माओ त्से-तुङ की बारह कविताएंं

जन्मदिन (26 दिसम्बर) के अवसर पर
माओ त्से-तुङ की बारह कविताएंं

अनुवाद व विस्तृत टिप्पणियां – सत्यव्रत

कुनलुन[1]

(अक्टूबर, 1935)

 

बहुत-बहुत ऊपर इस धरती से,
नीले आकाश की गहराइयों में
तुमने देखा है, ओ बीहड़, उद्धत कुनलुन,
वह सब कुछ जो सबसे बढ़िया है
इंसानों की इस दुनिया में।
उड़ते हैं तुम्हारे तीस लाख श्वेत-धवल जेङ से अजदहे[2]
और हड्डियां छेदती ठण्ड से
जम-सा जाता है यह पूरा आकाश।
गर्मियों में पिघलती है तुम्हारी बर्फ
और प्रचण्ड धाराएं उफनाने लगती हैं
झरनों और नदियों में।
किसने फैसले दिये हैं
उन अच्छाइयों और बुराइयों पर
जो तुमने कर डाले हैं
इन हजारों शरद ऋतुओं के दौरान?
सुन लो कुनलुन! अब मेरा यह कहना है
नहीं चाहिए हमें तुम्हारी यह ऊंचाई
और न ही दरकार है हमें
बर्फ के तुम्हारे इस अम्बार की।
यदि मैं खींच सकूं अपनी यह तलवार
आसमान को चीरती हुई
तो तीन टुकड़े कर दूं तत्क्षण तुम्हारेः
एक टुकड़ा यूरोप के लिए,
दूसरा अमेरिका के लिए
और तीसरा संजो कर रख लूं पूरब के लिए।
पूरी दुनिया पर छा जाता फिर शान्ति का साम्राज्य,
एक-सी गरमी
और एक-सी ठंडक
पूरी इस धरती पर

 

ल्यूफान पर्वत[3]

(अक्टूबर, 1935)

ऊंचा आकाश, निस्तेज विरल बादल,
देख रहे हैं हम जंगली हंसों के झुंडों को
उड़ते हुए दक्षिण की ओर, ओझल होते हुए।
इंसान नहीं है हम, अगर नहीं पहुंच पाते
महान लम्बी दीवार तक,
हम, जो तय कर चुके हैं
बीस हजार ली की दूरियां।
ल्यूफान पर्वत-शिखरों की ऊंचाइयों पर
पश्चिमी हवाओं में पूरी आजादी के साथ
लहराते हैं लाल झंडे और परचम
थामे हैं आज हम अपने हाथों में लम्बी जंजीर,
कब हम जकड़ लेंगे भूरे अजदहे को[4]
अपनी गिरफ्त में?

ल्यू या-त्जू को उत्तर[5]

(29 अप्रैल, 1949)

याद करता हूं अभी भी मैं
क्वाङचओ में चाय पीना हमारा
साथ-साथ
और चुङकिङ में तुम्हारा आग्रह करना
कविताओं के लिए
जब पत्तियां पीली पड़ रही थीं।
इकतीस वर्षों बाद पुरानी राजधानी में वापस आकर
फूलों के झरने के मौसम में
मैं पढ़ रहा हूं तुम्हारी कविता की
परिपक्व-परिष्कृत पंक्तियां।
तनिक सम्भलना, दुखों से लबरेज कहीं
दिल न तोड़ लेना अपना,
सुदूर परिदृश्य पर केन्द्रित करना अपनी निगाहें।
मत कहो कि कुनमिङ झील[6] का पानी
सिर्फ उथला है,
मछलियों को देखते रहने के लिए
बेहतर है यह
फूचुन नदी[7] के मुकाबले

 

ल्यू या-त्जू की कविता
अध्यक्ष माओ को समर्पित मेरे विचार

 

श्रेष्ठ हो तुम
एक नये युग के निर्माता के रूप में।
मेरे लिए कठिन था
अंधेरे दौरों में
रोशनी की बातें करना पूरे जोर-शोर से।
व्याख्यान देता हूं क्लासिकी ग्रंथों पर,
नहीं हूं ऐसा विद्वान जो
कर सके समयानुवर्तन
और अफसोस,
नहीं हुआ मेरा कहीं कोई गर्मजोशी भरा स्वागत।
भर उठता हूं पश्चाताप से
जब सोचता हूं व्यर्थ ही गंवाये गये
अपने जीवन के बारे में,
फिर भी मेरा हृदय सच्चा बना रहेगा अंतिम सांस तक।
विकल प्रतीक्षा है
दक्षिणी अभियान से खुशखबरियों की!
फिर तो फेनहू झील[8] होगा
मेरा एकान्त निवास।

 

ल्यू या-त्जू को उत्तर[9]

(अक्टूबर, 1950)

(1950 में राष्ट्रीय दिवस समारोह के अवसर पर जब हम एक संगीत-नृत्य का कार्यक्रम देख रहे थे तो श्री ल्यू या-त्जू ने ‘वान सी-शा’ छन्द की लय में एक आशु कविता लिखकर मेरे पास भेजी। उत्तर में मैंने भी उसी छन्द का प्रयोग करते हुए निम्नलिखित कविता की रचना की।- माओ)

रात लम्बी थी।
भोर उतरी रक्तिम धरा[10] पर
धीरे-धीरे।
एक सदी तक जारी रहा यहां
प्रेतों और राक्षसों का
उन्मत्त पैशाचित नृत्य,
और पचास करोड़ लोग आपस में विभाजित रहे।
अब मुर्गा बांग दे रहा है
और आलोकमय है सबकुछ
इस आकाश के नीचे।
यहां गूंज रहा है संगीत हमारे तमाम लोगों का,
युतिएन[11] का भी
और कवि-मन हो रहा है अनुप्राणित
जैसा पहले कभी नहीं हुआ था।

ल्यू या-त्जू की कविता

(3 अक्टूबर को मैं हुआइ ज़ेन ताङ भवन में आयोजित एक सांध्य समारोह में सम्मिलित हुआ। इस अवसर पर दक्षिणी-पश्चिमी चीन, की विभिन्न राष्ट्रीयताओं तथा सिंकियाङ, किरिन प्रांत के येनपिएन और भीतरी मंगोलिया की कला मण्डलियों ने अपने-अपने कार्यक्रम प्रस्तुत किये। अध्यक्ष माओ के अनुरोध पर, चीन की सभी राष्ट्रीयताओं की महान एकता की प्रशंसा में मैंने निम्नलिखित पंक्तियों की रचना की। : ल्यू या-त्जू)

अग्नि-वृक्षों और रजत-पुष्पों से सजी हुई
अंधेरे से मुक्त एक रात।
थिरकते हुए मनोहर नृत्य मुद्राओं- भंगिमाओं से
आकर्षित करते हैं हमारे ये भाई-बहन।
पूनम के चांद[12] की उल्लासमय स्वरलहरियां
तैरती हैं हवाओं में।
हासिल नहीं होता यदि हमें उस एक व्यक्ति का
कुशल नेतृत्व,
कैसे जुट पातीं भला ये
सौ के आसपास राष्ट्रीयताएं एक साथ?
बेमिसाल है
खुशियों भरी शाम का यह आनन्दोत्सव!

 

तैरना[13]

(जून, 1956)

अभी-अभी मैंने पिया है चाङशा का पानी
और आया हूं अब चखने ऊचाङ की मछली।
तैर रहा हूं मैं अब याङत्सी महानदी में
इस पार से उस पार तक,
देखते हुए चू प्रदेश[14] के खुले आकाश में दूर-दूर तक।
चलें हवाएं जोरदार और
पछाड़ खायें लहरें, टकराएं उन्मत्त करने से तो
बेहतर ही है यहां होना
इन लहरों के बीच।
आज मैं निश्चिन्त हूं।
ऐसी ही किसी एक धारा के सन्निकट कहा था कन्फ्यूशियस ने-
“यूँ चीजें बहती जाती हैं अविरल गति से।”
हवा के झकोरों से हिलते हैं मस्तूल।
निश्चल खड़े हैं सर्प और कच्छप पर्वत।
अमल हो रहा है आज महान योजनाओं परः
एक पुल[15] उड़ता हुआ-सा हवा में
उत्तर को जोड़ेगा दक्षिण से,
एक गहरी खाई है जहां,
वहां एक रास्ता होगा
इस पार से उस पार तक;
उधर पश्चिम की ओर बहती प्रतिकूल धारा में
खड़ी होंगी पत्थर की दीवारें
ऊशान पर्वत[16] से आने वाले बादलों
और बारिश को रोकती हुई,
तबतक तंग दर्रों में
तरंगायित होने लगेगी एक चौरस झील
पर्वत की देवी, यदि होगी अभी भी वहां,
चकित रह जायेगी
इस कदर बदली हुई दुनिया को देखकर।

ली शू-ई को उत्तर[17]

(11 मई, 1957)

मैंने खो दिया अपना गर्वीला पॉपलर[18]
और तुमने अपना विलो[19],
पॉपलर और विलो ऊपर उठते हुए
सीधे जा पहुंचते हैं नवें आसमान तक।
पूछते हैं ऊ काङ[20] से कि
वह उन्हें क्या दे सकता है?
पेश करता है वह उनकी खिदमत में
जयपत्रों से निकाली गई शराब।
एकाकी चांद की देवी[21] फैला देती है
अपनी बांहें, लहराते हुए विस्तृत आंचल
उन्मुक्त आकाश में
नृत्य करती है इन ध्येयनिष्ठ आत्माओं के लिए।
तभी अचानक धरती से आती है यह खबर
कि बाघ[22] को पराजित किया जा चुका है।
बारिश की झड़ी में
बरस पड़ते हैं धारासार
खुशी के आंसू।

महामारी के देवता[23] को विदाई

(दो कविताएं)

(1 जुलाई, 1958)

(30 जून, 1958 के रेन मिन रिबाओ (जन दैनिक) में जब मैंने यह पढ़ा कि ऊकियाङ काउण्टी[24] से सिस्टोसोमियासिस (घोंघा-ज्वर) को जड़मूल से नष्ट कर दिया गया है, तो मेरे मन में अनेक विचार-तरंगे उठने लगीं और मैं रातभर सो न सका। सुबह की गुनगुनी, सुहावनी बयार में जब सूरज की किरणें मेरी खिड़की पर पड़ी तो मैने दूर पश्चिम की ओर नजर दौड़ाई और खुशी के उन क्षणों में निम्नलिखित पंक्तिया लिख डाली।- माओ)

I

इतनी सारी हरितवर्णी जलधाराएं
इतने सारे नीलवर्णी पहाड़कृमगर भला ये किस काम के?
इस क्षुद्र प्राणी ने अवश कर डाला था हुआ तो[25] तक को
सैकड़ों गांवों में नहीं बचा इंसानों का नामोनिशान तक,
उग आये बीहड़ जंगल-झाड़।
हजारों घर उजड़ गये,
घूमती रही गलियों में प्रेतात्माएं बिलखती हुई।
इस धरती पर एक दिन मैं तय करता हूं
अस्सी हजार ली[26] की दूरी
और कहीं नहीं दिखता है जीवन का कोई चिन्ह,
सुदूर आकाश में निगाहें दौड़ाता हूं
देखता हूं अनगिन आकाश-गंगाएं[27]
पूछता यदि ग्वाला नक्षत्र[28]
खबर-महामारी के देवता की,
यही कहा जाता है,
समय की धारा में बहता जा रहा है
वही शोक-संताप।

II

सरपत के जंगलों में डोलती हैं
बासंती हवाएं,
साठ करोड़ लोगों की इस दैवी धरती[29] पर
सभी बराबर हैं, याओ और शुन[30]
रक्ताभ जलवृष्टि जलधाराओं की लहरें बन
उमड़ने लगती है।
हमारी इच्छा के वशीभूत होकर
और हरितवर्णी पर्वत हमारे चाहने भर से
पुलों में बदल जाते हैं।
आसमान छूते पांच पहाड़ों[31] पर
गिरती हैं चमकती हुई गैंतियां
तीन नदियों के इर्दगिर्द की
धरती[32] को हिला देने के लिए
आगे बढ़ती हैं शक्तिशाली भुजाएं
पूछते हैं हम महामारी के देवता सेः
“कहां चल दिए तुम?”
जलने लगती हैं कागज की नावें
और मोमबत्तियों की रोशनी[33] से
आसमान जगमगाने लगता है।

लूशान पर चढ़ते हुए[34]

(1 जुलाई, 1959)

याङत्सी के ऊपर
यह गगनचुम्बी पर्वत,
ज्यों उड़कर जा टिका है आसमान में;
आ पहुंचा हूं मैं
इसके हरित शिखर तक
चार सौ मोड़ों को लांघने के बाद।
ठण्डी आंखों से निहारता हूं
समुद्रों के पार इस धरती का विस्तार;
आसमान में छितरे बादलों पर
गरम हवा छिड़कती है बारिश की बूंदें,
नौ जलधाराओं[35] पर उमड़ते-घुमड़ते
गहराते जाते हैं बादल
मानो पंख पसारे तैरते हुए
पीले सारस वाली मीनार[36] के ऊपर से
और प्रचंड लहरे-पछाड़ खाती हैं पूर्वी किनारे पर,
उड़ता है सफेद झाग।
कौन जानता है, कहां चला गया प्रिफेक्ट ताओ युआन-मिङ[37]
अब सतालू-पुष्पों की इस धरती पर[38]
वह कर सकता था खेती।

मिलिशिया की औरतें

(फरवरी, 1961)

(एक फोटोग्राफ के पीछे अंकित)

कंधों पर उठाये हुए पांच फुट की राइफलें
दिखती हैं वे कितनी तेजस्वी और बहादुर
दिन की पहली किरणों से आलोकित
परेड के मैदान में।
चीन की बेटियों के दिलो-दिमाग में
उफन रही हैं ऊंची आकांक्षाएं,
रेशम-साटन से नहीं,
प्यार करती हैं वे
अपने युद्ध-परिधानों से।

एक मित्र को उत्तर[39]

(1961)

तैर रहे हैं श्वेत-धवल बादल
च्यूई पर्वत के ऊपर,
हवा पर सवार शहजादियां[40]
उतर रही हैं हरी-भरी पहाड़ियों में।
कभी उनके बेशुमार आंसुओं से
बांस के पेड़ों पर चित्तियां पड़ गई थीं,
अब वे सजी हुई हैं
गुलाबी-लाल बादलों के परिधानों में।
तुङतिङ[41] झील की बर्फ-सी सफेद लहरें
उफनती हैं ऊपर आसमान की ओर,
धरती को हिला देने वाले तराने की लय के साथ
कांप उठता है यह विशाल द्वीप[42]
और मैं खो जाता हूं सपनों में,
सुबह की रोशनी में चमकते जवाकुसुम की धरती[43]
के निबार्ध-उन्मुक्त सपनों में।

परी गुफा[44]

कामरेड लि चिन (चियाङ-चिङ) द्वारा लिये गये एक फोटोग्राफ के पीछे अंकित

(9 सितम्बर, 1961)

शाम की गहराती छाया में
खड़े हैं देवदारु के कड़ियल दरख्त
तेजी से उमड़ते-घुमड़ते हुए
गुजर रहे हैं तूफानी बादल
एक गहरी शान्ति धारे हुए।
परी गुफा में प्रकृति
बिखेर रही है अभिभूत कर देने वाली छटाएं।
दुर्गम खतरनाक ऊंचाइयों पर ही
दिखती है सुन्दरता
अपने अनन्त रूपों में।

कामरेड कुओ मो-जो को उत्तर[45]

(17 नवम्बर, 1961)

टूट पड़ता है धरती पर
एक तूफानी झंझावत
और इस तरह सफेद हड्डियों के ढेर से
उठता है एक शैतान।
परे नहीं था प्रकाश से भ्रमित भिक्षु,
लेकिन वह दुष्ट पिशाच
कहर तो बरपा करता ही हर हाल में।
स्वर्णिम वानरराज ने क्रुद्ध होकर
घुमाई अपनी भारी गदा
और जेड-समान समूचे आसमान में
छंट गया सारा गर्दो-गुबार।
आज, जब एक बार फिर
उमड़ रहा है जहरीला कुहासा,
चमत्कार करने वाले सुन ऊ-कुङ का
हम करते हैं आह्वान।

कुओ मो-जो की कविता
वानरराज के हाथों पिशाच की पराजय ऑपेरा देखने के बाद

आदमियों और पिशाचों में, सही और गलत में
अन्तर नहीं कर पाता है भ्रमित भिक्षु;
रहम करता है दुश्मनों पर
और कुढ़ता है दोस्तों से।
अविरत वह करता रहा
“स्‍वर्णचक्र” का सस्वर मंत्रपाठ,
और तीन बार उसने
बच निकलने दिया सफेद हड्डियों के शैतान को।
इसी लायक था वह भिक्षु
कि उसकी बोटी-बोटी काट डाली जाती।
चमत्कारी वानरराज के लिए
कोई फर्क नहीं पड़ता एक बाल तोड़े जाने से।
ऐसी समयोचित शिक्षा के लिए ही है
सारी प्रशंसा,
एक सुअर भी मूर्खों से
अधिक समझदार बन जाता है।

कामरेड कुओ मो-जो को उत्तर[46]

(9 जनवरी, 1963)

इस छोटे-से भूमण्डल[47] पर
कुछ थोड़ी-सी मक्खियां[48]
सिर टकराती हैं दीवारों से,[49]
बिना रुके भनभन करती हैं
कभी चीखती हैं
तो कभी कराहने लगती हैं।
बबूल के पेड़ पर चढ़ी चीटियां
बड़े राष्ट्र का दर्प दिखाती हैं
और कुछ चीटें, जिनके पंख उग आये हैं
शेखचिल्ली की तरह मंसूबे बांधते हैं
विशाल, वृक्ष को उखाड़ फेंकने का[50]
पश्चिमी हवा चाड़आन नगर[51] पर
बिखेर देती है पत्तियां[52]
और उड़ते हैं तीर[53],
गूंजती है टंकार-प्रत्यंचाओं से।
इतने सारे काम करने को पड़े हैं
हमारे सामने,
और हर हाल में इन्हें निपटाना है तत्काल;
दुनिया घूम रही है लगातार
समय बनाये हुए हैं अपना दबाव।
दस हजार वर्ष बहुत अधिक हैं
मूल्यवान है हर दिन, हर घंटा
जिसे यूं ही नहीं निकल जाने देना है!
उमड़ रहे हैं चारों महासमुद्र,
बादल क्रोधोन्मत्त हो रहे हैं और
लहरे प्रचंड होती जा रही हैं
प्रकम्पित हो रहे हैं पांचों महाद्वीप
गरज रही हैं तूफानी हवाएं
और बिजलियां कड़क रही हैं।[54]
खात्मा होना ही है सभी बलाओं का,
टिक नहीं सकता है कोई भी
हमारी ताकत के सामने!

कुओ मो-जो की कविता

जब महासमुद्रों को आलोड़ित करता है तूफान
वीरों का पराक्रम प्रचण्ड हो उठता है।
साठ करोड़ लोग ऐक्यबद्ध सुदृढ़ होकर,
अडिग रहकर सिद्धान्तों पर
थाम सकते हैं गिरते हुए विराट आकाश को
और अराजकता के घटाटोप के भीतर से
रच सकते हैं व्यवस्था।
मुर्गें की बांग सुन रही है दुनिया
और पूरब में फूट रही है दिन की उजास।
सूरज उग रहा है
पिघल रहे हैं हिमशिलाखंड,
आग की लपटों पर तपकर
सोना दे रहा है अपने असली होने का सबूत।
चार महान खंड[55]
हमें रास्ता दिखाते हैं।
कैसी बेतुकी है यह बात कि चियेह का कुत्ता
भौंकता है याओ पर[56];
मिट्टी की सांड-कूद पड़ते हैं सागर में
और गलकर बिला जाते हैं।[57]
पूर्वी हवाओं में लहरा रहा है
क्रान्ति का लाल परचम,
रक्तिम आभा से दीप्तिमान हो उठा है पूरा ब्रह्माड!

