब ने ठीक ही कहा है कि इस किसान असन्‍तोष और विद्रोह के पीछे सबसे बुनियादी कारण था 1861 का भूदास मुक्ति कानून। इस कानून ने मुक्ति की जो शर्तें निर्धारित कीं उनके कारण किसानों को ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ। इन सुधारों ने एक तरफ सर्वहाराकरण की प्रक्रिया और दूसरी तरफ जुंकरीकरण की प्रक्रिया को चलाया और एक लम्‍बे दौर में एक विशाल ग्रामीण मजदूर वर्ग और गरीब व मँझोले किसानों के वर्ग और साथ ही एक बेहद छोटे ग्रामीण पूँजीपति वर्ग को जन्म दिया। इस पूरी प्रक्रिया के आँकड़ों समेत एक सटीक विवरण के लिए मॉरिस डॉब की पुस्तक ‘सोवियत इकोनॉमिक डेवलपमेण्ट सिंस 1917’ को देखें (पृ. 45-51)।

1861 से लेकर 1907-8 तक हम भूमि लगान के पूँजीवादी रूपान्‍तरण को देख सकते हैं। कृषि सम्‍बन्‍धों का चरित्र-निर्धारण करने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक भूमि लगान का चरित्र होता है। 1860 के दशक में रूस के कुछ उन्नत हिस्सों में तो पहले ही मुद्रा लगान आ चुका था, जो कि सामन्‍ती भूमि सम्‍बन्‍धों पर चोट कर रहा था। लेकिन 1861 के पहले रूस के बड़े हिस्सों में अभी भी श्रम लगान और जिंस लगान की मौजूदगी को देखा जा सकता था। लेकिन 1861 के बाद जो प्रक्रिया शुरू हुई उसने एक तरफ श्रम लगान और जिंस लगान को तेजी से खत्म किया, वहीं इसने पूँजीवादी काश्तकारी के बहुविध रूपों को जन्म दिया। सामन्‍ती भूस्वामी की जगह अब पूँजीवादी भूस्वामी ने ले ली थी। भूमि लगान लेने वाला वर्ग अब विखण्डित राज्यसत्ता (parcellized state) की भूमिका में नहीं था। निश्चित रूप से बंधुआ श्रम के कई रूप अभी मौजूद थे। लेकिन वे आर्थिक शोषण और बाध्यता पर ज्यादा और आर्थिकेतर उत्पीड़न पर कम निर्भर करते थे। कई लोग यह कल्पना करते हैं कि पूर्ण रूप से दोहरे अर्थों में मुक्त श्रम की मौजूदगी पर ही पूँजीवादी विकास को स्वीकार किया जा सकता है और ऋण बंधुआ प्रथा (debt bondage) और निर्भर काश्तकारी की मौजूदगी तक भूमि सम्‍बन्‍धों को सामन्‍ती या अर्द्धसामन्‍ती ही माना जा सकता है; ये लोग यह भूल जाते हैं कि दोहरे अर्थों में मुक्त श्रम की बात करते हुए मार्क्‍स ने मुक्त को हमेशा दोहरे उद्धरण चिन्हों के बीच रखा है। कई लोग श्रम के ‘‘मुक्त’’ होने को शाब्दिक तौर पर पूँजीवाद की पूर्वशर्त मान बैठते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि उन्नत से उन्नत पूँजीवाद हमेशा ही उद्योगों और कृषि, दोनों में ही अस्वतन्त्र श्रम के कई रूपों को जन्म और सरंक्षण देते हैं और उनके साथ शान्तिपूर्ण रूप से सहअस्तित्वमान रहते हैं। बल्कि कहना चाहिए कि श्रम के अस्वतन्त्र और निर्भर रूपों के बगैर पूँजीवाद कभी विकसित हो ही नहीं सकता है। यह बात उन्नीसवीं सदी के रूस क्या, बीसवीं सदी के अमेरिकी, ब्रिटेन और फ्रांस पर भी लागू होती है। खैर, रूस में भूमि लगान एक क्रमिक प्रक्रिया में पूँजीवादी रूपान्‍तरण से होकर गुजरा और 1907-8 तक हम कह सकते हैं कि रूस में भूमि लगान मुख्य रूप से पूँजीवादी रूप अख्तियार कर चुका था।

1907-8 में रूसी खेती में पूँजीवादी विकास के समक्ष मौजूद दूसरी बाधा को भी रूसी शासक वर्ग ने हटा दिया। 1906 में स्तोलिपिन के सुधार कानूनों ने रूसी ग्राम समुदाय मीर से मुक्त होने का अधिकार उभरते धनी किसानों के वर्ग को दे दिया जिसका कि पुराने ग्राम समुदाय के दायरे के भीतर अब दम घुट रहा था। स्तोलिपिन के सुधार को लागू करने के दो कारण थे। एक कारण यह था कि 1905 की असफल रूसी क्रान्ति ने रूस के शासक वर्गों को भी एक सबक दिया था। रूस का शासक वर्ग समझ रहा था कि किसानों के बीच विद्रोह की लहर को नियन्त्रित करने के लिए यह जरूरी है कि गाँवों में एक मजबूत वर्ग मित्र ढूँढ़ा जाये। जहाँ यह राजनीतिक तौर पर क्रान्तिकारी उभार से निपटने के लिए जरूरी था, वहीं यह आर्थिक तौर पर भी जरूरी था क्योंकि मुख्य रूप से अनाज का निर्यात करने वाली रूसी अर्थव्यवस्था को निर्यात हेतु अधिक अनाज उत्पादन की जरूरत थी। यह बढ़ोत्तरी कृषि के पूँजीवादी विकास को बढ़ावा देकर ही सम्भव थी, जो कि धनी उद्यमी किसानों के वर्ग को आर्थिक और राजनीतिक संरक्षण देना शुरू करके ही किया जा सकता था। इसके अलावा रूस के पूँजीपति वर्ग को पूँजीवादी औद्योगिक और शहरी विकास के कारण शहरों की बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए भी पर्याप्त अनाज की आवश्यकता थी। यह भी कृषि के पूँजीवादी विकास और धनी किसानों के वर्ग को संरक्षण के साथ ही सम्भव था। स्तोलिपिन के सुधारों ने कृषि में तीव्र पूँजीवादी विकास को बढ़ावा दिया और रूसी शासक वर्ग को तेजी से विकसित होते पूँजीवादी कुलकों के रूप में एक वर्ग मित्र भी दिया। इन सुधारों के कारण 1917 के आने तक पचास फीसदी से अधिक किसान परिवार ऐसे काश्तकार परिवारों में तब्दील हो चुके थे जिनकी जमीन का पुनर्वितरण नहीं किया जा सकता था। यानी कि उनका भूस्वामित्व आनुवांशिक हो चुका था। कहने की जरूरत नहीं कि पूरे रूसी साम्राज्य में खेती में यह पूँजीवादी विकास समान रूप से नहीं हुआ था और अधिकांश एशियाई रूस अभी भी सामन्‍ती भूमि सम्‍बन्‍धों के अधीन ही था। यहाँ तक कि यूरोपीय रूस के भीतर भी यह पूँजीवादी विकास बेहद असमान रूप से हुआ था। लेकिन इन सबके बावजूद पूँजीवादी उत्पादन सम्‍बन्‍ध अब कृषि के क्षेत्र में प्रमुख उत्पादन सम्‍बन्‍ध बन चुके थे, इसमें कोई सन्‍देह नहीं रह गया था।

रूसी कृषि में पूँजीवादी विकास की पूरी प्रक्रिया का विवरण देते हुए रूसी इतिहास के तमाम अध्येताओं ने अलग-अलग दृष्टिकोण पेश किये हैं, जिनमें से कुछ की आलोचनात्मक समीक्षा करना यहाँ उपयोगी होगा, क्योंकि वे कई अहम सैद्धान्तिक प्रश्नों को उठाते हैं, जो कि सामान्य महत्व रखते हैं। हम शुरुआत ई.एच. कार से करते हैं, क्योंकि आज भी सोवियत संघ में समाजवाद के इतिहास का सबसे विस्तृत और तमाम अर्द्ध-त्रात्स्कीपन्‍थी विचलनों के बावजूद हमारे विचार में सबसे उपयोगी अध्ययन उन्हीं का है। कार के इतिहास-लेखन पर ब्रिटिश अनुभववाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इजाक डॉइशर के प्रभाव के कारण सोवियत समाजवाद के कार द्वारा लिखे गये इतिहास में कई स्थानों पर त्रात्स्की के प्रति स्पष्ट रूप में सहानुभूति देखी जा सकती है। एक मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी न होने के कारण कई जगह कार के विश्लेषण में उदार बुर्जुआ विचारों का प्रभाव भी देखा जा सकता है। लेकिन इसके बावजूद कार द्वारा लिखा गया सोवियत समाजवाद का इतिहास सबसे वस्तुपरक माना जा सकता है। कार तथ्यों का चुनाव अपने पूर्वाग्रहों के अनुसार नहीं करते, वरन् वह अपनी रचना के लिखे जाने तक उपलब्ध सभी तथ्यों को पाठक के समक्ष खोलकर रख देते हैं। वह अपने विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों के आधार पर तथ्यों का चुनाव या उनका विकृतिकरण नहीं करते। इसके बाद, उनके पास विश्लेषणात्मक उपकरणों की कमी है, जो कई जगह उन्हें गलत नतीजों तक पहुँचा देती है। क्रान्ति-पूर्व दौर में रूस में पूँजीवादी विकास के विषय में कार का पूरा ब्यौरा कहीं-कहीं गलत नतीजों तक पहुँच जाता है। कुछ मिसालों से हम इसे स्पष्ट करने की कोशिश करेंगे।

जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया था, लेनिन ने रूस में कृषि में पूँजीवादी विकास के रास्ते को प्रशियाई पथ का नाम दिया था और उसकी तुलना पूँजीवादी भूमि सुधार के अमेरिकी पथ से की थी। ई.एच. कार इस विभाजन के सैद्धान्तिक आधार को नहीं समझ पाते हैं। इसका कारण यह है कि वह लेनिन द्वारा किये गये इस विभाजन के बुनियादी तर्क को ही नहीं समझ पाये हैं। कार कहते हैं कि लेनिन ने भूस्वामियों के हितों में किये जाने वाले भूमि सुधार को प्रशियाई पथ का नाम दिया, जिसमें कि सामन्‍ती भूस्वामियों को ही पूँजीवादी भूस्वामियों में तब्दील हो जाने का मौका मिलता है और भूमि का गरीब किसानों और भूमिहीन मजदूरों के बीच वितरण नहीं किया जाता; भूमि के रैडिकल रूप से किसानों के बीच कमोबेश समानतापूर्ण वितरण करने वाले पूँजीवादी भूमि सुधार को लेनिन ने अमेरिकी पथ का नाम दिया। लेनिन ने दिखलाया कि रूस में शासक वर्गों ने पूँजीवादी भूमि सुधार का प्रशियाई पथ चुना था। कार का मानना है कि लेनिन द्वारा किया गया यह वर्गीकरण उपयुक्त नहीं है और रूसी भूमि सुधार को प्रशियाई पथ से किया गया भूमि सुधार नहीं माना जा सकता है। कार इसके लिए जो कारण देते हैं उसका रिश्ता सिर्फ उत्पादकता से है। उनकी दलील है कि प्रशा में जो पूँजीवादी भूमि सुधार लागू किया गया उसने वहाँ बड़े पैमाने की युंकर खेती को जन्म दिया जो कि बेहद उत्पादक थी और साथ ही उसमें कुशलता का स्तर भी काफी ऊँचा था। जबकि रूस में भूमि सुधारों में ऐसा कुछ नहीं हुआ। यहाँ हम कार पर ब्रिटिश अनुभववादी और प्रत्यक्षवादी इतिहास-लेखन का प्रभाव स्पष्ट रूप में देख सकते हैं, जिसकी विचारधारात्मक अन्‍तर्वस्तु बेहद दरिद्र है। तथ्यों के प्रति अपने सम्मोह के कारण कई बार वह बेहद जाहिर और मुख्तसर सी बातों को नहीं देख पाते। हम आगे इसके अन्य उदाहरण भी देंगे, लेकिन फिलहाल इस विशिष्ट उदाहरण पर कुछ बातें। लेनिन द्वारा प्रशियाई पथ और अमेरिकी पथ में किये जाने वाले फर्क का वास्तव में उत्पादकता या कुशलता के स्तर से कोई रिश्ता नहीं है। इस वर्गीकरण का मूल और मुख्य आधार है वर्ग सम्‍बन्‍ध और उत्पादन सम्‍बन्‍ध। प्रशियाई पथ हमेशा ज्यादा उत्पादक होगा या अमेरिकी पथ ज्यादा उत्पादक होगा, यह कभी मुद्दा था ही नहीं। मिसाल के तौर पर अमेरिकी पूँजीवादी कृषि की उत्पादकता बेहद कम थी। प्रति एकड़ उपज को पैमाना मानें तो ब्रिटिश पूँजीवादी खेती और यहाँ तक कि फ्रांसीसी पूँजीवादी खेती उससे आगे थी। पूँजी के संकेन्‍द्रण और भूमि के चन्‍द हाथों में केन्द्रित होने के साथ जब विशालकाय फार्म अमेरिकी पूँजीवादी खेती की चारित्रिक अभिलाक्षणिकता बन गये, तब जाकर प्रति एकड़ उपज में ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई। ठीक उसी प्रकार प्रशा जैसे भूमि सुधारों ने कुछ देशों में अधिक उत्पादक खेती को जन्म दिया तो अन्य देशों में बेहद पिछड़ी और आदिम खेती को जन्म दिया। इसका कारण यह है कि उत्पादकता और कुशलता के स्तरों का रिश्ता कई अन्य कारकों पर भी निर्भर करता है, जैसे कि अलग-अलग देशों के कुलक वर्ग की प्रकृति, विश्व अर्थव्यवस्था में सम्‍बन्धित देश का स्थान, भूमिहीन मजदूरों और किसानों के वर्ग का चरित्र, वगैरह। प्रशियाई पथ इस रूप में प्रतिक्रियावादी पथ है कि यह किसानों की विशाल बहुसंख्या को दरिद्रता और भुखमरी में ही जीते रहने को बाध्य करता है। उसके जनवादी अधिकार भी उसे आधे-अधूरे तौर पर हासिल होते हैं। कानूनी तौर पर भूदासत्व और बंधुआ मजदूरी के खात्मे के बावजूद इस प्रकार के भूमि सुधारों के बाद भी वह कर्ज में डूबा रहता है और पूँजी और भूमि की भयंकर असमानता के कारण वह पूँजीवादी कुलकों पर निर्भर ही रहता है। यह निर्भरता कई मामलों में श्रम के अस्वतन्त्र रूपों को जन्म देती है, जो कि कई लोगों के लिए सामन्‍ती उत्पादन सम्‍बन्‍धों का ‘ऑप्टिकल’ भ्रम पैदा करते हैं (भारत में आज भी चीन जैसी नवजनवादी क्रान्ति की मंजिल मानने वाले तमाम मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी समूह इसी भ्रम से पीड़ित हैं)। इसी वजह से लेनिन ने स्तोलिपिन के सुधारों की आलोचना की थी और अमेरिकी पथ के भूमि सुधारों को ज्यादा प्रगतिशील बताया था। अमेरिकी पथ से होने वाले भूमि सुधारों में जमीन को जोतने-बोने वालों को ही भूमि का स्वामी बनाया जाता है, भूमि को सामन्‍ती भूस्वामियों, चर्च और राज्य के हाथ से छीन कर किसानों के बीच (समानतापूर्ण रूप से या कुछ असमानतापूर्ण रूप से) वितरित कर दिया जाता है। यह छोटे पैमाने की खेती करने वाले विशाल किसान वर्ग को जन्म देता है, जो कि सामन्‍ती उत्पीड़न, भूदासता और बंधुआ मजदूरी से सही मायने में मुक्त होता है। निश्चित रूप से ये पूँजीवादी भूमि सुधार ही होते हैं मगर ये ज्यादा प्रगतिशील होते हैं। लेनिन ने स्तोलिपिन सुधारों की आलोचना करते हुए कहा कि इनसे आम गरीब किसानों और भूमिहीन मजदूरों को कुछ नहीं हासिल होगा। इन सुधारों का लाभ कुलकों और धनी किसानों को होगा। यहाँ पर भी कार एक भ्रम का शिकार हो जाते हैं। कार लिखते हैं कि एक तरफ तो लेनिन ने अपने सैद्धान्तिक लेखन में स्तोलिपिन के सुधारों को ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील बताया तो वहीं दूसरी ओर जनता के बीच उद्वेलन और प्रचार हेतु किये गये लेखन में उसकी कटु आलोचना की। इस विरोधाभास को व्याख्यायित करने के लिए कार प्रचारक लेनिनऔर मार्क्‍सवादी, अर्थशास्त्री लेनिनमें विभेदीकरण करते हैं! कार दलील देते हैं कि जनता को उद्वेलित करने और आन्‍दोलित करने के लिए लेनिन ने स्तोलिपिन के सुधारों को भूस्वामी-समर्थक और प्रतिक्रियावादी बताते हुए जनता को इसके खिलाफ लड़ने के लिए प्रेरित किया; स्तोलिपिन का उद्देश्य कुलकों और युंकरों को भूमि का स्वामी बनाकर और उनके विकास से सारी बाधाएँ हटाकर रूसी कृषि का पूँजीवादी विकास द्रुत गति से करना और इस प्रकार गाँवों में उबल रहे किसान विद्रोह को शान्‍त करना था, लेकिन लेनिन जानते थे कि इस प्रकार के भूमि सुधारों से यह उद्देश्य पूरा होने वाला नहीं है। इससे रूसी खेती में पूँजीवादी उत्पादन सम्‍बन्‍ध तो हावी हो जायेंगे लेकिन किसानों के भीतर पनप रहा विस्फोटक असन्‍तोष इससे शान्‍त नहीं होने वाला है, और न ही कुलकों और युंकरों को समर्थन देकर रूसी शासक वर्ग अपना कोई इतना शक्तिशाली वर्ग मित्र पैदा कर सकता है, जो कि करोडों किसानों के जनसैलाब की ताकत को प्रति-सन्‍तुलित कर दे। इसलिए ऐतिहासिक तौर पर सामन्‍ती अवशेषों को एक हद तक झाड़-बुहारकर किनारे करने की भूमिका के चलते स्तोलिपिन के सुधार प्रगतिशील थे, लेकिन उद्वेलनात्मक उद्देश्यों के लिए लेनिन ने इनकी आलोचना की और इनके खिलाफ किसानों के बीच संघर्ष करने का आह्वान किया। स्पष्ट है कि कार लेनिन की समझदारी की द्वन्‍द्वात्मक एकता को समझ पाने में वैचारिक तौर पर असफल रहे हैं। कार यह नहीं समझ पाये कि स्तोलिपिन के सुधारों की प्रगतिशीलता इस बात में भी निहित थी कि उसने आम गरीब और मँझोली किसान आबादी और भूमिहीन किसानों की आबादी की आकांक्षाओं पर तुषारापात किया और पूँजीवादी भूमि सुधारों को रैडिकल अमेरिकी पथ से अंजाम नहीं दिया।

यहाँ पर कार के विश्लेषण की एक और समस्या हमारे सामने आती है। अपने पूरे लेखन में लेनिन के बारे में लिखते हुए कार, निश्चित रूप से प्रशंसा करने के इरादे से, कई बार लेनिन के व्यक्तिगत दूरदर्शी विवेक, रणनीतिक और कूटनीतिक कौशल की तारीफ करते हैं और उसे सिद्धान्‍तकार और मार्क्‍सवादी लेनिन से अलग करते हैं। कृषि प्रश्न पर लेनिन द्वारा किये गये सैद्धान्तिकीकरण पर कार की अवस्थिति केवल एक उदाहरण है। ऐसा कार सोवियत समाजवाद के अपने इतिहास-लेखन में बार-बार करते हैं, खास तौर पर पहले तीन खण्डों में (‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन’, खण्ड 1, 2, 3) जो लेनिन की मृत्यु तक के कालखण्ड को समेटते हैं। मिसाल के तौर पर, आपको कार की इस प्रकार की टिप्पणियाँ बीच-बीच में मिल जाएँगी, ‘लेनिन एक ठोस यथार्थवादी थे’, ‘यह लेनिन की असाधारण रणनीतिक प्रतिभा थी’, वगैरह। अलग से कार ‘सिद्धान्‍तकार, दार्शनिक मार्क्‍सवादी लेनिन’ की भी प्रशंसा में ऐसी ही अभिव्यक्तियाँ देते हैं। लेकिन कार के लिए यह दो अलग-अलग प्रशंसनीय लेनिन हैं। कार लेनिन को उनके चिन्‍तन (दार्शनिक, विचारधारात्मक और राजनीतिक और साथ ही रणनीतिक, रणकौशलात्मक भी) की एकता में नहीं समझ पाते हैं और यह नहीं देख पाते कि लेनिन के सैद्धान्तिक और दार्शनिक नतीजे उन्हीं रणनीतिक और रणकौशलात्मक नतीजों में रूपान्‍तरित हो सकते थे जिनमें कि वे हुए, यानी, वे उनकी नैसर्गिक परिणति थे।

कृषि में पूँजीवादी विकास का ब्यौरा देते हुए हम कुछ बातें और स्पष्ट करना चाहेंगे, जो आगे रूस में सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन और उसके द्वारा अपनाये गये कृषि-सम्‍बन्‍धी कार्यक्रम को समझने के लिए आवश्यक हैं। अगर हम उत्पादन सम्‍बन्‍धों की बात करें तो उपरोक्त ब्यौरे से स्पष्ट है कि रूसी खेती में पूँजीवादी उत्पादन सम्‍बन्‍ध प्रमुख उत्पादन सम्‍बन्‍ध बन चुके थे। चूँकि कृषि में पूँजीवादी विकास का जो रास्ता रूस में शासक वर्ग ने चुना था, वह रैडिकल और किसान-केन्द्रित भूमि सुधार का नहीं बल्कि युंकरीकरण के प्रशियाई पथ से किये जाने वाले भूमि सुधार का था, इसलिए निश्चित तौर पर कई सामन्‍ती अवशेष रूसी कृषि में बचे रह गये थे; जो पूँजीवादी कृषि उभरकर सामने आ भी रही थी उसकी चारित्रिक अभिलाक्षणिकता थी अत्यधिक भूमि असमानता, निर्भर किसानों की एक विशालकाय आबादी, पिछड़ापन, उत्पादकता का बेहद निम्न स्तर और ग्रामीण सर्वहारा और गरीब किसानों का भयंकर और बर्बर आर्थिक और आर्थिकेतर शोषण। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं था कि रूस में खेती में पूँजीवादी विकास नहीं हुआ था, या वह चीनी अर्थों में अर्द्ध-सामन्‍ती थी। न ही इसका यह अर्थ था कि चूँकि रूसी खेती में सामन्‍ती अवशेष बहुत ज्यादा थे इसीलिए बोल्शेविक क्रान्ति ने जो भूमि कार्यक्रम लागू किया वह मूलतः जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूर्ण करता था। कई अध्येता यहीं पर चूक कर जाते हैं, जैसे कि चार्ल्‍स बेतेलहाइम। उन्होंने अपनी पुस्तक में लिखा है कि रूस में बोल्शेविक क्रान्ति का दोहरा चरित्र था : गाँवों में यह जनवादी क्रान्ति थी और शहरों में समाजवादी क्रान्ति! इस पूरी थीसिस का विस्तृत खण्डन हम आगे करेंगे, लेकिन अभी इतना बताना पर्याप्त होगा कि जिन देशों में पूँजीवादी भूमि सुधार किसी रैडिकल बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के रास्ते न होकर क्रमिक दीर्घकालिक पथ से होंगे, वहाँ अगर किन्हीं अपवादस्वरूप परिस्थितियों में कृषि में पूँजीवादी सम्‍बन्‍धों के लम्‍बे समय तक परिपक्व हुए बगैर ही समाजवादी क्रान्ति की स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं, तो निश्चय ही उस क्रान्ति को बहुत से छूटे-फटके जनवादी कार्यभार पूरे करने पड़ते हैं। रूस में ऐसा ही हुआ था।

यदि रूसी क्रान्ति युद्ध, अकाल और सोवियतों के स्वतःस्फूर्त उभार के कारण पैदा हुई अपवादस्वरूप परिस्थितियों में 1917 में न होकर तीन या चार दशक बाद सम्पन्न होती, तो प्रशियाई पथ से होने वाले कृषि पूँजीवाद के विकास के बावजूद रूसी क्रान्ति को कुछ ही छूटे जनवादी कार्यों को पूरा करना होता। मिसाल के तौर पर, 1920 के दशक में सम्भावित जर्मन सर्वहारा क्रान्ति को शायद ही ज्यादा जनवादी कार्यभार पूरे करने पड़ते, क्योंकि वहाँ प्रशियाई पथ से हुए भूमि सुधार कई दशकों की परिपक्वता हासिल कर चुके थे। या आज के भारत में समाजवादी क्रान्ति के पास पूरे करने के लिए छूटे हुए जनवादी कार्यभार इने-गिने ही होंगे। लेकिन रूस में 1917 में ही अपवादस्वरूप स्थितियों में समाजवादी क्रान्ति की परिस्थितियों के तैयार होने के कारण बोल्शेविकों को जनवादी क्रान्ति को पूर्णता तक पहुँचाने की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ी। लेकिन बेतेलहाइम द्वारा इसे जनवादी और समाजवादी क्रान्तियों का अन्‍तर्गुन्‍थन कहना एक सैद्धान्तिक भूल है। ऐसा दावा वस्तुगत तौर पर बेतेलहाइम को त्रात्स्की के स्थायी क्रान्तिके सिद्धान्‍त के करीब ले जाता है, हालाँकि बेतेलहाइम त्रात्स्की के समान किसानों को अज्ञात चर राशिया बीजगणितीय अज्ञातनहीं मानते थे। त्रात्स्की की विस्तृत आलोचना हम इस अध्याय के अन्तिम खण्ड में रखेंगे।

दूसरी अहम बात जो इसी से जुड़ी हुई है, उसे भी समझ लेना यहाँ अनिवार्य है क्योंकि यह विषयवस्तु आगे बार-बार प्रकट होने वाली है। किसी देश में पूँजीवादी उत्पादन सम्‍बन्‍धों के कृषि में हावी होने के बाद भी समाजवादी क्रान्ति तत्काल किस प्रकार का भूमि कार्यक्रम लागू करेगी, यह आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि राजनीतिक आधार पर ही निर्धारित हो सकता है। मिसाल के तौर पर, रूस में 1917 में कृषि में पूँजीवादी सम्‍बन्‍ध मूल और मुख्य रूप से प्रमुख उत्पादन सम्‍बन्‍ध बन चुके थे। लेकिन चूँकि ये पूँजीवादी उत्पादन सम्‍बन्‍ध कृषि में किसी रैडिकल भूमि सुधार के द्वारा नहीं बल्कि क्रमिक प्रशियाई पथ से हुए थे, इसलिए किसानों के बीच भूमिहीनता बड़े पैमाने पर थी और अभी उनकी जमीन की भूख बरकरार थी। निश्चित तौर पर, जमीन की भूख बरकरार रहने का एक कारण नरोदवादी समाजवादी क्रान्तिकारियों का किसानों में ज्यादा और बोल्शेविकों का कम असर भी था। लेकिन ज्यादा अहम कारण यह था कि रूस के किसानों ने कृषि में (किसी भी रास्ते से आये) पूँजीवाद का दीर्घकालिक अनुभव हासिल नहीं किया था, और वे राजनीतिक तौर पर अभी भी जनवादी आकांक्षाएँ ही रखते थे। सामन्‍ती उत्पीड़न, ऋण-दासत्व, आर्थिकेतर शोषण व उत्पीड़न, बंधुआ मजदूरी अभी उनकी स्मृति में बहुत दूर नहीं हुई थीं। इसलिए उत्पादन सम्‍बन्‍धों के आधार पर पूँजीवाद में प्रवेश कर जाने के बाद भी रूसी किसान आबादी राजनीतिक तौर पर समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम के लिए तैयार नहीं थी। यही कारण है कि लेनिन ने 1917 में स्पष्ट किया कि बोल्शेविकों ने समाजवादी क्रान्तिकारियों के रैडिकल बुर्जुआ भूमि कार्यक्रम को अपना लिया, क्योंकि किसानों की व्यापक बहुसंख्या राजनीतिक तौर पर अभी इसी के लिए तैयार थी, और आबादी के 75 फीसदी हिस्से पर आप समाजवाद थोप नहीं सकते हैं। चूँकि यह भूमि कार्यक्रम भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात करता था, इसलिए यह जनवादी क्रान्ति के दायरे में सबसे रैडिकल भूमि कार्यक्रम था, जो कि कानूनी तौर पर भूमि में निजी मालिकाने को समाप्त करता था; लेकिन साथ ही यह समान पुनर्वितरण के जरिये किसानों की व्यापक जनसंख्या को छोटी-छोटी जोतों का भोगाधिकार देता था, जो प्रभावी तौर पर मालिकाना ही था। लेनिन का मानना था कि इस रैडिकल बुर्जुआ कार्यक्रम से कालान्‍तर में समाजवादी भूमि कार्यक्रम तक जाना ज्यादा सहज होगा और किसानों को एक लम्‍बी प्रक्रिया में अपने अनुभव से सीखने दिया जाये कि छोटी जोत की किसानी उन्हें भुखमरी, गरीबी और दरिद्रता से मुक्ति नहीं दिला सकती है। इस पूरे मामले पर लेनिन की अवस्थिति जिस बात को साफ कर रही थी वह यह थी कि क्रान्ति के अहम फैसलाकुन प्रश्नों पर निर्णय राजनीतिक आधार पर होता है, न कि आर्थिक तौर पर। यही बात अपनी अलग-अलग विजातीय पहुँचों के कारण काऊत्स्की, रोजा लक्जेमबर्ग, ‘‘वामपन्‍थी’’ कम्युनिस्ट भी नहीं समझ पाये और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और चार्ल्‍स बेतेलहाइम जैसे सिद्धान्‍तकार भी, जो कि माओ से ज्यादा ‘‘माओवादी’’ बनने के प्रयास में लेनिनवादी भी नहीं रह गये! वास्तव में, अक्टूबर 1917 में रूसी किसान आबादी आर्थिक तौर पर पूँजीवादी उत्पादन सम्‍बन्‍धों में प्रवेश कर चुकी थी, लेकिन राजनीतिक तौर पर अभी भी उसकी भूमि-क्षुधा और जनवादी आकांक्षाएँ जीवित थीं और वह समाजवादी भूमि कार्यक्रम के लिए पूरी तरह तैयार नहीं था। इस पर हम आगे और विस्तार से चर्चा करेंगे, लेकिन अभी यह स्पष्टीकरण देना आवश्यक था ताकि आगे तथ्यों का विवरण ज्यादा साफ तौर पर दिया जा सके।

ख) क्रान्ति-पूर्व रूस में औद्योगिक विकास और सम्‍बन्धित इतिहास-लेखन का आलोचनात्मक ब्यौरा

क्रान्ति से पहले कृषि में हुए परिवर्तनों के बाद हम औद्योगिक विकास और अवसंरचनागत ढाँचे पर चर्चा कर सकते हैं। उन्नीसवीं सदी के अन्‍त और बीसवीं सदी के पहले दशक में रूसी उद्योग किस स्थिति में था, इसे समझने के लिए इस औद्योगिक विकास की पृष्ठभूमि संक्षेप में जान लेना उपयोगी होगा।

रूस में उद्योगीकरण की शुरुआत सही मायने में अट्ठारहवीं सदी के मध्य में पीटर महान के शासन के दौरान हुई थी। पीटर महान आधुनिकीकरण और पश्चिमीकरण का समर्थक था। उसने जो पश्चिमीकरण अभियान चलाया उसके तहत पहली बार अट्ठारहवीं सदी के मध्य में रूस के कुछ क्षेत्रों में खानें-खदानें खुलनी शुरू हुईं। ये खानें शुरुआत में मुख्य रूप से लोहे की थीं। इनका मालिकाना मुख्य तौर पर राज्य या फिर बड़े सामन्‍तों के हाथ में था। कुछेक उद्यमी पूँजीपति भी थे, जो मुख्य रूप से वाणिज्य व व्यापार से सम्‍बन्‍ध रखते थे, जो कि इन खानों-खदानों के मालिक बने थे। लेकिन अट्ठारहवीं सदी में उनके लिए इन खानों को चलाना लगभग नामुमकिन था क्योंकि श्रम आपूर्ति बेहद कम थी। अभी तक भूदासत्व उन्मूलन नहीं हुआ था और राज्य या बड़े सामन्‍त इन खानों-खदानों में भूदास श्रम और बंधुआ श्रम द्वारा ही काम करवाते थे। जिन क्षेत्रों में ये खानें थीं, वे मॉस्को के निकट पड़ने वाले केन्‍द्रीय प्रान्‍तों से काफी दूर थे, जैसे कि उराल का क्षेत्र। इसलिए मुक्त श्रम के मिलने की गुंजाइश वैसे भी कम थी, क्योंकि केन्‍द्रीय प्रान्‍तों के इलाके में सीमित पैमाने पर कुछ मुक्त श्रम मुक्त कर दिये गये या भाग आये भूदासों या फिर बरबाद हो चुके कारीगरों व दस्तकारों के रूप में उद्यमी पूँजीपतियों को मिल जाता था। लेकिन दूरस्थ क्षेत्रों में उनकी उपलब्धता नगण्य थी। बीसवीं सदी की शुरुआत आते-आते भी अगर रूस में पूँजीवादी विकास की अगुवाई एक स्वतन्त्र उद्यमशील पूँजीपति वर्ग नहीं कर सका, तो इसके कारण हमें अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध और उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही मिलते हैं। अट्ठारहवीं सदी में अपने भूदास श्रम और आदिम तकनीक के जरिये भी रूस का लोहा उत्पादन इंग्लैण्ड से भी आगे था और वह इसके निर्यात के मामले में स्वीडन से प्रतिस्पर्द्धा कर रहा था। लेकिन अट्ठारहवीं सदी के अन्‍त में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति के बाद यह बढ़त समाप्त हो गयी और रूस में राजनीतिक परिवर्तन न होने के कारण आर्थिक-सामाजिक तौर पर भी रूस पिछड़ता गया। इस प्रकार अगर अट्ठारहवीं सदी में शुरू हुए उद्योगीकरण को देखें तो वह राज्य द्वारा ऊपर से किया गया सीमित उद्योगीकरण था, जो कि अभी मुख्य रूप से खनन के क्षेत्र में हो रहा था।

जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया, केन्‍द्रीय प्रान्‍तों में मुक्त श्रम की सीमित उपलब्धता के आधार पर कुछ उद्योग लगने शुरू हुए। मुख्य तौर पर यह कपड़ा उद्योग था। सूत उत्पादन इसमें प्रमुख था। कुछ कारखाने अट्ठारहवीं सदी के अन्‍त और उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लग चुके थे, लेकिन अभी भी ज्यादातर पुटिंग आउट व्यवस्था ही लागू होती थी जिसमें कि उत्पादन के कार्य को वाणिज्यिक पूँजीपति घरों में, ग्रामीण कुटीर उद्योग में और छोटी-छोटी वर्कशॉपों में दिया करते थे, जहाँ उत्पादक अपने उत्पादन के उपकरणों के साथ काम करते थे। लेकिन 1840 के दशक में पावरलूम आने के साथ यह व्यवस्था धीरे-धीरे खत्म होती गयी और कारखाना व्यवस्था प्रभावी होती गयी। शुरुआती दौर में जो अधिकांश कारखाने लगे थे वे विदेशी निवेशकों के थे। 1860 के दशक में भूदासत्व उन्मूलन कानून विदेशी वित्तीय पूँजी और राजकीय वित्तीय पूँजी के लिए जरूरी था क्योंकि इन कारखानों को श्रम चाहिए था, जो कि भूदासों की मुक्ति के बिना सम्भव नहीं था। 1861 में भूदासों की मुक्ति के द्वारा रूसी निरंकुश राजतन्त्र ने वित्त पूँजी की जरूरतों को पूरा किया। 1860 के दशक से लेकर इस सदी के अन्‍त तक रूस में सूती उद्योग में लगी श्रम शक्ति में तीन गुने की बढ़ोत्तरी हुई। इस उद्योग में पूँजी का संकेन्‍द्रण जबर्दस्त था। उपभोग में भी 1910 तक करीब 12 गुना की बढ़ोत्तरी हुई। उराल का खनन उद्योग अट्ठारहवीं सदी के अन्‍त तक काफी कमजोर हो गया था क्योंकि वहाँ कोयला बेहद कम था। उन्नीसवीं सदी के मध्य में खनन उद्योग फिर से पुनर्जीवित होना शुरू हुआ, लेकिन इस बार यह दक्षिण में दोनेत्ज और द्नीपर के बीच के इलाके में था, न कि उराल में। इसके पुनर्जीवित होने का एक बड़ा कारण 1860 और 1870 के दशक में बड़े पैमाने पर राज्यसत्ता द्वारा रेलवे का निर्माण था जो कि सूती उद्योग और साथ ही कृषि उत्पादों के निर्यात के लिए अनिवार्य था। 1890 से लेकर 1914 तक रूसी उद्योग, खनन और रेलवे में जबर्दस्त विकास हुआ। हालाँकि ज्यादातर क्षेत्रों में यह अभी भी ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के पीछे था, लेकिन बीच का अन्‍तर काफी घट चुका था।

कुल मिलाकर रूस का आर्थिक विकास यूरोप के उन्नत देशों और एशिया के पिछड़े देशों के बीच खड़ा था। यह स्थिति विशेष तौर पर पिछड़ी खेती के कारण थी। लेकिन जहाँ तक रूस के औद्योगिक विकास का प्रश्न था, यहाँ बेहद उन्नत और आधुनिक उद्योग पूँजी के अत्यधिक संकेन्‍द्रण के साथ मौजूद थे। विशेष तौर पर, यूरोपीय रूस के कई हिस्सों में औद्योगिक विकास यूरोप के कई उन्नत देशों के औद्योगिक विकास से पीछे नहीं था, विशेष तौर पर, दक्षिण में द्नीपर और दोनेत्ज के क्षेत्र में और साथ ही मॉस्को और पीटर्सबर्ग के क्षेत्र में। कई क्षेत्रों में पूँजी का संकेन्‍द्रण इस कदर ज्यादा था कि 1914 आते-आते पूरे रूस में 500 से अधिक मजदूरों वाले कारखानों का हिस्सा कुल कारखानों में करीब 53 प्रतिशत हो चुका था; गौरतलब है कि इसी समय अमेरिका में कुल कारखानों में केवल 31 प्रतिशत ऐसे थे जिनमें कि 500 मजदूरों से ज्यादा काम करते थे। निश्चित तौर पर, इससे कुल औद्योगिक उत्पादन की कोई तस्वीर नहीं उपस्थित होती है। अमेरिका कुल औद्योगिक उत्पादन में उस समय कहीं आगे था। लेकिन रूस में जो औद्योगिक विकास हुआ था उसके चरित्र को समझने के लिए यह आँकड़ा महत्वपूर्ण है। रूस में खानों-खदानों में, विशेष तौर पर कोयले और लोहे की खदानों का आकार, उनमें पूँजी का संकेन्‍द्रण और प्रति इकाई मजदूरों की संख्या जर्मनी से ज्यादा थी, अमेरिका के मुकाबले लगभग आधा और इंग्लैण्ड की तुलना में करीब 60 प्रतिशत थी। 1913 में मात्र नौ लोहा व इस्पात संयन्त्र कुल कच्चे लोहा उत्पादन के करीब आधे का उत्पादन करते थे; रेल उत्पादन का करीब 90 प्रतिशत केवल सात कम्पनियाँ करती थीं और बाकू क्षेत्र में होने वाले कुल तेल उत्पादन का करीब 70 प्रतिशत मात्र छह कम्पनियाँ करती थीं। इन आँकड़ों से हम इन कम्पनियों के आकार का अन्‍दाजा लगा सकते हैं। इनके कारखाने दैत्याकार हुआ करते थे जिनमें कई बार कई हजार मजदूर एक साथ काम किया करते थे। वास्तव में, रूस में बड़े पैमाने के उद्योगों का संकेन्‍द्रण उस समय यूरोप के किसी भी देश से ज्यादा था। एक आकलन के अनुसार 1913 में रूसी औद्योगिक मजदूरों का करीब 25 प्रतिशत हिस्सा उन कारखानों में काम करता था जिनमें हजार से ज्यादा मजदूर थे और करीब 10 प्रतिशत हिस्सा ऐसे कारखानों में काम करता था जिनमें 500 से 1000 मजदूर काम करते थे। इसी समय कुल औद्योगिक विकास में रूस से कहीं आगे खड़े जर्मनी में 1000 से ज्यादा मजदूरों वाले कारखानों में जर्मन औद्योगिक मजदूर वर्ग का मात्र 8 प्रतिशत और 500 से 1000 मजदूरों वाले कारखाने में 6 प्रतिशत काम करता था। यानी रूस में औद्योगिक मजदूर वर्ग का 35 प्रतिशत हिस्सा ऐसे कारखानों में काम करता था जिनमें 500 से ज्यादा मजदूर थे, जबकि उसी समय जर्मनी में यह हिस्सा मात्र 14 प्रतिशत था।

रूस में उद्योगों का विकास दस्तकारी से होते हुए कारखाना व्यवस्था तक नहीं पहुँचा था। यह औद्योगिक विकास ऊपर से राज्य और बैंकों द्वारा किया गया था। रूसी वित्तीय पूँजी के अलावा विदेशी वित्तीय पूँजी निवेश का स्तर रूस में काफी ज्यादा था। 1914 में रूसी उद्योगों में लगी विदेशी वित्तीय पूँजी का परिमाण करीब 2 अरब रूबल था, जिसमें से करीब 32.6 प्रतिशत हिस्सा फ्रांसीसी, 22.6 प्रतिशत ब्रिटिश, 19.7 प्रतिशत जर्मन, 14.3 प्रतिशत बेल्जियन और 5.2 प्रतिशत अमेरिकी वित्तीय पूँजी का था। जाहिर है कि विदेशी वित्तीय पूँजी निवेश के साथ विदेशी तकनीक और मशीनें भी रूसी उद्योग में शुरू से ही आयीं।

इस पूँजीवादी विकास से जो रूसी सर्वहारा वर्ग अस्तित्व में आया था, उसके चरित्र को समझ लेना भी आवश्यक है क्योंकि यह चरित्र ही आने वाले समय में काफी हद तक उनके बर्ताव और प्रतिक्रियाओं को निर्धारित करने वाला था। यह सच है कि रूसी सर्वहारा वर्ग क्रान्ति के ठीक पहले तक कुल रूसी आबादी का मात्र 13 प्रतिशत था, लेकिन यह बेहद बड़े कारखानों में काम करता था और उसकी वर्ग चेतना के विकास के लिए रूसी उद्योग में स्थितियाँ काफी अनुकूल थीं। हालाँकि, इस मजदूर वर्ग का एक हिस्सा ऐसा भी था जो अभी भी नाम भर के लिए गाँव में एक छोटी-सी जोत का मालिक था और गाँव से जीवन्‍त सम्पर्क कायम रखता था और साथ ही मन्‍दी या बेरोजगारी के समय गाँव वापस भी चला जाता था। लेकिन यह भी सच है कि बड़े पैमाने के उद्योगों में, विशेषकर बड़े सूत के कारखानों, धातु कार्य के कारखानों और खनन में लगी एक बड़ी आबादी अब पूरी तरह से शहरी बन चुकी थी और गाँव से उसका रिश्ता अब नगण्य ही था। सर्वहारा वर्ग की जीवन स्थितियाँ नारकीय थीं। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 20वीं सदी के दूसरे दशक तक मजदूर वर्ग की भयंकर जीवन स्थितियों का जिक्र तत्कालीन अकादमिक और साहित्यिक रचनाओं में हमें पर्याप्त मात्रा में मिलता है। गोर्की की तमाम रचनाएँ, जैसे कि ‘तलछट’, ‘फोमा गोर्दयेव’ और उनकी तीन खण्डों की जीवनी इसी शहरी सर्वहारा वर्ग के जीवन की दर्दनाक हालत का जीवन्‍त यथार्थवादी चित्रण करती हैं और कई मायने में किसी भी इतिहास या समाजशास्त्र की रचना की बजाय ज्यादा अच्छी तरह से इन हालात का बयान करती हैं। यह मजदूर वर्ग 1895 में पहली बार हड़तालों में उतरा। मजदूर वर्ग की राजनीतिक गतिविधियों की शुरुआत का ब्यौरा हम आगे देंगे, लेकिन पहले क्रान्ति-पूर्व रूस के सामाजिक-आर्थिक विकास के इतिहास लेखन के कुछ विवादास्पद मुद्दों पर आलोचनात्मक चर्चा जरूरी है।

ई.एच. कार का मानना है कि दो अलग रास्तों से हुए पूँजीवादी औद्योगिक विकास के कारण रूसी उद्योगों और मजदूर वर्ग और यूरोपीय उद्योगों और मजदूर वर्ग, दोनों का ही चरित्र काफी अलग था। इस विषय-वस्तु पर हम थोड़ा आगे आएँगे, लेकिन यहाँ सामान्य महत्व की एक बात समझ लेनी चाहिए। आधुनिक विश्व का आर्थिक इतिहास स्पष्टतः उद्योगीकरण के कई रास्तों की मिसालें पेश करता है। लेकिन इन सभी रास्तों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। सबसे पहले जिन देशों में बुर्जुआ जनवादी क्रान्तियाँ हुईं वहाँ पूँजीपति वर्ग नीचे से विकसित हुआ था; दस्तकारी, वर्कशॉपों, गिल्ड व्यवस्था से होते हुए मैन्युफैक्चर और मशीनोफैक्चर या कारखाना व्यवस्था तक की यात्रा तय की गयी थी। यह एक दीर्घकालिक ऐतिहासिक प्रक्रिया थी जो कि यूरोप के कुछ देशों में 11वीं-12वीं सदी से जारी थी। इन देशों में सबसे पहले औद्योगिक क्रान्तियाँ/उद्योगीकरण हुआ। यहाँ पर उद्योगीकरण एक लम्‍बे वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया में हुआ जिसमें उदीयमान उद्यमशील बुर्जुआ वर्ग ने सामन्‍तों को पराजित किया और बुर्जुआ जनवादी राज्यसत्ता और पूँजीवादी व्यवस्था के वर्चस्व को स्थापित किया। पूँजीवादी व्यवस्था के एक विश्व व्यवस्था के तौर पर उभरने के बाद विश्व के जो हिस्से पीछे रह गये थे उनमें उद्योगीकरण का एक अलग रास्ता अपनाया गया। यहाँ पूँजीवादी विकास की अगुवाई एक उद्यमशील उदीयमान बुर्जुआ वर्ग नहीं कर रहा था, बल्कि राज्य और/या बैंक कर रहे थे। ई.एच. कार ने भी इस तथ्य की ओर ध्यानाकर्षित किया है और इससे ही कुछ ऐसे नतीजे निकाले हैं जो कि दिक्कततलब हैं और जिन पर हम आगे अपने विचार रखेंगे। फिलहाल, यह समझना जरूरी है कि इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है कि पहले उद्योगीकृत होने वाले और बाद में उद्योगीकृत होने वाले देशों में उद्योगीकरण के रास्ते अलग थे। यह नैसर्गिक था। जाहिर है कि बाद में उद्योगीकृत होने वाले जर्मनी, जापान या एक बिल्कुल अलग अर्थ में सोवियत संघ को वही रास्ता अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं थी जो कि इंग्लैण्ड या हॉलैण्ड ने अपनाया था। जर्मनी, जापान या बिल्कुल अलग सन्‍दर्भ में सोवियत संघ में पूँजीवादी उद्योगीकरण या तो देशी-विदेशी वित्तीय पूँजी की सहायता से हुआ था, या फिर राज्यसत्ता द्वारा किये गये पूँजी संचय के द्वारा। भारत के सन्‍दर्भ में बात करें तो स्वातन्त्रयोत्तर भारत में भी पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा किये गये पूँजी संचय की सहायता से ही बुर्जुआ वर्ग को उसके पैरों पर खड़ा किया गया और साथ ही विदेशी वित्त पूँजी की भी सहायता लेकर पूँजीवादी उद्योगीकरण किया गया। जैसा कि प्रसिद्ध उक्रेनी-अमेरिकी अर्थशास्त्री अलेक्जैण्डर गर्शेनक्रॉन ने देर से उद्योगीकृत होने वाले देशों के अपने अध्ययनों में दिखलाया था, कई मायने में वे एक लाभ की स्थिति में रहते हैं। उन्हें सभी तकनीकी कुशलताएँ और तौर-तरीके, प्रबन्धन के रास्ते फिर से नहीं ढूँढ़ने होते हैं। एक पूँजीवादी विश्व व्यवस्था के अस्तित्व में आने के बाद तकनीकी ज्ञान, पूँजी, प्रबन्धकीय ज्ञान और कौशल आसानी से राष्ट्रीय सीमाओं के आर-पार जा सकते थे और इन देशों में उद्योगीकरण अभूतपूर्व तेज रफ्तार से हो सकता था। इन देशों में आम तौर पर यह विकास राज्य और/या बैंकों द्वारा किया जाता है। जापान और जर्मनी ने 19वीं सदी के अन्‍त और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में इस बात को सही साबित किया। अलेक्जैण्डर गर्शेनक्रॉन के आर्थिक पिछड़ेपन के लाभ के सिद्धान्‍त को ज्यों का त्यों सोवियत संघ में होने वाले उद्योगीकरण पर तो नहीं लागू किया जा सकता है, लेकिन क्रान्ति से पहले रूस में हुए पूँजीवादी उद्योगीकरण पर एक सीमित अर्थ में यह सिद्धान्‍त लागू होता है। कुछ लोगों ने इसे सोवियत संघ में हुए उद्योगीकरण पर भी लागू करने का प्रयास किया है। लेकिन सोवियत संघ में हुआ उद्योगीकरण वास्तव में सोवियत जनता के अकूत साहस, बलिदान और श्रम के बूते हुआ था। निश्चित तौर पर, इसमें अभिकर्ता राज्यसत्ता थी लेकिन यह राज्यसत्ता मजदूर वर्ग की हिरावल पार्टी के हाथों में थी और सोवियत संघ में हुआ उद्योगीकरण राज्य और/या बैंक द्वारा जनता की इच्छा से स्वतन्त्र ऊपर से किया गया उद्योगीकरण नहीं था। इसलिए पूँजीवादी उद्योगीकरण के अलग-अलग मॉडलों को समझने के लिए गर्शेनक्रॉन के आर्थिक पिछड़ेपन के लाभों का सिद्धान्‍त निश्चित तौर पर फायदेमन्‍द है, लेकिन सोवियत संघ में उद्योगीकरण के तकनीकी पहलू को आंशिक तौर पर व्याख्यायित करने के बावजूद, यह उस महान ऐतिहासिक घटना को सन्‍तोषजनक रूप से स्पष्ट नहीं कर सकता है।

बहरहाल, क्रान्ति से पहले रूस में हुए उद्योगीकरण को यूरोप के कुछ उन्नत देशों में हुए उद्योगीकरण के बरक्स रखते हुए ई.एच. कार ने कुछ दिलचस्प प्रेक्षण सामने रखे हैं। कार अपनी पुस्तक दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन, 1917-23’ के दूसरे खण्ड में लिखते हैं कि रूस में पूँजीवादी विकास वित्तीय पूँजी के जरिये हुआ था, जिसका एक अच्छा-खासा हिस्सा फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी से आता था। यह पूँजीवादी विकास दस्तकारी और गिल्ड व्यवस्था के रास्ते नहीं हुआ था और इसकी अगुवाई करने वाली आबादी का अतीत दस्तकारी में नहीं था, बल्कि वित्तीय पूँजी में था। चूँकि पश्चिमी यूरोप में दस्तकारों की ही एक आबादी पूँजीपति वर्ग में और दूसरा हिस्सा सर्वहारा वर्ग में तब्दील हुआ था इसलिए वहाँ का मजदूर वर्ग अभी भी अपने शहरी दस्तकारी के अतीत की स्मृतियों से जुड़ा हुआ था, और उसके भीतर ‘‘पूँजीवाद के फलों’’ में भरोसा था। कार आगे लिखते हैं कि रूस का मजदूर वर्ग इससे बिल्कुल भिन्न था। उसका ग्रामीण किसान अतीत उससे अभी बहुत दूर नहीं हुआ था और शहरों में प्रवासी औद्योगिक मजदूर बनने के बाद भी वह गाँव और किसान वर्ग से करीबी से जुड़ा हुआ था। यह मजदूर वर्ग किसानों की उस विशाल बहुसंख्या से जुड़ा हुआ था जो कि भूस्वामियों और जारशाही का भयंकर दमन झेल रहा था। यह पश्चिम के मजदूर वर्ग के समान शिक्षित, कुशल और पूँजीवादी जनवाद के फलों में यकीन रखने वाला मजदूर वर्ग नहीं था, बल्कि एक ऐसा मजदूर वर्ग था जो कुछ दशकों या यहाँ तक कि कुछ वर्षों पहले तक किसान था और किसानों से बहुत करीबी से जुड़ा हुआ भी था; तमाम मजदूर ऐसे थे जो मन्‍दी के दौरान या निकाले जाने पर गाँव वापस चले जाते थे और खेती में लग जाते थे। कार के मुताबिक इस विशेष चरित्र के कारण रूस में मजदूरों और किसानों के हितों में काफी हद तक समानता थी और ठीक इसीलिए यहाँ पर क्रान्तिकारी प्रचार के लिए ज्यादा मुफीद जमीन मौजूद थी। यानी, अगर रूस का मजदूर वर्ग भी यूरोप के मजदूर वर्ग के समान दस्तकारी की जमीन से पैदा हुआ होता और किसान अतीत रखने वाला न होता, अति-शोषित न होता, किसान वर्ग से करीबी रखने वाला न होता तो उसमें क्रान्तिकारी प्रचार का असर कम होता और एक क्रान्तिकारी मजदूर आन्‍दोलन खड़ा हो पाना मुश्किल होता। कार के तर्क के अनुसार यूरोप का मजदूर वर्ग क्रान्तिकारी इसलिए नहीं था क्योंकि उसने पूँजीवाद के फल अगर चखे नहीं तो कम-से-कम देखे थे क्योंकि मध्यकालीन और उत्तर-मध्यकालीन दस्तकार वर्ग की ही एक अल्पसंख्या पूँजीपति वर्ग में तब्दील हुई थी और बाकी हिस्सा सर्वहारा वर्ग में तब्दील हुआ था; यह मजदूर वर्ग भी शिक्षित, कुशल और शहरी था, किसान वर्ग से अलग था। इसलिए वहाँ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी प्रचार का मजदूर वर्ग में वह असर नहीं होने वाला था जो कि रूस में हुआ।

ई.एच. कार का यह पूरा विश्लेषण कई स्तरों पर गलत है। तथ्यात्मक तौर पर दिये गये ब्यौरे में कहीं कोई कमी नहीं है और वह एकदम सटीक है। लेकिन विश्लेषण विचारधारा-अन्धता के कारण कई स्तरों पर भयंकर गलतियाँ करता है। मिसाल के तौर पर, यूरोप का ही मजदूर वर्ग था जिसने साम्राज्यवाद के प्रभावी परिघटना में तब्दील हो जाने के ठीक पहले इन्हीं उन्नत पश्चिमी पूँजीवादी देशों में पूँजीवाद-विरोधी क्रान्तिकारी आन्‍दोलन खड़े किये थे। चाहे वह 1848 की यूरोपीय क्रान्तियाँ हों जिसमें सर्वहारा वर्ग ने पहली बार पूँजीवाद-विरोधी क्रान्ति के प्रयास किये थे, या फिर 1871 का पेरिस कम्यून हो। ये मजदूर वर्ग के आर्थिक आन्‍दोलन नहीं थे, बल्कि राजनीतिक आन्‍दोलन थे और सत्ता का प्रश्न उठाते थे। और इस समय तो कोई सुगठित कम्युनिस्ट पार्टी भी नहीं मौजूद थी जो इस मजदूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी प्रयास करती। साथ ही, दस्तकारी के अतीत से भी यह मजदूर अब आगे आ चुका था और पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग में विभाजित हो चुका था। समान वर्ग मूल रखने के बावजूद उदीयमान सर्वहारा वर्ग ने नये बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ अपनी जंग छेड़ दी थी। यदि, कार के शब्दों में पूँजीवाद के फलों में भरोसायूरोपीय मजदूर वर्ग को क्रान्तिकारी आन्‍दोलन की ओर जाने से रोकता तो वह 1840 के दशक से लेकर 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध तक भी उस मजदूर वर्ग को पूँजीवाद-विरोधी बगावतों की ओर जाने से रोकता। पश्चिमी यूरोप और विशेष तौर पर जर्मनी और फ्रांस के मजदूर वर्ग की क्रान्तिकारी सम्भावनाओं के क्षीण पड़ने के पीछे मजदूर वर्ग और पूँजीपति वर्ग के समान वर्ग मूल का होना (जर्मनी में तो ऐसा पूरी तरह था भी नहीं) या फिर ‘पूँजीवाद के फलों में भरोसा होना’ नहीं था। इसका कारण 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में वित्त पूँजी का पूँजी के संघटन में निर्णायक तौर पर हावी होना और साम्राज्यवाद के दौर की शुरुआत होना था। लेनिन ने दूसरे इण्टरनेशनल का पतन’, ‘सर्वहारा क्रान्ति और गद्दार काऊत्स्की’, ‘साम्राज्यवाद : पूँजीवाद की चरम अवस्था’, ‘तथाकथित बाजार प्रश्न पर आदि जैसी रचनाओं में साम्राज्यवाद के उदय, कुलीन मजदूर वर्ग और संशोधनवाद के उदय के बीच के सम्‍बन्‍धों को स्पष्ट किया है। पश्चिमी यूरोपीय पूँजीवाद के मॉडल में नैसर्गिक तौर पर कुछ ऐसा नहीं था कि उसने क्रान्तिकारी सम्भावना खो दी थी; यह साम्राज्यवाद के दौर की एक विशिष्टता थी जिसके कारण यूरोप का मजदूर आन्‍दोलन संशोधनवाद और सुधारवाद के गड्ढे में जा गिरा था। इंग्लैण्ड में कुलीन श्रमिक वर्ग का उद्भव पहले होता है, क्योंकि वित्तीय पूँजी और साम्राज्यवाद के मामले में भी यह देश सबसे आगे और सबसे पहले था। यहाँ पर मजदूर आन्‍दोलन के ही एक हिस्से के पूँजीवादीकरण के बारे में तो एंगेल्स ने ही लिखा था। ई.एच. कार साम्राज्यवाद की परिघटना और यूरोपीय मजदूर आन्‍दोलन पर उसके प्रभाव को समझने में पूरी तरह से असफल रहे हैं। इसी कारण से कार समाजवाद का एक पूर्वी और औपनिवेशिक, अर्द्धऔपनिवेशिक या पिछड़े देशों की परिघटना के रूप में सारभूतीकरण (एसेंशियलाइजेशन) या नैसर्गिकीकरण (नैचुरलाइजेशन) करते हैं। वास्तव में, कुछ जगहों पर यह विश्लेषण तथ्यात्मक गलतियाँ भी करता है। मिसाल के तौर पर, पूरा का पूरा सर्वहारा वर्ग इंग्लैण्ड, फ्रांस या जर्मनी में भी सिर्फ दस्तकारों के बीच से पैदा नहीं हुआ था। इन सभी देशों में अलग-अलग समय पर बाड़ेबन्‍दी के कानूनों के जरिये कृषि में लगी अतिरिक्त आबादी को उद्योगों में काम करने के लिए मुक्त किया गया था और उनका सर्वहाराकरण किया गया था। इसलिए इन सभी देशों में 19वीं सदी के अन्‍त में जो सर्वहारा वर्ग मौजूद था, उसका अच्छा-खासा हिस्सा विकिसानीकृत (depeasantize) होकर आया था और उसका अतीत दस्तकारी में नहीं बल्कि कृषि में था। इस पूरे उदाहरण में भी हम देख सकते हैं कि ई.एच. कार का पूरा विश्लेषण विचारधारा के प्रति एक सन्‍देह रखने और तथ्यों और आनुभविक सामग्री के प्रति अति-आग्रह रखने के कारण एक बड़ी भूल करता है।

रूस का परिवहन तन्त्र 1880 से 1910 के दशकों के बीच अच्छा-खासा विकसित हुआ। इसी बीच 4000 मील लम्‍बी ट्रांस-साइबेरिया रेलवे लाइन का निर्माण हुआ था। रेलवे का करीब दो-तिहाई हिस्सा सरकार के नियन्त्रण में था। देश के अन्य हिस्सों में भी 1914 तक रूस में 48 हजार मील की रेलवे लाइनें बन चुकी थीं। अलग से देखा जाये तो 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से लेकर 20वीं सदी के पहले दशक तक रेलवे का विकास विचारणीय था, लेकिन कुल मिलाकर यह पश्चिमी यूरोप के लगभग हर देश से पीछे था। सड़कों के मामले में भी रूस अभी बहुत पीछे था। मॉरिस डॉब ने अपनी पुस्तक ‘सोवियत इकोनॉमिक डेवलपमेण्ट सिंस 1917’ में दिखलाया है कि सड़क परिवहन के मामले में रूस 1910 के दशक में वहीं खड़ा था, जहाँ इंग्लैण्ड अट्ठारहवीं सदी के अन्‍त तक पहुँचा था।

जहाँ तक व्यापार का प्रश्न है तो रूस मूलतः अनाज और कच्चे माल का निर्यात करता था और उत्पादित मैन्युफैक्चर किये गये मालों का मुख्य रूप से आयात करता था। रूस पूँजी के आयात और निर्यात के मामले में मुख्य तौर पर पूँजी का आयातक था। पूँजी का कुल आयात पूँजी के कुल निर्यात से कहीं ज्यादा था। रूस उस समय पूरे पश्चिमी यूरोप के गेहूँ के करीब एक तिहाई की आपूर्ति करता था। अन्य खाद्यान्नों के निर्यात में भी रूस की स्थिति अग्रणी थी। खाद्यान्न निर्यात रूस के कुल निर्यात का करीब 50 फीसदी था, जबकि अन्य कच्चे मालों व अर्द्धनिर्मित मालों का निर्यात करीब 36 फीसदी था। रूस में कृषि में जो विकास 19वीं सदी में हुआ था उसके लिए निर्यातोन्मुख अर्थव्यवस्था काफी हद तक जिम्मेदार थी। लेकिन मॉरिस डॉब का जोर इस निर्यात के बाह्य कारक पर थोड़ा ज्यादा है। रूस में कृषि के विकास का एक कारण यह भी था कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से औद्योगिक विकास में जो तेजी आयी और भूदास प्रथा के उन्मूलन के साथ पैदा होने वाले विशाल भूमिहीन मजदूरों के वर्ग के एक हिस्से के शहरों की ओर पलायन के कारण शहरों की कुल आबादी में जो बढ़ोत्तरी हुई, उसका पेट भरने के लिए कृषि उत्पादन को बढ़ाना जरूरी था। इसलिए निर्यात के साथ-साथ यह आन्‍तरिक कारण भी रूसी कृषि में होने वाले परिवर्तनों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार था। रूस में उत्पादित मालों का बाजार सीमित था। यह मात्र पश्चिमी रूस के कुछ बड़े शहरों और औद्योगिक केन्‍द्रों तक सिमटा हुआ था। खैर, इन उत्पादित मालों का बड़ा हिस्सा आयात के जरिये आता था। बीसवीं सदी के पहले दशक के खत्म होने तक रूस मूल रूप से खाद्यान्न और कच्चे माल का निर्यातक और उत्पादित मालों और पूँजी का आयातक था। विदेशी पूँजी निवेश का ब्यौरा हम ऊपर दे आये हैं। वित्तीय पूँजी के क्षेत्र में भी अगर विदेशी निवेश की बात करें तो हम पाते हैं कि रूस के 18 अग्रणी जॉइण्ट स्टॉक बैंकों की कुल पूँजी का करीब 42 फीसदी विदेशी पूँजी था। इसमें प्रमुख हिस्सा उस समय फ्रांस और जर्मनी का था। लेकिन इस पूरे चित्रण से ऐसा जाहिर नहीं होना चाहिए कि रूस की स्थिति पश्चिमी यूरोप के उन्नत देशों के बरक्स एक अर्द्धउपनिवेश की थी। मॉरिस डॉब ने ठीक ही लिखा है कि इन उन्नत देशों की तुलना में रूस की स्थिति अगर अर्द्धऔपनिवेशिक जैसी दिखती है तो दूसरी ओर दक्षिणी-पूर्वी यूरोप, मध्य एशिया और सुदूर पूर्व के देशों के लिए उसकी स्थिति एक साम्राज्यवादी शक्ति की थी। इन देशों में सैन्य हस्तक्षेप और कब्जे के अलावा रूस का छोटा किन्‍तु संगठित पूँजीपति वर्ग इन देशों के बाजारों में निवेश कर रहा था, पूँजी का निर्यात कर रहा था और उत्पादित माल भी बेच रहा था। 1905 में लिखते हुए लेनिन ने कहा था कि रूस में राज्यसत्ता पर जार के नेतृत्व में मुट्ठी भर सामन्‍तों का कब्जा है जो कि विशाल वित्तीय पूँजीपतियों के साथ मिलकर देश पर शासन कर रहे हैं। यही कारण है कि रूस की जारशाही और उसकी नीतियों का चरित्र ‘‘सैन्य-सामन्‍ती’’ है। लेनिन के शब्दों में रूस की अर्थव्यवस्था उस समय अत्यधिक उन्नत पूँजीवाद व साम्राज्यवाद तथा प्राक्-पूँजीवादी सम्‍बन्‍धों का एक मिश्रण है जिसमें बेहद पिछड़ी कृषि और आदिम गाँव बेहद उन्नत उद्योग व वित्तीय पूँजी के साथ सह-अस्तित्वमान हैं। जाहिर है कि 1916 आते-आते रूस का पूँजीवादी विकास काफी अधिक हो चुका था। 1906 में स्तोलिपिन के सुधार कानूनों के आने के बाद पूँजीवादी विकास ने रूस में और तीव्र गति पकड़ ली थी। स्तोलिपिन, सर्गेई विट्टे जैसे लोगों को जार के मन्त्रीमण्डल में नियुक्त किया जाना, दूमा के राजनीतिक प्रभाव का बढ़ना श्रम विनियमनों का आना, यह सब दिखलाता था कि निरंकुश राजशाही तन्त्र में बुर्जुआ वर्ग का प्रभाव धीरे-धीरे विस्तारित हो रहा है, या कहें कि उसमें उसकी हिस्सेदारी बढ़ रही है।

यहाँ दो सामान्य महत्व की बातों पर ध्यान देना जरूरी है : पहली बात यह कि निरंकुश राज्यसत्ता के वर्ग चरित्र को लेकर एक बहस मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त के अन्‍दर मौजूद है। पेरी एण्डरसन ने अपनी पुस्तक लीनियेजेज ऑफ दि एब्सॉल्यूटिस्ट स्टेट में यह दावा किया था कि मार्क्‍स और एंगेल्स ने निरंकुश राज्यतन्त्र को सामन्‍ती न मानकर मुख्यतः पूँजीवादी माना है और यह उनकी भूल थी क्योंकि इतिहास दिखलाता है कि निरंकुश राज्यतन्त्र का वर्ग चरित्र मूलतः सामन्‍ती था। लेकिन यह पूरा तर्क तथ्यतः भी गलत है और पद्धति के धरातल पर भी। हमें मार्क्‍स और एंगेल्स के लेखन में दोनों ही प्रकार के निरंकुश राज्यतन्त्रों का ब्यौरा मिलता है; एक, जहाँ पूँजीपति वर्ग राज्यसत्ता पर हावी हो चुका था और दूसरा जहाँ अभी भी सामन्‍ती भूस्वामियों का वर्ग राज्यसत्ता पर मुख्य रूप से काबिज था, हालाँकि पूँजीपति वर्ग भी उसमें हिस्सेदार बन चुका था। वास्तव में, निरंकुश राज्यतन्त्र जिस प्रकार का स्वायत्त बर्ताव करते थे उससे कई बार ऐसा दृष्टिभ्रम पैदा हो जाता था, मानों वे वर्गेतर हों। एंगेल्स ने ‘परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ में लिखा था, ‘‘…प्राचीन काल का राज्य सर्वप्रथम दासों को दबाकर रखने के उद्देश्य से बना दास-स्वामियों का राज्य था, जैसे कि सामन्‍ती राज्य भूदासों और बंधुआ आबादी के शोषण का एक उपकरण था और आधुनिक प्रातिनिधिक राज्य पूँजी द्वारा उजरती श्रम के शोषण का एक उपकरण है। यद्यपि, अपवादस्वरूप, ऐसे काल आते हैं जब युद्धरत वर्ग एक दूसरे को इस कदर करीबी से सन्‍तुलित करते हैं कि राज्यसत्ता, एक प्रतीतिगत मध्यस्थ के रूप में, क्षण भर के लिए दोनों से ही एक निश्चित हद तक स्वतन्त्रता हासिल कर लेती है। सत्रहवीं और अट्ठारहवीं सदी के निरंकुश राज्यतन्त्र ऐसे ही थे जो कि कुलीन वर्ग और बर्गरों के वर्ग के बीच सन्‍तुलन रखते थे; पहले और उससे भी ज्यादा दूसरे फ्रांसीसी साम्राज्य का बोनापार्तवाद भी ऐसा ही था, बुर्जुआ वर्ग को सर्वहारा वर्ग से और सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ वर्ग से भिड़ा देता था।’’ (एंगेल्स, परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति, 1978, फॉरेन लैंगुएजेज प्रेस, पीकिंग, पृ. 208, अंग्रेजी संस्करण, अनुवाद हमारा) इसी प्रकार के निरंकुश राज्यसत्ता के नवीनतम उदाहरण के तौर पर बिस्मार्क के दौर के जर्मनी की बात एंगेल्स ने आगे की है। रूस में जो निरंकुश राज्यतन्त्र आया वह हूबहू ऐसा नहीं था। इतिहास में कभी घटनाओं का हूबहू दुहराव नहीं होता। रूसी निरंकुश राज्य की अपनी विशिष्टताएँ थीं। लेकिन निरंकुश राज्यसत्ता दोनों ही वर्गों के प्रतीतिगत सन्‍तुलन को क्षण भर के लिए दिखला सकती है। अन्‍ततः उस पर या तो सामन्‍ती वर्ग को हावी होना होता है या फिर बुर्जुआ वर्ग को। चूँकि इस राज्यसत्ता में दोनों ही वर्गों की हिस्सेदारी होती है ठीक इसीलिए निरंकुश राज्यसत्ता कई बार इन वर्गों के बीच की मध्यस्थ प्रतीत होती है। निरंकुश राज्यसत्ता अक्सर एक तरल और संक्रमणशील ऐतिहासिक दौर में बदलते वर्ग शक्ति सन्‍तुलन का प्रतीक होती है। रूस में भी सामन्‍त वर्ग और पूँजी की शक्तियों के बीच के बदलते शक्ति सन्‍तुलन को जार की सत्ता अभिव्यक्त करती थी। इस सन्‍तुलन में धीरे-धीरे पलड़ा एक ओर से दूसरी ओर झुकता गया। इस प्रक्रिया के अपने अन्‍तर्विरोध होते हैं और बुर्जुआ वर्ग का पलड़ा भारी होते ही पारम्परिक राजतन्त्र के भीतर बुर्जुआ राजनीतिक व्यवस्था का उत्तरोत्तर विकास असम्भव हो जाता है। इसलिए या तो राजतन्त्र एक प्रतीकात्मक चीज बनकर रह जाती है, जैसा कि इंग्लैण्ड में हुआ; या फिर जर्मनी या रूस जैसी स्थिति पैदा होती है जब पूँजीपति वर्ग भूतपूर्व सामन्‍ती भूस्वामियों (जो कि अब पूँजीवादी युंकर/कुलक में तब्दील हो चुके हैं) के साथ मिलकर एक ऐसी बुर्जुआ क्रान्ति या क्रमिक सुधार करता है जिसमें जनवादी कुछ भी नहीं होता; मजदूरों और व्यापक किसान आबादी को कुछ भी नहीं मिलता। रूस में काफी हद तक ऐसा ही हुआ था।

दूसरी बात जो यहाँ समझना जरूरी है वह यह कि इस प्रकार के संक्रमण दो शोषणकारी व्यवस्थाओं, दो शोषणकारी वर्गों के बीच हो सकते हैं। ग्‍यॉर्गी लूकाच ने लिखा था कि बुर्जुआ क्रान्तियाँ अभूतपूर्व सुगमता (with brilliant élan) के साथ आगे बढ़ती हैं क्योंकि एक पुरानी शोषणकारी व्यवस्था के गर्भ में ही नयी शोषणकारी व्यवस्था का आर्थिक और भौतिक विकास काफी हद तक हो चुका होता है; बुर्जुआ क्रान्तियों को केवल राजनीतिक परिवर्तनों को अंजाम देना होता है; लूकाच के शब्दों में उन्हें बस कानून पास करने होते हैं। इन क्रान्तियों के सम्पन्न होने के लिए कोई उथल-पुथलकारी, हिंस्र विद्रोह या इंसरेक्शन (सशस्त्र विद्रोह) होना अनिवार्य नहीं होता। कई बार किसी एक विशाल आमूलगामी विद्रोह या उथल-पुथल की कोई प्रक्रिया घटित नहीं होती और यह कई दशकों के छोटे-मोटे उथल-पुथल (जो कानूनों, विनियमनों, छोटे विद्रोहों के रूप में हो सकती है) के रूप में विस्तारित होती है। ऐसी प्रक्रिया जाहिरा तौर पर पूँजीवाद के इने-गिने सकारात्मक ही लाती है, नकारात्मक ज्यादा देती है। जैसा कि मार्क्‍स ने एक बार मजाक में कहा था, ‘‘जर्मनी में हम पूँजीवाद के विकास से उतना पीड़ित नहीं हैं, जितना कि पूँजीवाद का विकास न होने से।’’ इस रूपक से मार्क्‍स का इशारा पूँजीवादी रूपान्‍तरण के उस रास्ते से है जो कि किसी जनवादी क्रान्ति द्वारा सम्पन्न नहीं होता, बल्कि एक पीड़ादायी, दीर्घकालिक और क्रमिक प्रक्रिया में सम्पन्न होता है और जिसमें पूँजीवाद के सकारात्मक जनसमुदायों को हासिल नहीं होते, लेकिन नकारात्मक सारे मिलते हैं। रूस में काफी हद तक ऐसा ही हुआ था। फरवरी क्रान्ति के दस माह बाद ही सर्वहारा क्रान्ति के होने के पीछे युद्ध, भूख और सोवियतों के स्वतःस्फूर्त उदय के अलावा एक कारण यह भी था कि एक अपूर्ण किस्म की जनवादी क्रान्ति को फरवरी क्रान्ति के बाद बनी बुर्जुआ सरकार पूर्णता तक पहुँचाने में अक्षम थी, क्योंकि इस सरकार का वर्ग चरित्र पूँजीपति-युंकर गठजोड़ था। पूँजीपति वर्ग अब भूस्वामी वर्ग से शक्ति सन्‍तुलन में आगे निकल चुका था लेकिन पूँजीपति वर्ग का नेतृत्व यह समझता था उसकी शक्ति अभी इतनी भी ज्यादा नहीं थी कि वह भूस्वामी वर्ग के खिलाफ चलायमान युद्ध छेड़ पाता और साथ ही वह आम मेहनतकश जनता की क्रान्तिकारी पहलकदमी के खुलने से भयभीत भी था। और यही कारण था कि लेनिन ने ‘अप्रैल थीसीज’ में स्पष्ट किया कि रूस आने वाली आपदा से सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति के रास्ते ही बच सकता है।

1860 के दशक से लेकर 1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने के समय तक रूस की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के इस संक्षिप्त ब्यौरे और इससे जुड़े इतिहास-लेखन की कुछ समस्याओं पर आलोचनात्मक विवेचन के बाद हम रूस में मजदूर आन्‍दोलन, किसान विद्रोहों के शुरू होने और इस दौरान प्रमुख राजनीतिक रुझानों पर चर्चा कर सकते हैं। रूस में मजदूर आन्‍दोलन और किसान विद्रोहों की शुरुआत का संक्षिप्त विवरण के बाद राजनीतिक विकास का जो ब्यौरा हम पेश करेंगे, उसमें हमारा जोर रूस में कम्युनिस्ट आन्‍दोलन के विकास और पार्टी के जन्म और विकास पर होगा। खास तौर पर 1895 से लेकर 1917 तक कम्युनिस्ट आन्‍दोलन और पार्टी के विकास की पूरी प्रक्रिया को समझना बेहद जरूरी है। हमारा मानना है कि क्रान्ति के बाद विशेष तौर पर 1917 से लेकर 1923 तक और उसके बाद भी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर राज्य, पार्टी और वर्ग के बीच के रिश्तों को लेकर जो गम्‍भीर बहसें चलीं, उसे समझने के लिए क्रान्ति से पहले दो लाइनों के संघर्ष के उस पूरे इतिहास को समझना बेहद जरूरी है, जिसके जरिये पार्टी विकसित हुई। पार्टी के भीतर ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव और दक्षिणपन्‍थी अवसरवाद के बीच के संघर्ष के जरिये ही लेनिनवादी अवस्थिति निःसृत हुई और इसके बाद भी यह लेनिनवादी कार्यदिशा लगातार ‘‘वामपन्‍थी’’ और दक्षिणपन्‍थी भटकावों से सतत् संघर्षरत रही। सोवियत रूस (आर.एस.एफ.एस.आर.) में और फिर सोवियत संघ में समाजवादी संक्रमण की समस्याओं को समझने का सबसे उपयुक्त तरीका हमारे विचार में यही होगा कि पार्टी के भीतर सतत् जारी दो लाइनों के संघर्ष को समझा जाये और यह समझा जाये कि इस संघर्ष में समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ और उनके प्रति अप्रोच किस रूप में प्रतिबिम्बित हो रहे थे। यह बात भी अहम है कि इन संघर्षों को महज उस समय की विशिष्ट समस्याओं पर चलने वाली बहसों के रूप में समझने की बजाय सामान्य ऐतिहासिक, विचारधारात्मक और राजनीतिक महत्व रखने वाले मुद्दों पर चली बहसों के रूप में समझा जाये। अन्यथा, इन बहसों का महत्व ऐतिहासिक आकस्मिकता के दायरे में सिमट कर रह जाता है जबकि वास्तव में ये बहसें किसी भी देश में समाजवादी संक्रमण के दौरान सही अवस्थिति के निःसरण के लिए बेहद महत्वपूर्ण हैं।

  1. फरवरी क्रान्ति से पहले रूस में किसान विद्रोह, मजदूर आन्‍दोलन और प्रारम्भिक राजनीतिक आन्‍दोलन व संगठन

जैसा कि हम ऊपर विवरण दे चुके हैं, रूस में प्रशियाई पथ से हुए भूमि सुधार ने सामन्‍ती भूस्वामियों को ही पूँजीवादी भूस्वामियों में तब्दील होने का अवसर दिया। भूदासों की मुक्ति के बाद जिन शर्तों पर किसानों को मुक्त किया गया था और जमीनें दी गयी थीं, वे ऐसी थीं कि उन किसानों का भूमिहीन मजदूरों में तब्दील हो जाना या फिर निर्भर किसान आबादी या अर्द्धसर्वहारा आबादी में तब्दील हो जाना अवश्यम्भावी था। किसानों को अपनी मुक्ति के एवज में अपने सामन्‍ती भूस्वामी को एक रकम अदा करनी पड़ती थी। आम तौर पर यह रकम इतनी ज्यादा होती थी कि किसानों को इन भूस्वामियों की भूमि पर श्रम करके चुकानी पड़ती थी, या फिर अपनी जमीनें खोकर। जमीन का एक अधूरा और निष्प्रभावी पुनर्वितरण सीमित रूप में हुआ लेकिन उत्पादन के अन्य साधनों जैसे कि पशुधन, कृषि के उपकरण आदि का कोई पुनर्वितरण या जब्ती नहीं हुई। नतीजतन, कुछ इलाकों में यदि किसानों को कुछ जमीनें हासिल भी हुईं तो उस पर खेती करने के लिए न तो उनके पास घोड़े थे, न हल और न ही पूँजी। वास्तव में, उत्पादन के अन्य साधनों के पुनर्वितरण की माँग को किसानों या उनके भावी राजनीतिक प्रतिनिधियों ने कभी उठाया ही नहीं, जो कि किसान आन्‍दोलन में राजनीतिक चेतना की दुर्वस्था का प्रतीक था। लेकिन अभी हम इस विवरण में जाने की बजाय 1861 से 1907-8 तक किसानों पर इस क्रमिक प्रक्रिया से होने वाले भूमि सुधार के असर पर अपनी चर्चा केन्द्रित करेंगे। भूमि सुधार का असर पूरे रूस में एकसमान नहीं था। अलग-अलग इलाकों में यह अलग-अलग तरीके से लागू हुआ और इसके प्रभावों में भी वैविध्य रहा। लेकिन इस सारे वैविध्य के बावजूद किसान आबादी को इन भूमि सुधारों से कुछ खास हासिल नहीं हुआ। दूसरी तरफ जिन सामन्‍ती भूस्वामियों ने अपने आपको पूँजीवादी कुलक में तब्दील करने में दिलचस्पी नहीं दिखलायी वे भी एक क्रमिक प्रक्रिया में समाप्त हो गये। 1906 के स्तोलिपिन सुधार कानून ने रूसी ग्राम समुदाय मीर के बन्धनों से किसानों को अलग होने की आजादी दी; लेकिन इसका लाभ भी जाहिरा तौर पर पूँजीवादी कुलकों और धनी किसानों के छोटे-से वर्ग को ही मिलना था, जिसका कि अब ग्राम समुदाय की चौहद्दियों में दम घुटने लगा था। स्तोलिपिन का मकसद था कि खेती के संकट को खत्म करने के लिए ग्रामीण बुर्जुआ वर्ग को मुक्त किया जाये; भूमि सुधार को कोई रैडिकल स्वरूप देना उसका मकसद कतई नहीं था। यह बात दीगर है कि इसके बाद कुछ वर्षों तक खेती के क्षेत्र में आयी तेजी को छोड़ दें तो रूसी कृषि का ढाँचागत संकट समाप्त नहीं हुआ और 1913 आते-आते फिर से रूस के गाँवों में किसान विद्रोहों की आग भड़कने लगी थी। इस प्रकार से हुए भूमि सुधारों ने करोडों किसानों के जीवन को नारकीय स्थिति में पहुँचा दिया था और 1890 के दशक से किसानों के विद्रोहों की बारम्बारता में बढ़ोत्तरी और 1905 की असफल रूसी क्रान्ति के दौरान इनका शीर्ष पर पहुँचना इन्हीं जीवन स्थितियों के कारण हुआ था।

