सम्पादकीय

फ़ासीवाद के प्रतिरोध की रणनीति का प्रश्न

गुजरात व हिमाचल के चुनाव और फ़ासीवाद के प्रतिरोध की रणनीति का प्रश्न

  • सम्‍पादक मण्‍डल 

हालिया चुनावों के नतीजे अपेक्षाओं के अनुरूप ही थे। जैसा कि हिमाचल प्रदेश में हमेशा होता है, जिस पार्टी की सरकार थी वह पार्टी चुनाव हार गयी। कांग्रेस की जगह प्रदेश में भाजपा की सरकार बन गयी। लेकिन गुजरात चुनावों में तथाकथित मोदी लहर की गिरावट के स्पष्ट संकेत मिले। अभी हम ईवीएम के साथ छेड़छाड़ और चुनाव आयोग द्वारा स्पष्ट तौर पर भाजपा के ‘बाह्य अघोषित विभाग’ के रूप में काम करने के पहलू पर बात न भी करें, तो इतना स्पष्ट है कि तथाकथित मोदी लहर गिरावट के पहले लक्षण प्रदर्शित कर रही है। अगर हम चार महानगरों यानी अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा और राजकोट के नतीजों को अलग कर दें, तो कांग्रेस ने यह चुनाव अच्छे अन्तर से जीता है। कांग्रेस के इस पुनरुत्थान का कारण है कि नोटबन्दी और जीएसटी जैसे जनविरोधी आर्थिक क़दमों के कारण मोदी सरकार का घटता सामाजिक आधार। इसके अलावा, कुछ दीर्घकालिक कारक भी काम कर रहे थे, जैसे कि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से बेरोज़गारी, महँगाई और खेती के संकट का अभूतपूर्व रफ्तार से बढ़ना। इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद से ही जनविरोधी और पूँजीपरस्त नीतियों को धड़ल्ले से और तानाशाहाना तरीक़े से लागू करना शुरू किया। मोदी को सत्ता में पहुँचाने के लिए बड़े पूँजीपतियों और साम्राज्यवादी पूँजी ने इसीलिए तो हज़ारों करोड़ रुपये मोदी के चुनाव प्रचार में पानी की तरह बहाये थे। और मोदी के सत्ता में आने के बाद से संकट झेल रहे पूँजीपति वर्ग ने मोदी सरकार को और भाजपा को अपना सहयोग और समर्थन अभूतपूर्व रूप से बढ़ाया है। इसकी इन्तहा इस बात में देखी जा सकती है भाजपा के अतिरिक्त अन्य पूँजीवादी पार्टियों को चुनावों के लिए पर्याप्त चन्दा पूँजीपति घरानों से नहीं मिल रहा है। मोदी द्वारा नवउदारवादी नीतियों को धक्काज़ोरी से आगे बढ़ाने में किसी को भी आश्चर्य नहीं होता क्योंकि फ़ासीवाद हमेशा ही बड़े पूँजी के सबसे प्रतिक्रियावादी धड़े की ”सबसे बर्बर और नग्न तानाशाही” होता है। मोदी सरकार इस आम नियम का अपवाद नहीं है।

मोदी सरकार और संघ परिवार ने इन नवउदारवादी नीतियों के समर्थन सन्दर्भ के तौर पर साम्प्रदायिक फ़ासीवादी प्रचार और अभियानों को जमकर बढ़ावा दिया है, जैसे कि ‘लव जिहाद’, ‘गोरक्षा’, ‘घर वापसी’ आदि। यह भी स्वाभाविक है और राजनीतिक तौर पर सचेत हर व्यक्ति पहले से ही जानता था कि मोदी सरकार नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के साथ-साथ फ़ासीवादी लम्पट गिरोहों को खुला हाथ दे देगी, सभी प्रगतिशील शक्तियों पर हमला करेगी, साम्प्रदायिक तनाव को हवा देगी और भीड़ द्वारा अल्पसंख्यकों की हत्या को खुली छूट दे देगी, तर्कवादियों की हत्याओं को बढ़ावा देगी, युवाओं के व्यवस्थित फ़ासीवादीकरण के लिए पाठ्यक्रम में बदलाव करेगी, पूँजीवादी जनवादी प्रक्रियाओं और संस्थाओं को निलम्बित व बरबाद करेगी, भले ही संसदीय जनवाद का ढाँचा औपचारिक तौर पर क़ायम रहे और यह सबकुछ हिन्दुत्व राष्ट्रवाद के नाम पर किया जायेगा। इस सब में भी कुछ अचरज पैदा करने वाला नहीं है। फ़ासीवाद हमेशा से ही सबसे रोगात्मक क़ि‍स्म की धार्मिक कट्टरता/नस्लवाद/प्रवासी-विरोध, अन्धराष्ट्रवाद, आधुनिक पुनरुत्थानवाद, विक्षिप्त क़ि‍स्म के प्रगतिशीलता-विरोध, मित्तेलस्टाण्ड (टटपुँजिया वर्ग) के रूमानी उभार का मिश्रण रहा है, जो कि मज़दूर वर्ग के भी एक हिस्से को अपने साथ बहा ले जाता है; संक्षेप में, फ़ासीवाद हमेशा से ही एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन रहा है; यह कोई भी दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया नहीं है। संघ परिवार और मोदी सरकार ने फ़ासीवाद की इस ख़ासियत को एक बार फिर से प्रदर्शित किया है, जिसे बहुत समय पहले मार्क्सवादियों द्वारा पहचान लिया गया था लेकिन जिसके बारे में आज भी क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों में सबसे कम समझदारी दिखलायी पड़ती है।

