स्तालिन – बीसवीं शताब्दी के महानतम व्यक्तित्व / लूडो मार्टेन्स

स्तालिन के निधन के पचास वर्ष बाद

  • लूडो मार्टेन्स (बेल्जियम की वर्कर्स पार्टी के अध्‍यक्ष)

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इंस्टीट्यूट ऑफ मार्क्सिस्ट स्टडीज“ द्वारा फ्री युनिवर्सिटी ऑफ ब्रुसेल्स में 5 मार्च 2003 को आयोजित स्मृति सभा में दिया वक्तव्य

‘‘स्तालिन बीसवीं शताब्दी के महानतम व्यक्तित्व थे, एक महानतम राजनीतिक प्रतिभा’’ ऐसा कहा था भूतपूर्व सोवियत विरोधी अलेक्सांद्र जिनोविएव ने। उसके शब्दों में, ‘‘मैं सत्रह वर्ष की आयु में ही पक्का स्तालिन विरोधी बन चुका था – स्तालिन की हत्या का विचार मेरी सोच और भावनाओं में घर कर चुका था…हमने हमले की तकनीकी संभावनाओं का अध्‍ययन किया और यहां तक कि उसका अभ्यास भी किया। यदि उन्होंने 1939 में ही मुझे मृत्युदण्ड दे दिया होता तो उनका निर्णय न्यायसंगत होता। जब स्तालिन जीवित थे तो मैं चीजों को भिन्न नजरिए से देखता था, परन्तु अब, जबकि मैं इस सदी को पीछे मुड़कर देखता हूं, मैं यह कह सकता हूं कि स्तालिन इस सदी के महानतम व्यक्तित्व थे, महानतम राजनीतिक प्रतिभा।’’

1994 में मैंने पेरिस में स्तालिन पर एक व्याख्यान दिया था। एक अल्जीरियाई ने 5 मार्च 1953 को याद करते हुए बीच में हस्तक्षेप किया : ‘‘उस सुबह मैं अपने पिता का हाथ थामे बाहर निकला। मैंने देखा कि सभी अल्जीरियाई कैसे उदास दिखाई दे रहे थे और फ्रांसीसी खुशियां मना रहे थे। मैंने अपने पिता से पूछा कि क्या हुआ था। उन्होंने गम्भीरता से जवाब दिया, ‘स्तालिन का देहांत हो गया है…’। मैंने पूछा कि स्तालिन कौन था? मेरे पिता ने कहा, ‘‘वह हमारे समय का सबसे महान व्यक्ति था। वह महानतम क्रान्तिकारी राष्ट्र सोवियत संघ का नेता था। स्तालिन एक मोची का बेटा था।’ मैंने सोचा : ‘मोची का लड़का, मेरे ही जैसा कोई…’ उन अल्जीरियाई देशभक्तों के लिए स्तालिन साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष का प्रतिनिधित्व करते थे जिनके मुक्ति युद्ध के दौरान फ्रांसीसी उपनिवेशवादियों ने दस लाख लोगों को मौत के घाट उतारा था।’’

आज उनके निधन की पचासवीं बरसी पर दुनियाभर के क्रान्तिकारी स्तालिन को आज तक विश्व के महानतम क्रान्तिकारी के रूप में याद कर रहे हैं। मानवता के इतिहास के एक मील के पत्थर सोवियत संघ में स्तालिन के नेतृत्व में ही असाधारण राजनीतिक और आर्थिक रूपान्तरण सम्पन्न हुए थे। स्तालिन ही थे जिन्होंने सोवियत संघ की रक्षा के लिए फासीवाद विरोधी महान क्रान्तिकारी युद्ध का नेतृत्व किया था। स्तालिन ने दुनियाभर में उपनिवेश बने राष्ट्रों, विशेषकर एशिया में चीन और भारत के मुक्तिसंघर्षों को प्रोत्साहन दिया था।

आज हम स्तालिन को इसलिए याद कर रहे हैं क्योंकि उनकी उपलब्धियां मानवता के भविष्य के लिए भारी महत्व रखती हैं। स्तालिन का नाम उन चार महान क्रान्तिकारी संघर्षों का प्रतीक है जो 21वीं शताब्दी में मानवता के भाग्य का निर्णय करेंगे। ये हैं-आर्थिक विकास, स्वतंत्रता, शांति और समाजवाद के लिए संघर्ष।

स्तालिन और साम्राज्यवाद विरोधी स्वतंत्रता संग्राम

लेनिन और स्तालिन का अनुभव यह बताता है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए लड़ाई और समाजवाद के लिए संघर्ष अलग करके नहीं देखा जा सकता। वह यह भी बताता है कि अवसरवाद साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के लिए एक आरक्षित बल के रूप में काम करता है।

25 अक्टूबर (नये कैलेण्डर के अनुसार 7 नवम्बर) 1917 को महान समाजवादी क्रान्ति की विजय हुई थी। अगले ही दिन मेंशेविक पार्टी ने बोल्शेविकों पर ‘‘दासता की व्यवस्था’’ को लागू करने का आरोप लगाते हुए उन्हें उखाड़ फेंकने के इरादे की घोषणा कर दी। रूस के सामाजिक जनवादियों ने ‘‘रूस को बोल्शेविक क्रूरता से मुक्त करने’’ के लिए साम्राज्यवादी फौजों से अपील की। समाजवादी शिशु सोवियत संघ के विरुद्ध ब्रिटेन, फ्रांस, जापान, इटली और अमेरिका के सैनिकों के हस्तक्षेप में चर्चिल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

हस्तक्षेप करने वाली फौजों के विरुद्ध जनयुद्ध के निर्णायक मोर्चे को नेतृत्व देने के लिए लेनिन द्वारा भेजे गये प्रमुख नेता स्तालिन थे। लम्बे समय तक भूमिगत रहने के कारण बोल्शेविकों की संख्या बहुत अधिक नहीं थी। साम्राज्यवादियों का आकलन था कि आठ विदेशी फौजों, जिन्हें जार की सेना के अवशेषों, बड़े भूस्वामियों, पूंजीपतियों और सामाजिक जनवादी पार्टी का समर्थन प्राप्त था, के विरुद्ध सोवियत संघ टिक नहीं पायेगा। लेनिन और स्तालिन ने वास्तविक अर्थों में व्यापक जनता की लड़ाई को संगठित किया जिसने सभी आक्रमणकारियों और उनके सहयोगियों पर विजय प्राप्त की।

सोवियत संघ की स्वतंत्रता कायम रखने के लिए लेनिन और स्तालिन के नेतृत्व में चलाये गये राजनीतिक और सैन्य संघर्ष साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण की वर्तमान परिस्थिति में विशिष्ट अर्थ ग्रहण कर लेते हैं। आज मानवता की भारी बहुसंख्या के समक्ष प्रमुख समस्या वास्तविक राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करना है।

यह समस्या उस राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य और सांस्कृतिक पुनर्उपनिवेशीकरण के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की है जो 19वीं शताब्दी के उपनिवेशवाद से अधिक खूनी व आक्रामक है।

पिछले छह वर्षों में, मुझे इस यथार्थ का अनुभव पहली बार कांगो में हुआ। कांगो, दुनिया के समृद्धतम देशों में से एक होने की क्षमता रखता है लेकिन 37 वर्षों की नवऔपनिवेशिक तानाशाही में वहां की जनता गरीब व वंचित रही आज वह अमेरिका द्वारा प्रोत्साहित आक्रमण का शिकार है और भयावह गरीबी में अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है।

आंग्ल–अमेरिकी साम्राज्यवाद ‘‘अफ्रीका के लिए एक नया युद्ध’’ देख रहा है, ‘‘क्योंकि औद्योगिक विश्व में कच्चे माल समाप्त हो रहे हैं।’’ अमेरिका ने घोषणा कर दी है कि ‘‘अफ्रीका में अमेरिकी हितों के लिए कांगो बहुत महत्वपूर्ण है’’ क्योंकि उसके पास विश्व की 13 प्रतिशत पनबिजली संपदा है, 28 प्रतिशत कोबाल्ट के सुरक्षित भण्डार हैं और 18 प्रतिशत औद्योगिक हीरा के सुरक्षित भण्डार हैं।’’1

आंग्ल–अमेरिकी साम्राज्यवाद अब कांगो और अफ्रीका को फिर से उपनिवेश बनाने के अपने अधिकार का तकरीबन खुलेआम दावा करने लगा है और स्पष्ट तौर पर किसी भी प्रकार की वास्तविक स्वतंत्रता से इंकार करता है। कांगो की संपदा ‘‘अमेरिकी हितों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण’’ भला कैसे हो सकती है जब तक कि अमेरिकियों ने कांगो पर हाथ डालने का निर्णय न ले लिया हो, वह भी किसी भी कीमत पर? अमेरिका–रवांडा-युगांडा का आक्रमणकारी युद्ध पहले ही कांगो में 4,000,000 जानें ले चुका है। लेकिन कौन इसकी चर्चा करता है? दूसरी ओर, कामरेड स्तालिन के निधन की पचासवीं बरसी पर, पूरा बुर्जुआ प्रेस उन्हीं आरोपों पर वापस लौट गया है जिसमें बरसों पहले नाजियों द्वारा स्तालिन को ‘‘रक्तपिपासु’’ कहा गया था।

स्तालिन और समाजवादी विकास के लिए संघर्ष

सोवियत संघ में विकास की रफ्तार तेज करने की पूर्वशर्त थी स्वतंत्रता। स्वतंत्रता के कारण ही यह संभव हुआ कि समाजवादी राज्य के हाथों में केन्द्रित हो गये। उत्पादन के अति महत्वपूर्ण साधन और रिकार्ड समय में औद्योगिक, कृषि, सांस्कृतिक व सैन्य विकास की मुख्य समस्याओं के समाधान के लिए उनका नियोजित उपयोग किया जा सका। 1928 में स्तालिन ने जबर्दस्त आर्थिक विकास के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना का आरम्भ किया।

4 फरवरी 1931 को स्तालिन ने घोषणा की ‘‘हम उन्नत देशों से 50 से 100 वर्ष पीछे हैं। हमें इस दूरी को 10 वर्षों में नापना होगा। या तो हम सफल होंगे या डूब जायेंगे।’’ स्तालिन ने शर्त जीत ली, एक ऐसी चुनौती जिसके बारे में सोचना भी किसी बुर्जुआ के लिए असंभव होता।

उन्होंने दो जादुई हथियारों का प्रयोग किया। बोल्शेविक पार्टी से जुड़े मजदूरों और किसानों के हरावल तत्वों को संगठित करना, और दूसरे, जनता की चेतना का स्तरोन्नयन और उसे आर्थिक विकास के लिए गोलबन्द करना।

जार के शासनकाल में रूस में 37 वर्षों तक रहे एक विदेशी ने कहा ‘‘बोल्शेविकों ने पांच करोड़ से अधिक उदासीन, जीवित से ज्यादा मृत मनुष्यों को गतिमान किया है और उनके अंदर एक नई जान फूंक दी है। क्रान्तिकारी उत्साह की गर्मी बड़ी से बड़ी बाधाओं को गला डाल रहा है। इस तरह की चीज आज तक कभी नहीं देखी गई।’’

देहात में पले–बढ़े अलेक्सांद्र जिनोविएव ने कृषि के सामूहिकीकरण और आधुनिकीकरण के लिए चले तीखे संघर्षों के बीच जीवन व्यतीत किया था। उनका कहना है, ‘‘जब मैं गांव वापस लौटा तो मैंने अपनी मां और ‘कोलखोज (सामूहिक फार्म) के अन्य सदस्यों से पूछा कि अगर उन्हें निजी काश्त दिये जाने की संभावना बनती है तो क्या वे उसे स्वीकार करेंगे? उन सभी ने स्पष्ट तौर पर इंकार कर दिया। सामूहिकीकरण के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों ने एक अभूतपूर्व सांस्कृतिक क्रान्ति का अनुभव कियाथा : प्राथमिक विद्यालय खोले गये थे, साथ ही साथ सेकेंडरी और तकनीकी विद्यालय भी खोले गये थे जिनमें पशु चिकित्सकों, मिस्त्री, ट्रैक्टर चालकों और कृषि वैज्ञानिकों के प्रशिक्षण की सुविधा थी। ग्रामीण जनसंख्या की संरचना शहरी समाज के करीब आ गयी थी। ग्रामीण समाज में इस त्वरित परिवर्तन से नई व्यवस्था से जनसंख्या के बड़े हिस्से का भारी समर्थन प्राप्त हुआ।’’

1928 से 1937 तक औद्योगिक उत्पादन प्रतिवर्ष 16.5 प्रतिशत की दर से बढ़ा। 1920 में लेनिन ने सोवियत संघ के विद्युतीकरण के लिए एक व्यापक योजना प्रस्तावित की थी। पंद्रह वर्षों बाद स्तालिन ने योजना को 230 प्रतिशत लागू कर लिया था।

कृषि का सामूहिकीकरण अभूतपूर्व रूप से व्यापक जनांदोलन था जिसने छोटे और मध्‍यम किसानों को पुराने भूस्वामियों के शोषण से मुक्त होने, और आधुनिक औजारों व मशीनों के प्रयोग से सामूहिक कृषि द्वारा समृद्ध होने का अवसर प्रदान किया। 1929 के आरम्भ में रूस के पास 19000 ट्रैक्टर थे। 12 वर्षों बाद 1941 में ‘कोलखोज’ (सामूहिक फार्म) और ‘सोविरखोज’ (राजकीय फार्म) को मिलाकर कुल 684,000 ट्रैक्टर थे।

जनता में ऐसी गतिमानता ने, जो इतिहास में इसके पूर्व कभी नहीं देखी गयी, मात्र बारह वर्षों में एक पिछड़े और बरबाद देश को यूरोप की सबसे ताकतवर साम्राज्यवादी शक्ति नाजी जर्मनी के बराबर ला खड़ा कर दिया। आज की तीसरी दुनिया में निजीकरण, विदेशी प्रतिबंधों और फरमानों, अनऔद्योगीकरण तथा व्यापक गरीबी का सामना कर रहा कौन ऐसा देश होगा जो स्तालिन की उपलब्धियों से ईर्ष्या नहीं करता होगा?

स्तालिन और क्रान्तिकारी बोल्शेविक पार्टी

बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में ही यह सारी जीतें हासिल हुर्इं। 1917 में क्रान्ति की सफलता के वक्त जब पार्टी भूमिगत थी उस समय पार्टी में मात्र 30,000 तपे–तपाये क्रान्तिकारी थे। 1921 में 14 विदेशी शक्तियों के खिलाफ प्रतिरोध युद्ध के समय पार्टी में 600,000 सदस्य हो चुके थे। स्तालिन ने संगठन और शिक्षा को अभूतपूर्व उद्वेग दिया और 1932 में, जो औद्योगीकरण व सामूहिकीकरण की सफलता के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण वर्ष था, पार्टी के पच्चीस लाख सदस्य थे। यह उस महान राजनीतिक सेना के अदम्य त्याग की भावना, जनता के प्रति समर्पण और काम करने का उत्साह ही था जिसने पिछड़ेपन के विरुद्ध लड़ने के लिए मजदूरों में जोश भर दिया।

आधुनिक क्रान्तिकारी पार्टी के सिद्धान्तों की स्थापना और पार्टी की रीढ़ का निर्माण करने वाले लेनिन थे, लेकिन वह स्तालिन ही थे जिन्होंने पार्टी को एक शानदार राजनीतिक सेना में रूपान्तरित किया और जनता को शिक्षित और प्रेरित किया।

पार्टी की निर्णायक नेतृत्वकारी भूमिका के बिना कोई भी ऐतिहासिक जीत संभव नहीं थी, चाहे वह जारशाही से स्वतंत्रता का संघर्ष रहा हो, विकास के लिए संघर्ष रहा हो अथवा फासीवाद विरोधी महान युद्ध।

स्तालिन ‘सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास’ पुस्तक के प्रमुख लेखक थे, एक ऐसी आवश्यक पुस्तक जो आज भी दुनिया भर में क्रान्तिकारियों की नई पीढ़ी को शिक्षित करने के लिए उपयोग में लायी जाती है।

स्तालिन और अवसरवाद व घुसपैठ का घातक खतरा

सोवियत समाजवाद के अंदर उसके शत्रु पार्टी की निर्णायक भूमिका को प्रारम्भ से ही अच्छी तरह समझते थे और उसमें घुसपैठ करने और उसे अंदर से नष्ट करने के लिए उन्होंने हर संभव कोशिशें शुरू कर दीं।

युवा प्रतिक्रान्तिकारी बोरिस बोझनोव 19 वर्ष का था जब उसने 1919 में बोल्शेविक पार्टी में घुसपैठ करने का निर्णय किया। 1923 में वह कामरेड स्तालिन और पोलित ब्यूरो का सचिव बन गया। अपनी आत्मकथा में उसने बाद में लिखा :

‘‘बोल्शेविक विरोधी सेना के सैनिक के रूप में मैंने अपने सामने शत्रु के मुख्यालय में प्रवेश करने का कठिन और खतरनाक काम रखा। मैंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया था।’’

इसके अलावा पुराने शोषणकारी समाज की आहतें जिद्दी थीं और नये समाजवादी शासन के कुछ नेता धीरे–धीरे इनके प्रभाव में आ गये।

पार्टी के अंदर विभिन्न राजनीतिक रूझानों के बीच का संघर्ष हमेशा सोवियत संघ में व्याप्त वर्ग हितों के बीच के संघर्ष को प्रतिबिम्बित करता था। 1917 की विजय के बाद से ही बोल्शेविक पार्टी के अंदर के अवसरवादी रूझान लेनिन और स्तालिन की नीतियों का विरोध करने लगे थे।

1927 में त्रात्स्की, जिनेविएव और कामेनेव को उनकी दुश्मनाना गतिविधियों के कारण पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। हालांकि कुछ ही समय बाद जिनोविएव और कामेनेव को वापस पार्टी में ले लिया गया। 1928 और 1930 के बीच त्रात्स्की, जिनोविएव, कामेनेव और बुखारिन ने बलात औद्योगीकरण और सामूहिकीकरण का विरोध किया। 1931 में एक बार फिर जिनोविये और कामेनेव को बोल्शेविक–विरोधी कार्यक्रम को सार्वजनिक समर्थन देने के कारण पार्टी से निकाल दिया गया। इस कार्यक्रम का बुखारिन ने पोलित ब्यूरो का सदस्य होते हुए भी समर्थन किया था।

1934 में पार्टी की 17वीं कांग्रेस हुई, यह विजय और एकता की कांग्रेस थी। करोड़ों मजदूरों के शौयपूर्ण कार्यों के दम पर हासिल विराट उपलब्धियों से अब इंकार नहीं किया जा सकता था। स्तालिन को भरोसा था कि पार्टी और जनता द्वारा हासिल की गई उपलब्धियों और प्रगति से असहमत और विरोधी तत्व सही दृष्टिकोण अपना लेंगे। निष्कासित किये गये काडरों की सदस्यता वापस देकर उनके अधिकारों को बहाल कर दिया गया। इनमें प्याताकोव, रादेक, स्मिरनोव, प्रेयोबाझेन्स्की, जिनोविएव और कामेनेव भी थे। इन सभी ने 17वीं कांग्रेस में भाग लिया और अपने वक्तव्य दिये।

यह कहा जाना चाहिए कि स्तालिन कभी संकीर्ण सोच के नहीं रहे, वह काडरों को पिछली गलतियों के लिए माफ करके उन्हें दूसरा मौक देते थे। पहली दिसम्बर, 1934 को पार्टी की कमान में दूसरे स्थान के नेता किरोव की उनके दफ्तर में हत्या कर दी गयी। हत्यारों का पता नहीं चला।

पार्टी को 1936–37 में पता चला कि किरोव के विरुद्ध षड्यंत्र एक भूमिगत संगठन ने अंजाम दिया था जिसमें जिनोविएव, कामेनेव, स्मिरनोव, रादेक और अन्य कॉडर शामिल थे और उस संगठन के त्रात्स्की के साथ भी सम्बन्ध थे।

त्रात्स्की एक ऐसे कम्युनिस्ट का प्रतिरूप था जो घोर कम्युनिस्ट–विरोधी होने की हद तक पतित हो जाता है। 1934 में उसने लिखा, ‘‘हिटलर की विजय स्तालिन की आपराधिक नीतियों का परिणाम थी।’’ ‘‘हिटलर को उखाड़ फेंकने के लिए पहले कम्युनिस्ट इंटरनेशनल को खत्म करना होगा।’’

त्रात्स्की ने नंगे शब्दों में जर्मनी को रूस पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। 1938 में उसने लिखा-‘‘बर्लिन जानता है कि शासक गुट ने सेना और जनता को हताशा के किस स्तर तक पहुंचा दिया है। स्तालिन देश के नैतिक बल और प्रतिरोध को अभी भी लगातार कमजोर कर रहे हैं। समय आने पर स्तालिनवादी कैरियरवादी देश के साथ विश्वासघात करेंगे।’’ जब नाजी सोवियत संघ पर आक्रमण की तैयारी कर ही रहे थे, त्रात्स्की ने सोवियत संघ की जनता से पार्टी और स्तालिन के विरुद्ध उठ खड़े होने का आह्वान किया। उसने घोषणा की, ‘‘नये परजीवियों की कुख्यात तानाशाही के विरुद्ध सोवियत सर्वहारा की आवाज ही अक्टूबर क्रान्ति की उपलब्धियों में जो भी शेष हैं, उसको बचा सकती है’’। त्रात्स्की की भड़काऊ भाषा जर्मनी के फासीवादियों की सीधे सेवा करती थी।

विरोधियों और घुसपैठियों के भूमिगत तंत्र की जांच के दौरान सैन्य अफसरों में ऐसे भूमिगत समूहों के बारे में ज्ञात हुआ जो तख्तापलट की तैयारी कर रहे थे। मार्शल तुखाचेव्स्की और जनरल ओसेप्यान काशीरिन और आल्सनिस उन दर्जनों सैन्य षडयंत्रकारियों में से थे जिन्हें गोली से उड़ा दिया गया। एक ओर जहां फ्रांस और बेल्जियम में बुर्जुआ वर्ग का आधिसंख्य हिस्सा आक्रान्ता शत्रु से सांठ–गांठ कर चुका था, वहीं इसके विपरीत सोवियत संघ में गद्दारों का सफाया हो चुका था।

स्तालिन द्वारा किये गये विश्वासघातियों के सफाये के बारे में, हिटलर के विस्तारवाद के विरुद्ध युद्ध के समर्थक ब्रिटेन के चर्चिल का कहना था : ‘‘प्राग में रूसी दूतावास के माध्‍यम से जर्मनी की सरकार कुछ महत्वपूर्ण रूसी व्यक्तित्वों से संपर्क में थी। षड्यंत्र का उद्देश्य स्तालिन को उखाड़ फेंकना और रूस में जर्मनीपरस्त सत्ता की स्थापना करना था। सोवियत संघ ने राजनीतिक और आर्थिक हलकों से ऐसे तत्वों का सफाया करके एक निर्मम लेकिन निस्संदेह उपयोगी काम किया है। सोवियत सेना को जर्मनी के समर्थकों से मुक्त कर दिया गया था।’’

इन कार्रवाइयों के बारे में नाजी गोएबेल्स  ने 8 मई 1943 को अपनी डायरी में लिखा : ‘‘फ्यूरर ने तुखाचेव्स्की के विषय में विस्तार से बताया और कहा कि हम पूरी तरह गलत होंगे अगर हम सोचते हैं कि स्तालिन लाल सेना को बरबाद कर देगा। सच इसके विपरीत था : स्तालिन ने विरोधी तबकों को लाल सेना से निकाल बाहर किया, इस तरह यह सुनिश्चित किया कि सेना में कोई भी पराजयवादी समूह अब नहीं रह गये हैं।’’

सामाजिक जनवादी बुखारिन से संशोधनवादी गोर्बाचोव तक

जहां एक ओर 1937–38 के सफाये ने नाजी आक्रमण के लिए समझौताहीन प्रतिरोध का निर्माण किया वहीं इसने उन अवसरवादी रुझानों पर भी सांघातिक प्रहार किया जिनका लक्ष्य पार्टी नेतृत्व में बहुमत हासिल कर धीरे–धीरे पूंजीवाद की ओर वापसी करना था। इस संदर्भ में 1938 का बुखारिन का मुकदमा एक ऐतिहासिक महत्व रखता है। बुखारिन उस समय का गोर्बाचोव था।

1938 में बुखारिन उन लोगों में से पार्टी का सबसे सम्मानित नेता, और सबसे ऊंचे ओहदे पर था जो साम्यवादी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए षडयंत्र कर रहे थे। अमरीका के राजदूत जोसेफ डेविस जो मुकदमे के समय उपस्थित थे, ने लिखा : ‘‘मुकदमे में उपस्थित राजनयिकों की आम भावना यह है कि एक अत्यन्त गम्भीर षडयंत्र सिद्ध हो चुका है।’’

इतने प्रबल साक्ष्यों का सामना करने पर बुखारिन का कम्युनिस्ट आत्मसम्मान फूट पड़ा और उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया। उसने राजनीतिक पतन की उस पूरी प्रक्रिया का खुलासा कर दिया जिसके तहत उस जैसे पुराने बोल्शेविक और लेनिन के सबसे प्रिय शिष्य ने सोवियत क्रान्ति के साथ विश्वासघात किया।

उसकी आत्मस्वीकृति इस अर्थ में विशिष्ट है कि पचास वर्षों बाद गोर्बाचोव के प्रति–क्रान्तिकारी गुट ने ठीक बुखारिन वाली लाइन अपनाई और इसे उसके तार्किक अंजाम तक पहुंचाया-पूंजीवाद की, बल्कि पूंजीवाद के सबसे माफिया जैसे रूप की पुनर्स्थापना कर डाली।

आज ‘‘बुखारिनवादियों और त्रात्स्कीवादियों के सोवियत विरोधी गुट पर मुकदमे की सुनवाई’’ की रिपोर्ट को पढ़ा जाना अत्यन्त आवश्यक है।

मुकदमे के दौरान बुखारिन, त्रास्तकी और उनके अनुयायियों पर छद्म–लेनिनवादी भाषा का प्रयोग कर समाजवादी शासन की बुनियाद पर हमला करने, रूस में समाजवाद को उखाड़ फेंकने को तत्पर ताकतों, सामंती तत्वों और पुराने बुर्जुआ वर्ग को सैद्धान्तिक मंच प्रदान कराने का आरोप लगाया गया।

त्रात्स्कीवादी और बुखारिनवादी चमकदार पदावली की आड़ में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना की तैयारी कर रहे थे। ठीक यही गोर्बाचोव ने भी छद्म ‘‘लेनिनवादी’’ शब्दावली का प्रयोग करके किया।

बुखारिन के मुकदमे का ब्योरा यह बताता है कि इस पुनर्स्थापना को आसान बनाने के लिए विरोधी तत्वों ने साम्राज्यवादी ताकतों से सम्पर्क किया जिनमें नाजी जर्मनी भी था। आरोप पत्र में यह कहा गया है, ‘‘बुखारिनवादी और त्रात्स्कीवादी अंतरराष्ट्रीय फासीवाद की अगुवा टुकड़ी है; वे विश्वासघातियों का एक गुट है।’’

यह मुकदमा हमें याद दिलाता है कि पूंजीवाद और समाजवाद परस्पर विरोधी जानी दुश्मन हैं, और इनके रूप में दो विश्व आमने– सामने हैं। वर्ग शत्रुता का तर्क रूस के अंदर बचे रहे गये शोषण वर्ग और सीमापार के शोषकों को मजदूरों की राजसत्ता पर उग्रतर हमलों के लिए प्रवृत्त कर रहा है। ठीक इसी तरीके से गोर्बाचोव के अनुयायियों ने पचास वर्षों बाद समाजवाद के विश्वासघातियों और अमेरिकी साम्राज्यवाद व अंतरराष्ट्रीय फासीवाद की अगुवा टुकड़ियों की भूमिका निभाई। येल्त्सिन के रूस में व्लासोव का फासीवादी संगठन खुले तौर पर अपनी गतिविधियां चलाता रहा।

बुखारिन के मुकदमे ने इस तथ्‍य को रेखांकित किया कि षडयंत्रकारियों और पश्चिमी गुप्तचर संस्थाओं के बीच संबंध थे। आरोप में ये तथ्य भी शामिल थे कि बुखारिनवादी और त्रात्स्कीवादी रूस को खंडित करने व यूक्रेन और बेलारूस को अलग करने की तैयारी कर रहे थे।

आज हम इस बात को समझ सकते हैं कि गोर्बाचोव और येल्तसिन ने उसी कार्यक्रम को क्रियान्वित किया जिसके लिए उनके पूर्वजों बुखारिन और त्रात्स्की को 1938 में मौत की सजा सुनाई गयी थी। गोर्बाचोव के समय के उच्च पदस्थ नौकरशाह इस बात का दम्भ भरते रहे हैं कि वे अमेरिकी गुप्तचर संस्थाओं के साथ दर्शकों से संपर्क में थे। इसलिए यह तथ्य कि गोर्बाचोव ने 1990 में बुखारिन और त्रात्स्की को आधिकारिक तौर पर प्रतिष्ठापित किया, कोई सामान्य बात नहीं लगती। त्रात्स्कीवादी नेता अर्नेस्ट मेंडल का 1989 में यह कहना महत्वपूर्ण है : ‘‘पेरेस्त्रोइका सही मायने में एक नई क्रान्ति है। 55 वर्षों से त्रात्स्कीवादी आंदोलन ने इसी विचार की वकालत की है, यही कारण है कि उसके ऊपर प्रतिक्रान्तिकारी होने का आरोप लगा। आज यह समझना आसान है कि सच्चे क्रान्तिकारी और सच्चे प्रतिक्रान्तिकारी कहां खड़े हैं।’’

बुखारिन और त्रात्स्की 1935 के गोर्बाचोव थे, लेकिन उनका पर्दाफाश हुआ और सजा दे दी गयी। तभी सोवियत संघ फासीवादी आक्रमण के विरुद्ध अपनी रक्षा की तैयारी और समाजवाद के निर्माण को आगे बढ़ा सका।

इतिहास ने दिखा दिया है कि सम्पूर्ण समाजवादी क्रान्ति के अंदर अवसरवाद और घुसपैठ अंदरूनी खतरों के रूप में मौजूद थे। त्रात्स्की, जिनोविएव और बुखारिन के रूप में अवसरवादियों की एक श्रृंखला थी जो देश के अंदर प्रतिक्रान्तिकारियों और देश के बाहर फासीवादियों से जुड़ी हुई थी। स्तालिन और पार्टी के नेतृत्व में गोलबंद क्रान्तिकारी मजदूरों, किसानों और बुद्धिजीवियों ने उन्हें कुचलकर रख दिया। भितरघातियों से मुक्त सोवियत संघ बर्बर फासीवादी ताकतों को पराजित कर सका। सोवियत जनता ने न केवल अपनी आजादी के लिए वीरतापूर्ण संघर्ष किये बल्कि उन सभी की आजादी के लिए लड़ी जो फासीवाद और उपनिवेशवाद कुचले गये थे। इन ऐतिहासिक संघर्षों में दो करोड़ सत्तर लाख से ज्यादा सैनिकों और नागरिक योद्धाओं की जानें गर्इं। एक नये विश्व की रचना के लिए इससे पहले कभी भी इतनी महान और निर्णायक लड़ाई नहीं लड़ी गई। महान स्तालिन के निधन की पचासवीं बरसी पर बुर्जुआ मीडिया द्वारा पोसे गये भ्रष्ट और नशीले झूठ से जांबाजों के खून से लिखे गये सत्य का एक अंश भी नहीं बदलेगा।