उन्नीसवीं सदी के अन्‍त तक केवल दो-तिहाई किसान परिवारों के पास खेती के लिए घोड़े थे, और उनमें से भी अधिकांश के पास एक या दो घोड़े हुआ करते थे, जो अगर किसी वजह से मर जाते थे तो जमीन होने के बावजूद किसान के पास मजदूरी करने या फिर किराये पर धनी किसानों या कुलकों से घोड़े लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था। कृषि के उपकरणों या पशुओं के लिए धनी किसानों और कुलकों द्वारा लिया जाने वाला किराया इतना ज्यादा होता था कि किसान जल्द ही ऋण के तले दब जाता था, या निर्भर किसान में तब्दील होकर धनी किसानों व कुलकों के खेतों पर श्रम करता था, या फिर जमीन बेच कर पूरी तरह खेतिहर मजदूर या औद्योगिक मजदूर में तब्दील हो जाता था। 1895 में यूरोपीय रूस के 46 प्रान्‍तों के सर्वेक्षण में पता चला कि आधे से अधिक किसानों को भर पेट भोजन भी नहीं मिल पाता है। किसानों की खेती से औसत वार्षिक आय 150 से 180 रूबल के बीच थी। इन्हीं जीवन स्थितियों और कुलकों और धनी किसानों के हाथों होने वाले शोषण के खिलाफ 1890 के दशक के उत्तरार्द्ध से किसान विद्रोहों ने गति पकड़ी और 1905 में किसान विद्रोहों की लहर ने रूस के अच्छे-खासे हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया था। कहने की जरूरत नहीं कि ये किसान विद्रोह राजनीतिक चेतना की कमी का शिकार थे और अक्सर उनके निशाने पर पूरी जारशाही नहीं बल्कि स्थानीय भूस्वामी हुआ करते थे। लेकिन धीरे-धीरे उनमें राजनीतिक चेतना प्रवेश कर रही थी। 1905 की रूसी क्रान्ति के समय तक किसान आन्‍दोलन में समाजवादी-क्रान्तिकारियों का असर पर्याप्त हो चुका था और वे अपने भूमि सुधार के कार्यक्रम के इर्द-गिर्द किसानों को एक हद तक संगठित कर रहे थे। 1905 की क्रान्ति मजदूर आन्‍दोलन और किसान विद्रोहों के बीच तालमेल का पहला प्रयास था जो कि बहुत व्यवस्थित नहीं था। अभी मजदूर वर्ग का हिरावल भी बहुत व्यवस्थित तरीके से विचारधारात्मक और राजनीतिक तौर पर संगठित नहीं हो पाया था।

मजदूर वर्ग की स्थिति की चर्चा हम संक्षेप में ऊपर कर चुके हैं। ज्यादातर मजदूर मुक्त हुए भूदास थे और जहाँ कहीं नियोक्ता राज्यसत्ता नहीं थी, वहाँ अधिकांश पूँजीपति वास्तव में भूतपूर्व सामन्‍त थे। मान्या गॉर्डन ने अपनी पुस्तक वर्कर्स बिफोर एण्ड आफ्टर लेनिन में लिखा है कि वास्तव में इन औद्योगिक मजदूरों का शोषण किसी भी रूप में भूदासों के शोषण से कम नहीं था। मजदूरों पर पूँजीपति मनमाने तरीके से जुर्माने लगाते थे और उनके विरुद्ध मजदूर कुछ भी नहीं कर सकते थे। 12 घण्टे का कार्यदिवस अपवाद था क्योंकि अधिकांश जगहों पर मजदूर 13 घण्टे से ज्यादा काम करते थे। मजदूरों को उनके काम के लिए भुगतान साल में दो या चार बार किया जाता था। उन्नीसवीं सदी के मध्य में इस शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध पहली बार मजदूरों ने आवाज उठानी शुरू की। लेकिन अभी ये मजदूर बगावतें स्वतःस्फूर्त थीं और आम तौर पर कारखाने में तोड़-फोड़ आदि जैसी गतिविधियों तक सीमित थीं। 1870 के दशक के अन्‍त से मजदूरों ने हड़तालें शुरू कीं और 1880 के दशक में इन हड़तालों की बारम्बारता तेजी से बढ़ी। 1881 से 1886 के बीच 48 हड़तालें हुईं जो कि उस समय के मानकों से काफी ज्यादा मानी जाएँगी और खास तौर पर इसलिए भी क्योंकि रूस में विशालकाय औद्योगिक इकाइयाँ ज्यादा थीं, जिनमें मजदूर अक्सर हजारों की संख्या में काम करते थे। लेकिन अभी भी यह मजदूर आन्‍दोलन पूर्णतः स्वतःस्फूर्त ही था। रूसी इतिहास के लगभग सभी प्रमुख अध्येता इस बात पर सहमत हैं कि 1893 से पहले रूसी मजदूर आन्‍दोलन में सामाजिक-जनवादियों या अन्य रैडिकल ग्रुपों का कोई असर नहीं था। 1890 के दशक से पहले रूस का क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी वर्ग अपनी राजनीतिक गतिविधियों को मुख्य तौर पर किसानों के बीच केन्द्रित कर रहा था। इसी मध्यवर्गीय क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी वर्ग के बीच से पहला आतंकवादी राजनीतिक ग्रुप नरोद्नाया वोल्या पैदा हुआ था, जो कि रूस में किसान आबादी को भावी समतामूलक व्यवस्था की नेतृत्वकारी ताकत मानता था और मानता था कि आने वाले समय में अपने समतामूलक ग्राम समुदाय मीर के बूते रूस पूँजीवाद के चरण को लाँघकर समाजवादी व्यवस्था में प्रवेश कर जायेगा। इसी ग्रुप के राजनीतिक उत्तराधिकारी थे रूस के समाजवादी-क्रान्तिकारी जिन पर हम आगे चर्चा करेंगे। 1890 के दशक में बड़े पैमाने पर उद्योगीकरण के कारण शहरों में एक विशाल मजदूर वर्ग पैदा हुआ और इनमें से एक अच्छी-खासी आबादी ऐसी थी, जो पूरी तरह शहरी बन चुकी थी। यह नया सर्वहारा वर्ग नये राजनीतिक अप्रोच और नये राजनीतिक संगठन की माँग कर रहा था। नतीजतन, 1890 के दशक में पहला सामाजिक जनवादी प्रकाशन नया युग प्रकट होता है और पहले सामाजिक-जनवादी समूह रूस के अलग-अलग शहरों में बनना शुरू होते हैं। इनका ब्यौरा हम आगे देंगे, लेकिन पहले मजदूर आन्‍दोलन में सामाजिक-जनवादी चेतना के प्रवेश के प्रभाव पर बात करना उपयोगी होगा।

1895 की हड़तालों में सामाजिक-जनवादियों की मौजूदगी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती थी। इन हड़तालों के विरुद्ध जारशाही ने बर्बर दमन का रुख अपनाया। लेकिन इसके बावजूद इनकी दर बढ़ती गयी। 1881 से 1886 के बीच हुई 48 हड़तालों से तुलना करें तो इस वृद्धि के पैमाने का अन्‍दाजा लगाया जा सकता है। 1896 में 118, 1897 मे 145, 1898 में 215, 1899 में 189 और 1900 में 125 हड़तालें हुईं। 1901 आते-आते हड़तालों के माँगपत्रकों और उनके प्रदर्शनों ने स्पष्ट रूप से एक राजनीतिक चरित्र धारण कर लिया था। अब वे महज वेतन और कार्यस्थितियों के मुद्दे नहीं उठा रही थीं, बल्कि पूरे पूँजीपति वर्ग और जारशाही पर प्रश्न खड़े कर रही थीं। 1903 में करीब 550 बड़ी हड़तालें हुईं। यहाँ प्रसंगवश बता दें कि 1898 में मिंस्क में रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी की स्थापना कांग्रेस हुई और 1901 में इस्क्रा का पहला अंक प्रकाशित हुआ। 1903 में दूसरी कांग्रेस हुई जिसमें कि सांगठनिक प्रश्न और मजदूर वर्ग में कार्य के अप्रोच को लेकर सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन में पहली फूट पड़ी और बोल्शेविक और मेंशेविक धड़े अस्तित्व में आये। इनके विवरणों में हम आगे जाएँगे जब रूस में पार्टी के उद्भव और विकास पर चर्चा करेंगे।

1902-3 तक रूसी मजदूर आन्‍दोलन के विकास और उसमें सामाजिक-जनवादियों के बढ़ते प्रभाव को प्रतिसन्‍तुलित करने के लिए रूस के शासक वर्ग ने एक नायाब प्रयोग किया जो अन्‍त में बुरी तरह असफल हुआ। रूस के शासक वर्ग ने खुफिया पुलिस को मजदूर आन्‍दोलन के राजनीतिकरण को रोकने के लिए इस्तेमाल करने का प्रयास किया। जार की राज्यसत्ता के कुछ ‘‘उदार’’ तत्वों का मानना था कि बढ़ते मजदूर असन्‍तोष और कम्युनिस्टों के प्रभाव को प्रतिसन्‍तुलित करने के लिए कुछ सुधारों की आवश्यकता है। हालाँकि, स्वयं जार और कुछ प्रतिक्रियावादी मन्त्री ऐसा नहीं मानते थे। लेकिन इसके बावजूद मॉस्को की खुफिया पुलिस के प्रमुख सर्गेई जुबातोव ने एक प्रयोग शुरू किया। जुबातोव खुद आन्‍दोलन का भगोड़ा था जिसे अपने साथियों के खिलाफ गद्दारी करने के लिए जारशाही ने मॉस्को खुफिया पुलिस का प्रमुख बनाकर ईनाम दिया। 1902 में जुबातोव आधिकारिक पदानुक्रम के शीर्ष पर पहुँच गया था और एक राजनीतिक व्यक्ति होने के कारण वह समझ रहा था कि बढ़ता मजदूर असन्‍तोष जारशाही के लिए खतरा बन सकता है। उसने मजदूर आन्‍दोलन में से क्रान्तिकारी तत्वों को किनारे लगाकर मजदूरों की यूनियनें बनवाने का निर्णय किया। ये यूनियनें मजदूरों के आर्थिक हकों की बातें करतीं लेकिन उन्हें किसी भी प्रकार के राजनीतिकरण से बचातीं थीं। मॉस्को में पुलिस द्वारा प्रायोजित ये यूनियनें काफी सफल हो गयीं और इनमें मजदूरों की भागीदारी भी काफी बढ़ गयी। कई मौकों पर जुबातोव ने इन यूनियनों से प्रदर्शन भी करवाये। लेकिन जल्द ही ये प्रदर्शन इतने बड़े होने लगे कि रूसी पूँजीपति वर्ग इससे घबरा गया। घबराना वाजिब भी था क्योंकि जुबातोव ने एक ऐसा प्रयोग शुरू कर दिया था जिसे नियन्त्रित कर पाना उसके बूते की बात नहीं था। जुबातोव को पीटर्सबर्ग स्थानान्‍तरित कर दिया गया, लेकिन तब तक मॉस्को में मजदूरों ने एकता और संगठन का स्वाद चख लिया था। पीटर्सबर्ग में भी जुबातोव ने एक सोसायटी ऑफ दि रशियन फैक्टरी एण्ड मिल वर्कर्स बनायी और पादरी गेपॉन को इसका निदेशक नियुक्त कर दिया। पादरी गेपॉन स्वयं खुफिया पुलिस का एक सदस्य था। लेकिन पादरी गेपॉन में लोकरंजकता के प्रति झुकाव था। 1905 में रूस-जापान युद्ध के कारण जनता में असन्‍तोष बड़े पैमाने पर बढ़ा। पहले इस नये संगठन का काम था मजदूरों की सांस्कृतिक व अन्य गैर-राजनीतिक गतिविधियाँ आयोजित करना और साथ ही मजदूरों के सहकारी संघ जैसे निकाय बनाना जो कि संकट में ‘शॉक एब्जॉर्वर’ का काम करें और मजदूर वर्ग के रैडिकलाइजेशन को रोकें। लेकिन 1904 के अन्‍त से ही इस संगठन का चरित्र बदलने लगा और यह मजदूरों की आर्थिक माँगों को लेकर जुझारू किस्म के प्रदर्शन करने लगा। अभी भी संगठन का घोषित तौर पर जारशाही से अपील करने में और उससे सुधारों की उम्मीद करने में यकीन था। पादरी गेपॉन के नेतृत्व में मजदूरों के प्रदर्शन विशालकाय होते गये और उनका चरित्र भी अधिक से अधिक जुझारू होता गया। जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि पादरी गेपॉन इन मजदूरों का नेतृत्व नहीं कर रहा था, बल्कि मजदूर आन्‍दोलन पादरी गेपॉन का नेतृत्व कर रहा था। पादरी गेपॉन के भाषणों की अन्‍तर्वस्तु जल्द ही राजनीतिक रुख अख्तियार करने लगी और जार से अपील का स्वर याचना से बदलकर जुझारू माँग में तब्दील होने लगा। पादरी गेपॉन ने पूँजीपतियों से वेतन वृद्धि और कार्यस्थितियों में सुधार को लेकर माँगें कीं, जिन्हें पूँजीपतियों ने ठुकरा दिया। इसके बाद गेपॉन ने अपनी उम्मीदें जारशाही पर लगायीं और एक नया माँगपत्रक बनाया जो कि जार को सम्बोधित था। यह नया माँगपत्रक राजनीतिक स्वर अख्तियार कर चुका था, और शायद गेपॉन स्वयं इसे लेकर सचेत नहीं था। गेपॉन ने इस माँगपत्रक के साथ 22 जनवरी 1905 को जार के दरवाजे पर दस्तक देने का एलान किया और इस बाबत 21 जनवरी को एक पत्र गृह मन्त्री को भेजा। जार ने जुलूस की इजाजत नहीं दी, लेकिन तब तक मजदूरों की चेतना गेपॉन के नियन्त्रण से बाहर निकल चुकी थी। 22 जनवरी को हजारों की तादाद में पीटर्सबर्ग के मजदूर और आम मेहनतकश इस उम्मीद में जार के महल की ओर बढ़े कि उनकी माँगों की सुनवाई होगी और जार उनकी जीवन स्थितियों में सुधार के लिए जरूरी कदम उठायेगा। लेकिन वहाँ पर मजदूरों पर ताबड़तोड़ गोलियाँ चलायी गयीं। सैकड़ों मजदूर और आम लोग मारे गये जिनमें बच्चे और औरतें भी शामिल थे। यह दिन खूनी रविवार के नाम से इतिहास में दर्ज हुआ। इस घटना का पूरे रूस में आम जनता पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। इसके बाद जार ने अपनी छवि सुधारने के लिए कुछ मजदूर प्रतिनिधियों से मुलाकात कर मामले को सम्‍भालने की कोशिश की लेकिन तब तक मामला हाथ से निकल चुका था। जनता के बीच जारशाही के उदार और दयालु होने और उसकी ओर से कोई सुधार किये जाने को लेकर जो आखिरी भ्रम बचा हुआ था, वह निर्णायक रूप से टूट चुका था।

1905 के बाकी ग्यारह महीने रूस में अभूतपूर्व हड़तालों के महीने बने। सरातोव में रेल मजदूरों की हड़ताल से शुरू हुआ सिलसिला जल्द ही लगभग सभी शहरों में मजदूरों के बीच फैल गया। मजदूर राजनीतिक स्वतन्त्रता की माँग कर रहे थे और उनकी यह माँग उनके माँगपत्रक में तमाम आर्थिक माँगों के पहले दर्ज थी। 1905 में ही किसान विद्रोह भी अपने चरम पर थे। लेकिन एक बात स्पष्ट तौर पर दिखलायी दे रही थी : रूस में जनवादी क्रान्ति के संघर्ष में मजदूर नेतृत्वकारी स्थिति में थे। जारशाही ने हर जगह हड़तालों और मजदूर बगावतों का भीषण दमन किया। लेकिन दमन जितना बढ़ता विद्रोह की आग उतनी ही भड़कती। लेकिन 1905 में पार्टी एक स्पष्ट नजरिये के साथ मजदूरों को नेतृत्व देने के लिए तैयार नहीं थी; न ही किसानों के विद्रोह की धारा के साथ शहरों का मजदूर विद्रोह सही तरीके से जुड़ पाया था। 14 अक्टूबर 1905 में पीटर्सबर्ग सोवियत संगठित हुई थी। यह सोवियत मूल और मुख्य रूप से जनसमुदायों की स्वतःस्फूर्त पहलकदमी पर संगठित हुई थी, लेकिन इसके करीब 50 दिनों के जीवन में इस पर मेंशेविकों का प्रभाव बोल्शेविकों के मुकाबले ज्यादा था। पूरे रूस में तमाम क्षेत्रों में सोवियतें संगठित हुईं और स्वतःस्फूर्त रूप से इन्होंने राजनीतिक कार्रवाइयों में हिस्सेदारी की। अभी बोल्शेविक पार्टी की सोवियतों के आन्‍दोलन पर कोई विशेष पकड़ नहीं थी। लेनिन अभी सोवियतों को जनता की सत्ता के निकाय के रूप में नहीं देख रहे थे। वह इन संस्थाओं को जनसमुदायों के विशिष्ट राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उपयोगी संस्था के रूप में देख रहे थे। कुछ अध्येताओं ने दावा किया है कि त्रात्स्की शुरू से ही सोवियतों को जनता की सत्ता का निकाय मानते थे, लेकिन तथ्य कुछ और ही सिद्ध करते हैं। त्रात्स्की ने स्वयं ही अपनी रचना वर्ष 1905’ में कहा था कि पीटर्सबर्ग सोवियत की पहली बैठक से ही साफ था कि इसकी भूमिका संसद से ज्यादा एक युद्ध परिषद् की है। इस समय बोल्शेविकों की लन्‍दन कांग्रेस में यह निर्णय लिया गया कि सर्वहारा वर्ग को निरंकुश जारशाही के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के लिए तैयार किया जाये और आरजी क्रान्तिकारी सरकार में भागीदारी के लिए तैयार रहा जाये। लगभग इसी समय मेंशेविकों ने जिनेवा में एक सम्मेलन किया और तय किया कि पार्टी को अभी सत्ता पर कब्जा करने का लक्ष्य निर्धारित नहीं करना चाहिए और न ही किसी आरजी सरकार में हिस्सेदारी को लक्ष्य बनाना चाहिए; उसे अतिरेकपूर्ण क्रान्तिकारी विरोध की पार्टी बने रहना चाहिए। खैर, इस राजनीतिक संघर्ष का 1905 में क्रान्ति की ओर बढ़ते आन्‍दोलन पर और विशेष तौर पर सोवियतों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं था। सोवियतों में सक्रिय सामाजिक जनवादी राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर अभी 1903 की बोल्शेविक-मेंशेविक फूट का विशेष प्रभाव नहीं था और ज्यादातर व्यावहारिक मसलों पर वे तालमेल करते हुए ही काम कर रहे थे। दिसम्बर में पीटर्सबर्ग सोवियत की सशस्त्र बगावत का प्रयास जारशाही ने आसानी से कुचल दिया। शहर की बगावत में शामिल मजदूर न तो हथियारबन्‍द थे, न सेना और पुलिस अभी उनके पक्ष में थी और न ही किसान विद्रोह की शक्ति के साथ कोई उपयुक्त तालमेल बिठाने का प्रयास किया गया था। वास्तव में, उस समय लेनिन का सोवियतों की शक्ति के प्रति रुझान बिल्कुल सही था। 1905 की सोवियतों और 1917 में सोवियतों के पुनर्जागरण के बीच बहुत फर्क था, जिस पर हम आगे त्रात्स्कीपन्‍थ की आलोचना पर केन्द्रित हिस्से में चर्चा करेंगे। 1905 की क्रान्ति की असफलता ने लेनिन की कार्यदिशा के सहीपन और त्रात्स्की की वामपन्‍थी कार्यदिशा और ‘‘स्थायी क्रान्ति’’ के सिद्धान्‍त के दीवालियेपन को सिद्ध किया। क्रान्ति के लेनिनवादी सिद्धान्‍त और त्रात्स्कीपन्‍थी सिद्धान्‍त के बीच के विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्ष पर हम आगे चर्चा करेंगे। फिलहाल, 1905 की क्रान्ति की असफलता के बाद के दौर पर अपनी चर्चा को हम जारी रखेंगे।

दिसम्बर 1905 में पीटर्सबर्ग में मजदूर बगावत के कुचले जाने और इसके प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के बाद भी देश के अलग-अलग हिस्सों में बिखरे हुए मजदूर विद्रोह, हड़तालें और किसान विद्रोह होते रहे। 1905 की असफल क्रान्ति के ठीक पहले जार ने एक संवैधानिक राजतन्त्र और दूमा का वायदा किया था। 1905 के बाद जारी सामाजिक असन्‍तोष के बरक्स जारशाही ने बर्बर दमन और प्रतिक्रिया का रास्ता अपनाया और 1907 आते-आते यह साफ हो गया था कि जिन जनवादी अधिकारों का जारशाही ने वायदा किया था, वे या तो अपूर्ण रूप में मिले हैं या निष्प्रभावी हैं। 1907 से लेकर 1912 तक का दौर प्रतिक्रिया का दौर था। इस दौर में मजदूर आन्‍दोलन पीछे गया। किसान विद्रोह भी उस बारम्बारता के साथ नहीं हो रहे थे। इस दौर में बोल्शेविक पार्टी का विकास जारी रहा लेकिन आन्‍दोलन कमजोर पड़ा। 1912 आते-आते मजदूरों का सब्र फिर से जवाब दे रहा था। किसानों के बीच भी असन्‍तोष एक बार फिर से बढ़ रहा था। 1912 में लेना की सोने की खानों में मजदूरों के प्रदर्शन पर गोलियाँ बरसायी गयीं जिसमें करीब 500 मजदूर मारे गये। यह जनवरी 1905 के ‘खूनी रविवार’ के बाद दमन का सबसे भयंकर मौका था। इसके साथ ही मजदूर आन्‍दोलन का फिर से उभार शुरू हुआ। 1912 ही वह वर्ष था जब बोल्शेविक पार्टी का औपचारिक तौर पर मेंशेविकों से अलग, एक नयी पार्टी के रूप में गठन हुआ। 1912 से देश के मजदूर आन्‍दोलन में एक नया दौर शुरू होता है। 1914 में युद्ध की शुरुआत ने आम मेहनतकश जनता के बीच के असन्‍तोष को नये सिरे से बढ़ाने का काम किया।

1913 से ही हम विभिन्न पूँजीवादी देशों की अर्थव्यवस्थाओं में युद्ध के अनुसार तैयारियाँ देख सकते हैं। रूस में भी 1914 की शुरुआत से ही युद्ध की तैयारियाँ शुरू हो गयी थीं। 1913 से 1917 के बीच रूस के औद्योगिक मजदूरों का करीब 20 प्रतिशत युद्ध के लिए गोलबन्‍द किया जा चुका था। नतीजतन, औद्योगिक मजदूरों में महिलाओं का हिस्सा 1913 के 39 प्रतिशत से बढ़कर 44 प्रतिशत हो गया। इसके साथ ही किशोरों और बच्चों को भी बड़े पैमाने पर उद्योगों में लगाया गया। 1916 में कुल पुरुष मजदूरों का करीब 11 प्रतिशत किशोरवय लड़के थे। महिलाओं को पुरुषों को मिलने वाली मजदूरी का एक-तिहाई और किशोरों को करीब आधी मजदूरी मिलती थी। युद्ध में रूस की भागीदारी के परिणाम भयंकर साबित हो रहे थे। एक तरफ मोर्चों पर पराजय और दूसरी तरफ रूस में कृषि और उद्योग दोनों का ही ध्वंस आम मेहनतकश जनता के लिए असहनीय स्थिति पैदा कर रहा था। युद्ध में जबरन सेना में भर्ती किये गये मजदूर सेना के भीतर युद्ध-विरोधी राजनीतिक प्रचार का केन्‍द्र बन रहे थे। सेना जो कि राज्यसत्ता के साम्राज्यवादी सैन्यवाद का उपकरण थी, वह युद्ध में होने वाली मौतों और हताहतों की बढ़ती संख्या के साथ तेजी से क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार का केन्‍द्र बनती जा रही थी। 1915 आते-आते सेना के भीतर और देश के आम मेहनतकश आबादी के भीतर युद्ध-विरोधी भावना जोर पकड़ती जा रही थी। लेनिन ने 1915 को वह वर्ष बताया जब देश में बड़े पैमाने पर जन गोलबन्‍दी शुरू हुई। तमाम मजदूर संगठनों और ट्रेड यूनियनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था; सामाजिक जनवादी आन्‍दोलन के अधिक से अधिक नेताओं को गिरफ्तार करके निर्वासन में भेजा जा रहा था। मार्च 1915 से पहले हड़तालों और बड़े प्रदर्शनों की संख्या कम थी। लेकिन गर्मियाँ शुरू होते ही मजदूर आन्‍दोलन तेजी पकड़ने लगा। युद्ध के दौरान बोल्शेविकों का असर रूस के मजदूर वर्ग पर तेजी से बढ़ा। लेनिन ने लिखा था, ‘‘प्राव्दावादी अखबारों और मुरानोव शैलीके कार्य ने रूस के लगभग 80 फीसदी वर्ग सचेत मजदूरों को एकजुट कर दिया है। करीब चालीस हजार मजदूर प्राव्दा खरीदते हैं; इससे कहीं ज्यादा इसे पढ़ते हैं। अगर युद्ध, जेल, साईबेरिया और कठोर श्रम इसके पाँच गुने या दस गुने को भी बरबाद कर देंतो भी मजदूर खत्म नहीं हो सकते। वे जीवित हैं। वे क्रान्तिकारी भावना से ओत-प्रोत हैं, कट्टरता-विरोधी हैं। केवल वे ही जनसमुदायों के बीच खड़े रह सकते हैं, उनके भीतर गहरी जड़ों के साथ, मेहनतकशों, शोषितों और उत्पीडि़तों के अन्‍तरराष्ट्रीयतावाद के हिमायती के रूप में। केवल यही वर्ग अर्द्धसर्वहारा तत्वों को कैडेटों, त्रुदोविकों, प्लेखानोव और नाशा जार्या के सामाजिक-कट्टरवाद से दूर और समाजवाद की ओर ले जा रहा है।’’ (वी.आई. लेनिन, ‘‘रूसी सामाजिक-जनवादी श्रम दूमा समूह के मुकदमे से क्या जाहिर हुआ है’’, कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 21, 1964, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 176, अंग्रेजी संस्करण, अनुवाद हमारा)। 1915 में रूस में केन्‍द्रीय कमेटी का रूसी ब्यूरो गिरफ्तारियों और दमन के कारण भंग हो गया था। 1916 आते-आते कुछ नये और युवा बोल्शेविकों के बूते यह फिर से स्थापित हो गया। बोल्शेविक प्रचार तेजी से जनसमुदायों के आन्‍दोलन का क्रान्तिकारी राजनीतिकरण कर रहा था। फरवरी 1917 से पहले बोल्शेविकों ने करीब 580 पर्चे छापे और उन्हें 20 लाख की संख्या में वितरित किया। पेत्रोग्राद में मजदूरों का राजनीतिक संगठन सबसे तेजी से बढ़ रहा था। बोल्शेविकों का असर पेत्रोग्राद के मजदूरों में तेजी से बढ़ रहा था और वहाँ पर उनका पार्टी ढाँचा जल्द ही मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों से आगे निकल चुका था, आकार में भी और गतिविधियों में भी। रूस के मजदूर वर्ग में बोल्शेविकों के बढ़ते असर को 1915 और 1916 में हड़तालों में बढ़ोत्तरी के रूप में देखा जा सकता था। 1916 में 1410 हड़तालें हुईं जिनमें करीब 11 लाख मजदूरों ने शिरकत की। इनमें से 243 हड़तालें शुद्ध रूप से राजनीतिक मुद्दों पर हुई थीं, जबकि 1167 हड़तालों ने आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही मुद्दे उठाये थे। सर्वहारा वर्ग के हड़ताल आन्‍दोलन के बढ़ने का असर रूस के ग्रामीण क्षेत्रों पर भी होना 1915 से ही शुरू हो चुका था। 1914 के पहले भी किसानों के बीच असन्‍तोष जब-तब फूटने लगा था। लेकिन 1915 और 1916 में ये छोटे-मोटे अव्यवस्थित किसान उपद्रव बड़े पैमाने के किसान विद्रोहों में तब्दील होने लगे। 1915 में 117 किसान बगावतें रूस के अलग-अलग हिस्सों में हुईं और 1916 में यह संख्या बढ़कर 294 हो गयी। रूस में मेहनतकश जनता के आन्‍दोलन विभिन्न बिखरे किसान विद्रोहों और सर्वहारा वर्ग द्वारा चलाये जा रहे हड़ताल आन्‍दोलन (जो समय के साथ अधिक से अधिक राजनीतिक और संगठित होता जा रहा था) 1916 के अन्‍त तक अपने चरम पर पहुँच चुके थे।

इसी दौरान सैनिकों के भीतर भी विद्रोह बढ़ रहा था। तमाम हिस्सों में नौसेना और फौज में बगावतें हो रही थीं। सेना का बड़ा हिस्सा अब युद्ध के खिलाफ खड़ा था और जनान्‍दोलनों से जुड़ रहा था। इस पूरे आन्‍दोलन में सर्वहारा वर्ग अग्रणी स्थिति में था। अक्टूबर 1916 में बोल्शेविकों के नेतृत्व में हड़ताल आन्‍दोलन की तीन बड़ी लहरें उठीं। जल्द ही इन हड़तालों में मजदूरों की संख्या बढ़ कर ढाई लाख तक पहुँच गयी। यह हड़ताल ही आने वाले समय में फरवरी की बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति में तब्दील होने वाली थीं। पेत्रोग्राद के मजदूर वर्ग का आन्‍दोलन पूरे रूस के मेहनतकशों के लिए अनुसरण करने के लिए एक उदाहरण में तब्दील हो रहा था। इस दौरान रूस में आर्थिक विघटन और अव्यवस्था अपने चरम पर थी। शहरों में भोजन का अभाव इस हद तक पहुँच रहा था कि उसे अकाल का नाम दिया जा सकता था। पेत्रोग्राद में भोजन के लिए लम्‍बी कतारें लगी हुई थीं। अलग-अलग हड़तालें जल्द ही आपस में जुड़ने लगीं और मजदूर वर्ग के बीच आम हड़ताल का नारा धीरे-धीरे जड़ पकड़ने लगा। जनवरी-फरवरी 1917 में हड़तालियों की संख्या सात लाख के करीब पहुँच रही थी। यह हड़ताल सेना में मौजूद असन्‍तोष और गाँवों में चल रहे किसान विद्रोहों के साथ जनवरी के अन्‍त तक मजबूती से जुड़ने लगी और इसी ने फरवरी में रूस में क्रान्तिकारी परिस्थिति को जन्म दिया। मजदूर आन्‍दोलन में बोल्शेविक पार्टी निर्विवाद नेतृत्व के रूप में उभर चुकी थी। लेकिन दो प्रमुख कारणों से फरवरी क्रान्ति सर्वहारा वर्ग और किसान वर्ग के हाथों में सत्ता नहीं पहुँचा सकी। पहला कारण यह था कि बोल्शेविक पार्टी की केन्‍द्रीय कमेटी के अधिकांश सदस्य जेल में थे, लेनिन अभी भी निर्वासन में और पार्टी के सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक रूप से सचेत मजदूरों में से तमाम मजदूर मोर्चे पर थे या फिर जेल में। यही कारण था कि बोल्शेविक पार्टी मजदूर वर्ग के निर्विवाद नेतृत्व में होने के बावजूद पूरी क्रान्ति को नेतृत्व देते हुए उसे मजदूर वर्ग और किसानों की जनवादी तानाशाही के मुकाम तक नहीं पहुँचा सकी। दूसरा कारण यह था कि किसानों और रूस की विशाल टुटपुँजिया आबादी में बोल्शेविक पार्टी का प्रभाव तो दूर उपस्थिति भी नाममात्र की थी। इनमें मुख्य रूप से समाजवादी-क्रान्तिकारी और मेंशेविकों का प्रभाव था। नतीजतन, जैसे ही मजदूर वर्ग के जुझारू आन्‍दोलन के साथ इन वर्गों के आन्‍दोलन जुड़े और जनवादी क्रान्ति की परिस्थिति जनवादी क्रान्ति में तब्दील होने की मंजिल में आयी तो बोल्शेविक इस सम्पूर्ण उभार को बिना किसी चुनौती के नेतृत्व देने की स्थिति में नहीं थे। नतीजतन, फरवरी 1917 में जो क्रान्ति शुरू हुई वह धीरे-धीरे मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों के वर्चस्व के तहत आ गयी। बोल्शेविकों का प्रस्ताव मजदूरों व सैनिकों के प्रतिनिधियों की सोवियत को आरजी सरकार घोषित करने और इन्हें देश का संविधान बनाने की जिम्मेदारी देने का था। यही रास्ता मजदूरों और किसानों की जनवादी तानाशाही को स्थापित कर सकता था। लेकिन किसानों और टुटपुँजिया आबादी के बीच प्रभाव के बूते और मजदूर वर्ग के भी एक हिस्से पर प्रभाव के बूते मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों से समझौता करके दूमा समिति को आरजी सरकार बनाने का कार्यभार सौंपने के प्रस्ताव को लागू करवाया। हालाँकि, क्रान्तिकारी जनसमुदायों के दबाव में समझौतापरस्त बुर्जुआजी द्वारा राजतन्त्र की पुनर्स्‍थापना या उसके साथ समझौते की कोशिशें नाकाम हो गयीं, आरजी सरकार को तमाम नागरिक व जनवादी स्वतन्त्रताएँ देनी पडीं, बोल्शेविकों को जेल से मुक्त करना पड़ा और मजदूरों से वे शस्त्र भी नहीं रखवा पाये। मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों के समझौतापरस्त रुख के कारण सर्वहारा वर्ग और किसान वर्ग ने स्वेच्छा से सत्ता बुर्जुआ वर्ग के हाथों सौंप दी। लेकिन फरवरी क्रान्ति ने जिस बुर्जुआ वर्ग को सत्ता में बिठाया था वह न तो युद्ध से मुक्ति दिला सकता था, न रैडिकल भूमि सुधार लागू कर सकता था और न ही देश को भुखमरी से मुक्त करा सकता था। वास्तव में, नयी सरकार सबसे बुनियादी जनवादी अधिकारों के मुद्दे पर चुप थी जैसे कि आठ घण्टे का कार्यदिवस, भूमि की जब्ती और राष्ट्रीयकरण। इन सभी को आरजी सरकार ने संविधान सभा बुलाये जाने तक स्थगित कर दिया था। साथ ही यदि सोवियत सत्ता एकमात्र सत्ता के तौर पर नहीं उभरी तो वह 1905 की तरह खत्म भी नहीं हुई। मजदूर हथियारबन्‍द थे, सैनिक सोवियतों के पक्ष में थे, राजनीतिक कैदी कैद और निर्वासन से मुक्त हो चुके थे, राज्यसत्ता का पुलिस तन्त्र लगभग तबाह हो चुका था, और नयी बुर्जुआ सरकार के पास सोवियत सत्ता को कुचलने का कोई शक्तिशाली उपकरण नहीं बचा था। फरवरी के बाद ‘‘दोहरी सत्ता’’ की जो स्थिति पैदा हुई उस स्थिति का द्वंद्व ही अन्‍ततः अक्टूबर क्रान्ति तक जाना था। बोल्शेविकों के नेतृत्व में जनता ने बहुत कुछ हासिल किया, हालाँकि जनता की सोवियत सत्ता अकेली और निर्विवाद सत्ता के रूप में रूस में अभी स्थापित नहीं हो पायी।

ई.एच. कार ने फरवरी क्रान्ति की पूरी प्रक्रिया को मुख्य रूप से स्वतःस्फूर्त करार दिया है जिसमें युद्ध, भुखमरी और भूमि असमानता से त्रस्त रूसी मजदूरों, सैनिकों और किसानों ने जार की सत्ता को उखाड़ फेंका था। लेकिन यह दृष्टिकोण पूरी तरह से सन्‍तुलित नहीं है क्योंकि पेत्रोग्राद और मॉस्को जैसे प्रमुख शहरी और औद्योगिक केन्‍द्रों में सर्वहारा वर्ग के हड़ताल आन्‍दोलन की बात करें, तो इसमें बोल्शेविक स्पष्ट रूप से मौजूद थे और उसे नेतृत्व दे रहे थे। यह एक दीगर बात है कि केन्‍द्रीय कमेटी के रूसी ब्यूरो (जिसके सदस्य कुछ तुलनात्मक रूप से कम तजुरबे वाले श्ल्याप्निकोव, मोलोतोव और जालुत्स्की थे) अभी केन्‍द्रीय कमेटी से जीवन्‍त सम्पर्क कायम नहीं कर पाये थे। साथ ही अन्य अधिक अनुभवी बोल्शेविक नेता भी फरवरी क्रान्ति से पहले साईबेरिया में निर्वासन पर थे और उनसे सम्पर्क स्थापित करना भी मुश्किल था। ऐसे में एक अनुभवहीन और अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व ने पीटर्सबर्ग और मॉस्को में बोल्शेविकों की गतिविधियों को काबिले-तारीफ ढंग से नेतृत्व दिया था और मजदूरों के वर्ग सचेत और राजनीतिक हिस्से पर अपने वर्चस्व को निर्विवाद रूप से स्थापित किया था। फरवरी क्रान्ति की समय-सीमा निर्धारित करना तो किसी भी राजनीतिक शक्ति के बूते की बात नहीं थी, लेकिन 1916 के अन्‍त में ही लेनिन ने रूस में पैदा होती क्रान्तिकारी परिस्थिति की बात की थी और साथ ही हड़ताल आन्‍दोलन को आगे बढ़ाने, ग्रामीण आबादी के बीच राजनीतिक कार्य और सेना को क्रान्ति के पक्ष में खड़ा करने को सामाजिक-जनवादियों के समक्ष सबसे प्रमुख कार्य बताया था। निश्चित रूप से, जिस गति से और जिस स्वतःस्फूर्तता से फरवरी क्रान्ति सम्पन्न हुई, उसने सभी राजनीतिक शक्तियों को एक हद तक चकित कर दिया था। लेकिन जिस दीर्घकालिक प्रक्रिया का चरम-बिन्‍दु फरवरी क्रान्ति थी, उस पूरी प्रक्रिया में बोल्शेविक राजनीतिक प्रचार कार्य और संगठन का केन्‍द्रीय महत्व था, खास तौर पर मजदूर वर्ग के आन्‍दोलन में। इसलिए ई.एच. कार का दृष्टिकोण कि फरवरी क्रान्ति पूर्णतः स्वतःस्फूर्त थी जिसने सभी राजनीतिक शक्तियों के मूल्यांकनों को ध्वस्त कर दिया, थोड़ा अतिरेकपूर्ण है। इस विषय में चार्ल्‍स बेतेलहाइम के पूरे दृष्टिकोण की आलोचना हम इस अध्याय के परिशिष्ट में रखेंगे।

फरवरी से लेकर अक्टूबर तक का इतिहास बेहद दिलचस्प है और क्रान्ति की गतिकी और उसमें हिरावल की भूमिका को समझने के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। लेकिन हम फरवरी से अक्टूबर तक के इतिहास पर अगले अध्याय में आयेंगे। फिलहाल, हम 1890 के दशक से 1917 तक रूस में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्‍दोलन और पार्टी के विकास पर चर्चा करेंगे और इस पूरे दौर में दो लाइनों के उस संघर्ष का आलोचनात्मक विवेचन करेंगे जो अक्टूबर क्रान्ति के बाद भी बोल्शेविक पार्टी की कार्यदिशा को काफी हद तक निर्धारित करने वाले थे। समाजवादी संक्रमण के दौर में बोल्शेविक पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका की सफलताओं और असफलताओं को समझने के लिए रूस के सामाजिक जनवादी आन्‍दोलन में राजनीतिक रुझानों और कार्यदिशाओं के संघर्ष को 1890 के दशक से ही समझना होगा।

  1. रूस में क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन और उसके भीतर दो कार्यदिशाओं के संघर्ष का इतिहास

1890 के दशक से फरवरी क्रान्ति तक रूस में क्रान्तिकारी आन्‍दोलन का विकास कई महत्वपूर्ण चरणों से होकर गुजरा और उसे बारीकी से समझना पूरे सोवियत समाजवाद के प्रयोग के दौरान बोल्शेविक पार्टी के राजनीतिक और विचारधारात्मक व्यवहार को समझने के लिए जरूरी है।

रूस में मार्क्‍सवाद का विकास विजातीय राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रवृत्तियों से संघर्ष की प्रक्रिया में हुआ। हम ऊपर 1860 से लेकर फरवरी 1917 तक रूस में हुए सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का संक्षेप में जिक्र कर चुके हैं। इन सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के फलस्वरूप हम रूस में किसानों के विद्रोहों और मजदूरों के आन्‍दोलन के शुरुआत का भी जिक्र कर चुके हैं। इन आन्‍दोलनों में मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की शिरकत 1870 के दशक से बढ़ने लगी थी। पहले भी आधुनिकता और पश्चिमी प्रगति के समर्थक कुछ बुद्धिजीवी तत्व रूसी राज्यसत्ता की नौकरशाही में और खास तौर पर पेशेवर मध्यवर्ग के बीच मौजूद थे, जैसे कि वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, शोधकर्ता, साहित्यकार आदि। लेकिन जनान्‍दोलनों में बौद्धिक वर्ग की शिरकत बड़े पैमाने पर उन्नीसवीं सदी के आठवें दशक में ही शुरू हुई। पहले-पहल प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की भागीदारी मजदूर आन्‍दोलनों में नहीं हुई, बल्कि किसान विद्रोहों में हुई। मजदूर आन्‍दोलन में सामाजिक जनवाद को ले जाने का काम करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं की दखल का 1890 के दशक से पहले हमें कोई विचारणीय उदाहरण नहीं मिलता है। आगे हम रूस में क्रान्तिकारी आन्‍दोलन के विकास की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए इस विषय पर इतिहास-लेखन की प्रमुख रुझानों का एक आलोचनात्मक मूल्यांकन भी रखेंगे, विशेष तौर पर, ई.एच. कार, चार्ल्‍स बेतेलहाइम और मॉरिस डॉब के लेखन का।

क) रूस में सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन के विकास का प्राक्-इतिहास : नरोदवाद से संघर्ष की प्रक्रिया में रूस में क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी चिन्‍तन और आन्‍दोलन का आरम्भिक विकास

रूस में पीटर महान के काल में पश्चिमीकरण की मुहिम शुरू होने के बाद से ही बौद्धिक और राजनीतिक हलकों में एक बहस जारी थी। यह बहस उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में इस सवाल पर हो रही थी कि रूस आगे पश्चिमी यूरोप के विकास के रास्ते को अपनायेगा या फिर उसके विकास का रास्ता पश्चिम से अलग स्लाव देशों की एक अलग और विशिष्ट संस्कृति पर आधारित होगा। जो पश्चिम के विकास के रास्ते की हिमायत कर रहे थे और कह रहे थे कि रूस को भी ब्रिटेन और फ्रांस के समान औद्योगिक पूँजीवादी विकास का रास्ता अपनाना चाहिए और यही रूस को आने वाले समय में उसकी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से निजात दिलायेगा, उस धड़े को वेस्टर्नर्स कहा गया। दूसरा धड़ा यह मानता था कि समूचे स्लाव जगत में जमीन को जोतने वाले को ही उसका स्वामी मानने की एक अन्‍तर्जात संस्कृति है। यहाँ पर एक समानतामूलक ग्राम समुदाय है जो यह सुनिश्चित करता है जमीन कुछ हाथों में संकेन्द्रित नहीं होती है और इसका बँटवारा समानतापूर्ण होता है। इस धड़े का मानना था कि रूस में यूरोपीय किस्म का सामन्‍तवाद है ही नहीं जिसका मुख्य कारण वे रूसी ग्राम समुदाय मीर की उपस्थिति को बताते थे। इस धड़े का यकीन था कि एक बार सामन्‍ती भूस्वामियों और राजतन्त्रवादी कुलीन वर्ग का प्रभुत्व समाप्त हो जाये तो अपने समतामूलक ग्राम समुदाय के बूते रूस औद्योगिक पूँजीवाद की कुरूपताओं से बच सकता है और सीधे छलाँग लगाकर एक कृषक साम्यवाद में प्रवेश कर सकता है। इस स्लावप्रेमी धड़े ने आगे चलकर अपने आपको नरोद्निकी कहा। एक नरोदवादी लेखक स्तेपनियाक ने कहा था कि रूसी ग्राम समुदाय ने इस विचार को जीवित रखा है कि जमीन उसी की होती है जो उसे जोतता-बोता है और यह विचार एक ‘‘विशिष्ट रूप से रूसी विचार है…जो कि समूचे स्लाव जगत में गहराई से जड़ जमाये हुए है।’’ (मॉरिस डॉब, सोवियत इकोनॉमिक डेवलपमेण्ट सिंस 1917, 1972, रूटलेज एण्ड कीगनपॉल, लन्‍दन, में उद्धृत, पृ. 61, अनुवाद हमारा) यह नरोद्निकी नाम उन्नीसवीं सदी की एक बौद्धिक राजनीतिक धारा से निकला था जो अपने आपको वी नरोद कहती थी। यह युवा मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का एक रोमाण्टिक किस्म का आन्‍दोलन था जो मानता था कि बुद्धिजीवियों को किसान वर्ग के बीच जाना चाहिए, उसे जागृत करना चाहिए, उससे सीखना चाहिए और उसे पुरानी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए जगाना चाहिए। इस आन्‍दोलन का किसानों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं हो पाया था। किसान उन्हें भला मानते थे, लेकिन साथ ही उन्हें शहर से आने वाले अव्यावहारिक बुद्धिजीवी मानते थे। वे अक्सर किसानों के बीच मजाक का विषय होते थे और कई बार किसान उन्हें तंग करने वाली तमाम गतिविधियाँ भी किया करते थे। जल्द ही इस धारा को जार की पुलिस ने कुचल दिया। 1876 में नये सिरे से ऐसा ही दृष्टिकोण अपनाने वाला एक नया राजनीतिक समूह बना जिसका नाम था जेम्ल्या ई वोल्या जिसका अर्थ था भूमि और स्वतन्त्रता। इस समूह ने समानतामूलक भूमि पुनर्वितरण की ठोस माँग रखी और इसके पक्ष में किसानों के बीच प्रचार किया। यह समूह जल्द ही दो धड़ों में विभाजित हो गया। एक समूह था चोर्नी पेरेदेल जो कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शान्तिपूर्ण और संवैधानिक रास्ते की वकालत करता था, और दूसरा समूह था नरोद्नाया वोल्या जो कि आतंकवादी गतिविधियों जैसे कि राजतन्त्रवादियों, मन्त्रियों और पुलिस अधिकारियों आदि की हत्या में यकीन रखता था। ग्‍यॉर्गी प्लेखानोव चोर्नी पेरेदेल से जुड़े हुए थे। लेकिन वह व्यक्तिगत आतंकवाद के मुद्दे पर 1870 के दशक के अन्‍त में चोर्नी पेरेदेल से अलग हो गये। प्लेखानोव विदेश चले गये और 1883 में उन्होंने स्विट्जरलैण्ड में वेरा जासुलिच व एक्सेलरोद के साथ मिलकर दि लिबरेशन ऑफ लेबर (कई स्थानों पर इसका अनुवाद ‘दि इमैंसिपेशन ऑफ लेबर’ भी किया गया है, इससे भ्रम पैदा न हो इसके लिए दोनों अंग्रेजी अनुवादों से परिचित होना आवश्यक है) नामक एक ग्रुप बनाया जिसका मकसद था मार्क्‍सवाद का अध्ययन और उसका रूस में प्रचार-प्रसार। पूँजी का पहला रूसी संस्करण 1872 में प्रकाशित हुआ और जल्द ही यह रूसी बौद्धिक दायरों में काफी प्रभावी हो गया। प्लेखानोव द्वारा इस समूह के निर्माण के साथ नरोदवादी धारा के साथ मार्क्‍सवाद का संघर्ष शुरू हुआ और यह इस मायने में एक अहम मील का पत्थर था।

जब लेनिन राजनीतिक दृश्यपटल पर आते हैं, उस समय तक प्लेखानोव नरोदवाद के विरुद्ध अपने राजनीतिक संघर्ष को आगे ले जा चुके थे। लेकिन नरोदवाद की निर्णायक विचारधारात्मक पराजय लेनिन के आने के साथ हुई। नरोदवाद के ही उत्तराधिकारी के रूप में समाजवादी-क्रान्तिकारी पार्टी 1902 में रूस में बनी थी। यह मार्क्‍सवाद से कई जुमलों को और अवधारणाओं को उधार लेती थी और यह मानने को तैयार थी कि किसानों के साथ सर्वहारा वर्ग भी क्रान्ति में मुख्य भूमिका में रहेगा। लेकिन उनका भूमि के ‘‘समाजीकरण’’ का कार्यक्रम वास्तव में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के एक रैडिकल संस्करण से आगे नहीं जाता था। दरअसल, ‘‘समाजीकरण’’ शब्द का उपयोग वे बेजा ही कर रहे थे; उनका कार्यक्रम वास्तव में भूमि के समान पुनर्वितरण के कार्यक्रम का था, जिसे वे समाजीकरण का नाम दे रहे थे। बहरहाल, प्लेखानोव के ग्रुप ने 1883 के बाद आने वाले करीब डेढ़ दशक तक नरोदवाद के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। प्लेखानोव ने अपनी आलोचना में स्पष्ट किया कि औद्योगिक पूँजीवाद की मंजिल को लाँघा नहीं जा सकता है और जारशाही और कुलीन वर्ग के शासन की जगह ग्राम समुदायों की व्यवस्था को नहीं लाया जा सकता है। रूस में क्रान्ति औद्योगिक पूँजीवाद की स्थापना के बाद और सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में क्रान्तिकारी आन्‍दोलन के जरिये ही हो सकती है। 1880 और 1890 के दशक में रूस में तेजी से होने वाले औद्योगिक विकास और औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के द्रुत विकास ने एक प्रकार से प्लेखानोव के दृष्टिकोण की पुष्टि की। लेकिन किसानों को प्लेखानोव भी उस समय किसी सम्भावना-सम्पन्न क्रान्तिकारी वर्ग और सर्वहारा वर्ग के सक्रिय भावी मित्र के तौर पर नहीं देख रहे थे। उस समय तक की उनकी सोच यही थी कि उदीयमान रूस में दो वर्ग क्रान्तिकारी सम्भावना रखते हैं : प्रगतिशील बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग। बाद में, लेनिन ने वर्ग संश्रय की इस अवधारणा पर प्रश्न खड़ा किया और रूस और रूस जैसे अन्य पिछड़े पूँजीवादी देशों की ठोस परिस्थितियों के मूल्यांकन के आधार पर जनवादी क्रान्ति की मंजिल में किसान आबादी को प्रमुख वर्ग मित्र के रूप में चिन्हित किया। लेकिन इस चर्चा पर हम आगे आयेंगे।

लेनिन के रूस के सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन में प्रवेश की प्रक्रिया को समझना आवश्यक है। यहाँ लेनिन का नया जीवन वृत्त लिखना हमारा लक्ष्य नहीं है, बल्कि उस प्रक्रिया को समझना हमारा मकसद है जिसने लेनिन के उत्तरवर्ती राजनीतिक चिन्‍तन की एक मजबूत बुनियाद तैयार की। सही मायनों में जीवन-पर्यन्‍त लेनिन का राजनीतिक चिन्‍तन इसी बुनियाद पर निर्मित होता रहा। 1890 के दशक के मध्य में लेनिन का राजनीतिक दृश्यपटल पर प्रवेश होता है। लेनिन अपने बड़े भाई की पुस्तकों को पढ़कर मार्क्‍सवाद के सम्पर्क में आते हैं, जो कि नरोद्नाया वोल्या से जुड़े हुए थे। उन्हें अलेक्जैण्डर द्वितीय की हत्या के षड्यन्त्र से जुड़े होने के कारण जारशाही ने मृत्युदण्ड दिया था। लेनिन तब एक स्कूली बालक थे और उनकी बहन ने अपने संस्मरण में लिखा था कि अपने भाई की फाँसी की खबर सुनकर लेनिन बुदबुदाये थे, ‘‘हमें उस रास्ते पर नहीं जाना चाहिए, हमें उस रास्ते पर जाने की कोई जरूरत नहीं है।’’ मार्क्‍सवादी विचारों से परिचय के बाद लेनिन कजान में उच्च शिक्षा के लिए गये जहाँ से उन्हें राजनीतिक गतिविधियों में संलग्नता के कारण निकाल दिया गया। अपनी उच्च शिक्षा पूरी करने के लिए वह राजधानी पीटर्सबर्ग गये और कानून की डिग्री हासिल की। लेकिन पीटर्सबर्ग में उन्होंने अपनी राजनीतिक गतिविधियों की बाकायदा शुरुआत की और पीटर्सबर्ग के मजदूरों के बीच क्रान्तिकारी प्रचार शुरू किया। यहीं पर उन्होंने अपने राजनीतिक लेखन की भी शुरुआत की। उनका शुरुआती लेखन नरोदवाद के प्लेखानोव द्वारा खण्डन का ही विस्तार था। इस समय तक लेनिन वैचारिक तौर पर प्लेखानोव के शिष्य बन चुके थे। इस समय वे युवा मार्क्‍सवादियों के बीच प्लेखानोव की उस समय की एक प्रसिद्ध रचना ऑन दि क्वेश्चन ऑफ डेवेलपमेण्ट ऑफ मोनिस्ट व्यू ऑफ हिस्ट्री का सरलीकरण और व्याख्या कर रहे थे। इसी बीच वह एक अग्रणी नरोदवादी वोरोंतसोव के साथ बहस में उलझे और उन्होंने नरोदवादी विचारों का खण्डन करते हुए अपनी पहली अहम राजनीतिक रचना का लेखन किया जो कि ‘‘व्हाट दि फ्रेण्ड्स ऑफ दि पीपुलआर एण्ड हाउ दे फाइट दि सोशल-डेमोक्रैट्स’’ नाम से प्रकाशित हुई। इस रचना की तैयारी लेनिन ने समारा मार्क्‍सवादी अध्ययन चक्र में 1892-93 में कर दी थी। वास्तव में, यह उसी अध्ययन चक्र में लेनिन द्वारा नरोदवादी विचारों पर दिये गये व्याख्यानों को समेटती थी। क्रुप्सकाया उस अध्ययन चक्र की एक सदस्य थीं और उन्होंने रेमिनिसेंसेज ऑफ लेनिन में लिखा है कि इस रचना के पहले संस्करण का अध्ययन चक्र के भीतर वितरण हुआ और बाद में यह रूस के विभिन्न मार्क्‍सवादी समूहों में प्रसारित हुई। क्रुप्सकाया बताती हैं कि इसका रूस के मार्क्‍सवादी दायरों पर गहरा असर पड़ा था, ‘‘मुझे याद है कि इसने हमें कैसे रोमांचित कर दिया था। संघर्ष के लक्ष्यों को इस पुस्तिका में प्रशंसनीय स्पष्टता के साथ रखा गया था। इसकी हेक्टोग्राफ की गयी प्रतिलिपियाँ बाद में ‘‘दि येलो कॉपी बुक्स’’ के नाम से प्रसारित हुई थीं। उन पर अभी लेखक का नाम नहीं था। इन्हें काफी व्यापक तौर पर पढ़ा गया और निस्सन्‍देह रूप से इसका उस समय के मार्क्‍सवादी युवा वर्ग पर गहरा असर पड़ा था।’’ (नदेज्दा क्रुप्सकाया, रेमिनिसेंसेज ऑफ लेनिन, मॉस्को, 1959, पृ. 15, अनुवाद हमारा) ई.एच. कार ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि इस रचना में लेनिन ने केवल प्लेखानोव द्वारा की गयी नरोदवादियों की आलोचना को आगे बढ़ाने का काम नहीं किया, बल्कि ‘‘नरोदवादियों के विरुद्ध लेनिन की शुरुआती रचनाओं ने प्लेखानोव के तर्कों को मुकाम तक पहुँचाने से कुछ ज्यादा काम किया। इनमें से बिल्कुल पहले ही लेखन में उन्होंने युवत्वपूर्ण जोर के साथ सर्वहारा वर्ग में अपनी क्रान्तिकारी आस्था की घोषणा की…’’ (ई.एच. कार, दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन, खण्ड 1, नॉर्टन, न्यूयॉर्क, पृ. 8, अनुवाद हमारा) आगे ई.एच. कार लेनिन का एक उद्धरण देते हैं जो शुरू से ही जनवादी क्रान्ति की मंजिल में भी सर्वहारा वर्ग की अगुवा भूमिका पर लेनिन के जोर को स्पष्ट करता है। यह उद्धरण आगे हमने प्रस्तुत किया है। वास्तव में लेनिन का यह नजरिया ही था जो उस समय सामाजिक-जनवादियों के बीच मौजूद दो अन्य रुझानों से, यानी कि अर्थवादियों और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों से लेनिन को अलग करता था। इन रुझानों पर हम आगे चर्चा करेंगे और यह भी देखेंगे कि आज के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों और संशोधनवादियों में इन विचार सरणियों से क्या साझा है। लेकिन पहले लेनिन के इस महत्वपूर्ण उद्धरण पर गौर करें :

‘‘यह औद्योगिक मजदूर वर्ग है जिस पर सामाजिक-जनवादी अपना ध्यान और गतिविधि केन्द्रित करते हैं। जब उस वर्ग के उन्नत सदस्य वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों और इतिहास में रूसी मजदूर की भूमिका के विचार को आत्मसात कर लेंगे, जब उनके विचार व्यापक तौर पर फैल जाएँगे और मजदूरों ने स्थिर संगठन बना लिये होंगे जो कि आज के विभाजित आर्थिक युद्ध को एक सचेत वर्ग संघर्ष में तब्दील करेंगेतब रूसी मजदूर सभी जनवादी तत्वों के नेतृत्व में आते हुए, निरंकुश तन्त्र को उखाड़ फेंकेगा और (सभी देशों के सर्वहारा वर्ग के साथ) रूसी सर्वहारा वर्ग को विजयी कम्युनिस्ट क्रान्ति की ओर खुले राजनीतिक संघर्ष के सीधे रास्ते पर ले जायेगा।’’ (वी.आई. लेनिन, ‘‘व्हाट दि फ्रेण्ड्स ऑफ पीपुल आर एण्ड हाउ दे फाइट दि सोशल-डेमोक्रैट्स’’, कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 1, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, चौथा संस्करण, 1977, पृ. 300, अनुवाद हमारा)

यह रचना नरोदवादी दृष्टिकोण पर तीखा हमला थी। इसमें लेनिन ने नरोदवाद को एक प्रतिक्रियावादी रुझान बताया था जो कि अतीतग्रस्त था, प्रगति-विरोधी था और अपने तमाम क्रान्तिकारी जुमलों के बावजूद यथास्थितिवादी था। लेनिन को 1897 में साईबेरिया निर्वासित कर दिया गया। यहाँ पर उन्होंने नरोदवादी विचारों का और अधिक विस्तार से खण्डन करने वाली और रूस में पूँजीवाद के विकास को औद्योगिक क्षेत्र से लेकर कृषि के क्षेत्र तक में प्रमाण सहित प्रदर्शित करने वाली वृहत् रचना रूस में पूँजीवाद का विकास को पूरा किया। सबसे पहले लेनिन ने इसमें नरोदवादियों के इस विचार का खण्डन किया कि पूँजीवाद रूस में एक कृत्रिम और ऊपर से थोपी गयी परिघटना है और इसके विकास के पीछे मूलतः और मुख्यतः विदेशी पूँजी और विदेशी बाजार का हाथ है। लेनिन ने दिखाया कि विदेशी पूँजी और विदेशी बाजार केवल सहायक कारक हैं और रूस में पूँजीवाद आन्‍तरिक अन्‍तरविरोधों के परिणामस्वरूप विकसित हो रहा है। रूस में पूँजीवाद का विकासआज भी उत्पादन सम्‍बन्‍धों के विश्लेषण की पहुँच और पद्धति की सही मार्क्‍सवादी समझदारी का एक प्रातिनिधिक उदाहरण है। इस रचना का बड़ा हिस्सा लेनिन ने कृषि में होने वाले पूँजीवादी विकास को समर्पित किया। लेनिन का मूल तर्क इस रचना में यह था कि रूस में पूँजीवाद का ऐतिहासिक मिशन है सामाजिक श्रम की उत्पादक शक्तियों का विकास और रूस में छोटे पैमाने के उत्पादन का ध्वंस कर बड़े पैमाने के उत्पादन को स्थापित करना और उत्पादन और श्रम का समाजीकरण करना। पूँजीवाद रूस में प्राक्-पूँजीवादी व्यवस्था में मौजूद निजी, व्यक्तिगत निर्भरताओं को खत्म करेगा जो कि वास्तव में शोषण और उत्पीड़न में सहायता करती हैं, उत्पादक की स्थिति को अधिक से अधिक नीचे गिराती जाती हैं और प्राच्य निरंकुशता के अनगिनत रूपों को जन्म देती हैं। यहाँ लेनिन का इशारा नरोदवादियों के प्रिय रूसी ग्राम समुदाय मीर की ओर था, जहाँ सामुदायिक खेती की आड़ में कुलकों और धनी किसानों का प्रभुत्व और खेतिहर मजदूरों और गरीब किसानों का शोषण और उत्पीड़न चलता था। लेनिन ने सप्रमाण प्रदर्शित किया कि गाँवों की करीब 20 प्रतिशत आबादी पहले ही आजीविका के लिए मुख्य रूप से उजरती श्रम पर निर्भर है और सर्वहारा या अर्द्धसर्वहारा में तब्दील हो चुकी है। दूसरे छोर पर पूँजीवादी कुलकों और धनी किसानों का वर्ग है जो कि बाजार सम्‍बन्‍धों में उतर चुका है और खेती में अधिक से अधिक पूँजीवादी तौर-तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है। हालाँकि, पश्चिमी उन्नत पूँजीवादी देशों की तुलना में पूँजीवाद का विकास मद्धिम था, लेकिन फिर भी रूसी कृषि में मौजूद अर्द्धसामन्‍ती सम्‍बन्‍धों और सामुदायिक सम्‍बन्‍धों के अवशेष को किनारे लगाने के लिए यह रफ्तार भी पर्याप्त थी। लेनिन ने लिखा कि नरोदवादियों की यह प्रतिक्रियावादी सोच कि इन अवशेषों को बचाया जाना चाहिए केवल ‘‘अर्द्ध-भूदास, अर्द्ध-मुक्त श्रम की पुरानी भली व्यवस्था को ही आगे बढ़ायेगाजो कि एक ऐसी व्यवस्था है जो शोषण और उत्पीड़न की हर भयावहता को अपने अन्‍दर समेटे हुए है, लेकिन उससे बच निकलने की कोई सम्भावना नहीं रखती।’’ (वही, पृ. 243, अनुवाद हमारा)

इस प्रकार लेनिन ने नरोदवाद की आलोचना को नयी वैचारिक ऊँचाइयों तक पहुँचाया और 19वीं सदी के अन्‍त तक लेनिन ने यह नतीजा निकाला कि रूसी क्रान्ति का अग्रणी वर्ग किसान वर्ग नहीं बल्कि सर्वहारा वर्ग होगा; नरोदवादियों की यह उम्मीद कि पूँजीवाद को आने से रोका जा सकता है और ग्राम समुदायों के बूते सीधे कृषि साम्यवाद जैसी किसी व्यवस्था में प्रवेश किया जा सकता है, न केवल अनैतिहासिक और अव्यावहारिक है बल्कि यह प्रतिक्रियावादी भी है जो व्यवहारतः यथास्थिति को मामूली परिवर्तनों के साथ बनाये रखने की बात करती है। लेनिन ने स्पष्ट किया कि जनवादी क्रान्ति की मंजिल में भी सामाजिक-जनवादियों (यानी कम्युनिस्टों) को सर्वहारा वर्ग के स्वतन्त्र राजनीतिक संगठन और स्वतन्त्र संघर्षों को निर्मित करने पर बल देना चाहिए। पूँजीवाद की ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील भूमिका की बात करते हुए लेनिन ने साफ शब्दों में कहा कि इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक गतिविधियाँ किसी भी रूप में रूस के बुर्जुआ वर्ग के लक्ष्यों के अनुसार संगठित की जानी चाहिए। लेनिन ने कहा कि सर्वहारा वर्ग जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करने के लिए रूस के पूँजीपति वर्ग की पूँछ पकड़कर नहीं चलेगा, जैसा कि ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादी पीटर स्त्रूवे का मानना था। सर्वहारा वर्ग समाजवाद के लिए संघर्ष में जनवादी अधिकारों, भूमि सुधारों और नागरिक स्वतन्त्रता के संघर्ष को शामिल करेगा और हर ऐसे जनसंघर्ष में नेतृत्वकारी भूमिका अदा करेगा जो जनवादी क्रान्ति के इन कार्यभारों को पूरा करने के लिए लड़े जायेंगे। 1897 में लेनिन ने लिखा, ‘‘हमारा काम प्राथमिकतः और मुख्यतः शहरी कारखाना मजदूर पर केन्द्रित है। रूसी सामाजिक जनवादियों को अपनी शक्तियों का अपव्यय नहीं होने देना चाहिए…लेकिन इस बात को मानते हुए भी कि हमारे लिए कारखाना मजदूरों पर केन्द्रित करना महत्वपूर्ण है और हमें अपनी शक्ति विसर्जित नहीं होने देनी चाहिए, हम एक क्षण के लिए भी यह सुझाव नहीं दे रहे हैं कि रूसी सामाजिक जनवादियों को सर्वहारा वर्ग और मजदूर वर्ग के अन्य संस्तरों की उपेक्षा करनी चाहिए। ऐसा कुछ भी नहीं है।’’ (वी.आई. लेनिन, ‘‘दि टास्क्स ऑफ रशियन सोशल-डेमोक्रैट्स’’, कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 2, पृ. 330, अंग्रेजी संस्करण, अनुवाद हमारा)। इसी बीच, 1898 में रूस के विभिन्न सामाजिक-जनवादी समूहों ने मिलकर एक कांग्रेस की और रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी की स्थापना की। पार्टी गठन की चर्चा करते हुए हम इस पर विस्तार से विचार करेंगे। बहरहाल, अपने राजनीतिक चिन्‍तन को पूर्ववत जारी रखते हुए 1899 में लेनिन ने लिखा, ‘‘सर्वहारा वर्ग को अन्य वर्गों और पार्टियों को सजातीय प्रतिक्रियावादी समुदाय’ (जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी के गोथा कार्यक्रम में उपयोग किया गया शब्द जिसकी मार्क्‍स ने आलोचना की थी) नहीं मानना चाहिएः इसके विपरीत, उसे समूचे सामाजिक और राजनीतिक जीवन में हिस्सा लेना चाहिए, प्रगतिशील वर्गों और पार्टियों का समर्थन करना चाहिए, मौजूद व्यवस्था के विरुद्ध हर क्रान्तिकारी आन्‍दोलन का समर्थन करना चाहिए, हर दमित राष्ट्रीयता या नस्ल, हर सताये गये धर्म, वोट के अधिकार से वंचित हर लैंगिक समुदाय, आदि का समर्थन करना चाहिए।’’ (वी.आई. लेनिन, ‘‘ए प्रोटेस्ट बाई रशियन सोशल-डेमोक्रैट्स’’, कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 4, पृ. 177, अंग्रेजी संस्करण, अनुवाद हमारा) लेकिन लेनिन ने यह भी स्पष्ट किया कि रूसी पूँजीपति वर्ग का चरित्र प्रगतिशील रैडिकल बुर्जुआ वर्ग जैसा होने की बजाय एक कमजोर बुर्जुआ वर्ग का है जो सामन्‍त वर्ग और जारशाही के विरुद्ध चलायमान युद्ध छेड़ ही नहीं सकता (इसके कारणों की हम ऊपर चर्चा कर आये हैं कि रूसी बुर्जुआ वर्ग का ऐसा चरित्र क्यों था); उल्टे वह सर्वहारा वर्ग के संघर्षों के उठते ज्वार के समक्ष प्रतिक्रियावादी वर्गों की शरण में जायेगा और उनसे एकता बनायेगा। लेनिन के अनुसार रूस में सर्वहारा वर्ग पूरे किसान वर्ग के साथ मिलकर जारशाही के विरुद्ध जनवादी क्रान्ति करेगा और मजदूरों और किसानों के जनवादी अधिनायकत्व को स्थापित करेगा और ऐसा करके वह रुकेगा नहीं बल्कि ‘सतत् क्रान्ति’ (uninterrupted revolution) करते हुए आगे बढ़ेगा और गरीब किसानों, यानी कि अर्द्धसर्वहारा और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग के साथ मिलकर समाजवादी क्रान्ति की ओर आगे बढ़ेगा। कई अध्येता लेनिन द्वारा ‘सतत् क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त को त्रात्स्की के ‘स्थायी क्रान्ति’ से गड्ड-मड्ड कर बैठे हैं, जैसे कि एक हद तक ई.एच. कार और इजाक डॉइशर और एक दूसरे अर्थ में चार्ल्‍स बेतेलहाइम भी। लेकिन इन दोनों के बीच जमीन-आसमान का फर्क है जिस पर हम इस अध्याय के आखिरी खण्ड में त्रात्स्की के साथ लेनिन के विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्ष की चर्चा करते हुए करेंगे। साथ ही, कुछ अध्येता इस भ्रम का भी शिकार हैं कि ‘सतत् क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त से लेनिन का यह अर्थ था कि क्रान्ति के जनवादी और समाजवादी चरणों के बीच कोई अन्‍तराल नहीं होगा और जनवादी क्रान्ति विकसित होकर अनिवार्यतः तत्काल ही समाजवादी क्रान्ति में रूपान्‍तरित हो जायेगी। लेकिन लेनिन के ‘सतत् क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त का दोनों चरणों के बीच की कालावधि से भी कोई रिश्ता नहीं है। अध्याय के आखिरी खण्ड में हम इस पर भी चर्चा करेंगे।

बहरहाल, 1905 की रूसी क्रान्ति ने लेनिन के इस पूरे विश्लेषण को सटीक तौर पर सही साबित किया। लेनिन ने रूस में दो चरणों में क्रान्ति के अपने पूरे सिद्धान्‍त को विस्तार से अपनी प्रसिद्ध रचना जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सामाजिक-जनवाद की दो कार्यनीतियाँ में स्पष्ट रूप में रखा, जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे।

इस प्रकार रूस में मार्क्‍सवाद ने अपनी पहली विचारधारात्मक विजय हासिल की, जो कि नरोदवाद के खिलाफ थी। नरोद्निकी की धारा धीरे-धीरे विघटित होती गयी और 1902 में यह एक नये अवतार में सामने आयी जब रूस में समाजवादी-क्रान्तिकारी पार्टी की स्थापना हुई। इस पार्टी की स्थापना करने वाले प्रमुख लोगों में विक्तोर चेर्नोव और प्योत्र लावरोव थे (जो कि प्लेखानोव के गुरू रह चुके थे)। इस पार्टी की विचारधारा में नरोदवाद के साथ मार्क्‍सवाद की कुछ अवधारणाओं को मिश्रित करने का प्रयास किया गया। इस पार्टी ने शहरों के सर्वहारा वर्ग में भी काम करने का प्रयास शुरू किया लेकिन उनका जोर किसानों के बीच ही था क्योंकि अभी भी वे रूस की क्रान्ति में किसानों की ही भूमिका को प्रधान मानते थे। उनका विश्वास बड़े पैमाने के उत्पादन में नहीं था और वैज्ञानिक समाजवाद के आर्थिक मॉडल से भी वे सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि छोटे पैमाने की आर्थिक इकाइयाँ ज्यादा व्यावहारिक और प्रभावी होती हैं और रूस में जो कृषि कार्यक्रम या किसानों का माँगपत्रक उन्होंने पेश किया वह भी भूमि के ‘‘समाजीकरण’’ के नाम पर भूमि का रैडिकल बुर्जुआ राष्ट्रीयकरण और समानतामूलक पुनर्वितरण करने की ही बात करता था। इस पार्टी का अक्टूबर क्रान्ति के समय भी किसानों के बीच सबसे ज्यादा आधार था। किसानों की व्यापक आबादी के अक्टूबर क्रान्ति के बाद बोल्शेविकों के समाजवादी भूमि कार्यक्रम पर सहमत न होने का एक कारण उनके बीच इस पार्टी का लम्‍बा प्रचार कार्य और आधार भी था। लेकिन फिर भी रूस के पूरे क्रान्तिकारी आन्‍दोलन में बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग की भूमिका ही अग्रणी बनी और किसानों की भी व्यापक बहुसंख्या का नेतृत्व क्रान्ति के समय विचारधारात्मक तौर पर तो नहीं लेकिन राजनीतिक तौर पर बोल्शेविकों के हाथ ही आया, क्योंकि स्वयं समाजवादी-क्रान्तिकारी पार्टी रूसी बुर्जुआ वर्ग का ढुलमुल चरित्र प्रदर्शित करते हुए अपने ही रैडिकल बुर्जुआ भूमि कार्यक्रम पर अमल करने में टाल-मटोल कर रही थी और उनका एक हिस्सा भूस्वामियों को मुआवजा देने तक की बात कर रहा था और साथ ही वे किसानों को जमीन-दखल करने से मना कर रहे थे और संविधान सभा का इन्‍तजार करने को कह रहे थे। दूसरी ओर, बोल्शेविकों ने किसानों के रैडिकल जमीन दखल आन्‍दोलन का पूर्ण समर्थन किया क्योंकि वह बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के एक कार्यभार को पूरा करने की ओर निर्देशित था और जल्द ही राजनीतिक तौर पर किसान आबादी का समर्थन बोल्शेविकों को मिलने लगा था। नरोदवाद की टुटपुँजिया विचारधारा की निर्णायक पराजय विचारधारात्मक तौर पर 20वीं सदी के शुरू में ही हो चुकी थी और इसकी राजनीतिक पराजय होने में दो दशक का समय और लगा। लेकिन यह भी सच है किसानों की व्यापक बहुसंख्या का विचारधारात्मक नेतृत्व क्रान्ति के बाद भी जल्दी बोल्शेविकों के हाथों में नहीं आया और उनके बीच समाजवादी-क्रान्तिकारियों के निम्न पूँजीवादी विचारों का प्रभाव बना रहा। इस पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। फिलहाल, हम उस दूसरे प्रमुख संघर्ष पर आते हैं जिसके जरिये मार्क्‍सवाद ने रूस में अपने विचारधारात्मक और राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित किया।

ख) रूसी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन में दो कार्यदिशाओं के संघर्ष की शुरुआत : ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों और अर्थवाद से संघर्ष और अराजकतावाद और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद के अंकुरण

हम ऊपर ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों का जिक्र कर चुके हैं। ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादी 1890 के दशक में अस्तित्व में आया एक बुद्धिजीवियों का समूह था जो कि किताबों और लेखों के जरिये मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍तों का प्रतिपादन कर रहा था। इनका लेखन इस तरह से संरचनाबद्ध था कि जारशाही की सेंसरशिप से बच सके। मार्क्‍सवाद का प्रचार 1890 के दशक में रूसी बुद्धिजीवियों के बीच तेजी से हुआ था और इसका कारण यह था कि इसी दशक में रूस में उद्योगों और सर्वहारा वर्ग का द्रुत विकास हुआ था। ई.एच. कार इस कारक को स्वीकार करते हैं लेकिन साथ में यह भी जोड़ देते हैं कि चूँकि रूस में इस समय कोई उदार बुर्जुआ विचारधारा भी मौजूद नहीं थी इसलिए भी मार्क्‍सवाद का प्रचार-प्रसार इस दौर में तेजी से हुआ! कार का निहितार्थ यह है कि यदि कोई उदारवादी बुर्जुआ विचारधारा पश्चिमी यूरोप के समान रूस में भी मौजूद होती तो रूस में मार्क्‍सवाद का इस गति से विकास नहीं हुआ होता! दूसरे शब्दों में, कार के अनुसार, किसी भी राजनीतिक चुनौती के अभाव में रूस में मार्क्‍सवादी आन्‍दोलन का विकास हुआ! यह दृष्टिकोण तथ्यों से पुष्ट नहीं होता है। पहली बात यह कि 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध से ही रूस में पश्चिमी तार्किकता और उदार व आधुनिक बुर्जुआ जनवादी विचारों का प्रचार-प्रसार शुरू हो गया था। वास्तव में, हर्जेन, बेलिंस्की, चेर्नीशेव्स्की और दोब्रोल्यूबोव जनपक्षधर रैडिकल बुर्जुआ विचारक ही थे और उस समय इनका रूस के बौद्धिक दायरों पर अच्छा-खासा प्रभाव था। रूस में 19वीं सदी के अन्‍त में मार्क्‍सवाद के तेज प्रचार-प्रसार का कारण रूस में मार्क्‍सवाद का प्रवर्तन करने वाली नेतृत्वकारी शक्तियों की विचारधारात्मक और राजनीतिक समझ और साथ ही सर्वहारा वर्ग से उनका जीवन्‍त जुड़ाव भी था। मार्क्‍सवाद के द्रुत गति से रूस में पाँव जमाने का कारण किसी बाह्य कारक की मौजूदगी या गैर-मौजूदगी नहीं थी बल्कि रूस में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्‍दोलन और मजदूर वर्ग के आन्‍दोलन के अपने आन्‍तरिक अन्‍तरविरोध थे। यहाँ एक बार फिर ई.एच. कार की अनुभववादी पहुँच उजागर होती है। ई.एच. कार इस बात को समझने में बिल्कुल नाकाम रहते हैं कि वास्तव में ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद स्वयं एक उदार बुर्जुआ विचारधारा ही था जो मार्क्‍सवाद के भेस में उस दौर में पैदा हुआ था।

बहरहाल, ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद की धारा रूसी मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के एक हिस्से में प्रभावी हुई। यह बौद्धिक वर्ग सामन्‍तवाद-विरोधी था और इसने मार्क्‍सवाद को अपनाने में इसके सामन्‍तवाद-विरोध को अपनाया। इनके लिए मार्क्‍सवाद का सबसे अहम पहलू था पूँजीवाद की ऐतिहासिक प्रगतिशीलता में आस्था। लेकिन उन्होंने इस राजनीतिक-ऐतिहासिक तथ्य को पूँजीवाद के समर्थन में तब्दील कर दिया। ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों ने मार्क्‍सवाद को अपनाने में उसकी पूरी क्रान्तिकारी अन्‍तर्वस्तु को खत्म कर दिया। इनमें से सबसे प्रमुख थे पीटर स्त्रूवे जो 1902 तक रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी के साथ ही थे और दरअसल 1898 की पहली पार्टी कांग्रेस का घोषणापत्र भी इन्होंने ही लिखा था। लेकिन 1902 के बाद इन्होंने पार्टी से रिश्ता पूरी तरह से तोड़ लिया। इस घटनाक्रम पर हम बाद में आयेंगे। स्त्रूवे ने 1894 में ही एक पुस्तक लिखी थी – क्रिटिकल नोट्स ऑन दि क्वेश्चन ऑफ दि इकोनॉमिक डेवेलपमेण्ट ऑफ रशिया। इस पुस्तक में स्त्रूवे ने स्पष्ट शब्दों में किसी भी क्रान्तिकारी कार्यक्रम को नकारा था और कहा था कि क्रान्तिकारियों को ‘‘स्वर्ग पर हमला करने’’ के ख्वाब नहीं देखने चाहिए और सर्वहारा वर्ग को पहले ‘‘पूँजीवाद की पाठशाला में सीखना चाहिए।’’ जहाँ तक नरोदवाद से संघर्ष का सवाल था वे लेनिन के साथ खड़े थे; लेकिन 1902 में मुद्दा अर्थवाद, मजदूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता और सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी भूमिका का था। नतीजतन, उनके बीच सम्‍बन्‍ध-विच्छेद होना ही था।

‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों ने रूस में पूँजीवाद के विकास के कुछ प्रशंसनीय अध्ययन किये, जैसे कि तुगान-बारानोव्स्की जिनका रूसी उद्योग पर अग्रणी शोध था। ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादी लेनिन और प्लेखानोव से इस बात पर पूर्णतः सहमत थे कि पूँजीवाद के चरण को लाँघकर रूस किसी ‘‘किसान साम्यवाद’’ में नहीं पहुँच सकता है, रूस में पूँजीवाद का विकास आन्‍तरिक गति से उद्योग और कृषि दोनों में ही हो रहा है। नरोदवाद की ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों ने कठोर आलोचना की। लेकिन चूँकि पूँजीवाद को एक ऐतिहासिक वस्तुगत तथ्य से उन्होंने एक वांछित चरण बना दिया था, इसलिए वे नरोदवाद के विपरीत छोर पर चले गये। इनका मानना था कि रूस में सर्वहारा वर्ग को किसान वर्ग से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए और उसे पूँजीवादी विकास और जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों की पूर्ति के लिए पूँजीपति वर्ग का सहायक बनना चाहिए। इन कार्यभारों की पूर्ति के लिए भी वे क्रान्तिकारी रास्ते के समर्थक नहीं थे, बल्कि सुधारों की हिमायत करते थे। और पूँजीवाद से समाजवाद की ओर संक्रमण के लिए भी वे सुधारवादी रास्ते की ही हिमायत करते थे। हम देख सकते हैं कि कई अर्थों में ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादी उन बातों को ही कह रहे थे जो बाद में संशोधनवाद ने कही। इस रूप में वे मार्क्‍सवाद को उसकी क्रान्तिकारी अन्‍तर्वस्तु से रिक्त कर उसे एक बुर्जुआ विचारधारा में ही तब्दील कर रहे थे। बाद में लेनिन ने इस धारा का विश्लेषण करते हुए लिखा था, ‘‘वे बुर्जुआ जनवादी थे जिनके लिए नरोदवाद से अलग होने का अर्थ टुटपुँजिया (या किसान) समाजवाद से सर्वहारा समाजवाद में संक्रमण की बजाय (जैसा कि हमारे मामले में हुआ) बुर्जुआ उदारवाद में संक्रमण था।’’ (वी.आई. लेनिन, ‘‘प्रेफेस टू दि कलेक्शन ट्वेल्व इयर्स’’, कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 13, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, 1972, पृ. 94, अनुवाद हमारा) लेनिन ने अपने निबन्ध नरोदवाद की आर्थिक अन्‍तर्वस्तु और श्रीमान स्त्रूवे की पुस्तक में इसकी आलोचना में जहाँ नरोदवाद की धज्जियाँ उड़ायीं वहीं उदार बुर्जुआ ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद द्वारा पूँजीवाद की हिमायत की भी आलोचना की। 1890 के दशक के अन्तिम वर्षों में ही लेनिन ने ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद की तमाम लेखों में आलोचना शुरू कर दी थी और 1902 में यह आलोचना क्या करें?’ के प्रकाशन के साथ उस मुकाम पर पहुँच गयी जहाँ पर ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों और कम्युनिस्टों के बीच का गठजोड़ टूटना ही था। जब तक नरोदवाद से संघर्ष प्रमुख एजेण्डा था तब तक ही यह एकता कायम रह सकती थी। जैसे ही नरोदवाद की निर्णायक पराजय हुई वैसे ही लेनिन के एजेण्डे पर ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद और अर्थवाद की आलोचना का प्रश्न आ गया।

