राजसमन्द हत्याकाण्ड और भारतीय फ़ासीवाद का चरित्र

राजसमन्द हत्याकाण्ड और भारतीय फ़ासीवाद का चरित्र

  • शिवानी कौल

आज जबकि भारत के वामपन्थी, ख़ास तौर पर संसदीय वाम, अभी भी फ़ासीवाद के होने न होने या अपने “असली” रूप में आने न आने को लेकर बहस करने में व्यस्त हैं, उसी वक़्त फ़ासीवाद के आगमन की पुनःघोषणा करता हुआ एक राजसमन्द घटित होता है जो किसी सोये हुए इंसान की भी अन्तरात्मा को झकझोर देने के लिए काफ़ी है। राजसमन्द का जघन्य हत्याकाण्ड फ़ासीवाद के घिनौने चेहरे और फ़ासीवादी विचारधारा द्वारा रचे खेल की ही झलक मात्र है। जैसा कि अब सब जानते हैं, इस साल के दिसम्बर माह की शुरुआत में राजस्थान के राजसमन्द जि़ले में मोहम्मद अफराज़ुल नाम के पश्चिम बंगाल के मालदा जि़ले से आये अप्रवासी मज़दूर की शम्भूलाल रैगर द्वारा ‘लव जिहाद’ के नाम पर निर्मम तरीक़े से कुल्हाड़ी से हमले के बाद जि़न्दा जलाकर हत्या कर दी गयी थी। इतना ही नहीं, शम्भूलाल ने इस बर्बर हत्या की अपने 14 साल के भतीजे से बाकायदा रिकॉर्डिंग भी करवायी थी।

इसके बाद रैगर ने इस वीडियो को अन्य वीडियो के साथ, जिनमें कि वह खुलेआम मुसलमानों के ख़ि‍लाफ़ ज़हर उगलते हुए तथा ऐसे ही और हत्याकाण्डों को अंजाम देने की धमकी देते हुए नज़र आता है, इण्टरनेट पर अपलोड कर दिया। यह अनायास नहीं कि इस पूरे हत्याकाण्ड के लिए रैगर ने 6 दिसम्बर का दिन चुना, यानी बाबरी मस्जिद के ध्वंस की बरसी, जिसे भारत में फ़ासीवादी ताक़तें “शौर्य दिवस” के रूप में मनाती हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि राजस्थान पुलिस ने शम्भूलाल को “दिमाग़ी तौर पर असन्तुलित”, “विक्षिप्त  हत्यारा” और “स्वनिर्मित हिन्दू-उन्मादी” आदि घोषित कर दिया जिसका अतीत में किसी भी तरह के हिन्दूवादी दक्षिणपन्थी संगठन से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। हालाँकि यह स्पष्ट है कि ऐसे जघन्य कांड किसी “मनोविकृत व्यक्तित्व”, या “विक्षिप्त-उन्मादी” के ख़ुद के दिमाग़ की उपज नहीं है बल्कि यह फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा सामाजिक ताने-बाने के निरन्तर जारी फ़ासीवादीकरण की एक हिंसक अभिव्यक्ति है।

राजसमन्द हत्याकाण्ड कोई अकेली ऐसी घटना नहीं है और न ही “पागलपन” या “फ़ि‍तूर” क़रार देकर इसे खारिज किया जा सकता है। हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार, मई 2014 से भाजपा और नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद के साढ़े तीन सालों में घृणा-अपराधों, विशेषकर मुसलमानों के ख़िलाफ़, हिंसा की  वारदातों तथा आतंकी घटनाओं में, अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी देखी गयी है। हिन्दुत्व फ़ासीवाद के सत्ता में आने के बाद “गौ-रक्षा”, “गौ-मांस”, “लव-जिहाद”, “घर-वापसी” के नाम पर मॉब लिंचिंग (भीड़ द्वारा हत्या) और हिंसा की घटनाओं की जो बाढ़-सी आयी है, उन्हें निरन्तरता में ही देखा जाना चाहिए। अभी राजसमन्द की घटना को ज़्यादा वक़्त हुआ भी नहीं था कि साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की एक और प्रयोगशाला, मध्य प्रदेश, में फ़ासीवादी हिंसा का दूसरा स्वांग रचा जाता है। सतना जि़ले में बजरंग दल के गुंडों ने क्रिसमस कैरोल गा रहे ईसाइयों पर हमला किया और एक पादरी की गाड़ी को भी जलाकर राख कर दिया। इसके बाद मध्य प्रदेश की पुलिस ने अपने असली चरित्र का प्रदर्शन करते हुए बजरंग दल के हमलावरों के ख़ि‍लाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की और उलटे कैरोल-गायकों के ख़ि‍लाफ़ ही केस बना डाला!

पुलिस के इस तर्क के यहाँ कोई मायने नहीं कि शम्भूलाल किसी दक्षिणपन्थी-हिन्दूवादी संगठन के सम्पर्क में नहीं था। हालाँकि ऐसे काफ़ी तथ्य मौजूद हैं जो स्पष्ट रूप से इंगित करते हैं कि रैगर सोशल मीडिया, ख़ास तौर पर व्हाट्सएप्प ग्रुपों, पर फैलाये जा रहे फासिस्ट कचरे से ही लगातार अपनी मानसिक खुराक ले रहा था। इन ग्रुपों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संघ से जुड़े लोगों के तथा भाजपा नेताओं के भड़काऊ भाषण फैलाये गये थे जिन्हें स्वयं रैगर ने भी अपने वीडियो में दोहराया है। आज के दौर में फासिस्ट बनने के लिए सिर्फ़ ‘शाखा’ जाने की ज़रूरत नहीं है! आज शाखाएँ सुनियोजित तरीक़े से सोशल मीडिया पर चलायी जा रही हैं जहाँ पर शाखाओं का पाठ और भी व्यापक पैमाने पर पढ़ाया जा रहा है। भाजपा नेताओं का इन ग्रुपों में शामिल होना आख़िर और क्या साबित करता है? अलग-अलग मीडिया रिपोर्टों के अनुसार रैगर के द्वारा इस घिनौने अपराध को अंजाम देने से चन्द दिनों पहले इस इलाक़े में बजरंग दल द्वारा “लव जिहाद” पर एक पर्चा भी बाँटा गया था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अन्य अनुषंगी संगठनों, जो अनिवार्यतः संघ से न भी जुड़े हों, का नेटवर्क लम्बे अरसे से जनता के बीच फ़ासीवादी विचारधारा को निरन्तरता से फैलाने में और उसकी जड़ें गहरी करने में काफ़ी हद तक सफल रहा है। संघ अपने फ़ासीवादी प्रचार को अपने विशाल संस्थागत नेटवर्क के द्वारा न सिर्फ़ पिछले साढ़े तीन सालों से बल्कि 1925 से, यानी अपने जन्मकाल से ही, और ख़ास तौर पर 1980 के दशक से निरन्तरता के साथ अंजाम देता आ रहा है। फ़ासीवादी विचारधारा के लिए सबसे उपजाऊ ज़मीन समाज के टटपुँजिया वर्ग (पेटी-बुर्जुआ) और लम्पट तत्वों के बीच होती है जो आर्थिक मन्दी के दौर में सब कुछ छिन जाने के डर और अनिश्चितता के ख़तरे में जीते हैं। इसलिये यह कहा जा सकता है कि फ़ासीवादी सामाजिक आन्दोलन का उभार पेटी-बुर्जुआ तबके का “रूमानी उभार” है, जो अपनी वर्ग अवस्थिति के कारण स्वतःस्फूर्त ढंग से फ़ासीवादी प्रतिक्रियावाद की तरफ आकर्षित होता है। यह तथ्य भी ग़ौर करने लायक है कि शम्भूलाल रैगर पिछले एक साल से अपने धन्धे के पिट जाने के बाद से बेरोज़गार था। इसलिए, शम्भूलाल रैगर जैसे लोग फ़ासीवादी तन्त्र के लिए सबसे उपयुक्त पैदल सैनिक साबित होते हैं।

भारत में एक तबका, ख़ास कर वे जो बुर्जुआ लोकतन्त्र के बारे में उदार-बुर्जुआ भ्रम के शिकार हैं, सामाजिक क्षेत्र में हिंसा के सामान्यीकरण (‘नॉर्मलाइजे़शन’) से सकते में आ गये हैं। इतिहास का सबक़ है कि जहाँ कहीं भी फ़ासीवाद सत्ता में आया है, वहाँ पर सड़कों पर हिंसा उसका एक अनन्य हिस्सा रहा है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सड़कों पर हो रही हिंसा के साथ ही फ़ौज, पुलिस, नौकरशाही, न्यायतन्त्र आदि में भी फासिस्ट काडरों की घुसपैठ करायी जाती है। यही आज भारतीय फ़ासीवाद की भी सच्चाई है। आज भारत में खुलेआम ताण्डव मचा रहा फ़ासीवाद भी किसी “आदिमवाद” या “क़बीलावाद” (“ट्राइबलिज़्म”) का रूप नहीं है जैसा कि उदारतावादी सोचने की ग़लती करते हैं, बल्कि यही फ़ासीवाद की “आधुनिक” विचारधारा की काम करने की तकनीक है। पेटी-बुर्जुआ प्रतिक्रिया के विभिन्न रूपों को एकीकृत करने के लिए किसी ‘अन्य’ के रूप में काल्पनिक शत्रु की आकृति खड़ी की जाती है। भारत के साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के लिए यह ‘अन्य’ मुसलमान हैं। हालाँकि, ज़ल्द ही फ़ासीवाद द्वारा ‘अन्य’ बनाने की इस प्रक्रिया में समग्र राजनीतिक विरोध को अपनी ज़द में ले लिया जाता है।

यहाँ इस बात का भी उल्लेख ज़रूरी है कि भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी काफ़ी हद तक दलितों और आदिवासियों के फ़ासीवादीकरण में तथा “हिन्दू” अस्मिता के इर्द-गिर्द विचारधारात्मक एकता के निर्माण में सफल रहे हैं। हिन्दुत्व-फासिस्टों की प्रयोगशाला गुजरात इसी का एक उदाहरण है जहाँ फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा दलितों की एक बड़ी आबादी को सहयोजित कर लिया गया है। 2002 के गुजरात दंगों में दंगाइयों की भीड़ में दलित और आदिवासी बड़ी संख्या में शामिल थे। शम्भुलाल ख़ुद दलित समुदाय की ‘रैगर’ जाति से आता है। हिन्दुत्व-फ़ासीवादी कथानक में दलितों और आदिवासियों को हिन्दू-शूरवीरों, धार्मिक-योद्धाओं के रूप में महिमामण्डित किया जाता है, जिस रूप में शम्भूलाल भी ख़ुद को पेश कर रहा है। ऐतिहासिक तथ्यों का विकृतीकरण कर दलितों और आदिवासियों की पिछड़ी अवस्था के लिए मुसलमानों को जि़म्मेदार ठहराया जाता है। यहाँ यह बात रेखांकित किये जाने की ज़रूरत है कि यह फ़ासीवाद के विरुद्ध विभिन्न समुदायों तथा अस्मिताओं की योगात्मक एकता के उदारवादी-वामपन्थी प्रोजेक्ट की हास्यास्पद समझ को भी दिखाता है जैसे कि ये सारे समुदाय व अस्मिताएँ सजातीय और वर्ग-अविभाजित हैं और यह भी कि ऐसी कोई व्यवहारवादी एकता सम्भव भी है, इसके टिकने की बात तो अभी छोड़ ही दीजिये! फ़ासीवाद को फ़ैसलाकुन शिकस्त एक जुझारू वर्ग-आधारित जाति-विरोधी और साम्प्रदायिकता-विरोधी आन्दोलन ही दे सकता है.

रस्म-अदायगी के तौर पर राजसमन्द की इस नृशंस घटना के बाद कुछ घडि़याली आँसू भी बहाये गये। अफ़राजुल की हत्या पर शोक जताते हुए राजस्थान की मुख्यमन्त्री वसुन्धरा राजे ने “सख्त कार्रवाई” के आश्वासन भी दिये पर अब तक कोई ठोस कारवाई नहीं की गयी है। क्या अब तक भाजपा शासित राजस्थान में बिर्लोका (राजस्थान के नग़ौर जि़ले में स्थित) के ग़फूर ख़ान, नूह के पहलू ख़ान और प्रतापगढ़ के ज़फर ख़ान के लिए कोई “त्वरित कार्रवाई” की गयी थी? कौन नहीं जानता कि ऐसे जघन्य कृत्यों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर भाजपा सरकारों और संघ का संरक्षण प्राप्त है? ये किन्हीं “परिधिगत” तत्वों के द्वारा नहीं किये जा रहे हैं जिन पर लगाम लगाये जाने की ज़रूरत है। बल्कि यही भारतीय फ़ासीवाद का असली चेहरा है। संघ और उसका चुनावी निकाय भाजपा फ़ासीवादी मशीनरी द्वारा किये जा रहे इन कुकृत्यों से, जिनका वो काफ़ी कुशलता से संचालन कर रहे हैं, स्वयं को पाप-मुक्त नहीं कर सकते। अब, हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद की यह एक विशेषता बन गयी है कि जैसे ही कोई अखलाक या अफ़राजुल जैसी घटना होती है तो दोष इन “खर्च कर दिये जाने योग्य” “फ्रिंज” तत्वों पर डाल दिया जाता है। हालाँकि, ‘फ्रिंज’ और ‘मुख्यधारा’ के बीच की विभाजन रेखा स्वयं धुँधली है और यह धुँधलापन सोच-समझ कर निर्मित किया गया है। इसलिए, वडोदरा का पार्षद और गुजरात के दभोई विधानसभा क्षेत्र का भाजपा प्रत्याशी खुले-आम चुनावी रैलियों में भड़काऊ भाषण देता है। तेलंगाना का भाजपा विधायक, राजा सिंह, जिसका पिछला इतिहास ऊना की क्रूरता को “नीच दलितों को सिखाया गया सबक” के रूप में परिभाषित करने का रहा है, खुलेआम हिन्दुओं से “हिन्दू राष्ट्र” के निर्माण के लिए हथियार उठा लेने का आह्वान करता है। सूरत में हिन्दू युवा वाहिनी का अध्यक्ष, जिसके सरपरस्त ख़ुद उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ है, एक मुसलमान के क़त्ल के लिए शम्भूलाल की “हिम्मत” की दाद देता है और उसके पक्ष में लोगों से समर्थन की अपील करता है.

जब स्वयं राज्य मशीनरी का ही अपराधकर्ताओं के साथ गठजोड़ है, तो आप इससे उम्मीद ही क्या रख सकते हैं? अभी तक सबसे महत्वपूर्ण सवालों, जैसे कि उन वीडियो को फ़ैलाने के लिए कौन ज़िम्मेदार है जिन्हें देख कर रैगर ने इस घटना को अंजाम दिया, को जाँच के दायरे में लाया ही नहीं गया है। किन संगठनों और नेटवर्कों ने रैगर के वीडियो को फ़ैलाने का काम किया? वे लोग कौन हैं जो रैगर को महिमामण्डित कर नायक के तौर पर पेश कर रहे हैं और पुलिस द्वारा बैंक अकाउंट बन्द करने से पहले तक रैगर की पत्नी के नाम चन्दा इकठ्ठा कर 5 लाख तक जमा करने में सफल हो जाते हैं? क्या इस पूरे  हत्याकाण्ड में ये सब गुनहगार नहीं हैं? और क्या अगर इन लोगों में भाजपा के नेता भी शामिल हैं, तो उन्हें भी जाँच के दायरे में नहीं लाना चाहिए? बजरंग दल की अगुवाई में शम्भूलाल के समर्थन में उदयपुर की अदालत पर प्रदर्शन कर रही भीड़ ने जमकर उत्पात मचाया, पत्थरबाज़ी की और पुलिस के आला अधिकारियों तक को घायल कर दिया, लेकिन पुलिस ने न कोई बल-प्रयोग किया और न ही गिरफ़्तारी की। अगर इनकी जगह कोई मज़दूर संगठन किसी मज़दूर की ग़ैर-क़ानूनी बर्ख़ास्तगी के विरोध में या न्यूनतम वेतन लागू करवाने की संविधान-सम्मत माँग को लेकर प्रबन्धन के ख़ि‍लाफ़ विरोध-प्रदर्शन कर रहा होता तो क्या पुलिस और प्रशासन का यही रवैया होता? हम इसका जवाब जानते हैं। इतना ही नहीं, इस फ़ासीवादी भीड़ को क़ानून और सज़ा से ऊपर होने का इस क़दर यक़ीन था कि उदयपुर के न्यायिक परिसर में न्यायलय के गुम्बद पर चढ़कर भगवा झण्डा तक फहरा दिया गया और किसी को कुछ करने की हिम्मत नहीं हुई। यह पूरा घटनाक्रम बरबस उस मुहावरे की याद दिलाता है कि “जब सैय्याँ भये कोतवाल, तब डर काहे का”!

राजसमन्द हत्याकाण्ड फ़ासीवाद द्वारा समाज के पोर-पोर में घिनौने तरीक़ों से फैलाये जा रहे ज़हर की बस एक और ताक़ीद है। खुलेआम हिंसा और आतंक का इस्तेमाल फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा हर तरह के प्रतिरोध को शांत कराने और आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने के लिए किया जाता है। फ़ासीवाद सत्ता में हो या सत्ता से बाहर हो, हर-हमेशा ही यह बड़ी पूँजी के लिए ‘अनौपचारिक राज्य-सत्ता’ के तौर पर काम करता रहा है। जो उदारवादी-शान्तिवादी तर्क, संवैधानिक तन्त्र और जनवाद (असल में बुर्जुआ जनवाद) की विफलता पर विधवा-विलाप कर रहा है, और जो मौज़ूदा राजनीतिक-वैचारिक व्यवस्था की बर्बरता से सदमे में है, वह अपने आँसुओं की धारा में इस बर्बरता, यानी कि फ़ासीवाद, के उदय के पीछे के कारणों और सम्बन्धों को देख पाने में असमर्थ है।

अन्त में ब्रेष्ट का यह उद्धरण बिलकुल सटीक बैठता है, “जो लोग पूँजीवाद का विरोध किये बिना फ़ासीवाद का विरोध करते हैं, जो उस बर्बरता पर दुखी होते हैं जो बर्बरता के कारण पैदा होती है, वे ऐसे लोगों के समान हैं जो बछड़े को जिबह किये बिना ही मांस खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाने के इच्छुक हैं लेकिन उन्हें ख़ून देखना नापसन्द है। वे आसानी से सन्तुष्ट हो जाते हैं अगर कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ थो लेता है। वे उन सम्पत्ति सम्बन्धों के ख़िलाफ़ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं, वे केवल अपने आप में बर्बरता के ख़िलाफ़ हैं। वे बर्बरता के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं, और वे उन देशों में ऐसा करते हैं जहाँ ठीक ऐसे ही सम्पत्ति सम्बन्ध हावी हैं, लेकिन जहाँ कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ धो लेता है।”

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

विज्ञान और मार्क्सवादी दर्शन के सम्बन्धों का एक अवैज्ञानिक और अज्ञानतापूर्ण पाठ : एक आलोचना

विज्ञान और मार्क्सवादी दर्शन के सम्बन्धों का एक अवैज्ञानिक और अज्ञानतापूर्ण पाठ : एक आलोचना

  • सनी सिंह
  1. परिचय

”अज्ञानता कोई तर्क नहीं होता है।”
(Ignorance is no argument)
स्पिनोज़ा

‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ पत्रिका के पहले अंक में प्रकाशित दीपक बख्शी का लेख ‘मार्क्सवादी दर्शन तथा मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्याएँ’ प्रथम-दृष्टया गम्भीर विषयवस्तु पर विमर्श का प्रयास लगता है। बख्शी मार्क्सवाद के अपूर्ण व पुराने पड़ चुके सिद्धान्तों के ‘निषेध’ के ज़रिये क्रान्तिकारी आन्दोलन के ठहराव को तोड़ने की ज़रूरत महसूस करते हैं। मार्क्सवाद, उनके मतानुसार, आज गम्भीर संकट से गुज़र रहा है। क्रान्तिकारी आन्दोलन के ठहराव को तोड़ने की ज़रूरत को समझना और उसे पूरा करना बेहद गम्भीर व गहन शोध कार्य की माँग करता है। प्रतीतिगत और सारभूत यथार्थ में अन्तर होता है। यह बात इस लेख को पढ़कर दिमाग़ में बार-बार उठती है क्योंकि हम पाते हैं कि दीपक बख्शी का प्रयास बेहद अगम्भीर, जल्दबाज़ीभरा और हल्का है। उनके लेख में वैज्ञानिक निषेध की जगह प्रतिस्थापन है, द्वन्द्व की जगह यान्त्रिकता है।

‘मार्क्सवाद में संकट’ के निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए दीपक बख्शी मार्क्सवाद का यान्त्रिक गणितीय सूत्र सरीखे नियम से प्रतिस्थापन कर देते हैं। मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धान्त के सम्बन्ध को वे एक गणितीय श्रृंखला के रूप में सूत्रबद्ध करते हैं। यह श्रृंखला इस प्रकार  है : प्राकृतिक विज्ञान – मार्क्सवादी दर्शन – मार्क्सवादी सिद्धान्त। इस श्रृंखला में आने वाले तमाम तत्व प्राथमिकता के क्रम के अनुसार बाएँ से दाएँ रखे गये हैं। यानी, किसी भी कम्युनिस्ट को क्रान्तिकारी आन्दोलन के ठहराव को तोड़ने के लिए पहले प्राकृतिक विज्ञान के विकास का अध्ययन करना होगा, तत्पश्चात प्राकृतिक विज्ञान के विकास को मार्क्सवादी दर्शन में व्याख्यायित करना होगा जिससे मार्क्सवादी दर्शन विकसित होगा, और तत्पश्चात इस विकसित मार्क्सवादी दर्शन की रोशनी में मार्क्सवादी सिद्धान्त विकसित हो सकते हैं।

यह मार्क्सवादी दर्शन में नवीनतम ‘नकारात्मक योगदान’ है! हमें यह नकारात्मक शिक्षा मिलती है कि इस ‘नवीनतम’ तरीक़े से ग़लती करने से बचा जाना चाहिए! दीपक बख्शी के विचार जगत में इस यान्त्रिक श्रृंखला के क्रम को जरा भी भंग नहीं किया जा सकता है। मौजूदा दौर में इस श्रृंखला का पालन न होने, यानी प्राकृतिक विज्ञान में बदलाव का अध्ययन न होने व मार्क्सवादी दर्शन के द्वारा इसकी विवचना न हाने के कारण, क्रान्तिकारी आन्दोलन में ठहराव आ गया है। पिछली शताब्दी में मार्क्सवादियों ने तथा मार्क्सवादी नेताओं माओ और स्तालिन ने प्राकृतिक विज्ञान में विकास का अध्ययन नहीं किया और न ही मार्क्सवाद पर हाइजे़नबर्ग द्वारा किये ‘सबसे गम्भीर हमले’(!) का जवाब दिया! यह ‘सबसे गम्भीर हमला’ क्वाण्टम भौतिकी का अनिश्चितता का नियम व उसकी नवकाण्टीय विवेचना व विस्तार है। नतीजतन, बख्शी के श्रृंखला नियम के अनुसार, माओ और स्तालिन द्वारा रचित दार्शनिक कृतियों में पेश की गयी द्वन्द्ववाद के नियमों की समझदारी ग़लत सिद्ध हुई और मार्क्सवादी सिद्धान्त में संकट उत्पन्न हुआ है। मार्क्सवादी सिद्धान्त में संकट से दीपक बख्शी का तात्पर्य पार्टी और जनवादी केन्द्रीयता के मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्तों से है।

साथ ही, श्री बख्शी रूसी क्रान्ति और चीनी क्रान्ति के बाद स्थापित हुईं समाजवादी व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं और इन्हें महज़ ‘समाजवाद का प्रयास’ घोषित करते हैं। रसायनशास्त्री जब प्रयोगशाला में आसवन की प्रक्रिया से अर्क निकालते हैं तो इस प्रक्रिया के प्रतिफल के तौर पर अवशेष (caput mortuum, या डेड हैड) बचता है जो कि लिसलिसा और तमाम तत्वों के यौगिक की जगह एक मिश्रण होता है। दीपक बख्शी का यान्त्रिक श्रृंखला नियम मार्क्सवादी वैचारिक संघर्षों के आसवन का अवशेष (‘केपुट मॉर्चुअम’) है जिसमें तमाम तत्वों का अधिभूतवादी मिश्रण है। परन्तु इस केपुट मॉर्चुअम पर मार्क्सवादी शब्दावली के इत्र का छिड़काव किया गया है ताकि बख्शी इसे मार्क्सवादी विमर्श के दायरे में रख सकें।

बख्शी अपनी यान्त्रिक श्रृंखला में प्राकृतिक विज्ञान के विषय आधुनिक भौतिकी को प्रमुख स्थान देते हैं। हाइज़ेनबर्ग का अनिश्चितता का नियम मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी के विकास की इस यान्त्रिक श्रृंखला में सबसे कमज़ोर कड़ी साबित होता है, क्योंकि मार्क्सवादी नज़रिये से इसे व्याख्यायित नहीं किया गया। जब तक दीपक बख्शी ने इस अनिश्चितता के हमले को निष्फल नहीं किया था तब तक यह कम्युनिस्ट आन्दोलन को डरा रहा था! भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को ‘अनिश्चितता’ नामक प्रेत परेशान कर रहा था। सवाल कठमुल्लावाद या संशोधनवाद का नहीं है जो नवजनवादी क्रान्ति के फ्रे़मवर्क या संसदीय विभ्रमों से नहीं निकलने दे रहा है वरन आधुनिक भौतिकी की समस्याओं का है! 1925 के बाद से भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में दक्षिणपन्थ से वामपन्थ के बीच विचारधारात्मक दोलन वैचारिक कमज़ोरी के चलते नहीं बल्कि ‘ग्रैविटेशनल वेव्स’ के कारण हो रहा है! दिसम्बर 2017 में वैज्ञानिकों को पदार्थ के नये रूप ‘एक्साइटोनियम’ के बारे में पता चला है, तो दीपक बख्शी की तर्कपद्धति के अनुसार तत्काल ही इसका अध्ययन और इसकी मार्क्सवादी दार्शनिक समझ विकसित करना कम्युनिस्टों के सैद्धान्तिक कार्यक्रम में प्राथमिक होना चाहिए! इसमें कोई दो राय नहीं है कि विज्ञान के नये सीमान्तों के उद्घाटन के साथ द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद भी इन खोजों के अध्ययन और व्याख्या के ज़रिये विकसित होता है। लेकिन यह कहना कि मार्क्सवादी दर्शन (और आम तौर पर दर्शन) हमेशा प्राकृतिक विज्ञान के पीछे-पीछे चलता है, न तो तार्किक रूप से सही दावा है और न ही आनुभविक और ऐतिहासिक तौर पर। इतिहास में अगणित बार ऐसा हुआ है कि उन सिद्धान्तों की खोज दार्शनिकों ने अपने वैज्ञानिक नज़रिये और आगमनात्मक तार्किक नज़रिये से पहले कर दी, जिन्हें बाद में प्राकृतिक विज्ञान ने आनुभविक तौर पर सिद्ध किया।

श्री दीपक बख्शी के दावे का दूसरा हिस्सा भी उतना ही अज्ञानतापूर्ण है जो कहता है कि बीसवीं सदी में प्राकृतिक विज्ञान की नयी खोजों व सिद्धान्तों का मार्क्सवाद ने व्याख्या व विश्लेषण नहीं पेश किया, जिसके कारण आज वह सैद्धान्तिक संकट का शिकार है। ऐसा नहीं है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन की ओर से आधुनिक भौतिकी की समस्याओं का अध्ययन नहीं हुआ है। बस दिक़्क़त यह है कि दीपक बख्शी इससे वाकि़फ़ नहीं हैं। उनका अध्ययन बेहद सीमित है। हाइज़ेनबर्ग के अनिश्चितता के नियम व दार्शनिक निहितार्थों के मार्क्सवादी विश्लेषण से अपरिचित दीपक बख्शी इसेे पढ़कर सैद्धान्तिक संकट के भय से सिहर जाते हैं। उन्हें यह इलहाम होता है कि इस नियम व इसकी दार्शनिक विवेचना के अभाव के कारण ही मार्क्सवाद सैद्धान्तिक संकट में है। श्री बख्शी इस बात से वाकि़फ़ नहीं हैं कि इन सभी प्रश्नों पर मार्क्सवाद ने बीसवीं सदी में ही विचार किया है और इस पर हुई जीवन्त बहसों ने मार्क्सवादी दर्शन व सिद्धान्त को विकसित भी किया है। हाइज़नबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धान्त और इसके नवकाण्टवादी विमर्श में ऐसा कुछ नहीं था जिसका जवाब मार्क्सवादी दृष्टिकोण से न दिया गया हो। जापानी वैज्ञानिकों ताकेतानी व सकाता ने और बाद में कई गै़र-मार्क्सवादी वैज्ञानिकों ने अनिश्चितता के नियम और इसकी प्रतिक्रियावादी विवेचना का जवाब दिया परन्तु दीपक बख्शी इन सबसे परिचित नहीं हैं। स्पिनोज़ा ने कहा था कि अज्ञानता कोई तर्क नहीं होती है (ignorance is no argumant) परन्तु दीपक बख्शी अपनी अज्ञानता का ही सैद्धान्तिकीकरण कर देते हैं! बीसवीं शताब्दी में आधुनिक भौतिकी के ”संकट” को आधार बनाते हुए वे मार्क्सवाद के ”संकट” के अपने विचार के लिए रास्ता बनाते हैं। परन्तु आप जैसे-जैसे उनके रहस्योद्घाटनों को पढ़ते हैं वैसे-वैसे आप पाते हैं कि उन्होंने आधुनिक भौतिकी के क्षेत्र में बिलकुल भी अध्ययन नहीं किया है। प्राकृतिक विज्ञान के सिद्धान्त तो दूर उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान के इतिहास का भी अध्ययन नहीं किया है।

वैसे भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में अध्ययन न करना आम समस्या है। दरअसल, मार्क्सवाद की छिछली समझ के चलते ही कई क्रान्तिकारी मार्क्सवादी संगठन और मार्क्सवादी बुद्धिजीवी मार्क्सवादी विचारधारा में ‘संकट’ का शोर रह-रहकर मचाते रहते हैं। अपने विभ्रमों और मार्क्सवाद की अधकचरी समझदारी के आधार पर कुछ लोग मार्क्सवाद पर ही सवाल खड़ा कर रहे हैं। अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी दृष्टिकोण ने ख़ास तौर पर तमाम ग़ैर-मार्क्सवादी विचारधाराओं के सम्मिश्रण को स्वीकार किया है और भारत में भी कई अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों ने पार्टी, क्रान्ति, हिरावल के सम्बन्ध में मार्क्सवादी सिद्धान्तों को नकारने की मानो ज़िम्मेदारी ही उठा रखी है! दीपक बख्शी सरीखे कई लोग अभी-अभी उत्तरआधुनिकतावाद और क्वाण्टम मैकेनिक्स की नवकाण्टीय व्याख्याओं को पढ़ रहे हैं और उन्हें ये व्याख्याएँ पढ़कर अचानक अहसास हुआ है कि ‘अरे! मार्क्सवाद तो संकट में है!’ और फिर वे संकटमोचक की भूमिका में उतरते हैं। अगर ये राजनीतिक नौदौलतिये मार्क्सवाद पर हो रहे नवीनतम हमलों को पढ़कर भ्रमित हुए होते तो कम-से-कम यह तो कहा जा सकता था कि वे ऐसे राजनीतिक नौदौलतिये हैं जो ‘अप-टू-डेट’ हैं! मगर कुछ के बारे में तो यह भी नहीं कहा जा सकता। वे जिस चीज़ को देखकर ‘यूरेका-यूरेका’ का शोर मचा रहे हैं, वह अब बहुत पुरानी पड़ चुकी है और उस पर बहुत कुछ कहा-सुना जा चुका है। कम-से-कम संजीदा मार्क्सवादियों के लिए आज ये नये प्रश्न नहीं हैं और लगभग हल हो चुके प्रश्न हैं। मिसाल के तौर पर, विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी और तुलनात्मक साहित्य विभागों को छोड़ दिया जाय, तो अकादमिक जगत भी अब ”उत्तरआधुनिकता द्वारा पैदा की गयी चुनौती” की बात करते हुए शर्मायेगा। वहीं क्वाण्टम मैकेनिक्स की नवकाण्टीय व्याख्याओं द्वारा खड़े किये गये प्रश्नों से भी मार्क्सवाद की आलोचनात्मक अन्तर्क्रिया का इतिहास अब पुराना हो चुका है, हालाँकि कई प्रबुद्ध वामपन्थी अकादमिक भी इससे वाकि़फ़ नहीं हैं। लुब्बेलुबाब यह कि कम-से-कम उत्तरआधुनिकतावाद और नवकाण्टवाद का हवाला देकर कोई मार्क्सवाद के ‘संकट’ की बात नहीं करता है। लेकिन भारत में ऐसे लोग भी हैं जो पूरे आत्मविश्वास के साथ आग का दोबारा आविष्कार करने का दावा करते घूम रहे हैं।

हम दीपक बख्शी के इस लेख को प्रातिनिधिक उदाहरण मानकर इसकी पड़ताल के ज़रिये यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि आज जिस तरह मार्क्सवाद के संकट के नाम पर मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों पर हमले की कोशिश हो रही है उसमें कुछ भी नया नहीं है। दीपक बख्शी का लेख इन हमलों का प्रातिनिधिक उदाहरण बनने के लायक तो नहीं है परन्तु यह उन सारे बिन्दुओं पर संक्षिप्त बात रखने का मौक़ा देता है जो ख़ास तौर पर प्राकृतिक विज्ञान के विकास को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से देखने के लिए ज़रूरी हैं।

  1. दीपक बख्शी के मूल तर्क का खण्डन

हम सबसे पहले बख्शी की यान्त्रिक श्रृंखला की प्राथमिक कड़ी यानी प्राकृतिक विज्ञान-मार्क्सवादी दर्शन के सम्बन्ध पर रोशनी डालेंगे। लेख के ‘दर्शन, विज्ञान तथा मार्क्सवाद’ शीर्षक में वे मार्क्स द्वारा ‘क्रान्तिकारी व्यवहार’ के हवाला देते हुए वैज्ञानिक प्रयोगों को इस व्यवहार में समाहित करने की दलील देते हैं :

”वैज्ञानिक प्रयोग और इण्डस्ट्री को … व्यवहार माना जाना चाहिए।” (बख्शी, ‘मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या’, मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन, अंक-1, वेब संस्करण, अनुवाद हमारा)

आगे वे लिखते हैं कि :

”प्राकृतिक विज्ञान और दर्शन का दीर्घकाल से स्थापित सम्बन्ध, ख़ासतौर पर मार्क्सवाद इसे जिस नज़रिये से देखता है, उससे यह स्पष्ट है कि ज्ञान की इस शाखा के विकास का मार्क्सवादी दर्शन के विकास के साथ अन्तर्गुन्थन होता है।” (वही, अनुवाद हमारा)

यह दीपक बख्शी के यान्त्रिक श्रृंखला नियम की परिभाषा है। वे बताते हैं कि मार्क्स और एंगेल्स की मृत्यु के बाद इस नियम का अनुसरण नहीं हुआ। वे कहते हैं :

”कम्युनिस्ट धड़े के भीतर से ही मार्क्सवाद पर अनवरत हमले होते रहे हैं, ग़लत व्याख्याएँ हुई हैं – परन्तु भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना की तर्ज़ पर नया काम नहीं हुआ है। एंगेल्स के द्वारा प्राकृतिक विज्ञान पर किये गये काम को आगे बढ़ाने की जि़म्मेदारी से मार्क्सवादी प्रत्यक्षतः पीछे हट गये हैं।” (वही, अनुवाद हमारा)

”मार्क्सवादियों ने एंगेल्स द्वारा प्राकृतिक विज्ञान पर किये कार्य का अनुसरण करना वस्तुतः छोड़ दिया है।” (वही, अनुवाद हमारा)

”एंगेल्स के प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन के महत्व पर बातचीत करना आज मार्क्सवादी सिद्धान्त के लिए बेहद ज़रूरी कार्यभार है।” (वही, अनुवाद हमारा)

यानी दीपक बख्शी की समझदारी के अनुसार ”प्राकृतिक विज्ञान” की ”ज्ञान शाखा का विकास मार्क्सवादी दर्शन के विकास के साथ अन्तर्गुन्थित है।” लेख में हमें मौजूदा दौर के संकट की घोषणा मिलती  है :

”मार्क्स तथा एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त और विचारों का विकास आज एक गम्भीर संकट से गुज़र रहा है।” (वही)

”वैचारिक संघर्ष के विस्तृत कार्यक्रम के कार्यभार” के दूसरे बिन्दु में बख्शी लिखते हैं –

”मार्क्सवादी नज़रिये से विज्ञान (ख़ास तौर पर भौतिकी, एस्ट्रोनोमी, जैनेटिक्स, बायोटेक्नॉलोजी, साइकोलोजी), भाषाशास्त्र, तकनोलॉजिकल विज्ञान… का अध्ययन, समझ बनाना, बहस-मुबाहिसे में उतरना और पिछले 150 सालों के सिद्धान्तों को विकसित करना होगा।” (वही)

अगर इन सारे तर्कों को जोड़ा जाये तो लुब्बेलुबाब यह है : वैज्ञानिक प्रयोग मानवीय व्यवहार है इसलिए इसका विकास मार्क्सवादी दर्शन से अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है। बीसवीं शताब्दी में वैज्ञानिक प्रयोग हुए परन्तु मार्क्सवादियों ने एंगेल्स के ‘प्रकृति के द्वन्द्ववाद’ के अध्ययन के कार्यभार को जारी नहीं रखा। प्राकृतिक विज्ञान में (ख़ासतौर पर भौतिकी में) संकट पैदा हुआ जिसने मार्क्सवाद में संकट पैदा किया। आज मार्क्सवादियों के सामने प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन का कार्यभार है जो मार्क्सवादी दर्शन के ठहराव को तोड़ सकता है। यह दीपक बख्शी द्वारा लेख में प्रस्तुत यान्त्रिक श्रृंखला की पहली कड़ी है। यह उनके लेख का मूल तर्क है जिसके आधार पर वे अपने विचार जगत की चौंका देने वाली संरचनाएँ खड़ी करते हैं। श्री बख्शी के प्राकृतिक विज्ञान और मार्क्सवादी दर्शन के अन्तर्गुन्थन में प्रमुख पहलू हमेशा प्राकृतिक विज्ञान के विकास का होता है, जिसमें बदलाव के अनुरूप मार्क्सवादी दर्शन को बदलना होता है। यदि यह न हो तो मार्क्सवादी दर्शन की ग़लत समझदारी विकसित होती है। नतीजतन, ग़लत मार्क्सवादी सिद्धान्त प्रतिपादित किये जाते हैं। यह दीपक बख्शी का सैद्धान्तिकीकरण है जिसकी रोशनी में वे मौजूदा दौर में क्रान्तिकारी आन्दोलन के ठहराव की पड़ताल करते हैं। कारण – आधुनिक भौतिकी में संकट, कार्य – मार्क्सवाद में संकट। हम दीपक बख्शी के इस मूल तर्क का खण्डन दीपक बख्शी द्वारा इस यान्त्रिक श्रृंखला नियम को आधुनिक भौतिकी में अमली जामा पहनाने के प्रयास की पड़ताल के ज़रिये करेंगे।

2.1 मार्क्सवाद पर सबसे गम्भीर हमला

बख्शी 20वीं शताब्दी से आधुनिक भौतिकी में मौजूद संकट को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं :

”1972’ में हाइज़ेनबर्ग ने अपने सिद्धान्त दिये और प्राकृतिक विज्ञान की परिधि को पार कर इसकी दार्शनिक विवेचना की। उन्हें 1932 में ‘मैट्रिक्स मैकेनिक्स की व्यवस्था’ के लिए नोबल पुरस्कार से नवाज़ा गया। यह अनिश्चितता सिद्धान्त और इसकी दार्शनिक विवेचना एंगेल्स की मृत्यु के बाद मार्क्सवाद पर सबसे महत्वपूर्ण हमला था।” (वही) (’टिप्पणी – उपरोक्त उद्धरण में 1972 की जगह 1932 होना चाहिए।)

वे क्रिस्टोफ़र कॉडवेल की पुस्तक ‘भौतिकी में संकट’ से हवाला देकर यह घोषित करते हैं कि विज्ञान जगत संकट का शिकार है जो मार्क्सवादियों के लिए गहन चुनौती है। वे लिखते हैं :

”कॉडवेल की रचनाओं में स्पष्टता से यह बात अभिव्यक्त होती है कि विज्ञान के साथ सभी सैद्धान्तिक क्षेत्रों में संकट मौजूद  है : ‘विचारधारा के सभी क्षेत्रों में लक्षण हूबहू एक जैसे हैं।'”

हम इस विमर्श का निष्कर्ष कॉडवेल की टिप्पणी के साथ करेंगे जो आज मार्क्सवादियों के समक्ष विज्ञान जगत में मौजूद संकट की चुनौती की गहनता को स्पष्ट करेगी :

”आइन्सटीन सापेक्षिक भौतिकी के पिता हैं और प्लांक क्वाण्टम भौतिकी के जनक हैं। दोनों अपने आप में ‘क्रान्तिकारी’ थे। इसलिए प्लांक का यकीन और आइन्सटीन की अबोधगम्यता अनसुलझे प्रश्नों के हल में महत्व रखती है। परन्तु युवाओं में हाइज़ेनबर्ग, श्रोडिंगर और डिराक सरीखे लोग शामिल हैं जिनकी तकनीकी उपलब्धियाँ भी समान रूप से क्रान्तिकारी चरित्र रखती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह नया स्कूल एक ज़्यादा रहस्यमय ब्रह्माण्ड के लिए संघर्ष में जनसमर्थन जीत रहा है।” (वही)

हम आगे देखेंगे कि उन्होंने यहाँ कॉडवेल के कथन की ग़लत व्याख्या की है। कॉडवेल इस पुस्तक में बुर्जुआ विचारधारा में संकट का जि़क्र कर रहे हैं वहीं बख्शी संकट के आगे ‘बुर्जुआ’ विशेषण हटा देते हैं और इसे मार्क्सवाद का संकट बना देते हैं। बहरहाल, हम आगे उनके प्राकृतिक विज्ञान-मार्क्सवादी दर्शन के नियम के ‘कार्य-कारण’ सम्बन्ध में ‘कारण’ की पड़ताल करेंगे। इस ‘कारण’ में दीपक बख्शी अनिश्चितता सिद्धान्त और उसकी दार्शनिक विवेचना को रखते हैं।

2.1.1. क्‍वाण्टम जगत की खोज तथा दीपक बख्शी की ऐतिहासिक अज्ञानता

”अज्ञानता के अमल से भयंकर कुछ भी नहीं है।” – गोएठे

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में वैज्ञानिकों की जमात पहली बार पदार्थ की आन्तरिक संरचना की गहराई तक पहुँची। पहली बार अणु के भीतर झाँक कर देखा जा सका। औद्योगिक क्रान्ति ने जिन मशीनों को जन्म दिया था वे अब इतनी ऊर्जा को क़ाबू कर सकती थीं कि अणु को भेद कर उसकी आन्तरिक संरचना तक पहुँचा जा सकता था। उन्नीसवीं शताब्दी में डॉल्टन ने अणु की अवधारणा सत्यापित की थी। जे. जे. थॅामसन ने 1903 में डॉल्टन के अणु के अन्दर के नये गुणों की व्याख्या की। थॉमसन ने ‘प्लम पुडिंग’ मॉडल दिया जिसमें कैथोड रे में मिले इलेक्ट्रॉन अणु धनात्मक आवेश के प्रोटोन में जड़ित (प्लम) होते हैं। परन्तु 1911 में रदरफ़ोर्ड के वैज्ञानिक प्रयोग में अणु के भीतर की संरचना ने थॉमसन मॉडल से विपरीत क़ि‍स्म का व्यवहार दर्शाया। अणु के रदरफ़ोर्ड मॉडल के अनुसार केन्द्र में धनात्मक आवेश के प्रोटोन मौजूद होते हैं जिसकी परिक्रमा इलेक्ट्रॉन अपनी कक्षा (ऑरबिट) में करते हैं। न्युटोनियन भौतिकी की प्रचलित अवधारणा के अनुसार पदार्थ के द्रव्य, ठोस और गैस रूप बुनियादी तत्व अणु से मिलकर बने होते हैं जिनमें तरह-तरह का ऊर्जा रूपान्तरण होता है व जिनके ऊर्जा, बल, गति और संवेग आदि गुणों का सटीक और निश्चित मूल्यांकन सम्भव था। वहीं मैक्सवेल का मॉडल रेडिएशन की संरचना और तरंग प्रकृति को न्यूटोनियन भौतिकी के ज़रिये व्याख्यायित करता था। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में विश्व का यह क्लासिकीय दृष्टिकोण चरमरा कर गिर रहा था। इधर सूक्ष्म स्तर पर नयी परिघटनाएँ भी इस दृष्टिकोण पर सवालिया निशान लगा रही थीं। बोर ने रदरफ़ोर्ड के मॉडल की व्याख्या प्लांक के क्वाण्टम नियम (जिससे प्लांक ने ब्लैक बॉडी रेडिएशन को व्याख्यायित किया था) व आइन्सटीन ने फ़ोटोइलैक्ट्रिक इफ़ै़क्ट के अनुसार की। बोर ने प्लांक के क्वाण्टम नियम और न्यूटोनियन मैकेनिक्स के असंगत सिद्धान्तों को सार-संग्रहवादी तरीक़े से अपने सिद्धान्त में शामिल किया था। यह नाकाफ़ी था। साल दर साल आणविक स्तर पर परिघटनाएँ सामने आ रहीं थी जो बोर के मॉडल पर भी सवाल कर रही थीं। बोर ने कारेस्पॉण्डेंस प्रिंि‍सपल प्रतिपादित कर नयी परिघटनाओं को समझाने व क्वाण्टम और क्लासिकल जगत की सीमाओं के अन्तरभेदन को स्पष्ट करने का प्रयास किया। अन्य प्रयास भी हुए पर सब अध्ूरे साबित हो रहे थे। अन्ततः सभी असफल सिद्धान्तों का निषेध कर हाइज़नबर्ग और श्रोडिंगर द्वारा प्रतिपादित वेव मैकेनिक्स और मैट्रिक्स मैकेनिक्स ने क्वाण्टम भौतिकी की मूल प्रतिस्थपनाएँ स्थापित कीं और सूक्ष्म स्तर पर पदार्थ की गति के नियम रचे। इस सिद्धान्त के ही एक अंग के तौर पर अनिश्चितता के नियम ने वैज्ञानिकों के बीच एक विभाजक रेखा खींच दी। मैट्रिक्स मैकेनिक्स कॉपनहेगन स्कूल का उत्पाद था तो दूसरी ओर नियतत्ववादी स्कूल के श्रोडिंगर ने वैव मैकेनिक्स रची। इन दोनों दृष्टिकोणों के साथ खडे़ वैज्ञानिकों के भी कई रंग थे। जहाँ नियतत्ववादी स्कूल में आइन्सटीन, प्लांक, श्रोडिंगर और डीब्रोग्ली प्रमुख हैं वहीं अज्ञेयवादी और प्रत्यक्षवादी कॉपनहेगन स्कूल के प्रवर्तकों में बोर, हाइज़ेनबर्ग, डिराक, जोर्डन आदि थे। इस दौरान ही बोर और आइन्सटीन के बीच विज्ञान के क्षेत्र की एक महाकाव्यात्मक बहस चली। कॉपनहेगन स्कूल जीत रहा था। हर ओर काॅपनहेगन की धुन्ध छा गयी। दोनों स्कूलों में मूल मुद्दा ‘प्रेक्षण समस्या’ था जो हाइज़ेनबर्ग के अनिश्चितता के नियम की विवेचना की समस्या है। इस बहस में इन दोनों स्कूलों के दृष्टिकोणों में ज़बर्दस्त टकराव चल रहा था।

इस बहस में न सिर्फ़ बुर्जुआ वैज्ञानिकों ने बल्कि मार्क्सवादी वैज्ञानिकों ने भी हिस्सा लिया। व्लादिमिर फ़ॉक, राज़नफ़ेल्ड, बोर्न, ब्रोन्स्टीन, ब्लोखिन्स्तेव, ताकेतानी, सकाता से लेकर दर्जनों सोवियत और ग़ैर-सोवियत वैज्ञानिक मार्क्सवादी नज़रिये से इस बहस में हस्तक्षेप कर रहे थे। इन सबके भी अलग-अलग मत थे। परन्तु दीपक बख्शी इस इतिहास से अनजान हैं। इस परिचय के बाद प्रेक्षण समस्या पर बहस के मूल में जाकर देखते हैं कि दीपक बख्शी जिस अनिश्चितता के नियम पर हाहाकार मचा रहे हैं उससे क्या हमें भयाक्रान्त होना चाहिए और साथ ही हम मार्क्सवादी नज़रिये से इस समस्या की पड़ताल पर रोशनी डालेंगे।

अनिश्चितता के नियम के अनुसार क्वाण्टम स्तर पर मौजूद इलेक्ट्रॉन की गति और स्थिति के समक्षणिक प्रेक्षण में अनिश्चितता मौजूद रहती है। इस प्रेक्षण में प्रेक्षक स्थूल स्तर पर मौजूद मानव दृष्टि और उसके प्रेक्षण उपकरण हैं तो प्रेक्ष्य अणु के अंदर मौजूद इलेक्ट्रॉन। इस प्रेक्षण में अनिश्चितता का माप 0.52728×10-34 मी2 किग्रा प्रति सैकेण्ड से कम नहीं हो सकता है। यह संख्या काफ़ी अल्पतर प्रतीत होती है परन्तु सूक्ष्म स्तर पर मापने में अनिश्चितता पैदा करने के लिए काफ़ी है। अनिश्चितता क्वाण्टम स्तर पर मौजूद प्रेक्षणों को सम्भाव्यता के क्षेत्र में ले आती है। इलेक्ट्रॉन के गुण को गणितीय सूत्र के रूप में वेवफ़ंक्शन (Ψ) में परिभाषित करते हैं। इलेक्ट्रॉन एक पार्टिकल होते हुए भी तरंग की तरह व्यवहार करता है। जिस प्रकार क्लासिकीय जगत में किसी भी कण को उसकी स्थिति, गति व ऊर्जा के परिमाण से व्याख्यायित किया जाता है वैसे ही क्वाण्टम भौतिकी इलेक्ट्रॉन के वेवफ़ंक्शन की स्थिति (स्टेट) को व्याख्यायित करती है। यह वेवफ़ंक्शन इलेक्ट्रॉन के दिक् व काल (स्पेस एण्ड टाइम) में विस्तार को व्याख्यायित करता है। वेवफ़ंक्शन की स्थिति की अवधारणा में कण व तरंग के अन्तर्विरोध की एकता होती है। इलेक्ट्रॉन का कण होना उसके संवेग को मापने योग्य बनाता है तो तरंग होना उसमें अनिश्चितता पैदा करता है। जिस प्रकार पानी में उठती लहरें एक दूसरे में मिलकर छोटी-बड़ी बन जाती हैं वैसे ही इलेक्ट्रॉन का एक वेवफ़ंक्शन कई स्थितियों (स्टेट्स) से मिलकर बनता है जिस कारण क्वाण्टम भौतिकी में समग्र तथा उपांग का अन्तरविरोध भी होता है। स्टेट की अवधारणा सांख्यिकी की अवधारणा होती है जिसके कारण इस सिद्धान्त में सटीकता की बहस ही बेमानी है।

जापानी मार्क्सवादी वैज्ञानिक ताकेतानी के अनुसार :

”क्वाण्टम भौतिकी में कण (पार्टिकल) और तरंग के दो अन्तरविरोधी परिघटनात्मक रूप होते हैं…जिन्हें स्टेट के सारभूत सिद्धान्त में इनकी एकता में समझा जा सकता है।” (ताकेतानी, 1971, डायलेक्टिक्स ऑफ़ नेचर, जर्नल ऑफ़ प्रोग्रेस इन थ्योरेटिकल फिज़िक्स, पेज 31, अनुवाद हमारा)

यह क्वाण्टम भौतिकी की बुनियादी मार्क्सवादी समझदारी है। इस समझदारी से अलग हाइज़ेनबर्ग प्रेक्षण की सीमा की दार्शनिक विवेचना अज्ञेयवादी व प्रत्यक्षवादी नज़रिये से कर रहे थे। हाइज़ेनबर्ग माख़वादी तरीक़े से केवल प्रत्यक्ष गुणों के आधार पर विज्ञान के अध्ययन की बात कह रहे थे। बोर ने 1927 की सोल्वे कॉन्फ़्रेन्स में क्वाण्टम भौतिकी के नियतत्ववादी स्कूल के पुरोधा आइन्सटीन को अनिश्चितता सिद्धान्त पर चली बहस में हराकर कॉपनहेगन स्कूल की पताका फहराई। इस स्कूल का समर्थन, हालाँकि ग़लत, मार्क्सवादी दृष्टिकोण से फ़ॉक और रोज़ेन्फ़ेल्ड ने किया। वहीं श्रोडिंगर ने नियतत्ववादी कैम्प का झण्डा उठाया और वेव मैकेनिक्स और प्रेक्षण समस्या पर ‘श्रोडिंगर की बिल्ली के पैरॉडॉक्स’ के ज़रिये क्वाण्टम भौतिकी की अलग व्याख्या कर प्रेक्षण समस्या की बहस को आगे बढाया। 1937 में पहली बार ताकेतानी और बाद में सकाता ने क्वाण्टम भौतिकी की सही मार्क्सवादी नज़रिये से व्याख्या की और नवकाण्टवादी, प्रत्यक्षवादी व नियतत्ववादी व्याख्याओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। 1952 में बोम ने भी मार्क्सवादी नज़रिये से क्वाण्टम भौतिकी को समझने व आगे विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह आइन्सटीन के बोर-आइन्सटीन बहस के सूत्रों को द्वन्द्वात्मक रूप से आगे बढ़ाने का प्रयास था। कॉपनहेगन स्कूल हार रहा था परन्तु निर्णायक चोट 1957 की ब्रिस्टल कॉन्फ़्रेन्स में हुई जहाँ प्रेक्षण समस्या पर कॉपनहेगन स्कूल पर चौतरफ़ा हमला हुआ।

लेकिन दीपक बख्शी इन सब बहसों से परिचित नहीं हैं। वे पहली बार हाइज़ेनबर्ग के अनिश्चितता सिद्धान्त को पढ़कर काँप उठते हैं और अपनेआप ही गत्ते की तलवार लेकर इस अनिश्चितता से लड़ने लगते हैं और सभी मार्क्सवादियों को इस लड़ाई में कूद पड़ने का आह्नान करते हैं। परन्तु वे यह लड़ाई अपने कल्पनालोक में लड़ रहे हैं। ये उनके अध्ययन के छूटे कार्यभार हैं मार्क्सवाद के नहीं। अगर वे इतिहास से परिचित होते तो वे अनिश्चितता के नियम को ‘मार्क्सवाद पर एंगेल्स की मृत्यु के बाद सबसे गम्भीर हमला’ घोषित नहीं करते और न ही यह कहते कि इस हमले का मार्क्सवादी नज़रिये से आज तक कोई जवाब नहीं दिया गया। इतिहास-शून्यता और अज्ञानता से दीपक बख्शी ही नहीं आज के युग के वैज्ञानिक भी परेशान हैं! 2014 के एक सर्वे में सबसे अधिक वैज्ञानिकों ने क्वाण्टम भौतिकी की कॉपनहेगन विवेचना से सहमति दर्ज करायी। ख़ैर, दीपक बख्शी के ‘प्राकृतिक विज्ञान-मार्क्सवादी दर्शन की अर्न्तनिर्भरता के नियम’ के ‘कार्य-कारण सम्बन्ध’ में अनिश्चितता के नियम द्वारा मार्क्सवाद पर हमले के ‘कारण’ का भाग पहला है जो मार्क्सवादी दर्शन में ठहराव व मार्क्सवादी सिद्धान्त के संकट के ‘कार्य’ को सम्पन्न करता है।

लेकिन सच्चाई क्या है? अनिश्चितता का नियम मार्क्सवाद के लिए कभी संकट नहीं बना बल्कि उलट यह इसकी पुष्टि ही है। इस नियम का हाइज़ेनबर्ग द्वारा दार्शनिकीकरण और इसका सैद्धान्तिक विस्तार नवकाण्टवाद को पुनर्जीवित करने के प्रयास से ज़्यादा कुछ नहीं है। आइये क्वाण्टम भौतिकी की इस कॉपनहेगन व्याख्या को विस्तार में समझें जो असल में नवकाण्टवादी दर्शन का ही रूप है जिसे मार्क्सवाद पहले ही ध्वस्त कर चुका है। साथ ही हम विज्ञान जगत में ताकेतानी और सकाता द्वारा क्वाण्टम भौतिकी के मार्क्सवादी मूल्यांकन को समझेंगे जिससे दीपक बख्शी द्वारा उठाये सवालों की सतही समझदारी उभर कर सामने आ सके।

2.1.2 मेघे (कॉपनहेगन) ढँके तारा (मार्क्सवाद)

बख्शी के अनुसार हाइज़ेनबर्ग का ‘अनिश्चितता का नियम’ और इसकी दार्शनिक विवेचना मार्क्सवाद पर सबसे भयंकर हमला थी। क्वाण्टम भौतिकी के उद्भव और विकास के दौरान अनिश्तिता के नियम व अन्य विवेचना-सम्बन्धी समस्याओं को लेकर वैज्ञानिकों और दार्शनिकों में काफ़ी घमासान हुआ। इस घमासान से अपरिचित दीपक बख्शी अनिश्चितता के नियम के अलावा हाइजे़नबर्ग के दर्शन को पढ़ने के बाद भयंकर भय का अनुभव करते हैं और भयाक्रान्त होकर मार्क्सवादियों को हिदायत देते हैं। हम देख चुके हैं कि अनिश्चितता के नियम के अनुसार प्रकृति में इलेक्ट्रॉन की गति और स्थिति का समक्षणिक सटीक प्रेक्षण नहीं किया जा सकता है व हर प्रेक्षण में एक अनिश्चितता मौजूद होती है। हाइजेनबर्ग ने इस अनिश्चितता का कारण हमारे ज्ञान के चरित्र में ढूँढ़ा और प्रकृति को हमारी धारणाओं का निर्माण बताया। वे ‘वस्तु निज रूप’, वस्तुगत यथार्थ और ‘कार्य-कारण’ की अवधारणाओं पर हमला करते हैं। हाइज़ेनबर्ग कहते हैं कि ”भौतिकशास्त्रियों को औपचारिक तौर पर सिर्फ़ अनुभवों के बीच सम्बन्ध स्थापित करना होता है”, ”आधुनिक भौतिकी में हम यथार्थ या अणुओं की संरचना को नहीं बल्कि महज़ परिघटनाओं के अनुभव को ट्रीट करते हैं।”

जैसा कि कोई भी पढ़ने-लिखने वाला मार्क्सवादी समझ सकता है, साफ़ तौर पर यह अनुभवसिद्ध आलोचना और नवकाण्टवाद का पुनर्जन्म ही था, और कुछ नहीं। हाइजे़नबर्ग के अनुसार प्रेक्षक यथार्थ का निर्माण करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यथार्थ एक निर्मिति है। हाइजे़नबर्ग द्वारा सूक्ष्म जगत में मौजूद अनिश्चितता के पहलू का यह नवकाण्टीय सामान्यीकरण भौतिकी के कार्य-कारण सम्बन्ध (कॉजैलिटी) सिद्धान्त को नकार देता है। इस दर्शन के विचारक यह तर्क देते हैं कि अगर किसी प्रयोग में 10 प्रेक्षण में से एक बार भी हमारी अवधारणा के विपरीत परिणाम आता है तो इसका मतलब यह है कि हम उस परिघटना के विषय में नहीं जान सकते हैं तथा यह कार्य-कारण सिद्धान्त का निषेध होता है। लेकिन वास्तव में यहाँ यह प्रयोग कार्य-कारण सिद्धान्त को दो तरह से सिद्ध करता है। 10 प्रेक्षण में से 9 बार हमारी पूर्वकल्पना के अनुसार परिणाम आते हैं और 1 बार विपरीत परिणाम आता है तो हमें उन अज्ञात कारणों की तलाश करने का मौक़ा मिलता है, जिनके कारण हमारी प्रस्थापना पुष्ट नहीं हो पायी। यहाँ एक ऐसा कार्य-कारण सिद्धान्त काम करता है जो हमें ज्ञात नहीं होता है। यह ‘काइनैटिक थियरी ऑफ़ गैस’ के समान ही है जहाँ गैस के अणुओं की गति का मापन भी सम्भाव्यता में ही होता है। इसके अलावा, क्वाण्टम भौतिकी में अनिश्चितता भी हमारे प्रेक्षण पर निर्भर करती है। यहाँ अनिश्चितता हमारे प्रेक्षण के उपकरणों की सीमा के कारण उत्पन्न होती है। प्रेक्षणों के और अधिक उन्नत और गहरे होने के साथ अनिश्चितता, फिर से निश्चितता तथा अनिश्चितता में टूट जाती है। नयी निश्चितता पुरानी निश्चितता से ज़्यादा उन्नत होगी और नयी अनिश्चितता पुरानी अनिश्चितता से अधिक उन्नत होगी। विज्ञान न सिर्फ़ उन्नत निश्चितताओं का स्वागत करता है, बल्कि उन्नत अनिश्चितताओं का भी स्वागत करता है, क्योंकि अनिश्चितता ही निश्चितता में बदल सकती है। निश्चितता तो पहले से ही निश्चितता है। इसलिए उन्नत निश्चितताओं के जन्म के लिए अनिश्चितताओं का होना ज़रूरी है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद भी शुरू से ही हर सिद्धान्त को दिक्-काल सापेक्ष मानता है और किसी भी निरपेक्ष सत्य या सिद्धान्त की अवधारणा के विरुद्ध है। यही द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नजरिया है और वास्तव में हाइजे़नबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धान्त (अपनी नवकाण्टीय दार्शनिक व्याख्या व विस्तार के बिना) द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण को सिद्ध करता है, जो हमेशा से नियतत्ववाद और प्रत्यक्षवाद दोनों के ही विरुद्ध संघर्ष करता रहा है। अनिश्चितता परिघटनात्मक स्तर पर घटित होती है जिसे समझने के लिए हमें सारभूत स्तर तक जाना होगा ठीक उसी प्रकार जैसे पूँजीवाद में संकट की परिघटनात्मक समझदारी असमानुपातिकता और अल्पउपभोग को कारण बताती है परन्तु असल में संकट सारभूत स्तर पर ‘मुनाफ़े़ की गिरती दर के रुझान का नियम’ के कारण पैदा होता है जो असमानुपातिकता और अल्पउपभोग को पैदा करता है।

क्वाण्टम भौतिकी को मार्क्सवादी नज़रिये से देखने में अग्रणी नाम ताकेतानी और सकाता का आता है। ताकेतानी ने प्राकृतिक विज्ञान का ‘तीन मंजि़ल सिद्धान्त’ दिया जिसमें तीन मंजि़लें हैं – परिघटनात्मक, तात्विक और सारभूत। यह प्राकृतिक विज्ञान या विज्ञान में होने वाले बदलावों के लिए कमोबेश सटीक सैद्धान्तिकीकरण है। इंसान के प्रेक्षण के गहराने या विस्तृत होने पर प्रकट होने वाली नयी परिघटनाओं को पहले तात्विक और फिर सारभूत स्तर पर समझाने वाले सिद्धान्त विकसित होते हैं और यह क्रम प्रेक्षण गहराने के साथ कुण्डलाकार गति में जारी रहता है। न्युटोनियन भौतिकी से क्वाण्टम भौतिकी के दौर में संक्रमण को इस तरह ही देखा जा सकता है। ताकेतानी के अनुसार :

”प्रकृति के संज्ञान की प्रक्रिया में तीन स्तर होते हैं। पहले स्तर पर परिघटना और प्रयोगात्मक परिणामों का उल्लेख किया जाता है। इस स्तर पर …परिघटना के बारे में विभिन्न जानकारियों और तथ्यों का संचय किया जाता है। …मैं इस स्तर को परिघटनात्मक स्तर का नाम देता हूँ। …दूसरे स्तर में परिघटना को जन्म देने वाली तात्विक संरचना ज्ञात होती है जिसकी मदद से परिघटना का उल्लेख कर उसकी वैधता सुनिश्चित की जाती है। इसे हम तात्विक मंजि़ल कहेंगे…तीसरे स्तर में ज्ञान तात्विक स्तर के माध्यम से सार में प्रवेश करता है। परिघटना का नियम पारस्परिक अन्तर्क्रिया में लिप्त तत्वों की आवश्यक गति के माध्यम से उभारा जाता है। यह स्पष्ट करना होता है कि किस प्रकार परिघटना एक निश्चित संरचना के तत्वों से किसी निश्चित परिस्तिथि में उत्पन्न होती है। मैं इस स्तर को सारभूत स्तर कहता हूँ।” (वही, पेज 61-62, अनुवाद हमारा)

ताकेतानी और सकाता ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी अवस्थिति से यह भी दर्शाया कि क्वाण्टम भौतिकी पूर्णतः पदार्थ जगत के एक विशिष्ट स्तर को समझाती है। यहाँ सटीकता की बहस ही बेमानी है। न्यूटोनीय भौतिकी वृहद जगत के लिए आज भी सच है। लेकिन प्रेक्षण के धरातल के बदलने के साथ, सन्दर्भ के बदलने के साथ, अलग-अलग जगत में गति के नियमों में भी परिवर्तन आ जाता है। क्वाण्टम भौतिकी में तीन स्तर पर अन्तरविरोध काम करते हैं – समग्र तथा अंग, आवश्यकता और आकस्मिकता तथा परिघटना (अनिश्चितता) और सार (स्टेट) के बीच मौजूद अन्तरविरोध। इलेक्ट्रॉन का स्टेट सारतत्व का स्तर होता है। यह सारतत्व ही अपने आप को परिघटनात्मक स्तर पर पेश करता है जिसे अनिश्चितता के रूप में समझा जाता है।

प्रकृति में निश्चितता और अनिश्चितता के बीच, निर्धारण और संयोग के बीच और परिघटनात्मक व सारभूत स्तर के बीच हमेशा एक द्वन्द्व मौजूद रहता है। निश्चित तौर पर यह द्वन्द्व अपने आपको प्रकृति के गति के नियमों की व्याख्या करने वाले विज्ञान में भी अभिव्यक्त करता है। सूक्ष्म जगत में जिन कारणों से आज अनिश्चितता मौजूद है, उसे इन वैज्ञानिकों ने प्रेक्षण समस्या (ऑब्ज़र्वेशन प्रॉब्लम) का नाम दिया और बताया कि प्रेक्षक और प्रेक्षण के उपकरणों के विकास के साथ इस धरातल पर मौजूद प्रेक्षण की समस्या का समाधान हो जायेगा, लेकिन तब कोई न कोई नया धरातल सामने होगा, जिस पर नये सिरे से अनिश्चितता और प्रेक्षण की समस्या मौजूद होगी। यह प्रक्रिया ही पदार्थ जगत के विकास की द्वन्द्वात्मकता को विज्ञान की द्वन्द्वात्मकता में प्रतिबिम्बित करती है।

अब चूँकि विज्ञान में निश्चितता और अनिश्चितता, दोनों के ही पहलू सतत और अनन्त रूप से मौजूद रहे हैं और रहेंगे, इसलिए यदि वैज्ञानिक पहले से ही एक द्वन्द्वात्मक अप्रोच को लेकर प्रस्थान नहीं करता तो वह निश्चित तौर पर या तो आइंस्टीन-श्रोडिंगर के नियतत्ववाद और स्पिनोज़ा के ईश्वर का शिकार बन जायेगा, या फिर, हाइजे़नबर्ग और बोर के नवकाण्टीय अज्ञेयवाद की खाई में जा गिरेगा, जहाँ उसके लिए होने और न होने का अर्थ ही समाप्त हो जायेगा, क्योंकि समस्त पदार्थ जगत ही है या नहीं, इसकी कोई गारण्टी नहीं है; ऐसा भी हो सकता है कि सब माया हो! सामाजिक विज्ञान की तरह ही प्रकृति विज्ञान में भी एक वैचारिक संघर्ष जारी रहा है। यह संघर्ष बीसवीं सदी में अपनी ऊँचाइयों और गहराइयों तक गया। लेकिन महान प्रतिभाएँ भी विज्ञानवादी नियतत्ववाद और विज्ञानवादी अज्ञेयवाद का शिकार हो गयीं। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ने भौतिकी में मौजूद आभासी संकट का जो समाधान किया, उसे बुर्जुआ मीडिया कहीं भी नहीं प्रदर्शित करता और न ही उसे स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है। लेकिन सकाता, ताकेतानी और उनके सहयोगी युकावा जैसे वैज्ञानिकों के योगदान को समझे बिना आधुनिक भौतिकी की एक सही समझदारी विकसित कर पाना मुश्किल है। हाइज़ेनबर्ग द्वारा मार्क्सवाद पर सबसे गम्भीर हमले की बख्शी की विवेचना के काल्पनिक तर्क के बाद यह भी देख लिया जाये कि भौतिकी में संकट के सन्दर्भ में मार्क्सवादियों का दृष्टिकोण क्या है? क्योंकि दीपक बख्शी इस पहलू पर शान्त रहते हैं।

2.2 प्राकृतिक विज्ञान में संकट की मार्क्सवादी विवेचना

”मरना नये का बनना है।” – गोएठे

भौतिकी में आने वाला ”संकट” भौतिकी के द्वन्द्वात्मक विकास की अभिव्यक्ति है। प्राकृतिक विज्ञान भी निषेध के निषेध के ज़रिये आगे बढ़ता है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण के अनुसार प्रकृति को न देखने के कारण वैज्ञानिकों में संकट का शोर मच जाता है। प्राकृतिक विज्ञान आगे बढ़ता है और हर 10-15 साल में नये संकट का शोर मचता है। एंगेल्स ने प्राकृतिक विज्ञान के संकट की ओर इशारा करते हुए लिखा कि ”खोज के परिणामों तथा पूर्वकल्पित चिन्तन प्रणलियों के बीच जो टकराव होता है उसी का नतीजा है कि इस समय सैद्धान्तिक प्राकृतिक विज्ञान में एक गड़बड़ी फैल गयी है, जिसका लगता है कभी अन्त नहीं होगा और जो शिक्षक तथा शिक्षार्थी, लेखक तथा पाठक सभी को विक्षिप्त बनाये डाल रही है।” (एंगेल्स, 1980, ड्यूहरिंग मत खण्डन, प्रगति प्रकाशन, पृष्ठ 42)

इस ‘गड़बड़’ ने ही आगे ‘संकट’ का रूप लिया जिसका कारण मार्क्सवाद का संकट नहीं बल्कि सैद्धान्तिक प्राकृतिक विज्ञान में मौजूद ”पूर्वकल्पित चिन्तन प्रणलियों” का नये नतीजों के साथ टकराव था। लेनिन 1908 में आधुनिक भौतिकवाद के संकट के कारणों की पड़ताल करते हैं। ताज्जुब की बात है कि ‘भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना’ में लेनिन के प्राकृतिक विज्ञान में ‘संकट’ के अध्ययन के बारे में बख्शी चुप रहते हैं क्योंकि इस विषय पर लिखते हुए कोई मार्क्सवादी-लेनिनवादी इस पुस्तक का सन्दर्भ न पेश करे तो इसके पीछे या तो स्मृतिलोप हो सकता है या अध्ययन का अभाव। लेनिन ने पहली बार आधुनिक भौतिकी में और प्राकृतिक विज्ञान में संकट के शोर के पीछे मौजूद कारणों की गहनता से पड़ताल की। भौतिकवाद से अपरिचित वैज्ञानिक जिस दार्शनिक गढ्ढे में गिरते हैं उसे लेनिन ने ”भौतिक भाववाद” का नाम दिया। लेनिन ”भौतिक भाववाद” के कारण पैदा हुए ‘संकट’ के पीछे एक कारण ज्ञान की सापेक्षिकता की ग़लत समझदारी बताते हैं तो दूसरा कारण बुर्जुआ दर्शन का वैज्ञानिकों पर मौजूद प्रभाव बताते हैं। दार्शनिक भाववाद जिसे पूँजीवाद में बुर्जुआ वर्ग अपने अस्तित्व के लिए प्रसारित करता है इस संकट को बनाये रखता है। लेनिन लिखते हैं :

”जिस तरह एक डूबता हुआ इंसान तिनके का भी सहारा लेने की कोशिश करता है उसी तरह बेहद विशिष्ट तौर पर पढ़ा-लिखा बुर्जुआ कृत्रिम तौर पर श्रद्धावाद (fideism), जो जनता की अज्ञानता और पूँजीवाद के अतार्किक और बर्बर अन्तरविरोधों के कारण में पाया जाता है, को बचाने की हर तरह की कोशिश करता है।

”भौतिक भाववाद के बढ़ने का दूसरा कारण सापेक्षिकतावाद का सिद्धान्त है, हमारे ज्ञान की सापेक्षिकता का सिद्धान्त जो पुराने सिद्धान्तों के असामयिक भंग होने के कारण भौतिकविदों के दिमाग़ों पर मज़बूत पकड़ बना रहा है और अगर वे द्वन्द्ववाद से परिचित न हों तो अन्त में भाववाद तक पहुँच जाते हैं।” (लेनिन, 1980, मैटिरियलिज़्म एण्ड इम्पिरियो क्रिटिसिज़्म, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृष्ठ 288, अनुवाद हमारा)

और आगे लेनिन बताते हैं कि :

”संकट का सार यह है कि आधुनिक भौतिकी में पुराने नियम और बुनियादी सिद्धान्त बदलने को मस्तिष्क के बाहर मौजूद वस्तुगत यथार्थ का ख़ारिज होना माना जा रहा है, यानी भौतिकवाद का भाववाद और अज्ञेयवाद से तब्दीली करना माना जा रहा है। ”पदार्थ ग़ायब हो गया” – यह वह बुनियादी और चारित्रिक समस्या है जिसे उन सवालों के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है जो यह संकट लेकर आया है।” (वही, पेज 231, अनुवाद हमारा)

”पदार्थ के ग़ायब होने” की जगह हाइज़ेनबर्ग ने अनिश्चितता को ला खड़ा किया और आधुनिक भौतिकी में फिर से संकट का शोर मचने लगा। ज्ञान की सापेक्षिकता की अभिव्यक्ति लगातार प्राकृतिक विज्ञान में भी होती है जहाँ लगातार गहराते ज्ञान के आधार पर हमें पुरानी धारणाओं को त्यागकर नये गहरे सिद्धान्तों को समझना होता है। यही लगातार भौतिकी में विकास करता है और उसके तार्किक मूल्यांकन में बदलाव करता है। इस बदलाव को प्रकृति के अन्तर्सम्बन्ध की तस्वीर के जटिल और ज़्यादा परिष्कृत होने के रूप में समझा जा सकता है न कि भौतिकवाद के पतन के रूप में। यानी यह संकट असल में ‘आभासी’ संकट है। दीपक बख्शी इस संकट को मार्क्सवाद के सिद्धान्तों में ‘संकट’ के आधार के तौर पर पेश करते हैं, परन्तु एंगेल्स और लेनिन के दृष्टिकोण के अनुसार यह प्राकृतिक विज्ञान का संकट नहीं बल्कि बुर्जुआ दर्शन का संकट है। दरअसल बख्शी का प्राकृतिक विज्ञान का ज्ञान बेहद कमज़ोर और भोंड़ा है। असल में संकट का कारण उलट है जिस तरफ़ लेनिन इशारा करते हैं –

”प्राकृतिक विज्ञान के वैज्ञानिकों को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद द्वारा खोला गया रास्ता नहीं दिखता है।” (वही, पेज 290, अनुवाद हमारा)

दीपक बख्शी ज्ञान की सापेक्षिकता के सवाल पर थोड़ा लड़खड़ा जाते हैं। वे हाइज़ेनबर्ग के दर्शन का खण्डन करते हुए मार्क्सवादी ज्ञान सिद्धान्त के दृष्टिकोण से कोसों दूर खड़े दिखायी देते हैं। वे कहते हैं कि :

”मार्क्सवाद के लिए पदार्थ के अस्तित्व, गति व पदार्थ में बदलाव के अलावा (दार्शनिक तौर पर) कोई ज्ञान निरपेक्ष नहीं है। मार्क्सवाद निरपेक्ष सत्य को नकारता है।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्याएँ, अनुवाद हमारा)

यहाँ दीपक बख्शी ने जो बात की है उसमें वह भौतिकवादियों से ज़्यादा भौतिकवादी हो गये हैं! और चिन्तन एवं अस्तित्व के सवाल पर बात करते हुए वे वह पहलू ग़ायब कर गये हैं जिससे ज्ञान पैदा होता है। ”पदार्थ के अस्तित्व, गति व पदार्थ में बदलाव” का ज्ञान निरपेक्ष नहीं होता है। यह सापेक्ष भी होता है और निरपेक्ष भी होता है। मार्क्सवाद ”पदार्थ के अस्तित्व, गति व बदलाव के ज्ञान” को नहीं पदार्थ के अस्तित्व, गति व बदलाव को निरपेक्ष मानता है। इसका मनुष्य के मस्तिष्क से प्रतिबिम्बन होता है, जो कि सही या ग़लत हो सकता है। प्रतिबिम्बनों के सही तार्किक व वैज्ञानिक सामान्यीकरण से ही ज्ञान पैदा होता है, जो कि स्वयं सापेक्ष होता है। दीपक बख्शी की सोच से उलट मार्क्सवाद निरपेक्ष सत्य को नकारता नहीं है बल्कि वह इंसान द्वारा निरपेक्ष सत्य के विषय में निरपेक्ष ज्ञान के विकास की सम्भावना को नकारता है। एंगेल्स के अनुसार :

”मानव चिन्तन के स्वरूप की हमारी परिकल्पना आवश्यक रूप से निरपेक्ष है, पर यह परिकल्पना वास्तविकता प्राप्त करती है बहुत-से अलग-अलग मनुष्यों से, जो सबके सब केवल सीमित ढंग से ही सोच सकते हैं। यह एक ऐसा अन्तर्विरोध है, जो केवल अनन्त प्रगति के दौरान ही हल हो सकता है। यह अन्तर्विरोध केवल मानवजाति की असंख्य पीढ़ियों के – कम से कम व्यावहारिक दृष्टि से – एक अन्तहीन क्रम में ही हल हो सकता है। इस अर्थ में मानव चिन्तन जितना परम सत्तासम्पन्न है; ठीक उतना ही परम सत्ताहीन भी है और ज्ञान प्राप्त करने की उसकी सामर्थ्य जितनी असीम है, ठीक उतनी ही सीमित भी है। जहाँ तक मानव चिन्तन की प्रकृति, उसकी परवर्ती, उसकी सम्भावनाओं तथा उसके अन्तिम ऐतिहासिक लक्ष्य का सम्बन्ध है, वह परम सत्तासम्पन्न तथा असीम है। जहाँ तक उसके व्यक्तिगत मूर्त रूपों तथा किसी विशिष्ट क्षण में उसकी वास्तविकता का सम्बन्ध है, वह परम सत्तासम्पन्न नहीं है और सीमित है। शाश्वत सत्यों के बारे में भी ठीक यही बात सच है।” (एंगेल्स, 1980, पेज 141-142)

इसे लेनिन सरलीकृत कर बताते हैं कि ”एंगेल्स के लिए निरपेक्ष सत्य सापेक्ष सत्यों का कुल जोड़ है” और ”विज्ञान के विकास का हर क़दम निरपेक्ष सत्य में नये अंश को जोड़ता है, परन्तु इस सत्य की वैज्ञानिक प्रतिस्थापनाएँ सापेक्ष होती हैं, जो ज्ञान में वृद्धि के साथ कभी विस्तृत होती तो कभी सीमित होती हैं।” (लेनिन, 1980, पेज 118-119, अनुवाद हमारा)

”ज्ञान के सिद्धान्त में, जैसा कि हर विज्ञान के क्षेत्र में करना चाहिए, हमें द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण से देखना चाहिए। यानी हमें अपने ज्ञान को बना-बनाया और अपरिवर्तनीय नहीं मानना चाहिए, बल्कि हमें यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि कैसे ज्ञान अज्ञान से उभरता है, कैसे अध्ूरा ज्ञान अधिक से अधिक पूर्ण होता जाता है।” (वही, पेज 88, अनुवाद हमारा)

यहाँ मार्क्सवादी ज्ञान मीमांसा को बेहतरीन तरीक़े से प्रस्तुत किया गया है। ज्ञान के हर क्षेत्र में अज्ञानता से ही ज्ञान उभरता है। पर इस ज्ञान के विकास की सीमाएँ ऐतिहासिक तौर पर परिभाषित होती हैं। लेनिन आगे कहते हैं :

”हम कब और किन परिस्थितियों में अपने ज्ञान में वस्तुओं की मूलभूत प्रकृति तक पहुँचते हैं, मसलन कोलतार में एलिज़रिन का खोजा जाना और अणु में इलेक्ट्रॉन की खोज होना इतिहास द्वारा निर्धरित होता है; परन्तु हर ऐसी खोज से ‘निरपेक्ष वस्तुगत सत्य’ की प्रगति होती है, यह निश्चित है और बिना शर्त होता है।…हर विचारधारा इतिहास द्वारा निर्धरित होती है, पर यह बिना शर्त सत्य है कि (धार्मिक विचारधारों से अलग) हर वैज्ञानिक विचारधारा किसी निरपेक्ष प्रकृति, वस्तुगत सत्य के अनुरूप होती है। आप कहेंगे कि निरपेक्ष और सापेक्षिक सत्य में अन्तर अनिश्चित है। मैं जवाब दूँगाः यह उतना ही ‘अनिश्चित’ है जितना कि विज्ञान को एक कठमुल्ला सिद्धान्त, मृत, अश्मिभूत बनने से बचने की ज़रूरत है; पर इसी समय यह इतनी ही ‘निश्चित’ है जितनी कि हम अपने आप को बेहद दृढ़ता और अटलता से अज्ञेयवाद और श्रद्धावाद (fiedism), दार्शनिक भाववाद से और ह्यूम और काण्ट के अनुयायिओं के हेत्वभासों से बचा सकें।” (वही, पेज 120-121, अनुवाद हमारा)

आगे लेनिन कहते हैं :

”द्वन्द्ववाद – जैसा हेगेल ने अपने समय में समझाया – में सापेक्षता का, निषेध का, सन्देहवाद का तत्व होता है पर यह सापेक्षतावाद में अपचयित नहीं की जा सकती है। मार्क्स और एंगेल्स के भौतिकवादी द्वन्द्ववाद में सापेक्षतावाद है, पर यह सापेक्षतावाद में अपचयित नहीं किया जा सकता है, यानी, यह हमारे ज्ञान की सापेक्षता को स्वीकार करता है, वस्तुगत सत्य को नकारने के रूप में नहीं, बल्कि इस अर्थ में कि ज्ञान के समीप पहुँचने की हदें इतिहास द्वारा निर्धरित होती हैं।” (वही, पेज 121, अनुवाद हमारा)

यही वह बुनियादी सिद्धान्त है जिसके ज़रिये प्राकृतिक विज्ञान व हर ज्ञान शाखा में अज्ञान से ज्ञान तक बढ़ने की प्रक्रिया को बेहतरीन ढंग से व्याख्यायित किया गया है। ज्ञान के विकास की यही सापेक्षता दरअसल ख़ुद मार्क्सवाद के विकास को भी निर्धारित करती है। इसके विकास की सीमाएँ भी इतिहास द्वारा ही निर्धरित होती हैं। लेकिन दीपक बख्शी के लिए अन्त में यह सब प्राकृतिक विज्ञान के विकास से संचालित होता है; परन्तु अफ़सोस इस बात का है कि वे प्राकृतिक विज्ञान के विकास की प्रक्रिया से भी अनभिज्ञ हैं। दरअसल, न सिर्फ़ वह इसके इतिहास से अनभिज्ञ हैं बल्कि दीपक बख्शी द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण के सार तक ही नहीं पहुँचे हैं। उनका मार्क्सवाद यान्त्रिकतावाद है जो टुकड़े-टुकड़े में तो सभी बातें रख सकता है परन्तु इतिहास की किसी भी समस्या का हल नहीं कर सकता है। वह आधुनिक भौतिकी में जिस संकट की बात करते हैं असल में वह भी ज्ञान की सापेक्षिकता के कारण ही पैदा होता है जिसकी व्याख्या हमने ऊपर की है।

दीपक बख्शी क्रिस्टोफ़र कॉडवेल की टिप्पणी (ऊपर उपशीर्षक 2.1 में उद्धृत) को भी उलट कर पेश करते हैं। दीपक बख्शी यह साबित करते हैं कि इस दौर के भौतिकी के संकट की अभिव्यक्ति क्रिस्टोफ़र कॉडवेल ने भी की थी जिसके नतीजे के तौर बख्शी मार्क्सवाद में संकट की बात कहते हैं। परन्तु यहाँ वे कॉडवेल को ग़लत तरीक़े से पेश कर रहे हैं। कॉडवेल ने संकट की विवेचना करते हुए इसे बुर्जुआ दर्शन का संकट बताया था जहाँ बुर्जुआ दर्शन प्रणाली के अन्तर्गत फँसे रहने वाले वैज्ञानिक इस समाज का ही हिस्सा होते हैं। परन्तु दीपक बख्शी का दार्शनिक सर्कस यहाँ जारी रहता है। हम कॉडवेल की लेखनी के ज़रिये दीपक बख्शी की इस ग़लतबयानी को देखेंगे :

”भौतिकी का उदाहरण लीजिये। सबसे पहले तो यहाँ सामान्य सिद्धान्त या यान्त्रिकता का दर्शन मौजूद होता है जिसे बुर्जुआ वैज्ञानिक अचेतन रूप में स्वीकार कर लेता है। वह यह नहीं जानता है कि यह अधिभूतवाद है, वह यह कल्पना करता है कि यही वस्तुओं को वैज्ञानिक यानी कि वस्तुगत तौर पर देखने का नज़रिया है। वह यह मानता है कि जिस प्रकार वस्तु बुर्जुआ अर्थव्यवस्था में प्रकट होती है केवल उसी प्रकार प्रकृति इन्सान के समक्ष प्रकट हो सकती है। यह दर्शन सभी विज्ञानों के लिए समान है। इसके अलावा वे विशिष्ट सिद्धान्त जो सीधे भौतिकी के व्यवहार से उत्पन्न होते हैं वे लगातार इस आम सिद्धान्त के अन्तरविरोध में खड़े होते हैं… सब ठीक चलता रहता है जब तक कि एक ऐसा समय आता है कि विज्ञान के हर क्षेत्र के व्यवहार में विशिष्ट सिद्धान्त से विज्ञान के आम सिद्धान्त का विरोध इतना बढ़ जाता है कि यान्त्रिकता के दर्शन की ही धज्जियाँ उड़ जाती हैं। जीव विज्ञान, भौतिकी, मनोविज्ञान, नृतत्वशास्त्र, और रसायन शास्त्र में प्रायोगिक आँकड़ाें की  पड़ताल का दबाव विज्ञान के अचेतन दर्शन को विखण्डित कर देता है। वैज्ञानिक विज्ञान के किसी आम सिद्धान्त के प्रति निराशावान हो जाते हैं और अनुभववाद में शरण ले लेते हैं, जहाँ विश्व दृष्टिकोण को पाने की कोशिशें त्याग दी जाती हैं, या सार-संग्रहवाद में शरण लेते हैं जहाँ हर क्षेत्र के सिद्धान्त को एक-दूसरे से असंगत रूप से जोड़ दिया जाता है, या विशिष्टीकरण में जहाँ सारे विश्व को किसी ख़ास विशिष्ट सिद्धान्त में अपचयित कर दिया जाता है। किसी भी परिस्थिति में विज्ञान अराजकता में बिखर जाता है और इंसान पहली बार विज्ञान से यथार्थ की किसी प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त करने की कोशिश में निराश हो जाता है। यही बुर्जुआ विज्ञान की मौजूदा हालत है, भौतिकी में संकट उसकी महज़ एक ख़ास अभिव्यक्ति है।” (क्रिस्टोफ़र कॉडवेल, 1939, क्राइसिस इन फिज़िक्स, पेज 60-61, अनुवाद हमारा)

कॉडवेल इस संकट को बुर्जुआ वर्ग का संकट बताते हैं परन्तु दीपक बख्शी इसे प्राकृतिक विज्ञान में संकट व मार्क्सवाद के दर्शन में ठहराव बताते हैं। वस्तुगत और आत्मगत के बीच पूँजीवादी समाज जो दरार खड़ी करता है यह संकट उसकी ही पैदाइश है और इसे हल करने का तरीक़ा इस दरार को मिटाने में है, यानी इस समाज को बदलने में है। परन्तु दीपक बख्शी की पूरी थीसिस इसकी उल्टी है उनके अनुसार मौजूदा संकट ‘प्राकृतिक विज्ञान के संकट – मार्क्सवादी दर्शन के ठहराव – मार्क्सवाद सिद्धान्त के विकास’ का संकट है और इस संकट को दूर करने के बाद ही क्रान्ति की समस्या भी हल हो सकती है। यानी, चीज़ों को उनके सिर के बल खड़ा कर दिया जाता है!