मोदी सरकार ने फ़ासीवाद की उपरोक्त दो विशेषताओं को अपने शासन में सफलतापूर्वक मिश्रित किया है। इसका कारण फ़ासीवाद की तीसरी विशिष्टता में निहित है, यानी एक काडर-आधारित संगठन। भारतीय फ़ासीवाद ने एक काडर-आधारित संगठ‍न विकसित करने में विशेष तौर पर सफलता हासिल की है। इस काडर-आधारित संगठन के बूते, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक लम्बी प्रक्रिया में भारतीय राज्य मशीनरी और सशस्त्र बल और साथ ही नौकरशाही और न्यायपालिका तक में घुसपैठ की है। इसी प्रकार, संघ ने भारतीय ‘नागरिक समाज’ की पोरों तक में एक लम्बी प्रक्रिया में अपनी पैठ बनायी है, जो कि आज़ादी के पहले ही शुरू हो गयी थी। इस प्रकार, जिस प्रक्रिया को ग्राम्शी ‍ने ‘आणविक व्याप्ति’ (molecular permeation) का नाम दिया था, वह भारतीय फ़ासीवाद के मामले में एक लम्बी दीर्घकालिक प्रक्रिया रही है, जबकि जर्मन और इतालवी फ़ासीवाद के मामले में इस प्रक्रिया में एक तीव्रता और तीक्ष्णता का तत्व प्रधान था। दूसरे शब्दों में, भारतीय फ़ासीवाद की ऊष्मायन अवधि (incubation period) ज़्यादा लम्बी थी और इस वजह से इसका उभार किसी आकस्मिक आपदा के समान (cataclysmic) नहीं था। यह व्याख्या भी अब धीरे-धीरे भारतीय फ़ासीवाद की समझदारी के बारे स्वीकृत होती जा रही है।

भारतीय फ़ासीवाद का दीर्घकालिक उभार, या ग्राम्शी ‍के शब्दों में एक लम्बा ‘पैस्सिव रिवोल्यूशन’ सभी फ़ासीवादी उभारों में निहित एक अन्य विशिष्टता को भी प्रदर्शित करता है : एक विशिष्ट प्रकार की ‘विचारधारात्मक एकता’। इस विचारधारात्मक एकता के बुनियादी आयाम हैं एक कल्पित शत्रु, एक ‘अन्य’ की छवि का निर्माण, जो कि भारतीय मामले में ‘मुसलमान’ है; मिथकों को ‘कॉमन सेंस’ के रूप में स्थापित करना; एक रूमानी और प्रतिक्रियावादी पश्चगामिता (millenarianism) जो कि ‘रामराज्य’ की फन्तासी में प्रकट होती है; रोगात्मक क़ि‍स्म का राष्ट्रवाद व प्रगतिशीलता-विरोध और एक आधुनिक क़ि‍स्म का आधुनिकता-विरोध। ये सभी गुण आज के भारतीय फ़ासीवाद में देखे जा सकते हैं। ये सभी चीज़ें उदार बुर्जुआ जनवाद के संकट और भारतीय संशोधनवाद और सामाजिक-जनवाद की अवश्यम्भावी असफलता के नतीजे के तौर पर ही सामने आ रही हैं। जो बुनियादी अन्तरविरोध उदार बुर्जुआ परियोजना और साथ ही सामाजिक-जनवादी परियोजना की असफलता का कारण बनता है वह है बार-बार आने वाला पूँजीवाद का आर्थिक संकट, जो कि कुण्डलाकार पथ में प्रकट होता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह ह्रास और पतन की ओर बढ़ता ‘स्पाइरल’ होता है।