अर्थवाद सामाजिक जनवादी पार्टी के भीतर ही एक शक्तिशाली रुझान के रूप में पैदा हुआ था। अर्थवाद का सारतत्व लेनिन के अनुसार उस विचारधारात्मक रुझान में निहित था जो कि मार्क्‍सवाद को महज एक ‘‘आर्थिक सिद्धान्‍त’’ में तब्दील कर देता था। वास्तव में, ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद और अर्थवाद में बहुत-सी समानताएँ थीं, लेकिन उनमें कुछ बुनियादी फर्क भी थे, जिन पर हम आगे आएँगे। अर्थवाद के अनुसार सभी सामाजिक परिवर्तनों की व्याख्या केवल आर्थिक कारकों के विकास के जरिये की जा सकती है। अर्थवाद उत्पादक शक्तियों के विकास को गैर-द्वन्‍द्वात्मक रूप से इतिहास की प्रेरक शक्ति के रूप में देखता है और मानता है कि आर्थिक कारकों में होने वाले परिवर्तनों के जरिये सामाजिक शक्तियाँ अपने आप, स्वतःस्फूर्त रूप से परिवर्तन की ओर क्रमिक प्रक्रिया में आगे बढ़ती हैं। निश्चित तौर पर, व्यापक तौर पर उत्पादक शक्तियों का पहलू इतिहास में अधिक गतिशील कारकों की भूमिका निभाता है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन/क्रान्ति के बाद उत्पादन सम्‍बन्‍धों का कारक भी पलटकर उत्पादक शक्तियों के विकास को प्रेरणा प्रदान करता है। उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्‍बन्‍धों के बीच एक द्वन्‍द्वात्मक सम्‍बन्‍ध होता है और मार्क्‍स ने ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना में योगदान’ और ‘पूँजी’ जैसी रचनाओं में इस द्वन्‍द्वात्मक सम्‍बन्‍ध को सटीक तरीके से सूत्रबद्ध किया है। यहाँ पर यह स्पष्टीकरण अनिवार्य था क्योंकि अर्थवाद की समूची प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए चार्ल्‍स बेतेलहाइम और कोस्तास मावराकिस जैसे कई तथाकथित ‘‘माओवादी’’ अध्येता मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद-माओवाद के सिद्धान्‍तों का हेगेलीय भाववादी हस्तगतीकरण करते हैं और यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि सम्पूर्ण मानव इतिहास में उत्पादन सम्‍बन्‍धों का पहलू प्राथमिक प्रेरक तत्व होता है। ऐसे भाववादी नियोजकों से पूछा जा सकता है कि किसी विशिष्ट ऐतिहासिक युग में मानव जन कोई विशिष्ट उत्पादन सम्‍बन्‍ध किस आधार पर बनाते हैं? वे कोई अन्य उत्पादन सम्‍बन्‍ध क्यों नहीं बना लेते? वहीं जो उत्पादक शक्तियों के उत्पादन सम्‍बन्‍धों से द्वन्‍द्वात्मक सम्‍बन्‍ध को न समझकर मानते हैं कि उत्पादक शक्तियाँ विकसित होती रहती हैं और उत्पादन सम्‍बन्‍ध निष्क्रिय कारक के समान उनके पीछे घिसटते हुए आगे बढ़ते रहते हैं, उनसे भी पूछा जा सकता है उत्पादक शक्तियों के उत्तरोत्तर विकास के पीछे कौन-से कारक काम करते हैं और एक निश्चित मंजिल पर पहुँचकर उनका विकास पुराने उत्पादन सम्‍बन्‍धों के ढाँचे में बाधित क्यों हो जाता है और उस ढाँचे के क्रान्तिकारी परिवर्तन के जरिये बदलने पर उत्पादक शक्तियों का विकास फिर से निर्बन्ध किस कारक से प्रेरणा मिलने के कारण होता है? यदि किसी भी सामाजिक उत्पादन व्यवस्था के भीतर उत्पादन सम्‍बन्‍ध और उत्पादक शक्तियों के बीच के द्वन्‍द्वात्मक सम्‍बन्‍धों को सही ढंग से व्याख्यायित न किया जाये तो वह या तो यूरोपीय सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन की अर्थवाद की पुरानी गलती को दुहरायेगा जो कि मानता है कि उत्पादक शक्तियाँ विकसित होती जाती हैं और उनके अनुरूप उत्पादन सम्‍बन्‍ध बदलते जाते हैं (यह दृष्टिकोण उत्पादक शक्तियों में भी मनुष्य को प्रमुख और प्राथमिक कारक नहीं मानता, बल्कि तकनोलॉजी, यन्‍त्रों और उपकरणों को प्रमुख और प्राथमिक कारक मानता है); या फिर वह चार्ल्‍स बेतेलहाइम जैसे ‘‘अतिमाओवादियों’’ की गलती का शिकार होगा जिसके अनुसार मानव जन किसी ‘‘परम भाव’’ से प्रेरित होकर पहले कोई उत्पादन सम्‍बन्‍ध बनाते हैं और उनके अनुसार उत्पादक शक्तियों का विकास करते हैं। ये दोनों ही छोर यान्त्रिक अर्थवाद और यान्त्रिक भाववाद का प्रतिनिधित्व करते हैं और मार्क्‍स, लेनिन और माओ की समझदारी इससे बिल्कुल भिन्न थी। चार्ल्‍स बेतेलहाइम में ‘‘अतिमाओवाद’’ की आलोचना रखते हुए हम उनकी सम्पूर्ण हेगेलीय भाववादी अवस्थिति की आलोचना रखेंगे।

बहरहाल, हम रूस के अर्थवादियों की चर्चा पर वापस लौटते हैं। वर्गों के बीच का संघर्ष अर्थवादियों के लिए आर्थिक कारकों में होने वाले परिवर्तन का सीधा और प्रत्यक्ष परिणाम होता था। कुल मिलाकर, उनका नतीजा यह था कि जब आर्थिक परिस्थितियाँ उपयुक्त और अनुकूल हो जाती हैं तो सामाजिक परिवर्तन स्वयं ही हो जाते हैं। यानी कि मजदूर वर्ग को सचेतन तौर पर संगठित करने और इस काम के लिए किसी अनुशासित, गुप्त और संगठित हिरावल की कोई जरूरत नहीं है। मजदूर वर्ग को महज अपने आर्थिक हकों के लिए ट्रेड यूनियन संघर्ष करना चाहिए। अर्थवाद रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी के भीतर ही एक रुझान के रूप में पैदा हुआ और लम्‍बे समय तक इसका असर मौजूद रहा। अपने तमाम विकृतिकरणों और ‘‘अतिमाओवाद’’ के बावजूद, बेतेलहाइम ने सही ही कहा है कि अर्थवाद ‘‘जब भी व्यवस्थित नहीं होता तो यह सापेक्षिक रूप से एक गौण भूमिका निभा सकता है, और तब हम ‘‘अर्थवाद के प्रति रुझान’’ की बात कर सकते हैं।’’ (चार्ल्‍स बेतेलहाइम, ‘‘प्रेफेस’’, क्लास स्ट्रगल्स इन दि यूएसएसआर, फर्स्‍ट पीरियडः 1917-23, पृ. 33, 1976, मंथली रिव्यू प्रेस, अनुवाद हमारा) एक रुझान के तौर पर अलग-अलग रूपों में अर्थवाद बोल्शेविक पार्टी के भीतर एक पूँजीवादी और निम्न-पूँजीवादी भटकाव के रूप में लम्‍बे समय तक मौजूद रहा, बल्कि कहना चाहिए कि सोवियत संघ में समाजवाद के जीवित रहते भी यह रुझान किसी न किसी रूप में पार्टी में मौजूद रहा। अर्थवादियों का मानना था कि मजदूरों की राजनीतिक मुद्दों में कोई दिलचस्पी नहीं होती और राजनीति पार्टी के बौद्धिक नेताओं का काम है। मजदूरों की रुचि तो केवल उनके आर्थिक हितों की लड़ाई में होती है, यानी कि उन संघर्षों में जो ट्रेड यूनियन के जरिये लड़े जाते हैं। इस प्रकार मजदूर वर्ग की समूची गतिविधि को उसकी आर्थिक ट्रेड यूनियन गतिविधियों तक सीमित कर दिया जाता है, यानी कि मालिकों से बेहतर मजदूरी और कार्यस्थितियों के लिए संघर्ष तक। जाहिर है कि यह संघर्ष मौजूदा व्यवस्था के ढाँचे के भीतर लड़ा जा सकता है। अर्थवादी सैद्धान्तिक तौर पर क्रान्ति की अनिवार्यता को खारिज नहीं करते थे। लेकिन चूँकि रूस अभी जनवादी क्रान्ति की मंजिल में था इसलिए एकमात्र राजनीतिक कार्यक्रम जिसकी कल्पना की जा सकती थी वह पूँजीवादी जनवादी सुधारों का कार्यक्रम था, जिसके लिए कि उदार पूँजीपति वर्ग का सहयोग किया जाना चाहिए था और दूसरी बात यह कि मजदूर वर्ग स्वयं पूँजीपति वर्ग से बेहतर वेतन और कार्यस्थितियों की माँगों के अलावा किसी अन्य माँग के लिए संघर्ष नहीं कर सकता। इन अर्थवादियों के अनुसार पूँजीवादी जनवाद और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के मुकम्मिल तौर पर स्थापित होने के बाद पूँजीवाद अपनी नैसर्गिक गति से मजदूरों के आर्थिक संघर्षों को इस हद तक सघन और जुझारू बनाता जायेगा कि यह संघर्ष स्वतःस्फूर्त ढंग से राजनीतिक संघर्ष में तब्दील हो जायेगा। एक प्रमुख अर्थवादी और ‘‘क्रीडो’’ मतावलम्‍बी सिद्धान्‍तकार कुस्कोवा के शब्दों में, ‘‘एक स्वतन्त्र मजदूरों की राजनीतिक पार्टी के बारे में चर्चा विदेशी कार्यभारों और विदेशी उपलब्धियों को हमारी जमीन पर स्थानान्‍तरित करने के परिणाम के अलावा और कुछ नहीं है…ऐतिहासिक स्थितियों का एक पूरा समुच्चय हमें पश्चिमी मार्क्‍सवादी होने से रोकता है और हमसे एक अलग मार्क्‍सवाद की माँग करता है जो कि रूसी स्थितियों में उपयुक्त और आवश्यक है। हरेक रूसी नागरिक में राजनीतिक भावना और समझ की कमी साफ तौर पर राजनीति के बारे में चर्चाओं से या अनुपस्थित ताकतों के नाम अपीलों के जरिये पूरी नहीं हो सकती। यह राजनीतिक बोध केवल उस प्रशिक्षण के जरिये हासिल किया जा सकता है (चाहे यह कितना भी गैर-मार्क्‍सवादी क्यों न हो) जो कि रूसी यथार्थ हमारे सामने पेश कर रहा है…रूसी मार्क्‍सवादी के सामने केवल एक ही रास्ता है : सर्वहारा वर्ग के आर्थिक संघर्ष का समर्थन करना और उदार विपक्ष की गतिविधियों में हिस्सेदारी करना।’’ (ई.एच. कार, दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन में उद्धृत, पृ. 11)

लेनिन ने अर्थवाद पर 1899 से ही तीखा हमला बोलना शुरू कर दिया था। लेनिन का मानना था कि रूस में जनवादी कार्यभारों को पूरा करने के लिए उदार पूँजीपति वर्ग के भरोसे नहीं रहा जा सकता है, जो सर्वहारा वर्ग के संघर्षों के समक्ष किसी भी समय प्रतिक्रियावाद की गोद में बैठने को तैयार है। लेनिन के शब्दों में रूस में ‘‘राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल करने का कार्यभार भी सर्वहारा वर्ग के मजबूत कन्धों पर आ पड़ा था।’’ प्लेखानोव और मार्तोव ने भी अर्थवाद की आलोचना में महत्वपूर्ण योगदान किया लेकिन अर्थवाद की विचारधारात्मक-राजनीतिक जड़ों पर सबसे मजबूत हमला लेनिन ने अपने 1899 से लेकर 1903 तक की तमाम रचनाओं में किया। 1902 में लेनिन की प्रसिद्ध रचना क्या करें?’ प्रकाशित हुई। इस रचना में लेनिन ने ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद की संक्षिप्त आलोचना के बाद अर्थवाद की चीरफाड़ की और दिखलाया कि किस प्रकार अर्थवाद मार्क्‍सवाद को विकृत करने वाली एक बुर्जुआ विचारधारा है। अर्थवाद की पहचान मूल तौर पर दो चीजों पर जोर से की जा सकती है : पहला, इसका मजदूर वर्ग के आर्थिक संघर्षों को सर्वोपरि मानने पर जोर और दूसरा मजदूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता पर जोर। ‘क्या करें?’ में लेनिन ने इन्हीं दोनों चीजों पर हमला बोला। लेनिन ने कहा कि एक सामाजिक जनवादी की चेतना महज एक ट्रेड यूनियन सचिव की नहीं होती, बल्कि जनता के हिरावल की होती है। मजदूर वर्ग की पूरी राजनीति को ट्रेड यूनियन की राजनीति तक सीमित कर देना वास्तव में मजदूर वर्ग की राजनीति के एक पूँजीवादी संस्करण की बात करना होगा। लेनिन के लिए आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों के बीच कोई ‘चीन की दीवार’ नहीं थी, क्योंकि उनके लिए हर आर्थिक संघर्ष भी मूल तौर पर राजनीतिक था। लेनिन का मानना था कि राजनीतिक चेतना मजदूर वर्ग के भीतर आर्थिक संघर्षों के जरिये स्वयं ही नहीं पैदा हो जायेगी। बिना किसी बाह्य राजनीतिक अभिकर्ता (यानी, सामाजिक-जनवादी बुद्धिजीवियों) के हस्तक्षेप के मजदूर वर्ग अपने आप केवल ट्रेड यूनियन चेतना तक ही पैदा कर सकता है। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि मजदूर वर्ग अपने राजनीतिक सिद्धान्‍तकार नहीं पैदा कर सकता है। इस बात को काऊत्स्की ने सही तरीके से स्पष्ट नहीं किया था और लेनिन ने काऊत्स्की की इस चूक को ‘क्या करें?’ में दुरुस्त किया था। यहाँ लेनिन ने स्पष्ट किया कि एक मजदूर जब आर्थिक संघर्षों से अलग मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक राजनीतिक लक्ष्यों की बात करता है तो वास्तव में वह महज एक सामान्य मजदूर नहीं होता बल्कि मजदूर वर्ग के राजनीतिक सिद्धान्‍तकार की भूमिका निभा रहा होता है। लेकिन एक वर्ग के तौर पर समूचा मजदूर वर्ग स्वतःस्फूर्त रूप से ऐसी चेतना, यानी कि राजनीतिक वर्ग चेतना, को जन्म नहीं दे सकता है। यह कम्युनिस्ट चेतना मजदूर वर्ग के आन्‍दोलन में बाहर से ही आती है और यह कम्युनिस्ट चेतना इतिहास की वैज्ञानिक समझदारी और तार्किकता के मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक अनुभवों के साथ मेल के साथ पैदा होती है। काऊत्स्की ने बताया था कि ऐतिहासिक तौर पर तार्किकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के वाहक का काम इतिहास में बुर्जुआ बौद्धिक वर्ग के एक छोटे-से हिस्से ने किया था इसलिए सामान्य रूप में इतिहास की वैज्ञानिक समझदारी के जरिये वैज्ञानिक समाजवाद तक पहुँचने का काम भी इस बौद्धिक वर्ग का एक जनपक्षधर हिस्सा ही करेगा। लेनिन ने अर्थवाद का खण्डन करते हुए कहा कि मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना स्वतःस्फूर्त रूप से नहीं पैदा होगी, बल्कि उसमें इस चेतना को पैदा करना एक हिरावल का सचेतन कार्य होगा। वास्तव में, ‘कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र’ में भी मार्क्‍स व एंगेल्स ने काल्पनिक समाजवादियों की आलोचना करते हुए कहा था कि सर्वहारा वर्ग का संगठन क्रमिक स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया में नहीं पैदा हो सकता है। स्वतःस्फूर्तता पर अर्थवादियों का जोर अन्‍त में इस मंजिल तक जाता है कि वह किसी भी प्रकार के राजनीतिक हिरावल की भूमिका को ही नकारने लगते हैं क्योंकि उनकी दलील ही यह है कि सर्वहारा वर्ग की आर्थिक कार्रवाइयाँ जैसे कि ट्रेड यूनियन गतिविधियाँ और हड़तालें अन्‍ततः उन्हें क्रान्ति के लिए तैयार कर देती हैं। लेनिन और प्लेखानोव के अलावा अलग से स्तालिन ने भी मजदूर वर्ग को सचेतन तौर पर राजनीतिक रूप से संगठित करने की जरूरत पर बल दिया। 1901 में लिखी गयी स्तालिन की रचना दि रशियन सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी एण्ड इट्स इमीडियेट टास्क्स में स्तालिन ने लिखा था कि सामाजिक जनवाद से पहले रूस में मजदूरों का आन्‍दोलन स्वतःस्फूर्तता के दायरे से बाहर नहीं आया था; सामाजिक जनवादियों ने पहली बार रूस में मजदूर वर्ग को क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना से लैस करने का काम अपने हाथों में लिया। अर्थवादियों के बारे में स्तालिन ने इस रचना में लिखा, ‘‘स्वतःस्फूर्त आन्‍दोलन को नेतृत्व देने की बजाय, जनसमुदायों को सामाजिक-जनवादी आदर्शों से ओत-प्रोत करने की बजाय और हमारे अन्तिम लक्ष्य की ओर उन्हें निर्देशित करने की बजाय, रूसी सामाजिक-जनवादियों का यह हिस्सा इस आन्‍दोलन का अन्धा उपकरण बन गया; यह मजदूरों के अनुपयुक्त रूप से शिक्षित हिस्से के पीछे आँख मूँदकर चलता रहा और इसने अपने आपको उन आवश्यकताओं और जरूरतों को सूत्रबद्ध करने तक सीमित कर दिया जिनके प्रति मजदूरों के जनसमुदाय उस समय सचेत थे। संक्षेप में, यह खड़ा होकर एक खुले दरवाजे को खटखटाता रहा, और घर में प्रवेश करने का साहस नहीं कर पाया। यह मजदूरों के जनसमुदायों को न तो अन्तिम लक्ष्ययानी कि समाजवादके बारे में समझा पाया और न ही तात्कालिक लक्ष्ययानी कि निरंकुश तन्त्र को उखाड़ फेंकनेके बारे में; और इससे भी ज्यादा निन्‍दनीय बात यह थी कि इसने इन दोनों ही लक्ष्यों को बेकार, बल्कि नुकसानदेह तक माना। यह रूसी मजदूरों को बच्चों की तरह मानता था और उसे डर था कि वह कहीं ऐसे विचारों से उन्हें डरा न दे। यही नहीं, सामाजिक-जनवाद के कुछ दायरों में समाजवाद लाने के लिए भी क्रान्तिकारी संघर्ष की आवश्यकता नहीं थी, बल्कि उनकी राय में जिस चीज की जरूरत थी वह था महज आर्थिक संघर्षहड़तालें और ट्रेड यूनियन, उपभोक्ता व उत्पादक सहकारी संघ, और बस, यह रहा समाजवाद।’’ (जोसेफ स्तालिन, ‘‘दि रशियन सोशल-डेमोक्रैटिक पार्टी एण्ड इट्स इमीडियेट टास्क्स’’, वर्क्‍स, विदेशी भाषा प्रकाशन गृह, मॉस्को, 1954, पृ. 15-16, अनुवाद हमारा) यहाँ गौरतलब बात यह है कि अभी तक स्तालिन की लेनिन से मुलाकात नहीं हुई थी और स्तालिन लेनिन की कुछ रचनाओं से ही परिचित थे। अर्थवाद के बारे में इन नतीजों तक स्तालिन काफी हद तक स्वतन्त्र रूप से पहुँचे थे।

अर्थवादियों के विरुद्ध लेनिन ने जो संघर्ष चलाया उसमें बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच होने वाले विभाजन के बीज थे। 1903 में बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच विभाजन हुआ और इस विभाजन का मूल मुद्दा वास्तव में ‘‘स्वतःस्फूर्तता’’ और सचेतनता का प्रश्न, कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत और उसके सांगठनिक सिद्धान्‍त का प्रश्न और क्रान्तिकारी विचारधारा और अर्थवाद के बीच का संघर्ष था। ‘क्या करें?’ में इस बहस को लेनिन ने निर्णायक तौर पर मुकाम पर पहुँचाया और उसकी राजनीतिक परिणति 1903 की पार्टी कांग्रेस में हुई। ‘क्या करें?’ में लेनिन ने उस स्वतःस्फूर्ततावाद और पुछल्लेवाद की जो आलोचना की जिसका प्रवचन अर्थवादियों द्वारा दिया जा रहा था। इस पर हम पिछले अध्याय में ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की आलोचना रखते हुए बात कर चुके हैं और उसे हम यहाँ दुहरायेंगे नहीं। लेकिन ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी रूस के अर्थवादियों, मेंशेविकों और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों के समान बुर्जुआ वर्ग से सहयोग करने या क्रान्तिकारी संघर्ष को छोड़ने की बात नहीं कर रहे हैं। वे सचेतन संशोधनवादी नहीं हैं। फिर यह समानता क्यों? यहाँ पर हम अर्थवाद के बारे में कुछ अहम नुक्तों पर चर्चा करना जरूरी समझते हैं।

अर्थवाद का भटकाव रूसी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन में और दुनिया के किसी भी देश के कम्युनिस्ट आन्‍दोलन में दोनों ही रूपों में प्रकट होता है : दक्षिणपन्‍थी अवसरवाद के रूप में (जैसे कि रूस के मेंशेविक, अर्थवादी और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादी या भारत में भाकपा, माकपा आदि जैसी संशोधनवादी पार्टियाँ) और ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव (जैसे कि रूस में अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी, ‘वर्कर्स अपोजीशन’, बुखारिन का ‘‘वामपन्‍थी’’ विपक्ष और भारत में मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शनव इसी प्रकार के तमाम गैर-पार्टी क्रान्तिवादी)। इन दोनों ही भटकावों में जो बात साझा है वह यह है कि ये दोनों ही आर्थिक कारकों को राजनीतिक कारकों पर प्रधानता देते हैं और इस रूप में मार्क्‍सवाद की बुनियादी शिक्षा से प्रस्थान करते हैं। संशोधनवादी अर्थवाद आर्थिक कारकों की प्रधानता का हवाला देकर क्रान्ति की जरूरत को ही नकारता है; आर्थिक संघर्षों का अनालोचनात्मक महिमा-मण्डन करते हुए उनके ही राजनीतिक संघर्ष में बदल जाने की बात करता है; ट्रेड यूनियन संघर्ष और हड़तालों को मजदूर वर्ग का एकमात्र लक्ष्य बनाकर राजनीतिक सत्ता के प्रश्न को मजदूर वर्ग के एजेण्डे से बाहर कर देता है; बुर्जुआ वर्ग से सहयोग-सहकार की बात करते हुए वर्ग संघर्ष की बजाय वर्ग सहयोग की अवस्थिति पर जाकर खड़ा हो जाता है। ‘‘वामपन्‍थी’’ अर्थवाद क्रान्ति को नकारता नहीं और न ही सत्ता के प्रश्न को मजदूर वर्ग की राजनीति से बाहर करता है, लेकिन यह इस पूरी राजनीति में हिरावल की भूमिका को औपचारिक या अनौपचारिक तौर पर नकारता है; इस रूप में इसका नतीजा भी काफी कुछ यही होता है कि मजदूर वर्ग को क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना में प्रवेश के लिए किसी ‘‘बाह्य’’ हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती और मजदूर वर्ग अपने अनुभवों के जरिये इस चेतना को हासिल कर सकता है; अगर ऐसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी पार्टी की जरूरत को नाम लेकर नहीं नकारते तो भी वे पार्टी की भूमिका को एक सुदूर मार्गदर्शक के रूप में सीमित कर देते हैं, जैसा कि ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ के सुजीत दास जैसे अराजकतावाद-संघाधिपत्यवादी करते हैं; समाजवादी संक्रमण के दौरान भी आर्थिक कारकों को राजनीति पर प्रधानता देने के कारण ‘‘वामपन्‍थी’’ अर्थवाद पार्टी की भूमिका को नकारता है और ‘‘उत्पादकों के उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण’’ की बात करता है; उनके लिए समाजवाद का पूरा प्रश्न अलग-अलग बिखरे उत्पादकों या उत्पादक समुदायों का उत्पादन के साधनों पर ‘‘प्रत्यक्ष नियन्त्रण’’ है। रूस में स्मिर्नोव, ओसिंस्की आदि का वामपन्‍थी विपक्षी धड़ा, बुखारिनप्रियोब्रेजेंस्की का वामपन्‍थी विपक्षी धड़ा (जो कि बाद में, ‘‘युद्ध कम्युनिज्म’’ के दौर में, दक्षिणपन्‍थी अर्थवाद का शिकार हो गया था) और उसके बाद श्ल्याप्निकोव और कोलोंताई का वर्कर्स अपोजीशन इसी वामपन्‍थी अर्थवाद का शिकार था। क्रान्ति के पहले क्रीडो मतावलम्‍बी, 1911 में एक्सेलरोद का मजदूर कांग्रेस का प्रस्ताव इसी प्रकार के वामपन्‍थी अर्थवाद का शिकार था। अपने दोनों ही रूपों में अर्थवाद एक बुर्जुआ भटकाव या विकृति के तौर पर दुनिया के हर देश के कम्युनिस्ट आन्‍दोलन में बार-बार प्रकट होता रहा है। रूस में भी क्रान्ति के पहले और क्रान्ति के बाद अर्थवाद का भटकाव दोनों ही अवतारों में बार-बार प्रकट होता रहा। यह कहा जा सकता है कि समाजवादी संक्रमण की पूरी अवधि के दौरान अर्थवाद का भटकाव बार-बार प्रकट होगा ही क्योंकि इसका कारण है समाज में मौजूद वर्ग संघर्ष जो कि समाजवादी संक्रमण के ऐतिहासिक दौर में रूप बदलकर लेकिन और भी अधिक सघनता और कटुता के साथ बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच जारी रहता है। बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा अर्थवाद के भटकाव के रूप में ही मजदूर वर्ग की पार्टी और राज्यसत्ता में प्रवेश करती है। मजदूर वर्ग के आन्‍दोलन में अर्थवाद के भटकाव की शुरुआत ही उन लोगों के द्वारा हुई थी जो बुर्जुआ सत्ता के साथ सहयोग की लाइन अपना चुके थे या जिनका स्पष्ट तौर पर बुर्जुआकरण हो चुका था। बाद में समाजवादी संक्रमण के दौरान भी राजकीय बुर्जुआ वर्ग ने अर्थवाद को सबसे प्रमुख रूप में संरक्षण प्रदान किया। अर्थवाद के वाहक कम्युनिस्ट आन्‍दोलन में अक्सर पूँजीवादी रास्ते को अपना चुके लोग ही बनते हैं।

यहाँ पर हम ई.एच. कार के एक और विश्लेषण की चर्चा करते हुए आगे बढ़ेंगे। ई.एच. कार अर्थवाद के विरुद्ध मार्क्‍सवाद के संघर्ष की चर्चा करते हुए सभी सही तथ्यों का जिक्र करते हैं, लेकिन उनकी व्याख्या एक बार फिर अनुभववाद के गड्ढे में जा गिरती है। कार बताते हैं कि अर्थवाद के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष के जरिये ही लेनिन ने मजदूर वर्ग के क्रान्तिकारी सिद्धान्‍त को भी विकसित किया और साथ ही हिरावल पार्टी के बोल्शेविक सिद्धान्‍त को भी। वास्तव में, अर्थवाद जन पार्टी की सभी अवधारणाओं की जड़ में कहीं न कहीं मौजूद होता है। जाहिर है, जो भी मजदूर वर्ग की राजनीति को ट्रेड यूनियनवाद पर लाकर केन्द्रित कर देगा, वह एक गोपनीय ढाँचे वाली अनुशासित पार्टी की जरूरत को क्यों समझेगा? बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच फूट का तात्कालिक मुद्दा पार्टी सदस्यता की शर्तों का प्रश्न था, लेकिन उसके मूल में मेंशेविकों का अर्थवाद ही था। कार बताते हैं कि मार्क्‍स भी मानते थे कि कम्युनिस्ट पार्टी और पूरे मजदूर वर्ग में अन्‍तर है; कम्युनिस्ट मजदूर वर्ग के सबसे उन्नत, दृढ़ और प्रगतिशील तत्व हैं और वे ही पूरे मजदूर वर्ग को उसके संघर्षों में क्रान्तिकारी नेतृत्व दे सकते हैं। मजदूर वर्ग स्वयं यह कार्य स्वतःस्फूर्त रूप से नहीं कर सकता है। लेकिन कार कहते हैं कि राजनीतिक चेतना से मजदूर वर्ग को लैस करने वाली पार्टी कैसी होगी इसके बारे में मार्क्‍स व एंगेल्स के विचार परिस्थितियों के मुताबिक बदलते रहे। कार का कहना है कि जब मार्क्‍स व एंगेल्स जर्मनी में थे जहाँ पर उदार बुर्जुआ जनवाद नहीं था तब वे कम्युनिस्ट लीगजैसे संगठन में यकीन रखते थे, जो कि कोई जन पार्टी जैसा संगठन नहीं था। लेकिन जब वे इंग्लैण्ड आये तो उन्होंने इण्टरनेशनल वर्किंग मेंस एसोसियेशनबनाया जो कि एक व्यापक जन (मास) संगठन जैसा था। यानी, कार यह नतीजा निकाल रहे हैं कि मार्क्‍स व एंगेल्स के मुताबिक पार्टी का ढाँचा इस बात पर निर्भर करता था कि बुर्जुआ जनवाद कितना उदार या कितना गैर-जनवादी व तानाशाहाना है! इसीलिए जर्मनी और रूस में निरंकुश शासन की चौकसी से बचकर कार्य करने के लिए एक गोपनीय और अनुशासित पार्टी की जरूरत होगी, लेकिन इंग्लैण्ड, डेनमार्क, हॉलैण्ड या फ्रांस जैसे देशों में ऐसी पार्टी की जरूरत नहीं होगी, बल्कि एक जन पार्टी जैसी पार्टी वांछित होगी। और इसी तर्क के मुताबिक जिस दिन भारत जैसे देशों में भी बुर्जुआ जनवादी स्पेसविस्तारित हो जायेगा, उस दिन से वहाँ भी एक लेनिनवादी बोल्शेविक पार्टी की जरूरत खत्म हो जायेगी! आप देख सकते हैं कि मूल रूप में यह वही तर्क है जो कि दुनिया भर के संशोधनवादी और संसदवादी वामपन्‍थी देते हैं। लेकिन यहाँ कार एक अनैतिहासिक नजरिया अपना रहे हैं। पहली बात तो यह है कि मार्क्‍स और एंगेल्स के काल में बुर्जुआ राज्यसत्ता का पूरा ढाँचा उस कदर व्यापक, व्यवस्थित और सुदृढ़ीकृत नहीं हुआ था, जिस कदर वह लेनिन के काल में हो चुका था। एंगेल्स के जीवनकाल के उत्तरार्द्ध में ऐसी कम्युनिस्ट पार्टियाँ बनने लगी थीं, जो अगर बोल्शेविक पार्टी जैसी नहीं थीं तो जन पार्टी जैसी भी नहीं थीं। लेनिन ने पार्टी सिद्धान्‍त को पहली बार व्यवस्थित किया, बल्कि कहना चाहिए कि मार्क्‍सवाद के पार्टी सिद्धान्‍त के निर्माता लेनिन ही थे। लेनिन ने स्पष्ट तौर पर बताया कि एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी हर हालत में अपना गोपनीय ढाँचा कायम रखेगी। वह किस हद तक संसदीय कार्य और अन्य खुले राजनीतिक कार्यों के रूपों का इस्तेमाल करेगी, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि बुर्जुआ राज्यसत्ता कितने जनवादी अधिकार और जनवादी स्पेसजनता को देती है। लेकिन उदार से उदार बुर्जुआ जनवादी गणराज्य में भी काम करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी अपने समूचे ढाँचे को कभी पूरी तरह खुला नहीं कर सकती है। ऐसा करने का अर्थ होगा पार्टी और इस प्रकार क्रान्ति के भविष्य को बुर्जुआ राज्यसत्ता की दया पर रखना। लेनिन की इस महान ऐतिहासिक शिक्षा को इतिहास ने सही साबित किया है और दिखलाया है कि पूँजीवाद जब आर्थिक और राजनीतिक संकट का शिकार होता है तो उदार से उदार बुर्जुआ राज्यसत्ताएँ जनवाद और स्वतन्त्रता के मुखौटों को नोचकर फेंक देती हैं और मजदूर वर्ग के समक्ष अपने खाने के दाँतों’, यानी कि फौज, पुलिस व सशस्त्र बलों के साथ उपस्थित हो जाती हैं। लेकिन कार इस पूरे सैद्धान्तिक प्रश्न को एक व्यावहारिक प्रश्न बना देते हैं, और इस बात को सिद्ध करने के लिए यह दलील देते हैं कि मार्क्‍स और एंगेल्स का इस प्रश्न पर कोई एकरूप और निरन्‍तरतापूर्ण व्यवहार नहीं रहा था। इसी को हम ऐतिहासिक दृष्टि की कमी कह रहे थे। मार्क्‍स और एंगेल्स से पार्टी के ढाँचे के प्रश्न पर निरन्‍तरतापूर्ण राजनीतिक व्यवहार की उम्मीद करना ही अनैतिहासिक है। उन्होंने हिरावल की जरूरत पर पर्याप्त बल दिया था। लेकिन यह हिरावल किस प्रकार का होगा यह बुर्जुआ सत्ताओं की शासन कला और शिल्प के विकास के मुकम्मिल मंजिल पर पहुँचने के साथ ही तय हो सकता था। मार्क्‍स व एंगेल्स से बोल्शेविक पार्टी के उसूलों के ईजाद की उम्मीद करना वैसे ही होगा, जैसे कि हम उनसे साम्राज्यवाद के सम्पूर्ण मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त के प्रतिपादन की उम्मीद करें। ई.एच. कार इस प्रकार के अनैतिहासिक विश्लेषण की गलती अन्य कई जगहों पर करते हैं। उन पर हम उपयुक्त स्थानों पर चर्चा करेंगे। फिलहाल, हम उन शुरुआती राजनीतिक संघर्षों की चर्चा पर वापस लौटते हैं, जिन्होंने शुरुआती वर्षों में रूस में कम्युनिस्ट आन्‍दोलन और बोल्शेविक पार्टी को आकार दिया।

अर्थवाद के विरुद्ध लेनिन के संघर्ष की यह केवल शुरुआत थी। रूसी पार्टी के पूरे इतिहास में अर्थवाद का विचलन कभी ‘‘वामपन्‍थी’’ तो कभी दक्षिणपन्‍थी भटकाव के रूप में बार-बार प्रकट होता रहा। इसके खिलाफ लेनिन ने अपने जीवित रहते दृढ़तापूर्वक संघर्ष चलाया, जिसकी टुकड़ों-टुकड़ों में हमने पिछले अध्याय में ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी अर्थवाद की आलोचना रखते समय चर्चा की थी। आगे हम अलग-अलग समय इसके खिलाफ चले संघर्षों में से एक-एक पर अलग-अलग अपना विश्लेषण रखेंगे और यह भी प्रदर्शित करने का प्रयास करेंगे कि अर्थवाद का भटकाव आज भी कम्युनिस्ट आन्‍दोलन के भीतर भी एक अहम चुनौती के तौर पर मौजूद है।

बहरहाल, ये तीन प्रमुख संघर्ष थे जिन्होंने शुरुआती वर्षों में बोल्शेविक पार्टी को ठोस रूप देने का काम किया, यानी कि नरोदवाद, ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद और अर्थवाद के विरुद्ध संघर्ष। आगे बढ़ने से पहले इन तीनों को समझना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि 1900-1901 से लेकर 1917 तक पार्टी के भीतर चले दो लाइनों के संघर्ष, अन्य राजनीतिक शक्तियों से बोल्शेविक पार्टी के राजनीतिक संघर्ष और विभिन्न दार्शनिक विचलनों के विरुद्ध विशेष तौर पर लेनिन के संघर्ष कुछ मायनों में इन तीन प्रमुख शुरुआती राजनीतिक संघर्ष का विस्तार और उन्नत रूप थे। ई.एच. कार ने इन तीनों संघर्षों को ठीक ही बोल्शेविज्म की बुनियाद का नाम दिया है। चार्ल्‍स बेतेलहाइम ने रूसी सामाजिक जनवादी आन्‍दोलन में दो लाइनों के संघर्ष का जो ब्यौरा दिया है, उसमें द्वन्‍द्वात्मक विश्लेषण की गम्‍भीर कमी है और तथ्यों का चयन भी मनमाने ढंग से किया गया है। बेतेलहाइम के ब्यौरे पर हम आगे आएँगे, लेकिन पहले हम इन तीन बुनियादी संघर्षों के दौरान पार्टी संगठन के विकास और उसके बाद हुए प्रमुख राजनीतिक संघर्षों की चर्चा करेंगे।

  1. पार्टी का निर्माण और गठन

हमने ऊपर 1880 और 1890 के दशक में रूस और रूस के बाहर रूसी मार्क्‍सवादी क्रान्तिकारियों के छोटे समूहों के संगठन की चर्चा की थी। अब इन पर थोड़े विस्तार से चर्चा करना राजनीतिक संघर्षों के आगे की रूपरेखा देने के लिए जरूरी होगा। जैसा कि हमने पहले उल्लेख किया था, प्लेखानोव 1870 के दशक के अन्‍त में चोर्नी पेरेदेल नामक नरोदवादी समूह से अलग हुए थे। प्लेखानोव ने अन्य दो रूसी मार्क्‍सवादी क्रान्तिकारियों वेरा जासुलिच व एक्सेलरोद के साथ मिलकर ज्यूरिख (स्विट्जरलैण्ड) में ‘लिबरेशन ऑफ लेबर’ नामक मार्क्‍सवादी समूह की स्थापना की और नरोदवाद के साथ सैद्धान्तिक संघर्ष की शुरुआत की, जिसका हम ऊपर ब्यौरा दे चुके हैं। प्लेखानोव का यह लेखन रूस के राजनीतिक दायरों में भी पहुँच रहा था। साथ ही, 1872 में ‘पूँजी’ के पहले रूसी संस्करण के प्रकाशन के साथ स्वतःस्फूर्त तरीके से रूस में कुछ अन्य मार्क्‍सवादी समूह भी अस्तित्व में आ चुके थे। ऐसा ही एक समूह था लीग ऑफ स्ट्रगल फॉर लिबरेशन ऑफ वर्किंग क्लास। इस संगठन के संस्थापक सदस्यों में एक व्लादीमिर इल्यीच लेनिन थे। लेनिन जब पीटर्सबर्ग में थे तो वे एक छात्र समूह ओल्ड मेन में शामिल हुए। जल्दी ही वह इसके नेता बन गये। इसके बाद उनका पीटर्सबर्ग के कुछ राजनीतिक मजदूरों से परिचय हुआ, जिसमें से इवान बाबुश्किन भी एक थे। उस समय ही लेनिन ने लोकरंजकतावाद और नरोदवाद के विरुद्ध अपने सैद्धान्तिक संघर्ष की शुरुआत की। 1894 में लेनिन के प्रस्ताव पर इस समूह ने पीटर्सबर्ग के मजदूरों के हड़ताल आन्‍दोलन में हस्तक्षेप करना शुरू किया। उस समय दि यूथ्स नामक एक छात्र समूह जिसमें कि इंजीनियरिंग व मेडिकल के छात्र शामिल थे, मजदूरों के बीच अर्थवादी सोच के साथ काम कर रहा था। लेनिन ने इनके अर्थवाद की कठोर आलोचना की, जो कि मजदूरों की गतिविधियों को केवल आर्थिक माँगों के लिए संघर्ष तक सीमित करना चाहता था। 1895 में पीटर्सबर्ग के मार्क्‍सवादियों के एक हिस्से ने मिलकर लेनिन को प्लेखानोव के ‘लिबरेशन ऑफ लेबर’ समूह से सम्पर्क करने के लिए विदेश भेजा। विदेश जाने पर लेनिन ने यूरोप के सामाजिक जनवादी आन्‍दोलन का भी गहरा अध्ययन किया और प्लेखानोव से मुलाकात कर राजनीतिक एकता स्थापित की। लेनिन के वापस आने के बाद पीटर्सबर्ग के सभी मार्क्‍सवादी क्रान्तिकारियों के बीच एकता स्थापित हुई और लीग ऑफ स्ट्रगल फॉर लिबरेशन ऑफ वर्किंग क्लास की नवम्बर 1895 में स्थापना हुई। यह एक मील का पत्थर था क्योंकि पहली बार मार्क्‍सवादियों का एक ऐसा समूह अस्तित्व में आया था जो महज वैचारिक और सैद्धान्तिक बहसों में संलग्न नहीं था बल्कि मजदूर वर्ग के बीच व्यावहारिक राजनीतिक गतिविधियों में लगा हुआ था। जहाँ तक ऐतिहासिक तथ्य मौजूद हैं, वह यह स्पष्ट रूप से इंगित करते हैं कि इस मायने में ‘लीग ऑफ स्ट्रगल’ रूस के सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन में एक मील का पत्थर था। लेनिन के अलावा इस संगठन की स्थापना या उसके कुछ समय बाद ही इससे जुड़ गये शुरुआती सदस्यों में मार्तोव और क्रुप्सकाया भी शामिल थे।

सही मायने में कहें तो कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन के बारे में लेनिन के विचारों के व्यवस्थित होने की शुरुआत इसी समय हो गयी थी। यह लीग एक गोपनीय और अनुशासित संगठन था जिसका कि एक केन्‍द्रीकृत नेतृत्व था। इस ढाँचे की व्याख्या इस बात से नहीं की जा सकती है कि पश्चिमी बुर्जुआ जनवादी देशों के विपरीत रूस में एक निरंकुश राजतन्त्र था और इसलिए ऐसा सांगठनिक ढाँचा रूस के क्रान्तिकारियों के लिए एक मजबूरी था। क्योंकि उसी समय ऐसे अन्य कई मार्क्‍सवादी समूह थे जो इन उसूलों का पालन नहीं करते थे। निश्चित रूप से जारशाही का चौकसी तन्त्र खुले राजनीतिक कार्य को मुश्किल बनाता था और हरेक राजनीतिक ग्रुप को (यदि वह कोई व्यावहारिक राजनीतिक गतिविधि करता था) सावधान रहना पड़ता था। लेकिन लीग का सांगठनिक ढाँचा एक सकारात्मक प्रस्ताव था। यह सिर्फ बाहरी राजनीतिक गतिविधियों को जारशाही की खुफिया पुलिस से बचकर करने के लिए नहीं था। यह गोपनीयता और अनुशासन की अनिवार्यता को स्वतन्त्र रूप से समझता था। इस रूप में लेनिन की सांगठनिक लाइन भ्रूण रूप में 1895 में ही विकसित होना शुरू हो चुकी थी। खैर, लीग की बढ़ती राजनीतिक गतिविधियाँ खुफिया पुलिस की निगाह में आने लगी थीं और वह इस संगठन को लेकर सचेत भी हो गयी थी। अगस्त 1896 तक अलग-अलग मौकों पर लीग के करीब 100 सदस्य गिरफ्तार किये जा चुके थे जिसमें कि लेनिन, क्रुप्सकाया, मार्तोव और बाबुश्किन शामिल थे। लीग का संगठन काफी हद तक तबाह हो गया था। लेकिन लेनिन ने जेल से अपनी गतिविधियाँ और सैद्धान्तिक कार्य जारी रखा। जेल से लेनिन ने लीग के उन सदस्यों से सम्पर्क बनाये रखा जो अभी बाहर थे और सक्रिय थे। जेल से ही उन्होंने कई हड़तालों के दौरान मजदूरों में वितरण के लिए पर्चे और मई दिवस का पर्चा भी लिखा। जल्द ही लीग ने कियेव, नीज्नी नोवोग्राद, मॉस्को आदि के मार्क्‍सवादी मण्डलों से भी सम्पर्क स्थापित कर लिया और राष्ट्रीय स्तर पर एक सामाजिक-जनवादी क्रान्तिकारियों के केन्‍द्र के रूप में काम करने लगा। लेकिन 1897 तक लीग के सभी प्रमुख मार्क्‍सवादी गिरफ्तार हो चुके थे। नेतृत्वकारी निकाय के अभाव में लीग को नेतृत्व देने के लिए ‘दि यूथ्स’ के सदस्य आये। इनमें से ज्यादातर मार्क्‍सवाद से ज्यादा बर्नस्टीनवाद से प्रेरित थे और संशोधनवादी अर्थवाद की सोच पर काम करते थे। यही कोर समूह था जो अर्थवाद की धारा का प्रमुख नुमाइन्‍दा बना। लेकिन लेनिन की लीग ऑफ स्ट्रगलअपना काम कर चुकी थी और तब तक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट विचार रूस के मजदूर आन्‍दोलन में पाँव जमा चुके थे। रूस में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्‍दोलन के जोर पकड़ने के साथ लीग अप्रासंगिक होती गयी, जिस पर अब अर्थवाद का वर्चस्व कायम हो चुका था।

मार्च 1898 में मिन्स्क में रूसी सामाजिक-जनवादी मजदूर पार्टी की स्थापना कांग्रेस हुई। इस कांग्रेस में मात्र 9 लोग शामिल थे जो कि पीटर्सबर्ग, मॉस्को, कियेव, और एकातेरिनोस्लाव के स्थानीय मार्क्‍सवादी संगठनों और रूस और पोलैण्ड की यहूदी जनरल मजदूर यूनियन के, जिन्हें आम तौर पर ‘‘बुण्ड’’ कहा जाता था, प्रतिनिधि थे। कांग्रेस 1 से 3 मार्च तक, यानी तीन दिन चली। इसने एक केन्‍द्रीय कमेटी को नियुक्त किया और एक पार्टी पत्र निकालने का निर्णय लिया। लेकिन इसके आगे कुछ और ठोस हो पाता, पुलिस ने सभी प्रमुख भागीदारों को गिरफ्तार कर लिया। नतीजतन, इस स्थापना कांग्रेस ने कोई कार्यक्रम भी नहीं निर्धारित किया था। लेकिन इसकी एक उपलब्धि यह थी कि जिन स्थानीय मार्क्‍सवादी समूहों ने इसमें भागीदारी की थी उन्हें अब एक साझा पार्टी नाम मिल गया था और अब वे इसी साझा नाम का प्रयोग करने लगे थे। हालाँकि, जैसा कि ई.एच. कार ने बताया है कि इन तमाम अलग-अलग स्थानीय संगठनों में से कई में आपस में अभी कोई सम्पर्क स्थापित नहीं हो पाया था। जो नौ प्रतिनिधि इस स्थापना कांग्रेस में शामिल हुए थे, उनमें से कोई भी पार्टी के निर्माण के लिए आगे चलने वाले दो लाइनों के संघर्ष में कोई भूमिका नहीं निभाने वाला था। कांग्रेस के सम्पन्न हो जाने के बाद पीटर स्त्रूवे (‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादी, जिनका हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं) ने रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी का एक घोषणापत्र लिखा। इस घोषणापत्र में स्त्रूवे ने माना कि रूस में जनवादी कार्यभारों को पूरा करने की जिम्मेदारी का बड़ा हिस्सा भी सर्वहारा वर्ग के कन्धों पर आ गया है क्योंकि, ‘‘आप यूरोप में जितना पूरब की तरफ जाते हैं, राजनीतिक अर्थों में बुर्जुआ वर्ग उतना ही कमजोर, दुष्ट और कायर होता जाता है, और सर्वहारा वर्ग पर सांस्कृतिक और राजनीतिक कार्यभार उतने ही ज्यादा बढ़ते जाते हैं। अपने मजबूत कन्धों पर रूसी मजदूर वर्ग को राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल करने के कार्य को उठाना चाहिए और उसे उठाना ही होगा। यह एक बुनियादी कदम है, लेकिन केवल पहला कदम, सर्वहारा वर्ग के उस महान ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने की ओर, एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के लिए जिसमें आदमी के हाथों आदमी के शोषण का कोई स्थान नहीं रहेगा।’’ (ई.एच. कार, दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन, खण्ड 2 में उद्धृत, नॉर्टन, न्यूयॉर्क, 1985, पृ. 4, अनुवाद हमारा)। जैसा कि हम देख सकते हैं कि इस घोषणापत्र में दो चरणों में क्रान्ति के सम्पन्न होने की बात की गयी है। ताज्जुब की बात है कि स्त्रूवे ने उस समय बुर्जुआ वर्ग की कमजोरी और कायरता की और साथ ही सर्वहारा वर्ग पर जनवादी कार्यभारों को पूरा करने की जिम्मेदारी की भी बात की थी। लेकिन बाद में स्त्रूवे पूरी तरह से बुर्जुआ वर्ग का पुछल्ला बन जाने की नीति की हिमायत करने लगे और यह कहने लगे कि बुर्जुआ जनवादी कार्यभारों के पूरा होने तक सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ वर्ग की पूँछ पकड़कर चलना चाहिए। बहरहाल, दो अहम मुद्दों पर यह घोषणापत्र कुछ भी नहीं कहता था : एक सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का पूरे घोषणापत्र में कहीं जिक्र नहीं था और दूसरा, कोई तात्कालिक या दूरगामी ठोस कार्यक्रम इस घोषणापत्र में नहीं रखा गया था। कार ने ठीक ही कहा है कि यह घोषणापत्र एक अकादमिक कवायद बनकर रह गया।

इस बीच 1900 में लेनिन अपने निर्वासन से मुक्त हो चुके थे। अपने निर्वासन के दौरान ही वह मार्तोव, पोत्रेसोव और क्रुप्सकाया के साथ एक राजनीतिक मजदूर अखबार की योजना बना रहे थे। लेनिन का मानना था कि एक पार्टी अखबार के बगैर रूसी सामाजिक-जनवादी सर्वहारा वर्ग के उन्नत तत्वों को संगठित करने का काम नहीं कर सकते हैं। इसके बाद लेनिन, मार्तोव और पोत्रेसोव जिनेवा में प्लेखानोव से मिले। उन्होंने पार्टी अखबार की योजना पर बात की और उनके बीच इसे लेकर एक राय बनी। इसके बाद यह तय हुआ कि दो पार्टी ऑर्गन निकाले जाएँगेः पहला एक राजनीतिक मजदूर अखबार, इस्क्रा और दूसरा एक सैद्धान्तिक पार्टी ऑर्गन, जार्या। इन पार्टी मुखपत्रों के लिए जो सम्पादक मण्डल तय हुआ उसमें प्लेखानोव, लेनिन, मार्तोव, एक्सेलरोद, वेरा जासुलिच और पोत्रेसोव शामिल थे।

इस्क्रा का पहला अंक स्टटगार्ड में 1 दिसम्बर, 1900 को छपा। जार्या का पहला अंक 1 अप्रैल 1901 को छपकर आया। इन दोनों ही मुखपत्रों में सम्पादक मण्डल के सिर्फ तीन वरिष्ठ सदस्यों का नाम प्रकाशित होता था : प्लेखानोव, एक्सेलरोद और वेरा जासुलिच। लेनिन, मार्तोव और पेत्रोव अभी भी प्लेखानोव को अपना विचारधारात्मक गुरू मानते थे और रूसी मार्क्‍सवादियों के नेता के तौर पर दुनिया में लोग प्लेखानोव को ही जानते थे। लेकिन लेनिन इस समय तक इस्क्रा और जार्या के सबसे प्रमुख लेखक बन चुके थे। दिसम्बर 1901 से पहले लेनिन कुछ अन्य नामों से लिखा करते थे जैसे ‘पेत्रोव’, ‘फ्रेई’ आदि। दिसम्बर 1901 में जार्या में पहली बार ‘लेनिन’ नाम से उनका एक लेख प्रकाशित हुआ। 1901 के अन्‍त तक लेनिन अपनी विचारधारात्मक और राजनीतिक स्पष्टता, दृढ़ता और निर्णायकता के चलते समूह के प्रमुख नेता के रूप में उभरने लगे थे। लेनिन के नेतृत्व में क्रान्तिकारियों के इस समूह के दो लक्ष्य थे : पहला, एक सुदृढ़ क्रान्तिकारी विचारधारा का विकास जिस पर कि रूसी मार्क्‍सवादियों के अधिकतम सम्भव हिस्से को सहमत किया जा सके और दूसरा 1898 में शुरू हुई पार्टी गठन की प्रक्रिया को फिर से शुरू करते हुए एक नयी पार्टी कांग्रेस बुलाना। पहले काम में इस्क्रा और जार्या में निरन्‍तर राजनीतिक लेखन और बहसें जारी रखने के अलावा रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी का एक कार्यक्रम तय करना भी शामिल था। इस्क्रा का घोषित लक्ष्य बिखरे हुए रूसी सामाजिक जनवादी आन्‍दोलन को ‘‘एक निश्चित संगठन और मुखाकृति’’ प्रदान करना था। लेकिन रूसी सामाजिक जनवादियों को संगठित करने में लेनिन किसी भी किस्म का राजनीतिक समझौता नहीं चाहते थे, न ही विचारधारात्मक-राजनीतिक मुद्दों पर और न ही सांगठनिक उसूलों पर। हम पहले जिक्र कर चुके हैं कि एक केन्‍द्रीकृत और अनुशासित सर्वहारा हिरावल पार्टी की सोच लेनिन के दिमाग में 1895 में पीटर्सबर्ग में ‘लीग ऑफ स्ट्रगल’ की स्थापना के समय ही पैदा हो चुकी थी। इसलिए इस्क्रा के शुरू होने की घोषणा में लेनिन ने लिखा, ‘‘एकजुट होने से पहले, और एकजुट होने के लिए, हमें पहले निर्णायक और सुनिश्चित तौर पर सीमा रेखाएँ खींच लेनी चाहिए। अन्यथा हमारी एकता महज एक कपोल कल्पना होगी जो कि मौजूदा भ्रम को ढँकने का काम करेगी और इसके आमूलगामी ढंग से सफाये को रोकेगी। इसलिए यह समझ लिया जाये कि हम अपने मुखपत्र को वैविध्यपूर्ण रायों का एक संग्रह मात्र बनाने का इरादा नहीं रखते। इसके विपरीत, इसे एक सख्ती से निर्धारित नीति की भावना में संचालित करेंगे।’’ (वी.आई. लेनिन, कलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 5, मॉस्को, 1960, पृ. 430, अनुवाद हमारा)

लेनिन में शुरू से ही यह दृढ़ता और लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठा मौजूद थी। साथ ही, जिस तरीके से वह राजनीतिक बहस चलाते थे, विरोधियों पर हमला करते थे और पार्टी की गतिविधियों को नेतृत्व देते थे, उसमें किसी किस्म का आडम्बर या आत्मश्लाघा नहीं था। उनकी बात हमेशा सीधी और सटीक हुआ करती थी और बेहद नपे-तुले शब्दों में। मिसाल के तौर पर क्या करें? के प्रकाशन के बाद दूसरी पार्टी कांग्रेस में लेनिन ने अर्थवादियों की अपनी इस आलोचना के पक्ष में दलील रखते हुए कहा था, ‘‘अर्थवादियों ने छड़ी को एक तरफ मोड़ दिया था। छड़ी को सीधा करने के लिए उसे दूसरी ओर मोड़ना जरूरी था; मैंने बस यही किया।’’ लेनिन की बात की यही निर्णायकता उन्हें रूसी जनता और कम्युनिस्ट पार्टी का नेता बनाती थी। लेनिन की जबर्दस्त बौद्धिक क्षमता, विचारधारात्मक समझ, दार्शनिक अध्ययन, विश्लेषणात्मक कौशल और राजनीतिक निर्णायकता ही थी कि इस्क्रा 1902 तक रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी का एक कार्यक्रम प्रस्तावित करने में सफल रहा। लगभग इसी समय लेनिन की प्रसिद्ध रचना ‘क्या करें?’ का प्रकाशन हुआ जो कि अर्थवादियों और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों की निर्णायक आलोचना थी; लेकिन हमारा मानना है कि इस रचना को ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ और अन्य जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और गैर-पार्टी क्रान्तिवादी रुझानों की आलोचना के तौर पर भी पढ़ा जाना चाहिए, जो कि पिछले एक दशक में विशेष तौर पर देश के मजदूर आन्‍दोलन के अलग-अलग हिस्सों में उग आये हैं। इनमें से अधिकांश रुझान लेनिनवाद का नाम लेते हुए वास्तव में लेनिनवाद के कोर उसूलों पर हमला करते हैं। वास्तव में, इसे सामान्य तौर पर अर्थवाद और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद के साथ हर प्रकार के गैर-पार्टी क्रान्तिवाद की आलोचना के तौर पर भी पढ़ा जाना चाहिए। लेनिन के नेतृत्व में इस्क्रा के प्रकाशन और ‘क्या करें?’ के प्रकाशन ने विचारधारात्मक-राजनीतिक तौर पर दूसरी पार्टी कांग्रेस की जमीन तैयार कर दी थी। 1902 में ‘क्या करें?’ के प्रकाशन के साथ तीन प्रमुख राजनीतिक विरोधियों, यानी कि नरोदवाद, अर्थवाद और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद पर निर्णायक रूप से विजय प्राप्त कर ली गयी थी। साथ ही, इस समय तक मजदूर वर्ग के बीच सतत् राजनीतिक कार्य ने पार्टी संगठन का भी बुनियादी ढाँचा खड़ा कर दिया था।

1903 की पार्टी कांग्रेस ने रूसी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन में पहली फूट को जन्म दिया जो कि कुछ अहम राजनीतिक और सांगठनिक सवालों को लेकर हुई थी। इस फूट ने दो नये राजनीतिक संघर्षों को जन्म दिया जो कि रूसी क्रान्ति के बाद भी चलते रहे : बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच का संघर्ष और बोल्शेविकों व त्रात्स्कीपन्‍थ के बीच संघर्ष। जिन तीन बुनियादी संघर्षों ने बोल्शेविज्म और लेनिनवाद की बुनियाद रखी (जिनका हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं) उन तीनों की छाया अगले दो बड़े राजनीतिक संघर्षों में भी हमें दिखती है, जो कि लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी और मेंशेविकों तथा बोल्शेविक पार्टी और त्रात्स्कीपन्‍थ के बीच हुआ।

1903 से रूसी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन के इतिहास का एक नया चरण शुरू होता है। इस चरण की शुरुआत मेंशेविकों से फूट के साथ हुई। इस फूट के बाद का इतिहास नये राजनीतिक-विचारधारात्मक संघर्षों का इतिहास है, जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे। इस इतिहास की शुरुआत मेंशेविज्म से संघर्ष के साथ होती है। सही मायनों में, मेंशेविज्म पुराने अर्थवादियों और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों का वंशज था और मेंशेविज्म के साथ सांगठनिक लाइन पर लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों का जो टकराव हुआ वह राजनीतिक अन्‍तरविरोधों का ही नतीजा था और इन राजनीतिक अन्‍तरविरोधों का मूल अर्थवाद और रूस में क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल को लेकर ही था।

  1. पार्टी के गठन के बाद पार्टी के भीतर दो कार्यदिशाओं का संघर्ष

क) मेंशेविज्म से संघर्ष

1900 से लेकर 1903 तक इस्क्रा को आधार बनाकर जो राजनीतिक कार्य लेनिन के नेतृत्व में हुआ, उससे वह सांगठनिक और राजनीतिक जमीन तैयार हुई जिसकी बुनियाद पर 1903 में दूसरी पार्टी कांग्रेस हुई। सही मायने में यह पार्टी कांग्रेस स्थापना कांग्रेस मानी जानी चाहिए क्योंकि 1898 में पहली पार्टी कांग्रेस में जो पहल शुरू हुई थी, उसका अब कुछ नहीं बचा था। सिर्फ एक नाम बचा था जिसे कि दूसरी पार्टी कांग्रेस में भी अपनाया गया। इस पार्टी कांग्रेस से पहले लेनिन व प्लेखानोव के नेतृत्व में काम कर रहे सामाजिक जनवादियों में पार्टी कार्यक्रम और पार्टी संहिता को लेकर बहस शुरू हुई, जिन्हें अब इस्क्रा समूह के नाम से जाना जाता था। इस्क्रा समूह के भीतर पार्टी कार्यक्रम और पार्टी संहिता को लेकर जो चर्चाएँ शुरू हुईं उसमें लेनिन और प्लेखानोव के बीच कुछ गम्‍भीर मतभेद उभरकर सामने आये। प्लेखानोव ने पार्टी कार्यक्रम का पहला मसविदा पेश किया, जिसमें कि सैद्धान्तिक तौर पर कुछ गलत नहीं था, लेकिन रूस में पूँजीवाद के विकास को लेकर और इसके परिणामस्वरूप रूस में क्रान्ति की तैयार होती परिस्थितियों की विवेचना ढीली-ढाली थी। नतीजतन, इससे कोई ठोस व्यावहारिक कार्यक्रम नहीं निकलता था। किसान प्रश्न पर भी प्लेखानोव के मसौदे में कुछ खास नहीं था। लेनिन ने इस मसौदे का विरोध करते हुए कहा, ‘‘यह व्यावहारिक संघर्ष में संलग्न किसी पार्टी का कार्यक्रम नहीं है बल्कि सिद्धान्‍तों का घोषणापत्र हैबल्कि छात्रों के लिए एक कार्यक्रम है।’’ लेनिन ने इस मसौदे के जवाब में एक वैकल्पिक मसौदा पेश किया जो कि सभी सैद्धान्तिक मसलों पर ज्यादा ठोस और सटीक अवस्थिति अपनाता था। लेकिन इस्क्रा समूह में रूसी सामाजिक जनवादियों के सबसे पुराने और सम्मानित नेता के तौर पर प्लेखानोव की प्रतिष्ठा अत्यधिक थी और लेनिन अभी 33 वर्ष के एक युवा थे। संगठन ने इसके बाद इस प्रश्न के निपटारे के लिए आयोग बनाया जिसका काम दोनों मसौदों को मिलाकर एक मसौदा तैयार करना था। दोनों मसौदों को मिलाकर जो पार्टी कार्यक्रम तैयार हुआ उसमें लेनिन के मसौदे के लगभग सभी बिन्‍दुओं को प्लेखानोव द्वारा कुछ मामूली संशोधनों के साथ स्वीकार किया गया था, और प्लेखानोव के मसौदे के उन सभी बिन्‍दुओं पर लेनिन के संशोधन शामिल किये गये थे, जो सैद्धान्तिक तौर पर कमजोर थे। कार्यक्रम का भूमि कार्यक्रम का पूरा हिस्सा लेनिन ने लिखा था। लेनिन उस समय ही भूमि के राष्ट्रीयकरण को कार्यक्रम में शामिल करना चाहते थे, जबकि प्लेखानोव इस पर सहमत नहीं थे। अन्‍त में, इस बात पर सहमति बनी कि किसानों को वे सारी जमीनें बिना मुआवजा वापस करने की माँग कार्यक्रम में शामिल की जाये जो कि भूदास मुक्ति के समय उनसे ले ली गयी थी। सर्वहारा अधिनायकत्व और क्रान्ति में मजदूर वर्ग की नेतृत्वकारी भूमिका पर भी लेनिन के प्रस्ताव को कार्यक्रम में शामिल किया गया। इस समय लेनिन और प्लेखानोव के बीच जो मतभेद हुए थे, वास्तव में वही मतभेद आगे प्लेखानोव को मेंशेविकों के पक्ष में खड़ा करने वाले थे। अन्तिम तौर पर अपनाये गये कार्यक्रम का विचारधारात्मक हिस्सा मानता था कि रूस में पूँजीवाद अब आगे की प्रगति के लिए बाधा है। उसके अन्‍तरविरोधों के बढ़ने के साथ सर्वहारा वर्ग की ‘‘संख्या और एकजुटता बढ़ रही है और शोषकों के साथ उसका संघर्ष और तीखा होता जा रहा है।’’ कार्यक्रम ने इस बात का जिक्र किया कि पूँजीवाद के अन्‍तरविरोधों के तीव्र होते जाने के साथ समाजवादी क्रान्ति की जमीन तेजी से तैयार हो रही है। यह पहला कार्यक्रम था जिसने सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की बात की। कार्यक्रम का वह हिस्सा जो रूसी क्रान्ति के तात्कालिक लक्ष्यों से सम्‍बन्धित था, मूल तौर पर निरंकुश राजतन्त्र के खात्मे, संविधान सभा बुलाने, जनवादी अधिकारों (जैसे कि अभिव्यक्ति, समान व सार्वभौमिक मताधिकार, संगठित होने और एकत्र होने की स्वतन्त्रता और न्यायाधीशों के चुनाव का अधिकार), और चर्च व राज्य के अलगाव की बात करता था। इन राजनीतिक अधिकारों के अलावा एक हिस्सा आर्थिक माँगों को समर्पित था जिसमें कि आठ घण्टे का कार्यदिवस, बाल श्रम पर प्रतिबन्‍ध, बुजुर्गों के लिए राज्य बीमा, और जुर्मानों पर रोक की माँगें शामिल थीं। किसानों की आर्थिक माँगों में उनसे भूदास उन्मूलन के समय छीनी गयी जमीनों को वापस करने की माँग प्रमुख थी। जाहिर है कि यह कार्यक्रम जनवादी कार्यभारों को पूरा करने के लिए था और इसे रैडिकल बुर्जुआ और किसानों को साथ लेने को ध्यान में रखकर तैयार किया गया था। साथ ही कार्यक्रम में हर उस आन्‍दोलन को समर्थन देने की बात की गयी थी जो कि मौजूद व्यवस्था के वास्तविक रूप में खिलाफ था। इस कार्यक्रम को कुछ मामूली संशोधनों के साथ 1903 की कांग्रेस में पास कर लिया गया था और यह 1919 तक मूल रूप में बदला नहीं गया था।

दूसरी पार्टी कांग्रेस में करीब 25 सामाजिक जनवादी संगठनों के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की। हर प्रतिनिधि को दो वोट देने का अधिकार था। यहूदी बुण्ड को कांग्रेस ने स्वायत्त संगठन की विशेष स्थिति प्रदान की थी और उनके प्रतिनिधियों को 3 वोट का अधिकार दिया गया था। कुछ संगठन एक ही प्रतिनिधि भेज पाये इसलिए अन्‍ततः कांग्रेस में कुल 43 वोट देने का अधिकार रखने वाले प्रतिनिधि आये जिनके पास 51 वोट डालने का अधिकार था। इसके अलावा कुछ अन्य संगठनों के 14 प्रतिनिधि और भी थे, लेकिन उनके पास वोट डालने का अधिकार नहीं था। इस कांग्रेस में 30 प्रतिनिधि ऐसे थे जो कि इस्क्रा समूह से थे या उसकी कार्यदिशा से घोषित तौर पर सहमत थे। लेकिन ऐसा नहीं था कि इस्क्रावादियों के बीच की एकता कोई एकाश्मी एकता थी; वास्तव में, शुरू से ही इस्क्रावादियों को लेनिन-नीत इस्क्रावादियों और अन्य इस्क्रावादियों के बीच विभाजित किया जा सकता था। यह बात कांग्रेस में कार्यक्रम पर चर्चा और उसे अपनाये जाते समय पूरी तरह खुलकर सामने नहीं आयी। नतीजतन, कांग्रेस में कार्यक्रम पर चर्चा तक सभी इस्क्रावादियों का धड़ा ही बहुमत में था। जिन स्रोतों से कुछ विरोध आ सकता था वह यहूदी बुण्ड के प्रतिनिधि थे जो कि पार्टी में सिर्फ अपने जातीय अल्पसंख्यक होने के अधिकारों और स्वायत्ता के विशिष्ट अधिकारों की रक्षा में दिलचस्पी रखते थे। इसके अलावा 2 अर्थवादी रुझान रखने वाले प्रतिनिधि थे, एकिमोव और मार्तीनोव। इन प्रतिनिधियों की तरफ से सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के प्रश्न पर सवाल उठाये गये।

‘बोल्शेविक पार्टी का इतिहास’ (1936) के अनुसार कुछ अर्थवादी रुझान वाले समूह अपनी पहचान को छिपाकर कांग्रेस में आये थे और सभी अहम सैद्धान्तिक मुद्दों पर उनकी अवस्थिति डावाँडोल होती रही। लेकिन एकिमोव और मार्तीनोव खुले तौर पर शुरू से अर्थवादी रुझान की नुमाइन्‍दगी कर रहे थे। ये दोनों विदेशी रूसी सामाजिक जनवादी यूनियन की नुमाइन्‍दगी कर रहे थे। दो विरोध के वोटों के साथ इस्क्रा को पार्टी का मुखपत्र स्वीकार किया गया। सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के अलावा, कार्यक्रम के जिन हिस्सों पर कुछ बहस हुई उनमें एक था सर्वहारा वर्ग की चेतना का प्रश्न। कार्यक्रम एक जगह सर्वहारा वर्ग की बढ़ती संख्या और एकजुटता का जिक्र कर रहा था; वहाँ पर मार्तीनोव ने चेतनाशब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा। यह वास्तव में उसी बहस का असर था जो पिछले वर्ष ‘क्या करें?’ के प्रकाशन के साथ अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। अर्थवादियों का मानना था कि सर्वहारा वर्ग स्वतःस्फूर्त ढंग से राजनीतिक चेतना पैदा कर सकता है, जबकि लेनिन ने इसकी आलोचना करते हुए स्पष्ट किया था कि सर्वहारा वर्ग अपने आप महज ट्रेड यूनियन चेतना पैदा कर सकता है; सामाजिक-जनवादी चेतना मजदूर आन्‍दोलन में हमेशा बाहर से आती है। इस कांग्रेस में अपने इसी अर्थवादी रुझान के कारण मार्तीनोव ने सर्वहारा वर्ग की स्वतःस्फूर्त रूप से बढ़ती चेतना का जिक्र करने का प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव को रखते हुए मार्तीनोव ने लेनिन की रचना ‘क्या करें?’ की आलोचना रखी। लेनिन ने अपनी कार्यदिशा के पक्ष में पुरजोर तर्क रखे और प्लेखानोव, मार्तोव और त्रात्स्की ने लेनिन के पक्ष में हस्तक्षेप किया। नतीजतन, मार्तीनोव के संशोधन का प्रस्ताव खारिज हो गया। इसके अलावा अवसरवादी तत्वों ने किसान प्रश्न को पार्टी कार्यक्रम में शामिल करने पर भी प्रश्न उठाया। बुण्डवादियों और पोलिश सामाजिक-जनवादियों ने राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार को पार्टी कार्यक्रम में शामिल करने का विरोध किया। लेकिन ये सभी आपत्तियाँ कांग्रेस में अन्‍ततः पराजित हुईं। पार्टी के दूरगामी कार्यक्रम (यानी, समाजवादी क्रान्ति) और तात्कालिक न्यूनतम कार्यक्रम (यानी, निरंकुश राजतन्त्र का खात्मा और संविधान सभा बुलाना, जनवादी गणराज्य की स्थापना, किसानों को जब्त जमीनें लौटाना, आठ घण्टे का कार्यदिवस आदि) पर कोई विशेष विवाद नहीं हुआ। कुल मिलाकर, कार्यक्रम का हिस्सा छोटी-मोटी बहसों, आपत्तियों और चर्चा के बाद सहज तरीके से अनुमोदित हो गया।

मुख्य विवाद हुआ पार्टी संहिता पर। दरअसल, जिस आयोग ने पार्टी संहिता के प्रश्न पर मसौदा तैयार किया था, उसमें ही एक अहम सैद्धान्तिक मसले पर विवाद हो गया था और इस वजह से इस आयोग ने दो मसौदे पेश किये थे। यह विवाद लेनिन और मार्तोव के बीच हुआ था। विवाद का मूल मुद्दा पार्टी सदस्यता की शर्तों से सम्‍बन्धित था। संहिता के पहले ही पैराग्राफ में पार्टी की सदस्यता की शर्तों को लेकर बात की गयी थी। जिस पार्टी आयोग को पार्टी संहिता का मसौदा तैयार करने का उत्तरदायित्व दिया गया था, उसमें ही विवाद पैदा हो गया। लेनिन और मार्तोव ने वैकल्पिक मसौदे पेश किये। देखने में दोनों के मसौदों के पहले वाक्य में बहुत बड़ा फर्क नहीं लगता, लेकिन गौर किया जाये तो यह एक बुनियादी फर्क था। लेनिन द्वारा पार्टी सदस्यता की शर्तों पर प्रस्तावित वाक्य इस प्रकार था :

‘‘पार्टी का सदस्य वह है जो कि इसके कार्यक्रम को स्वीकार करता है और दोनों प्रकार से, यानी भौतिक तौर पर और इसके किसी संगठन में भागीदारी के जरिये व्यक्तिगत भागीदारी करके, पार्टी का समर्थन करता है।’’

मार्तोव का मसौदा इस शर्त को इस प्रकार रखता था :

‘‘रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी का सदस्य वह है जो इसके कार्यक्रम को स्वीकार करता है और दोनों प्रकार से, यानी भौतिक तौर पर और इसके किसी संगठन के नेतृत्व में नियमित सहकार के जरिये, पार्टी का समर्थन करता है।’’

यह अन्‍तर शुरू में किसी को मामूली लगता है लेकिन इनके पीछे कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन और ढाँचे को लेकर दो अलग अवधारणाएँ मौजूद हैं। लेनिन की सोच एक केन्‍द्रीकृत, गोपनीय और लौह अनुशासन में कसी हुई पार्टी की थी। इसलिए उनके मसौदे में शामिल सदस्यता-सम्‍बन्‍धी शर्त पार्टी सदस्यता के प्रश्न पर कोई समझौता नहीं करती है। लेनिन के अनुसार पार्टी की सदस्यता के लिए महज पार्टी के कार्यक्रम में भरोसा करना और उसे भौतिक और वित्तीय तौर पर सहयोग देना पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसके लिए अमुक व्यक्ति को पार्टी के किसी न किसी संगठन का सदस्य होना और उसके अनुशासन में काम करना होगा। मार्तोव के मसौदे के अनुसार पार्टी का सदस्य होने के लिए किसी को किसी पार्टी संगठन के सदस्य के तौर पर और उसके अनुशासन में बंधकर काम करना आवश्यक नहीं है। इसके अनुसार, पार्टी का सदस्य कोई भी ऐसा व्यक्ति हो सकता है जो किसी पार्टी संगठन के अनुशासन में न हो, लेकिन वह कार्यक्रम को स्वीकार करता हो और वित्तीय सहयोग करता हो। यदि इस शर्त को अपनाया जाये तो सदस्यों के लिए पार्टी अनुशासन का पालन करना बाध्यताकारी नहीं रह जायेगा। किसी पार्टी संगठन का हिस्सा हुए बगैर पार्टी का सदस्य होने का अर्थ होगा एक ऐसे व्यक्ति का पार्टी सदस्य बनना जो कि पार्टी अनुशासन का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है। लेनिन ने इसका सख्त विरोध किया। उनका मानना था कि ऐसे में पार्टी में तमाम किस्म के अस्थिर और गैर-सर्वहारा तत्व भर जायेंगे और पार्टी मजदूर वर्ग का एक उन्नत दस्ता नहीं रह जायेगी; वह एक यूरोपीय शैली की सामाजिक-जनवादी या समाजवादी पार्टी बन जायेगी। हमेशा ही क्रान्तिकारी आन्‍दोलन का समर्थन करने वाले और कई बार उसे भौतिक सहायता देने वाले ऐसे तमाम सदस्य होते हैं जो कि पार्टी अनुशासन में बंधने को तैयार नहीं होते, या कहें कि, बंध ही नहीं सकते। तमाम ऐसे बुद्धिजीवी, शिक्षक आदि होते हैं जो मुद्दा-आधारित समर्थन पार्टी को देते हैं। मार्तोव के अनुसार, ऐसे सभी तत्वों को पार्टी सदस्यता दी जानी चाहिए और उन पर अनुशासन का पालन करने की बाध्यता नहीं लादी जानी चाहिए। लेनिन का कहना था कि ऐसे लोग गैर-सदस्य समर्थकों के दायरे में ही रह सकते हैं और सर्वहारा वर्ग के हिरावल दस्ते के तौर पर पार्टी की राजनीतिक-सांगठनिक शुद्धता पर समझौता नहीं किया जा सकता है। इसी बहस में दृढ़ इस्क्रावादियों और अस्थिर इस्क्रावादियों के बीच एक फूट पैदा हुई और यही फूट कांग्रेस में आगे चलकर बोल्शेविक और मेंशेविक धड़ों के बीच की फूट में तब्दील हो गयी। मार्तोव का कहना था कि ‘‘संगठन’’ और ‘‘पार्टी’’ के बीच फर्क किया जाना चाहिए; संगठन को सख्त गोपनीयता के ढाँचे में ढाला जाना चाहिए लेकिन पार्टी को हमदर्दों का एक विशाल दायरा होना चाहिए। लेनिन का कहना था कि अगर इस प्रस्ताव पर अमल किया जाता है तो पार्टी व्यर्थ वितण्डा करने वाले बातूनी तत्वों का जमावड़ा बन जायेगी और पार्टी का जुझारू, सैन्य चरित्र जाता रहेगा।

इस्क्रावादियों के बीच फूट के कारण कांग्रेस में अवसरवादी, अर्थवादी और बीच का रास्ता निकालने का प्रयास करने वाले अस्थिर तत्वों की ताकत लेनिन के इस्क्रावादी धड़े से बढ़ गयी। प्लेखानोव एक प्रकार से बेमन से लेनिन के पक्ष में आये। इस्क्रा के पुराने सम्पादक मण्डल में से एक्सेलरोद खुले तौर पर मार्तोव के पक्ष में आ गये। वेरा जासुलिच और पोत्रेसोव ने कुछ बोला नहीं लेकिन उनका मौन समर्थन मार्तोवपन्थियों के साथ ही था। त्रात्स्की, जिसने कि कार्यक्रम के मसले पर लेनिन की अवस्थिति का बचाव करते हुए मार्तीनोव व अन्य अर्थवादियों का विरोध किया था, मार्तोव के पक्ष में आ गया। नतीजतन, लेनिन के मसौदे के पक्ष में 22 वोट पड़े जबकि मार्तोव के मसौदे का 28 वोट मिले। एक प्रतिनिधि ने वोट नहीं डाला। कांग्रेस ने मार्तोव के मसौदे को स्वीकार किया। बुण्ड, अर्थवादियों और अस्थिर (गैर-लेनिनवादी) इस्क्रावादियों के वोट मिलकर लेनिनवादी इस्क्रावादी धड़े के कुल वोटों से ज्यादा सिद्ध हुए। लेकिन यहाँ गौर करने की बात यह है कि रूस भर में जो तमाम सामाजिक-जनवादी संगठन कांग्रेस में शामिल हुए थे, उनमें लेनिन की कार्यदिशा का प्रभाव अधिक था। अगर बुण्ड और प्रच्छन्न और खुले अर्थवादियों के वोटों को हटा दें (जो हर तरह से एक कमजोर और गैर-हिरावल पार्टी की हिमायत करते थे) तो मार्तोवपन्थियों का इन सामाजिक-जनवादी समूहों पर प्रभाव लेनिन के मुकाबले कम था। इस मुद्दे पर वोट ने पार्टी सिद्धान्‍त के प्रश्न पर त्रात्स्की के मेंशेविक रुझान को भी उघाड़कर रख दिया। यहीं से लेनिन का त्रात्स्की के बारे में मूल्यांकन बदलना शुरू होता है। त्रात्स्की के साथ लेनिन के संघर्ष की चर्चा हम अलग से करेंगे, क्योंकि आम तौर पर कम्युनिस्ट आन्‍दोलन में हावी इस मूल्यांकन से हम सहमत नहीं हैं कि त्रात्स्की एक सतत् मेंशेविक था। निश्चित तौर पर, त्रात्स्की पर मेंशेविज्म का प्रभाव था, लेकिन त्रात्स्की की पहुँच और पद्धति को केवल मेंशेविज्म के रूप में अपचयित करना एक सटीक द्वन्‍द्वात्मक मूल्यांकन नहीं होगा। खैर, पार्टी सदस्यता के प्रश्न पर विवाद के इस वाकये के बाद के घटनाक्रम ने कांग्रेस के पूरे रुझान को बदल डाला।

संहिता के प्रश्न पर फैसले के बाद पार्टी के विभिन्न केन्‍द्रीय संगठनों में चुनाव का प्रश्न उपस्थित हुआ। इनमें केन्‍द्रीय कमेटी और इस्क्रा के सम्पादक मण्डल के चुनाव का प्रश्न प्रमुख था जिसे कि कांग्रेस ने आधिकारिक तौर पर पार्टी का मुखपत्र स्वीकार किया था। इन संगठनों में चुनाव के पहले कांग्रेस को बुण्ड के प्रश्न पर अपनी अवस्थिति को स्पष्ट करना था। बुण्ड एक जातीय आधार पर बना मजदूर संगठन था जो कि पार्टी में अपनी स्वायत्त स्थिति को कायम रखना चाहता था और यहूदी मजदूरों के प्रतिनिधित्व को अपना एकाधिकार मानता था। इस प्रश्न पर कांग्रेस में शामिल ज्यादातर प्रतिनिधि सहमत थे। उनका मानना था कि किसी भी रूप में एक सामाजिक-जनवादी पार्टी में कोई जातीय समूह इस प्रकार की स्वायत्तता नहीं रख सकता है। कांग्रेस ने बुण्ड के यहूदी मजदूरों के प्रतिनिधित्व के एकाधिकार को मानने से इंकार किया। नतीजतन, बुण्ड के प्रतिनिधि कांग्रेस से उठकर चले गये। इसके बाद कांग्रेस ने तय किया कि रूसी सामाजिक-जनवादियों के केवल एक विदेशी समूह को पार्टी संगठन की मान्यता दी जायेगी। इसमें ‘लीग ऑफ रिवोल्यूशनरी सोशल-डेमोक्रेसी’ को चुना गया, न कि एकिमोव और मार्तीनोव के अर्थवादी संगठन ‘यूनियन ऑफ रशियन सोशल-डेमोक्रैट्स अब्रोड’ को। नतीजतन, यह अर्थवादी संगठन भी कांग्रेस से उठकर चला गया। नतीजतन, अब मार्तोवपन्‍थी और मध्यमार्गियों का बहुमत समाप्त हो गया और लेनिनवादी इस्क्रावादी धड़ा बहुमत में आ गया। गौर करने की बात यह है कि बुण्ड और अर्थवादियों को बाहर करने के निर्णय पर सभी इस्क्रावादी साथ थे।