टिप्पणियां

[1] कुनलुन पश्चिमी चीन में स्थित एक पर्वत श्रृंखला है, जो सिनच्याङ वेवुर स्वायत्त प्रदेश और तिब्बत के बीच फैली हुई है। इसी पर्वत श्रृंखला की एक शाखा मिनशान पर्वतमाला भी है, जिसका उल्लेख कवि ने अपनी टिप्पणी में किया है (देखें टिप्पणी सं-2)।

यह कविता इतिहास-प्रसिद्ध लम्बे अभियान (लांग मार्च) के दौरान तब लिखी गई थी, जब अक्टूबर 1935 में माओ त्से-तुङ की कमान में केन्द्रीय लाल सेना ने कानसू के पूर्वी भाग से निङश्या के दक्षिणी भाग में प्रवेश करके ल्यूफान पर्वत में दुश्मन की घेरेबंदी को तोड़ डाला था और विजयपूर्वक उत्तरी शेनशी के क्रान्तिकारी आधार-क्षेत्र में जा पहुंची थी। अभियान के समापन के महीने में लिखी गई यह कविता सर्वहारा शौर्य, युयुत्सा, जनता की इतिहास-निर्मात्री शक्ति में अटूट आस्था तथा सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद की भावना को स्वर देती है।

[2] इस बिम्ब के बारे में माओ त्से-तुङ ने स्वयं जो टिप्पणी दी है, वह निम्नलिखित हैः “एक प्राचीन कवि ने कहा हैः ‘जब तीस लाख धवल-जेड अजदहे लड़ रहे थे, तो सारा आकाश उनके छिन्‍न-भिन्‍न केंचुलों से भर गया था।’ इस प्रकार उन्होंने उड़ती हुई बर्फ का वर्णन किया है। यहां मैंने हिमाच्छादित पर्वतों का वर्णन करने के लिए उक्त बिम्ब को ग्रहण कर लिया है। ग्रीष्मकाल में यदि आप मिनशान पर्वत पर चढ़ें तो आपको पर्वतों का जमघटा-सा दिखाई देगा, बिल्कुल श्वेत, मानो वे नृत्य में रत हों। स्थानीय जनता में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि वर्षों पहले जब वानरराज यहां से गुजरा था, तो ये सभी पर्वत आग की ज्वालाओं में लिपटे हुए थे। किन्तु वानरराज ने ताड़ के पत्ते के पंखे से इन ज्वालाओं को बुझा दिया था और इस प्रकार ये पर्वत श्वेत बन गये थे।”

[3] इस कविता की पृष्ठभूमि भी वही है जो ‘कुनलुन’ कविता की। दोनों के लिखे जाने का समय भी एक ही है। ल्यूफान निङ श्या हेइ स्वायत्त प्रदेश के दक्षिण में और कानसू के पूर्व में स्थित एक पर्वत है। लम्बे अभियान के विशिष्ट संदर्भ में इसकी चर्चा पूर्ववर्ती कविता की टिप्पणी-1 में आ चुकी है।

[4] चीन के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित एक राक्षस। यहां कवि का अभिप्राय च्याङ काई-शेक से है।

[5] यह कविता अप्रैल 1949 में लिखी गई थी। यही वह समय था जब चीनी जन-मुक्ति सेना ने बलपूर्वक ताङत्सी नदी पार की और 23 अप्रैल को नानकिङ को मुक्त करा लिया। इस प्रकार क्वोमिन्ताघ के 22 वर्ष के प्रतिक्रियावादी शासन का अन्त हो गया।

कवि ल्यू या-त्जू (1987-1958ई-) च्याङसू प्रांत की ऊच्याङ काउंटी के निवासी थे। 1949 में चीन लोक गणराज्य की स्थापना के बाद ल्यू या-त्जू को केन्द्रीय जन सरकार परिषद का सदस्य और राष्ट्रीय जन प्रतिनिधि सभा का स्थाई समिति का सदस्य चुन लिया गया।

[6] पेकिङ के पश्चिमी उपनगर में स्थित कुनमिङ झील।

[7] च्याङ प्रान्त की च्येनताङ नदी का ऊपरी भाग।

[8] च्याङसू प्रान्त की ऊच्याङ काउंटी में स्थित झील, जिसके उत्तरी तट पर कवि ल्यू या-त्जू का जन्मस्थान हैं।

[9] यह कविता अक्टूबर, 1950 में राष्ट्रीय दिवस समारोह के दिन लिखी गई थी, जब चीन लोक गणराज्य की स्थापना हुए ठीक एक वर्ष हुआ था।

क्रान्तिपूर्व चीन के काले दिनों और दीर्घकालीक लोक युद्ध के दौर की यंत्रणाओं, कुर्बानियों और शौर्य-प्रदर्शन की स्मृतियों की पृष्ठभूमि में यह कविता क्रान्ति के उल्लासमय प्रभाव और निर्बंध जनाकांक्षाओं के उछाह को स्वर देती है।

[10] रक्तिम धरा का अभिप्राय यहां चीन से है।

[11] यह वर्तमान सिनच्याङ बेवुर स्वायत्त प्रदेश में स्थित खोतान व उसके आसपास के इलाके का पुराना नाम है, जहां के लोग नाचने-गाने में बहुत निपुण होते हैं। यहां कवि का अभिप्राय चीन लोक गणराज्य की स्थापना की पहली वर्षगांठ के उपलक्ष्य में अपना प्रोग्राम दिखाने पेकिङ आई सिनच्याङ की कला-मंडली से है।

[12] कवि ल्यू या-त्जू की टिप्पणी के अनुसार, पूनम का चांद सिनच्याङ में कजाक जति के एक लोकगीत का नाम है।

[13] यह कविता क्रान्तिकारी चीन के इतिहास के एक अत्यंत महत्वपूर्ण संक्रमण-काल (1955-56) की स्पिरिट को, उसकी चुनौतियों को और उस दौरान विभिन्‍न धरातलों पर जारी वर्ग संघर्ष में जूझने की सर्वहारा युयुत्सा को स्वर देती है तथा साथ ही भविष्य के प्रति अमिट आशावाद और स्वप्नदर्शी कल्पनाशीलता को भी।

नई जनवादी क्रान्ति के बाद समाजवादी क्रान्ति एवं निर्माण के काम को 1955 में एक नया संवेग मिला। स्वयं माओ के ही शब्दों में, “चीन में 1955 का साल समाजवाद और पूंजीवाद के बीच के संघर्ष में फैसले का साल था।” 1953 में पहली पंचवर्षीय योजना की शुरुआत होने के बाद गांवों में ‘पारस्परिक सहायता टीमों’ से ‘अर्द्धसमाजवादी’ कृषि-उत्पादक सहकारी फार्मों में रूपान्तरण का काम शुरू हो चुका था। ‘अर्द्धसमाजवादी’ इन अर्थों में कि इन सहकारी फार्मों की आय का बंटवारा अंशतः सदस्यों के श्रम के आधार पर और अंशतः उनके द्वारा लगाई गई पूंजी और जमीन के हिसाब से होता था। जुलाई 1955 तक चीन के किसान परिवारों में से सिर्फ पन्द्रह प्रतिशत ही ऐसे सहकारी उपक्रमों में संगठित हो सके थे। 31 जुलाई,1955 को माओ ने सामूहिकीकरण की रफ्तार तेज करने का जो आह्वान किया उसके चलते इस प्रक्रिया ने चमत्कारी रफ्तार पकड़ ली। 1956 तक चीन में कृषि, दस्तकारी बड़े उद्योगों और वाणिज्य के क्षेत्र में उत्पादन के साधनों के मिल्कियत के समाजवादी रूपान्तरण का काम मुख्य तौर से पूरा हो चुका था। 1956 आते-आते अब माओ का मुख्य जोर इस बात पर था कि सहकारिता के प्रबंधन में उच्च मध्यम किसानों की मुख्य भूमिका को गरीब और भूमिहीनों के द्वारा विस्थापित कर दिया जाये तथा कृषि फार्मों की आय का वितरण सदस्यों में सिर्फ उनके द्वारा किये गये श्रम के हिसाब से हो। यह प्रक्रिया भी तेज गति से आगे बढ़ी और वह पृष्ठभूमि तैयार हो गई। जिसके आधार पर चीन की किसान आबादी तीन वर्षों बाद कम्यून बनाने के महान साहसिक प्रयोग में उतर सकी। 1955-56 के जाड़े के दौरान ही माओ ने उद्योगों के समाजवादी आधार पर निर्माण के क्षेत्र में भी ‘एक अग्रवर्ती छलांग का आह्वान किया था, जो दो वर्षों बाद शुरू होने वाली ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ (ग्रेट लीप फॉरवर्ड) की पूर्वपीठिका तैयार करने का ही एक हिस्सा था। सोवियत प्रयोग से अलग, इस दौर में माओ ने इस बात पर जोर दिया कि उद्योग का समाजवादी रूपांतरण एवं विकास कृषि की कीमत पर नहीं बल्कि उसके साथ-साथ होना चाहिए, वर्ना समाजवादी समाज में वर्ग विभेद का नया आधार तैयार होने लगेगा।

1956 में ही माओ ने समाजवादी क्रान्ति की वैकल्पिक रणनीति प्रस्तुत करने की शुरुआत ‘दस मुख्य संबंधों के बारे में’ शीर्षक प्रसिद्ध लेख लिखकर की। इस समय तक वे स्पष्टतः इस नतीजे पर पहुंच चुके थे कि निजी स्वामित्व के समाजवादी रूपान्तरण का काम पूरा हो जाने के बाद भी समाज में वर्ग-अन्तरविरोध मौजूद रहते हैं और वर्ग संघर्ष ही समाजवाद की कुंजीभूत कड़ी होता है। इसके विपरीत ल्यू शाओ-ची आदि की रहनुमाई में पार्टी के भीतर ही एक दूसरा धड़ा भी मौजूद था जो ‘उत्पादक शक्तियों के विकास’ के सिद्धांत का प्रवर्तन करते हुए वर्ग संघर्ष को खारिज कर रहा था।

विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में भी  स्तालिन की मृत्यु के बाद ख्रुश्चेव के नेतृत्व में तेजी से उभर रहा संशोधनवाद चीनी क्रान्ति के समक्ष बाहर से गंभीर समस्याएं उत्पन्‍न करने के साथ ही चीनी पार्टी के भीतर-जारी दो लाइनों के संघर्ष में भी संशोधनवादी लाइन को बल प्रदान कर रहा था। बीसवीं कांग्रेस में अपने कुख्यात गुप्त रिपोर्ट में स्तालिन पर हमले की आड़ लेकर खुश्चेव वस्तुतः समाजवाद पर हमले की शुरुआत कर चुका था। अप्रैल, 1956 में ‘सर्वहारा अधिनायकत्व के ऐतिहासिक अनुभव के बारे में’  नामक संपादकीय टिप्पणी लिखकर चीनी पार्टी ने जवाबी कार्रवाई भी शुरू कर दी थी। उधर विश्व स्तर पर शीतयुद्ध का घटाटोप सघनतम था। अमेरिकी साम्राज्यवाद चतुर्दिक आक्रामक था। हंगरी में प्रतिक्रान्तिकारी उभार भी इसी वर्ष हुआ था।

अभूतपूर्व संकट के इसी दौर में माओ ने ‘सौ फूलों को खिलने दो और हजारों विचारों को एक दूसरे से टकराने दो’ का नारा देकर आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र के साथ ही विचाराधारात्मक राजनीतिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में भी वर्ग-संघर्ष के उस नये उन्‍नत चरण का सूत्रपात कर दिया था जो आगे ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ के रूप में अपने शिखर पर जा पहुंचा था।

‘तैरना’ कविता इस कठिन दौर में सर्वहारा शौर्य, आशावाद और भविष्य के प्रति अडिग विश्वास को प्रकट करती है। याङत्सी महानदी को तैर कर पार करने का बिम्ब मानो उक्त कठिन दौर के वर्ग संघर्ष से जूझने और धारा के विरुद्ध तैरने का सूचक है। कवि का खुले आकाश में दूर-दूर तक देखना क्रान्तिकारी कल्पनाशीलता और दूर-दृष्टि का परिचायक है। तूफानी हवाओं और लहरों का आह्वान वर्ग-संघर्ष का आह्वान है और इन लहरों के बीच निश्चिन्त होना बीहड़ सघर्षों में जीने की क्रान्तिकारी आदत की अभिव्यक्ति है। “यूँ चीजें बहती जाती हैं अविरल गति से”-यह इतिहास की सतत् परिवर्तनशीलता के प्रति विज्ञान-सम्मत आस्था को स्वर देता है।

कवि तूफानों में अविचल अडिग पर्वतों के रूप में क्रान्तिकारी जनता और कम्युनिस्ट पार्टी को देखता है। “पश्चिम की ओर बहती प्रतिकूल धारा” में दोहरे अर्थ संकेत हैं जो चीनी पार्टी के भीतर के संशोधनवादियों की ओर भी इंगित करते हैं और पश्चिम के समक्ष घुटने टेकने की ओर आतुर ख्रुश्चेव की ओर भी। इस प्रतिकूल धारा में खड़ी पत्थर की दीवार के रूप में चीन के क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग और उसकी पार्टी को देखा गया है।

कविता का मूल भाव यह है कि इन तमाम प्रतिकूल स्थितियों में भी चीन में युगांतरकारी समाजवादी रूपान्तरण का काम निर्बाध रूप से जारी रहेगा।

[14] युद्धरत राज्य काल का एक राज्य, जिसका क्षेत्र मुख्य रूप से आज के हुए और हुनान प्रान्तों में फैला हुआ है।

[15] यहां ऊहान के याङत्सी पुल का उल्लेख है, जो उन दिनों निर्माणाधीन था।

[16] सेचुआन प्रान्त की ऊशान काउंटी के दक्षिण-पूर्व में स्थित एक पर्वत, जिसकी चोटी का नाम देवी शिखर है। एक पौराणिक कहानी के अनुसार, मेघ और वर्षां की देवी यही निवास करती है।

[17] कामरेड ली शू-ई पहले हुनान प्रान्त के चाङशा शहर के नं-10 मिडिल स्कूल में चीनी भाषा की अध्यापिका थीं। 1957 के बसंत में अपने शहीद पति ल्यू चिह-सुन की स्मृति में लिखी अपनी एक कविता माओ त्से-तुङ के पास भेजी। ल्यू चिह-सुन 1932 के युद्ध के दौरान शहीद हुए थे। ल्यू चिह-सुन माओ के पुराने सहयोद्धा थे। 1923 में वे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुए और बाद में हुनान प्रान्त के किसान संघ के महासचिव भी रहे। 1927 में उन्होंने “1 अगस्त” नानचाङ विद्रोह में भाग लिया। 1932 में वे छुपे प्रान्त के हुङहू क्षेत्र में चलाई गई मुहिम में खेत रहे।

ली शू-ई की कविता के उत्तर में माओ ने ल्यू चिह-सुन और अपनी शहीद पत्नी याङ काइ-हुई (1901-1930ई-) को याद करते हुए यह कविता लिखी। ताङ काइ-हुई 1921 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हुई थीं। 1923 में उन्होंने माओ त्से-तुङ के साथ चाघशा, शंघाई, शाओशान, क्वाघचओ और ऊहान आदि स्थानों पर मजदूरों, किसानों और महिलाओं के आंदोलन में काम किया। 1925 में वे माओ के साथ शाओशान लौट गईं, जहां उन्होंने पार्टी-संगठन कायम करने और किसान संघर्ष चलाने में माओ की मदद की। 1927 में क्रान्ति की असफलता के बाद, माओ क्रान्तिकारी सशस्त्र सेना के साथ चिघकाघशान पर्वत पर चले गये और कामरेड ताङ काई-हुई उनके आदेशानुसार चाघशा में पार्टी की भूमिगत गतिविधियों में और उस इलाके में किसानों का सशस्त्र संघर्ष संगठित करने के काम में लगी रहीं। 1930 में प्रतिक्रियावादी क्वोमिन्ताघ ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। दुश्मन के सामने उन्होंने असाधारण साहस और निर्भिकता प्रदर्शित की और वीरता के साथ अपने प्राण न्यौछावर कर दिये।

इस कविता के संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि ताङ काइ-हुई ली-शुई की सहपाठिन और घनिष्ठ मित्र भी थीं।

[18] ल्यू और ताङ जो वास्तव में गोत्रनाम हैं, चीनी भाषा में क्रमशः विलो (भिंसा) और पॉपलर वृक्षों की संज्ञा भी हैं। इस दोहरे अर्थसंकेत का माओ ने काव्याभिव्यंजना के रूप में खूबसूरत इस्तेमाल किया है।

[19] ल्यू और ताङ जो वास्तव में गोत्रनाम हैं, चीनी भाषा में क्रमशः विलो (भिंसा) और पॉपलर वृक्षों की संज्ञा भी हैं। इस दोहरे अर्थसंकेत का माओ ने काव्याभिव्यंजना के रूप में खूबसूरत इस्तेमाल किया है।

[20] चीनी मिथक-शास्त्र के हिसाब से नवां आसमान सबसे ऊपर होता है। वहां इन दोनों आत्माओं का स्वागत ऊकाङ करता है। ऊकाङ ने अपने को अमर बनाने के प्रयत्न में देवताओं को नाराज कर दिया था। उसे चन्द्रमा पर बंदी बनाकर रखा गया था और एक विशाल जयपत्र (बनबहेड़ा) के वृक्ष को काटने का दंड दिया गया था जो काटे जाने के साथ ही फिर बढ़ आता है। इस पेड़ के फल से बनी शराब देवताओं का पेय थी जिसे पीकर ऊकाङ भी अमर हो गया था और चाङ ओ भी, जिसकी चर्चा कविता में ‘एकांकी चांद की देवी’ के रूप में आती है।

[21] ‘एकाकी चांद की देवी’ चाङ ओ है जो शिया साम्राज्य (2205-1776 ई-पूर्व) की एक खूबसूरत राजकुमारी थी जिसने अमृत चुराया था और चन्द्रलोक की देवी बन गई थी। वह वहां अकेली है और धरती पर वापस आना चाहती है।

[22] यहां कवि का संकेत प्रतिक्रियावादी क्वोमिंताङ और च्याङ काई-शेक की ओर है।

[23] पुराने चीन में यह समझा जाता था कि सभी महामारियां महामारी के देवता की देवता की देन हैं। कविता में महामारी के देवता का अभिप्राय सिस्टोसोमियासिस (घोंघा ज्वर) से है।

[24] च्याङशी प्रान्त के पूर्वी भाग में स्थित एक काउंटी जहां पहले सिस्टोसोमियासिस का भारी प्रकोप मौजूद था।

[25] चीन का एक प्राचीन श्रेष्ठ चिकित्सक।

[26] यहां अभिप्राय भूमध्य रेखा की लम्बाई और पृथ्वी की परिधि से है।

[27] यहां अभिप्राय आकाश गंगा के भीतर और बाहर स्थित तारामंडल से हैं।

[28] आकाशगंगा का प्रथम श्रवण नक्षत्र चीन में ग्वाला नक्षत्र कहलाता है। पौराणिक कथाओं में यह नक्षत्र किसानों का प्रतीक माना जाता है।

[29] यहां दैवी धरती से कवि का अभिप्राय चीन से है।

[30] जनश्रुति के अनुसार चीन के दो विवेकशील प्राचीन सम्राट।

[31] दक्षिण चीन में स्थित पांच पर्वत मालाएं। यहां कवि का संकेत दक्षिण चीन के विशाल क्षेत्र की ओर है।

[32] “तीन नदियों के इर्दगिर्द की धरती” से कवि का अभिप्राय मध्य चीन स्थित पीली नदी के मध्य भाग के आसपास के भूभाग से है।

[33] चीन के पुराने रिवाज के अनुसार कागज की नौकाएं भस्म करके और मोमबत्तियां जलाकार देवताओं को विदाई दी जाती थी अथवा भूतप्रेतों को भगाया जाता था।

[34] लूशान च्याङशी प्रान्त में ताङत्सी नदी के दक्षिणी तट पर च्यूच्याङ शहर के उत्तर में स्थित एक पर्वत है।

यह कविता माओ त्से-तुङ ने लूशान में ही हुई चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की आठवीं प्लेनम से ठीक एक माह पहले लिखी थी। इसी प्रसिद्ध तूफानी बैठक में उन्होंने अपना सबकुछ दांव पर लगाकर पार्टी के नेतृत्व में बैठे उन लोगों का विरोध करने का आह्वान किया था जो समाजवादी रास्ते को तिलांजलि देना चाहते थे और जो ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ पर्दे के पीछे से विध्वंसक विरोध कर रहे थे।

यह कविता जब लिखी गई थी, उस समय न केवल चीन में, बल्कि विश्वस्तर पर भी संशोधनवाद और क्रान्तिकारी कम्युनिज्म के बीच निर्णायक संघर्ष की विभाजक रेखा खींच चुकी थी। जून के महीने में, माओ जब हुनान में थे, उसी समय ख्रुश्चेव ने चीन के साथ नई सामरिक तकनोलॉजी संबंधी समझौते को एकतरफा ढंग से रद्द कर दिया और चीनी पार्टी पर आर्थिक-राजनीतिक दबाव बनाने लगा कि वह अपनी सिद्धान्तनिष्ठ अवस्थिति को बदल दे और आधुनिक संशोधनवाद के समक्ष घुटने टेक दे। इधर चीन में भी पार्टी के भीतर के दक्षिणपंथी तत्वों का दबाव चरम पर था।

इस चतुर्दिक घेरेबंदी के बीच माओ एक नये निर्णायक संघर्ष के लिए कमर कस रहे थे। इस समय के अपने मनोभावों को इस कविता में बांधते हुए माओ ने गहराते संघर्ष को उमड़ते-घुमड़ते गहराते बादलों के रूप में देखा है। पूर्वी किनारे पर पछाड़ खाती प्रचंड लहरों से अभ्रिपाय क्रान्ति की धारा से हैं।

[35] लूशान के निकट, पूरब में ताङत्सी में कई सहायक नदियां आकर मिलती हैं, जिनकी चर्चा चीनी क्लासिकी कविता में बहुता नौ जलधाराओं के नाम से आती है।

[36] यह मीनार वुचाङ के पश्चिम में ऊंचाई पर स्थित है, जहां से नीचे ताङत्सी बहती हुई दिखाई देती है। पौराणिक कथा के अनुसार, एक ताओपंथी पीले सारस पर सवार यहां से गुजरा था, तभी से इसका नामकरण पीले सारस वाली मीनार हो गया।

[37] प्रिफेक्ट ताओ युआन-मिङ (365-427 ई-) चिन राजवंश का एक कवि था जो कुछ समय के लिए काउंटी मजिस्ट्रेट भी रहा। उसका जन्मस्थान लू शान पर्वत के निकट था। ताओ युआन-मिङ से जब कहा गया कि वह यथोचित अदब और तामझाम के साथ अपने ऊपर के एक अधिकारी की आगवानी करे तो उसने यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि ‘वह महज पांच बोरी चावल के लिए एक क्षुद्र फूहड़ व्यक्ति के सामने सिर भला कैसे झुकायेगा? ऐसे करने के बजाय उसने अपना पद त्याग दिया। कविता में माओ ने चीन की पार्टी के क्रान्तिकारियों को और स्वयं को ताओ युआन-मिङ के रूप में देखा है जो सोवियत संशोधनाद (और व्यक्ति के रूप में ख्रुश्चेव) के फूहड़ व्यक्तित्व के सामने आर्थिक-सामरिक सहायता के लिए सिर झुकाने से इनकार कर देता है।

[38] ताओ युआन-मिङ ने “सतालू पुष्प से सुशोभित भूमि” नामक एक कृति की रचना की थी जिसमें एक सुखी समाज का काल्पनिक चित्र उपस्थित किया गया था। माओ ने यहां इंगित किया है कि ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ और कम्यूनों के निर्माण के बाद चीन का समाज एक ऐसा ही सुखी समाज होगा और यह वास्तविक होगा जबकि ताओ द्वारा चित्रित समाज काल्पनिक था।

[39] यह कविता माओ ने चीन में समाजवादी क्रान्ति एवं निर्माण के एक कठिनतम दौर में लिखी थी। चीन को पश्चिमी साम्राज्यवादियों के घेरेबंदी के अतिरिक्त सोवियत संघ के असहयोग और भितरघाती कार्रवाईयों का भी सामना करना पड़ रहा था। 1960-61 का जाड़ा चीन के लिए बेहद कठिन था। उस दौरान जनता को जबर्दस्त अकाल का सामना करना पड़ा था।

इन कठिन स्थितियों से जूझने के लिए संकल्प बांधते हुए माओ चीन के अतीत को याद करते हैं और भविष्य में अपनी गहरी आस्था प्रकट करते हैं।

[40] यहां कवि का अभिप्राय सम्राट याओ की दो बेटियों से है। पौराणिक कथा के अनुसार इन दोनों बहनों ने याओ के उत्तराधिकारी सम्राट शुन से विवाह किया था। दक्षिण प्रदेश का दौरा करते समय हुनान प्रान्त में सम्राट शुन का देहान्त हो गया और च्यूई पर्वत पर उसकी समाधि बना दी गई। सम्राट के निधन का समाचार पाते ही दोनों रानियां हुनान पहुंच गईं। कहा जाता है कि सिताङ नदी कि किनारे उन्होंने इतने आसूं बहाये कि नदी तट पर स्थित बांस वन के सभी बांसों पर चित्तियां पड़ गईं।

यहां माओ का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार शहजादियों के शोक से बांस के वृक्षों में एक नया सौन्दर्य पैदा हो गया, उसी तरह चीनी जनता का दुःख भरा कठिन समय भी अन्ततः एक सुंदर भविष्य का निर्माण करेगा। यही भौतिकवादी द्वंद्ववाद का नियम है। इसीलिए माओ ने उपरोक्त शहजादियों को हवा पर सवार और गुलाबी लाल परिधानों से सजा हुआ दिखाया है, जो चीनी जनता की खुशहाली का एक भविष्य-चित्र है।

[41] हुनान प्रान्त की एक झील।

[42] यहां माओ का अभिप्राय चाङशा के निकट सिताङ नदी में स्थित नारंगी टापू से है। “धरती को हिला देने वाले तराने” के रूप में माओ अपने युवावस्था के क्रान्तिकारी अनुभवों को याद करते हैं और इंगित करते हैं कि उन दिनों की स्मृतियां अभी भी जनता के हृदय को आलोड़ित कर रही हैं।

[43] “जवा कुसुम की धरती” हुनान का साहित्यिक नाम है जो ताङ राजवंश कालीन कविता से लिया गया है। निर्बाध-उन्मुक्त सपने में  ‘जवाकुसुम’ की धरती को सुबह की रोशनी में चमकते हुए देखना वस्तुतः एक दिन चीन में कम्युनिज्म के अवतरण का सपना देखना है।

[44] यह कविता माओ ने अपनी पत्नी और सहयोद्धा चिताङ चिङ द्वारा खींचे गये एक कलात्मक छायाचित्र के पीछे लिखी थी। चिताङ चिङ कलात्मक फोटोग्राफी लि चिन नाम से करती थीं। यह चित्र लुशान नगर के बाहर पहाड़ के कगार पर खड़े देवदारु के वृक्ष को दर्शाता है। यह छायाचित्र 1959 में लूशान की उस तूफानी बैठक के ठीक बाद लिया गया था, जिसकी चर्चा ‘लूशान पर चढ़ते हुए’ कविता पर ऊपर दी गई टिप्पणी-1 में की गई है।

चित्र पर लिखी गई कविता लूशान बैठक की स्थितियों की भी याद दिलाती है और 1961 के कठिन समय को भी प्रतिबिम्बित करती है। “दुर्गम खतरनाक ऊंचाईयो पर ही/ दिखती है सुन्दरता/ अपने अनन्त रूपों में”-इन पंक्तियों का यह अभिप्राय स्पष्ट है कि कठिन साहसिक संघर्षों से गुजरकर ही समाजवादी जीवन के सौन्दर्य के अनन्त रूपों से साक्षात्कार किया जा सकता है।

[45] कुओ मो-जो द्वारा माओ को भेजी गई कविता और उसके उत्तर में लिखी गई कविता में सोलहवीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध पौराणिक उपन्यास में वर्णित कथा का संदर्भ है जिसके माध्यम से ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरोध में संघर्ष की तत्कालीन स्थितियों को अभिव्यक्त किया गया है।

उपरोक्त उपन्यास पर आधारित एक ऑपेरा को देखने के बाद ही कुओ मो-जो ने अपनी कविता लिखी थी। ऑपेरा में बौद्ध भिक्षु सियेन च्वाङ अपने तीन शिष्यों-दिव्य वानरराज (यानी ऊ कुङ), सूअर और भिक्षु शा को लेकर बौद्ध सूत्र लेने भारत की तीर्थयात्रा करने जाता है। रास्ते में उसे “सफेद हड्डियों का शैतान” मिलता है जो दीर्घजीवी होने की आकांक्षा से प्रेरित होकर भिक्षु का मांस खाना चाहता है। तीन बार वह क्रमशः एक सुन्दर युवती, एक बुढ़िया और बूढ़े आदमी का रूप धारण करके आता है। तीनों बार दिव्य वानरराज उसे पहचान लेता है, पर भिक्षु उसे जाने देता है। उल्टे वह वानरराज को ही आदेश न मानने के लिए दंडित करता रहता है। यात्रा के दौरान वानरराज को वश में रखने के लिए वह उसके सिर पर एक स्वर्णचक्र पहनाये रहता है जब वानरराज उसके गलत आदेशों का पालन नहीं करता है तो वह स्वर्णचक्र को सिकोड़ने के लिए सस्वर मंत्रपाठ करता है जिससे वानरराज के सिर में असह्य पीड़ा होने लगती है। उक्त कथा में, अन्त में दिव्य वानरराज अपनी भारी गदा से शैतान को मार डालता है।

कुओ मो-जो की कविता में भ्रमित भिक्षु (संशोधनवादी) ख्रुश्चेव गुट का प्रतीक है जो अमेरिकी साम्राज्यवाद (सफेद हड्डियों वाला शैतान) के प्रति नरमी बरतता है लेकिन चीन लोक गणराज्य की क्रान्तिकारी जनता और चीनी कम्युनिष्ट पार्टी (दिव्य वानरराज) के प्रति अन्यायपूर्ण जोर-जबदस्ती का व्यवहार करता है।

माओ त्से-तुङ ने अपनी कविता में यह भाव प्रकट किया है कि चीनी क्रान्ति का तूफान आते ही पश्चिमी साम्राज्यवाद का शैतान भी सक्रिय हो गया है। ख्रुश्चेवी गुट इस सच को जानते हुए भी नरमी बरत रहा है। माओ की कविता में यह कहा गया है कि अतीत में जिस तरह क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ने अपनी पार्टी के नेतृत्व में विश्व पूंजीवाद को शिकस्त दी थी, उसी तरह आगे भी होगा। कविता इसके लिए सर्वहारा वर्ग और कम्युनिस्टों का आह्वान करती है।

[46] 7 जनवरी, 1963 को ‘प्रावदा’ ने अल्बानिया की पार्टी को निशाना बनाकर या “वामपंथी” और “कठमुल्लावादी” लोगों की आलोचना का बहाना बनाकर प्रहार करने के बजाय, पहली बार चीन की पार्टी पर सीधे प्रहार किया। इसके ठीक दो दिनों बाद, कुओ मो-जो की कविता का जवाब देने के बहाने से माओ ने अपने मनोभावों को इस कविता में बांधा, जिसमें अपने देश की जनता और अपनी पार्टी में अटूट विश्वास, संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष में विजय के प्रति अडिग आस्था और गहरे क्रान्तिकारी आत्मविश्वास को प्रकट किया गया है।

अंशतः ‘प्रावदा’ के कीचड़ उछालने से प्रेरित होने के बावजूद यह कविता संपूर्ण विश्व परिस्थिति पर भी प्रतिक्रिया प्रकट करती है। चीनी पार्टी की एक टिप्पणी के अनुसार, “1963 वह वर्ष था जब विश्व स्तर पर सभी प्रतिक्रियावादी शक्तियों का चीन-विरोधी कोरस अपने शिखर पर जा पहुंचा। पर साथ ही, इसी वर्ष एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका की जनता की क्रान्तिकारी लहर भी अपने चरमोत्कर्ष पर जा पहुंची। यह मार्क्सवाद-लेनिनवाद विरोधी विचारधारात्मक लहर की प्रचण्डता का समय था, लेकिन इसके बावजूद सत्य के साहसिक योद्धाओं के अविराम संघर्ष का सिलसिला भी जारी था।”

इसी स्थिति को माओ ने इस कविता में क्रान्तिकारी और परंपरागत बिम्ब-विधान के असाधारण संयोजन के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

[47] कविता में भूमंडल को छोटा इसीलिए कहा गया है कि सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावादी क्रान्तिकारी की दृष्टि में इसकी विशालता कोई अर्थ नहीं रखती क्योंकि सर्वहारा वर्ग अपनी क्रान्तिकारी कार्रवाइयों के द्वारा इसे बदल डालने में सक्षम हैं।

[48] बिना रुके भनभनाने, चीखने और कराहने वाली मक्खियों से तात्पर्य साम्राज्यवादियों और आधुनिक संशोधनवादियों से है।

[49] ये दीवारें मार्क्सवाद-लेनिनवाद की क्रान्तिकारी विचारधारा की हैं।

[50] इन पंक्तियों में जिन चीटियों और चींटों की चर्चा की गई है उनसे कवि का अभिप्राय सोवियत संशोधनवादियों से है जो चीन पर बडे़ राष्ट्र की धौंसपट्टी (बिग नेशन शॉवनिज्म) दिखाते थे। विशाल वृक्ष चीन की पार्टी और उसकी विचारधारा का प्रतीक है। चीनी पार्टी के एक मुखपत्र के अप्रैल 1964 के एक संपादकीय के अनुसार, “माओ और उनके विचारों पर कीचड़ उछालने के अनथक प्रयासों में लगे सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतागण वस्तुतः उन चींटों के समान हैं जो हास्यास्पद ढंग से अपनी औकात बढ़ाचढ़ाकर आंक रहे हैं और एक विशाल वृक्ष को उखाड़ देने के मसूंबे बांध रहे हैं।” इससे कविता का संदर्भ स्पष्ट हो जाता है। बबूल के पेड़ का संदर्भ ताङ राजवंश की एक कहानी से जुड़ा हुआ है। उक्त कहानी में कहा गया है कि एक आदमी शराब के नशे में सो गया और सपने में “बबूल राज्य” के राजा का दामाद और उसकी दक्षिणी शाखा का प्रिफेक्ट बन गया। “बबूल राज्य” वास्तव में बबूल के पेड़ के नीचे एक छोटा सा छिद्र था, जिसमें चींटियां रहती थीं।

[51] चाङआन नगर शेनशी प्रांत का वर्तमान चीआन नगर है जो प्राचीन काल में चीन की प्रसिद्ध राजधानी था। कविता में यह पूरे चीन के प्रतीक के रूप में आया है।

[52] ‘पंक्तियां’ प्रतिक्रियावादी शक्तियां हैं जो क्रान्तिकारी विस्फोट से बिखर गई हैं। पर साथ ही, माओ का तात्पर्य शायद यहां सोवियत और अन्य संशोधनवादियों के प्रोपेगैण्डा से भी है।

[53] तीर मार्क्सवादी-लेनिनवादी सच्चाई के प्रतीक हैं जिनसे चीन की पार्टी अपने दुश्मनों को जवाब देती है।

[54] कविता के इस अंतिम हिस्से में विश्व स्तर पर क्रान्तिकारी धारा के नये उत्कर्ष का उल्लेख किया गया है और क्रान्तिकारियों को उनके चुनौतीपूर्ण कार्यभारों की याद दिलाते हुए बिना रुके लगातार संघर्षरत रहने के लिए उनका आह्वान किया गया हैं।

[55] यहां माओ त्से-तुङ की संकलित रचनाओं के चार खंडों का हवाला दिया गया है।

[56] यह एक चीनी कहावत है। प्राचीन जनश्रुति के अनुसार चियेह एक निरकुंश सम्राट था जबकि याओ एक दयालु और विवेकशील सम्राट। चियेह यहां साम्राज्यवाद को और चियेह का कुत्ता सोवियत संशोधनवाद को कहा गया है। याओ यहां चीन की पार्टी और माओ त्से-तुङ को कहा गया है।

[57] मिट्टी के सांड से यहां तात्पर्य साम्राज्यवाद और आधुनिक संशोधनवाद से है।

गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों और दाता एजेंसियों का असली चरित्र

गैर-सरकारी स्वयंसेवी संगठनों और दाता एजेंसियों का असली चरित्र
तीसरा क्षेत्र (थर्ड सेक्टर):पूंजीवाद के एक सुरक्षा-कवच के रूप में

  • जोन रोयलोव्स

व्‍यवस्था-परिवर्तन की लड़ाई को आगे बढ़ाने की इच्छा रखने वालों को इस बात पर बारीकी से गौर करना चहिए कि वे कौन-कौन सी. चीजें हैं जो वर्तमान व्यवस्था को टिकाये हुए हैं। पूंजीवाद अगर अपनी तमाम कमजोरियों और बहादुराना प्रतिरोध संघर्षों के बावजूद धराशायी नहीं हो पा रहा है तो उसका एक कारण यह “मुनाफारहित क्षेत्र”(‘नॉन प्रॉफिट सेक्टर’) भी है। फिर भी पूंजीवाद के आलोचक इस क्षेत्र की “लोकहितैषी” पूंजी, इसके निवेश और इसके वितरण को आमतौर पर नजरअंदाज कर देते हैं। इस विषय पर किये जाने वाले अधिकांश अध्ययनों के लिए यही मुनाफारहित क्षेत्र उदारतापूर्वक अनुदान भी देता रहता है, कुछेक अनुसंधानकर्ताओं ने इस विषय पर मार्क्स और एंगेल्स द्वारा द कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो में की गयी इस टिप्पणी पर गौर भी किया हैः

बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा सामाजिक शिकायतों को दूर करने का इच्छुक बन जाता है, ताकि बुर्जुआ समाज के अस्तित्व को टिकाये रखना सुनिश्चित किया जा सके…। अर्थशास्त्री, मानवप्रेमी, मानवतावादी, मजदूर वर्ग की दशा सुधारने वाले कार्यकर्ता, खैराती संस्थाओं के संगठनकर्ता, जानवरों के प्रति निर्दयता रोकने वाली संस्थाओं के सदस्य, आत्मसंयम के दुराग्रही और भांति-भांति के ख्याली पुलाव पकाने वाले सुधारक इसी हिस्से से संबंधित होते हैं।

इस क्षेत्र के आकार और कार्यक्षेत्र के लिहाज से संयुक्त राज्य अमेरिका अपने आप में अद्वितीय है जो सालाना 400 अरब डॉलर से अधिक ही खर्च करता है। इसकी कर-मुक्त सम्पदा तो भारी रूप में बेहिसाब ही हैः जमीन, इमारतें, उनकी साज-सज्जा, और चर्चों, निजी विश्वविद्यालयों एवं स्कूलों, अजायबघरों, चिड़ियाखानों, शैक्षणिक अस्पतालों, संरक्षण ट्रस्टों, ओपेरा-गृहों आदि में किये गये निवेशों पर जरा गौर तो करें।

यह मॉडल एक शताब्दी से भी अधिक समय से सर्वत्र निर्यात किया जा रहा है। वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका का मानव-प्रेम नेटवर्क संपूर्ण “मुनाफारहित” क्षेत्रों को पूर्वी एशियाई देशों में स्थापित करने की कोशिश में लगा हुआ है। “बाइबिल साम्राज्यवाद” इसका एक आरंभिक रूप था, 1920 और 1930 के दशकों के दौरान लन्दन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में व्यापक रॉकफेलरी मिलावट के तौर पर इसका दूसरा रूप प्रकट हुआ।

कुछ को यह सब अच्छा काम कर रहे संगठनों की एक आकाशगंगा के रूप में दिखायी दे सकता है- लाखों-लाख प्रकाश दीपों के रूप में- लेकिन यह मुनाफारहित लोक भी सत्ता की ही एक व्यवस्था है जो कारपोरेट जगत के हितों की सेवा में समर्पित है।

यह मुनाफारहित क्षेत्र है क्या? संयुक्त राज्य अमेरिका में, इसके अन्तर्गत चर्च, निजी  स्कूल और विश्वविद्यालय, सांस्कृतिक संस्थाएं, जनमत समूह (एडवोकेसी ग्रुप), राजनीतिक आन्दोलन, अनुसंधान संस्थान, खैराती-संस्थाएं और फाउण्डेशन शामिल हैं। इनमें से एक श्रेणी खासतौर से गौरतलब हैः इसके अन्तर्गत वे संगठन आते हैं जो इंटरनल रेवेन्यू कोर्ट के सेक्शन 501 (सी) (3) के अधीन संचालित हैं। ये परोपकारी संगठन है। जिनको प्राप्त होने वाला धन करमुक्त होता है, और इनको दान देने वाला भी दान की रकम के अनुरूप कर में रियायत प्राप्त कर लेता है। आमतौर पर मात्र ये ही ऐसे संगठन हैं जिन्हें फाउण्डेशन अनुदान प्राप्त होता है। इसके एवज में, इनकी राजनीतिक तरफदारी पर अंकुश लगा होता है और ये चुनाव अभियान में भाग नहीं ले सकते। ये शेयरधारकों को मुनाफे का वितरण भी नहीं कर सकते।

फिर भी ऐसा नहीं है कि इस क्षेत्र में सभी के सभी अहानिकर रूप से व्यवस्था की रक्षात्मक गतिविधियों तक ही सीमित हैं, इनमें से कुछ स्वतंत्र संगठन भी हैं, लेकिन ये आमतौर पर दीन-हीन और गुमनाम ही हैं। बहरहाल, ज्यादातर संगठन आपस में और बड़े कारपोरेशनों के साथ अपनी फण्डिंग, अपनी निवेशित परिसम्पत्तियों, तकनीकी सहयोग, एक-दूसरे को अन्तर्बन्धित करने वाले निदेशालयों, तथा इण्डिपेण्डेण्ट सेक्टर और काउन्सिल ऑन फाउण्डेशन जैसे शीर्षस्थ संगठनों के मार्फत जुड़े होते हैं।1

इस मुनाफारहित क्षेत्र के व्यापार संगठन के तौर पर इण्डिपेण्डेण्ट सेक्टर की स्थापना 1980 में हुई। इसका बजट 50 लाख डॉलर का है, तथा इसकी सदस्य-संख्या 800 है (नवम्बर 1988 की स्थिति के अनुसार) जिसमें एटी एण्ड टी फाउण्डेशन, आगा खान फाउण्डेशन, अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ कम्युनिटी एंड जूनियर कालिजेज, अमेरिकन एसोसियेशन ऑफ यूनिवर्सिटी वीमेन, बी नाई बी रिथ इंटरनेशनल, बॉय स्काउट्स ऑफ अमेरिका, कोअर्स फाउण्डेशन, इन वाइरॅन मेंटल लॉ इंस्टीट्यूट, मेक्सिकन-अमेरिकन लीगल डिफेन्स एंड एड्यूकेशनल फंड, मदर्स अगेन्स्ट ड्रंक ड्राइविंग, एनए ए. सी. पी लीगल डिफेंस एंड एड्यूकेशनल फंड, नेशनल ऑड्यूबॉन सोसाइटी, सिएरा क्लब और वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फाउण्डेशन शामिल हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में कोई 1500 से अधिक ऐसे फाउण्डेशन हैं जो मुनाफाखोर कारपोरेशनों से संबद्ध हैं, और जो परम्परागत खैराती संस्थाओं एवं फाउण्डेशनों के साथ मिलकर मुनाफाखोरी के इस विशाल जहाज को चलाने का काम करते हैं।

लेकिन यह क्षेत्र पूंजीवाद के एक सुरक्षा-कवच के रूप में काम कैसे करता है?

पहली बात तो यह है कि मुनाफारहित गतिविधियां मुनाफाखोर क्षेत्र के लिए पूंजी के संकेन्द्रण और वितरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। उदाहरण के तौर पर, मुनाफारहित अस्पताल के ट्रस्टियों की परिषदों में व्यापारी, बैंकर, स्थायी परिसम्पत्तियों के विकासकर्ता, बीमा अधिकारी आदि ही हावी  होते हैं। इनके द्वारा लिये जाने वाले कारोबार विस्तारीकरण के फैसले क्षेत्र विशेष की अर्थव्यवस्था में एक भारी बढ़त की गुंजाइश तो पैदा करते ही हैं, साथ ही अलग-अलग कारपोरेशनों की भी चांदी हो जाती है। इसके अतिरिक्त, फाउण्डेशन और अन्य खैराती संस्थाएं स्टॉकों और बांडो में अपनी परिसम्पत्तियों का निवेश भी करती हैं और ऐसा करके वे दूसरी संस्थाओं के निवेशकर्ताओं के साथ अपनी शक्तिमत्ता का इजहार भी करती हैं।

दूसरी बात यह है कि मुनाफारहित गतिविधियां ऐसे माल और सेवाएं मुहैया करती हैं, जिन्हें बाजार द्वारा मुहैया नहीं कराया जा सकता, मसलन बेघरों के लिए आवास से लेकर ओपेरा और बी बी सी. टीवी ड्रामा तक। इनमें से आखिर वाली चीजें अच्छी-खासी अहमियत रखती हैं, कारण कि बुद्धिजीवियों का इधर-उधर बहकाव घोर कंगाली से कहीं अधिक खतरनाक सिद्ध हो सकता है।

मुनाफारहित लेकिन जरूरी गतिविधियां सरकारों द्वारा भी संचालित की जाती हैं, जैसा कि तमाम देशों में हो रहा है। लेकिन दान, संस्कृति, शिक्षा और सुधार-कार्य के निजीकरण के भी कई फायदे हैं। अगर लोकहितैषी पूंजी पर टैक्स लगाया जाता है तो इस पर राजनीतक विवाद उठ खड़ा हो जाता है। दूसरी तरफ, मुनाफारहित संगठन स्वयं-निर्मित परिषदों द्वारा संचालित होते हैं, और उनके निजी नीति निर्धारण पर कोई जनतांत्रिक दखल नहीं कर सकता। उनके स्टाफ-सदस्यों को कोई नागरिक अधिकार या सुरक्षा नहीं होती, वे मानव-प्रेम और उसकी प्रत्यक्ष आलिंगनबद्धता पर ही निर्भर होते हैं। लगभग सारे के सारे संगठन फंड के लिए कारपोरेशनों और फाउण्डेशनों का मुंह जोहते रहते हैं। छोटी-छोटी दान-राशियां या पावतियां किसी बड़े काम के लिए शायद ही पूरी पड़ जाती हैं, और उन्हें एकत्र करने में भी काफी ऊर्जा का अपव्यय हो जाता है। इसीलिए एन. ए. ए. सी. पी लीगल डिफेंस एण्ड एड्यूकेशन फंड तक को भी 1954 में ब्राउन बनाम बोर्ड ऑफ एड्यूकेशन के मामले में कानूनी कार्यवाही हेतु धन प्राप्त करने के लिए फाउण्डेशन पर भारी रूप से निर्भर होना पड़ा था।

इन मुनाफारहित कार्यवाहियों में से कुछ का संपादन तो राजनीतिक पार्टियों, यूनियनों या सामाजिक आंदोलनों द्वारा कर दिया जाता है। सारी दुनिया में कहीं भी देखें, राजनीतिक पार्टियां युवा समूहों, दैनन्दिन देख-भाल केन्द्रों, शिशु शिविरों तथा दूसरी खैराती एवं शैक्षणिक गतिविधियों का संचालन करती रहती है। किसी को ऐसा लग सकता है कि एक जनतांत्रिक व्यवस्था में यह खासतौर से उचित ही है कि राजनीतिक पार्टियां समाज-सुधार और सार्वजनिक नीतिगत अनुसंधान एवं जनमत के बुनियादी पथ-प्रदर्शक बनें। फिर भी स्थिति यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में जनमत और सुधार कार्यों पर ज्यादातर फाउण्डेशन समर्थित मुनाफारहित क्षेत्र का ही कब्जा है।

इस मुनाफारहित तीसरे क्षेत्र का एक और दूसरा सुरक्षात्मक कार्य धनवानों के बेटों-बेटियों को रोजगार मुहैया करना है जो इसके बगैर अन्य किसी भी वर्ग के बेटों-बेटियों की भांति ही बेरोजगार और विद्रोही बनकर विरोधी और सिरदर्द बन जाते। तब फिर क्यों न ढेरों तैरते सोने के साथ संभावित और वास्तविक ‘परेशानी पैदा करने वालों’ को मिलाकर एक ऐसा “शोरबा” तैयार किया जाये जो दुखते गलों और दुखते सिरों को बड़ी आसानी से रास आ जाये और उन्हें राहत दे सके।

इन संगठनों की गैर-सरकारी और गैर-पक्षधर स्थिति परोपकारिता और स्वतंत्रता का एक आभामंडल उत्पन्न करती है, और यही तो उनकी अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। उनका भौगोलिक एवं कारोबारी क्षेत्र अत्यंत व्यापक है, जिसमें अपने मानव-प्रेम की घुसपैठ कराने में उन्हें किसी उल्लेखनीय प्रतिरोध का सामना शायद ही करना पड़ता है। आज उनकी ताजा गतिविधियां हैं: पूरे लातिन अमेरिका में ईसाई जनतांत्रिक पार्टियों, यूनियनों और जमीनी संगठनों की मदद करना, पूर्वी यूरोप और पूर्व सोवियत संघ में एक मुनाफारहित क्षेत्र निर्मित करना, दक्षिण अफ्रीका में एक गैर-नस्ली, गैर-समाजवादी नुस्खे की पेशकश करना, और तीसरी दुनिया में शोषण की आलोचना करने वालों के जवाब में “टिकाऊ” विकास की मुहिम चलाना। स्वयं राष्ट्रसंघ भी, अपने जन्म और विकास के चरित्र के अनुरूप, बहुराष्ट्रीय मानव-प्रेम पर काफी जोर दे रहा है।

इन मुनाफारहित व्यवस्था का स्वरूप तब और भी स्पष्ट हो जाता है जब हम इसके नियोजन और फंड संबंधी हथकंडों यानी इसके फाउण्डेशनों पर गौर करते हैं। ये मनोरंजन पर खर्च करते हैं, कलाकारों को तुष्ट करने पर खर्च करते हैं, जीव-रसायनी अनुसंधान पर खर्च करते हैं और दैनंदिन खैरात बांटते हैं। पर इनकी सबसे दिलचस्प कवायदें सामाजिक सुधार संचालित करने में दिखायी देती है ये और इनके ईजाद किये गये नुस्खे राजनीतिक परिवर्तन के लिए विचार सप्लाई करते हैं। ऐसे भारीभरकम बहुउद्देशीय फाउण्डेशन सबसे पहले इस बीसवीं शताब्दी के आरंभ में उठ खड़े हुए, और जी-जान से प्रगतिवाद और सामाजिक विज्ञानों के विकास में जुट गये। कुख्यात लुटेरे अभिजात-तंत्र के नव-धनपतियों को ये फाउण्डेशन ढेरों मकसदे पूरे करने वाले उपकरण नजर आने लगे। पहला यह कि इनसे उन्हें अपनी बेशुमार दौलत को सुव्यवस्थित कर लेने का एक बढ़िया तरीका मिल गया। दूसरा यह कि इनके जरिये मानव-प्रेम की दुहाई देकर भारी सामाजिक नियंत्रण हासिल कर लेने की सुविधा मिल गयी। जॉन डी. रॉकफेलर ने “एक बड़ा फाउण्डेशन स्थापित करने” का फैसला कर लिया। यह फाउण्डेशन अकेले केन्द्रीय नियंत्रण करने वाली एक ऐसी कंपनी के रूप में स्थापित होने वाला था जो किसी को तथा अन्य सभी प्रकार के लोकोपकारी संगठनों को वित्तीय सहायता देने, और इस प्रकार आवश्यक रूप से उन्हें अपनी आम निगरानी के अधीन कर लेने वाला था।2 और तीसरा मकसद यह था कि फाउण्डेशनों के जरिये सार्वजनिक संबंधों को बेहतर बनाया जा सके, कई लोगों का यह भी मानना था कि रॉकफेलर फाउण्डेशन लुडलो नरसंहार के कलंक को मिटाने के लिए खड़ा किया गया।

प्रथम विश्वयुद्ध से पहले के काल में, फाउण्डेशनों ने जन-साधारण की माली हालत में सुधार करने का काम हाथ में लिया और इसी के साथ-साथ ऐसे बुद्धिजीवियों का सहयोग भी लिया जो अक्सर समाजवादी सहानुभूति जताते रहते थे। इन फाउण्डेशनों ने एक ऐसी विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया जिसके अनुसार समाजिक बुराइयों को ऐसी समस्याएं माना गया जो समाज-वैज्ञानिकों द्वारा हल की जा सकती थीं। इसमें वर्ग संघर्ष, या यहां तक कि हितों के टकराव को तनिक भी तवज्जोह नहीं दी गयी।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, नीति-निर्धारण प्रक्रिया में फाउण्डेशनों का हस्तक्षेप नाटकीय ढंग से बढ़ चला। उदाहरण के तौर पर, राजनीतिक उपद्रव के भय से निजात पाने की रणनीति फोर्ड फाउण्डेशन से ली गयी। 1949 की इसकी रिपोर्ट में यह दलील दी गयी कि हमें साम्यवाद की चुनौती का सामना करने के लिए अपनी व्यवस्था को मजबूत बनाना होगा। इसके तहत जो समस्याएं गिनायी गयीं वे थीं गृहयुद्ध का बाकी बचा काम, राजनीतिक भागीदारी की कमी और अव्यवस्थित व्यक्तियों की देखरेख। फोर्ड की आरंभिक रणनीति सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के लिए होने वाले मुकदमों के खर्च की फण्डिंग करने की थी, ताकि इस सुविधा को पा कर काले लोग कानूनी तौर पर बराबरी हासिल कर सकें, फौजदारी अदालती व्यवस्था में सुधार किया जा सके और विधायिकाओं को फिर से बहाल किया जा सके।

1960 के दशक के दौरान, तेजी से उठ खड़े हो रहे विरोधी आंदोलनों से निपटने के एक उपाय के तौर पर, फोर्ड फाउण्डेशन ने जनहित कानून के निर्माण की दिशा में एक अग्रणी भूमिका अदा की। इस काननू के तहत कानूनी संस्थाएं गठित की गयीं, कानून के स्कूलों में चिकित्सकीय कार्यक्रम चालू किये गये, विशिष्टीकृत कानूनी समीक्षाएं की जाने लगीं और एक उपयुक्त विचारधारा लागू की गयीं। मुकदमेबाजी से संबंधित जो संगठन उठ खड़े हुए वे थे वीमेन्स लॉ फंड, इनवाइरनमेंटल डिफेंस फंड, नेचुरल रिसोर्सेज डिफेंस काउसिंल और ढेर सारे लीगल डिफेंस एंड एड्यूकेशन फंडस (एल डी. ई. एफ) जिनमें प्योरटोरिको के एल. डी. ई. एफ., मेक्सिको-अमेरिका के एल. डी. ई. एफ और नेटिव अमेरिका के एल. डी. ई. एफ भी शामिल थे। नेशनल एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ कलइ पीपुल लीगल डिफेंस एंड एड्यूकेशन फंड तथा अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन जैसे पुराने संगठन भी फाउण्डेशन की फडिंग पर आश्रित हो गये।

कांफ्रेंसों, रिपोर्टों, और प्रायोजित अनुसंधानों एवं किताबों के जरिये प्रचारित-प्रसारित की जाने वाली फाउण्डेशन-विचारधारा का मानना है कि उग्रपरिवर्तनवादी विरोध-प्रदर्शन बहुलवाद की अपर्याप्तताओं के सूचक हैं। सुविधावंचित समूहों जैसे काले लोगों, चिकामो समुदाय, महिलाओं, बच्चों एवं गरीबों को उनके अधिकार दिलाने में मदद किये जाने की जरूरत है। गौरतलब है कि यहां गरीबों को एक अलग अल्पसंख्यक समूह माना जाता है। और गरीबी, सैन्यवाद, नस्लवाद तथा पर्यावरणीय विनाश को पूंजीवादी व्यवस्था के बाइप्रॉडक्ट मानने वाले किसी भी विचार को सिरे से ही खारिज कर दिया जाता है।

फाउण्डेशनों ने अपने सुविचारित, व्यावहारिक लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में आगे बढ़ने हेतु वर्तमान में कार्यरत संगठनों में भी खूब पैसा लगाया है। परन्तु वैसे संगठनों को एक पाई भी नहीं दिया है जो यह चाहते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका के काले लोग भी अपने आप को विश्वव्यापी उपनिवेशवाद-विरोधी जन-उभारों का हिस्सा समझें। अलबत्ता नेशनल अर्बन लीग, एन. ए. ए. सी. पी., एन. ए. ए. सी. पी./ एल. डी. ई. एफ., और सदर्न रिजनल कांउसिल जैसे नरमपंथी काले लोगों के संगठनों की फडिंग की गयी हैः इसके उग्रपरिवर्तनवादी समूहों को या तो नजरंदाज कर दिया गया है या दमित।

फाउण्डेशन ऐसे गठबंधनों को प्रोत्साहित करते हैं जो यथास्थिति बनाये रखने के पक्षधर हैं। इसी नीति के तहत 1967 में, नागरिक अधिकार संगठनों, फाउण्डेशनों, और बडे़ कारपोरेशनों के बीच एक गठबंधन के रूप में नेशनल अर्बन कोलीशन (एन. यू. सी.) की स्थापना की गयी। इसके पहले कारपोरेशनों का मानव-प्रेम आमतौर पर जनसंपर्कों, उत्पाद-प्रोत्साहन, कर्मचारी प्रशिक्षण और इसी तरह के अन्य उद्देश्यों तक ही सीमित था। परन्तु 1960 के दशक की शुरुआत होते ही अधिकांश बड़े कारपोरेशनों ने ऐसे फाउण्डेशन गठित कर लिए जो फोर्ड, कारनेगी, रॉकफेलर आदि के सुरताल में पूंजीवाद के पक्ष में आमतौर पर सहयोग करने लगे। वे इण्डिपेण्डेण्ट सेक्टर के सदस्य भी बन गये। वैसे कारपोरेट फंडों के जनकल्याणकारी इस्तेमाल की वैधता पर स्टॉकधारक तो अक्सर सवाल उठाते रहते हैं,  परन्तु वामपंथी इस “मुनाफारहित क्षेत्र” के इस नये पहलू के महत्व को आमतौर पर नजरअंदाज ही करते रहते हैं।

फोर्ड फाउण्डेशन के नेतृत्व में एन. यू. सी. का एक कार्यक्रम कम्युनिटी डेवलपमेंट कारपोरेशनों की स्थापना करना था, जो “काले लोगों की सत्ता” के नारे को एक स्वीकार्य “काले लोगों के पूंजीवाद” के नारे के रूप में तब्दील कर देने के एक प्रयास के रूप में था। इस तरह के उपक्रम, जो सरकार से लेकर, कारपोरेशनों और फाउण्डेशनों तक वित्तीय गठबंधन करते हैं, कंगाली-बदहाली वाले क्षेत्रों में- चाहे वे गोरों के हो या कालों के, शहरी हों या ग्रामीण- छोटे-छोटे व्यवसाय और उद्योग चालू कर देते हैं। हालांकि ऐसे क्षेत्रों में उनके निवेश के लिहाज से उपलब्धि निहायत मामूली ही होती है, फिर भी उनकी उपलब्धि लोगों को आत्मतुष्ट और शांत बनाये रखने, नरमपंथी नेतृत्व पैदा करने और व्यक्तियों को सामाजिक रूप से गतिशील बनाने में तो देखी ही जा सकती है।

फाउण्डेशन-कारपोरेशन गठबंधन का एक दूसरा प्रोजेक्ट अटलांटा में नॉन-वायलेंट सोशल चेंज के लिए मार्टिन लूथर किंग जूनियर केन्द्र की स्थापना करना था। इसको बड़े-बड़े फाउण्डेशनों के साथ-साथ फोर्ड मोटर कंपनी, अटलांटिक रिचफील्ड, लेवी स्ट्रास, अमोको, जनरल मोटर्स, ह्यूबलिन, कॉनिंग, मोबिल, वेस्टर्न इलेक्ट्रिक, प्रॉक्टर एंड गैम्बल, यू. एस स्टील, मॉन्सैंटो, मॉरगन गांरटी ट्रस्ट आदि के कारपोरेट फाउण्डेशनों से भी वित्तीय सहायता प्राप्त हुई। अहानिकार कार्यक्रम जैसे दैनंदिन देखभाल केन्द्र, आवासीय पुनर्वास और डॉ. किंग का जन्मदिन कैसे मनाया जाये- इससे संबंधी सूचनाएं जुटाने के साथ-साथ दो और विस्मयकारी प्रोजेक्ट लिये गये। इनमें से पहला है किंग के जन्मदिन को सैनिक रीतिविधान के साथ सैनिक अड्डों पर मनाने की परंपरा डालना। और दूसरा है “द फ्री एंटरप्राइज सिस्टमः एन. एजेंट फॉर नॉन-वॉयलेंट सोशल चेन्ज” शीर्षक से एक वार्षिक व्याख्यान माला का संयुक्त आयोजन करना।

दूसरे अल्पसंख्यक आंदोलनों को स्टैण्डर्ड वाशिंगटन लॉबी के सांचे में ढाल दिया गया है। फोर्ड फाउण्डेशन ने साउथवेस्ट काउंसिल ऑफ लॅ रज़ा और नेशनल काउंसिल ऑफ लॅ रज़ा की स्थापना की, जहां से एक बार चिकानो लोगों के साउथवेस्ट में उग्र आन्दोलन उठ खड़े हुए थे।

विरोध और समर्थन करने वाले संगठनों के लिए नेतृत्व संबंधी प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता के कार्यक्रम भी व्यावहारिक लक्ष्यों पर जोर देते हैं। फाउण्डेशनों का दावा है कि उनके कार्यक्रम “बहुलवाद”(प्लूरलिज्म) को बढ़ावा देने के लिए हैं। परन्तु उनका मुख्य काम फाउण्डेशन-कारपोरेशन नेटवर्क को और विस्तृत और मजबूत बनाना ही होता है। कारण कि राजनीति में किसी भी रूप में जनता की भागीदारी और जनसाधारण पर जोर नहीं दिया जाता, और राजनीतिक बहस-मुबाहिसे पर फाउण्डेशन समर्थित नीतियों के विशेषज्ञ लगभग पूरी तरह अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं।

बड़े-बड़े फाउण्डेशन हमेशा से अपने अन्तर्राष्ट्रीय हित रखते आये हैं। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले उनकी विदेश नीति अमेरिकी सरकार से कहीं अधिक सक्रिय थी, जो काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशन्स जैसे संगठनों और रॉकफेलर फाउण्डेशन एवं कारनेगी इनडाउमेंट जैसे विदेश नीति के उत्कृष्ट थिंक टैंकों के मार्फत कार्यरत थी। राष्ट्रसंघ के विचार और फंड काफी हद तक फाउण्डेशन और रॉकफेलर परिवार के मानव प्रेम से ही निःसृत होते हैं।

लातिन अमेरिका में चल रही अस्थिरता का स्वागत तो “हाई कॉप्स”, सी. आइ ए. और सेना ने किया ही है, साथ ही ऐसे तमाम फाउण्डेशन-समर्थित प्रोजेक्टों द्वारा भी स्वागत किया गया है जो सीधे या परोक्ष रूप से इन मुनाफारहित क्षेत्र से फंड प्राप्त करते रहते हैं। ऐसी सहायता गैर-कम्युनिस्ट जमीनी संगठनों (खासतौर से “ईसाई जनतांत्रिक” संगठनों) को, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए भावी नेता प्रशिक्षित करने, तथा यूनिवर्सिटी कार्यक्रमों को संचालित करने के लिए एवं छात्रों को दी जाती है।

फाउण्डेशनों ने दुनिया के दूसरे भागों के लिए ‘अमेरिकाज वाच’ जैसे संगठन भी खड़े किये हैं, जो सारे के सारे इस मूल अवधारणा के तहत काम करते हैं कि विद्रोह अंशतः इस कारण उठ खड़े होते हैं कि बहुतेरी सरकारें शायद अपनी बेढंगी चाल के कारण या अज्ञानता में या भ्रष्टाचार के चलते, मानवाधिकारों की कद्र नहीं करतीं। अतः अमेरिकास वाच अलग-अलग होने वाले मानवाधिकार-उल्लघंन की घटनाओं की ओर मीडिया और अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का ध्यान आकर्षित करता रहता है। परन्तु यह इस बात पर कतई गौर नहीं करता रहता कि दमन, उत्पीड़न और विनाश सरकार की नीति के चलते हो रहा है, या जो तकनीकी सहायता कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं वे ही यातना की तकनोलॉजी का प्रसार किये जा रहे हैं।

पूर्वी यूरोप और भूतपूर्व सोवियत संघ में फाउण्डेशन, उदाहरण के तौर पर, ईस्टर्न यूरोपियन कल्चरल फाउण्डेशन लम्बे समय से व्यवस्था-विरोधियों की मदद करते आ रहे थे, तथा वहां के छात्रों एवं सरकारी अधिकारियों को प्रभावित करने के लिए आदान-प्रदान कार्यक्रम चला रहे थे। और जब कम्युनिष्ट (वस्तुतः संशोधनवादी-सं) सरकारों पर ग्रहण लगने लगा, तो अमेरिका के मुनाफारहित क्षेत्र ने सिर्फ इतना ही नहीं किया कि वहां अलग-अलग व्यक्तियों को अपने मुनाफारहित कारोबार से हरप्रकार की मदद देनी शुरू कर दी, बल्कि वहां अपनी छवि में एक पूरी दुनिया ही रच डालने का प्रयास शुरू कर दिया है। ऐसा वह इन देशों के संविधान लिखने, नागरिक कानूनों एवं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में संशोधन करने, तथा पहले सरकारी जिम्मेदारियों के तहत पूरे किये जाते रहे खैराती, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक कामों को अब प्रत्येक राष्ट्र में एक मुनाफारहित क्षेत्र की स्थापना के जरिये संपादित करने की गरज से अपने विशेषज्ञ भेजकर कर रहा है। अब इन उद्देश्यों के लिए परंपरागत फंडदाताओं के साथ ज्यार्ज सोरोस द्वारा गठित फाउण्डेशनों की एक पूरी फौज शामिल हो गयी है। इसके साथ ही, अमेरिकी सरकार भी, अपने आप को इन फाउण्डेशनों की तर्ज पर ढालती हुई, 1983 में अमेरिकी कांग्रेस द्वारा गठित नेशनल इनडाउमेण्ट फॉर डिमॉक्रसी के मार्फत दूसरे देशों के राजनीतिक संगठनों को फंड प्रवाहित करने के काम में लग गयी है, और उन सारे कामों को खुले तौर पर कर रही है जिन्हें सी. आई ए. छिपे तौर पर करती है। मुनाफारहित क्षेत्र का यह नया करोबार बाजारीकरण के उस झटके को सहनीय बनाने की एक कोशिश के तौर पर है जिसने न सिर्फ बेरोजगारी और निराश्रयता पैदा की है, बल्कि तमाम महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और सामाजिक संस्थाओं को धराशायी भी कर डाला है।

पर्यावरणीय आन्दोलन भी कारपोरेट क्षेत्र के “व्‍यवसाय के निरापद रूप से चलते रहने” में खतरा बनता जा रहा है, खासतौर से इस कारण कि पर्यावरणीय विनाश को कारपोरेट गतिविधियों से जोड़ा जाने लगा है। अतः इसके उपाय के तौर पर, फाउण्डेशन जगत की ओर से “टिकाऊ विकास” और टिकाऊ विकास की विचारधारा को लेकर ढेरों संगठन, थिंक टैंक, विश्वविद्यालय संस्थान और कांफ्रेंस गठित किये जा रहे हैं और उनकी फंडिग की जा रही है।

जून 1992 में रियो डि जेनरो में पर्यावरण और विकास पर राष्ट्रसंघ द्वारा आयोजित कांफ्रेंस के प्रत्येक पहलू पर फाउण्डेशनों का भारी प्रभाव छाया रहा। फाउण्डेशनों ने भले ही ग्लोबल फोरम के तौर पर इस “जमीनी मंच” का गठन नहीं किया, फिर भी इसमें शिरकत करने वाले तमाम गैर-सरकारी संगठनों की फंडिग की। यहां तक कि सरकारी तौर पर भाग लेने आये प्रतिनिधियों के लिए फाउण्डेशन नेटवर्क ने ट्यूटर की भी भूमिका निभायी और “बातचीत में पूरी तरह भागीदारी करने के लिए आवश्यक संसाधनों की कमी वाले विकासशील देशों की सरकारों को तकनीकी सहायता प्रदान की, तथा उन सरकारों को बातचीत के मूल पाठ उपलब्ध कराये जो समझौते के लिए आवश्यक कुशल भाषा में तैयार किये जाने वाले मसविदे के मुद्दों से भलीभांति परिचित नहीं थे।”3

“नागरिक भागीदारी” को लेकर फाउण्डेशन जगत का सरोकार अब भूमंडलीय बन चुका है। पहले से चलाये जाते रहे नेतृत्व-प्रशिक्षण कार्यक्रमों की भांति ही अब यह निश्चय किया जा चुका है कि लोगों को व्यावहारिक, बुद्धिसंगत लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में प्रभावी बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जायेगा। अब सारी दुनिया में नागरिक भागीदारी और प्रभाव बढ़ाने के लिए फ्सिविस (सी. आइ. वी आइ सी. यू. एस) वर्ल्ड अलाइन्स फॉर सिटिजन पार्टिसिपेशन नाम से एक नये संगठन का गठन किया गया है– जिसमें अनुदानदाता और अनुदान प्राप्तकर्ता दोनों ही सदस्य होंगे…। वर्तमान में इसका प्रशासकीय कार्यालय वाशिंगटन डीसी के इण्डिपेण्डेण्ट सेक्टर में स्थित है।”4

यह “तीसरे क्षेत्र” की सुरक्षा कवच संबंधी गतिविधियों की एक छोटी सी. बानगी भर है। इसने पूंजीवाद के लिए काफी उपयोगी और बढ़िया काम शुरू किया है। बहरहाल, यह अलग सवाल है कि इससे इस ग्रह के आर्थिक पर्यावरणीय, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों पर मंडरा रही विनाश की महाविपदा टाली जा सकेगी या नहीं। वैसे देखने में तो ऐसा ही लग रहा है कि वर्तमान व्यवस्था का आमूल परिवर्तनवादी विकल्प ढूंढने, विकसित करने और उसे लागू करने की ऊर्जा इस तीसरे क्षेत्र के सुरक्षा-कवच द्वारा बिखरा सी. दी गयी हैं।

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1- काउंसिल ऑन फाउण्डेशन संयुक्त राज्य अमेरिका और दूसरे देशों में कार्यरत 1300 फाउण्डेशनों का एक संघ है, जिसकी स्थापना 1949 में हुई। यह काउंसिल नेतृत्व और अनुसंधान कार्यक्रमों के तहत अनुदान प्राप्त करने वालों की मदद करती है। हाल ही में इसने शिक्षा, मानव सेवाओं, विज्ञान-अनुसंधान, कलाओं और शहरी विकास के प्रोजेक्टों के लिए करीब 6 अरब डॉलर अनुदान दिये हैं।

काउंसिल ऑन फाउण्डेशन, फैक्टशीट, 1195

2- बी-होवे, “द इमजॅन्स ऑफ साइन्टिफिक फिलैन्थ्रॉपी” आर्नोव, आर- (संपा-)फिलैन्थ्रॉपी एंड कल्चरल इम्पीरियलिज्म (बोस्टनः जी. के. हॉल, 1980), पृ.29

3- जे. माउगॅन, “द रोड फ्रॉमरियो”, द फोर्ड फाउण्डेशन रिपोर्ट, ग्रीम 1992, पृ.16

4- फ्वर्ल्ड अलाइअन्स,”  फाउण्डेशन न्यूज, सित-/अक्तू- 1993, पृ.10

(स्रोतः मंथली रिव्यू वॉल्यूम 47 नं.-4 सित- 1995 पृ. 16-25)

अनुवाद: विश्वनाथ मिश्र

दायित्वबोध, नवम्‍बर 1997 – फरवरी 1998

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट – दुख के कारणों की तलाश का कवि

दुख के कारणों की तलाश का कवि

  • मोहन थपलियाल

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (असली नाम आयगन बर्थोल्ड फ्रीडरिख ब्रेष्ट) के लिए कविता करना और नाटक लिखना दो अलग चीज़ें नहीं रहीं। अपनी कविताओं के बारे में ब्रेष्ट का कहना था कि उन्होंने अक़सर नाटक के लिए काम किया है, इसलिए हमेशा ही बोलचाल की भाषा में सोचा है। बोलचाल की इस भाषा को कविता में एक ख़ास ढंग से रखने की तकनीक को वह ‘भंगिमा’ कहते थे। प्रतीकवाद और रूमानियत को ख़त्म करने में ब्रेष्ट का ज़बरदस्त हाथ रहा और साथ ही साथ जर्मन साहित्य की कुछ पुरानी परम्पराओं का सहारा लेते हुए उन्होंने छन्द, कथाशैली, लोकगीत और मुहावरों का इस्तेमाल अपनी कविता में उतने ही सशक्त ढंग से किया, जितना कि पुराने कवियों में हाइनरिख हाइने ने। ब्रेष्ट की कविताओं में तीखी लेकिन सीधी-सादी भाषा मिलती है। आयरनी (Irony) का प्रवाह शैली को बाँधते हुए चलता है। एक ही कविता में कई उतार-चढ़ाव, असम्बद्धता या तेल और तेज़ाब की गन्ध एक साथ देखने को मिल जाती है।

बेर्टोल्ट ब्रेष्ट का जन्म 10 फ़रवरी 1898 को जर्मनी के बावेरिया प्रान्त के ऑग्सबुर्ग क़स्बे में हुआ था। ऑग्सबुर्ग में इनके पिता एक पेपरमिल में प्रबन्ध निदेशक थे। माता-पिता का सम्बन्ध किसान परिवारों से था। इनके पिता एक रोमन कैथोलिक और माता लूथर मत की अनुयायी थी। बचपन में ब्रेष्ट का लालन-पालन लूथर पद्धति से ही हुआ। प्राथमिक व सेकेण्डरी स्कूल तक की शिक्षा ऑग्सबुर्ग में पूरी करने के बाद 1917 के पतझड़ में ब्रेष्ट ने म्यूनिख यूनिवर्सिटी में मेडिकल साइंस की पढ़ाई में दाखि़ला लिया। मगर डाक्टरी पढ़ने के दौरान इनका रुझान ज़्यादातर कविता और नाट्यलेखन की ओर ही बना रहा। उनकी कुछ प्रारम्भिक कविताएँ ऑग्सबुर्ग के एक अख़बार में पहले ही प्रकाशित हो चुकी थीं। प्रथम विश्वयुद्ध के अन्तिम वर्ष में ब्रेष्ट को फ़ौज से भर्ती होने का बुलावा आ गया। क्योंकि वह मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे, इसलिए उन्हें अग्रिम मोर्चे पर न भेजकर सेना के चिकित्सा कोर में भर्ती कर दिया गया। पिता की सिफ़ारिश के चलते उनकी नियुक्ति ऑग्सबुर्ग के सैनिक अस्पताल में ही कर दी गयी। अस्पताल में उनकी ड्यूटी यौन रोग विभाग में लगा दी गयी थी। सेना की नौकरी ने उनके जीवन पर जो प्रभाव छोड़ा, उसकी वजह से वह जि़न्दगी-भर युद्धविरोधी या शान्तिप्रिय बने रहे। इस शान्तिकामी दर्शन का असर बाद में उनके राजनीतिक दृष्टिकोण पर भी पड़ा।

शुरू के वर्षों में ब्रेष्ट के कुछ ख़ास दोस्तों में सर्वाधिक जिगरी दोस्त पेण्टर व डिजायनर कैस्पर नेहर थे, जो अन्तिम समय तक ब्रेष्ट के घनिष्ठ सहयोगी बने रहे। ब्रेष्ट अपनी गाथा-कविताओं (Ballads) को ख़ुद लिखते थे, ख़ुद उनका संगीत तैयार करते थे और फिर इन गीतों को अपनी मित्र मण्डली के बीच ख़ुद ही गाकर सुनाया करते थे। साहित्यिक जीवन के शुरुआती दौर में लिखे गये नाटकों को भी वह दोस्तों के बीच पढ़कर सुनाया करते थे। अपना पहला नाटक ‘बाल’ (Ball) उन्होंने 1918 में लिखा। इस नाटक में एक युवा कवि की ऐसी उदात्त भावनाओं को नाट्यकथा का आधार बनाया गया है, जो जीवन के नशे में चूर होकर इतना अधिक उन्मत्त हो गया है कि तमाम सामाजिक रस्मों को तिलांजलि देकर वह आवारा और हत्यारा बन जाता है।

कैसर की जर्मनी का पतन होने के बाद ब्रेष्ट पुनः म्यूनिख चले आये। यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पर इस बार भी उनका ध्यान कम रहा और नाटकों के लेखन-मंचन की ओर ही उनकी दिलचस्पी ज़्यादा बनी रही। कुछ समय तक वह ऑग्सबुर्ग से प्रकाशित होने वाले एक वामपन्थी अख़बार – ‘देर फॉक्सविले’ (Der Volkswill) के नाट्य समीक्षक भी रहे। 1919 में ब्रेष्ट ने अपना दूसरा नाटक ‘ट्रामेल्न्न इन देर नाख्त’ (ड्रम्स इन द नाइट) मंचन के लिए लियोन फायख्तवेंगर के सुपुर्द किया। फायख्तवेंगर उन दिनों म्यूनिख स्थित ‘कामरस्पीले थियेटर’ के साहित्यिक सलाहकारों में से एक थे। बाद में उन्होंने उपन्यास लेखन में भी काफ़ी नाम कमाया। ब्रेष्ट के साथ फायख्तवेंगर की दोस्ती भी आजीवन चली। फायख्तवेंगर ने – ‘ड्रम्स इन द नाइट’ को उच्चस्तरीय नाटक करार देकर उसकी ख़ूब प्रशंसा की। 29 सितम्बर 1922 को इस नाटक का पहला मंचन हुआ और इसी के साथ एक सफल एवं सक्षम नाटककार के रूप में ब्रेष्ट को मान्यता मिलने में ज़्यादा देर नहीं लगी। मेधावी युवा प्रतिभा को दिया जाने वाला उस वर्ष का ‘क्लाइस्ट पुरस्कार’ भी इस नाट्य रचना पर ब्रेष्ट को दिया गया। नाटककार के रूप में मिली इस पहली सफलता के उल्लास में ब्रेष्ट ने उसी वर्ष नवम्बर माह में युवा अभिनेत्री मारियाने शोल्फ से शादी कर ली। ब्रेष्ट के नाटक ‘ड्रम्स इन द नाइट’ की कहानी में मार्क्सवाद का प्रभाव नहीं है। इसकी कहानी संक्षेप में इस प्रकार है: प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान युद्ध के मोर्चे से घर लौटने पर एक सिपाही देखता है कि उसकी प्रेमिका को किसी अन्य व्यक्ति ने गर्भवती बना डाला है। ऐसी स्थिति में वह सिपाही बजाय इसके कि प्रेमिका के करतब से खिन्न होकर जनवरी 1919 में स्पार्टाकिस्ट्स के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी विद्रोह में हिस्सा लेता, वह उसी प्रेमिका के साथ सुविधाभोगी जीवन बिताने पर राजी हो जाता है। इस नाटक के बाद ब्रेष्ट ने ‘इन द जंगल ऑफ़ सिटीज़’ लिखा, जिसमें कि उनका दिशाहीन नज़रिया जारी रहा। इस नाटक का पहला प्रदर्शन मार्च 1923 में म्यूनिख में हुआ था।

1924 में ब्रेष्ट बर्लिन चले आये, जो कि उस वक़्त जर्मनी की राजनीतिक और रंगमंचीय दोनों गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। बर्लिन में ब्रेष्ट ने मैक्स राइनहार्ट्स के ‘डॉयचे थियेटर’ (जर्मन थियेटर) में कुछ समय तक नाटक लेखक एवं सम्पादन सहयोगी के रूप में काम किया। बर्लिन में वह वामपन्थी कलाकार और बुद्धिजीवियों के बीच में ख़ासकर लोकप्रिय होते गये और कुछ ही समय में इस गोल के केन्द्रबिन्दु के रूप में स्थापित हो गये। 1928 में उन्होंने अपनी पहली पत्नी मारियाने शोल्फ से तलाक़ लेकर अभिनेत्री हेलने वाइगल से शादी कर ली।

ब्रेष्ट की कला की मुख्य प्रवृत्ति पूँजीवादी नज़रिये पर तीखा प्रहार करना रहा। दरअसल प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति पर जर्मनी की जनता बुरी तरह अपमानित और सन्त्रस्त हो चुकी थी। उस समय ब्रेष्ट के कुछ साहित्यिक मित्र ऐसे भी थे, जिनका सम्बन्ध कला एवं साहित्य के ‘दादा मूवमेण्ट’ से रहा था। स्थापित व्यवस्था के खि़लाफ़ एक नकारवादी आन्दोलन के रूप में ‘दादा मूवमेण्ट’ की शुरुआत 1916 के आसपास ज्यूरिख़ (स्विट्ज़रलैण्ड) में हुई थी और 1920 के मध्य तक इस आन्दोलन की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र पेरिस हो गया था। ‘दादा मूवमेण्ट’ के समर्थक पूँजीवादी कला मूल्यों को नेस्तनाबूद करने का बीड़ा उठाये हुए थे। पूँजीवादी मूल्यों पर तीखे प्रहार का उदाहरण ब्रेष्ट की उस दौर की लिखी ‘हाउस पाउस टीले’ (घरेलू स्रोत संग्रह) शीर्षक कविताओं में मिलता है। इन कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद एरिक बेण्टले ने 1927 में ‘मैनुअल ऑफ़ पायटी’ नाम देकर छापा था। इन कविताओं में एक युवा व्यक्ति की ऐसी भावनाएँ हैं, जो बार-बार यह महसूस करता है कि उस पर चारों तरफ़ से क़ुदरत, युद्ध, यौनाकांक्षा और मौत ने हमला बोल दिया है और इस हमले से वह ख़ुद को बेहद डरा-डरा पाता है। इसके बाद ब्रेष्ट ज्यों-ज्यों इतिहास की सुसंगत एवं वैज्ञानिक विवेचना वाले मार्क्सवादी विचारों के प्रभाव में आये, त्यों-त्यों इस अराजक नकारवाद का असर उनकी रचनाओं से अदृश्य होने लगा। आगे चलकर ब्रेष्ट ने मार्क्सवादी विचारधारा को ही वह एकमात्र उपाय माना, जिसके ज़रिये आदमी के दुखों का अन्त हो सकता है। बीसवीं सदी के तीसरे दशक के अन्तिम वर्षों में जिस व्यक्ति ने ब्रेष्ट को मार्क्सवादी विचारधारा से परिचित कराया था, उसका नाम कार्ल कोर्श (karl korsch) था, जो एक प्रखर मार्क्सवादी चिन्तक होने के साथ-साथ राइखस्टाग (जर्मन संसद) में कम्युनिस्ट सदस्य भी रह चुका था।

प्रयोगधर्मी नाटक ‘बाल’ के दौर में ब्रेष्ट अत्यधिक मस्तमौलेपन के शिकार रहे। इसके बाद कुछ समय तक उन पर फ्रांसीसी प्रतीकवादी कवि पॉल वरलीन, आर्थर रिम्बाउ, अंग्रेज़ी उपन्यासकार रुडयार्ड किपलिंग, जर्मन नाटककार ग्यार्ग (ज्यार्ज) बूखनेर और फ्रैंक वेडेकिण्ड का काफ़ी प्रभाव रहा। मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर लिखी गयी उनकी पहली रचना ‘मन इस्ट मन’ (A man is a man)) है। यह नाटक पहली बार ड्रामस्टट में सितम्बर 1926 को मंचित किया गया था। लगभग दो वर्ष बाद बर्लिन के ‘सिफबाउरदम’ थियेटर में उनके नाटक ‘ड्राइ ग्रोशेन ओपर’ (थ्री पेनी ओपेरा) का मंचन हुआ, जिसने ब्रेष्ट को आशातीत ख्याति दिलायी। इस नाटक के अत्यधिक लोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण कुर्त वाइल्स का मोहक संगीत भी था। 9 मार्च 1930 को लाइपत्सिग में एक और ओपेरा ‘राइज़ एण्ड फ़ॉल ऑफ़ द सिटी महोगनी’ का सफल मंचन हुआ। इसका संगीत भी कुर्त वाइल्स ने ही तैयार किया था।

इन नाटकों में ब्रेष्ट ने अराजकता, यौनलिप्सा, लालच और हिंसा को पूँजीवादी समाज की निरंकुशता और ख़ुदगर्जी की देन माना है। इसी क्रम में ब्रेष्ट ने और भी कई शिक्षात्मक नाटक व ओपेरा (Didactie plays-opersa) लिखे, जिनका मक़सद आम जनता को मार्क्सवाद का आत्मानुशासन और आत्मनिषेध समझाना था। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इन शिक्षात्मक नाटकों में भी ब्रेष्ट ने कलात्मकता के बेहतरीन मानदण्डों को बरकरार रखा है। ज़ाहिर है ऐसा करने में उन्होंने अपने शुरुआती लेखन की ओजस्विता और बेलाग कथन-शैली का बख़ूबी निर्वाह किया है। इस कड़ी के अन्तर्गत लिखे गये नाटकों में मार्क्सवादी आत्मानुशासन का यहाँ तक अनुपालन किया गया है कि व्यक्ति ख़ुद अपना बलिदान तक करने को राजी हो जाता है। ‘देर या जागर उण्ट देर नाइनजागर’ (ही हू सेज़ यस एण्ड ही हू सेज़ नो) नाटक भी एक सामूहिक उद्देश्य के लिए आत्मोत्सर्ग की समस्या पर केन्द्रित है। 1930 में मंचित दो नाटक ‘दी आउसनामे उण्ट दी रेगल’ (द एक्सेप्शन एण्ड द रूल) और ‘दी मासनामे’ (द मेज़र्स टेकन) भी शिक्षात्मक नाटकों में उत्तम ठहरते हैं। ‘दी मासनामे’ (हिन्दी में ‘फ़ैसला’) ब्रेष्ट के शिक्षात्मक नाटकों में उत्कृष्ट कृति मानी जाती है। इसका संगीत हंस आइसलर ने तैयार किया था। इस नाटक की कहानी में यह दिखाया गया है कि चीनी क्रान्ति के दौरान एक कम्युनिस्ट युवा क्रान्तिकारी जो पार्टी अनुशासन तोड़ डालता है, बाद में इस बात के लिए राजी हो जाता है कि उसका सफ़ाया कर दिया जाये। वह तर्क देता है कि ऐसा करने पर जिस जनसंघर्ष को उसने ख़तरे में डाला है, वह पुनः जारी रह सकता है।

इन छोटे शिक्षात्मक नाटकों के बाद ब्रेष्ट ने दो लम्बे शिक्षात्मक नाटक और लिखे। इस कड़ी में पहला लम्बा नाटक उन्होंने मैक्सिम गोर्की के उपन्यास ‘द मदर’ की कथा को आधार बनाकर यही शीर्षक देकर लिखा, जिसका मंचन 12 जनवरी 1932 को हुआ। दूसरा नाटक उन्होंने ‘स्टॉकयार्डस का सेण्ट जुआन’ लिखा। इस नाटक के ज़रिये उन्होंने 1929 की भयानक आर्थिक मन्दी के कारणों का पर्दाफ़ाश – शिकागो गोश्तमण्डी के उतार-चढ़ाव के ज़रिये दिखाया था। यह नाटक जिन दिनों लिखा गया, तब तक जर्मनी की राजनीतिक स्थिति काफ़ी बदहाल हो चुकी थी, अतः इस नाटक का मंचन सम्भव नहीं हो सका। अलबत्ता काफ़ी काँट-छाँट करने के बाद 11 अप्रैल 1932 को इस नाटक का रेडियो रूपान्तरण अवश्य प्रसारित किया गया था।

30 जनवरी 1933 को जब हिटलर जर्मनी की सत्ता पर काबिज़ हुआ, तब तक यह साफ़ हो चुका था कि ब्रेष्ट अब जर्मनी में नहीं रह सकेंगे। फलस्वरूप ब्रेष्ट के जीवन में निर्वासन का लम्बा सिलसिला शुरू हुआ। सबसे पहले वह जर्मनी से निकलकर डेनमार्क आये, जहाँ फिन टापू पर सेवेण्डबोर्ग नामक क़स्बे में उन्होंने अपना ठिकाना जमाया। हिटलर के शासन के पहले वर्ष के दौरान सेवेण्डबोर्ग में रहते हुए उन्होंने जो नाटक लिखे, उनकी विषयवस्तु ज़्यादातर प्रचारात्मक थी। अतः इनका महत्व काफ़ी हद तक अल्पकालिक ही रहा। मसलन नस्लवाद पर करारा व्यंग्य के रूप में लिखित उनका नाटक ‘द राउण्ड हेड्स एण्ड द पीकहेड्स’ तथा उस दौरान हिटलर की जर्मनी में छाये खौफ़ को दर्शाने वाले छोटे-छोटे एकांकी नाटकों का संग्रह ‘फ़ीयर्स एण्ड मिज़रीज़ ऑफ़ द थर्ड राइख’। एक और नाटक उन्होंने स्पेनी गृहयुद्ध की विभीषिका पर भी लिखा, जिसका शीर्षक ‘सेनेरा कारार की रायफ़ल’ (सेनेरा कारार्स रायफ़ल) था।

मार्च 1938 में जर्मनी द्वारा आस्ट्रिया का अधिग्रहण करने के बाद ब्रेष्ट को यह महसूस होने लगा था कि अब किसी भी सूरत में युद्ध को टाला जाना सम्भव नहीं है और ऐसी परिस्थिति में भविष्य में जो कुछ होने वाला है, उसे बदलना उनके बूते के बाहर है। यह सोचकर उन्होंने अपने लेखन को गम्भीर वैचारिक दर्शन की ओर मोड़ना ही सर्वोपरि समझा और पूरे मनोयोग से इसी दिशा में जुट गये। इस प्रकार ब्रेष्ट के रचनात्मक संसार का सर्वाधिक सर्जनात्मक युग शुरू हुआ। ब्रेष्ट ने अपने शुरुआती जीवन की रचनात्मक ऊर्जा और शिक्षात्मक युग के वैचारिक अनुशासन को मिलाकर इस दौरान अपनी रचनाओं में एक गहरी काव्यरूपकता देकर उसे नवीनीकृत किया। इस दौर का सर्वाधिक उल्लेखनीय नाटक ‘द लाइफ़ ऑफ़ गैलीलियो’ है, जो एक ऐसे संसार में रह रहे प्रतिभाशाली वैज्ञानिक की साहसपूर्ण जि़म्मेदारी व्यक्त करता है, जो चारों ओर अपने को प्रतिद्वन्द्वियों से घिरा हुआ पाता है। इस दौर का दूसरा महत्वपूर्ण नाटक ‘द गुड वीमेन ऑफ़ सेजुआँ’ है। इस नाटक का कथासार यह है कि लालच पर आधारित समाज में यह क़तई सम्भव नहीं है कि वहाँ अच्छे आदमी मिल जायें। एक और नाटक ब्रेष्ट ने ‘तीस वर्षीय युद्ध’ (थर्टी इयर्स वार) की त्रासदी पर ‘मदर करेज एण्ड हर चिल्ड्रन’ नाम से लिखा। इस नाटक में ब्रेष्ट ने यह दिखाया है कि युद्ध की क्रूरताओं के लिए सीधे-सरल लोग भी दोषी होते हैं, ख़ासकर जब ऐसे लोग अपने छोटे-मोटे क्रियाकलापों की वजह से युद्ध में सहायक होकर उसे तरजीह देते हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध का ख़तरा ज्यों-ज्यों सामने आ रहा था, ब्रेष्ट को यह लगने लगा था कि अब उनका डेनमार्क में रह पाना भी सुरक्षित नहीं होगा। यह सोचकर वह अप्रैल 1939 में स्वीडन और एक वर्ष बाद फ़िनलैण्ड चले आये। फ़िनलैण्ड की पृष्ठभूमि पर उन्होंने वहाँ अपना नया नाटक – ‘मिस्टर पुन्तीला और उसका सेवक माती’ (मिस्टर पुण्टीला एण्ड हिज़ सर्वेण्ट माटी) लिखा। इस नाटक में ब्रेष्ट ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि पूँजीवादी निपुणता और मानवीय उदारता – इन दो तत्वों का सामंजस्य होना असम्भव है। इसी दौर में उन्होंने ‘द रेज़स्टिबल राइज़ ऑफ़ अर्तुरी उई’ लिखा, जो तानाशाह हिटलर के उत्थान पर एक ज़बरदस्त प्रहसन (कैरीकेचर) है। इस नाटक में हिटलर की तुलना शिकागो के गैंगस्टरों से की गयी है।

ब्रेष्ट शायद यूरोप में चारों तरफ़ मँडरा रहे युद्ध के ख़तरों से बचना चाहते थे। इसीलिए प्रतिबद्ध मार्क्सवादी विचारक और कम्युनिस्ट समर्थक होते हुए भी उन्होंने सोवियत संघ में रुकना उचित नहीं समझा, जब कि 1936 से 1939 तक मास्को से प्रकाशित होने वाली एक जर्मन साहित्यिक पत्रिका में वह बतौर सहायक सम्पादक के रूप में जुड़े रहे थे। अतः मई 1941 में अमरीकी वीसा प्राप्त होने पर वह पूरे सोवियत संघ की यात्रा करने के बाद व्लादीवोस्तक पहुँचे और वहाँ से समुद्री जहाज़ पर बैठकर अमरीका चले आये। ब्रेष्ट के अमरीका पहुँचने के कुछ ही दिन बाद जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला बोल दिया था।

अमरीका में आकर ब्रेष्ट सान्ता मोनिका (कैलीफ़ोर्निया) में रहे, लेकिन बीच-बीच में लम्बे पड़ावों पर वह न्यूयार्क भी जाते रहे। हॉलीवुड फ़िल्म इण्डस्ट्री के लिए भी उन्होंने काम करने की कोशिश की, लेकिन इस दिशा में वह ज़्यादा सफल नहीं हो सके। उन्होंने केवल एक ही पटकथा सिनेमा वालों को बेची, जिसका शीर्षक ‘हैंगमेन आल्जो दी’ (Hangman also die) था, 1942 में इस फ़िल्म का निर्देशन प्रसिद्ध निर्देशक फ्रित्स लांग ने किया था। अमरीका प्रवास में ब्रेष्ट ने अपना अन्तिम महान नाटक ‘द काकेशियन चॉक सर्किल’ पूरा किया। इस नाटक में भी नेकी (Goodnes) की समस्या का ज्वलन्त चित्रण किया गया है और यह दिखाया गया है कि एक आततायी समाज में इंसाफ़ पाने के रास्ते में क्या-क्या कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं?

हॉलीवुड में ब्रेख्त ब्रितानी अभिनेता चार्ल्स लाफ्टन से भी मिले। ‘द लाइफ़ ऑफ़ गैलीलियो’ के अंग्रेज़ी रूपान्तर पर उन्होंने लाफ्टन के साथ काम किया। लाफ्टन ने ‘गैलीलियो’ के अंग्रेज़ी संस्करण का सफल मंचन जुलाई 1947 में लास एंजलीस में किया। एक समर्थ नाटककार और कवि के बतौर अमरीका में ब्रेष्ट को काफ़ी प्रसिद्धि और मान्यता मिलने लगी थी, लेकिन इसी बीच 30 अक्टूबर 1947 को उन्हें अमरीकी विरोधी गतिविधियों की जाँच के लिए गठित मैकार्थी कमेटी के समक्ष बतौर गवाह हाजि़र होना पड़ा। यह कमेटी हॉलीवुड के सिनेमाजगत में कम्युनिस्ट समर्थकों की जाँच-पड़ताल कर रही थी। मैकार्थी कमेटी के सामने ब्रेष्ट ने अपनी हाजि़रजवाबी और तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता का अद्भुत परिचय दिया, लेकिन कुल मिलाकर यह अुनभव उन्हें बेहद नागवार लगा और उसी के अगले दिन उन्होंने अमरीका को अलविदा कहकर यूरोप के लिए प्रस्थान कर दिया।

अमरीका से लौटकर ब्रेष्ट ने सर्वप्रथम स्विट्ज़रलैण्ड में अपना ठिकाना जमाया। यहाँ रहते हुए वह उन सम्भावनाओं का पता भी लगाते रहे कि कहाँ रहकर वह अपनी विचारधारा के नाटकों का मंचन बेहतर ढंग से कर सकेंगे। इस दिशा में वह आस्ट्रिया को उपयुक्त समझते थे, क्योंकि वहाँ की भाषा भी जर्मन थी और वहाँ से वह पूर्वी और पश्चिमी दोनों जर्मन देशों के बीच आ-जा सकते थे। बीच में एक मौक़ा ऐसा भी आया जब उन्हें यह लगने लगा था कि साल्सबुर्ग महोत्सव में उन्हें कला निदेशक का पद दिया जा सकता है। फलस्वरूप उन्होंने आस्ट्रियाई नागरिकता के लिए प्रार्थनापत्र दे दिया था, परन्तु इसी बीच अक्टूबर 1948 में उन्हें ‘मदर करेज’ के मंचन के लिए पूर्वी बर्लिन आने का न्यौता मिला। पूर्वी बर्लिन में यह नाटक बेहद सफल रहा। नाटक के मंचन के बाद ब्रेष्ट पुनः 11 जनवरी 1949 को वापस ज्यूरिख़ चले आये। ज्यूरिख़ पहुँचकर उन्होंने एक बार फिर आस्ट्रिया की नागरिकता के लिए नये सिरे से दबाव डालना शुरू किया ही था कि तभी पूर्वी जर्मनी से उन्हें इस आशय का प्रस्ताव मिला कि वहाँ रहकर वह अपनी स्वयं की नाट्य मण्डली का संचालन कर सकते हैं। यह प्रस्ताव उनकी समझ में आ गया और आखि़रकार उन्होंने पूर्वी बर्लिन जाने का फ़ैसला कर लिया। यहाँ आकर वह ‘बर्लिनर इनसेम्बले’ की स्थापना में जुट गये। 12 नवम्बर 1949 को ‘पुन्तीला’ नाटक के मंचन के साथ उन्होंने विधिवत रूप से इनसेम्बले का उद्घाटन किया। पूर्वी बर्लिन में अपना काम शुरू कर चुकने के बावजूद ब्रेष्ट बराबर यह चाहते रहे कि अपने नाटकों का मंचन वह पूर्वी जर्मनी से बाहर भी करते रहें, इसलिए उन्होंने आस्ट्रियाई राष्ट्रीयता लेने की कोशिश की, जो उन्हें अप्रैल 1950 में स्वीकृत हुई। इसी के साथ उन्होंने अपने नाटकों के सर्वाधिकार भी पश्चिमी जर्मनी के प्रकाशक – ‘सुरकाम्प फेरलाग’ को दिये। इस तरह उन्होंने पूर्वी जर्मनी की बाध्यता (सेंसरशिप) से अपने को काफ़ी हद तक मुक्त कर लिया था और पश्चिम में थोड़ा-बहुत अपनी कमाई का ज़रिया भी खुला रख छोड़ा था।

पूर्वी बर्लिन में ब्रेष्ट ने अपने उन नाटकों का मंचन किया, जो उन्होंने अपने निर्वासन काल में लिखे थे। मंचन के दौरान उन्होंने अपनी विचारधारा के अनुरूप इन नाटकों में ज़रूरी संशोधन एवं संवर्द्धन भी किये। पूर्वी जर्मनी में आने से पहले 1948 में ज्यूरिख़ में रहते हुए उन्होंने अपना ‘संक्षिप्त नाट्यशास्त्र’ भी तैयार कर डाला था।

ब्रेष्ट ने अपने नाटकों के लिए जो विचारधारा प्रतिपादित की, उसे उन्होंने इपिक थियेटर (लोकनाटक) का नाम दिया। उन्होंने अभीष्ट मार्क्सवादी नाटक वही माना जो अरस्तूवादी नाटकों की उस परम्परा से अलग खड़ा हो, जिसमें यह माना जाता है कि दर्शक जो कुछ मंच पर घटित होते देख रहा है, यह मान कर देख रहा है कि वह सारा कुछ उसके सामने तत्काल घटित हो रहा है। इसके विपरीत ब्रेष्ट का यह मानना था कि यदि अतीत के नायकों – ओडीपस, किंग लीयर अथवा हेमलेट – के मनोभावों की आज के दर्शकों पर वही प्रतिक्रिया हो सकती है, जो उनके युगों में होती थी, तब मार्क्सवादी दर्शन की यह विचारधारा कि मानवीय स्वभाव स्थिर न रहकर निरन्तर बदलती परिस्थितियों में परिवर्तनशील है, ग़लत सिद्ध हो जायेगी। ब्रेष्ट ने इसीलिए यह तर्क दिया कि एक नाटक को – जो कुछ वह अपने पात्रों द्वारा मंच पर घटित होता दिखा रहा है, उससे – दर्शकों का तादात्म्य स्थापित करने की कोशिश हरगिज़ नहीं करनी चाहिए और न ही दर्शकों के दिमाग़ में पात्रों की ऐतिहासिकता का ‘सच’ घुसाने की कोशिश करनी चाहिए। बल्कि इसके विपरीत एक नाटक को ऐसी भूमिका अदा करनी चाहिए, जैसा लोकगायक की कला करती है – जिसमें कि दर्शक को बार-बार यह आगाह किया जाता है कि जो कुछ वह मंच पर घटित होते देख रहा है, वह महज़ अतीत का लेखा-जोखा है, जिसे उसे (दर्शक) अपनी पैनी निगाह के साथ कुछ फ़ासला रखकर (with detachment) देखना चाहिए। कुल मिलाकर ब्रेष्ट ने अपने इपिक थियेटर (लोकनाटक) का आधार कथनात्मक (नैरेटिव) अथवा अ-नाटकीय (अनड्रामाटिक) ही माना। इपिक थियेटर का सम्बन्ध उन्होंने सीधे-सीधे अलगाव/पृथकपन/अजनबीपन/दूरस्थता अथवा फ़ासला जैसे तत्वों से जोड़ा और इस तरह के अलगाव प्रभाव (Alienation effect) को पैदा करने के लिए उन्होंने कई तरह की विधियों का प्रयोग अपने नाटकों में किया, जिनके ज़रिये दर्शक को बार-बार यह चेताया जाता है कि उसके समक्ष मंच पर यथार्थ (रियलिटी) को किसी भ्रम (इल्यूजन) के रूप में न दिखाकर मानव स्वभाव के एक नमूने (मॉडल) के बतौर पेश किया जा रहा है। अर्थात दर्शक सिर्फ़ एक नाटक देख रहा है, कोई हक़ीक़त नहीं। वाल्टर बेंजामिन ने ब्रेष्ट के इपिक थियेटर पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि वह एक साथ दो तरह का प्रभाव दर्शक पर छोड़ता है: ब्रेष्ट जहाँ नाटकीय तत्वों को ध्वस्त करते हैं, वहाँ वह दर्शक को सोचने के लिए मजबूर करने के साथ-साथ एक अलग किस्म का हास्य पैदा करके उसे (दर्शक) तनावमुक्त भी करते हैं। बेंजामिन ब्रेष्टियन थियेटर (इपिक थियेटर) को समय के तल से फूटी हुई एक ऐसी वेगवती सतरंगी धारा मानते थे, जो कुछ क्षणों तक आकाश में मँडराती हुई फिर समय के तल पर आकर ख़त्म हो जाती है। युवा मार्क्सवादी आलोचकों में टेरी इगलटन का यह मानना है कि एन्र्स्ट ब्लाख, ग्यार्ग (ज्यार्ज) लूकाच, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, वाल्टर बेंजामिन और थियोडोर अडोर्नो में से सिर्फ़ ब्रेष्ट ही ऐसे लेखक हैं, जिनमें कामदी का तत्व मिलता है। कुछ आलोचकों ने ब्रेष्ट की रचनाओं में कामदी, विनोदप्रियता (ह्यूमर) और विचारों का एक साथ अद्भुत निचोड़ माना है। जीवन के अन्तिम वर्षों में ब्रेष्ट अपने नाटकों की विचारधारा को ‘द्वन्द्वात्मक नाटक’ (डायलेक्टिकल थियेटर) की संज्ञा देने लगे थे, लेकिन कमोबेश यह नया नाम भी ‘इपिक थियेटर’ का स्थानापन्न ही था। एक ख़ास विश्व दृष्टिकोण के ज़रिये ब्रेष्ट के नाटकों में जो रचनात्मक संश्लिष्टता पैदा हुई, उसके फलस्वरूप आधुनिक नाटक को ऐसी गहरी अन्तर्दृष्टि और चारित्रिक समृद्धता मिली, जो ब्रेष्ट से पूर्व लिखे जाने वाले तथाकथित आधुनिक नाटकों में एकदम ग़ायब थी।

1920 के आसपास जो ब्रेष्ट अपने रचना-संसार में बेहद उद्दण्ड और स्वेच्छाचारी थे, छठे दशक के पूर्वार्द्ध में वही ब्रेष्ट पूर्वी जर्मनी के समाजवादी समाज के शिखर पुरुष के रूप में स्थापित हो चुके थे। उनके निर्देशन में बर्लिनर इनसेम्बले ने विश्वव्यापी ख्याति अर्जित की। सिर्फ़ उलब्रिख्त के शासनकाल (1951) में उन्हें कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उलब्रिख्त शासन ने ब्रेष्ट के एक ओपेरा – ‘द ट्रायल ऑफ़ लुकुलस’ को, जिसे उन्होंने 1940 में प्रसारित एक रेडियो नाटक के आधार पर लिखा था, कुछ मंचनों के बाद शान्तिवाद का पोषक होने का आरोप लगाकर प्रदर्शन की अनुमति देने से मना कर दिया था। 1954 में ‘बर्लिनर इनसेम्बले’ अपनी निजी इमारत – सिफबाउरडम थियेटर में चला गया, जहाँ 1928 में कभी ब्रेष्ट के नाटक ‘थ्री पेनी ओपेरा’ ने धूम मचाई थी।

मई 1955 में ब्रेष्ट को लेनिन शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिसे लेने वह मास्को गये। 27 अगस्त 1956 से बर्लिनर इनसेम्बले की टीम को लन्दन में अपने नाटकों का प्रदर्शन करने जाना था, लेकिन इससे कुछ ही दिन पहले मंगलवार 14 अगस्त 1956 को दिल का दौरा पड़ने से बीसवीं सदी के इस महान कवि-नाटककार का देहान्त हो गया।

नाटक के लिए एक अभीष्ट मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र का निर्माण करने की कोशिश में ब्रेष्ट कहाँ तक सफल हुए, इस प्रश्न पर विद्वानों में यद्यपि आज भी मतभेद क़ायम हैं, लेकिन एक समर्थ नाटककार और उससे भी बढ़कर एक सशक्त कवि के रूप में उनकी प्रतिष्ठा विश्व रंगमंच एवं कविता के फलक पर आज भी सन्देह से परे है। सामाजिक और राजनीतिक चेतना को लेखन की पहली शर्त मानते हुए ब्रेष्ट ने मार्क्सवाद के द्वन्द्वात्मक सिद्धान्त को कविता में क़ायम रखा। व्यक्ति और समूह के बीच के वास्तविक तनावों को मज़बूती से पकड़ते हुए उन्होंने ख़ासकर छोटी कविताएँ ज़्यादा लिखीं। शब्दों की भरमार से कविता को बचाया और भाषा के सजीले कपड़ों को उतारते हुए नंगी और ठिठुरती हुई भाषा को समाज के निचले वर्गों तक पहुँचाया, जहाँ यह म्यान रहित भाषा कविता को हथियार की शक्ल दे सकी। दोनों बड़ी लड़ाइयों के दौरान और बाद में भी जब कि यूरोप और अमरीका के बुर्जुआ कवियों ने कविता को विलास का साधन मानते हुए उसे सिर्फ़ सुविधाभोगी, सम्पन्न और पढ़े-लिखे आदमियों की थाती समझ रखा था, ब्रेष्ट मुस्तैदी के साथ अपनी कविता में जनता के पक्षधर की हैसियत से लड़ते रहे। ब्रेष्ट की यह कविता जर्मन साहित्य के न सिर्फ़ समकालीन बल्कि किसी भी युग के साहित्य की अमूल्य धरोहर के रूप में सुरक्षित रखे जाने के योग्य है।

कला और राजनीति पर अपने विचारों को प्रकट करते हुए ब्रेष्ट ने यह स्पष्ट किया कि कला का महत्व तभी तक है, जब तक कि मनुष्य जाति का अस्तित्व बरकरार है, मनुष्य का अस्तित्व यदि समाप्त हो जाता है तो कला भी स्वयं नष्ट हो जायेगी। उनका यह भी कहना था कि बहुत सारे ख़ूबसूरत शब्दों को एक साथ रख देनेभर से वह कला नहीं बन जाती है। महज़ इसी कारण ब्रेष्ट ने अपनी कविता में एक गँवारू काव्य भाषा का संसार भी रचा और अन्त तक इस लोकभाषा के ज़बरदस्त समर्थक बने रहे।

नाटक और कविता के अलावा ‘कौयनर महाशय की कहानियों’ तथा ‘ब’ महाशय की कहानियों में ब्रेष्ट ने शब्दों की जिस क़ि‍फ़ायतशारी का परिचय दिया है, वह भी अन्यत्र दुर्लभ है। जर्मन साहित्य के एक समीक्षक सीगफ्रीड ने ब्रेष्ट की इन छोटी कहानियों को जर्मन गद्य का रत्न कहा है। सीगफ्रीड का यह भी मानना है कि ‘‘क’ महाशय का मनपसन्द जानवर’ जैसी कहानी निश्चित रूप से ब्रेष्ट का ‘सेल्फ़ पोर्ट्रेट’ है। यानी ब्रेष्ट की नैतिकता, शिक्षाओं और बुद्धिमानी का मिलाजुला रूप। ‘क’ (कौयनर) सीरीज की कहानियों में ‘क’ महाशय या तो ब्रेष्ट स्वयं हैं, या फिर कम्युनिस्ट विचारों से लैस व्यक्ति है, जबकि ‘ब’ सीरीज में स्वयं ब्रेष्ट ही ‘ब’ हैं। ‘ब’ सीरीज के अंग्रेज़ी अनुवाद भी बहुत कम देखने को मिलते हैं।

मार्क्सवाद के प्रति ब्रेष्ट की प्रतिबद्धता ने उन्हें लिखने की गहरी आकुलता दी और साथ ही एक ऐसा सशक्त विश्व दृष्टिकोण भी दिया, जिसके ज़रिये वह दुनिया में जो कुछ घट रहा है, उसका वैज्ञानिक सर्वेक्षण-विश्लेषण साफ़-साफ़ करने में कामयाब रहे। इसी के साथ उनके भीतर एक मानवीय कवि की जो ईमानदारी और छटपटाहट थी, उसने उन्हें चरित्रों के जीवन्त सच से कभी अलग नहीं होने दिया। अपनी रचनाओं में उन्होंने महज़ दुख का बखान नहीं किया बल्कि दुख के कारणों की जाँच-पड़ताल में भी गहराई तक गये। इस प्रकार नाटक के पात्रों का चित्रण करते हुए उन्होंने एक ओर जहाँ ईमानदार नाटककार की भूमिका निभाई, वहीं दूसरी ओर इसी सत्यनिष्ठा के चलते अन्तिम दौर के नाटकों में, यद्यपि उनकी अवधारणा मार्क्सवादी पाठ (Text) के रूप में ही की गयी थी, वह मूलभूत उद्देश्यों से काफ़ी आगे निकल आये थे। एक सत्यनिष्ठ, ईमानदार और मानवीय व्यक्ति की रचनात्मक संवेदना की यह ऊँची छलाँग ही ब्रेष्ट को एक महान कवि और नाटककार के रूप में स्थापित कर गयी।

दायित्वबोध, नवम्‍बर 1997 – फरवरी 1998

पेरिस कम्यून की महान शिक्षाएं

पेरिस कम्यून की महान शिक्षाएं

  • चेङ चिह-स्त्जू

सत्ता हासिल करने के बाद सर्वहारा वर्ग को हर सम्भव कोशिश करनी चाहिये कि उसके राज्य के उपकरण समाज के सेवक से समाज के स्वामी के रूप में न बदल जायें। सर्वहारा राज्य के विभिन्न अंगों-उपांगों में काम करने वाले सभी कार्यकर्ताओं के लिए ऊंची तनख्वाहें पाने और एकाधिक पदों पर एक साथ काम करते हुए एकाधिक तनख्वाहें पाने की व्यवस्था समाप्त कर दी जानी चाहिये, और इन कार्यकर्ताओं को किसी विशेष सुविधा का लाभ नहीं उठाना चाहिए।

सर्वहारा अधिनायकत्व के राज्य-उपकरणों के अधःपतन को कैसे रोका जाये? इस मामले में पेरिस कम्यून ने कई एक अन्वेषणात्मक कदम उठाये और कई एक ऐसी कार्रवाइयां कीं, जो हालांकि अन्तरिम (या आजमाइशी) थीं, लेकिन जिनका गम्भीर और दूरगामी महत्व था। इन कार्रवाइयों से हमारे सोचने के लिए कुछ महत्वपूर्ण सूत्र उद्घाटित होते हैं।

एंगेल्स के अनुसार, राज्य और राज्य के उपकरणों के, समाज के सेवक से समाज के स्वामी की स्थिति में इस रूपान्तरण के खिलाफ़-जो सभी पूर्ववर्ती राज्यों में अपरिहार्यतः घटित हुआ है-कम्यून ने दो अचूक साधनों का इस्तेमाल किया। पहला यह कि, इसने प्रशासकीय, न्यायिक और शैक्षिक-सभी पदों पर सभी सम्बन्धित लोगों के सार्विक मताधिकार के आधार पर चुनाव के द्वारा नियुक्तियां कीं और इस शर्त के साथ कि कभी भी उन्हीं निर्वाचकों द्वारा (चुने गये व्यक्ति को) वापस भी बुलाया जा सकता था। और दूसरा यह कि, ऊंचे और निचले दर्जे के सभी पदाधिकारियों को वही वेतन मिलता था जो अन्य मजदूरों को। कम्यून द्वारा किसी को दी जाने वाली सबसे ऊंची तनख्वाह 6,000 फ्रैंक थी। इस तरह, प्रतिनिधि संस्थाओं के प्रतिनिधियों पर लगाये गये बाध्यताकारी अधिदेशों के अतिरिक्त, (उपरोक्त दो निर्णयों के द्वारा) पदलोलुपता और कैरियरवाद के रास्ते में एक प्रभावी अवरोधक लगाया गया।

पेरिस कम्यून में जनसमुदाय वास्तविक स्वामी था। कम्यून जबतक अस्तित्व में था, जनसमुदाय व्यापक पैमाने पर संगठित था और सभी अहम राजकीय मामलों पर लोग अपने-अपने संगठनों में विचार-विमर्श करते थे। प्रतिदिन क्लब-मीटिंगों में लगभग 20,000 ऐक्टिविस्ट हिस्सा लेते थे जहां वे विभिन्न छोटे-बड़े सामाजिक और राजनीतिक मसलों पर अपने प्रस्ताव या आलोचनात्मक विचार रखते थे। वे क्रान्तिकारी समाचार-पत्रें और पत्रिकाओं में लेख और पत्र लिखकर भी अपनी आकांक्षाओं और मांगों को अभिव्यक्त करते थे। जनसमुदाय का यह क्रान्तिकारी उत्साह और यह पहलकदमी कम्यून की शक्ति का स्रोत थी।

कम्यून के सदस्य जनसमुदाय के विचारों पर विशेष ध्यान देते थे, इसके लिए लोगों की विभिन्न बैठकों में हिस्सा लेते थे और उनके पत्रें का अध्ययन करते थे। कम्यून की कार्यकारिणी समिति के महासचिव ने कम्यून के सेक्रेटरी को पत्र लिखते हुए कहा था, “हमें प्रतिदिन, जुबानी और लिखित-दोनों ही रूपों में बहुत सारे प्रस्ताव प्राप्त होते हैं जिनमें से कुछ, व्यक्तियों द्वारा और कुछ क्लबों और इण्टरनेशनल की शाखाओं द्वारा भेजे गये होते हैं। ये प्रस्ताव प्रायः उत्तम कोटि के होते हैं और कम्यून द्वारा इनपर विचार किया जाना चाहिए।” वास्तव में, कम्यून जनसमुदाय के प्रस्तावों का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करता था और उन्हें स्वीकार करता था। कम्यून की बहुत-सी महान आज्ञप्तियां जनसमुदाय के प्रस्तावों पर आधारित थीं, जैसे कि राज्य के पदाधिकारियों के लिए ऊंची तनख्वाहों की व्यवस्था समाप्त करना, लगान के बकायों को मंसूख करना, धर्म-निरपेक्ष शिक्षा-व्यवस्था लागू करना, नानबाइयों के लिए रात की पाली में काम करने की व्यवस्था समाप्त करना, वगैरह-वगैरह।

जनसमुदाय कम्यून और इसके सदस्यों के कार्यों की सावधानीपूर्वक जांच-पड़ताल भी करता था। तृतीय प्रान्त के कम्युनल क्लब का एक प्रस्ताव कहता है: “जनता ही स्वामी है… यदि जिन लोगों को तुमने चुना है वे ढुलमुलपन का या अनियंत्रित होने का संकेत देते हैं, तो उन्हें आगे की ओर धक्के दो ताकि हमारा लक्ष्य सिद्ध हो सके-यानी हमारे अधिकारों के लिए जारी संघर्ष अपना लक्ष्य प्राप्त कर सके, गणराज्य का सृदृढ़ीकरण हो सके, ताकि न्यायसंगति का लक्ष्य विजयी हो सके।” प्रतिक्रान्तिकारियों, भगोड़ों और गद्दारों के खिलाफ़ दृढ़ कदम न उठाने के लिए, स्वयं द्वारा (कम्यून द्वारा) पारित आज्ञप्तियों को तत्काल लागू नहीं करने के लिए और इसके (कम्यून के) सदस्यों के बीच एकता के अभाव के लिए जनसमुदाय ने कम्यून की आलोचना की। उदाहरण के तौर पर, Le Pere Duchene के 27 अप्रैल के अंक में प्रकाशित एक पाठक का पत्र कहता है: “कृपया समय-समय पर कम्यून के सदस्यों को धक्के लगाते रहें, उनसे कहें कि वे सो न जाया करें, और अपनी स्वयं की आज्ञप्तियों को लागू करने में टालमटोल न करें। उन्हें अपने आपसी झगड़ों को समाप्त कर लेना चाहिये क्योंकि सिर्फ़ विचारों की एकता के जरिए ही वे, अधिक शक्ति के साथ, कम्यून की हिफ़ाजत कर सकते हैं।”

उन जनप्रतिनिधियों को, जिन्होंने जनता के हितों के साथ विश्वासघात किया हो, बदल देने और वापस बुला लेने के प्रावधान खोखले शब्द-मात्र नहीं थे। कम्यून ने, वस्तुतः ब्लांशे को कम्यून की सदस्यता से वंचित कर दिया था क्योंकि वह पादरी, व्यापारी और खुफि़या एजेण्ट रहा था। वह पेरिस पर कब्जा के दौरान ‘नेशनल गार्ड’ की कतारों में छलपूर्वक घुस गया था और जालसाजी करके फ़र्जी नाम से कम्यून का सदस्य बन गया था। कम्यून ने इस तथ्य के मद्देनजर क्लूसेरे को सैनिक प्रतिनिधि के ओहदे से वंचित कर दिया कि ‘सैनिक प्रतिनिधि की असावधानी और लापरवाही से इस्सी दुर्ग लगभग खो दिया गया था।’ इसके पहले, लूइये को भी पदच्युत किया जा चुका था और ‘नेशनल गार्ड’ की केन्द्रीय कमेटी द्वारा गिरफ्तार किया जा चुका था।

पेरिस कम्यून ने राज्य के पदाधिकारियों के विशेषाधिकारों को समाप्त करने में भी दृढ़ता का परिचय दिया और, तनख्वाहों के मामले में इसने ऐतिहासिक अर्थवत्ता से युक्त एक महत्वपूर्ण सुधार किया।

हम जानते हैं कि शोषक वर्गों के अधीनस्थ राज्य अपने अधिकारियों को निरपवाद रूप से उत्तम कोटि की जीवन-स्थितियां और बहुतेरे विशेषाधिकार प्रदान करते हैं ताकि उन्हें जनता को कुचल डालने वाला अधिपति बना दिया जाये। अपने ऊंचे ओहदों पर बैठे हुए, मोटी तनख्वाहें उठाते हुए और लोगों पर धौंस जमाते हुए-यही है शोषक वर्गों के अधिकारियों की तस्वीर। दूसरे फ्रांसीसी साम्राज्य के काल को लें। उस दौरान अधिकारियों की सालाना तनख्वाहें इस प्रकार थीं: नेशनल असेम्बली के प्रतिनिधि के लिए 30,000 फ्रैंक; मंत्री के लिए 50,000 फ्रैंक; प्रिवी कौंसिल के सदस्य के लिए एक लाख फ्रैंक; स्टेट के कौंसिलर के लिए 1 लाख 30 हजार फ्रैंक। यदि कोई व्यक्ति कई आधिकारिक पदों पर एक साथ काम करता था तो वह इकट्ठे कई तनख्वाहें उठाता था। उदाहरण के लिए, नेपोलियन तृतीय का प्रिय पात्र राउहेर एक ही साथ नेशनल असेम्बली का प्रतिनिधि, प्रिवी कौंसिल का सदस्य और स्टेट का कौंसिलर-तीनों था। उसकी कुल सालाना तनख्वाह 2 लाख 60 हजार फ्रैंक थी। पेरिस के एक कुशल मजदूर को इतनी रकम कमाने के लिए 150 वर्षों तक काम करना पड़ता। जहां तक खुद नेपोलियन तृतीय की बात थी, राज्य के खजाने से उसे सालाना 2 करोड़ 50 लाख फ्रैंक दिये जाते थे। अन्य राजकीय आर्थिक सहायताओं को मिलाकर उसकी कुल सालाना आमदनी तीन करोड़ फ्रैंक थी।

फ्रांसीसी सर्वहारा इस स्थिति से घृणा करता था। पेरिस कम्यून की स्थापना के पहले भी, उसने कई मौकों पर यह मांग की थी कि अधिकारियों की ऊंची तनख्वाहों की व्यवस्था को समाप्त कर दिया जाये। कम्यून की स्थापना के साथ ही, मेहनतकश अवाम की यह चिरकालिक आकांक्षा पूरी हो गई। 1 अप्रैल को यह प्रसिद्ध आज्ञप्ति जारी हुई कि किसी भी पदाधिकारी को दी जाने वाली सबसे ऊंची सालाना तनख्वाह 6,000 फ्रैंक से अधिक नहीं होनी चाहिए। आज्ञप्ति के अनुसार: पहले, “सार्वजनिक संस्थाओं के ऊंचे ओहदे, ऊंची तनख्वाहों के कारण, प्रलोभन की चीज माने जाते थे और संरक्षण के रूप में उन्हें किसी को दिया जाता था।” लेकिन “एक सच्चे जनवादी गणराज्य में दायित्वमुक्त, आराम की नौकरियों या ऊंची तनख्वाहों के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।” 6000 फ्रैंक की रकम उस समय के एक कुशल फ्रांसीसी मजदूर की सालाना मजदूरी की कुल रकम के बराबर थी। प्रसिद्ध वैज्ञानिक हक्सले के अनुसार, यह रकम लन्दन मेट्रोपोलिटन स्कूल बोर्ड के एक सेक्रेटरी की तनख्वाह के पांचवे हिस्से से भी कुछ कम थी।

पेरिस कम्यून ने अपने पदाधिकारियों द्वारा एक साथ कई तनख्वाहें उठाने पर भी रोक लगा दी, और 19 मई के निर्णय के अनुसार:

“इस बात का ध्यान रखते हुए कि कम्यून की व्यवस्था के अन्तर्गत, हर आधिकारिक पद के लिए निर्धारित पारिश्रमिक की राशि हर उस व्यक्ति के लिए सुचारु रूप से और सम्मानपूर्वक जीवन-यापन लायक होनी चाहिये जो अपने दायित्वों को पूरा करता है… कम्यून यह प्रस्ताव पारित करता है: एक से अधिक पद पर काम करने के एवज में किसी तरह का अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाना निषिद्ध है, कम्यून के जिन पदाधिकारियों को उनके सामान्य काम के अतिरिक्त कोई दूसरा जिम्मेदारी का काम सौंपा जायेगा, उन्हें कोई नया पारिश्रमिक पाने का अधिकार नहीं होगा।”

ऊंची तनख्वाहों और एक से अधिक पदों के लिए तनख्वाहों को समाप्त करने के साथ ही कम्यून ने कमतर तनख्वाहों को बढ़ाने का भी काम किया ताकि वेतन मान में अन्तर को कम किया जा सके। उदाहरण के तौर पर डाकखाने को लें: कम तनख्वाह वाले कर्मचारियों की पगार 800 फ्रैंक सालाना से बढ़ाकर 1200 फ्रैंक कर दी गयी जबकि 12,000 फ्रैंक सालाना की ऊंची तनख्वाहों को आधा घटाकर 6,000 फ्रैंक कर दिया गया। कम तनख्वाह वाले कर्मचारियों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए कम्यून ने त्वरित प्रावधान के द्वारा सभी आर्थिक कटौतियों और अर्थदण्डों पर भी रोक लगा दी।

विशेषाधिकारों, ऊंची तनख्वाहों और एक साथ कई पदों के लिए कई तनख्वाहों की समाप्ति से सम्बन्धित विनियमों के क्रियान्वयन में कम्यून के सदस्यों ने स्वयं मॉडल का काम किया। कम्यून के एक सदस्य थीस्ज को, जो डाकखाने का प्रभारी था, विनियमों के अनुसार 500 फ्रैंक माहवार की तनख्वाह मिल सकती थी, पर वह सिर्फ़ 450 फ्रैंक लेने पर ही राजी हुआ। कम्यून के जनरल व्रोब्लेवस्की ने स्वेच्छा से अधिकारी श्रेणी का अपना वेतन छोड़ दिया और एलिसे महल में दिये गये अपार्टमेण्ट में रहने से इंकार कर दिया। उसने घोषणा की: “एक जनरल की जगह उसके सैनिकों के बीच होती है।”

पेरिस कम्यून की कार्यकारिणी समिति ने जनरल की पदवी को समाप्त करने के लिए भी एक प्रस्ताव पारित किया। 6 अप्रैल के अपने प्रस्ताव में समिति ने कहा: “इस तथ्य के मद्देनजर कि जनरल की पदवी नेशनल गार्ड के जनवादी संगठन के उसूलों के असंगत है… यह निर्णय लिया जाता है: जनरल की पदवी समाप्त की जाती है।” अफ़सोस की बात है कि यह निर्णय व्यवहार में लागू नहीं हो सका।

राज्य के नेता जो वेतन लेते थे वह एक कुशल मजदूर के वेतन के बराबर होता था। अधिक काम करना उनका अनिवार्य कर्तव्य था, पर उन्हें अधिक वेतन लेने का या किसी भी तरह की विशेष सुविधा का कोई अधिकार नहीं था। यह एक अभूतपूर्व चीज थी। इसने ‘सस्ते सरकार’ के नारे को सच्चे अर्थों में यथार्थ में रूपान्तरित कर दिया। इसने तथाकथित राजकीय मामलों के संचालन के इर्दगिर्द निर्मित “रहस्य” और “विशिष्टता” के उस वातावरण को समाप्त कर दिया-जो शोषक वर्ग द्वारा जनता को मूर्ख बनाने के एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इसने राजकीय मामलों के संचालन को सीधे-सीधे एक मजदूर के कर्तव्यों में बदल दिया और (राज्य के) पदाधिकारियों को ‘विशेष औजारों’ से काम लेने वाले मजदूरों में रूपान्तरित कर दिया। पर इसकी महान अर्थवत्ता सिर्फ़ इसी बात में निहित नहीं है। भौतिक पुरस्कारों या लाभों के मामले में, इसने पदाधिकारियों के अधःपतन को रोकने वाली स्थितियों का निर्माण किया। लेनिन के अनुसार, “यह कदम, और साथ ही पदाधिकारियों के चुनाव और सभी सार्वजनिक अधिकारियों के हटा दिये जाने का सिद्धान्त तथा उन्हें “मालिक वर्ग” के मानकों या बुजुर्आ मानकों के बजाय सर्वहारा मानकों के अनुसार वेतन-भुगतान-यह मजदूर वर्ग का आदर्श है।” वह आगे कहते हैं:

“सभी प्रतिनिधित्व भत्तों की, और अधिकारियों के सभी वित्तीय विशेषाधिकारों की समाप्ति, राज्य के सभी सेवकों का पारिश्रमिक ‘मजदूरों की तनख्वाह’ के स्तर तक घटा देना। यह बुर्जुआ जनवाद के सर्वहारा जनवाद में, उत्पीड़कों के जनवाद के उत्पीड़ित वर्गों के जनवाद में, रूपान्तरण को, राज्य के एक वर्ग विशेष द्वारा दमन के ‘विशेष बल’ से,- उत्पीड़कों का दमन करने वाले, जनता की बहुसंख्या के-मजदूरों और किसानों के ‘सामान्य बल’ में रूपान्तरण को, अन्य किसी चीज के मुकाबले अधिक स्पष्टता से प्रदर्शित करता है। और यही वह विशिष्ट ध्यानाकर्षक बिन्दु है, राज्य की समस्या से जुड़ा हुआ शायद वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु है, जिस पर मार्क्स के विचारों की पूरी तरह अनदेखी की गई है!… जो किया गया है वह यह कि इसके बारे में चुप्पी साध ली गयी है मानो यह पुराने ढंग के ‘भोलेपन’ का एक हिस्सा हो।”

और ठीक यही वह चीज है जो ख्रुश्चेवी संशोधनवादियों का नेतृत्वकारी गुट कर रहा है: उन्होंने पेरिस कम्यून के इस महत्वपूर्ण अनुभव की पूरी तरह उपेक्षा की है। वे विशेषाधिकारों के पीछे भागते हैं, अपने विशेषाधिकार प्राप्त ओहदों का इस्तेमाल करते हैं, सार्वजनिक गतिविधियों को निजी लाभ के मौकों में बदल देते हैं, जनता की मेहनत के फ़ल हड़प जाते हैं और साधारण मजदूरों और किसानों की तनख्वाहों से दसियों गुना और कभी-कभी तो सैकड़ों गुना अधिक कमाई करते हैं। राजनीतिक अवस्थिति से लेकर जीवन-प्रणाली तक में, वे मेहनतकश अवाम से मुंह मोड़ चुके हैं और बुर्जुआ वर्ग और नौकरशाह पूंजीपति जो कुछ करते हैं, उसी की नकल करने लगे हैं। अपने शासन का सामाजिक आधार मजबूत करने की कोशिश में, मोटी आमदनी और विशेषाधिकारों वाला एक सामाजिक संस्तर तैयार करने में, वे ऊंची तनख्वाहों, ऊंचे पुरस्कारों, ऊंची फ़ीसों एवं वजीफ़ों का और धन कमाने के अन्य तरह-तरह के तरीकों का भी इस्तेमाल करते हैं। जनता की क्रान्तिकारी संकल्प शक्ति को पैसे से क्षरित करने की कोशिश में, वे “भौतिक प्रोत्साहनों” के बारे में बेतहाशा बातें करते हैं, रूबल को “शक्तिशाली संचालक शक्ति” बताते हैं और कहते हैं कि उन्हें ‘लोगों को शिक्षित करने के लिए रूबलों का इस्तेमाल करना’ चाहिए। ख्रुश्चेवी संशोधनवादियों की इन हरकतों की तुलना पेरिस कम्यून के “भोलेपन” से (जैसाकि वे कहते हैं) करने पर कोई भी व्यक्ति आसानी से देख सकता है कि जनता के सेवक और जनता के स्वामी होने का क्या मतलब होता है, राज्य के अवयवों को समाज के सेवक से समाज के स्वामी में रूपान्तरित कर दिये जाने का क्या अर्थ है। एंगेल्स लिखते हैं, “क्या तुम जानना चाहते हो कि यह अधिनायकत्व कैसा होता है? पेरिस कम्यून को देखो। यह सर्वहारा का अधिनायकत्व था।” इसी प्रकार हम कह सकते हैं: क्या तुम जानना चाहते हो कि सर्वहारा का अधःपतित अधिनायकत्व कैसा होता है? तो ख्रुश्चेवी संशोधनवादी गुट के शासन के अन्तर्गत सोवियत संघ के “समूची जनता के राज्य” को देखो।

सर्वहारा वर्ग को दुश्मन की नकली शांति वार्ताओं के प्रति सतर्क रहना चाहिये जबकि वह वास्तव में युद्ध की तैयारी कर रहा होता है, और प्रतिक्रान्तिकारी दोहरे रणकौशल से निपटने के लिए क्रान्तिकारी दोहरे रणकौशल का इस्तेमाल करना चाहिये।

पेरिस कम्यून ने वसीयत के तौर पर हमारे लिए कई महान और प्रेरणादायी शिक्षाएं छोड़ी हैं। इनमें से बहुतेरी सकारात्मक रूप से मूल्यवान हैं; और कुछ अन्य कड़वे अनुभवों की शिक्षाएं हैं।

कम्यून के नेतृत्व में ब्लांकीवादी और प्रूधोंवादी शामिल थे। इनमें से कोई भी सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी नहीं थी। इनमें से किसी ने भी मार्क्सवाद को समझा नहीं था और किसी के पास सर्वहारा क्रान्ति को नेतृत्व देने का अनुभव नहीं था। सर्वहारा वर्ग द्वारा आगे ठेल दिये जाने पर उन्होंने कुछ चीजों को सही ढंग से अंजाम दिया, लेकिन अपनी राजनीतिक चेतना की कमी के कारण उन्होंने बहुतेरी गलतियां भी कीं। इनमें से एक प्रधान गलती यह थी कि वे दुश्मन की शांति वार्ताओं की धोखाधड़ी के शिकार हो गये जबकि वह वास्तव में युद्ध की तैयारी कर रहा था। उन्होंने दुश्मन को दीवार से जकड़ तो दिया लेकिन अपने विजयी आक्रमण का दबाव देश के भीतर बनाये नहीं रख सके और दुश्मन का पूरी तरह से सफ़ाया नहीं कर सके। उन्होंने दुश्मन को उसकी झूठी शांति वार्ताओं की आड़ में दम ले लेने की मोहलत दे दी और इस अन्तराल में उसे प्रत्याक्रमण के लिए अपनी सेनाओं को पुनर्संगठित कर लेने का मौका मिल गया। उनके पास अपनी क्रान्तिकारी विजय को विस्तार देने का अवसर था, पर उन्होंने इसे अपनी उंगलियों के बीच से फि़सल जाने दिया….

जब वर्साय अपने छुरे तेज कर रहा था, तो पेरिस मतदान में लगा हुआ था, जब वर्साय युद्ध की तैयारी कर रहा था, तो पेरिस वार्ताएं कर रहा था। नतीजा यह हुआ कि वर्साय के दस्यु-दल अपने कसाइयों के छुरों के साथ पेरिस में घुस गये। उन्होंने अपने कब्जे में आये कम्यून के सदस्यों और सैनिकों को गोली मार दी; उन्होंने चर्च में शरण लिये हुए लोगों को गोली मार दी; उन्होंने अस्पतालों में पड़े घायल सैनिकों को गोली मार दी; उन्होंने बुजुर्ग मजदूरों को यह कहते हुए गोली मार दी कि इन लोगों ने बार-बार बगावतें की हैं और ये खांटी अपराधी हैं; उन्होंने स्त्री-मजदूरों को यह कहते हुए गोली मार दी कि ये “स्त्री अग्नि-बम” हैं और यह कि ये स्त्रियों जैसी सिर्फ़ तभी लगती हैं जब “मृत होती हैं”; उन्होंने बाल मजदूरों को यह कहकर गोली मार दी कि “वे बड़े होकर बागी बनेंगे।” यह हत्याकाण्ड, जिसे वे “शिकार करना” कहते थे, पूरे जून के महीने भर चलता रहा। पेरिस लाशों से भर गया, सैन खून की नदी बन गई और कम्यून इस लहू के समन्दर में डुबो दिया गया। तीस हजार से अधिक लोग इस जनसंहार में मारे गये और एक लाख से अधिक लोग बन्दी बना लिये गये या निर्वासित कर दिये गये। वर्साय ने पेरिस की ‘सदाशयता’ और ‘दरियादिली; का यह सिला दिया। इसकी झूठी शांति वार्ताओं और युद्ध की वास्तविक तैयारियों की चालबाजी की यह अन्तिम परिणति थी। यह रक्त से लिखी गई एक कड़वी शिक्षा थी। इसने हमें सिखाया कि सर्वहारा वर्ग को क्रान्ति को अन्त तक चलाना होगा; कि भागते हुए डकैतों का पीछा किया जाना चाहिये और उन्हें तबाह कर देना चाहिये, कि डूबते हुए चूहों को पीट-पीटकर मार डालना चाहिये; कि दुश्मन को अपना दम फि़र से हासिल कर लेने का मौका कतई नहीं दिया जाना चाहिए।

यदि यह कहा जा सकता है कि 95 वर्षों पहले पेरिस कम्यून के अधिकांश सदस्य थियेर की नकली शांति वार्ताओं और युद्ध की वास्तविक तैयारियों के कुचक्र को सही समय पर भांप नहीं सके, और यह कि पर्याप्त अनुभव और समझदारी की कमी के कारण ऐसा हुआ, तो आज, जब ख्रुश्चेवी संशोधनवादी अमेरिकी साम्राज्यवाद की फ़र्जी शांति और वास्तविक आक्रमण की नीति की सेवा में सबकुछ कर रहे हैं, वह समझदारी की कमी का मामला निश्चित रूप से नहीं है। ख्रुश्चेवी संशोधनवादी पूरी तरह गद्दारी की अवस्थिति पर जा खड़े हुए हैं और प्रतिक्रान्तिकारी दोहरे रणकौशल द्वारा सर्वहारा के क्रान्तिकारी आन्दोलन और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन का गला घोंटने की कोशिश में अमेरिकी साम्राज्यवादियों के साथ सहयोग कर रहे हैं। फि़र भी, समय आगे बढ़ रहा है, जनता आगे बढ़ रही है और क्रान्ति आगे बढ़ रही है। क्रान्तिकारी जनता ज्यादा से ज्यादा अच्छे ढंग से यह समझती जा रही है कि प्रतिक्रान्तिकारी दोहरे रणकौशल के विरोध में क्रान्तिकारी दोहरे रणकौशल का किस प्रकार इस्तेमाल किया जाता है और क्रान्ति को अन्त तक कैसे चलाया जाता है। अपने सभी किस्म के प्रतिक्रान्तिकारी दोहरे रणकौशलों के साथ साम्राज्यवादी, संशोधनवादी और सभी प्रतिक्रियावादी जनता द्वारा अन्तिम तौर पर, समूचा का समूचा, इतिहास के कूड़ेदानी के हवाले कर दिये जायेंगे।

पेरिस कम्यून की इक्कीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर, एंगेल्स ने लिखा थाः “बुर्जुआ वर्ग को अपनी 14 जुलाई या 22 सितम्बर का उत्सव मनाने दो। सर्वहारा वर्ग का त्यौहार तो सभी जगह हमेशा 18 मार्च ही होगा।”

आज, जब हम सर्वहारा वर्ग का त्यौहार-पेरिस कम्यून के विद्रोह की 95वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, दुनिया पर एक नजर डालने पर एक महान क्रान्तिकारी परिस्थिति दिखाई देती है जब “चारों महासागर उफन रहे हैं, बादल और जल क्रोधोन्मत्त हो उमड़ रहे हैं; पांचो महाद्वीप प्रकम्पित हो रहे हैं, हवाएं और बिजलियां गरज रही हैं।” इतिहास ने मार्क्स की उस भविष्यवाणी को पूरी तरह साकार कर दिया है, जो उन्होंने 95 वर्षों पहले की थी:

यदि कम्यून को कुचल भी दिया गया, तब भी संघर्ष सिर्फ़ स्थगित होगा। कम्यून के सिद्धान्त शाश्वत और अनश्वर हैं, जबतक मजदूर वर्ग अपनी मुक्ति अर्जित नहीं कर लेता, तबतक ये सिद्धान्त बार-बार अपनी घोषणा करते रहेंगे। पेरिस कम्यून का पतन हो सकता है, लेकिन जो सामाजिक क्रान्ति इसने प्रारम्भ की है, वह विजयी होगी। इसकी जमीन सर्वत्र मौजूद है। 

(‘पीकिङ रिव्यू’, 15 अप्रैल, 1966 में प्रकाशित)

दायित्वबोध, मार्च-जून 1997

कहां गईं स्त्रियां? – खट रही हैं भूमण्डलीय असेम्बली लाइन पर

कहां गईं स्त्रियां? – खट रही हैं भूमण्डलीय असेम्बली लाइन पर

  • कात्‍यायनी

‘‘कहां गई हैं लड़कियां?  क्या बताऊं भाई?

भाप मशीन चलाकर कर रही बुनाई

देखना हो उनको अगर

अलस्सुबह उठना होगा

पौ फटते ही फैक्टरी तक

पैदल चलना होगा।’’

ब्रिटेन में प्रचलित उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दौर का यह लोकगीत उन स्त्रियों की त्रासदी बयान करता है जो पूंजीवाद के प्रारंभिक दौर में कपड़ा मिलों में पन्द्रह-पन्द्रह घण्टे काम करती थीं। उन्नीसवीं सदी में औद्योगिक क्रांति के आगमन के बाद इंगलैण्ड और पूर्वोत्तर अमेरिका में खेतों में काम करने वाली मजदूर औरतें बडे़ पैमाने पर सूती कपड़ा मिलों में भरती हुई थीं। गरीबों की दुनिया से-रोजमर्रे के स्वाभाविक जीवन से स्त्रियां जैसे अदृश्य हो गई थीं और उन गरीब औरतों की दुनिया से स्वाभाविक जिन्दगी की गंध और छवि अदृश्य हो गई थी।

आज यही परिघटना बड़े पैमाने पर तीसरी दुनिया के देशों में कुछ नये रूपों में दिखाई दे रही है। पूंजीवाद के स्वतंत्र प्रतियोगिता के दौर में श्रम-विभाजन के क्लासिकी पूंजीवादी रूप ने सस्ते श्रम के भण्डार के रूप में स्त्रियों और बच्चों को देखा। अब साम्राज्यवाद के युग के आर्थिक नवउपनिवेशवाद या बाजार-उपनिवेशवाद के दौर में, भूमण्डलीकरण के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय श्रम-विभाजन का जो परिदृश्य उभरा है उसने एक कारखाने की चारदीवारी के भीतर कैद ‘फैक्टरी असेम्बली लाइन’ को एक दूसरे से जुड़ी अलग-अलग इकाइयों में विभक्त करके पूरी दुनिया में फैला दिया है और गरीब देशों की स्त्रियों की भारी आबादी को इससे जोड़कर पूंजी की निकृष्टतम कोटि की उजरती गुलाम बना दिया है। आज तीसरी दुनिया की युवतियां एशिया से लेकर लातिन अमेरिका तक, दुनिया भर में अपना कब्जा जमाने के लिए निकल पड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए सस्ते श्रम का विपुल भण्डार बनती जा रही हैं।

औद्योगिक क्रान्ति से लेकर आज तक श्रम-विभाजन का अन्तरराष्ट्रीयकरण वस्तुतः कई मंजिलों से होकर गुजरा है। उन्नीसवीं सदी के अन्त और इस सदी की शुरुआत में एकाधिकारी पूंजी के विश्वव्यापी प्रभुत्व, वित्तीय पूंजी के आयात-निर्यात और वर्चस्व तथा विश्व-बाजार पर अधिकार के लिए उत्कट साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का युग प्रारम्भ होने के साथ ही पश्चिम के दैत्याकार निगमों द्वारा उपनिवेशों की जनता के श्रम की लूट का नया दौर शुरू हुआ। यूरोप-अमेरिका के मज़दूरों ने गत सदी के उत्तरार्द्ध में लगातार संघर्ष करके बहुतेरी रियायतें और सुविधायें हासिल की थीं। साथ ही, उपनिवेशों से अर्जित अतिलाभ (Super Profit) के कारण उनके एक बड़े हिस्से को बेहतर वेतन और सुविधाएं दे पाना भी संभव हो गया था। लेकिन फिर भी वहां स्त्रियों, बच्चों, अश्वेतों और आप्रवासी मजदूरों का अतिशोषण (Super Exploitation) जारी रहा और आज भी जारी है। फर्क यह है कि तीसरी दुनिया के श्रमिकों से फिर भी उनकी जीवन-स्थिति कुछ बेहतर है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भी तीसरी दुनिया के नवउपनिवेशों और सीमित राजनीतिक-आर्थिक आजादी वाले नवस्वाधीन देशों में कुल मिलाकर, भूमण्डलीय पूंजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों के ‘‘गहराते जाने’’ की प्रक्रिया जारी रही और संचित अतिलाभ साम्राज्यवादियों को पुनर्निवेश के लिए तथा श्रम की भूमण्डलीय लूट की नई-नई तिकड़में भिड़ाने के लिए बाध्य करता रहा।

1971 के एक सर्वेक्षण के अनुसार बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों में कारखाने लगाने का मुख्य कारण था-यहां का कम वेतन। साठ के दशक में यह प्रवृत्ति तेज गति से आगे बढ़ी। दूसरे देशों में अपना उद्योग फैलाने वाली ऐसी पहली कम्पनियों में से एक थी-फेयरचाइल्ड कैमरा एण्ड इंस्ट्रमेण्ट कारपोरेशन जिसने 1961 में हांगकांग में निर्यात का सामान बनाने वाला एक कारखाना लगाया ताकि बढ़ती अन्तरराष्ट्रीय होड़ में टिके रहने के लिए वह बेहद कम मजदूरी देकर माल उत्पादन कर सके। साठ के दशक में बेसबॉल, वाशिंग मशीन, सिले वस्त्र, इलेक्ट्रानिक सामान, कार, जूते आदि बनाने वाली कम्पनियां पुर्जें जोड़-जोड़कर या उत्पादन-प्रक्रिया को कई हिस्सों में बांटकर सस्ते से सस्ते दामों पर उत्पादन कराने के नये-नये ठिकाने ढूंढ़ती हुई पूरी दुनिया में फैल गईं। पहले हांगकांग और ताइवान, फिर दक्षिण कोरिया और मेक्सिको और फिर सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैण्ड, फिलीपींस आदि उनके अड्डे बने। यूं तो इन देशों में श्रम आम तौर पर सस्ता था, पर स्त्रियों का श्रम और अधिक सस्ता था इसलिए इन कम्पनियों ने बड़े पैमाने पर बहुत कम वेतन या दिहाड़ी पर या शिकमी ठेके पर स्त्रियों से काम कराना शुरू कर दिया। साठ के दशक के अन्त तक निर्यातोन्मुख उत्पादन ही विकास की सबसे प्रचलित रणनीति बन चुकी थी और विश्वबैंक, आई.एम.एफ., यूनिडो, एड आदि अन्तरराष्ट्रीय एजेन्सियां इसके पैरोकार की भूमिका निभाने लगी थीं। इस तरह असेम्बली लाइन (जिस पर पुर्जे जोड़कर माल तैयार किया जाता है) पूरे भूमण्डल पर विस्तारित होने लगी थी। एक अन्तरराष्ट्रीय निवेश कम्पनी के वरिष्ठ प्रबन्ध निदेशक तथा अमेरिकी सरकार के भूतपूर्व अवर सचिव जॉर्ज बॉल ने 1967 में ही वित्तीय पूंजी की इस आम रुझान और प्रवाह की दिशा पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘‘आज ऐसी कम्पनियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है जो एक देश-समूह से कच्चा माल लेकर दूसरे देश-समूह के श्रम तथा कारखानों से लाभ उठाते हुए, विनिर्मित माल तैयार करके किसी तीसरे देश-समूह को बेचने में लगी हुई हैं। त्वरित संचार साधनों, तेल परिवहन सेवाओं, कम्प्यूटर और आधुनिक प्रबन्धकीय तकनीक से लैस होकर श्रम व कच्चे माल की उप्लब्धता तथा कीमतों के उतार-चढ़ाव के अनुसार, हर महीने उत्पादन तथा वितरण के तरीकों में फेरबदल करते हुए वे अपने संसाधनों को नित नये तरीके से संयोजित करते रहते हैं।’’

1970 के दशक में नया अन्तरराष्ट्रीय श्रम विभाजन कमोबेश स्थापित हो चुका था। तीसरी दुनिया के देश अब केवल प्राथमिक माल का उत्पादन और निर्यात तथा विकसित देशों से विनिर्मित माल का आयात करने, की मंजिल से आगे बढ़ चुके थे। यही नहीं, ऊपर उद्धृत जार्ज बॉल के प्रेक्षण से भी आगे अब स्थिति यह हो चुकी थी कि सिर्फ श्रम-प्रधान उत्पादनों के बजाय अब मेक्सिको और ऐसे ही कुछ अन्य देश ऐसे उत्पादन में भी लग चुके थे जिनकी तकनोलॉजी और कुशलता अमेरिका और यूरोप जैसी ही उन्नत थी। फर्क सिर्फ यह था कि ऐसे उत्पादों की लागत इन देशों में अपेक्षतया काफी कम होती थी। प्रौद्योगिक प्रगति ने पूंजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया की भूमण्डलीय पहुंच को व्यापक बना दिया। सस्ते, सुगमतर और तीव्रतर संचार-यातायात और नयी तकनोलॉजी ने उत्पादन प्रक्रिया को टुकडे़-टुकड़े में बांटकर पूरी पृथ्वी पर पार्सल कर देना सम्भव बना दिया। 1970 के दशक में दीर्घकालिक मंदी के नये चक्र की जो शुरुआत हुई उसने पश्चिमी चौधरियों को मजबूर किया कि वे आर्थिक विकास के नवीकरण और आर्थिक ठहराव की हद तक आगे बढ़ चुकी प्रतियोगिता का मुकाबला करने की तरकीबें ईजाद करें। इन्हीं कोशिशों-तरकीबों के पैकेज को आज ‘‘पुनर्गठन’’ (Restructuring) ढांचागत समायोजन और बाजार-निर्देशित नुस्खों की संज्ञा दी जा रही है जो भूमण्डलीकरण के इस नये दौर के चालू मुहावरे बने हुए हैं। ‘कारपोरेट रीस्ट्रक्चरिंग’ वास्तव में लागत में कटौती और श्रम पर पुनर्नियंत्रण का ही दूसरा नाम है जिसे श्रम बाजार में ‘‘लचीलेपन’’ की वापसी की संज्ञा भी दी जा रही है, मुक्त बाजार का रामधुन जपने वाले अर्थशास्त्री और राजनीतिक चिन्तक आज विश्व बाजार की बढ़ती प्रतियोगिता की स्थिति को स्वीकारने की सलाह देते नहीं थक रहे हैं, पर वे यह नहीं बताते कि भूमण्डलीय प्रतियोगिता का जो अर्थ गरीब देशों के (और धनी देशों के भी) स्त्री-पुरुष मजदूरों के लिए है, वही अर्थ फोर्ड, टोयोटा, जनरल मोटर्स, मर्सिंडीज बेंज आदि के लिए (या टाटा-बिड़ला-अम्बानी के लिए) नहीं है। श्रम और पूंजी के परस्पर विरोधी हित आज काफी साफ हैं और वास्तव में, वर्तमान अन्तरराष्ट्रीय श्रम-विभाजन इसी अन्तरविरोध का एक नतीजा है।

इस सच्चाई से एकदम परे हटकर पश्चिमी थिंकटैंक और उनके पिछलग्गू देसी कलमनवीस हमें यह बताने की कोशिश करते हैं कि भूमण्डलीकरण बाजार-प्रतियोगिता और नई तकनोलॉजिकल प्रगतियों के संयोजन का परिणाम है, पर प्रतियोगिता या तकनोलॉजी में कुछ भी तटस्थ नहीं होता। पूँजीवादी बाजार अर्थ-व्यवस्था में माल एवं सेवाओं के ज्यादा से ज्यादा सस्ते और ज्यादा से ज्यादा तेज उत्पादन के द्वारा ज्यादा से ज्यादा लाभ-संचय के लिए बाजार की तलाश की मुहिम ही प्रतियोगिता को जन्म देती रही है और औद्योगिक क्रांति से लेकर आज तक के समय में, उत्पादन के लिए नई-नई तकनोलॉजी का इस्तेमाल मुनाफे के इसी उद्देश्य से होता रहा है। श्रम के लिए इसका एकमात्र मतलब ‘‘उत्पादन के एक उपादान’’ के रूप में इस्तेमाल होना है जिसकी भूमिका कुशलता और लागत से मापी जाती है। प्रारम्भिक औद्योगिक क्रान्ति में इसी के चलते स्त्रियों के अतिशोषण की शुरुआत हुई और आज भी तीसरी दुनिया की स्त्रियों का अत्यन्त सस्ता श्रम इसी कारण से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा खरीदा जा रहा है।

भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में ‘‘कल्याणकारी राज्य’’ का रामनामी दुपट्टा फेंककर पूंजीवाद अपने सम्पूर्ण समग्र रूप में सामने है। ‘‘पुनर्गठन’’ का एकमात्र अर्थ यही है। निजीकरण और ‘डीरेग्युलेशन’ और ढांचागत समायोजन का एकमात्र उद्देश्य पूंजीवाद को उसके क्लासिकी रूप में एक बार फिर बहाल करना है, जिसमें पूंजीवाद की जो बुनियादी प्रवृत्तियां शुरू से उसके भीतर मौजूद रही हैं वे एकदम सतह पर उभर आईं  हैं। ये प्रवृत्तियां हैंकृहर चीज को माल में तब्दील कर देना और अतिलाभ अर्जित करने और उग्र होती जा रही बाजार की प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहने के लिए पूंजीपतियों के द्वारा सस्ते से सस्ते श्रम के स्रोतों की तलाश। और आज दुनिया में सबसे सस्ता श्रम है तीसरी दुनिया  के देशों की निम्न मध्यवर्गीय और मेहनतकश स्त्रियों का, जिस पर तमाम राष्ट्रपारीय निगम गिद्धों की तरह टूट पड़े हैं।

एनेट क्यूण्टेस और बारबरा एहरेनराइश के शब्दों में, ‘‘अस्सी के दशक में ‘मेड इन ताइवान’ और ‘हाइती में उत्पादित’ जैसे चिप्पियों के पीछे महिला श्रम-शक्ति का विराट पुंज छिपा हुआ था। पिछले लगभग पन्द्रह सालों से श्रम को सस्ते से सस्ता और मुनाफे को ज्यादा से ज्यादा बनाने के लिए सियर्स रोबक् तथा जनरल इलेक्ट्रिक जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों की महिला श्रमिकों पर निर्भरता बढ़ती गई है। पुर्जे जोड़कर बनाये जाने वाले खिलौने, जींस पैण्ट, माइक्रोप्रोसेसर हार्डवेयर जैसे उपभोक्ता सामानों की अदृश्य उत्पादक औरतें ही रही हैं।

‘‘इन कम्पनियों के तीसरी दुनिया की ओर कूच करने का मुख्य कारण है, यहां का कम वेतन। अमेरिका में उत्पादन श्रृंखलाओं में खड़ी होकर पुर्जे जोड़ने वाली मजदूर औरत औसतन 3-10 डालर से लेकर 5 डालर प्रति घंटा तक कमा लेती हैं। तीसरी दुनिया में वही काम करने वाली औरत मजदूर पूरे दिन की हाड़तोड़ मेहनत के बाद 3 से 5 डालर कमा पाती है। ऐसे में अधिक से अधिक निचोड़ने की ख्वाहिश रखने वाले निगमों के प्रबन्धक आखिर मेसाच्यूसेट्स में किसी को एक घण्टे के काम के लिए भला उतना पैसा क्यों देंगे, जो फिलीपींस के लोग पूरे दिन की मेहनत के बाद कमाते हैं? यही नहीं, जब औरतों की दरें पुरुषों से 40-60 प्रतिशत कम हों तो वे पुरुष मजदूर क्यों रखना चाहेंगें? अमेरिकी निगम अपनी इस अन्तरराष्ट्रीय उत्पादन सुविधा को ‘‘समुद्रपारीय स्रोतीकरणय् (Off-shore Sorcing) का नाम देते हैं। अमेरिकी मजदूरों का रोजगार छीनने वाली इन कम्पनियों को वहां की ट्रेड यूनियनों से ‘भगोड़ी कार्यशालाओं’ (Run-away Shops) का नाम दिया है।’’ (विमेन इन द ग्लोबल फैक्टरी_ अमेरिका, 1983)

एनेट और बारबरा ने अपनी पुस्तक में मलेशिया, थाइलैण्ड, ताइवान से लेकर मैक्सिको, ब्राजील, डॅामिनिकन रिपब्लिक, हाइती, ग्वाटेमाला, प्यूएर्तोरिको आदि देशों की स्त्री कामगारों के कठिन श्रम और नारकीय जीवन का जो खाका खींचा है वह लोमहर्षक है। इसे पढ़कर ही जाना जा सकता है। भूमण्डलीकरण के दौर में स्त्रियां किस तरह ‘‘बीसवीं सदी के निकृष्टतम गुलामों’’ की कोटि में खड़ी कर दी गई हैं। और अब, नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद भारत भी स्पष्टतः इन्हीं देशों की कतार में शामिल हो गया है।

बीसवीं सदी के अन्त में, भारत जैसे गरीब देशों की मेहनतकश स्त्रियां रोजमर्रें के आम जीवन से अनुपस्थित होती जा रही हैं। उन्हें देखना हो तो वहां चलना होगा जहां वे छोटे-छोटे कमरों में माइक्रोस्कोप पर  निगाहें गड़ाये सोने के सूक्ष्म तारों को सिलिकॉन चिप्स से जोड़ रही हैं, निर्यात के लिए सिले-सिलाए वस्त्र तैयार करने वाली फैक्टरियों में कटाई-सिलाई कर रही हैं, खिलौने तैयार कर रही हैं या फूड प्रोसेसिंग के काम में लगी हुई हैं। इसके अलावा वे बहुत कम पैसे पर स्कूलों में पढ़ा रही हैं, टाइपिंग कर रही हैं, करघे पर काम कर रही हैं, सूत कात रही हैं और पहले की तरह बदस्तूर खेतों में भी खट रही हैं। महानगरों में वे दाई-नौकरानी का भी काम कर रही हैं और ‘बार मेड’ का भी।

अनुपस्थित और मौन होकर भी वे हमारे आसपास ही हैं। भूमण्डलीकरण की संजीवनी पी रहे वृद्ध पूंजीवाद के लिए शव-परिधान बुन रही हों शायद! क्या पता!

दायित्वबोध, वर्ष 3, अंक 6, सितम्बर-अक्टूबर 1996