स्तालिन और अंतरराष्ट्रीय फासीवाद विरोधी गठबंधन

स्तालिन ने न सिर्फ सोवियत संघ के अंदर कार्यरत नाजियों से जुड़े भितरघातियों को नष्ट किया बल्कि 1935 से फासीवाद विरोधी अंतरराष्ट्रीय ताकतों और देशों के गठबंधन को भी समर्थन दिया। 1935 में सोवियत संघ ने जर्मन और इतालवी फासीवादी विस्तारवाद के विरुद्ध यूरोप में एक सामूहिक सुरक्षा तंत्र के गठन का प्रस्ताव रखा। 1936 में जब फासीवादी ताकतों ने स्पेन में हस्तक्षेप कर जनरल फ्रांको की फासीवादी तानाशाही स्थापित करने में मदद की, तो लोकतांत्रिक ताकतों, ब्रिटेन और फ्रांस ने तटस्थता की नीति अपनाई और सोवियत प्रस्ताव को नकार दिया। फिर ब्रिटेन और फ्रांस ने म्यूनिख में फासीवादी ताकतों से समझौता किया और चेकोस्लोवाकिया के सुडेटनलेड के क्षेत्र को जर्मनी को सौंप दिया था। हिटलरी जर्मनी ने ग्रेट ब्रिटेन के साथ समझौता किया कि वे एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध नहीं छेड़ेंगे। एक सामूहिक रक्षा तंत्र के गठन के लिए स्तालिन की लगातार अपील अप्रभावी रही : यहां तक कि ब्रिटेन और फ्रांस ने हिटलर को मार्च 1939 में पूरे चेकोस्लाविया पर कब्जा कर लेने दिया। वास्तव में, वे हिटलर को पूर्वी यूरोप में लड़ाई छेड़ने के लिए उकसा रहे थे।

जून 1939 से अगस्त 1939 तक, फासीवाद विरोधी गठबंधन के लिए अंतिम मिनट तक रूस ने ब्रिटेन और फ्रांस से बातचीत चलायी। लेकिन जुलाई में, ब्रिटिश प्रधानमंत्री चेम्बरलेन की हिटलर के साथ गुप्त बातचीत हुई जिसको यह वादा करते हुए कि वह स्तालिन से संबंध विच्छेद कर लेगा, उसने हिटलर को पूर्वी और दक्षिण पूर्वी यूरोप में कार्रवाई करने की छूट दे दी। अगस्त 1939 में स्तालिन समझ गये कि लंदन और पेरिस ने हिटलर को पोलैण्ड पर कब्जा कर लेने देने का निर्णय ले लिया है ताकि हिटलरी फौजों के रूस तक पहुंचने के लिए रास्ता साफ हो जाये।

हिटलर रूस, फ्रांस और ब्रिटेन को युद्ध में हराने के लिए दृढ़ था। लेकिन वह एक साथ दो मोर्चों पर युद्ध नहीं चाहता था। वह चाहता था कि या तो फ्रांस और ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध हो या अकेले रूस के विरुद्ध। एक रणनीतिकार के रूप में उसने अपने कमजोर शत्रुओं से लड़ने और उन्हें हराने को प्राथमिकता दी। वह जानता था कि रूस के विरुद्ध लड़ाई निर्णायक और भयंकर होगी, क्योकि यह दो दुनियाओं की लड़ाई थी। हिटलर जानता था कि ब्रिटेन और फ्रांस में उसके कई मित्र और समर्थक हैं। 20 अगस्त को उसने सोवियत संघ के साथ अनाक्रमण संधि का प्रस्ताव रखा। नाजी बर्बरता का अकेले ही सामना करने की संभावना के कारण स्तालिन ने इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया।

ब्रिटिश और फ्रांसीसी साम्राज्यवादी भी हिटलर का प्रयोग सोवियत संघ को नष्ट करने के लिए करना चाहते थे थे, अपने ही जाल में फंस चुके थे। हिटलर ने सोचा कि वह पहले फ्रांस, बेल्जियम और ब्रिटेन को फिर स्तालिन के विरुद्ध पूरे यूरोप की सैन्य शक्ति के साथ हमला बोलेगा।

रूस को अपनी सुरक्षा को निर्णायक रूप से मजबूत कराने के लिए 21 महीने का समय मिल गया। जर्मनी, जापान और इटली की धुरी ताकतों के विरुद्ध फासीवाद विरोधी मोर्चे के निर्माण और उसकी विजय के लिए यह एक निर्णायक कारक साबित हुआ।

महान फासीवाद विरोधी युद्ध में स्तालिन की निर्णायक भूमिका

पूरे युद्ध के दौरान, विशेषत: सबसे कठिन पहले वर्ष में, स्तालिन के धैर्य, दृढ़निश्चय, और कुशलता ने पूरे रूस की जनता को प्रेरित और प्रोत्साहित किया। निराशा के क्षणों में, स्तालिन ही थे जिन्होंने अंतिम विजय में विश्वास कायम रखा।

25 अक्टूबर 1941 को नाजी सेना मास्को के प्रवेशद्वार पर थी। स्तालिन ने हिटलर की फौजों को नजरंदाज करके लाल चौक में पारम्परिक सैन्य परेड की, जहां उन्होंने ऐतिहासिक भाषण दिया जिसे पूरे देश में प्रसारित किया गया। इसने उक्रेन के छापामारों को भावविह्वल कर दिया : स्तालिन कहते हैं-हम जीतेंगे, और जीतेंगे हम ही।

आने वाले हफ्तों में नाजी सेना मास्को के बाहरी इलाकों में प्रवेश कर गयी, लेकिन स्तालिन शांतचित्त शहर में ही डटे रहे और गुपचुप ढंग से सात लाख सैनिकों को जमा करने के काम में जुटे रहे।

नाजियों के विरुद्ध सोवियत संघ की विजय का आधार 1928 से 1941 के बीच स्तालिन की महान उपलब्धियों में खोजा जा सकता है। उस व्यक्ति की पचासवीं वर्षगांठ पर जिसने हिटलर को पराजित किया, इन्हीं भव्य उपलब्धियों के बारे में नये और पुराने फासीवादी कहते हैं आतंक अंधी हत्यायें, विध्‍वंस…। यह देखना मुश्किल नहीं है कि ये बुर्जुआ पत्रकार हमारे समय के फासीवादियों की चापलूसी करके बचते हैं कि इससे उन्हें अधिक सम्मान और ओहदा मिलेगा।

फासीवाद विरोधी महान युद्ध के सबसे प्रतिभावान वरिष्ठ अधिकारी मार्शल झुकोव ने बाद में धूर्त ख्रुश्चेव का साथ दिया, लेकिन कुछ वर्षों बाद उन्होंने ख्रुश्चेव के झूठों को गलत ठहराने के लिए स्तालिन का यह मूल्यांकन प्रस्तुत किया :

एक अत्यन्त विकसित उद्योग, सामूहिक कृषि, सारी जनता के लिए सार्वजनिक शिक्षा, देश की एकता, समाजवादी राज्य की ताकत, लोगों के बीच देशभक्ति की उत्कट भावना, नेतृत्व जो पार्टी के माध्‍यम से लड़ाई के मोर्चे पर और मोर्चे से इतर एकता बनाने में सक्षम रहा, साथ ये सभी तत्व फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष में महान विजय का कारण रहे।

सोवियत उद्योग ने बड़ी संख्या में हथियारों के उत्पादन में खुद को सक्षम सिद्ध किया। तकरीबन 490,000 बंदूकें व मोर्टार, 102000 से अधिक टैंक व स्वचालित तोपें, 137000 लड़ाकू विमान-ये दिखाते हैं सैन्य दृष्टिकोण से आर्थिक आधार काफी सुदृढ़ था।’’

प्रतिक्रान्तिकारी और विश्वासघाती ख्रुश्चेव ने यह लिखने का दुस्साहस किया कि स्तालिन न किसी पर विश्वास करते थे और न किसी की सलाह लेते थे। वास्तव में, इतिहास के इस सबसे महान युद्ध में स्तालिन के पास कामों की भरमार थी, जिसमें आदेशों पर हस्ताक्षर करने के लिए सामूहिक बौद्धिक क्षमता का प्रयोग किया। स्तालिन की कार्यशैली हमेशा जनवादी रही। वे हर विरोधी दृष्टिकोण को सुनते, सभी उपयोगी सुझावों की एकत्रित करने और सभी उपयोगी विचारों का समाहार करते थे।

1942 से सैन्य प्रमुख वसीलेव्सकी ने लिखा कि स्तालिन जब भी किसी काम की तैयारी करते थे, तो हमेशा कमांड अधिकारियों को बुला लेते थे, जिससे कि आवश्यक जानकारियां और सुझाव लिये जा सकें, और उन्हें और उन्हें लिये गये निर्णय की प्राथमिक रूपरेखा दी जा सके। उन्होंने लिखा है : ‘‘स्तालिन हमेशा सामूहिक तर्कणा पर भरोसा करते थे।’’

उपसेना प्रमुख जनरल श्तेमेंको ने भी ख्रुश्चेव के झूठे आरोपों को गलत ठहराते हुए लिखा-‘‘स्तालिन युद्ध के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर न तो खुद ही निर्णय लेते थे और न वे ऐसा चाहते थे। इस संश्लिष्ट क्षेत्र में सामूहिक काम की महत्ता को वे अच्छी तरह समझते थे। वे संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञ की राय जरूर लेते थे।’’

प्रथम स्टाफ प्रमुख झुकोव ने इसे प्रमाणित किया : ‘‘जोसेफ स्तालिन ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिनके समक्ष कठिन समस्यायें नहीं उठाई जा सकती थीं, जिनके साथ विचार–विमर्श नहीं किया जा सकता था या पूरी ऊर्जा से वकालत नहीं की जा सकती थी। अगर कुछ लोगों की राय इसके विपरीत हैं तो मैं कहूंगा कि उनकी मान्यताएं गलत हैं। स्तालिन की विद्वता महान थी और स्मृति अद्भुत। उनके पास बहुत तीक्ष्ण नैसर्गिक बुद्धि था और वह अद्भुत रूप से ज्ञानी थे। वह ध्‍यान से सुनते थे, कभी–कभी प्रश्न भी पूछते, फिर जनाब देते थे। जब विचार–विमर्श समाप्त हो जाता तो वे सटीकता से निष्कर्षों को सूत्रबद्ध कर देते थे।’’

1945 में अमेरिका ने हिटलर का झण्डा उठा लिया

जर्मन, जापानी और इतालवी फासीवाद ताकतों की पराजय के तुरन्त बाद दुनिया पर, वर्चस्व कायम करने का हिटलरी स्वप्न अमेरिका ने अपना लिया और इसके लिए उसने भारी संख्या में पुराने नाजियों को अपने साथ ले लिया।

जर्मनी में अमेरिकी सेना की गर्वनर रहे राबर्ट मर्फी ने 1945 में लिखा-“जनरल पैटन वैफन एसएस की दो टुकड़ियों को फिर हथियारबंद कर अमेरिका की तीसरी सेना में शामिल करके लाल सेना के विरुद्ध भेजना चाहते थे। उसने मुझे बताया-‘हम लाल सेना को वापस रूस भेज सकते हैं। अपनी जर्मन सेनाओं के साथ हम ऐसा करने में सक्षम हैं।’” पैटन ने यह डींग हांकी थी कि वह तीस दिनों के अंदर ही मास्को पहुंच सकता है।’’ युद्ध के दौरान नाजी जनरल गेहलेन रूस में नाजी खुफिया तंत्र का प्रमुख था। मई 1945 में उसने अमेरिकियों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। समझौते के अनुसार गेहलेन को अमेरिकियों द्वारा सोवियत संघ को सौंपा जाना था, चूंकि वह उन अपराधियों की सूची में मुख्य था जिसकी सोवियत संघ को तलाश थी। लेकिन उसने खुद गुप्तचर विभाग के प्रमुख एलेन डुलेस से समझौता वार्ता की। समझौते के अनुसार गेहलेन ने सोवियत संघ के बारे में सभी गुप्त सूचनायें अमेरिका को सौंप दीं और अमेरिका के नेतृत्व में रूस में अपने पुराने खुफिया तंत्र को पुनर्जीवित कर लिया। कुछ ही समय बाद गेहलेन संघीय जर्मन गणराज्य (पश्चिमी जर्मनी) के खुफिया विभाग का पहला प्रमुख बना जहां उसने अमेरिकी आदेश के तहत साम्यवाद विरोधी वही लड़ाई जारी रखी जो उसने हिटलर के नेतृत्व में लड़ी थी।

युद्ध के दौरान अमेरिकी गुप्तचर विभाग का प्रमुख था जान लाफ्टसन, जिसकी जिम्मेदारी थी अमेरिका में आने वाले हर पूर्व नाजी पर नजर रखना। 1944 से अमेरिका की अन्य गुप्तचर सेवाएं पूर्व नाजियों के देश में लाने का हर संभव प्रयास कर रही थीं। अपनी पुस्तक में लाफ्टसन ने अनुमान लगाया है कि अमेरिका में स्थापित पूर्व नाजियों की संख्या 10,000 के आसपास थी। शीत युद्ध में जर्मन, उक्रेनी, लातवियाई और रूसी पूर्व नाजियों को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। इनमें से कुछ कुख्यात नाजी अपराधी थे जो 130,000 मौतों के जिम्मेदार थे जैसे क्लौस, बार्बी, एलोइस ब्रूनर, ओटो डान बोल्शविग, आइशमान के सहयोगी आदि।

1945 से अमेरिका ने सर्वाधिक आक्रमणकारी और युद्धकारी शक्ति के रूप में हिटलर के जर्मनी का स्थान और भूमिका अपना ली।

अमेरिका ने बिना किसी सैन्य कारण के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बमों का प्रयोग किया। जापानी सेना को चीन में लाल सेना ने कुचल दिया था। हिरोशिमा और नागासाकी पर बम मूलत: स्तालिन को यह दिखाने के लिए गिराये गये थे कि अमेरिका क्या कुछ कर सकता है। अंग्रेज फील्डमार्शल एलन ब्रुक ने चर्चिल की इस सोच की पुष्टि की थी कि वह सोवियत संघ के औद्योगिक केन्द्रों को नष्ट करने में सक्षम है।

ग्रीस की जनता ने एक संगठित फासीवाद विरोधी क्रान्तिकारी सशस्त्र सेना का निर्माण कर जर्मन फासीवादियों से खुद को मुक्त कर लिया। ग्रीस की मुक्ति के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने एथेंस पर कब्जा कर लिया और देशभक्तों से लड़ने के लिए नाजी जर्मनी के पुराने समर्थकों से अपना नाता जोड़ लिया।

कोरिया में, राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट ताकतों ने जापानी सेना को माओ त्से–तुङ  के चीन और सोवियत संघ की सहायता से पराजित कर दिया था।

अमेरिकी कोरिया के दक्षिणी हिस्से में जहाज से उतरे जहां फासीवाद के समर्थकों को जेल से निकाला गया और अमेरिकी दुमछल्लों की अगुवाई में दक्षिण कोरिया का गठन किया गया।

अमेरिका का 1950 में कोरिया के विरुद्ध युद्ध एक कम्युनिस्ट विरोधी आम लड़ाई का प्रस्थान बिन्दु था। एक बार कोरिया को हराने के बाद अगला लक्ष्य चीन होता। अमेरिका के आधिपत्य में चीन सोवियत संघ के विरुद्ध युद्ध के लिए मुख्य आधार बन जाता, जिस पर पश्चिम जर्मनी से भी आक्रमण किया जा सकता था।

अमेरिका के कोरिया पर आक्रमण के समय जारी सोवियत संघ का घोषणापत्र आज फिर से प्रासंगिक हो उठा है :

‘‘अगर साम्राज्यवादी तीसरा विश्व युद्ध छेड़ते हैं तो वह अलग–अलग पूंजीवादी राज्यों की ही मौत नहीं बल्कि समूचे विश्व पूंजीवाद की मौत साबित होगा।’’ कोरिया पर अमेरिकी आक्रमण के विरुद्ध विश्व शान्ति परिषद के नेतृत्व में पूरी दुनिया में जो महान आंदोलन उभरा वह इसके पहले कभी देखने में नहीं आया था।

50 करोड़ लोगों ने आम निरस्त्रीकरण और परमाणविक हथियारों पर प्रतिबंध लगाने के लिए स्टाकहोम अपील पर हस्ताक्षर किये। अमेरिकी आक्रमणकारियों ने 30 लाख कोरियाइयों की जान ली, लेकिन विजय प्रतिरोध युद्ध की ही हुई, वह प्रतिरोध युद्ध जिसका नेतृत्व कामरेड किम इल सुंग और कोरिया की वर्कर पार्टी ने किया, जिसका समर्थन समाजवादी चीन, सोवियत संघ और युद्ध के खिलाफ विश्वव्यापी अभियान ने किया। अमेरिका के सोवियत संघ चीन में समाजवादी सत्ताओं के सफाये की योजना को छोड़ना पड़ गया।

सोवियत संघ में प्रतिक्रान्ति से अमेरिकी युद्धों के विरुद्ध वैश्विक मोर्चे तक

कामरेड स्तालिन की दुखद मौत से लेकर अब तक घटनाओं और उलटफेरों से समृद्ध पचास वर्ष बीत चुके हैं। त्रात्स्की, जिनोविएव और बुखारिन के उत्तराधिकारी के रूप में खु्रश्चेव के नेतृत्व में एक संशोधनकारी समूह सत्ता पर काबिज हो गया। जिससे भ्रष्ट राजनीति और विचारधारा का पतन खुलकर सामने आ गया। समाजवाद से गहराई से जुड़ी सोवियत जनता से विश्वासघात करने के लिए कम्म्युनिस्ट ले आने का वादा किया। ब्रेझनेव के राज में असैनिक क्षेत्र पीछे छूट गया और उसमें पूंजीवादी तौर–तरीकों की घुसपैठ हो गयी। पार्टी नेतृत्व की संरचना में क्रमिक उत्तरोत्तर पतन साथ–साथ एक ऐसी समान्तर अर्थव्यवस्था का विकास हुआ जो स्पष्टत: पूंजीवाद ही था। सोवियत संघ अभी भी एक महान ताकत था जो अमेरिकी साम्राज्यवाद की सर्वाधिक आक्रमणकारी नीतियों का प्रतिरोध करने में सक्षम था। तीसरी दुनिया के क्रान्तिकारी संघर्षों ने भी साम्राज्यवाद के लिए दिक्कतें पैदा कर दीं। इनमें वियतनाम का विजयी युद्ध, अंगोला का मुक्तियुद्ध, तेल उत्पादक देशों और अन्य कच्चा माल पैदा करने वाले देशों का संघर्ष शामिल था। 1991 में सोवियत संघ धराशायी हो गया। इस पतन का बुर्जुआ वर्ग द्वारा विजयी भाव से स्वागत किया गया और उसने कम्युनिज्म और इतिहास के अंत की घोषणा कर दी।

लेकिन, इतिहास हमें द्वंद्वात्मकता की शिक्षा देता है, जैसा कोई भी प्रोफेसर नहीं पढ़ा सकता। 1989–91 में प्रतिक्रान्ति ने सोवियत संघ में एक ऐसे पूंजीवाद की बहाली की जो अपने पूर्ण विकसित माफिया के रूप में सामने आया। लेकिन साथ ही साथ उसने यह भी सिद्ध कर दिया कि पूंजीवाद का कोई भविष्य नहीं है। साम्राज्यवाद ने वादा किया था कि पूंजीवाद पूर्व सोवियत संघ में आश्चर्यजनक परिवर्तन लायेगा। वह इतिहास का अंत था।

खैर इतिहास के अंत के उपहारस्वरूप सोवियत जनता को एक ऐसी महाविपदा का सामना करना पड़ा जैसा किसी भी बड़े औद्योगिक राष्ट्र नहीं भुगता था। 1990 की तुलना में 1999 में रूस में औद्योगिक उत्पादन 41 प्रतिशत और यूक्रेन में 58 प्रतिशत नीचे गिर गया। 12 वर्षों में रूस की जनसंख्या में 1.2 करोड़ निवासी कम हो गये। प्रतिक्रान्ति के बाद से मृत्यु दर में 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई और जन्म दर में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है। आज रूस में 40 लाख बेसहारा बच्चे हैं। यह ऐसी परिस्थिति है जिसके बारे में समाजवादी शासन के दौरान सोचा भी नहीं जा सकता था। 1985 में सेकेण्डरी शिक्षा में उपस्थिति करीब 100 प्रतिशत थी जो आज 75 प्रतिशत रह गई है।

विजेता पूंजीवादी खेमे में इतिहास का अंत एक अलग ही मोड़ लेता है। भीषण आर्थिक संकट बारी–बारी से लगभग हर ‘मॉडल’ राष्ट्र में आता है। जापान, मेक्सिको, दक्षिण–पूर्वी एशिया, रूस, ब्राजील…सभी जगह मंदी छा जाती है।

आज हम वैश्विक स्तर पर भारी परिमाण में पूंजी के संकेन्द्रण को देख सकते हैं। विश्व अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को 5 से लेकर 10 बड़े बहुराष्ट्रीय निगम संचालित कर रहे हैं। वे शोषण को बढ़ाते जाते हैं, मजदूरों की संख्या को घटाते जाते हैं, और इस तरह उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि होती जाती है। यह सब बहुत ही विध्‍वंसक तरीके से पूंजीवादी व्यवस्था के मूलभूत असमाधेय अंतर्विरोधों के रूप में प्रतिबिम्बित होता है-अनियंत्रित उत्पादन क्षमता और सिकुड़ते बाजारों के बीच का अंतरविरोध।

विश्व अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख देने वाले इन संकटों से बच निकलने के लिए अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगम वही इकलौता रास्ता अपना रहे हैं, ऐसी स्थितियों में जो पूंजीवाद के सामने होता है। वे शस्त्रों के उत्पादन में तेजी से ला रहे हैं। जिससे शत्रुओं को कुचलकर उनके कच्चे माल और बाजार पर कब्जा किया जा सके। यह विश्व युद्ध के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। पिछले दो विश्व युद्ध द्वेष के कारण नहीं लड़े गये बल्कि उनका कारण साम्राज्यवादी व्यवस्था में निहित राजनीतिक और आर्थिक नियम हैं। आज अभूतपूर्व आर्थिक संकट के सामने खड़ा अमेरिका वापस 1945–1953 के दौर में लौट गया है जब उसने जर्मन नाजियों के बैनर तले अपना वर्चस्व कायम करने का प्रयास करके कोरिया, चीन और सोवियत संघ के विरुद्ध तीसरे विश्व युद्ध की तैयारी करनी शुरू कर दी थी।

आज हालांकि विश्व की जनता बीसवीं शताब्दी की महान क्रान्तिकारी विजयों और अवसरवाद के कारण हुई पराजयों से काफी कुछ सीख चुकी है।

2003 में विश्व की जनता के नंबर एक शत्रु अमेरिकी वर्चस्ववाद के खिलाफ अभूतपूर्व विश्व मोर्चा खड़ा हो चुका है। यह 1941 में बर्लिन–टोक्यो–रोम की फासीवादी धुरी के मुकाबले ज्यादा ताकतवर, बड़ा और ज्यादा अंतरराष्ट्रीय चरित्र का है।

आज कामरेड स्तालिन की मृत्यु की 50वीं बरसी पर वे सभी राजनीतिक बौने जो अमेरिकी बुर्जुआ वर्ग के टुकड़ों पर पलते हैं, 1941-1953 के क्रान्तिकारियों पर जहर उगल सकते हैं। लेकिन इससे बुश के फासीवाद और हजार सालों तक चलने का मंसूबा पालने वाली अमेरिकी हिटलरशाही की स्थापना के लिए छेड़े जाने वाले विश्वयुद्ध की उन्मादी योजनाओं के खिलाफ युद्ध विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलनों को उठ खड़े होने से नहीं रोका जा सकता जिनका इतिहास में कोई सानी नहीं होगा।

साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के खिलाफ करोड़ों आन्दोलनकारियों को संघर्ष के अनुभव और बीसवीं सदी के क्रान्तिकारी इतिहास से निश्चय ही दिशानिर्देश प्राप्त होगा।

1932 और 1953 के बीच कामरेड स्तालिन द्वारा फासीवादी ताकतों ओर अमेरिकी वर्चस्ववाद के खिलाफ विकसित की गयी रणनीति और रणकौशल उन सभी के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण सन्दर्भों का काम कर सकते हैं जो शान्ति, स्वतंत्रता, नियोजित और सन्तुलित विकास और समाजवाद की विजय के लिए कटिबद्ध हैं।

अनु– अभिषेक (‘ललकार’ से साभार)

दायित्वबोध, जुलाई-सितम्‍बर 2003

Stalin- Greatest Individual of the Twentieth Century

50 years after the death of Joseph Vissarionovich Djugashvili Stalin

  • Ludo Martens ( Chairman of Workers’ Party of Belgium)

Courtesy – http://www.lalkar.org

At commemoration organised by the Institute for Marxist Studies (IMAST), At the Free University of Brussels, 5 March 2003

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“Stalin was the greatest individual of the Twentieth century, the greatest political genius” So spoke the ex-Soviet dissident, Alexander Zinoviev in 1993: “I was already a confirmed anti-Stalinist at the age of seventeen… The idea of killing Stalin filled my thoughts and feelings… We studied the ‘technical’ possibilities of an attack… We even practised. If they had condemned me to death in 1939, their decision would have been just…When Stalin was alive, I saw things differently, but as I look back over this century, I can state that Stalin was the greatest individual of this century, the greatest political genius.”

In 1994, I gave a talk on Stalin in Paris. An Algerian Communist intervened to recall the 5 March 1953. He said: “That morning, my father took my hand and we went out. I saw how upset all the Algerians looked and how the French were rejoicing. I asked my father what had happened. He gravely replied: ‘Stalin is dead…’ I asked who Stalin was. My father said: ‘He was the greatest man of our time. He was the leader of the Soviet Union, the greatest revolutionary country. Stalin was the son of a cobbler.’ And I thought: the son of a cobbler, someone like me…”. For the Algerian patriots, on whom French colonialism would inflict a million casualties during the war of liberation, Stalin represented the fight against colonialism and imperialism.

Today, on the fiftieth anniversary of his death, revolutionaries commemorate Stalin as one of the greatest revolutionaries the world has known until now. It was Stalin who carried out the extraordinary political and economic transformations in the Soviet Union, a landmark in the history of mankind. It was Stalin who led the greatest revolutionary war the world has known, the antifascist war of patriotic defence of the Soviet Union. It was Stalin who gave the impulse to the liberation struggles in the whole of the colonised world, particularly in Asia, notably in China and India.

Today, we are commemorating Stalin because his achievements are of crucial importance for the future of mankind. Stalin’s name symbolises the four great revolutionary struggles, which will decide the fate of mankind during this twenty-first century: the fight for economic development, for independence, for peace and for socialism.

Stalin and the Fight for Independence against Imperialism

The experience of Lenin and Stalin shows that the fight for national independence and the struggle for socialism are inseparable. It also shows that opportunism is a reserve force for imperialism and capitalism.

The great socialist Revolution triumphed on 25 October 1917.

The very next day, the Menshevik Party declared its intention of overthrowing the Bolsheviks, accused of installing a “system of slavery”. Russian social-democracy decided to “free Russia from Bolshevik tyranny” by appealing to imperialist armies! Churchill played a key role in the intervention of British, French, Japanese, Italian and US troops against the infant Soviet Union.

Stalin was the main Bolshevik leader to be sent by Lenin to the decisive battlefronts to lead the people’s war against the interventionist armies. After a long period underground, the Bolsheviks were not yet very numerous. The imperialist powers estimated that the Soviet Union could not hold out against eight foreign armies, supported by the remnants of the tsarist army, the big landowners, the capitalists and the social-democrat parties. Lenin and Stalin organised a real war of the popular masses, however, which overcame all the aggressors and all their Russian allies.

The political and military battles led by Lenin and Stalin to guarantee the independence of the Soviet Union take on a particular meaning in present-day conditions of imperialist globalisation. Today, the major problem facing the overwhelming majority of mankind is that of achieving genuine political and economic independence. It is the problem of the national liberation struggle against political, economic, military and cultural recolonisation, bloodier and more ferocious than Nineteenth century colonisation.

These last six years, I have experienced this reality at first hand in the Congo, one of the potentially richest countries in the world, but which, deprived for 37 years of neocolonial dictatorship and now victim of a war of aggression instigated by the United States, struggles to survive in appalling poverty.

Anglo-American imperialism foresees ” a new battle for Africa because raw materials in the industrialised world are running out”. The United States has declared that “the Congo is of vital importance to the interests of the United States in Africa… because the latter possesses 13 % of hydroelectric reserves in the world, 28 % of cobalt reserves, 18 % of reserves of industrial diamonds”. Anglo-American imperialism is almost openly claiming its right to “recolonise” the Congo and Africa and categorically refusing any kind of genuine independence. How can the wealth of the Congo be “of vital interest to American interests”, unless the Americans have decided to lay their hands on the Congo, whatever the price? The American-Rwandan-Ugandan war of aggression has already caused 4,000,000 deaths in the Congo. Who mentions that? For the fiftieth anniversary of comrade Stalin’s death, however, the entire bourgeois press has gone back to the calumnies about Stalin-the-bloodthirsty which were bandied about long ago by the Nazis.

Stalin and the fight for socialist development

Independence was the prerequisite for speeding up development in the Soviet Union.

Independence made possible the concentration of the most important means of production in the hands of the socialist state and their planned use to solve the main problems of industrial, agricultural, cultural and military development in record time. It was in 1928 that Stalin launched the first Five-year Plan for spectacular economic development. On 4 February 1931, Stalin declared: “We are 50 to 100 years behind the advanced countries. We must cover this distance in ten years. Either we’ll succeed or we’ll go under”. Stalin won his bet, a challenge no bourgeois would have thought possible.

He used two magic weapons: the organisation of vanguard workers and peasants in the Bolshevik Party in the first place, and the raising of consciousness and the mobilisation of the masses for economic development in the second place.

A foreigner who had lived for 37 years in tsarist Russia testified: “The Bolsheviks have mobilised more than 50 million apathetic human beings, more dead than alive and have breathed a new spirit into them. Revolutionary ardour is melting colossal obstacles. Nothing like it has ever been witnessed”.

Brought up in the country, the dissident Alexander Zinoviev lived through the harsh struggles for collectivisation and the modernisation of agriculture. He has this to say: “When I returned to the village, I often asked my mother and other kolkhozians if they would have accepted an individual farm if they were offered the possibility. They all refused categorically. During the collectivisation, the countryside had experienced an unprecedented cultural revolution: primary schools were set up, as well as technical schools for training veterinary surgeons, agronomists, mechanics, tractor drivers and a secondary school. The structure of the rural population became closer to that of urban society…This extremely rapid change of rural society gave the new system colossal support from the masses of the population”.

From 1928 to 1937, industrial production increased each year by 16.5 %. Lenin had proposed in 1920 a general plan for the electrification of the Soviet Union. Fifteen years later, Stalin had carried out the Plan at 230 %.

The collectivisation of agriculture was a mass movement of unprecedented extent, which allowed poor and middle peasants to prosper through collective work using modern tools and machines, while doing away with their exploitation by the old rich peasantry. At the beginning of 1929, the Soviet Union possessed 19,000 tractors. Twelve years later, in 1941, the kolkhozes (collective farms) and sovkhozes (state farms) had 684,000 tractors.

A mobilisation of the people never before witnessed in history made it possible for a backward, ruined country to catch up with the most formidable imperialist power in Europe, Nazi Germany, in just twelve years. In the Third World of today, subject to privatisation, foreign orders, disindustrialisation and general poverty, what country does not envy the achievements of Stalin?

Stalin and the revolutionary Bolshevik Party

The Bolshevik Party brought about all these victories. It was composed of only 30,000 hardened militants at the end of the underground period, at the time of the triumph of the revolution in 1917. In 1921, after the war of resistance against 14 foreign powers, the Party had 600,000 members. Stalin gave an unprecedented impulse to organisation and education and in 1932, a crucial year for the success of industrialisation and collectivisation, the Party had 2,500,000 members. It was the spirit of sacrifice, the dedication to the people, the zeal for work of this great political army that galvanised the workers for the war against under-development.

Although it was Lenin who had drawn up the principles of the revolutionary party of modern times and formed the hard core of the party, it was Stalin who transformed the Party into a great political army, educating and inspiring the masses of the population.