इसके बाद, इस्क्रा के सम्पादक मण्डल के चुनाव की बारी आयी। इस सम्पादक मण्डल की स्थिति पार्टी में एक प्रकार से विचारधारात्मक-राजनीतिक मार्गदर्शक जैसी थी, जबकि केन्‍द्रीय कमेटी शीर्षतम केन्‍द्रीय पार्टी संगठन था। लेनिन ने कांग्रेस से पहले ही इस्क्रा के सम्पादक मण्डल के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि केन्‍द्रीय कमेटी और इस्क्रा के सम्पादक मण्डल में सदस्यों की संख्या तीन-तीन कर दी जाये। इस्क्रा के सम्पादक मण्डल में उस समय छह सदस्य हुआ करते थे। उस समय मार्तोव, एक्सेलरोद या जासुलिच ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की थी। लेकिन जब कांग्रेस में लेनिन ने सम्पादक मण्डल के सदस्यों के तौर पर प्लेखानोव, अपना और मार्तोव का नाम प्रस्तावित किया तो मार्तोव ने इसका विरोध किया। इस समय तक लेनिन की कार्यदिशा हर तौर पर बहुमत में आ चुकी थी। इस सम्पादक मण्डल के प्रस्ताव को 2 के मुकाबले 25 वोटों से विजय मिली। 17 लोगों ने वोट नहीं डाला। मार्तोव ने इस सम्पादक मण्डल में शामिल होने से इंकार कर दिया और लेनिन पर आरोप लगाया कि उनके धड़े ने कांग्रेस में ‘‘मार्शल लॉ लागू कर दिया है’’ और ‘‘कुछ विशिष्ट समूहों के विरुद्ध आपात कानून’’ लगा दिया गया है। इसके जवाब में लेनिन ने कहा, ‘‘मैं ‘‘मार्शल कानून’’ और ‘‘विशिष्ट व्यक्तियों और समूहों के विरुद्ध असाधारण कानून’’ के बारे में बड़े-बड़े शब्दों से बिल्कुल नहीं डरता। लेनिन का कहना था कि अस्थिर और ढुलमुलयकीन तत्वों के साथ निपटने के लिए हम न सिर्फ ‘‘मार्शल कानून’’ लागू कर सकते हैं, बल्कि हम ऐसा करने को बाध्य हैं, और हमारी पूरी पार्टी संहिता, ‘‘केन्‍द्रीयता’’ की पूरी नीति, जिसे कांग्रेस ने अभी-अभी अनुमोदित किया है, वह और कुछ नहीं बल्कि राजनीतिक अनुशासनहीनता के ऐसे तमाम स्रोतों से निपटने के लिए ‘‘मार्शल कानून’’ ही तो है। राजनीतिक अनुशासनहीनता के प्रति विशेष, बल्कि असाधारण कानूनों की आवश्यकता है; और कांग्रेस द्वारा उठाये गये कदम ने ऐसे कानूनों और ऐसे कदमों के लिए एक ठोस आधार तैयार करके सही राजनीतिक दिशा निर्धारित की है।’’ (इकतीसवाँ सत्र, दूसरी कांग्रेस, रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी, 1903) इसके बाद कांग्रेस के चुनावों में मार्तोव के समर्थकों ने हिस्सा नहीं लिया और दोनों धड़ों ने अपनी अलग-अलग बैठकें शुरू कर दीं। नयी केन्‍द्रीय कमेटी में सभी लेनिन के इस्क्रावादी धड़े के लोग चुने गये। प्लेखानोव को पार्टी परिषद् का अध्यक्ष चुना गया। यहीं से जो लोग लेनिन-नीत बहुमत के पक्ष में थे उन्हें बोल्शेविक (बोल्शिन्त्स्वो जिसका अर्थ है बहुमत) और जो मार्तोव के अल्पमत के पक्ष में थे उन्हें मेंशेविक (मेंशिन्त्स्वो, यानी अल्पमत) कहा गया।

दूसरी पार्टी कांग्रेस बोल्शेविक और मेंशेविक धड़ों के बीच संघर्ष की शुरुआत थी। कांग्रेस के तुरन्‍त बाद प्लेखानोव ने अपना पक्ष बदल लिया। हालाँकि कांग्रेस में जब एक प्रतिनिधि ने लेनिन के ज्यादा दृढ़ विचारों और प्लेखानोव के विचारों के बीच फर्क करने की कोशिश की थी, तो प्लेखानोव ने जवाब दिया था कि उन्हें लेनिन से अलग कर पाना असम्भव है। लेकिन कांग्रेस के पहले ही पार्टी कार्यक्रम के मसले पर लेनिन और प्लेखानोव के बीच जो विवाद हुआ था उसने दिखला दिया था कि एक नयी क्रान्तिकारी पार्टी के निर्माण और गठन की प्रक्रिया में विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांगठनिक मसलों पर जिस दृढ़ता और स्पष्टता की जरूरत है, उसकी प्लेखानोव में कमी है। वैसे भी कांग्रेस के दौरान लेनिन और मार्तोव के धड़ों के बीच जो फूट पड़ी उसमें प्लेखानोव दुखी मन से ही लेनिन के पक्ष में आये थे, क्योंकि वह किसी भी कीमत पर पार्टी की एकता को बचाना चाहते थे। जबकि लेनिन का मानना था किसी ढीले-ढाले सांगठनिक उसूलों पर एक विशालकाय पार्टी बनी रहे, इससे बेहतर होगा कि दृढ़ उसूलों पर एक छोटी पार्टी बने। लेनिन का एकता के प्रति दृष्टिकोण साफ था : एकता से पहले मतभेद के बिन्‍दुओं को रेखांकित किया जाना चाहिए ताकि एकता अधिक मजबूत और स्थायी हो, यदि वह बन पाती है। प्लेखानोव द्वारा अवसरवादियों के साथ एकता बनाये रखने का प्रयास जल्द ही स्वयं अवसरवाद में तब्दील हो गया। ई.एच. कार के मुताबिक कांग्रेस में लेनिन अपने मत की विजय के बाद जितनी तेजी से इस विजय का लाभ उठाने के लिए आगे बढ़े उससे प्लेखानोव चकित रह गये; लेकिन यह प्रमुख कारण नहीं था। लेनिन ने कांग्रेस में ही मार्तोव के इस आरोप पर, कि लेनिन पार्टी संगठन पर अपने धड़े का प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं, कहा कि यह सच है, और विभिन्न राजनीतिक प्रवृत्तियों के बीच जो संघर्ष जारी है वह पार्टी संगठन पर प्रभाव बढ़ाने के लिए ही तो है। लेनिन एक दृढ़, अनुशासित और गोपनीय पार्टी के सिद्धान्‍त पर अटल थे क्योंकि लेनिन बौद्धिक सिद्धान्‍त दुहराते रहने वाले व्यक्ति नहीं थे; उनके सभी सिद्धान्‍त और विचारधारात्मक अन्वेषण सिर्फ इसलिए थे कि वे क्रान्तिकारी व्यवहार की सेवा कर पायें। लेनिन इस बात को अच्छी तरह समझ रहे थे कि जारशाही के राज्य तन्त्र के खिलाफ कोई भी ऐसी पार्टी जिसका ढाँचा ढीला-ढाला हो, नहीं टिक सकती है। कई लोगों ने इस बात को इस प्रकार से व्याख्यायित किया है कि ऐसे सख्त गोपनीयता और अनुशासन वाले पार्टी ढाँचे की आवश्यकता उन देशों में नहीं पड़ेगी, जहाँ उदार बुर्जुआ जनवाद होगा। लेकिन यह एक गलतफहमी है। लेनिन ने जिस आधार पर एक दृढ़, गुप्त और अनुशासित पार्टी ढाँचे की हिमायत की थी, उस आधार पर तो यह कहा जा सकता है कि 20वीं सदी ने पूँजीवादी राज्य तन्त्र और संरचना में जिस प्रकार के बदलाव देखे हैं, पूँजीपति वर्ग ने क्रान्तियों से सबक लेकर अपने राज्य तन्त्र को जिस तरह चाक-चौबन्‍द किया है, जिस प्रकार से आधुनिक बुर्जुआ खुफिया तन्त्र विकसित हुआ है, उसके मद्देनजर एक सख्त बोल्शेविक उसूलों वाली पार्टी की आवश्यकता आज पहले हमेशा से कहीं ज्यादा है। निश्चित तौर पर, बुर्जुआ जनवाद यदि ज्यादा जनवादी ‘स्पेस’ मुहैया कराता है, तो कोई भी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी उसका जनता की राजनीतिक चेतना के स्तरोन्नयन और जनान्‍दोलनों को आगे बढ़ाने के लिए पूरा इस्तेमाल करेगी। लेकिन निश्चित तौर पर, ऐसी पार्टी अपने समूचे ढाँचे को खुला नहीं कर सकती। ऐसा करने का अर्थ होगा राज्यसत्ता के रहमोकरम पर रहना। और पिछली सदी में ऐसी गलती का खामियाजा कई देशों की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने भुगता है। इसलिए लेनिन के पार्टी सिद्धान्‍त को तत्कालीन रूस के राज्यतन्त्र और राजनीतिक स्थितियों की विशिष्ट परिस्थितियों के लिए जायज बताना लेनिन के पूरे सांगठनिक सिद्धान्‍त को न समझ पाना है। ई.एच. कार भी इस गलती के शिकार हैं।

बहरहाल, कांग्रेस के बाद मार्तोव, एक्सेलरोद और त्रात्स्की ने फॉरेन लीग ऑफ रशियन सोशल-डेमोक्रैट्स के बैनर तले मार्तोव के शब्दों में ‘‘लेनिनवाद के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।’’ लेनिन के अनुसार इन मेंशेविकों ने पार्टी की गतिविधियों में व्यवधान पैदा करने, लक्ष्य को नुकसान पहुँचाने से लेकर पार्टी में बिखराव पैदा करने तक हर सम्भव प्रयास किये। कांग्रेस के तुरन्‍त बाद ही प्लेखानोव ने अपना पक्ष बदल लिया और मेंशेविकों के पक्ष में चले गये। इसका कारण यह था कि मेंशेविक धड़े ने उन्हें चेतावनी दी थी कि वे पार्टी में फूट डालेंगे। प्लेखानोव ने पार्टी में फूट के डर से अवसरवाद का पक्ष ले लिया। इसके बाद तमाम मुद्दों पर उन्होंने अपनी अवस्थितियाँ लेनिन से अलग कर लीं, जो कि थोड़ा शर्मनाक था क्योंकि अभी एक वर्ष पहले तक ही वह उन सभी अवस्थितियों पर लेनिन का समर्थन कर रहे थे। उन्होंने इस्क्रा के सम्पादक मण्डल में उन सभी मेंशेविकों को शामिल करने की माँग की जिन्हें कांग्रेस ठुकरा चुकी थी। जैसा कि ई.एच. कार ने लिखा है, ‘‘लेनिन जिन मेंशेविकों को बाहर करना चाहते थे, उनमें प्लेखानोव के पुराने दोस्त और सहयोगी थे। लेनिन के सख्त पार्टी अनुशासन का प्लेखानोव ने सैद्धान्तिक तौर पर समर्थन किया था, लेकिन जब इसे लागू करने की बात आयी, तो यह अनुशासन राजनीतिक संगठन की उन कम कठोर धारणाओं के विरुद्ध साबित हुआ जिन्हें प्लेखानोव ने पश्चिम में अपने लम्‍बे प्रवास के दौरान आत्मसात कर लिया था।’’ (कार, दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन, खण्ड 1, 1985, नॉर्टन, न्यूयॉर्क, पृ. 32, अनुवाद हमारा) निश्चित तौर पर, इस कथन में पूरी सच्चाई नहीं है लेकिन यह आंशिक तौर पर एक यही तस्वीर पेश करता है। लेकिन यह सिर्फ व्यक्ति की ‘‘किस्म’’ की बात नहीं थी, जैसा कि कार कई बार बना देते हैं। प्लेखानोव के विचार नरोदवाद के विरुद्ध संघर्ष में, अर्थवाद के विरुद्ध संघर्ष में पुरजोर तरीके से मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍तों की हिफाजत करते थे; लेकिन रूस की ठोस परिस्थितियों के ठोस मूल्यांकन में प्लेखानोव लेनिन से कहीं पीछे थे। मिसाल के तौर पर, किसान प्रश्न पर उनकी अवस्थिति मार्क्‍सवाद की एक सही समझदारी की कमी को दर्शाती थी। साथ ही, सांगठनिक उसूलों के मामले में उनकी अवस्थिति यूरोपीय सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन से ज्यादा प्रेरित थे। लेकिन यह प्रश्न, जैसा कि कार मानते हैं, महज अलग-अलग देशों का फर्क नहीं था, क्योंकि अगर ऐसा होता तो लेनिन के विचार भी ऐसे ही होते क्योंकि उन्होंने भी क्रान्ति से पहले राजनीतिक जीवन का बड़ा हिस्सा विदेशों में ही बिताया। यहाँ लेनिन का मतान्‍तर प्लेखानोव के उदारवाद और अवसरवाद से था। और इस मायने में विदेश में रहने या न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता था। सवाल मार्क्‍सवादी विचारधारा, राजनीति और सांगठनिक उसूलों की एक सही द्वन्‍द्वात्मक समझदारी का था।

प्लेखानोव द्वारा मेंशेविकों का पक्ष लिये जाने पर लेनिन ने 1903 में ही इस्क्रा के सम्पादक मण्डल से इस्तीफा दे दिया। अपने बावनवें अंक से इस्क्रा मेंशेविकों के हाथ में चला गया। यहीं से पुराने इस्क्रा (यानी कि लेनिनवादी इस्क्रा) और नये इस्क्रा (यानी कि मेंशेविक इस्क्रा) के बीच अन्‍तर किया जाने लगा। इस्क्रा का सम्पादक मण्डल एक प्रकार से पार्टी का मार्गदर्शक नेतृत्वकारी निकाय था, जिसकी भूमिका वास्तव में केन्‍द्रीय कमेटी से भी ज्यादा थी। चूँकि अब इस्क्रा पर मेंशेविक धड़े का कब्जा हो चुका था इसलिए एक प्रकार से नेतृत्वकारी व शीर्ष पार्टी संगठनों पर भी मेंशेविकों का प्रभाव बढ़ गया था। यहीं से लेनिन ने पार्टी के भीतर अपने बोल्शेविक धड़े को अलग से संगठित करने की शुरुआत की और साथ ही मेंशेविज्म के साथ निर्णायक संघर्ष छेड़ दिया। अगले एक वर्ष तक इस्क्रा में लेनिन के बोल्शेविक धड़े पर तीखा हमला बोलते हुए मार्तोव, प्लेखानोव, त्रात्स्की आदि के लेख प्रकाशित होते रहे। लगभग हर अंक में ही प्रमुख जोर लेनिन पर चोट करना था। इसी समय से मेंशेविज्म अपने पूरे रंग में सामने आने लगा।

वास्तव में, मेंशेविज्म और बोल्शेविज्म में बुनियादी राजनीतिक फर्क था, जो कांग्रेस में महज सांगठनिक कार्यदिशा के फर्क के रूप में सामने आया था। दरअसल, फर्क सिर्फ इस बात का नहीं था कि लेनिन सदस्यता की ज्यादा दृढ़ शर्तें चाहते थे जबकि मार्तोव कुछ उदार शर्तें। जिस प्रकार के पार्टी ढाँचे की माँग थी, लेनिन उसे पूरा करने की बात कर रहे थे क्योंकि उनके पास रूस में क्रान्ति का एक सही कार्यक्रम और विश्लेषण मौजूद था और यह पूरी समझदारी क्रान्तिकारी व्यवहार को उन्नत बनाने पर केन्द्रित थी। जबकि मेंशेविक एक ढीले-ढाले ढाँचे की बात कर रहे थे क्योंकि क्रान्ति के सबसे केन्‍द्रीय प्रश्नों पर उनकी समझदारी गलत या अधूरी थी, जैसे कि किसान प्रश्न, मजदूर वर्ग के बीच में राजनीतिक कार्य के तौर-तरीके, जनवादी क्रान्ति की मंजिल में मित्र वर्गों का प्रश्न, हिरावल पार्टी के चरित्र का प्रश्न, सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रश्न, आदि। ये विचलन पहले पूरी तरह खुलकर सामने नहीं आये थे। लेकिन 1903 से लेकर 1904 तक लेनिन की अवस्थिति पर सतत् हमला करने की प्रक्रिया में ये विचलन अपने नंगे रूप में खुलकर सामने आ गये। और इनके साथ ही यह बात उजागर हुई कि मेंशेविज्म वास्तव में उन दो पुराने भटकावों का सक्षम वारिस है जिनके खिलाफ रूस के सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन में क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों ने संघर्ष किया था, यानी कि अर्थवाद और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद।

इस दौर में प्लेखानोव ने लेनिन पर सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को ‘सर्वहारा वर्ग पर अधिनायकत्व’ से गड्डमड्ड करने का आरोप लगाया और कहा कि लेनिन में बोनापार्तवाद के तत्व हैं। मार्तोव ने एक बार फिर पार्टी में ‘‘मार्शल लॉ’’ और उसके विरुद्ध संघर्ष करते हुए पार्टी के अपने उसूलों की हिमायत की और लेनिन में निरंकुशता की प्रवृत्ति होने का आरोप लगाया। वेरा जासुलिच ने लिखा कि लेनिन की पार्टी की अवधारणा वही है, जो लुई चौदहवें की राज्यसत्ता की थी। (फ्रांस के निरंकुश शासक लुई चौदहवें ने कहा था, ‘‘मैं ही राज्य हूँ और मैं जो बोलता हूँ वह कानून है।’’) लेनिन पर सबसे लम्‍बा हमला त्रात्स्की ने किया जिसने एक अलग पुस्तिका लिखी : हमारे राजनीतिक कार्यभारइस पुस्तिका को त्रात्स्की ने अपने ‘‘प्रिय शिक्षक पाव्ल बोरिसोविच एक्सेलरोद’’ को समर्पित किया। त्रात्स्की ने लेनिन पर जैकोबिनवाद के प्रहसन होने, पार्टी को पार्टी के संगठन, पार्टी के संगठन को केन्‍द्रीय कमेटी और केन्‍द्रीय कमेटी को एक तानाशाह से प्रतिस्थापित करने का आरोप लगाया। त्रात्स्की ने भी प्लेखानोव का अनुसरण करते हुए लेनिन पर प्रतिस्थापनवाद (substitutionism) का आरोप लगाया। उनकी पुस्तिका के आखिरी अध्याय का नाम ही सर्वहारा वर्ग पर तानाशाही था। करीब तीन दशक बाद त्रात्स्की ने अपनी इस अवस्थिति के बारे में लिखा था कि वह सही नहीं थी और लेनिन की अवस्थिति सही थी। लेकिन इसका कारण ईमानदार आत्मालोचना या गलती का अहसास कम था और उस समय विश्व कम्युनिस्ट आन्‍दोलन के समक्ष स्तालिन को एक क्रूर तानाशाह और अपने आपको लेनिन का उचित उत्तराधिकारी घोषित करना ज्यादा था। साथ ही, त्रात्स्की की यह ‘‘आत्मालोचना’’ कितनी सतही थी और किस प्रकार त्रात्स्की मूल तौर पर अभी भी अपने पुराने सांगठनिक उसूलों पर खड़े थे, यह भी जाहिर हो गया। जल्द ही मेंशेविकों को जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी के नेता काऊत्स्की के रूप में एक प्रबल समर्थक मिल गया। काऊत्स्की ने मेंशेविकों का पक्ष लिया और अपने मुखपत्र में लेनिन का जवाब छापने से भी इंकार कर दिया। काऊत्स्की, जो कि उस समय यूरोपीय सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन के निर्विवाद नेता थे, के समर्थन ने मेंशेविकों को यूरोप और बाहरी दुनिया में रूसी सामाजिक-जनवादियों का स्वीकार्य प्रतिनिधि बना दिया। इसके बाद जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी के ही मुखपत्र में रोजा लक्जेमबर्ग ने लेनिन पर हमला बोलते हुए लिखा कि लेनिन का पार्टी में केन्‍द्रीयता पर अतिशय जोर पार्टी के भीतर जनवाद का निषेध है और यह नेतृत्व की तानाशाही की ओर ले जायेगा। हालाँकि, उस समय कुछ सामाजिक-जनवादियों ने बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच सुलह कराने की पेशकश भी की, लेकिन ऐसे प्रस्तावों को लेनिन ने ही सबसे पहले खारिज कर दिया। दूसरी ओर, मेंशेविक ऐसे मध्यस्थता के प्रस्तावों को तत्परता के साथ मान गये थे। पूरे 1903 के वर्ष और 1904 के शुरुआती दौर तक देश-विदेश में सामाजिक-जनवादी लेनिन पर लगातार हमला बोलते रहे। इस पूरे दौर में संगठन के सिद्धान्‍त के प्रश्न पर अब मेंशेविक खुले तौर पर बुण्डवादियों और अर्थवादियों जैसी बातें करने लगे थे। हम आगे दिखलायेंगे कि इसका कारण मेंशेविकों की राजनीतिक समझदारी में निहित था, जो कि अर्थवाद और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद के मिश्रण का एक विशिष्ट संस्करण तैयार करती थी। मेंशेविक धड़ा अब खुलकर संगठन में अल्पमत के बहुमत के तहत रहने, केन्‍द्रीय कमेटी के अनुशासन और नेतृत्व और सांगठनिक अनुशासन के सिद्धान्‍त का विरोध कर रहा था। वास्तव में, सांगठनिक उसूलों पर बहस के दौरान सदस्यता की शर्तों पर बहस में मेंशेविकों ने मार्तोव के नेतृत्व में जो कार्यदिशा पेश की थी, अब वह अपनी तार्किक परिणति को पहुँच चुकी थी। प्लेखानोव जो पहले पार्टी के अनुशासन और केन्‍द्रीयता के उसूलों पर आधारित होने पर लेनिन के साथ खड़े थे वह भी अपनी राजनीतिक ढुलमुलपन और मेलमिलाप की सोच के कारण अवसरवादियों और मेंशेविकों के साथ खड़े थे। मेंशेविकों ने इस्क्रा के सम्पादक मण्डल पर तो कब्जा कर ही लिया था, उन्होंने आगे केन्‍द्रीय कमेटी पर भी अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया, क्योंकि उसके दो बोल्शेविक सदस्य क्रासिन और नोस्कोव अपने ढुलमुलपन के साथ मेंशेविकों के साथ जा खड़े हुए।

अब बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच का अन्‍तर इतना बढ़ चुका था कि उसे कम कर पाना सम्भव नहीं था। 1903 में मेंशेविकों और सामाजिक-जनवादियों द्वारा यूरोप भर से किये जा रहे हमलों के जवाब में लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक एक कदम आगे, दो कदम पीछे लिखी। इस पुस्तक में लेनिन ने जो सिद्धान्‍त प्रतिपादित किये वे मार्क्‍सवादी दृष्टिकोण से व्यवस्थित रूप से पार्टी के संगठन और ढाँचे पर पेश किये गये सिद्धान्‍त बने और आगे चलकर विश्व भर में मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी पार्टियों ने इन्हीं सिद्धान्‍तों को कम-से-कम सैद्धान्तिक तौर पर स्वीकार किया और कुछ ने सही मायनों में लागू भी किया।

लेनिन ने इस पुस्तक में मेंशेविकों पर हमला बोलते हुए कहा कि अगर मार्तोवपन्थियों के सिद्धान्‍त लागू हुए तो एक आम हड़ताली और ऐसे प्रोफेसर, छात्र आदि भी पार्टी के सदस्य बन जायेंगे जो कि पार्टी अनुशासन को स्वीकार नहीं करना चाहते। ऐसे में पार्टी सर्वहारा वर्ग का हिरावल होने और उसका उन्नत दस्ता होने के अपने चरित्र को खो देगी। किसी वर्ग की समूची आम आबादी और उसके उन्नत दस्ते, यानी कि हिरावल पार्टी में हमेशा फर्क होगा। हिरावल पार्टी उस वर्ग के विश्व दृष्टिकोण का मूर्त रूप होती है और वह उस वर्ग के सबसे उन्नत तत्वों को अपने अन्‍दर समाहित करती है। यह हिरावल पार्टी का फर्ज बनता है कि वह वर्ग के अधिक से अधिक वर्ग सचेत तत्वों को सामाजिक-जनवादी राजनीतिक वर्ग चेतना के स्तर तक, पार्टी के स्तर तक लाये; न कि इसके विपरीत स्वयं एक आम हड़ताली मजदूर के स्तर पर उतर जाये। ऐसा करने वाली पार्टी वर्ग का हिरावल नहीं बल्कि उसका पुछल्ला बनेगी। मार्तोव ने लेनिन पर हमला करते हुए स्वयं ही मेंशेविक सिद्धान्‍तों को नंगा कर दिया। मार्तोव ने कहा कि अगर लेनिन का सिद्धान्‍त लागू हुआ तो पार्टी में वे बुद्धिजीवी, अध्यापक और छात्र नहीं शामिल हो पायेंगे जो कि पार्टी के अनुशासन को नहीं मानना चाहते। लेनिन ने इसका तीखा जवाब देते हुए कहा कि हमें ऐसे तत्वों की कोई आवश्यकता पार्टी के भीतर नहीं है, और वे बाहर रहकर ही पार्टी की सहायता जारी रख सकते हैं। अनुशासन में बँधने के लिए मजदूर वर्ग तैयार है; टुटपुँजिया बौद्धिक वर्ग पार्टी संगठन के अनुशासन में इसलिए नहीं बँधना चाहता क्योंकि यह उसकी वर्ग चेतना है, जो उसे किसी पार्टी संगठन के अनुशासन में बँधकर काम करने, वह भी किसी स्थानीय पार्टी निकाय के अनुशासन में बँधकर काम करने को अपने अहं पर चोट मानती है, अपनी शान के खिलाफ मानती है। ऐसे तत्वों को पार्टी में शामिल करने की मेंशेविक माँग इस अराजकतावादी-सर्वखण्डनवादी टुटपुँजिया वर्ग के लिए विशेषाधिकारों की माँग करना है; यह टुटपुँजिया बुद्धिजीवियों को बिना कोई कर्तव्य निभाये पार्टी सदस्यता के सभी हक देने की माँग करना है। लेनिन की दलील थी कि यदि ऐसे सदस्यों को पार्टी सदस्यता में जगह दी गयी तो जल्द ही पार्टी अकर्मण्य, बातूनी तत्वों का जमावड़ा बन जायेगी और अपना हिरावल चरित्र खो बैठेगी।

दूसरी बात जो लेनिन ने अपनी इस रचना में रखी वह यह थी कि पार्टी न सिर्फ वर्ग का राजनीतिक वर्ग चेतना से लैस हिरावल दस्ता है, बल्कि यह एक सुसंगठित और अनुशासित हिरावल दस्ता है। मेंशेविकों का कहना था कि वे पार्टी में केन्‍द्रीयता और केन्‍द्रीय कमेटी के नियन्त्रण के विरुद्ध हैं और वे ‘‘अराजकतावादी स्वायत्तता’’ की माँग करते हैं। लेनिन ने कहा कि एक क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी पार्टी अपने हिरावल चरित्र और जुझारू प्रवृत्ति को तभी कायम रख सकती है, जब वह लौह अनुशासन पर आधारित हो। पूँजी की संगठित ताकत का क्रान्ति पूर्व दौर में मुकाबला करने के लिए सर्वहारा वर्ग के पास केवल एक हथियार है : संगठन और अनुशासन। लेनिन लिखते हैं : ‘‘सत्ता के लिए संघर्ष में सर्वहारा वर्ग के पास संगठन के अलावा और कोई हथियार नहीं है। पूँजीवादी विश्व में प्रतिस्पर्द्धा के अराजकतापूर्ण नियम द्वारा विसंगठित, पूँजी के लिए बँधुआ श्रम द्वारा कुचला गया, भयंकर दरिद्रता, पाशविकता और पतन की ओर लगातार धकेला जाने वाला सर्वहारा वर्ग एक अपराजेय शक्ति तभी बन सकता है, और अवश्यम्भावी रूप से बनेगा, जब मार्क्‍सवाद के सिद्धान्‍तों पर इसकी विचारधारात्मक एकजुटता एक ऐसे संगठन की भौतिक एकजुटता द्वारा सुदृढ़ होगी जो लाखों मेहनतकशों को मजदूर वर्ग की एक सेना के रूप में जोड़ देगा। न तो जारशाही का जर्जर शासन और न ही अन्‍तरराष्ट्रीय पूँजी का डगमगाता शासन इस सेना के सामने टिक पायेगा।’’ (वी.आई. लेनिन, सलेक्टेड वर्क्‍स, खण्ड 2, प्रगति प्रकाशन, मॉस्को, पृ. 466, अंग्रेजी संस्करण, अनुवाद हमारा) पार्टी के नियमों और अनुशासन के प्रति मार्तोवपन्थियों का प्रतिरोध वास्तव में पार्टी के भीतर सर्वहारा कार्यदिशा और बौद्धिकतावादी कुलीन पूँजीवादी कार्यदिशा के बीच के संघर्ष का परिणाम था। लेनिन ने इसके बारे में लिखा, ‘‘यह कुलीनतावादी अराजकतावाद रूसी सर्वखण्डनवाद की विशिष्ट चारित्रिक आभिलाक्षणिकता है। वह पार्टी संगठन को एक दानवीकारखाने के रूप में देखता है; यह अंश के पूर्ण और अल्पमत के बहुमत के मातहत होने को दासता मानता है…एक केन्‍द्र के अन्‍तर्गत श्रम विभाजन उसमें इन त्रासद-कामदीय चीखों को जन्म देता है कि लोगों को दाँतों और पहियोंमें तब्दील किया जा रहा है। (वही, पृ. 442-43, अनुवाद हमारा)

लेनिन ने अपने जनवादी केन्‍द्रीयता के उसूल को विस्तारित करते हुए लिखा कि एक क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी पार्टी के सांगठनिक उसूल में केन्‍द्रीय कमेटी को दो पार्टी कांग्रेसों के बीच सर्वोच्च निकाय माना जाना चाहिए, जिसके निर्णय हरेक पार्टी सदस्य पर बाध्यताकारी होने चाहिए। निश्चित तौर पर, पार्टी कांग्रेस में प्रतिनिधि केन्‍द्रीय कमेटी से असहमत होने पर नयी केन्‍द्रीय कमेटी का चुनाव कर सकते हैं। लेनिन ‘आलोचना की पूर्ण स्वतन्त्रता’ और ‘अराजकतावादी स्वायत्तता’ को यदि कांग्रेसों के बीच भी लागू किया जायेगा तो वह पार्टी सर्वहारा वर्ग का एक उन्नत दस्ता, हिरावल और सैन्य दस्ता नहीं रह जायेगी बल्कि ‘विज्ञान की अकादमी’ (विडम्बना की बात यह है कि ये शब्द प्लेखानोव ने कहे थे, जब वह सांगठनिक उसूलों के संघर्ष में लेनिन के साथ थे और अवसरवादी नहीं बने थे!), क्लब या बौद्धिक मण्डली बन जायेगी। ऐसे में, पार्टी या तो संशोधनवाद के रास्ते पर जायेगी अथवा विसर्जित हो जायेगी। लेनिन के अनुसार पार्टी कांग्रेस सर्वोच्च निकाय है और दो कांग्रेसों के बीच केन्‍द्रीय कमेटी सर्वोच्च निकाय है; सभी कमेटियों को केन्‍द्रीय कमेटी के अन्‍तर्गत होना चाहिए और नीचे की कमेटियों को ऊपर की कमेटियों के मातहत होना चाहिए; केवल उसी व्यक्ति को पार्टी सदस्यता दी जा सकती है जो पार्टी कार्यक्रम को मानने के अलावा किसी पार्टी इकाई (कमेटी, फ्रैक्शन, या कोई भी अन्य पार्टी संगठन) का सदस्य हो और उसके अनुशासन में काम करता हो।

लेनिन ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसी हिरावल पार्टी यदि सतत् जनता से सम्पर्क में नहीं होगी, तो वह एक संकीर्ण दायरे की मानसिकता रखने वाले एक समूह में तब्दील हो जायेगी और जनता का विश्वास खो बैठेगी। इसलिए पार्टी को जनता से सतत् सम्पर्क बनाये रखना चाहिए। लेनिन का मानना था कि मजदूर वर्ग के कई संगठन हो सकते हैं लेकिन उसका राजनीतिक नेतृत्वकारी संगठन केवल पार्टी हो सकती है। यह पार्टी को मजदूर वर्ग के अन्य सभी संगठनों से अलग करता है क्योंकि पार्टी वर्ग से सबसे उन्नत, मार्क्‍सवादी विज्ञान से लैस तत्वों को अपने अन्‍दर शामिल करती है, जो इसे वर्ग का हिरावल होने की क्षमता प्रदान करती है। लेकिन ऐसी पार्टी अपनी नेतृत्वकारी भूमिका तभी अमल में उतार सकती है जब वह लाखों-लाख मजदूरों से सतत् सम्पर्क स्थापित करे। लेनिन ने यह भी स्पष्ट किया कि पार्टी में सदस्यों के लिए जो नियम तय होने चाहिए वे सभी सदस्यों के लिए समान होने चाहिए। वास्तव में, मेंशेविक अलग-अलग वर्ग के सदस्यों के लिए अनुशासन के अलग-अलग मानकों की माँग कर रहे थे। पार्टी संगठन के सदस्य मजदूरों को तो पार्टी अनुशासन के मातहत रहना था लेकिन पार्टी के ऐसे सदस्य जो किसी संगठन के अनुशासन में नहीं थे, उन्हें भी सदस्यता के सभी अधिकार प्राप्त होते! लेनिन ने इसी पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, ‘‘मार्तोव का सूत्रीकरण दिखने में सर्वहारा वर्ग के व्यापक संस्तरों के हितों की हिफाजत करता है, लेकिन वास्तव में यह बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के हितों की सेवा करता है, जो सर्वहारा अनुशासन और संगठन से भाग खड़े होते हैं। इस बात का खण्डन करने का कोई प्रयास नहीं करेगा कि यह उसका व्यक्तिवाद ही है और उसकी संगठन और अनुशासन के प्रति अक्षमता ही है, जो बौद्धिक वर्ग को आधुनिक पूँजीवादी समाज के एक अलग संस्तर के रूप में अलग करती है।’’ (वी.आई. लेनिन, कलेक्टेड वर्क्‍स, रूसी संस्करण, खण्ड 6, पृ. 205-6, अनुवाद हमारा)

त्रात्स्की ने लेनिन पर जैकोबिनवाद का आरोप लगाया था और पूरी तरह से मेंशेविकों के सांगठनिक सिद्धान्‍त का पक्ष लिया था। लेनिन ने त्रात्स्की के अवसरवाद पर करारा प्रहार करते हुए लिखा, ‘‘अपने वर्ग हितों के प्रति सचेत सर्वहारा वर्ग के संगठन के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ जैकोबिनवादीयही तो है क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी।’’ लेनिन ने ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’ में मेंशेविकों के सांगठनिक सिद्धान्‍तों की धज्जियाँ उड़ायीं और दिखलाया कि पार्टी सर्वहारा वर्ग की हिरावल होती है और सर्वहारा वर्ग के उन्नततम तत्वों को अपने में समाहित करती है; पार्टी को न सिर्फ विचारधारात्मक-राजनीतिक तौर पर नेतृत्व देने वाला हिरावल होना चाहिए, बल्कि उसे संगठित हिरावल होना चाहिए; पार्टी सर्वहारा वर्ग के संगठन का एकमात्र तो नहीं लेकिन उच्चतम रूप है और सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक केन्‍द्र की भूमिका केवल पार्टी ही निभा सकती है; पार्टी का अनुशासन सभी के लिए समान होना चाहिए और पार्टी के भीतर जनवादी केन्‍द्रीयता का उसूल लागू होना चाहिए। रूस भर के सामाजिक-जनवादी क्रान्तिकारियों के दायरे में लेनिन की इस रचना के वितरण के साथ ही तेजी से तमाम सामाजिक-जनवादी समूह लेनिन के धड़े के पक्ष में आने लगे। लेनिन की आलोचना मेंशेविकों के धड़े के लिए विचारधारात्मक रूप से विध्वंसकारी थी और जल्द ही लेनिन ने सांगठनिक तौर पर अपनी कार्यदिशा के पक्ष में सामाजिक-जनवादी क्रान्तिकारियों को गोलबन्‍द करना शुरू किया। लेनिन मेंशेविकों से किसी भी शर्त पर एकता के लिए तैयार नहीं थे, क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास था कि उनके द्वारा प्रतिपादित सांगठनिक सिद्धान्‍त में किसी भी किस्म की मिलावट सर्वहारा वर्ग की पार्टी की हिरावल भूमिका के साथ समझौता करना होगा। इसलिए समझौते या बीच का रास्ता निकालने के सभी प्रयासों को लेनिन ने ठुकरा दिया। लेनिन ने 1904 से ही बोल्शेविकों को संगठित करना शुरू किया और अगस्त 1904 में उन्होंने बाइस बोल्शेविकों की एक बैठक बुलायी। इस सम्मेलन ने ‘‘पार्टी के नाम’’ नामक एक अपील को पास किया जिसमें कि तीसरी पार्टी कांग्रेस बुलाने की तैयारियों की बात की गयी थी। बोल्शेविक कमेटियों के तीन क्षेत्रीय सम्मेलनों में एक ‘‘बहुमत की कमेटियों का ब्यूरो’’ का चुनाव किया गया। इस ब्यूरो को बोल्शेविकों के केन्‍द्रीय संगठन का कार्य सौंपा गया। इसके बाद 4 जनवरी 1905 को बोल्शेविकों के नये मुखपत्र वेपेर्योद का प्रकाशन शुरू हुआ। चूँकि अब बोल्शेविकों के पास अपना मुखपत्र था और पुरानी केन्‍द्रीय कमेटी उनके हाथों से निकल चुकी थी, इसलिए लेनिन के नेतृत्व में उनके सभी प्रयास अब तीसरी पार्टी कांग्रेस करने पर केन्द्रित थे। नतीजतन, अप्रैल 1905 में लन्‍दन में बोल्शेविकों ने अपनी नयी पार्टी कांग्रेस की और उसे तीसरी पार्टी कांग्रेस का नाम दिया। इस कांग्रेस का मेंशेविकों ने बहिष्कार किया और जेनेवा में अपना समानान्‍तर पार्टी सम्मेलन किया। इसके साथ ही बोल्शेविकों और मेंशेविकों का बँटवारा अपनी तार्किक परिणति पर पहुँच गया।

यही वह दौर था जब रूस में क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ तैयार हो रही थीं, जो कि अन्‍त में 1905 की असफल रूसी क्रान्ति तक गयीं। इन परिस्थितियों का हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं। 1900 से 1903 तक आर्थिक संकट, 1905 में युद्ध में जापान से हार और मजदूरों और किसानों के बढ़ते हुए आन्‍दोलनों ने 1905 में क्रान्तिकारी परिस्थितियों को जन्म दिया था। लगभग यही समय था जब बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच का अलगाव अपने चरम पर पहुँच रहा था। 1905 की पहली रूसी क्रान्ति के साथ ही क्रान्ति की रणनीति को लेकर भी मेंशेविकों से अन्‍तरविरोध सामने आने लगे थे। इन अन्‍तरविरोधों के सामने आने के साथ ही यह साफ हो गया था कि 1903 में बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच सांगठनिक कार्यदिशा को लेकर हुए विवाद के पीछे वास्तव में विचारधारात्मक-राजनीतिक अन्‍तरविरोध थे। मेंशेविकों की अवस्थिति पूरी तरह से ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों और अर्थवादियों की अवस्थितियों का एक मिश्रण था। लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध रचना जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सामाजिक-जनवाद की दो कार्यनीतियाँ में इसी अवस्थिति पर चोट की और बोल्शेविक अवस्थिति को स्पष्ट किया। क्रान्ति की रणनीति और कार्यनीति को लेकर विवाद में यह स्पष्ट तौर पर सामने आ गया कि मेंशेविक लगभग वही बातें नये स्वरूप में कर रहे थे जो कि ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादी और अर्थवादी पहले करते रहे थे। जैसे कि मेंशेविकों का मानना था कि 1905 में रूस में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति की मंजिल है जिसमें कि मुख्य नेतृत्वकारी भूमिका उदार बुर्जुआ वर्ग की होगी और सर्वहारा वर्ग को अभी ऐसा कोई कार्यक्रम अमल में नहीं लाना चाहिए जो कि उदार बुर्जुआ वर्ग को दूर कर दे या डरा दे; उनके अनुसार, सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के सम्पन्न होने तक बुर्जुआ वर्ग के एक सहायक की भूमिका निभानी चाहिए और ज्यादा से ज्यादा सर्वहारा वर्ग के मुख्यतः आर्थिक अधिकारों (जैसे कि वेतन, कार्यदिवस, ट्रेड यूनियन बनाने के हक, आदि) के लिए लड़ना चाहिए और उसे सीधे राजनीतिक सत्ता के प्रश्न को नहीं उठाना चाहिए; जारशाही के विरुद्ध सशस्त्र बगावत की रणनीति, मेंशेविकों के अनुसार गलत थी क्योंकि यह उदार बुर्जुआ वर्ग को डरा देती और दूर कर देती; मेंशेविक किसानों को बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सर्वहारा वर्ग की मित्र शक्ति के तौर पर नहीं देखते थे, और न ही उन्हें सक्रिय क्रान्तिकारी शक्ति के तौर पर देखते थे; क्रान्ति की मंजिल पर अलग राय रखते हुए भी किसानों के प्रति अविश्वास के मामले में मेंशेविकों और त्रात्स्की के विचार मिलते-जुलते थे। उनके अनुसार क्रान्ति का नेतृत्व सर्वहारा वर्ग के हाथों में तभी आ सकता है जबकि वह पूँजीवाद के तहत आर्थिक संघर्षों में परिपक्व हुआ हो और उसकी संख्या शक्ति इतनी बड़ी हो चुकी हो कि वह अपने दम पर समाजवादी क्रान्ति को सम्पन्न कर सके। लेनिन ने मेंशेविकों के इन विचारों का विश्लेषण करते हुए दिखलाया कि ये विचार वास्तव में पश्चिमी यूरोप की सामाजिक-जनवादी (संशोधनवादी) पार्टियों के विचार हैं जो वर्ग की एक अर्थवादी अवधारणा को मानते हैं; मेंशेविक इतिहास की एक विकासवादी (एवोल्यूशनिस्ट) व्याख्या करते हैं, जिसमें क्रान्तिकारी आत्मगत शक्तियों की भूमिका नगण्य हो जाती है और क्रान्ति की पूरी प्रक्रिया में सचेतनता का तत्व गायब कर दिया जाता है और वह एक स्वतःस्फूर्त प्रक्रिया बन जाती है। ई.एच. कार ने बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच के फर्क की चर्चा करते हुए लिखा है कि उनके बीच का फर्क पश्चिम और पूरब का फर्क था। एक बार फिर ई.एच. कार ने राजनीतिक रुझानों का भौगोलिक सारभूतीकरण किया है। उनके अनुसार मेंशेविक इस मायने में अधिक ‘‘पश्चिमी’’ थे कि वे रूस के हूबहू उसी विकास-पथ में यकीन रखते थे, जिस पर पश्चिमी यूरोप के देश चले थे। यानी कि पूँजीवाद की दीर्घकालिक अवधि, जिस दौरान सर्वहारा वर्ग अपने आर्थिक अधिकारों के लिए संघर्ष करता है; सामन्‍तवाद-विरोधी बुर्जुआ क्रान्तियों के तुरन्‍त बाद समाजवादी क्रान्ति में संक्रमण को वे गलत मानते थे; जबकि, ई.एच. कार के अनुसार लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों का मानना था कि बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति भी रूस में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व और किसान आबादी की सक्रिय भागीदारी से सम्पन्न होगी। ई.एच. कार यहाँ राजनीतिक कार्यदिशाओं के संघर्ष और ऐतिहासिक सन्‍दर्भ के अन्‍तर को बिल्कुल नहीं समझ पाये हैं। पश्चिमी यूरोप में भी सर्वहारा वर्ग का पहला प्रयास बुर्जुआ क्रान्तियों के तुरन्‍त बाद सतत् क्रान्ति (अनइण्टरप्टेड रिवोल्यूशन) के जरिये समाजवादी क्रान्तियों की ओर आगे बढ़ने का ही था, जो कि 1848 में विफल हो गया था क्योंकि सर्वहारा वर्ग के पास पर्याप्त मजबूत संगठन और किसान विद्रोह के साथ उसका उपयुक्त रूप से संलयन नहीं हुआ था। मार्क्‍स ने एक बार एंगेल्स को एक पत्र में लिखा था कि सर्वहारा क्रान्ति का भविष्य जर्मनी में इस बात पर निर्भर करता है कि उसे किसान विद्रोह का समर्थन मिलता है या नहीं। लेकिन इन प्रथम असफल प्रयासों के बाद यूरोप के उन्नत पूँजीवादी देश साम्राज्यवाद की मंजिल में प्रवेश करते हैं और इसके बाद इन देशों के मजदूर वर्ग में एक कुलीन मजदूर वर्ग का प्रादुर्भाव बड़े पैमाने पर हुआ और सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन में बुर्जुआ अर्थवादी रुझान ने जड़ जमायी। इसी प्रक्रिया की तार्किक परिणति खुले तौर पर संशोधनवाद और दूसरे इण्टरनेशनल के पतन के रूप में सामने आयी। ई.एच. कार इस पूरे ऐतिहासिक सन्‍दर्भ को समझने की बजाय बोल्शेविज्म और संशोधनवादी मेंशेविज्म के फर्क को पूरब और पश्चिम के बीच के फर्क के रूप में सारभूतीकृत कर देते हैं, जो कि तथ्यवादी स्कीम में बिल्कुल फिट बैठता है लेकिन न तो मेंशेविज्म के कोर सिद्धान्‍तों की पूर्ण रूप से सही व्याख्या कर पाता है और न ही बोल्शेविज्म की पूरी क्रान्तिकारी अन्‍तर्वस्तु को सही तरीके से समझ पाता है। ई.एच. कार आश्चर्य जताते हैं कि मेंशेविकों की पकड़ रूसी मजदूर वर्ग के सबसे संगठित, कुशल और शिक्षित हिस्से में थी, जैसे कि रेलवे मजदूर, प्रिण्टर, आदि जबकि बोल्शेविकों का आधार मुख्य तौर पर असंगठित कारखाना मजदूरों में था। लेनिन ने लिखा था कि अर्थवादियों की अपील मजदूर वर्ग के राजनीतिक तौर पर सबसे पिछड़े हिस्सों में कारगर थी। ई.एच. कार कहते हैं कि लेनिन की यह बात अनुभवों की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। यहाँ भी कार यह नहीं समझते कि राजनीतिक तौर पर उन्नत होने का रिश्ता बड़े, उन्नत और सरकारी उद्योगों में काम करना नहीं है। खैर, सिर्फ ई.एच. कार ही नहीं आज भारत के तमाम समाजवादी क्रान्ति की मंजिल को स्वीकारने वाले संगठन भी यह मानते हैं कि उन्नत मजदूर का अर्थ है बड़े उपक्रमों में काम करने वाला संगठित मजदूर! मजदूर वर्ग में काम की दिशा को लेकर अभी भारत में कम्युनिस्ट आन्‍दोलन में जो बहस जारी है उसमें एक धड़े का यह मानना है कि कम्युनिस्ट आन्‍दोलन को भारत के 93 फीसदी असंगठित/अनौपचारिक मजदूर आबादी में मुख्य रूप से जोर देना चाहिए, जबकि कुछ अर्थवादी संगठनों का यह मानना है कि सर्वहारा वर्ग के उन्नततम तत्व केवल संगठित मजदूर आबादी में होते हैं जो कि बड़े उद्योगों में काम करती है और सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी केवल तभी बन सकती है, जब इन बड़े संगठित क्षेत्र के उद्योगों के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट काम करें! इस सोच का वास्तव में मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद से कोई लेना-देना रहा ही नहीं है और यह 1930 के दशक से 1970 के दशक के बीच पैदा हुआ एक फोर्डवादी पूर्वाग्रह है जिसे संशोधनवादी पार्टियों ने कम्युनिस्ट आन्‍दोलन के भीतर प्रविष्ट करा दिया है। (इस पूरी बहस के लिए देखें, अभिनव सिन्हा, ‘‘न्यू फॉर्म्‍स एण्ड स्ट्रैटेजीज ऑफ दि वर्किंग क्लास मूवमेण्ट एण्ड रेजिस्टेंस इन दि एरा ऑफ ग्लोबलाइजेशन’’, दि वर्किंग क्लास मूवमेण्ट इन इण्डिया इन दि ट्वेण्टी फर्स्‍ट सेंचुरी, 2013, अरविन्‍द मेमोरियल ट्रस्ट, लखनऊ) ऐसे उपक्रमों में काम करना तो राजनीतिक तौर पर पिछड़े हुए कुलीन मजदूर वर्ग को भी जन्म दे सकता है। राजनीतिक चेतना के उन्नत होने से लेनिन का अर्थ था मजदूरों का अपनी राजनीतिक माँगों और सत्ता के प्रश्न के प्रति सचेत होना। मेंशेविकों की असफलता का कारण ई.एच. कार के लिए यह था कि मेंशेविक समझ नहीं पाये कि रूस में पश्चिमी यूरोप की तरह उन्नत और उदार बुर्जुआ जनवाद के पनपने की जमीन मौजूद नहीं थी; बोल्शेविक इस पूरब और पश्चिम के पूँजीवादों के अन्‍तर को समझने में सफल रहे और इसीलिए रूस में सर्वहारा वर्ग और किसानों, दोनों को ही वे एक क्रान्तिकारी कार्यक्रम दे सके। यहाँ पर एक बार फिर कार भूल रहे हैं कि साम्राज्यवाद के उदय से पहले पश्चिमी यूरोप में भी बुर्जुआ वर्ग ने सर्वहारा वर्ग के उभार से डरकर प्रतिक्रिया का पक्ष लिया था और वहाँ भी बुर्जुआ क्रान्तियों के तुरन्‍त बाद ही सर्वहारा वर्ग ने सत्ता पर कब्जा करने का प्रयास किया था। कार का यह नतीजा आंशिक रूप से सही है कि यूरोप में बुर्जुआ क्रान्तियों के तेजी से सर्वहारा क्रान्ति में तब्दील होने की जो घटनाएँ घटी थीं, उनसे विश्व के अन्य देशों के बुर्जुआ वर्ग ने सबक लिया था और बुर्जुआ क्रान्तियों के आमूलगामी चरित्र को कम कर सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध प्रतिक्रियावाद का पक्ष लेना शुरू कर दिया था। इसी मायने में इतिहास अपने आपको कभी दुहराता नहीं। पश्चिम में जो नाटक उन्नीसवीं सदी के मध्य में खेला जा चुका था वह बीसवीं सदी की शुरुआत में रूस में दुहराया नहीं जा सकता था। कार इसी तरीके से कई बार टुकड़ों में सटीक बातें कहते हैं, लेकिन उनका अकादमिक प्रशिक्षण अन्‍त में उन्हें भौगोलिक या वैयक्तिक सारभूतीकरण की ओर ले जाता है। मिसाल के तौर पर, मेंशेविकों और विशेषकर प्लेखानोव के ‘पश्चिमी चरित्र’ के लिए उन्होंने पश्चिम यूरोप में उनके लम्‍बे प्रवासी जीवन को भी जिम्मेदार ठहराया है; लेकिन अगर यह कारण होता तो लेनिन को भी मेंशेविक कार्यदिशा में यकीन करना चाहिए था क्‍योंकि लेनिन के भी क्रान्तिकारी जीवन का बड़ा हिस्सा विदेशों में प्रवास में ही बीता था। इसी प्रकार, ई.एच. कार एक स्थान पर लिखते हैं कि रूसी क्रान्ति की रणनीति और कार्यदिशा को लेकर मेंशेविक कार्यक्रम जितना अयथार्थवादी था (जो कि रूस में यूरोप जैसे बुर्जुआ जनवाद की स्थापना के सपने देखता था) उतना ही बोल्शेविक कार्यक्रम भी था क्योंकि वह पहले चरण में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों और बुर्जुआ जनवाद को स्थापित करने को ही अपना लक्ष्य मानता था, और इसके बाद समाजवादी क्रान्ति की ओर बढ़ने की बात करता था। कार पूछते हैं कि जिस जनवाद का आधार बुर्जुआ वर्ग है ही नहीं, वह बुर्जुआ जनवाद कैसे हो सकता है? कार कहते हैं कि यहाँ पर लेनिन अन्‍तरविरोधों के शिकार हैं। यहाँ वास्तव में कार बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में बुर्जुआ जनवाद और मजदूरों और किसानों की जनवादी तानाशाही के तहत क्रान्तिकारी जनता के जनवाद के बीच के अन्‍तर को नहीं समझ पाये हैं। पहली बात तो यह कि मालिक किसानों का वर्ग वास्तव में दार्शनिक और राजनीतिक तौर पर बुर्जुआ वर्ग की अवस्थिति को ही अपनाता है। यह टुटपुँजिया वर्ग सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में होने वाली जनता की जनवादी क्रान्ति में आर्थिक तौर पर लगभग वही स्थान रखता है जो कि बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति में बुर्जुआ वर्ग रखता है, और इसकी माँगों की प्रधानता के कारण ही सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में होने वाली जनवादी क्रान्ति बुर्जुआ जनवाद के दायरे से आगे नहीं जाती। निश्चित तौर पर, सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जनवादी क्रान्ति जनवादी कार्यभारों को बुर्जुआ वर्ग से भी अधिक आमूलगामी रूप से पूरा करते हुए जमीन का राष्ट्रीयकरण और समान पुनर्वितरण करती है, आठ घण्टे के कार्यदिवस और न्यूनतम मजदूरी को लागू करती है, जनवादी गणराज्य की स्थापना करती है, समझौताविहीन तरीके से सामन्‍ती वर्गों का सम्पत्ति-हरण करती है। लेकिन वह जो कार्यक्रम लागू करती है, वह राजनीतिक-विचारधारात्मक तौर पर बुर्जुआ जनवाद से आगे नहीं जाता। जाहिर है कि कार एक बार फिर अपने अनुभववाद के कारण इतिहास की सैद्धान्तिक समस्याओं को नहीं समझ पाये हैं। कार आगे अपनी गलत समझदारी को चरम पर पहुँचाते हुए दावा करते हैं कि बोल्शेविक स्कीम में विरोधाभास का कारण मूल मार्क्‍सवादी योजना में विरोधाभास था। उनके अनुसार मार्क्‍स ने यह कहा था कि हर जगह पूँजीवाद उन्नत होते-होते सन्‍तृप्ति बिन्‍दु तक पहुँचेगा और उसके अन्‍तरविरोध तीव्र होते-होते विस्फोट की हदों तक पहुँचेंगे; इस पूरे दौर में सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ संविधान के तहत प्रशिक्षित होगा, वर्ग सचेत और राजनीतिक बनेगा और अन्‍ततः संगठित हो, बुर्जुआ सत्ता के विरुद्ध समाजवादी क्रान्ति करेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पश्चिमी यूरोप के उन्नत पूँजीवादी देशों में मजदूर वर्ग के ही एक हिस्से को बुर्जुआ सत्ता द्वारा सहयोजित कर लिया गया और इस प्रकार बुर्जुआ वर्ग ने अपने शासन को दीर्घजीवी बना लिया, और क्रान्तियाँ इन उन्नत देशों में न होकर पिछड़े पूँजीवादी देशों में हुईं जिसके कारण मार्क्‍सवादी स्कीम के समक्ष शर्मिन्‍दगी की एक स्थिति पैदा हो गयी! रूस में सर्वहारा वर्ग सत्ता में आने पर नौसिखुआ साबित हुआ और समाजवाद मार्क्‍सवाद के पुराने दावे के विपरीत ‘‘प्रचुरता’’ की बजाय ‘‘अभाव’’ के साथ सहअस्तित्व में था। जाहिर है कि कार ने न तो मार्क्‍स के पूरे विश्लेषण को समझा है और न ही लेनिन के साम्राज्यवाद के दौर में सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल के सिद्धान्‍त को।

पहली बात यह है कि मार्क्‍स ने ऐसी कोई स्कीम नहीं पेश की थी जो कि हर देश में पूँजीवाद के उन्नत हो जाने के बाद सर्वहारा क्रान्ति के स्वतः सम्पन्न होने की बात करती थी। मार्क्‍स जब जर्मनी में सम्भावित सर्वहारा क्रान्ति की बात कर रहे थे, उस समय पूँजीवादी विकास की दौड़ में जर्मनी कहीं पीछे था; उसी समय मार्क्‍स ने किसान युद्ध के दूसरे संस्करण की अपेक्षा की थी, जो पूरी न हो सकी। दूसरी बात, मार्क्‍स पूँजीवाद को एक विश्व अर्थव्यवस्था के रूप में समझते थे। मार्क्‍स ने लिखा था कि पूँजीवाद मानव इतिहास की अब तक की सबसे गतिशील उत्पादन पद्धति है और यह जल्द ही राष्ट्रीय सीमाओं का अतिक्रमण कर पूरी दुनिया में कच्चे माल और श्रम के दोहन के लिए विचरण करेगी और उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित करेगी। साम्राज्यवाद का दौर वास्तव में पूँजीवाद के अन्‍तरविरोधों के विश्व स्तर पर तीव्र होते जाने की ही निशानी है। इस दौर में निश्चित तौर पर क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल में परिवर्तन आ जायेगा। लेकिन मार्क्‍स की यह भविष्यवाणी बिल्कुल सही थी कि सर्वहारा क्रान्तियाँ पूँजीवाद के अन्‍तरविरोधों के तीव्रतर होते जाने का परिणाम होंगी। मार्क्‍स ने पूँजीवाद की इस पूरी कार्यपद्धति को दिखलाने के लिए ब्रिटिश और एक हद तक जर्मन और फ्रांसीसी पूँजीवाद का विश्लेषण किया था। इसका यह अर्थ कतई नहीं था कि हरेक देश में अलग-अलग सर्वहारा क्रान्तियों की वह स्कीम अमल में आयेगी, जिसका मार्क्‍स ने एक आम प्रवृत्ति के तौर पर जिक्र किया था। कार का विश्लेषण प्रत्यक्षवादी व अनुभववादी तथ्यवाद के प्रभाव में रहने के कारण एक सही कालानुक्रम में सभी तथ्यों को पाठक के सामने सटीक तरीके से पेश करता है, लेकिन एक द्वन्‍द्वात्मक दृष्टि न होने के कारण यह कार के नतीजे को कई बार हास्यास्पद नतीजों तक पहुँचा देता है, जिसका आप कार जैसे इतिहासकार से उम्मीद नहीं करते लेकिन फिर भी चकित हुए बिना भी नहीं रह पाते। नतीजतन, ई.एच. कार की पूरी समझदारी एक प्रत्यक्षवादी और अनुभववादी समझदारी के रूप में सामने आती है, जो कि एक द्वन्‍द्वात्मक भौतिकवादी इतिहासकार को अन्‍तर्दृष्टियाँ दे सकती है, लेकिन अपने आप में एक पूर्ण व्याख्या प्रस्तुत नहीं कर पाती।

बहरहाल, मेंशेविज्म द्वारा रूस में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति की मंजिल में एक अर्थवादी और संशोधनवादी रणनीति और आम कार्यदिशा प्रस्तुत किये जाने के जवाब में तीसरी पार्टी कांग्रेस में लेनिन ने आलोचना रखी और उसके दो माह बाद ही अपनी प्रसिद्ध रचना ‘जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सामाजिक-जनवाद की दो कार्यनीतियाँ’ लिखी। यह वास्तव में लेनिन द्वारा 1905 की स्थितियों का एक समाहार था। 1905 के जारी घटनाक्रम के मद्देनजर लेनिन ने तत्कालीन रूस में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सामाजिक-जनवाद की रणनीति और आम रणकौशल को स्पष्ट किया था। यह मेंशेविकों के उस दृष्टिकोण का खण्डन था जिसका हम ऊपर जिक्र कर चुके हैं। इसी समय त्रात्स्की ने 1905 को लेकर मेंशेविकों और लेनिन, दोनों से अलग अवस्थिति अपनायी थी। लेकिन त्रात्स्कीपन्‍थ से लेनिन के संघर्ष पर हम अलग से पूरी चर्चा करेंगे, जिसमें कि 1903 से लेकर 1917 तक लेनिन और त्रात्‍स्‍की के बीच विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांगठनिक कार्यदिशा के फर्क का विश्लेषण करेंगे। लेकिन अभी लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों द्वारा मेंशेविकों से चलाये गये संघर्ष पर हम अपनी चर्चा को जारी रखेंगे। इसमें लेनिन की उपरोक्त रचना का सबसे अहम योगदान था और इस रचना में प्रस्तुत कार्यदिशा पर विचार करते हुए ही हम आगे बढ़ेंगे।

‘जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सामाजिक-जनवाद की दो कार्यनीतियाँ’ में लेनिन ने जो सबसे अहम मुद्दा उठाया वह था जनवादी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग की भूमिका। मेंशेविकों की आलोचना रखते हुए लेनिन ने कहा कि रूस में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग को न सिर्फ सक्रिय भागीदारी करनी चाहिए, बल्कि वही उसे सक्षम नेतृत्व दे सकता है। रूस का बुर्जुआ वर्ग जो जारशाही की राज्यसत्ता और वित्तीय पूँजी द्वारा ऊपर से किये गये विकास से पैदा हुआ है, जारशाही और भूस्वामी वर्ग के विरुद्ध सीधा युद्ध छेड़ने की न तो ताकत रखता है और न ही इच्छा शक्ति। उल्टे वह सर्वहारा वर्ग के बढ़ते आन्‍दोलन से ज्यादा भयभीत है और प्रतिक्रियावादी ताकतों से समझौता करने को तत्पर है। ऐसे में रूस में सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति का नेतृत्व अपने हाथों में लेना ही होगा। लेनिन ने लिखा, ‘‘मार्क्‍सवाद सर्वहारा को बुर्जुआ क्रान्ति से अलग-थलग रहना, इसके प्रति तटस्थ रहना और क्रान्ति के नेतृत्व को बुर्जुआ वर्ग द्वारा हथियाने देना नहीं सिखाता; उल्टे, वह उसे इसमें सबसे ऊर्जावान तरीके से भाग लेना, निरन्‍तरतापूर्ण सर्वहारा जनवाद के लिए सबसे दृढ़ता से लड़ना सिखाता है ताकि क्रान्ति को उसकी परिणति तक पहुँचाया जा सके। हम रूसी क्रान्ति की बुर्जुआ-जनवादी सीमाओं को लाँघ नहीं सकते लेकिन हम इसे व्यापक तौर पर विस्तारित कर सकते हैं, और इन सीमाओं के भीतर हम सर्वहारा वर्ग के हितों के लिए, उसकी तात्कालिक आवश्यकताओं के लिए और भावी पूर्ण विजय के लिए इसकी शक्तियों की तैयारी को सम्भव बनाने वाली स्थितियों के लिए लड़ सकते हैं और हमें लड़ना ही चाहिए।’’ (वी.आई. लेनिन, जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सामाजिक-जनवाद की दो कार्यनीतियाँ, विदेशी भाषा प्रकाशन गृह, पीकिंग, 1965, अंग्रेजी संस्करण, पृ. 46, अनुवाद हमारा) आगे लेनिन ने स्पष्ट किया कि बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति दो प्रकार के बुर्जुआ जनवाद को जन्म दे सकती है। एक, जिसमें कि राजतन्त्र को निर्णायक तरीके से उखाड़ फेंका गया हो और जनवादी गणराज्य की मजबूती से स्थापना की गयी हो; और दूसरा, जिसमें कि राजतन्त्र कायम रहे, बस उसे संवैधानिक राजतन्त्र में तब्दील कर दिया जाये और जिसमें बुर्जुआ वर्ग राजतन्त्र के साथ समझौता कर एक अधूरी, विकलांग बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति को जन्म दे। लेनिन का कहना था कि हर सूरत में पहली स्थिति सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक और आर्थिक संघर्षों और अन्‍ततः समाजवादी क्रान्ति के लिए तैयार के लिए ज्यादा बेहतर है। लेकिन यह पहली सम्भावना एक यथार्थ में तभी तब्दील हो सकती है जबकि रूस में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति का नेतृत्व सर्वहारा वर्ग के हाथों में हो। सर्वहारा वर्ग सबसे क्रान्तिकारी वर्ग था और उसे बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति में बुर्जुआ वर्ग का पिछलग्गू बनने की कोई आवश्यकता नहीं थी; सर्वहारा वर्ग के पास अपनी राजनीतिक पार्टी थी जो कि बुर्जुआ वर्ग से स्वतन्त्र थी, और बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति को आमूलगामी ढंग से अपनी पूर्णता तक पहुँचाने में सर्वहारा वर्ग का ज्यादा लाभ था। लेनिन ने स्पष्ट किया कि जनवादी क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग किसे नेतृत्व देगा यह सबसे अहम सवाल था जिस पर कि मेंशेविकों की अवस्थिति एकदम गलत थी। लेनिन का कहना था कि जनवादी क्रान्ति में जिस वर्ग को जारशाही के निर्णायक खात्मे और रैडिकल तरीके से जनवादी सुधारों के लागू होने से लाभ था, वह था पूरा किसान वर्ग। सर्वहारा वर्ग को रूस में जनवादी क्रान्ति में पूरे किसान वर्ग के साथ मोर्चा बनाना चाहिए और बुर्जुआ वर्ग को अलग-थलग कर नेतृत्व में नहीं आने देना चाहिए। प्लेखानोव सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व की बात तक स्वीकार करने को तैयार थे, लेकिन किसान आबादी को मुख्य मित्र बनाने और उदार बुर्जुआ वर्ग को अलग-थलग करने के प्रश्न पर वह लेनिन से सहमत नहीं थे। उनकी स्थिति उदार बुर्जुआ वर्ग को मित्र बनाने, उसे नाराज न करने की थी और किसान वर्ग को क्रान्ति के मजबूत मित्र के तौर पर देखने को लेकर वह संशयवादी थे। नतीजतन, अन्‍त में उनकी अवस्थिति क्लासिकीय मेंशेविक स्थिति के साथ ही खड़ी होती थी, जो कि ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादियों और अर्थवादियों की अवस्थितियों का मिश्रण थी।

दूसरी बात जो लेनिन ने ‘दो कार्यनीतियाँ’ में रखी वह यह थी कि जनता की जनवादी क्रान्ति को सम्पन्न करने के लिए सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में सशस्त्र विद्रोह को संगठित किया जाना चाहिए। इसके लिए एक आम हड़ताल आन्‍दोलन की शुरुआत की जानी चाहिए जो अन्‍त में जन राजनीतिक हड़तालों के जरिये सशस्त्र विद्रोह की मंजिल तक जाए। लेनिन ने कहा कि जनता के समक्ष रैडिकल तरीके से आठ घण्टे के कार्यदिवस, भूमि सुधार आदि जैसे जनवादी कार्यभारों को पूरा करने के नारे दिये जाने चाहिए, जो कि समझौतापरस्त बुर्जुआ कानूनी दायरे का उल्लंघन करते हों। साथ ही, मजदूरों को हथियारबन्‍द करने का नारा दिया जाना चाहिए। लेनिन ने स्पष्ट किया कि इस रूप में जनवादी क्रान्ति के सम्पन्न होने के फलस्वरूप जो राज्यसत्ता आयेगी वह निश्चित तौर पर किसी वर्ग अधिनायकत्व के द्वारा ही पहचानी जायेगी। ऐसी जनवादी क्रान्ति के नतीजे के तौर पर जो राज्यसत्ता अस्तित्व में आयेगी वह जनता की जनवादी तानाशाही या मजदूरों और किसानों की जनवादी तानाशाही होगी। जनता की जनवादी तानाशाही का सिद्धान्‍त भी इस रचना में लेनिन का एक नया योगदान था। इस सवाल पर लेनिन और त्रात्स्की के बीच मतभेद था, जिस पर हम आगे आयेंगे। एक अन्य प्रश्न जिस पर लेनिन ने मेंशेविकों का खण्डन किया वह था क्रान्ति के बाद क्रान्तिकारी आरजी सरकार में हिस्सेदारी का प्रश्न। इस पर लेनिन और त्रात्स्की के बीच भी मतभेद था, जिस पर हम त्रात्स्कीपन्‍थ पर केन्द्रित हिस्से में चर्चा करेंगे। लेनिन ने स्पष्ट किया कि वैसे तो ऐसी सरकार में भागीदारी के प्रश्न को पहले से तय कर पाना मुश्किल है, लेकिन अगर सर्वहारा वर्गों के हितों के पोषण और जनवादी क्रान्ति को पूर्णता तक पहुँचाने के लिए पार्टी को आरजी सरकार में भागीदारी करनी पड़े, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। मेंशेविकों की अवस्थिति थी कि सामाजिक-जनवादियों को किसी भी सूरत में आरजी सरकार में हिस्सेदारी नहीं करनी चाहिए और ‘‘अति क्रान्तिकारी विरोध’’ की पार्टी बने रहना चाहिए। आरजी सरकार में शामिल होने को उन्होंने उसी प्रकार की गलती माना जैसी कि फ्रांस के समाजवादियों ने की थी। लेनिन ने स्पष्ट किया कि फ्रांस में प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ सरकार में गैर-क्रान्तिकारी स्थिति में समाजवादियों ने भागीदारी की थी जो कि निश्चित रूप से गलत थी; लेकिन एक क्रान्तिकारी आरजी सरकार में क्रान्तिकारी परिस्थितियों में भागीदारी करना एक अलग प्रश्न है और यह स्थितियों के मद्देनजर की जा सकती है।

आखिरी महत्वपूर्ण बात जो लेनिन ने इस रचना में कही वह यह थी कि बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति को पूर्णता तक पहुँचाने के बाद सर्वहारा वर्ग को वहीं रुकना नहीं चाहिए और तत्काल समाजवादी क्रान्ति के लिए तैयारियाँ शुरू कर देनी चाहिए। निश्चित रूप से, लेनिन बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति की मंजिल को लाँघने के पक्ष में नहीं थे। न ही उन्होंने बुर्जुआ क्रान्ति और समाजवादी क्रान्ति के बीच की कालावधि बतायी। लेकिन उन्होंने इतना स्पष्ट किया कि बुर्जुआ क्रान्ति के सम्पन्न होने के बाद सर्वहारा वर्ग सतत् क्रान्ति करते हुए समाजवादी क्रान्ति की ओर बढ़ सकता है और उसे बढ़ना चाहिए। जाहिर है कि ऐसी समाजवादी क्रान्ति के बाद वह तत्काल समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना नहीं कर सकता है, बल्कि प्रारम्भिक दौर में समाजवाद की ओर कुछ कदम उठा सकता है। लेनिन ने कहा कि जनवादी क्रान्ति की मंजिल में पूरी किसान आबादी के साथ मिलकर और उसके बाद समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में बुर्जुआ वर्ग और किसान आबादी के ढुलमुल तत्वों की अस्थिरता के विरुद्ध ग्रामीण सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा आबादी को साथ लेकर सर्वहारा वर्ग को आगे बढ़ना चाहिए। वास्तव में, सतत् क्रान्ति का सिद्धान्‍त मार्क्‍स ने ही प्रतिपादित किया था। मार्क्‍स ने एंगेल्स को लिखे एक पत्र में कहा था जर्मनी में सर्वहारा क्रान्ति का भविष्य किसान युद्ध के दूसरे संस्करण पर निर्भर करता है। मार्क्‍स ने कहा था कि जर्मनी में बुर्जुआ क्रान्ति को पूर्णता तक पहुँचाने के बाद सर्वहारा वर्ग को ग्रामीण सर्वहारा और गरीब किसान आबादी को साथ लेकर तत्काल ही सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति की ओर आगे बढ़ना चाहिए। इसी को मार्क्‍स ने सतत् क्रान्ति कहा था। मार्क्‍स द्वारा इस्तेमाल किया गया शब्द ‘पर्मानेण्ट रिवोल्यूशन’ था जिसका ‘स्थायी क्रान्ति’ और ‘सतत् क्रान्ति’ दोनों ही रूप में अनुवाद होता है। इन दोनों अनुवादों के उपयोग को लेकर भी एक प्रकरण था जिस पर हम त्रात्स्कीपन्‍थ की आलोचना पर केन्द्रित उपशीर्षक में चर्चा करेंगे। बहरहाल, 1856 के बाद मार्क्‍स के क्रान्ति के बारे में विचारों का यह पहलू एक तरह से नेपथ्य में चला गया था, जिसे कि रूस के सन्‍दर्भ में लेनिन ने पुनर्जीवित किया और आगे विकसित किया। लेनिन ने भी सतत् क्रान्ति के सिद्धान्‍त का समर्थन किया और रूसी स्थितियों में इसके लागू होने की शर्तों और स्थितियों पर विचार किया। कई लोगों ने, जिसमें कि ई.एच. कार शामिल हैं और अचेतन रूप से चार्ल्‍स बेतेलहाइम भी शामिल हैं, यह कोशिश की है कि त्रात्स्की के स्थायी क्रान्तिके सिद्धान्‍त की तुलना मार्क्‍स और लेनिन के सतत् क्रान्ति के सिद्धान्‍त से करें और उन्हें वास्तव में एक सिद्ध करें। लेकिन लेनिन के सतत् क्रान्ति के सिद्धान्‍त और त्रात्स्की के ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त में बहुत बड़ा अन्‍तर है। इस पर हम आगे चर्चा करेंगे, जब हम त्रात्स्कीपन्‍थ से लेनिन के संघर्ष का अलग से विस्तार में ब्यौरा देंगे। लेनिन ने सतत् क्रान्ति में वर्ग मोर्चे को स्पष्ट करते हुए लिखा, ‘‘सर्वहारा वर्ग को किसानों के जनसमुदायों के साथ गठजोड़ बनाते हुए जनवादी क्रान्ति को पूर्णता तक ले जाना चाहिए ताकि वह निरंकुश तन्त्र के प्रतिरोध को कुचल सके और बुर्जुआ वर्ग के अस्थिर तत्वों को निष्क्रिय कर सके। सर्वहारा वर्ग को जनसंख्या के अर्द्धसर्वहारा जनसमुदायों के साथ मिलकर समाजवादी क्रान्ति को पूर्ण करना चाहिए, ताकि वह बुर्जुआ वर्ग के प्रतिरोध को कुचल सके और किसानों और टुटपुँजिया वर्गों की अस्थिरता को निष्क्रिय किया जा सके।’’ (वही, पृ. 109-110, अनुवाद हमारा)

इस रचना के प्रकाशन के बाद रूस के घटनाक्रम ने लेनिन के सिद्धान्‍तों की पुष्टि की। 1905 की असफल क्रान्ति में नेतृत्वकारी भूमिका मजदूर वर्ग के हाथों में थी, लेकिन किसानों के विद्रोहों के साथ सही तरीके से समन्वय न स्थापित होने के कारण और वर्दीधारी किसानों, यानी कि सैनिकों, के जारशाही के पक्ष में खड़े होने के कारण 1905 की क्रान्ति कुचल दी गयी। दिसम्बर 1905 के बाद भी देश भर में किसान व मजदूरों के छोटे-छोटे विद्रोहों और आन्‍दोलनों जैसी घटनाएँ घटती रहीं, लेकिन मुख्य और मूल तौर पर क्रान्ति कुचली जा चुकी थी। लेकिन इस अधूरी क्रान्ति ने एक संविधान और दूमा देने के लिए जार को मजबूर कर दिया। हालाँकि, ये अधिकार आधे-अधूरे थे, लेकिन फिर भी यह साफ हो गया था कि जारशाही को कुछ सुधार के कदम उठाने ही पड़ेंगे। यह एक दीगर बात है कि 1907 में स्तोलिपिन के प्रतिक्रियावाद के दौर के शुरू होने के बाद इन आधे-अधूरे सुधारों का भी कोई विशेष अर्थ नहीं रह गया था। 1907 से लेकर 1911 तक का दौर रूसी मजदूर आन्‍दोलन में भाटे का दौर था। 1905 में क्रान्ति के कुचले जाने के बाद 1906 में बोल्शेविकों और मेंशेविकों में एक एकता कांग्रेस हुई। चूँकि मेंशेविकों ने बोल्शेविकों द्वारा आयोजित तीसरी कांग्रेस को उस समय मान्यता नहीं दी थी, इसलिए एकता कांग्रेस को उस समय चौथी कांग्रेस नहीं कहा गया। बाद में पार्टी इतिहास में इसे चौथी कांग्रेस के नाम से ही जाना गया। 1905 की क्रान्ति के बाद जब पीटर्सबर्ग सोवियत को कुचला गया तो बोल्शेविकों और मेंशेविकों ने मिलकर इसका संयुक्त रूप से विरोध किया। इस सोवियत में मुख्य तौर पर मेंशेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी सक्रिय थे, लेकिन निश्चित तौर पर बोल्शेविकों का भी अच्छा-खासा प्रभाव था। पहले अध्यक्ष के गिरफ्तार होने के बाद त्रात्स्की इसके दूसरे अध्यक्ष बने थे क्योंकि बोल्शेविकों और मेंशेविकों, दोनों को ही त्रात्स्की के नाम पर आपत्ति नहीं थी। क्रासिन के ब्यौरे के मुताबिक, 1903 में बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच हुई फूट अभी रूसी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन में पूरी तरह लागू नहीं हो पायी थी, और 1905 की क्रान्ति के दौरान पीटर्सबर्ग में बोल्शेविक और मेंशेविक ज्यादातर जमीनी व्यावहारिक मसले पर साथ ही काम कर रहे थे। इस बात में कोई शक नहीं है कि इसमें बोल्शेविकों से ज्यादा मेंशेविकों का प्रभाव था और इन दोनों के अलावा समाजवादी-क्रान्तिकारी व अराजकतावादी भी इसमें सक्रिय थे। शुरुआत में लेनिन या त्रात्स्की ने सोवियतों को समानान्‍तर सर्वहारा सत्ता की संस्था के रूप में नहीं देखा था। लेनिन ने कहीं भी सैद्धान्तिक तौर पर सोवियतों को सर्वहारा सत्ता की एकमात्र सत्ता के रूप में मान्यता नहीं दी थी। लेनिन का सोवियतों के बारे में दृष्टिकोण बदलता रहा था। क्रान्ति के पहले और क्रान्ति के बाद, दोनों ही दौरों में लेनिन के सोवियतों के बारे में दृष्टिकोण के बारे में हम आगे विस्तार से लिखेंगे क्योंकि सोवियतें सर्वहारा सत्ता का मुख्य निकाय होंगी, यह सिद्धान्‍त का मसला नहीं है। निश्चित तौर पर, इस प्रकार का कोई जनमंच सर्वहारा अधिनायकत्व को तृणमूल धरातल पर पहुँचाने का कार्य करेगा, लेकिन यह निकाय क्या होगा, किस प्रकार का होगा, इसके बारे में ए प्रायोरी किसी निर्णय तक नहीं पहुँचा जा सकता है।

दिसम्बर 1905 में टैमर्सफोर्स में बोल्शेविकों ने एक सम्मेलन किया और तय किया कि व्यावहारिक मसलों में एकजुटता की आवश्यकता है और इसलिए बोल्शेविक और मेंशेविक केन्‍द्रीय कमेटियों को मिला दिया जाना चाहिए। इसी सम्मेलन में जोसेफ स्तालिन पहली बार रूसी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन के राष्ट्रीय दृश्यपटल पर आते हैं और यहीं पर स्तालिन की पहली बार लेनिन से मुलाकात होती है। इस सम्मेलन में एक संयुक्त एकता कांग्रेस करने के प्रस्ताव पर सहमति जतायी गयी। 1906 की जनवरी और फरवरी में एक संयुक्त केन्‍द्रीय कमेटी ने कांग्रेस की तैयारी की घोषणा की और स्टॉकहोम में अप्रैल में यह एकता कांग्रेस हुई जिसे बाद में चौथी कांग्रेस के रूप में जाना गया। इसके बाद 1907 के अप्रैल-मई में एक और संयुक्त कांग्रेस हुई जिसे बाद में पाँचवीं कांग्रेस का दर्जा दिया गया। स्टॉकहोम एकता कांग्रेस में मेंशेविक बहुमत में थे, जबकि लन्‍दन कांग्रेस (पाँचवीं कांग्रेस) तक बोल्शेविक बहुमत में आ चुके थे। त्रात्स्की इस समय दोनों धड़ों के बीच में दोलन करते हुए और मुख्य रूप से मेंशेविकों की ओर झुकाव रखते हुए अपने आपको ‘‘पार्टी गुटों से अलग’’ बता रहे थे। अधिकांश मसलों में उनकी अवस्थिति मेंशेविकों के साथ जाकर खड़ी होती थी। 1907 आते-आते यह दिखने लगा था कि बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच कोई एकता सम्भव नहीं है, और दूरगामी तौर पर लेनिन की कार्यदिशा एकदम सही और सटीक साबित हो रही थी। लेनिन का स्पष्ट मानना था कि सांगठनिक कार्यदिशा के प्रश्न पर अन्‍तरविरोध वास्तव में कोई तकनीकी नहीं बल्कि रूसी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल को लेकर मेंशेविकों से एक बुनियादी राजनीतिक अन्‍तरविरोध था, और उनके साथ किसी भी प्रश्न पर समझौते की बजाय फूट बेहतर थी।

1905 के बाद की विशिष्ट परिस्थितियों में एकता हुई थी और यह 1911 तक ही टिक पायी। 1907 में लन्‍दन कांग्रेस के बाद ही स्तोलिपिन की प्रतिक्रिया का दौर शुरू हुआ। इस कांग्रेस से ठीक पहले मेंशेविकों ने एक श्रमिक कांग्रेस का प्रस्ताव रखा था जिसमें कि सामाजिक-जनवादी, समाजवादी-क्रान्तिकारी और अराजकतावादी सभी को शामिल किये जाने का प्रस्ताव था। इसकी अवधारणा एक ‘‘गैर-पक्षधर पार्टी’’ की अवधारणा थी। लेनिन ने इस सोच पर पुरजोर शब्दों में हमला करते हुए इस सामाजिक-जनवादी मजदूर पार्टी को विसर्जित करने का प्रयास बताया और विसर्जनवाद का दरिद्र उदाहरण बताया। 1908 के दिसम्बर में पेरिस में एक सम्मेलन हुआ जिसमें बोल्शेविकों और मेंशेविकों की औपचारिक एकता जारी रही। 1909 में सामाजिक-जनवादी पार्टी के दोनों धड़ों का संयुक्त मुखपत्र सोत्सियल-डेमोक्रेट के कई अंक प्रकाशित हुए, जिसके सम्पादक मण्डल में मार्तोव, लेनिन, कामेनेवजिनोवियेव बैठते थे। कामेनेव और जिनोवियेव बोल्शेविक पार्टी में हाल ही में सक्रिय हुए थे। इसी दौर में लेनिन अलग बोल्शेविक केन्‍द्र और अलग बोल्शेविक मुखपत्र प्रोलेतारी को चला रहे थे। इस एकता के दौर में भी लेनिन का पूरा जोर बोल्शेविकों को अलग से संगठित रखने का था।

1909 में बोल्शेविकों के बीच भी एक दो लाइनों का अहम संघर्ष चला। बोल्शेविक धड़े में ही बोग्दानोव, लूनाचार्की और गोर्की नवकाण्टवादी माखवाद से प्रेरित होकर मार्क्‍सवाद के भीतर भाववादी विकृति पैदा कर रहे थे और धर्म के साथ मार्क्‍सवाद का संलयन करने का प्रयास कर रहे थे। यह समूह राजनीतिक तौर पर एक ‘‘वामपन्‍थी’’ कार्यदिशा पेश कर रहा था और तीसरी दूमा के सामाजिक-जनवादियों के बहिष्कार की माँग कर रहा था। लेनिन ने इस दार्शनिक प्रवृत्ति की अपनी प्रसिद्ध रचना भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना में धज्जियाँ उड़ा दीं और द्वन्‍द्वात्मक भौतिकवाद की हिफाजत की। लेनिन ने इनकी राजनीतिक कार्यदिशा की भी सख्त आलोचना पेश की। बाद में लेनिन ने माखवादी भटकाव को बोल्शेविक पार्टी के भीतर ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव का पहला उदाहरण बताया था। इसके बाद, आन्‍दोलन के लगभग हर अहम प्रश्न पर ‘‘वामपन्‍थी’’ कार्यदिशा से बोल्शेविकों का संघर्ष जारी रहा हालाँकि इस कार्यदिशा के वाहक अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग लोग थे। बहरहाल, यहाँ हमें अपने विशिष्ट उद्देश्यों के मद्देनजर माखवादियों के साथ चली बहस के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है; बस इतना जान लेना जरूरी है कि यह रुझान दार्शनिक धरातल पर एक भाववादी और अज्ञेयवादी भटकाव का मार्क्‍सवाद से मेल करने का प्रयास कर रहा था, जबकि राजनीतिक-विचारधारात्मक धरातल पर इसकी अवस्थिति एक ‘‘वामपन्‍थी’’ बचकाना अवस्थिति थी।