भारत में फ़ासीवाद के उदय को समझने के लिए और इस फ़ासीवादी उभार के प्रतिरोध के लिए प्रभावी और सही रणनीति और रणकौशल तय करने के लिए उपरोक्त सभी चारित्रिक अभिलाक्षणिकताओं को समझना बेहद ज़रूरी है। गुजरात और हिमाचल के विधानसभा चुनावों के नतीजे सामने आने के बाद, इन बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं को समझने में कुछ ”वामपन्थियों” की अक्षमता के कारण वे कई ग़लत विश्लेषणों और नतीजों तक पहुँच रहे हैं।

इन ”वामपन्थियों” के एक हिस्से को हम ”चिरन्तन और नादान आशावादी” कह सकते हैं। यह हिस्सा विशेष तौर पर गुजरात के नतीजों से सदमे में आ गया था। इस धड़े के लोगों ने दावा किया था कि भाजपा गुजरात में हारने जा रही है और वोटों की गिनती के पूरा होने से पहले ही इन्होंने कुछ देर के लिए जश्न मनाना भी शुरू कर दिया था (जब एक छोटे-से समय के लिए कांग्रेस भाजपा से आगे निकल गयी थी)। लेकिन जब अन्तत: भाजपा जीत गयी, हालाँकि वह गिरते-पड़ते ही बहुमत के आँकड़े तक पहुँच पायी थी, तो इस धड़े के नादान आशावादियों की आशाओं पर तुषारापात हो गया और वे दावा करने लगे कि फ़ासीवादी भाजपा इसलिए जीती है क्योंकि नतीजों में हेरफेर किया गया है और ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की गयी है। यह एक अन्तरविरोधी बात है क्योंकि इसमें यह अन्तरनिहित है कि हम जिस राजनीतिक परिघटना के साक्षी बन रहे हैं, वह फ़ासीवाद ही है और अगर हम यह मानते हैं तो ईवीएम से छेड़छाड़ पर चकित या दुखी होना बेकार है। यह स्वाभाविक ही है कि फ़ासीवाद हर बुर्जुआ जनवादी प्रक्रिया, प्रथा और संस्था को कमज़ोर बनायेगा ही, अगर वह उसे एकदम ख़त्म नहीं भी करता है। इस स्वीकृति में इस बात का अहसास भी अन्तर्निहित होना चाहिए कि फ़ासीवाद को महज़़ चुनावी रणनीति से नहीं हराया जा सकता है; इसलिए भाजपा की चुनावी हार पर हर्षोन्मत्त हो जाना और उसकी चुनावी जीत पर हताशा में डुबकी लगा जाना इस प्रकार के नादान आशावादियों के ‘उदार बुर्जुआ वायरस’ से पैदा हुए विभ्रमों को ही दिखलाता है।

”वामपन्थियों” का एक अन्य हिस्सा है जो कहता है कि भाजपा की जीत में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि चुनावों में कोई ‘वास्तविक विकल्प’ था ही नहीं; लेकिन इतना तय है कि भाजपा बस किसी तरह से हाँफते-काँपते जीती है। यह सच है। लेकिन इस बात से ये दूसरी श्रेणी के लोग क्या नतीजा निकालते हैं? यह कि फ़ासीवाद ह्रास और पतन का शिकार है। जैसा कि हम देख सकते हैं कि वे ‘मोदी लहर’ और फ़ासीवाद के बीच फ़र्क़ नहीं कर पाते। ‘मोदी लहर’ मौजूदा फ़ासीवादी उभार का तात्कालिक अस्तित्व रूप है; न कि अपने आप में फ़ासीवाद। किसी सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँचने के साथ ‘मोदी लहर’ की जगह किसी ‘योगी लहर’ को पैदा किया जा सकता है, ऐसी अटकल लगाने में कुछ भी अतार्किक नहीं है। ऐसे ‘वामपन्थियों’ का राजनीतिक मोतियाबन्द उन्हें सारवस्तु को देखने नहीं देता और वे हमेशा परिघटना के स्तर पर ही अटके रहते हैं। यही कारण है कि जब कोई मोदी जीत जाता है तो पुनरावलोकन में उन्हें आडवाणी ‘लेसर ईविल’ दिखने लगता है; जब कोई आडवाणी शीर्ष पर पहुँच जाता है, तो उन्हें पुनरावलोकन में अटल उदार लगने लगता है; और यह असम्भव नहीं है कि जब मोदी से भी ज़्यादा रोगात्मक, प्रतिक्रियावादी और आक्रामक ‘फ्यूरर’ व्यक्तित्व फ़ासीवादियों या फिर सरकार के शीर्ष पर पहुँच जायेगा तो ऐसे लोगों को पुनरावलोकन में मोदी भी उदार नज़र आने लगे। जैसा कि हम देख सकते हैं कि ऐसे लोगों का विश्लेषण प्रत्यक्षवादी और अधिभूतवादी होता है। यह सारतत्व और अन्तर्सम्बन्धों को नहीं देख पाता है।

उदार ”वाम” का एक अन्य हिस्सा भी है जो कि अभी भी मोदी व फ़ासीवाद को हराने के लिए दमित अस्मिताओं की योगात्मक एकता का कोई समीकरण बनाने के फेर में पड़ा हुआ है। चुनावों में भाजपा के अपेक्षा से कम प्रदर्शन का मुख्य कारण था समाज के कुछ हिस्सों का वर्ग असन्तोष व गुस्सा, हालाँकि वे वर्ग ‘राजनीतिक’ रूप में सचेत या वर्ग ‘राजनीतिक’ रूप में संगठित नहीं थे। लेकिन इस हिस्से के लोगों ने दावा किया कि दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, पिछड़ों आदि ने मिलकर भाजपा को तमाम जगहों पर हराया है। यह भूला नहीं जाना चाहिए कि मुसलमानों के अपवाद के साथ (जिसे समझा जा सकता है), समाज के उपरोक्त सभी समुदायों के विचारणीय हिस्सों ने इन चुनावों में भाजपा को वोट दिया है। वोटिंग के पैटर्न ने दो प्रकार के विभाजन को स्पष्ट तौर पर प्रदर्शित किया: पहला, वर्ग विभाजन और दूसरा, गाँव-शहर विभाजन, जो कि आंशिक तौर पर वर्ग विभाजन से जुड़ा हुआ है। यह ग़रीब और निम्न मध्यम किसानों, निम्न मध्य वर्ग और मज़दूर वर्ग का असन्तोष था जिसके कारण चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। यहाँ पर यह भी याद रखा जाना चा‍हिए कि गुजरात के शहरों में गुजराती मज़दूरों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा वोटर के रूप में गाँवों में पंजीकृत है। इसलिए, इन मज़दूरों का गुस्सा ग्रामीण वोट में प्रतिबिम्बित हुआ, न कि शहरी वोट में। वोटिंग पैटर्न के इस स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ने वाले वर्ग चरित्र के बावजूद, यह उदारवादी वाम/वाम उदारवादी धड़ा, और विशेष तौर पर बुद्धिजीवी, भाजपा को हराने के एक अस्त्र के रूप में ‘दलित + ओबीसी + मुसलमान + स्त्री’ जैसे योगात्मक समीकरणों का सुझाव दे रहे हैं। यह बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को एक बहुसंख्यवादी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी गोलबन्दी में तब्दील करने के भाजपा के मंसूबों को फ़ायदा ही पहुँचाता है और दूसरी बात यह है कि ऐसी कोई योगात्मक एकता बन ही नहीं सकती है। जिस गोलबन्दी में फ़ासीवाद का मुँहतोड़ जवाब देने की ताक़त है वह है वर्ग गोलबन्दी। लेकिन वर्ग गोलबन्दी पर इन उदार वामपन्थियों को भरोसा नहीं है।

भारत के ”उदारवादी वामपन्थी” भूराजनीतिक प्रान्त में रहने वाली चौथी श्रेणी उन लोगों की है जो कि अचानक राहुल गाँधी और कांग्रेस के कट्टर समर्थक बन गये हैं। उन्होंने अख़बारों में और वेबसाइटों पर राहुल गाँधी और कांग्रेस में आये भारी बदलाव के बारे में कॉलम लिखने शुरू कर दिये हैं। कांग्रेस के खेल में वापस आने से वे हर्षातिरेक का अनुभव कर रहे हैं। उनका तर्क एकदम कॉमन सेंसिकल है : फ़ासीवादी भाजपा को हराने के लिए हमें रणकौशलात्मक तौर पर राहुल गाँधी का समर्थन करना चाहिए, जो, चाहे राजनीतिक लाभ के लिए ही सही, लेकिन आम मेहनतकश जनता के मुद्दे उठा रहे हैं। ऐसे लोगों का राजनीतिक स्मृतिलोप निरपेक्ष और पूर्ण हो चुका हेाता है, क्योंकि राजनीतिक तौर पर उन्हें लघुकालिक स्मृतिलोप की शिकायत होती है। मज़ेदार बात यह होती है कि उन्होंने सचेतन तौर पर चुना होता है कि उन्हें लघुकालिक स्मृतिलोप की बीमारी हो। दूसरे शब्दों में, लघुकालिक स्मृतिलोप का शिकार होना वे कभी भूलते नहीं हैं! किसी भी प्रकार के क्रान्तिकारी रूपान्तरण में उनका भरोसा नहीं होता और वे किसी कम बुरे की तलाश में हमेशा व्यस्त रहते हैं, हालाँकि उनकी यह तलाश उनकी इच्छा के विपरीत हमेशा उन्हें सबसे बुरे विकल्प पर पहुँचा देती है। वे भूल जाते हैं कि फ़ासीवाद का ज़हरीला कुकुरमुत्ता हमेशा उदार बुर्जुआ जनवाद के खण्डहर पर उगता है। वे किसी राहुल गाँधी, ममता बनर्जी (जो कि और भी हास्यास्पद है), लालू प्रसाद यादव या शरद पवार के कन्धे पर खड़े होकर फ़ासीवाद को पीछे धकेल देने का मुग़ालता पाले रहते हैं।

अन्तिम श्रेणी ऊपर वाली चौथी श्रेणी के ठीक विपरीत होती है। यह वह श्रेणी है जो कि फ़ासीवादी पूँजीपति वर्ग और पूँजीपति वर्ग के अन्य हिस्सों में फ़र्क़ करने में बुरी तरह असफल हो जाती है। त्रासदी की बात है कि कई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट कॉमरेड भी इस भोंडे भौतिकवादी और यान्त्रिक विश्लेषण का शिकार हो गये हैं। चौथी श्रेणी के लोगों का प्रतिवाद करते हुए इस पाँचवी श्रेणी के वामपन्थी और यहाँ तक कि कम्युनिस्ट कॉमरेड फे़सबुक और व्हाॅट्सऐप पर लिखना शुरू करते हैं : ”क्या फ़र्क़ पड़ता है? भाजपा जीते या कांग्रेस, हारेगी तो जनता ही!”;
”कांग्रेस तो ख़ुद ही फ़ासीवादी है, क्या आप आपातकाल को भूल गये?”; ”कांग्रेस की राजनीति के कारण ही तो संघ परिवार बढ़ा है, इसलिए इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि भाजपा जीतती है या कांग्रेस!” यह अवस्थिति न सिर्फ़ ग़ैर-मार्क्सवादी है बल्कि यह बुरी तरह से अर्थहीन भी है। यह एक छद्म आमूलगामिता से भरी ”वामपन्थी” भाषणबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति ने हमेशा फ़ासीवादियों और अन्य प्रकार की दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया और साथ ही फ़ासीवादियों और उदार बुर्जुआ वर्ग/मध्यमार्गी बुर्जुआ वर्ग/दक्षिण-मध्य बुर्जुआ वर्ग के बीच अन्तर किया है। क्लासिकीय तौर पर, भारत में कभी कोई बड़ी उदार बुर्जुआ राजनीतिक पार्टी नहीं रही है; भारत में सामाजिक-जनवादी राजनीति का प्रभाव भी स्थानीयकृत और सीमित रहा है, राष्ट्रीय कम रहा है। दूसरी पूँजीवादी पार्टी जो कि भारतीय बुर्जुआ राजनीति में फ़ासीवादी संघ परिवार के विपरीत ध्रुव की भूमिका अदा करती है, वह कांग्रेस है जो कि स्वयं एक व्यापक रूप में मध्य-दक्षिणपन्थी पूँजीवादी पार्टी है, जिसमें कि ज़रूरत और तात्कालिक लाभ के लिए वाम दिशा में यात्रा करने का लचीलापन और सम्भावनासम्पन्नता मौजूद है। कांग्रेस के इस विशिष्ट गुण के कारण, क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को भाजपा और कांग्रेस के बीच निश्चित ही फ़र्क़ करना चाहिए क्योंकि इस फ़र्क़ का फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति के प्रभावी होने पर काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है।

उपरोक्त तर्कों की रोशनी में गत विधानसभा चुनावों का विश्लेषण करना आवश्यक है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि तथाकथित मोदी लहर उतार पर है। गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान मोदी की भाव-भंगिमा और सड़कछाप बातों से ही पता चल गया था कि भाजपा अन्दर से डोली हुई है और पुराना आत्मविश्वास‍ ग़ायब है। लेकिन मोदी-लहर को ही फ़ासीवादी उभार समझ लेना ग़लत और आत्मघाती होगा। दूसरी बात यह है कि हमें यह याद रखना चाहिए कि मोदी सरकार भारत की पहली व्यवस्थित रूप से फ़ासीवादी सरकार है। इसी प्रकार, मोदी फ्यूरर-कल्ट के पहले पूर्णता को प्राप्त भारतीय संस्करण की नुमाइन्दगी करता है। वाजपेयी की सरकार में प्रबल फ़ासीवादी रुझान थे, लेकिन, विविध प्रकार के वस्तुगत और मनोगत कारकों के चलते वह पहली व्यवस्थित फ़ासीवादी सत्ता नहीं थी और न ही बन सकती थी। अब जबकि मोदी लहर, जो कि भारत में फ़ासीवादी उभार का मौजूदा अस्तित्व-रूप है, संकट के पहले लक्षणों की साक्षी बन रही है, हमें यह निश्चित तौर पर समझ लेना चाहिए कि इस अस्तित्व-रूप की जगह कोई और अस्तित्व रूप ले सकता है। फ़ासीवादी साँप अपने अस्तित्व को क़ायम रखने के लिए ही अपना केंचुल बदलता रहता है। तीसरी बात यह है कि हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ‘पीछे हटता फ़ासीवाद’ किसी भी अर्थ में कोई कम फ़ासीवादी फ़ासीवाद नहीं होता। वास्तव में, सभी तात्कालिक और व्यावहारिक अर्थों में, संकटग्रस्त फ़ासीवाद ज़्यादा आक्रामक और ख़तरनाक होता है। अगर भाजपा को यह लगता है कि वह 2019 का चुनाव हार सकती है, तो यह अपने पूर्णरूपेण और खुले तौर पर फ़ासीवादी एजेण्डा और रणकौशल पर चली जायेगी, जैसा कि गुजरात चुनावों के दौरान राम मन्दिर के मुद्दे को फिर से उभारने की भाजपा की रणनीति में दिखलायी पड़ रहा था। क्रान्तिकारी शक्तियों को निरन्तर मेहनतकश जनता को फ़ासीवाद और आम तौर पर पूँजीवाद के विरुद्ध गोलबन्द और संगठित करना होगा और उन्हें भाजपा के ख़राब चुनावी प्रदर्शन पर हर्षातिरेक का शिकार होने की बजाय अपनी शक्तियों पर निर्भर करना होगा। चौथी बात यह है, कि हमेशा याद रखना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवाद आपदा के रूप में अचानक घटित होने वाली और आपदा के रूप में अचानक पतन का शिकार होने वाली परिघटना के रूप में मौजूद नहीं है। संकट जिस प्रकार से विशेष तौर पर 1970 के दशक से पूँजीवादी व्यवस्था का नया ‘नॉर्मल’ बन चुका है, या जिस प्रकार संकट कहीं ज़्यादा दीर्घकालिक व ढाँचागत रूप में अपने आपको प्रकट कर रहा है, उसी प्रकार फ़ासीवाद भी इक्कीसवीं सदी की साम्राज्यवादी दुनिया में कहीं ज़्यादा स्थायी परिघटना के रूप में प्रकट हुआ है, चाहे वह सत्ता में रहे या नहीं रहे। जब वह सत्ता में नहीं भी होता, तो हड़ताल तोड़ने वाले दस्तों के रूप में, अल्पसंख्यक विरोधी लम्पट ब्रिगेडों के रूप में, सामाजिक पुलिस आदि के रूप में, पूँजीपति वर्ग की अनौपचारिक राज्यसत्ता का काम करता है और फ़ासीवाद की यह भूमिका मौजूदा पूँजीवादी समाज में काफ़ी महत्वपूर्ण बन गयी है। कारण यह है कि मौजूदा पूँजीवादी समाज में बुर्जुआ वर्ग का कोई भी हिस्सा या उसकी कोई भी पार्टी अब सत्ता में होने पर भी फ़ासीवादियों के ख़ि‍लाफ़ क़दम नहीं उठाने वाली है। साम्राज्यवाद के मौजूदा दौर में, इसकी मरणासन्नता और परजीवी चरित्र इस स्तर पर पहुँच चुका है कि पूँजीपति वर्ग के सभी हिस्से चाहते हैं कि फ़ासीवाद चाहे सत्ता में न भी हो तो वह समाज में मौजूद रहे। ऐसी स्थिति में, यह ज़रूरी हो जाता है कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तें जनसमुदायों को फ़ासीवादियों के ख़ि‍लाफ़ ‘जब और जैसी ज़रूरत हो’ के आधार पर नहीं बल्कि एक दीर्घकालिक आधार पर शिक्षित, प्रशिक्षित, तैयार, गोलबन्द और संगठित करें और इसके लिए नियमित और निरन्तर राजनीतिक कार्य को अपना आधार बनायें। अन्त में, क्रान्तिकारी ताक़तों को इस तथ्य के प्रति सचेत होना चाहिए कि अगर 2019 के आम चुनावों में भाजपा के सामने हार का ख़तरा मँडरायेगा, तो ये फ़ासीवादी किसी भी हद तक जाने को तैयार होंगे।

इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवादी उभार को समझते समय यह बात दिमाग़ में रखी जानी चाहिए कि इतिहास अपने आपको दुहराता नहीं है। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में ऐसे कई लोग हैं जो भारत में फ़ासीवाद के मौजूदा उभार के अपने विश्लेषण को भारत में फ़ासीवादी उभार का विश्लेषण बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के जर्मन या इतालवी फ़ासीवादी उभार से सादृश्य निरूपण के आधार पर करते हैं। फ़ासीवाद के विशिष्ट और आम राजनीतिक व विचारधारात्मक गुणों और इसके विशिष्ट व आम ऐतिहासिक सन्दर्भ के फ़र्क़ को समझने के बजाय ऐसे साथी दो कॉलम बनाते हैं और फिर बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के फ़ासीवाद के अनुभव और आज के फ़ासीवादी उभार के गुणों का मिलान करने लग जाते हैं और कई गुणों का मिलान न होने की सूरत में ऐलान कर देते हैं कि मौजूदा फ़ासीवादी उभार पर्याप्त रूप में फ़ासीवादी नहीं है, या अर्द्धफ़ासीवादी है, या अभी पूरी तरह से फ़ासीवादी नहीं हुआ है, या चूँकि अभी संसदीय लोकतन्त्र बना हुआ है इसलिए यह फ़ासीवादी नहीं है, आदि। यह अनैतिहासिक नज़रिया यह नहीं समझ पाता है कि केवल क्रान्तिकारी विचारधारा व राजनीति ही रिडेम्प्टिव गतिवि‍धि नहीं करती। प्रतिक्रियावादी विचारधारा और राजनीति भी अपने ऐतिहासिक अनुभवों का समीक्षा-समाहार करते हैं, उससे सीखते हैं और अपनी ”ग़लतियों” को दुरुस्त करते हैं। भारत में भी ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि भारत में चूँकि अभी संसदीय लोकतन्त्र क़ायम है, इसलिए मोदी सरकार को फ़ासीवादी सरकार नहीं माना जा सकता है; कुछ तो यह भी कहते हैं कि भारतीय संविधान के ”प्रगतिशील” और ”जनवादी” चरित्र के कारण भारत में फ़ासीवाद आ ही नहीं सकता है! ऐसे तर्क के बारे में जितना कम कहा जाय उतना अच्छा है। ऐसे लोग इतिहास की गति समझ पाने में असमर्थ हैं।

राज्य में हुए हालिया चुनावों, विशेषकर गुजरात के चुनावों ने निश्चित तौर पर दिखलाया है कि भाजपा के खराब प्रदर्शन पर तालियाँ पीटने, या फ़ासीवाद को हराने के लिए चुनावी रणनीति को एकमात्र रणनीति के तौर पर देखने के बजाय, हमें एक लम्बी और निर्णायक लड़ाई की तैयारी करनी होगी; इसमें कोई सन्देह नहीं कि मौजूदा सन्धिबिन्दु हमें अपना काम शुरू करने के लिए सबसे मुफ़ीद मौक़ा दे रहा है क्योंकि भारतीय फ़ासीवाद का मौजूदा अस्तित्व रूप यानी मोदी लहर, गिरावट के प्रथम लक्षण प्रदर्शित कर रहा है। लोग नाराज़ हैं, असन्तुष्ट हैं और क्रान्तिकारी प्रचार और उद्वेलन के लिए तैयार हैं। साथ ही, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि क्रान्तिकारी शक्तियों को पूँजीवादी चुनावों में भी रणकौशलात्मक भागीदारी करनी चाहिए और सर्वहारा वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष प्रस्तुत करना चाहिए और साथ ही पूँजीवादी व्यवस्था को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि समूची फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति को चुनावी रणनीति पर अपचयित नहीं कर दिया जाना चाहिए। यह न सिर्फ़ नुक़सानदेह होगा, बल्कि आत्मघाती होगा। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के बीच मज़दूर वर्ग का संयुक्त मोर्चा स्थापित करना और जनसमुदायों के बीच मज़बूत सामाजिक आधार का निर्माण आज कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के समक्ष दो महत्वपूर्ण और तात्कालिक कार्यभार हैं। आगे हम किस हद तक सफल होंगे, यह इस बात पर ही निर्भर करता है कि इन दोनों कार्यभारों को किस हद तक पूरा कर पाते हैं।

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

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अपनी बात

‘दिशा सन्धान’ के प्रवेशांक में हमने पूँजीवाद के गहराते वैश्विक संकट और उससे पैदा होने वाले राजनीतिक संकट की चर्चा की थी। गुज़रे एक वर्ष के दौरान स्थितियाँ और गम्भीर हुई हैं। कई लोग अक्सर यह ख़ुशफ़हमी पाल लेते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकटों के बोझ तले ख़ुद ही ढेर हो जायेगी। मगर यह बस ख़ुशफ़हमी ही है। जबतक कि क्रान्ति का सचेतन हरावल दस्ता संगठित नहीं होगा, पूँजीवाद अपनेआप ध्वस्त नहीं होगा। इतना ही नहीं, पूँजीवादी संकट का यदि क्रान्तिकारी समाधान नहीं होगा तो इसका प्रतिक्रान्तिकारी समाधान फासीवाद के रूप में सामने आयेगा। read more

‘दिशा सन्धान’ क्यों?

‘दिशा सन्धान’ कई मायनों में उसी परियोजना की निरन्तरता में है, जो हमने करीब दो दशक पहले ‘दायित्वबोध’ के साथ शुरू की थी। कुछ वर्ष पहले कुछ बाध्यताओं के कारण ‘दायित्वबोध’ का प्रकाशन रुक गया था। उसके बाद से ही हम गम्भीर सैद्धान्तिक मुद्दों पर केन्द्रित एक नयी पत्रिका के प्रकाशन की आवश्यकता महसूस कर रहे थे और कुछ देर से सही लेकिन हम इस नयी पत्रिका के पहले अंक के साथ प्रस्तुत हैं। read more

दिशा सन्धान, उद्धेश्य और स्वरूप [परिपत्र]

हम एक संक्रमणकाल में जी रहे हैं। पहले रूस में और पिफर चीन में संशोधनवादियों के सत्ता में आने के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर पूँजी की शकितयाँ निर्णायक तौर पर श्रम की शकितयों पर हावी हो चुकी थीं। प्रतीतिगत धरातल पर जो छदम समाजवादी सत्ताएँ बची हुर्इं थी, 1960 के दशक से पूर्वी यूरोप में उनके बिखरने की जो प्रक्रिया शुरू हुर्इ उसकी पराकाष्ठा 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने और 1990 में सोवियत संघ के विघटन के रूप में सामने आ गयीं। read more

आपातकाल के कुछ अनुत्तरित यक्ष-प्रश्न और हमारा समय

कट्टरपंथी हिन्दुत्व की फासीवादी लहर पर सवार होकर सत्ता तक पहुंचने वाली भाजपा ने भी आपातकाल को याद करते हुए यह घोषणा की कि वह तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के अत्याचारों का सिलसिलेवार पर्दाफाश करेगी। रंग पोतकर शहीद बनने वाले संघियों को यह याद दिलाया जाना चाहिए कि उनमें से कितने लोग आपातकाल के दौरान माफीनामा लिखकर जेलों से बाहर आये थे और किस तरह तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस ने जेल से रिहाई और आर.एस.एस. से प्रतिबंध हटाने की शर्त पर बीस-सूत्री कार्यक्रम को समर्थन देने के लिए श्रीमती गांधी को संदेश भिजवाया था। और यह भी कि आपातकाल के कई चर्चित चेहरे, जैसे कि मेनका गांधी, ममता बनर्जी, जगमोहन आदि आज सत्ता में भाजपा के पार्टनर हैं। वैसे यह सवाल तो जार्ज फर्नाण्डीस से भी पूछा जा सकता है और एक दूसरे स्तर पर वी.पी. सिंह से भी। आज वी.पी. सिंह दिल्ली के झुग्गी-झोंपड़ी वासियों के मसीहा बने फिर रहे हैं, पर इसी जगमोहन की रहनुमाई में आपातकाल के दौरान जब जामा मस्जिद क्षेत्र के गरीबों पर बुलडोजर चला था, तब वे एक निहायत वफादार कांग्रेसी थे और आपरेशन ब्लू स्टार के समय भी वे कांग्रेस में ही थे। बहरहाल, यह चर्चा बेमानी है क्योंकि बुर्जुआ राजनीति का कोई भी पैंतरापलट या कायाकल्प आज किसी को चौंकाता नहीं।

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लोग लोहे की दीवारों में क़ैद, मगर घुटते हुए, जगते हुए…

लोग लोहे की दीवारों वाले अभेद्य दुर्ग में क़ैद तो हैं, मगर जग रहे हैं। घुट रहे हैं। सवाल यह है कि आह्वान करने वाले लोगों में लगातार उन्हें आवाज़ देने की ज़िद, संकल्प और धीरज है या नहीं! सवाल यह है कि क्या वे जनता को लौह-कारागार को तोड़ डालने की तरकीब और तरीक़ा बताने की समझ और सूझ-बूझ भी रखते हैं या नहीं! सवाल यह है कि वे इसका जोखिम उठाने के लिए और क़ीमत चुकाने के लिए तैयार हैं या नहीं! read more