Without the decisive leading role of the party, none of the historic victories could have been won, whether it was the struggle for independence, the fight for development or the great antifascist war. Stalin was the main author of the handbook History of the Communist Party of the Soviet Union, an essential book which is still used today for the education of a new generation of revolutionaries throughout the world.

Stalin and the mortal danger of opportunism and infiltration

The enemies within Soviet socialism understood the decisive role of the Party from the start and set everything in motion to infiltrate and destroy it from within.

The young counter-revolutionary Boris Bazhanov was 19 when he decided in 1919 to infiltrate the Bolshevik Party. In 1923, he became secretary to comrade Stalin and the Politburo! In his autobiography, he later wrote: “Soldier of the anti-bolshevik army, I had fixed myself the difficult and dangerous task of penetrating enemy headquarters. I had achieved my aim.”

In addition, however, the habits of the old society, dominated by exploitation, were stubborn and gradually influenced a certain number of leaders of the new socialist regime.

Struggles between the different political tendencies within the Party therefore always reflected the struggle between the different class interests which traversed the Soviet Union. From the moment of victory in 1917, opportunist trends within the Bolshevik Party opposed the policies of Lenin and Stalin.

In 1927, Trotsky, Zinoviev and Kamenev were rightly excluded from the Party for their hostile activities. Zinoviev and Kamenev, however, were readmitted not long after. Between 1928 and 1930, Trotsky, Zinoviev, Kamenev and Bukharin bitterly opposed forced industrialisation and collectivisation. And in 1931, Zinoviev and Kamenev were again excluded for having publicly supported an anti-Bolshevik programme which Bukharin, still a member of the Politburo, had also backed.

In 1934, the Party held its 17th Congress, the Congress of Victory and Unity. The gigantic achievements, fruits of the heroic work of tens of millions of workers, could no longer be denied. Stalin believed that the phenomenal advances achieved by the Party and the masses, would bring the dissenters round to a correct point of view. Many cadres who had been excluded were re-established in their rights as members, among others Piatakov, Radek, Smirnov, Preobazhensky, then Zinoviev and Kamenev, who all took part in the 17th Congress and made speeches there.

It must be said that Stalin was never sectarian, he could forgive the cadres their past mistakes and give them a second chance.

On 1st December 1934, Kirov, the second in charge of the Party, was assassinated in his office. The murderers were never found.

It was only in 1936-37 that the Party discovered that the plot against Kirov had been organised by an underground organisation to which Zinoviev, Kamenev, Smirnov, Radek and other cadres belonged and which was in liaison with Trotsky.

Trotsky was the prototype of the communist who degenerates to the point of becoming a rabid anti-communist. In 1934 he wrote: ” Hitler’s victory was the result of the criminal policies of Stalin.” “In order to overthrow Hitler, the Communist International will first have to be done away with”.

In barely veiled terms, Trotsky encouraged Germany to attack the Soviet Union. He wrote in 1938: “Berlin knows to what degree of demoralisation the ruling clique has led the army and the population. Stalin continues to undermine the moral force and the resistance of the country. The Stalinist careerists will betray the country when it comes to the bit”. Just when the Nazis were preparing the attack on the Soviet Union, Trotsky called on the Soviet people to rise up against the Party and Stalin. He declared: “Only an uprising of the Soviet proletariat against the infamous tyranny of the new parasites can save what still exists of the achievements of October”. The provocative language of Trotsky directly served the German fascists.

During the enquiry into the underground networks of dissenters and enemy infiltrators, proof was discovered of the existence of underground groups within the military hierarchy which were preparing a coup. Marshal Tukhachevsky and generals Osepyan, Kashirin and Alksnis were among the dozens of military plotters who were shot.

Contrary to countries like France and Belgium, where a major part of the bourgeoisie collaborated with the enemy, in the Soviet Union the Fifth Column was practically eliminated.

About the purges carried out by Stalin, Churchill, who in Britain was in favour of the struggle against Hitler’s expansionism, had this to say: “The German government was in touch with important Russian personalities through the Soviet embassy in Prague. The plot aimed at overthrowing Stalin and introducing into Russia a new pro-German regime. Soviet Russia carried out a merciless but doubtless useful purge of political and economic circles. The Soviet army was purged of pro-German elements”.

Still about the purges, the Nazi Goebbels noted in his diary on 8 May 1943: “The Führer explained the case of Tukhachevsky and added that we were absolutely wrong if we thought Stalin would ruin the Red Army. It was the opposite that was true: Stalin got rid of all the opposition circles in the Red Army and thus succeeded in making sure there were no more defeatist groups in the Army.”

From social-democrat Bukharin to revisionist Gorbachev

If the purges of 1937-38 created the conditions for a generalised implacable resistance to Nazi aggression, they also dealt the deathblow to the opportunist trends which aimed at winning over the majority of the Party leadership and advocating a gradual return to capitalism.

In this context, the trial of Bukharin in 1938 takes on a historical importance: Bukharin was the Gorbachev of that time.

Bukharin was in 1938 the most prestigious Party leader and the highest placed among those who plotted the overthrow of the communist regime. The US ambassador, Joseph Davis, who was present at the trial, wrote: “The general sentiment of the diplomats who were present at the trial is that the existence of an extremely serious plot was proven”.

Faced with overwhelming proof, Bukharin had a burst of communist honour and confessed. He revealed the whole process of political degeneration which had led him, old Bolshevik that he was and dearest son of Lenin, to betray the Soviet revolution.

His confession is particularly revealing because, fifty years later, Gorbachev’s counter-revolutionary group took exactly the same line, pursuing it to its logical conclusion, the restoration of capitalism in its most Mafia-like form.

It is extremely instructive to reread today the report of the “Trial of the Anti-Soviet Bloc of Bukharinites and Trotskyites”.

During the trial, Bukharin, Trotsky and their followers were accused of using pseudo-Leninist language to attack the foundations of the socialist regime, of presenting demagogical platforms to rally the old bourgeois and feudal elements as well as all the other forces which were pursuing the overthrow of socialism in the USSR. “Behind the flashy Trotskyite and Bukharinite phraseology, they were preparing the restoration of capitalism”. That was exactly what Gorbachev did with his falsely “Leninist” demagogy!

The account of Bukharin’s trial goes on to declare that the opponents had got in touch with imperialist powers, among which was Nazi Germany, to facilitate their takeover. The indictment says that “the Bukharinites and the Trotskyites are an advanced detachment of international fascism”, ” a bloc of traitors”. “This trial reminds us that two worlds are face to face, like mortal and irreconcilable enemies, the world of capitalism and the world of socialism. The logic of class antagonism incites the remains of the exploiting classes within the USSR as well as the exploiting classes beyond our borders to fiercer and fiercer attacks on the Workers’ state.” In exactly the same way, fifty years later, the followers of Gorbachev acted like traitors to the cause of socialism and like an advanced detachment of American imperialism and international fascism. In the Russia of Yeltsin, the fascist organisation of Vlassov operated openly.

The trial of Bukharin underlined the fact that there were relations between the plotters and Western intelligence services. The charges also mentioned the fact that Bukharinites and Trotskyites were preparing “the separation of Ukraine and Byelorussia and the break-up of the Soviet Union. “.

Today, we can realise that Gorbachev and Yeltsin did indeed carry out the programme for which their predecessors Bukharin and Trotsky were condemned to death in 1938. Since then, high-placed civil servants of Gorbachev’s time have boasted that they had been in touch with American intelligence services for decades! So the fact that Gorbachev officially rehabilitated both Trotsky and Bukharin in 1990 is no unimportant detail! It is also significant that a Trotskyite leader like Ernest Mandel could declare in 1989: “The Perestroïka is truly a new revolution. The Trotskyite movement has defended the same idea for 55 years, which is why it was taxed with being counter-revolutionary. Today, it is easier to understand where the true counter-revolutionaries stand and where the true revolutionaries.”  Bukharin and Trotsky were indeed the Gorbachevs and the Yeltsins of 1935… but they were unmasked and executed. The Soviet Union was able to go on building socialism and preparing its defence against the imminent fascist aggression…

History has shown that opportunism and infiltration were a mortal inside danger for the whole socialist revolution. Trotsky, Zinoviev and Bukharin formed a chain of opportunists, who were linked to reactionary forces within the country and to fascists outside it. However, they were crushed by the revolutionary workers, peasants and intellectuals mobilised by Stalin and the Party. Purged of its Fifth Column, the Soviet Union was able to vanquish the barbaric fascist hordes. The Soviet people waged heroic battles for their own freedom but also for the freedom of all peoples crushed by fascism or oppressed by colonialism. In these historic struggles they sacrificed 27 million fighters and civilian resistors. Never before had there been a battle so grandiose, heroic and decisive for the evolution of the world. The pathetic lies and the grotesque intoxication we are fed by the bourgeois media for the fiftieth anniversary of the death of the great Stalin will not change one whit this truth written with the blood of the brave.

Stalin and the international anti-fascist alliance

Stalin not only destroyed the Nazi Fifth Column operating within the Soviet Union, he also favoured, from 1935 on, an international alliance of anti-fascist forces and countries.

In 1935, the Soviet Union proposed establishing a system of collective security in Europe, aimed against German and Italian fascist expansionism. The “democratic” powers, Britain and France, refused and followed a policy of “neutrality” in 1936 when the fascist powers intervened in Spain to help Franco establish his fascist dictatorship. Then London and Paris negotiated in Munich with the fascist powers and handed over the Sudetenland region of Czechoslovakia to Hitler. At the same moment, Hitler’s Germany signed a declaration with Great Britain according to which they would never again go to war one against the other. The repeated appeals of Stalin to form a collective defence system remained without effect: Britain and France even allowed Hitler to occupy the whole of Czechoslovakia in March 1939. In fact, they were inciting Hitler to make war in the East.

From June to August 1939, the Soviet Union carried on last minute negotiations with Britain and France for an anti-fascist alliance. In July, however, Chamberlain held secret negotiations with Hitler, to whom he guaranteed freedom of action in the East and the South-East of Europe, also promising to break off relations with Stalin. In August 1939, Stalin understood that London and Paris had decided to let Hitler occupy Poland and thus leave the way free to the Soviet Union.

Hitler was determined to beat the Soviet Union, France and Britain, but he did not want a war on two fronts. He wanted either war against Britain and France alone, or against the Soviet Union alone. As a strategist, he preferred to fight and vanquish his weaker enemies first. He knew that the war against the Soviet Union would be implacable, ferocious, the decisive battle between two radically opposed worlds. Hitler knew he had many friends and sympathisers in France and Britain. On 20 August, he proposed a pact of non-aggression to the Soviet Union. Stalin, faced with the possibility of having to confront Nazi barbarity alone, immediately accepted.

The British and French imperialists who wanted to use Hitler to destroy the Soviet Union, were caught in their own trap. Hitler thought he could first defeat France, Belgium and Britain, before turning, with all Europe’s military might, against Stalin.

The Soviet Union won 21 crucial months to strengthen its defences decisively. This was a determining factor for the creation of a world anti-fascist front and for victory over the Axis powers, Germany, Japan and Italy.

The decisive role of Stalin in the great anti-fascist war

Throughout the war, but above all during the first most difficult year, Stalin’s courage, determination and competence galvanised the entire Soviet population. In the hours of despair, it was Stalin who embodied faith in the final victory.

On 25 October 1941, the Nazi army was at the gates of Moscow. Stalin nonetheless decided to defy Hitler’s troops and hold the traditional military parade in Red Square, where he gave a historic speech which was broadcast throughout the country, bringing tears of joy to the eyes of hardened partisans in Ukraine: Stalin says we shall win, and win we shall!

In the weeks to come, the Nazis entered the suburbs of Moscow, but Stalin calmly remained in the city and went on secretly concentrating more than 700.000 soldiers nearby. After consulting all his commanding officers, Stalin decided on the great counter-offensive which was to free Moscow. The Nazis lost 500.000 men. It was a turning point in the war.

The basis of the Soviet victory against the Nazis is to be found in the gigantic accomplishments of Stalin between 1928 and 1941. This imposing achievement is what the supporters of old and new fascism call, on the fiftieth anniversary of the death of the man who defeated Hitler, terror, blind murder, mad destruction… Impossible not to see that these bourgeois journalists, paid to flatter the fascists of our time, think they will thus obtain higher remuneration and more prestige.

Marshall Zhukov, the most brilliant senior officer of the great anti-fascist war, was later to support the crook Khrushchev at the critical moment, but a few years later he made this appraisal of Stalin in order to refute Khrushchev’s lies: “A highly developed industry, a collectivised agriculture, public education extended to the whole population, unity of the nation, the power of the socialist state, the high degree of patriotism among the people, the leadership which, through the Party, was capable of achieving unity between the battlefront and the rear, all these factors together were the fundamental cause of the great victory which was to crown our struggle against fascism. Soviet industry proved capable of producing a colossal amount of arms: almost 490,000 guns and mortars, more than 102,000 tanks and self-driven cannon, more than 137,000 fighter aircraft show that the foundations of the economy, from a military point of view were sound.”

The traitor and counter-revolutionary Khrushchev dared write that Stalin relied on no one and asked no one’s advice. In fact, Stalin got through a colossal amount of work waging the greatest war in history, applying collective wisdom to the signing of 10,000 orders and instructions. Stalin always maintained a democratic work-style, listening to all opposing points of view, concentrating all useful opinions and summarising all worthwhile ideas.

Vasilevsky, chief of staff from 1942, wrote that when Stalin was preparing an operation, he always had the commanding officers concerned come so as to obtain the necessary information and advice and submit to them the preliminary outline of the decisions. He wrote: “Stalin always relied on collective reasoning.”

General Shtemenko, vice-chief of staff, also refuted Khrushchev’s calumnies: “Stalin did not decide the important questions of the war on his own and did not like deciding on his own. He understood the necessity of collective work in this complex field perfectly. He could tell someone who had authority in such and such a field and always took his opinion into account “.

Zhukov, the first chief of staff, testified: “Joseph Stalin was not at all a man with whom difficult problems could not be brought up, with whom one could not discuss and even energetically defend one’s opinion. If some people maintain the contrary, I say their declarations are untrue”. “Stalin’s erudition was very great and his memory astonishing. He possessed great natural intelligence but was also astonishingly knowledgeable. He listened carefully, sometimes asked questions, replied. When the discussion was over, he formulated the conclusions with precision “.

Even the American diplomat Averell Harriman, speaking about Stalin, recalled, “his great intelligence, his fantastic capacity for going into detail, his perspicacity and the surprising human sensitivity he could show. Better informed than Roosevelt, more realistic than Churchill, he was in many ways the most efficient of the war leaders”.

In 1945, the United States took up the banner of Hitler

Immediately after the defeat of the German, Japanese and Italian fascist powers, the United States took up Hitler’s dream of dominating the world and took in a large number of ex-Nazis to do so.

Robert Murphy, adviser to the American military governor in Germany, wrote in 1945: “General Patton wanted to rearm two divisions of Waffen SS and incorporate them into the Third US Army in order to send them against the Reds. He told me: ‘We can drive the Red Army back to Russia. With my Germans, we are capable of doing it.’ Patton boasted that he could reach Moscow in thirty days.”

During the war, the Nazi general Gehlen was chief of Nazi espionage in the Soviet Union. In May 1945, he surrendered to the Americans. According to Allied agreements, the Americans were to hand over Gehlen to the Soviets, since he figured on the list of the main war criminals wanted in the Soviet Union. However the Americans transferred Gehlen undercover to the United States, where he negotiated with Allan Dulles, the secret service chief, himself. An agreement was reached: Gehlen transferred all his archives on the Soviet Union to the United States and reactivated his old networks in the Soviet Union under United States leadership. Shortly afterwards, Gehlen became the first chief of intelligence services in the Federal Republic of Germany, where he simply continued, under United States orders, the anti-communist war he had waged under Hitler.

During the war, John Loftus was the chief of the American secret service responsible for tracking ex-Nazis who tried to get into the United States. However, from 1944, other American secret services were trying to get as many ex-Nazis into the country as possible! In his book, Loftus estimates the number of ex-Nazis established in the US at some ten thousand. These German, Ukrainian, Latvian, Russian ex-Nazis were to play a crucial role in the Cold War. Among them were some of the greatest Nazi criminals like Klaus Barbie, Alois Brunner, held to be responsible for the death of 130,000 people, Otto von Bolschwig, Eichmann’s aide…

From 1945, the United States took up the place and the role of Hitler’s Germany as the most aggressive and most warlike power.

The Americans used the atomic bomb on Hiroshima and Nagasaki without any military justification: the Japanese army had been crushed in China by the Red Army. Hiroshima and Nagasaki were basically a demonstration for Stalin’s attention, to let him know what he could expect. The English Field-Marshall Alan Brooke testified that Churchill already thought he was capable of eliminating the industrial centres of the Soviet Union.

The Greek people liberated themselves from the German fascists by organising their own anti-fascist, revolutionary armed forces. After the liberation of Greece, British imperialism occupied Athens and linked up with the ex-supporters of Nazi Germany to fight the patriots.

In Korea, the nationalist and communist forces had defeated the Japanese army of occupation with the help of the Soviet Union and the army of Mao Zedong. The Americans disembarked in the southern part of Korea, where they let the ex-fascist collaborators out of prison to set up a South-Korean Republic led by American lackeys.

The United States launched the war against Korea in 1950 as a starting point for a general anti-communist war: once Korea was beaten, China would be the next target. China under US domination would become the main base for the war against the Soviet Union, which could also be attacked from the Federal Republic of Germany.

When the Americans attacked Korea, the Soviet Union issued a declaration which takes on a new significance today, 53 years later: “If the imperialists launch a Third World War, it will be the death not only of isolated capitalist states, but of world capitalism as a whole “.

Against the American attack on Korea was developed the greatest peace movement the world had ever seen, under the leadership of the World Council for Peace. Five hundred million people signed the Stockholm Appeal calling in particular for the banning of nuclear weapons and for general disarmament.

The American aggressors killed 3,000,000 Koreans, but resistance won the day; resistance led by the Workers’ Party of Korea and comrade Kim Il Sung; resistance supported by socialist China, by the Soviet Union and by a worldwide campaign against the war. The plan to eliminate the socialist regimes in China and in the Soviet Union had to be dropped.

From Counter-Revolution in the Soviet Union to the World Front against American Wars

Fifty years, rich in events and reversals, have passed since the much lamented death of comrade Stalin. With Khrushchev, a revisionist group, heirs to Trotsky, Zinoviev and Bukharin, took power and precipitated political and ideological degeneration. In order to deceive the Soviet people, who were very attached to socialism, the anticommunist Khrushchev promised… the complete achievement of communism for the year 1980…

Under Brezhnev, …. the civilian sector fell back and was invaded by capitalist methods. A shadow economy, clearly capitalist, developed simultaneously with a progressive degeneration of the Party leadership structure.

The Soviet Union remained a great power, however, capable of blocking the most aggressive tendencies of American imperialism. The revolutionary struggles of the Third World also created difficulties for imperialism: the victorious war in Vietnam, the war of liberation in Angola, the struggle of the oil-producing countries and other producers of raw materials. …[In 1991 the Soviet Union collapsed, this collapse was greeted by the bourgeoisie with unrestrained triumphalism and to declare the end of communism – and indeed the end of history.]

However, history, like no other professor, teaches us dialectics: the counter-revolution in the Soviet Union of 1989-91 completely restored capitalism in its most mafia-like form, but at the same time it proved that… capitalism has no future! Imperialism promised that capitalism would work wonders in the ex-Soviet Union. It was the end of history.

Well, as a gift for the end of history, the Soviets underwent the greatest catastrophe ever experienced by a great industrialised country. In 1999, industrial production in Russia had diminished by 41 % compared with 1990, in Ukraine by 58 %. In 12 years, the Russian population fell by 12 million inhabitants. Since the counter-revolution, mortality has increased by 33% and the number of births has fallen by 40%. Today, it has 4,000,000 abandoned children, a situation that was totally unthinkable under the Soviet regime. In 1985, the attendance rate in secondary education was almost 100 %. Today it has fallen to 75 %.

In the victorious capitalist camp, the end of history takes odd turns: huge economic crises follow one another in almost all of the “model” countries: there have been slumps in Japan, Mexico, South-East Asia, Russia, Brazil…

Today, we can observe huge waves of capitalist concentration on a world scale: 5 to 10 transnational corporations control the different sectors of the world economy. They step up exploitation, lower the number of workers, increase productivity to a phenomenal extent. All that reveals in the most destructive way the fundamental insoluble contradiction of the capitalist system: the contradiction between an apparently unlimited production capacity and ever decreasing markets..

In order to flee the economic crises which will shake their system, the American transnational corporations are embarking today on the only course remaining to capitalism every time it is faced with an insoluble economic crisis: the course of world war by “relaunching” production in arms manufacturing, and so as to crush rivals and conquer raw materials and markets.

It is not by malice, but because of the economic and political laws inherent to the imperialist system that the world has experienced two world wars.

Today, faced with the perspective of unprecedented economic crises, the United States has gone back to the years 1945-1953, when it took up the banner of the German Nazis and tried to establish its hegemony by preparing for a Third World War against Korea, China and the Soviet Union.

Today, however, the peoples of the world have learnt much from the great revolutionary victories of the twentieth century, as well as from the great defeats caused by opportunism.

In 2003 an unprecedented world front against the number 1 enemy of the peoples of the world, American hegemonism, has sprung up. It is a larger, more powerful and more international front than that set up in 1941 against the fascist Axis of Berlin-Tokyo-Rome.

Today, on this fiftieth anniversary of the death of comrade Stalin, all the political dwarfs who eat out of the hands of the American bourgeoisie, can spit out their poison on the communist revolutionaries of the glorious years of 1941-1953. That will not stop an unparalleled anti-war and anti-imperialist movement from developing against the fascism of Bush and his delirious plans for a world war to establish a thousand year American Reich.

The tens of millions of activists against imperialist globalisation will find instruction in the experience of struggle and by reflecting on the revolutionary history of the twentieth century.

The strategy and the tactics developed by comrade Stalin between 1932 and 1953 first against the fascist powers and then against American hegemonism, remain the most important references for all peoples determined to win peace, independence, planned and balanced development – and socialism!

 

एन.जी.ओ. : साम्राज्यवाद के चाकर

एन.जी.ओ. : साम्राज्यवाद के चाकर

  •  जेम्स पेत्रास और हेनरी वेल्तमेयर

जेम्स पेत्रास स्टेट युनिवर्सिटी आफ न्यूयार्क, बिंघमटन में समाजशास्त्र के प्रोफेसर एमेरिटस तथा सेण्ट मैरी’ज़ युनिवर्सिटी, हेलीफैक्स, कनाडा में अन्तरराष्ट्रीय विकास अध्ययन के एडजंक्ट प्रोफेसर हैं। उन्होंने लातिनी अमेरिका, तीसरी दुनिया के देशों तथा वैश्विक विकास पर 36 पुस्तकें तथा 300 से अधिक लेख लिखे हैं।

हेनरी वेल्तमेयर युनिवर्सिडाड आटोनोमा डि ज़काटेकास, मेक्सिको में समाजशास्त्र तथा अन्तरराष्ट्रीय विकास अध्ययन के प्रोफेसर हैं। उन्होंने कनाडा के राजनीतिक अर्थशास्त्र और लातिनी अमेरिका मेें विकास के मुद्दों पर कई पुस्तकें लिखी हैं।

यह लेख उनकी नई पुस्तक ‘ग्लोबलाइजेशन अनमास्क्ड’ से लिया गया है।

पूरे इतिहास में, मुट्ठीभर अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करने वाले शासक वर्ग अपनी सत्ता, मुनाफे और विशेषाधिकारों की हिफाजत के लिए राज्यतंत्र और सामाजिक संस्थाओं पर निर्भर करते रहे हैं। विगत में, विशेषतया तीसरी दुनिया में, साम्राज्यवादी शासक वर्गों ने शोषित जनता को नियंत्रित करने और उनके असन्तोष को धार्मिक व साम्पद्रायिक प्रतिद्वन्द्विताओं एवं संघर्षों की ओर मोड़ देने के लिए विदेशी और स्थानीय धार्मिक संस्थाओं को वित्तपोषण एवं सहारा दिया।

यद्यपि यह काम आज भी जारी है, पर हाल के दशकों में एक नई सामाजिक संस्था उभरी है जो नियंत्रण और वैचारिक भ्रमजाल फैलाने के उसी काम को बखूबी पूरा कर रही है-ये हैं तथाकथित ‘‘गैर सरकारी संस्थाएं’’ (एन.जी.ओ.-यह नाम भी इन्होंने ही खुद को दिया है)। आज कम से कम 50,000 एन.जी.ओ. (और उनकी अनगिनत शाखाएं– प्रशाखाएं–उपशाखाएं-सं–) पूरी तीसरी दुनिया में छाये हुए हैं और अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं, यूरोपीय, अमेरिकी तथा जापानी सरकारी एजेंसियों तथा स्थानीय सरकारों से फंड के रूप में कुल 10 अरब डालर से अधिक प्राप्त कर रहे हैं। कई विशालकाय एन.जी.ओ. के मैनेजर करोड़ों डालर का बजट संचालित करते हैं और किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सी.ई.ओ. के बराबर वेतन और सुविधाएं प्राप्त करते हैं। वे अन्तरराष्ट्रीय कांफ्रेंसों में भाग लेने के लिए हवाई यात्राएं करते हैं, चोटी के औद्योगिक और वित्तीय डायरेक्टरों के साथ बैठकें करते हैं और ऐसे नीतिगत फैसले लेते हैं जो कि लाखों लोगों, विशेषतया गरीबों, महिलाओं और असंगठित क्षेत्र में लगे मेहनतकशों को प्रभावित करते हैं-अधिसंख्य मामलों में उन्हें हानिकारक रूप से प्रभावित करते हैं।

एन.जी.ओ. विश्वव्यापी राजनीतिक और सामाजिक मंच पर बहुत प्रभावशाली भूमिका निभा रहे हैं। वे एशिया, लातिनी अमेरिका और अफ्रीका के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में कार्य करते हैं तथा यूरोप, अमेरिका और जापान में स्थित अपने प्रमुख दाताओं के साथ मातहती भूमिका में निरन्तर जुड़े रहते हैं। यह एन.जी.ओ. की व्यापक पैठ और तथाकथित ‘‘प्रगतिशील विश्व’’ के ऊपर उनकी आर्थिक और राजनीतिक ताकत का ही एक लक्षण है कि उनके नकारात्मक प्रभावों की सुसंगत वामपंथी आलोचना बहुत कम हुई है। वृहत्तर रूप में यह विफलता संगठित वामपंथी आन्दोलनों को विस्थापित और बरबाद करने तथा उनके बुद्धिजीवी रणनीतिकारों एवं सांगठनिक अगुआओं को फोड़ लेने में एन.जी.ओ. की सफलता का भी परिणाम है।

आज ज्यादातर वामपंथी आन्दोलन और जनप्रवक्ता अपनी आलोचना का निशाना आई.एम.एफ., विश्वबैंक, बहुराष्ट्रीय निगमों, प्राइवेट बैंकों आदि को बनाते हैं जो कि तीसरी दुनिया की लूट का वृहत–आर्थिक एजेण्डा निर्धारित करते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। लेकिन तीसरी दुनिया के औद्योगिक आधार, स्वतंत्रता और जीवनस्तरों पर हमला वृहत–आर्थिक तथा सूक्ष्म–सामाजिक–राजनीतिक, दोनों धरातलों पर हो रहा है। मजदूरों, वेतनभोगी मेहनतकशों, किसानों तथा छोटे–मोटे कारोबार करने वाले लोगों पर ढांचागत समायोजन की नीतियों के भयावह परिणाम राष्ट्रव्यापी जन–असन्तोष पैदा कर रहे हैं। और यहीं एन.जी.ओ. सामने आते हैं जो लोगों को पट्टी पढ़ाकर इस असन्तोष को कारपोरेट/बैंकिंग सत्ता संरचनाओं और मुनाफों पर सीधे हमले से हटाकर स्थानीय माइक्रो–प्रोजेक्टों, गैर–राजनीतिक ‘‘ग्रासरूटी’’ स्व–शोषण और ‘‘लोक–शिक्षा’’ की ओर मोड़ देते हैं जिसमें साम्राज्यवादी और पूंजीवादी मुनाफाखोरी के वर्गीय विश्लेषण के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती।

महत्त्वाकांक्षी शिक्षित वर्गों की ऊर्ध्वमुखी गतिशीलता के लिए दुनियाभर में एनजीओ आज नवीनतम वाहन बन चुके हैं। बड़ी संख्या में अकादमिकों, पत्रकारों और स्वतंत्र पेशा व्यक्तियों ने एनजीओ के साथ लगकर फलदायी कैरियर बनाने के लिए वामपंथी आन्दोलन से मुंह मोड़ लिया, जहां जाहिर है, उन्हें कोई खास भौतिक लाभ नहीं मिल पाता था। वे अपने साथ संगठनात्मक और वाग्मितापूर्ण कौशल तथा एक खास लोकप्रियतावादी शब्दावली लेकर आये। आज हजारों एनजीओ डायरेक्टर अपने फैशनेबल उपनगरीय आवासों या अपार्टमेण्ट्स से अपने सुसज्जित दफ्तरों और बिल्डिंग काम्प्लेक्सों में 40,000 डालर की स्पोर्टस कार में सवार होकर जाते हैं और अपने बच्चों तथा घरेलू कामकाज को नौकरों और बागीचे को माली की देखरेख में छोड़ जाते हैं। वे अपने देश के धूल–कीचड़ भरे गांवों के मुकाबले गरीबी पर होने वाले अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों के आयोजन स्थलों (वाशिंगटन, बैंकाक, टोक्यो, ब्रसेल्स, रोम, आदि) से ज्यादा वाकिफ होते हैं और अपना ज्यादा समय भी वहीं गुजारते हैं। वे कम वेतन के विरुद्ध ग्रामीण शिक्षकों के प्रदर्शन पर धावा बोलती पुलिस की लाठी सर पर खाने का जोखिम उठाने के बजाय ‘‘योग्य प्रोफेशनलों’’ को नकद नारायण उपलब्ध कराने के नये–नये प्रस्ताव बनाने में ज्यादा प्रवीण होते हैं। एनजीओ के चौधरियों का समूह एक नया वर्ग है जो सम्पत्ति के स्वामित्व अथवा सरकारी संसाधनों पर नहीं आधारित है बल्कि साम्राज्यवादी फण्डों और महत्त्वपूर्ण जनसमूहों को नियंत्रित करने की खुद की क्षमता से उत्पन्न हुआ है। एनजीओ चौधरियों को एक नये प्रकार के कम्प्राडोर समूह (दलाल पूंजीपति) के रूप में समझा जा सकता है जो किसी भी उपयोगी वस्तु का उत्पादन नहीं करते बल्कि दाता देशों के लिए उपयोगी सेवाएं मुहैया कराते हैं; निजी लाभों के लिए अपने देश की गरीबी का सौदा करते हैं।

अपनी स्थिति की सफाई देने के लिए एनजीओ डायरेक्टरों द्वारा किये जाने वाले औपचारिक दावे-कि वे गरीबी, विषमता आदि से लड़ रहे हैं-स्वार्थपूर्ण और छद्मपूर्ण हैं। एनजीओ की बढ़त और आम जीवन–स्तरों की गिरावट में सीधा सम्बन्ध है : एनजीओ की संख्या में बढ़ोत्तरी ने ढांचागत बेरोजगारी अथवा किसानों के भारी पैमाने पर विस्थापन को कम नहीं किया है, और न ही असंगठित मेहनतकशों की बढ़ती हुई फौज के लिए जीवन–यापन योग्य मजदूरी–स्तर ही प्रदान किया है। एनजीओ ने जो किया है वह यह कि उसने प्रोफेशनलों का एक छोटा सा तबका तैयार किया जो विदेशी मुद्रा में आमदनी के बूते नव–उदारवादी अर्थव्यवस्था की उन तबाहियों से बच निकलते हैं जो उनके देश और आम लोगों को प्रभावित करती हैं, तथा वर्तमान सामाजिक वर्गीय ढांचे में ऊपर चढ़ने की सीढ़ी पा जाते हैं।