1910 में लेनिन ने केन्‍द्रीय कमेटी की बैठक में बोल्शेविकों और मेंशेविकों के सांगठनिक तौर पर अलग हो जाने का प्रस्ताव रखा, लेकिन केन्‍द्रीय कमेटी ने उसे पास नहीं किया। लेनिन खास तौर पर अलग बोल्शेविक केन्‍द्र और मुखपत्र को बन्‍द करने के फैसले से सहमत नहीं थे। बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच की यह असुविधाजनक औपचारिक एकता ज्यादा समय तक नहीं चल सकती थी। अन्‍ततः जनवरी, 1912 में लेनिन ने प्राग में अपनी कार्यदिशा के पक्ष में खड़े बोल्शेविकों का एक सम्मेलन बुलाया। इस सम्मेलन में 14 वोट करने वाले सदस्य थे और इसमें स्तोलिपिन की प्रतिक्रिया के दौर के परिणामस्वरूप पार्टी संगठन में आयी कमी को चिन्हित किया गया। इस सम्मेलन ने अपने आपको कांग्रेस का दर्जा देते हुए नयी केन्‍द्रीय कमेटी का चुनाव किया जिसमें लेनिन, जिनोवियेव, ओर्जोनिकिद्जे थे और साथ ही पाँच उम्मीदवार थे। बोल्शेविक पार्टी का इतिहास (1939) के अनुसार केन्‍द्रीय कमेटी में सम्मेलन के दौरान ही स्तालिन और स्वेर्दलोव को भी चुना गया था, लेकिन क्रुप्सकाया ने ‘लेनिन एक संस्मरण’ में लिखा है कि स्तालिन को सम्मेलन के तुरन्‍त बाद केन्‍द्रीय कमेटी में सहयोजित किया गया था। ई.एच. कार ने भी अपनी किताब में क्रुप्सकाया की सूचना को ही ज्यादा भरोसेमन्‍द बताया है। खैर, जो भी हो, 1912 में बोल्शेविक पार्टी एक अलग पार्टी के रूप में स्थापित हो गयी और इसकी केन्‍द्रीय कमेटी में पार्टी के दो भावी कद्दावर नेता लेनिन और स्तालिन मौजूद थे। 1912 ही रूस में मजदूर आन्‍दोलन में पसरे सन्नाटे के टूटने का वर्ष भी था। अप्रैल में लेना सोने की खान के मजदूरों पर जार की पुलिस ने गोलियाँ बरसायीं जिसमें करीब 500 मजदूर मारे गये। 1905 के खूनी रविवार के बाद यह सबसे भयंकर हत्याकाण्ड था। इसके साथ ही रूस में मजदूर आन्‍दोलन और सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन तेजी से बढ़ने लगा। 1912 में नये बोल्शेविक अखबार प्राव्दा की स्थापना सघन होती सामाजिक-जनवादी राजनीतिक गतिविधियों का ही एक लक्षण था। 1912 में त्रात्स्की ने तथाकथित तौर पर सामाजिक-जनवादियों की औपचारिक एकता को कायम रखने के लिए अगस्त महीने में मेंशेविकों, त्रात्स्कीपन्थियों और कुछ अन्य सामाजिक-जनवादी संगठनों का एक सम्मेलन वियेना में किया, जो कि वास्तव में बोल्शेविक-विरोधी गुटवाद के अलावा और कुछ नहीं था। लेकिन बोल्शेविकों ने इसका विरोध किया और सिद्धान्‍तों पर समझौते से इंकार कर दिया। ‘अगस्त ब्लॉक’ के नाम से जानी गयी त्रात्स्की की यह कवायद ठीक से बन पाने के पहले ही बिखर गयी क्योंकि आम तौर पर अवसरवादियों में कोई एकता लम्‍बे समय तक कायम नहीं रह पाती है।

1914 में प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत ने रूस में मजदूर आन्‍दोलन और सामाजिक-जनवादी गतिविधियों को और अधिक सघनता प्रदान की। 1914 में युद्ध पर अवस्थिति के प्रश्न पर भी मेंशेविकों और बोल्शेविकों में टकराव हुआ। युद्ध शुरू होते ही बोल्शेविकों ने युद्ध-विरोधी प्रचार शुरू कर दिया। नतीजतन, जार की पुलिस ने जल्द ही प्राव्दा का दमन कर दिया और कई बोल्शेविकों को गिरफ्तार कर लिया और निर्वासित कर दिया। इसके बाद बोल्शेविकों ने स्विट्जरलैण्ड में बर्न में अपना नया केन्‍द्र स्थापित किया और वहाँ से क्रान्तिकारी साहित्य को रूस में भेजने का इन्‍तजाम करना शुरू कर दिया। 1914 में यूरोप के तमाम सामाजिक-जनवादी सामाजिक कट्टरवादी अवस्थिति पर जा खड़े हुए और ‘‘पितृभूमि की रक्षा’’ करने की बात शुरू कर दी। लेनिन ने इसे निकृष्टतम कोटि की गद्दारी बताया और अपनी राष्ट्रीय सरकार को हराने की बोल्शेविक नीति को आगे बढ़ाने का काम जारी रखा। नवम्बर 1914 में लेनिन ने पार्टी मुखपत्र सोत्सियल डेमोक्रेट में युद्ध को लेकर अपनी थीसिस प्रकाशित की, जिसमें लिखा था : ‘‘सेना से लेकर सैन्य कार्रवाइयों के स्थानों पर समाजवादी क्रान्ति और अपने हथियारों को अन्य देशों के भाड़े के गुलामों, यानी अपने ही भाइयों की तरफ नहीं, बल्कि सभी देशों की प्रतिक्रियावादी और पूँजीवादी सरकारों की ओर मोड़ देने का सार्वभौमिक प्रचार करना होगा। सभी भाषाओं में ऐसे प्रचार के लिए सभी राष्ट्रों की सेनाओं में गैर-कानूनी सेल और समूह संगठित किये जाने की बिना शर्त जरूरत है। निरपवाद रूप से सभी देशों के पूँजीपति वर्गों के कट्टरतावाद और देशभक्ति के विरुद्ध कठोर संघर्ष।’’ इस थीसिस को लेनिन ने सितम्बर 1914 में बर्न में कुछ बोल्शेविकों के समक्ष प्रस्तुत किया था। फरवरी 1915 में बोल्शेविकों के एक अपेक्षाकृत बड़े सम्मेलन में इस थीसिस को पेश किया जिसे कि सम्मेलन ने पास कर दिया। इस सम्मेलन में बुखारिन, प्याताकोव, क्राइलेंको और जिनोवियेव मौजूद थे। बोल्शेविकों ने स्पष्ट शब्दों में युद्ध-विरोधी अवस्थिति अपनायी थी। लेकिन मेंशेविकों के बीच युद्ध के प्रश्न को लेकर दो गुट उभर आये। एक के नेतृत्व में प्लेखानोव थे जिन्होंने खुले तौर पर एक सामाजिक कट्टरवादी अवस्थिति अपना ली थी और कह रहे थे कि राष्ट्र-रक्षा आगे के सुधारों के लिए अनिवार्य है। लेकिन मार्तोव ने प्लेखानोव से अलग अवस्थिति अपनाते हुए युद्ध का विरोध किया। वाम मेंशेविकों और बोल्शेविकों के बीच युद्ध-विरोध के प्रश्न को लेकर एकता हुई और लेनिन और मार्तोव दोनों ने ही प्रसिद्ध जिम्मरवॉल्ड सम्मेलन में हिस्सा लिया, जिसमें कि सभी युद्ध विरोधी सामाजिक-जनवादियों ने भागीदारी की थी। लेकिन वाम मेंशेविकों और बोल्शेविकों के लिए युद्ध-विरोध का अलग-अलग अर्थ था। लेनिन के लिए युद्ध का विरोध करने का अर्थ था अपनी-अपनी राष्ट्रीय सरकारों को हराते हुए समाजवादी सर्वहारा क्रान्ति की ओर जाना; जबकि मार्तोव जैसे लोगों के लिए युद्ध विरोध का आधार था राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार के साथ जनवादी शान्ति। जल्द ही इस अन्‍तर ने युद्ध के प्रश्न पर हुए अस्थायी समझौते को अर्थहीन बना दिया। दूमा में बोल्शेविक प्रतिनिधियों और रूस के विभिन्न हिस्से से आये बोल्शेविक प्रतिनिधियों ने मिलकर लेनिन की युद्ध विरोधी थीसिस के समर्थन में प्रस्ताव पास किया। यह सितम्बर 1914 में एक गुप्त सम्मेलन में फिनलैण्ड में हुआ। एक माह बाद ही कई बोल्शेविक नेताओं और दूमा सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तार बोल्शेविकों में कामेनेव भी शामिल थे। बाद में पता चला कि इन बोल्शेविकों पर चले मुकदमे में कामेनेव बोल्शेविक अवस्थिति से हिल गये थे और उन्होंने कहा था कि वह लेनिन के युद्ध-विरोधी प्रस्ताव के उस हिस्से से सहमत नहीं है, जिसमें अपनी सरकार को हराने की बात कही गयी थी। लेनिन ने कामेनेव की इस कमजोरी के लिए बाद में उनकी कड़े शब्दों में निन्‍दा की थी। बोल्शेविकों के एक बेहद छोटे हिस्से में लेनिन की कार्यदिशा को लेकर वह दृढ़ता नहीं थी, जो कि स्तालिन, बुखारिन जैसे बोल्शेविकों में थी। लेकिन अन्‍ततः बोल्शेविक युद्ध-विरोध की लेनिनवादी कार्यदिशा पर सहमत हो गये थे। वहीं दूसरी ओर युद्ध के दौरान मेंशेविक अपना बचा-खुचा आमूलगामी चरित्र भी पूरी तरह से खो बैठे थे। उनके और अन्य तथाकथित प्रगतिशील सामाजिक-जनवादियों के बीच फर्क करना मुश्किल हो गया था, जो कि राष्ट्रीय रक्षा और जनवादी सुधार की बीन बजाये जा रहे थे। रूस के मेंशेविकों ने लगभग पूरी तरह से काऊत्स्की की अवस्थिति को अपना लिया था और बोल्शेविकों के बढ़ते प्रभाव के समक्ष वे अधिक से अधिक अप्रासंगिक होते चले गये।

मेंशेविज्म से संघर्ष क्रान्ति के पहले इस बिन्‍दु तक पहुँच चुका था। फरवरी क्रान्ति के बाद भी मेंशेविकों से तमाम प्रश्नों पर राजनीतिक-विचारधारात्मक संघर्ष जारी रहा। फरवरी से लेकर अक्टूबर क्रान्ति तक के संघर्ष का ब्यौरा हम अगले अध्याय में देंगे। लेनिनवाद का एक अन्य रुझान से भी सतत् संघर्ष 1903-4 से जारी हो चुका था; यह रुझान था त्रात्स्कीपन्‍थ का रुझान जो कि दक्षिणपन्‍थी अवसरवाद और ‘‘वामपन्‍थी’’ बचकानेपन का एक विचित्र मिश्रण था। हम त्रात्स्कीपन्‍थ से लेनिनवाद के संघर्ष पर थोड़ा आगे आएँगे और यह भी प्रदर्शित करेंगे कि आज के अराजकतावादी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद त्रात्स्कीपन्‍थ से भी काफी-कुछ उधार लेते हैं। त्रात्स्कीपन्‍थ दार्शनिक धरातल पर एक कठमुल्लावादी, गैर-द्वन्‍द्वात्मक, निगमनात्मक पद्धति का अनुसरण करने वाली प्रवृत्ति है, जबकि राजनीतिक धरातल पर यह ‘‘वामपन्‍थी’’ कम्युनिज्म (रूप के मामले में) और दक्षिणपन्‍थी अवसरवाद (अन्‍तर्वस्तु के मामले में) का मिश्रण है, जैसा कि आम तौर पर सभी ‘‘वामपन्‍थी’’ और दक्षिणपन्‍थी भटकाव हुआ करते हैं। लेकिन त्रात्स्कीपन्‍थ पर थोड़ा आगे।

1915 की शुरुआत तक रूस में मौजूद सभी प्रमुख बोल्शेविक नेता गिरफ्तार हो चुके थे। बोल्शेविकों का रूस में संगठन जारशाही के दमन के समक्ष नष्ट हो गया था। लेनिन ने श्ल्याप्निकोव नामक एक पार्टी कार्यकर्ता को बर्न से पार्टी साहित्य को गुप्त रूप से रूस तक पहुँचाने की जिम्मेदारी सौंपी। श्ल्याप्निकोव ने 1916 में दो अन्य बोल्शेविकों के साथ मिलकर बिखर चुके बोल्शेविक रूसी ब्यूरो को पुनर्गठित किया। ये दो बोल्शेविक थे मोलोतोव और जालुत्स्की। जल्द ही इस नये रूसी ब्यूरो ने देश के अन्य बोल्शेविक पार्टी संगठनों से सम्पर्क स्थापित कर लिया था। बस दिक्कत यह थी कि बर्न में बोल्शेविक केन्‍द्रीय नेतृत्व से सम्पर्क बीच-बीच में ही हो पाता था और नियमित तौर पर दिशा-निर्देश ले पाना सम्भव नहीं था। इस बीच लेनिन ने स्विट्जरलैण्ड में अपना निवास बर्न से ज्यूरिख में स्थानान्‍तरित कर लिया। यहाँ लेनिन को साम्राज्यवाद पर अपने अध्ययन के लिए पर्याप्त सामग्री मिल गयी और उन्होंने अपनी कालजयी रचना साम्राज्यवाद, पूँजीवाद की चरम अवस्था पूरी की। इस बीच उन्होंने सामाजिक-जनवादियों के पतन और संशोधनवाद के विरुद्ध भी काफी-कुछ लिखा। अप्रैल 1916 में उन्होंने कियेंथाल में जिम्मरवॉल्ड समूह के दूसरे सम्मेलन में भागीदारी की। इस सम्मेलन में लेनिन के विचारों के पक्ष में पहले से ज्यादा लोग आये, लेकिन अभी भी कोई मजबूत एकता नहीं स्थापित हो पायी थी। लेनिन अपनी कार्यदिशा पर दृढ़ थे, स्थितियों पर निगाह रखे हुए थे, सैद्धान्तिक-राजनीतिक कार्य कर रहे थे और इन्‍तजार कर रहे थे। फरवरी 1917 में रूस में क्रान्ति की शुरुआत के साथ यह इन्‍तजार खत्म हो गया। अप्रैल 1917 में लेनिन करीब बीस अन्य बोल्शेविकों के साथ पीटर्सबर्ग पहुँचे। इन बोल्शेविकों में जिनोवियेव, सोकोलनिकोव, रादेक, आदि शामिल थे। इसके साथ ही रूसी क्रान्ति का एक नया दौर शुरू हुआ। इस पूरे दौर में क्रान्ति द्रुत गति से आगे बढ़ी और फरवरी से लेकर अक्टूबर तक के नौ महीने में बोल्शेविकों के राजनीतिक-सांगठनिक और विचारधारात्मक कार्य और मेंशेविकों, त्रात्स्कीपन्थियों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों से वर्चस्व के लिए उनके संघर्ष का आलोचनात्मक मूल्यांकन हम अगले अध्याय में करेंगे। लेकिन पहले त्रात्स्कीपन्‍थ के साथ क्रान्ति से पहले के पूरे दौर में लेनिन के संघर्ष को समझना जरूरी है क्योंकि त्रात्स्की की वामपन्‍थी-दक्षिणपन्‍थी प्रवृत्तियाँ क्रान्ति के बाद के दौर में भी बार-बार सिर उठाती रहीं और उसके खिलाफ पहले लेनिन और बाद में स्तालिन ने संघर्ष जारी रखा। त्रात्स्कीपन्‍थ से संघर्ष के बाद इस अध्याय के परिशिष्ट में क्रान्ति से पहले के पूरे दौर में रूस के कम्युनिस्ट आन्‍दोलन और बोल्शेविक पार्टी के उद्भव और विकास के बारे में हम चार्ल्‍स बेतेलहाइम के पूरे ब्यौरे का भी एक आलोचनात्मक मूल्यांकन पेश करेंगे।

ख) त्रात्स्कीपन्‍थ से लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों का संघर्ष

नरोदवाद से संघर्ष ने रूस में सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन की नींव डालने का काम किया। इसके बाद सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन को अपने शुरुआती दौर में ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद और अर्थवाद से संघर्ष करना पड़ा। इन दो शुरुआती विचारधारात्मक संघर्षों ने भी रूस में सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन के उत्तरवर्ती विकास और साथ ही लेनिनवाद के कुछ बुनियादी सिद्धान्‍तों के उद्भव में अहम भूमिका निभाई। मेंशेविकों से संघर्ष में अर्थवाद और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद से चले विचारधारात्मक संघर्ष की ही एक नये स्तर पर पुनरावृत्ति हुई। लेकिन सांगठनिक उसूल मेंशेविकों और बोल्शेविकों के बीच फूट का मूल कारण बने। मेंशेविकों से संघर्ष बाद तक जारी रहा, लेकिन संघर्ष के मूल मुद्दे शुरू में ही रेखांकित हो चुके थे। इसके बाद जो विचारधारात्मक संघर्ष रूसी कम्युनिस्ट आन्‍दोलन और लेनिनवाद के विकास की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान रखता है, वह है त्रात्स्कीपन्‍थ से संघर्ष

यहाँ हम फरवरी 1917 तक के दौर में त्रात्स्कीपन्‍थ से चले संघर्ष का ब्यौरा पेश करेंगे। फरवरी 1917 से लेकर लेनिन की मृत्यु तक और उसके बाद स्तालिन के साथ त्रात्स्की के संघर्ष का ब्यौरा हम आगे पेश करेंगे। फिलहाल, अक्तूबर क्रान्ति से पहले फरवरी 1917 तक त्रात्स्की और लेनिनवाद के बीच चले संघर्ष का ब्यौरा ही हमारे लिए प्रासंगिक है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके बाद त्रात्स्की से लेनिन का और उसके बाद स्तालिन का जो संघर्ष चला, उसके मूल मुद्दे वास्तव में 1903 से 1917 के बीच ही रेखांकित हो चुके थे। समय के साथ संघर्ष का सन्‍दर्भ बदला, लेकिन मूल मुद्दे वही रहे। फरवरी 1917 तक त्रात्स्की के साथ लेनिन का दो अहम मसलों पर संघर्ष हुआ – पहला, क्रान्ति के सिद्धान्‍त के प्रश्न पर और दूसरा पार्टी के सांगठनिक उसूलों के प्रश्न पर। इससे पहले कि हम इन दोनों विचारधारात्मक संघर्षों का ब्यौरा पेश करें और साथ ही इसके विषय में इतिहास-लेखन पर अपना आलोचनात्मक विश्लेषण पेश करें, हम त्रात्स्कीपन्‍थ के सम्‍बन्‍ध में कुछ जरूरी मुद्दों पर बात करना चाहेंगे।

सबसे अहम बात यह है कि क्या त्रात्स्कीपन्‍थ अथवा त्रात्स्कीवाद जैसी किसी चीज के बारे में बात की जा सकती है? दूसरे शब्दों में, क्या त्रात्स्कीपन्‍थ/त्रात्स्कीवाद जैसी कोई चीज है? क्या ऐसे किसी अलग विचारधारात्मक अप्रोच व पद्धति की बात की जा सकती है? जहाँ तक स्वयं त्रात्स्कीपन्थियों और यहाँ तक कि त्रात्स्की का दावा है, त्रात्स्कीपन्‍थ जैसी कोई चीज नहीं होती। लेकिन ऐसा दावा करने के पीछे उनका असल मकसद होता है यह सम्प्रेषित करना कि त्रात्स्कीपन्‍थ दरअसल लेनिनवाद ही है। त्रात्स्की और अधिकांश त्रात्स्कीपन्थियों के इस दावे के बावजूद अगर हम त्रात्स्की के विचारधारात्मक-राजनीतिक लेखन व व्यवहार का अध्ययन करें तो हम देखते हैं कि त्रात्स्की की एक विशिष्ट पहुँच और पद्धति है; कह सकते हैं कि इस पागलपन में एक पद्धति है! बहरहाल, स्वयं त्रात्स्की व उनके अनुयायियों का कहना है कि त्रात्स्कीपन्‍थ शब्द स्तालिन व ‘‘स्तालिनवादियों’’ की पैदावार है। हालाँकि, यह दावा कतई सच नहीं है, लेकिन यह सच होता भी तो भी इतना तय है कि हम विशिष्ट त्रात्स्कीपन्‍थी पहुँच और पद्धति की बात कर सकते हैं। अर्नेस्ट मैण्डेल और इजाक डॉइशर जैसे त्रात्स्कीपन्‍थी बुद्धिजीवियों ने तो यहाँ तक कहा है कि जब लेनिन ने ‘अप्रैल थीसीज’ पेश की, उस समय रूस में लेनिन से बेहतर कोई ‘त्रात्स्कीपन्‍थी’ नहीं था! उनका यह दावा है कि लेनिन चोर दरवाजे से त्रात्स्की के क्रान्ति के सिद्धान्‍त, यानी कि ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त, पर चले गये थे! खैर, चमचे हमेशा मालिक से ज्यादा शोर मचाते हैं! यह देखना दिलचस्प होगा कि स्वयं त्रात्स्की का इस मसले पर क्या कहना था। त्रात्स्की का कहना था कि सिद्धान्‍त के मामले में मैं मार्क्‍स का शिष्य हूँ, जबकि पद्धति के मामले में मैंने लेनिन के विद्यालय में शिक्षा ग्रहण की है। अगर यह कथन सच है तो कहा जा सकता है कि मार्क्‍स की पाठशाला में त्रात्स्की मुश्किल से ‘ग्रेस मार्क्‍स’ पाकर लेनिन के विद्यालय में पहुँचे थे, जहाँ वह बुरी तरह से फेल हो गये! पूरा त्रात्स्कीपन्‍थ इसी औसतपन और विफलता की कहानी है।

हम त्रात्स्कीपन्‍थ की बात निश्चित तौर पर कर सकते हैं। यह एक ऐसी विचार-सरणि है जो कि सारसंग्रहवादी ढंग से एकत्र किये गये विचारों का समुच्चय है। यह सिद्धान्‍तों का एक ऐसा समुच्चय है जो किसी भी रूप में क्रान्तिकारी ‘प्रैक्टिस’ का मार्गदर्शन नहीं कर सकता है। त्रात्स्की किताबी ज्ञान से सत्य का निवारण करते हैं। आम तौर पर कोस्तास मावराकिस द्वारा लेनिन व स्तालिन के बेतेलहाइमीय ‘‘अति-माओवादी’’ नियोजन पर आप सहमत नहीं हो सकते, लेकिन त्रात्स्की की आलोचना में टुकड़ों-टुकड़ों में उन्होंने कुछ सटीक प्रेक्षण रखे हैं। कोस्तास मावराकिस के अनुसार ‘‘त्रात्स्की उत्तर-क्लासिकीय युग में जिन्‍दा बच गये एक क्लासिकीयक्रान्तिकारी थे।’’ (कोस्तास मावराकिस, ऑन ट्रॉट्स्कीज्म, 1976, रूटलेज कीगन पॉल लि., पृ. 3, अनुवाद हमारा) मावराकिस मार्क्‍सवाद के विकास को तीन मंजिलों में विभाजित करते हैं और कहते हैं कि मार्क्‍स के दौर का मार्क्‍सवाद पहली मंजिल, लेनिन के दौर का मार्क्‍सवाद (लेनिनवाद) दूसरी मंजिल, जबकि माओ के दौर का मार्क्‍सवाद (मावराकिस के शब्दों में माओ त्से-तुङ विचारधारा) मार्क्‍सवाद के विकास की तीसरी मंजिल थी। जाहिर है, ये तीन मंजिलें अलग-अलग युगों में सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम कार्यनीति का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेनिनवाद साम्राज्यवाद के युग का मार्क्‍सवाद है और आज भी हम साम्राज्यवाद के ही एक नये युग (भूमण्डलीकरण) में जी रहे हैं। ऐसे में कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि फिर ‘माओ-वाद’ किस युग के मार्क्‍सवाद का प्रतिनिधित्व करता है? माओ का युगान्‍तरकारी योगदान था ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ का सिद्धान्‍त जो कि समाजवादी संक्रमण की पूरी ऐतिहासिक अवधि के दौरान सर्वहारा क्रान्ति को जारी रखने की कार्यदिशा प्रस्तुत करता है। ऐसा नहीं है कि माओ से पहले समाजवादी संक्रमण पर कोई चिन्‍तन नहीं हुआ था, लेकिन यह भी सच है कि समाजवादी संक्रमण के कई केन्‍द्रीय असमाधित प्रश्नों को माओ ने हल किया और एक सुसंगत और पूर्ण सिद्धान्‍त पेश किया। सम्भव है कि लेनिन जीवित रहे होते या स्तालिन को परिस्थितियों ने मौका दिया होता तो वे भी अन्‍त में इसी नतीजे पर पहुँचते। लेकिन जैसा कि हमने पहले भी कहा है सैद्धान्तिक और ऐतिहासिक मसलों में प्रति-तथ्यात्मक इतिहास के लिए ज्यादा स्थान नहीं होता है। इस रूप में माओ ने समाजवादी संक्रमण का युग, जिसका कि एक हिस्सा साम्राज्यवाद का युग अतिच्छादित करता है, में सर्वहारा क्रान्ति को जारी रखने की रणनीति और आम कार्यनीति को सूत्रबद्ध किया। इसलिए हम मावराकिस के ‘माओ त्से-तुङ विचारधारा’ से आगे जाकर माओवाद की बात कर सकते हैं, क्योंकि मावराकिस की सैद्धान्तिक बुनियाद हमारी सैद्धान्तिक बुनियाद से बिल्कुल भिन्न है।

बहरहाल, मावराकिस कहते हैं कि मार्क्‍सवाद के विकास की तीसरी मंजिल के दौर में त्रात्स्की पहली मंजिल पर ही खड़े थे। हम इस कथन पर प्रश्न खड़ा कर सकते हैं कि त्रात्स्की मार्क्‍स के दौर के मार्क्‍सवाद पर भी किस हद तक खड़े थे और आगे हम प्रदर्शित भी करेंगे कि वास्तव में त्रात्स्की मार्क्‍सवाद की किसी मंजिल पर नहीं, बल्कि मार्क्‍सवादी पहुँच और पद्धति से अलग खड़े थे। लेकिन इतना जरूर है कि त्रात्स्की एक कठमुल्लावादी थे जो कि किताबी सिद्धान्‍त के अनुसार वास्तविकता का निर्धारण करते थे। त्रात्स्की सामान्य विचारधारात्मक अवस्थितियों से राजनीतिक कार्यक्रमों को निगमित करते थे; यथार्थ में मौजूद अन्‍तरविरोधों के स्वतन्त्र रूप से मार्क्‍सवादी विश्लेषण की बजाय, किन्हीं और परिस्थितियों के विश्लेषण के आधार पर निकाले गये सामान्य नतीजों को त्रात्स्की जड़सूत्र के रूप में देखते थे, और अपने राजनीतिक कार्यक्रम निर्धारित करते थे। त्रात्स्की की पूरी पहुँच और पद्धति की बात करें तो उसे निगमनवादी, कठमुल्लावादी, आधिभौतिकवादी और यान्त्रिक पहुँच और पद्धति कहा जा सकता है। यही कारण है कि त्रात्स्कीपन्‍थ रूप के धरातल पर तमाम ‘‘वामपन्‍थी’’ भाव-भंगिमाओं के बावजूद वास्तव में एक दक्षिणपन्‍थी और (यदि मार्क्‍सवादी-विरोधी नहीं तो) गैर-मार्क्‍सवादी विचार-सरणि है।

हर ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव वास्तव में विचारधारात्मक अन्‍तर्वस्तु के मामले में कई दक्षिणपन्‍थी तत्वों को भी समेकित करता है। त्रात्स्कीपन्‍थ अलग-अलग दौरों में अलग-अलग रूपों में दिखता है। कभी दक्षिणपन्‍थी अवसरवाद के रूप में तो कभी ‘‘वामपन्‍थी’’ बचकानेपन के रूप में। इसका कारण यह है कि त्रात्स्कीपन्‍थ में इन दोनों के ही तत्व निहित हैं। यही कारण है कि आज दुनिया भर के त्रात्स्कीपन्‍थी संगठनों और समूहों को मोटे तौर पर दक्षिणपन्‍थी त्रात्स्कीपन्‍थी और ‘‘वामपन्‍थी’’ त्रात्स्कीपन्‍थी समूहों में बाँटा जा सकता है। दोनों ही प्रकार के विचलनों को अपने वैधीकरण हेतु स्रोत-सामग्री स्वयं त्रात्स्की के ही लेखन में मिल जाती है। मिसाल के तौर पर स्पार्टकसवादी जैसे ‘‘वामपन्‍थी’’ त्रात्स्कीपन्‍थी हैं जो त्रात्स्की के कठमुल्लावाद का कठमुल्लावादी तरीके से अनुसरण करते हैं और ऐसे किसी भी जनान्‍दोलन को प्रतिक्रियावादी मानते हैं जो सीधे समाजवादी क्रान्ति के प्रश्न को एजेण्डे पर नहीं रखता है। लेकिन साथ ही, इस किस्म के ‘‘वामपन्‍थी’’ त्रात्स्कीपन्‍थी यह भी मानते हैं कि संशोधनवादी ट्रेड यूनियनें मजदूरों की नैसर्गिक नेता हैं! ‘‘वामपन्‍थी’’ त्रात्स्कीपन्थियों के बरक्स हमें दक्षिणपन्‍थी अवसरवादी त्रात्स्कीवादी भी मिल जाएँगे, जिन्हें हम ‘‘त्रात्स्कीपन्‍थ का संशोधनवादी’’ (!) कह सकते हैं। मिसाल के तौर पर, ब्रिटेन व अमेरिका की सोशलिस्ट वर्कर्स पार्टी। ये पार्टियाँ त्रात्स्की को तमाम क्रान्तिकारी चिन्‍तकों में से एक मानती हैं और त्रात्स्की की भी कई मसलों पर आलोचना करती हैं। ये पार्टियाँ अक्सर पतित सामाजिक-जनवादी पार्टियों से भी मेल-मिलाप करती हैं और उनके साथ संलयित हो जाने में भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। खैर, सुधारवाद और संशोधनवाद के प्रति इस नजरिये के लिए हम इन्हें दोषी नहीं ठहरा सकते क्योंकि यह प्रवृत्ति स्वयं त्रात्स्की में थी क्योंकि त्रात्स्की का सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी के निर्माण और गठन के बारे में कोई सिद्धान्‍त या चिन्‍तन तक नहीं था। इसका हम आगे विश्लेषण भी करेंगे।

त्रात्स्की के ‘‘वामपन्‍थी’’ दक्षिणपन्‍थ को समझने के लिए कुछ केन्‍द्रीय महत्व के प्रश्नों पर त्रात्स्की की अवस्थिति को देखा जा सकता है। ‘‘वामपन्‍थी’’ कम्युनिस्टों के समान त्रात्स्की यह मानने को तैयार थे कि क्रान्ति और सर्वहारा अधिनायकत्व के लिए एक हिरावल पार्टी की आवश्यकता है; लेकिन ‘‘वामपन्‍थी’’ कम्युनिस्टों के इस बचकानेपन को भी त्रात्स्की साझा करते हैं कि क्रान्ति के ‘अधिकतम कार्यक्रम’ के अतिरिक्त कोई ‘न्यूनतम कार्यक्रम’ नहीं होता! उनके अनुसार, पूँजीवाद के मौजूदा युग में सुधार की माँगें पूर्णतः अप्रासंगिक हो चुकी हैं, क्योंकि पूँजीवाद अपनी ‘मृत्यु-पीड़ा’ से गुजर रहा है और वह किसी भी प्रकार की सुधार की क्षमता खो चुका है! जाहिर है, ऐसी कोई भी सोच व्यवहार में लागू नहीं हो सकती है। पूँजीवादी जनवाद की मरणासन्न अवस्था में भी पूँजीवादी जनवाद के औपचारिक वायदों के साथ अति-अभिज्ञान (over-identification) कर उन वायदों को पूर्ण करवाने के लिए लड़ने की प्रक्रिया में ही जनता सर्वहारा क्रान्ति की अनिवार्यता को भी ग्रहण करती है। यानी, ‘अधिकतम कार्यक्रम’ और ‘न्यूनतम कार्यक्रम’ के बीच कोई चीन की दीवार नहीं हो सकती। निश्चित तौर पर, जनवादी क्रान्ति की मंजिल में कम्युनिस्ट पार्टी का ‘न्यूनतम कार्यक्रम’ भी एक क्रान्ति का कार्यक्रम होता है (जैसा कि रूस में सामाजिक-जनवादी पार्टी का 1917 की क्रान्ति के पहले था)। लेकिन किसी भी किस्म के पूँजीवादी जनवाद की स्थापना के बाद भी एक ‘न्यूनतम कार्यक्रम’ रहेगा ही, जो कि पूँजीवादी जनवाद के भीतर भी सर्वहारा वर्ग के जनवादी अधिकारों के दायरे को और अधिक विस्तारित करने के लिए संघर्ष पर आधारित होगा। इस संघर्ष के बिना सर्वहारा वर्ग सीधे आम बगावत के लिए तैयार नहीं हो सकता है। सुधारों के लिए क्रान्तिकारी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए चलाया जाने वाला यह संघर्ष सुधारवाद नहीं है, बल्कि क्रान्तिकारी जनदिशा पर अमल है।

लेकिन साथ ही त्रात्स्की इस मायने में ‘‘वामपन्‍थी’’ कम्युनिस्टों से भिन्न थे और दक्षिणपन्‍थी अवसरवादियों और संशोधनवादियों से ज्यादा करीबी रखते थे, क्योंकि त्रात्स्की के लिए समाजवाद का अर्थ था सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण। यदि किसी अर्थव्यवस्था में कानूनी तौर पर निजी सम्पत्ति समाप्त हो चुकी है तो त्रात्स्की के लिए वही समाजवाद का अन्तिम पैमाना है। राज्य का चरित्र भी यहाँ त्रात्स्की के लिए गौण हो जाता है। यहाँ हम देख सकते हैं कि उत्पादक शक्तियों के विकास के सिद्धान्‍त के शिकार त्रात्स्की स्तालिन से कहीं ज्यादा थे। वास्तव में, अपनी मृत्यु से ठीक पहले स्तालिन अपनी समझदारी को दुरुस्त कर रहे थे और उनकी आखिरी दौर के लेखन से ऐसा प्रतीत होता है कि वह आनुभविक तौर पर इस नतीजे पर पहुँचने लगे थे कि निजी सम्पत्ति के कानूनी खात्मे के बाद भी समाजवाद को स्थापित करने का लम्‍बा कार्य बाकी रहता है। लेकिन त्रात्स्की इस मामले में न सिर्फ अर्थवाद के भटकाव के शिकार थे, बल्कि वह कठमुल्लावादी अर्थवादी थे। इसलिए जब त्रात्स्की यह भी मानने लगे थे कि सोवियत राज्यसत्ता एक ‘विकृत मजदूर राज्य’ में तब्दील हो चुकी है, राज्यसत्ता पर नौकरशाही का कब्जा हो चुका है तो भी वह यह मानते रहे कि सोवियत संघ एक समाजवादी मजदूर राज्य ही है! यह बात दीगर है, कि त्रात्स्की का यह नतीजा सही था! लेकिन इसका कारण सोवियत संघ में समाजवादी सम्पत्ति सम्‍बन्‍धों का स्थापित हो जाना बाद में था, जबकि राज्य पर एक सर्वहारा पार्टी और स्तालिन के रूप में एक सर्वहारा नेतृत्व का मौजूद होना इसका प्रमुख कारण था। त्रात्स्की की पद्धति से चलें तो 1953 और 1956 के बाद भी सोवियत संघ को एक मजदूर राज्य माना जाना चाहिए क्योंकि कानूनी तौर पर निजी सम्पत्ति की पुनर्स्‍थापना तुरन्‍त नहीं हुई थी, बल्कि सोवियत संघ के विघटन के कुछ वर्षों पहले ही हुआ था। लेकिन चूँकि त्रात्स्की के लिए अर्थव्यवस्था का राष्ट्रीयकरण ही समाजवाद का दूसरा नाम था, इसलिए वह सोवियत संघ का जीते-जी भी कोई सही विश्लेषण नहीं कर पाये और उनके मरने के बाद त्रात्स्कीपन्‍थी भी सोवियत संघ में पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना का कोई सुसंगत विश्लेषण नहीं पेश कर पाये। त्रात्स्की का विश्लेषण अन्‍त में उन्हें मजाकिया नतीजों तक ले गया। मिसाल के तौर पर, जब सोवियत संघ में समाजवाद के पतन या तथाकथित ‘‘स्तालिनवादी नौकरशाही’’ के तख्तापलट की त्रात्स्की की भविष्यवाणी सही न सिद्ध हो सकी और सोवियत संघ में समाजवाद का विकास जारी रहा तो त्रात्स्की तीस के दशक के उत्तरार्द्ध में यह कहने लगे कि सोवियत संघ में सामाजिक-आर्थिक क्रान्ति सम्पन्न हो गयी है, और अब मजदूर वर्ग को ‘‘स्तालिनवादी नौकरशाही’’ के खिलाफ राजनीतिक क्रान्ति करनी होगी! हम पिछले अध्याय में इसका जिक्र कर चुके हैं कि सामाजिक-आर्थिक क्रान्ति और राजनीतिक क्रान्ति के बीच में भेद करना किस प्रकार त्रात्स्की को काऊत्स्की के बगल में बिठा देता है। क्रान्ति के बाद के दौर में त्रात्स्की और त्रात्स्कीपन्‍थी विचारधारा के एक प्रतिक्रान्तिकारी विचारधारा के रूप में पतन और साम्राज्यवादियों के साथ त्रात्स्की और त्रात्स्कीपन्थियों के अपवित्र गठजोड़ स्थापित होने की चर्चा करते समय हम इस थीम पर वापस लौटेंगे। अभी इतना बताना पर्याप्त है कि समाजवाद की पहचान करने की त्रात्स्कीपन्‍थी पद्धति एक निहायत कठमुल्लावादी किस्म की अर्थवादी पद्धति है।

अर्थवाद और वर्ग विश्लेषण के बीच का अन्‍तरविरोध समाजवादी सत्ताओं या उनके पतन के विश्लेषणों में बार-बार प्रकट हुआ है। मिसाल के तौर पर, 1956 के बाद सोवियत संघ के ही चरित्र निर्धारण को लेकर जो बहसें चली हैं जरा उन पर निगाह डालिये – नियोजित अर्थव्यवस्था बनाम बाजार अर्थव्यवस्था बहस; सार्वजनिक क्षेत्र बनाम निजी क्षेत्र बहस; सामूहिकीकरण बनाम निजी सम्पत्ति अर्थव्यवस्था बहस! ये सभी बहसें राज्यसत्ता के प्रश्न और क्रान्ति के कार्यक्रम के प्रश्न को उठाती ही नहीं हैं और केवल अर्थव्यवस्था के रूपगत विश्लेषण को किसी सामाजिक संरचना के चरित्र-निर्धारण का पैमाना बनाती हैं। त्रात्स्कीपन्‍थ किस रूप में मार्क्‍सवाद के विरोध में खड़ी एक चिन्‍तन-प्रणाली है, किस रूप में यह निगमनवादी, गैर-द्वन्‍द्वात्मक आधिभौतिकवादी, अनुभववादी कठमुल्लावादी और उद्भववादी पद्धति है, इसे हम क्रान्ति से पहले के दौर में त्रात्स्की के चिन्‍तन के विकास और लेनिन से त्रात्स्की के विचारधारात्मक संघर्ष के जरिये ही समझेंगे। यह दौर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिस विचार-समुच्चय को त्रात्स्कीपन्‍थ का नाम दिया जा सकता है, उसकी मूल चारित्रिक विशेषताओं ने इसी दौर में रूप ग्रहण किया था। बाद में, त्रात्स्की के चिन्‍तन में सिर्फ एक अहम पहलू जुड़ता है, जो ‘एक देश में समाजवाद के विकसित होने की असम्‍भाव्यता’ की बात करता है। लेकिन उस पर हम बाद में ही चर्चा करेंगे, क्योंकि, जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, इतिहास का भी सही अध्ययन ऐतिहासिक तौर पर ही किया जा सकता है।

अब हम फरवरी 1917 से पहले लेनिन के साथ दो अहम मसले पर त्रात्स्की के विवादों के जरिये त्रात्स्कीपन्‍थ की इन चारित्रिक आभिलाक्षणिकताओं को समझने का प्रयास करेंगे, और साथ ही यह भी दिखलायेंगे कि आज के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों और ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ जैसे भ्रमित ‘मार्क्‍सवादियों’ पर त्रात्स्की का भी गहरा असर है। वास्तव में, ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ के सुजीत दास की कई सूचनाएँ एक त्रात्स्कीपन्‍थी लेखक टोनी क्लिफ की रचनाओं से ही आती हैं! बहरहाल, त्रात्स्कीपन्‍थ 1903 से 1917 के बीच ही रूप ग्रहण करता है, जब दो अहम प्रश्नों पर त्रात्स्की का लेनिन से मतान्‍तर होता है। फिलहाल, हम इन दोनों विवादों का विश्लेषण करेंगे।

  1. i) क्रान्ति का मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्‍त और त्रात्स्की का स्थायी क्रान्तिका सिद्धान्‍त

त्रात्स्की के मौलिक सिद्धान्‍त कम ही थे; जिन्हें एक हद तक मौलिक कहा जा सकता है, वे भी वास्तव में विकृत रूप में अन्य लोगों के सिद्धान्‍त थे। जिस सिद्धान्‍त के लिए त्रात्स्की को सबसे ज्यादा प्रसिद्धि मिली, वह था स्थायी क्रान्ति का सिद्धान्‍त। इस सिद्धान्‍त को मौलिक तौर पर एक मेंशेविक रूसी सामाजिक-जनवादी एलेक्जैण्डर हेल्पहैण्ड पार्वस ने पेश किया था। त्रात्स्की ने निश्चित तौर पर पूरे सिद्धान्‍त को हूबहू नहीं अपनाया और आगे चलकर इसमें कई बदलाव किये। लेकिन ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त का मूल ढाँचा वही रहा जो कि पार्वस ने तैयार किया था।

1903 में त्रात्स्की और लेनिन के बीच पार्टी सिद्धान्‍त और हिरावल पार्टी के चरित्र को लेकर विवाद हो चुका था। 1903 से लेकर 1905 में मेंशेविकों के कब्जे में जा चुके ‘इस्क्रा’ में अगर किसी एक व्यक्ति ने लेनिन के खिलाफ सबसे ज्यादा जहर उगला, तो वह त्रात्स्की थे। पार्टी संगठन और हिरावल पार्टी के चरित्र के बारे में त्रात्स्की की एकता मेंशेविकों के साथ बनी थी, हालाँकि त्रात्स्की का सिद्धान्‍त पूर्णतः वही नहीं था, जो कि मेंशेविकों का था। चूँकि रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी की तीसरी कांग्रेस में पार्टी सिद्धान्‍त पर हुए बँटवारे में त्रात्स्की ने अन्‍ततः मेंशेविकों का पक्ष लिया था, इसलिए अक्सर त्रात्स्की को बस एक मेंशेविक करार दिया जाता है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। न तो पार्टी सिद्धान्‍त के प्रश्न पर (क्योंकि पार्टी निर्माण और गठन को लेकर त्रात्स्की का कोई सिद्धान्‍त था ही नहीं, सिवाय व्यवहारवाद के, जिसके कारण त्रात्स्की गुटवाद (factionalism) और नौकरशाहाना केन्‍द्रीयता के बीच दोलन करते रहते हैं) और न ही क्रान्ति के व्यापक सिद्धान्‍त और क्रान्ति की मंजिल को लेकर। त्रात्स्की राजनीतिक व्यवहार में पूरी तरह अवसरवादी थे, और इसलिए उन्हें अलग-अलग समय पर अलग-अलग जगह पर खड़ा देखा जा सकता है। कभी मेंशेविकों के साथ, तो कभी ‘‘निष्पक्ष सुलहकर्ता’’ के रूप में, फिर बोल्शेविकों के साथ और अन्‍ततः फिर से बोल्शेविकों के विरोध के छोर पर। त्रात्स्की के राजनीतिक बर्ताव के इस ‘कुण्डलाकार विकास’ के कारणों पर हम आगे चर्चा करेंगे! अभी इतना समझ लेना जरूरी है कि अगर त्रात्स्की को सीधे मेंशेविक करार दे दिया जाये, तो त्रात्स्की की एक सुसंगत मार्क्‍सवादी आलोचना पेश ही नहीं की जा सकती। इसलिए त्रात्स्की की पहुँच और पद्धति को सिर्फ उनके राजनीतिक व्यवहार की अनियतता के आधार पर विश्लेषित नहीं किया जा सकता। इसके लिए अलग-अलग मुद्दों पर त्रात्स्की के लेखन का आलोचनात्मक विश्लेषण भी जरूरी है। इसलिए हम त्रात्स्की का विश्लेषण एक आम मेंशेविक के रूप में नहीं करेंगे। अब हम ‘स्थायी क्रान्ति’ के त्रात्स्की के सिद्धान्‍त के उद्गम और विकास की चर्चा पर वापस लौटते हैं।

1903 में दूसरी पार्टी कांग्रेस में सांगठनिक उसूल के मसले पर बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच का अन्‍तर पैदा हुआ। इस विवाद में कांग्रेस के शुरुआती दौर में त्रात्स्की लेनिन का साथ दे रहे थे, लेकिन अचानक उन्होंने अपनी अवस्थिति बदली और सांगठनिक प्रश्न पर मेंशेविकों के साथ जा खड़े हुए। कांग्रेस के तुरन्‍त बाद मेंशेविकों ने ‘इस्क्रा’ पर कब्जा कर लिया। 1905 तक तमाम मेंशेविक और विशेष तौर पर एक्सेलरोद, मार्तोव व जासुलिच और साथ ही त्रात्स्की ने लेनिन पर हर प्रकार से हमला बोला। ये हमले कई बार विचारधारात्मक न होकर व्यक्तिगत भी होते थे। लेनिन किसी भी व्यक्तिगत हमले का जवाब देने की बजाय सांगठनिक उसूल के मसले पर मेंशेविकों की सशक्त आलोचना पेश करते रहे। लेकिन दो अवसरवादियों में भी कभी बहुत दिनों तक पूर्ण सामंजस्य नहीं रह पाता है। 1904 में प्लेखानोव ने त्रात्स्की को ‘इस्क्रा’ के सम्पादक मण्डल में शामिल न करने पर बल दिया। इसके पहले, जब मेंशेविकों और बोल्शेविकों का बँटवारा नहीं हुआ था, तब स्वयं लेनिन ने प्लेखानोव के समक्ष यह सुझाव रखा था कि त्रात्स्की को सम्पादक मण्डल में शामिल किया जा सकता है। लेकिन तब भी प्लेखानोव ने इसका विरोध किया था। बहरहाल, त्रात्स्की 1904 में म्यूनिख गये। यहाँ पर त्रात्स्की की मुलाकात एक पुराने रूसी सामाजिक-जनवादी एलेक्जैण्डर हेल्पहैण्ड से हुई, जिनका राजनीतिक नाम पार्वस था।

पार्वस ने मेंशेविकों और बोल्शेविकों के बीच एक मेल-मिलाप कराने वाले वार्ताकार जैसी भूमिका अपना रखी थी। त्रात्स्की ने भी पार्वस के प्रभाव में अपने लिए तथाकथित ‘‘गुटों से ऊपर खड़े एक पंच’’ की भूमिका का दावा किया। हालाँकि इस भूमिका को न तो बोल्शेविक मान्यता देते थे और न ही मेंशेविक। लेकिन फिर भी सभी व्यावहारिक मसलों पर, विशेष तौर पर पार्टी सिद्धान्‍त से सम्‍बन्धित तमाम मसलों पर त्रात्स्की की एकता मेंशेविकों के साथ ही बनती थी। यही स्थिति पार्वस की भी थी। त्रात्स्की करीब आधे वर्ष तक पार्वस के साथ रहे और इस बीच पार्वस का त्रात्स्की पर गहरा असर पड़ा। इसी दौर में त्रात्स्की ने अपने ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त के मूल तत्व पार्वस से उधार लिये। युद्ध और क्रान्ति नामक अपने लेखों की श्रृंखला में त्रात्स्की ने तर्क पेश किया कि राष्ट्र-राज्य का युग अब बीत रहा है। औद्योगिक पूँजीवाद व ‘‘मुक्त व्यापार’’ के युग ने राष्ट्र-राज्य को जन्म दिया था लेकिन एक एकीकृत विश्व बाजार के पैदा होने के साथ ही राष्ट्र-राज्यों के बीच का फर्क अपने मायने खोता जा रहा है और राष्ट्रों की परस्पर निर्भरता को जन्म दे रहा है। त्रात्स्की के इस सिद्धान्‍त पर हम काऊत्स्की के साम्राज्यवाद के सिद्धान्‍त की छाया देख सकते हैं, हालाँकि काऊत्स्की का सिद्धान्‍त औपचारिक तौर पर 1914 में आया था। 1905 की क्रान्ति के आरम्भ में पार्वस ने त्रात्स्की की पुस्तक हमारे राजनीतिक कार्यभार की प्रस्तावना लिखी। यही वह प्रस्तावना है जिसमें त्रात्स्की के ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त के मूल तत्व हमें मिलते हैं।

इसमें पार्वस ने लिखा कि 1905 की आसन्न क्रान्ति के बाद जो आरजी सरकार आयेगी वह वास्तव में मजदूर सरकार होगी और इसके शीर्ष पर सामाजिक-जनवादी क्रान्ति होगी; यह सरकार सीधे समाजवाद के निर्माण को अपने हाथों में लेगी। पार्वस का ऐसा मानना इसलिए था क्योंकि सरकार सामाजिक-जनवादी पार्टी के हाथों में होगी। यह एक निगमनवादी पद्धति है जिसके अनुसार किसी आन्‍दोलन का राजनीतिक एजेण्डा, वर्गों का मोर्चा और उसका लक्ष्य कुछ भी हो, लेकिन यदि नेतृत्व सामाजिक-जनवादी पार्टी है, तो वह समाजवादी सत्ता की स्थापना करेगी और यह समाजवादी मजदूर राज्य सीधे समाजवाद का निर्माण करेगा। यानी, 1905 में रूस में यदि जार-विरोधी, जनवादी आन्‍दोलन में रूसी मजदूर वर्ग और समूची किसान आबादी का नेतृत्व सामाजिक-जनवादी पार्टी करेगी, तो उस क्रान्ति का चरित्र इसी बात से निर्धारित हो जायेगा कि नेतृत्व समाजवादी शक्तियों के हाथों में है। वास्तव में, त्रात्स्की ने जनवादी मंजिल को लाँघने की यह कार्यदिशा पार्वस से ही अपनायी थी। यहीं से त्रात्स्की ने ‘स्थायी क्रान्ति’ के अपने सिद्धान्‍त के बुनियादी तत्व लिए।

स्पष्ट है कि सांगठनिक उसूलों पर मेंशेविकों के साथ खड़ा होने के बावजूद क्रान्ति की मंजिल के बारे में त्रात्स्की की समझदारी बिल्कुल भिन्न थी। मेंशेविक और बोल्शेविक दोनों ही मानते थे कि 1905 में रूस में क्रान्ति की मंजिल मूलतः जनवादी है। मेंशेविकों का मानना था कि इस जनवादी क्रान्ति को सम्पन्न करने की जिम्मेदारी मुख्यतः और मूलतः उदार बुर्जुआ वर्ग की है। पहले सामाजिक-जनवादियों को जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूर्ण करने में उदार बुर्जुआ वर्ग का साथ देना चाहिए और उसके बाद पूँजीवादी जनवाद के तहत रूसी मजदूर वर्ग का शिक्षण-प्रशिक्षण होना चाहिए, जिससे कि वह समाजवादी क्रान्ति के लिए तैयार हो सके। इस पूरी मेंशेविक स्कीम में किसान कहीं भी नहीं थे, और किसानों के प्रति इस संशय के नजरिये को अपने तरीके से त्रात्स्की भी साझा करते थे। बोल्शेविकों का मानना था कि रूस में जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को रूसी उदार बुर्जुआ वर्ग क्रान्तिकारी रूप से नहीं निभायेगा, और प्रतिक्रियावादी तरीके से क्रमिक रूपान्‍तरण का पीड़ादायी रास्ता चुनेगा। रूसी मजदूर वर्ग के क्रान्तिकारी उभार से घबराकर यह बुर्जुआ वर्ग जारशाही की बगल में जा बैठा है, यह नौकरशाही में जगहें बना रहा है, भूस्वामियों से सहयोग-सहकार की नीति अपना रहा है। चूँकि मजदूर वर्ग से घबराया रूसी बुर्जुआ वर्ग जारशाही की गोद में जा बैठा है, इसलिए लेनिन के अनुसार, रूस की वास्तविक परिस्थितियों में जनवादी क्रान्ति मजदूर वर्ग और समूची किसान आबादी के मोर्चे के जरिये सम्पन्न होगी, जिसमें कि राजनीतिक नेतृत्व अपनी हिरावल पार्टी के जरिये मजदूर वर्ग के हाथों में होगा। साथ ही, लेनिन ने यह भी बताया कि जनवादी क्रान्ति को सर्वाधिक आमूलवादी रास्ते से पूर्णता तक पहुँचाने के बाद सामाजिक-जनवादियों को तत्काल ही समाजवादी क्रान्ति के प्रयास शुरू कर देने होंगे और बिना रुके समाजवादी क्रान्ति की ओर बढ़ना शुरू कर देना होगा। लेनिन ने ‘दो कार्यनीतियाँ’ में बताया कि पहली मंजिल में यानी सामन्‍तवाद, राजतन्त्र और निरंकुशतावाद के विरुद्ध समूची किसान आबादी को मजदूर वर्ग को साथ लेना होगा, जबकि क्रान्ति के समाजवादी चरण में प्रवेश के बाद मजदूर वर्ग के मित्र ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा व गरीब और निम्न मँझोले किसान (जो कि उजरती श्रम का शोषण नहीं करते) बनेंगे। यही लेनिन का दो चरणों में सर्वहारा क्रान्ति के सिद्धान्‍त की मूल अन्‍तर्वस्तु है। इस पर हम पहले चर्चा कर चुके हैं इसलिए यहाँ पर और अधिक विस्तार में जाने की बजाय, त्रात्स्की के ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त की व्याख्या पर वापस लौटते हैं।

त्रात्स्की का मानना था कि रूस में क्रान्तिकारी आन्‍दोलन का चरित्र जनवादी हो, उसमें भूमि प्रश्न की प्रधानता हो, मजदूर वर्ग अभी अपने जनवादी व आर्थिक अधिकारों (न्यूनतम कार्यक्रम) के लिए ही लड़ने के लिए तैयार हो, मगर यदि नेतृत्व सामाजिक-जनवादी पार्टी के हाथ में हो, तो यह क्रान्ति समाजवादी क्रान्ति ही होगी और इस क्रान्ति के परिणामस्वरूप एक समाजवादी मजदूर सरकार अस्तित्व में आयेगी और तत्काल समाजवाद के निर्माण के कार्य को अपने हाथों में लेगी। आगे त्रात्स्की इस सिद्धान्‍त को विकसित करते हैं और कहते हैं कि आज के दौर में (यानी विश्व बाजार और इजारेदारियों के अस्तित्व में आने के साथ) पूरी दुनिया में हर जगह कोई भी क्रान्ति समाजवादी क्रान्ति ही होगी; किसी भी अन्य किस्म की क्रान्ति या तो प्रतिक्रिया में समाप्त होगी, या फिर असफलता में। चूँकि पूरी दुनिया में श्रम और पूँजी का अन्‍तरविरोध सामान्य तौर पर मुख्य अन्‍तरविरोध बन चुका है, इसलिए आज पूरी दुनिया में राजनीतिक एजेण्डा पर समाजवादी मजदूर क्रान्तियाँ हैं; किसी देश में क्रान्तिकारी आन्‍दोलन किन्हीं भी मुद्दों को लेकर हो रहा हो, वर्ग शक्तियों का सन्‍तुलन और आपसी सम्‍बन्‍ध किसी भी किस्म के हों, आर्थिक विकास का स्तर चाहे कुछ भी हो, क्रान्ति को समाजवादी ही होना होगा। साथ ही, त्रात्स्की ने यह भी दावा किया कि कोई भी कम्युनिस्ट यदि किसी क्रान्तिकारी आन्‍दोलन को बुर्जुआ जनवादी फ्रेमवर्क में देखता है, तो वह मजदूर वर्ग को बुर्जुआ वर्ग के हाथों बेच रहा है, उसका पिछलग्गू बना रहा है, और वास्तव में मजदूर वर्ग के साथ विश्वासघात कर रहा है। त्रात्स्की की ‘स्थायी क्रान्ति’ की सबसे मूल प्रस्थापना यही है, लेकिन हमें इस सिद्धान्‍त के विस्तृत विश्लेषण की आवश्यकता है। इसके लिए लेनिन के शब्दों में ‘‘शुरू से ही शुरुआत करनी चाहिए।’’ इसलिए पहले हम इस शब्द ‘स्थायी क्रान्ति’ के इतिहास पर ही चर्चा करेंगे क्योंकि इस शब्द के उपयोग और दुरुपयोग के कारण काफी भ्रम पैदा किया गया है।

त्रात्स्की और बाद में त्रात्स्कीपन्थियों ने यह दावा किया कि त्रात्स्की ने ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त को मार्क्‍स से लिया था, और इस मार्क्‍सवादी विरासत पर खड़े होकर उन्होंने लेनिन के चरणों में सर्वहारा क्रान्ति के सिद्धान्‍त को खारिज किया। यह सच है कि मार्क्‍स ने ‘स्थायी क्रान्ति’ शब्द का इस्तेमाल किया है। लेकिन तब से इस शब्द का बहुत से अर्थों को सम्प्रेषित करने के लिए इस्तेमाल किया गया है, और त्रात्स्की द्वारा इस शब्द का प्रयोग उनमें से एक है। त्रात्स्की जिन अर्थों में स्थायी क्रान्तिशब्द का इस्तेमाल कर रहे थे, मार्क्‍स ने कभी भी उन अर्थों में स्थायी क्रान्ति शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। त्रात्स्की ने इस सिद्धान्‍त के वैध जनक, यानी कि पार्वस को इसका श्रेय इसलिए नहीं दिया क्योंकि कुछ ही वर्षों में पार्वस की यह सच्चाई सामने आ गयी कि पार्वस जर्मन सरकार के एजेण्ट, हथियार विक्रेता और सट्टेबाज की भूमिका निभा रहा था और त्रात्स्की के लिए यही बेहतर था कि वह इस सिद्धान्‍त के मूल किसी तरह से मार्क्‍स के भीतर निकालें। और इसीलिए विचारधारात्मक द्रविड़ प्राणायाम करते हुए त्रात्स्की ने यह बार-बार सिद्ध करने का प्रयास किया कि उनका ‘स्थायी क्रान्ति’ का सिद्धान्‍त वास्तव में मार्क्‍स के क्रान्ति के सिद्धान्‍त का ही विस्तार या उसका एक विकसित संस्करण है। त्रात्स्की के लिए यह सम्भव था क्योंकि मार्क्‍स ने वाकई ‘स्थायी क्रान्ति’ शब्द का इस्तेमाल किया है। फ्रांस में वर्ग संघर्ष, 1848-50’ में मार्क्‍स ने इस शब्द का इस्तेमाल किया था। लेकिन उन्होंने इस शब्द का इस्तेमाल बेहद सामान्य अर्थों में किया था। कोस्तास मावराकिस यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि मार्क्‍स ने ‘स्थायी क्रान्ति’ शब्द का प्रयोग लगभग उन्हीं अर्थों में किया था जिन अर्थों में माओ त्से-तुङ ने ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’ शब्द का प्रयोग किया था। लेकिन यह दावा सच्चाई से काफी दूर है। मार्क्‍स जहाँ इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं वहाँ वह इसकी कोई विस्तृत व्याख्या पेश नहीं करते। लेकिन मार्क्‍स द्वारा इस शब्द के इस्तेमाल से जो अर्थ निकलता है वह ‘सतत् क्रान्ति’ या ‘निरन्‍तर क्रान्ति’ का है, जिसमें क्रान्ति जनवादी चरण को पूर्ण करने के बाद पूँजीवाद के परिपक्व होने का इन्‍तजार नहीं करेगी, बल्कि मजदूर वर्ग के राजनीतिक तौर पर संगठित होने की सूरत में सीधे सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति के चरण में प्रवेश करेगी। वास्तव में, उन्नीसवीं सदी के मध्य में यूरोपीय, विशेषकर महाद्वीपीय यूरोपीय देशों में ऐसी सतत् क्रान्ति होने की परिस्थितियाँ मौजूद भी थीं। लेकिन मार्क्‍स ने किसी भी रूप में इसका प्रयोग उन अर्थों में नहीं किया था, जिन अर्थों में त्रात्स्की इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं।

क्रान्ति का मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त कहता है कि क्रान्तियाँ विशिष्ट प्रकार के वर्ग अन्‍तरविरोधों और उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्‍बन्‍धों के बीच के विशिष्ट प्रकार के अन्‍तरविरोधों और विशिष्ट वर्ग चरित्र और संरचना वाली राज्यसत्ता की परिणति होती हैं। अलग-अलग प्रकार के अन्‍तरविरोध अलग-अलग प्रकार की क्रान्तियों को जन्म देते हैं। सामन्‍तवाद और व्यापक जन समुदायों (मजदूरों, किसानों व टुटपुँजिया वर्गों) के बीच का अन्‍तरविरोध किसी न किसी प्रकार की जनवादी क्रान्ति को जन्म देता है; मजदूर वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच का अन्‍तरविरोध समाजवादी क्रान्ति की जमीन तैयार करता है। बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति पूँजीवाद के दायरों का अतिक्रमण नहीं करती, लेकिन एक आमूलगामी बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति समाजवाद के लिए संघर्ष हेतु मजदूर वर्ग के लिए ज्यादा मुफीद जमीन तैयार करती है। साथ ही, सर्वहारा वर्ग को जनवादी क्रान्ति में भी सक्रिय और सचेतन हिस्सेदारी करनी चाहिए, उसे महज जनवादी क्रान्ति की अगुवाई करने वाले पूँजीपति वर्ग की पूँछ पकड़कर नहीं चलना चाहिए। वास्तव में, मार्क्‍स ने जब ‘स्थायी क्रान्ति’ शब्द का प्रयोग किया था तो उनका यही अर्थ था कि आमूलगामी बुर्जुआ क्रान्तियों के दौरान भी सर्वहारा वर्ग को न सिर्फ इन क्रान्तियों में हिस्सेदारी करनी चाहिए, बल्कि अपने आपको स्वतन्त्र राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करना चाहिए और बुर्जुआ क्रान्ति के सम्पन्न होने के बाद रुकना नहीं चाहिए बल्कि तत्काल ही समाजवाद के लिए संघर्ष की शुरुआत कर देनी चाहिए। मार्क्‍स ने दोनों चरणों के बीच अन्‍तराल होने या न होने के बारे में भी कोई सिद्धान्‍त नहीं पेश किया क्योंकि इस विषय में कोई भी समाज-वैज्ञानिक सिद्धान्‍त नहीं पेश कर सकता है। मार्क्‍स का पूरा बल इस बात पर था कि सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के दौरान भी बुर्जुआ वर्ग का पुछल्ला नहीं बनेगा, बल्कि अपने स्वतन्त्र राजनीतिक अभिकरण के साथ बुर्जुआ क्रान्ति को भी पूर्णता तक पहुँचायेगा और फिर वहाँ रुकने की बजाय अपने राजनीतिक प्रयासों के जरिये ‘क्रान्ति को जारी रखेगा’ और समाजवाद तक लेकर जायेगा, यानी स्थायी क्रान्ति को अंजाम देगा। मार्क्‍स का ‘स्थायी क्रान्ति’ से सिर्फ इतना मतलब था; उनका मतलब कतई जनवादी क्रान्ति के चरण को लाँघना नहीं था। सर्वहारा वर्ग को जनवादी क्रान्ति में भी अपने आपको एक स्वतन्त्र राजनीतिक प्रवृत्ति के रूप में संगठित करना चाहिए; ऐसा किये बिना सर्वहारा वर्ग समाजवादी क्रान्ति की भावी लड़ाई को बेहतर तरीके से नहीं लड़ सकता और जनवादी क्रान्ति के बाद एक स्वतन्त्र समाजवादी मजदूर आन्‍दोलन को संगठित नहीं कर सकता।

लेनिन ने दिखलाया कि कुछ निश्चित अनुकूल परिस्थितियों में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति बिना रुके समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश कर सकती है। लेकिन उस सूरत में भी वे दो अलग चरण ही रहेंगे क्योंकि दोनों चरणों में क्रान्तिकारी वर्ग संश्रय बदल जायेगा। कुछ बेहद अपवादस्वरूप परिस्थितियों में, बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति अपनी पूर्णता पर पहुँचे बगैर समाजवादी क्रान्ति में रूपान्‍तरित हो सकती है (जैसा कि रूस में हुआ) और फिर समाजवादी क्रान्ति को ही बुर्जुआ क्रान्ति को भी पूर्णता तक पहुँचाने का कार्यभार पूरा करना पड़ता है। चार्ल्‍स बेतेलहाइम, कोस्तास मावराकिस व कुछ अन्य बुद्धिजीवियों ने इसे क्रान्तियों का अन्‍तर्गुन्‍थन कहा है, लेकिन यह सूत्रीकरण सटीक नहीं है और यह कहीं न कहीं त्रात्स्की के ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त के निकट चला जाता है या त्रात्स्कीपन्‍थ को साँस लेने की जगह देता है। निश्चित तौर पर, ऊपर से देखने में यह बुर्जुआ जनवादी और समाजवादी क्रान्ति/प्रक्रियाओं का अन्‍तर्गुन्‍थन दिख सकता है, लेकिन वास्तव में बुर्जुआ क्रान्ति के कार्यभारों के एक हद तक सम्पन्न होने के बाद ही समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश हो सकता है। यदि फरवरी क्रान्ति में मजदूरों और किसानों का क्रान्तिकारी जनवादी अधिनायकत्व आंशिक रूप से सोवियतों के रूप में चरितार्थ नहीं होता, तो अक्टूबर क्रान्ति की स्थितियाँ उस रूप में पैदा नहीं हो सकती थीं, जिस रूप में वे पैदा हुईं। इसीलिए लेनिन अक्तूबर क्रान्ति के बाद बुर्जुआ जनवादी कार्यभारों को पूरा करने और समाजवादी रूपान्‍तरण के कार्य के साथ में शुरू होने के बावजूद इसे ‘क्रान्तियों के अन्‍तर्गुन्‍थन’ के रूप में नहीं देखते। जो भी हो एक बात क्रान्ति के मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त में बिल्कुल स्पष्ट है : बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के चरण को लाँघकर सीधे एक ही चोट मेंसमाजवादी क्रान्ति सम्पन्न करना सम्भव नहीं है; अगर बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के बिना रुके समाजवादी क्रान्ति के मंजिल में प्रवेश करने के लिए अनुकूल स्थितियाँ मौजूद हैं और ऐसा होता है, तो भी दोनों चरणों के बीच वर्ग संश्रय और कार्यक्रम के स्तर पर स्पष्ट अन्‍तर मौजूद रहता है।

त्रात्स्की ने क्रान्ति के इस मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त को ठुकराया। उन्होंने कहा कि एक विश्व बाजार और इजारेदारी के पैदा होने के बाद पूरे विश्व में श्रम और पूँजी का अन्‍तरविरोध ही प्रमुख है और पूरी दुनिया में, हर देश में आज समाजवादी क्रान्ति ही हो सकती है और सर्वहारा वर्ग की दिलचस्पी सिर्फ सीधे समाजवादी क्रान्ति सम्पन्न करने में ही होनी चाहिए। 1905 से पहले लेनिन और त्रात्स्की के बीच इस मुद्दे को लेकर जो अन्‍तर था वह प्रकट नहीं हुआ था। वास्तव में, लेनिन ने स्वयं ‘स्थायी क्रान्ति’ शब्द का प्रयोग किया था, हालाँकि उनके निहितार्थ बिल्कुल भिन्न थे। लेकिन जब 1905 में त्रात्स्की ने मार्क्‍स के क्रान्ति के सिद्धान्‍त को अपने तरीके से विनियोजित किया, तो फिर लेनिन त्रात्स्की के ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त को हमेशा उद्धरण चिन्हों के बीच रखने लगे और स्वयं वे इस शब्द के एक दूसरे अनुवाद ‘सतत् क्रान्ति’ (uninterrupted revolution) का इस्तेमाल करने लगे। त्रात्स्की वास्तव में क्रान्ति के मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त का एक लासालवादी हस्तगतीकरण करते हैं। लासाल ने कहा था कि मजदूर वर्ग एकमात्र क्रान्तिकारी वर्ग है और यूरोप में कोई भी क्रान्तिकारी संघर्ष सफल नहीं हो सकता अगर वह पहले दिन से ही समाजवादी संघर्ष नहीं है। कोस्तास मावराकिस ने ठीक ही कहा है कि अगर पार्वस त्रात्स्की के स्थायी क्रान्तिके सिद्धान्‍त का पिता था, तो लासाल इसके पितामह थे! त्रात्स्की और पार्वस ने मार्क्‍स के क्रान्ति के सिद्धान्‍त का एक लासालपन्‍थी हस्तगतीकरण किया और बाद में त्रात्स्की ने इसे पूरी तरह मार्क्‍स पर ही थोप दिया। एक ही चोट में समाजवादी क्रान्ति सम्पन्न करने का सिद्धान्‍त पेश करके त्रात्स्की एक ‘‘वामपन्‍थी’’ दुस्साहसवादी प्रवृत्ति की बुनियाद तैयार करते हैं, जो कि अपनी अन्‍तर्वस्तु में दक्षिणपन्‍थी अवसरवादी भी है। वास्तव में, ‘‘वामपन्‍थी’’ और दक्षिणपन्‍थी भटकाव हमेशा ही एक सिक्के के दो पहलुओं के रूप में प्रकट होते हैं और त्रात्स्कीपन्‍थ के बारे में यह बात खास तौर पर लागू होती है।

जैसा कि हम पहले जिक्र कर चुके हैं, क्रान्ति की मंजिल, उसके सिद्धान्‍त और क्रान्तिकारी वर्ग संश्रय को लेकर बोल्शेविकों, मेंशेविकों और त्रात्स्की के बीच में विवाद 1905 की क्रान्ति और उसके द्वारा खड़े किये गये प्रश्नों के बाद शुरू हुआ। लेनिन ने अपनी पूरी अवस्थिति ‘जनवादी क्रान्ति के चरण में सामाजिक-जनवाद की दो कार्यनीतियाँ’ नामक पुस्तिका में स्पष्ट की। लेनिन का मानना था कि 1905 में रूसी क्रान्ति बुर्जुआ जनवादी मंजिल में थी। मेंशेविकों का भी यही मानना था। लेकिन लेनिन ने मेंशेविकों के इस विचार का खण्डन किया कि जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करने का काम रूस में पूँजीपति वर्ग करेगा और सर्वहारा वर्ग को महज इसमें उसका सहयोग करना चाहिए। लेनिन का मानना था कि रूस में पूँजीपति वर्ग मजदूर वर्ग के रैडिकल उभार से भयाक्रांत होकर प्रतिक्रियावाद के पक्ष में जा खड़ा हुआ है और वह किसी जारशाही और सामन्‍तवाद के खिलाफ कोई खुली लड़ाई नहीं छेड़ेगा, बल्कि क्रमिक प्रक्रिया से पूँजीवादी रूपान्‍तरण का रास्ता चुनेगा। साथ ही, लेनिन ने कहा कि सर्वहारा वर्ग जनवादी क्रान्ति की मंजिल में किसी वर्ग का पिछलग्गू नहीं बनेगा, बल्कि क्रान्ति की अगुवाई के कार्य को स्वयं अपने हाथों में लेगा। जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूर्ण करने के लिए सर्वहारा वर्ग समूचे किसान वर्ग को अपने साथ लेगा और पहले सामन्‍तवाद और निरंकुश राजतन्त्र के विरुद्ध एक अधिकतम सम्भव आमूलगामी जनवादी क्रान्ति को अंजाम देगा; यह क्रान्ति मजदूरों और किसानों की क्रान्तिकारी जनवादी तानाशाही को स्थापित करेगी। इसके बाद, सर्वहारा वर्ग इसी मंजिल पर रुकेगा नहीं और सतत् क्रान्ति करते हुए समाजवादी क्रान्ति की ओर आगे बढ़ेगा; समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में सर्वहारा वर्ग गरीब किसानों और ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा वर्ग को साथ लेगा, मँझोले और उच्च मँझोले किसानों के ढुलमुलपन को निष्प्रभावी/तटस्थ करेगा और समाजवादी क्रान्ति के कार्यक्रम पर अमल करेगा। मेंशेविकों का मानना था कि रूसी पूँजीपति वर्ग जब तक जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूर्ण नहीं करता, तब तक सर्वहारा वर्ग को उसका सहयोग व समर्थन करना चाहिए और तब तक अपने आर्थिक संघर्षों को ही लड़ना चाहिए। साथ ही, मेंशेविकों का मानना था कि जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों के पूर्ण हो जाने के बाद सर्वहारा वर्ग को पूँजीवाद के तहत शिक्षित-प्रशिक्षित होना होगा, अपने आर्थिक संघर्षों को लड़ना होगा, ट्रेड यूनियन संघर्ष करने होंगे और इस प्रक्रिया में समाजवादी क्रान्ति करने के लिए तैयार होना होगा; यानी, मेंशेविक लेनिन से अलग यह मान रहे थे कि जनवादी क्रान्ति के बाद तत्काल समाजवाद के लिए संघर्ष नहीं शुरू किया जायेगा और पहले मजदूर वर्ग ‘‘पूँजीवाद की पाठशाला’’ में दीक्षित होगा। हम देख सकते हैं कि मेंशेविज्म में अर्थवाद और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद की धाराएँ मिल गयी थीं। मेंशेविक कुछ परिवर्तनों के साथ लगभग वही बात कह रहे थे जो पहले अर्थवादी और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादी कहते रहे थे। इसलिए क्रान्ति की मंजिल पर एक राय रखने के बावजूद बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच वर्ग संश्रय और क्रान्ति की रणनीति और आम कार्यनीति को लेकर गम्‍भीर अन्‍तर थे।

त्रात्स्की ने लेनिन के सिद्धान्‍त का विरोध करते हुए कहा कि रूस में जो क्रान्ति होगी वह मजदूर सरकार को स्थापित करेगी, जो कि त्रात्स्की के लिए सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का ही दूसरा नाम था। त्रात्स्की ने पूछा कि मजदूरों और किसानों की क्रान्तिकारी जनवादी तानाशाही में क्या सरकार में कई पार्टियों के बीच गठजोड़ होगा? क्या मजदूर वर्ग की पार्टी अकेले सरकार में होगी? यदि वह अकेले सरकार में होगी, तो वह मजदूरों व किसानों की जनवादी तानाशाही को कैसे स्थापित करेगी? त्रात्स्की ने इस बात का मजाक उड़ाया कि क्रान्ति की अगुवाई करते हुए उसे सम्पन्न करने के बाद मजदूर वर्ग उस सत्ता को छोड़ देगा या उसे अन्य ताकतों के साथ साझा कर लेगा। त्रात्स्की ने कहा कि लेनिन का सिद्धान्‍त एक ‘पहेली’ को अनसुलझा छोड़ देता है। त्रात्स्की के अनुसार किसान आबादी एक अज्ञात चर राशि थी; और लेनिन की क्रान्ति की परियोजना में इस ‘अज्ञात चर राशि’ पर काफी-कुछ निर्भर करता है। त्रात्स्की का अर्थ यह था कि किसान आबादी अपने आप में किसी सचेतन राजनीतिक अभिकरण को संगठित करने में असमर्थ है। किसान जिस अनभिज्ञता या अचेतनता के साथ जार के साथ जा सकते हैं, उसी अचेतना और अनभिज्ञता के साथ मजदूरों द्वारा सत्ता पर कब्जा कर लिये जाने के बाद, वे मजदूर सत्ता के पक्ष में चले जायेंगे। लेकिन क्रान्ति सम्पन्न करने में किसान आबादी पर निर्भर करना, त्रात्स्की के अनुसार, एक ऐसी शक्ति पर निर्भर करना था, जो अन्तिम समय में किसी भी ओर जा सकती है। अपनी बात को सिद्ध करने के लिए त्रात्स्की ने आत्मगत रूप से तथ्यों का चयन किया और 1905 में पूरे रूस में उठ रही किसान विद्रोहों की लहर की उपेक्षा करते हुए कहा कि 1905 की मजदूर क्रान्ति को किसानों की संगीनों द्वारा कुचला गया था। त्रात्स्की बाद में अक्टूबर 1917 और 1905 में सोवियतों की भूमिका के बीच एक अवैज्ञानिक तुलना करते हैं और कहते हैं कि अक्टूबर 1917 में रूस में जो कुछ हुआ उसने त्रात्स्की के क्रान्ति के सिद्धान्‍त को सही सिद्ध किया, क्योंकि अक्टूबर क्रान्ति ने किसी मजदूरों व किसानों की जनवादी तानाशाही को स्थापित करने की बजाय सीधे सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को स्थापित किया। इसमें त्रात्स्की कई तथ्यों और ऐतिहासिक परिवर्तनों को लाँघ गये हैं, मिसाल के तौर पर फरवरी 1917 में क्या हुआ था? 1905 की सोवियतों और 1917 की सोवियतों में क्या कोई फर्क नहीं था? इससे पहले कि त्रात्स्की के सिद्धान्‍त पर चर्चा को आगे बढ़ायें, यह समझ लेना जरूरी है कि 1905 और 1917 में जो कुछ रूस में हुआ उसके बीच कोई सादृश्य निरूपण किया ही नहीं जा सकता है।

फरवरी 1917 में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति रैडिकल तरीके से अपनी पूर्णता तक नहीं पहुँच पायी। इसका कारण यह था कि सोवियतों में बोल्शेविकों से अधिक संख्या में मौजूद मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने स्वेच्छा से पहल बुर्जुआ ताकतों, विशेष तौर पर कैडेट पार्टी के हाथों में सौंप दी। जनता ने जार को उखाड़ फेंका लेकिन उसके बाद मेंशेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों के राजनीतिक प्रभाव के कारण आरजी सरकार को बनाने और संविधान सभा बुलाकर संविधान तैयार करने के कार्य को बुर्जुआ ताकतों के हाथों में सौंप दिया। नतीजतन, आरजी सरकार प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ वर्ग और भूस्वामी वर्ग की सत्ता का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार के रूप में अस्तित्व में आयी। लेकिन इसके बावजूद सोवियतें निष्क्रिय नहीं हुईं और जनता की पहलकदमी सोवियतों के रूप में जिन्‍दा रही। सोवियतें मजदूरों और किसानों की सत्ता की नुमाइन्‍दगी कर रही थीं। लेनिन ने उस समय कहा कि मजदूरों और किसानों की क्रान्तिकारी जनवादी तानाशाही आंशिक रूप से अस्तित्व में आ चुकी है और बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति भी आंशिक रूप से सम्पन्न हुई है। अब बुर्जुआ वर्ग इस जनवादी क्रान्ति को पूर्णता तक ले जाने को तैयार नहीं था और न ही वह ले जा सकता था। साथ ही, युद्ध और भुखमरी ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जिसने समाजवादी क्रान्ति को एजेण्डे पर ला दिया है और अब समाजवादी क्रान्ति ही बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति को पूर्णता तक ले जा सकती है। लेनिन ने आर्थिक विश्लेषण के जरिये भी दिखलाया कि अगर अब रूस में समाजवादी क्रान्ति को एजेण्डे पर नहीं रखा गया तो रूस पूर्ण विनाश की ओर बढ़ रहा है और अब समाजवादी क्रान्ति के अलावा कोई अन्य विकल्प बचा ही नहीं है। वास्तव में, जनवादी क्रान्ति के सबसे प्रमुख कार्यभार भूमि क्रान्ति को भी अब समाजवादी क्रान्ति के बिना नहीं पूरा किया जा सकता था। लेनिन ने दिखलाया कि अधिकांश भूस्वामियों की बड़ी जागीरें बैंकों को गिरवी रख दी गयी हैं; अगर भूमि पुनर्वितरण के कार्यक्रम को लागू करने के लिए कदम उठाये जाते हैं तो सीधा सामना बैंकों यानी कि वित्त पूँजी की ताकत से होगा। बैंकों का राष्ट्रीयकरण किये बिना अब भूमि सुधार सम्भव ही नहीं रह गया था। इसलिए युद्ध और आर्थिक आपदा ने एक ऐसा सन्धि-बिन्‍दु पैदा कर दिया था, जिसमें अब बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति को पूर्णता तक पहुँचाने का काम समाजवादी क्रान्ति द्वारा ही पूर्ण किया जा सकता था। अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए यह अनिवार्य हो चुका था कि पूर्ण अर्थव्यवस्था को राज्य नियन्त्रण के तहत लाया जाये। मजदूरों की कारखाना समितियाँ पहले से ही कारखानों पर कब्जा कर रही थीं, साथ ही किसानों की भूमि समितियाँ जबरन जमीन दखल और पुनर्वितरण कर रही थीं। ये भूमि समितियाँ आरजी सरकार और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की (जो कि इन भूमि-समितियों के नेतृत्व में थे!) की इन अपीलों को नजरन्‍दाज कर रही थीं कि किसान पहले संविधान सभा के बैठने और फिर कानूनी तौर पर भूमि सुधार का इन्‍तजार करें। मजदूरों द्वारा कारखानों पर कब्जे पर भी आरजी सरकार कोई रोक नहीं लगा पा रही थी। यह स्थिति 1905 में नहीं थी। इसका कारण यह था कि उस समय न तो सैनिकों की सोवियतें मौजूद थीं और न ही जनता हथियार-बन्‍द थी। जबकि फरवरी 1917 के बाद आरजी सरकार जनता को निःशस्त्र भी नहीं कर सकी और न ही सैनिकों की सोवियतों पर नियन्त्रण स्थापित कर पायी। फरवरी 1917 के बाद ‘द्वैध सत्ता’ की जो स्थिति पैदा हुई थी उसका एक कारण सैनिकों की सोवियतों की मौजूदगी और मेहनतकश आबादी के विचारणीय हिस्से का सशस्त्र होना भी था। इसके बिना, ‘द्वैध सत्ता’ जैसी स्थिति पैदा हो ही नहीं सकती थी। स्थितियाँ जिस दिशा में विकसित हो रही थीं, लेनिन ने उनका एक यथार्थवादी विश्लेषण किया और बताया कि फरवरी 1917 की क्रान्ति ने बुर्जुआ क्रान्ति के कार्यभारों को आंशिक तौर पर पूरा किया और इसी समय युद्ध, अकाल और आर्थिक आपदा ने और साथ ही सोवियतों के रूप में एक दोहरी सत्ता की मौजूदगी ने एक विशिष्ट स्थिति में समाजवादी क्रान्ति की स्थिति पैदा कर दी। निश्चित तौर पर, इस रूप में बुर्जुआ क्रान्ति के पूर्ण हुए बगैर समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश एक सामान्य व सार्वभौमिक नियम नहीं बनाया जा सकता, और न ही लेनिन ने ऐसा किया। उन्होंने स्पष्ट किया था कि युद्ध और दोहरी सत्ता वे दो मूल कारण थे, जिनके कारण रूस ने अपने आपको एक अपवादस्वरूप सम्भावना-सम्पन्न स्थिति में पाया। पहला कारण था युद्ध और सोवियतों के रूप में दोहरी सत्ता का उदय और साथ ही दूसरा ऐतिहासिक कारण था रूस में पहले से खेती में पूँजीवादी विकास का मौजूद होना। जब लेनिन कहते हैं कि जनता की जनवादी क्रान्ति सम्पन्न करने के बाद सर्वहारा शक्तियों को बिना रुके समाजवादी क्रान्ति के कार्यभारों को हाथों में लेना चाहिए, तो यहाँ पर लेनिन दोनों क्रान्तियों के बीच के अन्‍तराल के बारे में कुछ भी नहीं बोल रहे थे। वह सिर्फ उस पुराने अर्थवादी तर्क का खण्डन कर रहे थे जो कि मेंशेविक, अर्थवादी और ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवादी पेश करते रहे थे, जिसके अनुसार, जनवादी क्रान्ति के बाद सर्वहारा वर्ग को पूँजीवाद के तहत शिक्षित-प्रशिक्षित होना चाहिए और आर्थिक संघर्षों की प्रक्रिया में मजदूर वर्ग एक दिन स्वतः समाजवादी क्रान्ति के लिए तैयार होगा। हम इस बात को इसलिए स्पष्ट कर रहे हैं कि क्रान्ति के सतत् होने के लेनिन के तर्क को कई लोगों ने एक कालिकता (temporality) का तर्क बना दिया है, और इसमें बेतेलहाइम, मावराकिस जैसे तमाम ‘‘अति-माओवादी’’ सिद्धान्‍तकार भी शामिल हैं। लेनिन का तर्क स्पष्ट था : सर्वहारा शक्तियों को जनवादी क्रान्ति के दौरान अपने आपको स्वतन्त्र राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करके उसे मुकम्मिल मुकाम तक पहुँचाना चाहिए और जनवादी क्रान्ति के सम्पन्न होने के तत्काल बाद ही समाजवादी क्रान्ति की राजनीतिक-सांगठनिक तैयारियाँ शुरू कर देनी चाहिए। अनुकूल स्थितियों में दोनों चरणों के बीच का अन्‍तराल बेहद कम हो सकता है; अपवादस्वरूप स्थितियों में दोनों चरणों के बीच एक निरन्‍तरता दिखलायी दे सकती है और ऐसा दृष्टि-भ्रम पैदा हो सकता है कि दोनों चरण ‘‘अन्‍तर्गुन्थित’’ हैं, जैसा कि बेतेलहाइम जैसे लोगों के साथ हुआ है। लेकिन किसी भी हालत में दोनों चरणों में वर्गों का संश्रय भिन्न होगा और क्रान्ति का सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम भिन्न होगा।