दीपक बख्शी खण्ड-खण्ड में मार्क्सवाद के हर सिद्धान्त पर मार्क्स व एंगेल्स की अवधारणाओं के बारे में लिख सकते हैं लेकिन जैसे ही सवाल इतिहास की व्यावहारिक समस्या पर आता है उनकी लेखनी संकट खोज लाती है। साफ़ है कि प्राकृतिक विज्ञान के इस संकट को समझने में दीपक बख्शी की अवधारणा मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और कॉडवेल से अलग है। वह इस मामले में कठमुल्ला साबित होते हैं। मार्क्स और एंगेल्स के ज़माने में भौतिकी के संकट का शोर नहीं था, यह हो भी नहीं सकता था क्योंकि मार्क्स और एंगेल्स के ज़माने की भौतिकी अपने पैरों पर खड़ी ही हो रही थी। परन्तु ज्ञान सिद्धान्त के उन्होंने जो सिरे दिये थे उसे लेनिन ने आगे विकसित किया और आधुनिक भौतिकी में संकट की अवधारणा का दार्शनिक सार बताया। ख़ुद वैज्ञानिकों की एक अच्छी-ख़ासी जमात ने विश्व को अज्ञेय बनाने में लगे दार्शनिकों को मुँहतोड़ जवाब दिया। इतनी उम्मीद तो दीपक बख्शी से की जा सकती थी कि वे अपने विचित्र सिद्धान्त का प्रतिपादन करने से पहले कम से कम भौतिकी का इतिहास ही पढ़ लेते।

  1. मार्क्सवाद व प्राकृतिक विज्ञान

दीपक बख्शी के विचार जगत में प्राकृतिक विज्ञान मानव व्यवहार से जनित अन्य शाखाओं से उन्नत पद पाता है, जिसे आगे दर्शन का आशीर्वाद प्राप्त होता है। मार्क्सवाद से पहले मौजूद दर्शन मानव अस्तित्व के दर्शन को और प्रकृति के दर्शन को अलग-अलग कर व्याख्यायित करते थे जिन्हें ध्वस्त कर मार्क्सवाद द्वन्द्वात्मक एकीकरण करता है। परन्तु दीपक बख्शी इस एकता को भंग करते हैं व यान्त्रिकतावादी समझदारी पेश करते हैं जिसके अनुसार प्राकृतिक विज्ञान ज्ञान के अन्य क्षेत्रों से महत्वपूर्ण बन जाता है। दीपक बख्शी मार्क्स-एंगेल्स का हवाला देकर अपने यान्त्रिक श्रृंखला नियम को मार्क्सवादी समझदारी के तौर पर स्थापित करने का प्रयास भी करते हैं। अपनी थीसिस के पक्ष में गवाही दिलवाने के लिए उन्होंने मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं के उद्धरणों के साथ काफ़ी अत्याचार किया है। परन्तु वे इस प्रयास में असफल रहे हैं। हम प्राकृतिक विज्ञान के संकट का मार्क्सवादी विश्लेषण कर चुके हैं जो दीपक बख्शी की मार्क्सवाद के संकट की थीसिस का पूर्वाधार बनता है। एक-एक करके श्री बख्शी के सभी तर्क खोखले साबित होते हैं। लेख के इस हिस्से में हम दीपक बख्शी द्वारा अपने नियम का मार्क्सवाद द्वारा सत्यापन कराने के प्रयास का खण्डन करेंगे व यह देखेंगे कि प्राकृतिक विज्ञान को मार्क्सवाद किस प्रकार देखता है।

3.1 बख्शी द्वारा मार्क्स-एंगेल्स का ग़लत हवाला

दीपक बख्शी ने फ़ायरबाख के भौतिकवादी दर्शन और हेगेलवादी द्वन्द्ववादी भाववाद के निषेध से द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विकसित होने की प्रक्रिया दिखाते हुए मार्क्स की डॉक्टोरल थीसिस, एंगेल्स द्वारा शेलिंग को जवाब, मार्क्स द्वारा ‘हेगेलवादी दर्शन की सामान्य आलोचना’, ‘फ़ायरबाख पर निबन्ध’, ‘लुडविग फ़ायरबाख और जर्मन क्लासिकीय दर्शन का अन्त’ व अन्य कृतियों से मार्क्स और एंगेल्स को उद्धृत किया है। परन्तु लेख के इस हिस्से में तारतम्यता नहीं है। बिना कोई गहन विश्लेषण किये वे चलताऊ तरीक़े से मार्क्सवादी दर्शन के उद्भव के समय को (उनके अनुसार 1837!) भी ‘खोज’ निकालते हैं। लेख में मार्क्स और एंगेल्स के कथनों को ज्यों का त्यों कई जगह पर लिख दिया गया है जिन्हें सही ढंग से उद्धृत भी नहीं किया गया है। हम यहाँ लेख के उन हिस्सों पर ही आलोचनात्मक दृष्टि डालेंगे जिनमें बख्शी ने प्राकृतिक विज्ञान और मार्क्सवादी दर्शन के अन्तर्सम्बन्ध की अपनी थीसिस के लिए मार्क्स और एंगेल्स का ग़लत हवाला दिया है। मार्क्स की डॉक्टोरल थीसिस का समाहार करते हुए वे बताते हैं कि :

”मार्क्स का यह लेख भौतिकी और दर्शन तथा यूनानी दर्शन के विकास की पड़ताल के बारे में है।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या, अनुवाद हमारा)

परन्तु यह समाहार सही नहीं है। मार्क्स की थीसिस भौतिकी और दर्शन की पड़ताल नहीं बल्कि यूनानी प्रकृति दर्शन के इतिहास की समस्या पर आधारित थी। मार्क्स एपीक्यूरस को महज़ डेमाक्रिटस का शिष्य मानने से इन्कार कर दोनों के प्रकृति दर्शन का अन्तर स्पष्ट करते हैं। इस कृति में मार्क्स के रचना काल की न किसी भौतिकी की परिघटना का जि़क्र आता है और न ही भौतिकी का हवाला मिलता है। यह प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन पर विमर्श नहीं है परन्तु दर्शन पर विमर्श है। मार्क्स द्वारा यूनानी भौतिकी की अणु की अवधारणा का विवरण दार्शनिक अर्न्तवस्तु तक पहुँचने के लिए किया गया है। निश्चित ही इस थीसिस में मार्क्स का मूल्यांकन आधुनिक भौतिकी की समस्याओं व अणु की संरचना तथा उसके भीतर झाँककर देख पाने में एक द्वन्द्वात्मक दृष्टि देता है। पर ”भौतिकी और दर्शन तथा यूनानी दर्शन के विकास” तथा यूनानी प्रकृति दर्शन के अध्ययन में फ़र्क़ करना ज़रूरी है।

आगे बख्शी कहते हैं कि –

”1844 की पाण्डुलिपियों में मार्क्स दार्शनिकों और दर्शनों की प्राकृतिक विज्ञान के अपार ज्ञान से दूर रहने के लिए, जो असल में सभी ज्ञान का आधार है, आलोचना करते हैं”। (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन तथा मार्क्सवादी सिद्धान्त की समस्याएँ)

इस रचना में मार्क्स ने ऐसा नहीं कहा है। यह बख्शी की ग़लतबयानी है। मार्क्स ने यह कहा है कि :

”प्राकृतिक विज्ञान ने विराट सक्रियता पैदा की है और लगातार निरन्तर बढ़ती सामग्री एकत्रित की है। दर्शन, हालाँकि इससे इतना ही विलग रहा है जितना यह दर्शन से। उनकी क्षणभंगुर एकता सिर्फ़ एक मृग मरीचिका थी।” (मार्क्स, 1977, इकोनोमिक एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ि‍कल मैनुस्क्रिप्ट्स, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृष्ठ 104, अनुवाद हमारा)

”प्राकृतिक विज्ञान…जीवन का आधार बनेगा।” (वही, पृष्ठ 105, अनुवाद हमारा)

मार्क्स जिस बात पर ज़ोर डालना चाहते हैं वह यह है कि विज्ञान केवल एक होता है, मनुष्य के जीवन के विज्ञान को और प्रकृति के विज्ञान को अलग करके नहीं देखा जा सकता है। यानी समाज के बदलाव के विज्ञान के लिए भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एक आवश्यक पहुँच और पद्धति है और प्रकृति के बदलाव के विज्ञान के लिए भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एक आवश्यक पहुँच और पद्धति है। परन्तु दीपक बख्शी इसे इस तरह से पेश करते हैं कि प्राकृतिक विज्ञान समस्त ज्ञान का आधार होता है। यह प्राकृतिक विज्ञान को बाकी अन्य ज्ञान शाखाओं से ऊँचा उठा देता है। आगे वे मार्क्स को ‘जर्मन विचारधारा’ से उद्धृत करते हुए कहते हैं कि :

”हम सिर्फ़ एक विज्ञान जानते हैं, इतिहास का विज्ञान। कोई व्यक्ति इतिहास को दो पहलुओं से देख सकता है और इसे प्रकृति के इतिहास और मनुष्य के इतिहास में बाँट सकता है। परन्तु ये दोनों पहलू अविभाज्य हैं; मनुष्य का इतिहास और प्रकृति का इतिहास एक दूसरे पर निर्भर करते हैं, जब तक मनुष्य का अस्तित्व है” (मार्क्स-एंगेल्स, जर्मन विचारधारा)। मार्क्स और एंगेल्स द्वारा प्राकृतिक विज्ञान और मनुष्य के सामाजिक-ऐतिहासिक विकास में परस्पर सम्बन्ध और अविभाज्यता जो हमें जर्मन विचारधारा में देखने को मिलती है वह एंगेल्स द्वारा आगे व्याख्यायित की गयी थी।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन तथा मार्क्सवादी सिद्धान्त की समस्याएँ)

जहाँ यह पंक्ति ख़त्म होती है उसके बाद मार्क्स ने एक ज़रूरी बात कही है जो बख्शी उद्धृत नहीं करते हैं क्योंकि वह उनकी थीसिस के लिए घातक साबित हो सकता था।

”प्रकृति का इतिहास, जो प्राकृतिक विज्ञान कहलाता है, अभी हमारी चिन्ता विषय नहीं है परन्तु हमें मनुष्य के इतिहास की पड़ताल करनी होगी, क्योंकि लगभग सारी विचारधारा इस इतिहास की विकृत अवधारणा है या उससे पूरी तरह अमूर्त अवधारणा है।” (मार्क्स-एंगेल्स, 2010, जर्मन आइडियोलोजी, पीपीएच, पृष्ठ 34, अनुवाद हमारा)

परन्तु दीपक बख्शी सबसे ज़्यादा चिन्ता प्राकृतिक विज्ञान की ही करते हैं। दूसरी बात, जर्मन विचारधारा की पाण्डुलिपियों में यह भाग मार्क्स और एंगेल्स ने काटा हुआ था। मार्क्स और एंगेल्स ने जर्मन विचारधारा में प्रकृति के इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान में फ़र्क़ किया है और सम्भवतः इस कारण ही इस हिस्से को काटा गया हो। इस हिस्से से अलग वे इस पुस्तक में जगह-जगह प्राकृतिक विज्ञान को मानव चेतना का रूप बताते हैं जिसका मानव इतिहास से अलग कोई इतिहास नहीं होता है। प्रकृति का इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान में अन्तर होता है। प्रकृति का इतिहास मनुष्य से पहले से मौजूद होता है। प्रकृति के इतिहास को प्राकृतिक विज्ञान में अपचयित नहीं किया जा सकता है। प्राकृतिक विज्ञान इतिहास में इंसान द्वारा प्रकृति को समझने और नियंत्रित करने के प्रयास में विकसित होता है, यह मानव चेतना का एक रूप है। मार्क्स के उपरोक्त कथन से जो आशय है वह प्रकृति और मानव समाज की एकरूपता है, जिसमें सिर्फ़ एक विज्ञान, इतिहास का विज्ञान कार्यरत है। यहाँ दीपक बख्शी द्वारा वही भोंड़ा प्रयास किया गया है जिसके अनुसार प्राकृतिक विज्ञान एक ऐसा क्षेत्र बन जाता है जिसका अध्ययन मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास के लिए न केवल अपरिहार्य है बल्कि मार्क्सवाद का विकास इस पर निर्भर करता है और इससे व्युत्पन्न होता है। यहाँ प्रकृति में बदलाव के विज्ञान और मानव समाज में हो रहे बदलाव के विज्ञान की जो एकता बार-बार मार्क्स और एंगेल्स पेश करते हैं उसे दीपक बख्शी भंग करते हैं और इनमें से प्रकृति के विज्ञान यानी प्राकृतिक विज्ञान को मानव समाज के बदलाव करने वाले कारक की निर्धारक भूमिका में पहुँचा देते हैं। मार्क्स के द्वारा इस हिस्से को काटना स्पष्ट है क्योंकि आगे वे लिखते हैं :

”नैतिकता, धर्म, अधिभूतवाद, और इनसे संगत सभी विचारधाराएँ व चेतना के रूप, स्वतंत्र होने का आवरण नहीं धारण कर सकते हैं। इनका कोई इतिहास नहीं होता है, बल्कि अपने भौतिक उत्पादन और क्रिया-व्यापार का विकास करते इंसान का, अपने विश्व और अपने चिन्तन में और चिन्तन के नतीजों में बदलाव को विकसित करते हुए इंसान का इतिहास होता है।” (वही, पृष्ठ 42, अनुवाद हमारा)

आगे इस पुस्तक में मार्क्स ‘सामाजिक चेतना के रूप’ शीर्षक में पुनः इस तरह अभिव्यक्त करते हैं :

”राजनीति, क़ानून, विज्ञान, आदि, कला का, धर्म का कोई इतिहास नहीं होता है।” (वही, पृष्ठ 101, अनुवाद हमारा)

”…परन्तु प्राकृतिक विज्ञान उद्योग व व्यापार के बग़ैर कहाँ होता? ”शुद्ध” प्राकृतिक विज्ञान को उसकी सामग्री के समान ही लक्ष्य भी व्यापार तथा उद्योग, इंसान की सेन्सुअस एक्टिविटी से मिलता है ।” (वही, पृष्ठ 46, अनुवाद हमारा)

दीपक बख्शी का तर्क फ़ायरबाख का तर्क है। फ़ायरबाख भौतिकीविद और रसायनविद के प्राप्त अनुभव का विशिष्टिकरण करते हैं तो मार्क्स उन्हें टोकते हैं और प्राकृतिक विज्ञान को इंसान की ऐन्द्रिक गतिविधि (सेन्सुअस ऐक्टिविटी) पर निर्भर बताते हैं। इसे वे 1844 की पाण्डुलिपियों में दोहराते हैं –

”उद्योग और प्रकृति का, इसलिए प्राकृतिक विज्ञान का मनुष्य से असल रिश्ता है।..प्राकृतिक विज्ञान…मनुष्य की असल ज़िन्दगी का आधार बनेगा, और ज़िन्दगी का एक आधार होना और विज्ञान कोई अलग आधार होना एक झूठ होगा।

 ”प्राकृतिक विज्ञान ने इंसान की ज़िन्दगी को भेदा है और तब्दील कर दिया है, वह भी सबसे ज़्यादा उद्योग के माध्यम से; व साथ ही इसने मनुष्य की आज़ादी के लिए आधार खड़ा किया है, हालाँकि इसका तात्कालिक असर मनुष्य को अमानवीय बनाने में है।

”उद्योग असल में इंसान का प्रकृति से रिश्ता है, प्रकृति का ऐतिहासिक रिश्ता, और इसलिए प्राकृतिक विज्ञान का मनुष्य से।” (मार्क्स, 1977, इकोनोमिक एण्ड फ़िलोसोफ़ि‍कल मैन्युस्क्रिप्ट्स, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृष्ठ 104-5, अनुवाद हमारा)

वहीं बख्शी के अनुसार ”वैज्ञानिक प्रयोग और उद्योग को …व्यवहार माना जाना चाहिए।” साफ़ है कि वैज्ञानिक प्रयोग और इण्डस्ट्री के बीच समानता का नहीं मध्यस्थता का सम्बन्ध होता है। प्राकृतिक विज्ञान निश्चित ही व्यवहार का हिस्सा है परन्तु यह उद्योग द्वारा मीडिएट होता है। यह प्रमुख नहीं है। यानी मार्क्स के अनुसार प्राकृतिक विज्ञान की उत्पादन पर निर्भरता होती है। इस सवाल पर अगले हिस्से में हम विस्तार से बात करेंगे। ऊपर किये विमर्श से मार्क्स-एंगेल्स व बख्शी के दृष्टिकोण के बीच अन्तर स्पष्ट है तथा उनके ग़लतबयानी के प्रयास भी पकडे़ गये हैं।

दीपक बख्शी की बात का दो स्तर पर खण्डन होता है। पहला यह कि दीपक बख्शी से अलग मार्क्स प्राकृतिक विज्ञान को ‘सामाजिक चेतना के रूप’ समझते हैं जिसे अन्य किसी ज्ञान शाखा पर वरीयता नहीं दी गयी है। दूसरा इसका विकास ऐतिहासिक तौर पर निर्धारित होता है। इतिहास में भी यह मानव व्यवहार की बुनियादी क्रिया उत्पादन के ज़रिये सक्रिय होती है। मार्क्स और एंगेल्स ने अन्य रचनाओं में भी इन दोनों पहलुओं पर लिखा है। हम उनपर नज़र डालने से पहले मार्क्स और एंगेल्स द्वारा प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन का एक अति संक्षिप्त ब्यौरा देना चाहते हैं।

3.2 मार्क्स और एंगेल्स का प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन

”प्रकृति द्वन्द्ववाद की कसौटी है।” – एंगेल्स

मार्क्स की गणित की पाण्डुलिपियाँ दर्शाती हैं कि उन्होंने गणित की कुछ समस्याओं का गहन अध्ययन किया था। इस अध्ययन की उन्हें पूँजी की गतिकी और उसके विस्तार की पड़ताल हेतु ज़रूरत पड़ी। इस दौरान उन्होंने लीब्निज़ से लेकर न्यूटन द्वारा रचित कैल्कुलस का अध्ययन किया। मार्क्स द्वारा कैल्कुलस पर टिप्पणियाँ बेहद महत्वपूर्ण थीं जिन्हें आगे चलकर तमाम गणितज्ञों ने स्वतन्त्र तौर पर भी विकसित किया। उनसे पहले भी कोची ने ऐसा प्रयास किया था परन्तु मार्क्स की इस सवाल को लेकर पहुँच अलग थी जिस पर डर्क स्ट्रुइक ने विशेष ध्यान दिया। आज कोई यह कहे कि इस अध्ययन से आधुनिक गणित में बदलाव किया जा सकता है तो यह मूर्खता होगी क्योंकि आज का गणित मार्क्स के युग से बहुत आगे बढ़ चुका है और उन समस्याओं को हल कर चुका है जिस पर मार्क्स उस समय लिख रहे थे। परन्तु इससे जो सीखा जा सकता है वह है प्राकृतिक विज्ञान का द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण से अध्ययन करने की पद्धति व पहुँच। मार्क्स द्वारा गणित का अध्ययन एंगेल्स के गणित के अध्ययन से ज़्यादा व्यापक और गहन था।

एंगेल्स ने प्राकृतिक विज्ञान का विस्तृत अध्ययन किया था जिसमें भौतिकी, रसायनशास्त्र, जीव विज्ञान, गणित, एस्ट्रोनॉमी आदि शामिल थे। एंगेल्स द्वारा लिखित ड्यूहरिंग मत खण्डनप्रकृति में द्वन्द्वात्मकता प्रमुख रचनाएँ हैं जिनमें एंगेल्स प्रकृति में द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण के लागू होने और उसकी पुष्टि की बात करते हैं। पिछली शताब्दी में एंगेल्स के प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन को सोवियत रूस में और समाजवादी चीन में आधार बनाकर प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में विस्तार से कार्य किया गया। इस विषय पर विराट अध्ययन हुआ है। इसके इतिहास पर हेलेना शीहन, लौरेन ग्राहम से लेकर रोबर्ट कोहेन का लेखन ग़लतियों के बावजूद पठनीय है। मार्क्स-एंगेल्स की प्राकृतिक विज्ञान पर लिखी कृतियों से भी यही स्पष्ट होता है कि उनके अनुसार मानव समाज व मानव मस्तिष्क की क्रियाओं से ऊपर प्राकृतिक विज्ञान का मार्क्सवादी दर्शन से कोई विशिष्ट सम्बन्ध नहीं होता है। इनका एकमात्र सम्बन्ध इनकी एकरूपता में है, यानी मानव समाज व मानव मस्तिष्क की क्रियाओं और प्रकृति के विज्ञान की एकता, यानी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के रूप में। इतिहास में मानव समाज के विकास के साथ ही इसका विकास हुआ है। ड्यूहरिंग मत खण्डन में एंगेल्स लिखते हैं :

”जब मैंने गणित और प्राकृतिक विज्ञान का पुनः अध्ययन किया था, तो मेरा उद्देश्य ख़ुद को यह विश्वास दिलाना था कि जिस बात की सामान्य सच्चाई में मुझे कोई सन्देह नहीं था, वह बात अलग-अलग रूप में सच है। अर्थात मैं इस बात की सच्चाई को अलग-अलग रूप में परखना चाहता था कि प्रकृति में जो असंख्य परिवर्तन होते रहते हैं, उनके बीच भी गति के वे ही द्वन्द्वात्मक नियम बलपूर्वक अमल में आते हैं; जो इसी प्रकार मानव चिन्तन के विकास के इतिहास में भी एक सतत् सूत्र की भाँति दिखायी पड़ते हैं तथा धीरे धीरे मनुष्य की चेतना में प्रवेश करते हैं।” (एंगेल्स, ड्यूहरिंग मत खण्डन, पेज 20-21)

”प्रकृति द्वन्द्ववाद की कसौटी है; और आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान के बारे में यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसने द्वन्द्ववाद के प्रमाण के रूप में अत्यन्त मूल्यवान सामग्री दी है, जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और इस प्रकार उसने सिद्ध कर दिया है कि अन्ततोगत्वा प्रकृति में हर चीज़ अधिभूतवादी ढंग से नहीं बल्कि द्वन्द्वात्मक ढंग से घटती रहती है। लेकिन प्रकृति विज्ञान के ऐसे विद्वानों की संख्या अभी बहुत थोड़ी है जिन्होंने द्वन्द्वात्मक ढंग से सोचना सीख लिया है, और खोज के परिणामों तथा पूर्वकल्पित चिन्तन प्रणलियों के बीच जो टकराव होता है उसी का नतीजा है कि इस समय सैद्धान्तिक प्राकृतिक विज्ञान में एक गड़बड़ी फैल गयी है, जिसका लगता है कभी अन्त नहीं होगा और जो शिक्षक तथा शिक्षार्थी, लेखक तथा पाठक सभी को विक्षिप्त बनाये डाल रही है। अतः विश्व की, उसके विकास की, मनुष्यजाति के विकास की तथा मनुष्यों के मस्तिष्क में इस विकास के प्रतिबिम्ब की सच्ची अवधारणा केवल द्वन्द्ववाद की पद्धति द्वारा ही की जा सकती है, जो निर्माण और निर्वाण की, प्रगतिशील और प्रतिगामी परिवर्तनों की असंख्य क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं को निरन्तर ध्यान में रखती है।” (वही, पेज-42)

दीपक बख्शी द्वारा ‘गड़बड़ी’ को संकट में तब्दील कर शोर मचाने की आदत के विपरीत एंगेल्स बताते हैं कि प्राकृतिक विज्ञान मार्क्सवादी दर्शन-पद्धति तक पहुँचे बिना ग़लत रास्तों में चक्कर काटता रहता है। इसकी विस्तारपूर्वक विवेचना हम ‘प्राकृतिक विज्ञान और संकट’ शीर्षक के अन्तर्गत कर चुके हैं। एंगेल्स बताते हैं कि :

”मेरे लिए द्वन्द्ववाद के नियमों को प्रकृति में ज़बर्दस्ती ठूँसने का कोई प्रश्न नहीं उठा सकता था; मुझे तो इन नियमों को प्रकृति से खोज कर निकलना था और प्राकृतिक जगत के आधार पर उनको विकसित करना था।” (वही, पेज-23)

अपनी रचना लुडविग फ़ायरबाख में एंगेल्स उन तीन महती खोजों, जिन्होंने अधिभूतवादी दृष्टिकोण को हटाकर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के लिए जगह बनायी, के बारे में लिखते हैं :

”वास्तव में प्रकृति-विज्ञान, जो पिछली शताब्दी के अन्त तक प्रधानतः संग्रही विज्ञान, निष्पन्न वस्तुओं का विज्ञान था, हमारी शताब्दी में सारतः क्रम विषयक विज्ञान, प्रक्रियाओं का तथा इन वस्तुओं के उद्भव और विकास का और इन समस्त प्राकृतिक प्रक्रियाओं को एक सूत्र में बाँधकर उन्हें एक समष्टि का रूप देने वाले अन्तर्सम्बन्ध का विज्ञान बन गया।” इन तीन ”महती खोजों” – ”इकाई के रूप में कोशिका की खोज, दूसरी, ऊर्जा के रूपान्तरण की खोज और तीसरी डार्विन का उद् विकास का सिद्धान्त (थियरी ऑफ़ इवोल्यूशन) – ने प्राकृतिक प्रक्रियाओं के अन्तर्सम्बन्ध के हमारे ज्ञान को अत्यधिक वेग से आगे बढ़ाया है।

”इन तीन महती खोजों और प्रकृति-विज्ञान के क्षेत्र में और दूसरे बहुत बड़े क़दम बढ़ाये जाने की बदौलत हम अब प्रकृति की प्रक्रियाओं के अन्तर्सम्बन्ध केवल क्षेत्र विशेष में ही नहीं, बल्कि इन विशेष क्षेत्रों के बीच भी अन्तर्सम्बन्ध समग्रतः दिग्दर्शित कर सकते हैं और इस प्रकार आनुभविक प्रकृति-विज्ञान द्वारा प्रस्तुत तथ्यों के ज़रिये हम काफ़ी क्रमबद्ध रूप में, प्रकृति के अन्तर्सम्बन्ध का एक व्यापक चित्र दे सकते हैं।” (एंगेल्स, 2006, लुडविग फ़ायरबाख और क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अन्त, राहुल फ़ाउण्डेशन, पेज 39-40)

प्राकृतिक विज्ञान में हुई प्रगति ने भी इंसान को उसके सही दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के करीब पहुँचने में मदद की और आगे होने वाली खोजें इस क्रिया को क़दम-ब-क़दम आगे बढ़ाती जायेंगी। प्राकृतिक विज्ञान में हो रहे बदलावों से भौतिकवाद को भी विकसित होना होता है। यही मार्क्सवादी नज़रिया है।

”प्राकृतिक विज्ञान (मानव इतिहास के बारे में आम तौर पर) में हर युगप्रवर्तक खोज के साथ भौतिकवाद को अपना रूप बदलना होता है।” (वही, पेज 19)

परन्तु इतिहास में ”प्राकृतिक विज्ञान में हर युगप्रवर्तक खोज” उत्पादन शक्तियों के विकास के ज़रिये होती है। मार्क्स ने पूँजी के खण्ड-एक में प्राकृतिक विज्ञान को ”श्रम शक्ति से पृथक कर दी गयी उत्पादन शक्ति” बताया है जिसे पूँजी की सेवा में लगा दिया जाता है। विज्ञान इतिहास की अलग-अलग मँजि़लों जैसे कि आदिम समाज, दास व्यवस्था, सामन्तवाद, विभिन्न प्राक् पूँजीवादी सामाजिक संरचनाओं और पूँजीवाद तक विकसित होता हुआ आया है और समाजवाद के लघुजीवी प्रयोगों में भी विज्ञान ने अद्भुत रफ़्तार से तरक़्क़ी की। आज हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ दुनिया भर में समाजवाद के प्रथम प्रयोग असफल हो चुके हैं और पूँजीवाद ने साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के अपने इस अभूतपूर्व रूप से मरणासन्न, सड़े और परजीवी दौर में दुनिया को युद्ध, तबाही और ग़रीबी में धकेल दिया। आरम्भिक सभ्यता के सृजन से लेकर पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रान्ति के बाद 20वीं शताब्दी के दौर समाज के उथल-पुथल या समाज के विकास के दौर थे। समाज की आर्थिक संरचना में बदलाव के दौरों में और विकास के दौर में विज्ञान व तकनोलॉजी में छलाँगें लगती रही हैं। विज्ञान व तकनोलॉजी उत्पादन शक्ति का ही अभिन्न अंग है जिन्हें पूँजीवाद में मुनाफ़ा पीटने के लिए ही लगा दिया जाता है। यही इसके ठहराव का कारण हैं। इसका ठहराव श्रम से विज्ञान के विभाजन में अभिव्यक्त होता है। यही वह उक्ति है जो मार्क्स ने विज्ञान के लिए दी थी – श्रम से कट कर विज्ञान पूँजी की सेवा में लगी उत्पादक शक्ति बन जाता है। मौजूदा दौर में उत्पादक शक्तियों के विकास का ठहराव ही विज्ञान व तकनीक का ठहराव है। यही वह बेड़ी है जो इसके विकास पर पड़ी हुई है। मौजूदा उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के बिना इस बेड़ी को भी तोड़ा नहीं जा सकता है। यही आकलन मार्क्स ने अपनी 1844 की पाण्डुलिपियों में किया है जहाँ वे कहते हैं कि ”प्राकृतिक विज्ञान ने इंसान की जि़न्दगी को भेदा और तब्दील कर दिया है, वह भी सबसे ज़्यादा उद्योग के माध्यम से; व साथ ही इसने मनुष्य की आज़ादी के लिए आधार खड़ा किया है, हालाँकि इसका तात्कालिक असर मनुष्य को अमानवीय बनाने में है।” (मार्क्स, इकोनोमिक एण्ड फ़िलोसॉफ़ि‍कल मैनुस्क्रिप्ट्स, पृष्ठ 105, अनुवाद हमारा)

आज प्राकृतिक विज्ञान का प्रयोग जिस क्षेत्र में सबसे ज़्यादा और उन्नत स्तर पर किया जा रहा है वह है युद्ध। इसका प्रयोग मनुष्य को मशीन बनाने में किया जा रहा है और ”मनुष्य की आज़ादी के लिए आधार” सामाजिक क्रान्ति के बिना सम्भव नहीं है। यह वह वृहद् दृष्टिकोण है जो दीपक बख्शी द्वारा प्राकृतिक विज्ञान के सामाजिक बदलाव के यान्त्रिकतावादी दृष्टिकोण को ग़लत साबित करता है। दीपक बख्शी के लिए प्राकृतिक विज्ञान में ठहराव के कारण मार्क्सवादी दर्शन में ठहराव आता है और इस कारण मार्क्सवादी सिद्धान्त में और मार्क्सवाद संकट में पड़ जाता है। मार्क्सवाद का मत इससे भिन्न है। एंगेल्स ने प्रकृति में द्वन्द्वात्मकता के परिचय में दिखाया है कि किस प्रकार सामाजिक परिवर्तनों के कारण ही प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में तब्दीली होती है। जिस प्रकार सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी की वैज्ञानिक और तकनोलॉजिकल प्रगति इतिहास में इनसे पूर्व हुई सामाजिक क्रान्तियों के बाद हुई और फिर इसने पलटकर उत्तरोत्तर सामाजिक परिवर्तनों को भी बल दिया, उसी तरह सामाजिक क्रान्तियों और उथल-पुथल ने ही उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी की वैज्ञानिक और तकनोलॉजिकल प्रगति में भूमिका निभायी। यही मार्क्स द्वारा विज्ञान को उत्पादक शक्ति के रूप में व्याख्यायित करने का अर्थ है। दूसरे शब्दों में, जब तक पुराने पड़ चुके उत्पादन सम्बन्धों को क्रान्तियों द्वारा बदला नहीं जाता तब तक वैज्ञानिक और तकनोलॉजिकल धरातल पर भी कोई क्रान्तिकारी युगान्तरकारी छलाँग लगना मुश्किल होता है (हालाँकि महत्वपूर्ण परिमाणात्मक परिवर्तन होते रहते हैं) और विज्ञान और तकनोलॉजी के क्षेत्र में लगने वाली हर नयी छलाँग फिर से क्रान्तिकारी परिवर्तनों की ज़मीन भी तैयार करती है।

3.3 मार्क्सवाद में संकट या पूँजीवाद का संकट

आज विज्ञान का संकट उत्पादक शक्तियों के ठहराव का संकट है। यही वह संकट है जिसे न समझ पाने के कारण दीपक बख्शी मार्क्सवाद के ऊपर यह जि़म्मेदारी डाल देते हैं कि वह भौतिकी में हुई नयी खोजों और नये सिद्धान्तों को व्याख्यायित कर स्वयं का विकास करे और अपना संकट दूर करे। अव्वलन तो यह मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धान्त का संकट नहीं, बल्कि बुर्जुआ दर्शन, विज्ञान और सिद्धान्त का संकट है और दूसरी बात यह कि मार्क्सवाद ने भौतिकी के क्षेत्र में पेश नये सिद्धान्तों की व्याख्या की दिशा में बहुत काम किया है, जिनकी श्री बख्शी को जानकारी नहीं है। उत्पादक शक्तियों के ठहराव के संकट को दूर करने का काम सामाजिक क्रान्ति के ज़रिये किया जा सकता है। सोवियत रूस में प्राकृतिक विज्ञान को द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण से देखने की नज़र दी गयी और वहाँ इस सवाल पर ज़बर्दस्त दार्शनिक बहसें चलीं। ब्लोखिंस्तेव, व्लादिमि‍र फ़ोक, लैन्दाऊ से लेकर रोसेंफ़ेल्ड, बोर्न, लेंजविन व तमाम प्राकृतिक वैज्ञानिकों ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण को अपनाया और आधुनिक भौतिकी के विकास में मदद की। इस दृष्टिकोण से ताकेतानी ने तीन मंजि़ल का सिद्धान्त भी दिया और क्वाण्टम भौतिकी की प्रेक्षण समस्या का हल भी निकाला। जिन समाजों में मानवता की रचनात्मकता और नवोन्मेष पर मुनाफ़े की ताक़तों द्वारा लगायी गयी पाबन्दियाँ हटा दी गयीं, उन समाजों में विज्ञान ने चमत्कारिक रफ़्तार से तरक्की की। सोवियत संघ में 1920 से लेकर विशेष तौर पर 1970 के दशक के अन्त तक सैद्धान्तिक और प्रायोगिक विज्ञान दोनों के ही क्षेत्रों में अभूतपूर्व विकास हुआ। राज्यसत्ता पर संशोधनवाद के काबिज़ होने का असर अधिरचना के विभिन्न क्षेत्रों में आते-आते कुछ समय लगना स्वाभाविक था। फ़ॉक का यह कथन वैज्ञानिकों के बीच उस दौर की आम अभिव्यक्ति था – ”दिक्-काल और गुरुत्वाकर्षण-सम्बन्धित हमारे विचारों के सिद्धान्त द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और विशेषकर लेनिन के भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना के प्रभाव में निर्मित हुए थे।” (व्लादिमि‍र फ़ोक, थियरी ऑफ़ स्पेस, टाइम एण्ड ग्रेविटेशन, पृष्ठ 16) समाजवादी सोवियत रूस में और चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान प्राकृतिक विज्ञान में द्वन्द्व की पड़ताल करने वाली पत्रिकाओं – सोवियत संघ में अण्डर दि बैनर ऑफ़ मार्क्सिस्म और चीन में निकलने वाला जर्नल डायलेक्टिक्स ऑफ़ नेचर इसके ही प्रातिनिधिक उदाहरण हैं। केवल तभी विज्ञान के संकट को दूर किया जा सकता है जब पूँजी की बेड़ियों से विज्ञान मुक्त हो जाये।

आज की आधुनिक भौतिकी पर नजर डालें तो हिग्स बुसोन के मिलने के बाद भी आधुनिक भौतिकी में संकट के गीत बजने लगे हैं। और यह लाज़िमी भी है। कारण यह कि इस खोज की व्याख्या भी एक ए प्रायोरी द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण से नहीं की जा रही है। नतीजतन, नियतत्ववाद और अज्ञेयवाद के दो छोरों के बीच दोलन स्वाभाविक है। विज्ञान में संकट के अन्य ठोस भौतिक कारण भी मौजूद हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण स्पेन देश है जहाँ आर्थिक मन्दी के चलते सरकार ने दो साल पहले अपने विज्ञान मन्त्रालय को ही ख़त्म कर दिया। यूरोप में लगभग हर सरकार ने प्राकृतिक विज्ञान पर हो रहे खर्च को 60-80 फ़ीसदी कम किया है और यही कारण है कि आज के ऐतिहासिक युग का महानतम वैज्ञानिक प्रयोग (सर्न का हाईड्रॉन कोलाइडर प्रयोग) भी वित्तपोषण के अपर्याप्त होने के कारण अपेक्षित गति से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। इस संकट से निजात पाना समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के बिना असम्भव है।

परन्तु दीपक बख्शी का मत अलग है। उनके मतानुसार आज का कार्यभार :

”मार्क्सवादी नज़रिये से विज्ञान (ख़ास तौर पर भौतिकी में, एस्ट्रोनोमी, जैनेटिक्स, बायोटेक्नॉलोजी… का अध्ययन, उनकी समझ बनाना, बहस-मुबाहिसे में उतरना और विज्ञान के पिछले 150 सालों के सिद्धान्तों को विकसित करना होगा।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन तथा मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्याएँ, अनुवाद हमारा)

परन्तु आज हम फ़ैराडे के ज़माने में नहीं जी रहे हैं। फ़ैराडे बेहद ग़रीब परिवार में पैदा होने के कारण उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाये परन्तु इसके बावजूद वे भौतिकी और रसायन विज्ञान में महानतम वैज्ञानिक अविष्कार अंजाम देने व नये सिद्धान्त रच पाने में सफल हुए। फ़ैराडे किताब पर जिल्द लगाने वाली दुकान में काम करते थे और इस दुकान के ही पिछले अाँगन में विज्ञान की किताबें पढ़कर स्वयं रसायन विज्ञान तथा भौतिकी के प्रयोग करते थे। परन्तु आज के युग में आधुनिक भौतिकी की सैद्धान्तिकी या प्रयोगों को दीपक बख्शी या कोई भी अपने घर के आँगन में नहीं आज़मा सकता है। ”विज्ञान के पिछले 150 सालों के सिद्धान्तों को विकसित” करने के लिए हमें सर्न और लीगो जैसी विशाल प्रयोगशालाएँ चाहिए। परन्तु ये प्रयोगशालाएँ आज पूँजी की सेवा में लगी हुई हैं। सर्न प्रयोगशला में एक दशक से ऊपर से वैज्ञानिक सैद्धान्तिक विकास के लिए जो माथापच्ची कर रहे हैं वह प्रक्रिया बार-बार थम जाती है। संक्षेप में कहें तो यह रुकावट पूँजी निवेश न हो पाने के कारण, शोध नीति में निवेशकों के प्रति संस्थान की जवाबदेही के कारण और वैज्ञानिकों के बीच पैटेन्ट, कॉपीराइट और पर्चे छपाने की होड़ के चलते आती है। दूसरा, बुर्जुआ समाज की परवरिश के चलते उपजी वैज्ञानिकों की ग़लत दार्शनिक प्रतिस्थापनाएँ उन्हें सही नतीजों पर नहीं पहुँचने देती हैं। आज पूँजी की बेड़ियों में जकड़ा विज्ञान संकट का शिकार है। इन बेड़ियों को चकनाचूर किये बिना हम विज्ञान के संकट को दूर नहीं कर सकते हैं। परन्तु दीपक बख्शी का उपरोक्त तर्क इसके बिलकुल उलट है, उनके अनुसार क्रान्ति के विज्ञान को विकसित करने के लिए हमें प्राकृतिक विज्ञान को विकसित करना होगा। यह इसलिए कि वे न तो प्राकृतिक विज्ञान का इतिहास ही जानते हैं और न ही आधुनिक भौतिकी के मौजूदा व्यवहार से वाकि़फ़ हैं।

प्राकृतिक विज्ञान पर दीपक बख्शी द्वारा मार्क्सवादी दृष्टिकोण की निर्भरता के सिद्धान्त को मार्क्सवाद से आशीर्वाद दिलाने का प्रयास बिखर गया है। दीपक बख्शी की तर्क प्रणाली मार्क्सवादी विश्व-दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं है। मार्क्सवाद का विश्व-दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है जिसे मार्क्स और एंगेल्स ने प्रकृति, मानव समाज तथा मानव चिन्तन के विज्ञान के रूप में व्याख्यायित किया। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद या मार्क्सवादी विश्व दृष्टिकोण को समाज, प्रकृति व मानव चिन्तन के विकास के अनुसार विकसित और व्याख्यायित होना होता है न कि इसके उलट समाज, प्रकृति व मानव चिन्तन को इस दृष्टिकोण पर खरा उतरना होता है। यह विश्व-दृष्टिकोण वास्तव में प्रकृति, समाज और चिन्तन के तार्किक और वैज्ञानिक प्रेक्षण, विश्लेषण व सामान्यीकरण की प्रक्रिया में ही विकसित हुआ है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी किसी भी सामाजिक, प्राकृतिक या मानव चिन्तन के जगत की परिघटना को इस विज्ञान की दृष्टि से देखते हैं और यही प्रक्रिया इसी क्रम में इस विज्ञान को उत्तरोत्तर विकसित और समृद्ध भी करती है। इस विज्ञान की समृद्ध‍ि में सबसे बड़ी भूमिका सामाजिक व्यवहार की होती है। सामाजिक व्यवहार में भी उत्पादन व वर्ग संघर्ष सबसे प्रमुख महत्व रखते हैं। वर्ग संघर्ष ही इतिहास में समय-समय पर सामाजिक क्रान्तियों के रूप में परिणत होता है। इन सामाजिक क्रान्तियों की भी विज्ञान के विकास में महती भूमिका होती है। इतिहास के मौजूदा दौर में यह वैज्ञानिक समाजवाद के विज्ञान का आधार बनता है। यह खुले तौर पर सर्वहारा वर्ग की सेवा करने की घोषणा करता है। विश्व इतिहास की पिछली दो शताब्दियों में पूँजीवाद के ख़िलाफ़ जारी संघर्षों, सफल और असफल क्रन्तियों के अनुभवों के कुल योग के रूप में वैज्ञानिक समाजवाद विकसित हुआ। मार्क्स और एंगेल्स के बाद लेनिन और स्तालिन ने रूसी क्रान्ति के दौर में मार्क्सवाद को एक नये क़दम की ओर बढ़ाया और माओ ने चीनी क्रान्ति और विशेष तौर पर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौर में इसे नयी ऊँचाई तक पहुँचाया। आधुनिक भौतिकी से लेकर कला के उत्तरोत्तर विकास के क्षेत्र में भी सामाजिक क्रन्तियों ने ही अग्रिम भूमिका निभाते हुए एक ओर मानव सृजनशीलता के विकास को निर्बन्ध किया जो कि उत्पादक शक्तियों का सबसे अहम पहलू है और दूसरी ओर उत्पादक शक्तियों के वैज्ञानिक और तकनोलॉजिकल पहलू के विकास को भी प्रेरणा दी। पुराने उत्पादन सम्बन्धों की बेड़ियों से मुक्त हुए बिना, मानव समाज विज्ञान, कला, साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र में भी जड़ता का शिकार हो जाता है (हालाँकि, परिमाणात्मक विकास लगातार होते रहते हैं) और ऐसे दौरों में ही ग्राम्शी के शब्दों में ”रुग्ण लक्षण” जन्म लेते हैं। क्या आज विज्ञान और कला दोनों की ही दुनिया में ऐसे रुग्ण लक्षणों को नहीं देखा जा सकता है? परन्तु दीपक बख्शी सरीखे राजनीतिक नौदोलतिए इन लक्षणों का कारण मार्क्सवाद में देखते हैं। दीपक बख्शी अपने लेख में मार्क्सवादी दर्शन में ठहराव और मार्क्सवादी सिद्धान्त के संकट से राजनीतिक परिणाम भी निकालते हैं। आइये अब इस ‘केपुट मॉर्चुअम’ (आसवन के अवशेष) के ऐतिहासिक और राजनीतिक नतीजों की पड़ताल कर लेते हैं।

  1. बुर्जुआ दार्शनिक हमले व मार्क्सवाद की ग़लत व्याख्या का संकट

”कोई यह नहीं सोचता कि कितना ख़ून बहा है।” – दांते

मार्क्सवाद लगातार विकसित होता हुआ विज्ञान है जो हज़ारों-लाखों इंसानों के सामूहिक सामाजिक व्यवहार के ज़रिये मानव समाज और प्रकृति से जुड़े हर आयाम में विकसित हो रहे मानव ज्ञान का सामान्यीकरण करता है। मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ जैसे प्रतिभावान सामाजिक वैज्ञानिकों की भूमिका निश्चित तौर पर अहम होती है और इस वैज्ञानिक सामान्यीकरण के काम को वे अंजाम देते हैं। आधुनिक भौतिकी के क्षेत्र में ताकेतानी, सकाता से लेकर सोवियत काल में बोरिस हेस्सेन से लेकर व्लादिमि‍र फ़ोक ने तो वहीं कला के क्षेत्र में पिकासो, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट और आइजें़स्ताइन व अन्य कलाकारों ने भी मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अर्न्तगत अपने-अपने कर्मक्षेत्रों में प्रयोग, खोज व सैद्धान्तिकीकरण किया जिसने मार्क्सवादी सिद्धान्त में इज़ाफ़ा किया। परन्तु यह बिलकुल सीधे-सपाट रास्ते से नहीं हुआ बल्कि बेहद गहन और गम्भीर वैचारिक संघर्षों के जटिल, टेढ़े-मेढ़े और अन्तर्गुन्थित रास्तों से हुआ है। परन्तु दीपक बख्शी बीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद में हुए इन सैद्धान्तिक इज़ाफ़ों को ख़ारिज कर देते हैं या उनका ज़िक्र ही नहीं करते। प्राकृतिक विज्ञान के मार्क्सवादी दर्शन से रिश्ते की यान्त्रिक समझदारी क़ायम करने के बाद वे मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धान्त के बीच भी यान्त्रिक सम्बन्ध क़ायम करते हैं। उनके अनुसार ”भविष्य के सैद्धान्तिक, विचारधारात्मक व राजनीतिक सवालों के आकलन में” दार्शनिक सवाल प्रमुख होता है। दीपक बख्शी की ‘प्राकृतिक विज्ञान – मार्क्सवादी दर्शन – मार्क्सवादी सिद्धान्त’ की यान्त्रिक श्रृंखला में हम प्राकृतिक विज्ञान-मार्क्सवादी दर्शन की कड़ी की बात कर चुके हैं। अब इस यान्त्रिक श्रृंखला की दूसरी कड़ी पर बात कर लेते हैं।

दीपक बख्शी अपने लेख की शुरुआत इस घोषणा से करते हैं कि आज मार्क्सवादी सिद्धान्त का विकास संकट में है और इसमें विकास की ज़रूरत सभी क्रान्तिकारी धड़े महसूस कर रहे हैं। दीपक बख्शी बताते हैं कि ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ का प्रयास इस ज़रूरत की पूर्ति के लिए है। दीपक बख्शी के शब्दों मेंः

”कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स द्वारा पेश किये गये सिद्धान्तों व विचारों का विकास आज एक बेहद कठिन संकट से गुज़र रहा है। लेनिन के हाथों में मार्क्सवाद एक तरफ़ तो विकसित हुआ और वहीं दूसरी तरफ़ मूलभूत सवालों व चुनौतियों से इसका सामना हुआ।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या, अनुवाद हमारा)।

यहाँ लेनिन और मार्क्स-एंगेल्स के बीच फ़र्क़ से यह बात ज़ाहिर है कि बख्शी के अनुसार लेनिन के दौर से ही मार्क्सवाद के सामने दिक़्क़ततलब अनुत्तरित प्रश्न उठने शुरू हो गये थे। आगे वे लिखते हैं :

”इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत में मार्क्सवादी सिद्धान्त में एक गुणात्मक छलाँग निरपेक्ष रूप से ज़रूरी (इम्पेरेटिव) है” और ”विश्व भर में कम्युनिस्ट-क्रान्तिकारी धड़े बुर्जुआ सैद्धान्तिक हमलों के आगे कमज़ोर और असहाय महसूस कर रहे हैं…जो लोग इस दृष्टिकोण से सहमत हैं कि मार्क्सवाद का विकास संकट से गुज़र रहा है वे मार्क्सवाद के उभरने व परिपक्व होने की आशा करेंगे…एंगेल्स द्वारा मार्क्सवादी सिद्धान्त को पूर्ण बनाने का प्रयास, जो उन्होंने मार्क्स की सलाह पर किया, हमें कहीं भी अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में लेनिन के बिखरे हुए कार्य के बाद देखने को नहीं मिलता है।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या, अनुवाद हमारा)

यहाँ वह साफ़ तौर पर लेनिन के प्रयासों को ‘बिखरा’ हुआ मानते हैं और स्तालिन एवं माओ के अवदानों को बिलकुल सिरे से ख़ारिज कर देते हैं। आगे वह संकट की बात जारी रखते हुए कहते हैं कि आज मार्क्सवाद में नये सिद्धान्तों की ज़रूरत  है :

”हमारा यह मत है कि आज मार्क्सवादी सिद्धान्त के ‘विकास’ की जो दशा है उसमें पुराने सिद्धान्तों में किसी भी क़ि‍स्म के संयोजन से कुछ नहीं होगा। किसी भी एकतरफ़ा या असन्तुलित सिद्धान्त से मौजूदा परिस्थिति में बदलाव नहीं आने वाला है। आज हमें मार्क्सवाद के तमाम क्षेत्रों में सुसंगत और विशद सिद्धान्तों की ज़रूरत है।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या, अनुवाद हमारा)

बख्शी की सैद्धान्तिक ‘संघर्ष’ की माँग का आधार उनकी मार्क्सवाद की व्याख्या को समझे बिना नहीं जानी जा सकती है। उनके अनुसार –

”मार्क्सवादी सिद्धान्त और मार्क्सवादी दर्शन के बीच अन्तर्सम्बन्ध मार्क्सवाद के विकास में सबसे महत्वपूर्ण आधार है।”

”सामाजिक-ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में किस तरह आवश्यकता और स्वतन्त्रता सही द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध में स्थानान्तरित होंगे यह न तो आर्थिकी का सवाल है, न इतिहास का और न ही राजनीति का सवाल है बल्कि यह दर्शन का सवाल है।” (वही, अनुवाद हमारा)।

आइये दीपक बख्शी के इस नवीन ‘दर्शन-सिद्धान्त’ की विचार प्रणाली पर सिलसिलेवार आलोचनात्मक दृष्टि डालें। दीपक बख्शी क्रान्ति के विचारधारात्मक, राजनीतिक और सैद्धान्तिक प्रश्नों के लिए दर्शन को प्रमुख बताते हैं। निश्चित ही सही दार्शनिक रोशनी में ही इन सभी प्रश्नों पर बात हो सकती है क्योंकि इन प्रश्नों में दार्शनिक अवस्थिति अभिव्यक्त होती है। दार्शनिक नज़रिया सैद्धान्तिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रश्नों का ही सार्वभौमिकीकरण है। सैद्धान्तिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रश्न दार्शनिक नज़रिये के विशिष्टीकरण हैं। क्रान्ति का सवाल ‘आवश्यकता और स्वतन्त्रता’ को राजनीति, आर्थिकी और इतिहास में ही हल करता है परन्तु यहाँ बख्शी एक यान्त्रिक बँटवारा करते हैं और दर्शन के सवाल को इन सबसे ऊँचा बना देते हैं। मार्क्सवाद राजनीति, सिद्धान्त और विचारधारा के इस यान्त्रिक बँटवारे को ही ग़लत मानता है। दीपक बख्शी सवाल पूछते हैं कि इतिहास में आवश्यकता और स्वतन्त्रता के द्वन्द्व का हल किस नज़रिये की रोशनी में होगा; ग़ौर कीजिए कि आवश्यकता और स्वतन्त्रता दार्शनिक प्रवर्ग हैं; इस प्रश्न का जवाब देते हुए श्री बख्शी कहते हैं कि इस सवाल का जवाब दार्शनिक दृष्टिकोण से ही दिया जा सकता है। यह तर्क ही गोल है जिसमें सवाल के अन्दर पहले से ही जवाब छिपा हुआ है। अपने इस आवश्यकता और स्वतन्त्रता के द्वन्द्व के सवाल के ज़रिये वे यह साबित करते हैं कि दर्शन का सवाल मार्क्सवाद में मुख्य बिन्दु है। मार्क्स और एंगेल्स ने इस यान्त्रिक दृष्टिकोण का खण्डन करते हुए कहा था :

”भौतिकवाद मूलतया द्वन्द्वात्मक है और अब उसे अन्य विज्ञानों के ऊपर खड़े हुए किसी दर्शनशास्त्र की आवश्यकता नहीं है।” (एंगेल्स, ड्यूहरिंग मत खण्डन, पेज 47)

”सारा दर्शनशास्त्र प्रकृति और इतिहास के निश्चित विज्ञान का अंग बन जाता है।…पर जिस तरह प्रकृति की द्वन्द्वात्मक धारणा पूरे प्रकृति दर्शन को अनावश्यक और असंभव बना देती है, उसी तरह उपरोक्त धारणा (इतिहास की मार्क्सवादी धारणा) इतिहास के क्षेत्र में दर्शन को ख़त्म कर देती है।” (एंगेल्स, लुडविग फ़ायरबाख व क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अन्त, पृष्ठ 51-52)

मार्क्सवाद के उद्भव में दार्शनिक सवाल अहम था क्योंकि मार्क्स और एंगेल्स के बौद्धिक जीवन की जब शुरुआत हुई तब विशेष रूप से दर्शन के आवरण में राजनीतिक टकराव हो रहे थे। परन्तु इसके बाद मार्क्स और एंगेल्स ने उस दौर के राजनीतिक संघर्षों में हिस्सेदारी की और उनकी समझ में राजनीतिक व्यवहार ने उनके आगे के जीवन का रास्ता तय किया, और वे ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ तक पहुँचे। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को तो उनसे स्वतन्त्र रूप में एक हद तक जर्मन मज़दूर ड‍िएत्ज़गेन ने भी खोज निकाला था। परन्तु उसे सबसे परिष्कृत रूप देना व इतिहास तथा विज्ञान में लागू करने का कार्यभार मार्क्स और एंगेल्स ने स्वतन्त्र रूप से पूरा किया था। यह उन्होंने केवल दर्शन या प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन से ही नहीं बल्कि अपने राजनीतिक व्यवहार से भी किया। एंगेल्स लिखते हैं :

 ”…यह धारा मूलभूत रूप से मार्क्स के नाम के साथ जुड़ी हुई है…मैं इससे इनकार नहीं कर सकता कि मार्क्स के साथ चालीस वर्षों के अपने सहयोग के समय और इससे पहले भी इस सिद्धान्त की बुनियाद डालने और विशेषकर इसे विकसित करने में मेरा एक हद तक स्वतन्त्र योगदान रहा है। पर इसके अग्रणी, मूलभूत सिद्धान्तों का अधिकतर भाग, ख़ासकर अर्थशास्त्र और इतिहास के क्षेत्र में, और सर्वापरि इन सिद्धान्तों का सटीक निरूपण मार्क्स की देन है।” (एंगेल्स, लुडविग फ़ायरबाख और क्लासिकी जर्मन दर्शन का अन्त, पेज 35)

”इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा और बेशी मूल्य के द्वारा पूँजीवादी उत्पादन के रहस्य का उद्घाटन इन दोनों महान आविष्कारों के लिए हम मार्क्स के आभारी हैं। इन आविष्कारों के कारण समाजवाद एक विज्ञान बन गया।” (एंगेल्स, ड्यूहरिंग मत खण्डन, पेज 49)

इतिहास के दौर विशेष में समाज में बदलाव सामाजिक व्यवहार के अलग-अलग आयामों में अभिव्यक्त होते हैं जिनके सार को व्यवहार विशेष के क्षेत्र के सिद्धान्त में अभिव्यक्त किया जाता है। आधुनिक भौतिकी में पदार्थ के सूक्ष्म स्तर की संरचना की गतिकी को क्वाण्टम मैकेनिक्स अभिव्यक्त करती है तो पूँजी की गतिकी को बेशी मूल्य का सिद्धान्त अभिव्यक्त करता है। समाज की गतिकी को उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियो के अन्तरविरोध को समाहित करने वाली ऐतिहासिक भौतिकवादी धारणा में अभिव्यक्त किया जाता है। इन सभी विज्ञानों का विश्व दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद होता है। इस प्रस्तुति में जो एकरूपता है दीपक बख्शी इसे भंग कर देते हैं जिससे कि आगे माओ और स्तालिन के मूल्यांकन में उनकी ”शुद्ध” दार्शनिक कृतियों में हुई ‘ग़लतियों’ को आधार बनाकर उनके समस्त सैद्धान्तिक और राजनीति कर्म को ग़लत साबित कर सकें। वे लिखते हैं कि :

”इस लेख में हमने हाइडेगर और देरीदा के सिद्धान्तों जैसे मार्क्सवाद-विरोधी सिद्धान्तों के बारे में बात नहीं की है। लेकिन ‘मार्क्सवादी विश्व दृष्टिकोण की विवेचना’ या ‘मार्क्सवादी सिद्धान्त के आम विकास’ के लिए कोई हाइडेगर, देरीदा, कार्ल कोर्श, जॉर्ज लुकाच या अल्थूसर कोई संकट उत्पन्न नहीं करते। इन बुद्धि‍जीवियों का दुनियाभर के कम्युनिस्टों के क्रान्तिकारी व्यवहार से कोई सीधा महत्वपूर्ण सम्बन्ध नहीं था और न ही यह मार्क्सवादी सिद्धान्त के क्षेत्र में किसी संकट या समस्या को पैदा करने की स्थिति में थे। केवल कम्युनिस्टों की आन्तरिक सीमाएँ, कमज़ोरियाँ और असफलताएँ ही सिद्धान्त में ऐसी ‘समस्या’ पैदा कर सकती हैं।”

वैसे तो जॉर्ज लूकाच और एक हद तक अल्थूसर के समूचे सैद्धान्तिक व राजनीतिक जीवन के बारे में ऐसी टिप्पणी तथ्यतः ग़लत है कि उनका ”क्रान्तिकारी व्यवहार से कोई महत्वपूर्ण सम्बन्ध नहीं था” लेकिन अभी हम इसमें नहीं जायेंगे क्योंकि श्री बख्शी की हरेक अज्ञानतापूर्ण टिप्पणी का विवेचन करना किसी एक लेख में सम्भव नहीं है। आइये अब इन आन्तरिक समस्याओं पर मन्थन करें जो मार्क्सवाद के संकट के लिए जि़म्मेदार हैं।

4.1 मार्क्सवाद में संकट

दीपक बख्शी मार्क्सवाद में संकट की पहली अभिव्यक्ति 1920 के दशक में मार्क्सवाद पर शुरू हुए हमले के रूप में बताते हैं जब मार्क्स और एंगेल्स के दर्शन के बीच अन्तर करने की कोशिश की गयी। दीपक बख्शी के अनुसार 1920 का संकट मुख्यतः एंगेल्स द्वारा प्रकृति में द्वन्द्ववाद व्याख्यायित करने के सवाल को लेकर था। सिडनी हुक, जॉर्डन, लिख्तेम से लेकर ज्याँ पॉल सार्त्र, मौरिस लेफ़ेब्र तक ने इस सवाल पर एंगेल्स की आलोचना रखी। जहाँ मार्क्स को क्रान्तिकारी व मानवीय समाज की क्रान्तियों के ज्ञान के अध्येता के रूप में बताया गया वहीं एंगेल्स को प्रत्यक्षवादी व अनुभववादी के रूप में पेश किया गया। दीपक बख्शी ने लेख के इस हिस्से को हेलेना शीहन की किताब ‘मार्क्सवाद और प्राकृतिक विज्ञान के दर्शन’ के शोध पर आधारित किया है। वह कहते हैं कि इस हमले का मार्क्सवादियों की तरफ़ से और ख़ास तौर पर माओ और स्तालिन तथा कम्युनिस्ट पार्टियों (सोवियत रूस व चीन) द्वारा जवाब नहीं दिया गया। यह तथ्यतः ग़लत है। हेलेना शीहन की किताब में ही प्रस्तुत एंगेल्स के पक्ष में लिखने वाले सिद्धान्तकारों (जिनमें कई नाम सोवियत रूस से हैं) के पक्ष को दीपक बख्शी बिलकुल ग़ायब कर देते हैं। दीपक बख्शी ज़ोर देते हैं कि मार्क्सवाद पर इस हमले का जवाब नहीं दिये जाने का कारण दर्शन के सवाल को तरजीह नहीं दिया जाना है। वह कहते हैं कि :

”मार्क्सवादियों के धड़ों में आज कई लोगों के अनुसार मार्क्सवाद किसी ‘नये’ दार्शनिक सिद्धान्त पर आधारित है या नहीं इस पर बात करना या बहस करना ज़रूरी व अर्थपूर्ण नहीं है। अगर ‘सर्वहारा की तानाशाही’ लागू करने में कोई भी भ्रम नहीं है तो द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के प्राकृतिक विज्ञान पर लागू होने के सवाल का समाधान निकालना या उस पर बहस करना किसी भी महत्व या तात्कालिकता से रहित हो जाता है।”

”कामरेड स्तालिन और कामरेड माओ ने लेनिन की मृत्यु के बाद बुर्जुआ दार्शनिकों के हमले के ख़िलाफ़ कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं किया।”

”मार्क्स और एंगेल्स की मृत्यु के बाद एक तरफ़ तो काउत्स्की, हिल्फ़र्डिंग और दूसरी तरफ़ लूकाच, कोर्श, ग्राम्शी और अल्थूसर ने अपनी आलोचना के पहले दौर में मार्क्स के सर्वहारा की तानाशाही के विचार का ज़ोर देकर समर्थन किया और मार्क्स की अमर कृति पूँजी को सामाजिक ऐतिहासिक विकास को देखने के लिए चुनने में कोई दुविधा महसूस नहीं की। परन्तु इन विचार शाखाओं का अन्ततः क्या विकास हुआ यह सभी जानते हैं। इनसे अलग, अगर हम लेनिन-स्तालिन-माओ की क्रान्तिकारी शाखा को देखें तो हम पाते हैं कि उन्हें इन अन्तरराष्ट्रीय बहसों ने आन्तरिक और मुखर तौर पर प्रभावित किया। लेनिन ने दूसरे इण्टरनेशनल के लोगों के साथ गहन राजनीतिक और विचारधारात्मक युद्ध किया। परन्तु स्तालिन और माओ ने लूकाच या कोर्श के ख़िलाफ़ कोई मज़बूत सैद्धान्तिक रचना नहीं लिखी।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या, अनुवाद हमारा)

‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ से लेकर ‘महान बहस’ तक के दौर में मार्क्सवाद पर लगातार हमले होते रहे हैं और ये आज भी जारी हैं। इनके ख़िलाफ़ मार्क्स से लेकर माओ तक संघर्ष करते रहे, हालाँकि मार्क्स-एंगेल्स का दौर, उनके जीवन्त प्रश्न और कार्यभार अलग थे जबकि माओ के दौर के जीवन्त प्रश्न और कार्यभार अलग थे। बल्कि कहना चाहिए कि विजातीय प्रवृत्तियों और विचारधाराओं के विरुद्ध संघर्ष की प्रक्रिया में ही मार्क्सवाद विकसित हुआ। उन्नीसवीं सदी में बर्नस्टीन से लेकर बीसवीं सदी में देङ सियाओ-पिङ तक ने मार्क्सवादी सिद्धान्त पर कई बड़े हमले किये। ख़ास तौर पर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी में साम्राज्यवाद के दौर में संशोधनवाद और अर्थवाद ने मार्क्सवाद को गम्भीर चुनौती दी। साम्राज्यवादियों के भाड़े के टट्टू कलमघसीट तो लगातार मार्क्सवाद को बदनाम करने का प्रयास करते ही रहे जिनका जवाब प्राथमिकता के क्रम में दिया गया। परन्तु दीपक बख्शी ने 1920 के दशक की इस लेख में जो तस्वीर पेश की है वह बेहद ही सरलीकृत तस्वीर है और उस परिस्थिति के मर्म तक नहीं पहुँचती जिसका सामना लेनिन, स्तालिन और माओ ने किया। स्तालिन पर समाजवादी व्यवस्था चलाने का कार्यभार था और एक ओर वह सोवियत समाजवाद पर और मार्क्सवाद पर हो रहे संशोधनवादी हमलों से तो दूसरी ओर फ़ासीवाद की व्यवहारिक चुनौती से जूझ रहे थे। स्तालिन के बाद माओ ने सोवियत समाजवाद का व स्तालिन की ग़लतियों का आलोचनात्मक विवेचन किया। चीनी क्रान्ति से पहले भी माओ ने सोवियत रूस के देबोरिन के अधिभूतवादी द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण के खिलाफ़ बहस चलायी। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के अवदानों से समाजवादी संक्रमण की सैद्धान्तिकी में इजाफ़ा किया। परन्तु दीपक बख्शी बेहद भोंड़े तरीक़े से माओ, स्तालिन और दबे स्वरों में लेनिन की आलोचना करते हैं। साथ ही वे यह भी ग़लत बताते हैं कि मार्क्सवाद पर हमला करने वाले दार्शनिकों की अवस्थितियों का जवाब नहीं दिया गया। लूकाच की सोवियत रूस के देबोरिन और हंगरी के रुडास से लम्बी बहसें चली जिसके जवाब में लूकाच को अपनी ‘हिस्ट्री एण्ड क्लास कॉन्शियसनैस’ में दी गयी कुछ अवस्थितियाँ बदलनी भी पड़ीं (ए डिफ़ेन्स ऑफ़ हिस्ट्री एण्ड क्लास कॉन्शियसनैस, टेलिस्म एण्ड डायलैक्टिक) व जिसे वे ‘हिस्ट्री एण्ड क्लास कॉन्शियसनैस’ के 1960 के बाद लिखे प्राक्कथन में दोहराते भी हैं। तीसरे इण्टरनेशनल के पाँचवे विश्व सम्मेलन में ज़ि‍नोविएव ने कोर्श और लूकाच की पहली बार आलोचना रखी थी (इस सम्मेलन में लेनिन भी मौजूद थे)। बख्शी द्वारा लेनिन, माओ और स्तालिन के दौर का प्रस्तुतिकरण बख्शी के इतिहास ज्ञान की शून्यता को दिखाता है। दूसरी बात यह है कि यह मानना ही मूर्खतापूर्ण है कि माओ और स्तालिन के दौर में मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर हो रहे हर हमले का जवाब व्यक्तिगत तौर पर माओ और स्तालिन को देना था! कोर्श, अल्थूसर व लूकाच जो कुछ लिख रहे थे, दुनिया भर के तमाम कम्युनिस्ट सिद्धान्तकार और कम्युनिस्ट पार्टियाँ उसका जवाब दे रहे थे। माओ और स्तालिन के समक्ष और ज़्यादा ज़रूरी और जीवन्त प्रश्न और समस्याएँ मौजूद थीं जिनका जवाब उन्हें देना था। लेकिन चूँकि श्री बख्शी के लिए दर्शन की समस्याएँ सबसे महत्वपूर्ण हैं और भौतिक और ठोस समस्याओं से अलग कहीं हवा में अस्तित्वमान रहती हैं इसलिए माओ और स्तालिन द्वारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद की संशोधनवाद से हिफ़ाज़त के लिए लिखी गयी उनकी रचनाओं में या समाजवाद की समस्याओं के विषय में लिखी गयी शानदार रचनाओं में कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि उनके अनुसार ये रचनाएँ शुद्ध रूप से दार्शनिक प्रश्नों का जवाब नहीं दे रही थीं।

दीपक बख्शी लेनिन के प्रयासों से भी खुश नहीं हैं! दीपक बख्शी के अनुसार लेनिन ने मार्क्स और एंगेल्स के दर्शन और सिद्धान्त को आगे बढ़ने का प्रयास किया मगर वह ‘खण्डित’ प्रयास था। वे यह भी कहते हैं कि ”जहाँ तक हमारे (मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन के – लेखक) ज्ञान और समझ की बात है तो हमारा यह मत है कि मार्क्स और एंगेल्स के बाद के मार्क्सवादी नेताओं की भौतिकवादी दर्शन की समझ किसी भी ‘असंगति’ या ‘अध्ूरेपन’ को समझ या इंगित कर पाने में इस सिद्धान्त के जनकों की तुलना में बेहद अबोध्य थी।” आगे वह लिखते हैं कि लेनिन के प्रयासों का मूल्यांकन करने की ज़रूरत है और ”पूँजी से साम्राज्यवादः पूँजीवाद की आखिरी मंजि़ल तक की यात्रा” की विवेचना करने की ज़रूरत है। पर वह यह नहीं बताते हैं कि क्या कारण है कि यह विवेचना करने की ज़रूरत है। ओह नहीं! दरअसल वे बताते हैं कि उनके अनुसार लेनिन ने आधुनिक भौतिकी के संकट का संतोषजनक दार्शनिकीकरण नहीं किया! मत भूलिए कि हम श्री बख्शी के विचार जगत से संवाद में हैं जहाँ यान्त्रिक श्रृंखला का नियम कार्यरत है! इस नियम की रोशनी में ही श्री बख्शी माओ और स्तालिन की दार्शनिक अवस्थिति के नाम पर उनके समस्त राजनीतिक कर्म पर सवाल खड़ा करते हैं। उनके अनुसार दार्शनिक प्रश्नों पर ग़लत समझदारी रखने से (जिसका कारण आधुनिक भौतिकी का अध्ययन न करना है) मार्क्सवाद में संकट पैदा हो गया और 1920 के बाद के दौर में मार्क्सवादियों का व्यवहार ग़लत है। मसलन :

”संकट यहीं है। पिछले 100 सालों के क्रान्तिकारी व्यवहार के बावजूद द्वन्द्ववाद के नियमों की व्याख्या में एक गहन संकट है।” (वही, अनुवाद हमारा)

दीपक बख्शी के अनुसार माओ द्वारा निषेध का निषेध को न मानना ”अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए सबसे अनपेक्षित और चौंका देने वाली घटना थी।” वे माओ और स्तालिन पर एक गम्भीर हमला करते हैं और कहते हैं :

”दोनों ने अलग क़ि‍स्म के ‘भौतिकवाद’ की पैरवी की, जो मार्क्स और एंगेल्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से अलग था।” (वही, अनुवाद हमारा)

स्तालिन ने अपनी पुस्तक ‘द्वन्द्वात्मक तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद’ में द्वन्द्ववाद की जो व्याख्या पेश की है उसमें निश्चित ही द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण से भटकाव दिखता है परन्तु इसे ”अलग क़ि‍स्म का ‘भौतिकवाद’” कहना अति होगी। स्तालिन के दार्शनिक-राजनीतिक-सैद्धान्तिक कर्म को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का विरोधी मानना मूर्खतापूर्ण होगा बावजूद इसके कि स्तालिन के दर्शन में यान्त्रिकता का स्पष्ट प्रभाव था, जिसके बारे में स्वयं माओ ने भी लिखा था। माओ द्वारा ‘निषेध का निषेध’ को नकारने के पक्ष में माओ की एक अनौपचारिक बातचीत (जिसका जि़क्र बख्शी करते हैं) के अलावा कोई लेख नहीं है, और इस अनौपचारिक बातचीत का स्रोत भी बहुत विश्वसनीय नहीं है। माओ ने अपनी कृतियों में कई जगह ‘निषेध का निषेध’ के नियम का जि़क्र किया है। वहीं कुछ कृतियों में उन्होंने ‘अफ़र्मेशन’ व ‘निगेशन’ का इस्तेमाल किया है। हमें लगता है कि इस सवाल पर निर्णायक तौर पर बात करने के लिए गम्भीर शोध किये जाने की ज़रूरत है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एक विश्व दृष्टिकोण है जो कि सतत् विकास से गुज़रता है। मार्क्स और एंगेल्स के बाद इसके विकास पर लेनिन ने गहन शोध-कार्य किया और यह कार्य उनके दौर के जीवन्त प्रश्नों और विचारधारात्मक वर्ग संघर्ष के सन्दर्भ में हुआ। यह कार्य उनके द्वारा माखवादी दर्शन की आलोचना और उनकी दार्शनिक नोटबुक्स में देखा जा सकता है। लेनिन ने पहली बार ‘विपरीत तत्वों की एकता और संघर्ष’ यानी अन्तरविरोध के नियम को द्वन्द्ववाद का सबसे महत्वपूर्ण नियम बताया और साथ ही निषेध का निषेध के नियम को भी स्वीकार किया। माओ ने अन्तरविरोध के द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी सिद्धान्त को नयी ऊँचाइयों पर पहुँचाया। इस प्रक्रिया में हर परिवर्तन सहज, सरल और सकारात्मक नहीं हो सकता था और न ही ऐसा हुआ। इस प्रक्रिया में स्तालिन, माओ या किसी से भी ग़लती हो सकती है। लेकिन यह कहना कि लेनिन, स्तालिन और माओ ने इस विषय में कोई चिन्तन नहीं किया या द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के विकास के कार्यभार को संजीदगी से नहीं लिया, श्री बख्शी द्वारा अपने भयंकर अज्ञान का प्रदर्शन है।

दीपक बख्शी इतिहास-अज्ञानता से इस क़दर ग्रसित हैं कि उनसे यह माँग करना बेमानी होगा कि वह ऐसा कोई ज्ञान प्रदर्शित करें। इतिहास की उपेक्षा करते हुए और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विकास की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया की उपेक्षा करते हुए अगर मान भी लें कि माओ और स्तालिन ने अपनी दार्शनिक कृतियों में ग़लत समझदारी के कारण ‘निषेध का निषेध’ मानने से इनकार कर दिया तो ”यह अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए सबसे अनपेक्षित और चौंका देने वाली घटना” कैसे बन गयी!? महान नेताओं व शिक्षकों और बोल्शेविक पार्टी, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सरीखी महान पार्टियों की कई दार्शनिक व राजनीतिक अवस्थितियाँ ग़लत हो सकती हैं। इससे मार्क्सवाद में में संकट कैसे आ जायेगा? इस बात में यह मान्यता निहित है कि मार्क्सवादी नेताओं और महान पार्टियों के चिन्तन में कोई ग़लती नहीं होगी और यदि ऐसा होगा तो मार्क्सवादी दर्शन में ही संकट पैदा हो जायेगा। अगर दुनिया भर में कम्युनिस्ट आन्दोलन में लोग इस बात से घबरा जाते हैं कि उनके नेता व पार्टी ग़लत बोल सकते हैं या बोल रहे हैं और इससे मार्क्सवादी दर्शन में ही संकट पैदा हो जायेगा तब तो हमें कम्युनिज़्म को एक धर्म घोषित कर देना चाहिए और माओ व स्तालिन को इस कम्युनिस्ट धर्म के मसीहा! माओ और स्तालिन के दार्शनिक सवालों पर ग़लत होने से क्या उनके अन्य मार्क्सवादी सिद्धान्त या समूचा मार्क्सवादी दर्शन ही ग़लत या संकटग्रस्त साबित हो जाते हैं? निश्चित ही कोई कम्युनिस्ट नेता किसी पहलू पर ग़लत हो सकता है परन्तु इससे मार्क्सवादी दर्शन की सेहत पर असर नहीं पड़ता है।

वे आगे पेरू की कम्युनिस्ट पार्टी और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा द्वन्द्व की व्याख्या में ‘निषेध का निषेध’ की व्याख्या न कर पाने या ग़लत व्याख्या करने का भी दोष माओ और स्तालिन पर मढ़ देते हैं। दीपक बख्शी की सारी बातों का सार यह  है : मार्क्स और एंगेल्स के बाद का मार्क्सवाद एक रुकावट का शिकार है। यह अनैतिहासिक दृष्टिकोण न सिर्फ़ ग़लत है बल्कि भयंकर रूप से अज्ञानतापूर्ण है।

4.2 बुर्जुआ दर्शन का हमला – श्री बख्शी की नौदौलतिया फ़लसफ़ाबाज़ी

बीसवीं सदी के मध्य से लेकर उत्तरार्द्ध तक प्रथम समाजवादी प्रयोगों के पतन के दौर में ही साम्राज्यवाद ने कई नयी विचार सरणियों को जन्म दिया, जिनमें उत्तरआधुनिकतावाद और उत्तरऔपनिवेशिक सिद्धान्त प्रमुख हैं। इन सिद्धान्तों ने कोई नयी बात नहीं कही। इसने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पैदा हुई कई मानवतावाद-विरोधी, तार्किकता-विरोधी विचारधाराओं से उधार लिया और नयी मानवद्रोही विचार सरणियों की रचना की। इनमें नीत्शे का मानवतावाद-विरोध और प्रबोधन व तार्किकता का विरोध, स्पेंगलर का प्रगतिवाद-विरोध, रूसी सर्वखण्डनवाद, नवकाण्टवादी अज्ञेयवाद, आदि का एक मिश्रण तैयार किया गया। 1960 के दशक से ही इन विचार सरणियों ने समाजवाद के प्रयोगों और मार्क्सवाद पर हमले करने शुरू किये। हर तरफ़ इतिहास के अन्त, कविता के अन्त, भौतिकी के अन्त आदि की बातें की जाने लगीं। ख़ुद क्रान्तिकारी दायरों में भी कुछ लोगों ने इस प्रभाव में बहकर ‘अन्त’ के सिद्धान्तकारों के सिद्धान्तों को मार्क्सवाद में मिलाने की कोशिश की व मार्क्सवादी दृष्टिकोण की मूल प्रस्थापनाओं पर ही सवाल खड़े करने शुरू कर दिये। ख़ास तौर पर बीसवीं शताब्दी की क्रन्तियाँ निशाना बनीं जिन्हें मार्क्सवाद से विचलन के तौर पर पेश किया गया और इस ‘विचलन’ के दौर में विकसित हुए मार्क्सवाद में संशोधन की माँग की जाने लगी।

आज भी ज़िज़ेक से लेकर एलन बेदियू जैसे उत्तरमार्क्सवादी सिद्धान्तकार मार्क्स, लेनिन और माओ पर सवाल खड़े करते हुए ये दावा कर रहे हैं कि मानव मुक्ति की परियोजना के लिए मार्क्सवाद की प्रासंगिकता एक दौर में थी, मगर वह अब ख़त्म हो चुकी है, या फिर यह कि बीसवीं सदी का समाजवाद एक ‘विपदा’ था और अब ‘कम्युनिस्ट विचार’ के लिए यह अपरिहार्य हो गया है कि वह जितनी जल्दी हो सके बीसवीं सदी की इन ‘विपदाओं’ के ‘हैंग-ओवर’ से मुक्त हो जाये। उत्तर-मार्क्सवादी वास्तव में वही काम कर रहे हैं जो कि एक दौर में उत्तरआधुनिकतावादी कर रहे थेः मार्क्सवाद के क्रान्तिकारी कोर पर हमला। जब उत्तरआधुनिकतावादियों के ये हमले क्रान्तिकारी मार्क्सवादियों के जवाबों और साथ ही पूँजीवादी संकट के गहराने के साथ बेकार हो गये, तो यही काम अब ‘रैडिकल’ जमातों के भीतर घुसकर उत्तर-मार्क्सवाद कर रहा है। इस उत्तर-मार्क्सवादी ऑफ़ेंसिव में भी कुछ नया नहीं है, बस पुराने अज्ञेयवाद, लकानियन मनोविश्लेषण के एक विशेष संस्करण, नीत्शेवाद, आदि का एक नये क़ि‍स्म का मिश्रण है जो कि ‘रैडिकल पैकेजिंग’ में पेश किया जा रहा है क्योंकि उत्तरआधुनिकतावाद गम्भीर अकादमिकों के बीच में भी एक चुटकुला बन चुका है। परन्तु दीपक बख्शी के लिए यह चुटकुला नहीं है बल्कि मार्क्सवाद में संकट की अभिव्यक्ति है। वे हाइज़ेनबर्ग के हमले के साथ अन्य प्रचलित प्रतिक्रियावादी सिद्धान्तों का भयानक विवरण पेश करते हैं :

”हाइजे़नबर्ग का सिद्धान्त कोई पृथक्कृत सिद्धान्त नहीं है, बल्कि यह इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक समकालीन भाषाशास्त्र और दर्शन में प्रचलित प्रभावी प्रतिक्रियावादी सिद्धान्तों का हिस्सा है। बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से ही बुर्जुआ विचारधारा का ज्ञान के हर क्षेत्र में दबदबा था और हाइज़ेनबर्ग के इस दर्शन को भी इसी से जोड़ कर देखा जाना चाहिए, जो विज्ञान की दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली आदर्शवादी विचार है। अगर हाइडेगर शिलिंग की मशाल देरिदा को थमाते हैं तो हाइजे़नबर्ग भी विज्ञान की दुनिया में उसी स्कूल से शिक्षा लेते हैं। हाइडेगर और हाइजे़नबर्ग के राजनीतिक जीवन में के बीच गहरी समरूपता है, दोनों ही हिटलर के सक्रि‍य समर्थक थे।

”कमज़ोरी आखिरी सदी के तीसरे दशक से महसूस की जा सकती है। अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की दोनों बड़ी पार्टियों में से किसी ने भी मार्क्सवासी सिद्धान्त पर हाइडेगर, हाइजे़नबर्ग, लूकाच, अल्थूसर आदि द्वारा किये जा रहे प्रचण्ड आक्रमणों का न ही कोई जवाब देने का प्रयास किया और न ही कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की।

”कामरेड स्तालिन और कामरेड माओ ने लेनिन की मृत्यु के बाद बुर्जुआ दार्शनिकों के हमले के ख़िलाफ़ कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं किया।” (वही, अनुवाद हमारा)

दीपक बख्शी हाइज़ेनबर्ग, हाइडेगर और देरिदा की विचारधाराओं के प्रचण्ड दबदबे से भयाक्रान्त हैं। उनके अनुसार इनका कोई जवाब नहीं दिया गया। यह दावा उनकी भयंकर अज्ञानता को ही प्रदर्शित करता है। वे इन विचारधाराओं को पढ़कर भयाक्रान्त हो गये हैं और इस कारण मार्क्सवाद में संकट की घोषणा करते हैं। दीपक बख्शी के उपरोक्त कथनों में ज़रा भी सच्चाई नहीं है। हाइज़ेनबर्ग के उदाहरण में हम उनकी अज्ञानता की विस्तार से विवेचना कर चुके हैं। जिस प्रकार उत्तरआधुनिकतावादी आलोचनाओं के दौर में मार्क्सवाद में ‘संकट’ का शोर मचा था, उसी प्रकार आज भी दीपक बख्शी सरीखे ‘आउट-डेटेड’ राजनीतिक नौदौलतिए मार्क्सवाद में ‘संकट’ का शोर मचा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन आज संकट का शिकार है। मगर क्या मार्क्सवादी विचारधारा संकट का शिकार है? इन नये हमलों में क्या नया है जिनका जवाब मार्क्सवादी विचारधारा ने पेश नहीं किया है? परन्तु दीपक बख्शी से इन जवाबों की उम्मीद रखना ही बेमानी है क्योंकि उनके विचार जगत में यह जानकारी मौजूद नहीं है। और दीपक बख्शी के लिए ‘इग्नोरेन्स इज़ द ऑरग्युमेण्ट’ यानी अज्ञानता ही तर्क है।

4.3 दीपक बख्शी की अप्रत्यक्ष राजनीतिक अवस्थिति

बख्शी के अनुसार, मुख्य प्रश्न ‘चेतना का प्रश्न’ है जो कि दार्शनिक सवाल है और मार्क्सवादी दर्शन का सीधा सम्पर्क प्राकृतिक विज्ञान से है। इन्हीं प्रश्नों पर अपनी ग़लत समझदारी के कारण लेनिन, स्तालिन और माओ ने मार्क्सवाद के ग़लत सिद्धान्तों को जन्म दिया जिसके कारण मार्क्सवाद संकट में है और पूरा कम्युनिस्ट आन्दोलन संकट में है। इस बात को ही पुष्ट करते हुए दीपक बख्शी माओ और स्तालिन के दार्शनिक लेखों को द्वन्द्ववाद के नियमों से दूर पाते हैं जो कि मार्क्स और एंगेल्स ने दिये थे। परन्तु इस बौद्धिक सर्कस के ज़रिये जाने या अनजाने दीपक बख्शी का यान्त्रिक श्रृंखला नियम वास्तव में अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी अवस्थिति की अप्रत्यक्ष तौर पर सेवा करता है। हालाँकि वे खुलकर कहीं यह व्यक्त नहीं करते हैं परन्तु कुछ जगह वे इशारों में बात करते हैं। बकौल दीपक बख्शी – ”विश्व इतिहास की अद्वितीय घटनाएँ; रूसी और चीनी क्रान्तिकारी सत्ता अधिग्रहण और ‘समाजवाद’ को क़ायम करने लिए हुए संघर्षों के अनुभव का पूँजी और ड्यूहरिंग मत खण्डन के प्रकाश में उच्चतम वस्तुपरकता एवं उद्यम से पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए।”

‘वैचारिक संघर्ष के विस्तृत कार्यक्रम के कार्यभार’ के चौथे बिन्दु में बख्शी लिखते हैं-

”समाजवादी संक्रमणकाल की अवधि में ‘सर्वहारा का अधिनायकत्व’ और ‘सर्वहारा जनवाद’ के बीच के द्वन्द्वात्मक रिश्ते का” तथा ”कम्युनिस्ट पार्टी में ‘जनवादी केन्द्रीयता’ के व्यवहार में ‘केन्द्रीयता’ और ‘सर्वहारा जनवाद’ के एक दूसरे में अन्तर्भेदन और रूपान्तरण की उचित प्रकृति और चरित्र का, राज्यसत्ता पर कब्जे़ से पहले और बाद में कम्युनिस्ट पार्टी और सर्वहारा के बीच के अन्तरसम्बन्ध का… गहन रूप से विश्लेषण और पुनःनिरीक्षण करना आवश्यक है।” (वही, अनुवाद हमारा)

अपने सम्पूर्ण लेख में मार्क्सवाद में संकट की रोशनी में प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन अलावा वे जिन सिद्धान्तों का  ”गहन रूप से विश्लेषण और पुनःनिरीक्षण करने” की बात करते हैं वे जनवादी केन्द्रीयता व ‘सर्वहारा का अधिनायकत्व’ हैं। समाजवादी प्रयोगों को ”समाजवाद के प्रयास” बनाने की यह अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद की राजनीतिक छलाँग बख्शी प्राकृतिक विज्ञान-दर्शन-सिद्धान्त की यान्त्रिक श्रृंखला के स्प्रिंग से सम्भव करते हैं। ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ पत्रिका के अन्य लेख ज़्यादा खुले तौर पर अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी समझदारी व्यक्त करते हैं। वहीं बख्शी की ‘प्राकृतिक विज्ञान – मार्क्सवादी दर्शन – मार्क्सवादी सिद्धान्त’ यान्त्रिक श्रृंखला अप्रत्यक्ष रूप से इस राजनीति की सेवा करती है। उपरोक्त उद्धरण में हम देख सकते हैं कि श्री बख्शी मार्क्सवाद-लेनिनवाद की बुनियादी शिक्षाओं के बारे में भी किस कदर भ्रमित हैं। मिसाल के तौर पर, ‘जनवादी केन्द्रीयता’ की अवधारणा को एक योगात्मक अवधारणा बना दिया गया है, जिसके अनुसार इसमें केन्द्रीयता और सर्वहारा जनवाद के ”एक-दूसरे में अन्तर्भेदन” की बात की गयी है। जनवादी केन्द्रीयता के विषय में इससे ज़्यादा हास्यास्पद क्या हो सकता है? उसी प्रकार सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की भी ऐसी ही योगात्मक और अधिभूतवादी अवधारणा पेश की गयी है। लेकिन अभी हम इन भ्रमों के खण्डन में नहीं जा सकते हैं।

दीपक बख्शी के इस लेख के विषय में बहुत-कुछ लिखना पड़ेगा अगर हम इसकी एक-एक अज्ञानता और मूर्खता का खण्डन करें। हमने केवल उनकी अज्ञानताओं में अन्तर्निहित बुनियादी तर्क (मेथड इन मैडनेस) का खण्डन किया है। श्री बख्शी इतिहास से अनभिज्ञ हैं, यान्त्रिकतावादी हैं और नौदौलतिया फ़लसफ़ेबाज़ी के शिकार हैं। इस यान्त्रिकता के चलते ही वे मार्क्सवादी दर्शन की प्राकृतिक विज्ञान पर निर्भरता का सम्बन्ध खोज निकलते हैं जिसके आधार पर वह मार्क्सवादियों द्वारा दार्शनिक व्याख्या में ग़लती ढूँढ़कर पूरे विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए संकट घोषित कर देते हैं। इस प्रकार का बड़बोलापन केवल उनकी आधी-अधूरी पढ़ाई और भयंकर अज्ञानता को ही प्रदर्शित करता है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र विभाग में शोधार्थी हैं)

सन्दर्भ सूचीः

    1. डायलैक्टिक्स ऑफ़ नेचर – फ़्रेडरिक एंगेल्स
    2. ड्यूहरिंग मत खण्डन – फ़्रेडरिक एंगेल्स
    3. मार्क्स-एंगेल्स, कलेक्टेड वर्क्स – खण्ड 1
    4. मार्क्स-एंगेल्स, कलेक्टेड वर्क्स – खण्ड 2
    5. मार्क्स-एंगेल्स, कलेक्टेड वर्क्स – खण्ड 3
    6. लुडविग फ़ायरबाख और क्लासिकल जर्मन दर्शन का अन्त – फ़्रेडरिक एंगेल्स
    7. फि़लोसोफ़ि‍कल नोटबुक्स – व्लादीमिर लेनिन
    8. कार्ल मार्क्स और उनकी शिक्षा – व्लादीमिर लेनिन
    9. मैटिरियलिज़्म एण्ड इम्पीरियो क्रिटिसिज़्म – व्लादीमिर लेनिन
    10. द जर्मन आइडियोलॉजी – मार्क्स-एंगेल्स
    11. अन्तरविरोध के बारे में – माओ त्से तुङ
    12. क्यों माओवाद – शशि प्रकाश
    13. सोवियत समाजवाद के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ, दिशा सन्धान (1, 2, 3, व 4) – अभिनव सिन्हा
    14. मैटिरियलिज़्म और काण्टियनिज़्म – जी. प्लेखानोव
    15. पूँजी, खण्ड-1 – कार्ल मार्क्स
    16. मार्क्सिस्ट फ़ि‍लोसोफ़ी एण्ड द प्रोब्लम ऑफ़ डेवलपमैन्ट ऑफ़ मार्क्सिस्ट थियरी, मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन, दीपक बख्शी
    17. हिस्ट्री एण्ड क्लास कान्शियसनेस – जी. लूकाच
    18. ए डिफ़ेन्स ऑफ़ हिस्ट्री एण्ड क्लास कान्शियसनैस-टैलिस्म एण्ड डायलैक्टिक – जी. लूकाच
    19. मार्क्सिज़्म एण्ड द फ़ि‍लोसोफ़ी ऑफ़ साइन्सः ए क्रिटिकल हिस्ट्री – हेलेना शीहेन
    20. संकलित रचनाएँ – माओ त्से तुङ
    21. होली फ़ैमिली, ए क्रिटिक ऑफ़ क्रिटिकल क्रिटिसिज़्म – मार्क्स-एंगेल्स
    22. द एसेन्शियल स्तालिनः मेजर थियरेटिकल राइटिंग्स, 1905-52 – सं. ब्रूस फ़्रैंकलिन
    23. क्राइसिस इन फ़ि‍ज़िक्स – क्रिस्टोफ़र कॉडवेल
    24. फ़ि‍ज़िक्स एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ी – वर्नर हाइजे़नबर्ग
    25. क्राइसिस इन फिज़िक्स, (साइंस एण्ड सोसाइटी) – हान्स फ़्रेस्टाट
    26. सोवियत मार्क्सिज़्म एण्ड नैचुरल साइंस – डेविड ज़ोराव्स्की
    27. मार्क्स एण्ड मैथेमैटिक्स – डर्क जे. स्ट्रुइक
    28. द थियरी ऑफ़ स्पेस, टाइम एण्ड ग्रेविटेशन – व्लादीमिर फ़ॉक
    29. द प्रेजे़ण्ट स्टेट ऑफ़ द प्रॉब्लम ऑफ़ ‘मार्क्सिज़्म एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ी’ – एन एण्टी क्रिटिक – कार्ल कोर्श
    30. ड्रीम्स अॅाफ़ ए फ़ाइनल थियरी – स्टीवन वेनबर्ग
    31. 100 इयर्स ऑफ़ क्वाण्टम मिस्ट्रीज़ – मैक्स टेगमार्क व जॉन आर्किबाल्ड वीलर
    32. लाॅजिक एण्ड फ़ॅारमेशन ऑफ़ क्वाण्टम मैकेनिक्स – ताकेतानी
    33. बियोण्ड द होक्सः साइंस, फ़ि‍लोसोफ़ी एण्ड कल्चर – एलन सोकल
    34. पोस्ट मॉडर्निज़्म डिसरोब्ड – रिचर्ड डाकिन्स
    35. मार्क्सिज़्म एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ी – कार्ल कोर्श
    36. ऑन मैटिरियलिज़्म – सबैस्चिएनो टिम्पानारो
    37. क्वाण्टम मैकेनिक्स – ब्लोखिन्स्तेव
    38. द फ़ि‍लोसोफ़ी ऑफ़ क्वाण्टम मैकेनिक्स – मैक्स जैमर
    39. डायलैक्टिक्स इन मॉडर्न फ़ि‍ज़ि‍क्स – ओमेल्यानोव्स्की
    40. रेडिकलाइजे़शन अॅाफ़ साइंस – हिलेरी एण्ड स्टीवन रोज़
    41. साइंस एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ी इन सोवियत यूनियन – एल.आर. ग्राहम
    42. द सोशल फ़ंक्शन ऑफ़ साइंस – जे. डी. बरनाल
    43. साइंस इन हिस्ट्री (चार खण्डों में) – जे. डी. बरनाल
    44. द ट्रबल विद फ़ि‍ज़ि‍क्स – ली स्मोलिनी
    45. द हिस्टोरिकल डेवेलपमेन्ट ऑफ़ क्वाण्टम मैकेनिक्स (सभी खण्ड) – जगदीश मेहरा
    46. द स्ट्रक्चर ऑफ़ साइंटिफिक रिवोल्युशन्स – थॉमस कुन
    47. मार्क्सेज़ इकोलॉजी – जॉन बेलैमी फ़ॉस्टर
    48. क्लासिकल एण्ड नॉन-क्लासिकल कॉनसेप्ट्स इन क्वाण्टम थियरी, एन आन्सर टू हाइजे़न्बर्ग्स फ़ि‍ज़िक्स एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ी, द ब्रिटिश सोसाइटी फ़ॉर द फिलोसोफ़ी ऑफ़ साइंस – डेविड बोहम
    49. फि़फ़्थ कांग्रेस ऑफ़ द कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल – पब्लिश्ड बॅाय कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन
    50. क्वाण्टम मैकेनिक्स एज़ ए बेसिस ऑफ़ फ़ि‍लोसोफ़ी – जे.बी.एस. हाल्डेन
    51. इज़ थियरेटिकल फ़ि‍ज़ि‍क्स इन क्राइसिस, सर्न डाक्युमेण्ट सर्वर – हैरिएट जारलैट
    52. मार्क्स, माओ एण्ड मैथेमैटिक्स, द पॉलिटिक्स ऑफ़ इन्फ़ाइनाट्स्मल्स, डाक्युमेन्टा मैथेमेटिका, एक्स्ट्रा वाल्युम आईसीएम – जोसेफ़ डॉबेन
    53. सप्लिमेन्ट ऑफ़ प्रोग्रेस ऑफ़ थियरेटिकल फ़ि‍ज़ि‍क्स, वाल्यूम 50, 1971

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

उत्तर-मार्क्सवाद के ‘कम्युनिज़्म’ : उग्रपरिवर्तन के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी

उत्तर-मार्क्सवाद के ‘कम्युनिज़्म’ : उग्रपरिवर्तन के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी

 

  • शिवानी, बेबी

 

विचार

जब सिर्फ़ विचार होते हैं

अस्पष्ट होते हैं

प्रशंसनीय होते हैं।

विचार जब

व्यापकता पाते हैं

योजनाओं में ढलते हैं

योजनाएँ जब

गतिशील होती हैं

आपत्तियाँ सिर उठाती हैं।

       – बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

दार्शनिकों ने

दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है

पर सवाल उसको बदलने का है,

मानता हूँ।

लेकिन फि़लहाल मैं असन्तुष्ट हूँ

दुनिया की व्याख्याओं से

और मानता हूँ कि

नये बदलावों की हो रही व्याख्याएँ

या तो नाकाफ़ी या फिर ग़लत हैं

और यह कि

रुका हुआ है आज

दुनिया को बदलने का काम भी।

इसलिए अभी तो मैं

दुनिया की एक और व्याख्या कर रहा हूँ।

       – कात्यायनी (दुनिया को बदलने के बारे में कतिपय सुधीजनों के विविध विचार-1)

”उत्तर-मार्क्सवाद के ‘कम्युनिज़्म’” – इस विषय पर एक आलेख की ज़रूरत क्यों? क्या मार्क्सवाद का दौर बीत चुका है और कोई उत्तर-मार्क्सवादी दौर शुरू हो गया है? इस आलेख के आरम्भ में ही हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमारे विचार में एक विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद के सामने कोई संकट नहीं है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मार्क्सवाद पर विचारधारात्मक हमलों का सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है। फ़र्क़ बस इतना है कि 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने और 1990 में सोवियत संघ के औपचारिक विघटन के साथ विचारधारा और राजनीति की दुनिया में पूँजीवादी विजयवाद की उन्मत्त घोषणाओं की तरह ये नये बौद्धिक आक्रमण उतने खुले और आवरणहीन नहीं हैं। आज के दौर में, एक बार फिर, बुर्जुआ सांस्कृतिक और बौद्धिक उपकरण मार्क्सवाद पर नये हमले कर रहे हैं और कम्युनिस्ट आन्दोलन से लेकर छात्रों, बुद्धि‍जीवियों आदि के बीच विभ्रम पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं। यह भी अनायास नहीं है कि पूँजीवाद, अपने वर्चस्वकारी मैकेनिज़्म के ज़रिये सहज गति से तमाम कि़स्म के रंग-बिरंगे ‘रैडिकल’ बुद्धि‍जीवियों को पैदा कर रहा है, जो मार्क्सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं पर चोट कर रहे हैं। उत्तर-मार्क्सवादियों की एक पूरी धारा है जो उग्र-परिवर्तनवादी जुमलों का सहारा लेकर मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अर्न्तवस्तु पर निशाना साध रही है। ऐलन बेदियू, स्लावोय ज़िज़ेक, एण्टोनियो नेग्री, माइकल हार्ट, ज़ाक रैंसिये, अर्नेस्टो लाक्लाऊ, चैण्टेल माउफ़ आदि जैसे तमाम ”रैडिकल दार्शनिक” इसी उत्तर-मार्क्सवादी विचार-सरणि से आते हैं। एक बात जिसे यहाँ पर विशेष तौर पर रेखांकित करने की ज़रूरत है वह यह कि मार्क्सवाद पर जो भी विचारधारात्मक-बौद्धिक हमले होते रहे हैं या फिर हो रहे हैं, उनके नाम नये हो सकते हैं लेकिन उनकी अन्तर्वस्तु में कुछ भी नया नहीं है, जैसा कि एक बार एक अलग सन्दर्भ में ज्याँ पॉल सार्त्र ने कहा था। सार्त्र ने कहा था कि मार्क्सवाद-विरोधी विचारधाराएँ जो कुछ सही कह रही हैं, वह मार्क्सवाद पहले ही कह चुका है और जो कुछ वे नया कह रही हैं वह ग़लत है! उत्तर आधुनिकतावाद, उत्तर-संरचनावाद, प्राच्यवाद, उत्तर-प्राच्यवाद, सबऑल्टर्निज़्म जैसी तमाम ‘उत्तर-’ विचार-सरणियों की ”चुनौतियों” का क्या हश्र हुआ, यह हम सभी जानते हैं। ये सभी विचार-सरणियाँ विचारधारात्मक कोमा में पड़ी आख़िरी साँसें गिन रही हैं! उत्तर-मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धान्त इन्हीं कि़स्म-कि़स्म की ‘उत्तर-’ विचार सरणियों का एक ‘अपग्रेडेड वर्जन’ है।

हालाँकि मार्क्सवाद पहले ही ऐसे तमाम विचारधारात्मक और सैद्धान्तिक हमलों का जवाब दे चुका है; लेकिन आज जो नये विचारधारात्मक हमले हैं, वे कम से कम ऊपर से पूँजीवाद की अन्तिम विजय की बात नहीं कर रहे हैं। उल्टा वे पूँजीवाद से आगे जाने और कई बार ‘कम्युनिज़्म’ की बात कर रहे हैं। लेकिन जैसे ही आप उनके ‘कम्युनिज़्म’ के विस्तार में जाते हैं तो आप पाते हैं कि उसमें नाम के अतिरिक्त कुछ भी कम्युनिस्ट नहीं है! वे मार्क्सवाद से ज़्यादा ‘रैडिकल’ किसी विचारधारा की माँग रख रहे हैं, मार्क्सवाद से आगे जाने का दावा कर रहे हैं, और मार्क्स की शिक्षाओं की प्रासंगिकता समाप्त होने का दावा कर रहे हैं; उनका दावा है कि हम मार्क्सवादी कम्युनिज़्म से आगे आ चुके हैं और अब उत्तर-मार्क्सवादी कम्युनिज़्म का दौर है! आगे हम इनके उत्तरमार्क्सवादी ‘कम्युनिज़्मों’ की अन्तर्वस्तु की विस्तार से पड़ताल करेंगे। लेकिन एक बात तय है कि एक बार फिर क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन का एक अहम कार्यभार यह भी बन जाता है कि ऐसे विचारधारात्मक हमलों के बरक्स न सिर्फ़ मार्क्सवाद की दृढ़ता से हिफ़ाजत की जाये बल्कि इन हमलों का मुँहतोड़ जवाब भी दिया जाये और दिखलाया जाये कि इन ‘नये’ हमलों में कुछ भी नया नहीं है और दरअसल पुराने बुर्जुआ सिद्धान्तों की ‘शराब’ को ही नयी फ़ैशनेबुल फ़्रांसीसी दर्शन की ‘बोतल’ में परोस दिया गया है। विशेषकर उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तन पर कठोरता से चोट किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि इस चिन्तन सरणि के अधिकांश रैडिकल ‘दार्शनिक’ एक नये कि़स्म के ‘कम्युनिज़्म’ की बात कर रहे हैं। क्रान्तिकारी छात्रों-युवाओं और बुद्धिजीवियों का भी एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा इन उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तकों के ”चिन्तनों” के प्रभाव में आकर इनके मार्क्सवाद-विरोधी विजातीय विचारों को ही मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म का सिद्धान्त मानने की भूल कर रहे हैं। अब आप कल्पना कीजिए, स्लावोय ज़िज़ेक और ऐलन बेदियू जैसे उत्तर-मार्क्सवादी सिद्धान्तकार लेनिन और माओ की संकलित रचनाओं का सम्पादन करते हुए जो प्रस्तावनाएँ और परिशिष्ट लिख रहे हैं, उनमें वे कौन से विचार व्यक्त कर रहे हैं? ये दोनों ही और इनके अलावा अन्य उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तक भी, लेनिन, माओ और साथ ही मार्क्स का भी, अपने उत्तर-मार्क्सवादी दर्शन के अनुरूप हस्तगतीकरण (ंappropriation) करते हैं और वस्तुतः मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु पर चोट करते हैं। इस तरह ये सभी ‘रैडिकल विचारक’ क्रान्ति के भर्ती केन्द्रों और भावी पाँतों में विभ्रम और विचारधारात्मक प्रदूषण फैलाने का काम कर रहे हैं। इसलिए इन्हें माक़ूल जवाब देना आज का एक ज़रूरी कार्यभार है। साथ ही इस उत्तर-मार्क्सवादी दर्शन के ग़ैर-मार्क्सवादी सैद्धान्तिकीकरणों का प्रभाव भारत समेत दुनिया भर के वामपन्थी दायरे के कुछ हिस्सों पर भी है, परिणामस्वरूप जिसका ‘रिपल इफ़ेक्ट’ अन्य स्थानों (कॉलेज, विश्वविद्यालय, बौद्धिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठान) पर देखा जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में भी देखें तो उत्तर-मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धान्त की एक प्रबल मार्क्सवादी आलोचना आज के दौर का एक महत्वपूर्ण विचारधारात्मक कार्यभार बन जाता है। यह आलेख इसी दिशा में एक प्रयत्न है।

उत्तर-मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी की विस्तृत और वृहत् समालोचना में जाने से पहले हम यहाँ कुछेक बातें साझा कर लेना चाहते हैं। हम अपने आलेख में विभिन्न उत्तर-मार्क्सवादी सिद्धान्तकारों के राजनीतिक दर्शन से जुड़े सैद्धान्तिकीकरणों की पड़ताल करेंगे। विशेष तौर पर यह आलेख इस पर केन्द्रित होगा कि बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों (ख़ास तौर पर रूस और चीन में हुए प्रयोगों), समाजवादी संक्रमण और कम्युनिज़्म के विषय में उत्तर-मार्क्सवादी अवस्थिति क्या है; साथ ही, भविष्य की राजनीति/मुक्तिकामी राजनीति (Emancipatory politics) पर तमाम उत्तर-मार्क्सवादी दार्शनिकों के क्या विचार हैं, हम इसकी भी पड़ताल करेंगे। इसके अलावा उत्तर-मार्क्सवाद के प्रमुख दार्शनिक राजनीतिक स्रोतों और प्रभावों की भी चर्चा हम करेंगे। एक बात जिसे हम यहाँ पर ज़ोर देकर रेखांकित करना चाहते हैं वह यह कि उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तन की एक सम्पूर्ण दार्शनिक समालोचना इस आलेख की विषय-वस्तु नहीं है। राजनीतिक-विचारधारात्मक मुद्दों पर इस चिन्तन-सरणि की आलोचना के लिए जहाँ हमें उसके दार्शनिक मूलों पर जाना पड़ा, केवल वहीं हम उसके दर्शन का जि़क्र करेंगे। वैसे राजनीतिक-विचारधारात्मक समालोचना अपने आप में उत्तर-मार्क्सवाद के दर्शन के बारे में भी काफ़ी कुछ बताती है।

उत्तर-मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी का इतिहास-भूगोल एवं मुख्य
दार्शनिक-राजनीतिक स्रोत

जिसे आमतौर पर उत्तर-मार्क्सवाद की संज्ञा दी जाती है, वह अपने आप में कोई एकाशमी (monolithic) या सजातीय (homogeneous) चिन्तन-प्रणाली नहीं है। कई मुद्दों पर इस विचार-सरणि के तहत आने वाले सिद्धान्तकार एक-दूसरे की बातों को काटते हुए भी नज़र आते हैं। हालाँकि तमाम भिन्नताओं और वैषम्य के बावजूद मार्क्सवाद की मूल क्रान्तिकारी प्रस्थापनाओं के खण्डन और बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के नकारात्मक आकलन के विषय में यह सभी सिद्धान्तकार एक मत हैं। इनमें से अधिकांश जिस नये कम्युनिज़्म की बात करते हैं, वह मार्क्सवादी नहीं होगा! बीसवीं सदी के मार्क्सवादी कम्युनिज़्म का अन्त एक विपदा/दुर्गति में हुआ, इसलिए एक नये कि़स्म के कम्युनिज़्म की ज़रूरत है! आज के दौर में पार्टी और राज्य जैसी अवधारणाएँ अप्रासंगिक हो चुकी हैं (श्रीमान बेदियू)! पूँजीपति वर्ग के बजाय ये दमनकारी ‘शासक’ (rulers) और सर्वहारा वर्ग की जगह ‘बहुसंख्या’ (multitude) शब्द का इस्तेमाल बहुत पसन्द और चाव के साथ करते हैं; पूँजी, उत्पादन, सम्पत्ति आदि जैसी श्रेणियों की जगह ये साझा (commons) की बात करना पसन्द करते हैं (श्रीमान नेग्री व श्रीमान हार्ट तथा श्रीमान ज़िज़ेक भी)! कुछ ऐसे हैं जो मार्क्सवादी कम्युनिज़्म के आगे जाने का भी दावा नहीं करते, और उसे मानने का भी दावा नहीं करते, न ही वे राज्य और पार्टी की ज़रूरत के बारे में कुछ साफ़ कहते हैं; सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में भी हर वर्ष वे नियम से अवस्थिति बदलते हैं; लेकिन इतना वे ज़रूर कहते हैं कि बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोग एक ‘आपदा’ के रूप में ख़त्म हुए और इसलिए आज के कम्युनिज़्म का ‘विचार’ उससे सर्वथा भिन्न होगा और नारा देते हैं कि ‘बीसवीं सदी बीत गयी!’ (श्रीमान् ज़िज़ेक)! कुछ इन सब बातों में यह जोड़ देते हैं कि सर्वहारा वर्ग/दमित वर्ग/अधीनस्थ वर्ग को किसी नेतृत्व या हिरावल की आवश्यकता नहीं है; वे दमित की ”स्वशिक्षा” के पक्षधर हैं और कहते हैं आज की ज़रूरत मार्क्सवाद से ज़्यादा रैडिकल सोच की है, क्योंकि मार्क्सवाद स्वयं सत्तावादी, दमनकारी और अपचयनवादी है (श्रीमान रैंसिये)! इसके अलावा कुछ ऐसे हैं जिन्होंने हर प्रकार की सार्वभौमिकता (universality) का नाश करने की ठान रखी है और कह रहे हैं कि सार्वभौमिकता, निरपेक्षता, सामान्यता की सभी बातें वास्तव में दमनकारी होती हैं; इसलिए हमें खण्डों की हिफ़ाज़त में तन-मन-धन से लग जाना चाहिए, यानी कि, वर्ग जैसी अवधारणाएँ, सर्वहारा वर्ग की एकता जैसी अवधारणाएँ ही दमनकारी हैं और हमें टुकड़ों का जश्न मनाना चाहिए (सुश्री जुडिथ बटलर, श्रीमान लाक्लाऊ व सुश्री माउफ़)।

इन तमाम ”मौलिक” प्रस्थापनाओं के बाद ऐसे सभी ”दार्शनिकों” को सट्टेबाज़ (speculative) और बहेतू (vagabond) दार्शनिक ही कहा जा सकता है क्योंकि इनके ”चिन्तन” की कोई धुरी नहीं है। आप अगर ग़ौर करें तो पायेंगे कि तमाम रैडिकल तेवर, उग्रपरिवर्तनवादी जुमलों और नये कि़स्म की मुक्तिकामी राजनीति का पक्ष रखने के दावों के बावजूद इनका निशाना ठीक वे अवधारणाएँ हैं जो मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु का निर्माण करती हैं। मिसाल के तौर पर वर्ग की अवधारणा, सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा, वर्ग के हिरावल के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी की अवधारणा, पूँजी की अवधारणा, अलगाव और शोषण की अवधारणा, आदि। ये तमाम उत्तर-मार्क्सवादी ”स्पेक्युलेटिव दार्शनिक” या तो इन अवधारणाओं को नकार देते हैं या उन्हें विकृत कर देते हैं। इनकी छद्म दार्शनिक जालसाज़ि‍यों (जो कि आम तौर पर फै़शनेबल उत्तर-आधुनिकतावादी, फ़्रांसीसी दार्शनिक शब्दावली के आवरण में परोसी जाती हैं) को समझना हो तो इनका दार्शनिक और राजनीतिक स्रोत देखना होगा। वास्तव में, इनमें से अधिकांश का स्रोत वही है जो कि उत्तर-आधुनिकतावादी विचार सरणियों का था – यानी, मई 1968 का छात्र-मज़दूर आन्दोलन जिसका केन्द्र पेरिस था। सोवियत साम्राज्यवाद के पूर्वी यूरोप में किये गये हस्तक्षेप और पूर्वी यूरोप के छद्म समाजवादी देशों में जनता का अनुभव 1960 के दशक में सोवियत साम्राज्यवाद के प्रति आक्रोश का कारण बना। यूरोप में और विशेषकर फ़्रांस में तमाम ऐसे राजनीतिक और दार्शनिक चिन्तक थे, जिनकी विचारधारात्मक शुरुआत एक मार्क्सवादी के रूप में हुई थी, लेकिन बाद में सोवियत साम्राज्यवाद के अनुभव के कारण उनका मोहभंग मार्क्सवाद से ही हो गया क्योंकि वे क्रान्तिकारी मार्क्सवाद और संशोधनवाद, समाजवाद और सामाजिक-साम्राज्यवाद के बीच फ़र्क़ नहीं देख पाये। बेदियू, ज़ि‍जे़क, नेग्री जैसे तमाम उत्तर-मार्क्सवादियों की वर्तमान राजनीतिक अवस्थिति के मूल को यूरोपीय वाम की, यूरोपीय, विशेषकर फ़्रांसीसी कम्युनिस्ट पार्टी के संशोधनवाद और सोवियत संघ के सामाजिक फ़ासीवाद और सामाजिक साम्राज्यवाद के कुकृत्यों से पैदा हुए राजनीतिक ‘ट्रामा’ में देखा जा सकता है। यूरोपीय देशों की कम्युनिस्ट पार्टियाँ, मिसाल के तौर पर फ़्रांसीसी कम्युनिस्ट पार्टी (पी.सी.एफ़.), इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी (पी.सी.आई.) आदि 1960 के दशक से ही संशोधनवाद का रास्ता पकड़ चुकी थीं। 1953 में सोवियत संघ में ख्रुश्चेवी संशोधनवाद आने के बाद भी ये तमाम पार्टियाँ उसका समर्थन कर रही थीं और हंगरी, पोलैण्ड, चेकोस्लोवाकिया जैसे पूर्वी यूरोप के देशों में सोवियत साम्राज्यवाद के कुकृत्यों को लेकर या तो चुप थीं या समझौतापरस्त अवस्थिति अपना रही थीं। ऐसे में, इन संशोधनवादी सामाजिक-जनवादी पार्टियों से मोहभंग हो जाना लाजि़मी था। लेकिन मई 1968 में यूरोपीय वाम और यूरोपीय रैडिकल बुद्धि‍जीवी वर्ग ने सोवियत संशोधनवाद और उसके कुकर्मों और यूरोपीय सामाजिक-जनवादी पार्टियों के सुधारवाद और बुर्जुआ सत्ता से प्रणय पर जो प्रतिक्रिया दी, वह एक रोगात्मक प्रतिक्रिया (pathological reaction) थी, क्योंकि उसमें कोई आलोचनात्मक विवेक नहीं था। सोवियत संशोधनवादी पार्टी और सामाजिक साम्राज्यवादी व सामाजिक फ़ासीवादी राज्य के अपराधों को मार्क्सवाद की पार्टी, राज्य और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की अवधारणा पर ही आरोपित कर दिया गया। बेदियू, ज़ि‍ज़ेक जैसे तमाम उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तक इसी पैथोलॉजिकल प्रतिक्रिया का अंग थे। साथ ही, उसी समय चीन में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति भी जारी थी, जिसे बहुतों ने ‘पार्टी के विरुद्ध क्रान्ति’ समझा (स्वयं बेदियू भी इसी समझदारी से ग्रस्त हैं।) कुल मिलाकर, नतीजा यह हुआ कि ये तथाकथित ‘नव दार्शनिक’ (New Philosophers) सारी बुराई की जड़ पार्टी और सर्वहारा अधिनायकत्व के सिद्धान्त को समझने लगे। इनमें से कुछ मार्क्सवाद को सर्वसत्तावादी, दमनकारी आदि कहते हुए उत्तर-आधुनिकतावाद की ओर चले गये, जैसे कि मिशेल फूको, ज़ाक देरीदा, आदि। और कुछ ऐसे थे जो नये कि़स्म के मार्क्सवाद की बात करने लगे! इनमें से कुछ अल्थूसर के छात्र थे। ऐलन बेदियू, ज़ाक रैंसिये आदि जैसे तमाम उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तक इसी श्रेणी में आते हैं। हम देख सकते हैं कि जिन दार्शनिकों को या उत्तर-मार्क्सवादी सट्टेबाज़ दार्शनिक कहा गया है, उनकी वर्तमान राजनीतिक अवस्थिति के ईंधन का स्रोत दार्शनिक भ्रम-विभ्रम की यही भट्ठी है।

इसके अतिरिक्त, उत्तर-मार्क्सवादी सिद्धान्तकारों की ‘उग्रपरिवर्तनवादी’ प्रस्थापनाओं का राजनीतिक स्रोत यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन के कुछ विशेष हिस्सों में, जैसे कि इटली और स्पेन के मज़दूर आन्दोलनों में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही मौजूद ‘मज़दूरवाद’ (workerism) और स्वतःस्फूर्तवाद (spontaneism) की प्रवृत्तियाँ भी हैं। मार्क्सवाद-विरोधी ये पेटी-बुर्जुआ प्रवृत्तियाँ मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता की अन्धपूजा और आदर्शीकरण (idealization) तो करती ही हैं साथ ही मार्क्सवाद की हिरावल पार्टी की अवधारणा को ख़ारिज भी करती हैं। आज एक बार फिर दुनिया भर के और भारत के भी मज़दूर आन्दोलन में तमाम ऑटोनोमिस्ट (Autonomist), ‘मज़दूरवादी’, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी ताक़तें जड़ जमाने की कोशिश कर रही हैं और अपनी इन मार्क्सवाद-विरोधी, विजातीय प्रवृत्तियों का वैचारिक ईंधन वर्तमान में उत्तर-मार्क्सवादियों के अराजकतावाद और ऑपराइज़्मो (Operaismo) की सैद्धान्तिकी से ग्रहण कर रही हैं।

उत्तर-मार्क्सवादी दर्शन के मुख्य स्रोतों की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद हम इस विचार-सरणि के प्रातिनिधिक उदाहरण के तौर पर ऐलन बेदियू, स्लावोय ज़ि‍ज़ेक, एण्टोनियो नेग्री-माइकल हार्ट, अर्नेस्टो लाक्लाऊ-चैण्टल माउफ़ के राजनीतिक, विचारधारात्मक सैद्धान्तिकीकरणों की पड़ताल करेंगे, नये कि़स्म के कम्युनिज़्म या भविष्य की मुक्तिकामी राजनीति (emancipatory politics of future) पर उनके ”विचारों” और ”चिन्तनों” की संक्षिप्त समीक्षा करेंगे और साथ ही, बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों पर उनकी अवस्थिति का भी मूल्यांकन प्रस्तुत करेंगे। शुरुआत हम ऐलन बेदियू के ‘कम्युनिज़्म’ के विचार से करेंगे।

ऐलन बेदियू का ”कम्युनिज़्म” का विचार या परिवर्तन की परियोजना से क्रान्तिकारी अभिकरण छीनने की निर्लज्ज और हताश कवायद

दार्शनिकों ने

दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है

पर सवाल उसको बदलने का है।

अब चूँकि दुनिया बदलना

मेरे वश की बात नहीं

इसलिए मैं इसकी

एक और व्याख्या कर रहा हूँ

और जो थोड़ी बहुत कोशिशें हो रही हैं

दुनिया बदलने की

उनकी समीक्षा कर रहा हूँ।

       – कात्यायनी (दुनिया बदलने के बारे में कतिपय सुधीजनों के विविध विचार-3)

”मार्क्सवाद, मज़दूर आन्दोलन, सामूहिक जनवाद, लेनिनवाद, सर्वहारा वर्ग की पार्टी, समाजवादी राज्य – ये सभी जो बीसवीं शताब्दी के आविष्कार हैं – अब हमारे लिए अपनी उपयोगिता खो चुके हैं। सैद्धान्तिक धरातल पर ये ज़रूर अध्ययन और समीक्षा की माँग करते हैं – लेकिन व्यावहारिक राजनीति में अब ये किसी काम के नहीं रह गये हैं।”

– ऐलन बेदियू, 2008

ऐलन बेदियू और ‘कम्युनिज़्म’ के विचार-विषयक उनकी सैद्धान्तिकी पिछले कुछ समय से आम बौद्धिक हलकों में ही नहीं बल्कि वामपन्थी दायरों में भी चर्चा का विषय बने हुए हैं। भारत के कई बौद्धिक समूह और क्रान्तिकारी संगठन भी बेदियू पर चर्चा कर रहे हैं। अन्य देशों के कम्युनिस्ट ग्रुपों में भी बेदियू का सिद्धान्त चर्चा का विषय बना हुआ, बल्कि कहना चाहिए कि भ्रम का स्रोत बना हुआ है। भारत के भी कुछ अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी कम्युनिस्ट समूहों को बेदियू से काफ़ी-कुछ सीखने काे मिल रहा है! बेदियू ख़ुद को ‘कम्युनिज़्म की वापसी’ की उद्घाेषणा करने वाले सिद्धान्तकार के रूप में पेश कर रहे हैं। इसके चलते ही कुछ लोग इन्हें इस दौर का सबसे बड़ा ‘कम्युनिस्ट’ दार्शनिक बता रहे हैं। बेदियू 2010 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘दि कम्युनिस्ट हाइपोथीसिस’ में ही ‘कम्युनिज़्म’ के विचार संबंधी अपनी परिकल्पना (hypothesis) प्रस्तुत करते हैं, साथ ही, उक्त पुस्तक में ही वे बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के विषय में अपनी अवस्थिति रखते हैं। इसलिए इस पुस्तक में उनके तमाम सैद्धान्तिकीकरणों की समीक्षा के ज़रिये ही हम बेदियू के ‘कम्युनिज़्म’ के विचार की वास्तविक राजनीति की विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु तक पहुँच सकते हैं।

‘दि कम्युनिस्ट हाइपोथीसिस’ अलग से लिखी गयी कोई किताब नहीं है, बल्कि बेदियू द्वारा अलग-अलग समय पर लिखे गये लेखों या दिये गये व्याख्यानों का संकलन है। इस किताब का मुख्य स्रोत 2008 में बेदियू द्वारा ‘न्यू लेफ़्ट रि‍व्यू’ के लिए इसी नाम से लिखा गया वह निबन्ध है जिसमें बेदियू 2007 के राष्ट्रपति चुनावों में निकोलस सारकोज़ी की जीत के ऐतिहासिक महत्व की पड़ताल करते हैं।

इसके अलावा, मार्च 2009 में लंदन में ‘कम्युनिज़्म का विचार’ (‘दि आइडिया ऑफ़ कम्युनिज़्म’) नाम से आयोजित एक कॉन्फ्रेंस में बेदियू द्वारा प्रस्तुत किया गया वक़्तव्य भी इस पुस्तक का एक स्रोत है। यहाँ बताते चलें कि इस सम्मेलन में बेदियू के अलावा स्लावोय ज़िजे़क, जुडिथ बालसो, ब्रूनो बोस्तील्स, टेरी ईगलटन, पीटर हॉलवर्ड, माइकल हार्ट, एण्टोनियो नेग्री, ज़ाक रैंसिये, एलेक्सान्द्रो रूसो, एल्बर्टो टस्कानो, जियानी वातिमो जैसे तमाम क़ि‍स्म के मार्क्सवादियों, नव-मार्क्सवादियों और उत्तर-मार्क्सवादियों ने शिरकत की थी।

बेदियू के ‘कम्युनिज़्म’ विषयक सैद्धान्तिकीकरणों की विस्तृत समीक्षा में जाने से पहले यहाँ कुछेक बातें स्पष्ट करना आवश्यक है। पहली बात यह कि बेदियू का कम्युनिज़्म का विचार या सिद्धान्त एक गै़र-मार्क्सवादी कम्युनिज़्म की बात करता है और मार्क्सवादी विचारधारा को भविष्य की मुक्तिकामी राजनीति (emancipatory politics) के लिए अपर्याप्त, अप्रासंगिक और ग़ैर-ज़रूरी मानता है। दूसरी बात यह कि बेदियू का कम्युनिज़्म का विचार अनैतिहासिक है। बेदियू के अनुसार कम्युनिज़्म का यह विचार अनादि-अनन्त (eternal) है। यह मानवता के उद्भव के साथ ही जन्म ले चुका था। उनके लिए प्लेटो का दि रिपब्लिक, रूसो का सोशल कॉण्ट्रैक्ट, फ़्रांसीसी क्रान्ति और जैकोबिन आतंक-राज्य, पेरिस कम्यून और मार्क्सवादी कम्युनिज़्म (जो 1917 की बोल्शेविक क्रांति के साथ शुरू होता है और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति के साथ ख़त्म होता है) कम्युनिज़्म के शाश्वत विचार (eternal idea) की यात्रा के अलग-अलग क्षण, पड़ाव या मील के पत्थर हैं। तीसरी बात यह कि बेदियू के अनुसार बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोग दुर्गति/विपदा में समाप्त हुए। उनका मानना है कि सोवियत संघ और चीन में क्रान्तियों की मुक्तिकामी सम्भावना-सम्पन्नता को पार्टी-राज्य के फ्रे़मवर्क, हिरावल पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व और समाजवादी राज्यसत्ता ने पहले बाधित किया और फिर पूरी तरह नष्ट कर दिया। और चौथी बात यह कि इस सारे ”विश्लेषण” से बेदियू इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कम्युनिज़्म के विचार और मुक्ति की राजनीति को क्रान्ति के ‘पैराडाइम’ में अवस्थित नहीं किया जा सकता है और न ही पार्टी-राज्य के फ्रे़मवर्क का ‘बन्दी’ बनाया जा सकता है। और यह भी कि ”क्रान्तियों का युग” बीत चुका है। अपनी पुस्तक ‘दि कम्युनिस्ट हाइपोथीसिस’ में बेदियू इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।

बेदियू अपनी पुस्तक की शुरुआत में कहते हैं कि 1970 की ‘लाल दशाब्दी’ के अन्त के साथ पश्चिमी पूँजीवादी देशों का कम्युनिज़्म-विरोध एक बार फिर ज़ोर-शोर के साथ सामने आया। ‘नये दर्शन’ के हिमायतियों ने समाजवादी राज्यों की ‘निरंकुशता और सर्वसत्तावाद’ पर ख़ूब शोर मचाया और बुर्जुआ संसदवाद और प्रातिनिधिक जनवाद की अच्छाइयों को गिनाना शुरू कर दिया। इस उन्मादी हर्षोल्लास के पीछे जो तर्क काम कर रहा था वह यह था कि समाजवाद, जो कि कम्युनिस्ट विचार का एकमात्र मूर्त रूप था, बीसवीं सदी में पूरी तरह विफल हो गया। इसके बाद बेदियू कहते हैं कि इसलिए विफलता के विचार पर आज ”विचार” करने की आवश्यकता है। बेदियू पूछते हैं कि जब हम कहते हैं कि कम्युनिस्ट हाइपोथीसिस (परिकल्पना) के अमलीकरण के तौर पर जो समाजवादी प्रयोग हुए, उनका अन्त ‘विफलता’ में हुआ, तो हमारा मतलब क्या होता है? क्या वे पूरी तरह से असफल हुए? क्या इसका मतलब है कि हम इस परिकल्पना को ही त्याग दें या मुक्ति की पूरी समस्या को ही तिलांजलि दे दें? बेदियू को यहाँ तक पढ़ने पर पाठक के मन में उम्मीदें जगने लगती हैं, लेकिन ये उम्मीदें ज़्यादा देर तक नहीं ठहरतीं। क्योंकि इसके बाद बेदियू जो स्वर अपनाते हैं, वह वही पुराना राग है – चूँकि बीसवीं सदी की क्रान्तियाँ पार्टी-राज्य के फ्रे़मवर्क में क़ैद थीं, इसलिए वे असफल होने के लिए अभिशप्त थीं। यह प्रश्न बेदियू यहाँ इस प्रकार उठाते हैं कि बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों ने जो रूप अपनाया और जो रास्ता अख़्तियार किया, क्या उसी में तो इस ‘विफलता’ के कारण अन्तर्निहित नहीं हैं और इसलिए ‘विफलता’ उनकी नियति थी? यहाँ यह बात जोड़नी ज़रूरी है कि इस पूरी पुस्तक में, या फिर बेदियू की अन्य सभी कृतियों में भी, बीसवीं सदी में मज़दूर वर्ग द्वारा किये गये समाजवाद के प्रयोगों को बिना किसी वैज्ञानिक-ऐतिहासिक विश्लेषण को इस्तेमाल किये ही एक ‘त्रासदी’ या ‘आपदा’ मान लिया गया है। ज़िजे़क के लेखन की तरह यहाँ भी यह नतीजा आकाशवाणी के समान (axiomatic) है।

दूसरी बात यह कि रूस और चीन में समाजवादी प्रयोगों का पतन या विफलता किस दौर में शुरू होती है, इसकी भी कोई समझदारी बेदियू के लेखन में आपको नहीं मिलेगी। पश्चिमी साम्राज्यवादी प्रोपगैण्डा मशीनरी की तरह यहाँ पर भी 1990 में सोवियत संघ के विघटन तक समाजवाद का दौर क़ायम माना जाता है! 1956 के बाद सोवियत संघ की अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक साम्राज्यवादी भूमिका और देश के अन्दर जनता के ख़ि‍लाफ़ सामाजिक फ़ासीवादी भूमिका को ही समाजवाद के रूप में चित्रित किया जाता है। हालाँकि बेदियू के लिए कम्युनिज़्म की अपनी परिकल्पना के लिए इस ‘विफलता’ की कालिकता या स्थानिकता (temporality and spatiality) को स्पष्ट करना ज़रूरी नहीं है क्योंकि इस परिकल्पना के अनुसार तो 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति के साथ ही समाजवाद की ‘विफलता’ का दौर शुरू हो गया था; आख़िर इस क्रान्ति ने ही तो कम्बख़्त पार्टी-राज्य के ‘पैराडाइम’ को संस्थाबद्ध और सुव्यवस्थित किया था! इसलिए बेदियू इस पुस्तक में और अन्यत्र भी, 1917 से 1953 तक के दौर की कभी चर्चा नहीं करते। इस पूरे दौर का समाहार वह यह कह कर देते हैं कि पार्टी-राज्य ने एक नयी क़ि‍स्म की ”निरंकुशता” को जन्म दिया जिसकी मुख्य आभिलाक्षणिकताएँ थीं- ‘पुलिस द्वारा दमन’ और ‘आन्तरिक नौकरशाहाना जड़ता’। क्या इस समझदारी पर उन्हीं आलोचनाओं की छाप नज़र नहीं आती जो अलग-अलग तरीक़े से लियॉन त्रात्स्की, रॉय मेदवेदेव, इज़ाक डॉइशर, मार्क फ़ेरो जैसे लोग करते हैं? हालाँकि इन सब में काफ़ी मतान्तर और विविधता है लेकिन रूसी क्रान्ति और समाजवादी मज़दूर सत्ता को और विशेष तौर पर स्तालिन के नेतृत्व में समाजवाद के निर्माण को कोसने में गहरी एकता है?

इसके बाद बेदियू तीन प्रकार की विफलताओं की बात करते हैं। पहली प्रकार की ‘विफलता’ वह है जिसमें क्रान्तिकारी कुछ समय के लिए किसी देश या किसी विशिष्ट इलाक़े में सत्ता पर काबिज़ होते हैं लेकिन हथियारबन्द प्रतिक्रान्तिकारी ताक़तों द्वारा कुचल दिये जाते हैं। इस ‘विफलता’ के तौर पर वह पेरिस कम्यून और रोज़ा लग्ज़मबर्ग और कार्ल लीबनेख़्त के नेतृत्व में प्रथम-विश्वयुद्ध के बाद की स्पार्टकिस्ट बग़ावत का उदाहरण देते हैं। दूसरे प्रकार की ‘विफलता’ के उपशीर्षक के तहत वे उन व्यापक जनान्दोलनों को गिनाते हैं जिनका मक़सद सत्ता हथियाना होता ही नहीं है, हालाँकि ये आन्दोलन कुछ समय के लिए राज्य की प्रतिक्रियावादी ताक़तों को रक्षात्मक मुद्रा में आने के लिए बाध्य करते हैं। इसके उदाहरण के तौर पर वह मई 1968 का आन्दोलन गिनाते हैं। फिर बेदियू तीसरे प्रकार की ‘विफलता’ का चर्चा करते हैं जिसके तहत वे बिना कोई फ़र्क़ किये बीसवीं सदी के सभी समाजवादी प्रयोगों को गिनाते हैं जिनमें कम्युनिस्ट परिकल्पना के अमलीकरण के नाम पर ”पार्टी-राज्य का आतंक राज्य क़ायम हुआ” और कम्युनिज़्म के विचार को ही त्याग दिया गया! अपनी प्रस्तावना का अन्त बेदियू ”प्वाइण्ट” (बिन्दु या क्षण) की अपनी अवधारणा से करते हैं। आम तौर पर भी इस पुस्तक में जहाँ-तहाँ बेदियू उत्तर-मार्क्सवादियों की पसन्दीदा हेगेलीय दर्शन और लकानीय मनोविश्लेषण की श्रेणियों का इस्तेमाल करते नज़र आते हैं, उदाहरण के लिए बेदियू की ”ट्रूथ-प्रोसीजर”, ”इवेण्ट”, ”सब्जेक्ट” इत्यादि की अवधारणा आदि, मगर फि़लहाल हम पहले ”प्वाइण्ट” की बेदियू की अवधारणा पर विचार करते हैं। ”प्वाइण्ट” की अवधारणा को व्याख्यायित करते हुए बेदियू कहते हैं कि किसी भी मुक्तिकामी राजनीति के क्रम या श्रृंखला में (यानी कि किसी भी क्रान्ति के दौरान) यह वह क्षण होता है जिसमें विकल्प की ‘बाइनरी’ पर (यानी कि इस प्रश्न पर कि विकल्प ‘क’ अपनाया जाये या विकल्प ‘ख’) उस पूरी प्रक्रिया का भविष्य निर्भर करता है। वे आगे कहते हैं कि हमें यह समझना होगा कि सभी ”विफलताओं” का कारण इसी क्षण पर लिये गये फै़सलों में अन्तर्निहित है। सीधे-साफ़ शब्दों में कहें तो बेदियू के कहने का अभिप्राय यह है कि पेरिस कम्यून के अनुभवों के बाद, पहले मार्क्स और फिर लेनिन द्वारा, हिरावल पार्टी और सर्वहारा राज्य-सत्ता (सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व) की प्रस्थापनाओं का प्रतिपादन ही इस क्षण पर लिये गये ग़लत फैसले थे। यह ‘मूल पाप’ था; नाजुक मौक़े पर ग़लत फ़ैसला! और यहीं से सारी ग़लती और विफलता की शुरुआत होती है! बेदियू अपनी इसी थीसिस को इस पुस्तक के बाकी हिस्सों में स्पष्ट करते चलते हैं और हर स्पष्ट अवधारणा को इस प्रक्रिया में अस्पष्ट करते जाते हैं।

अन्यत्र बेदियू कहते हैं कि मई 1968 की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। इसके बाद बेदियू मई 1968 की विजातीयता और बहुलता की बात करते हुए कहते हैं कि मई 1968 कोई एकाश्मीय परिघटना नहीं थी बल्कि चार अलग-अलग परिघटनाओं की जटिलता लिये हुए थी (बेदियू स्वयं भी इस आन्दोलन का हिस्सा थे)। पहला मई 1968 वह था जिसमें विश्वविद्यालय और स्कूलों के छात्रा-छात्राएँ हिस्सा ले रहे थे, यानी कि जिसका मुख्य तत्व छात्र-आन्दोलन था। दूसरा मई 1968 मज़दूर आन्दोलन के इर्द-गिर्द केन्द्रित था, जिसमें सी.जी.टी. (जनरल कॉनफ़ेडरेशन ऑफ़ लेबर – एक संशोधनवादी ट्रेड यूनियन संघ) और अन्य यूनियनों द्वारा आयोजित हड़तालों के साथ ही परम्परागत यूनियन के सांगठनिक ढाँचे के बाहर भी मज़दूरों द्वारा आयोजित हड़तालें थीं, जिन्हें ”वाइल्डकैट स्ट्राइक्स” की संज्ञा दी जाती थी। इस दौरान फैक्ट्रियों पर कब्ज़ा आम बात थी। तीसरे मई 1968 को स्वच्छन्तावादी (लिबर्टैरियन) मई कहा जा सकता है जिसमें पेटी बुर्जुआ वर्ग की वैयक्तिक स्वतन्त्राता का मुद्दा अहम था। इसकी अभिव्यक्ति उस दौर के कला साहित्य, सिनेमा में भी नज़र आती है। इसके बाद बेदियू चौथे मई 1968 की चर्चा पर आते हैं, जो उनके अनुसार उपरोक्त सभी से कहीं ज़्यादा ज़रूरी था। बेदियू के अनुसार यह इसलिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है क्योंकि यह राजनीति की पुरानी क्लासिकीय अवधारणाओं पर – जैसे पार्टी, यूनियन आदि पर – सवाल उठा रहा था। इस कथन में आंशिक सच्चाई है। जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं 1960 के दशक से ही फ़्रांसीसी कम्युनिस्ट  पार्टी (पी.सी.एफ़.) संशोधनवाद के रास्ते पर चल चुकी थी। जहाँ तक सी.जी.टी. जैसी संशोधनवादी, अराजकतादी-संघातिपत्यवादी यूनियनों का सवाल था, तो उनकी स्थिति और अवस्थिति बहुत कुछ वर्तमान भारत में सीटू, ऐटक जैसी यूनियनों के जैसी ही थी। ऐसे में, पार्टी और यूनियनों का जो मॉडल मौजूद था, उससे मोहभंग होना लाज़िमी था और चूँकि उस समय कोई क्रान्तिकारी विकल्प मौजूद नहीं था जो इन स्वतःस्फूर्त जनउभार की कार्रवाइयों को संगठित कर सकता इसलिए मई 1968 बस मई 1968 बनकर ही रह गया। केवल विद्रोह की सफलता और असफलता की बात की जाये तो इसका अन्त उसी हताशा में हुआ, जिस हताशा में ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन और अरब बसन्त का हुआ है, हालाँकि मई 1968 का महत्व इस रूप में भी था कि इसके बाद तमाम ऐसी विचार-सरणियाँ पैदा हुईं जिनका अन्त ‘उत्तर’-वादी विचार-सरणियों में हो गया। इसका उल्लेख हम आलेख के पहले हिस्से में कर चुके हैं।

शायद बेदियू बिल्कुल इन्हीं कारणों से मई 1968 को लेकर इतना नॉस्टैलजिक हैं, क्योंकि मई 1968 ने पार्टी, राज्य और वर्ग अधिनायकत्व की बुनियादी अवधारणाओं पर प्रश्न उठाना शुरू किया। इस दौर में पुरानी क्लासिकीय अवधारणाओं पर खड़े हो रहे सवालों के तर्क को बेदियू बढ़ाते हुए मार्क्सवाद और क्रान्ति के विज्ञान को ख़ारिज करने तक ले जाते हैं। बेदियू कहते हैं कि ”धीरे-धीरे यह सत्य उजागर होने लगा था कि जो सामान्य भाषा, जिसका द्योतक लाल झण्डा था, हम सब बोल रहे थे, वह दरअसल मृत्यु को प्राप्त हो रही थी।” मई 1968 की असली अहमियत बेदियू के लिए यहाँ छिपी है।

बेदियू जैसे तमाम उत्तर-मार्क्सवादियों का हमला मूलतः मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु पर है। इस विषय में बेदियू की स्पष्टवादिता की दाद देनी पड़ेगी कि वह सीधे-सीधे यह कह भी देते हैं कि मार्क्सवाद, पार्टी और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की सोच पूरी तरह अप्रासंगिक हो चुकी है। चीन में 1966 में शुरू हुई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का भी बेदियू एक ग़ैर-पार्टीवादी विनियोजन करते हैं। बेदियू के अनुसार महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के साथ जो नया युग शुरू हुआ उसमें पार्टी-राज्य का फ्रे़मवर्क (यानी हिरावल पार्टी और सर्वहारा तानाशाही की मार्क्सवादी अवधारणाएँ) अब बेकार हो चुका है। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति पर बेदियू के विचारों की चर्चा हम आगे करेंगे। लेकिन यहाँ इस बात को रेखांकित करना ज़रूरी है कि मार्क्सवादी कम्युनिज़्म के बरक्स बेदियू के ”कम्युनिज़्म” के काण्टीय, हेगेलीय, लकानीय विचार के बावजूद, और शायद इसी वजह से, भी उनका निशाना एकदम ठीक वे अवधारणाएँ हैं जो मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अर्न्तवस्तु का निर्माण करती हैं।

राजनीतिक अर्थशास्त्र की बेहद अधकचरी और सीमित समझदारी का परिचय भी बेदियू  जहाँ-तहाँ अपने लेखन में देते चलते हैं। मसलन, बेदियू एक जगह कहते हैं कि वित्तीय पूँजीवाद पिछले 500 सालों से पूँजीवाद का एक केन्द्रीय संघटक अवयव रहा है! साम्राज्यवाद के ग़ैर-लेनिनवादी अध्येता और आम अकादमिक शोधकर्ता भी इस तरह की बचकानी प्रस्थापनाएँ नहीं देते हैं! मार्क्सवादी-लेनिनवादी विज्ञान को तो बेदियू ने पहले ही इतिहास की कचरा-पेटी के हवाले कर दिया है। हालाँकि कोई ग़ैर-मार्क्सवादी भी उपनिवेशवाद के प्राक्-वित्तीय दौर और वित्तीय दौर में फ़र्क़ करेगा, लेकिन बेदियू ऐसा नहीं कर पाते। क्योंकि, लकाँ और हेगेल के पोथों के बीच ही वे दब-से गये हैं! वैसे, सभी उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तकों के बारे में एक बात दावे से कही जा सकती है – इन्हें राजनीतिक अर्थशास्त्र का ‘क ख ग’ भी नहीं आता है। इस कमी को इतिहास की सुसंगत जानकारी और एक सन्तुलित ऐतिहासिक दृष्टि के अभाव के रूप में भी देखा जा सकता है। और कमी को ये बेदियू पूरा कैसे करते हैं? फ़्रांसीसी फ़ैशनेबल उत्तर-वाम की लच्छेदार शब्दावली में ऐतिहासिक तथ्यों के विकृतीकरण के अद्वितीय हुनर के ज़रिये! आमतौर पर बेदियू इतिहास के प्रति अवहेलना का दृष्टिकोण ही अपनाते हैं। लेकिन अपने राजनीतिक-दार्शनिक हित-साधन के लिए वह आत्मगत चयन करते हुए ऐतिहासिक तथ्यों का ब्यौरा देने से बाज़ नहीं आते हैं। वह इन तथ्यों को इस तरह तोड़-मरोड़ कर और मनमाने ढंग से पेश करते हैं कि उनकी अन्तर्वस्तु ही बदल जाती है। मसलन, महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति पर अपने विचार रखते हुए वे जमकर तथ्यों का ब्यौरा देते हैं, लेकिन यह आत्मगत पूर्वाग्रहों के साथ किया गया इतिहास का एक पाठ है, जिसमें नतीजे पहले ही तय कर लिये गये हैं और उनके आधार पर तथ्यों का चयन बाद में किया गया है।

बेदियू अपने लेखन में एक टटपुँजिया स्वच्छन्दतावादी की तरह (जो कि वह हैं!) रूमानीपन का प्रदर्शन करते हैं और छद्म आशावाद से ग्रस्त होकर कहते हैं कि आज सबसे अहम है विचारों और एक सामान्य परिकल्पना के प्रति अपने जुनून को एक बार फिर तलाशना (!), इस विश्वास के साथ की एक दूसरी दुनिया सम्भव है! ”हमें पूँजीवाद के घृणित तमाशे के बरक्स लोगों का, लोगों के जीवन का और विचारों के आन्दोलन का यथार्थ खड़ा करना होगा।” यह कैसे खड़ा होगा यह बताना बेदियू ज़रूरी नहीं समझते लेकिन अपनी पुरानी थीम पर वह ज़रूर एक बार फिर लौटते हैं (ऐसा करना वह कभी नहीं भूलते!)। वे कहते हैं कि हालाँकि ‘कम्युनिज़्म’ शब्द को ”सस्ता और वेश्या बना दिया गया है” लेकिन हम इसे लुप्त नहीं होने देंगे। चूँकि बेदियू ”कम्युनिज़्म” के इस विचार के तारणहार हैं, इसलिए वह ”कम्युनिज़्म” को बचाएँगे! एलेन बेदियू उसे अतीत के सारे अनुभवों से, क्रान्ति के सिद्धान्त से, समाजवादी राज्य से और हिरावल पार्टी के भारी-भरकम बोझ से इस ”शाश्वत” विचार को भारमुक्त करेंगे और ”मुक्ति की नयी राजनीति” गढ़ेंगे, जो क्या होगी यह बेदियू नहीं बताएँगे क्योंकि वह ख़ुद भी इससे अपरिचित हैं!

अपने उत्तरमार्क्सवादी चिन्तन से पैदा हुए पूर्वाग्रहों के चलते बेदियू माओ का, माओवाद का और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का निकृष्ट क़ि‍स्म का हस्तगतीकरण (appropriation) और विकृतीकरण (distortion) करते हैं। वह कहते हैं कि सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति पार्टी-राज्य के स्वरूप के संतृप्तीकरण (saturation) का प्रारूपिक उदाहरण है। इसके बाद वे जोड़ते हैं कि हालाँकि यह स्वयं (सांस्कृतिक क्रान्ति) पार्टी-राज्य के फ्रे़मवर्क के भीतर ही काम कर रही थी और इसीलिए ”विफल” हुई, लेकिन इसने आने वाले दिनों के लिए कुछ ज़रूरी सबक़ दिये। बेदियू के अनुसार यह ज़रूरी सबक थे – सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के मार्क्सवादी सिद्धान्त को तिलांजलि देने की वांछितता। अपने इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए बेदियू सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौर की कई घटनाओं का ब्यौरा टुकड़ों-टुकड़ों में देते हैं, मनमाने ढंग से उन घटनाक्रमों की व्याख्या करते हैं और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु का विकृतीकरण करते हैं।

बेदियू माओ का पेटी बुर्जुआ लोकरंजकतावादी विनियोजन करके उन्हें हिरावल पार्टी की अवधारणा के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास करते हैं। हालाँकि यह दीगर बात है कि इस उपक्रम में वह कोई विशेष सफलता हासिल नहीं कर पाते हैं। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को समझने की उम्मीद हम बेदियू जैसे उत्तर-मार्क्सवादी और उत्तर-माओवादी (क्योंकि बकौल बेदियू पार्टी-राज्य फ़्रेमवर्क की कै़द से कम्युनिज़्म के विचार को मुक्त कराने में वे माओ से भी आगे निकल गये हैं!) से कर भी नहीं सकते हैं। इस अध्याय के अन्त में वे कहते हैं, ”आज हम जानते हैं कि हर क़ि‍स्म की मुक्तिकामी राजनीति को पार्टी के मॉडल के आगे सोचना होगा और पार्टी-राज्य के फ़्रेमवर्क के अध्याय को अन्तिम और निर्णायक तौर पर बन्द कर देना होगा। भविष्य की राजनीति पार्टी के बिना होगी…” लेकिन, भविष्य की यह राजनीति क्या होगी, बेदियू एक बार फिर इस प्रश्न पर चुप्पी साधे हुए हैं।

बेदियू अपनी रचनाओं में पेरिस कम्यून के मॉडल का खूब समर्थन करते हैं। कारण स्पष्ट है –  क्योंकि पेरिस कम्यून के वक़्त हिरावल पार्टी और सर्वहारा राज्य की अवधारणा उतनी सुस्पष्ट नहीं थी जितना कि मज़दूर वर्ग के राजनीतिक सत्ता पर क़ाबिज़ होने के इस पहले प्रयोग के समाहार के बाद वह हुई। बेदियू के शब्दों में कहें तो कम्यून पार्टी-राज्य फ़्रेमवर्क का बन्दी नहीं था। मार्क्स ने कम्यून की परिस्थितियों, कारणों और अनुभवों का निचोड़ निकालते हुए जो निष्कर्ष निकाला, उसे भी याद करना यहाँ ज़रूरी है। मार्क्स ने कहा था, ”मज़दूर वर्ग बनी-बनायी राज्य मशीनरी को ज्यों का त्यों हाथ में नहीं ले सकता और उसे अपना मक़सद पूरा करने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता।” उन्होंने बताया कि सर्वहारा वर्ग को पुरानी राज्य मशीनरी को ”तोड़ने” और ”चकनाचूर करने के लिए” क्रान्तिकारी हिंसा का इस्तेमाल करना चाहिए तथा ”सर्वहारा अधिनायकत्व” को लागू करना चाहिए। बेदियू का कहना कि मार्क्स कम्यून के अपने आकलन में सुस्पष्ट नहीं थे, कोरी लफ़्फ़ाज़ी है। उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि सर्वहारा राज्यसत्ता के विषय में मार्क्स के विचार वास्तव में क्या थे। यह बेदियू का स्वतःस्फ़ूर्ततावाद और पार्टी-राज्य फ़्रेमवर्क से उनकी ‘एलर्जी’ है जो उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुँचाती है। बेदियू के अनुसार एक दूसरी दुनिया का भ्रूण कम्यून के मॉडल में ही आकार ले रहा है क्योंकि यह मॉडल पार्टी-राज्य के स्वरूप से मुक्त है। यह इतिहास के चक्के को पीछे धकेलना नहीं तो और क्या है? पेरिस कम्यून का प्रयोग ठीक यही दिखलाता था कि सर्वहारा वर्ग को क्रान्तिकारी विचारधारा और क्रान्तिकारी संगठन की आवश्यकता है और उनके ज़रिये ही वह बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस कर सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को क़ायम कर सकता है। मज़दूर वर्ग व अन्य मेहनतकश वर्गों के विरुद्ध हिंसा के संगठित उपकरण का ध्वंस संगठित क्रान्तिकारी हिंसा के ज़रिये ही किया जा सकता है। लेकिन बेदियू के लिए पेरिस कम्यून का मॉडल राज्य, पार्टी आदि की अशुद्धताओं से मुक्त था! यह तथ्यतः भी ग़लत है। दस सप्ताह से कुछ ज़्यादा समय तक पेरिस में मज़दूरों की सत्ता ने जो कुछ किया वह क्रान्तिकारी हिंसा और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व ही था! बल्कि, मार्क्स के शब्दों को उधार लेते हुए कहा जा सकता है कि भ्रूण रूप में सर्वहारा सत्ता और शासन का एक नमूना पेश करने के बावजूद, पेरिस कम्यून की सबसे बड़ी ग़लती यही रही कि उसने क्रान्तिकारी हिंसा और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को पर्याप्त हद तक लागू नहीं किया। लेकिन बेदियू हर ऐतिहासिक घटना की तरह पेरिस कम्यून का ज़िक्र करते हुए भी मनमाने ढंग से तथ्यों का चयन और व्याख्या करते हैं ताकि अपनी पैथोलॉजिकल प्रतिक्रिया को और राजनीतिक सदमे को अभिव्यक्ति दे सकें। बेदियू का काम आसान  है : नतीजे पहले से तय हैं, बस तथ्यों को उसमें फिट करना है।

बेदियू के ”कम्युनिज़्म” का विचार क्या है, इसकी चर्चा हम पहले कर आये हैं। अपने ”कम्युनिज़्म” के विचार को परिभाषित करने के लिए बेदियू यथार्थ (the Real), काल्पनिक (the Imaginary) और प्रतीकात्मक (the Symbolic) की लकानियन त्रयी को लागू करते हैं। उनके अनुसार इतिहास ‘प्रतीक’ का क्षेत्र है, भविष्य की परियोजना (उनके लिए कम्युनिज़्म का विचार) ‘काल्पनिक’ का क्षेत्र है और राजनीति ‘यथार्थ’ का क्षेत्र है! आप इस बँटवारे के पीछे बेदियू की पूरी हेगेलीय-लकानीय समझदारी को देख सकते हैं। यदि कम्युनिज़्म की परियोजना ‘काल्पनिक’ का क्षेत्र है तो कम्युनिज़्म की पूरी परियोजना एक आत्मगत कारक बन जाती है। इसके अलावा बेदियू का कम्युनिज़्म एक काण्टीय नियामक विचार (Regulative Idea) है जिसके लिए यथार्थ के अनुरूप होना या उसका प्रतिनिध्त्वि करना अनिवार्य नहीं है। यह एक लोकोत्तर विचार (transcendental Idea) है। इसलिए बेदियू के कम्युनिज़्म का विचार महज़ एक विचार है, यह किसी क़ि‍स्म के अमलीकरण या मूर्तीकरण का मोहताज नहीं है! ऐसा क्यों है इसे हम आगे स्पष्ट करेंगे।

बेदियू मार्क्सवाद पर हमला करने के लिए ज़ाक लकाँ के मनोविश्लेषण की श्रेणियों का इस्तेमाल एक विशेष उद्देश्य से करते हैं। इस प्रच्छन्न उद्देश्य को समझने के लिए हमें कुछ शब्द लकाँ की इन श्रेणियों को समझने पर ख़र्च करने पड़ेंगे, अन्यथा बेदियू के असली मन्तव्य और मंशा को सही ढंग से समझा नहीं जा सकता है। यह कुछ साथियों को थोड़ा उबाऊ या ग़ैर-ज़रूरी लग सकता है। लेकिन इन उत्तर-मार्क्सवादियों का हमला मार्क्सवाद पर इसी प्रकार का है कि असल बात तक पहुँचने से पहले लफ़्फ़ाज़ियों के कई पर्दों को चीरना पड़ता है। इसके बिना बेदियू जैसे उत्तर-मार्क्सवादियों की सुसंगत आलोचना मुश्किल है, और किसी भी प्रकार की यान्त्रिक या चलताऊ आलोचना मार्क्सवाद के उद्देश्य को लाभ के बजाय हानि ही पहुँचाती है। हम इसे अधिकतम सम्भव सहज और सरल रूप में रखने का प्रयास करेंगे, ताकि बुनियादी बात को समझकर बेदियू की आलोचना पर आगे बढ़ सकें। हम आपको यक़ीन दिलाते हैं इस छोटे-से बोझिल पैराग्राफ़ के बाद हम बेदियू द्वारा मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों पर हमले के मूल को देख सकेंगे!

कम्युनिज़्म के विचार को ‘काल्पनिक’ के रूप में, इतिहास को ‘प्रतीकात्मक’ के रूप में और राजनीतिक को ‘यथार्थ’ के रूप में चित्रित करने के पीछे भी जो सोच काम कर रही है, वह क्या है और इसके पीछे बेदियू का मक़सद क्या है? इसके अनुसार, इतिहास ‘प्रतीकात्मक’ का प्रतिनिधित्व करता है। लकानीय त्रयी में अगर हम ‘यथार्थ’, ‘प्रतीकात्मक’ और ‘काल्पनिक’ के सम्बन्ध को समझ लें तो बेदियू का हेगेलीय भाववाद खुलकर सामने आ जाता है। मनुष्य के मनोविज्ञान के निर्माण की व्याख्या करते हुए लकाँ ने कहा कि ‘यथार्थ’ (the Real) ‘वास्तविकता’ (the reality) से अलग वस्तु है। ‘यथार्थ’ वह स्थिति है जिससे हम उस क्षण हमेशा के लिए काट दिये जाते हैं, जिस दिन हम भाषा के जगत में प्रवेश करते हैं। यानी कि अपनी छवि के प्रति सचेत होने के पहले एक नवजात शिशु ‘यथार्थ’ के जगत में होता है। इस मंज़िल में बच्चा सिर्फ़ आवश्यकता और उसकी पूर्ति को पहचानता है। वह अभी अपने, अपनी माँ या बाह्य जगत में अन्तर नहीं जानता है। लकाँ के लिए यह मंज़िल पूर्णता (completeness या fullness) की मंज़िल है। यह बोध भाषा में बच्चे के प्रवेश के साथ खो जाता है। भाषा के जगत में प्रवेश करते ही आवश्यकता (necessity) माँग (demand) बन जाती है। यथार्थ से यह अलगाव स्थायी होता है और इसीलिए लकाँ का कहना था कि मनुष्यों के लिए यथार्थ असम्भव है, क्योंकि इसे भाषा में अभिव्यक्त ही नहीं किया जा सकता है। लेकिन लकाँ के मुताबिक़ यथार्थ हमेशा एक भूमिका अदा करता रहता है और ‘काल्पनिक’ और ‘प्रतीकात्मक’ ‘यथार्थ’ के पत्थर से बार-बार टकराते हैं और असफल होते रहते हैं। ‘काल्पनिक’ से लकाँ का क्या अभिप्राय है? ‘काल्पनिक’ की अवस्था ‘मिरर स्टेज’ की अवस्था है जिसमें सब्जेक्ट (व्यक्ति) आदिम आवश्यकता से ”माँग” की मंज़िल में प्रवेश करता है। आवश्यकता पूरी हो सकती है, लेकिन ”माँग” कभी पूरी नहीं हो सकती है। इसकी वजह से एक ‘अभाव/कमी’ का बोध जन्म लेता है। जैसे ही किसी को अपने अस्तित्व के दुनिया से अलग होने का पता चलता है वैसे ही एक अकुलाहट की भावना जन्म लेती है, जिसके पीछे कुछ ‘खो’ जाने का बोध काम करता है। बच्चा जैसे ही इस मंज़िल में पहुँचता है, उसकी ”माँग” होती है इस अन्यता (otherness) के घेरे में आ चुकी दुनिया को अपना अंग बनाना, जैसा कि बच्चे की नवजात अवस्था में हुआ करता था, जब बच्चा भाषा में प्रवेश के साथ अपने आपको दुनिया से अलग नहीं देखता था। यह ”माँग” अपूरणीय होती है, क्योंकि यह उस छवि (image) पर आधारित है जो बच्चे ने अपने मन में बनायी है; यह छवि सुसंगत है, पूर्ण है, और स्थिरतापूर्ण है, लेकिन यह छवि उस वास्तविक बच्चे जैसी नहीं है। यह छवि एक कल्पना है जो बच्चे ने अपनी माँग के आधार पर बनायी है और इस रूप में अपूरणीय है। यह छवि किसी भी ऐसे व्यक्ति की हो सकती है जो कि बच्चा बनना चाहता हो; और इस रूप में अपनी ‘काल्पनिक’ छवि से उसका सम्बन्ध नारसिसिस्टिक है। अब आते हैं लकाँ के ‘प्रतीकात्मक’ के सिद्धान्त पर। ‘प्रतीकात्मक’ वास्तव में ‘काल्पनिक’ की सहायता से और भाषा के माध्यम के जि़रये ‘यथार्थ’ की एक श्रेणीबद्ध प्रस्तुति है। मिसाल के तौर पर, ‘काल्पनिक’ के विश्व में हम अच्छे-बुरे, दुख-आनन्द, आदि के बारे में आदर्शीकृत धारणाएँ रखते हैं और अच्छा बुरे का, दुख आनन्द का बहिष्कार करता है; उनमें से एक ही स्वीकार्य होता है; यह वह धरातल होता है जहाँ हम चयन करते हैं। लेकिन ‘प्रतीकात्मक’ के जगत में इन दोनों का अस्तित्व सम्भव होता है; हालाँकि उनके बीच हम भेद करते हैं, मगर हम उन दोनों के अस्तित्वों को स्वीकार करते हैं। ‘यथार्थ’ में ऐसी श्रेणियाँ होती ही नहीं हैं; चूँकि ‘यथार्थ’ उस दौर का प्रतिनिधित्व करता है जब/जहाँ भाषा नहीं थी और इसलिए विचारधारा भी नहीं थी। बाद में, भाषा के प्रवेश के साथ और अपनी ‘कल्पनाओं’ की श्रेणियों की सहायता से हम ‘यथार्थ’ का ‘वास्तविकता’ के रूप में पुनरुत्पादन करते हैं। यह सारा झमेला दरअसल यह कह रहा है कि ‘काल्पनिक’ मानसिक निर्मिति है, जो कि भाषा के जगत में प्रवेश के समय ‘स्व’ और ‘अन्य’ में भेद के साथ पैदा होती है; इस दौर के पहले ‘स्व’ और ‘अन्य’ एक व पूर्ण होते हैं और यह ‘यथार्थ’ की मंज़िल होती है; इसके बाद, भाषा (विचारधारा) के माध्यम से हम ‘यथार्थ’ को समझने के प्रयास में उसे श्रेणीबद्ध करते हैं, उसे समझने के लिए विभेदीकृत करते हैं (जो कि दरअसल ‘यथार्थ’ होता ही नहीं है!) और इस प्रक्रिया में अपने लिए एक ‘वास्तविकता’ का निर्माण करते हैं जो कि एक निर्मिति ही होती है और यही ‘प्रतीकात्मक’ का आधार है! यथार्थ अज्ञेय है! और इसीलिए जैसे ही हमारा ‘काल्पनिक’ और ‘प्रतीकात्मक’ इस ‘यथार्थ’ से टकराते हैं, वैसे ही वे छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, और इसके साथ ही नये ‘काल्पनिक’ और नये ‘प्रतीकात्मक’ की रचना होती है, जो एक नयी ‘वास्तविकता’ के रूप में एक नयी निर्मिति का निर्माण करते हैं, जो कि और कुछ नहीं बल्कि ‘यथार्थ’ की एक छद्म प्रस्तुति ही होती है।

अब ज़रा याद करें कि बेदियू ने अपने कम्युनिज़्म के विचार की बात करते हुए इस लकानियन त्रयी में किसे क्या कहा है – इतिहास ‘प्रतीकात्मक’ का प्रतिनिधित्व करता है; कम्युनिज़्म का विचार ‘काल्पनिक’ का प्रतिनिधित्व करता है; और राजनीति ‘यथार्थ’ का प्रतिनिधित्व करती है! यानी कि इतिहास भाषा और पाठ का क्षेत्र है, वास्तव में इतिहास (‘ऐसा हुआ था’) का कोई अस्तित्व नहीं है, यह आपकी कल्पनाओं की मदद से इतिहास की भाषाई निर्मिति है! कम्युनिज़्म का विचार कल्पनाओं का क्षेत्र है जिसमें मानवता अपनी वह ”माँग” रखती है, जो कि एक आदर्श मनोगत छवि और यथार्थ के टकराव या विरोध से पैदा हुई है, और जो ठीक इसीलिए पूर्ण नहीं हो सकती; नतीजतन, इस ”माँग” को शाश्वत रूप से (eternally) यथार्थ से टकराते रहना है, भंग होते रहना है और पुनर्निर्मित होते रहना है! कम्युनिज़्म के विचार की यह अनन्त यात्रा है, जिसमें अब पुरानी ”माँगें” (पार्टी, राज्य, वर्ग आदि) यथार्थ से टकरा कर भंग हो चुकी हैं और अब नयी ”माँगें” यथार्थ के साथ नये द्वन्द्व में निर्मित हो रही हैं और ”इच्छाओं” के रूप में अपने आपको भाषा/विचारधारा में अभिव्यक्त कर रही हैं। और यथार्थ क्या है? वह समकालीन राजनीति है जिसकी संरचना को भाषा या विचारधारा में नहीं बाँधा जा सकता है; यह ‘यथार्थ’ भाषा-पूर्व युग की वस्तु है और भाषा में कल्पना के सहारे इसकी निर्मिति उसकी छद्म प्रस्तुति ही होगी, एक ‘वास्तविकता’ का निर्माण होगा! तो फिर आप राजनीति सचेतन तौर पर और योजनाबद्ध रूप में करें क्या? बेदियू का जवाब सीधा है – कुछ नहीं! यह यथार्थ स्वायत्त रूप से विकसित होना है और इसमें जो बदलाव होंगे उनके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, और यहीं से हम बेदियू के कुछ अन्य निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवादी प्रतिपादनों पर आ सकते हैं, जिसमें सबसे अहम है ”इवेण्ट” की अवधारणा। बेदियू के ”इवेण्ट” (घटना/संयोग) की अवधारणा के अनुसार समाज में होनेवाले सभी बदलाव आकस्मिक होते हैं और उनका सैद्धान्तिकीकरण नहीं किया जा सकता। अब आप इस बात को बेदियू की ‘यथार्थ’ की अवधारणा से जोड़ सकते हैं। चूँकि यथार्थ सैद्धान्तिकीकरण से परे है (क्योंकि सैद्धान्तिकीकरण का माध्यम भाषा और पाठ है) इसलिए यथार्थ में होने वाले परिवर्तनों के बारे में भी कुछ पहले से नहीं कहा जा सकता, उनका सैद्धान्तिकीकरण नहीं किया जा सकता और इन्हीं परिवर्तनों को व्याख्यायित करने के लिए ”इवेण्ट” की अवधारणा बेदियू द्वारा रची गयी है। यह ”इवेण्ट” ही नयी सम्भावनाओं को जन्म देता है, लेकिन ”इवेण्ट” का होना संयोग या इत्तेफ़ाक की बात है, इसलिए आमूलगामी सामाजिक परिवर्तन की पूरी परियोजना ही बेदियू द्वारा संयोग के क्षेत्र में धकेल दी गयी है। इसमें सचेतन योजना और राजनीति का स्थान नहीं है या अगर है तो वह एक निष्प्रभावी स्वतःस्फ़ूर्ततावादी उपस्थिति है। और इस तरह से क्रान्ति या कहें कि परिवर्तन से हर प्रकार का अभिकरण छीन लिया गया है। क्योंकि किसी सचेतन अभिकर्ता की आवश्यकता ही नहीं है! इसी निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवाद की मदद के लिए एक अन्य सैद्धान्तिकीकरण जो बेदियू यहाँ प्रस्तुत करते हैं वह है उनका ”सबट्रैक्शन” (व्यवकलन) का सिद्धान्त। इसके अनुसार आज कम्युनिज़्म का लक्ष्य राज्य का विलोपीकरण नहीं है (क्योंकि यह एक असीमित, अपरिमित प्रक्रिया है!), बल्कि ”राज्य से दूरी बनाये रखने की राजनीति” है – जो किसी भी राज्य में किसी भी रूप में सम्मिलित होने को नकारती है। ”सबट्रैक्शन” के अपने सैद्धान्तिकीकरण के ज़रिये एक बार फिर बेदियू सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा पर हमला करते हैं और दरअसल क्रान्ति करने के सिद्धान्त पर ही हमला बोलते हैं।

”कम्युनिज़्म” की अपनी परिकल्पना और विचार के नाम पर बेदियू मार्क्सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं और क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु को ख़ारिज करने का काम करते हैं। वह अतीत के सभी समाजवादी प्रयोगों पर ”विफलता”, ”त्रासदी” और ”आपदा” का लेबल तो चस्पाँ कर देते हैं, जो कि बेदियू के लिए आकाशवाणी-समान सत्य है, लेकिन न तो उन प्रयोगों का कोई आलोचनात्मक मूल्यांकन पेश करते हैं और न ही सामाजिक परिवर्तन का अपना कोई सकारात्मक मॉडल पेश करते हैं। इस पूरे उत्तरमार्क्सवादी उपक्रम का असली मक़सद है अति-आमूलगामी शब्दावली में आमूलगामिता की हर सम्भावना या समझदारी पर चोट की जाये और इसीलिए उनके हर सिद्धान्त का असल निशान मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी कोर अन्तर्वस्तु यानी कि वर्ग, राज्य, और पार्टी का सिद्धान्त है।

‘कम्युनिज़्म एब्सकॉण्डिटस’ या स्लावोय ज़िज़ेक के निठल्ले, निष्क्रिय, नुक़सानदेह सैद्धान्तिकीकरण का नया उदाहरण

दार्शनिकों ने

दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है

पर सवाल उसको बदलने का है,

मानता हूँ।

मेरे लिए मगर मुमकिन नहीं रह गया है,

बदलना इसे।

इसलिए अब मैं

सलाहकार बन गया हूँ

दुनिया बदलने वालों का

आओ दुनिया बदलने वालो!

मेरे अनुभव का लाभ उठाओ,

अन्यथा बदलते रह जाओगे

नहीं बदलेगी यह दुनिया।

       – कात्यायनी (दुनिया को बदलने के बारे में कतिपय सुधीजनों के विविध विचार-2)

स्लावोय ज़ि‍ज़ेक का ज़ि‍क्र आम तौर पर अन्तरराष्ट्रीय वाम के ‘सुपरस्टार’ दार्शनिक के रूप में होता है। वह अपनी फैशनेबल उत्तर-मार्क्सवादी, लकानियन, हेगोलियन अभिव्यक्ति शैली के कारण भी काफ़ी प्रचलित हैं। समकालीन पूँजीवादी सांस्कृतिक परिदृश्य पर उनकी टिप्पणियों या आलोचना को देखें, तो बेशक कई अन्तर्दृष्टियाँ मिलती हैं, और इस मायने में, एक सांस्कृतिक समालोचक (cultural critic) के रूप में, ज़ि‍ज़ेक उम्दा भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन इसके अलावा, उनके ज़्यादातर सैद्धान्तिकीकरणों की वास्तविक अर्न्तवस्तु में नयापन बस नाम के लिए ही है। ज़ि‍ज़ेक के पास एक सशक्त रूप है, जिसका वह कुशलता के साथ इस्तेमाल करते हैं। लेकिन वह इसका इस्तेमाल ऐसी बातें कहने में करते हैं, जो आमतौर पर सैद्धान्तिक रूप से बेहद दरिद्र, कई बार तथ्यात्मक तौर पर ग़लत, और ख़राब क़ि‍स्म के सार-संग्रहवाद की मिसालें होती हैं। आलेख के इस भाग में हम स्लावोय ज़ि‍ज़ेक के राजनीतिक-विचारधारात्मक सैद्धान्तिकीकरणों पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालेंगे और उनकी पड़ताल करेंगे। साथ ही, हमारा ध्यान मुख्य तौर पर इस बात पर होगा कि ज़ि‍ज़ेक अपने तमाम (मार्क्सवाद से ज़्यादा!) रैडिकल दावों के बाद अन्त में क्या सकारात्मक प्रस्ताव हमारे सामने रखते हैं।

स्लावोय ज़ि‍ज़ेक के चिन्तन और रचना कर्म की एक ख़ास विशेषता है उनके चिन्तन और लेखन में किसी भी संगति और सामंजस्य का अभाव। 1989 में अंग्रेजी में प्रकाशित उनकी पहली पुस्तक ‘दि सब्लाइम ऑबजेक्ट ऑफ़ आइडियॉलोजी’ से लेकर पिछले वर्ष के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित ‘दि इयर ऑफ़ ड्रीमिंग डेंजरसली’ तक की यात्रा में ज़ि‍ज़ेक ने कई विचारधारात्मक कलाबाज़ि‍याँ और गुलाटियाँ मारी हैं। शुरुआत में वह ‘उग्रपरिवर्तनवादी जनवादी परियोजना (Radical Democratic Project) की अवस्थिति पर खड़े थे जो अब मार्क्सवादी कम्युनिज़्म (ज़ि‍ज़ेक के अनुसार) में तब्दील हो चुकी है। स्लावोय ज़ि‍ज़ेक की पिछले डेढ़ दशकों के दौरान लिखी गयी रचनाओं को पढ़कर बरबस ही फ़ेदिन के उपन्यास ‘आग्नेय वर्ष’ के चरित्र त्स्वेतख़िन की याद आती है जो बोल्शेविक क्रान्ति के दौरान व्यावहारिकता के तकाज़े से पक्ष चुन रहा था और आवश्यकतानुसार पक्ष बदल भी रहा था। वैसे ज़ि‍ज़ेक के कम्युनिज़्म का यह विचार कितना मार्क्सवादी है, इसकी पड़ताल हम आगे करेंगे। ज़ि‍ज़ेक के उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तन की अपनी समालोचना का दायरा हम मुख्यतः उनकी दो पुस्तकों में प्रस्तुत विचारों तक सीमित रखेंगे – ‘फ़र्स्ट ऐज़ ट्रेजडी, दैन ऐज़ फ़ार्स’ और ‘दि इयर ऑफ़ ड्रीमिंग डेंजरसली’। राजनीति और विशेषकर भविष्य की राजनीति से जुड़े ज़ि‍ज़ेक के सैद्धान्तिकीकरण, मुख्य तौर पर इन दो पुस्तकों में उभरकर सामने आ जाते हैं। एक बात जो ज़ि‍ज़ेक के लेखन में आपको आमतौर पर दिख जायेेगी, वह है अपने विश्लेषण के दौरान वे बेहद बेतुकी दिखने वाली तुलनाएँ करते हैं और उनमें समानताएँ तलाशने की लॉटरी खेलते हैं। मिसाल के तौर पर, ज़ि‍ज़ेक अगर कीर्केगार्द, मार्क्स और हेनरिख़ हाइने की तुलना करें तो आपको अचम्भित नहीं होना चाहिए। वह ऐसी तुलनाओं के ज़रिये जो करते हैं, वह और कुछ नहीं बल्कि ऐसी सामान्य परिघटनाओं का जटिल प्रस्तुतिकरण है, जिन्हें अन्य विचारकों, विशेष तौर पर मार्क्सवादी विचारकों, ने पहले ही सही ढंग से व्याख्यायित किया है। ऐसे प्रस्तुतिकरण के लिए वे हेगेलीय और लकाँवादी दार्शनिक और वैचारिक श्रेणियों का इस्तेमाल करते हैं। इन श्रेणियों के अतिरिक्त ज़ि‍ज़ेक सार-संग्रहवादी तरीके से किसी भी प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक या समकालीन विचारक की अवधारणाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं – ताओ, बुद्ध और प्लेटो से लेकर लॉक और देकार्त तक; काण्ट, कीर्केगार्द, अडोर्नो, वॉल्टर बेंजामिन और हाइडेगर से लेकर देल्यूश, नेग्री, हार्ट, बेदियू और जुडिथ बटलर तक। हालाँकि, इन अवधारणाओं में आम तौर पर कुछ भी सामान्य/साझा नहीं होता। इस प्रकार के तर्क से ज़ि‍ज़ेक लगातार अलग-अलग दार्शनिक व्यवस्थाओं में समानान्तर रेखाएँ खींचते रहते हैं और फिर इन समानान्तर रेखाओं का इस्तेमाल समकालीन परिदृश्य की व्याख्या करने के लिए करते हैं। इस तरीके से अलग-अलग जगहों से अलग-अलग तत्वों को अन्दाज़े से जोड़ने और जोड़कर उसे अपनी समकालीनता की व्याख्या में बिठाने को हम सट्टेबाज़ दार्शनिक पद्धति (स्पेक्युलेटिव फ़ि‍लोसॉफ़ि‍कल मेथड) कह सकते हैं। लेकिन यह विश्लेषण अन्त में कहीं नहीं ले जाता है, और वास्तव में यह दुनिया बदलने की बात तो बहुत दूर, दुनिया की एक आंशिक तौर पर सही व्याख्या भी नहीं होती है। कुल मिलाकर, लकाँ के मनोविश्लेषण, लेवी स्ट्रॉस के उत्तरसंरचनावाद, उत्तरआधुनिकतावाद और तमाम अन्य मार्क्सवाद-विरोधी विचार-सरणियों से मिलने वाली जूठन का इस्तेमाल करते हुए इनका दर्शन अपने आपको मार्क्स से ज़्यादा रैडिकल दिखलाने का प्रयास करता है, और लगातार यह दिखाने का प्रयास करता है कि मार्क्स क्या-क्या नहीं समझ पाये और कहाँ-कहाँ वह ग़लत थे।

साथ ही एक और बात जो ज़ि‍ज़ेक के चिन्तन की आभिलाक्षणिकता है वह है उनका ख़ुद को ‘लेनिनवादी’ क़रार देते रहना। वह बार-बार इस बात पर शोर देते हैं कि आज लेनिन को ‘दोहराये’ जाने की ज़रूरत है। लेकिन जब वह इस ‘दोहराव’ को व्याख्यायित करते हैं तो उसमें कुछ भी लेनिनवादी नहीं होता बल्कि वे लेनिनवाद की मूल प्रस्थापनाओं को ख़ारिज करते चलते हैं। उदाहरण के लिए, 2009 में ‘आइडिया ऑफ़ कम्युनिज़्म’ नाम से आयोजित एक सम्मेलन में (इसकी चर्चा हम पहले कर चुके है) प्रस्तुत किये गये अपने वक़्तव्य ‘हाउ टू बिगिन फ़्रॉम दि बिगिनिंग’ में लेनिन को दोहराये जाने की बात करते है और इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि आज बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के अध्याय को पूरी तरह से बन्द किये जाने की आवश्यकता है और इसलिए हमें एक ”नयी शुरुआत” करनी होगी। हम देख सकते हैं कि माओ के विचारों का जैसा हस्तगतीकरण और विकृतीकरण बेदियू अपने चिन्तन में करते है, ठीक वही काम स्लावोय ज़ि‍ज़ेक लेनिन के सन्दर्भ में करते हैं। ज़ि‍ज़ेक जैसे उत्तर-मार्क्सवादी सिद्धान्तकारों के लिए ‘लेनिनवाद’ जैसी अवधारणाएँ महज़ एक ‘कैचवर्ड’ हैं और अपने लेखन में वह जहाँ-तहाँ इसका इस्तेमाल करते चलते हैं।

अब ज़रा देखते हैं कि मार्क्सवाद से अधिक रैडिकल सिद्धान्त देने के चक्कर में ज़ि‍ज़ेक किस तरह की सैद्धान्तिक कलाबाि‍ज़‍याँ दिखाते हैं। मसलन, वह दावा करते हैं कि मार्क्स का ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना में योगदान’ का वह प्रसिद्ध कथन, जिसमें वे उत्पादक सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों व आर्थिक आधार और अधिरचना के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में बताते हैं, वास्तव में इतिहासवाद और उद्भववाद का शिकार है। मार्क्स के इस उद्धरण को अगर आप स्वयं पढ़ें तो उसमें मार्क्स कहीं भी कोई इतिहासवादी या नियतत्ववादी बात नहीं कह रहे हैं। जो वह कह रहे हैं वह सिर्फ़ इतना  है : समाज में लोग प्रभावी उत्पादन व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी इच्छा से स्वतन्त्र निश्चित उत्पादन सम्बन्धों में बँधते हैं; एक दौर तक प्रभावी उत्पादन सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के विकास को गति देते हैं, लेकिन इतिहास की एक निश्चित मंज़ि‍ल पर उत्पादक शक्तियों का विकास मौजूदा उत्पादन सम्बन्धों के तहत सम्भव नहीं रह जाता; यहाँ से सामाजिक क्रान्ति का युग शुरू होता है (इसका यह अर्थ नहीं है, कि किसी पूर्वनिर्धारित मौके पर इस युग में क्रान्ति का सम्पन्न हो जाना तय है); आगे मार्क्स बताते हैं कि कोई भी व्यवस्था उत्पादक शक्तियों के विकास के मौजूदा ढाँचे के भीतर बाधित होने से पहले नष्ट नहीं हो सकती और नये उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि उसके लिए आवश्यक शर्तें मौजूदा व्यवस्था के भीतर ही पूरी न हो गयी हों (इसका यह अर्थ नहीं है कि वे उत्पादन सम्बन्ध ही पुरानी व्यवस्था के गर्भ में पूर्णतः पैदा हो चुके हों, यहाँ मार्क्स सिर्फ़ अनिवार्य पूर्वशर्तों की बात कर रहे हैं); और अन्त में मार्क्स इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि मानवता अपने लिए वही लक्ष्य निर्धरित कर सकती है, जो लक्ष्य वह वास्तव में प्राप्त कर सकती है। इसका सिर्फ़ इतना ही अर्थ है कि दास समाज या सामन्ती समाज के उत्पीड़ित वर्ग साम्यवादी समाज का सपना नहीं देख सके थे। लेकिन ज़ि‍ज़ेक के लिए ऐसी कोई सीमा नहीं है। एक सच्चे प्रत्ययवादी-हेगेलवादी के समान वह कहते हैं कि आज के दौर में भी भावी बेहतर समाज के बारे में कोई परिकल्पना नहीं निर्मित की जानी चाहिए। उसे पूरी तरह से गोपनीयता के राज्य की वस्तु माना जाना चाहिए, जिसे ज़ि‍ज़ेक ‘कम्युनिज़्म एब्सकॉण्डिटस’ का नाम देते हैं। इसका अर्थ है कि एक ऐसा कम्युनिज़्म जिसके बार में पहले से कोई नक्शा तैयार नहीं किया जाना चाहिए। ज़ि‍ज़ेक यहाँ पर एलेन बेदियू के पदचिन्हों पर ही चल रहे हैं। फ़र्क़ इस इतना है कि ज़ि‍ज़ेक कहीं सीधे-सीधे यह नहीं कहते कि मार्क्सवाद, पार्टी और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की सोच पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुकी है। लेकिन वास्तव में वह जो करते हैं वह और भी ज़्यादा ख़तरनाक है। बेदियू अपने इरादों में स्पष्ट हैं और उनकी आलोचना अपेक्षाकृत ज़्यादा आसान है। लेकिन ज़ि‍ज़ेक अपनी सभी बातों को स्वयं ही काटते चलते हैं।

एक अन्य जगह पर ज़ि‍ज़ेक कहते हैं कि मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्र की जो आलोचना की है, उसे आज दुहराने की ज़रूरत है, लेकिन कम्युनिज़्म की उस यूटोपियाई समझदारी के बग़ैर जो कि मार्क्स ने प्रस्तुत की। ज़ि‍ज़ेक मार्क्स द्वारा राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना को न समझ पाने के कारण ही ऐसा समझते हैं कि मार्क्स की कम्युनिज़्म की समझदारी यूटोपियाई और फ़न्तासी के समान थी। कम्युनिज़्म की मार्क्सवादी परियोजना कोई पूर्वकल्पित या पूर्वनिर्धरित यूटोपिया या फ़न्तासी नहीं थी, बल्कि पूँजीवाद की वैज्ञानिक आलोचना का ही नतीजा थी। जैसा कि मार्क्स कहते थे, ‘कम्युनिज़्म कोई लक्ष्य नहीं है, जिसे हासिल किया जाना है। यह इतिहास की वास्तविक गति है।’ लेकिन ज़ि‍ज़ेक के लिए इतिहास की ऐसी कोई गति नहीं होती। मार्क्स स्वयं कम्युनिस्ट समाज के एक-एक विवरण को पहले से निर्धारित करने के ख़िलाफ़ थे, और ऐसी किसी भी कवायद को वह अनुत्पादक मानते थे। लेकिन ज़ि‍ज़ेक कम्युनिस्ट समाज के विषय में मार्क्स के कुछ भी कहने को ग़ैर-मुनासिब मानते हैं!

ज़ि‍ज़ेक कहते हैं कि मार्क्स का इतिहासवादी स्कीमा रद्द करने की ज़रूरत है और इसके लिए हमें आज के पूँजीवाद की तीन चारित्रिक आभिलाक्षणिकताओं पर नज़र डालने की ज़रूरत है। ज़ि‍ज़ेक के मुताबिक़ पहली सबसे प्रमुख अ‍भिलाक्षणिकता आज की पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े से लगान (रेण्ट) की ओर संक्रमण या तब्दीली है। ज़ि‍ज़ेक यहाँ दो अर्थों में लगान की बात कर रहे हैं – साझा बौद्धिक सम्पत्ति और प्राकृतिक संसाधनों पर एकाधिकर से मिलने वाला लगान। लेकिन इस परिघटना में नया क्या है और इसकी खोज करने का दावा ज़ि‍ज़ेक क्यों कर रहे हैं, यह समझ से परे है। वास्तव में इन दोनों परिघटनाओं को मार्क्स और लेनिन दोनों ने ही अपनी रचनाओं में दर्ज किया है। वास्तव में, यह रिकार्डो का सिद्धान्त था कि लगान सम्पत्ति के एकाधिकार से नहीं बल्कि उत्पादन की अलग-अलग स्थितियों से पैदा होता है। जबकि मार्क्स और लेनिन का स्पष्ट रूप में यह मानना था कि लगान सम्पत्ति के एकाधिकार से पैदा होता है और वह अधिशेष का एक हिस्सा बनता है। इस रूप में मुनाफ़े से लगान की ओर जाने की बात करना दरअसल ज़िज़ेक के एक विभ्रम को दिखलाता है और साथ ही यह भी दिखलाता है कि सभी हेगेलीय लकानियन उत्तर-मार्क्सवादियों की तरह ही ज़िज़ेक की समझ भी राजनीतिक अर्थशास्त्र में दयनीय है।

ज़ि‍ज़ेक का दावा है कि मार्क्स ने सामान्य बुद्धि‍ (जनरल इण्टेलेक्ट) के निजीकरण की कल्पना नहीं की थी। ज़ि‍ज़ेक का यह दावा भी ग़लत है कि मार्क्स ने कभी नहीं सोचा था कि सामान्य बुद्धि‍ का इस पैमाने पर निजीकरण होगा। मार्क्स स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हर प्रकार के श्रम के सभी उत्पाद सामाजिक सम्पत्ति हैं और ज्ञान भी एक सामाजिक सम्पत्ति है। लेकिन पूँजीवाद श्रम के भौतिक उत्पादों और बौद्धिक उत्पादों दोनों का ही निजीकरण करता है। प्राक्-पूँजीवादी युग में सामान्य बुद्धि‍ के विकास का जो स्तर था, उसमें ज़ाहिरा तौर पर बौद्धिक उत्पादों के निजीकरण की प्रवृत्ति कम ही होगी। जैसे-जैसे पूँजीवाद उत्पादन पद्धति आगे बढ़ी, उत्पादक शक्तियों का विकास हुआ, उत्पादकों की राजनीतिक और तकनोलॉजिकल चेतना का स्तरोन्नयन हुआ, वैसे-वैसे उत्पादन में सूचना और तकनीकी पद्धति के ज्ञान का महत्व बढ़ता गया। पूँजीपतियों के बीच की प्रतिस्पर्द्धा और मज़दूर वर्ग की स्वायत्त चेतना (जो बुर्जुआ वर्चस्व से सापेक्षिक रूप से मुक्त हो) के उदय के डर ने बौद्धिक सम्पदा के निजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। जहाँ तक बौद्धिक सम्पदा के नयेपन और सूचना के सर्वशक्तिशाली बन जाने का प्रश्न है, तो यह मूर्खतापूर्ण दावा है। एक कुल्हाड़ी या चक्का बनाने में भी प्राचीनकाल में सूचना की आवश्यकता होती थी। यह सच है कि सामान्य बुद्धि‍ के स्तरोन्नयन के साथ सूचना की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है, लेकिन उसका निजीकरण और उसका मालकरण कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिस पर उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तक इतना विस्मित हों। आलेख के अगले भाग में हम देखेंगे कि नेग्री और हार्ट भी इस परिघटना को लेकर काफ़ी चकित हैं।

उत्तर-मार्क्सवादियों के इस नये सैद्धान्तिकीकरण की मूल बात यह है कि सर्वहारा वर्ग इनके लिए अनुपस्थित हो चुका है और टटपुँजिया वर्ग परिवर्तन का नया अगुआ है। ज़ि‍ज़ेक भी एक प्रकार से इसी थीम का अनुसरण करते हैं। शारीरिक श्रम करने वालों का उदाहरण देने की ज़रूरत होती है तो वह ज़्यादा से ज़्यादा ‘फ़्लाइट अटेण्डेण्ट’ का उदाहरण दे पाते हैं! औद्योगिक सर्वहारा वर्ग का कहीं ज़ि‍क्र भी नहीं होता। अभौतिक उत्पादन (जैसे सूचना का उत्पादन) एक उन्नत दुनिया का प्रतीक है; इसमें कोई शक़ नहीं। यह बात अलग है कि पूँजीवादी व्यवस्था में भौतिक उत्पादन निकृष्ट बन गया है, और अभौतिक उत्पादन उस पर अपना वर्चस्व और प्रभुत्व स्थापित करके बैठा हुआ है। लेकिन पूँजीवाद में सीधा क्या है? संक्षेप में कहें, तो ज़ि‍ज़ेक और उनके जैसे तमाम उत्तर-मार्क्सवादियों ने सूचना पूँजीवाद के उदय के साथ आने वाले परिवर्तनों की जो समझदारी प्रस्तुत की है, वह वास्तव में मार्क्सवाद की बुनियादी श्रेणियों को रद्द करने के लिए की गयी है। इसमें तार्किक निरन्तरता की भारी कमी है, और थोड़ी ही पड़ताल पर उसका उथलापन और ओछापन सामने आ जाता है।

अब आते हैं एक नये क़ि‍स्म की बुर्जुआज़ी के उदय बारे में ज़ि‍ज़ेक के दावे। पर। जिसे वह उत्तर-आधुनिक पूँजीवाद की दूसरी चारित्रिक अभिलाक्षणिकता मानते हैं। नयी बुर्जुआज़ी की अवधारणा को वह एक लकानियन विचारक ज्याँ क्लॉड मिल्नर से उधर लेते हैं, और उसे अपने विचारधारात्मक खाँचे में फिट करते हैं। इस बुर्जुआज़ी में न सिर्फ़ डॉक्टर, इंजीनियर, आदि जैसे पेशे के लोग भी शामिल हैं, बल्कि इस वर्ग के सम्भावित उम्मीदवारों में ज़ि‍ज़ेक विश्वविद्यालय छात्रों को भी गिनाते हैं। ज़ि‍ज़ेक का यह दावा है कि इस नयी बुर्जुआज़ी के ऊपरी हिस्से नियमित स्थायी रोज़गार, बेहद ऊँचे वेतनों और विशेषाधिकरों के स्वामी हैं। जबकि निचले हिस्से वे हैं जिनके सिर पर पूँजीवाद ने अनिश्चितता की तलवार लटका रखी है। ये निचले हिस्से ही हैं, जो कि 2011 में वे ”ख़तरनाक सपने” देख रहे थे (‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन) जिनकी बात ज़ि‍ज़ेक अपनी नयी पुस्तक में करते हैं। ज़ि‍ज़ेक मानते हैं कि अरब जनउभार, ब्रिटिश छात्र-युवा आन्दोलन और निम्न वर्गों के दंगे, स्पेन और यूनान में चल रहे आन्दोलन और साथ ही ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन इन्हीं वर्गों की आकांक्षाओं की नुमाइन्दगी करते हैं। ज़ि‍ज़ेक इन आन्दोलनों को ”वामपन्थी” अर्थों में क्रान्तिकारी नहीं मानते। उनका कहना है कि इन आन्दोलनों के पास कोई भविष्य दृष्टि नहीं है। लेकिन अगले ही पल ज़ि‍ज़ेक को इन आन्दोलनों में ”भविष्य के चिन्ह” भी दिखलायी देते हैं। ऐसे विरोधभासों से ज़ि‍ज़ेक का पूरा लेखन कर्म भरा पड़ा है।

बेदियू की ही तरह इतिहास के प्रति अवहेलना का दृष्टिकोण ज़ि‍ज़ेक का भी है, लेकिन अपनी  क़ि‍स्म से। वह इतिहास को पूरी तरह प्रतीकात्मक तो नहीं मानते लेकिन वह बीसवीं सदी में मज़दूर वर्ग द्वारा किये गये समाजवाद के प्रयोगों को बिना किसी विश्लेषण के एक त्रासदी मानते हैं, और इस रूप में उसे लक्षण के रूप में ही देखते हैं, जैसा कि बेदियू कहते हैं। ज़ि‍ज़ेक के लिए भी बीसवीं सदी के समाजवाद की तरफ़ एक भी दृष्टि डाले हुए भी भावी कम्युनिस्ट समाज का निर्माण हो सकता है। ज़ि‍ज़ेक ने अपनी किसी भी रचना में बीसवीं सदी के समाजवाद को, विशेषकर रूस और चीन में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवों को एक बुरे अनुभव, त्रासदी या विपदा के तौर पर चित्रित करने के लिए किसी वैज्ञानिक-ऐतिहासिक विश्लेषण का इस्तेमाल नहीं किया है। ज़ि‍ज़ेक के लेखन में यह नतीजा आकाशवाणी के समान (axiomatic) है। वह तो यहाँ तक कहते हैं कि आज के समय में कम्युनिस्ट तब तक नया कुछ नहीं कर सकते, जब तक कि वह बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों की तरफ़ देखना पूरी तरह से बन्द नहीं कर देते और यह मान नहीं लेते कि वे पूर्ण असफलता में समाप्त हुए। इस इतिहास-दृष्टि के बारे में जितना कम कहा जाये, उतना बेहतर है।

पूँजीवाद-विरोधी प्रतिरोध आन्दोलनों की समीक्षा करते हुए कहते है कि आज जो पूँजीवाद-विरोधी प्रतिरोध आन्दोलन हो रहे हैं वह बेहद अराजकतापूर्ण हैं और अस्त-व्यस्त (messy) हैं। लेकिन उन्हें इसी रूप में स्वीकार करने की ज़रूरत है। अस्त-व्यस्त आन्दोलनों के सैद्धान्तिकीकरण के व्यवस्थित होने की ज़ि‍ज़ेक विरोध करते हैं। अगर वस्तुगत परिस्थिति में अराजकता, उथल-पुथल और अस्त-व्यस्तता है, तो इसका यह नतीजा कैसे निकाला जा सकता है उसका सैद्धान्तिक विश्लेषण भी अस्त-व्यस्त होना चाहिए? एक तरफ़ तो ज़ि‍ज़ेक मौजूदा प्रतिरोध-आन्दोलनों को ज्यों का त्यों स्वीकार करने की हिमायत करते हैं, वहीं दूसरी ओर वह उनकी आलोचना करते हुए कहते हैं कि वे मौजूदा व्यवस्था का अंग हैं, और चूँकि उनके पास किसी भावी कम्युनिस्ट समाज का प्रस्ताव या विज़न नहीं है, इसलिए वे प्रगतिशील नहीं हैं, बल्कि वे उन वर्गों के आन्दोलन हैं जिन्हें अपनी विशेषाधिकर-प्राप्त सामाजिक स्थित के खोने का भय है। इसके बाद वह यह भी कहते हैं कि भावी कम्युनिज़्म के बारे में कोई विज़न या ठोस प्रस्ताव होना ही नहीं चाहिए, और हमारा प्रस्ताव होना चाहिए कम्युनिज़्म एब्सकॉण्डिटस! अब आप ही बतायें कि ज़ि‍ज़ेक आख़िर कहना क्या चाहते हैं? कुछ नहीं! यह सारा सैद्धान्तिक तमाशा एक निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवाद के अलावा और कुछ नहीं है, जिसे लकानियन शोरबे और हेगेलीय मसाले के साथ छद्म-मार्क्सवादी अँगीठी पर परोसा जा रहा है। इसका कोई ऑपरेटिव पार्ट नहीं है।

हम देख सकते हैं कि छद्म-मार्क्सवादी आवरण में ज़ि‍ज़ेक मार्क्सवाद की स्थापित बुनियादी प्रस्थापनाओं को ख़ारिज करने की ही कोशिश करते है। भावी मुक्तिकामी परियोजना की कोई तस्वीर न तो वह पेश करते हैं न ही ऐसा करने के हिमायती हैं। वह अगर कुछ करने में सक्षम हैं तो वह है निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवादी और नुक़सानदेह रूप से भ्रामक सैद्धान्तिकीकरण, जिसके ज़रिये वह दुनिया की एक बेहद दयनीय रूप से असफल व्याख्या ही कर पाते हैं।

‘ऑपराइज़्मो’ (मज़दूरवाद) की ज़मीन पर एण्टोनियो नेग्री-माइकल हार्ट की ‘अमूर्त’ ‘अभौतिक’, ‘आकारविहीन’ सैद्धान्तिकी

दार्शनिकों ने

दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है

पर सवाल उसको बदलने का है।

लेकिन हम ख़ुद सोचेंगे

सभी सवालों पर फिर से,

नये ढंग से।

हर पुरानी चीज़ पर

सवाल उठाना हैं हमें

जैसे कि इस कथन पर भी

कि दार्शनिकों ने …

       – कात्यायनी (दुनिया बदलने के बारे में कतिपय सुधीजनों के विविध विचार-6)

अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘एम्पायर’ (2000) के फ़्रांसीसी संस्करण की शुरुआत एण्टोनियो नेग्री और माइकल हार्ट इस दावे के साथ करते हैं कि इस पुस्तक के ज़रिये उन्होंने ”इक्कीसवीं सदी का नया कम्युनिस्ट घोषणापत्र” लिखने की कोशिश की है। इसके अलावा नेग्री और हार्ट का यह भी मानना है कि जहाँ अन्य उत्तर-मार्क्सवादी विचारक पुरानी शब्दावली से ही काम चला रहे हैं, वहाँ इन दोनों ने नयी शब्दावली गढ़ी है। वैसे इस नयी शब्दावली के पीछे की पूरी सैद्धान्तिकी में मार्क्सवाद को छोड़कर सब कुछ मिल जाता हैं। इसमें आपको स्पिनोज़ा का प्रकृतिवादी यान्त्रिक भौतिकवाद मिल जायेेगा; गिलेश डेल्यूश, फ़ेलिक्स ग्वातारी, मिशेल फ़ूको का उत्तर-आधुनिकतावाद मिल जायेेगा; यहाँ तक कि अमेरिकी संघवादी जेम्स मैडिसन का सिद्धान्त भी आपको इनके लेखन में मिल जायेेगा, साथ ही नेग्री-हार्ट की इस अजीबो-ग़रीब मिश्रण वाली उत्तर-मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी की जड़ में इतालवी मज़दूरवाद (ऑपराइज़्मो) की ग़ैर-मार्क्सवादी अर्थवादी सोच है। नेग्री-हार्ट की प्रातिनिधिक रचनाओं – ‘एम्पायर’ (Empire, 2000), मल्टीट्यूड (Multitude, 2004), कॉमनवेल्थ (Commonwealth, 2009) के सन्दर्भ में संक्षिप्त चर्चा करते हुए हम इनके प्रमुख राजनीतिक-विचारधारात्मक सैद्धान्तिकीकरणों की पड़ताल करेंगे। चूँकि मज़दूरवाद का इतालवी संस्करण (ऑपराइज़्मो) लेखकद्वय की सैद्धान्तिकी में एक विशेष स्थान रखता है, बल्कि यूँ कहें तो इनकी पूरी उत्तर-मार्क्सवादी सैद्धान्तिक अट्टालिका, मज़दूरवाद के राजनीतिक आधार पर खड़ी है, इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि एक सरसरी निगाह हम ऑपराइज़्मो की इस विशिष्ट इतालवी परिघटना पर भी डालें।

अंटोनियो (टोनी) नेग्री ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत इटली में 1950-1960 के दशक के मज़दूर आन्दोलनों में शिरकत से की। 1970 के दशक के ऑटोनोमिस्ट आन्दोलन के प्रमुख नेता और सिद्धान्तकारों में से एक रहे नेग्री रोमन कैथोलिक ग्रुप (GIAC) से भी जुड़े हुए थे। 1956 से 1963 तक इतालवी समाजवादी पार्टी के सदस्य भी रहे। पार्टी छोड़ने के बाद इतालवी ऑपराइज़्मो के जन्मदाता मारियो ट्रोण्टी के साथ जुड़े। 1950 के दशक की शुरुआत में मारियो ट्रोण्टी इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी (PCI) के सदस्य थे। पार्टी छोड़ने के बाद 1959 में वह इतालवी समाजवादी रैनिएरो पांशिएरी के साथ Quadoni Rossi (Red notebook) नामक पत्रिका निकालने लगे। 1966 में उन्होंने Operai e Capitale (Workers and Capital) लिखा और 1967 में पार्टी में फिर लौट आये ताकि ऑपराइज़्मो को एक सिद्धान्त के तौर पर पार्टी के अन्दर भी लागू किया जा सके।

1968 में ओपराइस्टों (मज़दूरवादियों) के समूह में मुख्य रूप से दो मुद्दों पर फूट पड़ गयी। पहला मुद्दा था, इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों का प्रभुत्व और दूसरा मुद्दा था, CGIL (General Italian Confederation of Workers) द्वारा सामाजिक संघर्षों में हस्तक्षेप एवं मध्यस्थता की पद्धति पर ज़्यादा ज़ोर देने की आवश्यकता को रेखांकित किया जाना। नेग्री ने 1968 में ट्रोण्टी का साथ छोड़ दिया, क्योंकि नेग्री का मानना था कि पी.सी.आई. की राजनीति अब कोई नया मोड़ नहीं ले सकती है, जबकि ट्रोण्टी एक और कोशिश करने की बात कह रहे थे। इसी समय नेग्री ने पोतेरे ओपराइया नामक ग्रुप की स्थापना की जो 1968 से 1973 तक सक्रिय रहा और 1975 में ऑटोनोमिया आन्दोलन से जुड़ गया।

इतालवी मज़दूर आन्दोलन में ऑपराइज़्मो की धारा 1960 के दशक में जड़ जमाने लगी। चूँकि कोई क्रान्तिकारी विकल्प मौजूद नहीं था (इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी का संशोधनवादी और समझौता-परस्त चरित्र 1950-60 का दशक आते-आते साफ़ हो चुका था) इसलिए ऑपराइज़्मो जैसी विजातीय प्रवृत्तियों को मज़दूर आन्दोलन के बीच फलने-फूलने का मौक़ा मिला। ऑपराइज़्मो धारा के मुख्य सिद्धान्तकार थे – मारियो ट्राण्टी, एण्टोनियो नेग्री और पाउलो विरनो। 1960 एवं 1970 के दशक इटली की जनता में फैले भयानक असंतोष और जनउभारों के दशक हैं। तत्कालीन सरकार की आर्थिक नीतियों ने कृषि आधारित दक्षिणी इटली से औद्योगिक क्षेत्र उत्तरी इटली की ओर प्रवास की स्थिति पैदा कर दी। औद्योगिक क्षेत्र को सस्ता श्रम मिल रहा था लेकिन सरकार इतनी बड़ी जनसंख्या को शहरों में गुज़र करने के लिए अन्य सुविधएँ देने में असमर्थ थी। इस स्थिति ने मज़दूर आन्दोलनों को जन्म दिया। ये मज़दूर आन्दोलन जल्दी ही जनता के आन्दोलनों में तब्दील हो गये। 1962 में तूरिन में फियेट (Fiat) के मज़दूरों ने बड़ी हड़ताल की। 1968 में बड़े पैमाने पर हड़तालें और हिंसात्मक घटनाएँ हुईं। इसी दौरान 1970 में विश्व पूँजीवाद मन्दी के दौर में प्रवेश कर चुका था और दुनिया भर में (फ़्रांस, जर्मनी, ग्रीस आदि) जनता के आन्दोलनों का दौर शुरू हो चुका था। 1975 में इटली में ऑटोनोमिया आन्दोलन शुरू हुआ जिसमें बड़ी संख्या में मज़दूर, स्त्रियाँ, छात्रा, युवा बेरोशगार सभी शामिल थे। यह आन्दोलन स्वतःस्फूर्त और प्रतिनिधित्व-विरोधी (anti-representation) था। ओपेराइस्ट (Operaist) विचारकों ने इन आन्दोलनों से अपनी सैद्धान्तिक प्रामाणिकता प्राप्त की। इनमें लिबरटैरियन, अराजकतावादी, नव-अराजकतावादी, ”विचारधारा-मुक्त” राजनीतिक कार्यक्रम यानी कि मज़दूर आन्दोलनों की हर क़ि‍स्म की विजातीय प्रवृत्तियाँ मौजूद थीं।

मज़दूरवाद का इतालवी संस्करण ऑपराइज़्मो ”मज़दूर वर्ग की संरचना” में आये ”बदलावों” को रेखांकित करने की बात करता है। तात्पर्य यह है कि वह सर्वहारा वर्ग को नये तरीके से परिभाषित करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, दिहाड़ी मज़दूर (wage earning workers), कर्मचारी (white coller), शारीरिक श्रम करने वाले औद्योगिक मज़दूर (blue collar) और छात्र, बेरोज़गार युवा, घरेलू कामगार आदि सभी इस ”नये सर्वहारा” में शामिल हैं। इनमें वे सभी हैं जो यूनियन के किसी भी रूप में संगठित नहीं हैं। यह सिद्धान्त ”मास वर्कर्स” के ”सोशलाइज़्ड वर्कर्स” में रूपान्तरण की अवधारणा देता है। यह सोशलाइज़्ड वर्कर उच्च शिक्षा प्राप्त, बौद्धिक कार्यों के ‘मानकीकरण’ एवं ‘सर्वहाराकरण’ से पैदा हुआ वर्ग था। यह वर्ग अकुशल एवं शारीरिक श्रम करने वाले ”मास वर्कर” से भिन्न था। नेग्री-हार्ट की ‘अभौतिक श्रम’ (immaterial labour) की अवधारणा का स्रोत सर्वहारा वर्ग की यही ‘नयी परिभाषा’ है। ऑपराइज़्मो राज्य, ट्रेड यूनियन, पार्टी या किसी भी तरह के अनुशासित राजनीतिक संगठन से मज़दूर वर्ग को मुक्त रखने का हिमायती है तथा ”स्वतः संगठित प्रतिरोध” को प्रधनता देता है, क्रान्ति की जगह ”विप्लव” की बात करता है लेकिन ”विप्लव” कब, कौन, कैसे करेगा; इसका कोई जवाब नहीं देता –

”हम क्रान्ति नहीं विप्लव की बात करते हैं : आज यह ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि पूँजी द्वारा सर्वहारा के एकजुट मोर्चे को तोड़ने के लिए ली गयी पूर्ण पहलक़दमी को लगातार परास्त किया जायेे।” (Crisi dello stato-Piano, Negri, pg. 42)

आगे नेग्री ने लिखा है, कि लेनिन ने सर्वहारा के एकीकरण की जो प्रक्रिया बतायी है वह आधुनिक विश्व में उलट गयी है। अब पार्टी के नेतृत्व में ”ऊपर से नीचे” (Top-down process) की प्रक्रिया की जगह ”जन अग्रगामी समूह” (mass avant gardes) से उत्प्रेरित ”नीचे से ऊपर” (bottom-up) प्रक्रिया की ज़रूरत है। यह लेनिनवादी पार्टी और हिरावल की अवधारणा को ख़ारिज करना ही है। ऑपराइज़्मो ने एक और विचित्र क़ि‍स्म का सैद्धान्तिकीकरण पेश किया है। इसे अस्वीकरण के सिद्धान्त (Theory of refusal) की संज्ञा दी गयी। इसके अनुसार मज़दूर वर्ग, पूँजीवादी व्यवस्था को अपना श्रम देने से इंकार और पूँजीवादी विकास में अपनी सहभागिता से इंकार करेगा। यह कैसे सम्भव होगा, ऑपराइज़्मो के सिद्धान्तकार यह बताना ज़रूरी नहीं समझते। ऑपराइज़्मो के संक्षिप्त परिचय के बाद हम नेग्री और हार्ट के सैद्धान्तिक लेखन पर बात करेंगे।

नेग्री और हार्ट की सैद्धान्तिकी पर विस्तार से बात करने से पहले सारतः कुछ बातें स्पष्ट कर देनी ज़रूरी हैं। पहली, यह कि नेग्री और हार्ट के अनुसार मार्क्सवादी सिद्धान्त एवं पद्धति पिछले 150 वर्षों, विशेषकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पैदा हुए नये यथार्थ को समझने के लिए नाकाफ़ी है। मार्क्सवाद को सिरे से ख़ारिज करते हुए लेखकद्वय का विचार है कि आज आर्थिक और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष को एक नया रूप चुनना होगा। ऐसी नयी अवधारणाएँ खोज निकालनी होंगी जो नये यथार्थ के अनुरूप हो और बड़े पैमाने पर जनता के राजनीतिक संघर्ष की वस्तुगतता की पुनर्स्थापना करे। (यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि वह रूप कैसा होगा?) दूसरी, कि जिस प्रकार पूँजीवाद के अन्दर समाजवाद के भौतिक आधार मौजूद होते हैं उसी तरह आज इस भूमण्डलीकरण ने सामाजिक एवं आर्थिक न्याय पर आधारित एक विश्वव्यापी समाज की ज़मीन तैयार कर दी है। उत्पादन एवं श्रमिक वर्ग की संरचना में आये बदलावों ने पूँजी के उत्पीड़न और दमन के खिलाफ़ संघर्ष के नये अवसर पैदा किये हैं। ऐसे सिद्धान्त-प्रतिपादनों के द्वारा नेग्री-हार्ट पूँजीवाद साम्राज्यवाद के ‘अपॉलोजिस्ट्स’ की भूमिका बखूबी निभा रहे हैं। तीसरी, कि आज साम्राज्यवाद का दौर नहीं ”एम्पायर” (Empire) का दौर है इसलिए देशीय या क्षेत्रीय स्तर पर संघर्ष का कोई मतलब नहीं है और सर्वहारा वर्ग जैसा कोई केन्द्रीकृत वर्ग नहीं है, बल्कि निर्गुण, निराकार ”मल्टीट्यूड” है जो किसी राज्य-सत्ता के अन्तर्गत नहीं बल्कि ”ग्लोबल सिटीज़नशिप” के अन्तर्गत है और विप्रादेशिकृत (deterritorialized) है। चौथी, कि यह ”मल्टीट्यूड” सामाजिक स्तर पर उत्पीड़ित ”भूमण्डलीकृत जनसंख्या” है जो ”एम्पायर” के अन्दर ही गठित हो रही है। यह मल्टीट्यूड ‘एम्पायर’ के खिलाफ़ परस्पर सहभागिता और सहकार के आधार पर साझा सम्पदा ”कॉमन” (Common) की खोज करेगा और स्वतः ही संगठित होगा। यह बात दीगर है कि उनकी किताब ‘कॉमनवेल्थ’ के दो सौ पन्ने इसी बात की असफल खोज करते हुए रंगे गये हैं कि यह ”कॉमन’ अस्तित्वमान कैसे होगा! पाँचवीं, कि बीसवीं शताब्दी के तमाम क्रान्तिकारी प्रयोग ग़ैर-जनवादी और निरंकुश शासन (Tyranny) थे इसलिए ”कॉमन” की खोज करनी होगी।

अब नेग्री-हार्ट की सैद्धान्तिकी के विस्तार पर आते हैं। अपने लेखन में नेग्री और हार्ट पूँजीवाद या साम्राज्यवाद शब्द का प्रयोग नहीं करते बल्कि ‘एम्पायर’ की बात करते हैं। यह ‘एम्पायर’ किसी भी सीमा में नहीं बँधा हुआ है और इसका कोई केन्द्र नहीं है। यह कोई ऐतिहासिक सत्ता नहीं बल्कि निरपेक्ष सत्ता है। यहाँ नेग्री-हार्ट, डेल्यूज़ और ग्वातारी जैसे उत्तर-आधुनिकतावादियों से ”डिटेरिटोरिअलाइज़ेशन” की अवधारणा ले आते हैं जिससे उनका तात्पर्य है पूँजी और जनसंख्या का सीमातीत ग्लोबल प्रसार। उनके अनुसार यह ‘एम्पायर’ इतिहास की गति में कोई अवस्था नहीं है, बल्कि एक ऐसी सत्ता है जो इतिहास से बाहर है या इतिहास के अन्त पर है। यह मनुष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों को ही संचालित नहीं करता है बल्कि मानव प्रकृति को भी शासित करता है और समाज में गहरायी तक व्याप्त है। इस प्रकार यह ‘बायोपॉवर’ (जैवशक्ति) का पैराडाइम रचता है। ‘बायोपॉवर’ की यह अवधारणा फ़ूको की दी हुई है जिसके अनुसार ‘बायोपॉवर’ आधुनिक राष्ट्र-राज्य (Nation State) और पूँजीवाद द्वारा ”बॉडीज़” (Bodies) को अधीन करके जनसंख्या पर नियन्त्रण रखता है। यहाँ फ़ूको व्यक्ति को एक जैविक सत्ता के रूप में ”बॉडी” का नाम देता है। अब आइये इस पूरे बौद्धिक-सैद्धान्तिक गड़बड़झाले की पड़ताल करते हैं।

‘डिटेरिटोरियलाइज़ेशन’ की इस अवधारणा में इसके नाम के अलावा कुछ भी नया नहीं है। विस्तार और प्रसार तो पूँजी की चारित्रिक विशेषता है और नैसर्गिक गति है। बिना स्वयं को प्रसारित किये वह अपना अस्तित्व नहीं बचा सकती। इसलिए भूमण्डलीकरण के दौर में वह अपने वैश्विक प्रसार से सभी बाधओं को हटाते जाती है ताकि वित्तीय पूँजी एवं माल का आगमन-निगमन सुगम बनाया जा सके। इस यथार्थ का सैद्धान्तिकीकरण मार्क्सवाद ने ही किया था। फैशनेबल नाम देकर उत्तर-मार्क्सवादी इसे अपना आविष्कार बताने पर तुले हुए हैं। जहाँ तक मिशेल फ़ूको के ”बायोपावर” और ”बायोपॉलिटिक्स” जैसी अवधारणाओं का प्रश्न है तो यह सत्ता की अपराजेयता को ही रेखांकित करने के लिए गढ़ी गयी हैं। यह उसी पुरानी फू़कोल्डियन उत्तर-आधुनिकतावादी सैद्धान्तिकी का विस्तार मात्रा है कि सत्ता पोर-पोर में समायी हुई है और इसलिए सत्ता का सामूहिक प्रतिरोध व्यर्थ है। इस सिद्धान्त के अनुसार सत्ता का सामूहिक प्रतिरोध हर-हमेशा स्वयं सत्ता की संरचनाओं को जन्म देगा इसलिए इस प्रतिरोध को वैयक्तिक और निजता की जगत में हर प्रकार के सार्वभौमिक और मानक को तोड़ कर किया जाना चाहिए।

बकौल नेग्री-हार्ट ”एम्पायर” के अंदर एक ऐसी प्रतिरोधी ताक़त पैदा हो रही है जो इसे परास्त करेगी। वह ताक़त है ”मल्टीट्यूड”। यह ”मल्टीट्यूड” उनके लिए वर्ग का स्थानापन्न है। इसकी अवधारणा को विकसित करते हुए लेखकद्वय ”श्रम की संरचना” में आये ”बदलावों” की ओर इंगित करते हैं और ”अभौतिक श्रम” (Immaterial labor) की एक नयी अवधारणा देते हैं। उनके अनुसार बीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में औद्योगिक श्रम का वर्चस्व ख़त्म हो गया और इसकी जगह ”अभौतिक श्रम” स्थापित हो गया। यह अभौतिक श्रम ज्ञान, सूचना, संचार, रिलेशनशिप, भावनात्मक संप्रेषण आदि उत्पादित करता है। यानी सेवा क्षेत्र, बौद्धिक श्रम और संज्ञानात्मक श्रम ”अभौतिक श्रम” हैं। इस अभौतिक श्रम के द्वारा जो उत्पादन पैदा होता है यह ”बायोपोलिटिकल उत्पादन” है। बायोपोलिटिकल इसलिए कि यह विचार, इमेज, संकेत उत्पादित करता है। यह उत्पादन स्वायत्त है और इसे मापा नहीं जा सकता है। यही बायोपोलिटिकल उत्पादन ‘मल्टीट्यूड’ को परस्पर सहभागिता एवं सहकार की ओर ले जायेेगा।

क्रान्तिकारी वर्ग राजनीति को ख़ारिज करते हुए वे कहते हैं कि, क्रान्तिकारी वर्ग राजनीति का उद्देश्य बस सभी को सार्वभौम रूप से दो वर्गों – बुर्जुआ और सर्वहारा में बाँट देना है और इसलिए सामाजिक समानता पर आधारित संरचना पैदा कर पाने में वह असमर्थ है। आज चूँकि अलग-अलग अस्मिताओं और ”सिंग्युलैरिटी” का सवाल अहम है इसलिए इस तरह की राजनीति अप्रासंगिक है। आज सिर्फ़ ”ग़ैर-क्रान्तिकारी परियोजनाएँ” ही मज़दूरों की अस्मिताओं की रक्षा कर सकती हैं। यह और कुछ नहीं बल्कि वही पुराना उत्तर आधुनकितावादी राग है जो अस्मितावादी राजनीति की बात करता है। अब चूँकि क्षेत्र, जाति, भाषा, नस्ल, धर्म की विभिन्नताएँ मौजूद हैं इसलिए इन्हें एक ही चीज़ है जो समाहित कर सकती है, वह है परम ”उदार” ”मल्टीट्यूड” जो ”एकता में अनेकता” का मॉडल देता है।

नेग्री व हार्ट आगे बताते है कि अब राजनीतिक संघर्ष ‘निष्क्रमण’ (Exodus) के रूप में होगा। मल्टीट्यूड समय के साथ परिपक्व होगा और इस अवस्था में पहुँचेगा कि ”बायोपोलिटिकल उत्पादन” में पैदा हुए श्रम की स्वायत्तता के बल पर ख़ुद को ”एम्पायर” से अलग कर लेगा। (Commonwealth, पृ. 153) दरअसल इस ”एक्सोडस” की जड़ें ऑपराइज़्मो के ”अस्वीकरण सिद्धान्त” में हैं। लेकिन इतना सारा ”अहम कार्य” मल्टीट्यूड करेगा कैसे? अब श्रीमान नेग्री-हार्ट को तो पार्टी और हिरावल जैसी अवधारणाओं से परहेज़ है, क्योंकि इस तरह के संगठन ”अस्मिता” का हनन कर देते हैं इसलिए सहभागिता, स्वायत्तता और ”नेटवर्क संगठन” (Network Organisation) ही उसे संगठित करेंगे। अब आपको नेग्री और हार्ट बारहवीं शताब्दी में ले जाते हैं और एक ”सोशल वर्कर” की अवधारणा देते हैं। यह सोशल वर्कर 12वीं शताब्दी के इतालवी कैथोलिक उपदेशक सेंट फ़्रांसिस ऑफ़ असीसी का चोगा पहनकर आदर्शवादी रूप में ”ड्यूटी” और ”अनुशासन” से काम करते हुए ”नेटवर्क संगठन” बनायेगा। बकौल नेग्री-हार्ट सेंट फ़्रांसिस ही ”भविष्य की राजनीति को रास्ता दिखायेंगे” (Empire, p.  413)। तो नेगी-हार्ट द्वारा प्रस्तावित मुक्तिकामी राजनीति के मॉडल – एक कैथोलिक धर्म गुरु हैं। अब आप देख सकते हैं कि इन सट्टेबाज़ दार्शनिकों का धुरीविहीन चिन्तन इन्हें कहाँ ले आया – सीधे धर्म की गोद में!

अब ज़रा बीसवीं शताब्दी के समाजवादी प्रयोगों और समाजवादी संक्रमण पर नेग्री-हार्ट की ”मौलिक” प्रस्थापनाओं पर भी एक सरसरी निगाह दौड़ाई जाये। बकौल नेग्री-हार्ट समाजवादी संक्रमण ”बायोपोलिटिकल इकोनॉमी” को नियन्त्रित करने में अक्षम है। आज उत्पादन औद्योगिक नहीं रहा बायोपालिटिकल (अभौतिक) हो गया है इसलिए समाजवाद की प्रासंगिकता ख़त्म हो गयी है। हालाँकि बीसवीं शताब्दी में एक शक्तिशाली आर्थिक मॉडल दिया गया लेकिन यह समझना आवश्यक है कि समाजवाद और पूँजीवाद कभी भी परस्पर विरोधी नहीं हैं, बल्कि समाजवाद पूँजीवादी उत्पादन के राज्य द्वारा प्रबन्धन का दौर है। यह चूँकि औद्योगिक पूँजी के प्रोत्साहन और विनियमन के लिए काम करता है इसलिए श्रम के अनुशासन की एक ऐसी सत्ता क़ायम करता है जो सरकार एवं नौकरशहाना संस्थाओं के द्वारा चलायी जाती है (Commonwealth, पृ. 269, 361, 362)। चूँकि समाजवाद औद्योगिक पूँजी के ”पैराडाइम” से निकलता नहीं इसलिए सारी क्रान्तियाँ विफल हो गयीं! वे आगे कहते हैं कि सोवियत यूनियन के अन्तिम दशकों में सामाजिक उत्पादन की आन्तरिक गतिकी और इसके राह की बाधाओं को देखना पड़ेगा। 1960 से 1980 के दशकों में सांस्कृतिक और विचारधारात्मक वातावरण विकसित हो रहा था जिसे समाजवादी व्यवस्था द्वारा दबाने की कोशिश की गयी। चूँकि इस रचनात्मकता की राह में बाधा खड़ी की गयी इसलिए स्थिरता की स्थिति बन गयी और उस दौरान हो रहा बायोपोलिटिकल उत्पादन दबकर रह गया।

तो बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों की यह बचकानी आलोचना नेग्री-हार्ट पेश करते हैं! इसे आलोचना कहना भी आलोचना शब्द का मज़ाक उड़ाना होगा! एक तो यह तथ्यात्मक रूप से भी ग़लत है। 1960 से 1980 के दशक जिसे नेग्री-हार्ट समाजवादी काल मान रहे हैं, वह तो समाजवाद का दौर था ही नहीं। दूसरे ”बायोपॉलिटिकल इकॉनमी” यानी की सूचना के उत्पादन (अभौतिक उत्पादन) की सम्भावनासम्पन्नता के प्रति इन विचारकों में एक प्रकार का फ़ेटिश (अन्धभक्ति) है। एक बात जो ये ‘चिन्तक’ नज़रअन्दाज कर जाते हैं वह यह कि उत्पादन में सूचना का कितना भी महत्व हो जायेे (और ऐसा कब नहीं था), भौतिक उत्पादन का महत्व और उसकी मानव जीवन के लिए अनिवार्यता किसी भी सूरत में कम नहीं हो सकती। अभौतिक उत्पादन करने वालों को भोजन, मकान, कपड़े व अन्य भौतिक वस्तुओं की ज़रूरत होगी, और इनके मिलने के बाद ही वह अभौतिक उत्पादन कर सकता है। साथ ही, आज सिर्फ़ संख्यात्मक तौर पर भी देखा जाये तो भौतिक उत्पादन करने वालों की तादाद अभौतिक उत्पादन करने वालों से कहीं ज़्यादा है। लेकिन भौतिक और अभौतिक उत्पादन के बीच इस प्रकार का बँटवारा ही अवैज्ञानिक और अतार्किक है।

इनकी पूरी सैद्धान्तिकी का सार-संक्षेप करे तो नेग्री और हार्ट जिस अभौतिक उत्पादन, अभौतिक श्रम और अभौतिक पूँजीवाद की बात करते है, जिसके अनुसार आज पूँजीवादी विश्व में सूचना प्रमुख और प्रभावी उत्पाद/माल बन चुकी है, और इसके उत्पादन में लगी श्रमशक्ति प्रमुख श्रम शक्ति बन चुकी है, वह इसीलिए गढ़ा गया है कि सर्वहारा वर्ग की परिभाषा को प्रदूषित किया जा सके। एक अभौतिक पूँजीवाद के नाश के लिए वह एक आकृतिविहीन आकारविहीन मल्टीट्यूड की कल्पना करते हैं। यह मल्टीट्यूड एक उतने ही आकारविहीन और आकृतिविहीन क़ि‍स्म के शासकों के समूह (एम्पायर) का तख्तापलट कर, कॉमन्स (साझा-सम्पदा) को निजी कब्ज़े से मुक्त करायेगा। इनकी सैद्धान्तिकी में पूँजीवाद एक अवैयक्तिक (इम्पर्सनल) शक्ति बन जाता है, प्रतिरोध एक अमूर्त चीज़ बन जाती है और प्रतिरोध करने वाले भी आकृतिविहीन वस्तु बन जाते हैं। यह पूरी अवधारणा बुनियादी मार्क्सवादी सिद्धान्तों, जैसे कि वर्ग की अवधारणा, निजी सम्पत्ति और पूँजी की अवधारणा, पार्टी और राज्य की अवधारणा आदि पर हमला करने के लिए ही गढ़ी गयी है।

अर्नेस्टो लाक्लाऊ और चैण्टल माउफ़ की ‘उग्रपरिवर्तनवादी जनवाद’ की अवधारणा : उत्तर-आधुनिकतावादी अस्मितावादी राजनीति की एक और सैद्धान्तिकी

दार्शनिकों ने

दुनिया की तरह-तरह से व्याख्या की है

पर सवाल उसको बदलने का है,

लेकिन मुकम्मिल तौर पर

बदलना इस दुनिया को

मेरे बूते की बात नहीं।

इसलिए मैं पैबन्द लगाता हूँ।

– कात्यायनी (दुनिया को बदलने के बारे में कतिपय सुधीजनों के विविध विचार-4)

आज उत्तर-मार्क्सवादी ‘दार्शनिकों’ की नयी  खेप (बेदियू, ज़ि‍ज़ेक, नेग्री-हार्ट आदि) के अवतरित होने के साथ अर्नेस्टो लाक्लाऊ और चैण्टल माउफ़ के सैद्धान्तिकीकरण बौद्धिक जगत से थोड़े ‘आउटडेटेड’ हो गये हैं। क्या करें, आजकल इनसे भी ज़्यादा ”रैडिकल” और गर्मागर्म जुमलों का इस्तेमाल करने वाले ”चिन्तकों” के ”चिन्तनों” का बाज़ार गर्म है! लेकिन 1985 जब ‘हेजेमनी एण्ड सोशलिस्ट स्ट्रैटजी : टुवर्ड्स ए रैडिकल डेमोक्रेटिक स्ट्रैटजी : टुवर्ड्स ए रैडिकल डेमोक्रेटिक पॉलिटिक्स’ प्रकाशित हुई थी तब इसे राजनीतिक सिद्धान्त की मार्क्सवादी परम्परा में एक ”ब्रेकथ्रू” रचना के तौर पर देखा जा रहा था क्योंकि यह ”मरणासन्न, जड़, कठमुल्लावादी” मार्क्सवादी सिद्धान्त से उत्तर-संरचनावादी, ”उत्तर-मार्क्सवादी” दर्शन की तरफ़ संक्रमण का संकेत दे रही थी। इस मायने में लाक्लाऊ-माउफ़ को उत्तर-मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी के जन्मदाता के तौर पर भी देखा जा सकता है। हालाँकि, आज इनका रचनाकर्म अकादमिक दायरों में उतनी हलचल नहीं पैदा कर पा रहा है, लेकिन आज तक ज़ि‍ज़ेक जैसे अधिक फैशनेबल उत्तर-मार्क्सवादी, लाक्लाऊ-माउफ़ की कई अवधारणाओं की बुनियाद पर ही अपने नित-नये सैद्धान्तिकीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

लाक्लाऊ और माउफ़, अपनी उक्त पुस्तक में क्रान्तिकारी सम्भावना की हर बात को ख़ारिज करते हुए ”उग्रपरिवर्तनवादी” सुधारवादी परियोजनाओं को हाथ में लेने की हिमायत करते हैं। इनका मानना है कि ‘कठमुल्लावादी’ मार्क्सवाद को उसके ‘सारभूतवादी’ (essentialist) तत्वों (यानी की वर्ग की अवधारणा, क्रान्तिकारी परिवर्तन की अवधारणा, हिरावल के रूप में पार्टी की अवधारणा, सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा) से निजात दिलाने के लिए समकालीन उत्तर-आधुनिकतावादी, उत्तर-संरचनावादी दर्शन के सैद्धान्तिक उपकरणों का इस्तेमाल करना पड़ेगा। साथ ही ज़ाक लकाँ, मिशेल फूको, रोलाँ बार्थ, ज़ाक देरिदा जैसे दार्शनिकों से भी काफ़ी कुछ सीखना होगा। मार्क्सवादी सिद्धान्त में अन्तर्निहित ‘आर्थिक नियतत्ववाद’ (economic determinism) को इसी तरह से दुरुस्त किया जा सकता है।

लाक्लाऊ और माउफ़ भी क्रान्तिकारी मार्क्सवादी विचारकों का अपनी उत्तर-मार्क्सवादी राजनीति के हिसाब से विनियोजन करने में पीछे नहीं रहते। यहाँ इन्होंने अपना निशाना ग्राम्शी को बनाया है। हालाँकि यह सिर्फ़ ग्राम्शी के सिद्धान्तों के हस्तगतीकरण तक नहीं रुकते बल्कि उससे भी आगे जाने की बात करते है! वैसे इसमें भी कुछ नया नहीं हैं! बेदियू माओ से भी आगे निकलकर उत्तर-माओवादी हो गये, ज़ि‍ज़ेक लेनिन से भी आगे निकलकर उत्तर-लेनिनवादी हो गये, लाक्लाऊ और माउफ़ ग्राम्शी से आगे निकलकर उत्तर-ग्राम्शीवादी हो गये! और यह सभी मिलकर, मार्क्सवाद की हदों को लाँघकर, मार्क्सवाद से भी अधिक रैडिकल विचारधारा की खोज करते हुए, उत्तर-मार्क्सवादी हो गये हैं!

अपने ‘उग्रपरिवर्तनवादी जनवाद’ की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए लाक्लाऊ और माउफ़ कहते हैं कि यह किसी ‘एक राजनीतिक स्पेस’ की बात नहीं करता बल्कि ‘जनवादी संघर्षों’ की ख़ोज ”राजनीतिक ‘स्पेस’ की बहुलता” में यक़ीन करता है। और यहाँ पर लाक्लाऊ और माउफ़ अपनी अस्मितावादी राजनीति की अवधारणा को लाते हैं। वर्ग-आधारित एकजुटता और तदजनित संघर्ष एक क़ि‍स्म की एकाशमीयता और सार्वभौमिकता का निर्माण करते हैं। चूँकि हर क़ि‍स्म की सार्वभौमिकता और सामान्यता दमनकारी होती है इसलिए आज के ‘रैडिकल जनवाद’ की परियोजना को नये सामाजिक आन्दोलनों – जैसे कि पर्यावरण, शान्ति से जुड़े आन्दोलनों, नारीवादी आन्दोलन, समलैंगिकों के आन्दोलन आदि को अपने दायरे में लाना होगा। भारत में कुछ बौद्धिकतावादी मार्क्सवादियों ने लाक्लाऊ और माउफ़ के इस सिद्धान्त को भारत के परिप्रेक्ष्य में जाति, जेण्डर, आदिवासियों आदि के संघर्ष पर लागू किया है और इस थीसिस तक गये हैं कि अब वर्ग संघर्ष अपने क्लासिकीय रूपों में नहीं होगा, बल्कि इन पहचानों के संघर्ष के रूप में होगा; या अब क्लासिकीय वर्ग संघर्ष तमाम ‘जनवादी संघर्षों’ में से एक होगा, जिनमें जाति, जेण्डर आदि के संघर्ष भी शामिल होंगे और वर्ग संघर्ष पर अलग से बल देना नियतत्ववाद होगा। अब तक यह स्पष्ट हो चुका है लाक्लाऊ-माउफ़ का राजनीतिक एजेण्डा वाक़ई में उत्तर-आधुनिकतावादी, अस्मितावादी राजनीति का एजेण्डा ही है। इनके लिए वर्ग-आधारित राजनीति अतीत की बात है। आज इसका दौर बीत चुका है। आज के दौर में सुधारवाद के ज़रिये, पैबन्दसाज़ी के ज़रिये पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही ‘रैडिकल जनवादी’ स्पेस बनाया जा सकता है, इसलिए इनके अनुसार क्रान्तिकारी परिवर्तन की, सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में क्रान्ति की कोई ज़रूरत नहीं रह गयी है। यही इनके सिद्धान्त की मूल अन्तर्वस्तु है।

अन्त में

इस पूरी चर्चा के बाद हम स्पष्ट तौर पर यह कह सकते हैं कि उत्तर-मार्क्सवाद के अलग-अलग ‘शेड्स’ के ‘सिद्धान्तकारों’ की भाँति-भाँति की सैद्धान्तिकियों का मक़सद मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अर्न्तवस्तु पर हमला करना है। सही मायनों में कहें, तो उत्तर-आधुनिकतावाद के प्रत्यक्ष हमलों के चुक जाने के बाद उत्तर-आधुनिकतावाद का विरोध करने की नौटंकी करते हुए, इन तमाम सट्टेबाज़ उत्तर-मार्क्सवादी दार्शनिकों के धुरी-विहीन चिन्तन और दार्शनिक ख़ानाबदोशी का वास्तविक निशाना एक बार फिर मार्क्सवाद ही है। इनके शब्द अलग हैं; उत्तर-आधुनिकतावाद जिस बेशर्मी के साथ पूँजीवाद की अन्तिम विजय, कोई विकल्प न होने, पहचान की राजनीति के समर्थन, आदि की बात करता था, अब वैसा करना असम्भव है और किसी के लिए ऐसा करना अपना मज़ाक उड़वाने जैसा होगा। इसलिए इन नये दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष तौर पर पूँजीवाद-विरोध की भाव-भंगिमा अपनायी है और पूँजीवाद की ये लोग एक ”नये क़ि‍स्म की आलोचना” करते हैं। आज के ज़माने में पूँजीवाद के ख़िलाफ़ आम जनता सड़कों पर उतर रही है। यह 1990 का दौर नहीं है जब दुनिया भर में पस्ती और निराशा छायी हुई थी। उस समय उत्तर-आधुनिकतावाद नंगे तौर पर ‘अन्त’ की घोषणाएँ कर सकता था। अब कोई भी विचारधारा जो ऐसा प्रयास करेगी, उसके हश्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए पूँजीवादी बौद्धिक तन्त्र ने अपनी सहज गति से नये क़ि‍स्म के ”दार्शनिकों” को पैदा किया है जिसमें से किसी को ‘मोस्ट एण्टरटेनिंग थिंकर’, ‘ग्रेटेस्ट लिविंग थिंकर’ आदि कहा जा रहा है तो किसी को ‘मोस्ट इनोवेटिव थिंकर ऑफ़ जेनरेशन’ और पता नहीं क्या-क्या कहा जा रहा है। लेकिन जैसा कि हमने देखा, इन नये ”दार्शनिकों” का निशाना भी वही है जो कि 1990 के दशक और 2000 के दशक की शुरुआत में उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धान्त आदि का था – मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु। आज इन तमाम उत्तर-मार्क्सवादियों दार्शनिकों की दार्शनिक आवारागर्दी की कठोर आलोचना की ज़रूरत है और इनके विचारों के वास्तविक मार्क्सवाद-विरोधी चरित्र को साफ़ करने की ज़रूरत है। यह समझने की ज़रूरत है कि शब्दों के सारे खेल और बाज़ीगरी के पीछे इनका इरादा और मक़सद क्या है।

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

सोवियत समाजवादी प्रयोगों के अनुभव : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पाँचवीं किस्त)

सोवियत समाजवादी प्रयोगों के अनुभव : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पाँचवीं किस्त)

  • अभिनव सिन्हा

अध्याय V
परिशिष्ट

अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच का इतिहास-लेखन : अन्तर्दृष्टि की दृष्टिहीनता

बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत समाजवादी प्रयोगों के बारे में इतिहास-लेखन को कई श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। एक श्रेणी सोवियत समाजवादी प्रयोगों के जारी रहने के दौरान लिखे गये बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत समाजवाद के प्रयोगों के तत्कालीन विवरणों की है, जिसमें स्तुलोव जैसे इतिहासकारों द्वारा लिखे गये इतिहास-लेखन से लेकर बोल्शेविक क्रान्ति के साक्षी या उसमें हिस्सेदारी करने वाले बोल्शेविकों द्वारा लिखे गये इतिहास व संस्मरण आदि शामिल हैं। दूसरी श्रेणी उन तत्कालीन ग़ैर-बोल्शेविक प्रेक्षकों के इतिहास-लेखन, रिपोर्ताज व संस्मरणों की है, जिनमें मेंशेविकों से लेकर समाजवादी-क्रान्तिकारियों और अराजकतावादियों द्वारा लिखे गये इतिहास-लेखन व संस्मरणों को शामिल किया जा सकता है, जैसे कि सुखानोव, मिल्युकोव आदि द्वारा लिखित विवरण। तीसरी श्रेणी तमाम ऐसे मार्क्सवादी अध्येताओं की है जो कि सोवियत संघ से बाहर थे और जो वहाँ पूँजीवादी पुनर्स्थापना के पहले और बाद के दौर के साक्षी रहे, जिनमें मॉरिस डॉब, चार्ल्स बेतेलहाइम, पॉल स्वीज़ी आदि को शामिल किया जा सकता है। और चौथी श्रेणी उन इतिहासकारों की है जो कि सोवियत संघ से बाहर थे और ग़ैर-मार्क्सवादी थे, जिसमें कि चैम्बरलेन, ई.एच. कार, इज़ाक डॉइशर, मार्क फेरो व अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच जैसे अध्येताओं को शामिल किया जा सकता है।

इस चौथी श्रेणी में कुछ ऐसे हैं जो बोल्शेविकों के प्रति सहानुभूति रखते हैं, हालाँकि बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत समाजवाद के प्रति उनका नज़रिया बुर्जुआ प्रत्यक्षवाद और अनुभववाद का नज़रिया है, जैसे कि कार व रैबिनोविच। कुछ ऐसे हैं जो कि बोल्शेविक पार्टी, ले‍निनवाद और सोवियत समाजवाद के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया रखते हैं, जिनमें मोटे तौर पर मार्क फेरो को भी शामिल किया जा सकता है। इनमें से कुछ त्रात्स्की के प्रति हमदर्दी रखने वाले लोग भी हैं, हालाँकि उन्हें सीधे तौर पर त्रात्स्कीपन्थी नहीं कहा जा सकता है।

एक पाँचवीं श्रेणी भी बनायी जा सकती है, जिसमें कि त्रात्स्की और उनके अनुयायियों के लेखन को शामिल किया जा सकता है। यह एक व्यापक श्रेणी है जिसमें आन्तरिक तौर पर काफ़ी वैविध्य है। इसमें स्वयं त्रात्स्की द्वारा किया गया इतिहास-लेखन ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, जिस पर हम अन्यत्र लिखेंगे। इन सारी श्रेणियों में हमने संशोधनवाद के दौर में सोवियत संघ में हुए इतिहास-लेखन को शामिल नहीं किया है, क्योंकि इसमें बेहद चालाकी के साथ तथ्यों का विकृतीकरण किया गया है और स्तालिन को संशो‍धनवादी तक बना देने का प्रयत्न किया गया है। सही मायने में इसे इतिहास-लेखन कहना ही मुश्किल है, यह प्रोपगैण्डा लेखन की श्रेणी में ज़्यादा फिट बैठेगा। इसलिए उसका हमने जि़क्र नहीं किया है। यह सच है कि स्तालिन के दौर में लिखे गये पार्टी इतिहास-लेखन की भी अपनी समस्याएँ हैं। मिसाल के तौर पर, विपक्ष में आने वाले सभी वामपन्थी या दक्षिणपन्थी धड़ों के विषय में, त्रात्स्की के विषय में और त्रात्स्की से चली बहसों के विषय में इन इतिहास-लेखनों में विस्तृत जानकारी नहीं मिलती, विशेष तौर पर, 1930 के बाद के दौर में। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि 1930 के दशक में विशेष तौर पर त्रात्स्की ने सोवियत संघ के बरक्स ए‍क प्रतिक्रान्तिकारी भूमिका निभायी थी। इसलिए इस दौर के सोवियत इतिहास-लेखन में एक निश्चित रूप में त्रात्स्की का चित्रण किया गया है। हमने प्रवृत्ति पर पहले टिप्पणी कर चु‍के हैं और अभी हम इस पर ध्यान केन्द्रित नहीं करेंगे।

फि़लहाल, हमारी दिलचस्पी चौथी श्रेणी में आने वाले एक अग्रणी इतिहासकार अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच के लेखन में है जिनकी तीन पुस्तकें आज विश्व भर में बोल्शेविक क्रान्ति पर पिछले चार-पाँच दशकों में हुए सबसे अच्छे शोध-कार्यों में मानी जाती है : ‘प्रिल्यूड टू रिवोल्यूशन’, ‘दि बोल्शेविक्स कम टू पावर’ और ‘दि बोल्शेविक्स इन पावर’। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है कि ये बहुमूल्य शोधकार्य हैं और हर मार्क्सवादी-लेनिनवादी को इनका अध्ययन कर लेना चाहिए। लेकिन जिस प्रकार ई.एच. कार का लेखन मूल दस्तावेज़ों के अध्ययन के आधार पर किया गया एक बहुमूल्य शोध होने के बावजूद अपने विशिष्ट विचारधारात्मक व राजनीतिक दृष्टिकोण के कारण अक्सर ग़लत नतीजों तक पहुँच जाता है, उसी प्रकार रैबिनोविच के शोध में भी तथ्यपरकता के बावजूद एक प्रकार की विचारधारा-अन्धता है (जो कि स्वयं एक विचारधारात्मक अवस्थिति ही है)। बल्कि कहना चाहिए कि रैबिनोविच का इतिहास-लेखन इस मायने में कार के इतिहास-लेखन से कमज़ोर ठहरता है। इसके निश्चित कारण हैं।

ई.एच. कार ब्रिटिश अनुभववाद व प्रत्यक्षवाद की धारा से आने वाले इतिहासकार हैं और साथ ही उन पर मार्क्सवादी विचारों के प्रभाव और विशेष तौर पर त्रात्स्की और त्रात्स्कीपन्थी विद्वानों (जैसे कि इज़ाक डॉइशर) के विचारों के प्रभाव से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन रैबिनोविच प्रत्यक्षवाद की अमेरिकी धारा से आते हैं जिसके कारण उनके इतिहास-लेखन में तथ्यपरकता तो है, लेकिन साथ ही व्यक्तिवादी विश्लेषण का काफ़ी प्रभाव है। इसलिए जहाँ कार व्यक्तियों के प्रभावों का विश्लेषण करते हुए भी ढाँचागत कारकों को प्रधानता देते हैं, वहीं रैबिनोविच के लेखन में व्यक्तियों की विशिष्ट भूमिकाओं पर अतिरेकपूर्ण ज़ोर है और कई बार तमाम ऐतिहासिक परिवर्तनों के लिए भी व्यक्तियों की भूमिका को ढाँचागत कारकों के साथ द्वन्द्वात्मक अन्तर्क्रिया में नहीं बल्कि स्वतन्त्र रूप से जि़म्मेदार ठहराया गया है।

साथ ही, रैबिनोविच का इतिहास-लेखन मूलत: उस दौर में हुआ जिस दौर में सोवियत संघ संशोधनवादी नेतृत्व में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के रास्ते पर काफ़ी आगे बढ़ चुका था। वहीं कार के 14 खण्डों के शुरुआती और सम्भवत: सबसे महत्वपूर्ण खण्ड 1950 से 1953 के बीच आ गये थे। सोवियत संघ उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध के भयावह विनाश और बलिदानों से उबर कर समाजवादी निर्माण की दिशा में आगे बढ़ रहा था और दुनिया के नवस्वाधीन और राष्ट्रीय मुक्ति के लिए संघर्षरत देशों के लिए एक प्रेरणास्रोत था। यही कारण है कि अपनी तमाम आलोचनाओं के बावजूद कार सोवियत संघ को विश्व राजनीति में एक प्रगतिशील शक्ति मानते थे। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि संशयवाद के चरम पर पहुँचने की अवधि में हुआ रैबिनोविच का इतिहास-लेखन इस कारण से भी कार के इतिहास-लेखन से काफ़ी अलग है। लेकिन रैबिनोविच के इतिहास-लेखन का विश्लेषण इस आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। वह उनके इतिहास-लेखन के ठोस नमूनों के आधार पर किया जाना चाहिए और यहाँ हम यही करेंगे।

हम यहाँ मुख्य रूप से उनकी पुस्तक ‘प्रिल्यूड टू रिवोल्यूशन’ का विश्लेषण करेंगे। उनकी दूसरी पुस्तक ‘दि बोल्शेविक्स कम टू पावर’ के बारे में संक्षेप में कुछ प्रेक्षण हम अध्याय के मुख्य हिस्से में कर चुके हैं। रैबिनोविच की पहली पुस्तक का विश्लेषण उनके इतिहास-लेखन को समझने के लिए पर्याप्त है क्योंकि रैबिनोविच की मूल थीसिस उनकी पहली पुस्तक में ही आ गयी है। आगे की दोनों पुस्तकों में केवल उस थीसिस को पुष्ट किया गया है। इसका यह अर्थ नहीं कि उनकी बाद की दोनों पुस्तकों को नहीं पढ़ा जाना चाहिए। कारण यह है कि ये तीनों ही पुस्तकें क्रान्तिकारी रूस में दिन-प्रतिदिन क्या हो रहा था, कैसे हो रहा था, इसका एक जीवन्त चित्र पेश करती हैं। यदि पाठक रैबिनोविच के इतिहास-लेखन की कमज़ोरियों से परिचित है तो उसके लिए ये पुस्तकें उपयोगी साबित हो सकती हैं।

रैबिनोविच की मूल थीसिस है एक ‘विभाजित पार्टी’ की थीसिस। इसके अनुसार बोल्शेविक पार्टी कोई एकाश्मी पार्टी नहीं थी जो किसी भी प्रश्न के बिना लेनिन के नेतृत्व के मातहत काम करती थी। रैबिनोविच का यह दावा है कि अधिकांश आधिकारिक सोवियत इतिहास-लेखन में ऐसी तस्वीर पेश की गयी है जिसके अनुसार बोल्शेविक पार्टी लेनिन की इच्छा के अन्तर्गत लौह-अनुशासन व चट्टान जैसी मज़बूती के साथ काम करने वाली पार्टी थी, जिसमें लेनिन प्रश्नों से इतर थे। हालाँकि जब आप यह देखते हैं कि रैबिनोविच के अनुसार ये ‘आधिकारिक सोवियत इतिहास-लेखन’ क्या हैं, तो आप पाते हैं कि वे सभी संशोधनवाद के दौर में लिखी गयी पुस्तकें हैं। 1956 के पहले की जिस इतिहास की पुस्तक को रैबिनोविच बार-बार उद्धृत करते हैं वह है स्तुलोव की पुस्तक जो कि 1930 में छपी थी और इस पुस्तक को रैबिनोविच अपना दावा सिद्ध करने के लिए उद्धृत करते हैं कि बोल्शेविक पार्टी एक ‘विभाजित पार्टी’ थी। ‘बोल्शेविक पार्टी का इतिहास’ को रैबिनोविच उद्धृत नहीं करते हैं। न ही रैबिनोविच लेनिन और स्तालिन के मूल लेखन से उन्हें उद्धृत करते हैं। अगर वे लेनिन और स्तालिन को उद्धृत करते भी हैं तो अधिकांशत: अन्य लोगों द्वारा लिखे गये संस्मरणों से करते हैं, जिसमें कि संस्मरण लेखकों ने स्मृति के आधार पर बताया है कि अमुक अवसर पर लेनिन या स्तालिन ने क्या कहा। कहीं-कहीं प्राव्दा व अन्य पत्र-पत्रिकाओं से लेनिन व स्तालिन को उद्धृत किया गया है, लेकिन बेहद कम। स्तालिन को तो कई जगह इरादतन ग़लत उद्धृत किया गया है और उनकी अवस्थितियों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है। साथ ही, जिन लोगों के संस्मरणों को सबसे ज़्यादा उद्धृत किया गया है, उनमें से अधिकांश मेंशेविक हैं। त्रात्स्की को ज़रूर उद्धृत किया गया है, विशेष तौर पर उनकी रचनाओं ‘रूसी क्रान्ति का इतिहास’ और ‘स्तालिन्स स्कूल ऑफ़ फ़ॉल्सीफ़ि‍केशन’ को। लेकिन त्रात्स्की को भी केवल तभी उद्धृत किया गया है, जब रैबिनोविच ‘विभाजित पार्टी’ के अपने सिद्धान्त को सिद्ध करने में त्रात्स्की को मददगार पाते हैं। जहाँ-जहाँ त्रात्स्की का इतिहास-लेखन ‘विभाजित पार्टी’ के रैबिनोविच के सिद्धान्त के विपरीत खड़ा है, वहाँ-वहाँ त्रात्स्की के लेखन की भी उपेक्षा कर दी गयी है।

सच्चाई यह है कि न तो लेनिन के लेखन में, न ही स्तालिन के लेखन में और न ही किसी अन्य बोल्शेविक नेता के लेखन में बोल्शेविक पार्टी की ऐसी तस्वीर मिलती है जिसमें लेनिन का नेतृत्व प्रश्नेतर हो और उनकी इच्छा के मातहत पूरी पार्टी एकाश्मी रूप से एकजुट हो। यहाँ तक कि ‘बोल्शेविक पार्टी का इतिहास’ में भी ऐसी तस्वीर नहीं पेश की गयी है, जिसे बुर्जुआ इतिहासकार व विद्वान सबसे ज़्यादा शक की निगाह से देखते हैं। साथ ही, 1956 से पहले लिखे गये सोवियत इतिहास लेखन में भी ऐसी कोई तस्वीर नहीं मिलती। कारण यह कि ऐसी तस्वीर पेश करने की सोवियत इतिहासकारों को कोई आवश्यकता नहीं थी। ऐसी आवश्यकता संशोधनवादियों और सामाजिक-फ़ासीवादियों की थी जो कि पार्टी के प्रति एकनिष्ठा के नाम पर पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध हर प्रतिरोध को ”प्रतिक्रान्तिकारी” क़रार देना चाहते थे। यही कारण है कि 1956 के पहले और विशेष तौर पर 1930 के दशक के पहले सोवियत इतिहास-लेखन की किस पुस्तक में ऐसी एकाश्मी पार्टी का मॉडल पेश किया जा रहा था, अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच नहीं बता पाते हैं। ग़ौरतलब है कि 1930 के दशक के मध्य से सोवियत संघ आन्तरिक और और बाह्य, दोनों ही तौर पर एक आपात स्थिति से गुज़र रहा था। फ़ासीवाद का ख़तरा सिर पर मँडरा रहा था; पार्टी में आन्तरिक कलह, षड्यन्त्र और दुरभिसन्धियों का माहौल ‘महान शुद्धीकरण’ के बाद भी समाप्त नहीं हुआ था और समाजवादी संक्रमण की समस्याओं की समुचित समझदारी न होने के कारण राज्यसत्ता में नौकरशाहाना विकृतियाँ बढ़ती जा रही थीं। इस दौर में जो इतिहास-लेखन हुआ, उसकी अपनी समस्याएँ हैं। मगर फिर भी उनकी तुलना संशोधनवाद के दौर में हुए इतिहास-लेखन से नहीं की जा सकती है।

अब हम उनकी पहली पुस्तक ‘प्रिल्यूड टू रिवोल्यूशन’ के विश्लेषण के आधार पर दिखलायेंगे कि रैबिनोविच का लेखन दस्तावेज़ी शोध और तथ्यों में समृद्ध होने के बावजूद अपने विचारधारात्मक व राजनीतिक पूर्वाग्रहों के कारण बोल्शेविक क्रान्ति के इतिहास की एक असन्तुलित और कहीं-कहीं विकृत तस्वीर पेश करता है।

फ़रवरी से जुलाई के दौर के विषय में रैबिनोविच : ‘विभाजित पार्टी’ की अवधारणा को सिद्ध करने का व्यर्थ प्रयास

‘प्रिल्यूड टू रिवोल्यूशन’ के 1991 में प्रकाशित हुए मिडलैण्ड संस्करण की प्रस्तावना के प्रारम्भ में ही रैबिनोविच अपने उद्देश्य को स्पष्ट कर देते हैं। वह लिखते हैं कि 1964 में ख्रुश्चेव के सत्ताच्युत होने के बाद ”स्तालिनवादी ऑर्थोडॉक्सी” पुन: सशक्त हो गयी है और फिर सोवियत इतिहास के बारे में सभी पाश्चात्य अध्येताओं की रचनाओं को हमले का निशाना बनाना शुरू कर दिया गया है। पाश्चात्य प्रेक्षकों के लिए ख्रुश्चेव प्यारा था और ब्रेझनेव उतना प्यारा नहीं था, तो यह सहज ही समझा जा सकता है। ब्रेझनेव का दौर अमेरिका के साथ सामाजिक-साम्राज्यवाद की प्रतिस्पर्द्धा के अभूतपूर्व उभार का दौर था, जबकि ख्रुश्चेव को निश्चय ही पूँजीवादी पुनर्स्थापना के अगुवा के रूप में पश्चिमी विश्व में प्रतिष्ठा प्राप्त थी। रैबिनोविच के अनुसार ब्रेझनेव के दौर के सोवियत इतिहासकारों के द्वारा उनकी रचनाओं को विशेष तौर पर निशाना बनाया गया क्योंकि उनके शोध ने ठोस प्रमाणों के आधार पर दिखलाया था कि लेनिन के नेतृत्व के अन्तर्गत एकजुट एकाश्मी पार्टी की स्तालिनवादी अवधारणा झूठ है और साथ ही यह भी दिखलाया कि सोवियत इतिहास-लेखन के विपरीत जुलाई में पेत्रोग्राद में हुआ मज़दूरों व सैनिकों का प्रदर्शन कोई शान्तिपूर्ण प्रदर्शन नहीं था, बल्कि एक बग़ावत थी।

यह स्वाभाविक ही है कि एक बुर्जुआ इतिहासकार होने के नाते रैबिनोविच 1953-56 के पहले और बाद के दौर के बीच फ़र्क़ नहीं करते। उनके लिए संशोधनवादी दौर और संशोधनवाद के पहले के दौर के बीच कोई अन्तर नहीं है। उल्टे ख्रुश्चेव उनके लिए एक सुधारक था जबकि ख्रुश्चेव के जाने के बाद ब्रेझनेव के दौर में स्तालिनवाद की वापसी हो गयी थी। शीतयुद्ध के दौर में सारे अमेरिकी इतिहास-लेखन की यह एक साझा थीम है और इसके बारे में हमें ज़्यादा कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन असल मुद्दा यहाँ यह है कि रैबिनोविच के लिए ‘सोवियत इतिहास-लेखन’ का क्या अर्थ है? चूँकि वे संशोधनवाद और क्रान्तिकारी मार्क्सवाद-लेनिनवाद में कोई फ़र्क़ नहीं करते इसलिए लाज़ि‍मी है कि वे 1953-56 के पहले के सोवियत इतिहास-लेखन और 1960 के दशक से हुए सोवियत इतिहास-लेखन में कोई अन्तर नहीं करेंगे। लेकिन अगर वे फ़र्क़ न करते और सोवियत इतिहास-लेखन में 1953-56 से पहले हुए इतिहास-लेखन को भी शामिल करते तो बेहतर होता। वे अपने ”सोवियत इतिहास-लेखन” में केवल 1956 के बाद की रचनाओं का जि़क्र करते हैं। वे 1930 में छपी स्तुलोव की पुस्तक का जि़क्र करते हैं, लेकिन यह साबित करने के लिए कि उनकी ‘विभाजित पार्टी’ की अवधारणा सही है। यानी कि स्तुलोव की पुस्तक को वे सोवियत इतिहास-लेखन का प्रातिनिधिक उदाहरण नहीं मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार वह किसी एकाश्मी बोल्शेविक पार्टी का चित्र नहीं पेश करती है। स्तुलोव के अतिरिक्त, वे 1956 के पहले के किसी इतिहास-लेखन का जि़क्र नहीं करते, हालाँकि वे 1956 के पहले लिखे गये तमाम रिपोर्ताजों व संस्मरणों का जि़क्र ज़रूर करते हैं। लेकिन केवल इसी आधार पर उनका यह दावा रद्द हो जाता है कि सोवियत इतिहास-लेखन में लेनिन के नेतृत्व में एकाश्मी तौर पर एकजुट बोल्शेविक पार्टी की तस्वीर पेश की गयी है, कि न तो 1956 के पहले की किसी भी इतिहास की रचना में ऐसी कोई तस्वीर मिलती है और न ही लेनिन या स्तालिन या किसी अन्य बोल्शेविक के लेखन में ऐसी कोई तस्वीर मिलती है। यहाँ तक कि ‘बोल्शेविक पार्टी का इतिहास’ में भी ऐसी कोई तस्वीर नहीं मिलती है। इन सभी स्रोतों में जो तस्वीर मिलती है वह एक ऐसी पार्टी की तस्वीर है जिसमें दो लाइनों का तीखा और जीवन्त संघर्ष लगातार जारी था और जो जनवादी केन्द्रीयता के बुनियादी उसूलों पर काम कर रही थी। यह सम्भव है कि स्तालिन के दौर में हुए पार्टी इतिहास-लेखन की कुछ अपनी समस्याएँ हों। लेकिन पार्टी के भीतर शुरू से ही जारी तीखे दो लाइनों के संघर्ष की तस्वीर उसमें भी मिल जाती है।

रैबिनोविच पार्टी के भीतर जारी दो लाइनों के संघर्ष, लेनिन से विभिन्न नेताओं के अलग-अलग समय पर मौजूद विचारधारात्मक व राजनीतिक मतभेदों व बहसों, व अलग-अलग बोल्शेविकों द्वारा कुछ मौक़ों पर पार्टी अनुशासन की अवहेलना की घटनाओं का इस्तेमाल यह सिद्ध करने में करते हैं कि बोल्शेविक पार्टी विभिन्न प्रकार के समूहों का एक समुच्चय थी। इसमें विभिन्न लक्ष्य व विभिन्न हित रखने वाले अलग-अलग गुट थे जो आपस में संघर्षरत रहते थे। रैबिनोविच यहाँ तक दावा करते हैं कि जुलाई 1917 के ”विद्रोह” के समय तक पार्टी के भीतर सत्ता के तीन केन्द्र काम कर रहे थे: केन्द्रीय कमेटी, बोल्शेविक सैन्य संगठन और पीटर्सबर्ग पार्टी कमेटी। उनके अनुसार, इन तीनों केन्द्रों के अलग-अलग हित थे और अलग-अलग लक्ष्य थे। सैन्य संगठन और पीटर्सबर्ग कमेटी अपनी स्वायत्तता को बढ़ाने के लिए लगातार संघर्ष करते रहते थे और केन्द्रीय कमेटी उन पर अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए लगातार प्रयत्न करती रहती थी। इस दावे को साबित करने के लिए दो प्रकार के वाकयों का सहारा लिया जाता है : पहला, पार्टी की केन्द्रीय कमेटी, पीटर्सबर्ग कमेटी और सैन्य संगठन में और इन तीनों के बीच जारी राजनीतिक बहसों की घटनाएँ और साथ ही पार्टी अनुशासन व पार्टी द्वारा तय कार्यदिशा की अवहेलना की व्यक्तिगत घटनाओं का (जिनमें से कई इस वजह से हुई थीं क्योंकि पार्टी की केन्द्रीय कमेटी अपने फ़ैसलों को निम्नतर इकाइयों या जि़म्मेदार व्यक्तियों तक समय पर सम्प्रेषित नहीं कर पायी थी)। बहसों का कारण कई बार ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषणों में मौजूद फ़र्क़ था तो कई बार निम्नतर इकाइयों की जनदबाव में आकर विश्लेषण व कार्रवाई करने की प्रवृत्ति। उपरोक्त आधार पर रैबिनोविच बाकी पुस्तक में यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि बोल्शेविक पार्टी एक ‘विभाजित पार्टी’ थी और एक ‘विभाजित पार्टी’ होने के कारण ही उसमें यह क्षमता थी कि वह आगे चलकर सत्ता पर क़ब्ज़ा कर पायी। यह सिद्ध करने के प्रयास में कई मौक़ों पर वे तथ्यों में ही हेर-फेर करते हैं, जिन पर हम आगे आयेंगे।

कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ पर रैबिनोविच के उदारवादी बुर्जुआ पूर्वाग्रह स्पष्ट रूप से प्रकट हो गये हैं। बोल्शेविक पार्टी जब तक (रैबिनोविच के अनुसार) किसी लौह-अनुशासन में नहीं काम कर रही थी और उसका ढाँचा भी किसी भी पश्चिमी बुर्जुआ पार्टी के समान असंगत और वैविध्यपूर्ण समूहों व गुटों के एक ढीले-ढाले समुच्चय जैसा था, तब तक वह प्रगतिशील और कामयाब थी। इस ढीले-ढालेपन को ”आन्तरिक जनवाद” का पर्याय माना गया है! इसलिए ‘विभाजित पार्टी’ होना रैबिनोविच के लिए कोई नकारात्मक बात नहीं थी, बल्कि बोल्शेविक पार्टी की शक्ति का परिचायक थी। समझा जा सकता है कि त्रात्स्कीपन्थियों को रैबिनोविच का इतिहास-लेखन क्यों काफ़ी पसन्द आया है। त्रात्स्की जब भी अल्पसंख्या में होते थे जो वे गुटों के अस्तित्व की हिमायत करने लगते थे और जब बहुसंख्या में होते थे तो नौकरशाह होने की हद तक ”अनुशासन” की हिमायत करने लगते थे। चूँकि ऐतिहासिक तौर पर बोल्शेविक पार्टी के भीतर चली बहस में वे अन्त तक अल्पसंख्या में रहे इ‍सलिए उनका और उनके अनुयायियों का गुटवाद और ”विभाजित पार्टी” की अवधारणा का समर्थक होना स्वाभाविक ही है। यही कारण है कि तमाम त्रात्स्कीपन्थी वेबसाइटों ने रैबिनोविच की पुस्तक की मूलत: प्रशंसामूलक समीक्षाएँ प्रस्तुत की हैं।

‘विभाजित पार्टी’ की अपनी अवधारणा को सिद्ध करने के लिए पहली पुस्तक में रैबिनोविच ने 10 जून 1917 के रद्द कर दिये गये विरोध प्रदर्शन और 3-5 जुलाई के दौरान हुए जनउभार की घटनाओं का अपना विश्लेषण पेश किया है। तथ्यों व दस्तावेज़ों के अध्ययन के मामले में यह विश्लेषण समृद्ध है और आलोचनात्मक तौर पर पढ़े जाने पर यह विवरण किसी मार्क्सवादी-लेनिनवादी के लिए भी उपयोगी हो सकता है। लेकिन जहाँ तक तथ्यों के वैज्ञानिक व तार्किक विश्लेषण का प्रश्न है, यह विश्लेषण अमेरिकी समाजशास्त्रीय प्रत्यक्षवादी और व्यक्तिवादी विश्लेषण की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पाता है।

3-5 जुलाई की घटनाओं का विवरण पेश करके रैबिनोविच दो बातें सिद्ध करना चाहते हैं: पहला, कि ये घटनाएँ शान्तिपूर्ण नहीं थीं और इस दौरान हिंसा हुई थी; दूसरा यह कि तृणमूल धरातल पर काम करने वाले बोल्शेविक सैनिकों और मज़दूरों को सशस्त्र विद्रोह के लिए तैयार कर रहे थे। यानी कि रैबिनोविच के अनुसार सोवियत विवरणों के विपरीत, 3-5 जुलाई को कोई शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शन नहीं बल्कि एक विद्रोह हुआ था और साथ ही यह कि बोल्शेविक पार्टी के लोग इस विद्रोह की तैयारियों में शामिल थे। आइये देखते हैं कि इन दावों के आधारभूत आग्रह क्या हैं और इनमें कितनी सच्चाई है।

जैसा कि हमने पहले बताया रैबिनोविच के लिए सोवियत विवरणों में लेनिन, स्तालिन और यहाँ तक त्रात्स्की का लेखन नहीं शामिल है; उनके लिए सोवियत स्रोतों का अर्थ है केवल संशोधनवादी इतिहासकारों की रचनाएँ। वे ‘बोल्शेविक पार्टी का इतिहास’ तक को उद्धृत नहीं करते, जो कि रैबिनोविच के मानकों के अनुसार सर्वाधिक असुधारणीय रूप से ”स्तालिनवादी” पुस्तक है! इसलिए हम लेनिन, स्तालिन और यहाँ तक कि त्रात्स्की के विवरणों में जाकर देखेंगे कि उन्होंने 3-5 जुलाई के प्रदर्शन के बारे में क्या लिखा है और रैबिनोविच के दावे सही हैं या नहीं।

लेनिन ने मध्य-जुलाई से लेकर जुलाई के अन्त के दौर में कई ऐसे लेख लिखे जिनमें 3-5 जुलाई की घटनाओं का एक विश्लेषण पेश किया गया है। इनमें प्रमुख हैं : ‘नारों के बारे में’, ‘तीन संकट’, ‘एक उत्तर’। इन तीनों लेखों में लेनिन ने जुलाई के जनउभार के बारे में कुछ बातें स्पष्ट कर दी हैं : पहला, 3-5 जुलाई का प्रदर्शन शान्तिपूर्ण नहीं था, हालाँकि हिंसा की शुरुआत प्रतिक्रान्तिकारी गिरोहों और सरकार के दस्तों द्वारा की गयी थी; दूसरा, यह महज़़ प्रदर्शन नहीं था, बल्कि उससे कुछ ज़्यादा था, हालाँकि इसे क्रान्तिकारी विद्रोह की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती है; तीसरा, बोल्शेविक पार्टी ने इस जनउभार को पहले रोकने का प्रयास किया था क्योंकि यह अपरिपक्व सशस्त्र बग़ावत में तब्दील हो सकता था और जब उसे रोकना सम्भव नहीं रहा तो पार्टी ने उसे अधिकतम सम्भव ‘शान्तिपूर्ण और संगठित’ बनाने का प्रयास किया।

आइये देखते हैं कि लेनिन इसके बारे में क्या लिखते हैं। ‘तीन संकट’ नामक लेख में लेनिन लिखते हैं कि रूसी क्रान्ति के विकास में फ़रवरी क्रान्ति के बाद तीन क्रान्तिकारी संकट उत्पन्न हुए हैं : पहला, 20-21 अप्रैल का संकट, दूसरा, 10-18 जून का संकट और तीसरा, 3-5 जुलाई का संकट। ये तीनों ही संकट प्रदर्शनों के रूप में प्रकट हुए लेकिन वे महज़़ प्रदर्शन नहीं रहे बल्कि जनता की क्रान्तिकारी भावना की अभिव्यक्ति बनते हुए प्रदर्शन से आगे की मंजि़ल में पहुँच गये, हालाँकि उन्हें क्रान्ति का प्रयास नहीं क़रार दिया जा सकता है। लेनिन लिखते हैं :

”तीसरा संकट 2 जुलाई को बोल्शेविकों द्वारा इसे रोकने के प्रयासों के बावजूद 3 जुलाई को फूट पड़ा। 4 जुलाई को यह अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचने के साथ ही 5 और 6 जुलाई को इसने प्रतिक्रान्ति के तीव्र विस्फोट को जन्म दिया। समाजवादी-क्रान्तिकारियों और मेंशेविकों के ढुलमुलपन ने अपने आपको स्पिरिदिनोवा व अन्य कई समाजवादी-क्रान्तिकारियों की इस घोषणा में अभिव्यक्त किया कि सारी सत्ता सोवियतों को स्थानान्तरित कर दी जानी चाहिए, और साथ ही मेंशेविक अ‍न्तरराष्ट्रीयतावादियों के ढुलमुलपन ने भी इसी विचार को अभिव्यक्त करने में अपने आपको प्रकट किया, जो कि पहले इस विचार का विरोध कर रहे थे।

”इन सभी घटनाओं को उनके अन्तर्सम्बन्धों में देखा जाये तो अन्तिम और सम्भवत: सबसे अनुदेशात्मक निर्णय जो कि हमारे सामने आता है वह यह है कि इन तीनों संकटों ने अपने आपको किसी न किसी प्रकार के प्रदर्शन में प्रकट किया जो कि हमारी क्रान्ति के इतिहास में नया है, ऐसे प्रदर्शन में जो अधिक जटिल प्रकार हैं जिसमें आन्दोलन लहरों में आगे बढ़ता है, जिसके दौरान आकस्मिक गिरावट के बाद तीव्र उभार आता है, जिसमें क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति अधिक विकट हो जाते हैं, और मध्यमार्गी तत्व कमोबेश व्यापक दौर के लिए समाप्त हो जाते हैं।

”इन तीनों ही संकटों में, आन्दोलन ने एक प्रदर्शन का रूप लिया। एक सरकार-विरोधी प्रदर्शन – जो कि घटनाओं का सर्वाधिक सटीक, औपचारिक विवरण होगा। लेकिन वास्तव में ये कोई साधारण प्रदर्शन नहीं थे; यह किसी प्रदर्शन से कहीं ज़्यादा थे, लेकिन किसी क्रान्ति से कम थे। यह क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति का एक साथ होने वाला विस्फोट थे, मध्यमार्गी तत्वों का तीव्र और कई बार लगभग अचानक होने वाला ख़ात्मा थे, जब सर्वहारा और बुर्जुआ तत्व तूफ़ानी रूप में प्रकट हुए।” (वी.आई. लेनिन, 1974, तीन संकट, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड – 25, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 172-73)

इस उद्धरण से स्पष्ट है कि लेनिन 3-5 जुलाई के प्रदर्शन को महज़़ साधारण शान्तिपूर्ण प्रदर्शन नहीं मानते थे। ऐसे में प्रश्न उठता है कि रैबिनोविच लेनिन को उद्धृत क्यों नहीं करते? वे महज़़ संशोधनवादी इतिहासकारों के विवरणों को लेकर यह दावा क्यों करते हैं कि सभी आधिकारिक सोवियत विवरणों में 3-5 जुलाई के प्रदर्शनों को साधारण शान्तिपूर्ण प्रदर्शन क़रार दिया गया है? क्या लेनिन के लेखन को सोवियत स्रोत नहीं माना जाना चाहिए? आइये देखते हैं कि इन प्रदर्शनों में हुई हिंसा के विषय में लेनिन का क्या कहना है :

”यह ग़ौर करना किसी भी मानक से महत्वपूर्ण बात है कि 4 जुलाई को गोलियाँ चलने के बारे में रिपोर्ट छापने वाला पहला बुर्जुआ विक्षिप्त रूप से बोल्शेविक-विरोधी अख़बार था उसी दिन का सांयकालीन बिर्जेव्स्का। और इसी रपट में यह बताया जाता है कि गोली चलना प्रदर्शनकारियों की ओर से नहीं शुरू किया गया था, और जो पहली गोलियाँ चलीं थीं वे उनके ख़ि‍लाफ़ चलायी गयी थीं!! ज़ाहिर है कि ”समाजवादी” कैबिनेट के ”रिपब्लिकन” अधिवक्ता ने बिर्जेव्स्का की गवाही के बारे में खामोश रहना पसन्द किया है!! और फिर भी इस पूर्ण रूप से बोल्शेविक-विरोधी बिर्जेव्स्का की गवाही जो कुछ हुआ था और हमारी पार्टी जिस रूप में इसे देखती है, उस सामान्य तस्वीर से पूरी तरह से मेल खाता है। अगर यह कोई सशस्त्र विद्रोह होता, तो, ज़ाहिर है, विद्रोहियों ने प्रदर्शन का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ नहीं चलायी होतीं बल्कि कुछ निश्चित बैरकों और कुछ निश्चित इमारतों को घेर लिया होता; उन्होंने कुछ निश्चित सैन्य इकाइयों का सफ़ाया कर दिया होता, आदि। वहीं दूसरी ओर, अगर यह सरकार के ख़ि‍लाफ़ एक प्रदर्शन था, जिसके बरक्स सरकार के समर्थकों का जवाबी प्रदर्शन हो रहा था, तो यह बिल्कुल स्वाभाविक था कि प्रतिक्रान्तिकारी पहले गोलियाँ चलायें, आंशिक तौर पर इसलिए कि वे प्रदर्शनकारियों की इतनी बड़ी संख्या देखकर क्रुद्ध थे, और आंशिक तौर पर इसलिए कि उनका इरादा प्रदर्शनकारियों को उकसाना था। और यह भी उतना ही स्वाभाविक था कि प्रदर्शनकारी गोलियों का जवाब गोलियों से दें।

”वास्तव में, (मृत लोगों) की प्रकाशित सूचियों पर एक सरसरी निगाह डालने से भी यह साफ़ हो जाता है कि उसमें दो प्रमुख समूह थे, कज़्ज़ाक और नाविक, और उन दोनों के ही लोग बराबर संख्या में मारे गये थे। अगर वास्तव में कोई सशस्त्र विद्रोह करना सशस्त्र नाविकों का इरादा होता जो कि दस हज़ार की संख्या में मज़दूरों और सैनिकों, विशेष तौर पर, मशीनगनर्स के साथ शामिल होने के लिए 4 जुलाई को पेत्रोग्राद में पहुँचे थे, तो क्या ऐसा होना सम्भव होता?

”निश्चित तौर पर, कज़्ज़ाकों और सशस्त्र विद्रोह का विरोध करने वाले अन्य लोगों में मृतकों की संख्या उस सूरत में दस गुना ज़्यादा होती, क्योंकि इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि पेत्रोग्राद की सड़कों पर 4 जुलाई के दिन सशस्त्र आबादी के भीतर बोल्शेविकों का वर्चस्व स्थापित था…

”अगर मृतकों की संख्या दोनों पक्षों में कमोबेश समान है, तो यह सिद्ध करता है कि गोलियाँ चलाने की शुरुआत प्रतिक्रान्तिकारियों की तरफ से की गयी थी और प्रदर्शनकारियों ने बस गोलियों से इसका जवाब दिया था…

”अन्त में, प्रेस में आयी निम्न सूचना बेहद महत्वपूर्ण है : 4 जुलाई को प्रदर्शनकारियों और प्रति-प्रदर्शनकारियों के बीच हुई झड़प में कज़्ज़ाकों की मौत होने की सूचना है। ऐसी झड़पें ग़ैर-क्रान्तिकारी काल में भी होती हैं, अगर आबादी उद्वेलित है; मिसाल के लिए, लातिनी देशों में, विशेषकर दक्षिण में, तो ऐसी घटनाएँ आम हैं। 4 जुलाई के बाद बोल्शेविकों के भी मारे जाने की ख़बरें हैं, जब कि उत्तेजित प्रदर्शनकारियों और प्रति-प्रदर्शनकारियों के बीच कोई टकराव नहीं हो रहा था, और इसलिए एक निःशस्त्र व्यक्ति की एक सशस्त्र व्यक्ति द्वारा हत्या एक निर्मम हत्या के अलावा कुछ नहीं था। श्पालेर्नाया मार्ग पर 6 जुलाई को बोल्शेविक वॉइनोव की हत्या ऐसी ही हरक़त था।” (वी.आई. लेनिन, 1974, एक उत्तर, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड-25, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 216-217)

लेनिन के इस उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि लेनिन इस बात से अनभिज्ञ नहीं थे कि 3-5 जुलाई के प्रदर्शनों के दौरान हिंसा हुई थी और यह महज़़ कोई शान्तिपूर्ण जुलूस या प्रदर्शन नहीं रह गया था। लेनिन यह भी स्पष्ट करते हैं कि हिंसा की शुरुआत प्रतिक्रान्तिकारी ताक़तों की ओर से की गयी थी। मज़ेदार बात यह है कि रैबिनोविच भी अपनी पुस्तक में एक पश्चटिप्पणी में इस बात को स्वीकार करते हैं कि हिंसा की शुरुआत दक्षिणपन्थी बुर्जुआ गिरोहों द्वारा की गयी थी और प्रदर्शनकारियों ने उसके जवाब में गोलियाँ चलायी थीं। ऐसे में, रैबिनोविच का यह दावा औंधे मुँह गिर जाता है कि सोवियत स्रोतों में (हम यहाँ संशोधनवादी स्रोतों की बात नहीं कर रहे) 3-5 जुलाई के प्रदर्शन को एक साधारण व शान्तिपूर्ण प्रदर्शन बताया गया था। अगर हम इस दौर में स्तालिन द्वारा लिखे गये लेखों ‘क्लोज़ दि रैंक्स’, ‘व्हाट हैज़ हैपेण्ड’ आदि को देखें तो रैबिनोविच का यह दावा और भी हास्यास्पद लगता है। हम केवल एक लेख ‘क्लोज़ दि रैंक्स’ से एक उद्धरण पेश करेंगे जिससे कि इस दौर के बारे में स्तालिन का मूल्यांकन स्पष्ट हो जाये। स्तालिन लिखते हैं :

”न तो बोल्शेविकों न और न ही किसी अन्य पार्टी ने 3 जुलाई के प्रदर्शन का आह्वान किया था। और तो और, 3 जुलाई तक भी बोल्शेविक पार्टी जो कि पेत्रोग्राद में सर्वाधिक प्रभावशाली थी, मज़दूरों और सैनिकों से प्रदर्शन न करने का आह्वान ही कर रही थी। लेकिन जब इन सारे प्रयासों के बावजूद आन्दोलन फूट पड़ा, तो हमारी पार्टी ने यह मानते हुए कि उसे इस मामले से हाथ झाड़ लेने का कोई अधिकार नहीं है, इस बात का हर सम्भव प्रयास किया कि आन्दोलन को एक शान्तिपूर्ण और संगठित चरित्र दिया जाये।

”लेकिन प्रति-क्रान्तिकारी ऊँघ नहीं रहे थे। उन्होंने उकसाने के लिए गोलियाँ चलवायी थीं; उन्होंने प्रदर्शन के दिनों को ख़ून से लाल कर दिया और, मोर्चे की कुछ विशेष इकाइयों के बूते उन्होंने क्रान्ति के ख़ि‍लाफ़ आक्रमण की शुरुआत कर दी।” (जोसेफ़ स्तालिन, 1953, क्लोज़ दि रैंक्स, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड-3, फ़ॉरेन लैंग्वेजेज़ पब्लिशिंग हाउस, मॉस्को, पृ. 110-111)

इस उद्धरण से स्पष्ट है कि बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व ने 3-5 जुलाई के प्रदर्शन को रोकने का हर सम्भव प्रयास किया था। 3 जुलाई की देर रात तक ये प्रयास जारी थे। लेकिन जब ये प्रयास सफल नहीं हुए और पार्टी के समक्ष यह स्पष्ट हो गया कि अब प्रदर्शन को रोका नहीं जा सकता है, तो पार्टी ने उसमें हिस्सेदारी करके उसे अधिकतम सम्भव शान्तिपूर्ण और संगठित रूप देने का प्रयास किया। लेनिन के भी ऊपर उल्लिखित तीन लेखों में बार-बार इस बात का जि़क्र किया गया है। साथ ही, स्तालिन के उपरोक्त उद्धरण से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन सोवियत स्रोतों में, बोल्शेविक नेताओं के लेखन से लेकर इतिहास-लेखन तक में 3-5 जुलाई के प्रदर्शन को किसी शान्तिपूर्ण प्रदर्शन के रूप में चित्रित नहीं किया गया था। लेकिन अपने बुर्जुआ पूर्वाग्रहों के कारण रैबिनोविच का लेनिन और स्तालिन के लेखन के प्रति संशय की भावना हो सकती है। इसलिए आइये उनके प्रिय स्रोत त्रात्स्की पर चलते हैं और देखते हैं कि उन्होंने जुलाई 1917 में ही जुलाई की घटनाओं के बारे में क्या लिखा था। वे लिखते हैं :

”बोल्शेविकों समेत सभी पार्टियों ने 16 जुलाई (3 जुलाई) के प्रदर्शन से जनसमुदायों को रोकने का हर सम्भव प्रयास किया लेकिन जनता ने प्रदर्शन किया और वह भी अपने हाथों में हथियार लेकर। 16 जुलाई की शाम को ही सभी आन्दोलनकारियों ने एेलान किया कि चूँकि सत्ता का प्रश्न हल नहीं हुआ है, इसलिए 17 जुलाई (4 जुलाई) का प्रदर्शन होना अपरिहार्य है, और कोई भी क़दम जनता को इससे रोक नहीं सकता है। यह एकमात्र कारण था कि बोल्शेविक पार्टी, और उसके साथ ही हमारे संगठन (उस समय त्रात्स्की मेज़राओन्त्सी नामक ग्रुप में थे – लेखक) ने तय किया कि वह इससे अलग-थलग नहीं रह सकते और इसके परिणामों से हाथ नहीं झाड़ सकते, बल्कि उन्हें 17 जुलाई के मामले को एक शान्तिपूर्ण जनप्रदर्शन में तब्दील करने के लिए हर सम्भव प्रयास करना चाहिए। 17 जुलाई की अपील का और कोई अर्थ नहीं था। ज़ाहिर है कि यह स्पष्ट था कि प्रतिक्रान्तिकारी गिरोहों के लगभग तय हस्तक्षेप के मद्देनज़र ख़ूनी टकराव की स्थितियाँ पैदा होंगी। यह सच है कि जन समुदायों को बिना किसी राजनीतिक मार्गदर्शन के छोड़ा जा सकता है, उन्हें राजनीतिक तौर पर छिन्न-भिन्न किया जा सकता है, और उन्हें निर्देशित करने से इंकार करके उन्हें उनके भाग्य पर छोड़ा जा सकता था। लेकिन हम मज़दूर पार्टी होने के नाते पाइलेट के रणकौशल का अनुसरण नहीं कर सकते थे (पाइलेट वह रोमन अधिकारी था जिसने न चाहते हुए भी ईसा को सूली पर चढ़ाये जाने के लिए सौंप दिया था – लेखक) : इसलिए हमने जन समुदायों के साथ शामिल होने और उनके साथ डटे रहने का निर्णय लिया, ताकि उनकी तात्विक उथल-पुथल में हम अधिकतम सम्भव संगठन ला सकें, जितना कि दी गयी परिस्थितियों में सम्भव था, और सम्भावित हताहतों की संख्या को न्यूनतम सीमा तक रख सकें। तथ्य सभी को अच्छी तरह से पता हैं। ख़ून बहाया गया है। और अब बुर्जुआ वर्ग का ”प्रभावी प्रेस” और बुर्जुआ वर्ग की सेवा करने वाले अन्य अख़बार इन परिणामों की सारी जि़म्मेदारी हमारे कन्धों पर रखने का प्रयास कर रहे हैं – जनसमुदायों की ग़रीबी, श्रान्ति, असन्तोष और विद्रोही भावना की जि़म्मेदारी हम पर डालने का प्रयास कर रहे हैं।” (लियॉन त्रात्स्की, 1918, दि जुलाई अपराइजि़ंग, दि प्रोलेतारिन रिवोल्यूशन इन रशिया, सं. लुइस सी फ्रायना, दि कम्युनिस्ट प्रेस, न्यूयॉर्क)

स्पष्ट है कि त्रात्स्की 1917 में भी जुलाई की घटनाओं को शान्तिपूर्ण प्रदर्शन नहीं मानते थे। उनका भी मानना था कि बोल्शेविक पार्टी की मंशा यही थी कि इस प्रदर्शन को रोका जाये क्योंकि इसके अपरिपक्व सशस्त्र बग़ावत में तब्दील होने का ख़तरा था, लेकिन जब इसे रोका नहीं जा सका तो बोल्शेविक पार्टी ने इसमें शामिल होकर इसे अधिकतम सम्भव संगठित और शान्तिपूर्ण रूप देने का प्रयास किया। लेकिन ताज्जुब की बात यह है कि इस प्रश्न पर रैबिनोविच त्रात्स्की को भी उद्धृत नहीं करते हैं।

हमने यहाँ लेनिन, स्तालिन और त्रात्स्की को विस्तार से इसलिए उद्धृत किया ताकि रैबिनोविच के इस दावे की सच्चाई की पड़ताल की जा सके कि सभी सोवियत स्रोतों में 3-5 जुलाई की घटनाओं को शान्तिपूर्ण प्रदर्शन के रूप में चित्रित किया गया है, जो कि आधिकारिक सोवियत दृष्टिकोण था और चूँकि सोवियत रूस में इतिहास-लेखन सोवियत सरकार की राजनीतिक ज़रूरतों से निर्धारित होता था इसलिए सोवियत इतिहास-लेखन में 3-5 जुलाई की घटनाओं का सही चित्रण नहीं मिलता है। हम लेनिन, स्तालिन और यहाँ तक कि त्रात्स्की के उपरोक्त उद्धरणों में देख सकते हैं कि प्रदर्शन को बोल्शेविकों ने शान्तिपूर्ण और संगठित रूप देने का प्रयास किया लेकिन प्रतिक्रान्तिकारी गिरोहों द्वारा किये गये हमले के कारण प्रदर्शनकारियों ने भी जवाबी हमला किया और हिंसा हुई। इसलिए आप अन्त में ताज्जुब करते हैं कि रैबिनोविच के ”सोवियत स्रोत” कौन-से हैं। जब आप ग्रन्थ सूची देखते हैं तो आपको पता चलता है कि ये तथाकथित सोवियत स्रोत 1953-56 के बाद किया गया संशोधनवादी इतिहास-लेखन है या फिर उन मेंशेविकों का जिन्होंने उस समय स्पष्ट तौर पर प्रतिक्रान्ति का पक्ष चुन लिया था और बोल्शेविक पार्टी के दमन का माहौल बनाने के लिए उस पर सशस्त्र विद्रोह की तैयारी का आरोप लगा रहे थे।

अपनी पुस्तक के ‘प्राक्कथन’ में रैबिनोविच लिखते हैं कि इस पुस्तक में उनका प्रमुख लक्ष्य यह दिखलाना है कि जून और जुलाई के घटनाक्रम से यह साफ़ हो जाता है कि बोल्शेविक पार्टी लेनिन के नेतृत्व में काम करने वाली कोई एकाश्मी संरचना नहीं थी जो बिना प्रश्न उठाये लेनिन की इच्छाओं का पालन करे। वह दिखलाने का प्रयास करते हैं कि बोल्शेविक पार्टी एक ‘विभाजित पार्टी’ थी जिसमें सत्ता के तीन केन्द्र काम कर रहे थे और इन तीनों ही केन्द्रों के लक्ष्य और हित अलग-अलग थे। ये तीन केन्द्र थे केन्द्रीय कमेटी, बोल्शेविक सैन्य संगठन और पीटर्सबर्ग कमेटी। साथ ही, रैबिनोविच यह सिद्ध करने का दावा करते हैं कि अप्रैल 1917 में चुनी गयी केन्द्रीय कमेटी कोई सजातीय निकाय नहीं थी। उसमें एक ओर लेनिन और उनका अनुसरण करने वाले लोग थे तो दूसरी ओर दक्षिण रुझान रखने वाला एक धड़ा था जिसकी अगुवाई कामेनेव कर रहे थे। यह दावा करते हुए रैबिनोविच यह नहीं बताते कि किस बोल्शेविक नेता के लेखन में या 1953-56 तक के सोवियत इतिहास-लेखन में ऐसा दावा किया गया है कि बोल्शेविक पार्टी एक ”मोनोलिथ” थी, या कि केन्द्रीय कमेटी के भीतर दो लाइनों का संघर्ष मौजूद नहीं था। रैबिनोविच की बोल्शेविक सांगठनिक उसूलों के बारे में कोई समझदारी नहीं है। उनका मानना है कि लेनिन में एक छोटी, गुप्त, षड्यन्त्रकारी और लौह-अनुशासित पार्टी खड़ी करने का एक पागलपन भरा जुनून था जिसमें कि केन्द्रीय कमेटी के फ़रमानों के अनुसार सारे कार्य-कलाप होंगे; जिसमें केन्द्रीय कमेटी लेनिन की एकल इच्छाशक्ति के मातहत एकजुट होगी और लेनिन की कार्यदिशा प्रश्नों से इतर होगी। आइये देखें कि रैबिनोविच की लेनिनवादी सांगठनिक उसूलों के बारे में क्या समझदारी है :

”1903 में लेनिन ने इस बात पर अपने जुनूनी ज़ोर के साथ रूसी मज़दूर आन्दोलन की एकता को स्थायी रूप से छिन्न-भिन्न कर दिया था कि केवल एक छोटा, पेशेवर और बेहद केन्द्रीकृत क्रान्तिकारी संगठन ही समाजवादी क्रान्ति में रूसी सर्वहारा वर्ग को नेतृत्व देने में सक्षम होगा, वह भी उस समय जबकि रूसी सामाजिक-जनवादी एक ज़्यादा जनवादी रूप से संगठित, मोटे तौर पर सहिष्णु, एक जन पार्टी चाहते थे।” (अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच, 1991, प्रिल्यूड टू रिवोल्यूशन, मिडलैण्ड संस्करण, इण्डियाना यूनीवर्सिटी प्रेस, पृ. 16)

इस उद्धरण से ही स्पष्ट हो जाता है कि रैबिनोविच ने पार्टी के लेनिनवादी उसूलों के बारे में लेनिन की कोई भी मूल रचना नहीं पढ़ी है और इस बाबत उनका ज्ञान बुर्जुआ पाठ्यपुस्तकों और बुर्जुआ कक्षाओं के दिये जाने वाले ज्ञान तक सीमित है। बहरहाल, रैबिनोविच का दावा है कि लेनिन के इन विचारों के कारण बोल्शेविक पार्टी का एक विशिष्ट दृष्टिकोण ”आधिकारिक सोवियत इतिहास-लेखन” में हावी रहा है, जिसके अनुसार यह पार्टी एक ”मोनोलिथ” के समान थी, हालाँकि रैबिनोविच के अनुसार वास्तविकता इससे भिन्न थी। यह बता देना ज़रूरी होगा कि बोल्शेविक पार्टी के बारे में न तो लेनिन, स्तालिन, स्वेर्दलोव, बुखारिन या प्रतिक्रान्ति का पक्ष चुनने से पहले के दौर में त्रात्स्की की ऐसी कोई समझदारी थी और न ही 1953-56 के पहले के सोवियत इतिहास ले‍खन में ऐसी कोई तस्वीर पेश की गयी है। लेकिन रैबिनोविच संशोधनवाद के दौर के कुछ स्रोत ले‍कर यह दावा कर देते हैं कि सभी सोवियत स्रोतों में यह भ्रामक तस्वीर पेश की गयी है। जब एक बार ”आधिकारिक सोवियत दृष्टिकोण” का एक पुतला खड़ा कर दिया जाता है, तो फिर उसका ध्वंस करने में भी रैबिनोविच को ज़्यादा दिक़्क़त नहीं पेश आती है।

रैबिनोविच दावा करते हैं कि बोल्शेविक सैन्य संगठन केन्द्रीय कमेटी के मुक़ाबले ज़्यादा वाम अवस्थिति अपनाता था क्योंकि इसका नेतृत्व अधिक रैडिकल था और इसके ऊपर जनता की रैडिकल भावनाओं का सतत् दबाव रहता था। यह सैन्य संगठन वैसे तो सीधे केन्द्रीय कमेटी के मातहत था लेकिन यह काफ़ी हद तक स्वायत्त था। उसी प्रकार पीटर्सबर्ग कमेटी भी केन्द्रीय कमेटी से अलग अवस्थितियाँ अपनाती थी और केन्द्रीय कमेटी से इसका अक्सर टकराव होता रहता था क्योंकि ये दोनों ही कमेटियाँ मुख्य रूप से एक शहर में सक्रिय रहती थीं, यानी पेत्रोग्राद। इन सारे कारकों के चलते केन्द्रीय कमेटी, सैन्य संगठन और पीटर्सबर्ग कमेटी के बीच एक त्रिकोणीय तनाव बना रहता था और सैन्य संगठन और पीटर्सबर्ग कमेटी हमेशा अधिक स्वतन्त्रता और स्वायत्तता के लिए संघर्ष करते रहते थे, जबकि केन्द्रीय कमेटी सतत् इन पर अपना कठोर नियन्त्रण स्थापित करने के प्रयास में संलग्न रहती थी। रैबिनोविच का दावा है कि लेनिन के क्रान्ति के पूरे सिद्धान्त को इन तीनों निकायों ने अलग-अलग तरीक़े से व्याख्यायित किया। इन सारे दावों के बाद रैबिनोविच अपना एक ‘पलायन मार्ग’ भी ‘प्राक्कथन’ में ही तैयार कर लेते हैं क्योंकि सम्भवत: वे भी समझते हैं कि इन सारे दावों को सही ठहरा पाना मुश्किल होगा। रैबिनोविच लिखते हैं :

”इस बिन्दु पर मैं बस आपको सावधान करना चाहूँगा कि मेरे शोध के नतीजे ग़ैर-दस्तावेज़ी स्रोतों पर अति-निर्भरता के कारण हर प्रकार चूक की सम्भावना रखते हैं, वे अनिवार्य रूप से आरज़ी हैं और इसमें एक निश्चित मात्रा में शिक्षित अटकलबाजि़याँ हैं।” (अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच, 1991, पृ. 7)

‘प्रस्तावना’ और ‘प्राक्कथन’ में पेश विचारों पर एक सरसरी निगाह डालने के बाद हम रैबिनोविच द्वारा फ़रवरी क्रान्ति के बाद पैदा हुई परिस्थितियों के विश्लेषण की ओर आगे बढ़ सकते हैं।

रैबिनोविच का प्रच्छन्न रुदन : रूस को कोई सक्षम बुर्जुआ प्रशासक क्यों नहीं मिला?

पहले अध्याय में रैबिनोविच प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत के बारे में अलग-अलग लोगों के विचार पेश करते हैं जिसमें ज़ार के मन्त्रियों के विचारों से लेकर लेनिन तक के विचार शामिल हैं। रैबिनोविच बताते हैं कि प्रथम विश्वयुद्ध के दौर में रूस एक संक्रमण से गुज़र रहा था। इस संक्रमण का बयान करते हुए रैबिनोविच बताते हैं कि पूँजीवाद के रास्ते पर रूस का विकास अभी अधूरा था, और इसी वजह से वहाँ पर क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ पैदा हुईं। रैबिनोविच लिखते हैं :

”स्तोलिपिन की कल्पना के जैसा स्वतन्त्र किसानों का एक स्थायी वर्ग अभी गाँवों में स्थापित नहीं हुआ था, और तेजी से बढ़ रहे रूसी सर्वहारा वर्ग ने अभी उन महत्वपूर्ण आर्थिक लाभों को हासिल नहीं किया था जिन्होंने उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी की शुरुआत में ही पश्चिमी यूरोपीय मज़दूर की क्रान्तिकारी सरगर्मी को ठण्डा कर दिया था।” (रैबिनोविच, 1991, वही,
पृ. 10)

जैसा कि हम देख सकते हैं ई.एच. कार के समान ही रैबिनोविच पर भी इस उदार बुर्जुआ तर्क का प्रभाव है जिसके अनुसार रूस में क्रान्ति होने का कारण यह था कि यहाँ पर पूँजीवाद का समुचित विकास नहीं हुआ, बुर्जुआ जनवाद ज़्यादा विकसित नहीं हुआ, उदार बुर्जुआ जनवाद के अभाव में मज़दूरों को तमाम आर्थिक अधिकार हासिल नहीं हुए, स्वतन्त्र किसानों का एक स्थायी वर्ग नहीं पैदा हुआ और एक सर्वसत्तावादी शासन के ख़ि‍लाफ़ जनसमुदायों में विद्रोह की भावनाएँ पनपती रहीं। यदि रूस के हुक्मरानों ने पूँजीवाद का समुचित विकास किया होता, यदि उन्होंने एक पश्चिमी शैली वाला उदार बुर्जुआ जनवाद मुहैया कराया होता तो रूस में समाजवादी क्रान्ति की स्थितियाँ ही पैदा नहीं होतीं। इस प्रकार रूसी क्रान्ति के होने की कारणात्मक व्याख्या पूँजीवाद और उदार बुर्जुआ जनवाद के अपूर्ण विकास पर निर्भर हो जाती है। इस प्रकार की विचारधारात्मक अन्धता वाली व्याख्या पेश करने की प्रक्रिया में साम्राज्यवाद की भूमिका, पश्चिमी यूरोप में मज़दूर आन्दोलन के सुधारवाद के गर्त में जाने और फिर पतन की और रूसी क्रान्ति में बोल्शेविक पार्टी की भूमिका के बारे में रैबिनोविच कोई समझदारी नहीं पेश करते हैं। लुब्बेलुबाब यह कि रूस की क्रान्ति पूँजीपति वर्ग की ग़लती के कारण हुई थी और अगर रूसी पूँजीपति वर्ग ने पश्चिमी यूरोप से सीखा होता तो उसे क्रान्ति की वि‍भीषिका से नहीं गुज़रना पड़ता।          ई. एच. कार का मूल्यांकन करते हुए हमने इस तर्क की अर्थहीनता के बारे में लिखा था। यह तर्क रैबिनोविच के उदार बुर्जुआ पूर्वाग्रहों को स्पष्ट कर देता है। इन्हीं पूर्वाग्रहों के कारण रैबिनोविच रूसी क्रान्ति के घटित होने, उसके पीछे काम कर रहे ढाँचागत कारकों की कोई सुसंगत समझदारी नहीं पेश कर पाते। इसी तर्क का विस्तार आप रैबिनोविच के निम्न व्यक्तिवादी विश्लेषण में भी देख सकते हैं :

”रूस की राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं के समाधानों को ढूँढ़़ने और बीसवीं सदी में रूसी साम्राज्य के प्रवेश को सही तरीक़े से अधीक्षित करने के भारी अपरिमित लक्ष्य की पूर्ति के लिए किसी पीटर महान की अग्रणी भावना और असीम ऊर्जा या कम-से-कम अलेक्ज़ैण्डर द्वितीय के राजनीतिक यथार्थवाद और अनुकूलन की क्षमता की आवश्यकता थी। लेकिन इसके विपरीत, रूस का भविष्य एक ज़ि‍द्दी और अदूरदर्शी राजा के हाथों में था जो अन्त तक रूस के लिए निरंकुश राजतन्त्र के मूल्य में भरोसा रखता था और अपने समय की विशालकाय समस्याओं का हल करना तो दूर उन्हें समझने की क्षमता भी नहीं रखता था।” (वही, पृ 12-13)

एक बार फिर आप देख सकते हैं कि रैबिनोविच के अनुसार रूस में क्रान्ति की त्रासदी इसलिए घटित हुई क्योंकि उसके पास कोई सक्षम शासक नहीं था। अगर उसके पास कोई पीटर महान या अलेक्ज़ैण्डर द्वितीय जैसा काबिल हुक़्मरान होता तो शायद रूस में क्रान्ति की त्रासदी घटित नहीं होती! रैबिनोविच के अनुसार इसी अक्षम शासक यानी निकोलस द्वितीय की अक्षमता और अकर्मण्यता थी जिसके कारण रूसी क्रान्ति की स्थितियाँ तैयार हुईं। दूसरे शब्दों में, कोई आधुनिकतावादी और सक्षम शासक क्रान्ति की विभीषिका से रूस को बचा सकता था। अमेरिकी इतिहास-लेखन में इस प्रकार के व्यक्तिवादी विश्लेषण के प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

इसी अध्याय में प्रथम विश्वयुद्ध के शुरू होने के बाद दुनिया भर के मज़दूर आन्दोलन में शुरू हुई बहस का रैबिनोविच हवाला देते हैं और बताते हैं कि इस बाबत लेनिन ने किस प्रकार क्रान्तिकारी पराजयवाद की एक अतिवादी अवस्थिति अपनायी। लेकिन जैसे ही वे लेनिन की इस अवस्थिति के बारे में बताते हैं तो आप पाते हैं कि इस बारे में भी रैबिनोविच की जानकारी लेनिन के मूल लेखन और उस दौर में इस मुद्दे पर चली बहस में हुए मूल योगदानों पर आधारित नहीं है। सही कहा जाये तो रैबिनोविच ने लेनिन की अवस्थिति को समझा ही नहीं है। मिसाल के तौर पर, रैबिनोविच लिखते हैं :

”…उन्होंने (लेनिन ने) अपने आपको यह तर्क देकर अन्य सभी रूसी अन्तरराष्ट्रीयतावादी समूहों से अलग कर लिया कि जर्मनी के हाथों रूस की हार राजतन्त्र को कमज़ोर करने के एक ज़रिये के रूप में वांछनीय है। द्वितीय इण्टरनेशनल के एक कठोर खण्डन में, शान्ति के बजाय गृहयुद्ध पर ज़ोर में और रूस के लिए पराजयवाद की हिमायत में, लेनिन का कार्यक्रम चौंका देने की हद तक अतिवादी था। रक्षावादियों और मेंशेविक तथा समाजवादी-क्रान्तिकारियों द्वारा समान बल के साथ इसकी आलोचना की गयी। वास्तव में, कई बाद में महत्वपूर्ण बन गये बोल्शेविकों की अवस्थिति भी मार्तोव के अधिक मध्यमार्गी अन्तरराष्ट्रीयतावाद के क़रीब थी, बजाय लेनिन के अ‍सहिष्णु क़ि‍स्म के रैडिकलिज़्म के।” (वही, पृ. 17)

स्पष्ट है कि रैबिनोविच या तो लेनिन की युद्ध पर अवस्थिति को समझ नहीं पाये हैं या फिर उसे जानबूझकर विकृत कर रहे हैं। ग़ौरतलब है कि लेनिन ने क्रान्तिकारी पराजयवाद की रणनीति 1914 में अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए पेश की थी, न कि सिर्फ़ रूस के सामाजिक-जनवादी आन्दोलन के लिए। इस रणनीति का मक़सद केवल रूस की हार और जर्मनी की विजय नहीं था; यह रणनीति सभी युद्धरत देशों के मज़दूर वर्ग और सामाजिक-जनवादी आन्दोलन का आह्वान कर रही थी कि वे अपनी देश के सरकार के विरुद्ध क्रान्तिकारी गृहयुद्ध की शुरुआत करें। यह रणनीति सभी देशों के मज़दूर वर्ग का आह्वान करती थी कि वे साम्राज्यवादी युद्ध में पूँजीपतियों के मुनाफ़े के लिए अन्य देशों के अपने वर्ग भाइयों के ख़ि‍लाफ़ नहीं, बल्कि अपने असली दुश्मन, यानी कि अपने देश के पूँजीपति वर्ग के ख़ि‍लाफ़ लड़ें, उसे उखाड़ फेंकें और सर्वहारा सत्ता स्थापित करें। लेकिन रैबिनोविच लेनिन की इस कार्यदिशा को ऐसे व्याख्यायित करते हैं, मानो लेनिन केवल जर्मनी के हाथों रूस की हार की हिमायत कर रहे हों। लेनिन आम तौर पर साम्राज्यवादी युद्ध को क्रान्तिकारी गृहयुद्ध में परिवर्तित करने की बात कर रहे थे और सभी युद्धरत देशों के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के लिए यह नीति पेश कर रहे थे, न कि सिर्फ़ रूस के लिए।

जैसा कि हमने ऊपर कहा है, रैबिनोविच में अमेरिकी इतिहास-लेखन में हावी व्यक्तिवादी विश्लेषण की प्रवृत्ति को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। विशेष तौर पर अगर हम ज़ारकालीन रूस में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हावी आर्थिक विघटन और राजनीतिक अराजकता के बारे में रैबिनोविच के विचारों को देखें तो यह रुझान अपने प्रातिनिधिक रूप में देखा जा सकता है। रैबिनोविच लिखते हैं : ”वेर्दुन में और सोमने नदी पर हुए व्यर्थ रक्तपात से ब्रिटिश और फ़्रांसीसी सेनाओं का मनोबल भी उतना ही टूटा हुआ था। रूसी स्थिति को जिस चीज़ ने ज़्यादा त्रासद बना दिया था वह यह थी कि मोर्चे पर गिरते मनोबल के साथ देश के भीतर राजनीतिक पक्षाघात और आर्थिक विघटन का पहलू मिश्रित हो गया था। रूस में कोई लॉयड जॉर्ज या क्लेमेंशो नहीं पैदा हुए जो कि पराजयवाद की बढ़ती भावना का गला घोंट पाते और जनता को एक निर्णायक राष्ट्रीय प्रयास के लिए तैयार कर पाते। याद किया जा सकता है कि 1914 में युद्ध के शुरुआत के समय रूसी जन भावना के बडे हिस्से ने राजनीतिक विरोध का निषेध किया था और सरकार का वफ़ादारी से समर्थन किया था…अगर ऐसा ही था तो यह एक अवसर था जिसकी शुरू से उपेक्षा की गयी। हर जन पहलक़दमी की अभिव्यक्ति को विद्रोह के रूप में देखने की प्रवृत्ति के साथ निर्बल और अत्यधिक सठियाये हुए आई.एल. गोरेमाइकिन के तहत रूसी सरकार ने कई बेशक़ीमती प्रयासों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी जैसे कि अखिल रूसी जे़म्स्त्वो यूनियन और अखिल रूसी नगर यूनियन जिनका लक्ष्य था उद्योगों, शरणार्थी राहत कार्य, और चिकित्सीय सेवाओं के पुनर्संगठन के ज़रिये युद्ध प्रयास को आगे बढ़ाना।” (वही, पृ. 20-21)

जैसा कि इस उद्धरण से स्पष्ट है, रैबिनोविच के अनुसार रूस में क्रान्तिकारी स्थिति पैदा होने का कारण यह था कि रूस में ब्रिटेन के समान लॉयड जॉर्ज या फ़्रांस के समान कोई क्लेमेंशो नहीं था जो कि इस आर्थिक विघटन, राजनीतिक बिखराव और युद्धजनित संकट को सम्भाल पाता। रूस के वर्ग संघर्ष, अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवादी श्रृंखला में रूस की अवस्थिति और रूस में बोल्शेविक पार्टी के संगठन और नेतृत्व की इसमें कोई भूमिका नहीं थी। इस प्रकार रूस में क्रान्तिकारी स्थिति का पैदा होना और फिर क्रान्ति का सम्पन्न होना वास्तव में रूसी बुर्जुआ वर्ग और उसके प्रतिनिधियों की अकर्मण्यता का नतीजा था; अगर उसके पास भी ब्रिटिश या फ़्रांसीसी बुर्जुआ वर्ग जैसी इच्छाशक्ति और सक्षम नेतृत्व होता तो युद्ध का संकट रूस में क्रान्तिकारी स्थिति की तरफ़ न गया होता। देखा जा सकता है कि इतिहास के विश्लेषण में रैबिनोविच व्यक्तियों की भूमिका को निर्धारक तत्व के रूप में पेश कर रहे हैं, न कि वर्ग संघर्ष के ढाँचागत कारक को। यह अमेरिकी इतिहास-लेखन की बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं में से एक है : व्यक्तिवादी व आकस्मिकतावादी विश्लेषण।

विचारधारा के प्रति ऐसी ही अन्धता रैबिनोविच तब भी दिखलाते हैं जब वे पहले ही अध्याय में यह दावा करते हैं कि मेंशेविक जो कि पेत्रोग्राद सोवियत की कार्यकारी समिति में बहुमत में थे इस कट्टर मार्क्सवादी विचार को मानते थे कि जनवादी क्रान्ति के बाद उदार बुर्जुआ शासन का एक अनियतकालीन दौर चलेगा (वही, पृ. 29)। रैबिनोविच यह नहीं बताते कि उन्हें इस ”कट्टर मार्क्सवादी विचार” के बारे में किस क्लासिकीय मार्क्सवादी रचना से पता चला। न तो मार्क्स में ऐसा कोई विचार मिलता है, न ही लेनिन में। वे निश्चित तौर पर जनवादी और समाजवादी क्रान्ति के चरणों के बीच फ़र्क़ करते थे, क्योंकि दोनों चरणों में क्रान्ति के मित्र वर्गों और शत्रु वर्गों के समीकरणों में अन्तर आ जाता है। लेकिन उनके बीच की अवधि लम्बी होगी या छोटी, यह कभी भी विचारधारा का मुद्दा नहीं था, न तो मार्क्स के लिए और न ही लेनिन के लिए। यह अवधि दिये गये राजनीतिक व ऐतिहासिक सन्धि-बिन्दु में छोटी या बड़ी हो सकती है। लेकिन रैबिनोविच इन विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रश्नों से अनभिज्ञ हैं और मेंशेविकों और बोल्शेविकों के बीच के विचारधारात्मक-राजनीतिक अन्तर के बारे में उनका ज्ञान बुर्जुआ कक्षाओं के ज्ञान तक सीमित है। लेकिन मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी सिद्धान्तों के बारे में रैबिनोविच की जानकारी मूल स्रोतों पर नहीं बल्कि बुर्जुआ व्याख्याकारों द्वारा प्रस्तुत ज्ञान पर आधारित है, जैसा कि हम पहले ही जि़क्र कर चुके हैं।

स्तालिन : रैबिनोविच समेत सभी बुर्जुआ इतिहासकारों का
प्रमुख निशाना

रैबिनोविच फ़रवरी क्रान्ति के बाद के दौर में और विशेष तौर पर लेनिन के अप्रैल में रूस लौटने तक के दौर में बोल्शेविक पार्टी के भीतर हावी भ्रम की स्थिति और साथ ही दो लाइनों के संघर्ष के बारे में विवरण पेश करते हुए तथ्यों की कई ग़लतियाँ करते हैं। विशेष तौर पर, स्तालिन की अवस्थितियों को जानबूझकर तोड़ते-मरोड़ते हैं, सन्दर्भ से काटकर उन्हें पेश करते हैं।

फ़रवरी क्रान्ति के तुरन्त बाद बोल्शेविक पार्टी में एक हद तक युद्ध को लेकर और विशेष तौर पर आरज़ी सरकार के बारे में रवैये को लेकर काफ़ी भ्रम की स्थिति थी। रूस में फ़रवरी क्रान्ति के पहले से ही पार्टी गतिविधियों को संचालित करने की जि़म्मेदारी केन्द्रीय कमेटी के रूसी ब्यूरो ने सम्भाल रखी थी। इसके सदस्य थे श्ल्याप्निकोव, मोलोतोव और ज़ालुत्स्की। इस रूसी ब्यूरो ने फ़रवरी क्रान्ति के ठीक बाद एक घोषणापत्र जारी किया और लेनिन की अवस्थिति को काफ़ी हद तक सही ढंग से इसमें पेश किया। इस घोषणापत्र में युद्ध का बिना शर्त विरोध किया गया और साथ ही आरज़ी सरकार को बड़े पूँजीपति वर्ग और भूस्वामी वर्ग की सरकार बताया गया। मोलोतोव ने लेनिन के सबसे क़रीब की अवस्थिति अपनायी थी। पीटर्सबर्ग कमेटी के पुनर्गठन के बाद उन्होंने इस अवस्थिति पर उसे सहमत करने की कोशिश भी की थी। युद्ध के प्रश्न पर तो पीटर्सबर्ग कमेटी ने लगभग लेनिन की अवस्थिति को ही अपनाया था, लेकिन आरज़ी सरकार के प्रश्न पर उसने अलग अवस्थिति अपनायी जो कि मेंशेविक अन्तरराष्ट्रीयतावादियों के नज़दीक पड़ती थी: यह अवस्थिति थी बाशर्त समर्थन की अवस्थिति, दूसरे शब्दों में आरज़ी सरकार को उस हद तक समर्थन देने की घोषणा की गयी जिस हद तक वह जनता के पक्ष में निर्णय लेती है, लेकिन साथ ही उस पर चौकसी बरतने की बात भी कही गयी। कुछ समय बाद ही साईबेरिया से स्तालिन, कामेनेव और मुरानोव लौट आये। रैबिनोविच यहाँ पर भी शब्दों के खेल से ऐसा जताने की कोशिश करते हैं कि इन तीनों ने रूसी ब्यूरो से नेतृत्व ”हथिया” लिया। हालाँकि, यह स्वाभाविक ही था कि वरिष्ठ नेतृत्व के वापस लौटने के बाद प्राव्दा के सम्पादन और पार्टी कार्यों के कुल संचालन की प्रमुख जि़म्मेदारी वही उठायेगा। लेकिन रैबिनोविच जैसे इतिहासकार इसे ”नेतृत्व हड़पे जाने” के तौर पर पेश करते हैं। इसमें कोई अचरज की बात भी नहीं है, क्योंकि यह रैबिनोविच के ‘विभाजित पार्टी’ के विचार को ही बल देने का काम करता है।

बहरहाल, स्तालिन भी लेनिन के आगमन से पूर्व लेनिन की अवस्थिति का पूर्वानुमान नहीं कर सके थे और उसे अपना नहीं सके थे। उनकी अवस्थिति युद्ध के प्रश्न पर तो लेनिन के ही समान थी, लेकिन आरज़ी सरकार के प्रश्न पर बिना शर्त विरोध की अवस्थिति वे अभी नहीं अपना सके थे। वे अस्पष्ट शब्दों में क्रान्तिकारी प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की बात कर रहे थे और साथ ही आरज़ी सरकार पर क्रान्तिकारी नियन्त्रण क़ायम करने की बात कर रहे थे। एक दक्षिणपन्थी अवस्थिति कामेनेव व ओल्मिंस्की जैसे लोगों ने अपना रखी थी, जो मेंशेविकों की क्रान्तिकारी रक्षावाद की प्रतिक्रियावादी अवस्थिति से ज़्यादा भिन्न नहीं थी। स्तालिन की अवस्थिति लेनिन की अवस्थिति और कामेनेव की दक्षिणपन्थी अवस्थिति के बीच में पड़ती थी, बल्कि लेनिन की अवस्थिति की ओर सापेक्षत: ज़्यादा झुकाव रखती थी। लेकिन रैबिनोविच स्तालिन की पूरी अवस्थिति को बुरी तरह से विकृत करके पेश करते हैं, ताकि बाद में वे दिखा पायें कि लेनिन के आने के बाद स्तालिन धीरे-धीरे दक्षिणपन्थी अवस्थिति से दूर गये।

सच्चाई यह है कि स्तालिन ने कामेनेव के रुख़ का कड़ाई से विरोध किया और साथ ही जि़म्मरवॉल्ड के बहुमत के बरक्स लेनिन के वामपन्थी जि़म्मरवाल्डियन रुख़ का समर्थन किया। लेकिन तमाम अकादमिक लेखकों की तरह, जो कि स्तालिन के प्रति पूर्वाग्रहित होते हैं और कई बार जानबूझकर तथ्यों के साथ दुराचार करते हैं, अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच ने भी स्तालिन की अवस्थिति को जानबूझकर ग़लत रूप में पेश किया है। रैबिनोविच दावा करते हैं कि स्तालिन की अवस्थिति युद्ध पर वही थी जो कि कामेनेव की थी और उन्होंने कामेनेव के लेख के एक दिन बाद यानी 16 मार्च को प्राव्दा में एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने लिखा कि ”युद्ध मुर्दाबाद का नारा बेकार है।” हम पहले रैबिनोविच को उद्धृत करेंगे और फिर स्तालिन के उस लेख से उद्धरण पेश करके दिखलायेंगे कि किस तरह रैबिनोविच ने (निश्चित तौर पर) जानबूझकर स्तालिन के कथन को सन्दर्भ से काटकर पेश किया ताकि स्तालिन को मेंशेविक और कामेनेव की अवस्थिति पर खड़ा हुआ दिखलाया जा सके। रैबिनोविच लिखते हैं :

”इस तरह इसके बाद कामेनेव और स्तालिन के लेखों ने आरज़ी सरकार के लिए सीमित समर्थन की वकालत की, ”युद्ध मुर्दाबाद” के नारे को ठुकराया और मोर्चे पर विसंगठनकारी गतिविधियों को समाप्त करने की वकालत की। कामेनेव ने प्राव्दा में 15 मार्च को लिखा, ”जब शान्ति नहीं है तो लोगों को अपने पदों पर बने रहना चाहिए, और तोप के गोलों का तोप के गोलों से और गोलियों का गोलियों से जवाब देना चाहिए।” अगले दिन स्तालिन ने इसी को दुहराया, ‘ ‘युद्ध मुर्दाबाद’ एक बेकार नारा है।’ ” (वही, पृ. 36)

यह तथ्यों का कितना भयंकर और आपराधिक विकृतीकरण है इसको प्रदर्शित करने के लिए हम स्तालिन के 16 मार्च के प्राव्दा में छपे लेख का उद्धरण पेश करेंगे। स्तालिन लिखते हैं :

”मौजूदा युद्ध एक साम्राज्यवादी युद्ध है। इसका मुख्य लक्ष्य है पूँजीवादी रूप से उन्नत राज्यों द्वारा विदेशी, मुख्य रूप से कृषि, क्षेत्रों को हड़पना (क़ब्ज़ा करना)। उन्हें नये बाज़ार, इन बाज़ारों से सुविधाजनक संचार, कच्चे माल और खनिज भण्डार चाहिए और वे हर जगह उसे हासिल करने के लिए प्रयास करते हैं…और यही कारण है कि रूस में मौजूदा स्थिति इस बात का शोर मचाने और घोषणा करने का कोई कारण नहीं देती कि, ”स्वतन्त्रता ख़तरे में है! युद्ध जि़न्दाबाद!”

”और जिस तरह उस समय (1914 में) फ़्रांस में कई समाजवादियों (गुएस्दे, सेम्बात, आदि) के बीच यह खलबली मच गयी थी, उसी तरह रूस में भी कई समाजवादी ”क्रान्तिकारी रक्षावाद” की घण्टी बजाने वाले बुर्जुआ कारिन्दों के पदचिन्हों पर चल रहे हैं।

”फ़्रांस में आगे के घटनाक्रम ने दिखलाया कि इस बात को लेकर ख़तरे की घण्टी बजाना एक झूठ है और स्वतन्त्रता और गणराज्य के बारे में चीख़-पुकार वास्तव में इस तथ्य को छिपाने का एक आवरण था कि फ़्रांसीसी साम्राज्यवादी आल्सेस-लॉरेन और वेस्टफ़ेलिया के लिए ललचाये हुए हैं।

”हम पूरी तरह विश्वस्त हैं कि रूस में मौजूदा घटनाक्रम अन्तत: दिखलायेगा कि ”स्वतन्त्रता ख़तरे में है” की उन्मादी चीख़ें किस क़दर झूठी हैं : ”देशभक्तिपूर्ण” धूम्रावरण छँट जायेगा और लोग ख़ुद ही देखेंगे कि रूसी साम्राज्यवादी आख़ि‍र किसी चीज़ के पीछे भाग रहे थे – जलडमरूमध्य और ईरान।

”गुएस्दे, सेम्बात और उस जैसों का जि़म्मरवॉल्ड और कियेंथॉल समाजवादी कांग्रेसों में सही ही मूल्यांकन किया गया था।

”आगे की घटनाओं ने जि़म्मरवॉल्ड और कियेंथाल की थीसीज़ के सहीपन और उपयोगीपन को पूरी तरह सिद्ध किया है।…

हमारा, एक पार्टी के तौर पर मौजूदा युद्ध पर क्या रुख़ होना चाहिए?…

पहली बात तो यह, कि यह प्रश्नेतर है कि यह कोरा नारा, ”युद्ध मुर्दाबाद!” व्यावहारिक कार्यों के लिए एकदम अनुपयुक्त है, क्योंकि, यह शान्ति के विचार के आम तौर पर प्रचार से आगे नहीं जाता, यह युद्धरत शक्तियों पर युद्ध को रोकने के लिए बाध्य करने के लिए व्यावहारिक दबाव बनाने के लिए कुछ भी मुहैया कराने में सक्षम नहीं है और न ही हो सकता है।” (स्तालिन, 1954, ‘युद्ध’, (16 मार्च 1917), वर्क्स, खण्ड-3, फ़ॉरेन लैंग्वेजेज़ पब्लिशिंग हाउस, मॉस्को)

आगे स्तालिन बताते हैं कि युद्ध ख़त्म करने का एक ही रास्ता हो सकता है और वह यह है कि तमाम युद्धरत देशों का मज़दूर वर्ग अपने शासक वर्गों पर युद्ध ख़त्म करने के लिए क्रान्तिकारी दबाव बनाये। साफ़ है कि स्तालिन अभी लेनिन की ”क्रान्तिकारी पराजयवाद” की कार्यदिशा तक नहीं पहुँचे थे। लेकिन रूस में लेनिन की इस रैडिकल कार्यदिशा के मोलोतोव के बाद सबसे क़रीब स्तालिन ही थे। हमने स्तालिन का यह लम्बा उद्धरण इसलिए पेश किया ताकि अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच जैसे अमेरिकी (वैसे रैबिनोविच मूलत: रूसी हैं। रैबिनोविच के पिता 1918 में क्रान्ति के बाद रूस से भाग गये थे)  इतिहासकारों द्वारा स्तालिन के विषय में फैलाये जाने वाले झूठ के स्तर को समझ सकें। इसके अलावा लेनिन के आने से पहले ही स्तालिन पुख़्ता तरीक़े से युद्ध का विरोध कर रहे थे (हालाँकि, वे जि़म्मरवॉल्ड-कियेंथाल लाइन पर सभी युद्ध विरोधियों की एकता स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे, जिस लाइन पर मेंशेविक प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है), इसे जानने के लिए स्तालिन के कुछ अहम लेख देखे जा सकते हैं, जैसे कि 18 मार्च 1917 का लेख ‘रूसी क्रान्ति के विजय की शर्तें’ और 16 मार्च 1917 का लेख ‘बिडिंग फॉर मिनिस्टीरियल पोर्टफोलियोज़’। इन लेखों को देखने से भी रैबिनोविच जैसे इतिहासकारों का यह आरोप निराधार सिद्ध हो जाता है कि स्तालिन ने युद्ध में भागीदारी का समर्थन किया था। ध्यान देने योग्य बात है कि त्रात्स्की ने भी स्तालिन पर यही आरोप लगाया है। हमने थोड़ा विस्तार से इस आरोप का खण्डन करना ज़रूरी समझा क्योंकि यद्यपि स्तालिन लेनिन की अवस्थिति पर नहीं पहुँचे थे, मगर वे कामेनेव की अवस्थिति पर भी नहीं थे। ग़ौरतलब है, ई.एच. कार के बाद अगर पश्चिमी अकादमिक जगत में किसी इतिहासकार के काम की सबसे ज़्यादा चर्चा हुई है तो वह रैबिनोविच हैं और यह ताज्जुब की बात है कि उनके काम का यह स्तर है कि वे स्तालिन के बारे में ऐसी आधारहीन टिप्पणी करते हैं। यहाँ यह भी बताना ज़रूरी है कि आरज़ी सरकार के बारे में भी स्तालिन का ठीक वही रुख़ नहीं था जो कि पेत्रोग्राद पार्टी कमेटी का था। स्तालिन का रुख़ अगर मोलोतोव के समान आरज़ी सरकार की सीधी मुख़ालफ़त का नहीं था, तो स्पष्ट समर्थन का भी नहीं था। स्तालिन का रुख़ मूलत: और मुख्यत: आरजी सरकार के प्रति अविश्वास का था। इसे भी रैबिनोविच ग़लत तरीक़े से पेश करते हैं।

यहाँ यह भी ग़ौरतलब है कि रैबिनोविच दो पेज बाद ही स्तालिन के बारे में धीरे से अपनी अवस्थिति को बदल लेते हैं! यहाँ रैबिनोविच लिखते हैं कि लेनिन के बोल्शेविक बैठकों में आने के पहले स्तालिन आरज़ी सरकार पर ”चौकसीपूर्ण नियन्त्रण” और पेत्रोग्राद सोवियत को क्रान्तिकारी सत्ता का आरम्भ मानने की बात कर चुके थे। लेकिन यदि स्तालिन पेत्रोग्राद सोवियत को क्रान्तिकारी सत्ता का केन्द्र मानते थे, तो फिर वह आरज़ी सरकार को समर्थन किस प्रकार दे रहे थे? स्पष्ट है कि स्तालिन की कार्यदिशा कामेनेव के साथ नहीं खड़ी थी, हालाँकि वे लेनिन की अवस्थिति तक भी नहीं पहुँच पाये थे। युद्ध पर उनकी अवस्थिति लेनिन के क़रीब बनती थी, जैसा कि हमने ऊपर दिखलाया है। लेकिन चूँकि आरज़ी सरकार के प्रति रवैये को लेकर स्तालिन का रुख़ ढुलमुल और भ्रमित था इसलिए युद्ध के प्रश्न पर भी वे खुलकर क्रान्तिकारी पराजयवाद की हिमायत नहीं कर सके थे। लेकिन स्पष्टत: उनकी अवस्थिति कामेनेव से भिन्न थी। यहाँ तक कि कामेनेव की युद्ध पर अवस्थिति को जब पीटर्सबर्ग कमेटी की एक बैठक में नकारा गया तो स्तालिन भी कामेनेव की आलोचना रखने वालों में से एक थे।

इसके बाद रैबिनोविच तथ्यों की कुछ गम्भीर ग़लतियाँ भी करते हैं। मिसाल के तौर पर, रैबिनोविच यह दावा करते हैं कि लेनिन 3 अप्रैल को रूस वापस लौटने के बाद 4 अप्रैल को अखिल रूसी सोवियत सम्मेलन में जाने वाले बोल्शेविक प्रतिनिधियों की एक बैठक को सम्बोधित करते हैं और पहली बार अपनी प्रसिद्ध ‘अप्रैल थीसीज़’ को पढ़ते हैं। यह तथ्यात्मक तौर पर ग़लत है। लेनिन ने 4 अप्रैल को दोपहर में जिस बैठक में पहली बार अपनी थीसीज़ औपचारिक तौर पर पेश की वह केवल बोल्शेविक प्रतिनिधियों की बैठक नहीं थी, बल्कि सभी सामाजिक-जनवादियों (जिसमें मेंशेविक व स्वतन्त्र सामाजिक-जनवादी भी शामिल थे) की साझा बैठक थी। दूसरी ग़लती रैबिनोविच यह करते हैं कि वह दावा करते हैं कि बोल्शेविकों की इस बैठक के बाद ये बोल्शेविक मेंशेविकों से एकीकरण की बात करने जा रहे थे। यह भी भ्रामक दावा है। यहाँ बोल्शेविक पार्टी और मेंशेविक पार्टी के एकीकरण का कोई प्रश्न नहीं था; अखिल रूसी सोवियत सम्मेलन में बोल्शेविक प्रतिनिधि (जो कि लेनिन के आने से पहले आरज़ी सरकार पर एक ऐसी कार्यदिशा अपना रहे थे, जो कि मेंशेविक अन्तरराष्ट्रीयतावादियों के क़रीब पड़ती थी) और मेंशेविक प्रतिनिधि युद्ध के प्रश्न पर एक एकजुट अवस्थिति पेश करने को लेकर बातचीत करने जाने वाले थे। रैबिनोविच के अनुसार, इसके पहले ही बोल्शेविक प्रतिनिधियों के सामने लेनिन ने अपनी थीसीज़ पेश कर दी जिसके कारण एकीकरण की वार्ता खटाई में पड़ गयी। जैसा कि हमने ऊपर जि़क्र किया, अव्वलन तो लेनिन ने थीसीज़ बोल्शेविक प्रतिनिधियों की अलग बैठक में नहीं बल्कि मेंशेविकों और बोल्शेविकों की एक साझा बैठक में पेश की थी और दूसरी बात यह कि पार्टियों के बीच एकीकरण कभी बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच एजेण्डे पर था ही नहीं। लेकिन इसे रैबिनोविच बोल्शेविकों और मेंशेविकों के बीच आम तौर पर एकीकरण की वार्ता के तौर पर पेश करने का प्रयास करते हैं, जो सच्चाई से परे है।

यह भी ग़ौरतलब है कि इस दौर के ब्यौरे के लिए रैबिनोविच किसी बोल्शेविक नेता के लेखन पर निर्भर नहीं करते हैं। मज़ेदार बात यह है कि पहले तो रैबिनोविच इस बैठक को बोल्शेविक प्रतिनिधियों की बैठक क़रार देते हैं, जिसके बाद इन प्रतिनिधियों को मेंशेविकों के साथ एकीकरण की बैठक के लिए जाना था, लेकिन उसके कुछ ही आगे रैबिनोविच मेंशेविक नेताओं द्वारा लेनिन की थीसीज़ पर प्रतिक्रियाओं का भी जि़क्र करते हैं; प्रश्न यह उठता है कि यदि उस बैठक में मेंशेविक थे ही नहीं तो उन्होंने लेनिन द्वारा उनकी थीसीज़ की प्रस्तुति पर वे प्रतिक्रियाएँ कैसे दीं? (देखें, वही, पृ. 40)

इसके बाद रैबिनोविच फिर से स्तालिन को अपना निशाना बनाते हैं। उनका दावा है कि 6 अप्रैल को केन्द्रीय कमेटी के रूसी ब्यूरो की एक बैठक में कामेनेव ने लेनिन की ‘अप्रैल थीसीज़’ पर हमला करते हुए कहा कि अगर इन्हें स्वीकार किया गया तो फिर पार्टी महज़़ प्रचारकों के एक समूह में तब्दील हो जायेगी। जब कामेनेव ने यह बात रखी, तो रैबिनोविच के अनुसार, स्तालिन ने कामेनेव का समर्थन किया। आगे भी रैबिनोविच दावा करते हैं कि स्तालिन ने सातवें अखिल रूसी पार्टी सम्मेलन (अप्रैल सम्मेलन) में ही कामेनेव की लगभग मेंशेविक अवस्थिति से अपना रिश्ता तोड़ा। इन सभी सूचनाओं का स्रोत स्तालिन-विरोधी इतिहासकार बर्दज़ालोव या कुछ अन्य मेंशेविक संस्मरण हैं। इनके अलावा, रैबिनोविच ने किसी को भी उद्धृत करने की आवश्यकता अनुभव नहीं की है। लेकिन यदि आप इस सूचना को किसी अन्य स्रोत में तलाशना चाहेंगे तो आपको मुश्किल होगी, क्योंकि यह सूचना किसी भी अन्य स्रोत में आपको नहीं मिलेगी, न तो ई. एच. कार में, न क्रुप्सकाया के संस्मरणों में, न लेनिन के लेखन में, न स्तालिन के लेखन में और न ही पार्टी दस्तावेज़ों में। ज़ाहिर है, रैबिनोविच यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं कि स्तालिन की शुरुआती अवस्थिति हूबहू वही थी जो कि कामेनेव की है। इस दावे की असत्यता को हम ऊपर दर्शा चुके हैं।

आगे भी जहाँ 10 जून के प्रदर्शन की चर्चा की जाती है, वहाँ स्तालिन को चलते-चलते एक बार फिर से निशाना बनाया जाता है। यहाँ 6 जून की पीटर्सबर्ग कमेटी की एक बैठक का ब्यौरा दिया गया है, जिसमें स्तालिन आते हैं। रैबिनोविच बताते हैं कि स्तालिन यहाँ पुरज़ोर तरीक़े से 10 जून को प्रदर्शन करने के पक्ष में तर्क देते हैं, जो कि लेनिन की कार्यदिशा थी और इससे पता चलता है कि स्तालिन किस हद तक वामपन्थी हो गये थे! रैबिनोविच लिखते हैं, ”अपनी टिप्पणियों में स्तालिन ने प्रदर्शित किया कि मार्च में राजधानी में आने के बाद उन्होंने वाम दिशा में कितनी लम्बी यात्रा तय कर ली थी।” (वही, पृ. 60) ग़ौरतलब है, स्तालिन कभी भी कामेनेव की दक्षिणपन्थी अवस्थिति पर नहीं थे; वे आरज़ी सरकार को लेकर क्या अवस्थिति अपनायी जाये, इस सवाल पर भ्रमित ज़रूर थे, लेकिन वे कामेनेव के समान युद्ध में भागीदारी की हिमायत की अवस्थिति की ओर नहीं थे। लेनिन के आने के बाद निश्चित तौर पर स्तालिन के लिए यह भ्रम की स्थिति साफ़ हुई थी और उन्होंने रैबिनोविच के अनुसार ”वाम दिशा में” कुछ यात्रा की थी। दूसरी बात यह है कि रैबिनोविच कहीं भी यह नहीं बताते कि कई वर्षों बाद त्रात्स्की से बहस के दौरान स्तालिन ने अपनी इस ग़लती को स्वीकार भी किया था। यह बौद्धिक बेईमानी नहीं तो और क्या है, कि रैबिनोविच इसका जि़क्र तक नहीं करते हैं? 1924 में स्तालिन ने अपनी ग़लती को स्वीकार करते हुए लिखा था :

”पार्टी (इसका बहुमत) इस नयी दिशा की ओर अँधेरेे में अपना रास्ता तलाश रही थी। इसने शान्ति के प्रश्न पर सोवियतों के ज़रिये आरज़ी सरकार पर दबाव की नीति अपनायी और तत्काल सर्वहारा वर्ग और किसानों की तानाशाही से सारी सत्ता सोवियतों को हस्तान्तरित करने के नारे को नहीं अपनाया। इस आधी-अधूरी नीति का लक्ष्य था शान्ति के ठोस प्रश्नों पर सोवियतों को आरज़ी सरकार के वास्तविक साम्राज्यवादी स्वभाव को समझने में सक्षम बनाना और इस प्रकार आरज़ी सरकार का सोवियतों पर से नियन्त्रण हथिया लेना। लेकिन यह बुरी तरह से ग़लत अवस्थिति थी, क्योंकि यह शान्तिवादी भ्रमों को जन्म देती थी, रक्षावाद को बल देती थी और इस प्रकार जनसमुदायों की क्रान्तिकारी शिक्षा में बाधा डालती थी। उस समय मैंने भी अन्य पार्टी कॉमरेडों के साथ यही अवस्थिति अपनायी थी और अप्रैल के मध्य में मैंने इसे पूरी तरह से छोड़ दिया जब मैंने लेनिन की थीसीज़ को अपना लिया। एक नयी दिशा की आवश्यकता थी। यह नयी दिशा पार्टी को लेनिन ने अपनी प्रसिद्ध अप्रैल थीसीज़ में दी थी।” (जे. वी. स्तालिन, 1953, ट्रॉट्स्कीज़्म ऑर लेनिनिज़्म, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड – 6, अंग्रेज़ी संस्करण, फ़ॉरेन लैंगुएजेज़ पब्लिशिंग हाउस, मॉस्को, पृ. 348)

लेकिन स्तालिन की इस आत्मालोचना को रैबिनोविच पूरी तरह से गोल कर जाते हैं, जिससे स्तालिन के बारे में एक भ्रामक तस्वीर पेश होती है। स्पष्ट है, हर उदार और यहाँ तक कि बोल्शेविकों से सहानुभूति रखने वाले बुर्जुआ इतिहासकार के लिए भी स्तालिन आँख की किरकिरी के समान हैं।

लेनिन के राजनीतिक नेतृत्व व प्रभाव के आकस्मिक कारण,
बकौल रैबिनोविच!

रैबिनोविच का मानना है कि अन्तत: लेनिन की कार्यदिशा (अप्रैल थीसीज़ में प्रस्तुत) को पार्टी में स्वीकार किया गया तो इसके दो कारण थे: एक तो यह कि लेनिन का बौद्धिक प्रभाव पार्टी के ऊपर काफ़ी ज़्यादा था और दूसरा यह कि फ़रवरी क्रान्ति के बाद से ही पार्टी सदस्यता का ढाँचा बदलता जा रहा था और उसमें बहुत से ऐसे तत्व प्रवेश कर गये थे जिनमें एक प्रकार का क्रान्तिकारी अधैर्य था। ऐसे अधैर्यवान सदस्यों को समाजवादी क्रान्ति की मंजि़ल में प्रवेश की बात करने वाली लेनिन की रैडिकल कार्यदिशा रुच रही थी और यही वजह थी की अन्तत: लेनिन की कार्यदिशा पार्टी में हावी हो गयी। रैबिनोविच लिखते हैं :

”फ़रवरी क्रान्ति के समय से ही पार्टी सदस्यता की शर्तों को लगभग रद्द कर दिया गया था, और अब बोल्शेविक क़तारें जल्दबाज़ नये रंगरूटों से भर गयी थीं जो कि मार्क्सवाद के बारे में लगभग कुछ नहीं जानते थे और जिन्हें क्रान्तिकारी कार्रवाई के लिए भयंकर अधैर्य एकजुट करता था। इसके अलावा, राजधानी में कारावास, निर्वासन और प्रवासन से लौटने वालों में तमाम पुराने पार्टी सदस्य थे, जो कि उन बोल्शेविकों से ज़्यादा रैडिकल होने का रुझान रखते थे जो कि युद्ध के दौरान पेत्रोग्राद में ही थे।” (रैबिनोविच, 1991, पृ. 41)

दूसरे शब्दों में, यदि पेत्रोग्राद में पहले की ही तरह पार्टी के भीतर सूझबूझ वाले, विवेकवान और मध्यमार्गी बोल्शेविकों का बोलबाला रहा होता (जैसे कि कामेनेव!) तो फिर लेनिन की जल्दबाज़ कार्यदिशा लागू नहीं हुई होती। हम देख सकते हैं कि रूसी क्रान्ति के बारे में तमाम बुर्जुआ व उदारवादी बुर्जुआ इतिहासकारों का दर्द आज तक भी शान्त नहीं हो पाया है। मसलन, वे तमाम क़ि‍स्म की आकस्मिकताओं या अलग-अलग विशिष्ट व्यक्तियों की कुछ ख़ास अभिलाक्षणिकताओं का हवाला देकर ऐसी बातें करते रहते हैं : ”अगर रूस में भी कोई लॉयड जॉर्ज होता तो…”, ”अगर पार्टी में अधैर्यवान रंगरूट न भर गये होते तो लेनिन की रैडिकल कार्यदिशा की बजाय कामेनेव की नर्म कार्यदिशा लागू होती…” वग़ैरह।

पहली बात तो यह है कि बोल्शेविक पार्टी में सदस्यता की शर्तों में कभी छूट नहीं दी गयी थी; यह सच है कि ऐसे दौर आये थे जब कि खुले काम की परिस्थितियों के कारण सदस्यता देने में ज़्यादा उदारता बरती गयी। लेकिन ऐसा दौर महज़़ फ़रवरी क्रान्ति के बाद ही नहीं आया था, बल्कि कई बार आया था। और पार्टी ने बार-बार शुद्धीकरण अभियान चलाकर ग़ैर-संजीदा तत्वों की छँटनी भी की थी। ग़ौरतलब बात यह है कि लेनिन की कार्यदिशा को स्वीकार करने के पीछे पार्टी के आम बौद्धिक स्तर का नीचे जाना और अदूरदर्शी नये रंगरूटों का भरना नहीं था। 6 अप्रैल से 24 अप्रैल तक ही (जब कि प्रसिद्ध अप्रैल सम्मेलन हुआ था) रूस में बदलती परिस्थितियाँ लगातार लेनिन की कार्यदिशा के सहीपन को साबित कर रही थीं। युद्ध में मिल रही लगातार पराजयों, मन्त्रि‍मण्डलीय संकट, भूख, मोर्चे से पलायन, सेना व मज़दूरों में विद्रोह की बढ़ती भावना – ये सभी बोल्शेविक पार्टी के सामने लेनिन की कार्यदिशा के सहीपन को सिद्ध कर रहे थे। इसलिए लेनिन की कार्यदिशा पहले 14 अप्रैल के पार्टी के पेत्रोग्राद नगर सम्मेलन में विजयी हुई और उसके बाद 24 अप्रैल के अखिल रूसी पार्टी सम्मेलन में विजयी हुई। ई.एच. कार का ब्यौरा इस विषय में कहीं ज़्यादा सन्तुलित है और अमेरिकी इतिहास-लेखन के टिपिकल विकृतीकरण से मुक्त है :

”ये कार्यवाहियाँ एक बार फिर से पार्टी पर लेनिन की अपरिमित प्रभाव को दिखला रही थीं, जो प्रभाव जुमलों पर नहीं, बल्कि परिस्थितियों की अद्वितीय और गहरी समझदारी के अत्यंत सम्मोहक प्रभाव को सम्प्रेषित करने वाली साफ़ नज़र और तीक्ष्ण तर्कों पर आधारित था। ”लेनिन के आने से पहले सभी कामरेड अँधेरे में भटक रहे थे”, जैसा कि पेत्रोग्राद सम्मेलन में आये एक प्रतिनिधि ने बताया।” (ई.एच. कार, 1978, दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन, खण्ड 1, डब्ल्यू. डब्ल्यू. नॉर्टन एण्ड कं., न्यूयॉर्क, पृ. 82)

लेनिन की अवस्थितियों का विकृतीकरण या उसे समझने में अक्षमता का प्रदर्शन जारी रखते हुए रैबिनोविच दावा करते हैं कि लेनिन का अप्रैल में रूस आते ही शुरुआती मूल्यांकन यह था कि आरज़ी सरकार को तत्काल उखाड़ फेंका जाना चाहिए। 20-21 अप्रैल को पीटर्सबर्ग कमेटी द्वारा वामपन्थी कार्यदिशा पर अमल के कारण एक जन प्रदर्शन हुआ जो कि पार्टी के पूर्ण नियन्त्रण में नहीं रह सका। बोग्दातियेव की अगुवाई में एक वामपन्थी धड़ा काफ़ी हद तक इसका जि़म्मेदार था। लेनिन ने इसे बड़ी भूल बताया और कहा कि कार्रवाई के मौक़ों पर ऐसी भूलें कई बार काफ़ी बड़ी क़ीमत वसूल लेती हैं, लेकिन साथ ही लेनिन ने यह भी कहा कि जो सक्रिय होते हैं और क़दम उठाते हैं उनसे ग़लतियाँ हो सकती हैं। रैबिनोविच यहाँ यह जोड़ देते हैं :

”इस मौक़े पर उनकी (लेनिन की) टिप्पणियाँ यह दिखलाती हैं कि आरज़ी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए जनसमुदायों को तैयार करने का कार्यभार अब उन्हें उन दिनों की अपेक्षा काफ़ी जटिल लग रहा था जब वे अभी रूस लौटे थे…” (रैबिनोविच, 1991, पृ 45)

यह लेनिन की अवस्थिति का भयंकर विकृतीकरण है और उन्हें वामपन्थी भटकाव का शिकार बनाने का प्रयास है। रैबिनोविच यह इसलिए भी करते हैं क्योंकि इससे उनकी ‘विभाजित पार्टी’ की थीसिस को बल मिलता है। सच्चाई यह है कि लेनिन ने अपने रूस में आने साथ ही जो ‘अप्रैल थीसीज़’ पेश की थी उसमें तत्काल आरज़ी सरकार को उखाड़ फेंकने की कोई बात नहीं की थी। लेनिन का यह मानना था कि जब तक कि बोल्शेविक पार्टी पीटर्सबर्ग सोवियत और अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस में बहुमत में नहीं आ जाती और जब तक वह प्रान्तों में बेहतर स्थिति में नहीं आ जाती तब तक बोल्शेविक अगर आरज़ी सरकार के ख़ि‍लाफ़ क्रान्ति कर सत्ता स्थापित कर भी लें तो भी वे उस पर टिके नहीं रह पायेंगे। और यह अवस्थिति लेनिन की शुरू से ही थी न कि बाद में बनी। लेनिन ने शुरुआत में महज़़ यह दावा किया था कि अब क्रान्ति की जनवादी मंजि़ल से समाजवादी मंजि़ल में संक्रमण शुरू हो चुका है और अब किसी प्रकार के संसदीय जनवाद की ओर लौटने की बात पीछे की ओर उठाया जाने वाला क़दम होगा। अब सारी सत्ता सोवियतों को सौंपने का नारा ही प्रासंगिक है। ”दोहरी सत्ता” की विशिष्ट और अस्थायी स्थिति में कुछ समय के लिए राज्यसत्ता के सोवियतों के हाथों में शान्तिपूर्ण रूप से हस्तान्तरण की सम्भावना बनी हुई थी, लेकिन जुलाई के बाद ही यह सम्भावना समाप्त हुई जब राज्यसत्ता पूरी तरह बुर्जुआ वर्ग के हाथों में सुदृढ़ीकृत हो गयी और सोवियतों की भूमिका बुर्जुआ वर्ग के पिछलग्गू की बन गयी। लेकिन लेनिन की पूरी अवस्थिति को रैबिनोविच तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। अप्रैल सम्मेलन के बारे में ही रैबिनोविच एक ऐसी तस्वीर पेश करते हैं जो कि ‘विभाजित पार्टी’ के उनके विचार का समर्थन करे। वे कहते हैं कि सम्मेलन में लेनिन को बिना शर्त नहीं बल्कि बाशर्त समर्थन मिला; दूसरे इण्टरनेशनल से नाता तोड़ने के उनके आह्वान को ज़्यादा समर्थन नहीं मिला और ”वर्तमान स्थिति” पर लेनिन की अवस्थि‍ति को बहुमत तो मिला लेकिन केवल 24 वोटों के अन्तर से विजय मिली। अव्वलन तो ये तथ्य ही सटीक नहीं है, और दूसरे किसी भी पार्टी सम्मेलन में तीखी बहस होना एक संक्रमणकालीन स्थिति में सामान्य था। तथ्यत: यह ग़लती है कि ”वर्तमान स्थिति” पर लेनिन की अवस्थिति के समर्थन में 73 वोट पड़े जबकि उसके विरोध में 39 वोट पड़े, जबकि 8 प्रतिनिधियों ने वोट डालने से इंकार कर दिया। यानी लेनिन की अवस्थिति की 24 नहीं बल्कि 34 वोटों से जीत हुई थी और उसके पक्ष में कुल वोटों के दो-तिहाई वोट पड़े थे। बोल्शेविक पार्टी का सिद्धान्त ही यही है कि कार्यदिशा तय होने से पहले पूर्ण स्वतन्त्रता और बहस की पूरी आज़ादी और बहुमत द्वारा कार्यदिशा निर्धारित हो जाने पर पूर्ण केन्द्रीयता और पूर्ण अनुशासन। सातवें पार्टी सम्मेलन में लेनिन की अप्रैल थीसीज़ को इतने अन्तर से भी बहुमत प्राप्त हुआ तो वह लेनिन की कार्यदिशा की एक बड़ी विजय थी क्योंकि दस दिन पहले ही लेनिन की अवस्थिति अल्पमत में थी। लेकिन रैबिनोविच के लिए सम्मेलन में यह वोटिंग पैटर्न एक ‘विभाजित पार्टी’ को दिखलाता है।

साथ ही, रैबिनोविच दावा करते हैं कि सम्मेलन में लेनिन के विरोध में एक कामेनेव गुट था जिसमें नोगिन, मिल्युतिन और फेदोरोव थे, जबकि उसके विपरीत लेनिन का पक्ष लेने वाला धड़ा था जिसमें लेनिन के अलावा, ज़ि‍नोवियेव, स्तालिन, स्वेर्दलोव और स्मिल्गा शामिल थे। इन नौ लोगों को ही केन्द्रीय कमेटी में भी चुना गया जिससे पता चलता है कि पार्टी में कामेनेव धड़े का भी काफ़ी प्रभाव था और इसी मध्यमार्गी धड़े को इसी वजह से नेतृत्व में इतना स्थान मिला था। यहाँ भी देख सकते हैं कि एक बुर्जुआ अनुभववादी इतिहासकार यदि बोल्शेविक पार्टी के भीतर चलने वाले दो लाइनों के संघर्ष का इतिहास लिखेगा तो किस नज़रिये से लिखेगा। वह उसमें दो लाइनों के संघर्ष और उसके कारण बनने वाली व्यापक अवस्थितियों को गुटों के रूप में देखेगा और साथ ही हर वोटिंग या चुनाव को प्रभावी गुटों के बीच एक समझौते के रूप में पेश करेगा। इसलिए रैबिनोविच के अनुसार सातवें सम्मेलन में लेनिन की अवस्थिति की कोई भारी विजय नहीं हुई बल्कि एक सन्तु‍लन स्थापित करने वाला समझौता किया गया! ज़ाहिर है, रैबिनोविच जनवादी केन्द्रीयता के सिद्धान्त को ही नहीं समझते हैं और हर पार्टी फ़ोरम पर सत्ता के लिए गुटों के बीच संघर्ष की तलाश करते नज़र आते हैं। पार्टी के भीतर जारी विचारधारात्मक और राजनीतिक संघर्ष का इस्तेमाल वे बोल्शेविक पार्टी को एक ‘विभाजित पार्टी’ के रूप में प्रदर्शित करने के लिए करते हैं और यह दावा करते हैं कि सोवियत स्रोतों में कहीं भी इस संघर्ष की तस्वीर नहीं मिलती है और अगर कहीं जि़क्र आता भी है तो लेनिन की कार्यदिशा से विपथगमन करने वाले को वाम या दक्षिण भटकाव का शिकार बता दिया जाता है। यह एक विचित्र आपत्ति है।

निश्चित तौर पर, बोल्शेविक पार्टी जिस कार्यदिशा को तमाम बहस-मुबाहसे के बाद सही कार्यदिशा के रूप में स्वीकार करेगी उससे विचलन को निश्चित तौर पर वह सही द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी अवस्थिति से वाम या दक्षिण विचलन के तौर पर ही देखेगी। इस बात पर दुखी होने का रै‍बिनोविच के पास कोई वैध कारण नहीं है। दूसरी बात जो स्पष्ट तौर पर सामने आती है वह यह है कि एक कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर जारी राजनीतिक व विचारधारात्मक उथल-पुथल, बहस और विमर्श के बीच तथा उस पार्टी की सांगठनिक एकता और अनुशासन के बीच रैबिनोविच व तमाम बुर्जुआ इतिहासकार फ़र्क़ नहीं कर पाते हैं। इसका कारण यही है कि वे जनवादी केन्द्रीयता के सिद्धान्त को नहीं समझ पाते हैं। अगर हम रैबिनोविच द्वारा लिखे गये इतिहास को ही देखें तो हम पाते हैं कि पार्टी में जो तमाम बहसें चल रही थीं, उसके बावजूद, अगर हम अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा पार्टी की तय कार्यदिशा से किये गये विचलनों को छोड़ दें, तो सांगठनिक अनुशासन के मामले में कमोबेश एकता मौजूद थी। पार्टी की कमेटियाँ केवल उन सूरतों में अपने से ऊपर की कमेटियों या केन्द्रीय कमेटी के निर्देशों को लागू करने में असफल दिखती हैं, जबकि उनके बीच सम्पर्क टूट चुका होता है, या फिर जब कुछ विशिष्ट व्यक्ति अनुशासन का उल्लंघन करते हैं। इसके अतिरिक्त, सभी मौक़ों पर हर कमेटी सदस्य अपनी कमेटी के बहुमत द्वारा तय कार्यदिशा और केन्द्रीय कमेटी के निर्देशों का पालन करता है और हर कमेटी अपने से ऊपर की कमेटी और केन्द्रीय कमेटी के निर्देशों का पालन करती नज़र आती है। इसलिए विचारों और कार्यदिशाओं के घमासान के बावजूद, अपवादस्वरूप स्थितियों, जैसे कि सम्पर्क का टूट जाना, के अलावा, कार्रवाई की एकता बोल्शेविक पार्टी की ख़ासियत के तौर पर सामने आती है। और चूँकि रैबिनोविच भी एक अनुभववादी और प्रत्यक्षवादी इतिहासकार हैं, इसलिए वे भी तथ्यों की प्रस्तुति में इतना हेर-फेर नहीं कर पाते कि कोई और तस्वीर पेश कर पायें। उनका इतिहास-लेखन भी ग़ैर-इरादतन ही सही मगर इस तथ्य को सही सिद्ध करता है। मिसाल के तौर पर, रैबिनोविच का पूरा ब्यौरा दिखलाता है कि किस प्रकार सैन्य संगठन के पोदवॉइस्की और नेव्स्की केन्द्रीय कमेटी के निर्णयों को सैन्य संगठन के सम्मेलन में लागू करवाने का प्रयास करते हैं और साथ ही व्यापक सैनिक आबादी में बोल्शेविक कार्यदिशा को लागू करवाने के लिए अथक प्रयास करते हैं, लेकिन अलग से रैबिनोविच एक स्थान पर यह दावा करते हैं कि पोदवॉइस्की और नेव्स्की स्वतन्त्र व्यक्तित्व के स्वामी थे और वे अक्सर केन्द्रीय कमेटी के निर्णयों को लागू नहीं करते थे। इस दावे को सही सिद्ध करने के लिए रैबिनोविच संशोधनवाद के दौर के स्रोत का हवाला देते हैं। इस प्रकार के अन्तरविरोध रैबिनोविच के इतिहास-लेखन में हमें पर्याप्त संख्या में मिलते हैं।

बोल्शेविक सैन्य संगठन और उसके नेतृत्व के बारे में रैबिनोविच के अन्तरविरोधी विचार

बोल्शेविक सैन्य संगठन के बारे में रैबिनोविच के विचारों की पड़ताल विशेष तौर पर उपयोगी है क्योंकि फ़रवरी से जुलाई के बीच जो कुछ हो रहा था उसमें सैन्य संगठन और सेना की भूमिका पर रैबिनोविच का अतिशय ज़ोर है, और राजनीतिक पहलू पर ज़ोर कम है। यह अलग से आलोचना का विषय है, लेकिन अभी हम सैन्य संगठन और उसके नेतृत्व के विषय में रैबिनोविच के विचारों पर ध्यान केन्द्रित करेंगे।

जैसा कि हमने ऊपर जि़क्र किया है, ‘विभाजित पार्टी’ की अपनी अवधारणा को पुष्ट करने के लिए रैबिनोविच सैन्य संगठन के बोल्शेविक संगठनकर्ताओं की स्वायत्तता और राजनीतिक स्वतन्त्रता पर ज़्यादा बल देते हैं। लेकिन उसके बाद 10 जून के प्रदर्शन की तैयारी के विषय में हम उनके ही ब्यौरे को देखें तो हम पाते हैं कि चाहे इन नेताओं के विचार केन्द्रीय कमेटी के निर्णय से मेल खाते हों या नहीं, अन्तत: ये केन्द्रीय कमेटी के निर्णयों को ही लागू करने का प्रयास करते थे। इनमें दो नेता प्रमुख थे – पोदवॉइस्की और नेव्स्की। निश्चित तौर पर, आकस्मिक परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर सैन्य संगठन के ये नेता अपने स्वतन्त्र निर्णय का उपयोग करते थे और इसके अलावा उनसे और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है। लेकिन बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इन नेताओं ने विलक्षण अनुशासन का प्रदर्शन किया।

रैबिनोविच बताते हैं कि 10 जून के प्रदर्शन की योजना मूलत: बोल्शेविक सैन्य संगठन ने बनायी थी। लेकिन केन्द्रीय कमेटी मई माह के मध्य तक इस पर कोई ठोस निर्णय नहीं ले पा रही थी। वास्तव में केन्द्रीय कमेटी इस बात को लेकर सशंकित थी कि ऐसे किसी प्रदर्शन में सैनिकों के अतिरिक्त मज़दूरों की भागीदारी किस हद तक सुनिश्चित की जा सकती है। केन्द्रीय कमेटी का स्पष्ट मानना था कि यदि प्रदर्शन में व्यापक जन भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जा सकती, तो महज़़ सैनिकों के भारी असन्तोष के आधार पर ऐसे प्रदर्शन के भारी नकारात्मक नतीजे सामने आ सकते हैं। यही कारण था कि केन्द्रीय कमेटी तत्काल सैन्य संगठन की इस योजना को स्वीकृति नहीं दे रही थी। वहीं दूसरी ओर बोल्शेविक सैन्य संगठन की स्थिति भी नाज़ुक थी क्योंकि पेत्रोग्राद के सैनिकों में असन्तोष बढ़ता जा रहा था और उसके आक्रोश को फूट पड़ने से रोक पाना मुश्किल हो रहा था। यही कारण था कि सैन्य संगठन के बोल्शेविक संगठनकर्ताओं के लिए एक मुश्किल हालत थी। केन्द्रीय कमेटी के निर्देश के बिना वे प्रदर्शन का आह्वान नहीं कर सकते थे और सैनिकों का दबाव नीचे से बहुत ज़्यादा था क्योंकि उनके लिए अब और इन्तज़ार करना बेहद मुश्किल था। अगर हम रैबिनोविच के ही ब्यौरे को देखें तो हम पाते हैं कि इसी दौरान पीटर्सबर्ग कमेटी की बैठक के दौरान नेव्स्की ने स्वयं कहा था कि केन्द्रीय कमेटी के निर्णय के बिना इस दिशा में कोई क़दम न उठाये जायें। 23 मई की सैन्य संगठन की एक बैठक में भी सैन्य संगठन के एक अन्य नेता दाश्केविच और नेव्स्की दोनों ने ही प्रदर्शन की योजना को बाशर्त समर्थन देते हुए यह कहा कि जनसमर्थन के बिना किसी प्रदर्शन का आयोजन करना एक रणकौशलात्मक भूल होगी लेकिन अगर व्यापक जनसमर्थन और भागीदारी को सुनिश्चित किया जा सकता हो, तो निश्चित तौर पर प्रदर्शन किया जाना चाहिए। रैबिनोविच की किताब में ही इस बैठक का और इसमें नेव्स्की द्वारा किये गये हस्तक्षेप का जि़क्र आता है (पृ. 55)। यहाँ नेव्स्की और कुछ नहीं बल्कि केन्द्रीय कमेटी की राय को ही पेश कर रहे थे। इसके बावजूद, आगे रैबिनोविच नेव्स्की को उन लोगों में से एक व्यक्ति के तौर पर पेश करते हैं जो कि बोल्शेविक सैन्य संगठन में थे और केन्द्रीय कमेटी की इच्छाओं के विपरीत एक अपरिपक्व प्रदर्शन करने की हिमायत कर रहे थे।

रैबिनोविच का यह कहना बिल्कुल सही है कि पेत्रोग्राद में अलग-अलग गैरीसनों में प्रदर्शन करने को लेकर भारी माँग थी और इसका बोल्शेविक सैन्य संगठन पर काफ़ी दबाव पड़ रहा था। साथ ही, रैबिनोविच स्वयं ही दिखलाते हैं कि दुस्साहसवादी अवस्थिति अपनाने वाले अराजकतावादियों और अराजकतावादी-कम्युनिस्टों के कारण भी सैनिकों के बीच में बोल्शेविकों का राजनीतिक कार्य काफ़ी मुश्किल हो जाता था। कई बार अधैर्य और असन्तोष से भरे हुए सैनिक अराजकतावादियों और अराजकतावादी-कम्युनिस्टों के वाम दुस्साहसवाद की ओर आकृष्ट होने लगते थे। ऐसे में, बोल्शेविक सैन्य संगठन के संगठनकर्ताओं को रैडिकल रेटरिक का इस्तेमाल करते हुए, विस्फोट की स्थिति को रोकना पड़ता था। इस रैडिकल रेटरिक के कारण ही कई बार रैबिनोविच भ्रमित हो जाते हैं और उन्हें लगता है कि बोल्शेविक संगठनकर्ता भी अपरिपक्व प्रदर्शन का आह्वान कर रहे थे। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था, क्योंकि बोल्शेविक संगठनकर्ताओं के लिए रैडिकल जुमलों और मुहावरों का इस्तेमाल करना एक मजबूरी बन गया था, अन्यथा तमाम गैरीसनों पर उनका राजनीतिक प्रभाव ख़तरे में पड़ जाता। अगर हम स्वयं रैबिनोविच के ही पूरे ब्यौरे को पढ़ें तो स्पष्ट हो जाता है कि बोल्शेविक सैन्य संगठन के ये नेता किसी भी तरह से जनआक्रोश के विस्फोट को तब तक टालने का प्रयास कर रहे थे, जब‍ तक कि केन्द्रीय कमेटी इस प्रश्न पर एक ठोस निर्णय न ले ले। पोदवॉइस्की और नेव्स्की इस प्रक्रिया में केन्द्रीय कमेटी को यह भी सम्प्रेषित कर रहे थे कि इस विस्फोट को बहुत लम्बे समय तक नहीं टाला जा सकता है क्योंकि अगर बोल्शेविक इसमें नहीं भी हिस्सा लेते हैं, तो सैनिक देर-सबेर सब्र खो बैठेंगे और प्रदर्शन करेंगे। उस सूरत में गैरीसनों में बोल्शेविकों के प्रभाव में ह्रास आयेगा और अराजकतावादियों का प्रभाव बढ़ सकता है। इसी पूरे सन्दर्भ में केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग समिति में तीखी बहस और नोक-झोंक हुई। लेकिन रै‍बिनोविच द्वारा इससे यह नतीजा निकाला जाना कि यह बोल्शेविक पार्टी के विभाजित चरित्र को दिखलाता है, क़तई ग़लत है। यह भी सही हो सकता है कि कई बार बोल्शेविक पार्टी के सैन्य संगठन में काम कर रहा नेतृत्व आम सैनिकों के भारी दबाव के प्रभाव में आकर काम कर रहा हो; तब भी इससे यह नतीजा निकालना अनुचित होगा कि बोल्शेविक सैन्य संगठनकर्ता या बोल्शेविक सैन्य संगठन पार्टी के भीतर सत्ता का एक अलग केन्द्र था जिसके अपने हित और अपने लक्ष्य थे और जो लगातार अपने प्रभाव और स्वायत्तता को बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहता था। नेव्स्की और पॉड्वाइस्की लगातार यह प्रयास करते थे कि सैनिकों के बीच केन्द्रीय कमेटी द्वारा तय कार्यदिशा पर सहमति बनायी जा सके। बताने की आवश्यकता नहीं है कि हमेशा ऐसा कर पाना सम्भव नहीं होता था, विशेष तौर पर उन परिस्थितियों में जिनसे उस समय रूस गुज़र रहा था।

आगे रैबिनोविच बताते हैं कि किस तरह पहले 6 जून को केन्द्रीय कमेटी के साथ संयुक्त बैठक में पोदवॉइस्की ने केन्द्रीय कमेटी से इस प्रश्न पर तत्काल निर्णय लेने की अपील की, किस प्रकार केन्द्रीय कमेटी में इसे लेकर तीखी बहस हुई जिसमें लेनिन, स्तालिन, स्वेर्दलोव और फेदोरोव ने इसका समर्थन किया जबकि कामेनेव, नोगिन और ज़ि‍नोवियेव ने इसका विरोध किया। यहाँ तक कि क्रुप्सकाया भी इस प्रश्न पर पूरी तरह से लेनिन के साथ नहीं थीं और उनके भी इस विषय पर कुछ संशय थे। इसके बाद यह मसला पीटर्सबर्ग कमेटी में भी उठा वहाँ भी व्यापक बहस के बाद लेनिन की अवस्थिति को स्वीकार किया गया, लेकिन टॉम्स्की के आग्रह पर अन्तिम निर्णय को 9 जून की पीटर्सबर्ग कमेटी की विस्तारित बैठक तक के लिए टाल दिया गया। बाद में इस बैठक में भी प्रदर्शन करने के फ़ैसले पर मुहर लगी। इन बहसों का विवरण देते हुए रैबिनोविच वास्तव में ‘विभाजित पार्टी’ की थीसिस को ही सही ठहराने का निरन्तर प्रयास करते नज़र आते हैं, जिसके अनुसार सोवियत स्रोतों में (रैबिनोविच के लिए 1953-56 के बाद के सोवियत स्रोत) में लेनिन के प्रश्नेतर नेतृत्व की तस्वीर पेश करने के लिए इन बहसों के ब्यौरों को दबा दिया गया। लेकिन जो वास्तविक सोवियत स्रोत हैं, यानी 1953-56 से पहले के सोवियत स्रोतों में, जिसमें कि ‘बोल्शेविक पार्टी का इतिहास’ भी शामिल है, इस बहसों को छिपाया नहीं गया है और इनका एक ब्यौरा दिया गया है। दूसरी बात यह है कि इन बहसों से क़तई यह साबित नहीं होता कि बोल्शेविक पार्टी एक ‘विभाजित पार्टी’ थी; उल्टे ‘कार्रवाई में पूर्ण एकता’ इन्हीं तीखी बहसों से पैदा होती थी और ये सांगठनिक कार्रवाई का धरातल है जहाँ यह देखा जाना चाहिए कि पार्टी एकजुट थी या नहीं। लेकिन रैबिनोविच लेनिन-कालीन और स्तालिन-काल से पहले की बोल्शेविक पार्टी को उदार बुर्जुआ चौखटे में फिट करने के प्रयास में बोल्शेविक पार्टी में लगातार ‘विभाजित पार्टी’ की अपनी अवधारणा को थोपने का प्रयास करते रहते हैं।

10 जून के प्रस्तावित और बाद में रद्द कर दिये गये प्रदर्शन के ठीक पहले और ठीक बाद की स्थितियों और इस दौरान सैन्य संगठन की गतिविधियों की चर्चा करते हुए एक स्थान पर रैबिनोविच बोल्शेविकों और अराजकतावादियों व अराजकतावादी-कम्युनिस्टों के बीच मौजूद कुछ समानताओं की बात करते हैं। हालाँकि, बाद में वे उनके बीच मौजूद विचारधारात्मक मतभेदों की चर्चा भी करते हैं, लेकिन समानताओं और असमानताओं, दोनों की ही चर्चा में यह स्पष्ट हो जाता है कि इस मुद्दे पर रैबिनोविच की स्पष्ट समझदारी नहीं है। साथ ही, जिस रूप में रैबिनोविच कम्युनिस्टों व अराजकतावादियों के अन्तिम लक्ष्य का जि़क्र करते हैं, उससे ही स्पष्ट हो जाता है कि वे इस लक्ष्य को ही आदर्शवादी यूटोपिया समझते हैं, हालाँकि वे ऐसा खुलकर नहीं कहते। रैबिनोविच लिखते हैं :

”अराजकतावादी-कम्युनिस्टों और बोल्शेविकों द्वारा कल्पित भावी आदर्श समाजों के बीच कई समानताएँ थीं। इसके अलावा ऐसे तात्कालिक मुद्दों पर भी उनकी अवस्थितियाँ एक थीं जैसे कि युद्ध को जारी रखना, सेना में अनुशासन की पुनर्स्थापना, उद्योगों पर मज़दूरों का नियन्त्रण, और आरज़ी सरकार के प्रति दृष्टिकोण।” (वही, पृ. 62)

स्पष्ट है कि रैबिनोविच जो दिखता है उसी को सच समझ बैठे हैं। यह सच है कि अन्तिम लक्ष्य के तौर पर एक राज्यविहीन समाज अराजकतावादियों और कम्युनिस्टों दोनों का ही लक्ष्य होता है, लेकिन कम्युनिस्ट इस बात को समझते हैं कि एक वर्गविहीन समाज के बिना एक राज्य विहीन समाज नहीं हो सकता है और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के बिना एक वर्गविहीन समाज में संक्रमण सम्भव नहीं है। अगले ही पृष्ठ पर रैबिनोविच इस बात को मानते हैं। लेकिन तात्कालिक तौर पर भी आरज़ी सरकार के विरोध के प्रति बोल्शेविकों का रवैया अलग था और अराजकतावादियों का अलग। बोल्शेविक आरज़ी सरकार को बुर्जुआ सरकार मानते हुए, उसका ध्वंस कर सर्वहारा सत्ता क़ायम करना चाहते थे, जबकि अराजकतावादी हर प्रकार की सत्ता के ख़ात्मे की बात कर रहे थे। उद्योगों पर नियन्त्रण के प्रश्न पर भी बोल्शेविकों की समझदारी समूचे राष्ट्रीय उद्योगों पर मज़दूर वर्ग के नियन्त्रण की थी, न कि एक-एक कारख़ाने पर मज़दूरों के नियन्त्रण की। हालाँकि बोल्शेविक पार्टी ने कुछ ही माह बाद क्रान्ति की तात्विक शक्ति के तौर पर कारख़ाना समितियों द्वारा कारख़ानों पर क़ब्ज़े के आन्दोलन का समर्थन किया था, लेकिन इसके समर्थन के साथ ही पार्टी इस अनिवार्यता के प्रति सचेत थी कि आगे इसे अलग-अलग कारख़ानों पर मज़दूरों के नियन्त्रण से राष्ट्रीय उद्योग पर मज़दूर वर्ग के नियन्त्रण में तब्दील करना होगा। इसलिए तात्कालिक तौर पर भी बोल्शेविकों और अराजकतावादी-कम्युनिस्टों के बीच कई अन्तर थे, जिन्हें कई बार आम रूसी मज़दूर और सैनिक नहीं समझ पाते थे, जैसा कि रैबिनोविच ने भी लिखा है। लेकिन निश्चित तौर पर रैबिनोविच आम रूसी मज़दूर या सैनिक नहीं हैं!

10 जून, 18 जून और 3-5 जुलाई की घटनाएँ : बोल्शेविक पार्टी के बदलते मूल्यांकन और निर्णय और रैबिनोविच का ‘विभाजित पार्टी’
का सिद्धान्त

रैबिनोविच कहीं भी ”आधिकारिक सोवियत व्याख्या” का पुतला खड़ा करना नहीं भूलते ताकि बाद में उसे ध्वस्त कर सकें। 10 जून के प्रदर्शन के लाटि़सस पहले के दौर के बारे में लिखते हुए रैबिनोविच दावा करते हैं कि वाईबोर्ग ज़ि‍ला कमेटी के सदस्य लाटसिस ने अपनी डायरी में दर्ज किया है कि 8 जून को हुई बोल्शेविकों की बैठक में सैनिक समर्थन को लेकर तो कोई सन्देह नहीं था, लेकिन मज़दूरों की भागीदारी को लेकर अभी भी कुछ सन्देह बना हुआ था। छठी कांग्रेस में स्तालिन की रिपोर्ट में भी बताया गया था कि मज़दूरों की भागीदारी किस हद तक होगी, इसे लेकर कुछ प्रश्न चिन्ह बने हुए थे। लेकिन 11 जून के ही प्राव्दा  में यह दावा किया गया था कि 10 जून के प्रदर्शन को मज़दूरों और सैनिकों, दोनों का ही समर्थन प्राप्त था, जो कि रैबिनोविच के मुताबिक़ आगे चलकर आधिकारिक सोवियत व्याख्या बन गयी। यहाँ सोचने की बात यह है कि छठी कांग्रेस में स्तालिन की रिपोर्ट से ज़्यादा आधिकारिक व्याख्या बोल्शेविकों के अख़बार प्राव्दा के एक लेख को क्यों माना जाना चाहिए? एक केन्द्रीय कमेटी सदस्य और एक वाईबोर्ग ज़ि‍ला कमेटी जैसी अहम कमेटी के सदस्य की व्याख्या को आधिकारिक क्यों नहीं माना जायेगा? इसी प्रकार के अन्तरविरोधों से रैबिनोविच का ब्यौरा भरा हुआ है।

यह भी एक ग़ौरतलब बात है कि रैबिनोविच हर उपलब्ध तथ्य को पेश ज़रूर करते हैं लेकिन जहाँ कहीं भी कोई तथ्य उनके ‘विभाजित पार्टी’ के सिद्धान्त के विपरीत जाता है, वहाँ वे शान्त रहते हैं और कोई टिप्पणी नहीं करते। मिसाल के तौर पर, रैबिनोविच यह तथ्य हमारे सामने पेश करते हैं 10 जून के प्रदर्शन के पक्ष में निर्णय लिये जाने की सूचना सोवियत के बोल्शेविक प्रतिनिधियों को नहीं दी गयी थी (जिसका कारण एक भ्रम प्रतीत होता है; केन्द्रीय कमेटी के सदस्यों ने सोच लिया था कि यह कार्य पीटर्सबर्ग कमेटी करेगी और पीटर्सबर्ग कमेटी के सदस्यों ने यह सोच लिया था कि यह कार्य केन्द्रीय कमेटी करेगी)। सोवियत के बोल्शेविक प्रतिनिधियों ने केन्द्रीय कमेटी व पीटर्सबर्ग कमेटी के समक्ष इसका कड़ा विरोध किया और कहा कि 10 जून के प्रदर्शन का आयोजन नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन साथ ही 9 जून की आधी रात साढ़े बारह बजे जब पहली अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस ने इस प्रदर्शन पर प्रतिबन्ध लगाते हुए सैनिकों व मज़दूरों को अपनी वैकल्पिक समानान्तर अपील जारी की और प्रदर्शन में हिस्सेदारी न करने को कहा तो इस प्रस्ताव पर बोल्शेविक प्रतिनिधियों ने वोट देने से इंकार कर दिया। यह घटना बोल्शेविक पार्टी में अनुशासन के उच्च स्तर को दिखलाने वाली एक प्रातिनिधिक घटना है। यह दिखलाती है कि पार्टी के भीतर राजनीतिक असहमति और संघर्ष जितना भी तीखा हो, जि़म्मेदार बोल्शेविक निकायों ने हमेशा और जि़म्मेदार बोल्शेविक संगठनकर्ताओं ने लगभग हमेशा पार्टी अनुशासन का पालन किया। लेकिन इस घटना के बाबत सभी तथ्य पेश करते हुए भी रैबिनोविच इस पर कोई टिप्पणी नहीं करते, क्योंकि यह घटना उनके ‘विभाजित पार्टी’ के सिद्धान्त का खण्डन करती है।

ठीक ऐसी ही एक घटना थी 10 जून की भोर में 2 बजे केन्द्रीय कमेटी द्वारा प्रदर्शन को रद्द करने का फ़ैसला। रैबिनोविच स्वयं बताते हैं कि पीटर्सबर्ग कमेटी, जो पहले से भी केन्द्रीय कमेटी के कुछ निर्णयों को लेकर आलोचनात्मक रही थी, केन्द्रीय कमेटी के आख़ि‍री मौक़े पर लिये गये इस निर्णय से क़तई सहमत नहीं थी। लेकिन इसके बावजूद पीटर्सबर्ग कमेटी ने बेहद कम समय में 10 जून के प्रदर्शन को रोकने के लिए हर सम्भव प्रयास किया और काफ़ी हद तक उसे रोकने में कामयाब भी रही। यह दीगर बात है कि बाद में पीटर्सबर्ग कमेटी के अधिकांश सदस्यों ने केन्द्रीय कमेटी द्वारा आख़ि‍री समय पर प्रदर्शन रद्द किये जाने को लेकर काफ़ी कड़ी आलोचना रखी और इस आलोचना पर लेनिन को स्वयं केन्द्रीय कमेटी का दृष्टिकोण रखना पड़ा। लेकिन यहाँ ग़ौरतलब बात यह है कि पीटर्सबर्ग कमेटी ने केन्द्रीय कमेटी से गम्भीर असहमति रखते हुए भी उसके निर्णय को लागू किया और बाद में उचित मंच पर इस बहस को उठाया। लेकिन रैबिनोविच इस पर कुछ भी नहीं कहते और बाद में हुई बैठक का हवाला देकर यह चित्र प्रस्तुत करते हैं कि उसमें पीटर्सबर्ग कमेटी और केन्द्रीय कमेटी के बीच एक बेहद तीखी बहस हुई और इस तस्वीर के आधार पर वे फिर से ‘विभाजित पार्टी’ की ही अपनी अवधारणा को पुष्ट करते हैं। जैसा कि हम देख सकते हैं चुन-चुनकर तथ्य लिये जाते हैं और फिर अपनी थीसीज़ को पुष्ट करने का प्रयास किया जाता है, हालाँकि रैबिनोविच अपने अनुभववादी और प्रत्यक्षवादी पूर्वाग्रहों के कारण वे तथ्य भी पेश करते हैं, जो उनकी थीसीज़ का खण्डन करते हैं। इतिहास-लेखन हमेशा ही एक विचारधारात्मक और राजनीतिक उपक्रम होता है और रैबिनोविच का इतिहास-लेखन इस बात को बिना शक सिद्ध कर देता है।

रैबिनोविच जो विवरण पेश करते हैं, उससे एक और बात सिद्ध हो जाती है। स्वयं त्रात्स्की के हवाले से रैबिनोविच बताते हैं कि 10 जून के प्रदर्शन को कुछेक अतिवामपन्थी बोल्शेविक ही सत्ता पर क़ब्ज़े के प्रयास के तौर पर व्याख्यायित कर रहे थे और ऐसी योजनाएँ भी बना रहे थे। लेकिन ये कुछ व्यक्तियों की व्यक्तिगत सोच थी और बोल्शेविक पार्टी के किसी भी जि़म्मेदार निकाय या संगठनकर्ता की ऐसी सोच नहीं थी। इसलिए 10 जून के प्रदर्शन के सन्दर्भ में भी बोल्शेविक पार्टी में तीन सत्ता केन्द्र (केन्द्रीय कमेटी, पीटर्सबर्ग कमेटी व बोल्शेविक सैन्य संगठन) नहीं थे जिनके ”अलग-अलग लक्ष्य और अलग-अलग हित” थे, जैसा कि रैबिनोविच ने किताब की शुरुआत में दावा किया था। निश्चित तौर पर, ऐसे मौक़े आये थे (और इसमें कोई ताज्जुब की बात भी नहीं है) जब इन तीन निकायों के बीच भी और उनके भीतर भी मत-भिन्नता मौजूद थी। लेकिन इन तीनों ही निकायों के काम करने में हम कठोर सांगठनिक अनुशासन देख सकते हैं। यही बात हम एक अन्य घटना में भी देख सकते हैं। जब 10 जून के प्रदर्शन को केन्द्रीय कमेटी ने वापस ले लिया तो स्मिल्गा और स्तालिन उससे विशेष तौर पर नाराज़ थे और उन्होंने केन्द्रीय कमेटी से इस्तीफ़ा देने तक की पेशकश की थी, जिसे कि ख़ारिज कर दिया गया था। स्मिल्गा का मानना था कि केन्द्रीय कमेटी ने सोवियत के बोल्शेविक प्रतिनिधियों की यह बात मानकर ग़लती की है कि प्रदर्शन रद्द कर दिया जाये और लेनिन समेत केन्द्रीय कमेटी का गैरीसन व कारख़ानों में हावी माहौल का मूल्यांकन ग़लत है। लेकिन फिर भी स्मिल्गा ने क्रोंस्टाट में सैनिकों को क्या कहा, वह बोल्शेविक पार्टी के अनुशासन को ही दिखलाता है। स्वयं रैबिनोविच ने स्मिल्गा के भाषण को उद्धृत किया है : ”यह प्रश्न हरेक मज़दूर और सैनिक के सामने खड़ा है; यह शब्दों नहीं बल्कि कार्रवाई की माँग करता है…क्रोंस्टाट में हम सभी के लिए यह कड़वी और दुख भरी बात है कि प्रदर्शन को रद्द कर दिया गया, लेकिन हमें गर्व होना चाहिए कि अपनी शक्ति के प्रति हम सचेत हैं, हम क्रान्तिकारी अनुशासन की ज़रूरत को समझते हैं और जिससे कि क्रोंस्टाट ने अपने से ही प्रदर्शन नहीं किया।” (रैबिनोविच, 1991, में उद्धृत, पृ. 85-86)

जैसा कि हम देख सकते हैं कि तमाम वैचारिक व राजनीतिक संघर्षों के बावजूद बोल्शेविक पार्टी कार्रवाई के मामले में अद्भुत अनुशासन का पालन करती थी। यही बोल्शेविक पार्टी की असली शक्ति थी, न कि इसका ‘विभाजित पार्टी’ होना, जैसा कि रैबिनोविच दावा करते हैं। रैबिनोविच का विवरण कुछ और कहता है, लेकिन वे जहाँ कहीं भी कोई मूल्यगत निर्णय देते हैं, वे कुछ और ही कहते हैं। मिसाल के तौर पर, रैबिनोविच के विवरण से ही स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी पार्टी निकाय 10 जून के प्रदर्शन को (यदि वह होता तो भी) सत्ता पर क़ब्ज़े के प्रयास के तौर पर नहीं देख रहा था। इस मायने में केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग कमेटी का मूल्यांकन भी समान था। जिस एक बोल्शेविक बोग्दातियेव ने (और उससे सहमत कुछ वामपन्थी बोल्शेविकों ने) ऐसे सपने पाल रखे थे, उसे आगे कमेटी से निष्कासित कर दिया गया था, हालाँकि उसकी पार्टी सदस्यता बरक़रार रखी गयी थी। लेकिन इसके बावजूद रैबिनोविच लिखते हैं :

”ये मतभेद 11 जून की पीटर्सबर्ग कमेटी की एक आपात बैठक में उभरकर सामने आ गये जो कि विशेष तौर पर केन्द्रीय कमेटी की व्याख्या सुनने के लिए आयोजित की गयी थी। इस बैठक के विस्तृत प्रकाशित प्रोटोकॉल से त्सेरेतली के कांग्रेस भाषण के प्रति बोल्शेविकों की आरंभिक प्रतिक्रिया, पीटर्सबर्ग कमेटी की कड़वाहट और स्वतन्त्रता की भावना, और 10 जून के प्रदर्शन के बारे में केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग कमेटी की आश्चर्यजनक रूप से भिन्न अवधारणाएँ सामने आती हैं।” (वही, पृ. 86)

रैबिनोविच यह नहीं बताते कि 10 जून के प्रदर्शन की केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग कमेटी की अवधारणाओं में क्या भिन्नताएँ थीं? क्या पीटर्सबर्ग कमेटी इसे एक शान्तिपूर्ण प्रदर्शन से ज़्यादा मानती थी? नहीं! फिर दोनों की अवधारणाओं में फ़र्क़ क्या था? जब आप 11 जून की बैठक के बारे में रैबिनोविच के ही ब्यौरे को पढ़ते हैं तो आप पाते हैं कि अन्तर 10 जून के प्रदर्शन की अवधारणाओं में नहीं था, बल्कि इस बात के आकलन और मूल्यांकन में था कि सोवियत कांग्रेस द्वारा इस प्रदर्शन के ख़ि‍लाफ़ प्रस्ताव पारित करने के बाद और इस बात की स्पष्ट सूचना मिलने के बाद कि दक्षिणपन्थी गिरोह, जैसे कि ब्लैक हण्ड्रेड्स, इस प्रदर्शन में घुसपैठ कर इसे हिंसात्मक बना सकते हैं और फिर बोल्शेविकों के दमन का और उनके ख़ि‍लाफ़ एक माहौल तैयार हो सकता है, प्रदर्शन को करना उचित होगा या नहीं। साथ ही, इस बात के आकलन में भी अन्तर मौजूद थे कि मज़दूरों की भागीदारी किस हद तक होगी, क्योंकि इसके बारे में पीटर्सबर्ग कमेटी के भीतर भी कोई एक राय नहीं थी। तीसरा कारण था सोवियत कांग्रेस में बोल्शेविक प्रतिनिधियों को सूचना न होना, जिसके कारण वे सोवियत की भावी कार्रवाइयों में पार्टी की ओर से सही तरीक़े से कोई अवस्थिति पेश नहीं कर पाते। रैबिनोविच ने लेनिन द्वारा दी गयी सफ़ाई का एक बेहद छोटा हिस्सा पेश किया है। यदि लेनिन के भाषण को पढ़ा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि प्रदर्शन से जुड़े ठोस मसलों के बारे में केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग कमेटी का मूल्यांकन और आकलन अलग था, न कि प्रदर्शन की अवधारणाओं में कोई फ़र्क़ था। लेनिन समझ रहे थे कि जब तक सोवियतें सत्ता की अर्द्धनिकाय बनी हुई हैं और उन्होंने स्पष्ट रूप से प्रतिक्रान्तिकारी अवस्थिति नहीं अपनायी है और वे केवल ढुलमुलपन दिखला रही हैं, तब तक सोवियतों के सीधे तौर पर ख़ि‍लाफ़ जाने से बोल्शेविक जनसमुदायों में अलग-थलग पड़ सकते हैं; सोवियतों में बोल्शेविक अभी अल्पमत में थे और पार्टी अभी प्रान्तों में हावी माहौल को लेकर भी सुनिश्चित नहीं थी। ऐसे में, यदि 10 जून के प्रदर्शन के हिंस्र होने और अराजकता फैलने का ख़तरा स्पष्ट हो गया था, तो इसे रद्द कर लेनिन व केन्द्रीय कमेटी ने प्रशंसनीय लचीलापन दिखलाया था।

रैबिनोविच का पीटर्सबर्ग कमेटी द्वारा केन्द्रीय कमेटी के प्रति गुस्से के इज़हार को पीटर्सबर्ग कमेटी की ”स्वतन्त्रता की भावना” के तौर पर पेश किया जाना भी तथ्यों का विकृतीकरण है। यदि ऐसा होता तो पीटर्सबर्ग कमेटी प्रदर्शन के रद्द किये जाने के फ़ैसले को ही मानने से इंकार कर देती। लेकिन उसने असहमत होने के बाद भी इस फ़ैसले को लागू किया। चूँकि इस प्रदर्शन को संगठित और सही तरीक़े से आयोजित करने की पूरी जि़म्मेदारी पीटर्सबर्ग कमेटी ही मुख्य रूप से उठा रही थी, इसलिए आख़ि‍री समय पर प्रदर्शन का रद्द किया जाना उसके लिए एक शर्मनाक स्थिति पैदा करता था क्योंकि अब उन्हीं जनसमुदायों को प्रदर्शन करने से मना करना, जिन्हें पिछले दो दिनों से वे प्रदर्शन के लिए तैयार कर रहे थे, उनके लिए एक अजीब हालत पैदा करता था। पीटर्सबर्ग कमेटी ने जिस कड़वाहट के साथ केन्द्रीय कमेटी की इस मसले पर आलोचना रखी, उसका मुख्य कारण यह था। लेकिन इसे अलगाववाद या स्वतन्त्रता की भावना के तौर पर पेश करना किसी भी तरीक़े से तार्किक नहीं है। बहरहाल, इसके बाद रैबिनोविच 18 जून को हुए प्रदर्शन का एक अच्छा ब्यौरा पेश करते हैं, जो कि अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस के आह्वान पर हुआ था, मगर जिसमें बोल्शेविक नारे व बैनर पूरी तरह हावी हो गये थे। एक प्रकार से 10 जून का रद्द प्रदर्शन ही 18 जून को आयोजित हो गया और यह स्पष्ट हो गया कि बोल्शेविकों की मान्यता मज़दूरों व सैनिकों में बढ़ती जा रही है।

चौथे अध्याय में रैबिनोविच 16 जून से 23 जून तक बोल्शेविक सैन्य संगठन के अखिल रूसी सम्मेलन का विवरण पेश करते हैं। इसमें रैबिनोविच कई महत्वपूर्ण प्रेक्षण पेश करते हैं, जोकि रूसी क्रान्ति के इतिहास के अध्ययन के लिए मूल्यवान हैं। लेकिन यहाँ भी ‘विभाजित पार्टी’ की अवधारणा को बल प्रदान करने के लिए रैबिनोविच कुछ ऐसी टिप्पणियाँ करते हैं, जिनका कोई आधार नहीं है। मिसाल के तौर पर, रैबिनोविच दावा करते हैं कि इस सम्मेलन को कई बोल्शेविक संगठनकर्ता सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के उपकरण के रूप में देख रहे थे। यह प्रेक्षण केवल बेतुका दिख ही नहीं रहा है, बल्कि बेतुका है भी। बोल्शेविकों के सैन्य संगठन के सम्मेलन को ही कोई जि़म्मेदार बोल्शेविक संगठनकर्ता सत्ता पर क़ब्ज़े के उपकरण के रूप में देख रहा हो, इसकी सम्भावना नगण्य है। यह ज़रूर सच है कि सैन्य संगठन के आम बोल्शेविक काडर में यह भावना बढ़ती जा रही थी कि सत्ता पर क़ब्ज़े को लम्बे समय तक टाला नहीं जा सकता है, और पार्टी को जल्द से जल्द उस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए और पेत्रोग्राद गैरीसन से आये कुछ प्रतिनिधि 18 जून को कार्यक्रम समाप्त होने के ठीक पहले मंच पर आकर इस बात की माँग कर रहे थे कि सम्मेलन के एजेण्डा में बदलाव किया जाये और सम्मेलन को ही सशस्त्र बग़ावत के प्रचालन स्टाफ़ में तब्दील कर दिया जाये। लेकिन सैन्य संगठन के आम काडरों में ऐसी भावना होना लाजि़मी है क्योंकि राज्यसत्ता के ध्वंस में बल प्रयोग का पहलू ही प्रधान होता है और जो निकाय क्रान्तिकारी बल प्रयोग के लिए विशिष्ट तौर पर निर्मित, शिक्षित, प्रशिक्षित हो, उसके आम काडर में यह भावना आना सहज है। दूसरी बात यह है कि इसी सम्मेलन के बीच 18 जून का प्रदर्शन हुआ जिसके लिए 18 जून के पहले सत्र को रद्द कर दिया गया था। इस प्रदर्शन से लौटने पर बोल्शेविकों के लिए व्यापक जनसमर्थन होने की भावना बोल्शेविक सैन्य संगठन में वैसे भी उभार पर थी और सशस्त्र बग़ावत के लिए आम काडर में अधैर्य बढ़ता जा रहा था, जिसे लेनिन को स्वयं सम्मेलन में आकर नियन्त्रित करना पड़ा। लेकिन इसकी इस रूप में व्याख्या करना कि कुछ बोल्शेविक इस सम्मेलन में हुए जुटान को ही सशस्त्र विद्रोह और क्रान्ति का उपकरण मान रहे थे, निहायत बेतुका है और रैबिनोविच यह उपक्रम सम्भवत: इसलिए करते हैं, ताकि बोल्शेविक पार्टी के भीतर विचारों की बहुलता और ‘विभाजित पार्टी’ के अपने सिद्धान्त को बल दे सकें।

साथ ही, रैबिनोविच इस प्रक्रिया में यह भी बताते हैं कि सम्मेलन में इस अधैर्य के माहौल पर पोदवॉइस्की ने स्वयं लेनिन से चर्चा की और लेनिन ने उन्हें स्पष्ट शब्दों में बताया कि अभी कोई भी सशस्त्र विद्रोह अपरिपक्व होगा और अगर वह सफल भी हो गया तो बोल्शेविक सत्ता में टिके नहीं रह पायेंगे। लेनिन ने इस माहौल को नियन्त्रित करने का निर्देश दिया और स्पष्ट कर दिया कि कोई भी दुस्साहसवाद पार्टी और क्रान्ति से भारी क़ीमत वसूल करेगा। इस निर्देश के अनुसार ही काम करते हुए पोदवॉइस्की और नेव्स्की दोनों ने ही जि़म्मेदार बोल्शेविक संगठनकर्ता और नेता की भूमिका निभाते हुए सम्मेलन के प्रतिनिधियों के मन में यह बात बिठाने का अथक प्रयास किया कि अभी सशस्त्र विद्रोह के लिए वक़्त पका नहीं है। लेकिन अन्यत्र रैबिनोविच यह भी दावा करते हैं कि पोदवॉइस्की और नेव्स्की विशेष तौर पर स्वतन्त्रता और स्वायत्तता की भावना से भरे हुए थे और अनुशासन के प्रति उनका प्रतिरोध होता था। लेकिन जब वास्तविक तथ्यों का विवरण यह प्रदर्शित करता है कि बोल्शेविक सैन्य संगठन के ये दोनों ही शीर्ष नेता केन्द्रीय कमेटी और लेनिन के निर्देशों पर सख्‍़ती से अमल कर रहे थे, तो उस पर रैबिनोविच कोई भी टिप्पणी नहीं करते हैं। चूँकि यह घटनाक्रम स्वयं रैबिनोविच की व्याख्याओं के विपरीत जाता है, इसलिए उसे रैबिनोविच ”केन्द्रीय कमेटी के दबाव” के रूप में व्याख्यायित करते हैं, क्योंकि बोल्शेविक सांगठनिक अनुशासन को समझ पाना उनके उदार बुर्जुआ विचारों के कारण उनके लिए सम्भव नहीं है। रैबिनोविच लिखते हैं :

”पेत्रोग्राद सैन्य संगठन के विकास का विवरण देते हुए नेव्स्की ने बेहतर संगठन और ज़्यादा पार्टी अनुशासन के बारे में कुछ विशिष्ट बिन्दु पेश किये। उन्होंने माना, ”फि़लहाल, पीटर्सबर्ग संगठन अपने संगठन के बारे में ज़्यादा शेखी नहीं बघार सकता है…ऐसी रेजीमेण्टें हैं जहाँ हमारा काफ़ी प्रभाव है लेकिन वहाँ कोई औपचारिक संगठन नहीं है।” शायद केन्द्रीय कमेटी के दबाव में नेव्स्की ने सैन्य संगठन की गतिविधियों और केन्द्रीय कमेटी के बीच तालमेल की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि हालाँकि ”सैन्य संगठन का एक विशेष चरित्र है”…और हालाँकि ”सैनिक विशेष परिस्थितियों में रहते हैं…मगर फिर भी सैन्य संगठन को नियमित पार्टी संगठन का संघटक अंग होना चाहिए।” ” (वही, पृ. 115-116)

रैबिनोविच यह अटकल लगाते हैं कि जून में यह तय किये जाने का, कि छठी कांग्रेस जुलाई में की जायेगी, एक कारण यह भी था कि परिस्थितियाँ बेहद तेज़ी से बदल रही थीं, जनसमुदायों में असन्तोष बढ़ रहा था और इसके मद्देनज़र भी जुलाई में छठी कांग्रेस करने का निर्णय लिया गया। वैसे तो इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता है, लेकिन फिर भी इस अटकल को पूरी तरह से ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। लेकिन इसके आगे रैबिनोविच कहते हैं कि यह कांग्रेस मध्यमार्गी लेनिनवादी धड़े, वामपन्थी स्तालिन और स्मिल्गा तथा दक्षिणपन्थी कामेनेव व नोगिन के धड़े के बीच भी बहस का मंच होने वाली थी। लेकिन अगर हम छठी कांग्रेस के ब्यौरों को देखें तो हम पाते हैं कि स्तालिन और बुखारिन ने इसमें प्रमुख रिपोर्टें पेश कीं। लेनिन उस समय छिपे हुए थे और त्रात्स्की गिरफ़्तार थे। लेनिन ने नारों के बारे में नामक लेख के ज़रिये स्पष्ट किया था कि पार्टी को इस समय कौन-सी कार्यदिशा अपनानी चाहिए। ऐसे में स्तालिन को सीधे वामपन्थी धड़े का अंग बताना उचित नहीं प्रतीत होता है, हालाँकि 10 जून के प्रदर्शन के रद्द किये जाने के समय उन‍की अवस्थिति वाम अवस्थिति के नज़दीक पड़ती थी। ई.एच. कार ने छठी कांग्रेस का ब्यौरा देते हुए बताया है कि इस कांग्रेस को स्तालिन ने सक्षम नेतृत्व दिया, लेनिन की सशस्त्र विद्रोह की कार्यदिशा का समर्थन किया और साथ ही कांग्रेस में आये प्रतिनिधियों को अपरिपक्व कार्रवाई के विरुद्ध विशेष तौर पर आगाह किया। ऐसे में, कोई ऐसा संकेत नहीं मिलता कि स्तालिन उस समय वाम धड़े का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, उल्टे इसके स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि स्तालिन लेनिन द्वारा प्रस्तुत कार्यदिशा पर पूरी कांग्रेस को संचालित कर रहे थे।

रैबिनोविच छठी कांग्रेस के पहले पीटर्सबर्ग कमेटी में सशस्त्र विद्रोह के प्रश्न पर जारी बहस का ब्यौरा देते हैं। इसके ठीक पहले रैबिनोविच बताते हैं कि किस प्रकार लेनिन ने सैन्य संगठन की अखिल रूसी कांग्रेस में अपरिपक्व सशस्त्र विद्रोह के ख़ि‍लाफ़ बात रखी थी, हालाँकि रैबिनोविच के अनुसार लेनिन, पोदवॉइस्की व नेव्स्की की दलीलों के बावजूद तत्काल सशस्त्र विद्रोह के प्रति आकर्षण आम बोल्शेविक काडर में कम नहीं हुआ था और यह मसला अभी हल नहीं हुआ था, हालाँकि तात्कालिक तौर पर सम्मेलन में लेनिन की कार्यदिशा से मिलती-जुलती कार्यदिशा ही पारित हुई थी। इसके ठीक बाद वे पीटर्सबर्ग कमेटी में बहस का विवरण देते हैं और बताते हैं :

”इस चर्चा के समापन पर पीटर्सबर्ग कमेटी ने 2 के मुक़ाबले 19 वोटों से वोलोदार्स्की और टॉम्स्की द्वारा प्रायोजित एक प्रस्ताव पारित किया जो कि सैन्य संगठन और केन्द्रीय कमेटी के साथ मिलकर (पीटर्सबर्ग कमेटी के) कार्यकारी आयोग को सर्वहारा वर्ग के प्रति एक अपील का मसौदा तैयार करने का अधिकार देता था, जो कि सर्वहारा वर्ग को अलग-थलग क्रान्तिकारी कार्रवाइयों में शिरकत न करने के लिए कहती और आबादी के अन्य वर्गों के बीच प्रभाव जीतने के लिए सभी प्रयास करने को कहती। यह केन्द्रीय कमेटी द्वारा किये गये विरोध के बिल्कुल अनुरूप उठाया गया क़दम था। लाटसिस द्वारा पेश एक संशोधन 9 के मुक़ाबले 12 वोटों से पारित हुआ और वह केन्द्रीय कमेटी की कार्यदिशा के अनुरूप नहीं था; यह कहता था कि ”अगर जनसमुदायों को रोकना असम्भव हुआ तो पार्टी को आन्दोलन को अपने हाथों में ले लेना चाहिए और इसका इस्तेमाल सोवियत और सोवियतों की कांग्रेस पर दबाव डालने के लिए करना चाहिए।” देखने में लगता है कि इस संशोधन का मक़सद यह सुनिश्चित करना था कि वोलोदार्स्की व टॉम्स्की का प्रस्ताव पीटर्सबर्ग कमेटी और विशेष तौर पर वाईबोर्ग कमेटी को प्रदर्शन आन्दोलन का नियन्त्रण लेने से नहीं रोकेगा, अगर इसे नियन्त्रित नहीं किया जा सके। लेकिन इसका प्रभाव था लाटसिस, नाउमोव, डाइल और स्तुकोव जैसे रैडिकल नेताओं और ज़ि‍ला स्तर पर तमाम आम पार्टी सदस्यों की हरकतों को वैध ठहराना और उन्हें प्रोत्साहित करना, जो कि पहले से ही एक जल्दी होने वाले विद्रोह को अवश्यम्भावी और वांछनीय मानते थे।” (वही, पृ. 127-128)

स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है कि रैबिनोविच विभिन्न पार्टी निकायों के बीच दीवार खींचने का कोई भी अवसर गँवाना नहीं चाहते। यहाँ उन्होंने बेवजह पार्टी की केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग कमेटी के बीच एक खाई बनाने का प्रयास किया है। रैबिनोविच दावा करते हैं कि पीटर्सबर्ग कमेटी ने भारी बहुमत से ऐसा प्रस्ताव पारित किया जो कि लेनिन की कार्यदिशा के अनुरूप था लेकिन एक वामपन्थी लाटसिस के प्रस्ताव पर उसमें एक ऐसा संशोधन भी जोड़ दिया जो कि लेनिन की कार्यदिशा के अनुरूप नहीं था। लेकिन हम स्तालिन और लेनिन दोनों के ही लेखन में देखते हैं कि केन्द्रीय कमेटी का भी यही मानना था कि अगर पार्टी अपने तमाम प्रयासों के बावजूद जनता को जुलाई के प्रस्तावित प्रदर्शन में शामिल होने से नहीं रोक पाती है, तो फिर पार्टी को उसमें शामिल होकर उसे अपने नियन्त्रण में ले लेना चाहिए। मिसाल के तौर पर, छठी कांग्रेस में स्तालिन ने जो रिपोर्ट पेश की उसमें बताया गया है कि जब स्वत:स्फूर्त प्रदर्शनों के फूट पड़ने की ख़बर पार्टी तक पहुँची तो उस समय बोल्शेविक पार्टी का पेत्रोग्राद नगर सम्मेलन जारी था। इस दिन का पूरा घटनाक्रम पेश करते हुए स्तालिन बताते हैं कि अन्त में तौरीदा महल में केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग कमेटी की एक बैठक हुई। आगे स्तालिन कहते हैं :

”बैठक ने फ़ैसला लिया कि जब क्रान्तिकारी मज़दूर और सैनिक जनता ”सारी सत्ता सोवियतों को!” के नारे के तहत प्रदर्शन कर रही है, तो सर्वहारा वर्ग की पार्टी को इससे हाथ झाड़ लेने और आन्दोलन से अलग-थलग खड़े रहने की कोई इजाज़त नहीं है; यह जनता को भाग्य के उतार-चढ़ाव पर नहीं छोड़ सकती है; इसे इस स्वत:स्फूर्त आन्दोलन को एक सचेत और संगठित चरित्र देने के लिए जनता के साथ बने रहना होगा।” (स्तालिन, 1953, वही, पृ. 174)

लेनिन ने भी इस दौर के अपने लेखों नारों के बारे में, तीन संकट, एक जवाब आदि में यही बात दुहराई है। ऐसे में, रैबिनोविच का यह दावा कि आन्दोलन को रोक पाने में असफल होने पर उसे अपने नेतृत्व में ले लेने का लाटसिस का प्रस्ताव केन्द्रीय कमेटी के विपरीत था, बिल्कुल ग़लत है। तथ्यों के प्रति वफ़ादारी रखने के बावजूद रैबिनोविच ऐसी ग़लती क्यों कर बैठते हैं? क्योंकि रैबिनोविच हर मौक़े पर केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग कमेटी के बीच एक दीवार खड़ी करना चाहते हैं और पीटर्सबर्ग कमेटी को ज़्यादा वामपन्थी दिखलाना चाहते हैं। जहाँ तक इन तमाम निकायों के बीच या उनके भीतर चल रही बहसों का प्रश्न है, अलग-अलग बोल्शेविक नेताओं ने कई बार वामपन्थी या दक्षिणपन्थी अवस्थिति अपनायी हो सकती है। लेकिन यह तो स्वाभाविक ही है। ‘विभाजित पार्टी’ की अवधारणा तभी सही ठहर सकती है जबकि इस कमेटियों के भीतर बहुमत द्वारा लिये गये निर्णयों को और ऊपर की कमेटियों द्वारा या केन्द्रीय कमेटी द्वारा लिये गये निर्णयों की नीचे की कमेटियों ने अवहेलना की हो। ऐसा कोई वाकया स्वयं रैबिनोविच नहीं बता पाते हैं।

ऐसा ही एक प्रयास रैबिनोविच तब करते हैं जब वे 22 जून की एक बैठक की बात करते हैं। यह बैठक सैन्य संगठन द्वारा प्रस्तावित की गयी थी और इसमें केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग कमेटी के सदस्यों को भी हिस्सेदारी करनी थी। लेकिन इन तीनों ही निकायों के नेतृत्वकारी और प्रमुख सदस्यों की ग़ैर-मौजूदगी के कारण इस बैठक को रद्द करना पड़ा। मौक़े पर जुटे तृणमूल बोल्शेविक सदस्यों और इकाई स्तर के नेतृत्व के लोगों ने एक अनौपचारिक बातचीत की। जैसा कि उम्मीद की जा सकती है कि आम सैन्य काडर और सैन्य इकाई स्तर के कुछ तृणमूल नेताओं के एकत्र होने पर सशस्त्र विद्रोह के प्रति अधैर्य का ही प्रदर्शन होना था। इस अनौपचारिक बातचीत में भी इस अधैर्य का पहलू हावी था। लेकिन इस बैठक का पूरी पार्टी की रणनीति को निर्धारित करने में या पार्टी के औपचारिक निकायों के बीच कार्यदिशा के अन्तर को दर्शाने में कोई महत्व नहीं है। देखा जाये तो यह ऐसी अनौपचारिक चर्चा थी नहीं जिसे बहुत महत्व दिया जाये क्योंकि ऐसी चर्चाएँ उस समय पेत्रोग्राद की कई छावनियों में चल रही थीं। इससे केवल आम बोल्शेविक काडरों के एक हिस्से और जनसमुदायों के बीच हावी माहौल का पता चलता है। यह माहौल किस तरफ झुका था यह पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को भी पता था और वह इसी को नियन्त्रित करने का प्रयास कर रहा था। लेकिन इस अनौपचारिक चर्चा को रैबिनोविच काफ़ी महत्व देते हैं, क्योंकि इससे उन्हें यह साबित करने में मदद मिलती है कि पूरी पार्टी एकमत होकर कभी लेनिन के मातहत नहीं थी, जो कि रैबिनोविच के अनुसार ”सोवियत स्रोतों की औपचारिक व्याख्या” है। हम पहले ही बता चुके हैं कि रैबिनोविच के ”सोवियत स्रोत” क्या हैं।

जब बोल्शेविक पार्टी जुलाई के प्रदर्शन को रोकने का प्रयास कर रही थी, यानी 3 जुलाई की सुबह तक, तब तक के दौर के बारे में रैबिनोविच कहते हैं कि इस दौर में रणकौशलात्मक रूप में लेनिन की अवस्थिति लगभग वही हो गयी थी जो कि कामेनेव की अवस्थिति थी। यह भी जो दिख रहा है, उसे सच मान लेने की रैबिनोविच की प्रत्यक्षवादी और अनुभववादी प्रवृत्ति को ही दिखलाता है। रैबिनोविच लिखते हैं, ”दिलचस्प बात है कि इस दौर के प्राव्दा में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि लेनिन की रणकौशलात्मक अवस्थिति कुछ समय के लिए पार्टी के दक्षिणपन्थी धड़े की अवस्थिति से मिलने लगी थी। वास्तव में, पार्टी के वामपन्थी धड़े पर 22 जून के प्राव्दा में कामेनेव द्वारा हमला करने के लिए लिखा गया (जिसका शीर्षक था ”यह इतना सरल नहीं, कॉमरेडो”) लेख इस समय लेनिन द्वारा भी लिखा जा सकता था।” (रैबिनोविच, 1991, पृ. 132) आगे रैबिनोविच कामेनेव के लेख से जो उद्धरण पेश करते हैं उसी से पता चला जाता है कि लेनिन की अवस्थिति और कामेनेव की अवस्थिति क़तई एक जैसी नहीं थी, उस वक़्त भी एक जैसी नहीं थी जबकि पार्टी 3-5 जुलाई की घटनाओं को घटित होने से रोकने के प्रयासों में संलग्न थीं।

कामेनेव ने लिखा था कि रूसी जनवाद को अभी विश्व सर्वहारा और विश्व सर्वहारा क्रान्ति में भरोसा नहीं है और तब तक सत्ता पर क़ब्ज़ा करने का कोई अर्थ नहीं होगा क्योंकि रूसी क्रान्ति टिक नहीं पायेगी। इसका अर्थ यह था कि उन्नत पश्चिमी यूरोपीय देशों के सर्वहारा क्रान्ति के पहले रूस में क्रान्ति के बुर्जुआ जनवादी चरण को ही जारी रखना होगा। यह लेनिन की कार्यदिशा कभी नहीं थी, न तो रणकौशलात्मक दृष्टि से और न ही रणनीतिक दृष्टि से। लेनिन के अनुसार जुलाई सशस्त्र विद्रोह का समय इसलिए नहीं था क्योंकि सोवियतों में अभी बोल्शेविक बहुमत में नहीं थे और साथ ही प्रान्तों की स्थिति अभी पेत्रोग्राद की स्थिति से काफ़ी पीछे थी और बोल्शेविकों की वहाँ पकड़ भी कमज़ोर थी। लेनिन स्पष्ट तौर पर समझ रहे थे कि रूस इस समय साम्राज्यवादी विश्व के अन्तरविरोधों का सन्धि-बिन्दु बन रहा है और ऐसे में सर्वहारा क्रान्ति यहाँ सम्पन्न हो सकती है और इस रूप में रूस दुनिया में पहली समाजवादी क्रान्ति और सर्वहारा सत्ता की ज़मीन बन सकता है। इसलिए रणकौशलात्मक तौर पर भी लेनिन और कामेनेव के तर्क एकदम अलग थे। लेकिन चूँकि 2 जुलाई तक समूचा पार्टी नेतृत्व एकमत होकर जुलाई के प्रदर्शन को रोकने का प्रयास कर रहा था, इसलिए हर कोई प्राव्दा व अन्य बोल्शेविक पत्रों व पर्चों में प्रदर्शन रोकने के लिए ही दलीलें पेश कर रहा था। नतीजतन, इससे रैबिनोविच भ्रमित हो गये हैं कि लेनिन की अवस्थिति इस समय रणकौशलात्मक तौर पर कामेनेव से मिलने लगी थी। प्रत्यक्षवाद और अनुभववाद की अन्तर्दृष्टि में इस प्रकार की दृष्टिहीनता को रैबिनोविच की पुस्तक पढ़ते हुए बार-बार देखा जा सकता है।

चौथे अध्याय में ही रैबिनोविच प्राव्दा और सोल्दात्स्काइया प्राव्दा के बीच अन्तर निकालते हैं। उनका दावा है कि जून के आख़ि‍री दिनों में जबकि बोल्शेविक पार्टी एक अपरिपक्व विद्रोह को रोकने के लिए जूझ रही थी उस समय प्राव्दा और सोल्दात्स्काइया प्राव्दा में छप रही सामग्री में फ़र्क़ दिख रहा था क्योंकि प्राव्दा लेनिन के कठोर नियन्त्रण में काम कर रहा था जबकि सोल्दात्स्काइया प्राव्दा सैन्य संगठन का मुखपत्र होने के कारण काफ़ी स्वायत्त था और वह पोदवॉइस्की, नेव्स्की और झेनेव्स्की (सैन्य संगठन के एक अन्य बोल्शेविक नेता) की देख-रेख में निकल रहा था। रैबिनोविच का मक़सद यहाँ यह दिखलाना है कि बोल्शेविक सैन्य संगठन में अलगाववाद और स्वायत्तता की प्रवृत्तियाँ थीं, जिन्हें बाद में केन्द्रीय कमेटी ने नियन्त्रित किया। यह सिद्ध करने के लिए कि इन दोनों मुखपत्रों में अन्तर था, रैबिनोविच इन दोनों मुखपत्रों में छपे कई लेखों का उदाहरण देते हैं। मज़ेदार बात यह है कि अगर हम इन लेखों की ही विषय-वस्तु और प्रस्तुति को देखें तो पाते हैं कि दोनों मुखपत्रों में शैली और विषय की प्रस्तुति के फ़र्क़ के अलावा और कोई फ़र्क़ नहीं था। अन्तर्वस्तु में कोई अन्तर नहीं था।

यदि शैली और प्रस्तुति में अन्तर था तो यह अन्तर होना लाजि़मी था क्योंकि सोल्दात्स्काइया प्राव्दा सैनिकों के लिए निकलता था और उसमें उसी शैली और अन्दाज़ में बातें रखी जाती थीं जिस अन्दाज़ में सैनिकों को सम्प्रेषित करने के लिए आवश्यक था। चूँकि दोनों मुखपत्रों को पढ़ने वाले पाठक वर्ग का दायरा अलग था, इसलिए कहीं-कहीं ज़ोर में कुछ फ़र्क़ था। लेकिन इस फ़र्क़ को यूँ पेश किया जाना कि सैनिकों के लिए निकलने वाले मुखपत्र में बोल्शेविक सैन्य संगठन अपनी स्वतन्त्रता की भावना और स्वायत्तता दिखलाते हुए केन्द्रीय कमेटी से अलग कोई कार्यदिशा पेश कर रहा था, तथ्यत: ग़लत है। मिसाल के तौर पर, प्राव्दा में लेनिन ने 21 जून के अंक में एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने लिखा कि सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के लिए सशस्त्र विद्रोह का कोई भी अपरिपक्व प्रयास आगे भारी नुक़सान की ओर ले जा सकता है और इसके लिए इन्तज़ार करना होगा। लेनिन ने यह भी जोड़ा कि यह इन्तज़ार ज़्यादा लम्बा नहीं होगा। रैबिनोविच स्वयं कहते हैं : ”इस समय से लेकर जुलाई के दिनों तक प्राव्दा की कार्यदिशा आम तौर पर लेनिन की अवस्थिति से मेल खाती थी।” (वही, पृ. 132) रैबिनोविच यह सूचना भी बिल्कुल दुरुस्त देते हैं कि बोल्शेविक पार्टी इस समय पेत्रोग्राद सोवियत में बहुमत जीतने और अन्य वर्गों और विशेषकर प्रान्तों में किसानों के बीच अपने राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए मोहलत चाहती थी। लेनिन जानते थे कि इससे पहले सशस्त्र विद्रोह कामयाब हो भी गया तो बोल्शेविक सत्ता में बने नहीं रह पायेंगे और एक नये रूप में पेरिस कम्यून की कहानी दुहराई जायेगी।

लेकिन इसके आगे रैबिनोविच का ब्यौरा तथ्यात्मक ग़लतियों और मनमानीपूर्ण व्याख्याओं के गड्ढे में गिर गया है। मिसाल के तौर पर, पहले वे स्वीकार करते हैं कि 21 जून को सोल्दात्स्काइया प्राव्दा में भी एक लेख छपा जिसमें कि असंगठित प्रदर्शन न करने की अपील की गयी है। लेकिन चूँकि इस घोषणा में निम्न बात भी जोड़ दी गयी इसलिए रैबिनोविच के अनुसार पूरी बात प्राव्दा में छपी बात से अलग हो गयी: ”आवश्यकता पड़ने पर, सैन्य संगठन केन्द्रीय और पीटर्सबर्ग कमेटियों से सहमति लेकर एक प्रदर्शन का आह्वान करेगा।” पाठक स्वयं देख सकते हैं कि इस टिप्पणी से पूरी बात की अन्तर्वस्तु में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। यह भूलना नहीं चाहिए कि प्राव्दा में भी लेनिन ने लिखा था कि निर्णायक घड़ी का इन्तज़ार बहुत लम्बा नहीं होगा। साथ ही यह भी याद रखना होगा कि आबादी के जिस हिस्से में इस समय सबसे विस्फोटक स्थिति थी वह था सैनिकों का हिस्सा। सैनिकों के बीच निकलने वाला मुखपत्र यदि सीधे प्रदर्शनों को अनियतकालीन तौर पर रोक देने की बात करता तो निश्चित तौर पर बोल्शेविकों का प्रभाव आम सैनिक जनसमुदायों में घटता। ऐसा इसलिए भी होता क्योंकि इस आबादी में अपने प्रभाव को बरक़रार रखने के लिए बोल्शेविकों को बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में अराजकतावादियों से प्रतिस्पर्द्धा करनी पड़ रही थी। ऐसे में, सोल्दात्स्काइया प्राव्दा में शैली का इतना फ़र्क़ होना लाजि़मी था।

रैबिनोविच की दलील है कि जिस प्रकार प्राव्दा में स्पष्ट रूप में से कहा गया था कि क्रान्ति के अगले चरण में जाने से पहले ”टटपुँजिया भ्रमों” के दौर पर विजय पानी होगी और बोल्शेविकों को अपनी बुनियादी कमज़ोरियों को दूर करना (यानी सोवियत में बहुमत प्राप्त करना और प्रान्तों में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना) होगा, उसी प्रकार सोल्दात्स्का‍इया प्राव्दा में इस भाषा में कभी कुछ नहीं लिखा गया था; ज़्यादा से ज़्यादा सोल्दात्स्काइया प्राव्दा ने 23 जून को लिखा था, ”सबसे पहले संगठन”, लेकिन इसमें भी ज़्यादा ज़ोर अनियोजित और असंगठित प्रदर्शनों को रोकने पर था। ज़ाहिर है, रैबिनोविच एक अनुभववादी अकादमिक दृष्टिकोण से दोनों बेहद भिन्न प्रकार के मुखपत्रों में तुलना करने का प्रयास कर रहे हैं। वास्तव में, अपनी पुस्तक में ही रैबिनोविच ने कुछ बोल्शेविक नेताओं को उद्धृत किया है जो यह कह रहे हैं कि सैनिक और सेना में काम करने वाले बोल्शेविक बहुत ही अलग और विशिष्ट परिस्थितियों में रहते हैं। यह बात आज के दौर में भी लागू होती है। सशस्त्र बलों और सेना में काम करने वाली आबादी के बीच राजनीतिक चेतना का स्तर और उनके मुद्दे बिल्कुल भिन्न होते हैं। रैबिनोविच ने प्राव्दा और सोल्दात्स्काइया प्राव्दा में जो भी फ़र्क़ बताये हैं, वे सारे फ़र्क़ वही हैं जो कि दो भिन्न प्रकार के पाठक समुदाय को सम्बोधित करने वाले मुखपत्रों में होता है। आगे भी, रैबिनोविच कुछ इसी प्रकार के अन्य अन्तर बताते हैं जो कि किसी भी प्रकार से अन्तर्वस्तु का फ़र्क़ नहीं है, बल्कि शैली और प्रस्तुति का अन्तर है।

जुलाई के प्रदर्शन के बारे में रैबिनोविच विस्तृत ब्यौरा देते हैं। सही कहा जाये तो उनकी पुस्तक ‘प्रिल्यूड टू रिवोल्यूशन’ विशेष तौर पर जुलाई की घटनाओं के बारे में ही है। जहाँ तक 20-21 जून से लेकर 6-7 जुलाई की घटनाओं के विवरण का प्रश्न है, रैबिनोविच लगभग हरेक घण्टे का विवरण देते हैं और अलग-अलग निकायों में, अलग-अलग जगहों पर और जनता के अलग-अलग हिस्सों में क्या हो रहा था, इसका विस्तृत चित्र प्रस्तुत करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि यह पूरा विवरण हरेक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी के लिए बेहद उपयोगी है। क्योंकि क्रान्तिकारी सिद्धान्तों पर गहरी पकड़ बनाने के साथ ही क्रान्तिकारी प्रक्रिया और वर्ग संघर्ष के विभिन्न रूपों में ठोस तौर पर घटित होने को समझना भी बेहद ज़रूरी है। इस मायने में रूसी क्रान्ति का पूरा घटनाक्रम और उसके साथ ही बोल्शेविक पार्टी द्वारा इस घटनाक्रम में किये गये हस्तक्षेपों के बारे में पढ़ना आज किसी भी अन्य क्रान्तिकारी घटना के ऐतिहासिक ब्यौरों से कुछ मायनों में ज़्यादा महत्वपूर्ण है। विशेष तौर पर, लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी द्वारा अन्तरविरोधों के सन्धि-बिन्दुओं की पहचान करने के कौशल का अध्ययन करना और उसे समझना आज बेहद महत्वपूर्ण है। इसके लिए रैबिनोविच की यह पुस्तक और साथ ही इस श्रृंखला की उनकी अगली पुस्तक ‘दि बोल्शेविक्स कम टू पावर’, दोनों ही बेहद अहम हैं। इसके अलावा, जनता के विभिन्न वर्ग, विभिन्न तबके बोल्शेविक पार्टी के इन क्रान्ति‍कारी हस्तक्षेपों को किस प्रकार देख रहे थे और उन पर किस तरह से प्रतिक्रिया दे रहे थे, यह समझना भी बेहद आवश्यक है क्योंकि यह दिखलाता है कि कुशल से कुशल क्रान्तिकारी पार्टी भी जनसमुदायों की सभी प्रतिक्रियाओं को पहले से पूर्वानुमानित व नियन्त्रित नहीं कर सकती है। उसे लगातार इन प्रतिक्रियाओं को समझना होता है, उनके साथ अन्तर्क्रिया करनी होती है और सतत् जनदिशा लागू करके पार्टी की कार्यदिशा को सही तरीक़े से सूत्रबद्ध करना होता है। तभी वह बदलते समय और हालात के मुताबिक़ लचीलापन और दाँव-पेच की क्षमता अर्जित कर सकती है, जो कि पार्टी के लिए हमेशा ही ज़रूरी होती है, लेकिन एक क्रान्तिकारी परि‍स्थिति में अपरिहार्य हो जाती है, जबकि लेनिन के शब्दों में, सदियों में घटित होने वाली घटनाएँ दशकों में, वर्षों में, महीनों में या कई बार तो कुछ ही दिनों में घट जाती हैं। इन सारे पहलुओं को समझने के लिए भी रैबिनोविच का ब्यौरा काफ़ी उपयोगी है।

लेकिन इन ब्यौरों में भी, जो कि तथ्यों के मामले में काफ़ी समृद्ध हैं, रैबिनोविच वही विचारधारा-अन्धता प्रकट करते हैं, जिसका हम पहले जि़क्र कर चुके हैं। हालाँकि उनके विवरण उपयोगी हैं, लेकिन उनकी व्याख्याएँ अन्तर्दृष्टि की उस दृष्टिहीनता का ही प्रदर्शन करती हैं, जो कि सभी प्रत्यक्षवादी व अनुभववादी विवरणों व इतिहास-लेखन की ख़ासियत होती है।

पहली बात जो कि जुलाई के घटनाक्रम के बारे में सबसे पहले एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी के तौर पर हमारा ध्यान खींचती है, वह यह कि रैबिनोविच किसी भी हथियारबन्द विद्रोह और एक सुनियोजित क्रान्तिकारी सशस्त्र विद्रोह या आम बग़ावत (insurrection) में कोई अन्तर नहीं करते हैं। जहाँ तक सशस्त्र विद्रोह की मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवधारणा का प्रश्न है वह कोई अनियोजित, स्वत:स्फूर्त और बेतरतीब हथियारबन्द बग़ावत नहीं होती। यह एक क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में वर्ग शक्तियों के सन्तुलन के बारीक अध्ययन और आकलन, सही समय और सही मौक़े के सटीक निर्धारण पर आधारित एक योजनाबद्ध कार्रवाई होती है जिसका एक निश्चित लक्ष्य होता है : बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस और क्रान्तिकारी सर्वहारा सत्ता की स्थापना। लेकिन इस बुनियादी अन्तर को न समझ पाने के कारण और साथ ही कुछ अलग-अलग बोल्शेविक सदस्यों की ”वामपन्थी” कार्रवाइयों और गैरीसन में व्याप्त भयंकर असन्तोष के कारण 3-5 जुलाई की घटनाओं को एक सशस्त्र विद्रोह के प्रयास के तौर पर देखते हैं। हालाँकि, रैबिनोविच मानते हैं कि बोल्शेविक पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व इसे सशस्त्र विद्रोह नहीं मानता था और न ही उस समय सशस्त्र विद्रोह करने का उसका कोई इरादा था, लेकिन फिर भी कुछ बोल्शेविकों और यहाँ तक कि मेंशेविकों के संस्मरणों और रिपोर्ताजों के आधार पर रैबिनोविच यह अटकल भी लगाते हैं कि लेनिन तथा सैन्य संगठन के नेतृत्व के कई लोगों ने सशस्त्र विद्रोह के विकल्प को पूरी तरह से छोड़ा नहीं था। हालाँकि इन अटकलों को वे सिद्ध नहीं कर पाते हैं। कई बार तो जुलाई की घटनाओं के बाद आरज़ी सरकार ने बोल्शेविकों के ख़ि‍लाफ़ जो जाँच की और मुक़दमे चलाये, उनके आधार पर भी रैबिनोविच ऐसे दावे करते प्रतीत होते हैं कि 3-5 जुलाई के दौरान बोल्शेविकों ने सत्ता पर क़ब्ज़ा करने का विकल्प खुला रखा था। ज़ाहिर है, 5 जुलाई के बाद जब प्रतिक्रान्तिकारी ताक़तें विजयी हो गयी थीं, तो आरज़ी सरकार का पहला लक्ष्य यही था कि बोल्शेविक नेताओं की गिरफ़्तारियाँ की जायें, बोल्शेविक पार्टी का दमन किया जाये और उन्हें षड्यन्त्रकारी घोषित करके प्रतिबन्धित कर दिया जाये। ऐसे में, आरज़ी सरकार द्वारा की गयी जाँच और मुक़दमे को सही सूचना का आधार मानना ही एक बड़ी भूल होगी।

यदि हम रैबिनोविच के ही ब्यौरे को ग़ौर से पढ़ें तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि पार्टी 2 जुलाई की देर रात तक जुलाई के प्रदर्शन को रोकने का ही प्रयास कर रही थी, हालाँकि तृणमूल बोल्शेविक इकाइयों के आम सदस्यों व बोल्शेविकों के समर्थकों से ही प्रदर्शन आयोजित करने का पर्याप्त दबाव मौजूद था। केरेंस्की सरकार द्वारा गैलीशियन हमले की शुरुआत, तमाम रेजीमेण्टों को मोर्चे पर भेजने के निर्णय और प्रथम विश्वयुद्ध में रूसी सैनिकों के क़त्ले-आम के ख़ि‍लाफ़ जो ज़बरदस्त असन्तोष था, उसे फटने से रोक पाना अब बहुत मुश्किल था। वास्तव में, बोल्शेविक पार्टी जून माह से ही कई बार गुस्से के ज्वालामुखी को फटने से रोक चुकी थी और जनता का सब्र अब जवाब दे रहा था। केन्द्रीय कमेटी, पीटर्सबर्ग कमेटी और साथ ही बोल्शेविक सैन्य संगठन तीनों ही जुलाई के प्रदर्शनों को रोकने के प्रयास में लगे हुए थे। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इन तीनों ही निकायों में कुछ ऐसे नेता भी थे जिनका मानना था कि प्रदर्शन किया जाना चाहिए। लेकिन इस बात पर मोटे तौर पर सभी सहमत थे कि प्रदर्शन को अगर नहीं भी रोका जा सका, तो उसे शान्तिपूर्ण बनाये रखने के लिए हर सम्भव प्रयास किया जाना चाहिए। लेनिन का स्पष्ट तौर पर मानना था कि अभी संकट पका नहीं है और जब तक बोल्शेविक सोवियतों में और साथ ही प्रान्तों में, विशेष तौर पर किसानों के बीच, अपनी स्थिति सुदृढ़ नहीं करते, तब तक वे पेत्रोग्राद में सत्ता पर काबिज़ हो भी गये तो वे सत्ता पर क़ायम नहीं रह पायेंगे। लेनिन की इस बात को अब इन तीनों ही निकायों, यानी कि केन्द्रीय कमेटी, पीटर्सबर्ग कमेटी और बोल्शेविक सैन्य संगठन के बहुमत ने स्वीकार कर लिया था, हालाँकि लेनिन को इसके लिए काफ़ी प्रयास करना पड़ा था। लेकिन जब 3 जुलाई को यह स्पष्ट हो गया कि अब प्रदर्शन फूट पड़ा है और उसे नहीं रोका जा सकता है, तो बोल्शेविक पार्टी उसमें शामिल हुई।

अगर हम छठी कांग्रेस में पेश राजनीतिक रिपोर्ट को पढ़ें तो साफ़ हो जाता है कि जब पार्टी का पीटर्सबर्ग नगर सम्मेलन जारी था उसी समय फ़र्स्ट मशीनगन रेजीमेण्ट ने प्रदर्शन की शुरुआत कर दी थी। यह प्रदर्शन सशस्त्र सैनिक कर रहे थे। तेज़ी से अन्य रेजीमेण्टों व गैरीसनों के सैनिक इसमें शामिल हो रहे थे। कारख़ानों के मज़दूर प्रतिनिधि इसी बीच पीटर्सबर्ग कमेटी के दफ़्तर पर पहुँचे और इस प्रदर्शन की कमान अपने हाथों में लेने के लिए पार्टी से अपील करने लगे क्योंकि अगर पार्टी ऐसा नहीं करती है तो भारी रक्तपात होगा और क्रान्ति को हानि होगी। इस समय पार्टी ने प्रदर्शन की कमान अपने हाथों में लेने का निर्णय किया। इस बीच एक और बात जो ग़ौरतलब है वह यह कि पार्टी के नेतृत्व और ग्रासरूट धरातल के बोल्शेविक संगठनकर्ताओं में सम्पर्क सुचारू रूप से नहीं चल रहा था। ऊपर से सैनिकों का प्रदर्शन ठीक उन्हीं नारों के तले हो रहा था जो कि उस समय के बोल्शेविक नारे थे, विशेष तौर पर, ”सारी सत्ता सोवियतों को”। इसने एक भ्रम की स्थिति भी पैदा कर रखी थी। कई आम बोल्शेविक भी इस नारे और तत्काल सशस्त्र विद्रोह के नारे के बीच अन्तर नहीं कर पा रहे थे। यह क्रान्ति की उस मंजि़ल के लिए दिया गया आम रणनीतिक नारा था, न कि एक ‘एक्शन स्लोगन’। लेकिन इन विभ्रमों के कारण भी सारी चीज़ें पार्टी नेतृत्व के नियन्त्रण से बाहर थी। नतीजतन, जब प्रदर्शन स्वत:स्फूर्त रूप से शुरू हो गये तो पार्टी ने उसकी कमान अपने हाथों में लेने का निर्णय किया, जैसा कि पहले से तय था। 4 जुलाई को लेनिन वापस आये। उन्होंने अपने बेहद संक्षिप्त भाषण में चौकसी और धैर्य बनाये रखने और उकसावे में न आने का आह्वान किया। वे जानते थे कि अब प्रदर्शन को रोका नहीं जा सकता है, इसलिए इसे अधिकतम सम्भव संगठित और शान्तिपूर्ण स्वरूप देना होगा। लेनिन के लिए यह क्रान्ति को बचाने के लिए अपरिहार्य था। प्रदर्शनों को न रोक पाने का एक कारण अराजकतावादी-कम्युनिस्टों का गैरीसन व सैनिकों के बीच प्रभाव भी था।

इसलिए अब बोल्शेविकों के पास एक ही विकल्प था: प्रदर्शन को संगठित और शान्तिपूर्ण बनाये रखना और उचित अवसर आते ही कम-से-कम नुक़सान के साथ क़दम पीछे हटाना। इसमें समूची बोल्शेविक पार्टी का नेतृत्व एकजुट होकर काम कर रहा था। जैसा कि लेनिन ने अपने लेख ‘एक जवाब’ में लिखा है, अगर बोल्शेविकों का मक़सद 3-5 जुलाई के बीच सत्ता पर क़ब्ज़ा करना होता तो ऐसा करने से उन्हें कोई ताक़त रोक नहीं सकती थी क्योंकि इन दिनों पेत्रोग्राद एक प्रकार से बोल्शेविक समर्थक बलों के ही क़ब्ज़े में था। बोल्शेविकों का मक़सद था इस प्रदर्शन को एक अपरिपक्व सशस्त्र विद्रोह बनने से रोकना और इसमें अन्तत: वे सफल रहे, हालाँकि तात्कालिक तौर पर उन्हें काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा, कई बोल्शेविक संगठनकर्ता मारे गये, जेल गये; प्राव्दा प्रतिबन्धित हो गया, पार्टी दफ़्तरों पर छापे पड़े, त्रात्स्की व कामेनेव गिरफ़्तार हो गये, लेनिन और ज़ि‍नोवियेव को भूमिगत होना पड़ा। तात्कालिक तौर पर, लेनिन व बोल्शेविकों के जर्मन एजेण्ट होने की अफवाह के आधार पर एक प्रतिक्रान्तिकारी लहर भी हावी हो गयी। इस पूरी प्रक्रिया का विवरण भी रैबिनोविच ने विस्तार से दिया है। लेकिन यहाँ भी दिक़्क़त उनकी व्याख्या के साथ है। मिसाल के तौर पर, रै‍बिनोविच कुछ आम बोल्शेविकों व ग्रासरूस सैनिक नेताओं की अनुशासनहीनता को और जनदबाव में प्रदर्शन की तैयारियों में शामिल होने को बोल्शेविक पार्टी के ‘विभाजित पार्टी’ होने के प्रमाण के तौर पर पेश करते हैं। इससे यह क़तई नहीं साबित होता कि बोल्शेविक पार्टी कई (रैबिनोविच के अनुसार, तीन) सत्ता केन्द्रों वाली एक विभाजित पार्टी थी जिसमें सभी सत्ता केन्द्रों के ”अलग-अलग लक्ष्य और हित” थे। इससे केवल यह साबित होता है कि 3-5 जुलाई जैसे अपवादस्वरूप दौरों में तृणमूल धरातल पर काम करने वाले कुछ आम पार्टी सदस्य स्वत:स्फूर्त जन लहर के प्रभाव में आ सकते हैं। लेकिन यह भी सच है कि पार्टी के नेतृत्व द्वारा नियन्त्रित किये जाने पर वे पार्टी अनुशासन को बहाल भी करते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो 3 व 4 जुलाई को आरज़ी सरकार का तख़्ता पलट करने  के प्रयास हुए होते।

यह भी सही है कि केन्द्रीय कमेटी व अन्य नगर कमेटियों, प्रान्तीय कमेटियों आदि के निर्णयों व चिन्तन में एक अन्तर मौजूद होता है क्योंकि ये अलग-अलग कमेटियाँ लगातार अलग-अलग क़ि‍स्म के सवालों और स्थितियों से रूबरू हो रही होती हैं। ऐसे में, इन निम्नतर कमेटियों का या सैन्य संगठन का कई सवालों पर केन्द्रीय कमेटी के फ़ैसलों से मतभेद होना भी लाजि़मी है। लेकिन अन्त में निर्णायक तथ्य यह होगा कि केन्द्रीय कमेटी के बहुमत के अन्तिम निर्णयों को असहमति रखने के बावजूद ये निकाय लागू करते हैं या नहीं। जून से लेकर जुलाई तक के घटनाक्रम में हमें इन विभिन्न पार्टी निकायों के बीच सतत् बहस के बहुत से उदाहरण मिलते हैं और इन बहसों को 1953-56 के पहले के सोवियत स्रोतों में छिपाया भी नहीं गया है, जैसा कि रैबिनोविच दावा करते हैं।

बुर्जुआ व मेंशेविक स्रोतों के प्रति रैबिनोविच का रुख़ सहज विश्वास का है। जहाँ कहीं बोल्शेविक स्रोतों की बात आती है, वहाँ वे व्यक्तिगत संस्मरणों से निकाले गये उद्धरणों के आधार पर कोई अन्तरविरोध तलाशने में लग जाते हैं। और व्यक्तिगत संस्मरणों के आधार पर अन्तरविरोध निकालना बेहद आसान है, जैसा कि कोई भी इतिहासकार या इतिहास का छात्र जानता है। लेकिन रैबिनोविच जब त्सेरेतली या सुखानोव जैसे मेंशेविकों के इतिहास, संस्मरण या रिपोर्ताज को उद्धृत करते हैं, या त्रात्स्की के बाद के लेखन जैसे कि हिस्ट्री ऑफ़ दि रशियन रिवोल्यूशन और स्तालिन्स स्कूल ऑफ़ फ़ॉल्सिफ़ि‍केशन जैसी पुस्तकों को उद्धृत करते हैं, तो उन्हें आकाशवाणी के समान सत्य माना जाता है।

यहाँ तक तो हम रैबिनोविच के उदार बुर्जुआ पूर्वाग्रहों को ही देखते हैं, लेकिन जब वे रिचर्ड पाइप्स जैसे अमेरिकी साम्राज्यवादी सत्ता के एजेण्ट के इतिहास-लेखन को भरोसेमन्द स्रोत के तौर पर देखते हैं, तो वाक़ई आश्चर्य होता है। मिसाल के तौर पर, 1917 की जुलाई में ही आरज़ी सरकार के समक्ष पैदा हुए यूक्रेन संकट के विषय में वे पूरी तरह से रिचर्ड पाइप्स और त्सेरेतली के लेखन पर निर्भर करते हैं। न सिर्फ़ जानकारी के मामले में, बल्कि रिचर्ड पाइप्स के मूल्य-आधारित निर्णयों को भी रैबिनोविच ने अनालोचनात्मक तौर पर लिया है। मिसाल के लिए पाइप्स के इस प्रेक्षण को रैबिनोविच अनुमोदन के साथ उद्धृत करते हैं : ”यह रवैया नैतिक और संवैधानिक दृष्टिकोण से तो सही था, मगर राजनीतिक व्यवहार के नज़रिये से यह घातक सिद्ध हुआ।” (वही, पृ. 141) यहाँ बता दें कि पाइप्स राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के प्रति आरज़ी सरकार के रवैये की बात कर रहे हैं; दमित राष्ट्रीयताएँ फ़रवरी क्रान्ति के बाद तत्काल राष्ट्रीय मुक्ति व स्वायत्तता की माँग कर रही थीं, जबकि आरज़ी सरकार उन्हें संविधान सभा के बुलाये जाने तक टाल रही थी, ठीक उसी प्रकार जैसे कि भूमि प्रश्न के समाधान को मेंशेविक व समाजवादी-क्रान्तिकारी और साथ ही आरज़ी सरकार भी संविधान सभा बुलाये जाने तक टाल रहे थे और किसानों द्वारा भूमि क़ब्ज़े का विरोध कर रहे थे। पाइप्स आरज़ी सरकार के रवैये को नैतिक तौर पर सही मानते हैं। यह एक क्लासिकीय बुर्जुआ प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण है जो कि परिवर्तन को वैधिकता (legality) का परिणाम मानता है और जनविरोधी है; प्रगतिशील दृष्टिकोण हमेशा क्रान्ति को वैधिकता के ऊपर वरीयता देता है। अगर यह दृष्टिकोण नैतिक तौर पर सही है तो फ़्रांसीसी बुर्जुआ क्रान्ति को भी इन बुर्जुआ इतिहासकारों को ग़लत ठहराना चाहिए क्योंकि उस क्रान्ति ने भी वैधिकता की परवाह नहीं की थी। रैडिकल परिवर्तन, रूपान्तरण और क्रान्तियाँ हमेशा ग़ैर-क़ानूनी ही हुआ करती हैं। क्रान्तिकारी व प्रगतिशील नैतिकता के अनुसार वे नैतिक होती हैं, हालाँकि पाइप्स जैसे असुधारणीय कम्युनिस्ट-विरोधियों और साथ ही प्रतिक्रियावादियों के लिए वे अनैतिक और असंवैधानिक होती हैं। इस प्रकार के प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण को भी रैबिनोविच अनालोचनात्मक तौर पर लेते हैं।

इसके बाद रैबिनोविच 3 जुलाई को ज़मीनी स्तर पर चल रही कार्रवाइयों का एक ब्यौरा देते हैं जिसमें वे दिखलाते हैं कि बोल्शेविक सैन्य संगठन के कई सैनिक सदस्य इस समय तत्काल सशस्त्र विद्रोह और सरकार को गिराने के लिए छटपटा रहे थे और उनके भाषणों और अराजकतावादियों के भाषणों में कोई ज़्यादा अन्तर नहीं था। सेमाश्को, गोलोविन आदि जैसे बोल्शेविक स्वयं गैरीसनों का समर्थन जीतने, क्रोंस्टाट का समर्थन लेने के लिए जि़म्मेदारियाँ ले रहे थे। फ़र्स्ट मशीनगन रेजीमेण्ट के सैनिकों ने बोल्शेविक काडर व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों की पहल पर एक आरज़ी क्रान्तिकारी समिति भी बनायी जिसकी अगुवाई बोल्शेविक सेमाश्को कर रहे थे। इस समिति को रैबिनोविच एक प्रकार से सशस्त्र विद्रोह के संचालन की जि़म्मेदारी सम्भालने वाली समिति के तौर पर पेश करते हैं। लेकिन आगे बताया जाता है कि 4 जुलाई को यह समिति स्वयं अपने नेतृत्व को बोल्शेविक केन्द्रीय कमेटी व पीटर्सबर्ग कमेटी को सौंप देती है! अगर इस समिति को सशस्त्र विद्रोह ही करना था, तो इसने स्वेच्छा से अपना नेतृत्व बोल्शेविक पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को क्यों सौंप दिया जो कि प्रदर्शन को संगठित, शान्तिपूर्ण और अनुशासित रखने की बात कर रहा था और कह रहा था कि फि़लहाल हमें सोवियत कांग्रेस के समक्ष अपनी मांगों को ज़ोरदार तरीक़े से रखने को ही लक्ष्य बनाना चाहिए? इस सवाल का जवाब देना रैबिनोविच आवश्यक नहीं समझते हैं।

यह सिद्ध करने के लिए कि बोल्शेविक तृणमूल संगठनकर्ताओं ने आरज़ी सरकार के विरुद्ध तख़्तापलट की पूरी योजना बना ली थी, रैबिनोविच किस स्रोत पर निर्भर करते हैं, यह जानकर आपको ताज्जुब होगा। वे आरज़ी सरकार द्वारा 3-5 जुलाई के बाद बोल्शेविकों के ख़ि‍लाफ़ बिठायी गयी जाँच समिति की रिपोर्ट और उसमें पेश की गयी गवाहियों और प्रमाणों को अपना स्रोत बनाते हैं! यह ताज्जुब की बात इसलिए है कि बोल्शेविक क्रान्ति के विषय में हुए इतिहास-लेखन में अधिकांश बेहतर इतिहासकारों की इस बात पर सहमति है कि जुलाई की घटनाओं के बाद सोवियतें दक्षिणपन्थी अवस्थिति पर चली गयीं और पूरी तरह आरज़ी सरकार के साथ खड़ी हो गयीं थीं, और साथ ही बुर्जुआ सत्ता सुदृढ़ हो गयी थी; इसके सुदृढ़ होते ही मेंशेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने बोल्शेविकों के दमन को अपना लक्ष्य बनाया। उन्होंने बोल्शेविकों और लेनिन के जर्मन एजेण्ट होने का आरोप लगाने, मोर्चे पर हो रही हार के लिए बोल्शेविकों को दोषी ठहराने, सोवियत सत्ता के विरुद्ध षड्यन्त्र करने से लेकर चरित्र-हनन तक, हर प्रकार की चाल का सहारा लिया; जाँच करवाना तो सिर्फ़ एक बहाना था, जाँच के नतीजे तय थे और इसका मक़सद था जनता का बोल्शेविकों में भरोसा और जनता के समर्थन को तोड़ देना। ऐसी जाँच में पेश गवाहियों के आधार पर रैबिनोविच यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि बोल्शेविक पार्टी इस समय खण्ड-खण्ड में विभाजित थी, उसके अलग-अलग खण्ड अलग-अलग हितों और लक्ष्यों के साथ काम कर रहे थे, और इनमें से कई 3-5 जुलाई के बीच सशस्त्र विद्रोह करने के प्रयासों में ही लगे हुए थे। लेकिन रैबिनोविच का अपना ब्यौरा ही इसे ग़लत साबित कर देता है।

हमारे पास आज इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि सैन्य संगठन के नेता पोदवॉइस्की व नेव्स्की लगातार सशस्त्र विद्रोह को रोकने के प्रयासों में लगे हुए थे; वे लगातार तमाम गैरीसनों व रेजीमेण्टों में संगठनकर्ताओं को भेज रहे थे ताकि सैनिकों को प्रदर्शन में भाग लेने से रोका जा सके। यह ज़रूर है कि बहुत से गैरीसनों व रेजीमेण्टों में ये अपीलें सुनीं नहीं जा रही थीं और कई जगह तो ऐसा माहौल था कि ये संगठनकर्ता कुछ बोलने की हिम्मत भी नहीं कर पाये; पीटर्सबर्ग कमेटी के टॉम्सकी ने बोल्शेविक पार्टी के पेत्रोग्राद नगर सम्मेलन में केन्द्रीय कमेटी के निर्णयों को पढ़कर सुनाया जिसमें यह कहा गया था कि प्रदर्शनों को रोकने का प्रयास किया जाना चाहिए। यह सच है कि टॉम्स्की ने इसके अन्त में यह जोड़ दिया कि हम इस आग को बुझा नहीं पायेंगे क्योंकि हमने यह आग जलाई नहीं है। लेकिन साथ में टॉम्स्की ने यह भी कहा कि हमें केन्द्रीय कमेटी के निर्णय को किसी भी तरह लागू करना होगा। चूँकि पीटर्सबर्ग कमेटी और सैन्य संगठन ज़मीनी स्तर पर हो रहे परिवर्तनों के ज़्यादा क़रीब थे, इसलिए वे केन्द्रीय कमेटी के मुक़ाबले ज़्यादा बेहतर तरीक़े से यह समझ पा रहे थे कि इन प्रदर्शनों का एक अपरि‍पक्व सशस्त्र विद्रोह में परिवर्तित होना ख़तरनाक होगा, लेकिन वे यह भी समझ रहे थे कि अब इन प्रदर्शनों को रोक पाना मुश्किल होगा। इसलिए पार्टी को इसमें शामिल होकर इसे नेतृत्व देना चाहिए और इसे अपरिपक्व सशस्त्र विद्रोह में तब्दील होने से रोकना चाहिए। रैबिनोविच यह भी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि प्रदर्शनों को न रोके जा सकने की सूरत में इसमें शामिल होने की कार्यदिशा केन्द्रीय कमेटी की नहीं थी और वह उसके ख़ि‍लाफ़ थी। हम पहले ही दिखला चुके हैं कि ऐसा नहीं है। स्वयं लेनिन और स्तालिन के तत्कालीन लेखन को देखने से साफ़ हो जाता है कि केन्द्रीय कमेटी इस विचार पर सहमत थी, भले ही यह विचार मूलत: पीटर्सबर्ग कमेटी द्वारा पेश किया गया हो।

आगे रैबिनोविच लिखते हैं :

”सोवियत इतिहासकार जुलाई ”प्रदर्शनों” को एक शान्तिपूर्ण विरोध आन्दोलन के रूप में पेश करते हैं, जो कि सोवियतों को सत्ता के हस्तान्तरण के लिए संघर्ष के ”शान्तिपूर्ण दौर” की अन्तिम घटना थी। लेकिन ग़ौरतलब है कि 3 जुलाई की जनसभाओं पर स्रोत सामग्री दिखलाती है कि जुलाई आन्दोलन का प्रतीतिगत लक्ष्य, जिस रूप में अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों और फ़र्स्ट मशीलगन रेजीमेण्ट ने उसे सूत्रबद्ध किया था, आरज़ी सरकार को सशस्त्र शक्ति द्वारा उखाड़ फेंकना था।” (वही, पृ 152)

जैसा कि हम ऊपर दिखला चुके हैं कि लेनिन और स्तालिन के लेखन में कहीं यह नहीं लिखा गया है कि जुलाई का प्रदर्शन शान्तिपूर्ण प्रदर्शन था; हम यह भी दिखला चुके हैं कि बुर्जुआ इतिहासकारों के लिए सबसे सन्देहास्पद स्रोत, यानी ‘बोल्शेविक पार्टी का इतिहास’ में भी यह कहीं नहीं लिखा है कि ये प्रदर्शन शान्तिपूर्ण थे; यहाँ तक कि त्रात्स्की के लेखन में भी इसे शान्तिपूर्ण प्रदर्शन नहीं माना गया है। त्रात्स्की ने तो अराजकतावादी-कम्युनिस्टों के प्रभाव की भी बात की है। ऐसे में, रैबिनोविच के सोवियत स्रोतों का अर्थ केवल एक ही रह जाता है : संशोधनवादी दौर की इतिहास की पुस्तकें, जब सामाजिक फ़ासीवादी सत्ता की यह आवश्यकता थी कि बोल्शेविक पार्टी की एक एकाश्मी छवि पेश की जाये क्योंकि जनता से एक ऐसी एकाश्मी पार्टी के प्रति ही अनालोचनात्मक एकनिष्ठा की माँग की जा सकती है! लेकिन रैबिनोविच यह दिखलाने में असफल रहते हैं कि स्वयं बोल्शेविक नेताओं के लेखन में, त्रात्स्की के लेखन में, पार्टी के आधिकारिक इतिहास लेखन में और 1953 से पहले के सोवियत इतिहासकारों के लेखन में कहाँ इस प्रदर्शन को शान्तिपूर्ण कहा गया है। उल्टा उस दौर के जिन एक-दो इतिहासकारों को, जैसे कि स्तुलोव को, वे उद्धृत करते हैं, उन्होंने इस प्रदर्शन के दौरान हुई हिंसा का जि़क्र किया है। इस हिंसा के आधार पर ही रैबिनोविच इसे सशस्त्र विद्रोह (insurrection) की संज्ञा दे देते हैं। जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है, रैबिनोविच सशस्त्र विद्रोह के अर्थ को नहीं समझते और उसे बेपरवाह तरीक़े से इस्तेमाल करते हैं। यह उनके इस उद्धरण से ही पता चल जाता है :

”वास्तव में, जुलाई सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत का अध्ययन करते हुए आपको ऐसा प्रतीत होता है कि जिन अराजकतावादियों और अर्द्ध-अराजकतावादियों ने इसका शुरुआत की थी, विशेष तौर पर वे जो कि गैरीसन में थे, स्वयं उनके दिमाग़ में ही इन प्रश्नों के स्पष्ट उत्तर मौजूद नहीं थे।” (वही, पृ. 152)

ये प्रश्न थे कि आरज़ी सरकार को उखाड़कर कैसे फेंका जायेगा और उसकी जगह क्या लाया जायेगा? सत्ता बोल्शेविकों को दी जायेगी या फिर सोवियतों को? यानी इन प्रश्नों का रैबिनोविच के ”सशस्त्र विद्रोहियों” के पास कोई जवाब नहीं था! लेकिन फिर भी यह सशस्त्र विद्रोह (insurrection) था! इसी से पता चल जाता है कि रैबिनोविच ने यहाँ सारी चीज़ें गड्ड-मड्ड कर दी हैं। मिसाल के तौर पर, आगे रैबिनोविच लिखते हैं कि इस ”सशस्त्र विद्रोह” के विस्तार का कारण यह था कि तमाम सैन्य रेजीमेण्टों व गैरीसनों में सैनिकों के ढेर सारे तात्कालिक असन्तोष व शिकायतें इकट्ठा हो गयीं थीं। इनमें मोर्चे पर स्थानान्तरण किया जाना प्रमुख कारण था। इस‍ प्रकार रैबिनोविच ख़ुद मानते हैं कि स्वत:स्फूर्त उभार का कारण आम तौर पर तात्कालिक शिकायतें और असन्तोष था। यह भी किसी सशस्त्र विद्रोह का विवरण नहीं बल्कि असन्तोष और गुस्से के एक स्वत:स्फूर्त विस्फोट का विवरण ज़्यादा लगता है।

पीटर्सबर्ग कमेटी और केन्द्रीय कमेटी को अन्तरविरोधी दिखाने के रैबिनोविच के प्रयास

पीटर्सबर्ग कमेटी और केन्द्रीय कमेटी के बीच एक खाई दिखाने का प्रयास करने का कोई भी अवसर रैबिनोविच छोड़ते नहीं हैं। पीटर्सबर्ग पार्टी कमेटी के दूसरे नगर सम्मेलन का जि़क्र करते हुए रैबिनोविच बताते हैं कि एक जुलाई को इस सम्मेलन का आरम्भ हुआ और उस समय सम्मेलन इस बात पर चर्चा कर रहा था कि लेनिन द्वारा पीटर्सबर्ग कमेटी के अलग मुखपत्र न निकालने की राय को माना जाये या उसे रद्द कर दिया जाये। केवल शब्दों के थोड़े से हेर-फेर से पूरा अर्थ बदला जा सकता है। यह सच है कि पीटर्सबर्ग कमेटी अपना एक अलग मुखपत्र चाहती थी क्योंकि उसे लगता था कि उसकी राजनीतिक उद्वेलनात्मक आवश्यकताओं को प्राव्दा पूरा नहीं कर पाता है। लेकिन अन्तत: इस कमेटी ने लेनिन व केन्द्रीय कमेटी के निर्देश का ही पालन किया। इसके बदले में केन्द्रीय कमेटी ने यह तय किया था कि मुखपत्रों के सम्पादक मण्डल में पीटर्सबर्ग कमेटी के प्रतिनिधि को परामर्शदाता की स्थिति में शामिल किया जाये। लेकिन रैबिनोविच पूरी पुस्तक में यह ब्यौरा कहीं नहीं देते। पीटर्सबर्ग कमेटी को इतना स्वायत्त दिखाने का प्रयास किया गया है कि वह किसी पार्टी सम्मेलन या पार्टी कांग्रेस के मंच पर बहस करने और अपने प्रस्ताव पर बहुमत प्राप्त करने के पहले ही केन्द्रीय कमेटी के किसी निर्देश की अवहेलना करने के बारे में विचार कर रही थी। इस स्वायत्तता की छवि को और बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने के लिए रैबिनोविच लिखते हैं कि ”कई सदस्य एक अलग मुखपत्र की स्थापना को ज़्यादा रूढि़वादी केन्द्रीय कमेटी की शक्ति की क़ीमत पर पीटर्सबर्ग कमेटी की शक्ति और लचीलेपन को बढ़ाने के एक ज़रिये के तौर पर देखते थे।” (वही, पृ. 155) इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस प्रश्न पर लेनिन और पीटर्सबर्ग कमेटी के बीच बहस चली थी, लेकिन इस बहस की चर्चा करना एक अलग बात है और केन्द्रीय कमेटी के निर्णय की अवहेलना करने की बात करना एक अलग बात है। एक संगठन के भीतर जीवन्त बहस-मुबाहसे की बात करना है और दूसरा है सांगठनिक अनुशासन की बात करना। रैबिनोविच जाने-अनजाने दोनों बातों में अक्सर कोई फ़र्क़ नहीं करते और इस फ़र्क़ को सामने न रखा जाये, जो कि जनवादी केन्द्रीयता के लेनिनवादी उसूलों का सार है, तो फिर दो कार्यदिशाओं के बीच के संघर्ष को भी ‘विभाजित पार्टी’ की छवि पेश करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। और रैबिनोविच अक्सर ऐसा ही करते हैं।

नगर सम्मेलन के बारे में ही बात करते हुए रैबिनोविच कहते हैं कि इसमें फिर से 20 जून को पीटर्सबर्ग कमेटी द्वारा तय की गयी कार्यदिशा पर मुहर लगायी गयी, जिसके अनुसार यदि प्रदर्शनों को रोका न जा सका तो पार्टी उसके नेतृत्व को अपने हाथ में लेने में हिचकिचायेगी नहीं। रैबिनोविच का दावा है कि यह कार्यदिशा केन्द्रीय कमेटी की कार्यदिशा से अलग थी। हम ऊपर दिखला चुके हैं कि स्वयं लेनिन व स्तालिन के तत्कालीन लेखों से यह सिद्ध किया जा सकता है कि केन्द्रीय कमेटी इस कार्यदिशा से सहमत थी।

केन्द्रीय कमेटी के भीतर भी उस समय जो संघर्ष चल रहा था, रैबिनोविच अपने दृष्टिकोण और व्याख्या की पुष्टि के लिए उसका एक चयनबद्ध ब्यौरा देते हैं। लेकिन अगर उस ब्यौरे को ही पढ़ें तो स्पष्ट हो जाता है कि केन्द्रीय कमेटी का क्या निर्णय था। रैबिनोविच 3 जुलाई को तौरीदा महल में केन्द्रीय कमेटी की जारी बैठक का हवाला देते हैं और बताते हैं कि इस बैठक में प्रदर्शन को रोकने का प्रयास करने का निर्देश पेत्रोग्राद नगर सम्मेलन को भिजवाया गया। लेकिन साथ में वे जोड़ते हैं, ”यह सन्देह के दायरे में है कि इस सावधानीपूर्ण रणनीति को सर्वसम्मति से समर्थन मिला। जैसी परिस्थितियाँ थीं, उसमें कम-से-कम स्मिल्गा ने इस पर ज़रूर आपत्ति की होगी। चाहे जो भी हो, केन्द्रीय कमेटी ने दो दिनों में दूसरी बार किसी प्रदर्शन में हिस्सेदारी करने के विरोध में वोट किया…” (वही, पृ 157, ज़ोर हमारा) हम देख सकते हैं कि स्मिल्गा द्वारा आपत्ति की रैबिनोविच ने अटकल लगायी है। इसका स्रोत क्या है? यदि आप पश्चटिप्पणी को देखें तो रैबिनोविच इस अटकल का स्रोत स्तालिनकालीन इतिहास लेखन को बताते हैं, जिसमें स्मिल्गा को लाटसिस के साथ इस बात का हामी बताया गया था कि वह सशस्त्र विद्रोह के लिए फ़र्स्ट मशीनगन रेजीमेण्ट पर निर्भर रहने की लाइन को मानते थे। यानी, जो स्रोत आम तौर पर रैबिनोविच के लिए प्रोपगैण्डा लेखन है, वह अचानक विश्वसनीय बन जाता है। क्यों? क्योंकि रैबिनोविच इस बात को कैसे स्वीकार करें कि केन्द्रीय कमेटी ने कभी सर्वसम्मति से कोई निर्णय लिया होगा या फिर किसी अन्य कमेटी ने उस निर्णय की अवहेलना नहीं की? अगर रैबिनोविच ऐसा मानते हैं, तो ‘विभाजित पार्टी’ का उनका उदार बुर्जुआ मॉडल ढह जाता है। इसलिए जहाँ कहीं रैबिनोविच को कोई भी प्रमाण नहीं मिलता वहाँ वे अपनी सुविधा के अनुसार अटकलबाज़ी के विकल्प को अपनाते हैं।

यहीं आगे रैबिनोविच टॉम्स्की के भाषण को उद्धृत करके यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि अन्तत: पीटर्सबर्ग कमेटी ने 3 जुलाई को केन्द्रीय कमेटी द्वारा भेजे गये निर्देश को स्वीकार तो किया लेकिन केवल औपचारिक तौर पर। हम इस बात का ऊपर खण्डन कर चुके हैं। इस सम्मेलन द्वारा केन्द्रीय कमेटी के निर्देशों की उपेक्षा के दावे के बाद अन्त में रैबिनोविच चलते-चलते स्वीकार कर लेते हैं कि इस सम्मेलन ने अन्तत: केन्द्रीय कमेटी की कार्यदिशा का ही अनुमोदन किया। रैबिनोविच लिखते हैं :

”राखिया ने अधैर्य के साथ टिप्पणी की कि सम्मेलन पेरिस कम्यून के समान दिख रहा है जो कि शत्रुतापूर्ण शक्तियों से घिरे होने के बावजूद केवल बात ही कर रहा है। उन्होंने सुझाव दिया कि केन्द्रीय कमेटी के निर्देशों को स्वीकार करते हुए पीटर्सबर्ग कमेटी को केन्द्रीय कमेटी के साथ कारख़ाना प्रतिनिधियों व सैन्य प्रतिनिधियों की बैठक का इन्तज़ाम करना चाहिए, ताकि परिवर्तित होती स्थिति का सही आकलन बनाया जा सके…बैठक जब अन्त की ओर बढ़ रही थी, तो कैक्टिन, ओग्रेत्सा और सालना ने विद्रोही रेजीमेण्टों का समर्थन करने का प्रस्ताव रखा जो कि पराजित हो गया। उल्टे इस बात पर सहमति बनी कि (सोवियत की) केन्द्रीय कार्यकारी समिति को एक प्रतिनिधि मण्डल द्वारा अल्टीमेटम भेजा जाये कि अभी सत्ता अपने हाथ में लें, अथवा एक सशस्त्र जनउभार के लिए तैयार हो जायें। इसी के साथ सम्मेलन समाप्त हो गया।” (वही, पृ. 159)

एक बात इस उद्धरण से ही स्पष्ट है कि सम्मेलन किसी भी रूप में विद्रोह करने वाली रेजीमेण्टों के साथ नहीं था हालाँकि उसे यह ज़रूर लग रहा था कि केन्द्रीय कमेटी निर्णय लेने में देरी कर रही है। साथ ही वह सोवियत पर सत्ता अपने हाथों में लेने का दबाव डालने के लिए इस जनउभार के भय का इस्तेमाल करने को लेकर सहमत था। ऐसे में, यह किस प्रकार साबित हुआ कि पीटर्सबर्ग कमेटी या उसका द्वितीय नगर सम्मेलन केन्द्रीय कमेटी के निर्णय से सहमत नहीं था या उसकी अवहेलना कर रहा था? पाठक को इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता मगर फिर भी उससे उम्मीद की जाती है कि रैबिनोविच के ‘विभाजित पार्टी’ के सिद्धान्त को वह स्वीकार कर ले।

अराजकतावादियों और अराजकतावादी-कम्युनिस्टों द्वारा शुरू किया गया सशस्त्र विद्रोह?

हम ऊपर देख चुके हैं कि 3-5 जुलाई के प्रदर्शनों को रैबिनोविच अराजकतावादियों और अराजकतावादी-कम्युनिस्टों द्वारा, विशेषकर जो गैरीसनों में थे, शुरू किया गया सशस्त्र विद्रोह मानते हैं। लेकिन कुछ ही पृष्ठ बाद वे 3 जुलाई की शाम का पूरा ब्यौरा देते हैं, जिसमें कि बोल्शेविक संगठनकर्ता गैरीसनों से प्रदर्शन के लिए सैनिकों और कारख़ानों से निकले मज़दूरों को बोल्शेविक मुख्यालय की तरफ़ लाते हैं और सारे प्रदर्शनकारी क्शेसिंस्काया महल के बाहर एकत्र होने लगते हैं, जहाँ कि बोल्शेविक मुख्यालय स्थित था। अब प्रश्न यह उठता है कि अगर यह अराजकतावादियों व अराजकतावादी-कम्युनिस्टों द्वारा शुरू किया गया सशस्त्र विद्रोह (insurrection) था तो इन सशस्त्र विद्रोहियों ने सीधे सरकारी इमारतों, संस्थानों, रेलवे स्टेशनों, टेलीग्राफ़ कार्यालयों पर क़ब्ज़ा क्यों नहीं किया? दूसरी बात, अगर बोल्शेविक पार्टी सशस्त्र विद्रोह के विकल्प को एक खुला विकल्प मानती थी तो उसने प्रदर्शन का नेतृत्व अपने हाथ में आते ही ये सारे काम क्यों नहीं किये? ऐसी ख़तरनाक और फ़ैसलाकुन घड़ी में लाखों सशस्त्र प्रदर्शनकारियों को सड़क पर लेकर बोल्शेविक नेतृत्व क्या कर रहा था? उस समय के अख़बारी स्रोत तक मानते हैं कि उस दिन यदि बोल्शेविक सत्ता पर क़ब्ज़ा करना चाहते तो यह उनके लिए ज़्यादा मुश्किल नहीं होता। तो फिर बोल्शेविकों ने ऐसा क्यों नहीं किया? लेनिन ने हूबहू यही प्रश्न अपने लेख ‘एक जवाब’ में आरज़ी सरकार के षड्यन्त्रकारियों से पूछा था। और यही प्रश्न रैबिनोविच जैसे इतिहासकारों से भी पूछा जा सकता है। रैबिनोविच का दावा है कि केन्द्रीय कमेटी का बहुमत चाहे जो चाहता हो लेकिन पीटर्सबर्ग कमेटी और सैन्य संगठन में विद्रोह का विचार पनप रहा था और ज़्यादा प्रभावी था। ऐसे में भी यह प्रश्न उठता है कि इन दोनों निकायों के बोल्शेविक संगठनकर्ताओं ने सत्ता पर क़ब्ज़े का आह्वान क्यों नहीं किया? केन्द्रीय कमेटी की तो वे सुन नहीं रहे थे, बकौल रैबिनोविच। और प्रदर्शन का सीधा नेतृत्व भी तमाम अतिवादी बोल्शेविक नेताओं जैसे कि सेमाश्को, गोलोविन आदि के हाथों में था। तो फिर उन्हें किस चीज़ ने सशस्त्र विद्रोह करने और सत्ता पर क़ब्ज़ा करने से रोका?

3 जुलाई की देर रात का ब्यौरा देते हुए रैबिनोविच बताते हैं कि पेत्रोग्राद सोवियत के मुख्यालय तौरीदा महल के बाहर हज़ारों सैनिकों व मज़दूरों ने डेरा डाल दिया था। वे अपने नेताओं के भाषण सुन रहे थे, जिनमें से अधिकांश यह कह रहे थे कि अब समय आ गया है कि सोवियत बुर्जुआ वर्ग की आरज़ी सरकार से सत्ता अपने हाथों में ले ले। इन भाषण देने वालों में ज़ि‍नोवियेव और त्रात्स्की भी शामिल थे। यहाँ पर रैबिनोविच स्वयं स्वीकार करते हैं, ”सभी समाजवादी नेताओं के लिए सौभाग्य की बात थी कि फ़र्स्ट मशीनगन रेजीमेण्ट और अराजकतावादी-कम्युनिस्ट अब मज़दूरों और सैनिकों को नियन्त्रित नहीं कर रहे थे,” लेकिन आगे रैबिनोविच यह भी जोड़ देते हैं, ”और बोल्शेविकों को अभी आपस में इस प्रश्न पर सहमति बनानी थी कि वे एक प्रदर्शन के साक्षी बन रहे हैं या फिर क्रान्ति के।” (वही, पृ. 172) लेकिन इसके बाद रैबिनोविच यह भी कहते हैं कि जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, सैनिक बिना किसी लक्ष्य के इधर-उधर टहलने लगे, लोग थकावट महसूस करने लगे, वग़ैरह। लेकिन आपके दिमाग़ में तुरन्त ही यह प्रश्न आता है कि पिछले 170 पृष्ठों में रैबिनोविच आपको यह क्यों यकीन दिलाते हैं कि प्रदर्शनकारी स्वत:स्फूर्त रूप से विद्रोह करना चाहते थे; अराजकतावादी और अराजकतावादी-कम्युनिस्ट भी यही चाहते थे और बोल्शेविक फ़ैसला नहीं कर पा रहे थे? क्योंकि अगर ऐसा ही था तो 3 जुलाई की रात को कौन-सी चीज़ इन हज़ारों-लाखों सैनिकों और मज़दूरों को रोके हुए थी? उन्होंने तत्काल आरज़ी सरकार का तख़्तापलट क्यों नहीं कर दिया? ये सारे सवाल अनुत्तरित ही रह जाते हैं।

इन प्रश्नों का उत्तर आपको रैबिनोविच की पुस्तक में नहीं मिलेगा। इसका उत्तर आपको वास्तविक बोल्शेविक स्रोतों में मिलेगा। इसका उत्तर यह है कि यह बोल्शेविक पार्टी का अनुशासन था जिसने 3 से 5 जुलाई के बीच बोल्शेविक संगठनकर्ताओं को इस प्रदर्शन को एक संगठित और शान्तिपूर्ण रूप देने के लिए प्रेरित किया, चाहे वे व्यक्तिगत तौर पर केन्द्रीय कमेटी के धीरज बरतने और सही मौक़े का इन्तज़ार करने और उसके लिए तैयारी करने की कार्यदिशा से सहमत हों या नहीं हों; चाहे उन्होंने बाद में पार्टी मंचों पर इसके लिए केन्द्रीय कमेटी के सदस्यों से बहस की हो; चाहे उन्होंने बाद में भी सहमत होने के बजाय अपनी असहमति ही दर्ज करायी हो; तब भी उन्होंने दो सम्मेलनों या कांग्रेसों के बीच केन्द्रीय कमेटी के निर्णय को सर्वोच्च निर्णय मानने के बोल्शेविक उसूलों का पालन किया। अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया होता तो 3-5 जुलाई 1917 के दिनों का इतिहास किसी और ही प्रकार लिखा जाता। बल्कि कहा जा सकता है कि बोल्शेविक क्रान्ति का ही इतिहास कुछ और होता। यह ज़रूर है कि बोल्शेविक पार्टी के सैन्य संगठन ने इस सम्भावना के लिए भी तैयारी कर रखी थी कि यदि प्रदर्शन का नेतृत्व उनके हाथों से निकलता है और सशस्त्र प्रदर्शनकारी उनके अनुमोदन के बिना सत्ता पर क़ब्ज़ा करने और आरज़ी सरकार को अपदस्थ करने का प्रयास करते हैं, तो वे क्या करेंगे। लेकिन इसे सशस्त्र विद्रोह करने की तैयारी की संज्ञा देना मूर्खता होगी। निश्चित तौर पर, यह पूरा प्रदर्शन जनसमुदायों के बोल्शेविकीकरण का ही नतीजा था; यह दिखला रहा था कि जनता के बीच बोल्शेविक पार्टी की कार्यदिशा का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था। लेकिन इस प्रदर्शन का समय-निर्धारण अकेले बोल्शेविक पार्टी मनोगत तरीक़े से नहीं कर सकती थी। ज़ाहिर है, इसके समय-निर्धारण के पीछे बहुत से वस्तुगत कारक और बहुत-सी अन्य मनोगत शक्तियाँ काम कर रही थीं। लेकिन चूँकि यह जनउभार बोल्शेविक नारों और कार्यदिशा के समर्थन में और उसके अन्तर्गत ही हो रहा था इसलिए बोल्शेविक पार्टी एक जि़म्मेदार क्रान्तिकारी पार्टी के समान हर प्रकार की सम्भावना के लिए तैयारी कर रही थी : इस सम्भावना के लिए भी जबकि नेतृत्व पूरी तरह उनके हाथों में रहता और प्रदर्शन पूरी तरह शान्तिपूर्ण और संगठित रहता और इस सम्भावना के लिए भी जबकि यह प्रदर्शन लेनिन के शब्दों में ”महज़़ एक प्रदर्शन” नहीं रह जाता, जैसा कि हुआ और जैसा कि लेनिन ने बाद में ‘तीन संकट’ नामक अपने लेख में लिखा भी था। लेकिन बोल्शेविक फिर भी एक अपरिपक्व सशस्त्र विद्रोह रोकने में कामयाब रहे; हालाँकि इस प्रक्रिया में तात्कालिक तौर पर उन्हें काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा था।

इस दौरान, किसी भी मौक़े पर किसी जि़म्मेदार पार्टी के निकाय का इरादा सशस्त्र विद्रोह का नहीं था। रैबिनोविच ही द्वितीय पीटर्सबर्ग नगर सम्मेलन में पारित प्रस्ताव को उद्धृत करते हैं जिसमें स्पष्ट तौर पर पार्टी की पीटर्सबर्ग कमेटी ने यह निर्णय लिया था कि मज़दूर एवं सैनिक सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करें और सोवियत के समक्ष अपनी यह इच्छा पुरज़ोर तरीक़े से पेश करें कि वह सत्ता पूर्ण रूप से अपने हाथों में ले ले (देखें, वही, पृ. 164)। इससे ज़्यादा का लक्ष्य न तो केन्द्रीय कमेटी ने तय किया था और न ही किसी अन्य पार्टी निकाय ने।

वास्तव में, 4 जुलाई की सुबह प्रदर्शन पूरी तरह से बोल्शेविक पार्टी के हाथों में था। यही कारण था कि जब 4 जुलाई को प्रदर्शन की शुरुआत हुई तो बोल्शेविक संगठनकर्ताओं के आह्वान पर पहले प्रदर्शनकारियों की समूची भीड़ लेनिन को सुनने के लिए क्शेसिंस्काया महल पहुँची, जो कि उसी सुबह, फिनलैण्ड में अपनी छुट्टियाँ पूरी किये बिना ही बीच में ही वापस लौट आये थे। लेनिन ने अपने छोटे से भाषण में जनता को धैर्य, चौकसी और मज़बूती बनाये रखने का सन्देश दिया। लेकिन सारे प्रदर्शनकारियों को क्शेसिंस्काया महल की ओर ले जाने पर प्रदर्शन में शामिल अराजकतावादियों, अराजकतावादी-कम्युनिस्टों और मारिया स्पिरिदोनोवा जैसे वामपन्थी समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने यह कहकर आपत्ति जतायी कि पूरे प्रदर्शन को एक बोल्शेविक प्रदर्शन में तब्दील किया जा रहा है। जनता ने उनकी बातें नहीं सुनीं और सारे प्रदर्शनकारी क्शेसिंस्काया महल की ओर चल पड़े, जहाँ पर लेनिन मौजूद थे क्योंकि यह प्रदर्शन 3 जुलाई की देर रात से एक बोल्शेविक प्रदर्शन ही बन चुका था। बोल्शेविक पार्टी ने अब इस प्रदर्शन की बागडोर अपने हाथों में ले ली थी ताकि उसे एक संगठित और शान्तिपूर्ण चरित्र प्रदान कर सकें।

इसी बीच पेत्रोग्राद सोवियत के मज़दूर सेक्शन में पहली बार बोल्शेविक बहुमत में आ गये। इसके बाद वहाँ बोल्शेविक संगठनकर्ताओं ज़ि‍नोवियेव, कामेनेव और उस समय तक मेज़रायोन्त्सी ग्रुप के सदस्य त्रात्स्की ने हूबहू और शब्दश: वह प्रस्ताव पारित किया जो कि बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय कमेटी ने पारित किया था। स्वयं रैबिनोविच ने इस प्रस्ताव को उद्धृत किया है :

”इस बैठक के सभी भागीदार जि़लों में जायेंगे ताकि इस निर्णय के बारे में मज़दूरों और सैनिकों को सूचित कर सकें और इस आयोग से निरन्तर सम्पर्क में रहकर आन्दोलन को एक शान्तिपूर्ण और संगठित चरित्र देने का प्रयास करेंगे।” (वही, पृ. 170)

जैसा कि हम देख सकते हैं, यह हूबहू वही बात है जो‍कि केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग कमेटी के प्रस्तावों में कही गयी थी। रैबिनोविच यह ब्योरा देना भी भूल जाते हैं कि जब 3 जुलाई को तौरीदा महल में केन्द्रीय कमेटी की बैठक चल रही थी तो शाम के वक़्त विभिन्न कारख़ानों के मज़दूर प्रतिनिधि उसके पास आ रहे थे और शुरू हो चुके प्रदर्शन की सूचना देते हुए इस प्रदर्शन को शान्तिपूर्ण बनाये रखने के लिए बोल्शेविक पार्टी से कमान अपने हाथ में लेने का आग्रह कर रहे थे। ग़ौरतलब है, मज़दूरों की व्यापक बहुसंख्या प्रदर्शन में हिस्सेदारी करने को तो इच्छुक थी, लेकिन वह चाहती थी कि पार्टी प्रदर्शन की कमान अपने हाथों में ले अन्यथा सैनिकों का अधैर्य एक अपरि‍पक्व बग़ावत की ओर जा सकता था। यह पूरा ब्यौरा भी रैबिनोविच की पुस्तक से अनुपस्थि‍त है।

लेनिन की पेत्रोग्राद वापसी और लेनिन के अनिर्णय का रैबिनोविच
का मिथक

रैबिनोविच बताते हैं कि किस प्रकार 3 जुलाई की रात में अन्तत: बोल्शेविक नेतृत्व ने तय किया कि वे प्रदर्शन को रोक नहीं सकते और उन्हें इसे नेतृत्व देकर एक संगठित और शान्तिपूर्ण प्रदर्शन में तब्दील करना चाहिए। इसी के साथ वे तत्काल किसी को लेनिन को बुलाने के लिए भेजने का निर्णय लेते हैं। रैबिनोविच इस सूचना की पुष्टि के लिए ज़ि‍नोवियेव को उद्धृत करते हैं, ”ज़ि‍नोवियेव ने पुष्ट किया कि तौरीदा महल पर तीस हज़ार पुतिलोव मज़दूरों के आने और क्रोंस्टाट से रैस्कॉलनिकोव (एक अन्य बोल्शेविक नेता) का फोन आने के साथ, जिन्होंने स्पष्ट तौर पर बताया कि कोई चीज़ या कोई व्यक्ति क्रोंस्टाट के नाविकों को अगली सुबह पेत्रोग्राद जाने से नहीं रोक सकता है, अन्तत: यह तय किया गया कि केन्द्रीय कमेटी अगले दिन (यानी 4 जुलाई) को मज़दूरों और सैनिकों के ”सशस्त्र लेकिन शान्तिपूर्ण” प्रदर्शन की आज्ञा देगी और उसका नेतृत्व करेगी।” (वही, पृ. 174) हालाँकि रैबिनोविच पश्चटिप्पणी में रैस्कॉलनिकोव द्वारा दी गयी सूचना पर सन्देह करते हैं, लेकिन उनके द्वारा दिया गया ब्यौरा ही रैस्कॉलनिकोव के दावे को पुष्ट करता है। इसके बाद ही केन्द्रीय कमेटी ने लेनिन के लिए बुलावा भेजा। अगली सुबह लेनिन क्शेसिंस्काया महल पहुँचे और सारे प्रदर्शनकारी लेनिन को सुनने के लिए 4 जुलाई की सुबह वहाँ पहुँचे। यहाँ क्या हुआ था, यह हम पहले ही बता चुके हैं।

रैबिनोविच सही दावा करते हैं कि लेनिन पहले लोगों को सम्बोधित नहीं करना चाहते थे लेकिन फिर कई बोल्शेविक नेताओं के कहने पर उन्होंने सम्बोधित करने का आग्रह स्वीकार किया। लेनिन ने अपने भाषण में सब्र बरतने और चौकसी बनाये रखने की अपील की। इस बारे में रैबिनोविच का कहना है कि लेनिन ने प्रदर्शन की शुरुआत के बाद आरज़ी सरकार का तख़्तापलट करने की सम्भावना से इंकार नहीं किया था। इसके समर्थन में वे एक अन्य नेता कालिनिन को उद्धृत करते हैं, जिन्होंने इस मौक़े पर लेनिन से पूछा था कि यह क्या यह सिर्फ़ एक प्रदर्शन हो रहा है या फिर सत्ता क़ब्ज़ा करने की शुरुआत। इसके जवाब में लेनिन ने कहा कि यह वक़्त आने पर ही पता चलेगा। निश्चित तौर पर, लेनिन उस समय यही जवाब दे सकते थे क्योंकि अभी बोल्शेविक भी नहीं जानते थे कि प्रदर्शनकारी किस हद तक उनके नेतृत्व और नियन्त्रण में रहेंगे। लेकिन इसे रैबिनोविच मंशा का प्रश्न बना देते हैं। उनके अनुसार, इरादे के स्तर पर भी लेनिन अभी अनिश्चय की स्थिति में थे और उन्होंने तख़्तापलट करने का विचार त्यागा नहीं था। लेकिन अन्य सभी स्रोतों से सिद्ध किया जा सकता है कि जहाँ तक लेनिन के आकलन, इच्छा और इरादे का प्रश्न था, आरज़ी सरकार का तख़्तापलट करना किसी भी रूप में अभी उनके एजेण्डा पर नहीं था। वह स्पष्ट तौर पर मानते थे कि अभी संकट पका नहीं है और पेत्रोग्राद की स्थिति पूरे रूस की स्थिति नहीं है। लेकिन रैबिनोविच यह अनिश्चय की स्थिति लेनिन पर एक प्रकार से थोप देते हैं। तत्काल क्या सम्भावनाएँ थीं और लेनिन के अनुसार क्या वांछनीय था, इसमें रैबिनोविच फ़र्क़ नहीं करते ताकि 3-5 जुलाई के प्रदर्शनों को वे एक बाधित सशस्त्र विद्रोह (aborted insurrection) के रूप में पेश कर सकें। अगर लेनिन वाक़ई किसी अनिश्चय में थे, तो 4 जुलाई के पूरे घटनाक्रम में ऐसा कुछ नहीं था जो कि उन्हें सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लेने का अनुमोदन करने और इसके लिए निर्देश देने से रोकता। लेकिन लेनिन ने ऐसा नहीं किया; क्योंकि जब यह स्पष्ट हो गया था कि प्रदर्शनकारी मुश्किल से ही सही, मगर बोल्शेविक पार्टी के नियन्त्रण में हैं, तो लेनिन की रणनीति कम-से-कम नुक़सान उठाकर पीछे हटने की थी। इस बात को रैबिनोविच आगे स्वयं भी स्वीकार करते हैं।

रैबिनोविच स्वयं कम-से-कम दो स्थानों पर स्वीकार करते हैं कि 4 जुलाई को जो हिंसा की घटनाएँ हुईं उसके लिए बोल्शेविक नेतृत्व जि़म्मेदार नहीं था। हालाँकि वे दक्षिणपन्थी गिरोहों (जैसे कि ‘ब्लैक हण्ड्रेड्स’) को बचाने का पूरा प्रयास करते हैं और कहते हैं कि हिंसा के लिए पूरा माहौल जि़म्मेदार था। वे लिखते हैं :

”उस समय यह प्रश्न काफ़ी महत्वपूर्ण था कि पहली गोली किसने चलायी। पचास वर्षों बाद, अख़बारी ब्यौरों, दस्तावेज़ों और संस्मरणों के भ्रमित कर देने वाले समुच्चय को देखने से यह प्रभाव छूटता है कि काफ़ी सम्भावना थी कि गोली चलाने को तैयार प्रदर्शनकारी, उकसाने वाले तत्व, दक्षिणपन्थी तत्व और कई बार शुद्ध रूप से भ्रम का माहौल और भय का माहौल बराबर जि़म्मेदार थे।” (वही, 171)

लेकिन आगे वह सच्चाई छिपा नहीं पाते और लिखते हैं :

”जब बीच दोपहर में क़रीब साठ हज़ार लोगों का जुलूस सादोवाइया और अप्राक्सिना मार्गों के कोने पर एक चर्च के पास से गुज़रा, तो एक बार फिर, मानो चर्च की घण्टी के संकेत पर, ऊपरी खिड़कियों और छतों से प्रदर्शनकारियों पर गोलियों की बौछार हुई। बाद में बोग्दातियेव ने आरज़ी सरकार के जाँच आयोग के सामने गर्व से गवाही थी कि पुतिलोव के मज़दूरों ने इन निशानेबाज़ों का इलाज कर दिया।” (वही, पृ. 185)

उस समय के कई बोल्शेविक स्रोतों और अख़बारों से स्पष्ट तौर पर साबित किया जा सकता है कि पहले हमला करने का काम दक्षिणपन्थी गिरोहों ने किया था ताकि प्रदर्शन हिंस्र हो जायेगा और फिर बोल्शेविक पार्टी का दमन करने और उसके ख़ि‍लाफ़ माहौल बनाने में प्रतिक्रान्तिकारी शक्तियों को कोई दिक़्क़त न पेश आये। सही मायने में प्रदर्शनकारियों ने इन हमलों का बेहद सीमित जवाब दिया और इसीलिए मारे गये और हताहत हुए लोगों में दोनों पक्षों की संख्या लगभग बराबर थी। अन्यथा, अगर वे खुलकर इन हमलों का जवाब देते तो उस दिन पेत्रोग्राद से इन दक्षिणपन्थी गिरोहों का सफ़ाया हो गया होता। लेनिन ने अपने लेख ‘एक जवाब’ में इसका साक्ष्यों और प्रमाणों के साथ पूरा ब्यौरा दिया है। लेकिन रैबिनोविच इस लेख को एक बार भी उद्धृत नहीं करते क्योंकि इससे एक ‘बाधित सशस्त्र विद्रोह’ की उनकी थीसिस कूड़े की पेटी के हवाले हो जायेगी। इसलिए वे जानबूझकर चयन करके तथ्यों को पेश करते हैं। सच्चाई यह थी कि बोल्शेविकों ने अपने नेतृत्व में इस प्रदर्शन को अराजकतापूर्ण हिंसा या सशस्त्र विद्रोह के अपरिपक्व प्रयास में तब्दील होने से रोका था।

लेकिन बोल्शेविकों और लेनिन के अनिर्णय और अनिश्चय की बात को रैबिनोविच लगातार पेश करने की कोशिश करते हैं। एक स्थान पर वे लिखते हैं :

”अन्त में, बीच में अनिर्णय के साथ दोलन कर रहे थे क्रोंस्टाट के बोल्शेविक नेता, जो कि आम तौर पर बेहद प्रभावी हुआ करते थे। वे भी अराजकतावादियों के ही समान अधैर्यवान थे कि आरज़ी सरकार का निपटारा कर दिया जाये और निश्चित तौर पर यही धारणा सम्प्रेषित करना चाहते थे कि इस आन्दोलन का शुरू से मक़सद ही यही था, लेकिन पार्टी की केन्द्रीय कमेटी के अनिर्णय के कारण उनके पंख कट गये थे, ठीक उसी प्रकार जैसे कि पिछली रात गैरीसन के सैन्य संगठन के पर कट गये थे।” (वही, पृ. 187)

इस सूचना का स्रोत कौन है? मेंशेविक सुखानोव! उपरोक्त उद्धरण की पश्चटिप्पणी में रैबिनोविच सुखानोव का हवाला देते हैं। लेकिन उसके ठीक आगे प्रत्यक्षवादी ईमानदारी से मजबूर होकर उन्हें सैन्य संगठन के नेता नेव्स्की का भी उद्धरण देना पड़ा है जिसमें नेव्स्की ने स्पष्ट किया है कि इस अनिर्णय की स्थिति का क्या अर्थ था। बोल्शेविक नेतृत्व तौरीदा महल के बाहर एकत्र लोगों को किसी कार्रवाई का निर्देश नहीं दे रहा था क्योंकि उसे किसी कार्रवाई का निर्देश देना ही नहीं था! उसका लक्ष्य ही यही था कि इसे जनसमुदायों की इच्छा को सोवियत के समक्ष पेश करने वाले एक प्रदर्शन के रूप में समाप्त किया जाये। इसलिए प्रदर्शन में भाषण हो रहे थे, बीच-बीच में कुछ प्रतिनिधि मण्डल सोवियत के पास भेजे जा रहे थे। लेकिन किसी कार्रवाई का निर्देश नहीं दिया जा रहा था। आम जनता की निगाह में, जो कि कार्रवाई के लिए उतावली हो रही थी, यह अनिर्णय जैसा ही दिखलायी देगा। बीच में जनता का सब्र थोड़ा टूट भी गया और एक अराजकतावादी नाविक की गिरफ़्तारी पर सफ़ाई देने आये समाजवादी-क्रान्तिकारी मन्त्री विक्तोर चेर्नोव को प्रदर्शनकारियों ने हिरासत में भी ले लिया था, जिसे त्रात्स्की और रैस्कॉलनिकोव छुड़ाकर ले गये। (हालाँकि इसके बाद डरे हुए चेर्नोव ने बोल्शेविकों के ख़ि‍लाफ़ काफ़ी विषवमन किया और उनके ख़ि‍लाफ़ कड़ी कार्रवाई की वकालत की क्योंकि इस गिरफ़्तारी के सदमे से वे काफ़ी समय तक उबर नहीं पाये थे!) लेकिन इस अलग-थलग अकेली घटना को छोड़ दिया जाये तो प्रदर्शनकारियों ने बोल्शेविकों द्वारा कोई निर्देश नहीं दिये जाने पर कोई कार्रवाई नहीं की। लेकिन कोई निर्देश नहीं दिया जाना प्रदर्शनकारियों के बीच मौजूद अतिवादी तत्वों के लिए अनिर्णय और अनिश्चय जैसा दिख रहा था। लेकिन स्पष्ट तौर पर यह बोल्शेविक यो‍जना का हिस्सा था। वास्तव में, लेनिन समेत बोल्शेविक नेतृत्व किसी अनिर्णय की स्थिति में नहीं था।

जब बोल्शेविक पार्टी प्रदर्शन को वापस लेने की सार्वजनिक घोषणा लागू कर देती है, रैबिनोविच के अनुसार लगभग उस समय तक भी सत्ता पर क़ब्ज़ा करने का विकल्प उसने खुला रखा था और इसीलिए यह सार्वजनिक घोषणा प्राव्दा के पिछले पेज पर 5 जुलाई को प्रकाशित हुई थी। यह विचित्र बात है क्योंकि 4 जुलाई की शाम से ही यह स्पष्ट हो गया था कि प्रदर्शन की लहर अब ढलान पर है और रैबिनोविच स्वयं इसके कई कारण बताते हैं। 4 जुलाई की रात तक यह स्पष्ट हो गया था कि अगले दिन 3 और 4 जुलाई के घटनाक्रम की पुनरावृत्ति नहीं होने वाली है। ऐसे में, यह स्वाभाविक था कि प्राव्दा ने यह सूचना पिछले पेज पर प्रकाशित की। इसके आधार पर यह अटकल लगाना कि बोल्शेविक अभी भी सशस्त्र विद्रोह के लिए माकूल मौक़े के इन्तज़ार में थे, हास्यास्पद है। एक स्थान पर रैबिनोविच अपनी पूरी विचित्र अवस्थिति को थोड़ा सन्तुलित करने के लिए एक और भी विचित्र बात कहते हैं। वह कहते हैं कि सुखानोव के पूरे ब्यौरे पर पूरी तरह निर्भर रहते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि लेनिन किसी असफल विद्रोह का नेतृत्व कर रहे थे क्योंकि लेनिन इसे एक सशस्त्र विद्रोह के रूप में नहीं देखते थे; लेकिन फिर भी लेनिन ने 4 और 5 जुलाई को सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के विकल्प को त्यागा नहीं था! इसका क्या अर्थ है? ज़ाहिर है, रैबिनोविच तय नहीं कर पा रहे हैं कि वे सीधे लेनिन को एक सशस्त्र विद्रोह के योजनाकार के रूप में दिखायें या नहीं। तथ्य क़तई इस पक्ष में नहीं हैं, लेकिन रैबिनोविच की थीसिस उन्हें द्रविड़ प्राणायाम करने को मजबूर करती है।

छठे अध्याय के अन्त में एक बार फिर से रैबिनोविच केन्द्रीय कमेटी और प्राव्दा की अवस्थिति और सोल्दात्स्काइया प्राव्दा की अवस्थिति में अन्तर पैदा करने का प्रयास करते हैं। 5 जुलाई को सोल्दात्स्काइया प्राव्दा में एक सम्पादकीय अग्रलेख छपा जिसका शीर्षक था ”सड़कों पर क्या हो रहा है”। इस लेख में यह कहा गया था कि जो प्रदर्शन हुआ है सर्वहारा वर्ग की पार्टी ने उसके नेतृत्व को स्वीकार किया है और आगे भी वह सोवियतों को सत्ता स्थानान्तरित करने के संघर्ष में सर्वहारा वर्ग को नेतृत्व प्रदान करती रहेगी, तब तक जब तक कि यह संघर्ष जीत नहीं लिया जाता। रैबिनोविच इसे बोल्शेविक संगठन के वामपन्थी भटकाव का नमूना मानते हैं, जिससे केन्द्रीय कमेटी को देर में यह समझ आया कि आम बग़ावत के लिए अभी समय उपयुक्त नहीं है। एक बार फिर हम देख सकते हैं कि इस लेख की रैबिनोविच द्वारा मनमानी व्याख्या की गयी है। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं है जो कि बोल्शेविक सैन्य संगठन के वामपन्थ को दिखलाये। निश्चित तौर पर, आबादी का जो हिस्सा सबसे ज़्यादा सुलग रहा था उसके बीच प्रदर्शन को फि़लहाल रोक लेने के लिए जो अपील जारी होती, उसके शब्द कुछ ऐसे ही हो सकते थे। लेकिन चूँकि रैबिनोविच हर मौक़े पर केन्द्रीय कमेटी, पीटर्सबर्ग कमेटी और बोल्शेविक सैन्य संगठन के बीच दीवारें खड़ी करना चाहते हैं, इसलिए सोल्दात्स्काइया प्राव्दा के इस सम्पादकीय की भी वे मनमानी व्याख्या करते हैं।

जुलाई प्रदर्शन का दमन और प्रतिक्रिया का दौर : रैबिनोविच की अटकलें

आख़ि‍री दो अध्यायों में रैबिनोविच अपनी विभाजित पार्टी की थीसिस के समर्थन में कुछ अन्तिम व्याख्याएँ पेश करते हुए उसे मुकाम तक पहुँचाते हैं। 3-5 जुलाई के प्रदर्शनों के वापस लिए जाने के फ़ैसले के साथ बोल्शेविक पार्टी ने रैस्कॉ‍लनिकोव को यह जि़म्मेदारी दी कि सशस्त्र प्रदर्शनकारियों को वापस ले जायें और इस प्रक्रिया में प्रदर्शनकारियों पर दक्षिणपन्थियों के हमलों से भी निपटें। यही कारण था कि रैस्कॉलनिकोव ने क्रोंस्टाट के नाविकों को एक अतिरिक्त दिन राजधानी में रहने की आज्ञा दी। रैबिनोविच लगातार इस बात पर शक करते हैं कि ये सारे इन्तज़ामात किस हद तक आत्मरक्षा के लिए किये जा रहे थे और किस हद तक अपनी ओर से हमला करने के लिए, यह बता पाना मुश्किल है। यहाँ भी रैबिनोविच यह छवि पेश करना चाहते हैं कि पार्टी द्वारा प्रदर्शन की वापसी के एलान के बाद भी सैन्य संगठन स्वायत्तता के साथ काम कर रहा था। लेकिन रैबिनोविच स्वयं बताते हैं कि रैस्कॉ‍लनिकोव ने अपने संस्मरणों में लिखा कि प्राव्दा के कार्यालय के ध्वंस की ख़बर आ चुकी थी और यह स्पष्ट था कि क़दम पीछे हटाते हुए भी आत्मरक्षा के पूरे इन्तज़ामात करने होंगे। इसीलिए रैस्कॉलनिकोव ने सैनिकों को भी सावधान कर दिया था। बैरकों में पहुँच चुके सैनिकों को भी सावधान कर दिया गया था कि ज़रूरत पड़ने पर उन्हें भी आना पड़ सकता है। लेकिन रैस्कॉलनिकोव ने स्पष्ट शब्दों में बतलाया था कि ये सारे क़दम केवल और केवल आत्मरक्षा के लिए उठाये जा रहे थे। जबकि रैबिनोविच आगे लिदाक द्वारा लिखी गयी और 1932 में छपी बोल्शेविक क्रान्ति के इतिहास पर लिखे एक निबन्ध का हवाला देते हुए बताते हैं कि इसमें लिदाक ने बताया है कि यह बता पाना मुश्किल था कि सैन्य संगठन ने 5 जुलाई को जो-जो क़दम उठाये थे, वे सभी आत्मरक्षा के लिए ही थे या नहीं। लेकिन रैबिनोविच यह खुलासा इस निबन्ध की चर्चा के साथ नहीं करते, बल्कि पश्च टिप्पणी में करते हैं कि इस निबन्ध पर सम्पादक ने एक टिप्पणी लगायी थी जिसमें लिखा था कि लिदाक की इस सूचना को प्रमाणों से पुष्ट नहीं किया जा सका। यह ज़रूर है कि पीछे हटते हुए आत्मरक्षा के लिए कहीं-कहीं कुछ बोल्शेविक सैनिकों ने हमलावर क़दम भी उठाये थे, लेकिन यह आम रुझान नहीं था और अलग-थलग कुछ घटनाएँ थीं। ज़ाहिर है, जिन स्थितियों में प्रदर्शन को वापस लिया गया था और जिस प्रकार सैनिकों को वापस बैरकों में ले जाना था, उसमें इस प्रकार की छिटपुट घटनाएँ होना लाज़ि‍मी था। क़दम पीछे हटाना और वह भी कम-से-कम नुक़सान उठाकर हमेशा ही कठिन होता है, और दी गयी स्थितियों में तो यह और भी कठिन था। लेकिन इसे सैन्य संगठन की स्वायत्ततावादी हरकत क़रार देना रैबिनोविच की ग़लती है।

जिस उपशीर्षक के मातहत सातवें अध्याय में रैबिनोविच बोल्शेविकों द्वारा प्रदर्शन को वापस लिये जाने और क़दम पीछे हटाने की बात कर रहे हैं, उसका नाम है ‘पेत्रोग्राद बोल्शेविकों का आत्मसमर्पण’। यह उपशीर्षक कुछ दुरुस्त नहीं है। निश्चित तौर पर, शहर के जिन हिस्सों पर प्रदर्शनकारियों का क़ब्ज़ा था, या जिन इमारतों पर उनका प्रभाव या क़ब्ज़ा था, पार्टी ने उनका समर्पण करने का निर्देश दे दिया था। सैनिकों को एक प्रक्रिया में उनकी गैरीसनों में वापस भेजा गया। लेकिन बोल्शेविक नेता जिसमें लेनिन, पोदवाॅइस्की आदि शामिल थे, वक़्त रहते पलायन कर गये थे और भूमिगत हो गये थे। इस बात का ब्यौरा रैबिनोविच ख़ुद ही देते हैं। प्रमुख नेताओं में त्रात्स्की व ज़ि‍नोवियेव गिरफ़्तार कर लिये गये थे। लेनिन के आत्मसमर्पण का अर्थ होता उनकी जान को प्रतिक्रान्तिकारियेां के हाथों में सौंपना। प्रतिक्रान्तिकारियेां के लिए पहला निशाना लेनिन ही थे। लेकिन किसी भी रूप में बोल्शेविकों ने क़दम पीछे हटाये थे, आत्मसमर्पण नहीं किया था। इस ग़लती के बावजूद रैबिनोविच ने प्रदर्शन वापस लिये जाने के बाद बोल्शेविक पार्टी के क्रिया-कलाप का जो जीवन्त चित्र पेश किया है वह पठनीय है। इसमें बोल्शेविक पार्टी का अनुशासन, अपने नेताओं और पार्टी के मस्तिष्क यानी केन्द्रीय कमेटी को बचाने के लिए इसके आम सदस्यों में क़ुर्बानी की भावना शानदार थी। ग़ौरतलब है, जब क्शेसिंस्काया महल पर प्रतिक्रान्तिकारी ताक़तें क़ब्ज़ा करने वाली थीं, उस समय सात बोल्शेविक जल्दी-जल्दी पार्टी की सभी फ़ाइलों को समेट रहे थे; प्रमुख नेताओं जैसे कि लेनिन व पोदवॉइस्की को पहले ही वहाँ से निकाल दिया गया था। बोल्शेविकों के काम करने के तौर-तरीक़ों के बारे में रैबिनोविच का ब्यौरा बहुमूल्य है।

रैबिनोविच बताते हैं कि प्रदर्शन को वापस लिये जाने के बाद प्रतिक्रिया का एक दौर चला जिसमें पेत्रोग्राद में बोल्शेविक पार्टी की लोकप्रियता कुछ समय के लिए घट गयी थी। पार्टी कार्यों का काफ़ी नुक़सान हुआ था जैसा कि प्रदर्शन के वापस लिये जाने के तत्काल बाद की बैठक में लेनिन ने पूर्वानुमान किया था। लेनिन के जर्मन एजेण्ट होने की अफवाह को पूँजीवादी मीडिया और सरकार ने खूब हवा दी और मोर्चों पर हो रही हार की जि़म्मेदारी बोल्शेविकों व लेनिन के सिर डालने का प्रयास किया। लेकिन यह प्रतिक्रिया का माहौल ज़्यादा लम्बा नहीं चल सका और कुछ ही समय में बोल्शेविकों का सितारा फिर से बुलन्दी पर जाने लगा। रूस में भूख, ग़रीबी और युद्ध के कारण भयंकर असन्तोष का माहौल एक बार फिर व्यापक आबादी को अपने प्रभाव में लेने लगा। रैबिनोविच का यह मूल्यांकन भी बिल्कुल दुरुस्त है कि अपनी बेहद चुस्त-दुरुस्त पार्टी सांगठनिक मशीनरी के कारण दमन के दौर में भी बोल्शेविक पार्टी को ज़्यादा नुक़सान नहीं उठाना पड़ा। समूचे पार्टी ढाँचे को, इसके प्रमुख नेताओं को और इसके बुनियादी ज़रूरी सम्पर्कों को कुशलतापूर्वक बचा लिया गया। प्राव्दा व अन्य बोल्शेविक मुखपत्रों को दबाये जाने के कुछ ही दिनों के भीतर बदले हुए नामों के साथ नये बोल्शेविक मुखपत्र निकलने लगे। संक्षेप में कहें तो बोल्शेविकों ने अपना सामाजिक आधार और अपनी सांगठनिक मशीनरी को फिर से हासिल करने और रवां करने में ज़्यादा वक़्त नहीं गंवाया।

लेकिन रैबिनोविच पूरा श्रेय बोल्शेविकों को नहीं देते और एक बार फिर रूसी बुर्जुआ वर्ग को एक मौक़ा चूकने के लिए कोसते हुए प्रतीत होते हैं। रैबिनोविच दावा करते हैं कि आरज़ी सरकार का सरकारी मशीनरी और नौकरशाही पर कोई नियन्त्रण नहीं था। नतीजा यह हुआ कि आरज़ी सरकार के आदेश के बावजूद 3-5 जुलाई के बीच सर्वाधिक सक्रिय रही रेजीमेण्टों व गैरीसनों को निशस्त्र करने का कार्य भी ढंग से नहीं किया जा सका। बस इन रेजीमेण्टों को तोड़ दिया गया ताकि उनके बीच की एकजुटता को तोड़ा जा सके और फिर उन्हें अलग-अलग हिस्सों में मोर्चे पर भेज दिया गया। लेकिन यह करने के अलावा आरज़ी सरकार और क्या कर सकती थी? ज़ाहिर है कि मोर्चे पर उसे सैनिकों की आवश्यकता थी। इसलिए वह सबसे विद्रोही तेवर रखने वाली रेजीमेण्टों को तोड़कर मोर्चे पर ही भेज सकती थी; सभी को निशस्त्र करने का अर्थ होता समूची रिज़र्व ताक़त को समाप्त करना। जिस स्थिति में उस समय आरज़ी सरकार थी, उसमें उसने वह सबकुछ किया जो वह कर सकती थी। यह सरकारी अधिकारियों की अकर्मण्यता का या फिर उनके आधे-अधूरे मन से किये गये प्रयासों का प्रश्न नहीं था। यदि इस तर्क को माना जाये तो इसका यह नतीजा निकलता है कि अगर आरज़ी सरकार ने प्रतिक्रिया के माहौल का पूरी कुशलता और समझदारी से फ़ायदा उठाया होता तो फिर से बोल्शेविकों के उभार को रोका जा सकता था। हालाँकि, रैबिनोविच सीधे यह बात कहीं नहीं कहते और अलग से वे एक स्थान पर स्वीकार भी करते हैं कि यह बदलती परिस्थिति और बोल्शेविकों की कुशलता थी, जिसे इसका श्रेय दिया जाना चाहिए। रैबिनोविच बताते हैं कि मज़दूर अपने हथियार छिपाने में कामयाब हुए और जिनसे हथियार ले लिये गये थे, उन्हें कोर्निलोव के तख़्तापलट के प्रयास के दौरान पेत्रोग्राद सोवियत ने ख़ुद ही फिर से हथियारबन्द कर दिया था। कुल मिलाकर, नतीजा यह था कि बोल्शेविक पार्टी बेहद कम नुक़सान उठाकर और प्रतिक्रिया के छोटे-से दौर के बाद फिर से बेहद लोकप्रिय हो गयी और क्रान्ति को नेतृत्व देने की स्थिति में आ गयी।

रैबिनोविच जुलाई की घटनाओं को लेकर छठी पार्टी कांग्रेस में हुई बहस का ब्यौरा देते हैं। 1905 की असफल क्रान्ति के समय सैन्य संगठन ने अतिरेकपूर्ण स्वायत्तता का प्रदर्शन किया था और इसके लिए उसकी आलोचना की गयी थी। छठी कांग्रेस में भी कुछ लोगों ने सैन्य संगठन पर अति-स्वायत्तता प्रदर्शित करने और केन्द्रीय कमेटी के निर्देशों को शब्दश: न लागू करने और साथ ही सैनिकों में विद्रोह की भावना पर नियन्त्रण करने के लिए पर्याप्त क़दम न उठाने का आरोप लगाया। इनमें से त्रात्स्की और कामेनेव ने तो यहाँ तक प्रस्ताव रखा कि एक अलग सैन्य संगठन की ज़रूरत पार्टी को नहीं है। लेकिन कांग्रेस ने उनके इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया और स्पष्ट किया कि क्रान्ति की सैन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सैन्य संगठन का अस्तित्व अपरिहार्य है, लेकिन इसे केन्द्रीय कमेटी की कमान के मातहत रहना चाहिए। ऐसा नहीं था कि इसके पहले सैन्य संगठन केन्द्रीय कमेटी की कमान में नहीं था। जैसा कि हमने उपरोक्त ब्यौरे में देखा, सैन्य संगठन का नेतृत्व हमेशा केन्द्रीय कमेटी के निर्णयों को लागू करने के लिए संघर्ष और प्रयास करता रहता था। जुलाई के शुरुआती दिनों में यह काम ही बेहद मुश्किल था। स्थितियाँ विस्फोटक थीं और अराजकतावादी ताक़तें आग में घी डालने का काम कर रही थीं; ऐसी स्थितियों में सैन्य संगठन का नेतृत्व जो कर सकता था वह उसने किया था। साथ ही, यह भी ध्यान देने वाली बात है कि सैन्य संगठन के अधिकांश लोग सेना में थे और बहुत अलग क़ि‍स्म की परिस्थितियों में रहते थे; इस बात को पार्टी भी समझती थी। ऐसे में, बोल्शेविक सैन्य संगठन ने बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में काफ़ी अच्छा काम किया था। बाद में, स्वयं लेनिन ने कहा था कि सैन्य संगठन के लोगों से अगर ग़लतियाँ भी हुईं हों तो उनकी मदद की जानी चाहिए क्योंकि जो लोग पहलक़दमी लेना नहीं जानते, वे कभी जीतने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं और जो पहलक़दमी लेते हैं, उनसे ग़लतियाँ हो सकती हैं। रैबिनोविच आगे लिखते हैं कि सैन्य संगठन और पीटर्सबर्ग कमेटी के मुखपत्रों को केन्द्रीय कमेटी ने अपने मातहत ले लिया और यह तय हुआ कि ये मुखपत्र पूरी तरह से  केन्द्रीय कमेटी के नियन्त्रण में रहेंगे। रैबिनोविच को यह लगता है कि यह पीटर्सबर्ग कमेटी व सैन्य संगठन की स्वायत्तता को दबाने के लिए उठाया गया क़दम है। वास्तव में, बोल्शेविक पार्टी के बुनियादी उसूलों के मद्देनज़र यह क़दम बिल्कुल सही था और इसे पहले ही उठा लिया जाना चाहिए था।

लेकिन रैबिनोविच इस घटनाक्रम को अपने ‘विभाजित पार्टी’ के सिद्धान्त के अनुसार व्याख्यायित करते हैं। अगर यह सिद्धान्त सही है तो सैन्य संगठन और पीटर्सबर्ग कमेटी को ये निर्णय स्वीकार नहीं करने चाहिए थे। लेकिन उन्होंने ये निर्णय स्वीकार किये। साथ ही, रैबिनोविच इस क़दम को केन्द्रीय कमेटी द्वारा क़दम पीछे हटाना मानते हैं कि केन्द्रीय कमेटी ने बाद में सैन्य संगठन को एक केन्द्रीय कमेटी सदस्य की निगरानी में सोल्दात का प्रकाशन जारी रखने की इजाज़त दी। ज़ाहिर है, सैन्य संगठन अपना अलग मुखपत्र सैनिकों के लिए निकाले इस पर केन्द्रीय कमेटी की आपत्ति नहीं थी। केन्द्रीय कमेटी का मूल तर्क यह था कि यह मुखपत्र केन्द्रीय कमेटी की कार्यदिशा के अनुरूप निकलना चाहिए।  इस प्रकार की बहस केन्द्रीय कमेटी के भीतर और केन्द्रीय कमेटी और पीटर्सबर्ग कमेटी व सैन्य संगठन के बीच होना स्वाभाविक था। पीटर्सबर्ग कमेटी की यह माँग भी स्वाभाविक थी कि प्राव्दा को पीटर्सबर्ग में पीटर्सबर्ग कमेटी की प्रचारात्मक और उद्वेलनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहिए। इसीलिए लेनिन ने प्राव्दा के सम्पादक मण्डल में परामर्श की शक्ति के साथ पीटर्सबर्ग कमेटी के प्रतिनिधियों को जगह देने की हिमायत की। लेकिन निश्चित तौर पर, अलग-अलग कमेटियों के पूर्ण रूप से स्वायत्त मुखपत्र नहीं हो सकते और यह बात बोल्शेविक पार्टी का नेतृत्व भी व्यवहार के ज़रिये ही समझ सकता था। इस पूरे प्रकरण को ‘विभाजित पार्टी’ की अपनी अवधारणा को पुष्ट करने के लिए रैबिनोविच इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उनके ही अनुसार ‘विभाजित पार्टी’ से उनका अर्थ था कि पार्टी के भीतर तीन सत्ता केन्द्र यानी केन्द्रीय कमेटी, पीटर्सबर्ग कमेटी और बोल्शेविक सैन्य संगठन मौजूद थे जिनके अलग-अलग लक्ष्य और अलग-अलग हित थे। हमने रैबिनोविच की लगभग पूरी पुस्तक का सार इस आलोचना के ज़रिये यहाँ पेश किया है। सच्चाई यह है कि रैबिनोविच के ही इतिहास-लेखन से ‘विभाजित पार्टी’ की उनकी अवधारणा को पुष्ट नहीं किया जा सकता है। चूँकि पूरी पुस्तक कई तथ्यों की ग़लत प्रस्तुति और व्याख्या के बावजूद रैबिनोविच के मूल तर्क से अलग कुछ कह रही है, इ‍सलिए रैबिनोविच एक अन्तिम अध्याय लिखने की आवश्यकता महसूस करते हैं : ‘परिणाम : विभाजित पार्टी’, मानो बाकी पुस्तक में वे कुछ और कहने का प्रयास कर रहे हों!

अन्तिम अध्याय में एक सच्चे उदार बुर्जुआ इतिहासकार के समान रैबिनोविच एक आदर्श शुरुआत करते हैं और कहते हैं कि सोवियत रूस में शुरू से ही पार्टी लेखन को पार्टी की राजनीतिक आवश्यकताओं के अनुसार नियन्त्रित किया जाता था। हम देख सकते हैं कि इस बात को रैबिनोविच ज़्यादातर 1956 के बाद के इतिहास-लेखन पर लागू कर रहे हैं क्योंकि उसके पहले के जो स्रोत रैबिनोविच उद्धृत करते हैं, उन्हें वे अनुमोदन के साथ और अपनी थीसीज़ को सिद्ध करने के लिए उद्धृत करते हैं।

रैबिनोविच इस बात से दुखी हैं कि सोवियत स्रोतों और इतिहास-लेखन में जो भी लेनिन की कार्यदिशा से विचलन करता है उसे दक्षिणपन्थी कहकर, जैसे कि कामेनेव को कहा गया, फिर वामपन्थी कहकर, जैसे कि सेमाश्को को कहा गया, ख़ारिज कर दिया जाता है। निश्चित तौर पर जब मार्क्सवादी-लेनिनवादी इतिहासकार इतिहास लिखेंगे तो अपने अप्रोच और पद्धति के अनुसार ही लिखेंगे; ठीक उसी प्रकार जैसे रैबिनोविच ने अपने दृष्टिकोण और पद्धति के अनुसार अपना इतिहास-लेखन किया है। यह उम्मीद करना कि किसी इतिहास-लेखन में इतिहासकार के विचारधारात्मक और राजनीतिक पूर्वाग्रह नहीं होंगे, एक पूर्ण रूप में वस्तुपरक इतिहास की कोरी कल्पना है। यह ‘वस्तु अपने आप में’ और उस वस्तु के प्रेक्षण के बीच फ़र्क़ नहीं करता जिन पर हर-हमेशा किसी न किसी वर्गीय दृष्टिकोण की छाप होती है। इस प्रकार की सोच प्रत्यक्षवाद की ख़ासियत होती है, जिसकी स्पष्ट छाप रैबिनोविच के इतिहास-लेखन पर है।

परिणाम के तौर पर रैबिनोविच अपने इस दावे को दुहराते हैं कि सोवियत इतिहास-लेखन में हमें पार्टी में जारी वास्तविक बहसों और मतभेदों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है। हमने ऊपर ही बताया है कि 1953 के पहले के सोवियत स्रोतों के बारे में और विशेष तौर पर 1930 के दशक के पूर्वार्द्ध तक के सोवियत स्रोतों के बारे में यह दावा सही नहीं ठहरता है। साथ ही, यह भी अजीब बात है कि रैबिनोविच प्रमुख बोल्शेविक नेताओं में से त्रात्स्की को छोड़कर किसी अन्य को उद्धृत नहीं करते हैं।

रैबिनोविच अप्रैल सम्मेलन (सातवें अखिल रूसी पार्टी सम्मेलन) के बारे में कहते हैं कि कुछ सोवियत इतिहासकार अब (यानी 1961 के बाद, जबकि यह पुस्तक लिखी गयी थी) यह मानते हैं कि अप्रैल में लेनिन के आने के पहले पार्टी में मतभेद थे लेकिन लेनिन के आगमन के बाद सारे मतभेद समाप्त हो गये। इसके बारे में यह कहा जा सकता है कि कम-से-कम लेनिन और स्तालिन के लेखन से ऐसी तस्वीर क़तई नहीं मिलती। यहाँ तक कि ‘बोल्शेविक पार्टी का इतिहास’ में भी अप्रैल के बाद जारी मतभेदों की एक तस्वीर मिल जाती है। यह एक दीगर बात है कि यह तस्वीर कई बार सटीक नहीं भी हो सकती है। रैबिनोविच शिकायत करते हैं कि अप्रैल सम्मेलन में लेनिन ने जो कार्यदिशा पेश की वह काफ़ी ढीली-ढाली थी और जो प्रस्ताव उसके आधार पर स्वीकार किया गया उसे दक्षिणपन्थी कामेनेव अपनी तरह से व्याख्यायित कर सकते थे, और जल्दबाज़ वामपन्थी धड़ा अपनी तरह से व्याख्यायित कर सकता था। इसका कारण रैबिनोविच के अनुसार यह था कि लेनिन ने यह तो बताया था कि बुर्जुआ जनवादी चरण से क्रान्ति समाजवादी चरण में जा रही है लेकिन यह नहीं बताया था कि सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के लिए आम बग़ावत कब की जानी है। पार्टी के एक सम्मेलन में पेश प्रस्ताव से यह उम्मीद करना कि वह आम बग़ावत का समय और तिथि बताये क्या मूर्खतापूर्ण नहीं माना जायेगा? और इस आधार पर कि आम बग़ावत का समय नहीं बताया गया, यह कहना कि यह प्रस्ताव बहुत ढीला-ढाला था जिसके आधार पर दक्षिणपन्थी धड़े और वामपन्थी धड़े को अपनी-अपनी कार्यदिशा लागू करने का ‘स्पेस’ मिल जाता था, किस हद तक समझदारी की बात मानी जायेगी? स्पष्ट है, रैबिनोविच ‘विभाजित पार्टी’ के अपने तर्क को सही सिद्ध करने के लिए विरोधाभासों के गड्ढे में गिर जाते हैं।

नतीजे के तौर पर…

जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि रूसी क्रान्ति के इतिहास के सभी विद्यार्थियों को और विशेष तौर पर मार्कसवादियों-लेनिनवादियों को रैबिनोविच की यह पुस्तक और उनकी बाकी दो पुस्तकें अवश्य पढ़नी चाहिए। कारण यह है कि ये पुस्तकें उस दौरान हो रहे घटनाक्रम के लगभग एक-एक दिन का ब्यौरा देती हैं। तथ्यों का चयन करने में कई बार रैबिनोविच चयनपूर्ण रवैया अपनाते हैं, कुछ सीमित मौक़ों पर वे ग़लत तथ्यों पर या तथ्यों की ग़लत प्रस्तुति पर भी निर्भर करते हैं। लेकिन इसके बावजूद अधिकांश जगहों पर रैबिनोविच सही तथ्यों को ही पेश करते हैं, भले ही उनकी व्याख्या वह ग़लत करते हों। इसलिए उनकी पुस्तक क्रान्ति के दौरान की, विशेष तौर पर पेत्रोग्राद की और उस दौरान बोल्शेविक पार्टी और उसके नेतृत्व द्वारा किये जा रहे हस्तक्षेपों की, एक जीवन्त तस्वीर पेश करती है। इस रूप में उनकी तीनों ही पुस्तकें महत्वपूर्ण हैं। हमने यहाँ केवल पहली पुस्तक की आलोचनात्मक समीक्षा रखी है। पिछले अध्याय में हमने उनकी दूसरी पुस्तक की कुछ ख़ामियों की ओर भी इशारा किया है। लेकिन यहाँ तीनों पुस्तकों की आलोचनात्मक समीक्षा रखने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि रैबिनोविच अपनी बुनियादी थीम पर क़ायम रहते हैं। इन तीनों ही रचनाओं में वे ‘विभाजित पार्टी’ के अपने सिद्धान्त को वैध ठहराने का प्रयास करते हैं।

जैसा कि हमने इस आलोचना में देखा है, स्वयं रैबिनोविच का ही इतिहास-लेखन इस निर्णय को या इस मूल्यांकन को पुष्ट नहीं करता है। जब वे एक प्रत्यक्षवादी और अनुभववादी इतिहासकार के रूप में तथ्यों को दर्ज और व्यवस्थित कर रहे होते हैं तो वहाँ वे चयनपूर्ण तरीक़े से तथ्यों का चयन करने के अलावा ज़्यादा फेर-बदल नहीं कर सकते हैं। यही कारण है कि उन्हें अपनी व्याख्याओं को अलग से जोड़ना पड़ता है। यानी कि ये व्याख्याएँ और ये नतीजे विचारधारात्मक होते हैं। यदि पाठक रैबिनोविच के इतिहास-लेखन की इन समस्याओं से वाक़िफ़ हो तो उनकी पुस्तक उपयोगी साबित हो सकती है।

(अगले अंक में जारी)

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

फ़ासीवाद के प्रतिरोध की रणनीति का प्रश्न

गुजरात व हिमाचल के चुनाव और फ़ासीवाद के प्रतिरोध की रणनीति का प्रश्न

  • सम्‍पादक मण्‍डल 

हालिया चुनावों के नतीजे अपेक्षाओं के अनुरूप ही थे। जैसा कि हिमाचल प्रदेश में हमेशा होता है, जिस पार्टी की सरकार थी वह पार्टी चुनाव हार गयी। कांग्रेस की जगह प्रदेश में भाजपा की सरकार बन गयी। लेकिन गुजरात चुनावों में तथाकथित मोदी लहर की गिरावट के स्पष्ट संकेत मिले। अभी हम ईवीएम के साथ छेड़छाड़ और चुनाव आयोग द्वारा स्पष्ट तौर पर भाजपा के ‘बाह्य अघोषित विभाग’ के रूप में काम करने के पहलू पर बात न भी करें, तो इतना स्पष्ट है कि तथाकथित मोदी लहर गिरावट के पहले लक्षण प्रदर्शित कर रही है। अगर हम चार महानगरों यानी अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा और राजकोट के नतीजों को अलग कर दें, तो कांग्रेस ने यह चुनाव अच्छे अन्तर से जीता है। कांग्रेस के इस पुनरुत्थान का कारण है कि नोटबन्दी और जीएसटी जैसे जनविरोधी आर्थिक क़दमों के कारण मोदी सरकार का घटता सामाजिक आधार। इसके अलावा, कुछ दीर्घकालिक कारक भी काम कर रहे थे, जैसे कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से बेरोज़गारी, महँगाई और खेती के संकट का अभूतपूर्व रफ्तार से बढ़ना। इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद से ही जनविरोधी और पूँजीपरस्त नीतियों को धड़ल्ले से और तानाशाहाना तरीक़े से लागू करना शुरू किया। मोदी को सत्ता में पहुँचाने के लिए बड़े पूँजीपतियों और साम्राज्यवादी पूँजी ने इसीलिए तो हज़ारों करोड़ रुपये मोदी के चुनाव प्रचार में पानी की तरह बहाये थे। और मोदी के सत्ता में आने के बाद से संकट झेल रहे पूँजीपति वर्ग ने मोदी सरकार को और भाजपा को अपना सहयोग और समर्थन अभूतपूर्व रूप से बढ़ाया है। इसकी इन्तहा इस बात में देखी जा सकती है भाजपा के अतिरिक्त अन्य पूँजीवादी पार्टियों को चुनावों के लिए पर्याप्त चन्दा पूँजीपति घरानों से नहीं मिल रहा है। मोदी द्वारा नवउदारवादी नीतियों को धक्काज़ोरी से आगे बढ़ाने में किसी को भी आश्चर्य नहीं होता क्योंकि फ़ासीवाद हमेशा ही बड़े पूँजी के सबसे प्रतिक्रियावादी धड़े की ”सबसे बर्बर और नग्न तानाशाही” होता है। मोदी सरकार इस आम नियम का अपवाद नहीं है।

मोदी सरकार और संघ परिवार ने इन नवउदारवादी नीतियों के समर्थन सन्दर्भ के तौर पर साम्प्रदायिक फ़ासीवादी प्रचार और अभियानों को जमकर बढ़ावा दिया है, जैसे कि ‘लव जिहाद’, ‘गोरक्षा’, ‘घर वापसी’ आदि। यह भी स्वाभाविक है और राजनीतिक तौर पर सचेत हर व्यक्ति पहले से ही जानता था कि मोदी सरकार नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के साथ-साथ फ़ासीवादी लम्पट गिरोहों को खुला हाथ दे देगी, सभी प्रगतिशील शक्तियों पर हमला करेगी, साम्प्रदायिक तनाव को हवा देगी और भीड़ द्वारा अल्पसंख्यकों की हत्या को खुली छूट दे देगी, तर्कवादियों की हत्याओं को बढ़ावा देगी, युवाओं के व्यवस्थित फ़ासीवादीकरण के लिए पाठ्यक्रम में बदलाव करेगी, पूँजीवादी जनवादी प्रक्रियाओं और संस्थाओं को निलम्बित व बरबाद करेगी, भले ही संसदीय जनवाद का ढाँचा औपचारिक तौर पर क़ायम रहे और यह सबकुछ हिन्दुत्व राष्ट्रवाद के नाम पर किया जायेगा। इस सब में भी कुछ अचरज पैदा करने वाला नहीं है। फ़ासीवाद हमेशा से ही सबसे रोगात्मक क़ि‍स्म की धार्मिक कट्टरता/नस्लवाद/प्रवासी-विरोध, अन्धराष्ट्रवाद, आधुनिक पुनरुत्थानवाद, विक्षिप्त क़ि‍स्म के प्रगतिशीलता-विरोध, मित्तेलस्टाण्ड (टटपुँजिया वर्ग) के रूमानी उभार का मिश्रण रहा है, जो कि मज़दूर वर्ग के भी एक हिस्से को अपने साथ बहा ले जाता है; संक्षेप में, फ़ासीवाद हमेशा से ही एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन रहा है; यह कोई भी दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया नहीं है। संघ परिवार और मोदी सरकार ने फ़ासीवाद की इस ख़ासियत को एक बार फिर से प्रदर्शित किया है, जिसे बहुत समय पहले मार्क्सवादियों द्वारा पहचान लिया गया था लेकिन जिसके बारे में आज भी क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों में सबसे कम समझदारी दिखलायी पड़ती है।

मोदी सरकार ने फ़ासीवाद की उपरोक्त दो विशेषताओं को अपने शासन में सफलतापूर्वक मिश्रित किया है। इसका कारण फ़ासीवाद की तीसरी विशिष्टता में निहित है, यानी एक काडर-आधारित संगठन। भारतीय फ़ासीवाद ने एक काडर-आधारित संगठ‍न विकसित करने में विशेष तौर पर सफलता हासिल की है। इस काडर-आधारित संगठन के बूते, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक लम्बी प्रक्रिया में भारतीय राज्य मशीनरी और सशस्त्र बल और साथ ही नौकरशाही और न्यायपालिका तक में घुसपैठ की है। इसी प्रकार, संघ ने भारतीय ‘नागरिक समाज’ की पोरों तक में एक लम्बी प्रक्रिया में अपनी पैठ बनायी है, जो कि आज़ादी के पहले ही शुरू हो गयी थी। इस प्रकार, जिस प्रक्रिया को ग्राम्शी ‍ने ‘आणविक व्याप्ति’ (molecular permeation) का नाम दिया था, वह भारतीय फ़ासीवाद के मामले में एक लम्बी दीर्घकालिक प्रक्रिया रही है, जबकि जर्मन और इतालवी फ़ासीवाद के मामले में इस प्रक्रिया में एक तीव्रता और तीक्ष्णता का तत्व प्रधान था। दूसरे शब्दों में, भारतीय फ़ासीवाद की ऊष्मायन अवधि (incubation period) ज़्यादा लम्बी थी और इस वजह से इसका उभार किसी आकस्मिक आपदा के समान (cataclysmic) नहीं था। यह व्याख्या भी अब धीरे-धीरे भारतीय फ़ासीवाद की समझदारी के बारे स्वीकृत होती जा रही है।

भारतीय फ़ासीवाद का दीर्घकालिक उभार, या ग्राम्शी ‍के शब्दों में एक लम्बा ‘पैस्सिव रिवोल्यूशन’ सभी फ़ासीवादी उभारों में निहित एक अन्य विशिष्टता को भी प्रदर्शित करता है : एक विशिष्ट प्रकार की ‘विचारधारात्मक एकता’। इस विचारधारात्मक एकता के बुनियादी आयाम हैं एक कल्पित शत्रु, एक ‘अन्य’ की छवि का निर्माण, जो कि भारतीय मामले में ‘मुसलमान’ है; मिथकों को ‘कॉमन सेंस’ के रूप में स्थापित करना; एक रूमानी और प्रतिक्रियावादी पश्चगामिता (millenarianism) जो कि ‘रामराज्य’ की फन्तासी में प्रकट होती है; रोगात्मक क़ि‍स्म का राष्ट्रवाद व प्रगतिशीलता-विरोध और एक आधुनिक क़ि‍स्म का आधुनिकता-विरोध। ये सभी गुण आज के भारतीय फ़ासीवाद में देखे जा सकते हैं। ये सभी चीज़ें उदार बुर्जुआ जनवाद के संकट और भारतीय संशोधनवाद और सामाजिक-जनवाद की अवश्यम्भावी असफलता के नतीजे के तौर पर ही सामने आ रही हैं। जो बुनियादी अन्तरविरोध उदार बुर्जुआ परियोजना और साथ ही सामाजिक-जनवादी परियोजना की असफलता का कारण बनता है वह है बार-बार आने वाला पूँजीवाद का आर्थिक संकट, जो कि कुण्डलाकार पथ में प्रकट होता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह ह्रास और पतन की ओर बढ़ता ‘स्पाइरल’ होता है।

भारत में फ़ासीवाद के उदय को समझने के लिए और इस फ़ासीवादी उभार के प्रतिरोध के लिए प्रभावी और सही रणनीति और रणकौशल तय करने के लिए उपरोक्त सभी चारित्रिक अभिलाक्षणिकताओं को समझना बेहद ज़रूरी है। गुजरात और हिमाचल के विधानसभा चुनावों के नतीजे सामने आने के बाद, इन बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं को समझने में कुछ ”वामपन्थियों” की अक्षमता के कारण वे कई ग़लत विश्लेषणों और नतीजों तक पहुँच रहे हैं।

इन ”वामपन्थियों” के एक हिस्से को हम ”चिरन्तन और नादान आशावादी” कह सकते हैं। यह हिस्सा विशेष तौर पर गुजरात के नतीजों से सदमे में आ गया था। इस धड़े के लोगों ने दावा किया था कि भाजपा गुजरात में हारने जा रही है और वोटों की गिनती के पूरा होने से पहले ही इन्होंने कुछ देर के लिए जश्न मनाना भी शुरू कर दिया था (जब एक छोटे-से समय के लिए कांग्रेस भाजपा से आगे निकल गयी थी)। लेकिन जब अन्तत: भाजपा जीत गयी, हालाँकि वह गिरते-पड़ते ही बहुमत के आँकड़े तक पहुँच पायी थी, तो इस धड़े के नादान आशावादियों की आशाओं पर तुषारापात हो गया और वे दावा करने लगे कि फ़ासीवादी भाजपा इसलिए जीती है क्योंकि नतीजों में हेरफेर किया गया है और ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की गयी है। यह एक अन्तरविरोधी बात है क्योंकि इसमें यह अन्तरनिहित है कि हम जिस राजनीतिक परिघटना के साक्षी बन रहे हैं, वह फ़ासीवाद ही है और अगर हम यह मानते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ पर चकित या दुखी होना बेकार है। यह स्वाभाविक ही है कि फ़ासीवाद हर बुर्जुआ जनवादी प्रक्रिया, प्रथा और संस्था को कमज़ोर बनायेगा ही, अगर वह उसे एकदम ख़त्म नहीं भी करता है। इस स्वीकृति में इस बात का अहसास भी अन्तर्निहित होना चाहिए कि फ़ासीवाद को महज़़ चुनावी रणनीति से नहीं हराया जा सकता है; इसलिए भाजपा की चुनावी हार पर हर्षोन्मत्त हो जाना और उसकी चुनावी जीत पर हताशा में डुबकी लगा जाना इस प्रकार के नादान आशावादियों के ‘उदार बुर्जुआ वायरस’ से पैदा हुए विभ्रमों को ही दिखलाता है।

”वामपन्थियों” का एक अन्य हिस्सा है जो कहता है कि भाजपा की जीत में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि चुनावों में कोई ‘वास्तविक विकल्प’ था ही नहीं; लेकिन इतना तय है कि भाजपा बस किसी तरह से हाँफते-काँपते जीती है। यह सच है। लेकिन इस बात से ये दूसरी श्रेणी के लोग क्या नतीजा निकालते हैं? यह कि फ़ासीवाद ह्रास और पतन का शिकार है। जैसा कि हम देख सकते हैं कि वे ‘मोदी लहर’ और फ़ासीवाद के बीच फ़र्क़ नहीं कर पाते। ‘मोदी लहर’ मौजूदा फ़ासीवादी उभार का तात्कालिक अस्तित्व रूप है; न कि अपने आप में फ़ासीवाद। किसी सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँचने के साथ ‘मोदी लहर’ की जगह किसी ‘योगी लहर’ को पैदा किया जा सकता है, ऐसी अटकल लगाने में कुछ भी अतार्किक नहीं है। ऐसे ‘वामपन्थियों’ का राजनीतिक मोतियाबन्द उन्हें सारवस्तु को देखने नहीं देता और वे हमेशा परिघटना के स्तर पर ही अटके रहते हैं। यही कारण है कि जब कोई मोदी जीत जाता है तो पुनरावलोकन में उन्हें आडवाणी ‘लेसर ईविल’ दिखने लगता है; जब कोई आडवाणी शीर्ष पर पहुँच जाता है, तो उन्हें पुनरावलोकन में अटल उदार लगने लगता है; और यह असम्भव नहीं है कि जब मोदी से भी ज़्यादा रोगात्मक, प्रतिक्रियावादी और आक्रामक ‘फ्यूरर’ व्यक्तित्व फ़ासीवादियों या फिर सरकार के शीर्ष पर पहुँच जायेगा तो ऐसे लोगों को पुनरावलोकन में मोदी भी उदार नज़र आने लगे। जैसा कि हम देख सकते हैं कि ऐसे लोगों का विश्लेषण प्रत्यक्षवादी और अधिभूतवादी होता है। यह सारतत्व और अन्तर्सम्बन्धों को नहीं देख पाता है।

उदार ”वाम” का एक अन्य हिस्सा भी है जो कि अभी भी मोदी व फ़ासीवाद को हराने के लिए दमित अस्मिताओं की योगात्मक एकता का कोई समीकरण बनाने के फेर में पड़ा हुआ है। चुनावों में भाजपा के अपेक्षा से कम प्रदर्शन का मुख्य कारण था समाज के कुछ हिस्सों का वर्ग असन्तोष व गुस्सा, हालाँकि वे वर्ग ‘राजनीतिक’ रूप में सचेत या वर्ग ‘राजनीतिक’ रूप में संगठित नहीं थे। लेकिन इस हिस्से के लोगों ने दावा किया कि दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, पिछड़ों आदि ने मिलकर भाजपा को तमाम जगहों पर हराया है। यह भूला नहीं जाना चाहिए कि मुसलमानों के अपवाद के साथ (जिसे समझा जा सकता है), समाज के उपरोक्त सभी समुदायों के विचारणीय हिस्सों ने इन चुनावों में भाजपा को वोट दिया है। वोटिंग के पैटर्न ने दो प्रकार के विभाजन को स्पष्ट तौर पर प्रदर्शित किया: पहला, वर्ग विभाजन और दूसरा, गाँव-शहर विभाजन, जो कि आंशिक तौर पर वर्ग विभाजन से जुड़ा हुआ है। यह ग़रीब और निम्न मध्यम किसानों, निम्न मध्य वर्ग और मज़दूर वर्ग का असन्तोष था जिसके कारण चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। यहाँ पर यह भी याद रखा जाना चा‍हिए कि गुजरात के शहरों में गुजराती मज़दूरों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा वोटर के रूप में गाँवों में पंजीकृत है। इसलिए, इन मज़दूरों का गुस्सा ग्रामीण वोट में प्रतिबिम्बित हुआ, न कि शहरी वोट में। वोटिंग पैटर्न के इस स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ने वाले वर्ग चरित्र के बावजूद, यह उदारवादी वाम/वाम उदारवादी धड़ा, और विशेष तौर पर बुद्धिजीवी, भाजपा को हराने के एक अस्त्र के रूप में ‘दलित + ओबीसी + मुसलमान + स्त्री’ जैसे योगात्मक समीकरणों का सुझाव दे रहे हैं। यह बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को एक बहुसंख्यवादी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी गोलबन्दी में तब्दील करने के भाजपा के मंसूबों को फ़ायदा ही पहुँचाता है और दूसरी बात यह है कि ऐसी कोई योगात्मक एकता बन ही नहीं सकती है। जिस गोलबन्दी में फ़ासीवाद का मुँहतोड़ जवाब देने की ताक़त है वह है वर्ग गोलबन्दी। लेकिन वर्ग गोलबन्दी पर इन उदार वामपन्थियों को भरोसा नहीं है।

भारत के ”उदारवादी वामपन्थी” भूराजनीतिक प्रान्त में रहने वाली चौथी श्रेणी उन लोगों की है जो कि अचानक राहुल गाँधी और कांग्रेस के कट्टर समर्थक बन गये हैं। उन्होंने अख़बारों में और वेबसाइटों पर राहुल गाँधी और कांग्रेस में आये भारी बदलाव के बारे में कॉलम लिखने शुरू कर दिये हैं। कांग्रेस के खेल में वापस आने से वे हर्षातिरेक का अनुभव कर रहे हैं। उनका तर्क एकदम कॉमन सेंसिकल है : फ़ासीवादी भाजपा को हराने के लिए हमें रणकौशलात्मक तौर पर राहुल गाँधी का समर्थन करना चाहिए, जो, चाहे राजनीतिक लाभ के लिए ही सही, लेकिन आम मेहनतकश जनता के मुद्दे उठा रहे हैं। ऐसे लोगों का राजनीतिक स्मृतिलोप निरपेक्ष और पूर्ण हो चुका हेाता है, क्योंकि राजनीतिक तौर पर उन्हें लघुकालिक स्मृतिलोप की शिकायत होती है। मज़ेदार बात यह होती है कि उन्होंने सचेतन तौर पर चुना होता है कि उन्हें लघुकालिक स्मृतिलोप की बीमारी हो। दूसरे शब्दों में, लघुकालिक स्मृतिलोप का शिकार होना वे कभी भूलते नहीं हैं! किसी भी प्रकार के क्रान्तिकारी रूपान्तरण में उनका भरोसा नहीं होता और वे किसी कम बुरे की तलाश में हमेशा व्यस्त रहते हैं, हालाँकि उनकी यह तलाश उनकी इच्छा के विपरीत हमेशा उन्हें सबसे बुरे विकल्प पर पहुँचा देती है। वे भूल जाते हैं कि फ़ासीवाद का ज़हरीला कुकुरमुत्ता हमेशा उदार बुर्जुआ जनवाद के खण्डहर पर उगता है। वे किसी राहुल गाँधी, ममता बनर्जी (जो कि और भी हास्यास्पद है), लालू प्रसाद यादव या शरद पवार के कन्धे पर खड़े होकर फ़ासीवाद को पीछे धकेल देने का मुग़ालता पाले रहते हैं।

अन्तिम श्रेणी ऊपर वाली चौथी श्रेणी के ठीक विपरीत होती है। यह वह श्रेणी है जो कि फ़ासीवादी पूँजीपति वर्ग और पूँजीपति वर्ग के अन्य हिस्सों में फ़र्क़ करने में बुरी तरह असफल हो जाती है। त्रासदी की बात है कि कई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट कॉमरेड भी इस भोंडे भौतिकवादी और यान्त्रिक विश्लेषण का शिकार हो गये हैं। चौथी श्रेणी के लोगों का प्रतिवाद करते हुए इस पाँचवी श्रेणी के वामपन्थी और यहाँ तक कि कम्युनिस्ट कॉमरेड फे़सबुक और व्हाॅट्सऐप पर लिखना शुरू करते हैं : ”क्या फ़र्क़ पड़ता है? भाजपा जीते या कांग्रेस, हारेगी तो जनता ही!”;
”कांग्रेस तो ख़ुद ही फ़ासीवादी है, क्या आप आपातकाल को भूल गये?”; ”कांग्रेस की राजनीति के कारण ही तो संघ परिवार बढ़ा है, इसलिए इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि भाजपा जीतती है या कांग्रेस!” यह अवस्थिति न सिर्फ़ ग़ैर-मार्क्सवादी है बल्कि यह बुरी तरह से अर्थहीन भी है। यह एक छद्म आमूलगामिता से भरी ”वामपन्थी” भाषणबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति ने हमेशा फ़ासीवादियों और अन्य प्रकार की दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया और साथ ही फ़ासीवादियों और उदार बुर्जुआ वर्ग/मध्यमार्गी बुर्जुआ वर्ग/दक्षिण-मध्य बुर्जुआ वर्ग के बीच अन्तर किया है। क्लासिकीय तौर पर, भारत में कभी कोई बड़ी उदार बुर्जुआ राजनीतिक पार्टी नहीं रही है; भारत में सामाजिक-जनवादी राजनीति का प्रभाव भी स्थानीयकृत और सीमित रहा है, राष्ट्रीय कम रहा है। दूसरी पूँजीवादी पार्टी जो कि भारतीय बुर्जुआ राजनीति में फ़ासीवादी संघ परिवार के विपरीत ध्रुव की भूमिका अदा करती है, वह कांग्रेस है जो कि स्वयं एक व्यापक रूप में मध्य-दक्षिणपन्थी पूँजीवादी पार्टी है, जिसमें कि ज़रूरत और तात्कालिक लाभ के लिए वाम दिशा में यात्रा करने का लचीलापन और सम्भावनासम्पन्नता मौजूद है। कांग्रेस के इस विशिष्ट गुण के कारण, क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को भाजपा और कांग्रेस के बीच निश्चित ही फ़र्क़ करना चाहिए क्योंकि इस फ़र्क़ का फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति के प्रभावी होने पर काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है।

उपरोक्त तर्कों की रोशनी में गत विधानसभा चुनावों का विश्लेषण करना आवश्यक है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि तथाकथित मोदी लहर उतार पर है। गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान मोदी की भाव-भंगिमा और सड़कछाप बातों से ही पता चल गया था कि भाजपा अन्दर से डोली हुई है और पुराना आत्मविश्वास‍ ग़ायब है। लेकिन मोदी-लहर को ही फ़ासीवादी उभार समझ लेना ग़लत और आत्मघाती होगा। दूसरी बात यह है कि हमें यह याद रखना चाहिए कि मोदी सरकार भारत की पहली व्यवस्थित रूप से फ़ासीवादी सरकार है। इसी प्रकार, मोदी फ्यूरर-कल्ट के पहले पूर्णता को प्राप्त भारतीय संस्करण की नुमाइन्दगी करता है। वाजपेयी की सरकार में प्रबल फ़ासीवादी रुझान थे, लेकिन, विविध प्रकार के वस्तुगत और मनोगत कारकों के चलते वह पहली व्यवस्थित फ़ासीवादी सत्ता नहीं थी और न ही बन सकती थी। अब जबकि मोदी लहर, जो कि भारत में फ़ासीवादी उभार का मौजूदा अस्तित्व-रूप है, संकट के पहले लक्षणों की साक्षी बन रही है, हमें यह निश्चित तौर पर समझ लेना चाहिए कि इस अस्तित्व-रूप की जगह कोई और अस्तित्व रूप ले सकता है। फ़ासीवादी साँप अपने अस्तित्व को क़ायम रखने के लिए ही अपना केंचुल बदलता रहता है। तीसरी बात यह है कि हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ‘पीछे हटता फ़ासीवाद’ किसी भी अर्थ में कोई कम फ़ासीवादी फ़ासीवाद नहीं होता। वास्तव में, सभी तात्कालिक और व्यावहारिक अर्थों में, संकटग्रस्त फ़ासीवाद ज़्यादा आक्रामक और ख़तरनाक होता है। अगर भाजपा को यह लगता है कि वह 2019 का चुनाव हार सकती है, तो यह अपने पूर्णरूपेण और खुले तौर पर फ़ासीवादी एजेण्डा और रणकौशल पर चली जायेगी, जैसा कि गुजरात चुनावों के दौरान राम मन्दिर के मुद्दे को फिर से उभारने की भाजपा की रणनीति में दिखलायी पड़ रहा था। क्रान्तिकारी शक्तियों को निरन्तर मेहनतकश जनता को फ़ासीवाद और आम तौर पर पूँजीवाद के विरुद्ध गोलबन्द और संगठित करना होगा और उन्हें भाजपा के ख़राब चुनावी प्रदर्शन पर हर्षातिरेक का शिकार होने की बजाय अपनी शक्तियों पर निर्भर करना होगा। चौथी बात यह है, कि हमेशा याद रखना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद आपदा के रूप में अचानक घटित होने वाली और आपदा के रूप में अचानक पतन का शिकार होने वाली परिघटना के रूप में मौजूद नहीं है। संकट जिस प्रकार से विशेष तौर पर 1970 के दशक से पूँजीवादी व्यवस्था का नया ‘नॉर्मल’ बन चुका है, या जिस प्रकार संकट कहीं ज़्यादा दीर्घकालिक व ढाँचागत रूप में अपने आपको प्रकट कर रहा है, उसी प्रकार फ़ासीवाद भी इक्कीसवीं सदी की साम्राज्यवादी दुनिया में कहीं ज़्यादा स्थायी परिघटना के रूप में प्रकट हुआ है, चाहे वह सत्ता में रहे या नहीं रहे। जब वह सत्ता में नहीं भी होता, तो हड़ताल तोड़ने वाले दस्तों के रूप में, अल्पसंख्यक विरोधी लम्पट ब्रिगेडों के रूप में, सामाजिक पुलिस आदि के रूप में, पूँजीपति वर्ग की अनौपचारिक राज्यसत्ता का काम करता है और फ़ासीवाद की यह भूमिका मौजूदा पूँजीवादी समाज में काफ़ी महत्वपूर्ण बन गयी है। कारण यह है कि मौजूदा पूँजीवादी समाज में बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा या उसकी कोई भी पार्टी अब सत्ता में होने पर भी फ़ासीवादियों के ख़ि‍लाफ़ क़दम नहीं उठाने वाली है। साम्राज्यवाद के मौजूदा दौर में, इसकी मरणासन्नता और परजीवी चरित्र इस स्तर पर पहुँच चुका है कि पूँजीपति वर्ग के सभी हिस्से चाहते हैं कि फ़ासीवाद चाहे सत्ता में न भी हो तो वह समाज में मौजूद रहे। ऐसी स्थिति में, यह ज़रूरी हो जाता है कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तें जनसमुदायों को फ़ासीवादियों के ख़ि‍लाफ़ ‘जब और जैसी ज़रूरत हो’ के आधार पर नहीं बल्कि एक दीर्घकालिक आधार पर शिक्षित, प्रशिक्षित, तैयार, गोलबन्द और संगठित करें और इसके लिए नियमित और निरन्तर राजनीतिक कार्य को अपना आधार बनायें। अन्त में, क्रान्तिकारी ताक़तों को इस तथ्य के प्रति सचेत होना चाहिए कि अगर 2019 के आम चुनावों में भाजपा के सामने हार का ख़तरा मँडरायेगा, तो ये फ़ासीवादी किसी भी हद तक जाने को तैयार होंगे।

इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवादी उभार को समझते समय यह बात दिमाग़ में रखी जानी चाहिए कि इतिहास अपने आपको दुहराता नहीं है। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में ऐसे कई लोग हैं जो भारत में फ़ासीवाद के मौजूदा उभार के अपने विश्लेषण को भारत में फ़ासीवादी उभार का विश्लेषण बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के जर्मन या इतालवी फ़ासीवादी उभार से सादृश्य निरूपण के आधार पर करते हैं। फ़ासीवाद के विशिष्ट और आम राजनीतिक व विचारधारात्मक गुणों और इसके विशिष्ट व आम ऐतिहासिक सन्दर्भ के फ़र्क़ को समझने के बजाय ऐसे साथी दो कॉलम बनाते हैं और फिर बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के फ़ासीवाद के अनुभव और आज के फ़ासीवादी उभार के गुणों का मिलान करने लग जाते हैं और कई गुणों का मिलान न होने की सूरत में ऐलान कर देते हैं कि मौजूदा फ़ासीवादी उभार पर्याप्त रूप में फ़ासीवादी नहीं है, या अर्द्धफ़ासीवादी है, या अभी पूरी तरह से फ़ासीवादी नहीं हुआ है, या चूँकि अभी संसदीय लोकतन्त्र बना हुआ है इसलिए यह फ़ासीवादी नहीं है, आदि। यह अनैतिहासिक नज़रिया यह नहीं समझ पाता है कि केवल क्रान्तिकारी विचारधारा व राजनीति ही रिडेम्प्टिव गतिवि‍धि नहीं करती। प्रतिक्रियावादी विचारधारा और राजनीति भी अपने ऐतिहासिक अनुभवों का समीक्षा-समाहार करते हैं, उससे सीखते हैं और अपनी ”ग़लतियों” को दुरुस्त करते हैं। भारत में भी ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि भारत में चूँकि अभी संसदीय लोकतन्त्र क़ायम है, इसलिए मोदी सरकार को फ़ासीवादी सरकार नहीं माना जा सकता है; कुछ तो यह भी कहते हैं कि भारतीय संविधान के ”प्रगतिशील” और ”जनवादी” चरित्र के कारण भारत में फ़ासीवाद आ ही नहीं सकता है! ऐसे तर्क के बारे में जितना कम कहा जाय उतना अच्छा है। ऐसे लोग इतिहास की गति समझ पाने में असमर्थ हैं।

राज्य में हुए हालिया चुनावों, विशेषकर गुजरात के चुनावों ने निश्चित तौर पर दिखलाया है कि भाजपा के खराब प्रदर्शन पर तालियाँ पीटने, या फ़ासीवाद को हराने के लिए चुनावी रणनीति को एकमात्र रणनीति के तौर पर देखने के बजाय, हमें एक लम्बी और निर्णायक लड़ाई की तैयारी करनी होगी; इसमें कोई सन्देह नहीं कि मौजूदा सन्धिबिन्दु हमें अपना काम शुरू करने के लिए सबसे मुफ़ीद मौक़ा दे रहा है क्योंकि भारतीय फ़ासीवाद का मौजूदा अस्तित्व रूप यानी मोदी लहर, गिरावट के प्रथम लक्षण प्रदर्शित कर रहा है। लोग नाराज़ हैं, असन्तुष्ट हैं और क्रान्तिकारी प्रचार और उद्वेलन के लिए तैयार हैं। साथ ही, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि क्रान्तिकारी शक्तियों को पूँजीवादी चुनावों में भी रणकौशलात्मक भागीदारी करनी चाहिए और सर्वहारा वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष प्रस्तुत करना चाहिए और साथ ही पूँजीवादी व्यवस्था को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि समूची फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति को चुनावी रणनीति पर अपचयित नहीं कर दिया जाना चाहिए। यह न सिर्फ़ नुक़सानदेह होगा, बल्कि आत्मघाती होगा। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के बीच मज़दूर वर्ग का संयुक्त मोर्चा स्थापित करना और जनसमुदायों के बीच मज़बूत सामाजिक आधार का निर्माण आज कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के समक्ष दो महत्वपूर्ण और तात्कालिक कार्यभार हैं। आगे हम किस हद तक सफल होंगे, यह इस बात पर ही निर्भर करता है कि इन दोनों कार्यभारों को किस हद तक पूरा कर पाते हैं।

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

दिशा सन्धान–4, जनवरी-मार्च 2017

दिशा सन्धान–4, जनवरी-मार्च 2017

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सम्‍पादकीय

‘रुग्ण लक्षणों’ का यह समय और हमारे कार्यभार

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन का इतिहास, समस्‍याएं व चुनौतियां

नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशक : एक सिंहावलोकन (तीसरी किस्त) : दीपायन बोस

माकपा के भीतर फ़ासीवाद पर बहस – चुनावी जोड़-जुगाड़ के लिए सामाजिक जनवाद की बेशर्म क़वायद : आनन्‍द सिंह

विश्‍व कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन का इतिहास, समस्‍याएं व चुनौतियां

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभव : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (चौथी किस्त) : अभिनव सिन्‍हा

फासीवाद / दक्षिणपंथ

मोदी सरकार द्वारा नोटबन्दी का राजनीतिक अर्थशास्त्र : शिशिर

फ़ि‍लीपींस में दुतेर्ते परिघटना और उसके निहितार्थ : तुहिन दास

साम्राज्‍यवाद

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव – डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के निहितार्थ : आनन्‍द सिंह

सामयिक

मराठा मूक मोर्चों के पीछे मौजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिकी : एक मूल्यांकन : शिवार्थ

आपकी बात

पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान – 4, जनवरी-मार्च 2017

 

पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान – 4, जनवरी-मार्च 2017

आपकी बात

सोवियत इतिहास पर जारी लेख की तीसरी किश्त अभी पढ़कर ख़त्म की। पिछले 4 दिनों से इसी में लगा था। पिछले अंक में चार्ल्स बेतेलहाइम पर लिखने का ज़ि‍क्र करके आपने मेरी उत्सुकता और बढ़ा दी थी। हिन्दी में तो बेतेलहाइम पर गम्भीर आलोचनात्मक सामग्री मेरी नज़र में नहीं के बराबर है, अंग्रेज़ी में भी मैंने उनके विचारों का ऐसा विस्तृत और सारगर्भित विवेचन कहीं नहीं देखा है। मेरे लिए बहुत सी बातें आँखें खोलने वाली हैं, या सटीक ढंग से कहूँ तो चीज़ों को देखने की एक नयी दृष्टि देने वाली हैं। आपने बिल्कुल ठीक लिखा है कि बेतेलहाइम की रचनाओं का दुनिया के माओवादी आन्दोलन में व्यापक प्रभाव है। भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में मार्क्सवाद के गम्भीर अध्ययन के प्रति एक प्रकार का शत्रु भाव बना रहा है, और जो पढ़ते हैं उनमें से ज़्याादातर पल्लवग्राहिता से आगे नहीं जाते। कुछ लोग हो सकता है वाकई में गम्भीरता से पढ़ते हों लेकिन उनकी स्वान्त:सुखाय पढ़ाई से आन्दोलन या हम जैसे जिज्ञासुओं को तो कोई लाभ नहीं मिलता। अगले अध्यायों की आतुरता से प्रतीक्षा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि सोवियत इतिहास की इस व्यापक और गहरी जाँच-पड़ताल से भावी समाजवादी क्रान्तियों के लिए बहुत ज़रूरी सबक़ निकलेंगे जिन पर गहरे सोच-विचार की ज़रूरत है। मुझे लगता है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन की आज की समस्याओं को समझने के लिए भी इतिहास की इन समस्याओं पर गहन चिन्तन-मनन की ज़रूरत है। सम्पादकों से एक अनुरोध यह है कि इस प्रकार के लेखों के साथ यदि स्रोत सामग्री के सन्दर्भ भी उपलब्ध कराये जायें तो बहुत उपयोगी होगा।

शरदेन्दु चौधरी, नई दिल्ली

‘दिशा सन्धान’ का तीसरा अंक मेरे हाथ कुछ दिन पहले लगा। इसके बाद मैंने आपकी वेबसाइट से पिछले अंकों के भी कई लेख पढ़े। बिला शक, ऐसी सीरियस और मौलिक मार्क्सवादी पत्रिका की आज बहुत ज़रूरत है। ‘वामपन्थी आन्दोलन के सामने कुछ विचारणीय प्रश्न’ लेख में मैंने शायद पहली बार प्रो. रणधीर सिंह के विचारों की एक मार्क्सवादी आलोचना पढ़ी। बेशक उनके व्यक्तित्व और उनके काम का हम सब गहरा सम्मान करते हैं, लेकिन उनके बहुत से विचारों, ख़ासकर समाजवादी समाज की समस्याओं के उनके विश्लेषण में भारी समस्याएँ रही हैं। उनके विचारों का काफ़ी प्रभाव भी रहा है, नेपाल में माओवादी पार्टी के नेतृत्व के कुछ लोग तो उनसे बहुत ही ज़्यादा प्रभावित थे। मगर उनके विचारों के साथ कोई पॉलिमिक्स नहीं चली है। सोवियत समाजवाद पर लम्बी लेखमाला और तैयारी के साथ अध्ययन की माँग करती है। मगर तीनों कड़ि‍यों के विषयों को देखकर मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि इसे भारत में वाम बौद्धिक सर्किलों में ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए और इस पर बहस होनी चाहिए। हालाँकि ऐसा होने के प्रति मैं बहुत आशावान नहीं हूँ।

सन्त प्रकाश, मुम्बई

आपकी पत्रिका में नक्सलबाड़ी के इतिहास पर दोनों किश्तें मैं पढ़ चुका हूँ। इस अंक में मोदी की जीत पर रवि सिन्हा के लेख के बहाने फासीवाद विरोधी आन्दोलन पर की गयी विस्तृत चर्चा के अधिकांश बिन्दुओं से मैं सहमत हूँ। सही वैज्ञानिक समझ के बग़ैर फासीवाद से की गयी तमाम लड़ाइयों का हश्र हम पहले देख चुके हैं। आईएस व पश्चिम एशिया के संकट और कश्मीर पर शामिल आलेख भी बहुत तथ्यपूर्ण और विचारोत्तेजक हैं। यूनान में सीरिज़ा का विश्लेषण भी बिल्कुल कन्विंसिंग है, हालाँकि मेरे कई वाम मित्र उसके प्रशंसक हैं।

ज़ेड. बर्नी, मुंगेर

सम्पादक द्वय से मेरा बस इतना निवेदन है कि इतनी महत्वपूर्ण पत्रिका में भाषा और शब्दों के मानकीकरण पर अगर ध्यान दे सकें तो बहुत अच्छा होगा। जैसे, चे ग्वेरा, एलेन बेज्यू, त्रात्स्की आदि नाम अलग-अलग ढंग से लिखे मिलते हैं। हिन्दी में विदेशी नामों, उच्चारणों को लेकर बहुत ढीला-ढाला रवैया रहा है। मार्क्सवादी शब्दावली के प्रति भी ऐसा ही रुख़ रहा है। अगर इधर भी आप लोग ध्यान दे सकें तो अच्छा होगा। आप लोगों से उम्मीद है, इसलिए यह अनुरोध कर रहा हूँ।

केशव सेन

 

दिशा सन्धान – अंक 4  (जनवरी-मार्च 2017) में प्रकाशित

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव – डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के निहितार्थ

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव – डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के निहितार्थ

  • आनन्द सिंह

अमेरिका में नवम्बर 2016 में हुए राष्ट्रपति चुनावों में नस्लवादी, स्त्रीद्वेषी, मुस्लिम-विरोधी व धुर-दक्षिणपन्थी ख़रबपति डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के बाद पश्चिम जगत का उदारवादी तबक़ा स्तब्ध है। ग़ौरतलब है कि इन चुनावों में अमेरिका के पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्से ने हिलेरी क्लिंटन पर अपना दाँव लगाया था क्योंकि उनका मानना था कि क्लिंटन पूँजी के हितों की हिफ़ाज़त करने में ज़्यादा सक्षम उम्मीदवार थी। ट्रम्प एक पूँजीपति होते हुए भी वाॅल स्ट्रीट के वित्तीय महाप्रभुओं का चहेता नहीं बन पाया था क्योंकि उनकी नज़रों में वह बहुत अस्थिर और अननुमेय था और उसके बड़बोलेपन से अमेरिकी शासक वर्ग के चेहरे से उदारवादी मुखौटे के उतरने का ख़तरा था जिसको उन्होंने साम्राज्यवाद की चौधराहट के पूरे कालखण्ड में लगाया हुआ था। अमेरिकी मीडिया का बड़ा हिस्सा भी अमेरिका के इतिहास में पहली बार एक महिला राष्ट्रपति बनने की भविष्यवाणियाँ कर रहा था। ऐसे में ट्रम्प की जीत ने अमेरिकी राजनीतिक समीकरणों में बहुत बड़ा उलटफेर कर दिया। ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के फ़ैसले (ब्रेक्जि़ट) के बाद अब ट्रम्प जैसे व्यक्ति के साम्राज्यवाद के नये सिरमौर के रूप में पदासीन होने के निहितार्थ अमेरिका ही नहीं समूचे विश्व के लिए गहरे हैं और इसीलिए दुनिया भर में तमाम राजनीतिक विश्लेषक इसकी तरह-तरह से व्याख्याएँ कर रहे हैं।

उदारवादी बुर्जुआ विश्लेषक ट्रम्प की इस अप्रत्याशित जीत के लिए अमेरिका में बढ़ते नस्लभेद, मुस्लिम-विरोध और स्त्री-विरोधी मानसिकता को मुख्य रूप से जि़म्मेदार मानते हैं। ग़ौरतलब है कि ये वही विश्लेषक हैं जो 8 साल पहले बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी लोकतन्त्र की शान में कसीदे पढ़ रहे थे और यह दावा कर रहे थे कि अमेरिका में नस्लभेद इतिहास की चीज़ बन चुकी है क्योंकि उस चुनाव में बड़ी संख्या में गोरे अमेरिकियों ने ओबामा को वोट दिया था। दरअसल ऐेसे विश्लेषकों के विश्लेषण में वर्ग-विश्लेषण सिरे से गायब होता है जिसकी वजह से वे कभी इस छोर तो कभी उस छोर पर दोलन करते रहते हैं। ज़ाहिरा तौर पर वर्ग-विश्लेषण के मार्क्सवादी उपकरण के द्वारा ही हम इस अन्तर्विरोधी परिघटना को समझ सकते हैं कि जिस समाज में अभी कुछ वर्षों पहले ही एक अश्वेत व्यक्ति राष्ट्रपति चुना गया था उसी समाज में एक घोर नस्लवादी व्यक्ति कैसे चुनाव जीत सकता है।

ट्रम्प की जीत की वजहें

ट्रम्प की जीत के कारणों को गहराई से समझने के लिए हमें इतिहास में थोड़ा पीछे जाना होगा क्योंकि अमेरिका की जिन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने ट्रम्प रूपी दानव को जन्म दिया है उनके समकालीन इतिहास की शुरुआत 2007 की मन्दी में देखी जा सकती है। ग़ौरतलब है कि 2007 में अमेरिका में आवासीय बुलबुले के फटने के साथ शुरू हुई विश्वव्यापी महामन्दी अभी तक जारी है। वैसे तो पूँजीवाद अपने जन्म से ही एक चक्रीय मन्दी का शिकार होता रहा है, लेकिन मौजूदा महामन्दी 1930 के दशक की महामन्दी के बाद से सबसे बड़ी मन्दी है और उससे उबरने की प्रक्रिया भी उस 1930 के दशक की उस महामन्दी के बाद से सबसे सुस्त रही है। मन्दी की मार से जहाँ एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के मेहनतकश लोग कंगाली और भुखमरी की समस्या से जूझ रहे हैं वहीं अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों का मज़दूर और मध्यवर्गीय तबक़ा भी इसकी चपेट में आ गया है। वैसे विकसित देशों की मेहनतकश जनता की समृद्धि द्वितीय व‍िश्वयुद्ध के बाद के कुछ वर्षों तक ही रही थी जिसे अमेरिकी पूँजीवाद का स्वर्ण युग कहा जाता है। 1960 के दशक से ही अमेरिका के मज़दूर वर्ग की आमदनी में कमी की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। 1980 के दशक में नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण के प्रादुर्भाव ने अमेरिका के मेहनतकश वर्ग को और झटका दिया जब मुनाफ़़े की गिरती दर को रोकने के लिए अमेरिकी पूँजीपति सस्ते श्रम के लालच में अपने कारख़ाने अमेरिका से हटाकर तीसरी दुनिया के देशों की ओर रुख़ करने लगे थे। इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप अमेरिका का डेट्रॉयट जैसा शहर, जो कभी ऑटोमोबाइल मैन्युफ़ैक्चरिंग का गढ़ माना जाता था, उजाड़ हो गया।

हालाँकि मौजूदा विश्वव्यापी महामन्दी के दौरान अमेरिकी अर्थव्यवस्था अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में थोड़ा बेहतर प्रदर्शन किया है, लेकिन निरपेक्ष रूप में देखने पर यह प्रदर्शन बेहद फिसड्डी रहा है। इस मन्दी के बाद से अमेरिका में प्रति व्यक्ति वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर मात्र 1.4 प्रतिशत रही जो इस मन्दी के पहले के दौर की तुलना में बेहद कम है। उससे भी भयावह बात यह है कि भविष्य में भी इससे उबरने के आसार नहीं नज़र आ रहे हैं। उल्टे कुछ अर्थशास्त्री तो भविष्य में एक दूसरी मन्दी की बातें भी कर रहे हैं जो मौजूदा मन्दी से भी ख़तरनाक साबित हो सकती है।

जब मौजूदा मन्दी की शुरुआत हुई थी तब अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी का जाॅर्ज बुश राष्ट्रपति था। 2008 के राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिकी जनता ने रिपब्लिकन पार्टी को ख़ारिज़ कर डेमोक्रैटिक पार्टी के बराक ओबामा को इस उम्मीद में राष्ट्रपति चुना था कि उसकी नीतियाँ मन्दी से उबारेंगी। उस चुनाव में ओबामा बदलाव और आशा के खोखले नारे देकर अमेरिकी जनता के अच्छे-ख़ासे हिस्से को बरगलाने में क़ामयाब हो गया था क्योंकि अमेरिका के लोग मन्दी के असर से ख़ौफ़ज़दा थे। बुर्जुआ विश्लेषक जिसे नस्लवाद पर जीत की संज्ञा दे रहे थे वह दरअसल अमेरिकी जनता की मन्दी से निजात पाने की तड़प की अभिव्यक्ति थी। लेकिन ओबामा के दो कार्यकाल पूरा होने पर भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था मन्दी के भँवरजाल से बाहर नहीं निकल पायी है। ओबामा ने जनता की गाढ़ी कमाई से कई ट्रिलियन डॉलर के बेलआउट पैकेज देकर बैंकों और वित्तीय महाप्रभुओं को जीवनदान दिया जिसका फ़ायदा बैंकों और उनके शीर्ष अधिकारियों को ही हुआ, जबकि आम लोगों की जि़न्दगी की परेशानियाँ कम होने की बजाय बढ़ती ही गयीं।

ओबामा की नीतियों का फ़ायदा किस तरह से समाज की मुट्ठी भर रईस आबादी को हुआ, यह इस आँकड़े से स्पष्ट है कि अमेरिका में 2009-2012 के दौरान 95 प्रतिशत आय में बढ़ोतरी शीर्ष की 1 फ़ीसदी आबादी के खाते में गयी। 2015 में अमेरिका के शीर्ष 500 सीईओ की आय वहाँ के मज़दूरों की औसत आय का 335 गुना थी। यही नहीं अमेरिका में रोज़गार के नये अवसर नहीं पैदा हो रहे हैं और पिछले आठ वर्षों के दौरान मज़दूर वर्ग के साथ ही साथ टटपुँजिया मध्य वर्ग की भी आमदनी और क्रयशक्ति में तेज़ी से गिरावट देखने में आयी है। आर्थिक संकट की परिस्थिति में अमेरिकी राज्य के लिए  जनता को सामाजिक सुरक्षा और बुनियादी सुविधाओं को जारी रखना मुमकिन नहीं रह गया और ‘ऑस्टेरिटी’ (किफ़ायतशाही) इन सुविधाओं में भी ज़बरदस्त कटौती की जानी लगी। इसका नतीजा अमेरिकी समाज में आर्थिक असमानता की खाई के चौड़ा होने के रूप में सामने आया। इस घोर आर्थिक असमानता की अभिव्यक्ति टटपुँजिया वर्ग के नेतृत्व में चले ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ आन्दोलन में भी हुई थी जिसका निशाना कॉरपोरेट पूँजी थी। 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में हालाँकि ओबामा को जीत हासिल हुई थी, लेकिन उसे 2008 के मुक़ाबले बहुत कम वोट मिले थे जो डेमोक्रैटिक पार्टी की घटती लोकप्रियता का ही संकेत था।

अमेरिका का बुर्जुआ लोकतन्त्र वहाँ के लोगों को राष्ट्रपति चुनने का जो अधिकार देता है उसका इस्तेमाल करके ज़्यादा से ज़्यादा लोग यह कर सकते हैं कि बुर्जुआ वर्ग के एक नुमाइन्दे से त्रस्त आकर बुर्जुआ वर्ग के दूसरे नुमाइन्दे को चुन लें। इस बार के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में अमेरिकी जनता का गुस्सा डेमोक्रैटिक पार्टी ही नहीं बल्कि पूरे बुर्जुआ लोकतन्त्र के ख़िलाफ़ देखने में आया। यह इस बात से समझा जा सकता है कि इस बार के चुनाव में 45 प्रतिशत मतदाताओं ने किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में वोट नहीं डाला। हिलेरी क्लिंटन और डोनाल्ड ट्रम्प दोनों को महज़ 26-26 प्रतिशत के आसपास ही वोट मिले। हालाँकि ट्रम्प को पिछले चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार मिट रॉमनी के मुक़ाबले ज़्यादा वोट नहीं मिले लेकिन वह अपने चुनाव प्रचार के दौरान कुशलतापूर्वक हिलेरी क्लिंटन को जो शासक कुलीन तबक़े के प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत करने में और ख़ुद को उस कुलीन तबक़े से बाहर का आदमी साबित करने में सफल रहा। हिलेरी क्लिंटन की तमाम कोशिशों के बावजूद उसकी कॉरपोरेट-परस्ती जनता की निगाहों से नहीं छिप सकी। इसका नतीजा हिलेरी क्लिंटन और डेमोक्रैटिक पार्टी के पक्ष में डाले गये वोटों में ज़बरदस्त कमी के रूप में सामने आया जिसका लाभ ट्रम्प को हुआ। विस्कॉन्सिन, पेन्सिलवेनिया और मिशीगन जैसे राज्य जो कभी डेमोक्रैटिक पार्टी के गढ़ हुआ करते थे उनमें मज़दूर वर्ग का गुस्सा हिलेरी क्लिंटन और डेमोक्रैटिक पार्टी पर जमकर फूटा जिसका लाभ डोनाल्ड ट्रम्प को हुआ। ग़ौरतलब है कि ये वे राज्य हैं जो कभी अमेरिका के मैन्युफ़ैक्चरिंग के केन्द्र हुआ करते थे, लेकिन जो भूमण्डलीकरण के दौर में अब उजड़ चुके हैं। इन राज्यों को ‘रस्ट बेल्ट’ (जंग खाये इलाक़े) कहा जाता है क्योंकि भूमण्डलीकरण के दौर से पहले के ये समृद्ध राज्य अब तबाह हो चुके हैं।

हालाँकि ट्रम्प ख़ुद एक पूँजीपति और धनपशु है लेकिन उसने आर्थिक मुश्किलों से जूझ रहे अमेरिकी मध्यवर्ग और मज़दूर वर्ग के गुस्से को अपनी सस्ती लोकरंजक जुमलेबाज़ी के ज़रिये जमकर भुनाया। किसी क्रान्तिकारी ताक़त की अनुपस्थिति में अमेरिकी जनता के पास भविष्य के किसी विकल्प न होने की सूरत में ट्रम्प की बातें जँचीं। ट्रम्प ने उन्हें अमेरिका को फिर से महान बनाने के सब्ज़बाग दिखाये। जिस तरह 2008 में लोगों ने बदलाव की आशा में ओबामा को वोट दिया दिया था उसी तरह इस बार तमाम लोगों ने ट्रम्प को आज़माना चाहा है, हालाँकि ट्रम्प की जीत ओबामा की जीत से बहुत छोटी है। ट्रम्प ने मन्दी और छँटनी से जूझ रहे लोगों को यह यक़ीन दिलाया कि उनकी समस्याओं की वजह बाहर से आ रहे प्रवासी मज़दूर हैं जो मेक्सिको, चीन व एशिया-अफ़्रीका के देशों से आकर उनकी नौकरियाँ छीन रहे हैं। उसने यहाँ तक कहा कि राष्ट्रपति बनने के बाद आप्रवासन रोकने के लिए वह अमेरिका और मेक्सिको की सीमा पर ऊँची दीवार बनवायेगा और उसका ख़र्च मेक्सिको की सरकार से वसूलेगा। उसने मेक्सिको के लोगों को बलात्कारी और हत्यारा तक कहा। यही नहीं उसने मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत को चरम पर ले जाते हुए कहा कि राष्ट्रपति बनने के बाद वह मुसलमानों को अमेरिका में आने पर प्रतिबन्ध लगा देगा। भूमण्डलीकरण की मार से कराह रही आम आबादी को उसने यक़ीन दिलाया कि सत्ता में आने के बाद वह ऐसी नीतियाँ लायेगा जिससे अमेरिकी कम्पनियाँ विदेशों में निवेश करने की बजाय अमेरिका में ही निवेश करेंगी जिससे कि वहाँ नये रोज़गार के अवसर पैदा होंगे। उसने लोगों को बताया कि अमेरिकी कम्पनियों का मुनाफ़़ा इसलिए कम हो रहा है क्योंकि पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर उनका ख़र्च बहुत बढ़ जाता है। उसने सत्ता में आने के बाद पर्यावरण सुरक्षा सम्बन्धी नीतियों को किनारे लगाकर पूँजीपतियों का मुनाफ़़ा बढ़ाने के बात की और लोगों को यक़ीन दिलाया कि पूँजीपतियों का मुनाफ़़ा बढ़ेगा तो उनकी जि़न्दगी में भी बेहतरी आयेगी। उसने मध्य-पूर्व में अमेरिकी सैन्य कार्रवाइयों को और ज़्यादा आक्रामक करने की ज़रूरत पर बल देते हुए कहा कि अमेरिका को फिर से महान बनाने के लिए दुनिया को डराकर रखना होगा। उसने मुस्लिमों, महिलाओं, अश्वेतों, प्रवासियों को निशाने पर लिया जो गोरे टटपुँजिया वर्ग और मज़दूर वर्ग के एक हिस्से के लिए ‘पराये’ थे। ट्रम्प ने उन्हें यक़ीन दिलाया कि वे ‘पराये’ ही दरअसल उनकी बरबादी के लिए जि़म्मेदार हैं। उसने अपनी छवि एक ”निर्णायक और सशक्त” नेता के तौर पर बनायी जो टटपुँजिया वर्ग को बहुत अपील करता है। वर्ग चेतना के अभाव, लम्बे समय से किसी सशक्त मज़दूर आन्दोलन की अनुपस्थिति और अमेरिकी ट्रेड यूनियन आन्दोलन में नस्लवाद के लम्बे इतिहास को देखते हुए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अमेरिका के मज़दूर वर्ग के एक हिस्से को ट्रम्प की घनघोर मज़दूर-विरोधी बातें भी रास आयीं और उन्होंने ट्रम्प जैसे लम्पट और अय्याश पूँजीपति के पक्ष में वोट देने से भी गुरेज़ नहीं किया।

क्या ट्रम्प की जीत के साथ ही अमेरिका में फ़ासीवाद आ गया है?

ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान अन्धराष्ट्रवादी, मुस्लिम-विरोधी, प्रवासी-विरोधी और नस्लवादी बयान ख़ूब दिये, जिसको देखते हुए अमेरिका की उदारवादी बुद्धि‍जीवी जमात और कुछ वाम हलक़ों में ट्रम्प को फ़ासीवादी क़रार दिया जाने लगा है। ट्रम्प की जीत निश्चय ही अमेरिका में फ़ासीवाद की ज़मीन के उपजाऊ होने का सूचक है, लेकिन यह कहना सटीक नहीं होगा कि ट्रम्प की जीत से अमेरिका में फ़ासीवाद आ गया है। विश्वव्यापी महामन्दी के मौजूदा दौर में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में प्रतिक्रियावादी एवं धुर-दक्षिणपन्थी राजनीति का उभार देखने में आया है। लेकिन हर प्रतिक्रियावादी उभार को फ़ासीवाद कहना भूल होगी। फ़ासीवाद एक काडर आधारित पार्टी के नेतृत्व में व्यापक सामाजिक आधार वाला टटपुँजिया वर्ग का एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन होता है जिसकी एक सुस्पष्ट विचारधारा होती है जो पूँजीवाद के संकट के काल में फलती-फूलती है और जिसके मुख्य निशाने पर मज़दूर आन्दोलन होता है। ट्रम्प के उभार में ये पहलू अनुपस्थित हैं। यह सच है टटपुँजिया वर्ग के बड़े हिस्से ने ट्रम्प की चुनावी लहर का समर्थन किया, लेकिन व्यापक साामाजिक आधार वाला ऐसा कोई प्रतिक्रियावादी आन्दोलन हो, यह नहीं कहा जा सकता। ट्रम्प की कोई गुण्डावाहिनी नहीं है जो हिटलर की ‘एसए’ या मुसोलिनी की ‘ब्लैक शर्ट्स’ की तरह सड़कों पर मज़दूर आन्दोलन और प्रगतिशीलों पर हमला करती हो। ट्रम्प एक पूँजीपति है जिसने रियल एस्टेट, शेयर बाज़ार, जुआघर, गोल्फ़ कोर्स और मनोरंजन उद्योग में निवेश किया है। अभी कुछ साल पहले तक वह राजनीति की दुनिया से बाहर था और रिपब्लिकन और डेमोक्रैट दोनों पार्टियों को चुनावों से पहले बतौर पूँजीपति फ़ण्ड देता रहा था। उसका किसी फ़ासीवादी संगठन या विचारधारा से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। अमेरिका में ‘कू-क्लक्स-क्लैन’ और ‘ओथ टेकर्स’ जैसे नव-फ़ासिस्ट और घोर-दक्षिणपन्थी समूह ज़रूर सक्रिय हैं और उन्होंने इन चुनावों में ट्रम्प को समर्थन भी दिया और उसकी जीत पर जश्न भी मनाया, लेकिन वे अभी भी हाशिये पर हैं।

अगर ट्रम्प फ़ासीवादी नहीं है तो फिर आख़िर उसकी राजनीति है क्या? क्या वह रिचर्ड निक्सन, रोनाल्ड रीगन और जॉर्ज बुश की ही तरह एक और दक्षिणपन्थी नेता है? जवाब है नहीं! दरअसल ट्रम्प की राजनीति व्यवहारवादी (प्रैगमैटिस्ट) दर्शन की धुर-दक्षिणपन्थी अभिव्यक्ति है। व्यवहारवाद के अनुसार सत्य इस्तेमाल से ही पैदा होता है। अमूर्तन और नियमबद्धता को ख़ारिज़ करते हुए वह सिद्धान्त की बजाय कार्रवाई पर ज़ोर देता है ज़रूरत के अनुसार किसी भी पद्धति का इस्तेमाल करने की बात करता है। ट्रम्प रिपब्लिकन पार्टी के उस धुर-दक्षिणपन्थी धड़े का प्रतिनिधित्व करता है जिसका सामाजिक आधार गोरे टटपुँजिया वर्ग व मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा है और जो अमेरिका के पूर्वी तट के वित्तीय महाप्रभुओं से उतनी ही नफ़रत करता है जितनी वह अश्वेतों और प्रवासियों से करता है।

ट्रम्प का उभार ऐसे दौर में हुआ है जब दुनिया के विभिन्न हिस्सों में आर्थिक संकट की परिस्थिति में जहाँ एक ओर शासक वर्ग पुराने तरीक़े से सत्ता नहीं चला पा रहा है और वहीं दूसरी ओर उसकी सत्ता को चुनौती देने वाला कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन भी अनुपस्थित है। ऐसी परिस्थिति में पूँजीवाद के भीतर से ही भाँति-भाँति की व्यवहारवादी-लोकरंजकतावादी (दक्षिणपन्थी और वामपन्थी दोनों कि़स्म के) ताक़तें उभर रही हैं। इस बार के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में दक्षिणपन्थी व वामपन्थी लोकरंजकतावाद की बानगी देखने को मिली। जहाँ ट्रम्प दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद का प्रतिनिधित्व कर रहा था वहीं बर्नी सैण्डर्स (जो डेमोक्रैटिक पार्टी के कन्वेंशन में हिलेरी क्लिंटन से हार गया था और जिसने बाद में क्लिंटन को अपना समर्थन दिया) वामपन्थी लोकरंजकतावाद की बानगी पेश कर रहा था। यूरोप में लोकरंजकतावाद की ये दोनों कि़स्में देखने में आ रही हैं। जहाँ यूनान में सिर‍िजा और स्पेन में पोदेमॉस के उभार में वामपन्थी लोकरंजकतावाद का उदाहरण देखने को आया वहीं फ़्रांस में फ़्रण्ट नेशनेल (एफ़एन) की मैरीन ली पेन, ब्रिटेन में यूकेआईपी के नाइजे़ल फै़राज़, जर्मनी में एएफ़डी का उभार दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावाद की बानगी पेश कर रहा है।

लेकिन साथ ही भविष्य में इस सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि ट्रम्प का उभार अमेरिका में फ़ासीवादी राजनीति के उपजाऊ होने का सूचक है। ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में फ़ासीवादी राजनीति की ज़मीन निश्चय ही मज़बूत होगी और जो रुझान अभी हाशिये पर हैं वे मुख्यधारा भी बन सकते हैं।

ट्रम्प की भावी नीतियाँ और मज़दूर आन्दोलन की चुनौतियाँ

हालाँकि अमेरिका के पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्से और वॉल स्ट्रीट ने ट्रम्प पर अपना दाँव नहीं लगाना श्रेयस्कर नहीं समझा था, लेकिन उसके राष्ट्रपति बनने के बाद उनको यह तसल्ली है कि ट्रम्प थोड़ा बड़बोला भले हो लेकिन उनका अपना ही आदमी है। इसके संकेत अमेरिकी शेयर बाज़ार से मिल रहे हैं, जोकि ट्रम्प की जीत के बाद से उछाल पर है। यही नहीं अमेरिकी डॉलर की क़ीमत में भी ट्रम्प की जीत के ठीक बाद उछाल देखने को आया है। यह लेख लिखे जाने तक ट्रम्प ने अपने मन्त्रालय में कैबिनेट पोस्ट के लिए जिन 17 लोगों को चुना है उनकी सम्पत्ति अमेरिका के एक-तिहाई घरों की कुल सम्पत्ति से ज़्यादा है। ट्रम्प के मन्त्रिमण्डल में बैंकरों से लेकर हेज फ़ण्ड मैनेजर और राष्ट्रपारीय निगमों के पूर्व सीईओ तक शामिल हैं। मौक़े की नज़ाक़त को समझते हुए वित्तीय पूँजी ने ट्रम्प को अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया है। ट्रम्प ने भी जीत के बाद अपने बयानों में कुछ विवादास्पद वायदों से पलटने के संकेत दे दिये हैं।

ट्रम्प ने जो वायदे किये हैं उनमें से कुछ तो ऐसे हैं जो अमेरिकी वित्तीय महाप्रभुओं के हितों से मेल खाते हैं। ज़ाहिरा तौर पर ऐसे वायदों को पूरा करने में ट्रम्प ज़रा भी देरी नहीं करेगा क्योंकि ऐसा करना वित्तीय पूँजी के भी हित में होगा। मसलन, उसका एक बड़ा वायदा कारॅपोरेट कर और आयकर में कटौती करने का है। ऐसी कोई भी कटौती अमेरिका के शीर्ष के 1 प्रतिशत धनपशुओं के हित में होगी जिसका पूँजीपति वर्ग पलक-पाँवड़े बिछाकर स्वागत करेगा। इसके अलावा ट्रम्प ने बैंकों के विनियमन और श्रम अधिकारों में कटौती करने का भी वायदा किया है जो पूँजीपति भी चाहते हैं। यही नहीं ट्रम्प ने यह भी कहा कि उसकी आने वाले 4 वर्षों में पूरे देश में नये इंफ़्रास्ट्रक्चर और निवेश प्रोज़ेक्टों में 1 ट्रिलियन डॉलर ख़र्च करने की योजना है। ग़ौरतलब है कि ट्रम्प जिस ख़र्च की बात कर रहा है वह सरकारी नहीं निजी खिलाि‍ड़‍यों की अगुवाई में होगा। सरकार बस ऐसे निवेश को प्रोत्साहन देगी। बड़ी निर्माण कम्पनियाँ व रियल एस्टेट कम्पनियाँ (ट्रम्प ख़ुद ऐसी कम्पनियों का मालिक है) इस घोषणा से बहुत ख़ुश हैं क्योंकि उनको मुनाफ़़ा कूटने के नये अवसर मिलेंगे।

जिन मुद्दों पर ट्रम्प के वायदों और पूँजीपति वर्ग के हितों में टकराहट होने की सम्भावना है वे हैं व्यापार संरक्षणवाद और आप्रवासन में बन्दिशें। अमेरिका में नौ‍करियाँ बढ़ाने के नाम पर ट्रम्प जापान और एशिया के साथ क्षेत्रीय व्यापार समझौते ट्रांस-पेसिफि़क पार्टनरशिप (टीपीपी) और यूरोप के साथ व्यापार समझौते ट्रांस एटलांटिक ट्रेड एण्ड इनवेस्टमेण्ट (टीटीआईपी) को ख़त्म करने की बात कर रहा है। यही नहीं वह मेक्सिको और कनाडा के साथ मुक्त व्यापार समझौते नॉर्थ अमेरिकन फ़्री ट्रेड एग्रीमेण्ट (नाफ़्टा) पर भी फिर से मोलभाव करने की बात कर रहा है। वह अमेरिकी कम्पनियों को दूसरे देशों में निवेश करने की बजाय अमेरिका में निवेश करने पर ज़ोर देने की भी बात कर रहा है। अपने चुनावी भाषणों में उसने दावा किया था कि वह एप्पल जैसी कम्पनी को कहेगा कि वह अपने कम्प्यूटर और आईफ़ोन चीन में बनाने की बजाय अमेरिका में बनाये ताकि अमेरिका के लोगों को रोज़गार मिल सके। उसने अमेरिका में चीनी उत्पादों के आयात पर 45 फ़ीसदी कर लगाने की भी बात की थी। ज़ाहिरा तौर पर ये वो जुमले थे जिनका इस्तेमाल ट्रम्प ने चुनाव जीतने के मक़सद से किया था। ख़ुद एक पूँजीपति होने के नाते ट्रम्प यह अच्छी तरह से जानता होगा कि अमेरिकी कम्पनियाँ विदेशों में निवेश इसलिए करती हैं क्योंकि उन्हें वहाँ सस्ता श्रम और कच्चा माल मिलता है जिससे उनका मुनाफ़़ा बढ़ता है। ज़ाहिरा तौर पर अमेरिका का पूँजीपति वर्ग राष्ट्रप्रेम में इतना अन्धा नहीं हो जायेेगा कि वह मुनाफ़़े में कटौती करके अपनी कब्र ख़ुद ही खोदने की ग़लती करेगा। ऐसे मुद्दों पर ट्रम्प को वित्तीय महाप्रभुओं के सामने घुटने टेकने ही पड़ेंगे।

ट्रम्प एक ऐसे समय अमेरिका के राष्ट्रपति का पद सँभालने जा रहा है जब विश्व पूँजीवाद अपने अन्तकारी संकट से बिलबिला रहा है। ट्रम्प की नीतियों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस संकट से छुटकारा दिला सकने में सक्षम हो। उस पर से तुर्रा यह कि अमेरिका में एक नयी मन्दी की भी सम्भावनाएँ जतायी जा रही हैं। ऐेसे में ट्रम्प जैसे धूर-दक्षिणपन्थी व्यक्ति का अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर होने से नस्लीय नफ़रत व मुस्लिम-विरोधी दुष्प्रचार को बढ़ावा दिया जाना तय है। मन्दी की मार झेल रहा अमेरिका का पूँजीपति वर्ग ट्रम्प के ज़रि‍ये दुनिया के विभिन्न हिस्सों को नये युद्धों की ओर झोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा ताकि उत्पादक शक्तियों को तबाह कर पूँजी के मुनाफ़़े की नयी सम्भावनाओं के द्वार खुल सकें। जीत के बाद ट्रम्प ने पर्यावरण क़ानूनों को धता बताने और नाभिकीय होड़ को बढ़ावा देने के संकेत भी दिये हैं। स्पष्ट है कि आने वाले वर्ष समूची दुनिया में ज़बरदस्त तबाही, उथल-पुथल और भीषण रक्तपात के होने वाले हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या ये परिस्थितियाँ मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी उभार को जन्म देंगी। इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्त में छिपा है।

 

 

दिशा सन्धान – अंक 4  (जनवरी-मार्च 2017) में प्रकाशित

मराठा मूक मोर्चों के पीछे मौजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिकी : एक मूल्यांकन

मराठा मूक मोर्चों के पीछे मौजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिकी : एक मूल्यांकन

  • शिवार्थ

13 जुलाई 2016 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जि़ले के कोपर्डी गाँव में मराठा जाति की एक 14 वर्षीय बालिका के साथ सामूहिक बलात्कार एवं उसके पश्चात बेहद निर्ममता से उसकी हत्या किये जाने का मामला सामने आया। ग़ौरतलब है कि इसके तीनों पुरुष अभियुक्त दलित जातियों से आते हैं। घटना के तात्कालिक प्रभाव के तौर पर मराठा आबादी के साथ व्यापक जनता का इस घटना को लेकर रोष मुखर तौर पर सामने आया। दलित आबादी ने भी आरोपियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देने की माँग उठायी। कई जगहों पर बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए जिनकी प्रमुख माँग थी, इन दोषियों की फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के अन्तर्गत सुनवाई करवाना और इन्हें मृत्युदण्ड दिलवाना। जल्द ही मराठा जातिगत राजनीति करने वालों ने इसे जातिगत मसला भी बना दिया। इसी के साथ ही कई जगह पर इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप दलित आबादी पर हमले किये गये। जातिगत आधार पर संगठित मराठा आबादी के इन प्रदर्शनों की एक और अहम माँग जो सामने आयी वह यह थी कि दलित उत्पीड़न निरोधी क़ानून, 1989 में संशोधन किया जाये ताकि दलित इसका ‘दुरूपयोग’ न कर सके। एक तात्कालिक घटना की प्रतिक्रियास्वरुप और जातिगत वर्चस्ववादी मराठा राजनीति करने वालों के सहयोग से संगठित इन तात्कालिक प्रदर्शनों ने अगस्त और सितम्बर आते-आते प्रदेशव्यापी स्तर पर गाँवों, क़स्बों से लकर राजधानी मुम्बई तक मराठा आबादी के व्यापक प्रदर्शनों का स्वरुप ग्रहण कर लिया। इन प्रदर्शनों में हज़ारों की संख्या में लोगों की भागीदारी नज़र आयी। रूप के धरातल पर इनका नेतृत्व करने वाली या उन्हें आयोजित करने वाली कोई चुनावी पार्टी या किसी एन.जी.ओ. इत्यादि के लोग नज़र नहीं आये। यह भी देखने में आया कि नौजवान लड़के-लड़कियों से लेकर बुजुर्गों और महिलाओं तक ने बड़ी संख्या में इनमें भागीदारी की और इनका आयोजन शुरुआती घटनाओं को छोड़कर शान्तिपूर्ण ही रहा है। यहाँ तक कि इन्हें ‘मूक प्रदर्शनों’ की संज्ञा भी दी गयी, क्योंकि आम प्रदर्शनों के मुक़ाबले इनमें नारे इत्यादि कम ही देखने को मिले। माँगें भी बदलती गयीं और उन्होंने अधिक से अधिक राजनीतिक स्वरुप ग्रहण करना शुरू कर दिया। अब सिर्फ़ अभियुक्तों को जल्द से जल्द सज़ा दिलाने के इतर जो तीन प्रमुख माँगें उभरकर सामने आईं, वे थीं – दलित उत्पीड़न निरोधी क़ानून में संशोधन कराया जाये, अन्य पिछड़ा वर्ग के अन्तर्गत मराठा आबादी के लिए सरकारी नौकरी एवं शिक्षा में आरक्षण दिया जाये एवं राज्य द्वारा किसानों से अनाज ख़रीदने के मूल्य, यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) में बढ़ोतरी की जाये।

इन प्रदर्शनों की व्यापकता देखकर, दो मत उभरकर सामने आ रहे हैं जिनकी पड़ताल करना ज़रूरी है। दलित चिन्तकों से लेकर कई चुनावी दलों तक का यह मत है कि इनके आयोजन के लिए होने वाले ख़र्च से लेकर इनको अप्रत्यक्ष तौर पर नेतृत्व प्रदान करने का काम प्रदेश की मराठा आबादी के बीच सबसे लोकप्रिय और विगत लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बुरी तरह असफल रहने वाली एन.सी.पी. यानी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी कर रही है। तथ्य के तौर पर यह बात भी है कि पार्टी के अध्यक्ष और महाराष्ट्र के सबसे विख्यात (कुख्यात भी पढ़ सकते हैं) नेताओं में से एक शरद पवार और एन.सी.पी. के लगभग हर छोटे-बड़े नेता ने बिना किसी गाजे-बाजे के इन प्रदर्शनों में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। अन्य चुनावी पार्टियों का भी रुख़ अपने वोट-बैंक के मूल्यांकन के आधार पर कमोबेश इसी प्रकार रहा है और भाजपा व शिवसेना में भी हावी मराठा लॉबी ने अपनी तरह से इसका लाभ उठाने का प्रयास किया है। वहीं दूसरी ओर चर्चित अख़बारों-पत्रिकाओं से लेकर बुद्धिजीवियों के एक धड़े का मानना है कि यह स्वतःस्फूर्त आधार पर उभरा एक जनआन्दोलन है जो, बावजूद इसके कि जातिगत आधार पर उभरकर सामने आया है, अपने अन्तर्य में लम्बे समय से मराठा आबादी के बहुलांश के बीच सरकार और चुनावी पार्टियों की नीतियों के विरुद्ध जनता में पनप रहे गुस्से और आक्रोश का परिचायक है। इस आन्दोलन के इस पहलू को, जिसकी हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे, ख़ारिज़ तो नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी ग़ौरतलब है कि तीन-चार महीनों तक चलने वाले आन्दोलन के पीछे कोई चालक शक्ति तो होगी और दूसरे जहाँ तक चुनावी गणित का सवाल है तो इनसे सबसे अधिक फ़ायदा एन.सी.पी. को और एक हद तक भाजपा को ही मिलेगा।

अगर इस आन्दोलन के केन्द्र में उपस्थित माँगों की रोशनी में देश के अन्य कृषि आधारित क्षेत्रों पर नज़र दौडाई जाये, तो दिखाई देता है कि पिछले 2-3 सालों में गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं आन्ध्र प्रदेश में भी इस तरह के आन्दोलन हुए हैं जिसमें उभरती मँझोली किसान जातियों ने आरक्षण की माँग उठायी है और जातिगत गोलबन्दी की है। जुलाई 2015 के दौरान गुजरात में पटीदार आबादी द्वारा पिछड़ा एवं अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल होने और शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त करने को लेकर एक आन्दोलन की शुरुआत हुई। भले ही फ़ौरी तौर पर इससे कुछ ख़ास न अर्जित हुआ हो, लेकिन इतना तो ज़रूर हुआ कि मुख्यमन्त्री आनन्दीबेन पटेल को इस्तीफ़ा देना पड़ा और गुजरात की चुनावी राजनीति के जातिगत समीकरणों में परिवर्तन आया। अप्रैल 2016 में हरियाणा में जाट आबादी द्वारा मुख्यतः इसी माँग को लेकर प्रदेश स्तर पर एक बड़ा आन्दोलन देखने में आया, जिसमें कि जल्द ही लूट-पाट, बलात्कार और हत्याओं जैसी घटनाएँ भी सामने आने लगीं। फ़रवरी 2016 में आन्ध्र प्रदेश की कापू आबादी द्वारा आन्दोलन भी इस  मुद्दे को लेकर ही संगठित हुआ था, हालाँकि वह पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से आरक्षण-सम्बन्धी माँगों को लेकर प्रदर्शन करते रहे हैं।

महाराष्ट्र में पिछले पाँच महीनों से जारी मराठा आबादी के ‘मूक मोर्चों’ से इन सभी आन्दोलनों का बिल्कुल सादृश्य निरूपण तो नहीं किया जा सकता, लेकिन एक बात जो इनमें समान है, वह यह है कि ये सारे आन्दोलन पारम्परिक तौर पर कृषि पर निर्भर मध्य जातियों की बहुलांश आबादी के आन्दोलन हैं। उदारीकरण-निजीकरण के पिछले तीस वर्षों ने जहाँ एक ओर कृषि में लगी हुई आबादी के बीच वर्ग-विभेदीकरण की प्रक्रिया को अप्रत्याशित ढंग से तेज़ किया है और कृषि क्षेत्र से एक अच्छी-ख़ासी आबादी को उजाड़ा है, वहीं गै़र-कृषि क्षेत्रों में रोज़गार के अवसरों में हुई बढ़ोत्तरी बेशी आबादी में हुई बढ़ोत्तरी की तुलना में लगभग न के बराबर है उल्टे बेशी आबादी के सापेक्ष रोज़गार के अवसर घटे हैं। अगर आँकड़ों की बात करें तो 2010-11 में कृषि मन्त्रालय द्वारा जारी कृषि जनगणना के आँकड़ों के अनुसार 2001-02 के मुक़ाबले 2010-11 में 25 एकड़ से अधिक कृषि-योग्य भूमि रखने वाली आबादी 1 प्रतिशत से घटकर 0.7 प्रतिशत तक आ गयी है, वहीं 2.5 एकड़ से कम भूमि रखने वाली आबादी 62.1 प्रतिशत से बढ़कर 67 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। 10 एकड़ से लेकर 25 एकड़ के बीच कृषि-योग्य भूमि रखने वाली किसान आबादी 2001-02 के मुक़ाबले 2010-11 में 5.3 प्रतिशत से सिकुड़कर 4.3 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। वहीं दूसरी ओर धनी किसानों व कुलकों के हाथों में कृषि-योग्य-भूमि का संकेन्द्रण तेज़ी से बढ़ा है। यानी कुल मिलाकर कहा जाये तो देश की कृषि-योग्य भूमि का एक तिहाई से ज़्यादा हिस्सा खेती में लगी 5 प्रतिशत आबादी के पास है, वही 85 प्रतिशत आबादी के पास कुल भूमि का 40 प्रतिशत से भी कम है। कृषि में लगी हुई आबादी के बीच वर्ग-विभेदीकरण की प्रक्रिया 2010-11 से लेकर अब तक और तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ी है। वर्ग विभेदीकरण की इस प्रक्रिया के साथ (या कहें कि इसके फलस्वरूप) ही पिछले दो दशकों के दौरान कृषि संकट भी लगतार गहराता रहा है। इस दौरान पूरे देश में क़रीब तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुए हैं। सिर्फ़ महाराष्ट्र में ही इसकी संख्या बीस हज़ार से अधिक है। अगर अर्थव्यवस्था में कृषि की भागीदारी की बात की जाये तो सकल घरेलू उत्पाद का 15 प्रतिशत से भी कम कृषि और उससे जुड़ी हुई गतिविधियों से आता है, वहीं आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने जीविकोपार्जन के लिए इस पर निर्भर है, हालाँकि कृषि कार्यों में लगी आबादी का हिस्सा गाँवों तक में पिछले एक दशक में बेहद तेज़ी से कम हुआ है और गैर-कृषि कार्यों में लगी आबादी का हिस्सा बढ़ा है। कृषि से इतर मैन्युफै़क्चरिंग और प्रत्यक्ष उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में रोज़गार का सृजन नकारात्मक दरों में है। सरकारी एवं प्राइवेट क्षेत्रों में भी यही हालत है और जो नयी भर्ती हो भी रही है वह अधिकतर ठेका-केजुअल-एडहॉक के अन्तर्गत ही हो रही है।

यही कारण है कि पारम्परिक तौर पर खेती-किसानी में लगे हुए घरों के नौजवान जो कभी नौकरी इत्यादि को हिक़ारत की नज़र से देखते थे, उनके सामने आज अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। आज से क़रीब बीस साल पहले के मुक़ाबले आज उन्हें इसकी कहीं ज़्यादा ज़रूरत महसूस हो रही है कि डिग्री इत्यादि हासिल कर किसी भी तरह प्राइवेट सेक्टर की या सरकारी नौकरी प्राप्त कर ली जाये। कई प्रदेशों में तो किसान संकटग्रस्त कृषि के मद्देनज़र अपनी ज़मीनें बेचकर चपरासी व खलासी की सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत देने को तैयार है। सबसे धनी कृषि प्रदेशों यानी हरियाणा और पंजाब में क़रीब 40 प्रतिशत किसान पहला मौक़ा मिलते कृषि छोड़ कोई अन्य रोज़गार अपना लेना चाहते हैं। महाराष्ट्र में पूँजीवादी कृषि संकट और उसके साथ सूखा के पूँजीवाद-जनित संकट ने भी ऐसी ही स्थिति पैदा कर दी है। इस सामान्य कारक के बावजूद महाराष्ट्र में जारी, लगभग प्रदेशव्यापी स्तर पर मराठा आबादी का जन आक्रोश अपने आप में विशिष्ट पड़ताल की माँग करता है। इसके माध्यम से जहाँ एक ओर हम नवउदारवादी नीतियों के चलते मज़दूरों के बीच पिछले कुछ समय से जारी स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों के बाद अब क़स्बों एवं गाँवों की ग़रीब आबादी को भी सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर होने की प्रक्रिया को देख पायेंगे, तो वहीं दूसरी ओर हम नये सिरे से जातिगत आधार पर संगठित होने वाले आन्दोलनों की सीमाएँ एवं उनके वर्गीय लक्षणों की भी चर्चा कर सकेंगे।

अगर महाराष्ट्र के भीतर, जनसंख्या के आधार पर देखा जाये तो आबादी का क़रीब एक-तिहाई हिस्सा और कुछ आँकड़ों के अनुसार 35-38 फ़ीसदी मराठा आबादी का है। 27 फ़ीसदी अन्य पिछड़ी जातियों जिसमें कुनबी, धनगर जातियाँ आदि हैं और 10-12 फ़ीसदी आबादी दलितों की है। मराठा आबादी की बात की जाये तो अन्य जातियों की अपेक्षा इसमें काफ़ी विविधता है। मुख्यतः हम इन्हें पाँच प्रमुख प्रवर्गों में बाँट सकते हैं, सबसे ऊपर देख सकते हैं उन 200 कुलीन और अतिधनाढ्य मराठा परिवारों को जिनका आज प्रदेश के लगभग सारे मुख्य आर्थिक संसाधनों और राजनीतिक सत्ता के केन्द्रों पर कब्ज़ा है। यह मराठा आबादी का सबसे कुलीन वर्ग है, जिसके पास अप्रत्याशित रूप से राजनीतिक और आर्थिक ताक़त का संकेन्द्रण है। प्रदेश के क़रीब 54 प्रतिशत शिक्षा संस्थानों पर इनका क़ब्ज़ा है, प्रदेश की 105 चीनी मीलों में से क़रीब 86 का मालिकाना इनके पास है, प्रदेश के क़रीब 23 सहकारी बैंकों के यही खाते-पीते मराठा प्रबन्धक हैं, प्रदेश के विश्वविद्यालयों में क़रीब 60-75 प्रतिशत प्रबन्धन इनके क़ब्ज़े में है। क़रीब 71 फ़ीसदी सहकारी समिि‍तयाँ इनके पास हैं। जहाँ तक राजनीतिक ताक़त की बात है तो 1962 से लेकर 2004 तक चुनकर आये 2430 विधायकों में 1336 (यानी 55 फ़ीसदी) मराठा हैं, जिनमें अधिकांश इन्हीं परिवारों से आते हैं। 1960 से लेकर अब तक महाराष्ट्र के 19 मुख्यमन्त्रियों में से 10 इनके बीच से ही हैं।

इनके ठीक नीचे है मराठा आबादी का दूसरा वर्ग – धनी किसान या ‘बागायती’ वर्ग जो नक़दी फ़सलें पैदा करता है और गाँवों का पूँजीपति वर्ग है। महाराष्ट्र में क़रीब 80-90 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि के हिस्से का मालिकाना मराठा जाति के पास है। इनमें से क़रीबी एक-तिहाई से ज़्यादा इसी धनी किसान वर्ग के पास है। यह वर्ग ऊपर के धनी घरानों जैसी आर्थिक शक्तिमत्ता तो नहीं रखता, लेकिन यह महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति का एक प्रमुख राजनीतिक प्रेशर ग्रुप है, जिसका नीति-निर्धारण पर असर है। इनके नीचे आता है मँझोले किसानों का वर्ग जिनके पास 2.5 एकड़ से लेकर 10 एकड़ तक की ज़मीनें हैं। यह न तो पूरी तरह ख़ुशहाल है, न ही बर्बादी के क़गार पर खड़े हैं। ये अनिश्चितता में जीते हैं और अपनी खेती में काफ़ी हद तक मौसम-बारिश जैसे प्राकृतिक कारकों और सरकारी नीतियों पर निर्भर होते हैं। ये धनी किसानों की क़तार में शामिल होने के लगातार सपने सँजोते हैं, और जब ऐसा करने में आर्थिक तौर पर नाकामयाब होते हैं, तो हताशा और रोष का शिकार होते हैं। ये सूदखोरों और बैंकों द्वारा तंग किये जाने पर आत्महत्याएँ कर लेते हैं। मँझोले किसानों के इस वर्ग का अच्छा ख़ासा हिस्सा पिछले दशकों में खेतिहर मज़दूरों की क़तार में भी शामिल हुआ है। इसके नीचे आने वाला चौथा वर्ग है ग़रीब मराठा आबादी का जो कि केवल खेती से जीविकोपार्जन नहीं कर पाते और उनका अच्छा-ख़ासा हिस्सा बड़े किसानों के खेतों पर मज़दूरी भी करता है। इनकी स्थिति काफ़ी हद तक खेतिहर मज़दूरों जैसी होती है। ये अपने बच्चों को स्तरीय शिक्षा नहीं दिला सकते। डिग्री इत्यादि के अभाव में शहरों तक पहुँच रोज़गार प्राप्त कर सकने की इनकी स्थिति नहीं होती। इनमें सांस्कृतिक और शैक्षणिक पिछड़ापन बुरी तरह व्याप्त है। पाँचवाँ वर्ग सबसे ग़रीब मराठा आबादी का यानी खेतिहर मज़दूरों का है, जो दूसरे के खेतों पर मज़दूरी करने या सरकार की रोज़गार गारण्टी योजनाओं पर निर्भर रहने को बाध्य हैं। यह आबादी सबसे भयंकर ग़रीबी में जीवनयापन कर रही है। कुछ नमूना सर्वेक्षणों के अनुसार कुल मराठा आबादी का क़रीब 35-40 हिस्सा खेतिहर मज़दूरों का है।

इसमें नीचे के विशेषकर तीन वर्गों का गुस्सा ग़रीबी, बेरोज़गारी और असमानता के ख़ि‍लाफ़ लम्बे समय से संचित हो रहा है। इस गुस्से का निशाना मराठा जातियों की नुमाइन्दगी करने वाली प्रमुख पार्टियाँ बन सकती हैं, जो कि वास्तव में मराठों के बीच मौजूद अतिधनाढ्य वर्गों की नुमाइन्दगी करता है। यह वर्ग अन्तरविरोध अपने आपको इस रूप में अभिव्यक्त करने की सम्भावना-सम्पन्नता रखता है। लेकिन यह सम्भावना-सम्पन्नता स्वत: एक यथार्थ में तब्दील हो, इसकी गुंजाइश कम है। ग़रीब मेहनतकश मराठा आबादी में भी जातिगत पूर्वाग्रह गहराई से जड़ जमाये हुए हैं। ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद की सोच उनमें भी अलग-अलग मात्रा में मौजूद है। ऐसे में, मराठों के बीच मौजूद जो शासक वर्ग है और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली मराठा पहचान की राजनीति करने वाली बुर्जुआ पार्टियाँ मराठा जातियों के व्यापक मेहनतकश वर्ग के वर्गीय गुस्से को एक जातिगत स्वरूप दे सकती हैं और देती रही हैं। इन आबादी को इस बात पर भरमाया जा सकता है कि उसकी ग़रीबी और बेरोज़गारी का मूल कारण दलित हैं जो कि आरक्षण के ज़रिये रोज़गार के मौक़े हड़प जा रहे हैं। इसी के साथ दलित आबादी के बीच जो एक मध्यवर्ग पैदा हुआ है, वह भी अस्मितावादी राजनीति के प्रभाव में होने के चलते जातीय तौर पर अपने आपको एसर्ट कर रहा है, जिससे कि वर्गीय अन्तरविरोधों को जातिगत स्वरूप देने की सम्भावनाएँ प्रबल हो जाती हैं। जब भी वर्गीय अन्तरविरोध सही रूप में तन्तुबद्धीकृत होकर अभिव्यक्त (आर्टिकुलेट) नहीं होते, तो वे किसी न किसी प्रकार की विकृत अभिव्यक्ति पाते हैं। यह विकृत अभिव्यक्ति अलग-अलग ऐतिहासिक सन्दर्भों और परिप्रेक्ष्यों में अलग-अलग रूप धारण कर सकती है। कभी ये नस्लीय स्वरूप ले सकती है, कभी ये प्रवासी-विरोध (ज़ेनोफोबिया) के रूप में सामने आ सकती है, कभी ये साम्प्रदायिक चोला ओढ़कर आ सकती है और भारत में अक्सर ये जातिगत अन्तरविरोध का स्वरूप धारण करती है। चाहे ये जो भी स्वरूप धारण करे, इसके मूल में वर्गीय अन्तरविरोध ही प्रवाहित होते रहते हैं।

ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है कि, इस पूरे आन्दोलन को अगर महज़ जातिगत फ्रे़मवर्क में देखा जाये तो हम मराठा आबादी के बहुलांश का सत्ता प्रतिष्ठानों आर सरकारी मशीनरी के विरुद्ध लम्बे समय से पनप रहे गुस्से और असन्तोष को नहीं समझ पायेंगे और यह भी नहीं समझ पायेंगे कि ये ”मूक मोर्चे” जिस दौर में हुए उसी दौर में क्यों हुए। इसी रोशनी में यह देखना दिलचस्प और ज़रूरी होगा कि इस आन्दोलन के केन्द्र में उपस्थित माँगों का वर्गीय चरित्र क्या है। जैसे कि हमने पहले ही इंगित किया कि हत्या और बलात्कार के दोषियों को जल्द से जल्द मृत्युदण्ड दिलाने (जिस पर तमाम दलित भी माँग उठा रहे थे) के अलावा जो तीन प्रमुख माँगें उभरकर सामने आयी हैं, वे हैं दलित उत्पीड़न निरोधी क़ानून, 1989 के प्रावधानों को ढीला किया जाये, या इस क़ानून को ही पूरी तरह वापस कराया जाये; शिक्षा संस्थानों व सरकारी एवं प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में आरक्षण दिया जाये; एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) को बढ़ाया जाये।

अगर सिर्फ़ चिन्हित हुई घटनाओं से जुटाये गये आँकड़ों के आधार पर भी बात की जाये तो, पूरे महाराष्ट्र में ही और विशेषकर अहमदनगर जि़ले में दलितों के ख़ि‍लाफ़ सबसे जघन्य अपराध मराठा जाति से आने वाले दबंगों धनी किसानों द्वारा ही होता है। अक्सर ये दलित खेतिहर मज़दूरों के बीच से आते हैं। वैसे तो पूरे देश भर में ही दलित आबादी के विरुद्ध होने वाले अपराधों में पिछड़ी जातियाँ, किसी भी रूप में ब्राह्मणों-क्षत्रियों से पीछे नहीं हैं बल्कि कहना चाहिए कि पिछले कई दशकों से दलितों के विरुद्ध प्रमुख दमनकारी जाति की भूमिका में ये मध्य किसान जातियाँ हैं (जिनसे एकता के आधार पर ‘बहुजन समाज’ निर्मित करने और ब्राह्मणवाद से लड़ने का दिवास्वप्न दिखलाया जाता है)। महाराष्ट्र में तो इस तरह की नब्बे फ़ीसदी उत्पीड़न की घटनाएँ मराठा जाति से आने वाले धनी वर्ग के लोगों द्वारा ही की जाती हैं। अगर कुछ प्रतीक घटनाओं की बात की जाये तो अहमदनगर जि़ले के जवखेड़ तहसील में अक्टूबर 2014 में एक दलित परिवार के तीन लोगों को मार दिया गया था; अप्रैल 2014 में यहीं पर एक सत्रह वर्षीय दलित लड़के को भीड़ द्वारा मार दिया गया; जनवरी 2013 में सोनई गाँव के एक ही दलित परिवार के तीन लोगों को मार दिया गया था। इन सभी घटनाओं में अभियुक्त मराठा जाति से आने वाले लोग ही थे। सवाल तो यह भी उठता है कि इन अपराधों पर व्यापक मराठा आबादी ने उस तरह रोष क्यों नहीं प्रकट किया जैसे वो इस हालिया घटना को लेकर कर रहे हैं। वहीं दूसरी और आँकड़ों के लिहाज़ से देखें तो पिछले पाँच सालों में यानी 2010 से लेकर 2015 के एफ़.आई.आर. या केस जो दलित उत्पीड़न निरोधी क़ानून के अन्तर्गत दर्ज कराये गये थे उनकी संख्या 319 से घटकर 290 तक पहुँच गयी है। इसमें अभियुक्त को सज़ा दिये जाने की दर भी महज़ 7 प्रतिशत है, यानी साल-भर में मुश्किल से 20-22 लोग पूरे महाराष्ट्र में इस क़ानून के अन्तर्गत दण्डित हुए होंगे। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे प्रदेशों के लिहाज़ से भी यह आँकड़ा बहुत कम है। यह बात बिल्कुल साफ़ है कि इस क़ानून का कितना ‘दुरुपयोग’ हो रहा है, और इसको संशोधित किये या वापस लिये जाने से आम मराठा आबादी को क्या मिल जायेगा! वहीं दूसरी तरफ़़ ग़रीब दलितों के लिए इसके परिणाम भयंकर होंगे। एक बड़ा तबक़ा दलितों के विरुद्ध अपनी सीमाओं का उल्लंघन इसलिए नहीं करता कि, दलितों के लिए ऐसा क़ानून है जो कम से कम नाम मात्र के लिए ही सही कुछ संरक्षण मुहैया कराता है। वास्तव में यह कितना प्रभावी है, उसके आँकड़े तो हम देख ही चुके हैं। इस क़ानून के बावजूद अगर देशव्यापी स्तर पर दलितों के ख़ि‍लाफ़ होनेवाले अपराधों की हालत यह है, तो इसके न होने पर स्थिति क्या होगी यह स्वतः ही समझा जा सकता है। अपवादस्वरूप अगर इसके दुरुपयोग के मामले हुए भी होंगे और इसके आधार पर अगर ऐसा कोई निर्णय लिया जाये, तो फिर देश के सभी क़ानूनों को रद्द करना पड़ेगा क्योंकि हमारे देश में किस क़ानून का दुरुपयोग नहीं होता।

अगर इस आन्दोलन में प्रमुखता से उठ रहे दूसरे मुद्दे यानी मराठा आबादी के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग से अलग शिक्षा और रोज़गार में आरक्षण की बात की जाये तो इसके लिए महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमन्त्री फड़नवीस की एक दलील ही स्थिति काफ़ी साफ़ कर देती है। उनके अनुसार मराठा आबादी के लिए आरक्षण लागू करने के बाद कॉलेजों में क़रीब 900 सीटें उपलब्ध हो जायेंगी और सरकारी नौकरियों में क़रीब 7500 लोगों को रोज़गार मिल जायेगा। करोड़ों की संख्या में बेरोज़गार मराठी नौजवानों के लिए इससे क्या हासिल हो जायेगा? हम स्वत: ही समझ सकते हैं। दूसरी बात यह कि इन उपलब्ध हुए अवसरों का इस्तेमाल भी पैसे की ताक़त रखने वाले चन्द ऊपरी तबक़ों के लोग ही कर पायेंगे। इसका एक बड़ा कारण यह है कि अन्य पिछड़ी जातियों की अपेक्षा मराठा आबादी में विशेषकर महिलाओं के बीच शिक्षा का स्तर काफ़ी नीचे है। आरक्षण का यह झुनझुना केवल एक विभ्रम है और इससे व्यापक मेहनतकश मराठा आबादी की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में कोई अन्तर नहीं आने वाला। यह एक उपकरण है जिसका शासक वर्ग मेहनतकश जनता को जातिगत आधार पर बाँटने के लिए करता है और अभी भी कर रहा है।

आज बुनियादी सवाल रोज़गार सृजन का है। उदारीकरण-निजीकरण के इस दौर में अगर सरसरी तौर पर देखा जाये तो लेबर ब्यूरो द्वारा देश स्तर पर जारी हालिया आँकडे स्थिति काफ़ी स्पष्ट कर देते हैं। बेरोज़गारी की दर पिछले पाँच वर्षों के शिखर पर है – जहाँ 2011 में यह 3.8 फ़ीसदी और 2013 में 4.9 फ़ीसदी थी, वहीं 2015 में यह बढ़कर 7.3 फ़ीसदी तक पहुँच गयी है। रोज़गार प्राप्त व्यक्तियों से एक तिहाई के पास पूरे वर्ष काम नहीं रहता जबकि कुल परिवारों में से 68 फ़ीसदी परिवारों की मासिक आय 10,000 रुपये से कम है। ग्रामीण क्षेत्रों में हालत और भी ख़राब है यहाँ 42 फ़ीसदी लोगों के पास पूरे सालभर काम नहीं रहता और 72 फ़ीसदी परिवारों की मासिक आय 10,000 रुपये से कम है। जहाँ तक शिक्षा की बात है तो ज़्यादातर प्राइवेट इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज मराठी धनकुबेरों के पास ही हैं, जहाँ शिक्षा इतनी महँगी है कि ग्रामीण मज़दूर तो दूर निम्न मध्यम वर्ग की और मध्यम वर्ग के घरों से आने वाले नौजवान मुश्किल से ही दाख़ि‍ला प्राप्त कर सकता है।

यह भी ग़ौर करने योग्य बात है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किये गये मानकों के अनुसार नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में 50 फ़ीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। महाराष्ट्र में यह पहले ही 51 फ़ीसदी के क़रीब है। अब बिना किसी संशोधन के इसे बढ़ाना सम्भव नहीं है। वोट बैंक की राजनीति के चलते, 2014 में आम चुनावों से ठीक पहले ऐसी कोशिश की भी गयी थी, जब राज्य सरकार द्वारा एक अधिनियम के अन्तर्गत मराठा आबादी के लिए सरकारी नाैकरियों और शिक्षण संस्थानों में 16 फ़ीसदी आरक्षण दे दिया गया था। लेकिन एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान बम्बई उच्च न्यायालय ने इसे स्थगित कर दिया। जहाँ तक रही संवैधानिक संशोधन जैसे किसी भी प्रयास के द्वारा आरक्षण देने की बात तो ऐसा करते ही अन्य पिछड़ी जातियाँ  भी आरक्षण के लिए सड़कों पर उतर आयेंगी। कुल मिलाकर चुनावी राजनीति की गोटियाँ ही ऐसी फँसी हुई हैं कि, मराठी नौजवानों पर यह वाक्य ठीक ही जँचता है – ‘तुम आरक्षण पा सको यह हो नहीं सकता और तुम इसे भूल जाओ यह हम होने नहीं देंगे!!’ अगर निगमनात्मक पद्धति से भी उनकी हालत पर नज़र दौडाई जाये, जिन्हें आरक्षण मिला हुआ है उन जातियों से आने वाली क़रीब 90 फ़ीसदी आबादी भयंकर ग़रीबी और बदहाली में जीवन यापन करने के लिए मजबूर है। आज भी शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षित सीटों का एक हिस्सा भरा ही नहीं जाता क्योंकि उसे प्राप्त करने के लिए जिस न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की दरकार है, वह भी एक छोटा तबक़ा ही हासिल कर पाता है और दूसरी ओर इन सभी शिक्षण संस्थानों की नौकरशाही का चरित्र जातिवादी ब्राह्मणवादी है जो कि इन सीटों को भरने में जालसाजी करता है। आज की परिस्थितियों में न सिर्फ़ अन्य पिछड़ी जातियों बल्कि दलित घरों से आने वाले नौजवानों के लिए भी आरक्षण की नीति शासक वर्गों द्वारा जनता के बीच राज्य को लेकर एक विभ्रम कायम करने का पैंतरा मात्र है। यही कारण है कि दलित आबादी के बीच भी इसकाे लेकर झगड़ा पनपाया जाता है। नयी-नयी श्रेणियाँ खड़ी करके (जैसे महादलित, अति-पिछड़ा आदि) आरक्षण के लुकमे उछाले जाते हैं और स्वयं दलित जातियाँ आपस में लड़ पड़ती हैं, कभी आदिवासी और दलितों को आपस में भिड़ा दिया जाता है, कभी आदिवासियों और पिछड़ों को आपस में लड़ा दिया जाता है।

जहाँ तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) की माँग का सम्बन्ध है, तो ग़रीब मराठा शहरी आबादी, ग़रीब किसानों और यहाँ तक की मध्यम किसानों के लिए भी यह एक प्रतिक्रियावादी माँग है। एम.एस.पी. बढ़ने से फ़ायदा उन्हीं किसानों को होगा जो मुख्यतः बाज़ार में बेचने के लिए उत्पादन करते हैं और जो मुख्य रूप से अनाज के ख़रीदार नहीं बल्कि अनाज को बेचने वाले हैं। इससे उन ग़रीब मराठा किसानों को कोई फ़ायदा नहीं मिलेगा जो उत्पादन मुख्यतः अपने भरण-पोषण के लिए एवं एक छोटा हिस्सा बाज़ार में बेचकर अपने जीवन-यापन के लिए ज़रूरी अन्य वस्तुएँ ख़रीदने में करते हैं। जो मराठा किसान मुख्य रूप से अनाज को बेचने वाले नहीं बल्कि मुख्य रूप से अनाज के ख़रीदार हैं, उनको एम.एस.पी. बढ़ने से फ़ायदा नहीं बल्कि नुक़सान होगा। एक मराठा किसान आबादी जो कि अमीर किसान तो नहीं मानी जायेगी, मगर वह अनाज पर्याप्त मात्रा में बेचती है, उसे भी एम.एस.पी. बढ़ने का लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि बढ़ोत्तरी का पूरा लाभ बिचौलियों और आढ़तियों को जायेगा जो कि अक्सर स्वयं धनी किसान होते हैं। दूसरी बात यह कि एम.एस.पी. या लाभकारी मूल्य के बढ़ने से अनाज व अन्य वस्तुओं के दाम भी बढ़ जायेंगे जिसकी मार भी ग़रीब जनता पर ही पड़ेगी। इस विषय पर सही अवस्थिति, किसी भी राजनीतिक तौर पर सचेत व्यक्ति के लिए एक हल हुआ मुद्दा है। आज ग़रीब और निम्न मध्यम किसान आबादी भी राजनीतिक चेतना और स्वतन्त्र संगठन के अभाव में धनी किसानों की इस माँग को उठाते हुए उनके पीछे-पीछे चलती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह माँग उनके हक़ में है।

इस आन्दोलन के केन्द्र में प्रमुखता से रही इन तीन माँगों की वर्गीय दृष्टि से समीक्षा करने के पीछे जो हमारा मुख्य मक़सद था, वह यह दर्शाना है कि जातिगत आधार पर संगठित कोई भी आन्दोलन, अपने सार रूप में शासक वर्गों और उनके अलग-अलग धडों के बीच प्रेशर-टैक्टिस का ही काम करता है। आरक्षण से लेकर एम.एस.पी. बढ़ाने तक सभी माँगें मराठा आबादी के कुलीन तबक़े, गाँवों के पूँजीपति वर्ग यानी बड़े किसानों और एक हद तक मँझोले किसानों और शहरी उच्च मध्यम एवं मध्य वर्ग को ही लाभ पहुँचायेगी। इसका मराठा आबादी के ही बीच से आने वाले खेतिहर मज़दूरों से लेकर ग़रीब किसान आबादी और शहरी निम्न मध्यम वर्ग को कोई फ़ायदा नहीं मिलेगा। सारा फ़ायदा ऊपर के एक बेहद छोटे तबक़े तक ही सीमित रह जायेगा लेकिन इसके लिए अर्जी लगाने और सड़कों पर अपनी ताक़त का प्रदर्शन करने के लिए सबसे अधिक ग़रीब आबादी के लोगों का ही इस्तेमाल किया जा रहा है। हालाँकि दलित आन्दोलन को हूबहू इसी आधार पर सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों में ही मूलभूत फ़र्क़ है। लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि जातिगत आधार पर संगठित किसी भी दलित आन्दोलन से, दलित आबादी के ग़रीब हिस्सों को जितना फ़ायदा होगा उससे ज़्यादा नुक़सान होगा, क्योंकि सिर्फ़ जातिगत आधार पर खड़ा हुआ कोई भी राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर केन्द्रित आन्दोलन, उन्हें अन्य जातियों से आने वाली ग़रीब जनता और उसके नौजवानों से काट देगा और इन जातियों के कुलीनों को मौक़ा देगा कि वे इन जातियों की ग़रीब आबादी को भी दलितों के ख़ि‍लाफ़ खड़ा कर दें। ऐसी सम्भावना-सम्पन्नता ग़ैर-दलित मँझोली और उच्च जातियों की ग़रीब आबादी में है क्योंकि उस पर भी ब्राह्मणवादी जातिवादी वर्चस्ववाद का गहरा असर है और जातिगत पूर्वाग्रह उसके भीतर भी मौजूद हैं। इसलिए अस्मिता के आधार पर संगठित किसी भी जाति का आन्दोलन चाहे वह दलित जातियों का हों या ग़ैर-दलित जातियाें का, अन्तत: मेहनतकश आबादी की वर्ग एकजुटता को स्थापित करने में बाधा खड़ी करेगा। महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति में रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी इस तर्क का इस्तेमाल कर लम्बे समय से अपनी चुनावी गोटियाँ लाल कर रही है। इसी का नतीजा है कि फि़लहाल वह मोदी सरकार की गोद में बैठकर दलित हितों की ‘रक्षा’ कर रही है!

वैसे तो औपनिवेशिक काल (और उससे पहले भी ) जातिगत बँटवारे और उसके अन्तर्गत होने वाली किसी भी गोलबन्दी का इस्तेमाल शासक वर्गों ने अपने हित साधन के लिए ही किया है लेकिन आज की परिस्थितियों में जातिगत या किसी भी अन्य अस्मिता पर खड़े किये आन्दोलन अपनी प्रकृति से ही जनविरोधी हैं और व्यापक जनता की वर्गीय एकजुटता पर प्राणान्तक चोट करते हैं। यह सच है कि यह वर्गीय एकजुटता पहले से बनी हुई नहीं है। वह भी एक सम्भावना-सम्पन्नता के तौर पर मौजूद है। जैसा कि आमतौर पर इतिहास में होता है, हमेशा प्र‍गतिशील और प्रतिक्रियावादी सम्भावना-सम्पन्नताएँ मौजूद होती हैं, प्रश्न यह होता है कि कौन-सा अभिकर्ता किस सम्भावना-सम्पन्नता को अपनी प्रैक्सिस के ज़रिये यथार्थ में रूपान्तरित कर सकता है। यह सच है कि विभिन्न जातियों के बीच एेतिहासिक तौर पर जो अन्तर व्याप्त हैं वे वर्गीय एकजुटता क़ायम करने की राह में एक बाधा का काम करते हैं। हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि मराठा आबादी स्वत: इस बात के लिए तैयार हो जायेगी कि दलित जातियों के ग़रीब घरों से आने वाले नौजवान और ग़रीब मराठा नौजवानों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर अपनी माँगों को लेकर लड़ें। वैसे तो यह एक अत्यन्त पेचीदा विषय है, जिसको सीधे तौर पर सम्बोधित करना इस लेख की सीमा से परे है, लेकिन हम नुक्तेवार कुछ बातें कर सकते हैं।

आज शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों से और विशेषकर ग़रीब घर से आने वाले नौजवानों के लिए जातिगत पार्थक्य पहले के मुक़ाबले टूटा है। मिसाल के तौर पर, आनुवांशिक श्रम विभाजन और साथ खाने-पीने से जुड़े जातिगत पूर्वाग्रह काफ़ी हद तक कमज़ोर हो चुके हैं। जो एक चीज़ बनी हुई है वह है ‘बेटी के रिश्ते’ का सवाल जो कि आज भी बना हुआ है। कारण यह कि पहले दो गुण पूँजीवादी व्यवस्था के संचय के तर्क से मेल नहीं खाते और अन्तरजातीय विवाह का प्रश्न पूँजीवादी संचय  के लिए कोई बाधा नहीं पैदा करता, उल्टे वह निजी सम्पत्ति को उससे भी ज़्यादा पवित्र बना देता है, जितना कि पूँजीवाद उसे बनाता है। पूँजी की चतुर्दिक मार ने दलितों और गै़र-दलित जातियों के नौजवानों को काॅल सेण्टरों से लेकर फै़क्टरियों में, खेतिहर मज़दूरों के रूप में बड़े-बड़े भूस्वामियों की ज़मीन पर, एक साथ खड़ा होने और काम करने को बाध्य कर दिया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि जातिगत पार्थक्य इससे स्वत: ही टूट गया है। यह स्वत:स्फूर्त ढंग से होना बेहद मुश्किल है। इसके लिए क्रान्तिकारी ‘सब्जेक्टिविटी’ के सचेतन हस्तक्षेप की आवश्यकता है। लेकिन यह भी सही है कि पूँजीवाद द्वारा जाति व्यवस्था की दो बुनियादी चारित्रिक आभिलाक्षणिकताओं और दिक् व काल के आयामों में मौजूद पार्थक्य को तोड़ने या कम कर देने के कारण एक क्रान्तिकारी हस्तक्षेप के ज़रिये जातियों को तोड़ने की ज़्यादा मुफ़ीद ज़मीन ज़रूर पैदा हो गयी है। यह ज़रूर है कि चुनाव इत्यादि में यही लोग विकल्पहीनता और मानसिक संकीर्णता के चलते अपना निर्णय जातिगत आधार पर ही करते हैं, और कई ‘क्रूशियल’ मसलों पर यही पैमाना इनको ज़्यादा सुलभ दिखाई देता है। लेकिन इसका एक प्रमुख कारण किसी क्रान्तिकारी विकल्प और हस्तक्षेप की अनुपस्थिति भी है। फिर भी, स्थितियाँ आज पहले से काफ़ी बदल चुकी हैं, हालाँकि पूरे भारत के बारे में एक सामान्यीकरण प्रस्तुत कर पाना सम्भव नहीं है। जातिगत बन्धनों से मुक्त होकर प्रेम विवाह करने के लिए और इसके अन्तर्गत हर ख़तरे को उठाने के लिए तैयार रहने की घटनाएँ आज अगर प्रचलन में नहीं तो अपवाद भी नहीं है, हालाँकि ऐसी घटनाएँ गाँवों में अपेक्षाकृत कम होती हैं।

राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों को लेकर क्रान्तिकारी नेतृत्व में वर्ग आधारित सशक्त आन्दोलन इन्हें वह ज़मीन मुहैय्या करायेंगे जहाँ इस जातिगत अन्तरविरोध की परिघटना को भेदकर वर्गीय अन्तर्वस्तु तक पहुँचने की सम्भावना तैयार होगी। शासक वर्गों के रूप में विभिन्न जातियों से आने वाले अपने दुश्मनों को साथ खड़ा देखकर, उनकी पुलिस और फ़ौज से एक साथ ही सड़कों पर मुक़ाबला करते हुए उन्हें इस बात का अहसास होने की ज़मीन तैयार हो सकेगी कि उनके असली दोस्त और दुश्मन कौन हैं। ज़ाहिरा तौर पर यह बात करने वाला मैं कोई पहला व्यक्ति नहीं हूँ और न जाने कितनी बार ये सही बातें कही और लिखी गयी होंगी. लेकिन सही बातें कहते रहने में कोई हर्ज़ नहीं है और यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ज़मीन पर उतरकर इस तरह की कोशिशें कम ही हुई हैं। आज भी राजनीतिक दायरों में अस्मितावादी राजनीति का ही बोलबाला है और इसके ख़ि‍लाफ़ पक्ष चुनने वालों को, या जनता के बीच इसकी असलियत उजागर करने वालों को ‘कुलीनतावादी’ का तमगा पहना दिया जाता है। वामपन्थी दायरों में भी अस्मितावाद और अम्बेडकरवाद के साथ मार्क्सवादी विज्ञान का मिश्रण करने या फिर अनजाने में दलितों के प्रति दयाभाव प्रदर्शित कर अस्मितावादी राजनीति के आग्रहों को ‘दलितों की आह’ बताकर सहयोजित करने की प्रवृत्ति मौजूद है।

इस पूरे आन्दोलन के केन्द्र में जो एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू होना चाहिए था और चाहे-अनचाहे जिसे पूरी तरह नज़रअन्दाज किया गया, वह था स्त्री विरोधी अपराधों के विरुद्ध सरकार को कठघरे में खड़ा करना और इनके ख़ि‍लाफ़ राज्य को कड़े क़दम उठाने के लिए बाध्य करना था। लेकिन दोषियों को मृत्युदण्ड दिलाये जाने की माँग से इतर, इस लिहाज़ से और कोई माँग नहीं उठायी गयी। ‘दामिनी काण्ड’ के विरोध में देशभर से लेकर राजधानी दिल्ली में बने जन-दबाव ने सरकार को ‘बैकफुट’ पर ला दिया था और जस्टिस वर्मा समिति गठित करने के लिए बाध्य कर दिया था। न सिर्फ़ इतना, बल्कि पूँजीवाद के अन्तर्गत लगातार खाद-पानी प्राप्त कर रही स्त्री विरोधी पूँजीवादी संस्कृति को आम जनता के बीच एक बहस के मुद्दे के तौर पर स्थापित कर दिया था। एन.सी.आर.बी. द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार महिलाओं के ख़ि‍लाफ़ होने वाले अपराधों में महाराष्ट्र उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाद तीसरे नम्बर पर आता है। बलात्कार के मामलों में यह मध्य प्रदेश के बाद दूसरे नम्बर पर है। पिछले वर्ष यहाँ पर महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध, जो कि पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज किये गये उनकी संख्या थी 33,218। ज़ाहिरा तौर पर कुल अपराधों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा रही होगी। लेकिन सांस्कृतिक और शैक्षणिक तौर पर अत्यन्त पिछड़ी मराठा आबादी के जातिगत आधार पर उभरे आन्दोलन में ऐसी किसी माँग की अनुगूँज नहीं ही सुनाई देगी।

ग़ौरतलब है कि कोपर्डी में हुए इस बर्बर काण्ड का शिकार हुई लड़की, महज़ 14 साल की थी और हॉकी खेलने दूसरे गाँव जाती थी। उसका इस प्रकार ‘मॉडर्न’ होना कुछ लोगों को खटकने लगा। वे ‘दलित’ थे यह तो दर्ज किया गया लेकिन वे ‘पुरुष’ भी थे जिन्हें पूँजीवादी संस्कृति से प्राप्त खाद-पानी ने मानवद्रोही होने की कगार तक पहुँचा दिया था। इस तथ्य को नज़रअन्दाज़ कर दिया गया। हर अस्मितावादी आन्दोलन तमाम सारी जटिलताओं और अन्तरविरोधों को पृष्ठभूमि में ढकेल देता है, या कहें कि उन्हें ‘लील’ जाता है। स्त्री-विरोधी मानसिकता से लेकर जातिगत उत्पीड़न के केन्द्र में ये पूँजीवादी व्यवस्था और उसकी संस्कृति है, जो हर दिन इन्हें सहयोजित करती है और इनका पोषण करती है। इसकी  मिसाल के तौर पर, गिन्नी माही नामक एक दलित गायक के बनाये हुए गीतों, जैसे कि ‘डेंजर चमार’ और ‘फै़न बाबा साहेब दी’ को देखकर आप समझ सकते हैं कि दमित जनता के प्रतिरोध की संस्कृति और संगीत किस प्रकार पूँजीवादी ‘परवर्जन’ का शिकार होता है। इसके म्यूजि़क वीडियो में ही आप पौरुषिकता के पूँजीवादी रूपों को अपने सबसे भौंडे रूपों में देख सकते हैं। ये म्यूजि़क वीडियो और इनका संगीत पंजाब के धनी जट्ट पॉप स्टारों की शैली की पूरी नक़ल करता है और वास्तव में यह संगीत स्वयं पंजाब में दलितों में पैदा हुए एक छोटे-से धनिक वर्ग के ‘एसर्शन’ को दिखलाता है, न कि ग़रीब दलितों के जीवन की तकलीफ़ों और संघर्षों को। लेकिन अस्मितावादी राजनीति के भँवर में फँसे कई वामपन्थी टिप्पणीकार भी गिन्नी माही जैसे गायकों को दलित ‘एसर्शन’ का प्रतीक मानते हैं। इसके बारे में जितना कम कहा जाये उतना बेहतर है। लुब्बेलुबाब यह कि अस्मितावादी ज़मीन पर खड़े होकर आज कोई भी आन्दोलन या सांस्कृतिक उत्पाद केवल शासक वर्गों की सेवा कर सकता है।

 

 

दिशा सन्धान – अंक 4  (जनवरी-मार्च 2017) में प्रकाशित