बहरहाल, यह असलियत एनजीओ संचालकों की उस छवि के बिल्कुल विपरीत है जो उन्होंने अपने लिए बना रखी है। उनकी प्रेस विज्ञप्तियों और सार्वजनिक बयानों के अनुसार, वे ‘‘निरंकुश राज्यसत्तावाद’’ और ‘‘बर्बर बाजार पूंजीवाद’’ के बीच एक ‘‘तीसरे रास्ते’’ का निरूपण करते हैं : वे खुद को ‘‘वैश्विक अर्थव्यवस्था’’ में उभरी दरारों में कार्यरत ‘‘सिविल सोसायटी’’ के हरावल बताते हैं। एनजीओ–सम्मेलनों में जो आम उद्देश्य हमेशा प्रतिध्वनित होता है, वह है ‘‘वैकल्पिक विकास।’’

‘‘सिविल सोसायटी’’ के बारे में तरह–तरह के शब्द और पदावलियां गढ़ना एक फिजूल की कसरत है। ‘‘सिविल सोसायटी’’ कोई एकीभूत निष्कलंक सत्ता नहीं है-यह उन वर्गों को मिलाकर बना है जिनके बीच बंटवारा आज जितना गहरा है उतना इस शताब्दी में पहले कभी नहीं था। सभ्य समाज में मेहनतकशों के खिलाफ अधिकांश भीषण अन्याय वैभवशाली बैंकरों द्वारा किये जाते हैं जो घरेलू कर्जों पर बेहिसाब ब्याज निचोड़ते हैं; भूस्वामियों द्वारा किये जाते हैं जो गरीब–किसानों को उनकी जगह–जमीन से उजाड़ देते हैं; और औद्योगिक पूंजीपतियों द्वारा किये जाते हैं जो बहुत ही कम मजदूरी पर कमरतोड़ मेहनत कराकर मजदूरों की रक्त–मज्जा निचोड़ डालते हैं। ‘‘सभ्य समाज’’ की बात करते समय एनजीओ संचालक उस प्रचण्ड वर्ग–विभाजन, वर्ग–शोषण और वर्ग–संघर्ष पर पर्दा डालते हैं जिसने मौजूदा ‘‘सभ्य समाज’’ को ध्रुवीकृत कर रखा है। विश्लेषण के स्तर पर निरर्थक और अस्पष्ट होते हुए भी ‘‘सभ्य समाज’’ की धारणा एनजीओ की पूंजीपतियों के साथ सांठ–गांठ को सुगम बनाती है जो उनकी संस्थाओं को वित्तपोषित करते हैं और उनके प्रोजेक्टों और अनुयायियों को उन बड़े व्यावसायिक हितों के अधीनस्थ बनाने की छूट देते हैं जो नव–उदारवादी अर्थव्यवस्थाओं को निर्देशित करते हैं। इसके अलावा एनजीओ संचालकों का ‘‘सभ्य समाज’’ सम्बन्धी शब्दाडम्बर सामाजिक सेवाएं प्रदान करने वाले व्यापक लोक–कार्यक्रमों और राजकीय संस्थानों पर आक्रमण करने का उपकरण भी बन जाता है। एनजीओ संचालक बड़े व्यवसायियों के ‘‘राज्यसत्तावाद’’–विरोधी शब्दाडम्बर में उनका साथ देते हैं-एक यह काम ‘‘सभ्य समाज’’ के नाम पर करता है और दूसरा ‘‘बाजार’’ के नाम पर-ताकि राजकीय संसाधनों का नये सिरे से बंटवारा किया जाये। निर्यात को सब्सिडी देने और वित्तीय जमानतों के निमित्त लोक विधियों को बढ़ाने के लिए पूंजीपतियों के ‘‘राज्यसत्तावाद–विरोध’’ का प्रयोग किया जाता है, जबकि एनजीओ संचालक ‘‘उप–ठेके’’ द्वारा थोड़े से लाभार्थियों को घटिया सेवा प्रदान कर एक छोटा हिस्सा हथियाने का प्रयास करते हैं।

एनजीओ संचालकों की नव परिवर्तनवादी ‘ग्रासरूटी’ नेताओं वाली छवि के विपरीत, वे वास्तव में ‘ग्रासरूटी’ प्रतिक्रियावादी हैं जो निजीकरण को ‘‘निचले स्तर से’’ प्रोत्साहित करते हुए और जनान्दोलनों को हतोत्साहित करते हुए और इस प्रकार प्रतिरोधों को समाप्त करते हुए अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) के कामों में सम्पूरक की भूमिका निभाते हैं।

इस प्रकार, सर्वत्रव्यापी एनजीओ वामपंथ के समक्ष एक गंभीर चुनौती खड़ा करते हैं जो उनके उद्गम, ढांचे और सिद्धान्त (आइडियालॉजी) के आलोचनात्मक–राजनीतिक विश्लेषण की मांग करता है।

एनजीओ का उद्गम, ढांचा और सिद्धान्त

एनजीओ राजनीति में एक अन्तरविरोधी भूमिका में दिखाई पड़ते हैं। एक तरफ तो वे तानाशाहियों और मानवाधिकारों के उल्लंघन की आलोचना करते हैं। दूसरी ओर, वे रैडिकल सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों के साथ होड़ करते हुए जनान्दोलनों को प्रभावशाली नव–उदारवादी अभिजातों के साथ सहयोगपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की दिशा में मोड़ने का प्रयास करते हैं। वास्तव में, ये राजनीतिक अवस्थितियां इतनी अन्तरविरोधी नहीं हैं जितनी दिखाई देती हैं।

एनजीओ के विकास और संवर्द्धन का पिछले पच्चीस वर्षों का सर्वेक्षण करने से हम पाते हैं कि एनजीओ का आविर्भाव तीन घटनाक्रमों के समुच्चयों में हुआ। सबसे पहले यह एक सुरक्षित आश्रय के रूप में तानाशाही शासनों के दौरान अस्तित्व में आया जहां विभिन्न मतावलम्बी बुद्धिजीवी मानवाधिकार उल्लंघन के मुद्दे उठा सकते थे तथा कठोर आर्थिक कार्यक्रमों से पीड़ितों के लिए ‘‘राहत कार्यक्रम’’ (सर्वाइवल स्‍ट्रैटेजी) आयोजित कर सकते थे। लेकिन ये मानवतावादी एनजीओ इस बात के लिए सतर्क थे कि स्थानीय मानवाधिकारों को कुचलने में लगे अमेरिका और यूरोपीय देशों के कुकर्मों की पोल–पट्टी न खुल जाये या लोगों को निर्धन बनाने वाली ‘‘मुक्त–बाजार’’ नीतियों पर प्रश्नचिह्न न लगे। इस प्रकार एनजीओ रणनीतिक रूप से ‘‘डेमोक्रेट्स’’ के रूप में स्थापित किये गये जो दमनकारी स्थानीय शासकों के सम्मुख व्यापक जनान्दोलनों की गम्भीर चुनौती पेश होने पर शासक वर्गों और साम्राज्यवादी नीति–निर्धारकों के लिए राजनीतिक विकल्प के रूप में उपलब्ध रहते थे। आलोचकों के रूप में एनजीओ को दिया जाने वाला पश्चिमी फंड बीमे में निवेश जैसा था जो दलाल प्रतिक्रियावादी शासकों के लड़खड़ा जाने की दशा में सुरक्षा कवच का काम करता था। यह स्थिति ‘‘क्रिटिकल’’ एनजीओ के बारे में थी जो फिलिपीन्स में मार्कोस के शासन में दिखाई दी, चीले में पिनोशे के शासनकाल में दिखाई दी, कोरिया में पार्क तानाशाही के दौरान दिखायी दी, और ऐसे अनेक उदाहरण हैं।

एनजीओ की दिन–दूनी रात–चौगुनी बढ़ोत्तरी ऐसे समय हुई है जब साम्राज्यवादी वर्चस्व को ललकारने व्यापक जनान्दोलन उभरने के संकेत मिल रहे हैं। रैडिकल सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों और संघर्षों ने एक तरह से मुनाफेदार माल प्रस्तुत किया है जिसे भूतपूर्व रैडिकल एवं छद्म लोकप्रेमी बुद्धिजीवी तमाम यूरोपीय और अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगमों व सरकारों से करीबी से जुड़े मालदार निजी व सार्वजनिक फाउण्डेशनों के हाथों बेचने में कामयाब रहे। फण्ड दाताओं ने सामाजिक–विज्ञान के क्षेत्र में इस प्रकार की बौद्धिकता में दिलचस्पी दिखायी है, जैसे-‘‘शहरों के निर्धन इलाके में हिंसा की प्रवृत्तियों का अध्ययन’’ (चीले में 1983–86 के जनउभार के दौरान एनजीओ का एक प्रोजेक्ट), जन–समुदायों में घुसपैठ करने और उनकी सारी ऊर्जा सामाजिक रूपान्तरण के बजाय ‘सेल्फ–हेल्प’ (स्वयं–सहायता) प्रोजेक्टों में समेट देने की एनजीओ की क्षमता, तथा ‘‘नये पहचान–मूलक विमर्श’’ में लिपटी हुई वर्ग–सहयोगवादी भाषा–शैली का आविष्कार जो क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को साखहीन और तितर–बितर करने में मदद करे।

पिछड़े देशों में जनविद्रोहों ने समुद्रपार एजेंसियों की थैलियां ढीली कर दीं; और सत्तर के दशक में इंडोनेशिया, थाईलैण्ड एवं पेरू में, अस्सी के दशक में निकारागुआ, चीले और फिलीप्पींस में तथा नब्बे के दशक में अल सल्वाडोर, ग्वाटेमाला तथा कोरिया में लाखों डालर उड़ेल दिये गये। एनजीओवाले अनिवार्य रूप से वहां ‘‘आग ठण्डी करने’’ के लिए ही थे। रचनात्मक प्रोजेक्टों की आड़ में उन्होंने वैचारिक आन्दोलनों में सम्मिलित होने के विरुद्ध वकालत की। इस प्रकार उन्होंने अपने अनुकूल स्थानीय नेतृत्व की भरती करने, उन्हें विदेशी कांफ्रेंसों में भेजने तथा क्षेत्रीय समूहों को नव उदारवाद की वास्तविकता के अनुरूप ढलने को प्रोत्साहित करने में विदेशी धन का प्रभावी इस्तेमाल किया।

बाहरी माल–मत्ता जैसे–जैसे हाथ लगता गया वैसे–वैसे एनजीओ की तादाद बढ़ती गयी और ये विभिन्न समुदायों को हर छोटी–छोटी बात पर लड़ने वाली जंगखोर जागीरदारियों में बांटकर पुष्पित–पल्लवित होते रहे। हर ‘‘ग्रासरूट ऐक्टिविस्ट’’ ने एक नया एनजीओ स्थापित करने के लिए गरीब–वंचित आबादी के किसी नये हिस्से (स्त्रियां, अल्पसंख्यक समुदायों के युवक, आदि) पर अपना ठीहा जमा लिया, और अपने प्रोजेक्ट, क्रियाकलाप या समाजसेवा क्षेत्र का ‘‘माल बेचने’’ के लिए एम्सटर्डम, स्टाकहोम आदि की तीर्थयात्रा पर निकल पड़ा।

तीसरी घटना जिसमें एनजीओ का मोटापा और भी बढ़ा, तब देखने को मिलती है जब मुक्त बाजार पूंजीवाद के चलते निरन्तर भीषण आर्थिक संकट उभरने लगे। बजट में कटौती के कारण बुद्धिजीवियों, अकादमियों, प्रोफेशनलों के हाथों से नौकरी खिसकती गयी या वेतन कम होते गये जिस कारण दूसरी नौकरी आवश्यकता बन गयी। एनजीओ नौकरी देने की एजेंसी बन गये, और कंसल्टेंसियां उन सम्भावित पतनोन्मुखी बुद्धिजीवियों के लिए सुरक्षा कवच बन गये जो सभ्य समाज-मुक्त बाजार-के वैकल्पिक विकास की भाषा बोलने और नव–उदारवादी शासनतंत्र तथा अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के साथ सांठ–गांठ वाली नीतियां चलाने को आतुर थे। जब लाखों लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठते हैं और गरीबी पूरी आबादी के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से तक व्याप्त हो जाती है, तब एनजीओ रोकथाम में जुट जाते हैं : वे ‘‘सर्वाइवल स्टेªटेजी’’ पर केन्द्रित करते हैं, आम हड़तालों पर नहीं : वे मुफ्त लंचपैक के कैम्प आयोजित करते हैं, जमाखोरों, नव–उदारवादी सत्ता अथवा अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ विराट प्रदर्शन नहीं।

तथाकथित ‘‘जनवादी संक्रमण’’ के दौरान जब पुराना तंत्र चरमरा रहा था, भ्रष्ट शासक नियंत्रण खो रहे थे और जन संघर्ष तेजी से उभर रहे थे, उस समय एनजीओ को अपने कामों को थोड़ी–बहुत ‘‘प्रगतिशील’’ रंगत देने का मौका मिल गया। पुरानी सत्ताओं को हटाकर कंजरवेटिव चुनावी राजनीतिज्ञों के लिए रास्ता साफ करने में एनजीओ माध्यम बने, एनजीओ ने अपने ग्रासरूटी शब्दजाल, संगठनात्मक संसाधनों और ‘‘जनवादी’’ मानवाधिकारों के हिमायती की हैसियत का प्रयोग केवल कानूनी राजनीतिक सुधारों के संक्रमण तक सीमित राजनेताओं और पार्टियों के पक्ष में जनसमर्थन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए किया, सामाजिक–आर्थिक परिवर्तनों के लिए नहीं। एनजीओ ने जनसाधारण की लामबन्दी को भंग कर दिया और आन्दोलनों को टुकड़े–टुकड़े में बांट दिया। 1980 के और 1990 के वर्षों में चीले से लेकर फिलीप्पींस, दक्षिण कोरिया और उसके पार तक प्रत्येक देशों में जहां भी ‘‘चुनावी कारोबार’’ सम्पन्न हुआ, एनजीओ ने ऐसे शासकों के पक्ष में वोट बटोरने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिन्होंने सामाजिक–आर्थिक यथास्थितिवाद  को बरकरार रखा अथवा और भी गहरा बना दिया। बदले में, बहुत सारे पूर्व–एनजीओ संचालक सरकारी एजेंसियां चलाने लगे अथवा जनहितकारी होने का भ्रम पैदा करने वाले वाले विभागों (जैसे महिला अधिकार, जन भागीदारी, जन अधिकारिता आदि) में मंत्री बन गये।

एनजीओ की प्रतिक्रियावादी भूमिका उन्हीं संरचनाओं में निहित है जिन पर वे आधारित हैं।

एन.जी.ओ. ढांचा : भीतर से अभिजात और बाहर से चाटुकार

वस्तुत: एनजीओ ‘‘गैर सरकारी’’ संगठन नहीं हैं। वे विदेशी सरकारों से धन प्राप्त करते हैं, स्थानीय सरकारों के लिए निजी उप–ठेकेदारों के रूप में कार्य करते हैं और राज्य से घनिष्ठ रूप से जुड़ी कारपोरेट घरानों से मिलने वाले धन से संचालित निजी संस्थाओं से आर्थिक मदद प्राप्त करते हैं। निरन्तर और खुल्लमखुल्ला, वे घरेलू विदेशी सरकारी एजेंसियों के साथ सांठ–गांठ करते हैं। उनके प्रोग्राम स्थानीय जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होते बल्कि विदेशी दाताओं के प्रति उत्तरदायी होते हैं जो अपने स्वयं के मानदंडों और स्वार्थों के अनुरूप एनजीओ के करतबों की ‘‘समीक्षा’’ और ‘‘जांच–परख’’ करते हैं। एनजीओ के पदाधिकारी स्व–नियुक्त होते हैं और उनका प्रमुख कार्य ऐसे प्रस्तावों को गढ़ना होता है जिनसे धन का आवंटन सुगम हो सके। ज्यादातर मामलों में एनजीओ प्रमुखों को उन मुद्दों को तलाशना होता है जो पश्चिमी धनदाताओं की दिलचस्पियों के अनुरूप हों और तदनुसार ही वे प्रस्तावों को आकार देते हैं। (उदाहरणार्थ, भारत में एड्स का मुद्दा-सं–)। इस प्रकार, 1980 के वर्षों में, ‘‘गवर्नेबिलिटी’’ और ‘‘डेमोक्रेटिक ट्रांजिशंस’’ के अध्ययन और राजनीतिक प्रस्ताव तैयार करने के लिए एनजीओ–फंड उपलब्ध हुए-साम्राज्यवादी ताकतों की इस चिन्ता को उजागर करते हुए कि तानाशाहों के पतन से जनान्दोलनों जैसी ‘अन–गवर्नेबिलिटी’ न उत्पन्न हो जाये जो संघर्ष को और गहन बना सकती है। अपने जनवादी और ग्रासरूटी शब्दजाल के बावजूद एनजीओ के भीतर जबर्दस्त पदानुक्रम चलता है-जिसमें डायरेक्टर का प्रोजेक्टों पर पूर्ण नियंत्रण होता है। और वही यह फैसला करता है कि किसे पटखनी देनी है या किसे अन्तरराष्ट्रीय कांफ्रेंसों में जाना है। असली ‘‘ग्रासरूट्स’’ अनिवार्य रूप से इस पदानुक्रम की सबसे निचली पैड़ी पर होते हैं, और ये ‘‘ग्रासरूट्स’’ शायद ही कभी उस पैसे को देख पाते हैं जो ‘‘उनके’’ एनजीओ बटोरकर लाते हैं, न ही उन्हें विदेश यात्रा पर जाने दिया जाता है या न ही वे अपने ‘‘ग्रासरूटी’ लीडरों को मिलने वाले वेतन–भत्ते पाने के बारे में सोच सकते हैं। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इनमें कोई भी निर्णय सामूहिक निर्णय नहीं होता। अधिक से अधिक, जब डायरेक्टर और विदेशी दाताओं के बीच ‘डील’ पक्की हो चुकी होती है, तब एनजीओ का स्टाफ गरीबों के लिए प्रोजेक्ट की स्वीकृति हेतु ‘ग्रासरूट कार्यकर्ताओं’’ की मीटिंग बुलाता है। अधिकांश मामलों में एनजीओ सदस्यता पर आधारित संस्था भी नहीं होते बल्कि एक स्व–नियुक्त अभिजात होते हैं जो जनान्दोलन के लिए  ‘‘रिसोर्स पीपुल’’ होने का दिखावा करते हैं, पर वास्तव में ये उनके साथ होड़ करते हैं और उनकी जड़ें खोदते हैं। इस तरह से एनजीओ सामाजिक कार्यक्रमों और आम बहसों को स्थानीय लोगों और उनके बीच से चुने गये नैसर्गिक नेताओं के हाथों से छीनकर और अ–निर्वाचित विदेशी अधिकारियों और उनके द्वारा थोपे गये स्थानीय अधिकारियों पर निर्भरता पैदा करते हुए लोकतंत्र की जड़े खोदते हैं।

एनजीओ एक नये तरह के सांस्कृतिक और आर्थिक उपनिवेशवाद का बढ़ावा दे रहे हैं-नये अन्तरराष्ट्रीयतावाद के छद्मवेश में। हजारों लोग उच्च–शक्तिशाली कम्प्यूटरों के सामने बैठकर आपस में घोषणाओं, प्रस्तावों और अन्तरराष्ट्रीय कांफ्रेंस–निमंत्रणों का आदान–प्रदान करते हैं। तत्पश्चात वे सुसज्जित कांफ्रेंस हालों में अपने ‘‘सामाजिक–आधार’’ के वर्तमान संघर्षों और त्यागों के बारे में चर्चाएं करते हैं-और फिर इनका ‘‘सामाजिक आधार’’ यानी वैतनिक स्टाफ इन प्रस्तावों को ‘‘जनसाधारण’’ तक खूबसूरत रंगीन कागज पर छपे ब्रोशरों और ‘‘बुलेटिनों’’ द्वारा पहुंचाता है। जब विदेशी दाता पधारते हैं तो उन्हें ‘‘एक्सपोजर टूर’’ पर ले जाया जाता है जहां वे ऐसे शो–केस प्रोजेक्टों का निरीक्षण करते हैं जिसमें गरीब अपनी सहायता स्वयं कर रहा होता है तथा कामयाब लघु उद्यमियों से बातचीत करते हैं (उन बहुसंख्यकों की अनदेखी करते हुए जो पहले ही साल असफल हो जाते हैं)।

जिस तरीके से यह नया उपनिवेशवाद कार्य कर रहा है, उसकी जटिलताओं को समझ पाना कठिन नहीं है। सभी प्रोजेक्ट साम्राज्यवादी केन्द्रों और उनकी संस्थाओं द्वारा निधारित गाइडलाइन और प्राथमिकताओं के आधार पर परिकल्पित किये जाते हैं। उसके बाद वे समुदायों को ‘‘बेचे’’ जाते हैं। आकलन साम्राज्यवादी संस्थाओं द्वारा और उन्हीं के लिए किया जाता है। धनावंटन की प्राथमिकताएं बदलीं अथवा गलत आकलन हुआ तो समूहों, समुदायों, किसानों और सहकारिताओं को बेहिचक अधर में छोड़ दिया जाता है। दाताओं की अपेक्षाओं और उनके प्रोजेक्ट–आकलनकर्ताओं के आज्ञापालन के लिए हर व्यक्ति को उत्तरोत्तर अनुशासित बनाया जाता है। एनजीओ डायरेक्टर नये वायसरायों की तरह धन के सदुपयोग का निरीक्षण करते हैं और दाताओं के उद्देश्यों, मूल्यों और सिद्धान्त के साथ अनुरूपता सुनिश्चित करते हैं।

एनजीओ बनाम रैडिकल सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलन

एनजीओ प्रोजेक्टों पर बल देते हैं, आन्दोलनों पर नहीं। वे लोगों को हाशिये पर रखकर उत्पादन करने के लिए ‘‘लामबन्द’’ करते हैं, उत्पादन और सम्पत्ति के मूल साधनों को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष के वास्ते नहीं। वे प्रोजेक्टों की तकनीकी और वित्तीय–सहायता के दृष्टिकोण पर केन्द्रित होते हैं, उनके संरचनात्मक पहलुओं पर नहीं जिनसे लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी निर्धारित होती है। एनजीओ वामपंथी भाषा को सहयोजित (कोआप्ट) करते हैं-‘‘जन–शक्ति’’ (पापुलर पावर), ‘‘अधिकार प्राप्ति’’ (एम्पावरमेंट), ‘‘यौन–समानता’’ (जेंडर इक्वैलिटी) ‘‘टिकाऊ विकास’’ (सस्टेनेबल डेवलपमेण्ट), ‘‘नीचे से नेतृत्व पैदा करने’’ (बाटम–अप लीडरशिप) आदि। समस्या यह है कि इस भाषा को दाताओं और सरकारी एजेंसियों के साथ गंठजोड़ के उस फ्रेमवर्क से जोड़ दिया गया है, जो संघर्ष की राजनीति के विरोध के प्रति समर्पित है। एनजीओ के क्रियाकलाप की स्थानीय प्रवृत्ति का कुल अभिप्राय यह है कि ‘‘एम्पावरमेंट’’ कभी भी सीमित संसाधनों से युक्त सामाजिक जीवन के एक छोटे से क्षेत्र को प्रभावित करने से आगे नहीं जाता एवं हमेशा उसी सीमा में रहता है जो नव–उदारवादी सत्ता और वृहत–अर्थव्यवस्था (मैक्रो इकॉनमी) द्वारा रेखांकित की जाती है।

एनजीओ और उनके प्रोफेशनल स्टाफ गरीबों, महिलाओं, जातीय उपेक्षितों आदि में अपना प्रभाव जमाने के लिए सीधे सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों के साथ होड़ करते हैं। उनकी विचारधारा और कार्यप्रणाली गरीबी के स्रोतों और उसके समाधानों की ओर से ध्यान हटा देते हैं (ऊपर और बाहर की ओर देखने के बजाय नीचे और भीतर की ओर देखते हुए) और सूक्ष्म उद्यमों (माइक्रो– इण्टरप्राइजेज) के तो क्या कहने! विदेशी बैंकों द्वारा शोषण के समापन के स्थान पर, गरीबी का समाधान उनकी इस गलत धारणा पर आधारित है कि मुख्य समस्या लोगों की व्यक्तिगत पहलकदमी (इनिशियेटिव) की है न कि देश की आमदनी के विदेशों में स्थानान्तरण की। एनजीओ को मिलने वाली ‘‘आर्थिक मदद’’ सीमित संसाधनों के लिए समुदायों के बीच प्रतिस्पर्धा पैदा करते हुए, विश्वासघाती भेदभाव तथा अन्योन्य  साम्प्रदायिक व अन्तर– साम्प्रदायिक प्रतिद्वंद्विता पैदा करते हुए, और वर्गीय अखंडता को खंडित करते हुए आबादी के छोटे–छोटे सेक्टरों को प्रभावित करती है। यही बात प्रोफेशनलों के लिए भी सही उतरती है : ये विदेशी फंड मांगने के लिए अपने–अपने एनजीओ बनाते हैं। वे विदेशी दाताओं की रुचियों से अधिकतम मिलता–जुलता प्रस्ताव प्रस्तुत करने, कम खर्चे और अधिक से अधिक समर्थकों की ओर से बोलने का दावा करते हुए आपस में होड़ करते हैं। इसका कुल परिणाम एनजीओ की तादाद में भारी बढ़ोत्तरी के रूप में होता है जो गरीब समुदायों को खंडीय और उपखंडीय समूहों में बांटते हैं ताकि वे उस वृहत्तर सामाजिक परिदृश्य को देखने में अक्षम हो जायें जो उनके कष्टों के लिए जिम्मेदार है और व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के लिए एकजुट होने में और भी कम समर्थ हो सकें।

ताजा अनुभव भी यही प्रमाणित करते हैं कि विदेशी दाता ‘‘संकटों’’ (यथास्थिति के विरुद्ध राजनीतिक और सामाजिक चुनौतियां) के समय प्रोजेक्टों को फायनेंस करते हैं। एक बार जब आन्दोलन शान्त हो जाते हैं, तो वे अपने फंड को एनजीओ/सत्ता ‘‘गठबन्धन’’ की ओर परिवर्तित कर देते हैं-एनजीओ प्रोजेक्टों को नव–उदारवादी एजेण्डा में समाहित करते हुए। सामाजिक परिवर्तन के लिए सामाजिक संगठन की बजाय ‘‘मुक्त बाजार’’ के हित में, आर्थिक विकास फंडिंग एजेण्डे का मुख्य विषय बन जाता है।

एनजीओ के ढांचे और इसकी प्रकृति अपनी ‘‘गैर–राजनीतिक’’ भाव–भंगिमा और स्वयं–सहायता पर अपने फोकस के द्वारा गरीबों को विघटित कर रहे हैं और उन्हें राजनीति के प्रति निष्क्रिय कर रहे हैं। वे नव–उदारवादी पार्टियों और जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रोत्साहित की जा रही चुनावी प्रक्रियाओं को मजबूत बनाते हैं। साम्राज्यवाद के स्वरूप, नव–उदारवाद के वर्गीय आधार और निर्यातकों व अस्थायी मजदूरों के बीच वर्ग–संघर्ष के बारे में राजनीतिक शिक्षा से बचा जाता है। इसके बजाय, एनजीओ ‘‘बहिष्कृत’’, ‘‘निर्बल’’, ‘‘अतिशय गरीबी’’ और ‘‘यौनिक व साम्प्रदायिक विभेदीकरण’’ की बात करते हैं, पर उस सामाजिक व्यवस्था के ऊपरी लक्षणों के दायरे से बाहर कभी नहीं जाते जिसने ऐसी परिस्थितियां निर्मित की हैं। गरीबों को नव–उदारवादी अर्थव्यवस्था में विशुद्ध ‘‘निजी स्वैच्छिक कार्रवाई’’ द्वारा समेटते हुए, एनजीओ एक ऐसा राजनीतिक साम्राज्य स्थापित कर रहे हैं जहां एकजुटता और सामाजिक कार्रवाई का दिखावा अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय सत्ता–तंत्र के साथ अनुदारवादी अनुरूपता पर परदा डाल देता है।

यह कोई संयोग की बात नहीं कि जैसे–जैसे एनजीओ किसी इलाके में प्रभावी होते जाते हैं, स्वतंत्र वर्गीय राजनीतिक कार्रवाई कमजोर हुई और नव–उदारवाद निर्विरोध होता गया। वास्तविकता यह है कि एनजीओ की बढ़ोत्तरी का नव–उदारवादियों की बढ़ी हुई फंडिंग और गरीबी की भीषणता में चौतरफा वृद्धि के साथ सीधा सम्बन्ध है।  इनके इलाकों में स्थानीय सफलताओं के तमाम दावों के बावजूद नव–उदारवाद की सारी शक्ति चुनौतीविहीन खड़ी है और एनजीओ सत्ता की हर दरार में अपनी पैठ बनाने में लगे हुए हैं।

विकल्पों को सूत्रित करने की समस्या दूसरे तरीके से बाधित हुई है। गुरिल्ला और सामाजिक आन्दोलनों, ट्रेड यूनियनों तथा लोकप्रिय महिला संगठनों के पूर्व लीडरों को एनजीओ द्वारा सहयोजित कर लिया जाता है। और प्रस्ताव काफी लुभावना होता है : उच्च वेतन (यदाकदा विदेशी मुद्रा में) विदेशी दाताओं द्वारा प्रतिष्ठा और पहचान, विदेशों में कांफ्रेंस और नेटवर्क, आफिस के स्टाफ और सगे–सम्बन्धियों को किसी भी दमन से सुरक्षा। इसके विपरीत, सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलन भले ही मात्र थोड़े से भौतिक लाभ की संभावना पेश करते हैं लेकिन उच्चतर सम्मान व स्वतंत्रता तथा, और भी महत्त्वपूर्ण, राजनीतिक–आर्थिक तंत्र को चुनौती देने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। एनजीओ और उनके विदेशी बैंकिंग सहयोगी (दि इंटर अमेरिकन बैंक, दि एशियन बैंक, दि वर्ल्ड बैंक) सूक्ष्म उद्यमों व अन्य स्वयं–सहायता प्रोजेक्टों की सफलताओं के वृतान्तों के फीचरों से भरे न्यूजलेटर प्रकाशित करते हैं, बिना इसका जिक्र किये कि उपभोग में व्यापक गिरावट के रूप में असफलताओं की संख्या बढ़ी है, अल्प दरों पर आयात से बाजार भर गया है और ब्याज दरें बढ़ती रही हैं-जैसा कि 1990 के वर्षों में ब्राजील व इंडोनेशिया में घटित हुआ।

यहां तक कि ‘‘सफलताएं’’ गरीबों के एक बहुत ही छोटे हिस्से को प्रभावित करती हैं और केवल उस हद तक सफल होती हैं कि उसी बाजार में दूसरे घुसने न पायें। जबकि, इस भ्रम के पोषण में कि नव–उदारवाद एक सार्वजनिक घटना है, व्यक्तिगत सूक्ष्म उद्यमों की सफलता का प्रचारात्मक मूल्य महत्त्वपूर्ण है। सूक्ष्म उद्यम प्रवर्तन के इलाकों में बारबार हिंसात्मक विस्फोट बताते हैं कि उनके विचार हावी नहीं हो पाये हैं और यह भी कि एनजीओ स्वतंत्र वर्गीय आन्दोलनों को अभी तक बेदखल नहीं कर पाये हैं।

एनजीओ की विचारधारा मूलत: पहचान की राजनीति पर आधारित होती है जो वर्ग विश्लेषण पर आधारित रैडिकल आन्दोलनों के साथ बेईमानीभरा वाद–विवाद चलाती   है। वे इस गलत धारणा से प्रारम्भ करते हैं कि वर्ग विश्लेषण ‘‘अपचयनवादी’’ (रिडक्शनिस्ट) है और मार्क्सवाद के भीतर नस्ली, साम्प्रदायिक और यौन–समानता के सवालों पर हुए लम्बे बहस–मुबाहसों को अनदेखा कर देते हैं। इससे भी बढ़कर, वे इस मीमांसा को टाल जाते हैं कि विभिन्न पहचानें खुद वर्ग–भेदों द्वारा स्पष्टता और गहनता के साथ विभाजित हैं। उदाहरण के लिए पॉश इलाके में रहने वाली चीले या भारत की नारीवादियों को ही लीजिए जो अपने घरेलू नौकरों की तुलना में पन्दह से बीस गुना ज्यादा वेतन पाती हैं जबकि वे हफ्ते में छ: या सातों दिन काम करते हैं। एक यौन–समूह के भीतर ही वर्ग–भेद आवासीय, रहन–सहन का स्तर, स्वास्थ्य, तथा शिक्षा के अवसरों को निर्धारित करता है और इस बात को कि बेशी मूल्य को कौन हड़पेगा। फिर भी, अधिसंख्य एनजीओ पहचान की राजनीति (आइडेन्टिटी पालिटिक्स) के आधार पर संचालन कर रहे हैं और तर्क देते हैं कि नई व उत्तर–आधुनिक राजनीति के लिए यह प्रस्थान बिन्दु है। पहचान की राजनीति आई.एम.एफ. निर्देशित निजीकरण, बहुराष्ट्रीय कारपोरेशनों और स्थानीय भू–स्वामियों के पुरुष–प्रधान अभिजात विश्व को चुनौती नहीं देती है। बल्कि, परिवार में ‘‘पितृसत्ता’’, पारिवारिक हिंसा, तलाक, परिवार–नियोजन आदि पर ही ध्यान केन्द्रित करती है। दूसरे शब्दों में यह शोषितों के उस सूक्ष्म–संसार के भीतर यौन–समानता के लिए लड़ती है जिसमें शोषित और कंगाल पुरुष मजदूर या किसान मुख्य खलनायक के रूप में उभरता है। यद्यपि यौन–भेदभाव या शोषण को किसी भी स्तर पर समर्थन नहीं दिया जाना चाहिए, फिर भी नारीवादी एनजीओ ने घोर शोषण वाले कमरतोड़ कामों में कामकाजी महिलाओं को लगाकर उनका काफी अनिष्ट किया है, जिसमें उच्च वर्ग के पुरुषों और महिलाओं को, किराया वसूलने वाले पुरुष व महिला भू–स्वामियों को और पुरुष तथा महिला सीईओ को मुनाफा मिलता है। नारीवादी एनजीओ ‘‘विस्तृत परिदृश्य’’ की उपेक्षा करते हैं और स्थानीय मुद्दों तथा व्यक्तिगत राजनीति पर केन्द्रित होते हैं, इसका कारण यह है कि, प्रतिवर्ष अरबों डालर उसी दिशा में प्रवाहित होते हैं। यदि नारीवादी एनजीओ ब्राजील, इंडोनेशिया, थाईलैण्ड या फिलीप्पींस में भूमिहीन पुरुष व महिला मजदूरों के साथ मिलकर खेतों पर कब्जा करने लगें, अथवा ढांचागत समायोजन नीतियों के विरुद्ध मुख्यतया अल्पवेतन भोगी ग्रामीण स्कूलों की महिला टीचरों की आम हड़तालों में शामिल होने लगें, तब उनके साम्राज्यवादी दाताओं द्वारा एनजीओ का रसद–पानी बन्द कर दिया जायेगा। सो बेहतर यही रहेगा कि लुजों के किसी दूर–दराज के गांव में किसी तरह गुजर–बसर कर रहे स्थानीय मुखिया की पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष में उलझाये रखा जाये।

वर्ग एकजुटता बनाम विदेशी दाताओं के साथ एनजीओ एकजुटता

‘‘एकजुटता’’ शब्द के साथ इतनी बदसलूकी की गयी है कि इसका चेहरा ही बदल गया है। एनजीओ संचालकों के लिए ‘‘एकजुटता’’ पद विदेशी मदद लिये होता है और किसी भी लक्षित ‘‘साधनहीन’’ वर्ग तक प्रवाहित होता है। प्रोफेशनलों द्वारा गरीबों पर ‘‘रिसर्च’’ या ‘‘पापुलर एजूकेशन’’ ‘‘एकजुटता’’ कहलाती है। कई मामलों में ‘‘एड’’ और ‘‘ट्रेनिंग’’ के संचारण के तंत्रात्मक ढांचे और तरीके उन्नीसवीं सदी की चैरिटी से मेल खाते हैं, और इसके प्रमोटर्स क्रिश्चियन मिशनरियों से बहुत भिन्न नहीं हैं।

एनजीओ संचालक सत्ता के ‘‘पैतृकवाद और निर्भरता पर आक्रमण करने में ‘‘स्वयं–सहायता’’ पर बल देते हैं। नवउदारवाद के शिकार लोगों को अधिग्रहीत करने के लिए एनजीओ के बीच की प्रतिद्वंद्विता में वे यूरोप और अमेरिका में बैठे अपनी दाता संस्थाओं से महत्त्वपूर्ण सब्सिडी प्राप्त करते हैं। स्वयं–सहायता की विचारधारा सरकारी कर्मचारियों का स्थान उन स्वयंसेवकों और ऊर्ध्वगामी प्रोफेशनलों द्वारा लिये जाने पर बल देती है, जो अस्थायी तौर पर अनुबन्धित किये जाते हैं। एनजीओ का मौलिक दर्शन है, ‘‘एकजुटता’’ को नवउदारवाद की वृहत–अर्थव्यवस्था के साथ गंठजोड़ और मातहती में बदल देना-धनिक वर्गों के राजकीय संसाधनों से ध्यान हटाकर गरीबों के स्व–शोषण की ओर करते हुए।

इसके विपरीत, मार्क्सवाद वर्ग के भीतर  वर्गीय एकता (एकजुटता) तथा देशी–विदेशी शोषकों के विरुद्ध दबे–कुचले लोगों (महिलाएं, अश्वेत) की एकजुटता पर बल देता है। मुख्य ध्यान ‘‘डोनेशनों’’ पर नहीं केन्द्रित होता है जो वर्गों को विभाजित करते हैं और छोटे–छोटे समूहों को एक सीमित अवधि के लिए शान्त कर देते हैं। एकजुटता की मार्क्सवादी अवधारणा वर्ग के सदस्यों की साझा कार्रवाई पर केन्द्रित होती है-समान आर्थिक दुर्दशा को झेलते हुए और सामूहिक सुधार के लिए संघर्ष करते हुए। यह उन बुद्धिजीवियों को समाहित करती है जो संघर्ष में सामाजिक आन्दोलनों के लिए लिखते और बोलते हैं और जो उन्हीं राजनीतिक परिणामों में सहभागिता के लिए वचनबद्ध हैं। एकजुटता की अवधारणा ‘‘अंगभूत’’ बुद्धिजीवियों से जुड़ी होती है जो बुनियादी रूप से आन्दोलन के हिस्से होते हैं, वर्ग–संघर्ष के लिए विश्लेषण और शिक्षा उपलब्ध कराते हैं और सीधी कार्रवाई में सबके साथ राजनीतिक खतरों को मोल लेते हैं। इसके विपरीत एनजीओ संचालक संस्थाओं, अकादमिक सेमिनारों, विदेशी फाउण्डेशनों तथा अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों के संसार के साथ नाभिनालबद्ध होते हैं, जो ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं जिसे वही समझ सकते हैं और जो मूलभूत पहचानों के आत्मवादी पंथ में ‘‘दीक्षित’’ होते हैं। मार्क्सवादी, एकजुटता को वर्गीय राजनीतिक आन्दोलनों के खतरों में बराबर भागीदारी के रूप में देखते हैं, उन बाहरी समालोचकों की तरह नहीं जो सवालों को उठाते तो हैं पर प्रतिवाद कुछ नहीं करते। एनजीओ संचालकों का मूल उद्देश्य अपने ‘‘प्रोजेक्ट’’ के लिए विदेशी फंड ‘‘हथियाना’’ होता है। मार्क्सवादियों के लिए मुख्य मुद्दा होता है-सामाजिक बदलाव लाने के लिए राजनीतिक संघर्ष और शिक्षा की प्रक्रिया। आन्दोलन ही सब कुछ है, यानी सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य की चेतना जागृत करने का साधन और ऐसी राजनीतिक सत्ता का निर्माण करना जो बहुसंख्यक जनता की दशा सुधार के लिए समर्पित हो।

एनजीओ संचालकों के लिए, ‘‘एकजुटता’’ मुक्ति के सामान्य उद्देश्य से बिछुड़ चुकी है। यह मात्र लोगों को किसी नौकरी पर लगने, सेमिनार के पुनर्प्रशिक्षण अथवा शौचालय निर्माण के लिए एकत्र करने का रास्ता है। मार्क्सवादियों के लिए, सामूहिक संघर्ष की एकजुटता में भावी जनवादी समूहवादी समाज के बीज छुपे होते हैं। व्यापक दूरदर्शिता अथवा इसका अभाव ही ‘‘एकजुटता’’ के स्वरूप को तय करता है।

वर्ग संघर्ष और सहयोग

एनजीओ संचालक नव–उदारवादी शासन तंत्रों और विदेशी फंडिंग एजेसियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए वांछित कीमतों और शर्तों के भवसागर में बिना गहराई में डुबकी लगाये ही प्रत्येक के सर्वत्र ‘‘सहयोग’’ के बारे में बकते रहते हैं। वर्ग संघर्ष को अतीत के आदि–मानव कालीन संघर्षों के रूप में देखा जाता है जो अब अस्तित्व में ही नहीं है। आज हमें बताया जाता है कि ‘‘गरीब’’ नवजीवन के निर्माण के लिए कृतसंकल्प हैं। वे पारम्परिक राजनीति, सिद्धान्त और राजनेताओं से ऊब चुके हैं। बहुत ठीक। पर समस्या यह है कि मध्यस्थों और दलालों के रूप में विदेशी फंड हथियाने में एनजीओ संचालक अपनी भूमिका बहुत कम उद्घाटित करते हैं। सहयोग, सूक्ष्म उद्यम और स्वयं–सहायता का वर्षों उपदेश देते रहने के बाद भी आमदनी का संकेन्द्रण और विषमताओं में बेतहाशा वृद्धि पहले से बहुत ज्यादा है। आज विश्वबैंक सरीखे बैंकों द्वारा कृषि–व्यवसायों के निर्यात पर माइक्रो–प्रोजेक्टों को फंड दिया जाता है जो खेतिहर मजदूरों को शोषित और विषाक्त करता है। माइक्रो–प्रोजेक्टों में एनजीओ की भूमिका निचले स्तर पर उठते हुए राजनीतिक विरोधों का शमन करना होता है जबकि उपरी स्तर पर नव–उदारवाद को बढ़ावा दिया जाता है। सहयोग की विचारधारा लाचार लोगों को, एनजीओ के माध्यम से, उच्चस्थ नवउदारवादियों से जोड़ती है।

बौद्धिक रूप से एनजीओ बुद्धिजीवी थानेदार होते हैं जो ‘‘स्वीकार्य’’ रिसर्च को परिभाषित करते हैं, रिसर्च फंडों का वितरण करते हैं तथा उन प्रकरणों और परिदृश्यों को रेखांकित करते हैं जो वर्ग विश्लेषण और संघर्ष परिदृश्य को प्रक्षेपित करता है। मार्क्सवादी कांफ्रेंसों से अलग रखे जाते हैं और ‘‘सिद्धान्तानुयायी’’ के रूप में कलंकित किये जाते है; जबकि एनजीओ अपने–आपको ‘‘सामजिक वैज्ञानिकों’’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। बुद्धिजीवी फैशन, प्रकाशनों, कांफ्रेंसों और रिसर्च फंडों पर नियंत्रण उत्तर–मार्क्सवादियों को एक महत्त्वपूर्ण शक्ति–पीठ प्रदान करता है, लेकिन अन्ततोगत्वा अपने बाहरी धन–दाताओं के साथ हमेशा किसी झगड़ा–लड़ाई को टालते रहने के लिए सतर्क रहना पड़ता है।

मार्क्सवादी बुद्धिजीवी आलोचक इस तथ्य से मजबूती प्राप्त करते हैं कि उनके विचार सामाजिक वास्तविकताओं के उद्भव से अनुनादित होते हैं। वर्गों का ध्रुवीकरण और हिंसक मुकाबले बढ़ते जा रहे हैं, जैसाकि उनके सिद्धान्त पूर्वसूचित करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मार्क्सवादी एनजीओ के सामने व्यवहारत: कमजोर हैं जबकि रणनीतिक तौर पर मजबूत।

वैकल्पिक एनजीओ

कोई तर्क दे सकता है कि बहुत सारे अलग प्रकार के एनजीओ हैं ओर उनमें से कई समायोजन नीतिकों, आई एम एफ, ऋण भुगतानेां आदि के विरुद्ध संगठित होते हैं और विरोध करते हैं और यह कि सबको एक ही श्रेणी में रखना अनुचित है। इसमें सच्चाई के कुछ कण अवश्य हैं, परन्तु यह अवस्थिति एक बहुत ही मौलिक मुद्दे को सारगर्भित करती है। एशिया और लातिन अमेरिका के किसान नेताओं का उल्लेख करना समीचीन होगा जिनके साथ, यहां तक कि, ‘प्रगतिवादी’ एनजीओ भी ‘फूट डालो और राज करो’ वाली भूमिका अदा करते हैं : एनजीओ किसान नेताओं को अपने संगठनों में मातहती भूमिका में रखना चाहते हैं और गरीबों का नेतृत्व करना चाहते हैं तथा उनके लिए बोलने का स्वांग रचते हैं। पर वे मातहत भूमिका स्वीकार नहीं करते। प्रगतिवादी एनजीओ किसानों और गरीबों को अपने रिसर्च–प्रोजेक्टों के लिए इस्तेमाल करते हैं और उनके प्रकाशन से लाभ कमाते हैं। उन तक कुछ भी वापस नहीं आता, उनके नाम पर किये गये अध्ययनों की प्रतियां भी नहीं! अपितु, किसान नेता पूछते हैं कि एनजीओ शैक्षिक सेमिनारों के बाद कभी भी अपना गला क्यों नहीं फंसाते? वे धनी और शक्तिशाली लोगों का अध्ययन क्यों नहीं करते? हमारा ही क्यों?

यह मान लेने पर भी कि ‘‘प्रगतिवादी एनजीओ’’ के भीतर ही कुछ ऐसे अल्पसंख्यक हैं जो कि सुधारवादी सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों के लिए ‘‘रिसोर्स पर्सन’’ का काम करते हैं, वास्तविकता यह है कि एनजीओ तक जाने वाले फंडों का एक तुच्छ भाग ही लोगों को मिल पाता है। इसके अतिरिक्त, एनजीओ का विशाल समूह उपरोक्त रेखांकित विवरण में सटीक बैठता है। मात्र कुछ अपवाद हो सकते है जो अन्यथा सिद्ध हों। ‘‘प्रगतिवादी एनजीओ’’ के लिए एक बड़ा प्रगतिवादी कदम यह है कि वे अपने सहकर्मियों की साम्राज्यवाद व इसके देशी गुर्गों के साथ गंठजोड़ों, सत्तावादी–विशिष्टवादी तंत्रों की विधिवत आलोचना और समालोचना करें। तब उनके लिए अपने पश्चिमी समकक्षी–एनजीओ को यह कहना अर्थपूर्ण होगा कि वे संस्था/सरकारी तंत्रों से बाहर निकल जायें और यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका के अपने ही लोगों को संगठित और शिक्षित करने के लिए वापस चले जायें तथा ऐसे सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलन खड़े करें जो उन प्रभावी सत्ताओं और पार्टियों को चुनौती दे सकें जो सिर्फ बैंकों और बहुराष्ट्रीय निगमों का हित साधन करती हैं।

दूसरे शब्दों में एनजीओ को एनजीओ होने से बाज आना चाहिए और अपने को सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों के सदस्यों के रूप में परिवर्तित करना चाहिए। यही एक रास्ता है जिससे वे उन लाखों एनजीओ के झुंड में फंसने से बच सकते हैं जो दाताओं का पेटा भरने का काम करते हैं।

निष्कर्ष : एनजीओ के सिद्धान्त पर

संरचना के लिहाज से एनजीओ एक नये पेटी–बुर्जुआ वर्ग के जन्म को प्रतिबिम्बित करते हैं जो ‘‘पुराने’’ दुकानदारों, स्वतंत्रपेशा व्यक्तियों और ‘‘नये’’ सरकारी कर्मचारी समूहों से भिन्न हैं। यह उपठेके वाला क्षेत्र पहले के ‘‘दलाल’’ बुर्जुआ के निकट है, क्योंकि यह कोई वास्तविक माल नहीं उत्पादित करता, लेकिन साम्राज्यवादी उद्यमों को उन स्थानीय उप माल–उत्पादकों के साथ सटाने का काम करता है जो सूक्ष्म उद्यमों में संलग्न हैं। यह नया पेटी–बुर्जुआ इस तथ्य से चिह्नित होता है कि उसमें बहुत से पूर्व–मार्क्सवादी हैं जो एक ‘‘प्रचलित शब्दांडम्बर’’ और कुछ मामलों में विशिष्टवादी, ‘‘हरावल पन्थी’’ अवधारणा अपने साथ लेकर आते हैं। बिना किसी सम्पत्ति अथवा सत्ता में किसी निश्चित पद पर आसीन हुए, यह नया वर्ग अपनी वंशवृद्धि के लिए बाहरी फंडिंग पर बहुत अधिक निर्भर होता है। लेकिन जनता में इन्हें मार्क्सवाद–विरोधी और सत्ता–विरोधी नारों को जनवादी शब्दाडम्बरों से संयुक्त करना होता है-परिणामत: ‘‘तीसरे रास्ते’’ और ‘‘सभ्य समाज’’ की अवधारणा का सूत्रपात होता है जो दोनों धड़ों को समेटने के लिए पर्याप्त रूप से अस्पष्टतापूर्ण होता है। यह नया पेटी–बुर्जुआ अपने अस्तित्व के लिए अन्तरराष्ट्रीय जलसों में भागीदारी पर खास भरोसा करता है, जबकि अपने ही देश में इसका कोई ठोस सांगठनिक आधार नहीं होता। ‘‘भूमण्डलवादी’’ नारा एक प्रकार के नकली ‘‘अन्तरराष्ट्रीयतावाद’’ पर पर्दा डालता है जो साम्राज्यवाद विरोधी संकल्पों से रिक्त होता है। संक्षेप में, यह नया पेटी–बुर्जुआ नव–उदारवावदी प्रतिष्ठान का ‘‘सुधारवादी विंग’’ बनता है।

राजनीतिक रूप से एनजीओ साम्राज्यवादी –रणनीतिवादी नये विचारों में सही बैठते हैं। एक तरफ जहां आई.एम.एफ.–विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय निगम अर्थव्यवस्था को लूटने के लिए घरेलू अभिजातों के साथ उच्च स्तर पर कार्य कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर एनजीओ निचले स्तर पर सम्पूरक क्रियाओं में व्यस्त रहते हैं-उस उभरते असन्तोष को निष्क्रिय और विखंडित करते हुए जो अर्थव्यवस्था की बर्बरता से पैदा होता है। जिस प्रकार साम्राज्यवाद शोषण और विरोधनीति की दोधारी मैक्रो व माइक्रो स्ट्रेटजी का प्रयोग कर रहा है, उसी प्रकार रैडिकल आन्दोलनों को दोधारी साम्राज्यवाद विरोधी रणनीति निर्मित करनी होगी।

एनजीओ ने उन तमाम लोगों को अपने में समा लिया है जो ‘‘फ्री फ्लोटिंग’’ बुद्धिजीवी हुआ करते थे और अपने वर्ग स्रोतों का परित्याग कर जनान्दोलनों में शामिल होते थे। परिणामत: पूंजीवाद के गहरे संकटों (एशिया और लातिन अमेरिका में मन्दी का दौर, पूर्व सोवियत संघ का विघटन) और सार्थक संगठित क्रान्तिकारी आन्दोलनों के बीच एक अस्थाई खाई पैदा हो गयी-सिर्फ ब्राजील, कोलम्बिया और संभवत: दक्षिण कोरिया इसके अपवाद कहे जा सकते हैं। मौलिक प्रश्न यह है कि क्या अंगभूत बुद्धिजीवियों की नई पीढ़ी इन रैडिकल सामाजिक आन्दोलनों से प्रकट हो सकती है, एनजीओ के प्रलोभनों से दूर रह सकती है और क्या वह अगली क्रान्तिकारी लहर का अभिन्न हिस्सा बन सकती है।

अनुवाद : सी.एल. गुप्ता

दायित्वबोध, वर्ष 8, अंक 2-3, अक्‍टूबर 2001-मार्च 2002

उपन्‍यास अंश : ‘‘मुझे तो कोई खतरा नहीं है, पर आपको है, सर!’’ : हावर्ड फास्ट

‘‘मुझे तो कोई खतरा नहीं है, पर आपको है, सर!’’

  • हावर्ड फास्ट
    अनुवाद: सुरेन्द्र कुमार

हावर्ड फास्ट के प्रख्यात, पर आज दुर्लभ उपन्यास ‘सिलास टिम्बरमन’ का एक अध्याय हम यहां प्रस्तुत कर हैं। ‘सिलास टिम्बरमन’ अमरीका के एक विश्वविद्यालय के एक गुमनाम-से कालेज के प्रोफेसर की कहानी है, जो शिक्षा-जगत में आजाद ख्यालों के लोगों का पीछा कर रहे शिकारी कुत्तों और भेड़ियों के उन्माद और हुआं-हुआं के शोर से उत्पन्न भयावह चक्रवात में फंस गया है। यह कहानी है उस दौर की जब प्रगति और परिवर्तन के हामी हर विचार और हर व्यकित को कुचलने की राष्ट्रव्यापी साजिशें रची जा रही थीं और साथ ही यह समाज से कटे एक बुद्धिजीवी के जागने और उन शक्तियों के खिलाफ आवाज बुलन्द करने की कहानी है। – सम्पादक

2 नवम्बर, बुधवार की रात और कैम्पस में आइक एम्सटरडम के पक्ष में आयोजित होने वाली विरोध सभा से एक दिन पहले की बात है। सिलास देर गये रात तक अगले दिन के लिए अपना बयान तैयार कर रहा था। वह एक तथ्य पर ऐसे अन्दाज में, जिसमें कुछ अचरज और उससे कुछ ज्यादा विनम्रता का भाव था, सोच में डूबा हुआ था: उसे ध्यान आया कि उसकी अब तक की जिन्दगी में हालांकि एक के बाद दूसरा दिन क्लासरूमों में लेक्चर देते हुए ही कटा था, पर वह इससे पहले कभी किसी आम सभा में नहीं बोला था। अपने मन और मस्तिष्क पर बुरी तरह छायी नाना प्रकार की शंकाओं और आशंकाओं का विवेचन कर चुकने के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा कि इन शंकाओं-आशंकाओं में सबसे भयावह स्थान इस तथ्य का है कि उसे तो इस बार क्लासरूम की चहारदीवारी से घिरी पनाहगाह के बाहर जाकर बोलना था (पनाहगाह की तो उसकी जिन्दगी में गहरी जगह थी, उसकी जिन्दगी का एक महत्वपूर्ण कारक था।) शायद उसकी जिन्दगी के एक अच्छे-खासे हिस्से का सरोकार एक ऐसी ही पनाहगाह की तलाश में रहा-उन तमाम उन्मत्त तूफानों से बचने के लिए पनाहगाह की तलाश जो सारी दुनिया में गर्जन-तर्जन किया करते थे, परन्तु जिनसे वह अछूता रहा; यह थी उन भयावह कृत्यों से जो एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के विरुद्ध किया करता है, बचने के लिए पनाहगाह की तलाश; यह थी भूख और ठंड के राक्षसी पंजों से बचने के लिए पनाहगाह की तलाश; विषादमय, उलझनभरे विवादों-कलहों से, जिन्हें राजनीति का नाम दिया जाता है, बचने के लिए पनाहगाह की तलाश। क्लासरूम एक ऐसी ही पनाहगाह थी, जहां मनुष्य उसमें, अपने क्लासरूम में राजा हुआ करता था, जहां उसकी बातें उसके छात्र सुना करते थे और जहां वह, प्रोफेसर टिम्बरमन, सदा ही ऐसा व्यक्ति हुआ करता था जो पास में बैठे व्यक्ति से कुछ ज्यादा ही जानता था।

परन्तु इस समय तो उसे पक्का यकीन नहीं था कि वह पास में बैठे व्यक्ति से कुछ ज्यादा ही जानता है। अपने एक नजदीकी और प्रिय व्यक्ति के साथ जो कुछ हो रहा था, उसके प्रति अपना आक्रोश प्रकट करने के लिए वह शब्द ढूंढ़ने के लिए भटक रहा था, जूझ रहा था। लेकिन लगता था कि वह इस मामले में जरा भी आगे नहीं बढ़ पा रहा है और गहरा सच तो यह था कि वह अपनी इच्छा के विरुद्ध लिख रहा था; और सब कुछ के बावजूद असलियत तो यही थी कि उसकी इच्छा अब भी अपनी जिन्दगी शान्तिपूर्वक बसर करने की थी-किसी का भी हाथ उसके खिलाफ न उठे। उसने अपने छोटे-से अध्ययन कक्ष के चारों ओर नजर दौड़ायी और मन ही मन सोचा कि यही तो असल में वह चीज है, जिसकी मनुष्य कामना करता है – मजबूत आधार पर टिकी सुख-सुविधाएं। इनके अपने पास रहने का यकीन; बांज की लकड़ी की बड़ी टिकाऊ आरामदेह मेज जिसके पास कुर्सी पर बैठकर वह लिखा करता है; फर्श से ऊपर छत तक फैले किताबों के शेल्फ; शताब्दियों से प्रवहमान ज्ञान-प्रज्ञान का नन्हा-सा सागर; उनमें से प्रत्येक मूल, संस्कृति, परम्परा के धागों से बुने गुच्छों के अन्दर मजबूती से संरक्षित हैं; उनमें से प्रत्येक मनुष्य के चिन्तन और सभ्यता के एक या दूसरे पहलू को आलोकित कर रहा है; वे सब इस आलोक को नयनाभिराम हरी छटा दे रहे हैं। वहां रखे लैम्प; आरामकुर्सियां, दीवारों को सुशोभित कर रही वे कलात्मक प्रतिकृतियां, जिन्हें उसने माइरा के साथ बहुत चाव और सावधानी से चुना था; हाथ से बुना गलीचा जिस पर एक खूबसूरत जलयान और हवा में पूरी तरह फैले पाल की अनुकृतियां हैं; और गलीचे पर प्राचीन लातिनी भाषा में यह अनूठा फिकरा अंकित था – Homo sum : humani nihil a me alienum puto – जाने उसने कितनी बार ऊपर नजर दौड़ाकर यह पता लगाने का इरादा बनाया कि ये शब्द किसके हैं – सिसेरो के या किसी अन्य के? न जाने कितनी बार इस वाक्य ने उसकी जबान पर चक्कर खाये होंगे: मैं मनुष्य हूं और जिस किसी भी बात का मनुष्य से सरोकार न हो, उसे मैं अपने लिए उपेक्षा की वस्तु मानता हूं! कितने सुन्दर ढंग से बात कही गयी है। और यहां यही चीज तो गहन सुख-सुविधा का सार थी; लेकिन फिर उसके दिमाग में विचार उठा कि बात कतई ऐसी नहीं है और सारा सारतत्व और सुरक्षा यहां गरम इलाकों के तूम्बे की तरह खोखले हैं जिसके अन्दर का गूदा तो सूख जाता है और सख्त बीज खोखलेपन के बीच एक-दूसरे से टकराने को रह जाते हैं। प्रोफेसर ने पांडुलिपि के करीने से रखे हुए कागजों के ढेर पर नजर दौड़ायी। इसमें तीन अध्याय थे, जिन्हें वह पूरा कर चुका था और पांडुलिपि का नाम उसने आरजी तौर पर मार्क ट्वेन एंड द कंट्री आफ हिज च्वायस (‘मार्क ट्वेन और उनकी पसन्द का देश’-अनु.) रखा था। और तब उसने घोर निराशाभरी, व्यथित भावना के साथ अनुभव किया कि यह तो सरासर धोखाधड़ी है और मार्क ट्वेन के बारे में वह बहुत ही कम जानता है और उसके पसन्द के देश के बारे में तो और भी कम, जिससे मार्क ट्वेन नफरत करता था, जिस पर आगबबूला हो उठता था और झपट पड़ता था।

जब सिलास ने अपनी पुस्तकों पर, ढेर सारी पुस्तकों पर, संजोकर रखे गये इस भंडार पर फिर नजर दौड़ायी तो उसके ध्यान में केवल प्राचीन मिस्र के वे ही लेखक आये, जो अपनी संस्कृति की गतिहीन निरंकुशता के बीच बर्फ की तरह जम चुके थे और जिन्होंने अपना पूरा जीवन और भी प्राचीन कृतियों की अध्यवसायपूर्वक नकल करते-करते बिता दिया था और ऐसा करते हुए वे अपने मन में यह भ्रम पालते रहे कि वे साहित्य के विलुप्त सृजनात्मक कला पर काम कर रहे हैं।

पर प्रोफेसर ने तब राहत की सांस ली, जब माइरा ने कमरे में प्रवेश किया और उसकी बगल में बैठ गयी और प्रोफेसर को कुछ ऐसे विनोदभरे और कुछ प्रश्नसूचक ढंग से देखने लगी, जो उसका अपना खास अंदाज था।

‘‘बच्चे मीठी नींद सो रहे हैं’’, वह बोली, ‘‘मीठी नींद में बच्चे संसार के बाकी सब लोगों से अधिक सुन्दर लगते हैं। मुझे यकीन है, इन्हें देखकर कहीं अधिक सकून मिलता है। तुम्हारा क्या ख्याल है? मैं लकड़ियां लायी हूं, वह अंगीठी में जलने लगी हैं। चलो, वहां आग तापते रहेंगे एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए। क्या यह एक खूबसूरत विचार नहीं है? बोलो, यह चलेगा?’’

‘‘नहीं चलेगा। मैं सिर्फ दो ही पैराग्राफ लिख पाया हूं।’’

‘‘पढ़कर सुनाओ।’’

‘‘बिल्कुल बेकार। सुनो यह-‘मुझे आइक एम्सटर्डम को जाने बीस बरस बीत गये हैं। इन बीस बरसों में वह दोस्त, अध्यापक रहा।’ ओह, भाड़ में जाये यह सब! बिल्कुल बेकार। मैं वह नहीं कह पा रहा हूं, जो मैं कहना चाहता हूं।’’

‘‘क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘वाकई पता नहीं क्या कहना चाहता हूं, सिवाय इसके कि छाती पीट-पीट कर, रोते-चिल्लाते हुए कहना चाहता हूं कि यहां कुछ ऐसा घट रहा है, जो घिनौना है, जो वीभत्स है, कुछ ऐसा घट रहा है, जो रुग्ण है, जो जर्जर और सड़ा-गला है, मौत का आभास देता है और उसकी भयंकर दुर्गन्ध धरती से आकाश तक फैली हुई है।’’

‘‘और तुम इसलिए यह नहीं कह पाते, क्योंकि उस पर विचार नहीं किया जायेगा, उसे निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ नहीं माना जायेगा।’’

‘‘कटाक्ष करने से तो कोई मदद मिलने वाली नहीं।’’

‘‘मैं कटाक्ष करने का यत्न नहीं कर रही हूं। मैं भी इस पर सोच-विचार करती रही हूं। मैं तुमसे कुछ पूछना चाहती हूं-यह इस मामले की तह में है। तुमने एटम बम के खिलाफ उस कागज पर दस्तखत क्यों किये थे?’’

‘‘और तुमने?’’

‘‘मैं तो तुमसे पूछ रही हूं, सिलास। अपना सवाल बाद में करना।’’

‘‘तो ठीक है। चलो, बताने की कोशिश करता हूं। आदमी कोई काम क्यों करता है, यह जानना-बताना आसान नहीं है। हम जैसे लोगों को, माइरा, लगभग कभी यह नहीं समझाना पड़ता कि हम जो करते हैं, वह क्यों करते हैं।’’

‘‘सचमुच नहीं समझाना पड़ता, अक्सर नहीं।’’

‘‘एलेक ब्रैडी ही मेरे पास वह कागज लेकर आया था और तुम्हें पता है, माइरा, ज्यों ही उसने वह कागज मुझे दिखाया, और उसके बारे में बताने लगा, मैं जान गया कि वह कौन है।’’

‘‘कम्युनिस्ट!’’

माइरा की आंखें अनायास अध्ययन-कक्ष के दरवाजे की ओर घूम गयीं और सिलास लगभग कर्कश स्वर में बोला: ‘‘तो यह है बात! फिर ऐसा क्यों किया? या खुदा, यह दुनिया ऐसी क्यों है, जिसमें इन्सान डरकर और आतंकित होकर बात तक नहीं कर सकता? यह कैसा दुःस्वप्न है, जिसमें हम जी रहे हैं – यह किस किस्म का कुलीन, सभ्य, अपवित्र दुःस्वप्न है, जिसमें हम जी रहे हैं? मैं अपने से कहता हूं, मैं तो संयुक्त राज्य अमेरिका का जन्मना स्वतंत्र, स्वाधीन नागरिक हूं, पर मैं कम्युनिस्ट शब्द को जबान तक पर नहीं ला सकता, इसमें खतरा जो है; मेरी पत्नी भयभीत है और घबरायी हुई इधर-उधर नजर घुमाती है यह देखने के लिए कि कहीं कोई उसके पति की बात सुन तो नहीं रहा?’’

‘‘तो फिर अगर इस तरह चिल्लाओगे तो तुम्हें जरूर कोई सुन लेगा।’’

‘‘यह अमरीका का इंडियाना राज्य है, जर्मनी नहीं।’’

माइरा बहुत शान्त हो गयी, दोनों हाथ सटाकर गोदी में रखे हुए, सिलास के बारे में ऐसी अजीब-सी दिलचस्पी से सोचते हुए, जो किसी नये लेकिन रहस्यमय अजनबी को देखकर पैदा होती है। ‘‘तो ठीक है, तुम्हें पता था कि एलेक ब्रैडी कम्युनिस्ट है। अच्छा फिर यह बताने में बुरा तो नहीं लगेगा तुम्हें कि तुम्हारी उससे जान-पहचान कैसे हुई?’’

‘‘मुझे याद है कि कैसे जान-पहचान हुई, परन्तु इस बात का कोई अर्थ ही नहीं है। तुमने पूछा कि मैंने उस कम्बख्त कागज पर दस्तखत क्यों किये? तो सुनो, मैंने ब्रैडी पर नजर दौड़ायी पर अपने से ही पूछा कि यह शख्स यह कागज लेकर लोगों के पास क्यों जा रहा है; मेरी प्रिय माइरा, मेरी प्रिय, नेक, प्यारी पत्नी, तुम जानती हो कि हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जो सिद्धान्त के मामले में बिलकुल खोखली है, जो स्वार्थ के अलावा बाकी सभी अर्थ-हितों से अनजान है, जो किसी गृह-देवता की भांति रक्षा कर रहे रसोईघर में रखे उस मनहूस रेफ्रिजेरेटर की तरह अभिशप्त है। यह समझने की कि वह उस कागज को लेकर क्यों चक्कर काट रहा है, सिर्फ एक वजह, बस एक ही वजह ढूंढ़ सका-वह वजह थी कि वह कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य है। और तुम्हें पता है, मैंने इस बारे में पूछा भी।’’

‘‘उसका जवाब क्या था?’’ माइरा ने जानना चाहा। ‘‘अगर बताना चाहो, तो बताओ।’’

यह किस्सा जून महीने के शुरू-शुरू का है। जून महीने में, क्लासें बंद होने से पहले, चंद दिन पहले ही! सिलास और ब्रैडी बांज के वृक्षों की छायादार वीथिका के, जिसके लिए क्लेमिंग्टन कैम्पस को उचित ही ख्याति मिली हुई है, छोर पर पत्थर की एक बेंच पर बैठे हुए थे। शाम के लगभग पांच बजे का वक्त था। गर्मियों में दोपहर बाद की लम्बी होती छायाएं; सांझ का आवरण मंथर गति से उस स्थान को अपनी लपेट में ले रहा था; इस सबने सिलास को याद दिलायी उस अवश्यम्भावी विषाद की जिसे वह अनुभव करता रहा था। ब्रैडी खुद उससे कुछ कहना चाहता था और बातचीत करते हुए वे वहां पहुंच गये। कभी एक विषय की तो कभी दूसरे विषय की चर्चा करते रहे। वह एक तरह खुद ब्रैडी के साथ में होने से खुश था। वह इस शख्स को समझने की अपेक्षा उसे पसन्द ज्यादा करता था। इस समय वह यों ही सोच रहा था कि ब्रैडी के मन में क्या है। सच्ची बात तो यह है कि वह ब्रैडी को पसन्द करता था, उसका प्रशंसक था। उसके सामने थोड़ी घबराहट-सी महसूस करता था। सिलास की सोच का एक हिस्सा यह भी था कि वह कैम्पस में जिन लोगों को जानता और पसन्द करता था, उनमें उसका कुछ हद तक अविश्वास भी था, उसे लगता था कि उनके सामने उसका स्तर कुछ नीचे है। इस तरह वह अपने ही अलगावपन को पोषित करता रहा। उनके तिरस्कार से बचता था। परन्तु ब्रैडी में एक ऐसा गुण था, जो दूसरों में सहजता की भावना पैदा करता था। उसके, कहना चाहिए, भद्दे से लम्बे नाक-नक्श उसके चेहरे को प्रभावात्मक बनाते थे, उसके गंजे सिर के किनारे-किनारे ललछौंहें बाल सन्त की आभा और मसखरे की शक्ल-सूरत के बीच सन्तुलन बनाने का काम देते लगते थे। और दूसरे कई आयरिशों की तरह ब्रैडी भी अपनी आवाज को बहुत प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल करता था।

सिलास के साथ उसके सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ तो नहीं थे, लेकिन उनका स्रोत आइक एम्सटर्डम के प्रति आपसी श्रद्धा-भाव था। परन्तु यह ब्रैडी नहीं वरन सिलास था, जो आपसी सम्बन्धों में प्रगाढ़ता लाने में पीछे रहता। सिलास ने ब्रैडी के संग बिताये कुछ शामों का भरपूर आनन्द उठाया था, दुनिया में इस समय घट रही और अतीत में घट चुकी बातों के साथ यह प्रभावशाली व्यक्ति जिस शुष्क ढंग से और बेरहमी के साथ पेश आता था, वह सिलास पर जादू कर देता था। परन्तु इसके साथ ही साथ उसे इससे वितृष्णा भी होती थी। सिलास उन लोगों के बीच बहुत असहज रहता था, जिनका ज्ञान विशिष्ट लक्ष्य-केन्द्रित होता था और जिनकी सम्मतियां तीक्ष्ण, निर्ममतापूर्ण होती थीं। वह अपने से कुछ चिड़चिड़ेपन के साथ सवाल करताः ‘‘ब्रैडी, जिसकी संगत को मैं तरजीह देता हूं, पर क्या वह भी मेरी संगत को तरजीह देता है?’’ इस समय उसने अपने से सवाल किया और उसे इस बात से कुछ सन्तोष मिला कि ब्रैडी उससे कुछ चाहता है। ब्रैडी के पास वह मांग-पत्र था, जिसमें एटम बम को अभी और सदा-सर्वदा के लिए निषिद्ध घोषित करने का आह्वान किया गया था; फिर भी यह चीज हर वस्तु को देखकर नाक-भौं सिकोड़ने वाले व्यक्ति के स्वभाव से मेल नहीं खाती थी। उसे पढ़ चुकने के बाद – यह मांग-पत्र बहुत संक्षिप्त था – वह कुछ देर खामोश बैठा रहा और इस बीच उसके दिमाग में विचारों की परतों का अम्बार बनता चला गया, हालांकि ये परतें किसी तरह के खास प्रसंगों से जुड़ी हुई नहीं थीं। और तब वह इस फैसले पर पहुंचा कि ब्रैडी कम्युनिस्ट है। ‘‘उन सबमें ब्रैडी और वह कम्युनिस्ट!’’ उसने मन ही मन कहा। और फिर क्षणभर के लिए वह मांग-पत्र को भूल गया। इस अद्भुत तथ्य की खोज करने के लिए वह अपने पर ही मोहित हो गया, हालांकि यह शायद उतना अद्भुत नहीं था। बिलकुल अपने आम स्वभाव के अनुसार सिलास ने तुरन्त और सीधे सवाल कर दिया: ‘‘तुम कामरेड हो?’’

‘‘क्यों पूछ रहे हो?’’ ब्रैडी ने जानना चाहा।

माइरा को यह बात सिलास ने पांच महीने बाद समझायी। ऐसे मांग-पत्र लेकर लोग अक्सर दूसरों के सामने नहीं जाते। एक विराट एटमी उड़नतश्तरी तैयार की ली गयी है। और इसमें हरेक अलग-अलग उड़ान भरने के लिए तैयार है। सिलास का इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि उसका पड़ोसी, उसके पड़ोसी की पत्नी और बच्चे या दस लाख लोग भस्म हो जायेंगे। जनमानस तो इसी तरह ढाल दिया गया था और सिलास का दिमाग भी अपने आसपास के हर व्यक्ति की तरह इसी सांचे में ढला हुआ था।

ब्रैडी के सवाल के जवाब में सिलास बोला:

‘‘तुमने मुझसे इस मांग-पत्र पर दस्तखत करने के लिए कहा तो इसकी और वजह क्या हो सकती थी?’’

‘‘यह हम पर और हमारी जिन्दगियों पर बहुत ही कड़वी टिप्पणी है। है कि नहीं?’’

‘‘हां, जब तुम इस ढंग से देखो।’’

‘‘इसे देखने का दूसरा तरीका कौन-सा है, सिलास?’’

‘‘खैर, तुम समझते हो कि मेरा आशय क्या है। अगर तुम्हारी ही तरह मैं भी महसूस कर पाता कि इस रूस की पहेली के पीछे निरर्थक आतंक, जबरन थोपे गये अनुशासन के अलावा कुछ ऐसा भी है, जो अच्छा है, जो कुछ और भी है!’’

‘‘तुम कैसे यह जानते हो कि मैं इस ढंग से सोचा करता हूं? तुम्हारा कहने का मतलब क्या यह है कि तुमने तय कर लिया है कि मैं जरूर कम्युनिस्ट हूं?’’

‘‘मेरा ऐसा ही ख्याल है। तुम जरूर कम्युनिस्ट हो।’’

‘‘जब तुमने मेरे बारे में तय कर ही लिया है, तो मेरा उत्तर सुनने की तुम्हारी जिज्ञासा पूरी करने के लिए इस मुद्दे पर चर्चा करने का कोई खास अर्थ ही नहीं रह जाता।’’

यह कहते हुए ब्रैडी ने मुस्कराते हुए पूछा: ‘‘इस पर दस्तखत करोगे?’’

‘‘इसे तुम मेरे पास लाते ही न, अगर तुमने यह सोचा होता कि मैं दस्तखत नहीं करूंगा’’, सिलास ने कुछ उदास स्वर में कहा।

‘‘मेरा भी ख्याल है, शायद नहीं लाता।’’

‘‘इससे कोई फायदा होने नहीं जा रहा। क्या, एलेक, तुम्हारे और मेरे बीच यह अन्तर होगा? मेरा इस बात में यकीन नहीं है कि इस तरह की चीजों से कोई फायदा होगा, कतई नहीं।’’

‘‘अगर काफी तादाद में लोग कुछ कहें, तो उनकी बात सुनी जायेगी।’’

‘‘काफी तादाद में?’’ यह कहते हुए सिलास की नजर ब्रैडी से दूर, कैम्पस की ओर चली गयी।

‘‘यह भूमंडल बस क्लेमिंगटन तक सीमित नहीं है। पूरी दुनिया की एक ही ख्वाहिश है, लोग इस बात से थक चुके हैं कि दूसरे उन्हें इस्तेमाल करते रहें।’’

‘‘मुझे लगता है, मामला यह है कि कौन किसे सबसे ज्यादा होशियारी से इस्तेमाल करता है। मैंने सबसे सुना है कि यह रूसी मन्सूबा है, है कि नहीं?’’

‘‘मैं इस पर भी बहस नहीं करूंगा, हालांकि इससे इन्कार करता हूं। मुद्दा यह है कि मौत का यह भंयकर नृत्य शुरू होने से पहले ही रोक दिया जाये।’’

‘‘अगर मैं इस पर दस्तखत कर दूं’’, सिलास ने मांग-पत्र पर नजर गड़ाते हुए, उसे फिर से पढ़ते हुए कहा, ‘‘अगर मैं इस पर दस्तखत कर दूं, तो इसका मतलब मुसीबत मोल लेना है, ठीक है न? और सभी की तरह मैं भी इस तरह की चीजों पर दस्तखत करने से डरा करता हूं। मुझे ऐसी चीजें डाक से मिला करती हैं, पर मैं उन पर तब भी दस्तखत नहीं करता, जब मैं उन्हें न्यायोचित मानता हूं। हरेक की तरह मैं भी अपने ही छोटे-से झूठ के साथ जी लेता हूं। मैं एक आजाद मुल्क में रहता हूं, जहां मैं एक मांग-पत्र पर दस्तखत करने से डरता हूं और फिर इस डर को अपने से यह कहते हुए न्यायसंगत ठहराता हूं कि मुझे इस्तेमाल किया जा रहा है, कि यह एक तिकड़म है, एक मुखौटा है, एक जाल है,’’ सिलास ने ब्रैडी पर नजर दौड़ायी और बोला: ‘‘ये तुम्हारी दलीलें हैं, है न?’’

‘‘नहीं, ये तुम्हारी दलीलें हैं,’’ ब्रैडी ने जवाब दिया।

‘‘क्या फर्क पड़ता है? मेरे ख्याल से मैं इस पर दस्तखत करने नहीं जा रहा हूं। तुमने कैसे यह मान लिया कि मैं दस्तखत कर दूंगा?’’

‘‘तुमने अभी-अभी जो कहा, उस वजह से। मेरा ख्याल है बहुत खराब वक्त है यह, सिलास, अब से लेकर ठीक पतझड़ तक रूस के बारे में बोलते जाओ, पर इससे यह तथ्य रत्तीभर नहीं बदलता कि यह बहुत मनहूस वक्त है – खौफ की भारी दीवाल के पूरे राष्ट्र पर भरभराकर गिरने की आशंका, पूरे राष्ट्र का भयभीत रहना, यह मानने से डरना कि वे दिग्भ्रमित हैं, निरस्त्र हैं। अध्यापकों का भेड़-बकरियों की तरह पीछा किया जा रहा है, विद्वानों से कहा जा रहा है कि उन्हें क्या सोचना चाहिए और नहीं सोचना चाहिए, लेखकों से कहा जा रहा है कि उन्हें क्या लिखना चाहिए और क्या नहीं लिखना चाहिए और अगर वे बतायी गयी लीक पर नहीं चलते, तो उनकी पुस्तकें जला दी जाती हैं।-यह है हमारे इस वक्त की मुहर! हम कहा करते थे-देशभक्ति लुच्चे-लफंगों की आखिरी शरण-स्थली है, लेकिन अब यह कायरों की भी शरण-स्थली बन गई है। पर देखो, यह पहला मौका नहीं है कि ऐसी बात हो रही है और यह पहली जगह नहीं है, जिसके साथ ऐसा हुआ है। पर यह सचमुच कारगर साबित नहीं होता। ऐसा नहीं हो सकता कि तुम सोलह करोड़ लोगों को एक कतार में खड़ा कर दो, चाबुक चटकाओ और उन्हें लोहे के छल्ले के बीच से कूदने के लिए विवश कर दो। ऐसे लोग हमेशा रहेंगे, जो कूदने से इंकार कर देंगे, जो सोचने के अपने हक पर, यथार्थ को देखने के अपने हक पर डटे रहेंगे, और ठीक यही चीज है, जो उन्हें इन्सान बनाती है; ये लोग अपनी इन्सानियत को तिलांजलि नहीं देंगे। इसी वजह से मैं सोचता हूं कि तुम इस मांग-पत्र पर दस्तखत कर दोगे, भले ही तुम तय कर बैठे हो कि मैं कम्युनिस्ट हूं और यह सब एक कम्युनिस्ट जाल है।’’

आखिरकार सिलास ने उसपर दस्तखत कर दिये, यह उसने माइरा को बताया था।

और सिलास की समझ में तत्काल यह बात नहीं आयी कि माइरा ने आखिरकार यह सवाल किया ही क्यों। समझ में न आने का कारण यह था कि अक्सर सवाल जवाब के ब्यौरे के बीच खो जाता है। वह, सिलास टिम्बरमन, एक साथ दो ‘‘चीजें’’ था, दो शख्स था, दो जिन्दगियां था, एक विशेष अवबोधन के दो हिस्से था। एक जिंदगी, जो वह जी रहा था, दूसरी जिंदगी वह अवबोधन थी, जो क्रियाशीलता के बिना ही अस्तित्वमान थी। अलबत्ता एक अपवाद को छोड़कर, जब क्रियाशीलता उस पर थोप दी जाती थी, जैसे कि उस समय, जब कुछ क्षणों के लिए पूरे अमरीका ने और बाकी दुनिया के एक अच्छे-खासे बड़े हिस्से ने मनोरंजन, चिन्ता और शायद संत्रस के घुले-मिले भावों के साथ यह पढ़ा कि मध्य-पश्चिमी अमरीकी विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर को इस बात की आज्ञा दे दी गयी थी कि वह मार्क ट्वेन को न पढ़ाये।

‘‘चलो छोड़ो यह सब,’’ सिलास माइरा से बोला, ‘‘कोई फायदा नहीं इससे।’’ दोनों बैठक में चले गये और अंगीठी के सामने बैठ गये। माइरा उसे ताकती रही इस अंदाज में कि उसे न लगे कि किसी की नजर उसके चेहरे पर घूम रही है। वह उसके मन में भावों के ज्वार-भाटे को, उसके अन्दर विचारों की तूफानी हलचल से पैदा तनाव और प्रति-तनाव को अनुभव कर रही थी। यह माइरा के अपने ही तर्को का निगमन था। और उसे इस चीज ने चकित कर दिया कि वह सिलास के नाम के साथ तूफानी हलचल शब्दों को जोड़ सकी। वह तो सिलास को उद्वेगहीन व्यक्ति मानने की ही आदी हो गयी थी। और यह रहा सामने बैठा मनुष्य, जिससे उसने विवाह किया था, जिसके साथ उसने अपने जीवन का इतना कुछ अंश जोड़ा था; ऊंची कद काठी का, दुबला, पतले से चेहरे वाला मनुष्य, एक तरह का भीरु मनुष्य।

हो सकता है, सिलास को यह बोध हो गया हो कि उसे माइरा समझती है। वह अब भी अपने ख्यालों में डूबा हुआ था, एलेक ब्रैडी और आइक एम्सटर्डम व साथ ही अपना भी मूल्यांकन कर रहा था। माइरा से मानो उसके मन के भाव पढ़ते हुए बोलाः ‘‘जानती हो, मैं भीरु हूं।’’ फिर उसने चुनौती भरे ढंग से माइरा पर नजर दौड़ायी।

‘‘मेरा ख्याल है, अधिकांश लोग, लगभग अधिकांश समय भीरु ही होते हैं,’’ माइरा ने स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिलाया।

‘‘कल के बारे में नहीं बोलना चाहता, नहीं बोल सकता, मैं उन छात्रों के सामने खड़ा नहीं हो सकता, बोल नहीं सकता। नहीं कर सकता, माइरा!’’

‘‘पता नहीं इस बारे में मुझे क्या करना चाहिए?’’ सिलास बोला।

‘‘वे लोग इस समय ‘फलक्रम’ (धुरी) अखबार तैयार कर रहे हैं। तुम कार लेकर वहां पहुंच जाओ और समझा दो कि किस तरह ये लोग तुम्हारा नाजायज फायदा उठा रहे हैं। और चूंकि तुम इस बात के कायल हो कि एलेक ब्रैडी कम्युनिस्ट है, दुनिया में तुम्हारे दोनों हाथों में लड्डू ही लड्डू ही रहेंगे। और इतना और कर सकते हो कि छात्र-सभा को कम्युनिस्ट साजिश बताकर उसकी निंदा करते हो।’’

‘‘इससे तो बड़ी मदद मिलेगी’’, सिलास ने टिप्पणी की।

‘‘सिलास, तुम मुझसे क्या कहने की अपेक्षा करते हो? मैं सोचती हूं कि क्या हम इस देश के लोगों की तरह नहीं है या बहुत हद तक उन जैसे हैं? हमारा बहुमूल्य ज्ञानोदय एक प्रकार का अंधकार है, है कि नहीं? तुम कायर हो और वैसी ही मैं भी हूं। पहले मैं विनोदी होने का दिखावा कर रही थी, लेकिन मेरे हृदय-मन के दूसरे भाग के कहने का वही मतलब था, जो मैंने कहा। मैं डर रही हूं और मुझे पता ही नहीं है कि मैं डर कैसे गयी। यह सब पिछले चंद हफ्तों में नहीं हुआ। हो भी नहीं सकता था,’’ माइरा बोलती गयी।

‘‘और जब तुम मेरी ओर मुड़ती हो, तो सहारे के लिए कुछ भी मौजूद नहीं है, क्या है सहारा, माइरा।’’

‘‘मुझे पता नहीं,’’ माइरा का जवाब था।

‘‘यह क्या है,’’ सिलास असहाय होने के अंदाज में बोला, ‘‘मैं 40 वर्ष का हूं परन्तु लगता है, मुझमें मात्र शून्य व्याप्त है। मैं शिशु की भांति सोया करता था, लेकिन अब बिस्तर पर लेटे-लेटे सोचता रहता हूं कि बस थोड़ा-सा वक्त अपने पास बाकी है और मैं मर जाऊंगा। सहारे के लिए कुछ नहीं है, है क्या माइरा?’’

‘‘मुझे पता नहीं,’’ माइरा बोली।

‘‘क्या बात है?’’ सिलास ने कुछ बेबसी के भाव से पूछा। ‘‘मैं चालीस साल का हो चुका हूं, पर लगता है कि मुझमें रिक्तता के अलावा और कुछ नहीं है। पहले शिशु की भांति सोया करता था, पर अब बिस्तर में करवटें बदलते हुए सोचता रहता हूं कि अब थोड़ा-सा वक्त मेरे हिस्से में बाकी है, और फिर मर जाऊंगा। और मृत्यु की महज सच्चाई से ही जी खराब हो जाता है। मुझे भय लगता है।’’

माइरा कुछ नहीं बोली, अंगारों को निहारती रही, जिसकी लौ की प्रतिच्छायाएं उसके चेहरे और नाक-नक्श पर खेलती लगतीं थीं। दोनों साथ-साथ बैठे थे-एक खूबसूरत, भरपूर शरीर और उतने ही सरस यौवन की स्वामिनी, जितना कि उसकी बगल में बैठा वह व्यक्ति शुष्क और रूखा था।

‘‘क्या, माइरा, कभी तुम्हें इस पर अफसोस होता है कि तुमने मेरे साथ शादी की?’’ सिलास ने पूछा।

‘‘हां, कभी-कभी,’’ माइरा ने उत्तर दिया, पर वह यह देखने के लिए छटपटा रही थी कि सिलास को क्रोध आये, उसकी भावनाओं का बांध टूटे, आपे-से बाहर हो जाये। पर वह जानती थी कि ऐसा नहीं होगा।

‘‘तुम्हारे मापदण्ड के अनुरूप नहीं निकला मैं, सच है न? न तो धन-दौलत और न गरीबी। न तो खलनायक और न नायक।’’

‘‘ठीक है, ठीक है, चलो सोने चलते हैं,’’ माइरा एकाएक कटु स्वर में बोली।’’

‘टाइम्स’ अखबार में लिखा था: ‘‘ऊंचा कद; ढीले-ढाले अंग; दूर की नजर कमजोर; सूखे रंगों से तैयार की गयी पुराने फैशन की एक ऐसी तस्वीर, जिसे देखकर लगे कि यह तो अध्यापक हो ही नहीं सकता; प्रोफेसर सिलास टिम्बरमन को देखकर यह सोचना भी कठिन है कि ऐसे व्यक्ति का कभी कोई विध्वंसकारी इरादा रहा हो।’’

सुबह जब प्रोफेसर की आंख खुली, तो पानी बरस रहा था, हल्की, शरीर में झुरझुरी पैदा करने वाली अप्रिय फुहारें, और जिन्हें तेज और फुफकारें मारती तेज हवा के झोंके रुक-रुक कर चारों ओर बिखेर रहे थे। उसने मन ही मन कहा: ‘‘शुक्र है खुदा का, आज कोई मीटिंग होने नहीं जा रही है।’’ घर से रवाना होने तक बारिश थम गयी थी, लेकिन बाहर खूब ठंड थी, आकाश धुंधला था, तेज हवा चल रही थी।

‘द ट्रिब्यून’ अखबार में भी घबराहट का स्वर था लेकिन बहुत ज्यादा घबराहट का नहीं: ‘‘यह महसूस कर राहत मिलती है कि इस तरह का अहमकपन अमरीका के लिए कोई नयी बात नहीं है। मुक्त हंसी ऐसी बीमारी का बहुत बढ़िया इलाज है। और यह याद रखना जरूरी है कि यह विध्वंसकों के विरुद्ध किसी असल और जरूरी मुहिम की सेवा नहीं है।’’

वह सुसान एलन से मिला। ‘‘क्या आज का यह मौसम मन को रिझाने वाला नहीं है,’’ सुसान एलन उल्लासभरे स्वर में बोली। ‘‘क्या तुम्हारा मन-चित्त ऐसी प्रचण्ड हवा के साथ उछलकर बल्लियों ऊपर नहीं पहुंचता? इस तरह के दिन पर तो मैं लट्टू हो जाती हूं। ऐसे दिन किसी और चीज के बजाय मेरा मन सीगल (समुद्री पक्षी) देखने के लिए ललचाया करता है।’’

‘‘तुम और बॉब आज मीटिंग में तो आ रहे हो न?’’ उसने सुसान एलन से पूछा।

‘‘बेशक आऊंगी। कम्युनिज्म से चाहे कितनी ही नफरत क्यों न हो, पर, सिलास, जब बेचारे प्रोफेसर एम्सटर्डम का ख्याल आता है – और यह सब इतने दिनों बाद – तो गुस्सा तो आता ही है और विरोध प्रकट करने की इच्छा होती है।’’

‘द सेंट लुई पोस्ट’ अखबार ने, जिसका दफ्तर इस हलचलभरी घटना के समीप था, दूसरों से ज्यादा विषादपूर्ण दृष्टिकोण अपनायाः ‘‘जहां तक हमारा ताल्लुक है, हम महसूस करते हैं कि मार्क ट्वेन की राजनीति के बारे में रिपोर्ट बहुत अतिरंजित हैं पर हम क्लेमिंग्टन के साहित्यिक निर्णयों से चाहे सहमत हों या न हों, फलक्रम से उसके छात्र-सम्पादक एल्विन मोर्स के हटाये जाने का समर्थन करना कठिन है। कालेजी अखबारी दुनिया में फलक्रम का सम्मानजनक स्थान है और बहुत से प्रतिष्ठित पत्रकारों ने पहले-पहल इसी के पन्नों में काम करना शुरू किया था। एल्विन मोर्स का कसूर हद से हद यह हो सकता है कि उसने सम्पादकीय निर्णय लेने की अयोग्यता का परिचय दिया। परन्तु कालेजी अखबारों की स्वतंत्रता इस बात का तकाजा करती है कि छात्र-सम्पादकों को गलतियां करने दी जायें और उन्हें अपनी गलतियों पर खेद की भावना झेलने दी जाये।’’

सिलास के पहुंचने से पहले ही लारेंस काप्लिन दफ्तर में मौजूद था। उसने अनुभव किया कि सिलास के चेहरे पर कोई खास खुशी नहीं दिखायी दे रही है।

‘‘लगता है, माइरा के साथ झगड़ा मेरे मूड के खराब होने का सबसे बड़ा कारण है,’’ सिलास ने कहा। वह इतना उद्वेलित था कि उसने किसी और से ऐसे मसलों पर चर्चा न करने के अपने उस नियम का उल्लंघन किया था, जिसका वह लम्बे अरसे से पालन करता आया था। ‘‘लगता है, माइरा को समझने में अधिकाधिक असमर्थ होता जा रहा हूं।

‘‘बात यह है कि हम सब उन नारियों को समझने में उत्तरोत्तर असमर्थ होते जाते हैं, जिनसे हम विवाह के सूत्रों में बंधे होते हैं। परन्तु अपने पति के प्रति पत्नी के साथ भी ऐसा ही होता है। यह कोई महज घिसी-पिटी बात नहीं है। अन्य क्षेत्रों की ही तरह यहां भी हम जो बोते हैं, वही फसल पाते हैं। दोपहर बाद से तुम्हारे शब्द सुनने का इंतजार कर रहा हूं मैं। मुझे आशा है कि मीटिंग बड़ी होगी; विषाद के वातावरण को मिटाने के लिए काफी बड़ी होगी!’’

‘‘मेरे अनुमान से भी काफी बड़ी,’’ काप्लिन ने मुस्कुराते हुए पर कुछ उदास भरे स्वर में कहा।

शिकागो के प्रमुख प्रादेशिक अखबार के पास खुशी मनाने का कारण है। ‘‘यह देखने से बहुत सन्तोष मिलता है कि क्लेमिंगटन के प्रेजीडेंट एंटनी सी- कैबट की स्थिति के प्रति प्रतिक्रिया कितनी तीक्ष्ण रही, जो अन्यथा घोर असुखद सिद्ध हो जाती। फलक्रम के पहले अंक में उनका यह बयान कि वह क्लेमिंग्टन के संकाय के लिए वफादारी की शपथ की व्यवस्था का स्वागत करेंगे, गलतफहमियों के वातावरण को मिटाने में मदद देता है। हम तो नये सम्पादक के मातहत तमाम सरकारी शिक्षा संस्थानों के तमाम अध्यापकों के लिए और क्लेमिंग्टन की तरह के करों से छूट पाने वाले तमाम संस्थानों में भी वफादारी की शपथ लागू करने के लम्बे अर्से से पैरवीकार रहे हैं। यह दावा करना तो कीचड़ उछालना है कि वफादारी की शपथ लेना मुक्त शिक्षा से मेल नहीं खाता। जो व्यक्ति अपने देश के प्रति वफादारी की शपथ लेने से इंकार करता है, विध्वंसकारी घोषित किसी भी संगठन का सदस्य न होने की शपथ नहीं लेता, वह हमारे राष्ट्र के बच्चों को पढ़ाने के योग्य नहीं है।’’

‘‘कितना लम्बा अर्सा गुजर चुका है, जब मैं रटे-रटाये ढंग से पढ़ाता था, अपनी क्लासों में यंत्रवत पहुंचा करता था – कितना अर्सा गुजर चुका है’’, सिलास ने अपने से पूछा। ‘‘क्या दो ही हफ्ते, महज दो हफ्ते?’’ वह सोच रहा था।

और गलियारे में उसकी एड लिंडफेस्ट से मुलाकात हुई। दोनों के पांव एक क्षण के लिए रुके, दुआ-सलामत करने से पहले खामोशी से एक-दूसरे को देखते रहे। पर दुआ-सलामी करना तो जरूरी था। आखिर लोग सभ्यता के भव्य-भवन के अन्दर ही तो जीते हैं।

‘‘हैलो, ऐड’’ सिलास ने आखिर खामोशी तोड़ते हुए कहा।

लिंडफेस्ट ने हल्के सिर नवाया और आगे बढ़ गया।

‘‘लगता है, आज कोसा जाने वाला हूं,’’ सिलास मन में बोला और उस दिन वह पहली बार मुस्कराया।

पूर्वी प्रदेश के ‘मिरर’ अखबार ने अपनी बात बिना किसी लाग-लपेट के और भावपूर्ण ढंग से पेश की: ‘‘हमारे दिल में किसी भी जगह के कौमीज (कम्युनिस्टों से नफरत करने वाले लोगों द्वारा उनके लिए प्रयुक्त फिकरा-अनु.) के प्रति लेशमात्र मृदुभाव नहीं है और स्कूलों में तो उनकी उपस्थिति हम और भी कम पसन्द करते हैं। फिर ऐसी भी तो कोई चीज नहीं है, जिसे बच्चे कौमीज से सीखें। उन्हें जितनी जल्दी हमारी शिक्षा-प्रणाली से बाहर धकेल दिया जाये, हमारे लिए उतना ही ज्यादा अच्छा होगा, भले ही इस प्रक्रिया में चंद संवेदनशील आत्माओं को ठेस लगे। जहां तक मार्क ट्वेन का सरोकार है, हम यह भविष्यवाणी करने का साहस करते हैं कि वह इस घटना-प्रवाह को झेल जायेंगे।’’

जब सिलास दोपहर बाद दो बजे ह्निट्टियर हाल से बाहर निकला, तो वहां माइरा अप्रत्याशित रूप से उसका इन्तजार कर रही थी। वह उसे देखकर मुस्करायी, सिलास ने भी हल्के ढंग से मुस्कान का जवाब दिया। यह क्षणभर के लिए दुबारा तरुणाई की दुनिया में लौटना था, यह प्रेम-परिणय की भावनाओं का फिर जग उठना था, उस व्यक्ति की झलक और ध्वनि में विलय हो जाना था, जिससे प्यार किया जाता है।

‘‘मैंने सोचा, तुम्हें किसी के संग की जरूरत होगी,’’ माइरा बोली।

‘‘ऐसा सोचा तुमने?’’ सिलास ने पूछा।

‘‘हूं… तुम्हारा बयान कैसा है, कुछ लिखकर लाये हो?’’

‘‘नहीं, पर मैं काम चला लूंगा। चंद शब्द बोलूंगा, सब ठीक रहेगा। तुम आयी, मुझे खुशी हो रही है।’’

उन्होंने एक-दूसरे की बांह में बांह डाली। अब बारिश नहीं हो रही थी। परन्तु ठंड थी और हवा तेज चल रही थी। आकाश मटमैले-से बादलों से ढंका था। अगल-बगल के लॉनों और उनके बीच के रास्तों में बिछी हुई थी सड़ और गल चुकी पत्तियां, घास की गीली गलीचानुमा क्यारियों पर नाचती, झूमती ताजा पत्तियां। वे ह्निट्टियर हाल के पास खड़े थे परन्तु पूरे कैम्पस में दूर-दूर तक जहां तक नजर दौड़ सकती थी, वे यूनियन प्लाजा में खड़े गृहयुद्ध के स्मारक के चारों ओर छात्रों के झुंड एकत्र होते देख सकते थे। परन्तु उनके अलावा भी सैकड़ों अन्य छात्र थे, जो कैम्पस में आड़ी-तिरछी कतारों में चल रहे थे। उनके चेहरों पर बेफिक्री साफ नजर आ रही थी। तब सिलास ने महसूस किया कि उसकी जिन्दगी में इतनी गहरी घटनाओं ने इसी जगह दूसरे बहुत-से लोगों को अछूता, उदासीन छोड़ दिया है। क्या सर्वत्र, पूरे देश में ऐसा ही हो रहा है; क्या हरेक अपने-अपने क्षुद्र संतापों में अकेले खड़ा है?

‘‘वे यह नहीं समझ पा रहे हैं और उन्हें इसकी परवाह नहीं है कि खतरे की यह घंटी किसके लिए बज रही है,’’ सिलास मन ही मन सोच रहा था। फिर उसे याद आया कि चन्द हफ्ते पहले वह भी तो उनकी ही तरह कोई परवाह नहीं किया करता था। ‘‘तुम अपनी ढपली बजाओ, मैं अपनी।’’

माइरा ने उसके चेहरे पर विषाद की छाया देखी और उसे सदमा-सा लगा।

‘‘सिलास!’’

‘‘कुछ नहीं, कुछ नहीं,’’ सिलास बोला और वह मुस्कराया, जिसमें कोई बनावटीपन नहीं था। एक वक्त था, जब कोई मनोभाव एक लम्बे अर्से तक, स्थायी रूप से, समतल ढंग से उसके दिलो-दिमाग पर छाया रहता था। लेकिन इधर उसे कई चीजों ने झकझोर दिया और नतीजतन एक तरह का मनोभाव पैदा होता और गायब हो जाता, उसका स्थान दूसरा मनोभाव ले लेता।

‘‘कैसा महसूस कर रहे हो?’’ माइरा ने पूछा।

‘‘तुम जानती हो, क्या महसूस कर रहा हूं-ऐसा महसूस कर रहा हूं मानो हम दोनों अभी-अभी मिले हैं और मैं तुमसे प्यार करता हूं और मुझे डर लगता है कि इस प्यार का प्रतिदान नहीं कर पाऊंगा। ऐसा महसूस कर रहा हूं।’’

‘‘यह तो सबसे ज्यादा मनमोहक बात है, जो तुमने एक लम्बे, बहुत लम्बे अर्से के बाद मुझसे कही है, सिलास’’ माइरा बोली, फिर भी वह चिन्ताभरी दृष्टि से देख रही थी। ‘‘कल रात जो हुआ, उसके लिए मुझे अफसोस है। मेरे बारे में चिन्ता मत करो, सिलास। क्या तुम यह नहीं समझते कि मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोडूंगी? मैं तुम्हारे साथ-साथ रहूंगी।’’ वे बांह में बांह डाले कैम्पस में आगे बढ़ते रहे, हवा अधिकाधिक ठंडी होती जा रही थी, अधिकाधिक उग्र रूप धारण करती जा रही थी। ‘‘यह तो मीटिंग के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। ठीक कहा मैंने,’’ माइरा ने पूछा।

‘‘पता नहीं,’’ सिलास ने जवाब दिया और सच्ची बात तो यह है कि ऐसी चीजों के बारे में वह बहुत कम या बिलकुल ही नहीं जानता था। उसे तो यह भी पता नहीं था कि खुले आकाश के नीचे विरोध-सभा से क्या अपेक्षा की जा सकती है – फिर भी एक दुनिया ऐसी थी, जहां कुछ भी आसानी से, नरमी से हासिल नहीं होती, जहां हर चीज के लिए लड़ना पड़ता है, जहां बार-बार लोगों के कंधा से कंधा मिलाना पड़ता है, क्योंकि उनके पास अपनी तादाद, अपने सैकड़ों नंगे हाथों, एक साथ रोष भरा स्वर बुलन्द करने के अलावा और कोई ताकत नहीं है। ज्यों-ज्यों वे प्रदर्शन के लिए जमा हो रहे छात्रों की भीड़ और फैकल्टी की सभा-स्थली के समीप पहुंच रहे थे, माइरा का दिल अप्रत्याशित ढंग से बल्लियों ऊपर उछल पड़ा; आकाश और हवा का अनियंत्रित बीहड़ फैलाव मानो उसके कदम से कदम मिलाना चाहता हो, यौवन, शक्ति और गर्व की भावना उसके मन में हिलोरें ले रही थी, उसमें एक विचित्र प्रकार का उल्लास पैदा कर रही थी, इस कारण उसने अपनी बाहों से सिलास की कमर को कस कर घेर लिया, अपने शरीर को उसके शरीर से सटाते हुए चलने लगी। उधर सिलास का दिमाग विचरण कर रहा था पीछे छूट चुकी अपनी जवानी के दिनों की यादों के गलियारे में: छोटा-सा, मौसम की बुरी तरह थपेड़ें खाया हुआ जर्जर मकान; यहां से पिता पैदल आरा मिल में काम करने जाया करते थे; उसके बाद दूसरी मिल में, फिर उसके बंद होने पर तीसरी मिल, रिहायश के लिए एक के बाद दूसरा घर; वृक्ष कटने के कारण नंगी पड़ी धरती; इस पर चलता पिता, थकी-मांदी कमर झुकी हुई, काम के बोझ से टूटी हुई कमर, जिसके पास अपने बेटे के अलावा, जो हाथों के श्रम के नहीं वरन अपने ज्ञान की सम्पदा के बल जीविका चलायेगा, और कोई गर्व योग्य वस्तु या सम्पदा नहीं थी।

जब सिलास गृहयुद्ध के स्मारक के नीचे चौड़े प्रस्तर से बने चबूतरे पर बोलने के लिए खड़ा हुआ, तो उसके पीछे खड़ी थी एक पत्थर की मूर्ति, उस व्यक्ति की मूर्तिं, जिसके चेहरे पर दाढ़ी थी, करुणामय, बहुत ऊंची, कृत्रिमता से मुक्त, बाजू एक घायल लड़के को सहारा दिये हुए-कितने अचरज की बात है कि यह दृश्य याद दिला रहा था कि वे लड़ाइयां लड़ी थीं लड़कों ने। बोलने के लिए खड़े सिलास को पता था कि उसे क्या कहना है, हालांकि सिर्फ चन्द क्षण पहले उसके सचेतन मन को भी इसका पता नहीं था। वह खड़ा था माइक्रोफोन के सामने, मुंह उठाये हुए लगभग एक हजार व्यक्तियों पर नजर दौड़ाता हुआ। शुरू-शुरू में वह बहुत घबराया हुआ था, हाथ जेबों के अंदर थे, हथेलियां पसीने से गीली थीं, कालर तक गीला हो गया लगता था। पर तब घबराहट मिट गयी और वह अब बिलकुल स्थिरचित्त हो गया था। उसे देखते और सुनते हुए माइरा और दूसरे बहुत-से लोगों के लिए यह प्रत्यक्ष था कि विशाल, पुरानी प्रस्तरीय मूर्तिं के मानों चौखट के बीच खड़ी ऊंचे कद की, सौम्य मुखाकृति वाली, प्रचण्ड आकाश के नीचे हवा के झोंकों के बीच खड़ी यह सचमुच रोमांचकारी, अविस्मरणीय आकृति थी। वह तर्क और विवेक के दम तोड़ रहे इस युग में खुद तर्क और विवेक का जीता-जागता प्रतीक थी। परन्तु जहां तक स्वयं सिलास का सवाल था, उसका मन एक-दूसरे से टकराते और गड्डमड्ड होते विचारों के समाधान की अपनी ही तलाश पर केन्द्रित था। और इस तरह वह जब बोल रहा था, तो उसने अतीत को आत्म-दाह करने दिया, हालांकि उसे इस बात का आभास था कि भविष्य बहुत ही संदिग्ध है। अभी तक उसका कोई रूप तक नहीं बना है। वह बहुत धीमी गति से, शान्त भाव से बोल रहा था, पर जिस ढंग से छात्रों के हाथों से तैयार ध्वनि-प्रसारक यंत्र उसकी आवाज को प्रक्षेपित कर रहा था, उस पर उसे एक तरह अचरज हो रहा था, खुशी हो रही थी। और ज्यों-ज्यों वह बोलता चला गया, उसकी आवाज अधिक तीक्ष्ण, अधिक कठोर होती गयी। पर उसने शुरू-शुरू में बड़े शान्त भाव से कहा:

‘‘आज तक मैं काफी अकेलापन महसूस कर रहा था। आसपास चंद दोस्त जरूर हुआ करते थे, पर वे इतने नहीं थे कि मुझे अकेलापन महसूस करने से रोक पाते। अब मैं आगे से अकेला नहीं रहूंगा। मुझे नहीं मालूम कि इस शर्मनाक काण्ड का अन्त कैसे होगा। फिर भी अगर कैम्पस में आगे चलकर आज जितनी बड़ी, दिल में जोश पैदा करने वाली ऐसी मीटिंग न भी हो, तब भी मुझे हमेशा याद रहेगा कि हमारे सैकड़ों छात्रों के पास अपनी-अपनी भावनाएं मुखरित करने के लिए आवाज और अनुभव करने के लिए हृदय हैं।

‘‘पिछली रात मैं सोच रहा था कि मैं अपने दोस्त प्रोफेसर एम्सटर्डम के बारे में बोलूंगा। उनका स्थान मेरे हृदय में है, मैं उन्हें प्यार करता हूं, उनका सम्मान करता हूं। परन्तु उनकी पैरवी करना मेरे लिए अशोभनीय होता। उन्हें इसकी जरूरत भी नहीं है कि कोई उनकी पैरवी करे, इज्जतदार आदमियों को किसी से चरित्र-प्रमाणपत्र की कभी आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके बजाय मैं उस कार्रवाई की तह में मौजूद चीज के बारे में बोलना चाहता हूं, जो उनके खिलाफ की गयी है। मैं बोलना चाहता हूं देश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैल रहे भय और आतंक के संज्ञाहीन बनाने वाले बादलों के बारे में।

‘‘यह अजीब-सी स्वेच्छाचारिता है, बेशक स्वेच्छाचारिता है। हममें से अधिकांश मानने को तैयार नहीं होंगे कि यह स्वेच्छाचारिता है और इस तरह उन्हें उसका सामना नहीं करना पड़ेगा। यह ऐसी स्वेच्छाचारिता है, जिसके साथ जीना आसान है, क्योंकि वह एक ही कीमत मांगती है – आत्मसम्मान और विवेक को दूसरों के चरणों में समर्पित कर देना और ऐसा लग रहा है कि हम तेजी से उस जगह पहुंच रहे हैं, जहां विवेक के प्रति केवल घृणा-तिरस्कार का भाव होगा और आत्म-गौरव के बारे में बाबा आदम के जमाने की समझ होगी। यह मैं विनम्र स्वर से कह रहा हूं, क्योंकि चंद हफ्ते पहले तक मैं उन लोगों में से था, जो कठोरतापूर्वक इस बात से इंकार करते थे कि इस देश में स्वेच्छाचारिता विद्यमान है, कि मैं भी अपनी उसी शिक्षा की प्रक्रिया का अंग हूं, जिसे आप सब, सच तो यह है कि पूरी दुनिया अब तक जान गयी है और जो हमारे लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है।

‘‘अब फैकल्टी के एक पुराने, श्रद्धास्पद सदस्य को मुअत्तल कर दिया गया है। मुझे पता है कि मानवजाति मनुष्यों के प्रति क्रूरता बरतने के साधन ईजाद करने में अत्यन्त प्रवीण है। इसलिए किसी अध्यापक की सार्वजनिक तौर पर बर्खास्तगी और अपमान ऐसे सबसे कुत्सित दंड नहीं हैं, जिन्हें मनुष्य को भुगतना पड़ सकता है। पर जरा सोचिये तो, इसका अर्थ क्या है? यह तो मनुष्य के शरीर के उस भाग की मृत्यु है, जो उसका सर्वोत्तम अंग है, शायद वह अंग है, जिसे वह दूसरों को सौंप सकता है, ताकि उसके जीवन का कुछ अर्थ हो, उपयोग हो। और यह सोचना निस्संदेह भोलापन है कि इस तरह से उस मुअत्तिल अध्यापक को, जिसके सिर पर तथाकथित राजनीतिक-नैतिक बादल मंडराता रहे, किसी दूसरे स्कूल में आसानी से जगह मिल जायेगी। नहीं मिल सकती। तब वह विदा हो सकता है, यह दिखावा कर सकता है कि वह अपने संस्मरण लिख रहा है, होरेस की कृतियों का नये सिरे से अनुवाद कर रहा है। वह यह तब ही कर सकता है, जब आर्थिक दृष्टि से उसकी स्थिति मजबूत हो। और अगर ऐसा नहीं है – और सवाल उठता है कि किसी अध्यापक के पास क्या दौलत-सम्पत्ति है – तो वह नौकरी की तलाश में चक्कर काटते हुए अपने जूते के तले घिस सकता है, इस उम्मीद में कि कोई उसे अपने यहां रख लेगा।

‘‘यह मैं किसी प्राचीन ज्ञान को पेश नहीं कर रहा हूं। यह तो मैंने संतापभरे दो हफ्तों में सीखा, परन्तु ऐसे आधार पर टिक कर सीखा, जो अस्तित्वमान था और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि वह अमरीका में हर अध्यापक के लिए विद्यमान है। हम भय के बीच जी रहे हैं, भय के बीच काम कर रहे हैं और हममें से अधिकांश जोर से चीखते हैं और भी ज्यादा जोर से चीखते हैं कि हम डरते नहीं हैं। यह जो हमारा शक्तिशाली कवच है, दरअसल कागजी कवच है, और कुछ नहीं। यह सब हम हिटलर के जर्मनी में देख चुके हैं।’’

किसी ने उसे यहां टोका। इस मौके पर कोई जोरों से, कर्कशपूर्ण परन्तु बिल्कुल साफ-साफ ढंग से चिल्लाया: ‘‘और सोवियत रूस में?’’

सिलास रुक गया, उसके विचारों की श्रृंखला टूट गयी, उसका शरीर एकाएक ऐसा सख्त हो गया लगता था, मानो उसे पक्षाघात हो गया हो; शरीर का तनाव फिर धीरे-धीरे परन्तु पीड़ादायी ढंग से ढीला होना शुरू हुआ। वह जो कुछ बाकी बोलना चाहता था, उसके मस्तिष्क से लुप्त हो गया और कहने के लिए बस ये चंद शब्द ही बाकी रहेः ‘‘मैं सोवियत रूस के बारे में कुछ नहीं जानता। और अमरीका के बारे में तो बहुत ही कम जानता हूं, बहुत ही क्षुद्र मात्र में जानता हूं।’’

माइरा ने उसे बताया कि उसका वक्तृत्व अच्छा रहा, बहुत अच्छा रहा-दो टूक ढंग का, सुस्पष्ट, बिल्कुल मुद्दे की बात और साफगोई, जैसा कि उत्कृष्ट भाषणों के मामले में होता है। पर वह अपने मन पर पड़ी यह पक्की छाप नहीं मिटा सका कि वह नाकामयाब रहा है। वह बहुत कम बोला और जितना कुछ बोला, अच्छी तरह नहीं बोल पाया। वह आइक एम्सटर्डम की बहाली की पैरवी नहीं कर सका हालांकि उसका आखिर तो यही करने का इरादा था। और वह एलन मोर्स के बारे में भी एक शब्द नहीं बोल पाया। फिर मानो विचार ने कोई जादू कर दिया हो और मोर्स भीड़ को चीरते हुए उसके पास पहुंच गया। साथ में हार्टमन स्पेंसर और दो अन्य छात्र भी उसके साथ आये।

‘‘मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहता हूं,’’ मोर्स ने खुले भाव पर संजीदे ढंग से सिलास से कहा। ‘‘यह हिम्मत की बात थी।’’ सिलास ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया कि मोर्स का कद कितना छोटा है, चेहरा देखने में कितना मुरझाया हुआ है और उस पर क्लेश की छाप है, मानो चार्ल्स डिकेन्स की पुस्तक से बाहर निकला हो, सिर एक ओर ऐसे झुका हुआ जैसे उसे जोर लगाना पड़ रहा हो। हूबहू क्रुइकशांक (क्रुइकशांक: शुरुआती पूंजीवाद के बर्बर शोषण को दर्शाने वाले चार्ल्स डिकेंस के उपन्यासों का चित्रंकन करने वाले अंग्रेज चित्रकार) की चित्रमाला के पात्र की तरह। वह आकर्षक नहीं था, उसके बारे में दो बार सोचना पड़ता, तब कहीं यह नजर आता कि उसकी आंखों में आग की कैसी लपटें हैं, उसके शरीर में कितनी उत्कण्ठा और तनाव है। उसके बाद तो उसे पसन्द किये बिना, उसका प्रशंसक हुए बिना नहीं रहा जा सकता था। पहले लेनोक्स और फिर मोर्स-तब सिलास के दिमाग में यह विचार उठा कि क्लेमिंग्टन में इतने साल गुजारने पर भी उसने छात्रों को आज से पहले कभी नहीं पहचाना था, कम से कम इस तरह तो नहीं, कि दो मनुष्य बिल्कुल रू-ब-रू, उनके बीच कोई मंच नहीं। वह मोर्स को समझाने लगा कि उसने ‘फलक्रम’ से उसके हटाये जाने के बारे में कुछ क्यों नहीं कहा। मोर्स ने सिर हिलाया।

‘‘बात वह नहीं है, सर। आपने जो कहा, वह बिल्कुल कांटे की बात थी। मुझे तो कोई खतरा नहीं है, पर आपको है, सर।’’

दायित्वबोध, वर्ष 7, अंक 3, जनवरी-मार्च 2001

आपातकाल के कुछ अनुत्तरित यक्ष-प्रश्न और हमारा समय

आपातकाल के कुछ अनुत्तरित यक्ष-प्रश्न और हमारा समय

  • सम्‍पादक मण्‍डल 

पच्चीस वर्ष पूरे होने के अवसर पर, आपातकाल के काले दिनों को एक बार फिर याद किया गया। अलग-अलग राजनीतिक धाराओं के लोगों ने अलग-अलग आयोजनों में अपने-अपने ढंग से यह काम किया। पूंजीवादी मीडिया में भी काफी कुछ छपा। क्रान्तिकारी वामपंथी संगठनों और जन संगठनों ने भी इस अवसर पर कुछ सभाएं-गोष्ठियां, जुलूस-प्रदर्शन आयोजित किये और आपातकाल के अनुभवों से सीखकर हिन्दू कट्टरपंथी शक्तियों के वर्तमान फासीवादी उभार के कारगर प्रतिरोध की नीति-रणनीति तैयार करने पर बल दिया।

कट्टरपंथी हिन्दुत्व की फासीवादी लहर पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचने वाली भाजपा ने भी आपातकाल को याद करते हुए यह घोषणा की कि वह तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के अत्याचारों का सिलसिलेवार पर्दाफाश करेगी। रंग पोतकर शहीद बनने वाले संघियों को यह याद दिलाया जाना चाहिए कि उनमें से कितने लोग आपातकाल के दौरान माफीनामा लिखकर जेलों से बाहर आये थे और किस तरह तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने जेल से रिहाई और आर.एस.एस. से प्रतिबंध हटाने की शर्त पर बीस-सूत्री कार्यक्रम को समर्थन देने के लिए श्रीमती गांधी को संदेश भिजवाया था। और यह भी कि आपातकाल के कई चर्चित चेहरे, जैसे कि मेनका गांधी, ममता बनर्जी, जगमोहन आदि आज सत्ता में भाजपा के पार्टनर हैं। वैसे यह सवाल तो जार्ज फर्नाण्डीस से भी पूछा जा सकता है और एक दूसरे स्तर पर वी.पी. सिंह से भी। आज वी.पी. सिंह दिल्ली के झुग्गी-झोंपड़ी वासियों के मसीहा बने फिर रहे हैं, पर इसी जगमोहन की रहनुमाई में आपातकाल के दौरान जब जामा मस्जिद क्षेत्र के गरीबों पर बुलडोजर चला था, तब वे एक निहायत वफादार कांग्रेसी थे और आपरेशन ब्लू स्टार के समय भी वे कांग्रेस में ही थे। बहरहाल, यह चर्चा बेमानी है क्योंकि बुर्जुआ राजनीति का कोई भी पैंतरापलट या कायाकल्प आज किसी को चौंकाता नहीं।

जिन सर्वोदयियों-गांधीवादियों-समाजवादियों और बुर्जुआ दलों ने तथा जिन चुनावी वामपंथियों ने (भाकपा को छोड़कर, जो आपातकाल का समर्थन कर रही थी) आपातकाल का विरोध किया था, उनकी राजनीति का चरित्र आज साफ हो चुका है। मौजूदा दौर में फासीवादी उभार ने जो नई चुनौती पेश की है, उसके रस्मी और दन्त-नखहीन विरोध से आगे इनमें से कोई नहीं जाने वाला। फासीवादी शक्तियों के विरुद्ध सांस्कृतिक-वैचारिक मोर्चे की महत्ता निर्विवाद है और बुर्जुआ संसदीय राजनीति के प्लेटफार्मों के रणकौशलात्मक (टैक्टिकल) इस्तेमाल से या मध्यमार्गी, सुधारवादी निम्न-बुर्जुआ शक्तियों के साथ मोर्चा बनाने की जरूरत से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन सबसे बुनियादी बात यह है कि व्यापक मेहनतकश आबादी को गोलबन्द किये बगैर फासीवाद की नई चुनौतियों का कारगर जवाब नहीं दिया जा सकता। जनता के राजनीतिक संघर्षों को तिलांजलि देकर संसद में बैठा हुआ और राज्यों में सरकार चलाने वाला परम्परागत संसदीय वाम तो आज मजदूरों के आर्थिक हितों और न्यूनतम अधिकारों की भी हिफाजत नहीं कर पा रहा है। फिर उससे रस्मी कवायदों से अधिक कुछ की उम्मीद करना वैसे भी बेकार है। इस मायने में अपेक्षाएं और उम्मीदें, फिर भी, गतिरोध और बिखराव की तमाम दुरवस्था के बावजूद, क्रान्तिकारी वाम की शक्तियों से ही की जा सकती हैं, और उन्हीं से की भी जानी चाहिए।

इस सन्दर्भ में, आज की स्थितियों की जमीन पर खड़े होकर, पश्चदृष्टि से आपातकाल को देखना और समाहार करना तथा आने वाले समय के लिए जरूरी सबक निकालना क्रान्तिकारी वाम धारा के लिए बहुत जरूरी है।

साथ ही, आपातकाल के ऐतिहासिक मूल्यांकन का सवाल पूरे भारतीय पूंजीवादी जनतंत्र के चरित्र और विकास-प्रक्रिया से जुड़ा है, जिसकी एक सुसंगत समझ हासिल किये बिना हिन्दू कट्टरपंथी फासीवादी उभार की परिघटना को भी सही ढंग से नहीं समझा जा सकता।

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आपातकाल समकालीन भारतीय इतिहास की कोई अप्रत्याशित या अनपेक्षित घटना या परिघटना कदापि नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि इसके कारण इन्दिरा गांधी के व्यक्तित्व में या कांग्रेस के शासन में निहित थे। इन्दिरा गांधी के चुनाव को उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित कर दिये जाने या जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहे देशव्यापी आन्दोलन जैसी कुछ महत्वपूर्ण तात्कालिक घटनाओं में ही इसका कारण खोजना भी बेमानी होगा। इस घटना को भारतीय पूंजीवादी जनवाद की विकास-प्रक्रिया की एक कड़ी या मुकाम के रूप में देख-समझकर ही सही नतीजों तक पहुंचा जा सकता है और जरूरी सबक हासिल किये जा सकते हैं।

साठ के दशक के उत्तरार्द्ध से ही भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था का जो संकट गहराता जा रहा था, वह 1974.75 तक विस्फोटक रूप ले चुका था। व्यापक जन असंतोष उभारों-आन्दोलनों के रूप में लगातार यहां-वहां फूटते हुए 1974 तक देशव्यापी बन चुका था। संकट ने शासक वर्गों के बीच के अन्तरविरोधों-टकरावों को भी तीखा कर दिया था। तत्कालीन सत्तारूढ़ पार्टी ने इन्हीं संकटों से निजात पाने के लिए, संविधान के ही प्रावधान का इस्तेमाल करते हुए जून, 1975 में आन्तरिक आपातकाल लागू कर दिया। जनता के अति सीमित जनवादी अधिकार भी छीन लिये गये और निरंकुश स्वेच्छाचारी दमनतंत्र स्थापित कर दिया गया जो उन्नीस महीनों तक जारी रहा।

आपातकाल का आतंक-राज्य खुले तौर पर और अचानक कायम किया गया था। जनता के जीने के बुनियादी अधिकार तक को घोषित तौर पर स्थगित कर दिया गया था। आज यह काम, अघोषित तौर पर, किश्तों में और शातिराने ढंग से किया जा रहा है। भाजपा-गठबंधन के सत्तासीन होने के एक दशक पहले से ही यह प्रक्रिया जारी रही है। आडवाणी की रथयात्रा के समय से लेकर अबतक, हिन्दू कट्टरपंथ की संघ परिवार-प्रणीत फासीवादी लहर ने व्यापक आम जनता पर जो कहर बरपा किया है, वह आपातकालीन सर्वसत्तावादी शासन के दमन-चक्र से किसी मायने में कमतर नहीं ठहराया जा सकता। फासीवादी उभार के वर्तमान दौर की दो बातें अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। पहली यह कि भाजपा गठबंधन सत्ता में रहे या न रहे, भारतीय समाज के सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में संघ परिवार और इस तरह की अन्य फासीवादी शक्तियों की मौजूदगी बनी रहेगी, क्योंकि उदारीकरण-निजीकरण के मौजूदा जारी दौर के स्वाभाविक परिणाम के रूप में संभावित मेहनतकश अवाम की प्रतिरोधात्मक एकता को तोड़ने के लिए आज बड़े पूंजीपति वर्ग का बहुलांश और साम्राज्यवादी शक्तियां ‘‘नियंत्रित’’ फासीवाद की लगातार मौजूदगी की पक्षधर हैं। वे उसे जंजीर से बंधे शिकारी कुत्ते की तरह मजदूर वर्ग और व्यापक जनता के खिलाफ लगातार तैनात रखना चाहती हैं।

दूसरी बात, जो और अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह कि राष्ट्रीय आन्दोलन और स्वातंत्रयोत्तर काल में (विकलांग और बाधित ही सही) पूंजीवादी विकास के लगभग ढाई-तीन दशकों की सापेक्षिक गतिशीलता और फिर ठहराव के एक अन्तराल के बाद पिछले दशक में भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था के ढांचागत संकट का एक नया दौर शुरू हो चुका है। कहना नहीं होगा कि यह संकट विश्व-पूंजीवाद के मौजूदा अभूतपूर्व ढांचागत संकट का ही एक अंग और प्रतिफल है। भूमण्डलीकरण की नीतियां विश्व-पूंजीवाद के संकट का ज्यादा से ज्यादा बोझ गरीब देशों में स्थानान्तरित कर रही हैं। आर्थिक तौर पर, भारत जैसे इन देशों में पूंजीवादीकरण की प्रक्रिया आज भी जारी है, पर देशी-विदेशी पूंजी की ‘‘अतिलाभ’’ निचोड़ने की हवस और परजीवी वित्तीय पूंजी के निर्णायक, सम्पूर्ण वर्चस्व ने इन देशों की पूरी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक अधिरचना के फासिस्टीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी है। भारतीय पूंजीवाद का सर्वग्रासी संकट आज इस स्थिति में पहुंच चुका है कि इसके दबाव से भारतीय पूंजीवादी जनवाद के सीमान्तों की बाड़ेबन्दी चरमरा रही है, पूंजीवादी राज्यसत्ता अत्यन्त व्यवस्थित ढंग से, विश्व पूंजी के बौद्धिक चाकरों और देशी पूंजीवादी सिद्धान्तकारों की देखरेख में सर्वसत्तावादी चरित्र अपनाती जा रही है तथा संविधान और बुर्जुआ जनवाद की अन्य संस्थाएं महज खोखल में तब्दील होती जा रही हैं। आधी सदी की उम्र पार करके भारत का (जन्मना रुग्ण और विकलांग) बुर्जुआ जनवाद क्षरित-स्खलित होकर बुर्जुआ सर्वसत्तावाद के एक नये दौर में प्रविष्ट हो रहा है। यह पूरे शासक वर्ग की विवशता है। यही उसके सामने एकमात्र विकल्प है। उसने अपनी आवश्यकता और बाध्यता के रूप में निर्बंध बाजारीकरण का जो मार्ग चुना है, उसके लिए एक निरंकुश सत्ता-तंत्र अनिवार्य होगा। और यह स्वाभाविक ही है कि इसके गठन और ‘ट्रायल’ की जिम्मेदारी आज मुख्यतः भाजपा के कंधों पर है, जो क्लासिकी अर्थों में फासिस्ट संगठन आर.एस.एस. की संसदीय राजनीतिक शाखा है और जो भारतीय राजनीति में गत आधी सदी से (पहले जनसंघ के रूप में) सक्रिय उपस्थिति बनाये हुए है। धार्मिक कट्टरपंथी उभार का, पूरी दुनिया, और हमारे देश के स्तर पर आर्थिक कट्टरपंथ के उभार से बुनियादी रिश्ता है। भारत में हिन्दुत्ववादी धार्मिक कट्टरपंथ हमेशा आर्थिक कट्टरपंथ के लिए उपयोगी भूमिका निभाये या न निभाये, आज वह इसके लिए उपयुक्त राजनीतिक ढांचा खड़ा करने तथा सामाजिक आधार तैयार करने में अहम भूमिका निभा रहा है। कल यदि भाजपा शासन में न भी रहे, तो भी राज्यतंत्र के व्यवस्थित फासिस्टीकरण की प्रक्रिया रुकने वाली नहीं है। शासन चाहे बुर्जुआ वर्ग की किसी भी पार्टी या गठबंधन के हाथों में हो, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों पर अमल जारी रहेगा और इसके लिए सत्तातंत्र का ज्यादा से ज्यादा निरंकुश सर्वसत्तावादी होते जाना भी अनिवार्य होगा। इसलिए, हमारी यह स्पष्ट मान्यता है कि भले ही क्लासिकी अर्थों में फासिस्ट चरित्र वाली अग्रणी और प्रतिनिधि पार्टी भाजपा है, लेकिन आने वाले दिनों में फासिस्ट निरंकुशशाही का खतरा हर उस बुर्जुआ पार्टी की ओर से हो सकता है, जिसे सत्तासीन होने का अवसर प्राप्त हो।

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आज पीछे मुड़कर देखने पर यह लगता है कि भारत में पूंजीवादी जनवाद के अमल की आधी सदी के दौरान उन्नीस महीने का आपातकाल एक अल्पकालिक विचलन था, जिससे भारतीय शासक वर्ग, यदि अनुभवी होता, या शासन-सूत्र यदि उसके अधिक परिपक्व एवं कुशल प्रतिनिधियों के हाथों में होता, तो बचा भी जा सकता था। उन्नीस महीने बाद संसदीय चुनाव हुए और बुर्जुआ जनवाद बहाल हो गया, इसीलिए कि ऐसा उस समय तक सम्भव था। बुर्जुआ व्यवस्था में इसके लिए अभी गुंजाइश बची हुई थी।

आज समाज में फासीवादी शक्तियां अपने सामाजिक आधार को जिस व्यवस्थित ढंग से मजबूत बना रही हैं ओर जिस व्यवस्थित ढंग से बुर्जुआ राज्यसत्ता का फासिस्टीकरण हो रहा है, उसका कारण यह है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक धरातल पर भारतीय पूंजीवाद आज जिस प्रक्रिया से गुजर रहा है, वह अनुत्क्रमणीय (इर्रिवर्सिबल) है। इसे पलटा नहीं जा सकता। व्यापक जनउभार के खतरों के बावजूद जो ढांचागत संकट भारतीय पूंजीपति वर्ग को निर्बाध उदारीकरण-निजीकरण की नीतियां अपनाने के लिए विवश कर रहा है, वही पूंजीवादी जनवाद के विरूपण-क्षरण-विघटन का भी बुनियादी कारण है।

विश्व-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो पूंजीवादी जनवाद का क्षरण एक भूमण्डलीय प्रवृत्ति या परिघटना प्रतीत होती है जो तीसरी दुनिया के देशों में यदि एकदम स्पष्ट है, तो तमाम जनवादी विभ्रमों, भ्रामक प्रतीतियों और बहुतेरी बुर्जुआ जनवादी संस्थाओं की मौजूदगी के बावजूद विकसित पूंजीवादी देशों में भी व्यापक और सूक्ष्म धरातल पर इसकी शिनाख्त की जा सकती है। निस्सन्देह, इसका सम्बन्ध विश्व पूंजीवाद के ढांचागत संकट से है। साथ ही, विश्व-स्तर पर परजीवी, अनुत्पादक वित्तीय पूंजी का वर्चस्व और विशेषकर सट्टा पूंजी का प्रसार आज जिस रूप में सामने आया है, वह सर्वसत्तावादी, निरंकुश, फासिस्ट प्रवृत्तियों के फलने-फूलने के लिए अनुकूल उपजाऊ जमीन का काम कर रहा है।

विश्व-पूंजीवाद के मौजूदा ढांचागत संकट के विगत लगभग चौथाई दशक से जारी लम्बे दौर को पूंजीवादी जनवाद के क्षरण-विघटन की प्रक्रिया के साथ जोड़कर देखने पर, यह स्पष्ट हो जाता है कि पूंजीवाद-विरोधी नई, फैसलाकुन क्रान्तियों की वस्तुगत जमीन नई सदी में तेजी से तैयार हो रही है। मानवता के सामने सिर्फ दो ही भविष्य हैं – या तो समाजवाद या फिर बर्बरता-रोजा लक्जेमबुर्ग की यह उक्ति आज नये निहितार्थों के साथ उद्घाटित हो रही है और नये सन्दर्भों से सम्पुष्ट हो रही है।

बहरहाल, भारतीय सन्दर्भों की ओर वापस लौटें। भारतीय संसदीय जनवाद आज पराभव की जिस प्रक्रिया से गुजर रहा है, उसे आम नागरिक भी लगभग अनुत्क्रमणीय मानते हैं। आजादी के पच्चीस-तीस वर्षों बाद तक, लगभग आपातकाल के जमाने तक, बुर्जुआ राष्ट्रवाद और जनवाद की ऐतिहासिक कथा को एक आम भारतीय नागरिक खण्डित नायकत्व और पराभूत गौरव की त्रासद गाथा के रूप में देखता था। पर आज उसे यह घृणित पतनशीलता की काली किताब से अधिक कुछ नहीं लगता। तब जयप्रकाश नारायण और उनकी ‘‘सम्पूर्ण क्रान्ति’’ के बैनर तले किसिम-किसिम के गैर कांग्रेसी दलों-धड़ों की एकजुटता, चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही, गांधीवादी यूटोपिया के अमल में आने या पचास के दशक के नेहरू काल की गतिशीलता की वापसी की भ्रामक आशाएं जगा सकती थी। आज यह कोई सोच भी नहीं सकता। मौजूदा ढांचे से आम जनता में जो नाउम्मीदी पैदा हुई है, उसी में भविष्य के लिए नई उम्मीदें छिपी हुई हैं।

आपातकाल लागू करने के प्रश्न पर 1975 में शासक वर्गों के बीच, उनके राजनीतिक दलों के बीच या उनके सिद्धान्तकारों-सलाहकारों के बीच-किसी भी धरातल पर, आम सहमति नहीं थी। 1947 से ही भारतीय पूंजीपति वर्ग की जो पार्टी केन्द्र में सत्तारूढ़ थी, उसके सामने चौतरफा संकट इस विस्फोटक रूप में पहली बार सामने आया था। यह करीब एक दशक पुराना आर्थिक संकट था जो ‘‘हरित क्रान्ति’’ नामधारी कृषि के पूंजीवादी विकास के उपक्रमों, बैंकों के राष्ट्रीकरण के ‘‘समाजवादी’’ फैसले द्वारा राजकीय इजारेदार पूंजीवाद को मजबूत बनाने और ‘‘गरीबी हटाओ’’ जैसे लोकरंजक नारे के बावजूद, एक राजनीतिक संकट में रूपान्तरित हो गया। एक स्पष्ट बहुमत वाली सरकार के विरुद्ध व्यापक जनअसंतोष का यह अपने ढंग का पहला देशव्यापी विस्फोट था जिसने तत्कालीन सरकार को हिला दिया। श्रीमती गांधी और सत्तारूढ़ कांग्रेस का बड़ा हिस्सा इसे आम तौर पर संसदीय जनतंत्र के लिए, और खास तौर पर कांग्रेस के शासन एवं श्रीमती गांधी के नेतृत्व के लिए एक खतरे के रूप में देख रहा था जबकि जयप्रकाश नारायण और अन्य घुटे हुए बुर्जुआ राजनीतिज्ञ इसे पूरी व्यवस्था के लिए एक चेतावनी एवं चुनौती के रूप में देख रहे थे और इसके समाधान के तौर पर भारतीय पूंजीवादी जनवाद के पुनःसंस्कार की योजनाएं प्रस्तुत कर रहे थे। ऐसा जोर-शोर से करते हुए वे व्यापक जनान्दोलन की पहलकदमी और नेतृत्व अपने हाथों में केन्द्रित कर रहे थे और क्रान्तिकारी सम्भावनाओं को कुशलतापूर्वक विघटित करने का काम कर रहे थे। इसी तनाव की परिणति आपातकाल के रूप में सामने आई जिसने भारतीय राज्यसत्ता, भारतीय संविधान और भारतीय पूंजीवादी जनवाद के चरित्र और सीमाओं को एकबारगी उजागर कर दिया।

क्रान्तिकारी शक्तियों को जरूरी शिक्षा और सोचने की नई दिशा देने के साथ ही, आपातकाल ने शासकवर्ग को भी शासन चलाने की जरूरी शिक्षाओं से लैस किया। आपातकाल बुनियादी तौर पर व्यवस्था के आर्थिक-राजनीतिक संकट की उपज था, पर अनुभव ने भारतीय पूंजीपति वर्ग को सिखाया कि पूंजीवादी जनवाद का स्थगन ही उस संकट से निपटने का एकमात्र रास्ता नहीं था। पूंजीवादी संसदीय राजनीति के खेल में कभी-कभी ऐसे विचलन यूं भी आते रहते हैं जब सबकुछ वैसे नहीं चलता जैसे शासक वर्ग चाहते हैं। ऐसा विशेषकर संकटों के दौर में होता है जब विभिन्न अन्तरविरोधी शक्तियां विभिन्न धरातलों पर परस्पर संघात करने लगती हैं, शासक वर्गों के आपसी अन्तरविरोध और बुर्जुआ नीति-निर्माताओं के मतवैभिन्य उग्र हो जाते हैं तथा कुछ समय के लिए सत्तारूढ़ पार्टी, उसका कोई धड़ा या व्यक्ति वर्ग से स्वतंत्र-स्वायत्त सा आचरण करता प्रतीत होने लगते हैं (जबकि वस्तुतः ऐसा होता नहीं, शासक वर्ग के तीखे अन्दरूनी मतभेदों के चलते सत्तारूढ़ दल की भूमिका कुछ समय के लिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, पर उस समय भी उसके फैसलों के पीछे शासक वर्ग के एक हिस्से की ताकत काम कर रही होती है)।

आपातकाल के इतिहास को आज मूलतः इसी रूप में देखा जा सकता है, हालांकि कुछ अन्य विशिष्ट और गौण कारकों की भूमिका से इन्कार कतई नहीं किया जा सकता।

पिछले दस वर्षों से भी कुछ अधिक समय के दौरान जो देशव्यापी फासीवादी उभार हिन्दूवादी कट्टरपंथ के रूप में सामने आया है, उसकी चुनौतियां आपातकाल से अधिक खतरनाक हैं। यह शासक वर्ग या उसकी सत्तारूढ़ पार्टी के सामने सहसा आ खड़े हुए किसी राजनीतिक संकट या आर्थिक संकट के किसी सुनिश्चित चक्र के भंवर से निपटने के लिए अपनाया गया फौरी समाधान नहीं है। आपातकाल में इन्दिरा गांधी के सामने फिर भी यह सवाल था (और इसके लिए शासक वर्ग का दबाव भी था) कि आपातकाल को ज्यादा से ज्यादा ‘‘विधिसम्मत’’ और ‘‘अपरिहार्य’’ कैसे सिद्ध किया जाये तथा स्थिति नियंत्रण में आते ही किस प्रकार स्थगित संसदीय चुनाव सम्पन्न कराकर पूंजीवादी जनवाद को फिर से बहाल किया जाये। सबसे बड़ी बात यह थी कि पूंजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा और पूंजीवादी राजनीतिज्ञों का बड़ा हिस्सा ऐसा चाहता था, क्योंकि उसे विश्वास था, और इस विश्वास के पर्याप्त कारण थे, कि भारत में बुर्जुआ अधिनायकत्व अभी (सीमित) बुर्जुआ जनवाद के कार्यकारी-विधायी ढांचे के माध्यम से लागू किया जा सकता था।

आपातकाल लागू करने के लिए भारतीय संविधान में कुख्यात 42वां संशोधन करना पड़ा था, जिसका मतलब वस्तुतः संविधान को ही उठाकर ताक पर रख देना था। आज सत्ता का फासिस्टीकरण एकदम व्यवस्थित ‘‘संविधान सम्मत’’ ढंग से हो रहा है। और फासिस्टीकरण सिर्फ सत्ता का ही नहीं, पूरे सामाजिक ताने-बाने का हो रहा है। सवाल सिर्फ तरह-तरह के नये-पुराने काले कानूनों, जनान्दोलनों के बर्बर दमन, छापों, फर्जी मुठभेड़ों और हिरासत में ‘टार्चर’ आदि के जरिये कायम पुलिस-राज जैसी स्थिति, हड़ताल पर प्रतिबंध, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत की उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की जनता के लिए बर्बर सैनिक शासन जैसी दमनकारी स्थिति और प्रतिवर्ष सैकड़ों की तादाद में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की हत्या तथा हजारों की गिरफ्तारी का ही नहीं है। शिक्षा, संस्कृति, न्याय-व्यवस्था-इन सबका व्यवस्थित ढंग से फासिस्टीकरण किया जा रहा है। चाहे नया श्रम कानून हो या नई शिक्षा नीति, चाहे कृषि नीति हो या आयात-निर्यात नीति-हर मायने में कल्याणकारी राज्य के बुर्जुआ जनवादी ढकोसले को तिलांजलि दी जा चुकी है और सब कुछ बाजार की शक्तियों के निर्द्वन्द्व-निर्बाध आखेट के लिए मुक्त किया जा रहा है, काफी हद तक किया जा चुका है। बाजार-कट्टरपंथ (मार्केट-फण्डामेण्टलिज्म) का यह पुनरुत्थान एक भूमण्डलीय परिघटना है, जो भूमण्डलीय स्तर पर पूंजीवादी जनवाद के क्षरण-स्खलन को सीमान्तों के निकट पहुंचा रहा है और राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक दायरों में धार्मिक कट्टरपंथी, पुनरुत्थानवादी और विविधरूपा फासिस्ट धाराओं-प्रवृत्तियों-रुझानों की नर्सरी का काम कर रहा है। आज फासीवादी उभार का प्रश्न जिस रूप में हमारे सामने है, वह वस्तुतः, विश्व स्तर पर, और भारत में, पूंजीवादी जनवाद के अनिवार्य ऐतिहासिक पराभव का प्रश्न है और उसकी नियति एवं भवितव्य का प्रश्न है। यह प्रश्न आर्थिक नवउपनिवेशवाद के वर्तमान विश्व-ऐतिहासिक दौर की बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं की सुसंगत समझ के साथ जुड़ा हुआ है, जब एक बार फिर पूंजी और श्रम एकदम आमने-सामने खड़े हैं।

इसी परिप्रेक्ष्य में हमारी इस स्थापना को समझा जा सकता है कि प्रश्न भाजपा-गठबंधन के सत्तारूढ़ होने और संघ परिवारी फासिस्ट गुण्डों के सड़कों पर कायम आतंक राज का तो है ही, पर इससे भी अधिक दूरगामी महत्व का प्रश्न यह है कि उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों पर अमल और उसकी विस्फोटक सामाजिक परिणतियों से निपटने के लिए एक फासिस्ट किस्म की राज्यसत्ता जरूरी है और भारतीय राजनीति की क्लासिकी ढंग की फासिस्ट पार्टी के नेतृत्व में यह रूपान्तरण कुशलता और तीव्रता के साथ क्रियान्वित हो रहा है। भाजपा सत्ता में न भी रहे, तो भी राज्यसत्ता के बढ़ते निरंकुशीकरण और सर्वसत्तावादीकरण की प्रक्रिया जारी रहेगी। जिस तरह वर्तमान आर्थिक नीतियां मौजूदा पूंजीवादी दायरे के भीतर अनुत्क्रमणीय (इर्रिवर्सिबल) हैं, उसीतरह राज्यसत्ता के फासिस्टीकरण की प्रक्रिया भी अनुत्क्रमणीय है। और प्रश्न सिर्फ राज्यसत्ता के क्रमिक फासिस्टीकरण का ही नहीं है, हमारे समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने से रहे-सहे जनवादी मूल्यों का भी तेजी से क्षरण हुआ है और तेजी से फले-फूले, बाजार-पूजक, माल-प्रेतपूजा (कमोडिटी फेटिशिज्म) के अन्धानुगामी, चरम परजीवी मध्यवर्ग के विभिन्न संस्तरों में फासीवाद ने अपना सामाजिक आधार तेजी से और बड़े पैमाने पर फैलाया और मजबूत बनाया है। आजादी के बाद के दशकों में जनसंघ जैसी फासिस्ट पार्टी का आधार शहरी व्यापारियों में और स्वतंत्र पार्टी जैसी अनुदारवादी पश्चिमपरस्त पार्टी का आधार परम्परागत अभिजातों-भूस्वामियों और पश्चिमपरस्त कूपमण्डूक बुद्धिजीवियों के बीच था। आज भाजपा का सामाजिक आधार भ्रष्ट नौकरशाहों-टेक्नोक्रैटों, स्वतंत्र पेशा बुद्धिजीवियों के अतिरिक्त औसत दर्जे के आम नौकरीपेशा लोगों में विस्तारित हुआ है और गांवों के कुलकों और नये अमीरों में भी उसने अपनी पैठ बढ़ाई है। सफेदपोश मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा संशोधनवादियों का साथ छोड़कर फासिस्टों की ट्रेड यूनियनों के झण्डे के नीचे जा खड़ा हुआ है और आम मध्यवर्गीय घरों के पीले बीमार चेहरों वाले, बेरोजगारी और सांस्कृतिक रुग्णता की मार झेल रहे नौजवानों का एक बड़ा हिस्सा, जो क्रान्तिकारी प्रचार द्वारा मजदूरों का बगलगीर बनाया जा सकता था, आज फासिस्टों के गिरोहों का सिपाही बन रहा है।

आने वाले दिनों में भाजपा की जगह कोई भी दूसरी पार्टी सत्तारूढ़ होगी तो वर्तमान आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाते हुए वह जन असंतोष के विस्फोटों के विरुद्ध ज्यादा से ज्यादा सर्वसत्तावादी दमनतंत्र को लागू करने के लिए बाध्य होगी। दूसरी बात यह कि, भारतीय राजनीतिक पटल पर, भाजपा जैसी धार्मिक कट्टरपंथ फासिस्ट पार्टी की प्रभावी मौजूदगी आगे भी लगातार बनी रहेगी। इस धारा की इतिहास में और सामाजिक-आर्थिक संरचना में जड़ें हैं और साम्राज्यवाद और देशी पूंजीवाद के लिए आगे भी इसकी उपयोगिता लगातार बनी रहेगी।

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जब हम कहते हैं कि भारत में फासीवाद के मौजूदा उभार का सम्बन्ध मूलतः भारतीय पूंजीवाद के असाध्य ढांचागत आर्थिक संकट से है और भारतीय पूंजीवादी जनवाद के चरित्र और विकास-प्रक्रिया से है, तो इस तर्क का स्वतःविस्तार इस कार्यकारी परिणति में देखा जा सकता है कि मजदूर आन्दोलन के क्रान्तिकारीकरण के बिना और आज की परिस्थितियों की सही समझ के आधार पर एक सशक्त मजदूर-किसान संश्रय के निर्माण के बिना (यानी शहरी सर्वहारा और ग्रामीण सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी के साथ पूंजी की मार से उजड़ते मध्यम किसानों के मध्यम संस्तरों का संयुक्त मोर्चा) फासिस्ट चुनौती का कारगर प्रतिकार कदापि नहीं किया जा सकता।

जहां तक भारतीय मध्य वर्ग, विशेषकर शहरी पढ़े-लिखे, नौकरीपेशा और स्वतंत्र पेशा तबकों का प्रश्न है, फासीवादी उभार के विरुद्ध इसकी सम्भावित भूमिका के आज वस्तुगत पुनर्मूल्यांकन की जरूरत है।

याद करें कि काफी पहले, तीस के दशक में जवाहरलाल नेहरू ने भारत के राष्ट्रवादी मध्यवर्ग, विशेषकर उच्च-मध्यवर्ग में फासीवाद के प्रसार की उर्वर जमीन की मौजूदगी को रेखांकित किया था। भारतीय मध्य वर्ग का राष्ट्रवाद अपने प्रारम्भ से ही पुनर्जागरण-प्रबोधन-प्रसूत जुझारू भौतिकवादी तर्कणा के बजाय औपनिवेशिक संरचना-प्रसूत पुनरुत्थानवाद से अभिप्रेरित था। आगे चलकर, इसका एक रैडिकल हिस्सा मध्यवर्गीय क्रान्तिकारी आन्दोलन और सर्वहारा आन्दोलन से जुड़ा, पर एक बड़ा हिस्सा ‘‘नेहरूवादी समाजवादी’’ नारों के व्यामोह में जकड़ा रहा या पुनरुत्थानवादी दुराग्रहों के साथ बुर्जुआ राष्ट्रवाद की अनुदारवादी धारा के साथ जुड़ा रहा। स्वातंत्रयोत्तर काल में ‘‘नेहरूवादी समाजवादी’’ रास्ते ने राजकीय पूंजीवाद के जिस विराट तंत्र का निर्माण किया उसमें हद दर्जे की भ्रष्ट नौकरशाही और सत्ता से नाभिनालबद्ध बुद्धिजीवियों का एक व्यापक संस्तर अस्तित्व में आया, जो प्रकृति से श्रम-विरोधी, जन-विरोधी और निरंकुश स्वेच्छाचारी था। इस मध्यवर्ग के ऊपरी हिस्से को आपातकाल की निरंकुश तानाशाही अपने हितों के लिए अत्यधिक अनुकूल प्रतीत हुई थी और इसके निचले हिस्से के बहुलांश ने भी या तो बिना किसी आपत्ति के, या क्षीण असंतोष के साथ उसे स्वीकार ही किया था। उदारीकरण के दौर में मध्यवर्ग के खाते-पीते हिस्से की भी जनवादी प्रक्रिया और संस्थाओं के प्रति रही-सही प्रतिबद्धता का तेजी से ह्रास हुआ है और निम्न-मध्य वर्ग के निराश युवाओं का एक बड़ा हिस्सा पूंजीवादी संकट के फासीवादी समाधान की ओर तेजी से आकृष्ट हुआ है। इस सन्दर्भ में पाल आर. ब्रास (द पॉलिटिक्स ऑफ इण्डिया सिंस इंडिपेंडेंस’) का यह निष्कर्ष गौरतलब है कि मध्यवर्गों को राजनीतिक लोकतंत्र का मुख्य समर्थक मानने की समझ आज बदलने की जरूरत है क्योंकि गरीब देशों में इन वर्गों की बढ़ती हुई उपभोग-सम्बन्धी मांगों को बहुसंख्यक जनता की जरूरतों की उपेक्षा करके या दमन के जरिए ही पूरा किया जा सकता है।

औसत दर्जे के मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा, सिर्फ बचत करके ही नहीं, हर तरह का भ्रष्टाचरण करके सुख-सुविधा और ऐशो-आराम के उन सभी साजो-सामानों को लपक लेना चाहता है, जिनसे बाजार उन्हें ललचा रहा है। आम मेहनतकशों की असहनीय होती जा रही जीवन-स्थितियों, उनसे अतिलाभ निचोड़ने की प्रक्रिया और उनके बढ़ते दमन से वह न सिर्फ असम्पृक्त हुआ है, बल्कि वह खुद जनान्दोलनों के मुखर विरोधी और उनके दमन के पैरोकार की भूमिका में आता चला गया है। बेशक इस मध्य वर्ग का जो बड़ा हिस्सा तबाह होकर सर्वहारा की कतारों में शामिल होता जा रहा है, वह क्रान्तिकारी सम्भावनाओं से लैस है और जो हिस्सा जैसे-तैसे जी रहा है और बेहतर जिन्दगी हासिल कर पाने में ज्यादा से ज्यादा पिछड़ते हुए क्रमशः मोहभंग का शिकार होता जा रहा है, उसे भी क्रान्तिकारी परिवर्तन की धारा प्रबलतर होते हुए आगे अपने प्रवाह में समेट लेगी। पर यहां हम इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं कि मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा पूंजीवादी विकास के पचास वर्षों के दौरान फलते-फूलते हुए, उदारीकरण के दौर तक आते-आते पूरी तरह प्रतिक्रियावादी बन चुका है और फासीवाद के सामाजिक आधार का काम कर रहा है। इस वर्ग का एक बड़ा हिस्सा आज परजीवी, अनुत्पादक सट्टा-पूंजी के खेल में लिप्त है। यह आंख खोल देने वाला तथ्य है कि वर्ष 1999-2000 में आबादी के मात्र 0.5 प्रतिशत हिस्से ने सट्टा बाजार से 4,00,000 करोड़ रुपये की कमाई की जो उस पूरे कृषि क्षेत्र की आय के बराबर है, जिस पर 67 प्रतिशत जनसंख्या निर्भर है।

विडम्बना यह है कि शिक्षित मध्य वर्ग का जो हिस्सा साम्प्रदायिकता और फासीवाद का विरोध करता है, वह महानगरों के अकादमिक परिसरों, अखबारी दुनिया और सांस्कृतिक जगत तक सीमित है और वहां भी वह अल्पमत में ही है। मध्य वर्ग के इस हिस्से की धर्मनिरपेक्षता उसकी बुर्जुआ जीवन-शैली और अभिजात बौद्धिक विमर्श की चौहद्दी में कैद है। इसका फासीवाद-विरोध कुछ रस्मी प्रदर्शनों-कवायदों से आगे कभी नहीं जाता। अपने आसपास मौजूद उजरती गुलामी के महासागर में यह वर्ग भी अपनी सुख-सुविधाओं के सुरक्षित द्वीप पर रहता हुआ कभी ‘‘नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता’’ के दिनों की वापसी के लिए आहें भरता है तो कभी पश्चिमी देशों के ‘‘बुर्जुआ जनवादी विभ्रमों’’ को देख-देखकर हुलसता-ललकता है तो कभी ‘‘बाजार समाजवाद’’ या सामाजिक जनवाद के नये-नये नुस्खे-फार्मूले परसने का काम करता रहता है। मध्य वर्ग के इस हिस्से की कायर, सुविधाभोगी, नपुंसक धर्मनिरपेक्षता के एजेण्डे से आम मेहनतकश जनता का कोई जुड़ाव नहीं है और इस स्थिति का भरपूर लाभ अन्ततोगत्वा फासिस्ट ताकतों को ही मिलता है।

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि संसदीय वामपंथ के लिल्ली घोड़े पर सवार गत्ते की तलवारें भांजते ‘‘रणबांकुरे’’ साम्प्रदायिक फासीवाद-विरोधी अपनी तथाकथित प्रचारात्मक-आन्दोलनात्मक कार्रवाइयों को महानगरीय मध्यवर्ग के इसी छोटे-से हिस्से तक सीमित रखते हैं। व्यापक शहरी मेहनतकश आबादी और गांव के गरीबों को तो छोड़ ही दें, महानगरों से लेकर छोटे शहरों-कस्बों की निम्न मध्यवर्गीय युवाओं तक के सामने भी संसदीय वाममार्गी दल फासीवाद-विरोधी व्यापक जनसंघर्ष की तैयारी का कार्यक्रम तो दूर, आम दिशा तक प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। इनकी रणनीति संसद में ‘‘तीसरी ताकतों’’ के भाजपा-विरोधी गंठजोड़ की मामा-गोटी खेलने से लेकर कांग्रेस को समर्थन देने तक ही मुख्यतः सीमित है। इन अर्थवादियों और ट्रेड यूनियनवादियों ने रस्मी विरोध करते हुए आम मजदूर आबादी को उदारीकरण की नीतियों को निर्विकल्प मानने की पराजयवादी मानसिकता से लैस किया है और साथ ही बुर्जुआ सत्ता और फासीवादियों के सामने मेहनतकश आबादी को निरस्त्र करने में ऐतिहासिक भूमिका निभाकर अपने को प्रारम्भिक सामाजिक जनवादियों का योग्य उत्तराधिकारी सिद्ध किया है।

यह स्थिति भी एक स्वतःप्रमाण है कि मजदूर आन्दोलन के क्रान्तिकारीकरण के बिना फासीवादी उभार की चुनौती का मुकाबला कदापि नहीं किया जा सकता। मजदूर आन्दोलन के क्रान्तिकारीकरण से हमारे दो मन्तव्य हैं। पहला, ट्रेड यूनियन आन्दोलन को अर्थवाद, सुधारवाद, ट्रेड यूनियनवाद की जकड़बन्दी से बाहर लाकर उसे क्रान्तिकारी जनदिशा देना, आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ राजनीतिक संघर्षों और क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई लगातार चलाना तथा मजदूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन की याद दिलाना। तभी मजदूर वर्ग फासीवाद के विरुद्ध लौह-दीवार की तरह खड़ा होगा, गरीब एवं मध्यम किसान आबादी को साथ लेकर अभेद्य व्यूह रचने में सफल हो सकेगा और आम मध्य वर्ग के व्यापक हिस्से को भी अपनी ओर खींच सकेगा। दूसरा, भारत में सर्वहारा वर्ग की एकीकृत पार्टी के निर्माण और गठन की प्रक्रिया को नये सिरे से आगे बढ़ाना होगा। लकीर की फकीरी करने के बजाय हमें तीन दशक पुराने गतिरोध के बुनियादी कारणों को समझना होगा और परिस्थितियों की सही वैज्ञानिक समझ के आधार पर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एकता की प्रक्रिया नये सिरे से शुरू करनी होगी।

कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन और ग्रुप क्रान्तिकारी जनदिशा की सही समझ के अभाव के कारण ट्रेड यूनियन आन्दोलन में अपनी प्रभावी पैठ बनाने और संशोधनवादियों के विरुद्ध प्रभावी मोर्चाबन्दी करने में असफल रहे हैं। प्रायः वे अलग से छोटी-मोटी यूनियनें खड़ी करके अर्थवाद के बरक्स जुझारू अर्थवाद की ही बानगी पेश करते रहे हैं। उन्हें सभी स्थापित ट्रेड यूनियनों में क्रान्तिकारी सेल-न्यूक्लियस बनाकर व्यापक मजदूर आबादी को अपने पक्ष में जीतने की लम्बी प्रक्रिया शुरू करनी होगी और ट्रेड यूनियन नौकरशाही के विरुद्ध लेनिनवादी ढंग से लम्बी, समझौताहीन लड़ाई लड़नी होगी। यह प्रक्रिया क्रान्तिकारी संगठनों के अग्रवर्ती बोल्शेविकीकरण में सहायक सिद्ध होगी और साथ ही पार्टी-गठन की जारी राजनीतिक बहस को भी नया संवेग प्रदान करेगी।

मजदूर आन्दोलन के क्रान्तिकरण का प्रश्न क्रान्तिकारी जनदिशा के अमल और क्रान्तिकारी वाम की शक्तियों की अखिल भारतीय एकजुटता से जुड़ा है। इस प्रक्रिया के द्वारा ही फासीवाद के विरुद्ध शहरी मजदूर आबादी को और उसके साथ गांव के गरीबों को और फिर गांव-शहर के आम, परेशानहाल मध्यम वर्गों को लामबन्द किया जा सकता है। यह प्रक्रिया लम्बी और चुनौतीपूर्ण है। पर यही वास्तविक और व्यावहारिक मार्ग है। यही सच है। और जो सच है, उसे स्वीकारना ही होगा।

दायित्वबोध, वर्ष 7, अंक 1, जुलाई-सितम्‍बर 2000