1905 में जब लेनिन ने मजदूरों और किसानों की क्रान्तिकारी जनवादी तानाशाही का नारा दिया था, तो वह उस समय की परिस्थितियों के अनुसार बिल्कुल सटीक था और तत्कालीन वर्ग शक्ति सन्‍तुलन को सही रूप में प्रकट करता था। जब लेनिन ने अक्टूबर 1917 में मजदूर वर्ग की तानाशाही का नारा दिया तो वह उस समय की परिस्थितियों को सटीकता से प्रतिबिम्बित करता था। 1905 में सोवियतों का बनना और फिर 1917 से पहले उनका पुनर्जीवित होना दो अलग-अलग परिघटनाएँ थीं और लेनिन ने इस फर्क को समझा। दूसरी बात यह कि फरवरी क्रान्ति ने मजदूरों व किसानों की क्रान्तिकारी जनवादी तानाशाही को आंशिक तौर पर एक असलियत में तब्दील कर दिया था। इसलिए ‘अप्रैल थीसीज’ में लेनिन सारी सत्ता सोवियतों को सौंपने की बात करते हैं, लेकिन अब वे यह बात बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के फ्रेमवर्क में नहीं कर रहे थे, बल्कि समाजवादी क्रान्ति के फ्रेमवर्क में कर रहे थे। अक्टूबर 1917 में जो समाजवादी क्रान्ति सम्पन्न हुई उसके सामने एक ओर समाजवाद की दिशा में कुछ शुरुआती कदम उठाने का कार्यभार था, तो वहीं बुर्जुआ क्रान्ति के कार्यभारों विशेष तौर पर भूमि सुधार को अंजाम देने का काम भी था। रूसी समाजवादी क्रान्ति के समक्ष जो जटिल प्रश्न इतिहास ने उपस्थित किये थे, उसका मूल कारण वे अपवादस्वरूप पैदा हुई परिस्थितियाँ थीं, जिनमें यह क्रान्ति सम्पन्न हुई थी। 1917 से लेकर 1920 और फिर 1921 से लेकर 1929 तक रूस में समाजवाद के निर्माण में मौजूद जटिलताएँ और विरोधाभास भी इसी कारण से थे। लेकिन समाजवाद के निर्माण के इस बेहद जटिल रास्ते के बावजूद रूस में लेनिन के क्रान्तिकारी यथार्थवाद और फिर स्तालिन की दृढ़ता के बूते पर रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में रूसी मजदूर वर्ग ने इस रास्ते को तय किया और स्तालिन की मृत्यु तक तमाम विच्युतियों के बावजूद मूल व मुख्य रूप में रूस में समाजवाद के निर्माण के काम को जारी रखा।

बहरहाल, त्रात्स्की 1905 और 1917 को अलग करते हैं और फिर उनके बीच एक मजाकिया सादृश्य निरूपण कर देते हैं। वह 1905 और 1917 के बीच हुए परिवर्तनों और विशेष तौर पर फरवरी 1917 में हुए परिवर्तन को नजरअन्‍दाज कर देते हैं। त्रात्स्की कहते हैं कि अक्टूबर क्रान्ति के बाद सर्वहारा वर्ग की तानाशाही और समाजवादी सरकार के स्थापित होने के साथ ही उनका ‘स्थायी क्रान्ति’ का सिद्धान्‍त सही साबित हो गया क्योंकि वह तो 1905 से ही कह रहे थे कि क्रान्ति के बाद मजदूरों और किसानों की जनवादी तानाशाही नहीं बल्कि सर्वहारा अधिनायकत्व अस्तित्व में आयेगा! लेकिन वह भूल गये कि 1905 में पहले से कोई मजदूरों व किसानों की जनवादी तानाशाही मौजूद नहीं थी, जबकि अक्टूबर 1917 में मजदूरों व किसानों की जनवादी तानाशाही आंशिक तौर पर स्थापित हो चुकी थी। त्रात्स्की अपनी बात को सही साबित करने के लिए लेनिन के मुँह में यह बात ठूँसने की कोशिश करते हैं कि लेनिन ने फरवरी 1917 की क्रान्ति के बाद स्थापित हुई बुर्जुआजी और भूस्वामियों की आरजी सरकार को मजदूरों और किसानों की जनवादी तानाशाही का नाम दिया था, जबकि लेनिन ने सोवियत सत्ता को मजदूरों व किसानों की जनवादी तानाशाही का नाम दिया था! त्रात्स्की इस बात के लिए लेनिन पर हमला करते हैं और पूछते हैं कि प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ वर्ग और भूस्वामियों की आरजी सरकार में क्या जनवादी और क्रान्तिकारी है? स्पष्ट है कि त्रात्स्की अपनी बात को सही साबित करने के उन्माद में बहस की बुनियादी नैतिकता और आचार को भी भूल गये थे। इसका कारण त्रात्स्की के अपने अहंकार और व्यक्तिवाद में था, जिस पर हम बाद में आयेंगे। लेकिन इस बहस में त्रात्स्की की अवस्थिति की दरिद्रता को पहले ठीक से समझ लेना जरूरी है।

त्रात्स्की ने लेनिन से पूछा था कि मजदूरों और किसानों की जनवादी तानाशाही स्थापित होने पर सरकार में कौन-सी पार्टी/पार्टियाँ रहेंगी? अगर सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी सरकार में होगी तो फिर यह राज्य मजदूरों व किसानों की जनवादी तानाशाही क्यों होगा? यह सर्वहारा अधिनायकत्व क्यों नहीं होगा? स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है त्रात्स्की यहाँ कई धरातलों पर गलत हैं और यहाँ उनकी निगमनवादी पद्धति एकदम खुलकर सामने आ गयी है। इन प्रश्नों में कुछ गलत मान्यताएँ निहित हैं। पहली गलत मान्यता यह है कि सरकार का रूप और राज्य का चरित्र एक ही चीज होती हैं। दूसरी मान्यता यह है कि क्रान्ति का चरित्र सिर्फ इस बात से तय हो जाता है कि क्रान्ति का नेतृत्व कौन-सी पार्टी कर रही है और राज्य का चरित्र इस बात से तय हो जाता है कि कौन सी पार्टी के हाथ में सरकार है। यानी कि पार्टी सरकार का चरित्र तय करती है, सरकार राज्यसत्ता का चरित्र तय करती है, और राज्यसत्ता क्रान्ति का चरित्र तय करती है। यानी कि नेतृत्व के चरित्र से सबकुछ निगमित (deduce) कर दिया जाता है। लेनिन का जवाब था कि यह प्रश्न ही गलत है कि सरकार में कौन-सी पार्टियाँ होंगी क्योंकि क्रान्ति के पहले इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया जा सकता है। लेनिन मानते थे कि जनता की जनवादी क्रान्ति के बाद केवल कम्युनिस्ट पार्टी भी सत्ता में हो सकती है, या फिर कम्युनिस्ट पार्टी व अन्य जनवादी पार्टियों का गठबन्धन सरकार में हो सकता है, जिसमें कि नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में हो। लेकिन सिर्फ इसी बात से पूरी क्रान्ति का चरित्र नहीं तय हो जाता। क्रान्ति का चरित्र इस बात से तय होता है कि क्रान्ति किन वर्गों की सत्ता के खिलाफ है और कौन-से वर्ग क्रान्ति के मित्र वर्ग हैं; क्रान्ति का कार्यक्रम इसी से निर्धारित होता है, और इसलिए क्रान्ति का चरित्र निर्धारण महज क्रान्तिकारी आन्‍दोलन की नेतृत्वकारी शक्ति और सरकार में मौजूद पार्टी से नहीं किया जा सकता है, बल्कि यह क्रान्ति के वर्ग संश्रय और कार्यक्रम से तय किया जा सकता है। इसलिए निगमनवादी पद्धति पर अमल करने वाले त्रात्स्की के लिए यह समझना मुश्किल था कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जनवादी क्रान्ति भी हो सकती है, क्योंकि उनके लिए क्रान्ति का चरित्र समाज में वर्ग संघर्ष और उत्पादक शक्तियों व उत्पादन सम्‍बन्‍धों के बीच के अन्‍तरविरोध के स्तर से नहीं तय होता, न ही यह क्रान्ति के शत्रु व मित्र वर्गों से तय होता है और न ही क्रान्ति के कार्यक्रम से! त्रात्स्की के लिए बस यह पूछना पर्याप्त है कि कौन-सी पार्टी क्रान्ति के नेतृत्व में थी।

लेनिन इस सवाल पर बिल्कुल स्पष्ट थे। उनका मानना था कि मजदूरों और किसानों की संयुक्त तानाशाही में नेतृत्व मजदूर वर्ग और उसकी पार्टी के हाथों में ही होगा। लेकिन अगर सरकार में कम्युनिस्ट पार्टी अकेले भी होती है, तो वह तत्काल समाजवादी कार्यक्रम लागू नहीं कर सकती है। वह औद्योगिक क्षेत्र और कृषि क्षेत्र दोनों में ही पहले पार्टी का ‘न्यूनतम कार्यक्रम’ (जनवादी कार्यक्रम) ही लागू कर सकती है। वह सबसे पहले बुर्जुआ जनवादी कार्यक्रम को सर्वाधिक आमूलगामी और क्रान्तिकारी ढंग से लागू करेगी। लेनिन ने इस पूरे कार्य में किसानों व टुटपुँजिया वर्गों की रैडिकल निम्न पूँजीवादी पार्टियों के साथ सहकार की सम्भावना को भी इस मंजिल में खारिज नहीं किया है। यही कारण था कि लेनिन ने समाजवादी-क्रान्तिकारी पार्टी के भूमि कार्यक्रम का जनवादी क्रान्ति की मंजिल में समर्थन किया और कहा कि इस कार्यक्रम के साथ एकमात्र समस्या यह है कि इसे समाजवादी-क्रान्तिकारी समाजवादी भूमि कार्यक्रम मानते हैं जबकि भूमि के राष्ट्रीयकरण व समान पुनर्वितरण का यह कार्यक्रम एक रैडिकल बुर्जुआ भूमि कार्यक्रम के दायरे से आगे नहीं जाता है। लेकिन जनवादी क्रान्ति की मंजिल में यह कार्यक्रम सही था और बोल्शेविकों ने इसका समर्थन किया। यह बात दीगर है कि बोल्शेविक क्रान्ति की विशिष्टता के कारण समाजवादी क्रान्ति के बाद भी सर्वहारा सत्ता को पहले यही कार्यक्रम लागू करना पड़ा, क्योंकि बुर्जुआ वर्ग भूमि क्रान्ति के कार्यभार को अंजाम देने में अक्षम सिद्ध हुआ और इसी बीच युद्ध और अकाल की अपवादस्वरूप स्थितियों ने समाजवादी क्रान्ति की जमीन तैयार कर दी। लेनिन मानते थे कि यह जनवादी क्रान्ति के बाद की वास्तविक परिस्थितियाँ तय करेंगी कि सरकार में केवल कम्युनिस्ट पार्टी मौजूद होगी या फिर कम्युनिस्ट पार्टी उसमें कुछ रैडिकल निम्न बुर्जुआ व किसान पार्टियों को भी आमन्त्रित करेगी। अगर फरवरी 1917 में सर्वहारा वर्ग और अन्य मेहनतकश वर्ग पहल को अपने हाथों से बुर्जुआ वर्ग के हाथों में नहीं सौंपते, अगर बोल्शेविक पार्टी उस क्रान्ति को नेतृत्व देने और फिर आरजी सरकार बनाने की स्थिति में होती और फिर बोल्शेविक पार्टी अकेले या फिर कुछ अन्य पार्टियों के साथ मिलकर आरजी सरकार बनाती, तो राज्य सत्ता वास्तव में मजदूरों व किसानों की जनवादी तानाशाही होती और तत्काल समाजवादी कार्यक्रम नहीं लागू किया जाता, बल्कि एक क्रान्तिकारी आमूलगामी जनवादी कार्यक्रम ही लागू किया जाता। लेकिन ऐसा हो नहीं सका, और रूस में फरवरी की बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति पूर्णता तक पहुँच ही नहीं पायी। फरवरी के बाद जो विशिष्ट स्थिति रूस में पैदा हुई, उसमें बुर्जुआ क्रान्ति के पूर्णता तक पहुँचने के लिए समाजवादी क्रान्ति का होना अनिवार्य हो गया। इसलिए अक्टूबर क्रान्ति को बुर्जुआ क्रान्ति के कई केन्‍द्रीय और अहम कार्यभारों को भी पूरा करना पड़ा। इसी वजह से काऊत्स्की ने रूसी क्रान्ति और बोल्शेविक पार्टी की आलोचना करते हुए यह आरोप लगाया कि वास्तव में बोल्शेविक क्रान्ति एक जनवादी क्रान्ति ही है। लेकिन लेनिन इस विषय में स्पष्ट थे। उनका मानना था कि निश्चित तौर पर बोल्शेविक क्रान्ति ने एक रैडिकल बुर्जुआ जनवादी भूमि कार्यक्रम लागू किया। लेकिन साथ ही यह भी सच था कि समाजवादी मजदूर सत्ता पहले दिन से ही समाजवादी रूपान्‍तरण की मंशा के साथ काम कर रही थी, जिसके तहत क्रान्ति के तुरन्‍त बाद ही कुछ मॉडल राज्य फार्म और सामूहिक व सहकारी फार्म भी स्थापित किये गये। यह बात सच है कि उनका हिस्सा कुल खेती में मात्र 5 प्रतिशत के करीब था। लेकिन यहाँ समाजवादी खेती के रूपों की मात्रा या परिमाण प्रमुख नहीं है। मात्रा कुछ भी हो यह राज्यसत्ता की मंशा और चरित्र को जाहिर करता था और पूँजीवादी उत्पादन सम्‍बन्‍धों के निषेध की शुरुआत को दिखलाता था। वास्तव में, भारत व कई अन्य देशों में दास प्रथा के उत्पादन की कार्रवाइयों में प्राचीन यूनान या रोम के पैमाने पर इस्तेमाल न होने के कारण कई अध्येताओं ने यह दावा किया था कि भारत में दास प्रथा कभी थी ही नहीं; इस तर्क पर डी.डी. कोसाम्बी द्वारा दिया गया उत्तर गौरतलब है। कोसाम्बी ने कहा कि दास श्रम का किसी भी पैमाने पर उपयोग वास्तव में सामुदायिक उत्पादन पद्धति के विघटित होने का लक्षण था और इस रूप में दास श्रम का परिमाण उतना महत्व नहीं रखता जितना कि यह तथ्य की दास श्रम का इस्तेमाल उत्पादक व अनुत्पादक, दोनों ही कार्रवाइयों में शुरू किया जा चुका था। यह तर्क इतिहास की तथ्यवादी, परिमाणात्मक और नियतत्ववादी व्याख्या का खण्डन है और इस तर्क को हम आम तौर पर सामाजिक संरचनाओं और राजनीतिक सत्ताओं के विश्लेषण में लागू कर सकते हैं। क्रान्ति के बाद के रूस में स्थापित सामाजिक संरचना और राजनीतिक सत्ता के विषय में दूसरी बात यह भी थी कि किसान आबादी आर्थिक तौर पर समाजवादी रूपान्‍तरण के लिए तैयार थी, लेकिन राजनीतिक तौर पर नहीं। किसान आबादी के बीच बोल्शेविक पार्टी की पहुँच समाजवादी-क्रान्तिकारी पार्टी की तुलना में बेहद कम थी और किसानों की राजनीतिक चेतना काफी हद तक समाजवादी-क्रान्तिकारियों के कार्यक्रम तक ही पहुँची थी। खेती के सामूहिकीकरण तक पहुँचने की रूस की प्रक्रिया बेहद उतार-चढ़ाव और जटिलता से भरी रही, जिस पर हम आगे के अध्यायों में चर्चा करेंगे। लेकिन यहाँ यह समझ लेना महत्वपूर्ण है कि रूस में यदि फरवरी 1917 में ही बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में होती तो फिर समाजवादी क्रान्ति के बाद रूस को जितनी समस्याओं का सामना खेती के समाजवादी रूपान्‍तरण में करना पड़ा, शायद उतनी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता।

1904 में तीसरी पार्टी कांग्रेस में लेनिन ने स्पष्ट किया था कि जनवादी क्रान्ति के बाद क्रान्तिकारी आरजी सरकार में सामाजिक-जनवादियों को शामिल होना चाहिए। लेनिन इस बात को समझ रहे थे कि जनवादी क्रान्ति रूस में कई रूपों में सम्पन्न हो सकती है और पहले से इस बात के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है कि आरजी सरकार किस प्रकार की होगी। लेकिन लेनिन यह भी समझते थे कि अगर सर्वहारा नेतृत्व में जनवादी क्रान्ति सम्पन्न होती है तो फिर समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में सतत् प्रक्रिया में प्रवेश ज्यादा सहज होगा। साथ ही, इस सतत् प्रक्रिया के बारे में लेनिन इसलिए भी आशान्वित थे क्योंकि रूस में खेती में पूँजीवादी विकास पहले ही प्रशियाई पथ से काफी आगे बढ़ चुका था और किसानों का विभेदीकरण भी काफी उन्नत स्तर पर पहुँच चुका था। त्रात्स्की ने लेनिन के क्रान्तिकारी आरजी सरकार में शामिल होने के प्रस्ताव का विरोध किया था और कहा था कि सामाजिक-जनवादी किसी भी ऐसी सरकार का अंग नहीं बनेंगे जो कि शुरू से ही समाजवादी कार्यक्रम पर अमल न करे। त्रात्स्की ने साथ ही यह भी कहा कि ऐसी किसी भी सरकार में शामिल होना मजदूर वर्ग के साथ और समाजवाद के लक्ष्य के साथ गद्दारी होगी। त्रात्स्की का मानना था कि कोई भी मजदूर सरकार अगर आज के दौर में अपना न्यूनतम कार्यक्रम भी लागू करना चाहेगी तो उसे अन्‍ततः समाजवादी कार्यक्रम ही लागू करना पड़ेगा। इसके लिए उन्होंने आठ घण्टे के कार्यदिवस की माँग का उदाहरण दिया और कहा कि अगर मजदूरों व किसानों की जनवादी तानाशाही न्यूनतम कार्यक्रम के तहत आठ घण्टे के कार्यदिवस की माँग को लागू करने की कोशिश करेगी तो उसे पूँजीपतियों के कठोर विरोध का सामना करना पड़ेगा और अन्‍ततः इसका समाधान उद्योगों के राष्ट्रीयकरण से होगा, जो कि वास्तव में समाजवादी कार्यक्रम होगा। लेकिन यहाँ पर त्रात्स्की समाजवाद के पैमाने को ही गलत तौर पर पेश कर रहे हैं। उद्योगों का राष्ट्रीयकरण अपने आप में समाजवादी अर्थव्यवस्था का लक्षण नहीं है। वास्तव में, कई कल्याणकारी और युद्ध-निर्देशित अर्थव्यवस्थाओं ने उस समय भी उद्योगों का बड़े पैमाने का राष्ट्रीयकरण किया था। और आज तक का इतिहास तो साफ तौर पर इस बात को दिखलाता है कि उद्योगों का राष्ट्रीयकरण अपने आप में पूँजीवाद की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करता है। इस तरह त्रात्स्की का आरजी सरकार में शामिल न होने के बारे में यह तर्क था कि कम्युनिस्ट केवल सर्वहारा अधिनायकत्व वाली सरकार में ही प्रवेश करेंगे। त्रात्स्की का कहना था कि क्रान्ति के बाद जो आरजी क्रान्तिकारी सरकार बनती है, अगर उसमें कम्युनिस्ट बहुमत में नहीं हैं तो वे समाजवादी कार्यक्रम लागू नहीं कर पायेंगे और फिर अन्‍ततः मजदूर वर्ग के हितों के साथ धोखा करेंगे; इसलिए जनता की जनवादी तानाशाही जैसी कोई चीज हर सूरत में प्रतिक्रियावादी होगी! और अगर कम्युनिस्ट ऐसी आरजी सरकार में बहुमत में होंगे तो फिर वह सरकार सर्वहारा वर्ग की तानाशाही ही होगी और वह जनवादी कार्यभारों को पूरा करने पर रुक ही नहीं पायेगी क्योंकि ज्यों ही ऐसी सरकार जनवादी कार्यभारों को लागू करने का प्रयास करेगी, वैसे ही पूँजीपतियों के विरोध के कारण उसे राष्ट्रीयकरण की समाजवादी नीति लागू करनी पड़ेगी, क्योंकि त्रात्स्की के लिए राष्ट्रीयकरण अपने आपमें समाजवादी व्यवस्था का प्रतीक था।

अब किसानों के बारे में त्रात्स्की के दृष्टिकोण पर भी थोड़ी चर्चा जरूरी है। त्रात्स्की का किसानों बारे में नजरिया भी एकदम अयथार्थवादी था। त्रात्स्की का मानना था कि किसान मजदूर वर्ग द्वारा सत्ता पर कब्जे के बाद स्वयं ही सर्वहारा सत्ता के पक्ष में आ जायेंगे। लेकिन क्रान्ति की प्रक्रिया में किसानों की कोई सचेतन भागीदारी नहीं हो सकती। उनके विद्रोह वस्तुगत तौर पर सर्वहारा क्रान्ति को मदद पहुँचा सकते हैं क्योंकि वे सत्ता को कमजोर करेंगे, लेकिन किसान सचेतन तौर पर किसी राजनीतिक लक्ष्य के लिए संगठित नहीं हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में किसानों के पास कोई स्वतन्त्र राजनीतिक अभिकरण (एजेंसी) नहीं होती है। इसीलिए, त्रात्स्की के अनुसार, किसानों का कारक एक ‘अज्ञात चर राशि’ है, जिस पर क्रान्ति सम्पन्न करने के लिए निर्भर नहीं रहा जा सकता है। मजदूर वर्ग अपनी पार्टी के बूते सत्ता स्थापित करेगा और सीधे समाजवाद का निर्माण शुरू करेगा, और किसान बाद में उसी अचेतनता के साथ सर्वहारा सत्ता के पक्ष में आ जायेंगे जिस अचेतनता के साथ वे जारशाही के पक्ष में चले जाते थे! लेनिन इस प्रश्न पर त्रात्स्की से बिल्कुल अलग राय रखते थे। लेनिन का मानना था कि रूस में जनवादी क्रान्ति सम्पन्न करने के लिए समूची किसान आबादी और फिर समाजवादी क्रान्ति सम्पन्न करने के लिए गरीब व निम्न मध्यम किसान व ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा आबादी को पहले से ही सर्वहारा नेतृत्व के तहत संगठित करना अनिवार्य है और इसके बिना रूस में न तो जनवादी क्रान्ति सम्भव है और न ही समाजवादी क्रान्ति। यह सच है कि किसान वर्ग प्रकृति से पश्चद्रष्टा (millenarian) वर्ग होता है और यह भी सच है कि किसान आबादी यदि किसी पार्टी के तहत सचेतन तौर पर राजनीतिक रूप से संगठित हो भी जाये, तो उसके पास चुनने के लिए या तो पूँजीवाद होता है या फिर समाजवाद और वे अपना कोई किसान विकल्पनहीं पेश कर सकती लेकिन ठीक इसीलिए किसान आबादी को संगठित करना सर्वहारा क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए अनिवार्य है, क्योंकि यदि वे उन्हें अपने राजनीतिक वर्चस्व के तहत नहीं लेंगी तो फिर अन्‍ततः बुर्जुआ राजनीतिक वर्चस्व के तहत जायेंगी और फिर उनकी भूमिका प्रतिक्रान्तिकारी ही बनेगी। त्रात्स्की किसानों के प्रति अपने दृष्टिकोण को सही साबित करने के लिए भी मार्क्‍स से वैधता प्राप्त करने की कोशिश करते थे, लेकिन सही बात यह थी कि मार्क्‍स व एंगेल्स दोनों ही इस बात को समझते थे कि जर्मनी में सर्वहारा क्रान्ति का भविष्य काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता था कि सर्वहारा क्रान्ति को किसान युद्धों के दूसरे संस्करण से मदद मिलेगी या नहीं। मार्क्‍स ने जर्मनी और फ्रांस में फरवरी क्रान्ति की असफलता के बाद एंगेल्स को एक पत्र में लिखा, ‘‘जर्मनी में पूरी बात अब इस पर निर्भर करेगी कि सर्वहारा क्रान्ति को किसान युद्धों के किसी दूसरे संस्करण से समर्थन पहुँचाना सम्भव है या नहीं।’’ (मार्क्‍स-एंगेल्स, ‘‘मैनचेस्टर में एंगेल्स को मार्क्‍स का पत्र’’, संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड 40, 1983, मॉस्को, पृ. 37, अंग्रेजी संस्करण, अनुवाद हमारा) लेनिन ने मार्क्‍स और एंगेल्स के चिन्‍तन के इसी सिरे को आगे बढ़ाया और कहा कि जनवादी क्रान्ति के लिए समूची किसान आबादी की सर्वहारा नेतृत्व के तहत क्रान्तिकारी आन्‍दोलन में भागीदारी और समाजवादी क्रान्ति के लिए गरीब किसानों और अर्द्धसर्वहारा वर्ग की सर्वहारा नेतृत्व के तहत क्रान्तिकारी आन्‍दोलन में भागीदारी अनिवार्य है। यह इन क्रान्तियों की पूर्वशर्त है। त्रात्स्की यहाँ पर एक हिरावलपन्‍थी अवस्थिति अपनाते हैं। ‘स्थायी क्रान्ति’ के त्रात्स्की के सिद्धान्‍त के अनुसार मजदूर वर्ग अपनी पार्टी के नेतृत्व में पहले सत्ता पर कब्जा कर लेगा और तत्काल समाजवादी कार्यक्रम को लागू करना शुरू कर देगा और उसके बाद किसान आबादी समाजवादी सत्ता के पक्ष में आ जायेगी। स्पष्ट तौर पर, त्रात्स्की बदलते ऐतिहासिक युगों में कुल मिलाकर किसानों की भूमिका और अलग-अलग वर्गों के किसानों की भूमिका के विषय में कोई समझ नहीं रखते हैं। उनके लिए किसान आबादी एक एकाश्मी आबादी है जो किसी भी राजनीतिक अभिकरण से वंचित है। यहाँ पर त्रात्स्की अपने श्रेष्ठ लासालवादी रूप में हैं; उनके अनुसार मजदूर वर्ग एकमात्र क्रान्तिकारी वर्ग है और किसी भी आन्‍दोलन को आज के समय में यदि क्रान्तिकारी होना है तो उसे शुरू से ही समाजवादी होना होगा। त्रात्स्की कहते हैं कि जो अधिकतम प्राप्त कर सकता है, वह न्यूनतम भी प्राप्त कर सकता है। यानी, जो समाजवादी क्रान्ति कर सकता है, वह जनवादी क्रान्ति को स्वतः ही सम्पन्न कर देगा! दूसरे शब्दों में, जनवादी और समाजवादी क्रान्ति एक ही चोट में सम्पन्न की जायेगी और यह कार्य मजदूर वर्ग अपने हिरावल के नेतृत्व में करेगा; किसान विद्रोहों की एक वस्तुगत सहायक कारक की भूमिका बन सकती है, लेकिन किसानों की कोई सचेतन राजनीतिक हिस्सेदारी नहीं होगी। इस एक चोट में सम्पन्न क्रान्ति के बाद सीधे मजदूर सरकार (जो कि त्रात्स्की के लिए सर्वहारा अधिनायकत्व का पर्यायवाची है) अस्तित्व में आयेगी और सीधे समाजवादी रूपान्‍तरण के कार्यों को हाथों में लेगी। त्रात्स्की ने किसानों के साथ संश्रय और फिर मजदूरों और किसानों की क्रान्तिकारी जनवादी तानाशाही को सर्वहारा वर्ग द्वारा ‘‘आत्म-सीमाबद्धीकरण’’ (self-limitation) करार दिया। मजदूर सरकार स्थापित होने के बाद त्रात्स्की के अनुसार किसानों को कोई भी रियायत या छूट नहीं दी जानी चाहिए और समाजवादी कार्यक्रम पर तत्काल अमल किया जाना चाहिए।

ऐसा नहीं कि त्रात्स्की जनवादी कार्यभारों या माँगों की चर्चा नहीं करते। वे कहीं-कहीं जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों की बात करते हैं, लेकिन उनके लिए जनवादी क्रान्ति समाजवादी क्रान्ति के शुरुआती दिनों से ज्यादा कुछ भी नहीं है; त्रात्स्की के अनुसार जनवादी माँगों का महज एक ‘‘उद्वेलनात्मक चरित्र’’ (agitational character) होता है जिनका सामाजिक-जनवादियों को व्यापक जनसमुदायों का समर्थन जीतने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। लेकिन त्रात्स्की के लिए इस ‘‘जनवादी दौर’’ का ज्यादा कोई अर्थ नहीं है कि क्योंकि इससे क्रान्ति के वर्ग चरित्र और सामाजिक अन्‍तर्वस्तु पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, जो कि राज्यसत्ता पर काबिज और आन्‍दोलन की अगुवाई करने वाली पार्टी के चरित्र से निर्धारित हो जाता है। त्रात्स्की के लिए इतना ही जानना पर्याप्त था कि मजदूर वर्ग की पार्टी आन्‍दोलन की अगुवाई में है या नहीं और क्रान्ति के बाद मजदूर सरकार बनायी जाती है या नहीं। अगर ऐसा होता है तो वह समाजवादी क्रान्ति है और अगर ऐसा नहीं है तो त्रात्स्की के मुताबिक मजदूर वर्ग के साथ गद्दारी की जा रही है! त्रात्स्की के दिमाग में कभी यह बात नहीं आयी कि यदि किसी देश में व्यापक जनसमुदाय जनवादी कार्यभारों को पूर्ण करने के लिए ही तैयार है और बुर्जुआ वर्ग समझौतापरस्त हो चुका है या प्रतिक्रियावादी हो चुका है और वह जनवादी कार्यभारों को पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता तो सर्वहारा वर्ग को ही जनता की जनवादी क्रान्ति में भी जनता की अगुवाई करनी पड़ेगी, और इस चरण के कार्यभारों को पूरा करने के बाद समाजवादी क्रान्ति की तैयारियाँ करनी होंगी। त्रात्स्की इस बात को मान्यता नहीं देते थे कि किसी भी क्रान्ति का चरित्र उस क्रान्ति के कार्यक्रम से तय होगा, जो कि स्वयं वर्ग संघर्ष के स्तर से निर्धारित होता है। उनके लिए आन्‍दोलन के नेतृत्व और फिर सरकार का रूप राज्यसत्ता और क्रान्ति के चरित्र को निर्णायक रूप से निर्धारित कर देता है।

त्रात्स्की ने लेनिन के संयुक्त जनवादी तानाशाही के सिद्धान्‍त के बारे में कहा कि यह नाम सिर्फ व्यापक किसान आबादी के समर्थन के साथ खड़े सर्वहारा अधिनायकत्व को ही दिया जा सकता है। लेकिन ऐसा सूत्रीकरण दो चरणों के बीच की विभाजक रेखा और उन दो चरणों के वर्ग संश्रयों के बीच के फर्क को मिटा देता है। साथ ही, इस किस्म का सूत्रीकरण वास्तव में हर शब्द को अर्थ से रिक्त बना देता है; मिसाल के तौर पर, सर्वहारा अधिनायकत्व के विशिष्ट अर्थ हैं, और त्रात्स्की की समझदारी से चलें तो ये विशिष्ट अर्थ समाप्त हो जाते हैं और सर्वहारा अधिनायकत्व एक सामान्य अवधारणा बन जाती है, जिसका अर्थ महज मजदूर सरकार है! अक्टूबर क्रान्ति के बाद एक बार लेनिन ने गलती से सोवियत सत्ता को मजदूरों व किसानों की संयुक्त तानाशाही का नाम दे दिया था। लेकिन बुखारिन द्वारा इस सूत्रीकरण पर आपत्ति के बाद अपने एक लेख पार्टी का संकट में लेनिन ने इस गलती को दुरुस्त कर लिया था और स्पष्ट किया था कि उनका मकसद यह स्पष्ट करना था कि सोवियत सत्ता स्थापित होने के बाद इसका टिके रहना इस बात पर निर्भर करता है कि अभी लम्‍बे समय तक इसे व्यापक किसान आबादी (गरीब व मँझोले किसान) का समर्थन प्राप्त होता है या नहीं। सोवियत सत्ता एक ऐसा सर्वहारा अधिनायकत्व है जो कि मजदूर-किसान संश्रय पर आधारित है। ये सारी बातें ‘नयी आर्थिक नीतियाँ’ लागू होने के पहले लेनिन ने कही थीं, जब ‘युद्ध कम्युनिज्म’ का दौर समाप्त हुआ था, मजदूर-किसान संश्रय टूटने की कगार पर था, और पार्टी के सामने यह चुनौती थी कि सर्वहारा सत्ता की हिफाजत करने के लिए मजदूर-किसान संश्रय को सुदृढ़ कैसे किया जाये। इसी के लिए लेनिन ने कुछ समय के लिए ‘रणनीतिक तौर पर कदम पीछे हटाने’ की बात की थी और कहा था कि कुछ समय के लिए नियन्त्रित तौर पर मँझोले और ऊपरी मँझोले किसानों तथा व्यापारियों को कुछ खुला हाथ देना होगा, और इस बीच पार्टी को विशेष तौर पर गरीब और उन मँझोले किसानों के बीच अपने आधार को मजबूत करना होगा जो कि उजरती श्रम का शोषण नहीं करते, ताकि आगे सामूहिकीकरण की जमीन तैयार की जा सके। इसके लिए मँझोले किसानों को साथ लेने और उनके बड़े हिस्से को समाजवाद पर राजी करने पर लेनिन ने काफी जोर दिया। अगर उस दौर के कुछ लेखों को अलग से उद्धृत किया जाये तो ऐसा प्रतीत हो सकता है कि लेनिन समूची मँझोली किसानी को समाजवाद पर राजी करने की बात कर रहे हैं। लेकिन लेनिन के उतने ही लेख और अन्य सन्‍दर्भ मिल जायेंगे, जिसमें लेनिन ने मँझोली किसानी के दोहरे चरित्र की चर्चा की है और स्पष्ट किया है कि मँझोले किसानों में उजरती श्रम का शोषण करके मुनाफा कमाने वाला और जमाखोरी करने वाला सर्वहारा सत्ता का दुश्मन है। दरअसल, लेनिन उस समय पार्टी के भीतर ‘नई आर्थिक नीतियों’ के प्रश्न पर लड़ रहे थे। ‘‘वामपन्‍थी’’ कम्युनिस्ट विरोध पक्ष इन नीतियों को पूँजीवाद की ओर वापसी करार दे रहा था और यह प्रचार कर रहा था कि ‘युद्ध कम्युनिज्म’ अपवादस्वरूप पैदा हुई स्थितियों की नीतियाँ नहीं थीं, बल्कि वे ही सही कम्युनिस्ट नीतियाँ थीं! कुछ ने तो यहाँ तक कहा कि अगर कुछ और वर्षों तक ‘युद्ध कम्युनिज्म’ की नीतियाँ लागू की जायें तो कम्युनिस्ट समाज की मंजिल में प्रवेश किया जा सकता है! उस समय शुरुआत में त्रात्स्की भी इस ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव के साथ खड़े थे, जिसका नेतृत्व बुखारिन, ओसिंस्की आदि जैसे लोग कर रहे थे। इसलिए एक दूसरे सन्‍दर्भ में अर्थवादियों व गैर-पार्टी क्रान्तिवादियों के विरुद्ध लेनिन द्वारा ही दिये गये रूपक को उधार लेकर कहा जा सकता है कि ‘‘वामपन्‍थी’’ कम्युनिस्टों ने छड़ी को एक ओर मोड़ दिया था, और उसे सीधा करने के लिए लेनिन को उसे दूसरी ओर मोड़ना पड़ा। लेकिन बेतेलहाइम और मावराकिस जैसे लोग इस पूरे ऐतिहासिक सन्‍दर्भ की चर्चा किये बगैर लेनिन का ‘‘अति-माओवादी’’ हस्तगतीकरण करते हैं और दावा करते हैं कि लेनिन ने भी समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में समूची मँझोली किसानी को साथ लेने का नारा दिया था और फिर इसकी तुलना माओ के लेख जनता के बीच अन्‍तरविरोधों को सही ढंग से लागू करने के बारे मेंके उस तर्क से करते हैं जिसके अनुसार समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग भी मित्र वर्ग होगा, जिसे समझा-बुझाकर या ‘‘बदलने पर बाध्य करके’’ समाजवाद के पक्ष में खड़ा किया जा सकता है। वास्तव में, यह माओ की एक चूक थी, जिसे व्यवहारतः माओ ने दुरुस्त भी कर लिया था। लेकिन सैद्धान्तिक तौर पर राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग को ‘‘बदलने पर बाध्य’’ करने की ही बात की गयी थी। मार्क्‍सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र स्पष्ट तौर पर दिखलाता है कि किसी शत्रु वर्ग के कुछ निश्चित व्यक्तियों को बदला जा सकता है या ‘‘बदलने पर बाध्य’’ किया जा सकता है; लेकिन समूचे वर्ग को हम ‘‘बदलने पर बाध्य’’ नहीं कर सकते। यह बात वर्ग संघर्ष के नियम का निषेध करती है। माओ और चीनी पार्टी की इस चूक के कारण बेतेलहाइम व मावराकिस जैसे लोगों को समाजवादी संक्रमण की मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी समझदारी को विकृत करने और उसका हेगेलीय भाववादी हस्तगतीकरण करने का मौका मिला। लेकिन माओ ने तमाम जगहों पर ऐसी बात भी कही है कि मँझोले किसान वर्ग का एक छोटा हिस्सा ही समाजवादी क्रान्ति के पक्ष में खड़ा होगा; सोवियत अर्थशास्त्र की आलोचना में तो माओ यहाँ तक कहते हैं कि जनवादी क्रान्ति की मंजिल में भी निम्न मँझोली किसानी पर ही कम्युनिस्ट पार्टी को निर्भर करना चाहिए और वे स्तालिन की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि उनके दौर के सोवियत लेखन में मँझोले किसानों को एक एकाश्मी वर्ग के तौर पर पेश किया गया है। लेकिन टुकड़ों-टुकड़ों में पेश किये गये सही सूत्रीकरण के बावजूद अधिकांश पार्टी दस्तावेजों और महत्वपूर्ण लेखन में राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के प्रति समाजवाद के दौर में पार्टी के रवैये को लेकर ज्यादातर एक गलत और गैर-लेनिनवादी अवस्थिति प्रकट हुई है। फिलहाल, हम चीनी समाजवाद के प्रयोग के सकारात्मकों व नकारात्मकों के विषय में विस्तृत चर्चा नहीं कर सकते हैं इसलिए त्रात्स्की के सिद्धान्‍त की चर्चा पर वापस लौटते हैं।

त्रात्स्की ने 1905 में लेनिन के चरणों में क्रान्ति के सिद्धान्‍त का खुले तौर पर विरोध किया और इसे सर्वहारा वर्ग के साथ गद्दारी तक करार दिया। एक जगह त्रात्स्की लेनिन को रूसी बुर्जुआ वर्ग के ‘‘वामपन्‍थी’’ धड़े का नेता बनने का प्रयास करने वाला जैकोबिन कहते हैं; एक अन्य जगह त्रात्स्की लेनिन को रूसी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन के प्रतिक्रियावादी धड़े का नेता बताते हैं; लेकिन क्रान्ति के ठीक पहले बोल्शेविकों के साथ आने के बाद त्रात्स्की चोर-दरवाजे से अपने ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त और लेनिन के क्रान्ति के सिद्धान्‍त की अपनी आलोचना में कुछ परिवर्तन करते हैं। 1917 में त्रात्स्की लिखते हैं कि लेनिन का संयुक्त जनवादी तानाशाही का सिद्धान्‍त एक आरजी परिकल्पना (provisional hypothesi) थी, जो कुछ समय के लिए सही थी, जिसका महान ऐतिहासिक मूल्य था। लेकिन त्रात्स्की के अनुसार 1905 और फिर 1917 के अनुभवों ने इस परिकल्पना का अनुमोदन नहीं किया। हम पहले ही दिखला चुके हैं कि त्रात्स्की किस प्रकार 1905 और अक्टूबर 1917 के बीच एक बेतुके किस्म का सादृश्य निरूपण करते हैं, ताकि वे अपने ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त को सही सिद्ध कर सकें। फिर त्रात्स्की ने कहा कि लेनिन के मजदूरों और किसानों की जनवादी तानाशाही का सिद्धान्‍त वास्तव में सर्वहारा अधिनायकत्व के सिद्धान्‍त को ही दूसरे अर्थों में पेश करता है। लेकिन यहाँ त्रात्स्की लेनिन के साथ सीधा संघर्ष करने का साहस खो चुके हैं और अब अपने आप को सही सिद्ध करने और क्रान्ति के लेनिनवादी सिद्धान्‍त को गलत सिद्ध करने के लिए लेनिन के साथ ‘शैडो-बॉक्सिंग’ कर रहे हैं। यहाँ उनका मकसद दोस्ताना शब्दों में अपने क्रान्ति के सिद्धान्‍त को सही बताना और लेनिनवादी सिद्धान्‍त को गलत बताना है और यह सिद्ध करना है कि ‘अप्रैल थीसीज’ में लेनिन चुपके से त्रात्स्कीपन्‍थी बन गये थे! वास्तव में, कई त्रात्स्कीपन्‍थी जैसे कि अर्नेस्ट मैण्डेल व इजाक डॉइशर यह मानते हैं कि अक्टूबर में लेनिन से बेहतर कोई त्रात्स्कीपन्‍थी नहीं था! लेकिन इन कपोल-कल्पनाओं और खुद को खुश करने के ख्यालों के बरक्स सच्चाई कुछ और ही थी।

त्रात्स्की यहाँ मजदूरों व किसानों की संयुक्त तानाशाही और सर्वहारा अधिनायकत्व के बीच के अन्‍तर को धुँधला कर रहे हैं ताकि वे जनवादी क्रान्ति और समाजवादी क्रान्ति के चरणों के बीच की विभाजक रेखा को मिटा सकें और यह सिद्ध कर सकें कि आज के युग में समाजवादी क्रान्ति के अतिरिक्त अन्य किसी भी क्रान्ति की बात करना सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ वर्ग का पिछलग्गू बनाना है। लेकिन वास्तव में लेनिन का सिद्धान्‍त ठीक यही था कि जनवादी क्रान्ति की मंजिल में भी सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ वर्ग का पिछलग्गू नहीं बनना चाहिए और ठीक इसीलिए जनवादी क्रान्ति की मंजिल में भी सर्वहारा वर्ग को अपने आपको एक स्वतन्त्र राजनीतिक प्रवृत्ति के रूप में संगठित करना चाहिए। लेनिन का सिद्धान्‍त वास्तव में जनवादी क्रान्ति को सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक नेतृत्व में सबसे क्रान्तिकारी और आमूलगामी सीमाओं तक ले जाने और फिर वहाँ से समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश करने का सिद्धान्‍त था। उल्टे त्रात्स्की के सिद्धान्‍त के बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि वह सर्वहारा वर्ग के हिरावलपन्‍थी नेतृत्व का दावा करते हुए वास्तव में सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ वर्ग का पिछलग्गू बनाता है। इसका कारण यह है कि त्रात्स्की या तो हर क्रान्तिकारी आन्‍दोलन को समाजवादी मानते थे या फिर उस क्रान्तिकारी आन्‍दोलन को प्रतिक्रियावादी करार देकर सर्वहारा वर्ग को उससे अलग रहने की नसीहत देते थे; यानी अगर कोई आन्‍दोलन बुर्जुआ जनवादी दायरों की माँग उठाता था तो त्रात्स्की उसे भी समाजवादी ही करार देते थे, और इस प्रकार बुर्जुआ लक्ष्यों को ही समाजवादी लक्ष्यों की संज्ञा देते हुए वही काम करते थे, जो कि संशोधनवादी और दक्षिणपन्‍थी अवसरवादी करते हैं; या फिर वह उसे प्रतिक्रियावादी करार देकर सर्वहारा वर्ग को उससे अलग रहने की सलाह देते, जिस सूरत में, बुर्जुआ वर्ग को अपने आपको जनवादी अधिकारों का सबसे बड़ा हिमायती और नायक के रूप में पेश करने का मौका मिलता और सर्वहारा वर्ग राजनीति के मंच पर दरकिनार कर दिया जाता।

चूँकि संशोधनवादी भी कोई समाजवादी संघर्ष खड़ा नहीं करते और जनवादी दायरे से आगे नहीं जाना चाहते इसलिए जनवादी कार्यभारों को पूर्ण करने के लिए होने वाले आन्‍दोलनों व संघर्षों को ही समाजवादी करार देते हैं और मजदूर वर्ग में बुर्जुआ विभ्रम का प्रसार करते हैं और वास्तव में सर्वहारा वर्ग को बुर्जुआ वर्ग का पिछलग्गू और समूचे मजदूर आन्‍दोलन को वस्तुतः बुर्जुआ वर्ग का ‘‘वामपन्‍थी’’ धड़ा बना देते हैं; जाने-अनजाने और ‘‘वामपन्‍थी’’ अवस्थिति की आड़ में त्रात्स्की यही करते हैं। वहीं दूसरी ओर, अगर त्रात्स्की बुर्जुआ जनवादी कार्यभारों या अधिकारों को पूरा करने वाले किसी आन्‍दोलन को समाजवादी करार नहीं दे पाते, तो वे उसे प्रतिक्रियावादी और पश्चगामी करार देते हैं और कहते हैं कि सर्वहारा वर्ग को इसमें शिरकत ही नहीं करनी चाहिए। यह जनवादी आन्‍दोलन में सर्वहारा वर्ग को पूर्णतः निष्क्रिय बना देता है क्योंकि वह जनवादी आन्‍दोलन के भीतर एक अलग क्रान्तिकारी प्रवृत्ति के रूप में अपने आपको संगठित नहीं कर पाता (और वास्तव में इसी कारण से वह जनवादी क्रान्ति के बाद समाजवादी क्रान्ति की तैयारियों के लिए भी संगठित नहीं हो पाता) और बुर्जुआ वर्ग को इस आन्‍दोलन पर बिना किसी चुनौती वर्चस्व स्थापित करने और अन्‍त में अपने आपको जनवाद और जनता के जनवादी अधिकारों का हिमायती बताकर जनता के सामने राजनीतिक नुमाइश करने का मौका देता है।

इसी प्रकार त्रात्स्की यह मानते हैं कि स्थायी क्रान्तिके बाद समाजवादी रूपान्‍तरण के कार्य को ऊपर से राज्यसत्ता द्वारा कार्यकारी निर्णयों के जरिये लागू कर दिया जाना चाहिए। त्रात्स्की कहते हैं कि समाजवादी रूपान्‍तरण के लिए जनता तैयार हो या न हो (यानी कि क्रान्ति की मंजिल जनवादी हो या समाजवादी हो), यदि मजदूरों की सरकार बनती है तो पार्टी वह सरकार चलायेगी और किसी भी सूरत में समाजवादी रूपान्‍तरण को तब तक लागू करेगी जब तक कि उसे सशस्त्र शक्ति से कुचल न दिया जाये! समाजवादी सत्ता स्थापित होने के बाद त्रात्स्की के अनुसार किसानों के साथ कोई रियायत नहीं बरती जानी चाहिए। लेनिन का इस बारे में मानना था कि मजदूर वर्ग को जनवादी क्रान्ति की मंजिल में भी नेतृत्व अपने हाथों में लेने का प्रयास करना चाहिए और बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को सर्वाधिक क्रान्तिकारी तरीके से पूरा करना चाहिए; साथ ही लेनिन का यह भी मानना था कि समाजवादी क्रान्ति और सर्वहारा अधिनायकत्व के स्थापित होने के बाद भी क्रान्तिकारी वर्ग संश्रय में अपने राजनीतिक वर्चस्व और नेतृत्व को कायम रखने के लिए कई बार सर्वहारा वर्ग को अपने तात्कालिक वर्ग हितों को त्यागना पड़ता है। अगर सर्वहारा वर्ग ऐसा न करे तो फिर क्रान्तिकारी वर्ग संश्रय टूटता है, सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक नेतृत्व खण्डित होता है और किसानों के बीच बुर्जुआ वर्चस्व और नेतृत्व स्थापित होते देर नहीं लगती। लेकिन त्रात्स्की के लिए यह सर्वहारा सत्ता का ‘‘आत्म-सीमाबद्धीकरण’’ होगा! वास्तव में त्रात्स्की की नीति लागू होती तो 1920 के दशक में ही सोवियत संघ में सर्वहारा वर्ग पहल, नेतृत्व और वर्चस्व खो बैठता और समाजवादी सत्ता का पतन हो जाता। इसलिए वास्तव में स्थायी क्रान्तिके सिद्धान्‍त के तहत तमाम आमूलगामी और ‘‘वामपन्‍थी’’ जुमलेबाजी करने के बावजूद वास्तव में व्यवहारतः त्रात्स्की मजदूर वर्ग से क्रान्ति के दोनों ही चरणों में हर प्रकार का अभिकरण छीन लेते हैं और उसे बुर्जुआ वर्ग का पिछलग्गू बना देते हैं। लेनिन की कार्यदिशा इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट थी : लेनिन के अनुसार सर्वहारा वर्ग न तो जनवादी आन्‍दोलनों का बहिष्कार करेगा और न ही उन्हें समाजवादी करार देकर अपने आपको जनवादी आन्‍दोलनों के अधीनस्थ में तब्दील करेगा। सर्वहारा वर्ग जनवादी क्रान्ति या आन्‍दोलन में भी एक स्वतन्त्र क्रान्तिकारी प्रवृत्ति के रूप में अपने आपको संगठित करेगा और जनवादी कार्यभारों को सर्वाधिक क्रान्तिकारी तरीके से पूर्ण करने के लिए और साथ ही विशिष्ट मजदूर अधिकारों के लिए लड़ेगा। जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों के पूरा होने के बाद ऐसा सर्वहारा वर्ग ही सही मायनों में समाजवादी क्रान्ति के कार्यभारों की ओर बढ़ने के लिए अपने आपको संगठित और गोलबन्‍द कर सकता है।

त्रात्स्की क्रान्ति को वर्गों के बीच के संघर्षों के किसी निश्चित मंजिल पर पहुँचने की परिणति की बजाय मजदूर वर्ग के हिरावल की एक आत्मगत गतिविधि बना देते हैं, जो वस्तुगत परिस्थितियों की अवहेलना करते हुए अपने ‘‘दिव्य रूप से प्रदत्त या निर्धारित कार्यभार’’ को पूरा करता है! और क्रान्ति के बाद भी हिरावल पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग अपने आपको किसी अवैयक्तिक, आदर्शीकृत, परकीकृत ‘‘इतिहास द्वारा सौंपे गये कार्यभार’’ पूरे करने होते हैं, और इसमें उस समय के वर्ग संघर्ष और विभिन्न मित्र वर्गों की इच्छा की कोई भूमिका नहीं होती है। जनता की इच्छा की अवहेलना को त्रात्स्की वैध ठहराते हुए लिखते हैं कि वर्ग संघर्ष के ‘‘वास्तविक पथ’’ को जनता के बदलते मिजाज पर निर्भर नहीं बनाया जा सकता है। त्रात्स्की के अनुसार, ‘‘सर्वहारा वर्ग क्रान्ति की नियति को सबसे अचेतन और अभी तक और सोये हुए जनसमुदायों के बदलते मिजाज पर कभी भी निर्भर नहीं होने देगा।’’ (लियोन त्रात्स्की, रिजल्ट्स एण्ड प्रॉस्पेक्ट्स, 1919 की प्रस्तावना, पृ. 33-4) यानी कि त्रात्स्की के अनुसार समाजवादी सत्ता को व्यापक मेहनतकश जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति नहीं होना चाहिए, बल्कि हिरावलों की इच्छा की अभिव्यक्ति होनी चाहिए! यही कारण है कि त्रात्स्की सोवियत रूस में समाजवाद की विजय के लिए व्यापक मेहनतकश जनता के समर्थन पर निर्भर नहीं थे, बल्कि उन्नत पूँजीवादी देशों में क्रान्ति पर निर्भर थे!

त्रात्स्की का स्पष्ट मानना था कि सर्वहारा क्रान्ति वैश्विक तौर पर सम्पन्न होगी। 1906 में त्रात्स्की ने लिखा था कि अगर रूस में क्रान्ति होती है तो जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी रूस में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप करेंगे, जो कि क्रान्ति की ज्वाला को इन देशों में ले जायेगा और फिर एक ‘चेन रिऐक्शन’ शुरू होगा जो कि वैश्विक सर्वहारा क्रान्ति में परिणत होगा। त्रात्स्की का मानना था कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो एक देश में समाजवाद का निर्माण हो पाना सम्भव नहीं है, और खास तौर पर रूस जैसे पिछड़े देश में तो बिल्कुल ही असम्भव है, क्योंकि रूसी क्रान्ति को साम्राज्यवादी शक्तियों के समक्ष राजनीतिक चेतना से वंचित बल्कि राजनीतिक चेतना प्राप्त करने में अक्षम किसान आबादी के क्षणभंगुर समर्थन पर निर्भर करना पड़ेगा। बाद में, त्रात्स्की को अपनी इस बात को बदलना पड़ा। 1936 में रूस में सामूहिकीकरण सम्पन्न होने के बाद त्रात्स्की ने 1939 में माना कि रूस में उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण/सामूहिकीकरण ने समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण किया है। हालाँकि, यह सच है कि स्तालिन के समय तक रूस में समाजवादी सत्ता मौजूद थी, लेकिन त्रात्स्की द्वारा इसे समाजवादी मानने का आधार राज्यसत्ता में सर्वहारा वर्ग का अपनी पार्टी के नेतृत्व में कब्जा नहीं था, बल्कि उत्पादन का राष्ट्रीयकरण था, जो कि अपने आप में पूँजीवाद के दायरों का अतिक्रमण नहीं करता। इसीलिए बाद में त्रात्स्की ने कहा था रूस में सामाजिक-आर्थिक क्रान्ति सम्पन्न हो चुकी है और अब रूसी मजदूर वर्ग को नौकरशाही के विरुद्ध तख्तापलट कर सोवियत रूस में राजनीतिक क्रान्ति सम्पन्न करनी चाहिए। सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक क्रान्ति में विभेद का विचार त्रात्स्की ने काऊत्स्की से उधार लिया था। एक देश में समाजवादी निर्माण को लेकर बहस पर हम आगे के अध्यायों में चर्चा करेंगे। अभी हमने इसकी चर्चा सिर्फ त्रात्स्की के ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त के एक परिशिष्ट के रूप में की थी क्योंकि उनके इस ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त का मूल तर्क यही था कि अगर उत्पादन सम्‍बन्‍ध और राज्य की संरचना सामन्‍ती हो तो भी सीधे मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी क्रान्ति होगी और सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना होगी क्योंकि विश्व के पैमाने पर एक कमोबेश एकीकृत बाजार के पैदा होने और इजारेदारियों के पैदा होने के साथ पूरी दुनिया में श्रम और पूँजी का ही अन्‍तरविरोध एकमात्र मुख्य अन्‍तरविरोध बन गया है; इसलिए सीधे समाजवादी क्रान्ति ही होगी और यह किसान वर्ग के किसी भी हिस्से से सचेतन और संगठित समर्थन के बिना होगी क्योंकि किसान वर्ग का कोई स्वतन्त्र राजनीतिक अभिकरण नहीं होता है और वह नियति से ही एक राजनीतिक तौर पर अचेत वर्ग है जो उसी अचेतना के साथ क्रान्ति के बाद मजदूर सत्ता के पक्ष में आ जायेगा, जिस अचेतनता के साथ वह जार या किसी बुर्जुआ सत्ता के पक्ष में जाता; तीसरी बात यह कि ऐसी कोई भी ‘स्थायी क्रान्ति’ जो कि एक ही झटके में जनवादी और समाजवादी क्रान्ति होगी (क्योंकि ‘जो अधिकतम कर सकता है, वह न्यूनतम भी कर सकता है!’) वह हर-हमेशा एक विश्व क्रान्ति होगी क्योंकि एक देश में राजनीतिक रूप से अचेत किसान आबादी के क्षणभंगुर समर्थन के बूते पर साम्राज्यवादी घेरेबन्‍दी के समक्ष समाजवाद का निर्माण हो ही नहीं सकता। इसलिए जब तक विशेष तौर पर पिछड़े देशों में समाजवाद व सर्वहारा अधिनायकत्व की सहायता के लिए उन्नत देशों का सर्वहारा वर्ग नहीं आता तब तक एक देश में समाजवाद के निर्माण की उम्मीद करना व्यर्थ है। त्रात्स्की के एक देश में समाजवाद के निर्माण की असम्भाव्यता के प्रश्न पर और भी कई आर्थिक कारकों की बात त्रात्स्की करते हैं, जिन पर हम यहाँ केवल संक्षेप में बात करेंगे और आगे के अध्यायों में विस्तार से चर्चा करेंगे।

त्रात्स्की के स्थायी क्रान्तिके सिद्धान्‍त को बाद में त्रात्स्कीपन्थियों ने जबरन चीनी इतिहास पर थोपने का भी प्रयास किया। त्रात्स्की ने कहा था कि आने वाली चीनी क्रान्ति में कोई भी ‘‘जनवादी दौर’’ नहीं होगा, और न ही उसमें कोई मजदूरों व किसानों की संयुक्त तानाशाही स्थापित होगी। आने वाली चीनी क्रान्ति सीधे सर्वहारा अधिनायकत्व को स्थापित करके समाजवाद का निर्माण करेगी। चीनी क्रान्ति के 1949 में सम्पन्न होने के बाद से ही विश्व भर में त्रात्स्कीपन्‍थी त्रात्स्की की भविष्यवाणी को सही सिद्ध करने की कवायद में लग गये। कइयों ने तो यहाँ तक कहा कि सतत् क्रान्ति (perpetual revolution) का माओ का सांस्कृतिक क्रान्ति का सिद्धान्‍त वास्तव में त्रात्स्की का ‘स्थायी क्रान्ति’ का सिद्धान्‍त है! जाहिर है कि माओ के अधिरचना में सतत् क्रान्ति के सिद्धान्‍त को त्रात्स्कीपन्थियों ने समझा ही नहीं था और ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त को सही सिद्ध करने के उन्माद में वे कुछ भी बक गये हैं! जहाँ तक 1949 में नवजनवादी क्रान्ति के ‘स्थायी क्रान्ति’ होने या न होने का प्रश्न है तो माओ और चीनी पार्टी ने बार-बार स्पष्ट किया था कि 1949 में चीन में जो क्रान्ति हुई वह एक क्रान्तिकारी जनता के जनवाद के दायरे से आगे नहीं जाती थी; चाहे वह भूमि सुधार का प्रश्न हो (क्रान्ति के तुरन्‍त बाद चीन के 30 करोड़ किसानों में भूमि का पुनर्वितरण किया गया था) या फिर एक जनवादी गणराज्य की स्थापना का प्रश्न हो, चीनी क्रान्ति 1950 के दशक के मध्य से पहले किसी भी रूप में समाजवादी चरण में नहीं मानी जा सकती है। स्वयं माओ ने 1952 में घोषणा की कि अब चीनी क्रान्ति को समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में प्रवेश करना होगा। लेकिन व्यावहारिक तौर पर 1950 के दशक के अन्‍त में खेती के व्यापक सहकारीकरण और सामूहिकीकरण का कार्य शुरू हुआ जो आने वाले दशक में जारी रहा। चीनी पार्टी और माओ ने अपने तमाम लेखन में कहीं भी ‘पर्मानेण्ट रिवोल्यूशन’ (स्थायी क्रान्ति) शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि ‘अनइण्टरप्टेड रिवोल्यूशन’ का इस्तेमाल किया। दरअसल, जर्मन भाषा में मार्क्‍स ने जिस शब्द का प्रयोग किया था उसका अनुवाद दोनों ही रूपों में सम्भव है, ‘स्थायी क्रान्ति’ और ‘सतत् क्रान्ति’। 1905 के पहले अधिकांश मार्क्‍सवादी ‘स्थायी क्रान्ति’ और ‘सतत् क्रान्ति’ दोनों का ही प्रयोग करते थे। मार्क्‍स ने पहली बार इस शब्द का प्रयोग 1844 में नेपोलियन के सन्‍दर्भ में किया था जब उन्होंने कहा था कि नेपोलियन ने स्थायी क्रान्ति की जगह स्थायी युद्ध को दे दी थी (मार्क्‍स-एंगेल्स, अध्याय 6, भाग 3, होली फैमिली, ऑर दि क्रिटीक ऑफ क्रिटिकल क्रिटिसिज्म. अगेंस्ट ब्रूनो बावर एण्ड कम्पनी, अनुवाद हमारा) यहाँ पर स्थायी क्रान्ति से मार्क्‍स व एंगेल्स का अभिप्राय किसी भी क्रान्ति के अपने लक्ष्यों तक पहुँचने से था। इसके बाद मार्क्‍स ने 1850 में इसका प्रयोग कम्युनिस्ट लीग की केन्‍द्रीय कमेटी को अपने भाषण में भी किया और साथ ही ‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष 1848-50’ में भी इसका प्रयोग किया। लेकिन उनके प्रयोग से ही साफ था कि उनका अर्थ सिर्फ इतना था कि (1) जनवादी क्रान्ति के दौर में भी सर्वहारा वर्ग को अपने आपको स्वायत्त रूप से संगठित करना चाहिए और (2) कि सर्वहारा वर्ग को जनवादी क्रान्ति के पूर्ण हो जाने पर रुकना नहीं चाहिए बल्कि उसके बाद इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए उसे सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व और समाजवाद तक जाना चाहिए। मार्क्‍स का तर्क कतई जनवादी क्रान्ति की मंजिल को लाँघने का नहीं था, बल्कि यह था कि यदि सर्वहारा वर्ग अपने आपको स्वतन्त्र रूप से संगठित नहीं करता तो फिर वह जनवादी क्रान्ति पर ही रुक जायेगा जबकि सर्वहारा वर्ग की जिम्मेदारी है जनवादी क्रान्ति पर रुके बगैर समाजवाद और सर्वहारा अधिनायकत्व तक जाना। मार्क्‍स द्वारा इस्तेमाल किये गये शब्द का रूसी में दो सम्भव अनुवाद है : पहला, पर्मानेण्टनाया और दूसरा नेप्रेरिव्नाया। पहले शब्द का अनुवाद ‘स्थायी’ होगा जबकि दूसरे का ‘सतत्’। जब तक त्रात्स्की ने मार्क्‍स का लासालवादी नियोजन करने का प्रयास करते हुए अपना ‘स्थायी क्रान्ति’ का सिद्धान्‍त नहीं पेश किया था तब तक कोई विवाद नहीं था। लेकिन जब उन्होंने ऐसा कर दिया तो लेनिन ने भी हर जगह ‘सतत् क्रान्ति’ शब्द का प्रयोग किया और माओ और चीनी पार्टी ने भी इस परम्परा को जारी रखा ताकि त्रात्स्कीपन्‍थी हिरावलपन्‍थ के साथ कोई भ्रम न पैदा हो। माओ और चीनी पार्टी ने चीनी क्रान्ति के दोनों चरणों की हमेशा स्पष्ट पहचान की और उनके तहत बनने वाले दोनों प्रकार के वर्ग संश्रयों में भी फर्क किया, हालाँकि राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग और धनी किसानों को लेकर सैद्धान्तिक तौर पर चीनी पार्टी और माओ के लेखन में एक विचलन भी देखने को मिलता है। बहरहाल, किसी भी अर्थ में माओ व चीनी पार्टी ने चीनी क्रान्ति को ‘स्थायी क्रान्ति’ के रूप में नहीं बल्कि चरणों में सम्पन्न हुई क्रान्ति के रूप में ही देखा। त्रात्स्कीपन्थियों का ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त को चीनी इतिहास और माओ के लेखन पर थोपने का प्रयास हास्यास्पद है। माओ ने स्पष्ट किया कि पहला चरण सर्वहारा वर्ग शहरी और ग्रामीण निम्न पूँजीपति वर्ग के साथ मोर्चा बनाकर सम्पन्न करेगा जबकि दूसरे चरण में चीनी समाजवादी क्रान्ति मुख्य रूप से सर्वहारा वर्ग, अर्द्धसर्वहारा वर्ग और गरीब व निम्न मँझोले किसानों पर निर्भर करेगी।

यहाँ आगे बढ़ने से पहले हम एक नुक्ते पर कुछ स्पष्टीकरण देना चाहेंगे। निश्चित रूप से, जिन भी देशों में सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को पूरा करती वहाँ पर जनवादी क्रान्ति से समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में संक्रमण बेहद जटिल होता, जैसा कि चीन में हुआ। इसका कारण स्पष्ट है। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जनवादी क्रान्ति सम्पन्न होती है जिसमें कि मजदूर वर्ग, ग्रामीण व शहरी निम्न पूँजीपति वर्ग और मध्यवर्ग कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में क्रान्ति में हिस्सेदारी करते हैं। इसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आती है और सभी जनवादी कार्यभारों को सर्वाधिक आमूलगामी ढंग से सम्पन्न करती है और इसके बाद समाजवादी क्रान्ति की मंजिल की शुरुआत होती है। अभी भी कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व और सरकार कायम रहते हैं लेकिन वर्ग संश्रय में से ग्रामीण व शहरी निम्न पूँजीपति वर्ग यानी कि छोटा राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग और धनी किसान अलग हो जाते हैं क्योंकि पूरे के पूरे वर्ग को सामूहिकीकरण और राष्ट्रीयकरण पर सहमत नहीं किया जा सकता है, उसके कुछ सदस्यों को ही समाजवादी कार्यक्रम पर सहमत किया जा सकता है। ऐसे में, जनवादी क्रान्ति में मित्र वर्गों की भूमिका में रहने वाले ये वर्ग समाजवादी क्रान्ति के विरुद्ध अवस्थिति अपनायेंगे और वहाँ से सत्ता का चरित्र मजदूरों व किसानों की संयुक्त तानाशाही नहीं हो सकता, बल्कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही ही हो सकता है। दूसरी बात, यह पूरी संक्रमण की प्रक्रिया सहज-सरल नहीं हो सकती; यह निश्चित तौर पर बेहद उथल-पुथल भरी होगी जिसमें कि समाज में जारी वर्ग संघर्ष बेहद तीखा हो जायेगा और यह हिंस्र रूप भी अख्तियार कर सकता है। चीन में 1956-57 से लेकर माओ की मृत्यु तक पार्टी के भीतर और बाहर जो भयंकर वर्ग संघर्ष चला वह वास्तव में नवजनवादी क्रान्ति से समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में संक्रमण की जटिलताओं और बाधाओं का ही परिणाम था। भले ही स्वयं माओ और चीनी पार्टी के दस्तावेजों में समूचे राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग को ‘‘बदलने के लिए बाध्य’’ करने की बात की गयी हो, लेकिन वास्तव में यह वर्ग का बदलना नहीं बल्कि वर्गों का संघर्ष था जो अपने आपको पार्टी के भीतर भी भयंकर संघर्ष के रूप में पेश कर रहा था और समाज में भी भयंकर राजनीतिक संघर्ष के रूप में पेश कर रहा था।

इसी से जुड़ी हुई यह बात भी है कि सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में जनवादी क्रान्ति (यानी कि नवजनवादी क्रान्ति या जनता की जनवादी क्रान्ति) की स्थिति इतिहास में कोई स्थायी स्थिति नहीं हो सकती थी; दूसरे शब्दों में, नवजनवादी क्रान्ति का सिद्धान्‍त एक बेहद विशिष्ट स्थिति में पैदा हुआ सिद्धान्‍त था और उस स्थिति के लिए वह बिल्कुल सटीक था, लेकिन यह कोई सामान्य मॉडल नहीं हो सकता। श्रम और पूँजी के बीच अन्‍तरविरोध के पूरे इतिहास में नवजनवादी/जनता की जनवादी क्रान्ति की मंजिल एक छोटा दौर या क्षण ही हो सकती थी और वह क्षण अब बीत चुका है। क्रान्तिकारी अथवा गैर-क्रान्तिकारी रास्ते से लगभग समूचे विश्व में साम्राज्यवाद के उपनिवेशवादी दौर के बीतने के साथ और पिछड़े पूँजीवादी देशों में क्रमिक प्रक्रिया अथवा द्रुत गति से/झटके से सामन्‍ती सम्‍बन्‍धों के खात्मे और पूँजीवादी रूपान्‍तरण के साथ कई ऐसे जटिल प्रश्न द्वन्‍द्वात्मक ऐतिहासिक गति से हल हो चुके हैं, जो कि बीसवीं सदी के एक खास दौर में इतिहास ने कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के समक्ष पेश किये थे। आज दुनिया भर के तमाम उत्तर-औपनिवेशिक समाज किसी न किसी हद तक पूँजीवादी विकास कर चुके हैं और वहाँ सामन्‍ती उत्पादन सम्‍बन्‍ध या तो समाप्त हो चुके हैं या फिर उनके अवशेष मात्र बाकी हैं। आज दुनिया के इन तमाम देशों में नये प्रकार की समाजवादी क्रान्तियों की मंजिल है। इस विषय पर विस्तृत चर्चा करने के लिए यह जगह उपयुक्त नहीं है और आगे हम नयी समाजवादी क्रान्ति की मंजिल पर अपनी अवस्थिति को स्पष्ट करेंगे। लेकिन फिलहाल हम त्रात्स्कीपन्‍थ की आलोचना के मुद्दे पर लौटते हैं।

त्रात्स्की के लिए नवजनवादी क्रान्ति की कोई मंजिल नहीं होगी और मजदूर वर्ग अपनी हिरावल पार्टी के नेतृत्व में सत्ता पर कब्जा कर सर्वहारा अधिनायकत्व और समाजवाद की स्थापना करेगा। त्रात्स्की के लिए किसी भी सामाजिक संरचना में प्रधान अन्‍तरविरोध श्रम और पूँजी के बीच का अन्‍तरविरोध ही होगा क्योंकि विश्व पैमाने पर यह अन्‍तरविरोध प्रमुख बन चुका है। सामन्‍तवाद और जनसमुदायों के बीच और साम्राज्यवाद और जनसमुदायों की बीच के अन्‍तरविरोधों को या तो नजरअन्‍दाज कर दिया जाता है या फिर उन्हें भी श्रम और पूँजी के अन्‍तरविरोध में ही अपचयित कर दिया जाता है। इस प्रकार त्रात्स्की दिक् और काल से स्वतन्त्र एक कठमुल्लावाद का अनुसरण करते हैं। त्रात्स्की मानते हैं कि किसी एक देश में समाजवाद का निर्माण नहीं हो सकता है और अगर किसी पिछड़े देश में समाजवादी क्रान्ति होती है तो फिर उसका जीवित रहना इस बात पर निर्भर करता है कि उन्नत देशों में क्रान्ति होती है या नहीं। इस प्रकार त्रात्स्की प्रमुख अभिकरण ‘कमजोर कड़ियों’ को नहीं बल्कि ‘मजबूत कड़ियों’ को देते हैं, यानी कि उन्नत देशों के सर्वहारा वर्ग को। यह सिद्धान्‍त स्पष्टतः लेनिन के क्रान्ति के सिद्धान्‍त के विरोध में खड़ा है, जिसके अनुसार पहले विश्व पूँजीवाद की ‘कमजोर कड़ियाँ’ टूटेंगी; लेनिन के काल में ये कमजोर कड़ियाँ औपनिवेशीकृत देश थे जहाँ के राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध लगातार साम्राज्यवाद पर चोट कर रहे थे, और आज के युग में उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी समाज वे कमजोर कड़ियाँ हैं, जहाँ देशी और विदेशी पूँजी का गठजोड़ सर्वहारा वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग को लूट रहा है। लेनिन ने उस दौर में कहा था कि सर्वहारा वर्ग को इन राष्ट्रीय जनवादी क्रान्तियों में अपने आपको एक स्वतन्त्र प्रवृति के रूप में संगठित करना चाहिए और इस पहले चरण को पूरा करके दूसरे चरण यानी कि समाजवाद के लिए संघर्ष की ओर बढ़ना चाहिए।

अन्‍त में कह सकते हैं कि त्रात्स्की का ‘स्थायी क्रान्ति’ का सिद्धान्‍त क्रान्ति के मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्‍त के विरोध में खड़ा एक सिद्धान्‍त है जो कि किसी भी समाज के विशिष्ट अन्‍तरविरोधों को नजरअन्‍दाज करते हुए विश्व पैमाने पर प्रमुख बन चुके अन्‍तरविरोध से उस समाज के क्रान्ति की मंजिल को निगमित करता है। यह सिद्धान्‍त जनवादी क्रान्ति की मंजिल को लाँघने की वकालत करता है और कहता है कि वर्ग संघर्ष की ऐतिहासिक प्रक्रिया आम तौर पर कई चरणों को लाँघकर आगे बढ़ती है। त्रात्स्की इस बात को समझने में असफल रहे कि अगर किन्हीं विशेष परिस्थितियों में जनवादी क्रान्ति से समाजवादी क्रान्ति के बीच की प्रक्रिया सतत् या निरन्‍तर बन जाये तो भी दोनों चरणों के बीच फर्क होगा क्योंकि दोनों चरणों में क्रान्ति के मित्र व शत्रु वर्गों में फर्क आ जायेगा और इस प्रकार वर्ग संश्रय बदल जायेगा। त्रात्स्की किसी भी समाज में विशिष्ट अन्‍तरविरोधों को नहीं समझ सकते हैं, क्योंकि उनके लिए विशिष्ट अन्‍तरविरोध सामान्य व सार्वभौमिक अन्‍तरविरोध से निर्धारित हो जाते हैं। यानी कि अगर विश्व के पैमाने पर पूँजी और श्रम का अन्‍तरविरोध प्रमुख बन चुका है तो हर देश में समाजवादी क्रान्ति की ही मंजिल है! इस समझदारी का नतीजा यह होता है कि त्रात्स्कीपन्‍थी किसी भी देश में क्रान्ति के ठोस प्रश्नों पर कभी कोई ठोस चिन्‍तन नहीं कर पाते और इसीलिए वे अपने सिद्धान्‍त को परखने के लिए भी अपने प्रयोगों पर निर्भर नहीं कर सकते। क्योंकि वे अपने कोई प्रयोग कर ही नहीं पाते हैं! और दूसरों के प्रयोगों को वे किसी भी तरह जबरन ‘स्थायी क्रान्ति’ के ढाँचे में बिठाने की कोशिश करते हैं जैसा कि उन्होंने चीनी क्रान्ति के मामले में किया। त्रात्स्कीपन्‍थी किसी भी देश की विशिष्ट परिस्थितियों को भूल जाते हैं और यह भी भूल जाते हैं कि क्रान्ति का प्रश्न राज्यसत्ता का प्रश्न है और विश्व बाजार और इजारेदारियों के अस्तित्व में आने के बाद भी पूँजीवादी दुनिया में राज्यसत्ता राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित है, और साम्राज्यवाद के उन्नत से उन्नत दौर में यही हो सकता है; किसी एकध्रुवीय साम्राज्यवादी विश्व या अति-साम्राज्यवाद की बात करना काऊत्स्की की साम्राज्यवाद की थीसिस की ओर जाना है; लेनिन के साम्राज्यवाद का सिद्धान्‍त इजारेदारियों के उदय को प्रतिस्पर्द्धा के खात्मे के तौर पर नहीं देखता, बल्कि इसे प्रतिस्पर्द्धा के और ज्यादा गलाकाटू और सघन होते जाने की अभिव्यक्ति मानता है; यह ‘‘मुक्त व्यापार’’ और ‘‘मुक्त प्रतियोगिता’’ के आदर्शीकृत बुर्जुआ सिद्धान्‍त का निषेध भी है और विस्तार भी; या कह सकते हैं कि इजारेदार पूँजीवाद ‘‘मुक्त व्यापार’’ पूँजीवाद का विस्तार है और ठीक इसीलिए उसका निषेध भी है। लेनिन साम्राज्यवाद के उदय में पूँजीवाद के असमाधेय होने की हद तक तीखे होते अन्‍तरविरोधों को देखते हैं और मानते हैं कि ऐसी कोई मंजिल नहीं आयेगी जब किसी एक साम्राज्यवादी शक्ति के मातहत किसी एकध्रुवीय विश्व का उदय होगा। साम्राज्यवाद के दौर में राष्ट्र-राज्यों की भूमिका बदल जाती है, समाप्त नहीं होती और शायद इसीलिए त्रात्स्की के समय से लेकर आज तक कई सिद्धान्‍तकारों के लिए इस बदलती भूमिका ने समाप्त होने का दृष्टिभ्रम पैदा किया है। वास्तव में, आज भी यदि किसी भी देश में क्रान्ति करनी है तो उस देश की राज्यसत्ता के विशिष्ट चरित्र, वहाँ के उत्पादन सम्‍बन्‍धों और उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर और उनके संघर्ष के फलस्वरूप होने वाले वर्ग संघर्ष के चरित्र को समझना होगा और उसके अनुसार ही क्रान्ति का कार्यक्रम निर्धारित करना होगा। यानी, सम्‍बन्धित देश की ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करना होगा; अन्‍तरविरोधों की सार्वभौमिकता और विशिष्टता दोनों को ही समझना होगा। लेकिन त्रात्स्की इस द्वन्‍द्वात्मक विश्लेषण में यकीन ही नहीं रखते। उनकी पद्धति कठमुल्लावादी आधिभौतिकवाद और निगमनवाद की पद्धति है। त्रात्स्की सिद्धान्‍त और व्यवहार के बीच के द्वन्‍द्वात्मक सम्‍बन्‍धों को समझने में नाकाम रहे। उनके लिए एक बार प्रतिपादित कर दिये गये सिद्धान्‍त हमेशा के लिए व्यवहार का निर्देशन करने का काम करते हैं। यह सच है कि क्रान्तिकारी सिद्धान्‍त क्रान्तिकारी व्यवहार का मार्गदर्शन करते हैं, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि यह क्रान्तिकारी सिद्धान्‍त स्वयं सामाजिक व्यवहार के लम्‍बे अनुभवों का ही द्वन्‍द्वात्मक भौतिकवादी सामान्यीकरण होते हैं और यह कि इन क्रान्तिकारी सिद्धान्‍तों को क्रान्तिकारी व्यवहार द्वारा बार-बार उन्नत और विकसित होना होता है। त्रात्स्की के लिए सिद्धान्‍त हमेशा के लिए एक बार समाधान उपस्थित कर देता है जिसे कि व्यवहार में लागू किया जाना होता है।

त्रात्स्की कभी अन्‍तरविरोधों के सन्धि-बिन्‍दु (conjuncture) को नहीं समझ पाते थे। उनके लिए बुनियादी अन्‍तरविरोध हर सूरत में प्रधान अन्‍तरविरोध होता था। इसका कारण यह था कि वह हमेशा एक सिद्धान्‍तवादी अवस्थिति से प्रस्थान करते थे। जैसा कि लेनिन ने कहा था, त्रात्स्की हमेशा सामान्य सिद्धान्‍तों से चिपके रहते थे। वह कभी नहीं समझ पाते थे कि किसी भी स्थिति में कई अन्‍तरविरोध होते हैं, उनमें से कुछ मुख्य होते हैं, जबकि एक अन्‍तरविरोध प्रधान होता है और प्रधान अन्‍तरविरोध का एक प्रधान पहलू होता है। उनके लिए प्रधान अन्‍तरविरोध हमेशा एक कठमुल्लावादी, किताबी तरीके से निर्धारित हो जाता है। वह यह भी नहीं समझ पाते थे कि प्रधान और गौण पहलू कई बार बदल जाया करते हैं। इसलिए वह हमेशा ‘सामान्य’/‘सार्वभौमिक’ को समझते थे लेकिन हमेशा ‘विशिष्ट’ को देखने से चूक जाते थे। इसलिए त्रात्स्की के प्रेक्षण वहाँ-वहाँ सही प्रतीत होते हैं जहाँ ‘सामान्य’ और ‘विशिष्ट’ एक-दूसरे को अतिच्छादित करते हैं। चूँकि त्रात्स्की अपने समाधानों/विकल्पों का निर्माण वास्तविक अन्‍तरविरोधों के आधार पर नहीं करते बल्कि एक कठमुल्लावादी सिद्धान्‍तवादी ढंग से करते हैं, इसलिए वे इन समाधानों को लागू करने के लिए राजनीति और जनदिशा पर भरोसा नहीं करते, बल्कि ऊपर से किसी प्रशासनिक समाधान का रास्ता तलाशते हैं। इसका कारण यह है कि त्रात्स्की क्रान्ति का सिद्धान्‍त वास्तविक अन्‍तरविरोधों के आधार पर नहीं निर्मित करते; इसके विपरीत वह वास्तविक जगत में सिद्धान्‍त की एक दर्पण छवि का निर्माण करने के मंसूबे बनाते हैं, हालाँकि सिद्धान्‍त भी उन्होंने विकृत रूप में समझे होते हैं या फिर समझे ही नहीं होते।

क्रान्ति के सिद्धान्‍त को लेकर त्रात्स्की और लेनिन के बीच जो विवाद हुआ वह फरवरी क्रान्ति से पूर्व त्रात्स्कीपन्‍थ से बोल्शेविज्म के संघर्ष का सबसे प्रमुख मुद्दा बना। लेनिन का क्रान्ति का सिद्धान्‍त 1905 से लेकर 1917 तक के ऐतिहासिक अनुभवों से सही सिद्ध हुआ और बाद में त्रात्स्की ने तरह-तरह की बौद्धिक कलाबाजियाँ करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि अक्टूबर 1917 की घटनाओं ने उनके ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त को सही सिद्ध किया और साथ ही यह भी साबित करने का प्रयास किया कि लेनिन ने बाद में त्रात्स्की के क्रान्ति के सिद्धान्‍त को अपना लिया। लेकिन यह प्रयास त्रात्स्की ने खुलकर लेनिन की मृत्यु के बाद किये। 1924 में त्रात्स्की ने लेसंस ऑफ अक्टूबर नामक रचना में बोल्शेविक क्रान्ति को ‘स्थायी क्रान्ति’ सिद्ध करने का प्रयास किया। लेकिन उनकी इस रचना की आलोचना करते हुए स्तालिन, क्रुप्सकाया, बुखारिन, जिनोवियेव, आदि ने कई लेख लिखे और त्रात्स्की के इन प्रयासों को अनावृत्त किया। ‘स्थायी क्रान्ति’ के पूरे सिद्धान्‍त पर विस्तार से चर्चा की इसलिए जरूरत थी क्योंकि यह त्रात्स्की का सबसे अहम सिद्धान्‍त है जिसमें कि उनकी पूरी पहुँच और पद्धति साफ तौर पर दिखलायी देती है। त्रात्स्की की अन्य प्रश्नों पर अवस्थिति को भी समझना हमारे लिए आसान हो जायेगा, अगर हम ‘स्थायी क्रान्ति’ के त्रात्स्कीपन्‍थी सिद्धान्‍त और उसके पूरे सन्‍दर्भ को अच्छी तरीके से समझ लें। फरवरी 1917 से पहले जो दूसरा अहम विवाद (वास्तव में यह विवाद क्रान्ति की मंजिल और चरित्र के प्रश्न पर हुए मतभेद से पहले ही हो गया था) त्रात्स्की और लेनिन के बीच हुआ, वह था पार्टी सिद्धान्‍त को लेकर।

  1. ii) सांगठनिक कार्यदिशा के प्रश्न पर त्रात्स्की से लेनिन का संघर्ष

त्रात्स्की के साथ जिस मुद्दे पर संघर्ष की शुरुआत हुई वह वास्तव में त्रात्स्की का ‘स्थायी क्रान्ति’ का गैर-मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त नहीं था, बल्कि सांगठनिक कार्यदिशा का प्रश्न था। सांगठनिक दिशा के प्रश्न पर अक्सर त्रात्स्की को आम तौर पर बस एक मेंशेविक ठहरा दिया जाता है क्योंकि 1903 से लेकर 1917 के बीच त्रात्स्की की अवस्थिति व्यवहारतः अक्सर मेंशेविकों की अवस्थिति से मेल खाती थी। लेकिन त्रात्स्की को महज मेंशेविक बता देना पूरे मसले का अतिसरलीकरण होगा और विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रचार के मसले में कार्यकर्ताओं का उद्वेलन करने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिए, जैसा कि मार्क्‍सवाद-विरोधियों के सिद्धान्‍तों की आलोचना करते हुए कई बार क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी कर बैठती हैं।

त्रात्स्की का वास्तव में कोई सांगठनिक सिद्धान्‍त था ही नहीं, या यूँ कहें कि कोई सांगठनिक सिद्धान्‍त न होना ही त्रात्स्की का सांगठनिक सिद्धान्‍त था। अपने पूरे राजनीतिक जीवन में त्रात्स्की अपनी जरूरत के मुताबिक गैर-पार्टीवाद और अतिकेन्‍द्रीयता के बीच; नौकरशाहाना केन्‍द्रीयता और गुटवाद (factionalism) हिरावलपन्‍थ और स्वतःस्फूर्ततावाद के बीच झूलते रहे। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि त्रात्स्की का सांगठनिक सिद्धान्‍त व्यवहारवाद और अवसरवाद था। त्रात्स्की ने जब खुले तौर पर जनवादी केन्‍द्रीयता के लेनिनवादी उसूलों का विरोध किया तब भी वह सांगठनिक सिद्धान्‍त की किसी समझदारी के बिना ऐसा कर रहे थे, और जब 1917 में त्रात्स्की ने बोल्शेविक पार्टी में शामिल होने का फैसला किया और उसके पार्टी सिद्धान्‍त को ‘‘अपनाया’’ तब भी त्रात्स्की ने न तो कोई विचारधारात्मक रूप से सुसूचित अवस्थिति अपनायी थी, और न ही पहले के दौर में बोल्शेविक पार्टी सिद्धान्‍त का विरोध करने पर अपनी कोई अर्थपूर्ण आत्मालोचना रखी थी।

जनवादी केन्‍द्रीयता का सिद्धान्‍त किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी के संगठन के लिए केन्‍द्रीय महत्व का प्रश्न है। एक ऐसी पार्टी जिसने जनता के साथ जीवन्‍त रिश्ता बरकरार रखते हुए यानी कि क्रान्तिकारी जनदिशा लागू करते हुए अपनी कार्यदिशा निर्धारित की हो, और जिसके पास कार्यदिशा निर्धारित हो जाने के बाद उस पर निर्णायक अमल के लिए एक अनुशासित और केन्‍द्रीकृत सांगठनिक ढाँचा और नेतृत्व है, वही पार्टी जनता के बिखरे हुए जनसंघर्षों को एक सूत्र में पिरोकर उसे पूँजीवाद-विरोधी समाजवादी क्रान्ति का रूप दे सकती है। कम्युनिस्ट पार्टी में जनवाद और केन्‍द्रीयता के बीच एक द्वन्‍द्वात्मक रिश्ता होता है। जहाँ एक ओर पार्टी की कार्यदिशा और नेतृत्व को निर्धारित करने की प्रक्रिया में जनता से पार्टी का जीवन्‍त सम्‍बन्‍ध और कार्यकर्ताओं की भूमिका अहम होती है, वहीं एक बार कार्यदिशा और नेतृत्व के निर्धारित होने के बाद पार्टी पूर्ण केन्‍द्रीयता और अनुशासन के साथ उसे लागू करती है। इस पार्टी सिद्धान्‍त का विकास यूरोपीय सामाजिक जनवादी आन्‍दोलन के शुरुआती दौर में ही भ्रूण रूप में होने लगा था, लेकिन इस सिद्धान्‍त को मुकम्मिल तौर पर विकसित करने का कार्य लेनिन ने किया। त्रात्स्की लेनिन के इस सांगठनिक सिद्धान्‍त को समझने में असफल रहे।

सांगठनिक उसूलों के प्रश्न पर त्रात्स्की की अवस्थिति लगातार बदलती रही। त्रात्स्की इस मामले में हमेशा ‘‘वाम’’ और दक्षिण के बीच में एक पक्के व्यवहारवादी, अवसरवादी और व्यक्तिवादी के रूप में दोलन करते रहे। इसका मूल कारण यह था कि त्रात्स्की पार्टी और वर्ग के बीच के द्वन्‍द्वात्मक सम्‍बन्‍धों को कभी समझ ही नहीं सके। कभी तो वे इन दोनों, यानी पार्टी और वर्ग, में फर्क ही नहीं कर पाते थे और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी व गैर-पार्टी क्रान्तिवाद की अवस्थिति अपना लेते थे, तो कभी वे नौकरशाहाना केन्‍द्रीयता व हिरावलपन्‍थी अवस्थिति अपना लेते थे। साथ ही, त्रात्स्की पार्टी के भीतर भी नेतृत्व और काडर के बीच के द्वन्‍द्वात्मक सम्‍बन्‍धों को कभी नहीं समझ पाये। कभी वह केन्‍द्रीयता के नाम पर नेतृत्व की नौकरशाहाना तानाशाही का समर्थन करते थे तो कभी पार्टी में जनवाद के रूप में गुटवाद का समर्थन करते थे। इसका मूल कारण त्रात्स्की के गैर-द्वन्‍द्वात्मक निगमनवादी पद्धति में निहित था, जो उन्हें कभी किसी नतीजे पर पहुँचाती थी तो कभी किसी और नतीजे पर। साथ ही, त्रात्स्की का व्यक्तिवादी और अहंवादी व्यक्तित्व भी उनकी समूची समझदारी को निर्धारित करने में एक सहायक कारक की भूमिका निभाता था। पार्टी सिद्धान्‍त पर त्रात्स्की के नजरिये को ऐतिहासिक तौर पर देखने से उसे ज्यादा बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

1901 में त्रात्स्की ने पहली बार पार्टी सिद्धान्‍त पर अपने कुछ बिखरे हुए विचार पेश किये। इसमें त्रात्स्की ने एकदम स्पष्ट शब्दों में एक प्रकार की नौकरशाहाना केन्‍द्रीयता की वकालत की। 1901 में लिखे गये इस लेख से लिये गये इस उद्धरण पर गौर करें : ‘‘अगर कोई स्थानीय संगठन…केन्‍द्रीय कमेटी की पूर्ण शक्तियों को मान्यता देने से इंकार करता है, तो केन्‍द्रीय कमेटी इससे अपने सम्‍बन्‍ध खत्म कर लेगी और इस प्रकार उस संगठन को क्रान्ति के समूचे विश्व से काट देगी।’’ (लियोन त्रात्स्की, इन डिफेन्स ऑफ मार्क्सिज्म, मेरिट पब्लिशर्स, न्यूयॉर्क, पृ. 49, अनुवाद हमारा)। त्रात्स्की यहाँ महज एक क्रान्तिकारी संगठन के अनुशासन की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि एक नौकरशाहाना केन्‍द्रीयता और निरंकुशता की बात कर रहे हैं। निश्चित तौर पर, दो लाइनों के संघर्ष के बाद भी यदि कोई स्थानीय इकाई या कमेटी केन्‍द्रीय कमेटी के प्राधिकार को स्वीकार नहीं करती है, तो केन्‍द्रीय कमेटी उससे अपने सम्‍बन्‍ध तोड़ लेगी। लेकिन ‘‘क्रान्ति के पूरे विश्व’’ से उस संगठन को काट देने का क्या अर्थ हो सकता है?

1903 में त्रात्स्की रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी की दूसरी कांग्रेस में शामिल हुए थे। इस कांग्रेस में शुरुआती दौर में त्रात्स्की ने लेनिन के पक्ष में खड़े होकर अर्थवादियों की आलोचना की और एक बार फिर से कठोर शब्दों में नौकरशाहाना केन्‍द्रीयता का समर्थन किया। उन्होंने अर्थवादियों पर लेनिन से भी ज्यादा कठोरता के साथ हमला किया और इसके कारण कांग्रेस में वह लेनिन की कार्यदिशा के सेनापति प्रतीत हो रहे थे। त्रात्स्की के हमलों के कारण अर्थवादियों ने बोल्शेविक नेतृत्व और इस्क्रावादियों पर गैर-जनवादी और तानाशाहाना रवैये का आरोप लगाया। त्रात्स्की ने यहाँ तक कहा कि पार्टी संहिताओं को ‘‘पार्टी सदस्यों पर नेतृत्व के संगठित अविश्वास को अभिव्यक्त करना चाहिए, एक ऐसा अविश्वास जो कि अपने आपको पार्टी में ऊपर से निगरानी और नियन्त्रण के रूप में अभिव्यक्त करेगा।’’ लेकिन जल्द ही त्रात्स्की ने अचानक एक पलटी खायी और लेनिन के पार्टी सिद्धान्‍त और हिरावल पार्टी की अवधारणा पर पुरजोर शब्दों में हमला शुरू कर दिया। त्रात्स्की ने दलील दी कि पार्टी और वर्ग के बीच सम्‍बन्‍ध के बारे में लेनिन द्वारा ‘क्या करें?’ में प्रस्तुत किया गया विचार गलत है। रिपोर्ट ऑफ दि साईबेरियन डेलीगेशन (1903) में त्रात्स्की ने लेनिन के सांगठनिक सिद्धान्‍त पर हमला बोलते हुए कहा कि लेनिन एक जैकोबिनवादी और प्रतिस्थापनवादी हैं; अगर लेनिन का सांगठनिक सिद्धान्‍त लागू हुआ तो पार्टी वर्ग को प्रतिस्थापित कर देगी, केन्‍द्रीय कमेटी पार्टी को प्रतिस्थापित कर देगी और अन्‍ततः एक तानाशाह केन्‍द्रीय कमेटी को विस्थापित कर देगा। त्रात्स्की ने लेनिन के इस विचार का भी विरोध किया कि मजदूर वर्ग के आन्‍दोलन में सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना बाहर से प्रवेश करती है और मजदूर वर्ग स्वतःस्फूर्त तौर पर ट्रेडयूनियनवादी चेतना से आगे नहीं जा सकता है और इस तरह त्रात्स्की उन्हीं स्वतःस्फूर्ततावादी अर्थवादियों के पक्ष में जा खड़े हुए जिन पर अभी कुछ ही समय पहले त्रात्स्की इतने हमले कर रहे थे! त्रात्स्की ने लेनिन पर मार्क्‍सवाद और जैकोबिनवाद का मिश्रण करने का आरोप लगाया। त्रात्स्की ने लेनिन पर गालियों की बौछार करते हुए उन्हें ‘रॉब्सपियेर का कैरीकेचर’, ‘हमारी पार्टी के प्रतिक्रियावादी धड़े का नेता’, ‘केन्‍द्रीयता का संरक्षक’ कहा। अपनी रचना हमारे राजनीतिक कार्यभार (1904) में त्रात्स्की ने लेनिन पर आक्षेप लगाते हुए कहा कि लेनिन मार्क्‍सवाद को छोड़ रहे हैं और रूसी बुर्जुआ जनवाद के ‘‘वामपन्‍थी’’ धड़े का नेता बनने का प्रयास कर रहे हैं। वास्तव में, शुरुआत में लेनिन पर यह आरोप एक्सेलरोद ने लगाया था और त्रात्स्की ने यह बात ज्यों की त्यों एक्सेलरोद से उधार ले ली थी। त्रात्स्की के विचार हिरावल पार्टी की अवधारणा के प्रश्न पर मेंशेविकों की सोच, रोजा लक्जेमबर्ग की सोच और जर्मन कम्युनिस्ट आन्‍दोलन के ‘‘वामपन्‍थी’’ धड़े का एक विकृत मिश्रण थे जिनका यह मानना था कि पूरे के पूरे वर्ग बिना किसी अभिकर्ता की मध्यस्थता के बिना प्रत्यक्ष राजनीतिक कार्रवाई में सक्षम होते हैं। ‘हमारे राजनीतिक कार्यभार’ में त्रात्स्की ने दलील दी कि लेनिन का यह सिद्धान्‍त कि मजदूर आन्‍दोलन में समाजवादी विचारधारा बाहर से आती है, एक प्रकार का ‘‘रूढ़िवादी धर्मतन्त्र’’ (orthodox theocracy) है और यह पार्टी द्वारा मजदूर वर्ग की इच्छाओं की अवहेलना करने का दूसरा नाम है। आप देख सकते हैं कि यहाँ त्रात्स्की की अवस्थिति अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों के बिल्कुल निकट पड़ती है, जिनकी आलोचना हम पिछले अध्याय में पेश कर चुके हैं। यह ताज्जुब की बात नहीं है कि मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शनके सुजीत दास जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों को अपने ज्यादातर तर्क और तथ्य वर्कर्स अपोजीशनजैसे खुले अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों के अलावा टोनी क्लिफ जैसे त्रात्स्कीपन्थियों से भी मिलते हैं!

रिजल्ट्स एण्ड प्रॉस्पेक्ट्स (1906) नामक अपनी रचना में त्रात्स्की ने लिखा, ‘‘सामाजिक जनवाद क्रान्तिकारी वर्ग के सचेतन कार्रवाई के तौर पर सत्ता पर विजय की कल्पना करता है।’’ (इजाक डॉइशर, दि प्रॉफेट आर्म्‍ड में पृ. 375 पर उद्धृत, ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, 1970, अनुवाद हमारा) दूसरी पार्टी कांग्रेस में त्रात्स्की ने दावा किया कि सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व उस दिन सम्भव होगा जब मजदूर वर्ग और पार्टी लगभग समान वस्तुएँ बन जायेंगे। त्रात्स्की की पूरी सोच यहाँ पर बोल्शेविक क्रान्ति के बाद पार्टी के भीतर अस्तित्व में आये कुछ ‘‘वामपन्‍थी’’, अराजकतावादी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी धड़ों, जैसे कि ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज्म’ ग्रुप, बुखारिन का ‘‘वामपन्‍थी’’ विपक्ष धड़ा और ‘वर्कर्स अपोजीशन’ धड़े की सोच के करीब पड़ती है। यह ताज्जुब की बात है क्योंकि क्रान्ति के बाद और खास तौर पर ‘युद्ध कम्युनिज्म’ के दौर में त्रात्स्की इन धाराओं पर जमकर हमला करते हैं और मजदूर वर्ग के ‘सैन्यकरण’ और ट्रेड यूनियनों के ‘राजकीयकरण’ की थीसीज पेश करते हैं। लेकिन क्रान्ति से पहले के दौर में और विशेष तौर पर 1903 से 1917 के बीच त्रात्स्की की पूरी अवस्थिति सारतः एक गैर-पार्टी क्रान्तिवादी अवस्थिति थी। वास्तव में, त्रात्स्की का अपना कोई पार्टी सिद्धान्‍त था ही नहीं। त्रात्स्की के लिए इस दौर में पार्टी एक उपकरण के समान थी जो कतिपय लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक होती है। लेकिन पार्टी का निर्माण किस प्रकार हो, पार्टी का ढाँचा कैसा हो, और पार्टी का वर्ग से किस प्रकार का रिश्ता हो, इसके बारे में त्रात्स्की के पास कभी कोई सुसंगत सिद्धान्‍त नहीं था। पार्टी किस प्रकार की हो, यह त्रात्स्की के लिए कभी अहम सवाल था ही नहीं। इसीलिए त्रात्स्की अपने पूरे राजनीतिक कैरियर के दौरान विभिन्न प्रकार की सामाजिक-जनवादी पार्टियों के नेतृत्व के लिए संघर्ष करते रहे। उनके लिए इस दौर में जनवादी केन्‍द्रीयता के उसूलों पर काम करने वाली लेनिनवादी पार्टी वर्ग की पहलकदमी को रोकने वाली पार्टी थी, वर्ग की इच्छाओं की अवहेलना करने वाली पार्टी थी और इस प्रकार लेनिनवादी पार्टी की नियति ही यह थी कि वह प्रतिस्थापनवाद के गड्ढे में जा गिरे। 1903 से 1917 के बीच त्रात्स्की लेनिन की हिरावल पार्टी की अवधारणा और वर्ग से ऐसी पार्टी के सम्‍बन्‍धों की सोच पर हमला करते रहे। उनके अनुसार, ‘क्या करें?’ और ‘एक कदम आगे और दो कदम पीछे’ में लेनिन द्वारा रखी गयी सोच गलत थी। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि लेनिन का यह मानना कतई नहीं था कि मजदूर वर्ग स्वयं राजनीतिक नहीं बन सकता। मजदूर वर्ग का अपने वर्ग संघर्ष के अनुभवों के जरिये सचेत बनना और फिर ट्रेड यूनियनों में संगठित होने की चेतना तक जाना भी उसकी राजनीतिक चेतना के विकास के ही अलग-अलग चरण हैं। लेनिन का सिर्फ यह कहना था कि मजदूर वर्ग के स्वतःस्फूर्त आन्‍दोलन चाहे कितने भी जुझारू क्यों न हों, वे क्रान्तिकारी सिद्धान्‍त यानी कि सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना को जन्म नहीं दे सकते। सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना से लेनिन का क्या अर्थ था? सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना का अर्थ था वह राजनीतिक चेतना जो पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के विकल्प की परिकल्पना पेश करे। निश्चित तौर पर, मजदूर वर्ग अपने वर्ग संघर्षों से इतना राजनीतिक हो जाता है कि वह पूँजीवाद-विरोध तक पहुँच जाये, लेकिन उन्नत से उन्नत स्वतःस्फूर्त मजदूर आन्‍दोलन अपने भीतर से वह सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना नहीं पैदा कर सकता है जो कि पूँजीवाद के व्यावहारिक व वैज्ञानिक विकल्प के प्रश्न को उठा दे और उसे हल भी कर दे। यहाँ लेनिन का यह अर्थ भी नहीं था कि कोई मजदूर समाजवाद विचारक या चिन्‍तक नहीं बन सकता। लेनिन ने ‘क्या करें?’ में काऊत्स्की की इस गलती को दुरुस्त करते हुए लिखा था कि कोई मजदूर भी समाजवाद के सिद्धान्‍त पर पहुँच सकता है, लेकिन उस समय वह एक सामान्य मजदूर नहीं बल्कि समाजवादी चिन्‍तक की भूमिका में होता है। पूरा का पूरा वर्ग स्वतःस्फूर्त रूप से इस नतीजे पर नहीं पहुँच सकता। इसके लिए एक सचेतन तौर पर संगठित एक सामाजिक-जनवादी पार्टी की जरूरत होती है। लेनिन का तर्क महज इतना था कि एक हिरावल पार्टी के बगैर मजदूर आन्‍दोलन स्वयं क्रान्तिकारी सिद्धान्‍त तक नहीं पहुँच सकता है। और इसके कारण अलगाव के पूरे मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त में हैं। लेनिन के इस सिद्धान्‍त के कारणों की व्याख्या में दोबारा नहीं जायेंगे क्योंकि हम पिछले अध्याय में इन तर्कों पर चर्चा कर चुके हैं। लेकिन यहाँ यह स्पष्टीकरण देना जरूरी था क्योंकि सोवियत संघ के इतिहास के कई अध्येताओं ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि क्या करें?’ में लेनिन की अवस्थिति सन्‍तुलित नहीं थी और बाद में लेनिन स्वयं इसे मानने लगे थे। मिसाल के तौर पर, कोस्तास मावराकिस स्वयं ऐसा प्रयास करते हैं। मावराकिस यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि बाद में लेनिन मानने लगे थे कि वर्ग स्वयं राजनीतिक बन सकते हैं! निश्चित तौर पर, वर्ग राजनीतिक बन सकते हैं! लेकिन सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना कोई भी राजनीतिक चेतना नहीं है। मावराकिस लेनिन के इस उद्धरण को कि ‘क्या करें?’ में उन्होंने छड़ी को दूसरे छोर तक मोड़ा है क्योंकि अर्थवादियों ने उसे गलत छोर तक मोड़ दिया था, इस बात के सबूत के तौर पर लेते हैं कि लेनिन बाद में ‘क्या करें?’ में अपनी अवस्थिति को असन्‍तुलित मानने लगे थे। स्तालिन और माओ को गलत ढंग से उद्धृत करते हुए मावराकिस अपने गुरू बेतेलहाइम के पदचिन्हों पर चलते हैं और लेनिन, स्तालिन व स्वयं माओ का ‘‘अति-माओवादी’’ नियोजन करने का प्रयास करते हैं। मावराकिस बताते हैं कि 1921 में लेनिन ने ‘क्या करें?’ के अनुवाद के साथ एक अच्छी टिप्पणी जोड़ने की वकालत की थी ताकि इसकी अवस्थिति का गलत इस्तेमाल न हो। मावराकिस के अनुसार यह इस बात का प्रमाण है कि लेनिन ‘क्या करें?’ की अपनी थीसिस को गलत या असन्‍तुलित मानते थे! यह कमाल का तर्क है क्योंकि 1921 में लेनिन, बोल्शेविक पार्टी, सोवियत समाजवाद और रूसी मजदूर आन्‍दोलन जिस मंजिल में खड़े थे, वहाँ सत्तासीन पार्टी को जनता से सीखने और सिखाने दोनों की ही बेतरह जरूरत थी; निश्चित तौर पर, ‘क्या करें?’ का बुनियादी सिद्धान्‍त अभी भी पूर्णतः वैध और सार्वभौमिक तौर पर लागू करने योग्य था, लेकिन समाजवादी संक्रमण और सर्वहारा अधिनायकत्व के जिस नाजुक मुकाम पर पार्टी उस समय खड़ी थी, उसमें नौकरशाही और हिरावलपन्‍थ की प्रवृत्तियों के हावी होने का पूरा खतरा था। हम यह भी नहीं भूल सकते कि ‘युद्ध कम्युनिज्म’ के दौर को बीते हुए अभी साल भी पूरा नहीं हुआ था, जब त्रात्स्की और बुखारिन पार्टी और वर्ग के सम्‍बन्‍धों और समाजवादी निर्माण को लेकर अपनी दक्षिणपन्‍थी-वामपन्‍थी थीसीज पेश कर रहे थे। बेतेलहाइम और मावराकिस जैसे तथाकथित ‘‘माओवादी’’ माओ के विचारों का किस प्रकार हेगेलीय भाववादी नियोजन करते हैं, इसके बारे में हम इस अध्याय के परिशिष्ट में विस्तार से चर्चा करेंगे। अभी फिलहाल हम सांगठनिक कार्यदिशा पर त्रात्स्की के चिन्‍तन के दीवालियापन पर वापस लौटते हैं।

जैसा कि हमने बताया एक संगठित और केन्‍द्रीयतावादी पार्टी के बारे में त्रात्स्की की कोई समझदारी नहीं थी। वास्तव में इस केन्‍द्रीय महत्व रखने वाले मुद्दे पर त्रात्स्की के पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं। त्रात्स्की बस जर्मन ‘‘वामपन्‍थी’’ कम्युनिस्टों और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों का अनुसरण करते हुए इतना मानते थे कि किसी भी केन्‍द्रीकृत और अनुशासित पार्टी की जरूरत नहीं है क्योंकि ऐसी पार्टी वर्ग के ऊपर तानाशाही के समान होगी और यह कि एक पूँजीवादी समाज में आर्थिक और राजनीतिक शक्तियाँ सर्वहारा वर्ग को स्वतःस्फूर्त क्रान्तिकारी संगठन की ओर ले जाती हैं और इसके लिए किसी सचेतन प्रयास की आवश्यकता नहीं है। त्रात्स्की के अनुसार एक लेनिनवादी क्रान्तिकारी पार्टी अन्‍त में अनिवार्यतः एक प्रतिस्थापनवादी पार्टी बन जायेगी।

त्रात्स्की ने 1905 में सोवियतों को मजदूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता की मिसाल माना। इसका कारण यह था कि सोवियतों में किसी भी एक पार्टी का पूर्ण वर्चस्व उस समय स्थापित नहीं हो सका था। मेंशेविक, बोल्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी व कुछ अन्य छोटे दल सोवियतों में सक्रिय थे। बोल्शेविकों का प्रभाव अपेक्षाकृत कम था, लेकिन फिर भी विचारणीय था। त्रात्स्की को पीटर्सबर्ग सोवियत (जिसने एक प्रकार से 1905 में भी और 1917 में भी सोवियतों के आन्‍दोलन का प्रवर्तन और अगुवाई की थी) को सभी राजनीतिक समूहों ने पीटर्सबर्ग सोवियत के अध्यक्ष के रूप में स्वीकार किया क्योंकि उस समय त्रात्स्की अपने आपको किसी राजनीतिक धड़े से नहीं जोड़ते थे और उन्होंने अपने आपको ‘‘राजनीतिक गुटों के ऊपर’’ एक मध्यस्थ की भूमिका सौंप रखी थी, हालाँकि अधिकांश मसलों पर उनकी अवस्थिति व्यवहारतः मेंशेविकों से मेल खाती थी, विशेष तौर पर पार्टी सिद्धान्‍त के प्रश्न पर। उस समय त्रात्स्की मेंशेविक अवसरवाद से लेनिन के संघर्ष में लेनिन के खिलाफ खड़े थे। त्रात्स्की उस समय यह हवाई विचार प्रतिपादित कर रहे थे कि मजदूर आन्‍दोलन की लहर बोल्शेविकों और मेंशेविकों को अन्‍ततः साथ आने के लिए मजबूर कर देगी! यह भी एक प्रकार की स्वतःस्फूर्ततावादी सोच थी। आगे हम इस सोच की रोजा लक्जेमबर्ग की सोच से करीबी पर भी चर्चा करेंगे। त्रात्स्की का यह मानना था कि सोवियतों का आन्‍दोलन 1905 में रूसी क्रान्ति का प्रमुख प्रेरक तत्व और नेतृत्वकारी कारक था; चूँकि त्रात्स्की नेतृत्वकारी सोवियत यानी कि पीटर्सबर्ग सोवियत के अध्यक्ष चुने गये थे इसलिए त्रात्स्की 1905 की रूसी क्रान्ति के नैसर्गिक नेता थे! यहाँ पर त्रात्स्की अपने अहंकार और अत्यधिक अति-आत्मविश्वास के कारण यह नहीं समझ पाये कि उस समय मौजूद राजनीतिक दलों, और विशेष तौर पर बोल्शेविकों और मेंशेविकों के राजनीतिक प्रचार और उद्वेलन के बिना पीटर्सबर्ग सोवियतें इस भूमिका में कभी नहीं आ सकती थीं। वास्तव में, अगर पीटर्सबर्ग सोवियत कुछ समय और जीवित रही होती तो उसमें भी राजनीतिक गैल्वनीकरण प्रारम्भ हो गया होता और जनता की स्वतःस्फूर्तता की त्रात्स्की की अन्धभक्ति सम्भवतः खण्डित हो गयी होती।

रोजा लक्जेमबर्ग का त्रात्स्की के सांगठनिक उसूलों पर चिन्‍तन पर जबर्दस्त प्रभाव था। लक्जेमबर्ग ने भी हिरावल पार्टी की भूमिका की उपेक्षा करते हुए व्यापक जन हड़तालों और जनान्‍दोलनों पर बल दिया था। यह बात दीगर है कि रोजा लक्जेमबर्ग ने यह अवस्थिति जर्मन सामाजिक जनवादी आन्‍दोलन में मौजूद दक्षिणपन्‍थी नेतृत्व के प्रति एक ‘‘वामपन्‍थी’’ प्रतिक्रिया देते हुए अपनायी थी। जर्मन सामाजिक-जनवादी नेतृत्व की रोजा लक्जेमबर्ग द्वारा प्रस्तुत आलोचना के कई नुक्ते बिल्कुल सही थे, जिन पर हम पिछले अध्याय में एक संक्षिप्त चर्चा कर चुके हैं। लेकिन सामाजिक-जनवादी नेतृत्व के दक्षिणपन्‍थी अवसरवाद की आलोचना करते हुए वे पार्टी सिद्धान्‍त की ही उपेक्षा करने के ‘‘वामपन्‍थी’’ और अराजकतावादी छोर पर चली गयी थीं। रोजा लक्जेमबर्ग को यह उम्मीद थी कि दक्षिणपन्‍थी अवसरवादी नेतृत्व जनता के आन्‍दोलनों के दबाव में अन्‍ततः क्रान्ति के पक्ष में जाने का तैयार हो जायेगा, ठीक वैसे ही जैसे कि त्रात्स्की को यह उम्मीद थी कि रूसी सामाजिक-जनवाद के अलग-अलग धड़े अन्‍ततः मजदूर आन्‍दोलन की लहर के दबाव में एक हो जायेंगे। लेकिन न तो रोजा लक्जेमबर्ग की उम्मीदें पूरी हो सकीं और न ही त्रात्स्की की! जर्मन सामाजिक-जनवादी नेतृत्व ने मौका आने पर एक सामाजिक कट्टरवादी और साम्राज्यवाद की सेवा करने वाली अवस्थिति अपना ली, जबकि रूसी क्रान्ति में मेंशेविक धड़ा अक्तूबर क्रान्ति को सम्पन्न करने की पूरी प्रक्रिया से न सिर्फ अलग रहा, बल्कि उसने काऊत्स्कीपन्‍थी अवस्थिति से बोल्शेविक क्रान्ति की आलोचना भी की।

अक्तूबर क्रान्ति से ठीक पहले त्रात्स्की ने सांगठनिक उसूलों पर एकदम से यू-टर्नलिया और एक गैर-पार्टी क्रान्तिवादी, ‘‘वामपन्‍थी’’, स्वतःस्फूर्ततावादी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी अवस्थिति से उन्होंने एक अतिकेन्‍द्रीयतावादी, बल्कि नौकरशाहाना केन्‍द्रीयतावादी अवस्थिति अपना ली, जो उतनी ही लेनिनवाद-विरोधी है जितनी कि उनकी पुरानी अवस्थिति। लेकिन त्रात्स्की का नौकरशाहाना केन्‍द्रीयतावाद तत्काल उजागर नहीं हुआ और वह धीरे-धीरे सामने आया। ‘युद्ध कम्युनिज्म’ की मंजिल आते-आते त्रात्स्की एक नये स्तर पर अपनी पुरानी नौकरशाहाना केन्‍द्रीयतावादी अवस्थिति पर लौट चुके थे; जाहिरा तौर पर यह इतिहास का दुहराव नहीं था। जो पहले त्रासदी के रूप में घटित हुआ था, वह अब एक विडम्बनापूर्ण प्रहसन के रूप में घटित हो रहा था! गृहयुद्ध और ‘युद्ध कम्युनिज्म’ का दौर आते-आते त्रात्स्की पार्टी के भीतर सबसे सर्वसत्तावादी और नौकरशाहाना केन्‍द्रीयतावादी के रूप में कुख्यात हो चुके थे। स्वयं त्रात्स्कीपन्‍थी डॉइशर ने स्वीकार किया है कि सत्ता में त्रात्स्की नौकरशाहों के कुलपिता के समान थे! गृहयुद्ध व ‘युद्ध कम्युनिज्म’ के दौर में त्रात्स्की ने श्रम के सैन्यकरण और ट्रेड यूनियनों के राजकीयकरण का कुख्यात सिद्धान्‍त दिया जिसका लेनिन ने पुरजोर शब्दों में खण्डन किया और उसे एक दक्षिणपन्‍थी भटकाव बताया। बाद में जब स्वयं त्रात्स्की की अपनी स्थिति एक शीर्ष नौकरशाह की नहीं रह गयी और पार्टी के भीतर दो लाइनों के निर्णायक संघर्ष में स्तालिन के हाथों उन्हें करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा तो वह अचानक पार्टी के आन्‍तरिक जनवाद के प्रति चिन्तित हो गये! अगर इतिहास के तथ्यों पर निगाह दौड़ायें तो हम पाते हैं कि 1917 के बाद त्रात्स्की को पहली बार पार्टी के भीतर जनवाद और नौकरशाही के विरोध की याद तभी आयी थी जब वह स्वयं शीर्ष नौकरशाह नहीं रह गये थे और ज्यादातर प्रश्नों पर पार्टी दो लाइनों के संघर्ष में वह अल्पसंख्यक की स्थिति में पहुँच गये थे। और इस समय भी त्रात्स्की ने पार्टी के भीतर जनवाद के लिए संघर्ष की खातिर सबसे अहम उपकरण किसे माना? गुटवाद (फैक्शनलिज्म) को! पहले भी त्रात्स्की का मानना रहा था कि पार्टी के भीतर गलत विचारों के प्रतिरोध के लिए सबसे उपयुक्त उपकरण गुटबाजी है। 1917 के बाद त्रात्स्की पार्टी के भीतर सांगठनिक उसूलों के मसले पर इन्हीं दो छोरों के बीच दोलन करते रहे : नौकरशाहाना-तानाशाहाना केन्‍द्रीयता और गुटवाद। इस पर थोड़े विस्तार से चर्चा की आवश्यकता है, ताकि त्रात्स्की के चिन्‍तन के पूरे चरित्र को व्यवस्थित तौर पर समझा जा सके।

1917 के ठीक पहले तक त्रात्स्की लेनिन के जनवादी केन्‍द्रीयता के सिद्धान्‍त और सम्पूर्ण पार्टी सिद्धान्‍त के खिलाफ कटुता के साथ लड़ते रहे। 1917 के बाद यानी बोल्शेविक पार्टी में शामिल होने के बाद पार्टी सिद्धान्‍त पर दक्षिण और ‘‘वाम’’ अराजकतावादी छोरों के बीच अपने व्यक्तिवादी आग्रहों के मुताबिक दोलन करते रहे। जब त्रात्स्की अपने नौकरशाहाना केन्‍द्रीयतावाद के छोर पर थे, तब भी लेनिन ने त्रात्स्की की कठोर आलोचना की थी और कहा था कि त्रात्स्की के भीतर चीजों के प्रशासनिक पहलू के प्रति एक अन्धभक्ति का भाव है। ‘युद्ध कम्युनिज्म’ के दौर में त्रात्स्की के श्रम के सैन्यकरण और ट्रेड यूनियनों के राजकीयकरण के सिद्धान्‍त को लेनिन ने एक दक्षिणपन्‍थी भटकाव बताया। त्रात्स्की के ये सिद्धान्‍त एक प्रकार के कठमुल्लावादी रूपवाद को दर्शाते थे, जिसके अनुसार समस्याओं का समाधान वर्ग संघर्ष और राजनीति के जरिये नहीं बल्कि ऊपर से कार्यकारी निर्देशों और नौकरशाहाना फरमानों के जरिये, यानी रूपवादी उपायों के जरिये किया जाता है। जैसा कि हमने पहले बताया कि त्रात्स्की ने पार्टी के भीतर उस समय से पहली बार कथित तौर पर नौकरशाही और वास्तव में केन्‍द्रीयता और अनुशासन का विरोध करना शुरू किया जब त्रात्स्की की स्थिति स्वयं पार्टी में अलग-थलग पड़ गयी। लेनिन की मृत्यु से ठीक पहले लेनिन ने जॉर्जियाई मसले पर स्तालिन और ओर्जोनिकिद्जे के नौकरशाहाना रवैये पर त्रात्स्की से हस्तक्षेप करने को कहा था, लेकिन त्रात्स्की ने अवसरवाद दिखलाते हुए इस मसले पर हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया था। इसका प्रमुख कारण यह था कि त्रात्स्की यदि स्तालिन की जगह रहे होते तो वे जॉर्जियाई मसले में और भी ज्यादा नौकरशाहाना रुख अख्तियार करते क्योंकि उनकी अवस्थिति इस प्रश्न पर निरंकुशतापूर्ण होती।

जब त्रात्स्की अचानक पार्टी के भीतर ‘‘जनवाद’’ के प्रश्न को लेकर चिन्तित हो गये, उसके बाद से उन्होंने पार्टी के भीतर गुट/धड़े बनाने की राजनीति का सहारा लिया। हालाँकि पार्टी की दसवीं कांग्रेस में गुटवाद पर स्पष्ट रूप में प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, लेकिन इसके बावजूद त्रात्स्की ने विभिन्न प्रवृत्तियों और उनके आधार पर समूहों की मौजूदगी को आजादी देने की बात की थी। हालाँकि बाद में तेरहवीं पार्टी कांग्रेस में त्रात्स्की ने खुद स्वीकार किया कि ‘‘प्रवृत्तियों’’ और ‘‘समूहों’’ तथा गुटों के बीच वास्तव में व्यवहारतः कोई फर्क नहीं होता। इस प्रकार त्रात्स्की अपनी सुविधानुसार कभी ‘‘जनवाद’’ (गुटवाद) और ‘‘केन्‍द्रीयता’’ (नौकरशाही) का पक्ष लेते रहे। त्रात्स्की कभी नहीं समझ पाये कि पार्टी सिद्धान्‍त यानी कि जनवादी केन्‍द्रीयता के सिद्धान्‍त में जनवाद और केन्‍द्रीयता के बीच एक द्वन्‍द्वात्मक सम्‍बन्‍ध है। यदि पार्टी स्वतःस्फूर्ततावाद, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, गैर-पार्टी क्रान्तिवाद और उदारवाद का विरोध करती है तो साथ ही पार्टी नौकरशाहाना केन्‍द्रीयता, फरमानशाही और जनता से सीखे बगैर जनता को सिखाने और उस पर ऊपर से अपनी इच्छा को थोपने का भी विरोध करती है। जैसा कि हमने शुरू में कहा, जो पार्टी जनता से जीवन्‍त सम्पर्क बनाते हुए, सर्वहारा वर्ग के उन्नततम तत्वों के साथ एकरूप होते हुए और उन्हें अपने आप में सम्मिलित करते हुए, जनता से सीखते और फिर उसे सिखाते हुए निर्मित होती है, वही सही मायने में सच्ची केन्‍द्रीयता को भी लागू कर सकती है; जिस पार्टी में नेतृत्व कार्यकर्ताओं से जीवन्‍त सम्पर्क बनाये रखता है, जहाँ नेतृत्व पर कार्यकर्ता उचित पार्टी संस्थाओं के जरिये निगरानी रखते हैं केवल वही नेतृत्व संगठन में पूर्ण अनुशासन और केन्‍द्रीयता को लागू कर सकता है। यानी, एक जनदिशा लागू करने वाली पार्टी ही सच्चे मायने में जनवादी केन्‍द्रीयता के लेनिनवादी उसूलों पर अमल कर सकती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि जनदिशा और जनवादी केन्‍द्रीयता एक ही चीज हैं, जैसा कि कोस्तास मावराकिस जैसे ‘‘अति-माओवादी’’ सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। इस अध्याय के परिशिष्ट में हम मावराकिस और बेतेलहाइम जैसे लोगों द्वारा पार्टी के लेनिनवादी सिद्धान्‍त के विकृतिकरण पर विस्तार से चर्चा करेंगे। लेकिन यहाँ इतना स्पष्ट करना उपयोगी होगा कि आम तौर पर पार्टी सिद्धान्‍त की बात करते हुए अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों और विभिन्न प्रकार के गैर-पार्टी क्रान्तिवादियों द्वारा जनवाद और केन्‍द्रीयता और साथ चेतना/संगठन व स्वतःस्फूर्तता के बीच जिस प्रकार का विरोध खड़ा किया जाता है, वह बिल्कुल कृत्रिम और अवास्तविक होता है। वास्तव में, किसी भी पार्टी में सही मायने में जनवाद तभी हो सकता है, जबकि उसमें केन्‍द्रीयता हो। जनवाद का आधार पार्टी में जितना व्यापक होगा, केन्‍द्रीयता का शीर्ष उतना ही मजबूत होगा। पार्टी के भीतर जनवाद के व्यापक आधार के बगैर केन्‍द्रीयता नौकरशाही में तब्दील हो जायेगी; और केन्‍द्रीयता के सही तरीके से कार्यान्वयन के बिना मुक्त जनवाद पार्टी को क्लब या सोसायटी जैसे निकाय में तब्दील कर देगा। ठीक उसी प्रकार यदि पार्टी में राजनीतिक चेतना का स्तर ऊपर होगा तो ही जनवाद का स्तर भी ऊँचा हो सकता है, और तभी पार्टी अपनी रोजमर्रा की कार्रवाई में ज्यादा स्वतःस्फूर्तता और स्वतन्त्रता के साथ काम कर सकती है। पार्टी में राजनीतिक चेतना के स्तर के उन्नयन के लिए पार्टी को अपने समाज के वर्ग संघर्ष में सतत् हिस्सेदारी करनी होगी और सर्वहारा वर्ग के उन्नततम तत्वों को अपने अन्‍दर सम्मिलित करना होगा और उनके साथ एकरूप होना होगा। इन सभी पहलुओं को अलग-अलग करके आधिभौतिक तरीके से नहीं देखा जा सकता है, अन्यथा, चाहे जनवाद हो या केन्‍द्रीयता हो, वह एक कार्यभार बन जायेगा जिन्हें कार्यकारी निर्णयों से पूरा करने का प्रयास किया जायेगा और जनवाद अन्‍ततः गुटवाद, क्लब-सोसायटी की संकीर्ण मानसिकता और निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवाद में परिणत हो जायेगा, जबकि केन्‍द्रीयता अन्‍ततः फरमानशाही और नौकरशाहाना केन्‍द्रीयता में परिणत हो जायेगी। त्रात्स्की पार्टी सिद्धान्‍त की इस द्वन्‍द्वात्मकता को कभी नहीं समझ पाये और इसका कारण त्रात्स्की की पूरी पहुँच और पद्धति में था जो कि वास्तव में गैर-द्वन्‍द्वात्मक, आधिभौतिकवादी, निगमनवादी, सारसंग्रहवादी और यान्त्रिक है।

त्रात्स्की की इस पूरी समझदारी को बोल्शेविक पार्टी के निर्माण और बोल्शेविकों द्वारा मेंशेविकों के खिलाफ चलाये गये संघर्ष के बारे में उनकी राय में भी देखा जा सकता है। 1903 में त्रात्स्की ने कई ऐसे सिद्धान्‍त पेश किये जो कि लेनिन के पार्टी निर्माण के सिद्धान्‍त को खारिज तो करते ही थे, साथ ही वे किसी भी प्रकार के पार्टी निर्माण के सिद्धान्‍त की अनुपस्थिति को वांछित मानते थे। त्रात्स्की ने लेनिन के अनुशासित, ठोस और केन्‍द्रीयतावादी पार्टी संगठन के सिद्धान्‍त का विरोध किया और मेंशेविकों के ढीले-ढाले और आकारहीन-आकृतिहीन किस्म के ढाँचे का समर्थन किया। वास्तव में, त्रात्स्की हमेशा से ही सांगठनिक पद्धति के तौर पर गुटबाजी (factionalism) पर अमल करते रहे थे। जब त्रात्स्की ने मेंशेविकों, विसर्जनवादियों और हर प्रकार के बोल्शेविक-विरोधियों को मिलाकर ‘अगस्त ब्लॉक’ बनाया, तो भी त्रात्स्की यही कर रहे थे। इस गुटबाजी के सिद्धान्‍त की नजर से ही वह बोल्शेविक पार्टी के निर्माण को भी देखते थे। 1903 से लेकर 1917 तक बोल्शेविक पार्टी का निर्माण उनके लिए एक गुट का निर्माण था। 1903 से लेकर 1912 तक बोल्शेविकों ने औपचारिक तौर पर मेंशेविकों से अलग पार्टी नहीं बनायी थी, और एक ही पार्टी में बोल्शेविक व मेंशेविक दो गुटों के रूप में काम कर रहे थे। लेकिन बोल्शेविकों का एक असंगठित ढाँचे वाली पार्टी में गुट के रूप में सक्रिय होना गुटबाजी नहीं थी; इसका कारण यह है कि इस दौर में इस गुट के जरिये एक सही किस्म की पार्टी बनाने के लिए ही मेंशेविक अवसरवाद के विरुद्ध संघर्ष चल रहा था। यह दिखलाता है कि एक सर्वहारा हिरावल पार्टी के बनने के पहले अवसरवाद के विरुद्ध संघर्ष में कई बार गुट बनाने पड़ते हैं। लेकिन बोल्शेविकों का गुट पार्टी निर्माण को समर्पित था, न कि पार्टी के विसर्जन को या उसके संशोधनवादी बना दिये जाने को। लेकिन 1903 से 1912 तक त्रात्स्की बोल्शेविकों पर गुटबाजी का आरोप लगाते हैं, जिसे कि तब त्रात्स्की गलत मानते थे। वैसे इस पूरे दौर में अगर संकीर्णतावादी गुटबाजी पर अमल करने का कोई सभी कीर्तिमान ध्वस्त कर रहा था, तो वह त्रात्स्की थे, हालाँकि उनका दावा था कि वह गुटों के ऊपर विभिन्न गुटों के बीच एक मध्यस्थ के समान हैं! लेकिन इतिहास दिखलाता है कि गुटों से ‘‘ऊपर या परे’’ होने वाले लोग लगभग हमेशा सबसे बड़े गुटबाज होते हैं। कम-से-कम त्रात्स्की के विषय में यह बात एकदम सही साबित होती है। खैर, त्रात्स्की के लिए 1903 से 1912 तक बोल्शेविक गुटबाजी के अपराध के दोषी थे। जब 1912 में बोल्शेविकों ने अलग पार्टी बना ली तो त्रात्स्की ने उन्हें फूट डालने वाला घोषित कर दिया। बाद में, 1917 में जब त्रात्स्की ने बोल्शेविक पार्टी में शामिल होने का निर्णय लिया तो उन्होंने अवसरवाद के विरुद्ध बोल्शेविकों के संघर्ष को सही माना, लेकिन तब भी त्रात्स्की का यही मानना था कि बोल्शेविक इस पूरे दौर में एक गुट का निर्माण करते रहे थे। पहले की तरह वह अवसरवाद और गुटबाजी के बीच के संघर्ष को ही देख रहे थे, लेकिन बस अब फर्क यह था कि वह अवसरवाद की बजाय गुटबाजी का पक्ष ले रहे थे! वास्तव में, त्रात्स्की ने बोल्शेविक पार्टी के निर्माण की प्रक्रिया को कभी समझा ही नहीं क्योंकि उनके लिए पार्टी निर्माण का कोई सिद्धान्‍त होना ही अवांछित था। इसलिए वह ‘‘जनवाद’’ (अवसरवाद और गुटबाजी) तथा ‘‘केन्‍द्रीयता’’ (नौकरशाही और फरमानशाही) के छोरों के बीच झूलते रहे। सच्चाई यह है कि अगर बोल्शेविक केवल गुटबाजी कर रहे होते तो वे ऐसी पार्टी खड़ी कर ही नहीं पाते जो कि अक्तूबर क्रान्ति को अंजाम दे सके और जो 1905 से लेकर 1914 और फिर 1914 से लेकर 1917 तक के दौरों की भीषण कठिनाइयों और जटिलताओं को झेल पाते। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि 1903 से ही बोल्शेविकों के गुट के रूप में हम भ्रूण रूप में रूसी कम्युनिस्ट पार्टी को देखते हैं। यह महज गुट नहीं था, बल्कि भविष्य की सर्वहारा हिरावल पार्टी का भ्रूण था, जो विकसित होते-होते अन्‍ततः 1912 में जन्म लेता है। अन्य गुट जो रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी के भीतर सक्रिय थे, उनके लक्ष्य या उद्देश्यों में एक अलग किस्म की पार्टी का निर्माण कभी नहीं था। इसलिए बोल्शेविकों का गुट बनाना वास्तव में गुटबाजी था ही नहीं। और इस रूप में यह कहा जाना चाहिए कि 1921 में दसवीं कांग्रेस में बोल्शेविक पार्टी ने औपचारिक तौर पर गुटबाजी पर प्रतिबन्ध लगा दिया, लेकिन वास्तव में बोल्शेविक कभी भी गुटबाजी का समर्थन नहीं करते थे। बहुत से मार्क्‍सवादी प्रेक्षक भी 1921 में और उसके पहले के बोल्शेविक स्टैण्ड में फर्क देखते हैं, क्योंकि वे भी बोल्शेविक पार्टी के निर्माण की पूरी प्रक्रिया को सही ढंग से नहीं समझ पाते हैं। नतीजतन, उनमें से कुछ 1921 के निर्णय पर उँगलियाँ उठाते हैं (जैसे कि चार्ल्‍स बेतेलहाइम जैसे ‘‘अति-माओवादी’’) तो दूसरे 1921 के पहले की बोल्शेविक अवस्थिति को अपेक्षा से कम कठोर मानते हैं! वे बोल्शेविकों की राजनीतिक प्रैक्टिस में निहित एकता को नहीं देख पाते, इसलिए उन्हें बोल्शेविकों की अवस्थितियों में अनिरन्‍तरता नजर आती है। नतीजतन, ई.एच. कार जैसे लोग लेनिन को एक ‘‘कठोर यथार्थवादी’’ करार देते हैं, जिसने हर प्रकार की भाववादी नैतिकता को अपने ठोस लक्ष्य के अधीन कर दिया और समय के साथ अपनी अवस्थितियों को 180 डिग्री तक बदल डालने में कोई हिचक नहीं दिखायी। ई.एच. कार और इजाक डॉइशर जैसे लोगों को पढ़कर समझ नहीं आता कि वे इस बात के लिए लेनिन की निन्‍दा कर रहे हैं या प्रशंसा! इन प्रेक्षकों के गलत प्रेक्षणों का मूल कारण यही है कि वे भी पार्टी निर्माण के लेनिनवादी सिद्धान्‍त और सांगठनिक प्रश्न पर बोल्शेविकों के व्यवहार की निरन्‍तरता को नहीं समझ पाते। 1903 से 1917 तक बोल्शेविकों ने पार्टी निर्माण की नयी शैली और पद्धति ईजाद की जो कि मार्क्‍सवादी सिद्धान्‍त में एक ईजाफा था। 1912 में उन्होंने पार्टी के विसर्जनवादी हिस्से को बाहर कर अपनी अलग पार्टी बना ली और इसने बोल्शेविकों को अपने पार्टी ढाँचे को और अधिक सुदृढ़, तपा-तपाया और ठोस बनाने में मदद की। 1903 से ही बोल्शेविकों का लक्ष्य गुट बनाना नहीं बल्कि एक नये किस्म की सर्वहारा हिरावल पार्टी बनाना था, जो कि दूसरे इण्टरनेशनल की पार्टियों की तर्ज पर न होकर एक अलग केन्‍द्रीयतावादी और अनुशासित ढाँचे पर आधारित हो। लेकिन त्रात्स्की इस बात को न तो 1917 के पहले समझ पाये और न ही 1917 के बाद। त्रात्स्की का ही अनुसरण करते हुए टोनी क्लिफ जैसे त्रात्स्कीपन्‍थी दुख प्रकट करते हैं कि त्रात्स्की 1903 से लेकर 1917 तक गुट बनाने के बहुमूल्य अनुभव और व्यवहार से वंचित रह गये (!) जबकि इसी दौर में बोल्शेविकों ने इस गुटबाजी में महारत हासिल कर ली थी। यही कारण था कि संगठन के मामले में बोल्शेविक सफल रहे और त्रात्स्की की अवस्थिति इसमें गलत रही! यह पूरा तर्क बहुत से स्तरों पर मजाकिया है। एक तो बोल्शेविक गुटबाजी नहीं बल्कि पार्टी निर्माण कर रहे थे। दूसरी बात यह कि 1903 से लेकर 1917 तक त्रात्स्की ने गुटबाजी में जितना अनुभव और महारत हासिल की, उतनी तो किसी खुले मेंशेविक ने भी नहीं की थी!

त्रात्स्की ने औपचारिक तौर पर गुटबाजी का विरोध किया और बार-बार घोषणा की कि उनका अखबार गुटों से अलग और गुटों से ऊपर है। लेकिन त्रात्स्की लगातार अपना अलग गुट बनाने का प्रयास करते रहे और उसके ‘‘गुटबाजी-विरोधी गुट’’ (Anti-factionalist faction) करार देते रहे! उनकी पूरे राजनीतिक जीवन पर निगाह डालें तो वह एक गुट से दूसरे गुट के नेतृत्व में शामिल होने के लिए संघर्ष करते रहे क्योंकि पार्टी निर्माण की पूरी प्रक्रिया को चलाना उनके अनुसार गैर-जरूरी था और साथ ही वह एक संगठित अनुशासित पार्टी की जरूरत पर भी सवाल खड़ा करते थे। इसका कारण यह भी था कि त्रात्स्की को जिस प्रकार के सांगठनिक जोड़-तोड़ और दाँव-पेच करने की आदत थी, उसकी ऐसी किसी भी संगठित हिरावल पार्टी में कोई गुंजाइश नहीं थी। इसीलिए त्रात्स्की को मेंशेविकों का ढीला-ढाला पार्टी ढाँचा बहुत सुहाता था जिसमें कि तमाम गुट और समूह आराम से मौजूद रह सकते थे! यही कारण था कि त्रात्स्की ने एक बार एक्सेलरोद के समान यह प्रस्ताव रखा था कि पार्टी की जगह एक कानूनी मजदूर कांग्रेस को दे दी जाये। यह प्रस्ताव काफी-कुछ वैसा ही था जैसा कि मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी रखते हैं, जो कि एक प्रकार की ‘मजदूर परिषद’ बनाने की बात करते हैं जो कि समाज में मार्क्‍सवाद के प्राधिकार को स्थापित करेगी (यानी कि पार्टी का कार्य करेगी), चुनाव लड़ेगी (यानी कि पार्टी के दूमा धड़े का काम करेगी), मजदूर वर्ग की आर्थिक लड़ाइयाँ लड़ेगी (यानी कि ट्रेड यूनियन का काम करेगी), और आम जनता इन परिषदों में फैसला लेना सीखेगी (यानी कि सोवियत का काम करेगी)! यह ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों का कमाल का नुस्खा है! लेकिन इसमें एक ही समस्या है : अगर मजदूर परिषद यह सारे काम करेगी, तो पार्टी क्या करेगी? यह ठीक उसी प्रकार का विसर्जनवाद है जिस विसर्जनवाद की बात एक समय में एक्सेलरोद और फिर त्रात्स्की ने की थी। हम देख सकते हैं कि सुजीत दास जैसे लोगों के विचारधारात्मक पूर्वजों में वर्कर्स अपोजीशन, काउंसिल कम्युनिस्ट, अराजकतावादियों, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों के साथ-साथ त्रात्स्की भी शामिल हैं!

1912 में त्रात्स्की ने सभी बोल्शेविक-विरोधी अवसरवादियों, विसर्जनवादियों आदि को एकत्र करके ‘‘अगस्त ब्लॉक’’ बनाया और दम भरा कि अब वे सब मिलकर एक नयी पार्टी एकता की मिसाल स्थापित करेंगे और फूट डालने वाले बोल्शेविकों को गलत सिद्ध करेंगे! लेकिन यह ‘‘अगस्त ब्लॉक’’ जिस गति से बना उससे भी तेज गति से बिखर गया! त्रात्स्की के गुटबाजी-विरोध के दावे और व्यापक पार्टी एकता की भाववादी अपीलों के पीछे सबसे संकीर्णतावादी किस्म की गुटबाजी छिपी हुई थी। आम तौर पर, सभी अवसरवादियों पर यह बात लागू होती है जो गौरवपूर्ण शब्दों में फूटवादियों और गुटवादियों की आलोचना करते रहते हैं, और अन्‍दरखाने गुटबाजी के निकृष्टतम उदाहरण पेश करते रहते हैं।

जब त्रात्स्की ने 1917 में बोल्शेविक पार्टी में शामिल होने का निर्णय लिया तो वह अचानक मेंशेविकों और विसर्जनवादियों के विरुद्ध कठोरतम संघर्ष चलाने की बात करने लगे। लेकिन इसके साथ उन्होंने अपनी कोई आलोचना पेश नहीं की, सिवाय इसके कि वह पहले ‘‘अपेक्षा से कम केन्‍द्रीयतावादी’’ थे और उनका विभिन्न नेताओं के बारे में मूल्यांकन गलत था! त्रात्स्की की केन्‍द्रीयता की सोच क्या थी? पहले त्रात्स्की ने लेनिन पर जैकोबिन होने का आरोप लगाया था और लेनिन के इस कथन की आलोचना की थी कि सामाजिक-जनवादी क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के हिरावल से एकरूप हो चुका जैकोबिन है। उस समय त्रात्स्की ने लेनिन को ‘‘नया रॉब्सपियेर’’ और ‘‘रॉब्सपियेर का कैरीकेचर’’ घोषित किया था। लेकिन अब अचानक त्रात्स्की इसी बात के लिए लेनिन की प्रशंसा करने लगे! त्रात्स्की ने फिर से लेनिन को सर्वहारा वर्ग का रॉब्सपियेर कहा; उससे भी आगे बढ़ते हुए त्रात्स्की ने लेनिन को बीसवीं सदी का सर्वहारा क्रॉमवेल कहा! यानी रूपक वही थे लेकिन पहले त्रात्स्की ने उनका प्रयोग निन्‍दा के लिए किया था और अब प्रशंसा के लिए कर रहे थे! अब त्रात्स्की ठीक उन्हीं चीजों के लिए लेनिन की तारीफ कर रहे थे, जिनके लिए कुछ वर्षों पहले वह लेनिन पर गालियों की बौछार कर रहे थे। इस विरोधाभास को कैसे समझा जाये? दरअसल, त्रात्स्की जब केन्‍द्रीयतावाद पर आये भी तो केन्‍द्रीयता पर उनकी सोच जनवादी केन्‍द्रीयतावादी नहीं बल्कि तानाशाहाना और नौकरशाहाना सोच थी। उनके अनुसार सर्वहारा संगठन में एक सक्षम नेता को एक ऐसा प्राधिकार सौंपा जाना चाहिए जो कि प्रश्नों से परे हो। उन्होंने ऐसे नेताओं को विशिष्ट शक्तियाँ और प्राधिकार देने की वकालत की और इस सोच को गम्‍भीर सिद्धान्‍त का जामा पहनाया। वह वास्तव में वर्ग अधिनायकत्व का नहीं बल्कि व्यक्तिगत अधिनायकत्व का समर्थन कर रहे थे। यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि रॉब्सपियेर और क्रॉमवेल की भूमिका भी इतिहास में दोहरी थी, जिन्होंने एक ओर बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों को पूरा करने में कोई समझौतापरस्ती नहीं बरती लेकिन साथ ही उन्होंने उस समय क्रान्ति के संगठित व सामूहिक अभिकर्ताओं का नाश भी किया। लेकिन यहाँ हम इनकी चर्चा में नहीं जा सकते। यहाँ दूसरी बात जो गौरतलब है वह यह कि त्रात्स्की इतिहास की महान क्रान्तियों की उपलब्धियों के पीछे महान नेताओं की भूमिका को प्रमुख मानते हैं, न कि क्रान्तिकारी वर्गों की संगठित राजनीतिक कार्रवाई को, जिसमें कि महान नेताओं की एक अहम भूमिका होती है। एक ऐतिहासिक द्वन्‍द्ववादी दृष्टिकोण छोड़कर त्रात्स्की व्यक्ति-केन्द्रित विश्लेषण की ओर प्रस्थान कर जाते हैं। यही कारण है कि त्रात्स्की के लिए पार्टी के भीतर भी अनुशासन और केन्‍द्रीयता का अर्थ एक महान नेता का ऐसा नेतृत्व और प्राधिकार होता है, जो प्रश्नों से परे होता है क्योंकि त्रात्स्की के अनुसार ऐसे महान नेता अपने युग के क्रान्तिकारी हितों का सर्वश्रेष्ठ रूप में प्रतिनिधित्व करते हैं। त्रात्स्की का पूरा विश्लेषण किस कदर गैर-मार्क्‍सवादी है यह 1917 के बाद के उनके लेखन में भी साफ तौर पर देखा जा सकता है। (क्रॉमवेल व रॉब्सपियेर की लेनिन से तुलना और वर्ग अधिनायकत्व की बजाय व्यक्तिगत अधिनायकत्व की त्रात्स्की द्वारा वकालत के लिए देखें, लियॉन ट्रॉट्स्की ऑन ब्रिटेन, 1973, पाथफाइण्डर प्रेस, न्यूयॉर्क)।

लेनिन का दृष्टिकोण इस प्रश्न पर बिल्कुल भिन्न था। उनके अनुसार एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कोई भी आम केन्‍द्रीयता-समर्थक क्रान्तिकारी नहीं होता, बल्कि वह सर्वहारा वर्ग के संगठन से संलयित केन्‍द्रीयतावादी होता है, वह एक जनवादी-केन्‍द्रीयतावादी होता है। लेनिन के लिए एक सर्वहारा क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के उन्नततम तत्वों के साथ एकरूप हो चुका जैकोबिन होता है। गौर करें, कि यहाँ लेनिन रॉब्सपियेर के नाम का उल्लेख नहीं करते क्योंकि जैकोबिन दल के भी तीन धड़े थे। रॉब्सपियेर के धड़े ने अन्य दो धड़ों को पराजित कर दिया था जिनमें से एक एबर्ट का वामपन्‍थी धड़ा था तो दूसरा दांते का दक्षिणपन्‍थी धड़ा। रॉब्सपियेर ने बुर्जुआ क्रान्ति को पूर्णता तक पहुँचाने के आगे क्रान्तिकारी आतंक के दौर में जो कुछ किया उसे एंगेल्स ने ‘‘पागलपन का दौरा’’ कहा था, जिसमें कि रॉब्सपियेर ने ‘कमेटी ऑफ पब्लिक सेफ्टी’ पर पूर्ण प्राधिकार स्थापित कर अन्य जैकोबिन नेताओं को ही मृत्यु-दण्ड दे दिया था। रॉब्सपियेर की प्रगतिशील और बाद में नकारात्मक भूमिका को समझे बगैर रॉब्सपियेर का सन्‍तुलित मूल्यांकन नहीं हो सकता और इसीलिए रॉब्सपियेर के ऐतिहासिक रूपक का इस्तेमाल दुधारी तलवार के रूप में हो सकता है। जब लेनिन ने जैकोबिनके रूपक का प्रयोग किया तो वह किसी व्यक्तिगत अधिनायकत्व का समर्थन नहीं कर रहे थे, बल्कि वे जैकोबिन दल की सर्वश्रेष्ठ क्रान्तिकारी परम्पराओं के विस्तार की बात कर रहे थे। लेकिन त्रात्स्की के निहितार्थ बिल्कुल भिन्न थे।

यहाँ कुछ शब्द त्रात्स्की के व्यक्तिगत अवसरवाद, अहंकार और संकीर्णतावाद पर भी कहे जाने चाहिए। त्रात्स्की ने 1903 से 1917 के बीच की अपनी अवस्थिति को 1917 में बोल्शेविक पार्टी में शामिल होते समय बिल्कुल बदल दिया। लेकिन अपनी पुरानी स्वतःस्फूर्ततावाद, केन्‍द्रीयता-विरोधी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी अवस्थिति के बारे में त्रात्स्की ने कभी कोई सुसंगत आत्मालोचना नहीं पेश की। अपनी आत्मकथा में त्रात्स्की इस पूरे प्रकरण को ऐसे पेश करते हैं, जिससे कि वह अपनी इज्जत बचा सकें! त्रात्स्की कहते हैं कि वह हमेशा से ही केन्‍द्रीयता के समर्थक रहे थे लेकिन बोल्शेविक पार्टी में शामिल होने से पहले बस वह यह नहीं समझ पाये थे कि एक पार्टी के भीतर जितनी केन्‍द्रीयता की वह अपेक्षा करते थे उससे कहीं ज्यादा केन्‍द्रीयता की जरूरत होती है! साथ ही, त्रात्स्की ने कतिपय नेताओं के विषय में अपने मूल्यांकन को गलत माना और कहा कि वह उन नेताओं के बारे में गलत राय रखने के कारण कई बार सही पक्ष नहीं चुन पाये और मेंशेविक अवसरवाद के विरुद्ध संघर्ष में भी उनका रवैया ढीला रहा। त्रात्स्की के अनुसार कुछ निश्चित मेंशेविकों के प्रति उनका व्यक्तिगत अनुराग-भाव भी संघर्ष के आड़े आ गया! आप देख सकते हैं कि त्रात्स्की कहीं भी अपने सांगठनिक सिद्धान्‍त की आलोचना नहीं पेश करते हैं। यह एक ‘आकस्मिकतावादी’ किस्म की आत्मालोचना है, जिसमें कहीं भी व्यक्ति की कार्रवाइयों का कार्य-कारण सम्‍बन्‍ध का कोई विश्लेषण नहीं किया गया है।

लेकिन दूसरे लोगों के विश्लेषण में त्रात्स्की एक दूसरा ही रवैया अपनाते थे। जो उनसे सहमत होता था और जो उनसे असहमत होता था, उसके आधार पर उनकी आलोचना या विश्लेषण का रवैया निर्धारित हो जाता था। जो उनसे सहमत होता था त्रात्स्की उनके व्यक्तित्वों की अत्युक्ति अलंकार के साथ बड़ाई करते थे; उन्हें शानदार क्रान्तिकारी चरित्र और असाधारण प्रतिभा का धनी बताया जाता था। लेकिन अगर वे ही लोग उनसे असहमत हो जाते थे, तो उन पर निहायत व्यक्तिगत किस्म के और अनैतिक किस्म के हमले किये जाते थे; मिसाल के तौर पर, उनके ऊपर सर्वहारा वर्ग के साथ अपराधपूर्ण गद्दारी करने, लक्ष्य से च्युत हो जाने, बेईमान हो जाने, बुर्जुआ वर्ग का पिछलग्गू बन जाने के आरोप लगाये जाते थे! जिन लोगों ने त्रात्स्की का साथ दिया था, मिसाल के तौर पर विक्तोर सर्ज जैसे लोग, उन्होंने भी जब त्रात्स्की से अपना मतान्‍तर पेश करने का प्रयास किया तो अचानक त्रात्स्की ने उन्हें असाधारण चरित्र के क्रान्तिकारी से भ्रमित भाववादी, पार्टी को पतन की ओर ले जाने वाले बातूनी मूर्ख की संज्ञा दे डाली। सर्ज के अलावा त्रात्स्की ने दुनिया के अन्य त्रात्स्कीपन्‍थी संगठनों के हरेक ऐसे सदस्य के साथ यही बर्ताव किया जिसने त्रात्स्की से मतान्‍तर रखने का साहस किया। विश्व त्रात्स्कीपन्‍थी आन्‍दोलन में त्रात्स्की के बेटे लियोन सेदोव भी थे, जिन्होंने अपनी माँ को लिखे पत्र में कहा था, ‘‘मुझे लगता है कि बूढे होने के साथ पिता जी की कमजोरियाँ कम नहीं हुई हैं, बल्कि अलगाव में रहने के कारण वे और भी ज्यादा मुश्किल, अभूतपूर्व रूप से मुश्किल और खराब हो गयी हैं। उनमें सहिष्णुता का अभाव, बदमिजाजी, अनिरन्‍तरतापूर्ण व्यवहार, रुक्षता, अपमानित करने, चोट पहुँचाने और यहाँ तक कि बरबाद कर देने की उनकी इच्छा बढ़ गयी है। यह कोई व्यक्तिगतगुण नहीं है, बल्कि उनकी पद्धति है और यह सांगठनिक काम के लिए कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है।’’ (सं-डेविड कॉटरिल, दि सर्ज-ट्रॉट्स्की पेपर्स, 1994, प्लूटो प्रेस, पृ. 155, अनुवाद हमारा)

यह व्यक्तिवादी संकीर्णतावादी तरीका त्रात्स्की का कोई लघुकालिक विचलन नहीं था, बल्कि उनकी पद्धति थी। 1902 में दूसरी पार्टी कांग्रेस में लेनिन से मतभेद के बाद और उसके पहले त्रात्स्की ने जिन शब्दों में लेनिन के बारे में अपनी राय रखी उनमें जमीन-आसमान का अन्‍तर था। 1902 में मतभेदों के उजागर होने के बाद अगले तीन वर्षों तक मेंशेविकों ने नये इस्क्रा के जरिये लेनिन के खिलाफ जो कुत्साप्रचार और गाली-गलौच की मुहिम चलायी, उसमें त्रात्स्की ने पुराने मेंशेविकों को भी काफी पीछे छोड़ दिया था। त्रात्स्की ने इन वर्षों के अपने लेखन में लेनिन को ‘‘रॉब्सपियेर का कैरीकेचर’’, ‘‘वीभत्स’’, ‘‘लम्पट’’, ‘‘दलपति’’, ‘‘दुर्भावनापूर्ण व नैतिक रूप से विकर्षक’’ व्यक्ति और ‘‘अंह-केन्‍द्रीयतावादी’’ करार दिया! निश्चित तौर पर, राजनीतिक संघर्ष में कभी-कभी असन्‍तुलित भाषा और व्यक्तिगत आक्षेपों का प्रयोग हो जाता है; लेकिन औरों के लिए अगर यह चूक के रूप में होता था, तो त्रात्स्की के लिए यह एक नियम, एक पद्धति थी। यहाँ तक कि त्रात्स्कीपन्‍थी टोनी क्लिफ ने भी माना है कि मेंशेविकों और बोल्शेविकों के बीच फूट के बाद त्रात्स्की कीचड़ उछालने के मामले में सबसे आगे थे और उन्होंने मार्तोव, प्लेखानोव और जासुलिच जैसे पुराने मेंशेविकों को भी काफी पीछे छोड़ दिया था। त्रात्स्की ने 1917 के ठीक पहले तक लेनिन पर लगातार हमले करना जारी रखा। 1913 में एक मेंशेविक नेता चखीद्जे को लिखे गये एक पत्र में त्रात्स्की ने लिखा था कि ‘‘लेनिनवाद का पूरा ढाँचा इस समय झूठों और फरेबों पर आधारित है और स्वयं इसके भीतर ही इसके पतन के तत्व मौजूद हैं।’’ त्रात्स्की ने इस दौर में लेनिन को ‘‘रूसी मजदूर वर्ग के आन्‍दोलन में मौजूद हर पिछड़ेपन का चतुराई से इस्तेमाल करने वाला’’ व्यक्ति बताया! अगर कोई त्रात्स्की के ऐसे शब्दों को पढ़ता है जिसमें उन्होंने लेनिन पर व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप लगाये हैं, तो उसे लग सकता है कि त्रात्स्की हमेशा से ही लेनिन के संगठन-सम्‍बन्‍धी विचारों और व्यक्तित्व को लेकर सशंकित रहे होंगे और उनकी यह शंका 1903 में दूसरी पार्टी कांग्रेस के बाद पुष्ट हो गयी होगी; लेकिन ऐसा नहीं है। 1903 के पहले त्रात्स्की लगभग इन्हीं मुद्दों पर लेनिन की अवस्थिति के प्रशंसक थे! लेकिन 1903 के बाद अचानक त्रात्स्की के रवैये में परिवर्तन आया जो कि 1917 तक कायम रहा। लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि 1917 में त्रात्स्की ने अपनी इन आलोचनाओं को वापस तो लिया लेकिन उस पूरे दौर में अपने इस रवैये की कोई सुसंगत आलोचना नहीं रखी। इससे साफ दिखता है कि त्रात्स्की के पास लेनिन पर कीचड़ उछालने के लिए इसके सिवाय कोई और कारण नहीं था, कि अब त्रात्स्की और लेनिन के बीच राजनीतिक मतभेद था। ऐसा लगता है कि त्रात्स्की का यह मानना था कि केवल गलत राजनीतिक चरित्र, व्यक्तित्व और समझदारी वाले लोग ही उनसे असहमत हो सकते हैं क्योंकि बाद में भी त्रात्स्की ने उनसे असहमत लोगों के प्रति यही रवैया अपनाया था।

त्रात्स्की ने 1903 की पार्टी कांग्रेस में शुरुआत में लेनिन से भी ज्यादा कठोर शब्दों में अर्थवादियों की आलोचना की थी और इस्क्रा द्वारा अर्थवादियों के खिलाफ चलाये जा रहे संघर्ष का पक्ष लिया था। लेकिन जैसे ही लेनिन के साथ उनका मतभेद हुआ वैसे ही उन्होंने न सिर्फ लेनिन पर आरोपों की बौछार शुरू की, बल्कि अर्थवादियों के खिलाफ इस्क्रा द्वारा चलाये गये संघर्ष को भी क्रान्तिकारियों, बुद्धिजीवियों पर प्रभाव के लिए चलाया जाने वाला संघर्ष करार दे दिया जिसके लिए सर्वहारा वर्ग का संघर्ष पृष्ठभूमि में था। 1905 की क्रान्ति के बाद जब पार्टी में ही कुछ विसर्जनवादी पैदा हुए और जारशाही के दमन के समक्ष पूरी तरह कानूनी बन जाने की वकालत करने लगे, तो लेनिन ने इनके खिलाफ कठोर संघर्ष चलाया। लेकिन विसर्जनवादी अवसरवाद के विरुद्ध संघर्ष को भी त्रात्स्की ने ‘‘मार्क्‍सवादी बौद्धिकतावादियों’’ का ‘‘एक अपरिपक्व सर्वहारा वर्ग पर प्रभाव’’ के लिए संघर्ष बताया! निश्चित तौर पर, इन अवस्थितियों के पीछे पार्टी निर्माण के प्रश्न पर त्रात्स्की का राजनीतिक दीवालियापन भी था, जिस पर हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं। लेकिन यहाँ पर त्रात्स्की का व्यक्तिगत संकीर्णतावाद भी था, जो कि उनके हमलों के स्वर को निर्धारित कर रहा था।

फरवरी क्रान्ति तक त्रात्स्की से जिन दो प्रश्नों पर लेनिन का संघर्ष हुआ वे प्रश्न थे ‘स्थायी क्रान्ति’ की त्रात्स्की की गैर-मार्क्‍सवादी अवधारणा और सांगठनिक उसूलों या पार्टी सिद्धान्‍त का प्रश्न। हमने देखा कि ऊपर से औपचारिक तौर पर त्रात्स्की ने 1917 में बोल्शेविक पार्टी में शामिल होने के बाद चाहे अपनी पुरानी अवधारणाओं को त्याग देने का दावा किया हो और लेनिन की अवस्थिति को अपना लेने का दावा किया हो, लेकिन वास्तव में त्रात्स्की अन्‍दर से न तो लेनिन के क्रान्ति के सिद्धान्‍त को कभी समझ पाये और न ही लेनिन के पार्टी सिद्धान्‍त को। यही कारण था कि लेनिन की मृत्यु के तुरन्‍त बाद ही त्रात्स्की ने एक रचना लिखकर प्रच्छन्न तौर पर यह दावा किया कि अक्तूबर क्रान्ति के अनुभवों ने त्रात्स्की के ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त को सही साबित किया है, और वास्तव में लेनिन ने बाद में यह सिद्धान्‍त अपना लिया था। इसके खिलाफ पार्टी के भीतर ही त्रात्स्की की बुखारिन, स्तालिन, क्रुप्सकाया, जिनोवियेव जैसे वरिष्ठ नेताओं ने कड़ी आलोचना की। साथ ही, त्रात्स्की ने राजनीतिक अल्पसंख्या में आते ही नौकरशाहाना केन्‍द्रीयता छोड़ गुटबाजी की हरकतें शुरू कर दी थीं। न तो क्रान्ति के सिद्धान्‍त के प्रश्न पर त्रात्स्की कभी सही अवस्थिति अपना पाये और न ही सांगठनिक उसूलों के प्रश्न पर। क्रान्ति के बाद ‘एक देश में समाजवाद के निर्माण’ को लेकर त्रात्स्की ने स्तालिन से बहस चलायी और उस बहस में भी त्रात्स्की के इस सिद्धान्‍त का मार्क्‍सवाद-लेनिननवाद विरोधी चरित्र खुलकर सामने आ गया कि ‘एक देश में समाजवाद का निर्माण’ हो ही नहीं सकता। वास्तव में, त्रात्स्की ने बाद में 1936 में सामूहिकीकरण के आन्‍दोलन के सफल होने के बाद स्वयं ही मान लिया था कि सोवियत संघ में समाजवादी उत्पादन सम्‍बन्‍ध स्थापित हो गये हैं! लेकिन एक देश में समाजवाद के निर्माणकी असम्भाव्यता के त्रात्स्की के सिद्धान्‍त की जड़ भी त्रात्स्की की दो गलत अवधारणओं में थीः  पहला, त्रात्स्की के स्थायी क्रान्तिका सिद्धान्‍त और दूसरा त्रात्स्की का अर्थवाद। जैसा कि हमने ऊपर दिखलाया है, ‘स्थायी क्रान्ति’ के सिद्धान्‍त के अनुसार त्रात्स्की का मानना था कि किसान आबादी मजदूर वर्ग द्वारा अपनी पार्टी के नेतृत्व में सत्ता पर कब्जे में कोई सचेतन राजनीतिक भूमिका नहीं निभा सकती है और मजदूर सत्ता स्थापित हो जाने के बाद वह उसी अज्ञान और मूढ़ता के साथ समाजवादी सत्ता के पक्ष में आ जायेगी, जिस अज्ञान और मूढ़ता के साथ वह जार के पक्ष में खड़ी हो जाती है; यानी कि किसान आबादी का कोई सचेत राजनीतिक अभिकरण नहीं होता और सर्वहारा वर्ग द्वारा सही राजनीतिक नेतृत्व दिये जाने पर भी वह क्रान्तिकारी आन्‍दोलन में सचेतन हिस्सेदारी नहीं कर सकती। नतीजतन, क्रान्ति के बाद भी किसानों का समाजवादी सत्ता को जो समर्थन मिलता है वह टिकाऊ नहीं होता बल्कि क्षणभंगुर होता है; ऐसे में, त्रात्स्की के अनुसार, यदि उन्नत पूँजीवादी देशों का सर्वहारा वर्ग क्रान्ति करके रूसी सर्वहारा सत्ता की मदद के लिए नहीं आता, तो फिर रूस जैसे पिछड़े देश में किसानों के अनिश्चिततापूर्ण समर्थन पर सोवियत सत्ता लम्‍बे समय तक नहीं टिक सकती और जैसे ही समाजवाद के निर्माण का कार्यक्रम आगे बढ़ेगा, वैसे ही किसान आबादी ही सोवियत सत्ता के खिलाफ जा खड़ी होगी, जो कि पहले से साम्राज्यवादी घेराबन्‍दी झेल रही सोवियत सत्ता के लिए प्राणांतक सिद्ध होगा! दूसरा कारण जिसके चलते त्रात्स्की एक पिछड़ी उत्पादक शक्तियों वाले देश में समाजवाद के निर्माण को असम्भव मानते थे वह यह था कि पिछड़ी उत्पादक शक्तियों वाले देश में उत्पादन आवश्यकता से कम होगा जिसके कारण अभाव की समस्या होगी; इस अभाव की समस्या के कारण वितरण के कार्य को नियन्त्रित करने के लिए एक संस्था की जरूरत पड़ेगी, जिसकी भूमिका पुलिस जैसी हो जायेगी। यह संस्था राज्य होगी। ऐसे में राज्य में नौकरशाहाना प्रवृत्तियाँ बढ़ेंगी जो कि अन्‍त में मजदूर राज्य को ‘विकृत मजदूर राज्य’ में तब्दील कर देंगी। इसके लिए त्रात्स्की ने वस्तुओं के लिए दुकान में लगने वाली लोगों की लाइन का उदाहरण दिया और कहा कि अगर वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में पैदा नहीं हो रही हैं तो उसके लिए लाइन लगानी पड़ेगी और ऐसी लाइन को नियन्त्रित करने के लिए एक कांस्टेबल की आवश्यकता होगी और यही सर्वहारा राज्यसत्ता के नौकरशाहाना पतन का कारण बनेगा। त्रात्स्की ने लिखा, ‘‘नौकरशाहाना शासन का आधार समाज में उपभोग की वस्तुओं का अभाव होता है, जिसका नतीजा होता है आपस में संघर्ष। जब किसी दुकान में खरीदने के लिए पर्याप्त सामान हों तो खरीदार जब चाहें आ सकते हैं। जब सामान कम हों तो खरीदारों को पंक्ति में खड़ा होने को बाध्य होना पड़ता है। जब पंक्तियाँ बहुत लम्‍बी हों तो व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक पुलिस वाले को रखना पड़ता है। सोवियत नौकरशाही का आरम्भ-बिन्‍दु यही है। इसे पता हैकि किसे कुछ मिलना है, और किसे अभी इन्‍तजार करता है।…ऐसा कोई भी जिसे समृद्धि का वितरण करना हो, वह अपने आपको उस वितरण से कभी बाहर नहीं करता। इस प्रकार सामाजिक आवश्यकता से एक ऐसा अंग पैदा होता है जो अपने सामाजिक रूप से आवश्यक प्रकार्य से आगे निकल जाता है और एक स्वतन्त्र कारक बन जाता है और इस प्रकार पूरे शरीर के लिए एक विशाल खतरा बन जाता है।’’ (लियोन त्रॉत्स्की, दि रिवोल्यूशन बिट्रेड. व्हाट इज दि सोवियत यूनियन एण्ड व्हेयर इज इट गोइंग, 1937, लन्‍दन, फेबर एण्ड फेबर, पृ. 110-11, अनुवाद हमारा)

इतिहास ने दिखला दिया है कि त्रात्स्की के दोनों तर्क ही गलत थे। पहला तर्क वर्ग विश्लेषण से रिक्त लासालवाद, ‘‘वामपन्‍थी’’ दुस्साहसवाद और गैर-द्वन्द्ववादी नजरिये की पैदावार है, जबकि दूसरा तर्क भोंड़े किस्म का अर्थवाद है, जिसके अनुसार सोवियत संघ में मजदूर राज्य में विकृति इसलिए आ गयी क्योंकि उत्पादन कम था! लेकिन तथ्यतः जिस दौर की बात त्रात्स्की कर रहे हैं उस दौर में सोवियत संघ दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक शक्तियों में से एक बन चुका था। हम त्रात्स्की के ‘एक देश में समाजवाद के निर्माण’ के तर्कों का आगे के अध्यायों में और विस्तार से विश्लेषण करेंगे। लेकिन यहाँ इतना समझना जरूरी है कि त्रात्स्की का एक देश में समाजवाद के निर्माणकी असम्भाव्यता का तर्क उनके स्थायी क्रान्तिके गैर-द्वन्‍द्वात्मक लासालवादी और ‘‘वामपन्‍थी’’ दुस्साहसवादी सिद्धान्‍त से ही निकलने वाला एक दक्षिणपन्‍थी तर्क है।

पार्टी निर्माण और गठन के पहले नरोदवाद, ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद और अर्थवाद से चले संघर्ष और पार्टी गठन के बाद मेंशेविकों और त्रात्स्कीपन्थियों से चले संघर्ष वे प्रमुख राजनीतिक संघर्ष थे, जिन्होंने एक ओर शुरुआती दौर में रूस में क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन के आकार और आकृति को निर्धारित किया, वहीं पार्टी गठन के बाद पार्टी के निर्माण की पूरी प्रक्रिया को निर्धारित किया। इस पूरे संघर्ष में लेनिन की भूमिका कम-से-कम 1898-99 से निर्धारक की बन चुकी थी। लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति होगा कि करीब दो से ढाई दशक तक चले इस राजनीतिक संघर्ष को महज लेनिन के योगदानों की श्रृंखला के तौर देखा जा सकता है। लेनिन के नेतृत्व में समूचे बोल्शेविक नेतृत्व ने यह संघर्ष चलाया। निश्चित तौर पर, कई मौकों पर इस नेतृत्व में लेनिन स्वयं अकेले पड़ जाते थे, लेकिन अन्‍ततः यह बोल्शेविक नेताओं की कोर कुल मिलाकर लेनिन की अवस्थिति को अपनाती थी और अन्य विजातीय विचारधारात्मक प्रवृत्तियों से संघर्ष में लेनिन के साथ खड़ी होती थी। कोई भी कम्युनिस्ट एकता इसी प्रकार कार्य करती है। वह किसी भी सूरत में एकाश्मी नहीं हो सकती और द्वन्‍द्वात्मक गति से आगे बढ़ती है। लेनिन की महानता इस पूरे राजनीतिक संघर्ष को अपनी विचारधारात्मक व राजनीतिक समझदारी और नेतृत्व में सही दिशा में आगे ले जाने में निहित थी।

इस अध्याय के परिशिष्ट के तौर पर हम चार्ल्‍स बेतेलहाइम और कोस्तास मावराकिस जैसे ‘‘अतिमाओवादियों’’ का आलोचनात्मक विश्लेषण पेश करेंगे, जिन्होंने मार्क्‍सवाद-लेनिनवाद-माओवाद का एक हेगेलीय भाववादी नियोजन किया है और सोवियत संघ के पूरे इतिहास का एक निहायत भाववादी, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और कहीं-कहीं पर त्रात्स्कीपन्‍थी संस्करण और विश्लेषण पेश किया है। और यह सारा कार्य माओवाद के नाम पर किया गया है। यही कारण है कि हम इनकी एक मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी-माओवादी आलोचना के साथ आगे बढ़ेंगे और 1917 तक के दौर के बारे में विशेष तौर पर बेतेलहाइम ने जो कुछ लिखा है, उस पर अपना दृष्टिकोण रखेंगे।

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित

आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार के निहितार्थ

आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार के निहितार्थ

  • शिशिर

अरविन्‍द केजरीवाल आजकल लोकसभा चुनावों में देश के दौरे पर हैं। केजरीवाल अपनी चुनावी सभाओं में दावा कर रहे हैं कि आम आदमी पार्टी को आने वाले लोकसभा चुनावों में 100 से 200 सीटें तक मिलने वाली हैं। केजरीवाल का निशाना अब कांग्रेस से ज्यादा भाजपा और विशेषकर नरेन्‍द्र मोदी हो गये हैं। बात तो यहाँ तक की जा रही है कि आने वाले चुनावों में अरविन्‍द केजरीवाल नरेन्‍द्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आम आदमी पार्टी के आने से बुर्जुआ चुनावी राजनीति के समीकरणों में थोड़ा परिवर्तन आया है। आम आदमी पार्टी के उभार के कारणों की सही मार्क्‍सवादी समझदारी न होने के कारण कई मार्क्‍सवादी और यहाँ तक मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी संगठनों के क्रान्तिकारियों में दो दिलचस्प किस्म की प्रतिक्रियाएँ देखने को मिल रही हैं। संशोधनवादी पार्टियों, जैसे कि माकपा व भाकपा, के नेता कई मंचों पर चिन्तित दिखे कि आम आदमी पार्टी ने तो उनके राजनीतिक आधार और एजेण्डे में सेंध लगा दी; एक मंच से तो प्रकाश करात ने आम आदमी पार्टी से सीखने की सलाह तक दे दी! जाहिर है, एक गैर-वामपन्‍थी और दक्षिणपन्‍थ की सशक्त छाप रखने वाले लोकरंजक सुधारवाद के उदय ने संसदीय वामपन्थियों और सुधारवादियों के दिल में कम-से-कम कुछ समय के लिए बेरोजगार होने का भय पैदा कर दिया है! जहाँ तक भाकपा (माले) जैसी धुर अवसरवादी संशोधनवादी पार्टी का प्रश्न है, तो वह अपने अवसरवाद की कीमत खुद चुका रही है; कई भाकपा (माले) के नेता, कार्यकर्ता और इनके छात्र विंग के नेता आम आदमी पार्टी में शामिल होने की होड़ में लग गये हैं! कह सकते हैं कि भाकपा (माले) के घर में थोड़ी भगदड मच गयी है। लेकिन इसके लिए थोड़ा ज्यादा गर्म संशोधनवाद परोसने वाले ये ‘‘वामपन्‍थी’’ विदूषक किसी और को दोष कैसे दे सकते हैं? क्या स्वयं भाकपा (माले) के केन्‍द्रीय कमेटी सदस्य अण्णा हजारे के अनशन के दौरान उनके मंच पर जगह पाने के लिए भागे-भागे नहीं गये थे? लेकिन एक सतत् दक्षिणपन्‍थी पुनरुत्थानवादी (अण्णा हजारे एण्ड कम्पनी) ने असतत् ‘‘वामपन्‍थी’’ अवसरवादी को भगा दिया! जब अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार-विरोधी आन्‍दोलन में भाकपा (माले) को दरबान की भूमिका भी नहीं मिली, तो इन्होंने अपना भ्रष्टाचार-विरोधी मंच बनाया – ‘स्टूडेण्ट्स-यूथ अगेंस्ट करप्शन’! भाकपा (माले) अपने राजनीतिक अवसरवाद के कारण यह सब कवायद कर रही थी। मामला यह था कि उस समय मीडिया समर्थित भ्रष्टाचार-विरोधी ‘‘धर्मयुद्ध’’ ने पूरी व्यवस्था के विरुद्ध जनता के अवचेतन असन्‍तोष को भ्रष्टचार-विरोध की पश्चगामी बुर्जुआ राजनीति के वर्चस्व के तहत ला दिया था, बल्कि कह सकते हैं कि विनियोजित कर लिया था। ऐसे में, आम तौर पर जो भ्रष्टाचार-विरोधी माहौल बना था, भाकपा (माले) उसका लाभ उठाने के लिए मचल गयी थी! वैसे भाकपा (माले) के ‘‘वामपन्‍थी’’ अवसरवादी विदूषक किसी भी किस्म की लहर उठने पर उसकी सवारी करने के लिए हमेशा ही मचल जाते हैं! लेकिन हम भाकपा (माले) की ही बात क्यों करें, कई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट समूहों में भी ‘आप’ के उभार को लेकर हताशा का माहौल व्याप्त था और साथ ही उनमें से भी कई लोगों ने आम आदमी पार्टी में शामिल होने का फैसला किया। यह आन्‍दोलन में मौजूद ठहराव और उसके कारण बढ़ती निराशा को भी दिखला रहा था। कई कट्टरपन्‍थी होजापन्‍थी लोग तक आम आदमी पार्टी में शामिल हो गये, बल्कि उसके नेतृत्व में पहुँच गये! यह जो सारा तमाशा चला इससे आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार की पूरी परिघटना के बारे में काफी-कुछ जाहिर होता है।

AAPदिल्ली के चुनावों के बाद, काफी ड्रामे के बाद अन्‍ततः आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में सरकार बनायी। दिल्ली विधानसभा में किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण करीब 16 दिनों तक अनिश्चितता की स्थिति बनी रही। अन्‍ततः आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस का समर्थन स्वीकार किया और सरकार बनाने का फैसला किया। ‘आप’ सरकार बनाने को लेकर ऊहापोह में थी। इसका कारण यह था कि सभी की तरह स्वयं ‘आप’ ने भी ऐसे चुनावी नतीजों की उम्मीद नहीं की थी। एक नयी पार्टी के तौर पर ‘आप’ का प्रदर्शन चौंकाने वाला था। चुनाव लड़ने से पहले भी स्वयं ‘आप’ के ज्यादातर ‘थिंकटैंक’ यही मानकर चल रहे थे कि एक लम्‍बे दौर में ‘आप’ भारतीय चुनावी राजनीति में अपनी जगह बनायेगी। लेकिन पुरानी मुख्य धारा की चुनावी पार्टियों से जनता का मोहभंग इतना जबर्दस्त था कि पहले ही प्रयास में ‘आप’ को 70 में से 28 सीटें हासिल हो गयीं! कांग्रेस ने अपने अनुभव का इस्तेमाल किया और बिना शर्त ‘आप’ को समर्थन दे दिया। अब ‘आप’ के लिए एक ‘धर्मसंकट’ की स्थिति पैदा हो गयी। ‘आप’ के श्रीमान सुथरे अरविन्‍द केजरीवाल शुरू से यह दावा करते रहे हैं कि उनकी पार्टी ‘मुद्दा-आधारित’ राजनीति करती है और विचारधाराओं और ‘लेफ्ट-राइट-सेण्टर’ से परे है! चूँकि कांग्रेस ने ‘आप’ को अपने चुनावी वायदे पूरे करने के लिए बिना शर्त समर्थन दिया इसलिए अब भागने का कोई रास्ता नहीं बचा था। एक प्रयास 18-सूत्रीय पत्र के रूप में ‘आप’ ने किया, जो कि उन्होंने भाजपा और कांग्रेस को भेजा। भाजपा ने तो जवाब देने से ही इंकार कर दिया, लेकिन कांग्रेस ने स्पष्ट जवाब दिया और कहा कि 18 माँगों में से 16 माँगें ऐसी हैं, जो कि प्रशासनिक मुद्दे हैं, और सरकार बनने के बाद ‘आप’ को उन विशिष्ट मुद्दों पर कांग्रेस के समर्थन की आवश्यकता नहीं है, और दो मुद्दे ऐसे हैं जो कि कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में भी थे और कांग्रेस उन पर ‘आप’ को बिना शर्त समर्थन देगी। इसके बाद ‘आप’ ने कहा कि वह जनता के बीच जनमत सर्वेक्षण करेगी ताकि यह पता लगा सके कि जनता उनके द्वारा सरकार बनाये जाने के पक्ष में है या नहीं! सभी जनसभाओं में और मीडिया पोल में ‘जनता’ की राय यह सामने आयी कि केजरीवाल को सरकार बनानी चाहिए। कारण यह था कि जनता केजरीवाल द्वारा किये गये वायदों को पूरा करने का इन्‍तजार कर रही थी; मसलन, बिजली का बिल 50 फीसदी कम करना और 700 लीटर प्रतिदिन मुफ्त पानी हर घर में पहुँचाना, 500 नये स्कूल खोलना और सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता को निजी स्कूलों से बेहतर बनाना, सभी साढ़े तीन लाख सरकारी और 50 लाख से ज्यादा गैर-सरकारी ठेका कर्मचारियों को स्थायी करना, आदि। इनमें से पहले दो वायदे ऐसे हैं जिनका पूरा होने का दिल्ली की आम जनता बेसब्री से इन्‍तजार कर रही थी और केजरीवाल ने अपने बच्चों की कसम खाकर कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वे अपने चुनावी वायदों में आधे एक माह में पूरे कर देंगे और बाकी छह महीनों में। अब ‘आप’ के लोग कांग्रेस को कुछ नहीं कह सकते थे (मसलन, कि कांग्रेस की तो आदत ही सरकार गिराने की है, वगैरह) क्योंकि एक या दो महीने में तो कांग्रेस सरकार गिराने नहीं जा रही थी और केजरीवाल ने अपने आधे वायदे पूरे करने के लिए इतना ही वक्त माँगा था! लुब्बोलुआब यह कि सरकार बनाने के अलावा केजरीवाल के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था और अब समस्या यह थी कि केजरीवाल और उनके सारे ‘‘समाजवादी’’ सलाहकार भी जानते थे कि केजरीवाल सरकार ये वायदे पूरे कर ही नहीं सकती। केजरीवाल अब इस उम्मीद में थे कि अगर वे वायदों के 10 प्रतिशत को आधा पूरा कर दें और बाकी 90 प्रतिशत जमकर गर्मागर्म नौटंकी और लोकरंजकतावादी जुमलों की राजनीति करके एक-डेढ महीने काट दें तो जनता के बीच में कुछ वाहवाही हो जायेगी और आने वाले लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी अपनी बढ़ी हुई लोकप्रियता के साथ जा पायेगी। लेकिन दिक्कत यह है कि केजरीवाल जिस आदर्शवादी, श्रीमान सुथरा की छवि बनाकर और कांग्रेस और भाजपा को जिस भाषा में कोसते हुए सत्ता में पहुँचे थे वह सबकुछ बड़े बारीक सन्‍तुलन पर खड़ा था, और एक हल्के धक्के से आप की ‘छवियों के कौतुक-स्वाँग की राजनीति’ का सन्‍तुलन गड़बड़ा सकता है। यही कारण था कि सरकार बनाने के फैसले की घोषणा करने के लिए ‘आप’ ने जो प्रेस कान्फ्रेंस की उसमें केजरीवाल समेत सारे ‘आम आदमियों’ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं! केजरीवाल ने अपनी 49 दिनों की सरकार में जो धोखा और नौटंकी की वह अब धीरे-धीरे लोगों के सामने आ रही है। सबसे बड़ा धोखा केजरीवाल ने दिल्ली के ठेका मजदूरों और कर्मचारियों के साथ किया; 6 फरवरी को हजारों ठेका मजदूरों के विशाल प्रदर्शन के समक्ष केजरीवाल सरकार के श्रम मन्त्री गिरीश सोनी (जो कि खुद एक चमड़े के कारखाने का मालिक है!) के मुँह से निकल गया कि केजरीवाल सरकार दिल्ली राज्य ठेका उन्मूलन कानून नहीं पेश करेगी। और जब मजदूरों का प्रतिनिधि-मण्डल अलग से श्रम मन्त्री से मिला तो उसने साफ बोल दिया कि ठेका प्रथा उन्मूलन विधेयक इसलिए नहीं पेश किया जा सकता क्योंकि इससे नियोक्ताओं और ठेकेदारों का नुकसान होगा! जाहिर-सी बात है कि एक कारखाना-मालिक श्रम मन्त्री यही बोलेगा! बहरहाल, ठेका मजदूरों से किये गये धोखे के कारण केजरीवाल की काफी फजीहत हुई। डीटीसी कर्मचारियों के प्रदर्शन में मजदूरों ने केजरीवाल को दौड़ा लिया और उसे वहाँ से भागना पड़ा; ठेका शिक्षकों को केजरीवाल ने जबरन दिल्ली सचिवालय से हटवा दिया; ठेके पर काम करने वाले होमगार्डों ने केजरीवाल के निवास के बाहर प्रदर्शन किया।

दूसरा धोखा केजरीवाल ने पानी और बिजली के मसले पर किया। बाद में पता चला कि बिजली और पानी की सब्सिडियाँ केवल 31 मार्च तक के लिये दी गयी थीं और उसके बाद उस पर सरकार को पुनर्विचार करना था! यानी कि 31 मार्च तक के लिए सब्सिडी देने के कदम को मीडिया में चमकाओ, यह मत बताओ कि यह स्थायी तौर पर दी गयी सब्सिडी नहीं है और उसके बाद 31 मार्च से पहले ही भाग जाओ! बिजली पर दी गयी 50 प्रतिशत सब्सिडी का एक हिस्सा ही केजरीवाल सरकार ने दिया, क्योंकि लगभग आधी सब्सिडी शीला दीक्षित सरकार के समय से ही दी जा रही थी; और केजरीवाल सरकार ने जो 372 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी है अगर कोई सरकार 31 मार्च के बाद उसे जारी रखती है, तो इससे फायदा अम्बानी और टाटा को ही होगा! क्योंकि टाटा और अम्बानी बिजली के वितरण के लिए उसी दर से रकम सरकार से वसूलेंगे; सरकार जो सब्सिडी देगी वह उसे जनता की जेब से ही करों को बढ़ाकर वसूलेगी! इसके अलावा कोई रास्ता ही नहीं है! केजरीवाल के तमाम झूठ भी पकड़ में आये जिसमें टाटा की डिस्कॉम कम्पनी एनडीपीएल की ओर से 29 जनवरी को बिजली के दर बढ़ाने के लिए केजरीवाल को लिखा गया पत्र, जिसके बारे में केजरीवाल ने टाटा के खिलाफ कुछ नहीं बोला और केवल अम्बानी के खिलाफ बोलता रहा। क्योंकि केजरीवाल के लिए टाटा साफ-सुथरे पूँजीवाद और अम्बानी साँठ-गाँठ करने वाले पूँजीवाद की निशानी है! और केजरीवाल को साफ वाला पूँजीवाद मँगता है! केजरीवाल उस समय टाटा-राडिया टेप भूल गये; इस पर केजरीवाल ने कोई मुकदमा नहीं किया; जबकि अम्बानी और वीरप्पा मोईली पर किया! केजरीवाल ने जनलोकपाल विधेयक से पहले जो भी निर्णय पेश किये उन पर रजामन्‍दी प्राप्त करने के लिए उन्हें दिल्ली के उपराज्यपाल के पास भेजा, जैसे कि पानी और बिजली पर लिये गये निर्णय। लेकिन जनलोकपाल के विधेयक पर पूर्वसहमति न लेने पर केजरीवाल अड़ गया क्योंकि उस समय उसे भागना था! योगेन्‍द्र यादव जैसे चिकने-चुपड़े ‘‘समाजवादी’’ और आनन्‍द कुमार जैसे मरे-गिरे ‘‘समाजवादी’’ केजरीवाल के कन्धे पर बैठकर लगातार उसे बता रहे थे कि कब किसे ‘टीप’ मार कर भागो! उन्होंने केजरीवाल को फरवरी माह के मध्य में समझा दिया कि अब ‘जनता’ को ही टीप मारकर भाग लो, नहीं तो कुछ दिन सिर पर दिल्ली के मुख्यमन्त्री के काँटों का ताज रहा तो इज्जत ढाँपने के लिए एक रुमाल भी नहीं मिलेगा!

लेकिन इस सारी छीछालेदर के बावजूद किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि भारतीय पूँजीवादी राजनीति में आम आदमी पार्टी की भूमिका खत्म हो गयी है। बुर्जुआ राजनीति के हर नये चुनावी खिलाड़ी का रंगरोगन कुछ दिनों में थोड़ा तो उतरता ही है! और दूसरी बात यह कि अभी भारतीय पूँजीवादी राजनीति को आम आदमी पार्टी की टुटपुँजिया, अवसरवादी, दक्षिणपन्‍थी लोकरंजकतावादी और सुधारवादी राजनीति की जरूरत है। जनअसन्‍तोष आने वाले समय में और भी बढ़ने वाला है; बुर्जुआ राजनीति पहले ही इस कदर अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है कि अब पूँजीवादी राजनीति में एक नये टुटपुँजिया, सदाचारी, आत्मिक उभार की जरूरत है, जो कि भ्रष्टाचार-विरोध की यथास्थितिवादी राजनीति के रूप में आम आदमी पार्टी मुहैया करा रही है। यहाँ हम इस तर्क के विस्तार में नहीं जायेंगे कि भ्रष्टाचार पूँजीवाद का विचलन नहीं बल्कि नियम है; जिस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का बुनियादी प्रेरक तत्व और तर्क ही निजी मुनाफा, निजी सम्पत्ति और निजी पूँजी संचय है वहाँ यह मुनाफा बुर्जुआ संविधान और संहिताओं के नियमों-कानूनों के दायरे में ही सीमित नहीं रहेगा; वह निश्चित तौर पर उसका बार-बार अतिक्रमण करेगा; कोई सख्त से सख्त कानून भी इस भ्रष्टाचार पर कुछ समय के लिए कुछ परिमाणात्मक रोक लगा सकता है; लेकिन ऐसा कोई भ्रष्टाचार-विरोधी कानून, संस्था, प्राधिकार या अधिकारी अन्‍त में पूँजी की शक्ति के आगे नतमस्तक होगा ही! ऐसे में, समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध किये बिना यदि कोई सिर्फ भ्रष्टाचारी, ‘साँठ-गाँठ करने वाले’ पूँजीवाद का विरोध कर रहा है और एक सदाचारी सन्‍त पूँजीवाद का भ्रम फैला रहा है, तो या तो वह खुद मूर्ख है या जनता को मूर्ख बना रहा है। निश्चित तौर पर अरविन्‍द केजरीवाल और योगेन्‍द्र यादव जैसे उसके चिकने-चुपड़े-चाशनी में डूबे ‘‘समाजवादी’’ सलाहकार मूर्ख नहीं हैं! आम आदमी पार्टी की पूरी राजनीति के चरित्र को मार्क्‍सवादियों-लेनिनवादियों को गहरायी से समझना चाहिए। यह आन्‍दोलन के समक्ष एक दोहरी सम्भावना पैदा कर रही है – एक सम्भावना इनके लोकरंजकतावादी दक्षिणपन्‍थी अवसरवाद और सुधारवाद को बेनकाब करने की चुनौती के रूप में है, तो दूसरी सम्भावना इस अवसर के रूप में है कि इनके कहीं भी सत्ता में आने पर पूरी बुर्जुआ व्यवस्था की सीमाओं को जनता के सामने उजागर करने का एक मौका क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को मिलता है। लेकिन इस दोहरी सम्भावना को समझने की बजाय कई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी समूहों में आम आदमी पार्टी के उभार को लेकर एक राजनीतिक भयाक्रान्‍तता या फिर निराशा, पराजयबोध और ‘‘बेरोजगार हो जाने के खतरे’’ का बोध पैदा हो गया है! इसका कारण यही है कि ‘आप’ के उभार की परिघटना का कोई ऐतिहासिक द्वन्‍द्वात्मक विश्लेषण इनके पास मौजूद नहीं है।

एक बात तय है कि भारतीय पूँजीवादी चुनावी राजनीति में ‘आप’ का उभार एक परिघटना है। ‘आप’ के उभार के क्या मायने हैं? ‘आप’ का राजनीतिक चरित्र क्या है? ‘आप’ की पूँजीवादी राजनीति में क्या प्रासंगिकता है? ‘आप’ क्या कोई लघुजीवी परिघटना है या फिर यह भारतीय राजनीति में एक दीर्घकालिक परिघटना के रूप में आयी है? इस टिप्पणी में हम इन्हीं केन्‍द्रीय मुद्दों पर चर्चा करेंगे।

आम आदमी पार्टी के उभार का कालभ्रमित प्राक्-इतिहास

कई राजनीतिक विश्लेषक यह दावा कर रहे हैं कि ‘आप’ का उभार भारतीय राजनीति में एक नयी परिघटना है। उनका मानना है कि इससे भारत में पूँजीवादी चुनावी राजनीति ज्यादा साफ-सुथरी बनेगी, ज्यादा भागीदारीपूर्ण बनेगी, अन्य चुनावी पार्टियों को भी ‘साफ’ राजनीति करने पर मजबूर होना पड़ेगा, वगैरह। लेकिन हमें इस पूरे विश्लेषण पर गहरा सन्‍देह है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्य इस विश्‍लेषण को गलत ठहराते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकट के दौरों में हमेशा ही निम्न मध्यमवर्गीय आदर्शवाद और उच्च मध्यमवर्गीय प्रतिक्रियावाद का इस्तेमाल करती है। ‘आप’ के मौजूदा उभार के सन्‍दर्भ में हम पाठकों को सत्तर के दशक के जेपी आन्‍दोलन और ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के जुमले और उसके बाद जनसंघ के उभार और जनता पार्टी और उसके बाद भाजपा के उदय की याद दिलाना चाहते हैं। सत्तर का दशक वह समय था जब नक्सलबाड़ी आन्‍दोलन को कुचलने की प्रक्रिया जारी थी, रेलवे की प्रसिद्ध हड़ताल हुई थी, इन्दिरा गाँधी की सरकार ने आपातकाल लागू किया था और पूरे के पूरे पूँजीवादी शासन के प्रति एक गहरा अविश्वास, मोहभंग और नापसन्‍दगी का माहौल था। पूँजीवादी शासन के प्रति यह मोहभंग जल्द ही पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति मोहभंग में तब्दील हो सकता था। पाठकों को शायद यह भी याद हो कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी उस समय संकट का शिकार थी और बेरोजगारी, महँगाई और भ्रष्टाचार चरम पर था। पूँजीवाद को उस समय एक ऐसे सामाजिक और राजनीतिक आन्‍दोलन की जरूरत थी, जो कि आम मेहनतकश और निम्न मध्यमवर्गीय जनता के असन्‍तोष को सुरक्षित चैनलों में अपचयित कर सके। जेपी आन्‍दोलन ने इसी काम को अंजाम दिया। जेपी आन्‍दोलन ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फिर से मुख्यधारा में लाया और उसके परिणामस्वरूप जनसंघ और फिर जनता पार्टी के उभार के बारे में सभी जानते हैं। इस उभार के पीछे एक ओर धुर दक्षिणपन्‍थी ताकतें खड़ी थीं, तो दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के समाजवादी भी खड़े थे। यहाँ पर सामाजिक-जनवाद और फासीवाद के बीच के जैविक सम्‍बन्‍ध शायद इतिहास में सबसे खुले तौर पर उजागर हुए थे।

आज भी ‘आप’ के उभार के पीछे जो दिमाग काम कर रहे हैं उनमें से अधिकांश जेपी-ब्राण्ड समाजवादी हैं, या फिर लोहियावादी समाजवादी। मिसाल के तौर पर, योगेन्‍द्र यादव और प्रोफेसर आनन्‍द कुमार। वहीं दूसरी ओर इस उभार के पीछे तमाम भूतपूर्व मार्क्‍सवादी, खास तौर पर कथित पूर्व नक्सलवादी, और पूर्व एमएल के लोग, जो अब बेशर्म किस्म के दलाल बन चुके हैं, भी इस उभार के पीछे हैं। मिसाल के तौर पर, अभय कुमार दुबे और सीएसडीएस (सेण्टर फॉर स्टडी ऑफ डेवेलपिंग सोसायटीज) में बैठे अन्य घाघ राजनीतिक चिन्‍तक-विश्लेषक। यह भी कोई इत्तेफाक नहीं है कि सीएसडीएस के संस्थापक रजनी कोठारी थे, जो कि साम्राज्यवाद के एजेण्ट के रूप में भारत के वामपन्‍थ में घुसाये गये व्यक्ति थे। यह भी अपवाद नहीं है कि सीएसडीएस द्वारा चलायी जाने वाली मीडिया पहल ‘सराय’ की फण्डिंग साम्राज्यवादी फण्डिंग एजेंसियों, विशेष तौर पर, डच फण्डिंग एजेंसी डीवाग से आती है। और अन्‍त में, यह भी अपवाद नहीं है कि विश्व बैंक ने भारत में शुरू हुए भ्रष्टाचार-विरोधी आन्‍दोलन ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ को समर्थन दिया था, जिससे कि अरविन्‍द केजरीवाल और उनकी ‘आप’ का जन्म हुआ। इस समय पूँजीवादी संकट को विद्रोहों और क्रान्तियों की ओर जाने से रोकने के लिए ‘आप’ जैसी पार्टियों की जरूरत पूँजीवादी शासक वर्ग को है, और यही बात जेपी आन्‍दोलन और उसके नतीजे के तौर पर पैदा हुए राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है। जेपी आन्‍दोलन की ही तरह आम आदमी पार्टी की राजनीति भी गर्म जुमलों की राजनीति करती है; अगर जेपी आन्‍दोलन ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ (क्या कोई क्रान्ति असम्पूर्ण भी होती है!?) तो आम आदमी पार्टी ‘नयी आजादी’ और ‘पूर्ण स्वराज’ का नारा उछालती है! लेकिन यह ‘नयी आजादी’ और ‘पूर्ण स्वराज’ क्या है? यह है एक जनलोकपाल कानून + तथाकथित ‘तृणमूल’ जनवाद (मोहल्ला सभा आदि) + व्यवसाय जगत पर से हर प्रकार के राजकीय विनियमन का खात्मा + और श्रम और पूँजी के बीच एक कल्पित राक्षस (भ्रष्टाचार) के विरुद्ध गठजोड़ की राजनीति की आड़ में पूँजीपतियों की सेवा + औद्योगिक-वित्तीय पूँजी और नौकरशाह पूँजीपति वर्ग के बीच अधिशेष के बँटवारे की लड़ाई में औद्योगिक-वित्तीय पूँजी का हिस्सा बढ़ाने की राजनीति। हाल ही में, लोकसभा चुनावों के लिए चन्‍दे की भीख माँगने के लिए अरविन्‍द केजरीवाल सीआईआई के मंच पर पहुँचा। वहाँ पर केजरीवाल की हालत उस बिल्ली जैसी दिख रही थी, जिस पर मछली वाले पानी की बाल्टी उड़ेल दी हो! हर वाक्य के शुरू और अन्‍त में ‘सर जी’, ‘जी-जी’ लगाकर केजरीवाल पूँजीपतियों से आम आदमी पार्टी के लिए सहयोग की माँग कर रहा था। और बदले में क्या देने का वायदा कर रहा था? केजरीवाल ने पूँजीपतियों से वायदा किया कि अगर ‘आप’ की सरकार बनती है तो वह उद्योग-व्यवसाय पर से हर प्रकार का विनियमन समाप्त करेगा (दूसरे शब्दों में वही बात जो राजीव गाँधी और उसके बाद तमाम पार्टियों ने कही थी, यानी इंस्पेक्टर राज खत्म करना!) और ‘देश में धन्‍धा लगाने और चलाने की रास्ते की सभी बाधाओं को समाप्त कर देगा; केजरीवाल ने कहा कि पूँजीपति देश की सम्पदा पैदा करते हैं (तो मजदूर क्या करते हैं!?) और उनकी ‘‘मेहनत’’ की फसल भ्रष्टाचारी नेता और नौकरशाह लेते जाते हैं! केजरीवाल ने पूँजीपतियों के ‘‘दुख-तकलीफ’’ पर काफी आँसू बहाये और इस बार आँसू घड़ियाली नहीं लग रहे थे! ऐसा लग रहा था मानो एकदम दिल से बात निकल रही है! केजरीवाल ने यह भी कहा कि अम्बानी से उनकी कोई दुश्मनी नहीं है! आगे उसने कई साक्षात्कारों ने बोला कि तेल निकालने पर प्रति इकाई एक डॉलर का खर्च आता है और उसके लिए रिलायंस अभी 4 डॉलर ले रही है और इसे आगे 8 डॉलर करने के लिए कह रही है; इस पर केजरीवाल की आपत्ति यह नहीं थी कि देश के तेल को किसी पूँजीपति को निकालने के लिए दें ही क्यों जब देश की सरकार यह कार्य देश के करोड़ों बेरोजगार नौजवानों में से तमाम को नौकरी देकर कर सकती है? क्या यह ठेका उचित है? केजरीवाल के मुताबिक उचित है क्योंकि ‘सरकार का काम धन्‍धा करना नहीं होना चाहिए!’ (‘दि गवर्नमेण्ट शुड हैव नो बिजनेस इन बिजनेस’) केजरीवाल का रिलायंस से यह कहना है कि 1 डॉलर की जगह 2 डॉलर ले लो, 2.50 डॉलर ले लो, 3 डॉलर ले लो! क्या 4 डॉलर या 8 डॉलर लेकर लूटोगे? लेकिन किस तर्क से 2 या 3 डॉलर लूट नहीं है और 4 डॉलर लूट है? यह तो लूट की मात्रा को कम करने की माँग है, लूट को खत्म करने की नहीं! केजरीवाल की आर्थिक नीति कांग्रेस द्वारा 1991 में पेश की गयी आर्थिक नीति का ही एक शुद्धतावादी संस्करण है, यानी कि निजीकरण-उदारीकरण, बिना भ्रष्टाचार के! और केजरीवाल जब भ्रष्टाचार की भी बात उठाते हैं तो पूँजीपतियों के तलवे चाटते हुए सारी जिम्मेदारी सरकार और नौकरशाही पर डालकर पूँजीपति वर्ग को पापमुक्त करते हैं! यानी अगर कोई कम्पनी घूस देकर सरकार से कम दाम पर स्पेक्ट्रम खरीदती है और फिर उसे कई गुना दाम पर बेचती है, तो यह केवल सरकारी भ्रष्टाचार है; इस मामले में बेचारा पूँजीपति तो भ्रष्टाचार करने को सरकार व नौकरशाही द्वारा ‘मजबूर’ किया गया है। केजरीवाल एण्ड कम्पनी एक ‘फ्री एण्ड फेयर’ प्रतियोगिता वाले मुक्त व्यापार पूँजीवाद की हिमायत करते हैं। यह पूँजीवाद के उत्तर-क्लासिकीय युग में क्लासिकीय पूँजीवाद के किताबी सपने की बात करना है (क्योंकि पूँजीवाद अपने किसी भी युग में पूर्ण रूप से ‘फ्री एण्ड फेयर’ प्रतियोगिता की स्थितियाँ नहीं मुहैया कराता था और इस प्रकार के ‘न्यायपूर्ण प्रतियोगितावादी’ पूँजीवाद का उदाहरण केवल क्लासिकीय बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों की किताबों में मिलता है, पूँजीवाद के असल इतिहास में कभी नहीं।) इसलिए केजरीवाल की नौटंकी पार्टी का काम केवल भ्रष्ट और साँठ-गाँठ करने वाले पूँजीवाद की बात करके, पूँजीवाद को दोषमुक्त करना है। ठीक वही काम जो कि जेपी आन्‍दोलन ने किया था।

जाहिर है, इतिहास कभी अपने आपको हूबहू दुहराता नहीं है। लिहाजा, ‘आप’ का जेपी आन्‍दोलन, जनसंघ और जनता पार्टी के साथ कोई सादृश्य निरूपण नहीं किया जा सकता है। न ही आज के पूँजीवादी संकट का सादृश्य निरूपण सत्तर के दशक के पूँजीवादी संकट के साथ किया जा सकता है। यहाँ तथ्यों, घटनाओं और दलों में समानता देखने की बजाय, पूँजीवाद की कार्यप्रणाली पर निगाह डालने की आवश्यकता है। इस रूप में ‘आप’ का उभार मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की एक जरूरत के रूप में समझा जा सकता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था के विभ्रमों को तोड़ने का नहीं, बल्कि उन्हें बनाये रखने और दीर्घजीवी बनाने का काम करता है। आगे ‘आप’ की पूरी राजनीति को अनावृत्त करते हुए हम इस बात को पुष्ट करेंगे।

‘आप’ की राजनीति का चरित्र और उसका सामाजिक आधार

अगर हम ‘आप’ के सामाजिक आधार और उसके घोषणपत्र पर निगाह डालें तो हमें उसकी प्रकृति और चरित्र को समझने में सहायता मिलेगी। जैसा कि हम बता चुके हैं, ‘आप’ की जड़ अण्णा हजारे द्वारा शुरू किये गये भ्रष्टाचार-विरोधी आन्‍दोलन में थी। यह आन्‍दोलन 26/11 के आतंकवादी हमले के बाद शुरू हुआ था। देश में उस समय भी शासक वर्ग के नग्न भ्रष्टाचार के विरुद्ध गहरा रोष था; आम मेहनतकश जनता महँगाई और बेरोजगारी के बोझ तले कराह रही थी; देश के निर्धनतम लोग भुखमरी और कुपोषण से मर रहे थे। ऐसे समय में, जब देश के पूँजीवादी राजनीतिक वर्गों के साथ मोहभंग अपने चरम पर था, अण्णा हजारे अवतरित होते हैं! अण्णा हजारे का पूरा आन्‍दोलन एक गैर-जनवादी आन्‍दोलन था; यह बुर्जुआ जनवाद की विफलता को हर प्रकार के जनवाद के नकार और एक तानाशाही जैसी व्यवस्था के समर्थन तक ले जाता था। पाठकों को याद होगा कि अण्णा हजारे का जनलोकपाल का प्रस्ताव चुनाव के सिद्धान्‍त को खारिज करता था; विद्वत लोगों की परिषद को जनलोकपाल चुनने की जिम्मेदारी देता था; उसे सभी चुने गये प्रतिनिधि (चाहे यह प्रतिनिधित्व कितना भी सीमित हो!) निकायों के ऊपर वरीयता और प्राधिकार देता था। अण्णा हजारे खुद कहते थे कि इस जनता के ऊपर कुछ भी कैसे छोड़ा जा सकता है जो टीवी और साड़ी के बदले अपना वोट दे आती है! रालेगण सिद्धि में अण्णा हजारे का प्रयोग भी दिखलाता था कि जनवाद के सिद्धान्‍त में अण्णा हजारे का कोई भरोसा नहीं है। उनके लिए परिवर्तन, विकास और सुधार का कार्य जनता नहीं कर सकती जो कि मूढ़ और अज्ञानी है; यह काम समाज के लिए कुछ विद्वतजन करते हैं और उनकी परिषद को ही यह उत्तरदायित्व सौंपा जा सकता है, जो दण्ड और अनुशासन के जरिये जनता को रास्ते पर रखे! इसी आन्‍दोलन में अरविन्‍द केजरीवाल और उसकी वानर सेना भी शामिल थी। अण्णा हजारे तो महज एक ‘लांच पैड’ थे! इसी आन्‍दोलन से निकलकर अरविन्‍द केजरीवाल ने चुनावी दल बनाने का फैसला किया क्योंकि अण्णा हजारे का आन्‍दोलन अपने सन्‍तृप्ति बिन्‍दु पर पहुँच रहा था। अब जनता का भी एक हिस्सा समझ रहा था कि केवल धरना-अनशन कर कुछ हासिल नहीं होगा। ठीक इसी समय पर अरविन्‍द केजरीवाल ने अपना ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेला। हालाँकि, इसके पीछे दिमाग योगेन्‍द्र यादव, आनन्‍द कुमार, अभय कुमार दुबे, प्रशान्‍त भूषण आदि जैसे सुधारवादियों, समाजवादियों का था। यहीं से अण्णा हजारे और केजरीवाल के रास्ते अलग हो गये। वास्तव में, यह पूँजीवादी शासक वर्ग के लिए अच्छा ही था क्योंकि उसे इन दोनों ही मदारियों की जरूरत है!

अण्णा हजारे के समर्थन में तमाम टुटपुँजिया वर्ग इकट्ठा हुए थे, जिनकी पहचान राजनीतिक चेतना के त्रासद अभाव से की जा सकती है। एक तरफ उच्च मध्यवर्ग की प्रतिक्रिया अण्णा हजारे के आन्‍दोलन के साथ खड़ी थी, जिसे कि अण्णा हजारे का जनवाद-नकार बहुत रास आ रहा था; वहीं, निम्न मध्यमवर्गीय आबादी भी महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि से तंग होकर इस आन्‍दोलन के पक्ष में खड़ी थी, क्योंकि अपनी चेतना की कमी के कारण वह इन समस्याओं के मूल कारण को नहीं देख पा रही थी और उसे लग रहा था कि अण्णा हजारे जैसा कोई ‘विजिलाण्टे’, रखवाला, रक्षक, महात्मा इन समस्याओं का जादू की छड़ी से समाधान कर देगा। हर समस्या को भ्रष्टाचार और हर निम्न मध्यवर्गीय असन्‍तोष को ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्‍दे मातरम’ जैसे जुमलों में अपचयित कर दिया गया।

केजरीवाल का सामाजिक आधार भी इसी प्रकार है, हालाँकि अनुपात बदल गये हैं। केजरीवाल और उसकी ‘आप’ शुरुआत में शहरी उच्च और मध्य मध्यमवर्गीय आबादी में आधार बनाते हुए सामने आये। आई.आई.टी., मेडिकल, मैनेजमेण्ट के छात्र, सिविल सेवा के आकांक्षी युवा, विश्वविद्यालय आदि में पढ़ने वाले उच्च मध्यवर्गीय नौजवान केजरीवाल की ‘आप’ के शुरुआती सामाजिक आधार का निर्माण करते थे। इन वर्गों के भीतर जो प्रतिक्रियावाद मौजूद था वह केजरीवाल की सबसे अधिक सहायता कर रहा था। लेकिन योगेन्‍द्र यादव और आनन्‍द कुमार जैसे समाजवादियों ने इस उच्च मध्यवर्गीय परिघटना को निम्न मध्यम वर्गों और एक हद तक गरीब मजदूर आबादी के एक हिस्से पर अपना वर्चस्व कायम करने के योग्य बनाया। यही वे लोग थे जो इस बात का समझ रहे थे कि पढ़े-लिखे शहरी मध्यवर्ग के ‘विकास’, ‘टेक्नोक्रैटिक एफिशियेंसी’, सामाजिक डार्विनवाद, ‘मुक्त’ प्रतियोगिता आदि के प्रति प्रतिक्रियावादी आग्रह के बूते पर ही ‘आप’ का चुनावी प्रयोग सफल नहीं हो सकता है। इन्होंने ‘आप’ के एजेण्डे में गरीब आबादी की माँगों को समेकित करने का काम किया। मिसाल के तौर पर, बिजली और पानी के सवाल के अलावा, अनधिकृत कालोनियों को नियमित करना, सभी झुग्गी निवासियों को पक्के मकान देना, सभी ठेका कर्मचारियों को नियमित करना, 500 नये सरकारी स्कूल बनवाना आदि जैसी माँगों को अलग-अलग समय पर ‘आप’ अपने माँगपत्रक में शामिल करती गयी। जिन समस्याओं का जिक्र ‘आप’ ने अपने घोषणापत्रों और पर्चों आदि में किया उनमें से एक के लिए भी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था, उसमें निहित असमानता, संसाधनों के असमान वितरण, सम्पत्ति सम्‍बन्‍धों को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। इन सबके लिए केवल कांग्रेस, भाजपा जैसी पार्टियाँ और उनका भ्रष्टाचार जिम्मेदार था! हर समस्या का एक ही कारण – भ्रष्टाचार! यहाँ तक कि गरीबी के लिए भी काले धन को जिम्मेदार ठहराया गया जो कि विदेश चला जाता है! इस बात पर कोई सवाल नहीं उठाया गया कि जो अकूत सम्पदा देश के बाहर नहीं जाती उसका असमान वितरण क्यों होता है, और यह कि अगर विदेशों में जमा काला धन वापिस आ गया तो क्या वह भी उसी अनुपात में विभाजित नहीं होगा, जिस अनुपात में देश में ही रहने वाली सम्पदा होती है? लेकिन अमीरी-गरीबी, असमानता के बुनियादी सामाजिक-आर्थिक मुद्दे और इस सवाल को कि इसके लिए जिम्मेदार वास्तव में कौन है, केजरीवाल कभी उठाते ही नहीं और अगर कभी इस पर दो शब्द बोलते भी हैं तो इसे भी भ्रष्टाचार का परिणाम बता देते हैं! क्यों? इसे समझना जरूरी है।

चुप-चुप बैठे हो जरूर कोई बात है!

केजरीवाल दावा करते हैं कि ‘आप’ न तो वामपन्‍थी है, न दक्षिणपन्‍थी और न ही मध्यमार्गी! वह विचारधारा प्रेरित राजनीति नहीं करती है। उसकी राजनीति एक उत्तर-विचारधारा और उत्तर-राजनीति के दौर की राजनीति है! इतिहास गवाह है कि अन्‍ततः ऐसी सभी तथाकथित उत्तर-विचारधारा राजनीतियाँ दक्षिणपन्‍थी राजनीति के किसी नये संस्करण की शुरुआत के पीछे काम करने वाले बहाने होते हैं। हम ‘आप’ के प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपन्‍थी चरित्र को दिखलाने के लिए ‘आप’ की कुछ चुप्पियों की ओर आपका ध्यानाकर्षित करना चाहेंगे।

‘आप’ का खुद का सर्वेक्षण बताता है कि दिल्ली में उसके अधिकांश समर्थकों का कहना है कि वे दिल्ली में केजरीवाल को मुख्यमन्त्री पद पर देखना चाहते हैं, जबकि केन्‍द्र में वे मोदी को वोट करने वाले हैं। यह अनायास नहीं है। इसके पीछे गहरे कारण हैं।

‘आप’ जिन मुद्दों पर चुप है या कोई अवस्थिति नहीं अपनाती है, या फिर जिन मुद्दों को बस वह भ्रष्टाचार का नतीजा बताकर कन्धे उचका देती है, वे अहम मुद्दे हैं। मिसाल के तौर पर, जब ‘आप’ का चुनाव प्रचार जारी था उसी समय मुजफ्फरनगर में दंगे हुए। अब इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं कि ये दंगे सोचे-समझे तौर पर संघी गिरोह ने करवाये थे। लेकिन अरविन्‍द केजरीवाल और ‘आप’ इस पर एक अहम बयान भी जारी नहीं करते! क्या यह चुप्पी चौंकाने वाली नहीं है? केजरीवाल उस सबसे बड़े खतरे पर चुप हैं जो आज भारत के सामने खड़ा है – मोदी के नेतृत्व में नया साम्प्रदायिक फासीवादी उभार! इस पर केजरीवाल एक शब्द तक नहीं बोलते। वह कांग्रेस की जो आलोचना करते हैं, वही आलोचना वह भाजपा की भी करते हैं जो भ्रष्टाचार के मुद्दे से कहीं आगे नहीं जाती है।

केजरीवाल ‘यूथ फॉर इक्वॉलिटी’ जैसे समूहों की राजनीति पर भी चुप हैं जो कि सवर्णवादी अवस्थिति से आरक्षण का विरोध करते हैं। यह भी बताया जाता है कि केजरीवाल खुद ‘यूथ फॉर इक्वॉलिटी’ के सदस्य थे! यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है क्योंकि केजरीवाल जिस उच्च मध्यवर्गीय प्रतिक्रियावादी राजनीति की नुमाइन्‍दगी करते हैं, उसकी नैसर्गिक एकता इसी प्रकार की राजनीति से बनती है। स्त्रियों और पुरुषों के बीच की असमानता पर भी केजरीवाल का कोई स्टैण्ड नहीं है। वह महिलाओं की सुरक्षा के लिए कमाण्डो दस्ते बनाने की बात करते हैं। लेकिन यह पुरुषों द्वारा महिलाओं को दी जाने वाली सुरक्षा ही होगी। यह अपने आपमें पूरी की पूरी पितृसत्तात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था पर प्रश्न नहीं है।

केजरीवाल की ‘आप’ कश्मीर और उत्तर-पूर्व में दमित राष्ट्रीयताओं के उत्पीड़न पर, आफ्स्पा, डिस्टर्ब्‍ड एरियाज एक्ट, पोटा, टाडा, यूएपीए, मकोका, आदि जैसे कानूनों पर बिल्कुल शान्‍त है! छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उड़ीसा और झारखण्ड में आदिवासियों के कत्लेआम पर ‘आप’ चुप है! और इससे भी खतरनाक बात यह है कि इन सारे मुद्दों को केजरीवाल हमेशा भ्रष्टाचार पर अपचयित करने, इसके लिए भ्रष्ट कांग्रेस और भाजपा को जिम्मेदार ठहराने के लिए तत्पर रहता है। इस प्रकार भ्रष्टाचार का पूरा मुद्दा एक ऐसा उपकरण बन जाता है जो कि समस्याओं के असली कारण और हल तक पहुँचने की बजाय, उन मूल समस्याओं को ढँकने और छिपाने का उपकरण बन जाता है।

 जिन मुद्दों पर ‘आप’ चुप है, वे सभी वे मुद्दे हैं जिन पर बोलना मोदी की फासीवादी राजनीति को ‘अनसेटल’ कर सकता है। मोदी इन मुद्दों पर सीधे एक प्रतिक्रियावादी अवस्थिति को बोलता है; ‘आप’ इन पर सीधे नहीं बोलती (इसके लिए भी सम्भवतः योगेन्‍द्र यादव और आनन्‍द कुमार जैसे समाजवादी दल्लों को धन्यवाद देना चाहिए!)। लेकिन इन पर एक साजिशाना चुप्पी कायम रखती है। या फिर इन मुद्दों को भी भ्रष्टाचार की पैदावार बता देती है। तो सारा मसला अन्‍त में एक जनलोकपाल बनाने और भ्रष्टाचार का सफाया करने पर आकर केन्द्रित हो जाता है! यह पूरी राजनीति सचेतन तौर पर न भी सही, तो वस्तुगत तौर पर अन्‍त में फासीवादी राजनीति की मदद करती है, क्योंकि ‘आप’ जिस प्रकार के राजनीतिक दल के तौर पर उभरी है, उसी रूप में उसका भारतीय पूँजीवादी राजनीति में बने रह पाना सम्भव नहीं है; या तो यह पार्टी ही बिखर जायेगी और इसके अधिकांश तत्व दक्षिणपन्‍थी उभार के पक्ष में जाकर खड़े हो जायेंगे, या फिर इस पार्टी का स्वरूप काफी हद तक कांग्रेस, भाजपा जैसा ही हो जायेगा। इन दो सम्भावनाओं के अलावा हमें और कोई सम्भावना नजर नहीं आती।

‘आप’ पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को कभी कठघरे में खड़ा नहीं करती। केजरीवाल ने एक कारपोरेट घराने के ‘काम करने के तरीकों’ पर सवाल उठाना शुरू किया था, लेकिन इस मुद्दे पर जल्द ही वह चुप्पी साध गये। बाद में जब उसी कारपोरेट घराने के ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ के बारे में फिर से बोलते हैं, तो उसी समय 372 करोड़ रुपये बिजली सब्सिडी के नाम पर उस कम्पनी की जेब में डाल देते हैं और साथ ही उनकी पार्टी बोलती है कि इस कारपोरेट घराने से चुनावी चन्‍दा लेने में आम आदमी पार्टी को कोई एतराज नहीं है। बाकी कारपोरेट घरानों पर केजरीवाल ने कभी मुँह तक नहीं खोला। उल्टे पूँजीपति वर्ग को भी वह ‘विक्टिम’ और पीड़ित के रूप में दिखलाते हैं! अपने घोषणापत्र में केजरीवाल लिखते हैं कि कांग्रेस और भाजपा जैसी भ्रष्ट पार्टियों के कारण मजबूर होकर पूँजीपतियों को भ्रष्टाचार करना पड़ता है! यह दोगलेपन की इन्‍तहाँ नहीं तो क्या है? आप देख सकते हैं कि भ्रष्टाचार के मुद्दे को किस प्रकार नंगी और बर्बर पूँजीवादी लूट को छिपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। पूँजीपति जो श्रम कानूनों का उल्लंघन करते हैं क्या वह मजबूरी के कारण करते हैं? ठेकाकरण क्या वह भ्रष्टाचार से मजबूर होकर करते हैं? यह तो पूरी तस्वीर को ही सिर के बल खड़ा करना है। वास्तव में, सरकार (चाहे किसी की भी हो!) और पूँजीपति वर्ग मिलकर मजदूरों के विरुद्ध लूट और हिंसा को अंजाम देते हैं! केजरीवाल की इस महानौटंकी के पहले अध्याय के लिखे जाते समय ही दिल्ली के पड़ोस में मारुति सुजुकी के मजदूरों का संघर्ष चल रहा था लेकिन केजरीवाल ने इस पर एक शब्द नहीं कहा; दिल्ली में ही मेट्रो के रेल मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी और ठेका प्रथा खत्म करने के लिए संघर्ष चल रहा था, इस पर भी केजरीवाल ने एक बयान तक नहीं दिया! केजरीवाल की सरकार के सामने दिल्ली के हजारों ठेका मजदूरों ने 6 फरवरी को प्रदर्शन किया। केजरीवाल का श्रम मन्त्री मजदूरों से किये गये सारे वायदों से मुकर गया! क्या केजरीवाल को यह सारी चीजें पता नहीं है? ऐसा नहीं है! यह एक सोची-समझी चुप्पी है! मजदूरों के लिए कुछ कल्याणकारी कदमों जैसे कि पक्के मकान देना आदि की बात करना एक बात है, और मजदूरों के सभी श्रम अधिकारों के संघर्षों को समर्थन देना एक दूसरी बात। केजरीवाल कहीं भी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग पर हमला नहीं करते। उनके लिए पूँजीपति वर्ग शासक वर्ग नहीं है; मेहनतकश जनता तो खैर शासक वर्ग है ही नहीं! तो फिर शासक वर्ग है कौन? यह एक भ्रष्ट राजनीतिक व नौकरशाह वर्ग है जो किसी वर्ग की नुमाइन्‍दगी नहीं करता, बल्कि अपनी ही सेवा में संलग्न है! और पूँजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग एक-दूसरे के दुश्मन नहीं हैं, बल्कि वे दोनों ही पीड़ित वर्ग हैं; भ्रष्टाचारियों से पीड़ित! यहाँ भी आप देख सकते हैं कि असली सवाल को ढाँपने के लिए भ्रष्टाचार के जुमले का कैसे इस्तेमाल किया गया है। केजरीवाल के लिए इस पूरी व्यवस्था में कोई दिक्कत नहीं है! बस इसमें से भ्रष्टाचार के सफाये की जरूरत है! अगर गरीबों को रोटी और रोजगार नहीं मिलता तो यह पूँजीवादी व्यवस्था की समस्या नहीं है; पूँजीवादी व्यवस्था तो उन्हें रोटी और रोजगार देती है, लेकिन वह भ्रष्टाचारियों के कारण उन तक पहुँच नहीं पाता! इसलिए समस्या आपूर्ति की है! केजरीवाल इस समस्या को कैसे दूर करेंगे? एक साक्षात्कार में वह कहते हैं कि पटेल जैसी राजनीति करके; शास्त्री जैसी राजनीति करके! नेहरू का नाम सोचे-समझे तौर पर इस सूची से गायब है। समझने वाले समझ सकते हैं कि क्यों! निश्चित तौर पर, नेहरू भी भारतीय प्रतिक्रियावादी पूँजीपति वर्ग के ही नुमाइन्‍दे हैं, लेकिन उनमें प्रबोधन, सेक्युलरिज्म और प्रगतिशीलता के कुछ वास्तविक और कुछ प्रतीतिगत तत्व हैं, जो कि ‘आप’ की टुटपुँजिया आत्मिक उभार और आदर्शवादी पुनरुत्थानवाद की प्रतिक्रियावादी राजनीति से मेल नहीं खाते। यही कारण है कि आम आदमी पार्टी अन्य चुनावी पार्टियों की तरह खापों का समर्थन करती है! केजरीवाल बोलता है कि खाप तो एनजीओ के समान है! पुराने एनजीओपन्‍थी केजरीवाल की इस बात पर हम इस पर एक त्यौरी उठाकर ‘बिल्कुल!’ ही बोल सकते हैं!

इस समूचे आदर्शवादी भ्रष्टाचार-विरोध का मिश्रण किया जाता है अन्धराष्ट्रवादी जुमलों के साथ। ‘आप’ का एक चुनाव उम्मीदवार एक सैनिक था, जो कि सीमा पर झड़प में विकलांग हो गया था। उससे केजरीवाल ने कहा कि आप अब तक देश के बाहर के आतंकवादियों से लड़ रहे थे, अब आप ‘आप’ की ओर से चुनाव लड़कर देश के भीतर के आतंकवादियों के विरुद्ध लड़िये। यह पूरी जुमलेबाजी और भाषा एक दक्षिणपन्‍थी अन्धराष्ट्रवाद की है। इसमें वास्तविक मुद्दों और सच्चाइयों को आदर्शवादी, अन्धराष्ट्रवादी और प्रतिक्रियावादी जुमलों के तहत छिपा दिया गया है।

‘आप’ तृणमूल और भागीदारीपूर्ण जनवाद की बात करती है। ‘आप’ का कहना है कि वह सत्ता में आयेगी तो स्थानीय विकास कार्यों आदि को लेकर मोहल्ला सभाओं को सारे अधिकार दे देगी। यह एक राजनीतिक जनवाद की बात है। लेकिन अगर मौजूद सम्पत्ति सम्‍बन्‍धों, असमानतापूर्ण सामाजिक-आर्थिक सम्‍बन्‍धों को और उत्पादन के साधन पर मालिकाने और नियन्त्रण तक पहुँच के सम्‍बन्‍धों को छेड़े बगैर मोहल्लों में सभाएँ बनाकर उन्हें नियन्त्रण सौंप भी दिया जाये, तो अन्‍ततः उसमें किन लोगों की चलेगी? जाहिर सी बात है, मोहल्लों में रहने वाले ठेकेदारों, दल्लों, छुटभैया मालिकों, पैसेवालों, और अमीरों की ही चलेगी! आम गरीब और निम्न मध्यवर्गीय आबादी उनके पीछे-पीछे चलेगी। ऐसे में, यह राजनीतिक जनवाद का अधिकार भी अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता जब तक कि आर्थिक सम्‍बन्‍धों को भी आमूल-चूल रूप में न बदला जाये! लेकिन ‘आप’ तो इन सम्‍बन्‍धों को किसी भी तरह से बहस और चर्चा से दूर रखना चाहती है!

‘आप’ की पूरी राजनीति वास्तव में देश की आम मेहनतकश आबादी की जिन्‍दगी की समस्याओं के मूल कारणों को छिपाने और ढँकने का काम ज्यादा करती है। इसके लिए जिस उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है वह है भ्रष्टाचार-विरोध, देश-सेवा आदि के नाम पर की जाने वाली प्रतिक्रियावादी, दक्षिणपन्‍थी राजनीति। ‘आप’ एक ऐसी पूँजीवादी व्यवस्था की हिमायत करती है जिसमें कोई भ्रष्टाचार न हो, सभी नागरिक सम्भावित उद्यमी हों, मुक्त व्यापार और मुक्त प्रतिस्पर्द्धा हो, उपयुक्ततम की उत्तरजीविता हो, और यह सारा क्रिया-व्यापार अपनी सैद्धान्तिक शुद्धता में चले! यह एजेण्डा आज के दौर में एक तकनोशाहाना कुशलता वाले उद्यमी पूँजीवाद का सपना दिखाता है जो कि उद्यमी बनने की आकांक्षा रखने वाले टुटपुँजिया वर्गों को आकृष्ट करता है। जाहिर है, यह एक शेखचिल्लीवादी सपना है जो कभी पूरा नहीं हो सकता। लेकिन इसी रूप में इस राजनीति का चल पाना बहुत मुश्किल है। इसके कारणों की चर्चा हम ‘आप’ के घोषणापत्र के मुद्दों के चरित्र और उसके सामाजिक आधार के चरित्र के द्वारा कर सकते हैं।

आम आदमी पार्टी के राजनीतिक भविष्य पर कुछ ऐतिहासिक और द्वन्‍द्वात्मक सिम्युलेशन

‘आप’ आज भारतीय पूँजीवाद की जरूरत है। लेकिन ‘आप’ का पूरा राजनीतिक घोषणापत्र, माँगपत्रक और यहाँ तक कि उसका सामाजिक आधार मूलतः योगात्मक (एग्रीगेटिव) है; यानी कि उनमें कोई जैविक एकता नहीं है। ‘आप’ ने उच्च मध्यवर्गीय प्रतिक्रियावाद के वर्चस्व को निम्न मध्यवर्गीय आदर्शवाद पर स्थापित किया और एक ऐसा माँगपत्रक तैयार किया है जो कि प्रकृति से ही एक योगात्मक समुच्चय है और उसके पीछे कोई एक सुसंगत विचारधारात्मक दृष्टि नहीं है। अगर ‘आप’ पार्टी इनमें से कुछ मुद्दों और वायदों पर ही अमल शुरू करती तो एक ओर ‘आप’ पार्टी के भीतर ही टूट-फूट और बिखराव की प्रक्रिया शुरू हो जाती, वहीं उसके सामाजिक आधार में भी बिखराव शुरू हो जाता। ‘आप’ सरकार ने सिर्फ दिखावे के लिए जितना किया, उतने में ही उसका अपना संघटन और आधार तमाम किस्म की दरारों का शिकार हो गया। अगर वह वाकई कुछ करती तब तो उसका अस्तित्व कुछ महीनों की चीज बन जाता। मिसाल के तौर पर, ‘आप’ ने छोटे मालिकों और व्यापारियों को ‘सरकार द्वारा वसूली’ (यानी कर और विनियमन) और भ्रष्टाचार से छूट दिलाने का वायदा किया है; यही कारण है कि छोटे मालिकों और व्यापारियों के वोट बड़े पैमाने पर ‘आप’ को मिले। लेकिन साथ ही, ‘आप’ ने ठेका प्रथा समाप्त करने और दिल्ली के साढ़े तीन लाख ठेका कर्मचारियों को स्थायी करने का वायदा भी किया है। लेकिन इन 50-60 लाख ठेका कर्मचारियों की मेहनत को ही लूटने का काम तो ये छोटे मालिक और ठेकेदार सबसे ज्यादा करते हैं। ठेका प्रथा का अगर कोई सबसे बड़ा लाभप्राप्तकर्ता है, तो वह छोटा मालिक और ठेकेदार वर्ग है। स्पष्ट है कि ये दोनों वायदे अन्‍तरविरोधी हैं और इन पर अमल के साथ ही छोटा मालिक वर्ग ‘आप’ का साथ छोड़कर निरंकुश तरीके से भूमण्डलीकरण, निजीकरण, ठेकाकरण की नीतियों को लागू करने वाली फासीवादी ताकतों के पक्ष में जा खड़ा होगा।

उसी प्रकार ‘आप’ का यह वायदा कि वह बिजली के बिल आधे कर देगी एक ही सूरत में सम्भव हो सकता था। और वह है विद्युत वितरण का निजीकरण समाप्त किया जाना और उसके बाद भी सरकारी खजाने से पर्याप्त सब्सिडी दी जाये। उसी प्रकार हर दिन हर नागरिक को 700 लीटर मुफ्त पानी भी वास्तव में (केजरीवाल की धोखाधड़ी की तरह नहीं!) तभी दिया जा सकता था, जब सब्सिडी दी जाये। ऐसी सब्सिडी देने के लिए राजस्व सिर्फ भ्रष्टाचार खत्म करने से आ ही नहीं सकता है। यह केवल कर का बोझ दिल्ली के अमीरजादों पर डालकर ही सम्भव है, क्योंकि मेहनतकश आबादी पर प्रत्यक्ष करों का बोझ डाला ही नहीं जा सकता है और अप्रत्यक्ष कर पहले से ही काफी ज्यादा हैं। ऊपर से, ‘आप’ वैट को भी खत्म करने की बात कर रही है। अगर कराधान का बोझ दिल्ली के उच्च मध्यवर्ग पर बढ़ता है, तो वह भी जल्द ही ‘आप’ से छिटक जायेगा।

स्पष्ट है, अगर ‘आप’ अपने वायदों के 20 प्रतिशत पर भी अमल करती तो उसके संगठन और सामाजिक आधार का बिखराव शुरू हो जाता। ऐसे में, या तो ‘आप’ खुलकर पूँजीवादी व्यवस्था और खुली उदारवादी नीतियों के समर्थन में खड़ी होगी, जिस सूरत में वह अप्रासंगिक हो जायेगी क्योंकि यह काम करने वाली मुख्य धारा की पूँजीवादी पार्टियाँ पहले से मौजूद हैं; या फिर, उसका हश्र वही होगा जो जनता पार्टी का हुआ थाः वह खण्ड-खण्ड हो जायेगी और उसके ज्यादातर धड़े अन्‍ततः मोदी के फासीवादी उभार के साथ जा खड़े होंगे। ‘आप’ का भविष्य फिलहाल इसी रूप में दिख रहा है, बशर्ते कि वह अपने मुख्य राजनीतिक मुद्दे भ्रष्टाचार को छोड़कर कांग्रेस, भाजपा जैसी ही एक चुनावी पार्टी न बन जाये। मौजूदा राजनीतिक माँगपत्रक और घोषणापत्र के साथ इसी रूप में यह पार्टी बनी नहीं रह सकती है क्योंकि उसका योगात्मक चरित्र इस बात ही इजाजत ही नहीं देता है।

लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि आज भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए ‘आप’ की प्रासंगिकता नहीं है। वास्तव में, पूँजीवादी राजनीति और अर्थव्यवस्था जिस संकट से गुजर रही है और विश्वसनीयता का संकट जिस हद तक जा चुका है, उसमें ‘आप’ की सख्त जरूरत है। यह पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा किये बगैर जनता के गुस्से को निकलने का एक सुरक्षित ‘आउटलेट’ देती है। इस रूप में ‘आप’ आज एक नये अर्थ और रूप में वही भूमिका निभा रही है जो एक दौर में जेपी आन्‍दोलन और फिर जनता पार्टी ने निभायी थी। जैसा कि हम पहले इंगित कर आये हैं, ‘आप’ के उभार में योगेन्‍द्र यादव और आनन्‍द कुमार जैसे समाजवादी मदारी जो भूमिका निभा रहे हैं, वह वास्तव में वही भूमिका है, जो कि पूँजीवादी व्यवस्था को संकट के दौर में बचाने के लिए सभी समाजवादी (हर ब्राण्ड के!), सुधारवादी और संशोधनवादी निभाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि ‘आप’ जैसी किसी भी परिघटना की प्रासंगिकता उसी रूप में दीर्घकालिक नहीं हो सकती है। या तो वह अपना रूप बदलकर पारम्परिक चुनावी पूँजीवादी पार्टी बनकर किसी हद तक कायम रख सकती है, या फिर उसकी नियति में बिखराव होता है। ऐसे बिखराव के बाद कुल मिलाकर फायदा फासीवादी राजनीति को ही पहुँचता है। जैसा कि जनता पार्टी के बिखराव के बाद हुआ था। भारत में चुनावी राजनीति के दायरे में सही मायने में दक्षिणपन्‍थी उभार के लिए तो जयप्रकाश नारायण और उसके लग्गू-भग्गुओं को ही दोषी ठहराया जाना चाहिए, जिसने ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का भ्रामक नारा देकर जनता की क्रान्तिकारी ऊर्जा को सुरक्षित चैनलों में दिशा-निर्देशित कर दिया और अन्‍ततः यह सबकुछ दक्षिणपन्‍थी फासीवादी राजनीति के पक्ष में जा खड़ा हुआ।

इसलिए ‘आप’ की पूरी परिघटना में गुणात्मक रूप से कुछ भी अनोखा और नया नहीं है। चर राशियाँ तो हमेशा ही बदल जाया करती हैं और इसीलिए कोई भी घटना इतिहास में दुहरायी नहीं जाती है। जैसा कि मार्क्‍स ने कहा था, ‘‘हर अहम घटना या व्यक्तित्व, इतिहास में दो बार घटित होते हैं, पहले त्रासदी के रूप में तो दूसरी बार प्रहसन के रूप में।’’ आज आम आदमी पार्टी की राजनीति पुरानी जेपी-ब्राण्ड राजनीति का एक प्रहसनात्मक संस्करण ही तो है। केजरीवाल के किसी भी एक साक्षात्कार या भाषण को सुन लें तो प्रहसन शब्द का अर्थ समझ में आ जाता है!

आज के पूँजीवादी संकट के दौर में आदर्शवादी, प्रतिक्रियावादी मध्यवर्गीय राजनीति का पूँजीपति वर्ग द्वारा इस्तेमाल किया जाना लाजिमी है। पूँजीवादी संकट विद्रोह की तरफ न जा सके, इसके लिए पूँजीपति वर्ग हमेशा ही टुटपुँजिया वर्ग के आत्मिक व रूमानी उभारों का इस्तेमाल करता रहा है। कभी यह खुले फासीवादी उभार के रूप में होता है, तो कभी ‘आप’ जैसे प्रच्छन्न, लोकरंजकतावादी प्रतिक्रियावाद के रूप में। और अन्‍त में उसकी नियति भी वही होती है जिसकी हमने चर्चा की है। देखना यह है कि यह सारी प्रक्रिया अब किसी रूप में घटित होती है।

 

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित

श्रद्धांजलि – नेल्सन मण्डेला

नेल्सन मण्डेला

  • आनन्‍द सिंह

गुजरे 5 दिसम्बर को नेल्सन मण्डेला की मृत्यु के बाद पूँजीवादी और साम्राज्यवादी मीडिया में उनके जीवन और योगदान का एकतरफा ब्योरा देकर गौरवगान तो हो ही रहा था, लेकिन इसके साथ ही साथ विभिन्न किस्म के वामपन्‍थी भी मुख्यधारा की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक उनका अनालोचनात्मक महिमामण्डन करने में लगे हुए थे। निश्चित रूप से नेल्सन मण्डेला का जीवन (विशेष रूप से जेल से रिहाई से पहले तक) रंगभेद के खिलाफ अश्वेतों के संघर्ष का प्रतीक बन गया था। परन्‍तु यदि उनके जीवन के दूसरे पहलू यानी जेल से बाहर निकलने के बाद अश्वेतों की मुक्ति के स्वप्न के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात को नहीं उजागर किया जाता है, तो यह इतिहास के साथ अन्याय होगा। 27 वर्षों तक रंगभेदी हुकूमत की कैद में रहने के बाद एक समझौते के तहत रिहा होने के बाद नेल्सन मण्डेला ने जिस कदर साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेके, उससे वह तीसरी दुनिया के देशों के राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के नायकों के खण्डित गौरव की त्रासदी का भी प्रतीक बन गये। मण्डेला ने अश्वेतों की मुक्ति के जिस स्वप्न के लिए संघर्ष किया, वक्त आने पर उसी से उन्होंने आश्चर्यजनक तरीके से मुँह मोड़ लिया। यदि मण्डेला अपनी जिन्‍दगी के एक दौर में अफ्रीका ही नहीं बल्कि एशिया और लातिन अमेरिका के तमाम देशों की उत्पीड़ित जनता के लिए उम्मीद की किरण बनकर उभरे तो अपनी जिन्‍दगी के आखिरी दो दशकों में जनता की निराशा और हताशा का कारण भी बने। इसलिए जरूरत इस बात की है कि नेल्सन मण्डेला के समूचे राजनीतिक जीवन को एकतरफा नजरिये से देखने की बजाय उसका सांगोपांग विश्लेषण किया जाये।

nelson-mandelaनेल्सन मण्डेला का जन्म 18 जुलाई 1918 को एक कबीलाई शासक परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1940 के दशक में मध्यवर्गीय अश्वेतों के चन्‍द अधिकारों की माँग उठाने वाली सुधारवादी राजनीति से की। परन्‍तु इन सुधारवादी माँगों के प्रति रंगभेदी सरकार के ठण्डे रवैये के चलते मण्डेला रैडिकल राजनीति की ओर आकर्षित होते चले गये। गौरतलब है कि यह वही दौर था जब चीनी क्रान्ति के बाद एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका तीसरी दुनिया के तमाम देशों में क्रान्ति की ज्वाला भड़क उठी थी। कोरिया, वियतनाम, अल्जीरिया सहित तमाम देशों में साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष अपने उफान पर था। हालाँकि मण्डेला इस दौर में ‘रैडिकलाइज’ तो हुए परन्‍तु सैद्धान्तिक समझ और सशस्त्र संघर्ष के प्रति प्रतिबद्धता के मामले में वे क्वामे एन्क्रूमा, पैट्रिस लुमुंबा, अमिल्कर कबराल, जूलियस न्येरेरे, लियोपोल्ड सेंघोर, ऑगस्तिनो नेतो, बेन बेला, हबीब बुर्गीबा जैसे तीसरी दुनिया के नेताओं जितने रैडिकल नहीं थे। 1960 के कुख्यात शार्पविले नरसंहार के बाद मण्डेला ने दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी (एसएसीपी) के सहयोग से 1961 में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) की सशस्त्र विंग ‘उमखोंतो वी सिजवे’ (‘राष्ट्र का भाला’) भी बनायी। यहाँ तक कि उन्होंने मोरक्को और इथियोपिया में सैन्य परीक्षण भी प्राप्त किया। परन्‍तु सैन्य परीक्षण के बाद दक्षिण अफ्रीका लौटते ही 5 अगस्त 1962 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। तब से लेकर फरवरी 1990 तक वे रंगभेदी हुकूमत की कैद में ही रहे। इस प्रकार मण्डेला एक छोटे अन्‍तराल के दौरान ही सशस्त्र संघर्ष की राह पर चल पाये।

फरवरी 1990 में जब मण्डेला कैद से रिहा हुए तब तक समूचा दिक्काल परिप्रेक्ष्य ही बदल चुका था और एक बिल्कुल नयी दुनिया सामने थी। तीसरी दुनिया के रैडिकल बुर्जुआ वर्ग की ऊर्जस्विता और आवेग का क्षरण और विघटन हो चुका था और वह पतित होकर विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में अपने आपको व्यवस्थित कर रहा था। चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना हुए एक दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका था, सोवियत संघ में नकली समाजवाद भी ढहने की कगार पर था। इस प्रकार अमेरिका के एकछत्र साम्राज्यवादी वर्चस्व वाली एक नयी दुनिया का पदार्पण हो रहा था। यह भूमण्डलीकरण का नवउदारवादी युग था। हालाँकि रिहा होने के तुरन्‍त बाद मण्डेला ने एएनसी के 1955 के प्रसिद्ध फ्रीडम चार्टर को लागू करने की बात कही थी जिसमें खदानों और उद्योग-धन्धों के आंशिक राष्ट्रीकरण की बात कही गयी थी। परन्‍तु जल्द ही मण्डेला अपने ही वायदे से मुकर गये और नवउदारीकरण को गले लगा लिया। प्रसिद्ध पत्रकार जॉन पिल्जर द्वारा इस बाबत सवाल पूछे जाने पर मण्डेला का जवाब था, ‘‘हमारे इस देश में निजीकरण एक बुनियादी नीति है’’। इस जवाब से मण्डेला की पूँजी के प्रति पक्षधरता साफ उजागर होती है और इसलिए यह कतई आश्चर्य की बात नहीं कि उनकी मृत्यु के बाद दुनिया भर के पूँजीवादी हुक्मरान उनकी शान में कसीदे गढ़ रहे हैं।

मण्डेला की रिहाई के कई साल पहले से ही दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी हुक्मरान समझौता-वार्ता कर रहे थे। 1970 के दशक में दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों का विद्रोह उग्र रूप धारण करने लगा था। छात्र, युवा, मजदूर, किसान, खनिक सभी बर्बर पुलिसिया दमन के बावजूद राजनीतिक हड़तालों में शामिल हो रहे थे। राष्ट्रपति बोथा ने स्थिति को काबू में लाने के लिए बर्बर दमन के साथ ही साथ कुछ सामाजिक कल्याण की नीतियाँ भी लागू करने की कोशिश की। इसके अलावा उसने रंगभेद विरोधी गुटों में फूट डालने की तमाम साजिशें भी रचीं, परन्‍तु उसकी रणनीति कारगर होती नहीं दिखायी दे रही थी। स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि रंगभेदी सरकार ने 1986 में आपातकाल की घोषणा कर विद्रोह के केन्‍द्रों में कर्फ्यू लगाने का आदेश दे दिया। सुरक्षा बलों ने हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। 1988 में 31 अश्वेत राजनीतिक संगठनों पर पाबन्‍दी लगा दी गयी। परन्‍तु इसके बावजूद अश्वेतों का संघर्ष रुकने की बजाय बढ़ता ही गया। यह वह परिदृश्य था जिसमें दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासकों ने पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों की सलाह पर नेल्सन मण्डेला से समझौते की रणनीति अपनानी पड़ी। 1982 में ही मण्डेला को रॉबेन टापू के जेल से हटाकर पोल्समूर जेल में स्थानान्‍तरित कर दिया गया जहाँ पर वह अतिथियों से मिल सकते थे। जहाँ एक ओर रंगभेदी शासन के उच्च अधिकारी मण्डेला से समझौता वार्ताएँ कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर दक्षिण अफ्रीका के अरबपति उद्योगपति और खान मालिक यूरोपीय देशों में निर्वासन पर रह रहे एएनसी के अन्य नेताओं जैसे थाबो एमबेकी (जो मण्डेला के बाद दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति भी बने) से पश्चिम की शह पर वार्ताएँ कर रहे थे और उन्हें भाँति-भाँति के प्रलोभन दे रहे थे।

समझौता वार्ताओं के परिणामस्वरूप फरवरी 1990 में नेल्सन मण्डेला जेल से रिहा हुए। इस प्रकार आधिकारिक तौर पर रंगभेदी शासन के युग की समाप्ति हुई और एक बुर्जुआ जनवादी गणतांत्रिक ढाँचे का निर्माण हुआ। पहली बार अश्वेतों को वोट का अधिकार प्राप्त हुआ। 1994 में सम्पन्न हुए चुनावों के बाद नेल्सन मण्डेला दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। इस समझौते के तहत मण्डेला ने शुरुआत में श्वेतों की पार्टी नेशनल पार्टी के साथ संयुक्त सरकार भी बनायी। 1993 में उन्हें नेशनल पार्टी के नेता और रंगभेदी शासन के अन्तिम राष्ट्रपति एफ डी क्लर्क के साथ संयुक्त रूप से नोबल शान्ति पुरस्कार से भी नवाजा गया। इस समझौते का दूसरा पहलू यह था सम्पत्ति सम्‍बन्‍धों में कोई बदलाव नहीं किये गये। श्वेतों की सम्पत्ति को छेड़ा नहीं गया। श्वेत बुर्जुआ वर्ग ने समझौते से पहले ही योजनाबद्ध तरीके से अश्वेतों में एक छोटा से तबका पूँजीपति वर्ग और निम्न पूँजीपति वर्ग के रूप में विकसित किया जिनके हित श्वेतों के हित से मेल खाते थे। राष्ट्रपति बनने के तुरन्‍त बाद मानो मण्डेला ने श्वेत और अश्वेत बुर्जुआ वर्ग के हितों के मद्देनजर अश्वेतों की मुक्ति के स्वप्न का परित्याग कर दिया और नवउदारवादी पूँजीवाद को सरेआम गले लगा लिया। भूमि सुधार न के बराबर हुआ। 1994 के बाद से अब तक सिर्फ 3 फीसदी जमीन का हस्तान्‍तरण अश्वेतों को किया गया। कृषि योग्य भूमि का लगभग पूरे हिस्से का स्वामित्व 60,000 श्वेतों के पास है।

मण्डेला के इस ऐतिहासिक विश्वासघात का नतीजा यह हुआ कि औपचारिक रूप से रंगभेद की समाप्ति के दो दशकों के बाद भी दक्षिण अफ्रीका में वर्गभेद पहले से कहीं ज्यादा बढ़ा है। बस अन्‍तर यह आया है कि धनिक शासक वर्ग में श्वेतों के अतिरिक्त अश्वेतों की एक बारीक परत भी जुड़ गयी है। आज दक्षिण अफ्रीका दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक है (लेसोथो के बाद दूसरे स्थान पर)। सरकारी आँकड़ों के अनुसार वहाँ की लगभग आधी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है। अश्वेतों की आबादी कुल आबादी का 80 फीसदी होने के बावजूद दक्षिण अफ्रीका की कुल सम्पदा के मात्र 5 फीसदी पर उनका नियन्‍त्रण है। जहाँ श्वेत यूरोपीय नगरों जैसे आलीशान वातावरण में रहते हैं वहीं अधिकांश अश्वेत झुग्गियों की नारकीय परिस्थिति में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार दक्षिण अफ्रीका में लगभग 25 फीसदी लोग बेरोजगार हैं। अश्वेतों में यह आँकड़ा 50 फीसदी है। नवउदारवादी नीतियों की वजह से श्रम का अनौपचारिकीकरण भी बड़े पैमाने पर हुआ है। खनिक और श्रमिक अमानवीय परिस्थितियों में खटने को मजबूर हैं और आवाज उठाने पर उनका बर्बर तरीके से दमन किया जाता है। इसकी एक मिसाल अगस्त 2012 में मरिकाना की प्लैटिनम खदान में देखने को मिली जब संघर्षरत खनिकों पर राज्य की पुलिस ने अन्धाधुन्ध फायरिंग की जिसमें 34 खनिक मौत के घाट उतार दिये गये। गौरतलब है कि जो ब्रिटिश कम्पनी इस खदान की मालिक है उसके बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में पूर्व यूनियन नेता और एएनसी का उपाध्यक्ष सिरिल रामफोसा भी है जो अरबपति है। रामफोसा जैसे तमाम अरबपति भ्रष्ट नेता नेल्सन मण्डेला के करीबी समझे जाते थे। मौजूदा परिस्थिति यह है कि एएनसी (अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस), एसएसीपी (दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी) और कोसाटू (ट्रेड यूनियन फेडरेशन) का गन्‍दा त्रिगुटा मिलकर जनता को लूट-खसोट रहा है। एक ओर इनके नेता भ्रष्टाचार, विलासिता और व्यभिचार के सारे कीर्तिमान धवस्त कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आम जनता के जीवन के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। यही वे हालात हैं जिनके बीच नेल्सन मण्डेला का देहावसान हुआ। हालात को इस मुकाम तक पहुँचाने में नेल्सन मण्डेला की भूमिका की अनदेखी करना इतिहास के साथ नाइंसाफी होगी।

 

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित