अक्‍टूबर क्रान्ति की उपलब्धियाँ, समाजवादी संक्रमण की समस्‍याएँ और भविष्‍य की सम्‍भावनाएँ

अक्‍टूबर क्रान्ति की उपलब्धियाँ, समाजवादी संक्रमण की समस्‍याएँ और भविष्‍य की सम्‍भावनाएँ

– शशि प्रकाश
(यह लेख अक्‍टूबर क्रान्ति की शतवार्षिकी के अवसर पर नेपाल के वरिष्‍ठ लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता कॉ. निनु चपागाईं के सम्‍पादन में प्रकाशित ‘अक्‍टूबर क्रान्ति शतवार्षिकी स्‍मारिका’ के लिए पिछले वर्ष अक्‍टूबर में लिखा गया था। लॉकडाउन आदि की समस्‍याओं के कारण नेपाली में यह संकलन अभी-अभी प्रकाशित हुआ है।)

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7 नवम्‍बर, 1917 (नये कैलेण्‍डर के अनुसार) की आधी रात को पेत्रोग्राद के क्रान्तिकारी मज़दूरों के दस्‍ते जब शीत प्रासाद की ओर बढ़ रहे थे तब उन्‍हें सम्‍भवत: इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि वे मानवता के इतिहास के एक नये अध्‍याय का पन्‍ना पलटने जा रहे हैं। उनकी बन्‍दूकों ने रूसी क्रान्ति के साथ ही दूसरे देशों में भी क्रान्तियों की राह को रौशन किया। अक्‍टूबर क्रान्ति की तोपों के धमाके पूरी दुनिया में गूँज उठे। पूरी दुनिया में मज़दूर वर्ग और मेहनतकश अवाम के संगठित होने, कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों के निर्माण और मज़दूर क्रान्तियों के अविराम क्रम के साथ ही राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्षों को भी नया संवेग मिला। कमोबेश 1980 के दशक के अन्‍त तक, उपनिवेशवाद और नवउपनिवेशवाद को इतिहास के क़ब्रिस्‍तान में निर्णायक तौर पर दफ्ऩ किया जा चुका था।

यह अक्‍टूबर क्रान्ति का ही प्रभाव था कि यूरोपीय मज़दूर आन्‍दोलन पर हावी काउत्‍स्‍कीपंथी सामाजिक जनवादी दो-तीन वर्षों के भीतर सिमटकर अलग-अलग देशों में गुट बनकर रह गये और यूरोप के मज़दूर वर्ग का बहुलांश 1919 में स्‍थापित कम्‍युनिस्‍ट इण्‍टरनेशनल की घटक लेनिनवादी पार्टियों के नेतृत्‍व में संगठित हो गया। पहले विश्‍वयुद्ध के अन्तिम दौर की विशेष परिस्थितियों में जर्मनी और ग्रीस के सर्वहारा ने भी क्रान्ति की महत्‍वपूर्ण कोशिशें कीं और हंगरी में तो कुछ समय के लिए उसने सत्‍ता पर अधिकार भी कर लिया। हालाँकि ये सभी क्रान्तियाँ कुचल दी गयीं, लेकिन यूरोप की नवगठित पार्टियों के नेतृत्‍व में सर्वहारा संघर्षों का अटूट सिलसिला जारी रहा। अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद, एशिया, लातिन अमेरिका और अरब अफ्रीका (और आगे चलकर अन्‍य अफ्रीकी देशों में भी) के उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों-नवउपनिवेशों में संगठित मज़दूर आन्‍दोलन और कम्‍युनिस्‍ट पार्टियाँ अस्तित्‍व में आयीं। राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्षों में इनकी भूमिका सभी जगह महत्‍वपूर्ण थी और कुछ देशों में नेतृत्‍वकारी थी।

1. अक्‍टूबर क्रान्ति : एक विश्‍व ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य

आज अगर हम पीछे मुड़कर विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास का सिंहावलोकन करें तो कहा जा सकता है कि 1848 के आसपास से लेकर 1871 के आसपास का कालखण्‍ड विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति का पहला चरण था और इस दौरान विजित सर्वोच्‍च शिखर 1871 का पेरिस कम्‍यून था जब पेरिस के वीर कम्‍यूनार्डों ने सत्‍ता पर कब्‍जा करके सर्वहारा अधिनायकत्‍व का पहला मॉडल प्रस्‍तुत किया जिसका समाहार करते हुए मार्क्‍स-एंगेल्‍स ने मार्क्‍सवाद की सैद्धान्तिकी को नई समृद्धि प्रदान की। पेरिस कम्‍यून से लेकर अक्‍टूबर क्रान्ति तक का कालखण्‍ड (1871-1917) विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति का दूसरा चरण था। 1874 में पहले इण्‍टरनेशनल के विघटन के बाद यूरोप में नवगठित सामाजिक जनवादी पार्टियों ने 1889 में दूसरे इण्‍टरनेशनल का गठन किया। यही वह समय था जब यूरोप में मार्क्‍सवाद से परिचित हुए प्‍लेखानोव और उनके कुछ सहयोगियों ने इस विचारधारा के आलोक को रूस में पहुँचाया। रूस में मार्क्‍सवाद घनीभूत विचारधारात्‍मक संघर्षों से गुज़रकर सिद्धान्‍त और व्‍यवहार में नयी ऊँचाइयों तक विकसित हुआ। लेनिन के नेतृत्‍व में बोल्‍शेविकों ने किसानी समाजवाद (नरोदवाद) के विरुद्ध संघर्ष के साथ ही बलात् राज्‍यसत्‍ता-ध्‍वंस की बुनियादी मार्क्‍सवादी प्रस्‍थापना को तोड़ने-मरोड़ने की हर दुश्‍चेष्‍टा के विरुद्ध संघर्ष किया तथा मेन्‍शेविकों और यूरोपीय सामाजिक जनवादियों की ‘जन-पार्टी’ की अवधारणा के विरुद्ध, उन्‍नत चेतना वाले मज़दूरों के बीच से भरती कम्युनिस्‍ट हरावलों की एक ऐसी जुझारू ‘कैडर पार्टी’ की बोल्‍शेविक अवधारणा प्रस्‍तुत की, जिसका मेरुदण्‍ड पेशेवर क्रान्तिकारी होते थे और जो जनवादी केन्‍द्रीयता के सांगठनिक सिद्धान्‍तों से संचालित होती थी। बोल्‍शेविक पार्टी की इस अवधारणा को अक्‍टूबर क्रान्ति की विजय ने सत्‍यापित किया। उसके बाद भी दुनिया में जितनी सफल सर्वहारा क्रान्तियाँ हुईं, वे सभी बोल्‍शेविक सिद्धान्‍तों और साँचे-खाँचे वाली पार्टियों के ही नेतृत्‍व में हुईं। जहाँ कहीं भी कम्‍युनिस्‍टों ने पार्टी या समाजवाद की समस्‍याओं की ग़लत पहचान और ग़लत समाधान करते हुए पार्टी के बुनियादी बोल्‍शेविक उसूलों में तोड़मरोड़ या ढिलाई लाने की कोशिश की, वहाँ पार्टियाँ या तो वि‍सर्जित हो गयीं या विपथगामी हो गयीं। या यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ कहीं भी पार्टी में संशोधनवादी हावी हुए, उन्‍होंने सबसे पहले पार्टी की बोल्‍शेविक संरचना को बदल डाला। जिन किन्‍हीं भी समाजवादी देशों में पूँजीवादी पथगामी पार्टी और सत्‍ता पर हावी हुए और उन्‍होंने पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना की शुरुआत की, वहाँ पार्टी के लेनिनवादी ढाँचे और कार्य-प्रणाली को बदल देने का काम उन्‍होंने सबसे पहले किया।

पहले विश्‍वयुद्ध के दौरान कार्ल काउत्‍स्‍की के नेतृत्‍व में यूरोप की सामाजिक जनवादी पार्टियों के बहुलांश ने जब अन्‍धराष्‍ट्रवादी अवस्थिति अपनायी, तो लेनिन के नेतृत्‍व में बोल्‍शेविक पार्टी ने धारा के विरुद्ध तैरते हुए सर्वहारा अन्‍तरराष्‍ट्रीयतावादी अवस्थिति अपनायी। लेनिन ने काउत्‍स्‍की की ग़द्दारी को अनावृत्‍त करते हुए स्‍पष्‍ट किया कि विकसित देशों के साम्राज्‍यवादी विश्‍व बाजार के बँटवारे के लिए जब आपसी युद्ध में उलझे हों तो इन देशों के सर्वहारा का कार्यभार अपने-अपने देशों के शासक वर्ग का साथ देकर अपने ही सर्वहारा भाइयों पर गोली चलाना नहीं है, बल्कि अपने-अपने देशों के शासक वर्ग के विरुद्ध क्रान्तिकारी युद्ध छेड़ देना है। इन सन्‍दर्भों में, कहा जा सकता है कि अक्‍टूबर क्रान्ति काउत्‍स्‍कीपंथ पर लेनिन की सैद्धान्तिक विजय का व्‍यावहारिक सत्‍यापन थी। उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अन्‍त में, वित्‍तीय पूँजी के जन्‍म, इज़ारेदारियों के बीच गहराती प्रतिस्‍पर्द्धा और पूँजी के निर्यात के साथ ही विश्‍व बाजार और वैश्विक प्रतिस्‍पर्द्धा का जो नया परिदृश्‍य उभरा, वह पूँजीवाद के साम्राज्‍यवाद की मंज़ि‍ल में संक्रमण का द्योतक था। लेनिन ने काउत्‍स्‍की, हिल्‍फर्डिंग, हॉब्‍सन आदि की साम्राज्‍यवाद-विषयक स्‍थापनाओं का खण्‍डन करते हुए साम्राज्‍यवाद की अपनी थीसिस प्रस्‍तुत की और बताया कि विश्‍व पूँजीवाद के अन्‍तरविरोध और संकटों के विस्‍फोट युद्धों को जन्‍म देते रहेंगे और सर्वहारा क्रान्तियों के लिए अनुकूल वस्‍तुगत अवसर पैदा करते रहेंगे। यानी, साम्राज्‍यवाद सर्वहारा क्रान्तियों की पूर्वबेला है। अक्‍टूबर क्रान्ति ने लेनिन की इस स्‍थापना का भी सत्‍यापन किया।

पूँजीवाद के साम्राज्‍यवाद की मंजिल में संक्रमण के साथ ही क्रान्तियों के तूफ़ानों का केन्‍द्र कमोबेश पश्चिम से खिसककर पूरब की ओर आने लगा था। लेनिन ने साम्राज्‍यवाद का अध्‍ययन करते हुए इस परिघटना को भी रेखांकित किया। बीसवीं शताब्‍दी के प्रारम्‍भ में ज़ारशाही के रूस की स्थिति कमोबेश ‘पूरब-पश्चिम सेतु’ की थी, जहाँ सर्वहारा वर्ग ने अपनी पहली क्रान्ति की। अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों (और आगे चलकर नवउपनिवेशों में) में राष्‍ट्रीय मुक्ति संघर्षों का जो ज्‍वार उठा वह गत शताब्‍दी के आठवें दशक तक चलता रहा। इनमें से कुछ देशों में राष्‍ट्रीय जनवाद के लिए संघर्ष में कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की भूमिका नेतृत्‍वकारी रही। शेष अधिकांश देशों में भी उसकी अहम सहयोगी भूमिका थी।

समाहारमूलक शब्‍दों में कहा जा सकता है कि विश्‍व मज़दूर आन्‍दोलन को ज़रूरी शिक्षाएँ देने वाला जर्मन सामाजिक जनवादी आन्‍दोलन फ्रां‍सीसी समाजवादी आन्‍दोलन और ब्रिटिश ट्रेड यूनियन आन्‍दोलन के ”कन्‍धों पर” (फ्रे. एंगेल्‍स) खड़ा हुआ था। इस शिक्षा को अमल में लाने का काम पेरिस कम्‍यून में फ्रांसीसी मज़दूरों ने किया। अक्‍टूबर क्रान्ति पेरिस कम्‍यून के ”कन्‍धों पर” (लेनिन) खड़ी हुई थी। 1905-07 की असफल रूसी क्रान्ति इसका ”ड्रेस रिहर्सल” थी और फरवरी, 1917 की बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति इसका ”प्राक्‍कथन” थी। पेरिस कम्‍यून और उत्‍तरवर्ती दशकों के अनुभवों से सीखकर तथा विचारधारात्‍मक संघर्षों के दौरान शिक्षा एवं परिपक्‍वता हासिल करते हुए मज़दूर वर्ग ने कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के नेतृत्‍व में राज्‍यसत्‍ता पर दूसरी बार कब्‍ज़ा अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद जमाया। और इस बार यह कब्‍ज़ा महज़ 72 दिनों का नहीं, बल्कि 37 वर्षों का (1954 में स्‍तालिन की मृत्‍यु तक) रहा। यह दुनिया की पहली ऐसी राज्‍यसत्‍ता थी जो शोषकों की अल्‍पसंख्‍या पर शोषितों की बहुसंख्‍या का अधिनायकत्‍व थी। यह पहली ऐसी राज्‍यसत्‍ता थी जिसमें ”राज्‍य के साथ ही अ-राज्‍य के भी तत्‍व थे और जिसका अन्‍त बलात् ध्‍वंस के द्वारा नहीं बल्कि क्रमश: विलोपीकरण के द्वारा होना था। इस सर्वहारा राज्‍यसत्‍ता के अन्‍तर्गत पहली बार ऐसा सम्‍भव हो सका कि उत्‍पादन के तमाम साधनों की निजी मिल्कियत को समाप्‍त करके साझा स्‍वामित्‍व की व्‍यवस्‍था को विचार से यथार्थ की जमीन पर उतार दिया गया। चार सहस्राब्‍दी से भी अधिक प्राचीन निजी भूस्‍वामित्‍व का ख़ात्‍मा हो गया। पहली बार जब उत्‍पादन करने वाले उत्‍पादन के साधनों के सामूहिक तौर पर स्‍वामी बने और वितरण, प्रबन्‍धन तथा पूरी सामाजिक-राजनीतिक व्‍यवस्‍था को कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के नेतृत्‍व में वे स्‍वयं संचालित करने लगे तो विज्ञान, तकनोलाजी और उत्‍पादन की प्रगति की रफ़्तार ने यूरोपीय औद्योगिक क्रान्ति सहित इतिहास के सभी कीर्तिमानों को ध्‍वस्‍त कर दिया। और उल्‍लेखनीय बात यह थी कि यह सारी प्रगति, पूँजीवादी प्रगति की तरह मेहनतकशों के शोषण और असमानता को बढ़ाते हुए नहीं, बल्कि समाज को ज़्यादा से ज़्यादा न्‍यायपूर्ण और मानवीय बनाते जाने के साथ-साथ हुई। क्रान्ति के बाद, दो दशकों से भी कम समय में सभी के लिए मुफ़्त शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, आवास के लक्ष्‍य पूरे किये जा चुके थे। बेरोज़गारी और अपराध समाप्‍त हो चुके थे। इतिहास में स्त्रियों को पहली बार इस स्‍तर की सामाजिक बराबरी और सामाजिक आज़ादी हासिल हुई थी। कहा जा सकता है कि यहाँ तक, अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद निर्मित समाजवादी समाज वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्‍त का मूर्त रूप था, और इसीलिए अक्‍टूबर क्रान्ति पेरिस कम्‍यून के बाद विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति का दूसरा मील का पत्‍थर थी।

अब यह एक अलग से विचारणीय प्रश्‍न है और इस पर हम अलग से विचार करेंगे भी कि इन युगान्‍तरकारी उपलब्धियों के बावजूद सोवियत संघ में समाजवाद की पराजय और पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना क्‍यों हुई। इसी बात से चीन की महान सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति (1966-76) की विश्‍व-ऐतिहासिक महत्‍ता का प्रश्‍न भी जुड़ा हुआ है, जिसे हम पेरिस कम्‍यून और अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति की इतिहास-यात्रा का तीसरा महान मील का पत्‍थर मानते हैं। बेशक 1949 की चीनी नव जनवादी क्रान्ति भी एक पथान्‍वेषी और प्रवृत्ति-निर्धारक क्रान्ति थी जिसने सभी उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों-नवउपनिवेशों में सर्वहारा क्रान्ति की आम दिशा और रास्‍ते का निर्धारण एवं मार्गदर्शन किया। लेकिन उपनिवेशों-अर्द्धउ‍पनिवेशों-नवउपनिवेशों का दौर साम्राज्‍यवाद का एक चरण था जो अब बीत चुका है। सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति ने समाजवादी संक्रमण की शताब्दियों लम्‍बी ऐतिहासिक अवधि के दौरान जारी रहने वाली सतत् क्रान्ति की आम दिशा का निरूपण किया। उसने स्‍पष्‍ट किया कि समाजवादी समाज में वर्ग और वर्ग संघर्ष किस रूप में मौजूद रहते हैं, किस प्रकार श्रम शक्ति की ख़रीद-फ़रोख्‍त, उत्‍पादन के साधनों के निजी स्‍वामित्‍व और शोषण की समाप्ति के बावजूद बुर्जुआ अधिकार और असमानताएँ बनी रहती हैं, नये बुर्जुआ वर्ग के पैदा होने की ज़मीन मौजूद रहती है और अगर उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों तथा अधिरचना के सतत् क्रान्तिकारीकरण की प्रक्रिया जारी न रहे, तो पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना अवश्‍यम्‍भावी होती है। लेकिन चीन में पार्टी के इस नतीजे तक पहुँचने और उसे अमल में उतारने तक देर हो चुकी थी, देश में वर्ग शक्ति सन्‍तुलन बदल चुका था, पार्टी और राज्‍य में नये बुर्जुआ तत्‍व मज़बूत हो चुके थे। नतीजतन, 1976 के बाद वहाँ भी ”बाजार समाजवाद” के नाम पर पूँजीवाद की स्‍थापना हो गयी। लेकिन फिर भी महान सर्वहारा सांस्‍कृतिक क्रान्ति की विश्‍व ऐतिहासिक महत्‍ता अक्षुण्ण है, क्‍योंकि उसने समाजवाद की बुनियादी समस्‍याओं की शिनाख्‍़त करते हुए उनके समाधान की आम दिशा बतलायी।

2. सोवियत संघ में समाजवाद की युगान्‍तरकारी उपलब्धियाँ

आज की दुनिया पुनरुत्‍थान और विपर्यय के जिस घुटन भरे अँधेरे में जी रही है, वह एक ऐतिहासिक स्‍मृति-लोप का समय है। बुर्जुआ संचार और प्रचार का दैत्‍याकार वैश्विक तंत्र हमें लगातार यह बताता रहता है कि हमारे ”उत्‍तर-आधुनिक समय” में क्रान्तियों के महाख्‍यान विसर्जित हो चुके हैं, कि आधुनिकता, तर्कणा और मुक्ति की सारी परियोजनाएँ यूटोपिया सिद्ध हुई हैं, कि समाजवाद भी फासीवाद व अन्‍य बुर्जुआ निरंकुश तंत्रों जैसा ही सर्वसत्‍तावादी था… वगैरह-वगैरह। सोवियत संघ में 1956 से 1990 तक समाजवाद के नाम पर संशोधनवादी पार्टी के नेतृत्‍व में जो भ्रष्‍ट और निरंकुश बुर्जुआ सत्‍ता क़ायम थी (1976 के बाद चीन में भी ”बाज़ार समाजवाद” के नाम पर वैसी ही सत्‍ता क़ायम है), उस ‘सोशल फासिस्‍ट’ सत्‍ता के सभी कुकर्मों को समाजवाद के मत्‍थे थोपकर उसे बदनाम किया जाता है। जिन स्‍तालिन के नेतृत्‍व में सोवियत संघ ने प्रगति और न्‍यायपूर्ण समाज-निर्माण के अभूतपूर्व कीर्तिमान स्‍थापित किये तथा अपने एक करोड़ 70 लाख नागरिकों की कुर्बानी देकर पूरी दुनिया को फासिज़्म के कहर से बचाया, उन्‍हें सबसे अधिक कुत्‍सा-प्रचार का निशाना बनाया जाता है। 1920 से लेकर 1940 के दशक तक एच.जी. वेल्‍स, रोम्‍यां रोलां, टैगौर, नेहरू आदि दर्जनों शीर्ष बुद्धिजीवियों, लेखकों, वैज्ञानिकों और बुर्जुआ राजनेताओं ने सोवियत संघ की प्रगति के बारे में अभिभूत और चमत्‍कृत होकर जो कुछ भी लिखा था, उसे आज के अधिकांश प्रबुद्ध नागरिक भी नहीं जानते। बुर्जुआ मीडिया लाख कोशिशों के बावजूद बुर्जुआ समाज की रुग्‍णताओं और निरुपाय संकटों को छुपा नहीं पाता, लेकिन वह हमें विश्‍वास दिलाने की कोशिश करता है कि अब दुनिया विकल्‍पहीन है, कि समाजवाद यूटोपिया है इसीलिए समाप्‍त हो गया, कि पूँजीवाद को ही कुछ सुधारों के साथ चलते रहना है। यही दरअसल बुर्जुआ विचारधारा और राजनीति का वर्चस्‍व (हेजेमनी) है। इसी वर्चस्‍व के विरुद्ध प्रति-वर्चस्‍व (काउण्‍टर-हेजेमनी) का संघर्ष संगठित किया जाना है। अक्‍सर ऐसा भी होता है कि कुछ अधकचरे वाम बुद्धिजीवी और सामाजिक जनवादी पार्टियाँ समाजवादी-नामधारी कुछ रैडिकल सामाजिक जनवादी प्रयोगों (जैसे ब्राजील में लूला की पार्टी, निकारागुआ में सान्दिनिस्‍ता, वेनेजुएला में शाविस्‍ता, ग्रीस में सिरिजा) आदि की सत्‍ता को समाजवाद के ”इक्‍कीसवीं सदी के मॉडल” के रूप में प्रचारित करने लगते हैं और फिर उनके विघटन या पतन के रुदालियों की तरह छाती पीटने लगते हैं।

निराशा और विभ्रम के इस दौर में, सबसे पहले तो यह समझना ज़रूरी है कि विश्‍व इतिहास में अतीत में भी क्रान्तियों के शुरुआती संस्‍करण पराजित हुए हैं और फिर अगले दौर में उनके नये संस्‍करणों ने निर्णायक विजय हासिल की है। और फिर, सर्वहारा क्रान्तियाँ मानव इतिहास की सर्वाधिक आमूलगामी क्रान्तियाँ हैं, जो वर्ग समाज की बुनियाद पर—सम्‍पत्ति सम्‍बन्‍धों और निजी स्‍वामित्‍व पर चोट करती हैं। ये सिर्फ चन्‍द शताब्दियों की उम्र वाले पूँजीवादी समाज के ख़ि‍लाफ़ ही नहीं बल्कि सहस्राब्दियों लम्‍बी उम्र वाले सम्‍पूर्ण वर्ग समाज के ख़िलाफ़ हैं। अत: यदि विश्‍व ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में देखें तो बीसवीं शताब्‍दी की प्रारम्भिक सर्वहारा क्रान्तियों की पराजय अप्रत्‍याशित नहीं है। इतना तय है कि यह पराजय स्‍थायी नहीं, बल्कि फिलहाली है। श्रम और पूँजी के शिविर के बीच विश्‍व ऐतिहासिक महासमर का पहला चक्र कई चरणों से होते हुए उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के मध्‍य से लेकर 1976 तक जारी रहा। फिर इस चक्र का समापन श्रम के शिविर की पराजय के रूप में हुआ। अब आने वाला समय इस विश्‍व-ऐतिहासिक समर के दूसरे चक्र का साक्षी होगा। विश्‍व पूँजीवाद के असाध्‍य ढाँचागत संकट और अतीत की समाजवादी क्रान्तियों की पराजय से मिली शिक्षाओं के मद्देनज़र, आज यह बात ज़्यादा विश्‍वास के साथ कही जा सकती है कि विश्‍व सर्वहारा क्रान्ति के अगले चक्र की शुरुआत चाहे जितनी कठिनाई से और जितने विलम्‍ब से हो, वह चक्र श्रम के शिविर के पक्ष में निर्णायक होगा, इसकी सम्‍भावना अधिक है। अक्‍टूबर क्रान्ति के नये संस्‍करणों की विजय के निर्णायक होने की सम्‍भावना अधिक है। समाजवाद को यूटोपिया बताने वाले कूपमण्‍डूकों और भाड़े के बुद्धिजीवियों को यह मोटी सी बात समझ में नहीं आती कि प्रयोगशाला में ट्रान्‍सप्‍लाण्‍ट किया गया कोई अंग अगर कुछ समय भी काम कर जाये तो वैज्ञानिक का निष्‍कर्ष यही होता है कि ‘ऑर्गन ट्रान्‍सप्‍लाण्‍ट’ मुमकिन है। इस दुनिया ने समाजवादी समाज की चमत्‍कारी प्रगति के कई दशक देखे हैं। आज कोई समाजवादी देश नहीं है, लेकिन समाजवादी क्रान्ति का विज्ञान मौजूद है। बिखरी हुई और कमज़ोर ही सही, पर उसकी वाहक शक्तियाँ भी मौजूद हैं। और समाजवाद की विफलता के कारणों की एक समझ भी मौजूद है। अत: अक्‍टूबर क्रान्ति के नये संस्‍करणों का निर्माण अवश्‍यम्‍भावी है। या तो यह होगा, या फिर युद्ध, फासिस्‍ट बर्बरता और पर्यावरणीय विनाश मानव सभ्‍यता को ही तबाह कर देंगे।

आज एक नयी शुरुआत के लिए समाजवादी संक्रमण की समस्‍याओं और पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के कारणों को समझना सबसे ज़रूरी है। लेकिन इसके पहले कुछ तथ्‍यों और आँकड़ों के ज़रिए हम उस विस्‍मयकारी प्रगति की एक तस्‍वीर प्रस्‍तुत करना चाहेंगे जो अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद सोवियत समाजवाद ने हासिल की थी।

अक्‍टूबर क्रान्ति एक ऐसे समय में सम्‍पन्‍न हुई जब पहले साम्राज्‍यवादी युद्ध में उलझाव के चलते रूस की अर्थव्‍यवस्‍था जर्जर हो चुकी थी। लोग भयंकर तबाही और बदहाली का जीवन बिता रहे थे। 1918 से 1921 के बीच नवजात सोवियत राज्‍य को अन्‍तरराष्‍ट्रीय तौर पर संगठित सशस्‍त्र प्रतिक्रान्ति का सामना करने के लिए युद्ध कम्‍युनिज़्म‍ की नीतियाँ अपनायी गयीं। इन फौरी और आपातकालीन नीतियों में बड़े पैमाने पर उद्योगों का राष्‍ट्रीकरण, कृषि उत्‍पादों की अनिवार्य वसूली और व्‍यापार का राज्‍य के हाथों में केन्‍द्रीकरण शामिल था। ये नीतियाँ सामान्‍य तौर पर समाजवादी क्रान्ति के प्रारम्भिक दौर में सर्वहारा सत्‍ता के आर्थिक कार्यभारों के अनुरूप नहीं थीं, लेकिन युद्ध और तबाही के हालात में इन्‍हें अपनाने के लिए विवश होना पड़ा था।

बाहरी हमले और प्रतिक्रान्ति की अन्‍दरूनी कोशिशों को नाकाम कर दिये जाने के बाद भी समाजवादी निर्माण का काम सामान्‍य तौर पर शुरू करने की परिस्थितियाँ नहीं थीं। विश्‍वयुद्ध, क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति के सात तूफानी वर्षों ने रूसी राष्‍ट्रीय अर्थतंत्र को पंगु बना दिया था। सोवियत संघ की साम्राज्‍यवादी घेरेबन्‍दी अभी भी जारी थी। हालत यह थी कि 1913-21 के बीच पूँजी-निवेश के लगभग ठप्‍प हो जाने के कारण, 1920 में बड़े उद्योगों का सकल राष्‍ट्रीय उत्‍पादन 1913 के स्‍तर का मात्र 14.4 प्रतिशत था। सीमेण्‍ट-उत्‍पादन युद्ध पूर्व स्‍तर का मात्र एक प्रतिशत रह गया था। कृषि उत्‍पादन युद्ध पूर्व समय के मुक़ाबले आधा रह गया था। उपभोक्‍ता सामग्रियों का घोर अभाव था। इन हालात में बोल्‍शेविकों ने क्रमबद्ध ढंग से पीछे हटने का रास्‍ता चुना ताकि समाजवाद की दिशा में फिर आगे बढ़ा जा सके। यह नयी आर्थिक नीति का दौर था जो सर्वहारा राज्‍यसत्‍ता द्वारा संगठित और नियंत्रित ढंग से राजकीय पूँजीवाद की नीतियों की ओर पीछे हटने का दौर था। इस दौरान छोटे-मँझोले निजी उद्योगों और निजी आन्‍तरिक व्‍यापार को अस्‍थायी तौर पर फिर से बहाल किया गया, अनिवार्य कृषि-वसूली की जगह हल्‍के कराधान की व्‍यवस्‍था की गयी, उद्योगों को कुछ खास क्षेत्रों में काफी लाभप्रद छूटें दी गयीं। राष्‍ट्रीकृत बड़े पैमाने के ‘मास मार्केट’ उद्योगों को पूँजीवादी आधार पर चलाया जाने लगा, हालाँकि यह व्‍यवस्‍था सख्‍त नियंत्रण के तहत थी। राजकीय उद्योगों के लिए मुनाफे के आधार पर काम करने की व्‍यवस्‍था की गयी। कारखानों के प्रबंधकों को मज़दूरी तय करने में स्‍वायत्‍तता दी गयी और उन्‍हें अंशत: मुनाफे़ पर कमीशन के आधार पर वेतन दिया जाता था।

नयी आर्थिक नीति का उद्देश्‍य उत्‍पादन को फिर से गति देना तो था ही, लेकिन सिर्फ़ इतना ही नहीं था। उसने बोल्‍शेविकों के लिए अर्थव्‍यवस्‍था को चलाने के एक विशाल स्‍कूल का काम किया, ताकि वे उस बुर्जुआ वर्ग को परास्‍त करने के योग्‍य बन सकें जो अभी भी उनके बीच मौजूद था और लगातार, नये सिरे से (विशेषकर, छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्‍पादन से) पैदा भी हो रहा था। यह लक्ष्‍य पूरा होते जाने के साथ ही नयी आर्थिक नीति राजकीय पूँजीवाद की ओर पीछे हटने से समाजवाद की ओर आगे बढ़ने के रूप में विकसित हो गयी। ग्‍यारहवीं पार्टी कांग्रेस में लेनिन ने कहा, एक साल से हम लोग पीछे हटते आ रहे हैं1 पार्टी की ओर से अब हमें इसे रोक देना होगा।

यूँ तो नयी आर्थिक नीति का दौर 1928 में पहली पंचवर्षीय योजना लागू होने तक चलता रहा लेकिन आर्थिक स्थिति सापेक्षत: सुदृढ़ होते ही ”पीछे हटना” पहले ही रोक दिया गया था। 1920 के दशक के मध्‍य से निजी उद्यम और निजी व्‍यापार को समाप्‍त करना शुरू कर दिया गया था और 1932 तक उत्‍पादन या व्‍यापार को बाधित किये बिना इन्‍हें लगभग ख़त्‍म किया जा चुका था। राजकीय उद्यमों के प्रबन्‍धन की स्‍वायत्‍तता को क्रमश: सीमित किया गया और कदम ब कदम उद्योगों की सभी शाखाओं में समाजवादी नियोजन लागू कर दिया गया।

फिर भी 1920 के दशक के अन्‍त तक कृषि क्षेत्र पर पूँजीवादी सम्‍बन्‍धों की जकड़बन्‍दी क़ायम थी। कुलकों का अस्तित्‍व क़ायम था जो सोवियत राज्‍य की खुली अवज्ञा करते थे, टैक्‍स अदा करने और अनाज बेचने से इन्‍कार करते थे, तथा जमाखोरी और कालाबाज़ारी करते थे। दूसरी तरफ लाखों छोटे किसान परिवार आदिम युग के साधनों से जमीन के छोटे-छोटे अलाभप्रद टुकड़ों पर खेती करते थे और नारकीय जीवन बिताते थे। तेज़ गति से विकुलकीकरण और सामूहिकीकरण के पीछे इन लाखों ग़रीब किसानों (बेद्न्‍याक) की कुलकों के प्रति गहरी घृणा और उन्‍हें बेदखल करने की व्‍यग्रता की भी एक अहम भूमिका थी। आधुनिक खेती के विकास और गाँवों में समाजवाद के आधार-निर्माण के लिए ग़रीब किसानों की सक्रिय भूमिका के सहारे सामूहिकीकरण का अभियान शुरू किया। कुलकों के तीव्र प्रतिरोधों और विद्रोहों का भी सामना करना पड़ा, लेकिन वे कुचल दिये गये। इस मुहिम में कुलकों को दबाने के दौरान निस्‍सन्‍देह कुछ ज़्यादतियाँ भी हुईं और कहीं-कहीं सहकारी फार्मों में शामिल होने के लिए किसानों के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्‍ती भी की गयी। स्‍तालिन ने विध्‍वंसक तत्‍वों के साथ सख़्ती बरतने के साथ ही, इन ग़लतियों की आलोचना की और मध्‍यम किसानों को अपने पक्ष में करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। फलत: किसानों के बीच राजनीतिक कार्य और पार्टी उपकरण मज़बूत करने पर विशेष ज़ोर दिया गया। पुराने बोल्‍शेविकों में से चुने गये 17,000 पार्टी सदस्‍यों को मशीन ट्रैक्‍टर स्‍टेशनों में राजनीतिक विभाग स्‍थापित करने के लिए देहाती इलाक़ों में भेजा गया। ये मशीन ट्रैक्‍टर स्‍टेशन समाजवादी निर्माण के महत्‍वपूर्ण उपकरण के रूप में सामूहिक फार्मों के लिए काम कर रहे थे। इस प्रक्रिया में गाँवों में पार्टी उपकरण मज़बूत हुए और पार्टी की ग्रामीण सदस्‍यता 1930 से 1934 के बीच चार लाख से बढ़कर आठ लाख हो गयी।

1934 के अन्‍त तक 75 प्रतिशत किसान परिवार और 90 प्रतिशत खेती लायक़ ज़मीन 2,40,000 सामूहिक फार्मों के दायरे में आ चुकी थी। जो खेती-बाड़ी अभी हाल तक मशीनीकरण से एकदम अछूती थी, उसमें 1934 के अन्‍त तक 2,81,000 ट्रैक्‍टर और 32,000 हार्वेस्‍टर कम्‍बाइन काम कर रहे थे। इस मशीनीकरण की बदौलत गाँवों से बड़े पैमाने पर श्रम शक्ति खाली हुई जो तेजी से बढ़ते उद्योगों के लिए ज़रूरी थी। चौथे दशक के मध्‍य तक सोवियत सत्‍ता इस स्थिति में पहुँच गयी थी कि रोटी और अधिकांश बुनियादी ज़रूरत की चीजों की राशनिंग समाप्‍त कर दी गयी।

पूरे देश के लिए केन्‍द्रीकृत रूप से एक आर्थिक योजना तैयार करने के लिए राजकीय योजना आयोग (गॉस्‍प्‍लान) की स्‍थापना तो 1921 में ही हो चुकी थी लेकिन पहली पंचवर्षीय योजना 1928 में ही जाकर बनायी जा सकी। पहली पंचवर्षीय योजना इतिहास में केन्‍द्रीकृत नियोजन का पहला प्रयास थी। यह आर्थिक निर्माण का पहला ऐसा समाजवादी क़दम था, जब योजना की प्राथमिकताएँ व्‍यापक जन समुदाय के हितों के मुताबिक, और तात्‍कालिक भौतिक फ़ायदों के लिए नहीं, बल्कि एक समाजवादी समाज की अग्रवर्ती प्रगति के लिए आवश्‍यक भौतिक आधार के निर्माण को केन्‍द्र में रखकर तय की गयी थीं। बड़े समाजवादी उपक्रमों के रूप में आधारभूत और अवरचनागत उद्योगों की स्‍थापना को समाजवाद के लिए अपरिहार्य मानते हुए स्‍तालिन भी लेनिन की ही लाइन पर सोच रहे थे। तेज़ गति से औद्योगीकरण समाजवाद को शक्तिशाली बनाने की अनिवार्य शर्त थी। लेकिन सबसे बड़ी समस्‍या औद्योगिक विकास के लिए आदिम पूँजी-संचय की थी। पूँजीवाद ने कृषि से अधिशेष निचोड़कर तथा उपनिवेशों की भारी लूट से औद्योगिक क्रान्ति के लिए आवश्‍यक प्रारम्भिक पूँजी जुटायी थी। समाजवाद के लम्‍बे दौर में कृषि के सामूहिकीकरण और उद्योगों के राष्‍ट्रीकरण के बाद, आम जनता की पहलकदमी और उत्‍पादकता बढ़ाकर, नैतिक प्रोत्‍साहन, उन्‍नत समाजवादी संस्‍कृति एवं चेतना तथा विज्ञान-तकनोलॉजी की प्रगति के ज़रिए औद्योगीकरण को अंजाम दिया जा सकता था। लेकिन दुनिया के पहले समाजवादी राज्‍य के पास इतना समय कत्‍तई नहीं था। साम्राज्‍यवादी घेरेबन्‍दी अभी भी काफी हद तक जारी थी और 1930 के दशक के प्रारम्‍भ से ही फासि‍ज़्म और विश्‍वयुद्ध का ख़तरा सिर पर मँडराने लगा था। ऐसी स्थिति में सोवियत सत्‍ता के सामने एक ही रास्‍ता था, और वह था—सचेतन तौर पर कृषि की अतिरिक्‍त उपज को औद्योगीकरण का आधार बनाया जाये, युद्ध की स्थिति में प्रति‍रक्षा के लिए ज़रूरी भारी उद्योगों के लिए कृषि से निकाले गये अधिशेष का इस्‍तेमाल किया जाये, तथा, उत्‍पादन के साधनों के उत्‍पादन के लिए तात्‍कालिक उपभोग की किसी हद तक क़ुर्बानी दी जाये। हालाँकि इस आसन्‍न विवशता और आवश्‍यकता का एक नतीजा गाँव और शहर के बीच बढ़ती अन्‍तरवैयक्तिक असमानता के रूप में सामने आना ही था, जो समाजवाद की एक गम्‍भीर समस्‍या थी, लेकिन युद्ध की दहलीज़ पर खड़े युवा समाजवादी राज्‍य के सामने और कोई रास्‍ता नहीं था। साथ ही, स्‍तालिन ने यह मानते हुए ऐसा किया कि कृषि के तात्‍कालिक नुकसान की बाद में भरपाई करनी होगी और जैसे-जैसे औद्योगीकरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे मशीनीकरण से खेती को अधिक लाभ मिलने लगेगा, बशर्ते कि गाँवों में स्‍वामित्‍व के समाजवादी रूपान्‍तरण का काम तब तक पूरा कर लिया जाये।

जैसाकि पहले उल्‍लेख किया जा चुका है, फौरी संकट के फौरी समाधान के कामों में उलझाव की विवशता और युद्ध की आसन्‍नता के चलते बोल्‍शेविकों को किसानों में काम करने और मज़दूर-किसान संश्रय को मज़बूत करने का उतना समय नहीं मिला। फलत: तेज़ गति से सामूहिकीकरण का विरोध कुलकों के साथ ही, एक हद तक मँझोले किसानों ने भी किया। बेशक इसका असर किसी हद तक उत्‍पादन पर भी पड़ा। लेकिन स्थिति जल्‍दी ही नियंत्रण में आ गयी और 1933 से 1937 के बीच कुल कृषि उपज में पुन: 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

व्‍यापक जन-पहलकदमी और उत्‍साह के निर्बन्‍ध होने के चलते पहली पंचवर्षीय योजना निर्धारित समय से 9 माह पहले ही पूरी हो गयी। तकनीशियनों की भारी कमी के बावजूद, इस अवधि के दौरान ट्रैक्‍टर, ऑटोमोबाइल, जहाज़, रसायन, कृषि मशीनरी, मशीन टूल्‍स, इंजीनियरिंग, युद्धक सामग्री आदि के उत्‍पादन के विशालकाय औद्योगिक ढाँचे एकदम शून्‍य से शुरू करके खड़े किये गये। लौह खनिज और पेट्रोलियम उत्‍पादन तेज़ी से बढ़ा। जिस रफ़्तार से इस्‍पात कारखाने लगे और लगभग पूरे देश का विद्युतीकरण हुआ, उस पर पश्चिमी दुनिया दंग थी और बुर्जुआ मीडिया भी इन ”चमत्‍कारों” की चर्चा करने लगा। पूरे देश की जनता का, विशेषकर भारी उद्योगों के मज़दूरों का जीवन-स्‍तर तेजी से ऊपर उठा। मज़दूरी में 103.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। जिस समय पूँजीवादी विश्‍व पर महामन्‍दी का कहर बरपा हो रहा था और अमेरिका में 1.15 करोड़, जर्मनी में 56 लाख और ब्रिटेन में 23 लाख बेरोजगार थे, उस समय, यानी 1932 तक सोवियत संघ में बेरोजगारी का पूर्ण उन्‍मूलन हो चुका था। नवम्‍बर, 1932 में अमेरिका की उदारवादी पत्रिका नेशन ने लिखा था : पंचवर्षीय योजना के चार वर्षों में वाक़ई असाधारण विकास हुआ है।… रूस नये जीवन के भौतिक और सामाजिक साँचों के निर्माण के रचनात्‍मक कार्यभार को पूरा करने में युद्धस्‍तर की तेजी के साथ जुटा हुआ है। देश का नक्‍शा वाकई इतना ज्‍़यादा बदला जा रहा है कि इसे पहचानना मुश्किल होगा।

दूसरी पंचवर्षीय योजना भी अपने समय से 9 माह पहले पूरी हो गयी। मॉरिस डॉब (सोवियत इकोनॉमिक डेवलपमेण्‍ट सिन्‍स 1917‘) के अनुसार, इस योजना का लक्ष्‍य पूरी अर्थव्‍यवस्‍था का तकनीकी पुनर्गठन था। योजना के अन्‍त तक देश के कुल औद्योगिक उत्‍पादन का 4/5 हिस्‍सा ”पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान निर्मित या पूर्णत: पुनर्गठित नये उद्योगों” द्वारा होना था। इसके लिए नये उद्योग लगाना, नयी तकनीक में महारत, श्रम-उत्‍पादकता में भारी वृद्धि, उत्‍पादन-लागत में कमी लाना और उत्‍पाद के स्‍तर को ऊपर उठाना ज़रूरी था। इस लक्ष्‍यसिद्धि में योजना पूर्णत: सफल रही। औद्योगिक उत्‍पादन 1932 की तुलना में 100 प्रतिशत और 1913 की तुलना में 500 प्रतिशत बढ़ गया। योजना के अंत तक 4500 नये औद्योगिक उपक्रम स्‍थापित हुए जो कुल औद्योगिक उत्‍पादन का 80 प्रतिशत पैदा कर रहे थे। बिजली उत्‍पादन 2600 करोड़ किलोवाट हो गया जो 1932 की तुलना में दोगुना और 1913 की तुलना में तेरह गुना था। सभी अवरचनागत उद्योगों ने ऐसी ही प्रचण्‍ड वृद्धि दर्ज की।

नयी आर्थिक नीति की समाप्ति के समय दुनिया के औद्योगिक देशों में रूस पाँचवें स्‍थान पर था, लेकिन दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर यह दूसरे स्‍थान पर आ चुका था। इसे निम्‍न तालिका में देखा जा सकता है :

सोवियत संघ के औद्योगिक विकास की दर समूचे आधुनिक इतिहास में अतुलनीय थी। इसे निम्‍न तालिका में देखा जा सकता है :

ब्रिटिश आर्थिक इतिहासकार ऐंगुस मैडिसन के अनुसार, सोवियत संघ में 1913 से 1965 के बीच प्रति व्‍यक्ति आर्थिक वृद्धि की दर दुनिया के सभी विकसित देशों से भी ऊपर थी। इस दौरान सोवियत संघ की आर्थिक वृद्धि दर 440 प्रतिशत थी। उसके ठीक नीचे जापान (400 प्रतिशत) था। मॉरिस डॉब के अनुसार, उद्योगों की परिमाणात्‍मक वृद्धि को संक्षेप में इन सूचकों के ज़रिए जाना जा सकता है –
1928-38 के दशक के दौरान लोहा और इस्‍पात उद्योग की उत्‍पादक क्षमता चार गुना
, कोयले की साढ़े तीन गुना, तेल की भी तीन गुना और बिजली की लगभग सात गुना बढ़ गयी थी, जबकि इसी दौरान नये उद्योगों की एक पूरी कतार स्‍थापित की जा चुकी थी जिसमें वायुयान, प्‍लास्टिक और कृत्रिम रबर सहित विविध भारी रसायन, एल्‍यूमीनियम, ताँबा, निकिल और टिन आदि शामिल हैं। सोवियत संघ दुनिया में ट्रैक्‍टरों और रेल इंजनों का सबसे बड़ा उत्‍पादक तथा तेल, सोना और फॉस्‍फेट का दूसरे नम्‍बर का सबसे बड़ा उत्‍पादक बन गया थाा (पूर्वोद्धृत, पृ. 454)

ज़ाहिर है कि उत्‍पादक शक्तियों के निरन्‍तर विकास का रास्‍ता लगातार समाजवादी उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों को उन्‍नत करके ही निर्बाध बनाया जा सकता था और उन्‍नततर समाजवादी उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों के लिए उत्‍पादक शक्तियों की सतत् प्रगति ज़रूरी थी। उत्‍पादन को विविधीकृत करने और उसकी मात्रात्‍मक वृद्धि की रफ़्तार बढ़ाकर समाजवादी समाज के नागरिकों के जीवन को न्‍यायपूर्ण, सुन्‍दर, सुसंस्‍कृत बनाने के लिए विज्ञान और तकनोलॉजी की तेज़ प्रगति ज़रूरी थी। समाजवाद के अन्‍तर्गत नियोजन को विज्ञान की उतनी ही ज़रूरत थी जितनी विज्ञान को नियोजन की। विज्ञान और तकनोलॉजी का विकास बड़े उद्योगों की आधारशिला रखने और सामूहिक फार्मों में मशीनीकृत आधुनिक खेती की प्रगति के लिए तो ज़रूरी था ही, विज्ञान की सैद्धान्तिक प्रगति के द्वारा मानवता के सुदूर भविष्‍य को उज्‍ज्‍वल बनाना भी समाजवाद का लक्ष्‍य था। एक शत्रुतापूर्ण दुनिया में टिके रहने के लिए युद्ध तकनोलॉजी का विकास भी ज़रूरी था। सोवियत सत्‍ता ने गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद से ही विज्ञान-तकनोलॉजी के विकास पर विशेष ध्‍यान देना शुरू कर दिया। पहली पंचवर्षीय योजना के समय से नाभिकीय भौतिकी, क्‍वाण्‍टम भौतिकी, अन्‍तरिक्ष भौतिकी, रसायन, जैव-रसायन, प्राणि विज्ञान, भूगर्भ शास्‍त्र आदि सभी क्षेत्रों में तथा इंजीनियरिंग की सभी शाखाओं में योजनाबद्ध शोध-अध्‍ययन की शुरुआत हुई। 1917-41 के दौरान सोवियत संघ की वैज्ञानिक प्रगति का एक अनुमान 1945 में रूसी विज्ञान अकादमी की 220वीं वर्षगाँठ पर आयोजित समारोह में (इसकी शुरुआत 1725 में ज़ारीना कैथरीन ने 15 अकादमीशियनों और उनके स्‍टॉफ के वित्‍त-पोषण से की थी) प्रस्‍तुत समीक्षा-रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। 1917 में अकादमी में 40 अकादमीशियन, थे, 5 प्रयोगशालाओं में कार्यरत 212 वैज्ञानिक और तकनीशियन थे, 5 संग्रहालय, एक शोध-संस्‍थान, दो वेधशालाएँ और 15 कमीशन थे। 1941 में सोवियत संघ में 76 शोध संस्‍थान थे, जिनमें 47 केन्‍द्रीय और 29 अकादमी की विभिन्‍न शाखाओं के अन्‍तर्गत थे। 11 स्‍वतंत्र प्रयोगशालाएँ थीं, 42 भूकम्‍प-अध्‍ययन केन्‍द्र, जीवशास्‍त्रीय केन्‍द्र व अन्‍य स्‍टेशन थे, और 6 बेधशालाएँ थीं, जिनमें 5000 वैज्ञानिक और तकनीशियन कार्यरत थे। 1917 में विज्ञान-तकनोलॉजी का बजट 5 लाख रूबल था। 1941 में इनका केन्‍द्रीय बजट 13 करोड़ 50 लाख रूबल और गणराज्‍यों का तथा स्‍थानीय बजट अतिरिक्‍त 3 करोड़ 10 लाख रूबल था। सोवियत विज्ञान अकादमी के अतिरिक्‍त हर गणराज्‍य की अपनी अकादमी थी। 1930 के दशक के मध्‍य तक, ब्रिटिश वैज्ञानिक जे.डी. बर्नाल के आकलन के अनुसार, सोवियत संघ अपनी राष्‍ट्रीय आय का एक प्रतिशत विज्ञान-तकनोलॉजी पर खर्च कर रहा था जो अमेरिका के मुकाबले 3 गुना और ब्रिटेन के मुकाबले 10 गुना था। इस वैज्ञानिक प्रगति का आधार तैयार करने के लिए सोवियत सत्‍ता विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए कई-कई संस्‍थाओं के ज़रिए समाज के तृणमूल स्‍तर पर काम करती थी। साथ ही, उच्‍च शिक्षा का एक व्‍यापक ताना-बाना खड़ा किया गया था। 1917 में रूस में मात्र 91 विश्‍वविद्यालय और कॉलेज तथा 289 शोध संस्‍थान थे जिनमें 4,340 वैज्ञानिक कार्यरत थे। 1941 में सोवियत संघ में 700 विश्‍वविद्यालय व कालेज तथा 908 शोध संस्‍थान थे जिनमें 26,246 वैज्ञानिक कार्यरत थे।

1941 तक गणित, क्‍वाण्‍टम भौतिकी, नाभिकीय भौतिकी, क्रिस्‍टल भौतिकी, भूगर्भ शास्‍त्र, भू-विज्ञान, भौतिक रसायन, प्‍लाण्‍ट-ब्रीडिंग और एयरोडायनॉमिक्‍स जैसे क्षेत्रों में सोवियत संघ में कई ‘पाथ ब्रेकिंग’ शोध हो चुके थे और यह सिलसिला आगे भी जारी रहा। सोवियत नाभिकीय कार्यक्रम और अन्‍तरिक्ष कार्यक्रम की नींव भी इसी समय पड़ चुकी थी। 1950 के दशक में अन्‍तरिक्ष कार्यक्रम में सोवियत संघ अमेरिका से आगे था। युद्धक सामग्री उद्योग और नाभिकीय कार्यक्रम में भी वह उसकी बराबरी पर खड़ा था। यह बात पूरी दुनिया को दूसरे विश्‍वयुद्ध की समाप्ति के बाद पता चली कि अप्रत्‍याशित जर्मन हमले का सामना करते हुए सोवियत संघ ने अपनी प्रयोगशालाओं और उत्‍पादन इकाइयों को (जैसे स्‍तालिनग्राद ट्रैक्‍टर फैक्‍ट्री को, जिसमें प्रसिद्ध टी-34 टैंक बनते थे) आनन-फानन में सुदूर पूरब में उराल पहाड़ों में स्‍थानान्‍तरित कर दिया था तथा‍ उस कठिन दौर में भी उत्‍पादन के साथ-साथ शोध एवं आविष्‍कार के काम लगातार जारी रहे।

साक्षरता कम्‍युनिज्‍़म का रास्‍ता तैयार करती है – 1920 के दशक के एक पोस्‍टर की इबारत को बोल्‍शेविकों ने इस तरह व्‍यवहार में उतारा कि गृहयुद्ध (1918-21) के दौरान भी निरक्षरता-विरोधी अभियान चलता रहा और दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान मज़दूरों के लिए फैक्ट्रियों, खदानों और रेलवे लाइन के किनारे विशेष स्‍कूल स्‍थापित किये गये। 192 से 1940 के बीच पाँच करोड़ प्रौढ़ लोगों ने पढ़ना-लिखना सीखा। 1914-15 में सभी शिक्षा संस्‍थानों में छात्रों की कुल संख्‍या 99 लाख थी। 1956-57 तक यह बढ़कर 3 करोड़ 55 लाख हो चुकी थी। समाजवाद की राजनीतिक प्राथमिकताओं के अनुरूप प्राथमिक शिक्षा और काम के साथ शिक्षा पर अधिक ज़ोर दिया गया। सोवियत संघ की निरक्षरता-निर्मूलन की विस्‍मयकारी मुहिम को नीचे दी गयी तालिका स्‍पष्‍ट रूप से प्रदर्शित करती है :

अब हम स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं पर एक दृष्टि डालें। क्रान्ति के तुरन्‍त बाद सोवियत सत्‍ता ने सभी नागरिकों के लिए मुफ़्त चिकित्‍सा सेवा की व्‍यवस्‍था लागू की। इस मामले में सरकार की प्रतिबद्धता इतनी कठोर थी कि गृहयुद्ध के वर्षों में भी इसके लिए बुनियादी ढाँचा खड़ा करने का काम जारी रहा और 1920 के दशक से तो यह तूफ़ानी गति से आगे बढ़ा। 1960 में एक बुर्जुआ जन-स्‍वास्‍थ्‍य विशेषज्ञ मार्क जी. फील्‍ड ने सोवियत जन-स्‍वास्‍थ्‍य प्रणाली के बारे में लिखा था : किसी भी अन्‍य गतिविधि की तरह स्‍वास्‍थ्‍य-रक्षा भी नियोजित होनी चाहिए, इसमें समानता होनी चाहिए, स्‍वास्‍थ्‍य रक्षा राज्‍य द्वारा वित्‍त पोषित एक मुफ़्त सामाजिक सेवा है,  जनता का स्‍वास्‍थ्‍य सरकार की ज़िम्‍मेदारी है, और इसमें व्‍यापकतम जन-भागीदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, सिद्धान्‍त और व्‍यवहार की एकता होनी चाहिए… सोवियत शासन ने पिछले चार दशकों के दौरान जन-सेवा के तौर पर प्रदान की जाने वाली चिकित्‍सीय उपचार और निरोधक चिकित्‍सा की एक व्‍यवस्‍था क़ायम की है जिसका विस्‍तार इस क्षेत्र में राष्‍ट्रीय पैमाने पर किये गये किसी भी प्रयास से अधिक व्‍यापक हैा” (एनसाइक्‍लो‍पीडिया ऑफ रशिया ऐण्‍ड सोवियत यूनियन‘, सं. – एम.टी. फ्लोरिंस्‍की, न्‍यूयार्क)

स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं के क्षेत्र में हुई चतुर्दिक क्रान्ति को कुछ आँकड़ों के ज़रिए समझा जा सकता है। अस्‍पतालों में शैयाओं की संख्‍या 1913 में 20,700 थी जो छ: गुना बढ़कर 1956 में 1,36,000 हो गयी। 1913 में प्रति दस हजार आबादी पर 13 शैयाएँ थी जो 1956 में बढ़कर 68 हो गयीं। डाक्‍टरों की संख्‍या 1913 में 23,000, 1940 में 1,42,000 और 1958 में 3,62,000 थी। यानी इस अवधि में 15 गुना बढ़ोत्‍तरी हुई। 1958 में प्रति दस हज़ार निवासियों पर डाक्‍टरों की संख्‍या ब्रिटेन में 8.8, अमेरिका में 12 और सोवियत संघ में 17 थी। यह बड़ी संख्‍या में स्त्रियों के प्रशिक्षण के कारण सम्‍भव हो सका। क्रान्ति के पहले डाक्‍टरों में 10 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। 1940 तक वे 60 प्रतिशत और 1958 तक 75 प्रतिशत हो चुकी थीं। दूसरे विश्‍वयुद्ध के पहले ही सोवियत संघ से यौन रोगों, कुपोषण और अस्‍वास्‍थ्‍यकर पर‍िस्थिति-जनित रोगों तथा अधिकांश संक्रामक बीमारियों का लगभग खात्‍मा हो चुका था। स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र में समाजवाद की महती उपलब्धियों को निम्‍न आँकड़ों से समझा जा सकता है:

 

ज़ाहिर है कि समाजवाद का लक्ष्‍य सिर्फ़ भौतिक प्रगति के नये शिखरों तक पहुँचना नहीं था, बल्कि न्‍याय, समानता और पूरी आबादी की (भौतिक मुक्ति के साथ ही) आत्मिक मुक्ति के साथ-साथ भौतिक प्रगति हासिल करना था। इसके‍ लिए ज़रूरी था कि निजी स्‍वामित्‍व की व्‍यवस्था के साथ ही वह उसके एक प्रमुखतम स्‍तम्‍भ पर, यानी पितृसत्‍तात्‍मक पारिवारिक ढाँचे पर भी चोट करे, चूल्‍हे-चौखट की दमघोंटू नीरस दासता से स्त्रियों को मुक्‍त करे, उन्‍हें पुरुषों के साथ वास्‍तविक बराबरी का दर्जा देते हुए सामाजिक उत्‍पादक गतिविधियों और राजनीतिक-सामाजिक दायरों में भागीदारी का भौतिक-वैचारिक आधार तैयार करे तथा इ‍सके लिए पुरुष वर्चस्‍ववादी मूल्‍यों-मान्‍यताओं-संस्‍थाओं की जड़ों पर कुठाराघात करे।

अक्‍टूबर क्रान्ति के बाद स्त्रियों की मुक्ति की जिस लम्‍बी यात्रा की शुरुआत हुई, उसका अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण भौतिक पक्ष था सामाजिक श्रम में उनकी बढ़ती हुई भागीदारी। 1914 में कारखानों में लगी कुल श्रम शक्ति का मात्र 25 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। 1929 में यह संख्‍या बढ़कर 28 प्रतिशत, 1940 में 41 प्रतिशत और 1950 में 45 प्रतिशत हो गयी। इस उपलब्धि को इस तथ्‍य की रोशनी में देखा जाना चाहिए कि केवल 1913 से 1937 के बीच उद्योगों में आठ गुना वृद्धि हुई थी और इसके साथ ही, ज़ाहिरा तौर पर कुल औद्योगिक श्रम-शक्ति भी बढ़ गयी थी। संचार सेवाओं, जन भोजनालयों, जन स्‍वास्‍थ्‍य और शिक्षा के क्षेत्र में स्त्रियों का अनुपात विशेष रूप से अधिक था, लेकिन धातुकर्म, मशीन निर्माण, खदान और निर्माण उद्योगों में उनका प्रतिशत अनुपात लगातार बढ़ती भागीदारी के बावजूद पुरुषों से कम था। लेकिन जब तक सोवियत संघ में समाजवाद क़ायम था, यह स्थिति लगातार तेजी से बदलती जा रही थी। 1957 में उद्योगों में कार्यरत कुल तकनीशियनों में 59 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं।

सोवियत क्रान्ति ने स्त्रियों को जब मताधिकार दिया, उस समय दुनिया के उन्‍नत बुर्जुआ जनवादी देशों की स्त्रियों को भी यह हक़ हासिल नहीं था। ब्रिटेन की स्त्रियों को यह हक 1928 में जाकर हासिल हुआ। क्रान्ति के ठीक एक माह बाद सिविल मैरिज की व्‍यवस्‍था और तलाक को सुगम बनाने के लिए दो आज्ञप्तियाँ जारी की गयीं। फिर अक्‍टूबर, 1918 में विवाह, परिवार और बच्‍चों के अभिभावकत्‍व जैसे सभी पक्षों को समेटते हुए एक ऐतिहासिक मैरिज कोड की अभिपुष्टि की गयी।  इस कोड ने जेण्‍डर समानता और व्‍यक्तिगत अधिकारों के नये सिद्धान्‍त के रूप में पहली बार स्त्रियों को वे अधिकार दिये जो दुनिया का कोई भी बुर्जुआ जनवादी देश आज तक नहीं दे पाया है। विवाह, सहजीवन और तलाक के मामलों में राज्‍य, समाज और धर्म के हस्‍तक्षेप को पूरी तरह समाप्‍त कर दिया। यौन-सम्‍बन्‍धों के मामले में भी राज्‍य और समाज का कोई हस्‍तक्षेप नहीं था, जब तक कि किसी को चोट पहुँचाने, ज़ोर-जबर्दस्‍ती या धोखा देने जैसा कोई मामला न हो। समलैंगिकता और रज़ामन्‍दी से किये जाने वाले यौन-क्रियाकलापों के विरुद्ध पहले के सभी क़ानूनों को समाप्‍त कर दिया गया। इसके पीछे यह कम्‍युनिस्‍ट सोच थी कि वर्ग समाज के विकृतिकारी सांस्‍कृतिक-आत्मिक प्रभावों से पैदा होने वाले हर तरह के विचलनशील यौन-व्‍यवहार को क़ानून के बाह्य दबाव से नहीं बल्कि नये सामाजिक ढाँचे के गठन और वैचारिक-सांस्‍कृतिक कार्यों के द्वारा ही समाप्‍त किया जा सकता है। इसी तरह वेश्‍यावृत्ति को अपराध मानने वाले क़ानूनों को भी इस कम्‍युनिस्‍ट सोच के तहत रद्द कर दिया गया कि स्‍त्री को समान अधिकार और स्‍वतंत्र सामाजिक-आर्थिक हैसियत देने के बाद वर्ग समाज की इस प्राचीनतम बुराई का भी समूल नाश हो जायेगा। आने वाले वर्षों ने इस सोच को सही साबित किया। 1930 के दशक के मध्‍य तक सोवियत संघ से वेश्‍यावृत्ति, यौन रोगों और यौन अपराधों का पूरी तरह से ख़ात्‍मा हो चुका था।

क्रान्ति-पश्‍चात् काल में, यानी साम्राज्‍यवादी हमले, घेरेबन्‍दी और गृहयुद्ध के पूरे दौर में स्‍त्री बोल्‍शेविकों ने युद्ध, उत्‍पादन, शिक्षा और स्‍वास्‍‍थ्‍य के मोर्चों पर अहम भूमिका निभाने के साथ-साथ सुदूर रूसी गाँवों और इस्‍लामी धार्मिक रूढ़ि‍यों में जकड़े पूरब के सोवियत गणराज्‍यों तक पहुँचकर तमाम ख़तरों और कठिनाइयों का सामना करते हुए स्त्रियों के बीच शिक्षा एवं प्रचार का काम किया। 1920 तक अगर रूढि़यों-वर्जनाओं की सभी बेड़ि‍यों को तोड़ते हुए 80,000 से भी अधिक स्त्रियाँ लाल सेना में भरती हो गयीं, तो इसमें स्त्री बोल्‍शेविकों के श्रमसाध्‍य प्रयासों की भी एक महती भूमिका थी। इन वीरांगनाओं की क़ुर्बानी का अनुमान महज इस एक तथ्‍य से लगाया जा सकता है कि गृहयुद्ध के दौरान और उसके बाद के दो वर्षों के दौरान जब पूरा देश (विशेषकर दक्षिणी और पश्चिमी भाग) अकाल, भुखमरी और बीमारियों से जूझ रहा था तो इस दौरान तेरह प्रतिशत स्‍त्री बोल्‍शेविक कार्यकर्ता आम जनता के बीच काम करते हुए कुपोषण और संक्रामक बीमारियों से मौत का शिकार हो गयीं। यही समय था जब देश के दक्षिणी और पश्चिमी इलाक़ों में तीन वर्ष से कम आयु के 90 प्रतिशत बच्‍चे मौत के ग्रास बन गये। 1922 में देश में अनाथ बच्‍चों की संख्‍या 75 लाख थी। सरकार 1918 से 16 वर्ष से कम उम्र के सभी बच्‍चों के लिए मुफ़्त भोजन और आवास का प्रबन्‍ध कर रही थी। 1918 के फै़मिली कोड के एक प्रावधान द्वारा अनाथ बच्‍चों को गोद लेने पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया गया था क्‍योंकि किसानों के बीच एक घिनौना चलन था कि सस्‍ते श्रम के स्रोत के रूप में इस्‍तेमाल करने के लिए अनाथों और ग़रीब परिवार के बच्‍चों को गोद ले लिया जाता था। सभी बच्‍चे राज्‍य के बच्‍चे हैं, जिनमें अनाथ बच्‍चे भी शामिल हैं1919 में बचपन संरक्षण के प्रश्‍न पर हुई अखिल रूसी कांग्रेस ने यह प्रस्‍ताव पारित किया था।

गृहयुद्ध के दौरान जन समुदाय की लामबन्‍दी के लिए बोल्‍शेविकों ने ‘युद्ध कम्‍युनिज्‍़म’ की नीतियाँ अपनायीं थीं, जिनमें राजकीय राशनिंग, सार्वजनिक भोजनालय, बच्‍चों के लिए मुफ़्त भोजन, जिंस के रूप में कर आदि प्रावधान शामिल थे। 1920 में मास्‍को की 93 प्रतिशत आबादी सार्वजनिक कैफेटेरिया में भोजन करती थी। पेत्रोग्राद में 10 लाख लोग इस सेवा का लाभ उठाते थे। हालाँकि उन्‍नत स्‍तर की सामुदायिकता के ये रूप, आपातकालीन स्थितियों में, वक्‍त से पहले अपनाये गये थे, लेकिन सामाजिक जीवन और स्त्रियों की स्थिति पर इसका ज़बर्दस्‍त सामाजिक प्रभाव पड़ा। घरेलू कामों और बच्‍चों के लालन-पालन का समाजीकरण हो जाने से स्त्रियों को घरेलू जेल से मुक्ति मिली और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक गतिविधियों में पुरुषों के साथ बराबरी के हालात में उनकी शिरकत की ज़मीन तैयार हो गयी।

सरकार ने क्रान्ति के तत्‍काल बाद स्‍त्री मज़दूरों को सामाजिक-सांस्‍कृतिक सुविधाएँ और सामुदायिक सेवाएँ देने के साथ-साथ उनके लिए शिक्षा एवं प्रशिक्षण के कार्यक्रमों की शुरुआत कर दी थी। 1918 के लेबर कोड के अन्‍तर्गत छोटे बच्‍चों की माँ स्‍त्री मज़दूरों को हर तीन घण्‍टे पर बच्‍चे को दूध पिलाने के लिए 30 मिनट का अवकाश दिया जाता था जिसे काम के घण्‍टों में ही गिना जाता था। गर्भवती स्त्रियों और छोटे बच्‍चों की माँओं को रात की पाली में काम नहीं करना होता था। उनको ओवरटाइम करने से भी छूट थी। 1918 में ‘मातृत्‍व बीमा कार्यक्रम’ लागू हुआ, जिसके अन्‍तर्गत स्‍त्री मज़दूरों के लिए पूर्णत: सवै‍तनिक आठ सप्‍ताह के मातृत्‍व अवकाश, फैक्‍ट्री में काम के दौरान बच्‍चे की देखरेख और आराम के लिए ब्रेक्‍स की सुविधा, प्रसव-पूर्व और पश्‍चात डाक्‍टरी देखभाल के लिए नि:शुल्‍क सुविधा और नक़दी भत्‍तों की व्‍यवस्‍था की गयी थी। गृहयुद्ध के कठिन दिनों में ही कार्यस्‍थलों पर पालनाघरों और नर्सरियों के साथ ही मैटर्निटी क्‍लीनिकों, परामर्श केन्‍द्रों, फ़ीडिंग स्‍टेशनों तथा नवजात केन्‍द्रों के एक देशव्‍यापी नेटवर्क के निर्माण का काम शुरू हो गया था। ‘नयी आर्थिक नीति’ के वर्षों के दौरान इस काम की गति थोड़ी मन्‍थर रही। फिर सामूहिकीकरण और पंचवर्षीय योजना की शुरुआत के बाद यह मुहिम तेज गति से आगे बढ़ी। गृहयुद्ध से तबाह अर्थव्‍यवस्‍था को फिर से पटरी पर लाने और समाजवादी निर्माण की ज़मीन तैयार करने के लिए 1921 में जब ‘नयी आर्थिक नीति’ को लागू किया गया और कुछ समय के लिए योजनाबद्ध ढंग से पूँजीवाद को कुछ छूटें दी गयीं तो इसका सोवियत स्त्रियों की स्थिति पर कुछ तात्‍कालिक नकारात्‍मक प्रभाव पड़ा। सामुदायिक भोजनालयों और शिशुशालाओं आदि की व्‍यवस्‍था समाप्‍त हो गयी। स्त्रियों की बेरोज़गारी बढ़ी और उनकी बड़ी संख्‍या कपड़ा और छोटे उद्योगों में शोषणकारी परिस्थितियों में काम करने को मजबूर हो गयी। लेकिन इस गतिरोध और उलटाव पर 1927-28 तक पूर्ण नियंत्रण पा लिया गया और स्त्रियों की सामाजिक आज़ादी की मुहिम और तेज गति से आगे बढ़ चली। अब रजोनिवृत्ति के दिनों में स्त्रियों को सवैतनिक छुट्टी दी जाने लगी। सोवियत संघ ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश था।

पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान जब पूरे देश में खेती का सामूहिकीकरण हुआ, सामूहिक फार्मों का तेज़ गति से मशीनीकरण हुआ और ग्राम सोवियतों की व्‍यवस्‍था पूरे देश में फैल गयी तो कृषि उत्‍पादन में भारी वृद्धि के साथ ही गाँवों में स्त्रियों की स्थिति में भी क्रान्तिकारी बदलाव आये। ट्रैक्‍टर और हार्वेस्‍टर चलाने के साथ ही स्त्रियाँ सोवियतों के कामकाज में भी बराबरी से हिस्‍सा लेने लगीं। गाँवों की स्त्रियों में शिक्षा तेज़ी से बढ़ी। कारखानों के अतिरिक्‍त सामुदायिक भोजनालय, पालनाघर, नर्सरी आदि सामूहिक फार्मों में भी खुलने लगे और ग्रामीण स्त्रियाँ भी चूल्‍हे-चौखट की ग़ुलामी से मुक्‍त होने लगीं।

स्त्रियों की इस सामाजिक प्रगति को कुछ आँकड़ों के ज़रिए हम आसानी से जान-समझ सकते हैं। 1929 में सोवियत संघ में कुल स्‍त्री कामगारों की संख्‍या 30 लाख से कुछ अधिक थी। पाँच वर्षों में यह दोगुनी से भी अधिक बढ़कर 1934 में 70 लाख हो गयी। 1929 में कुल कामगारों में स्त्रियाँ 25 प्रतिशत से कुछ अधिक थीं। 1941 में ये बढ़कर 45 प्रतिशत हो गयीं। 1929 से 1941 के बीच बड़े उद्योगों में स्त्रियों की भागीदारी 30 प्रतिशत से बढ़कर 45 प्रतिशत, परिवहन में 10 प्रतिशत से बढ़कर 38 प्रतिशत, शिक्षा में 55 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 72 प्रतिशत और सार्वजनिक स्‍वास्‍थ्‍य सेवा में 65 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 78 प्रतिशत हो गयी। शिशुशालाएँ 1927 में 550 थीं जो 1938 में बढ़कर 7,23,651 हो गयीं। बाल विहारों की संख्‍या 1927 में 1,07,500 थी जो 1937-38 में बढ़कर 10,56,800 हो गयीं। 1940 में सोवियत सत्‍ता ने यह निर्देश जारी किया हर नये सामुदायिक आवास परियोजना में 5 प्रतिशत ज़मीन नर्सरी सुविधाओं के लिए आरक्षित रहेगी।

स्त्रियों की मुक्ति ने दूसरे विश्‍वयुद्ध के दौरान सोवियत संघ की विजय में अहम भूमिका निभायी। मुख्‍यत: उन्‍हीं की बदौलत युद्ध के कठिन दिनों में उत्‍पादन जारी रहा। 1941 के ठीक पहले उद्योगों में कुल श्रमशक्ति की 45 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं, जो 1942 तक 53 प्रतिशत हो गयीं। 1942 में रेल यातायात में 25 प्रतिशत, शिक्षा में 58 प्रतिशत और चिकित्‍सा में 83 प्रतिशत श्रमशक्ति स्त्रियों की लगी हुई थी। और सामुदायिक खेती तो मानो उन्‍हीं के कन्‍धों पर टिकी थी। युद्ध पूर्व वर्षों के मुक़ाबले युद्धकाल में स्‍त्री ट्रैक्‍टर चालकों की संख्‍या 11 गुना, स्‍त्री हॉर्वेस्‍टर ऑपरेटरों की संख्‍या 7 गुना और मशीन ट्रैक्‍टर स्‍टेशनों में कार्यरत स्त्रियों की संख्‍या 10 गुना बढ़ गयी। उत्‍पादन के मोर्चे के साथ ही नात्‍सी-विरोधी छापामार दस्‍तों में भी युवा स्त्रियों ने बड़े पैमाने पर भागीदारी की। युद्ध में 2 करोड़ 70 लाख लोगों को खोकर और बुरी तरह तबाह होने के बावजूद सोवियत संघ ने अगर फासिज्‍़म को नेस्‍तनाबूद कर दिया और अगर युद्ध पश्‍चात चन्‍द वर्षों के भीतर तूफ़ानी गति से पुनर्निर्माण करके फिर से उठ खड़ा हुआ तो इसके लिए मुख्‍यत: तीन चीज़ें जि़म्‍मेदार थीं : पहला, क्रान्ति द्वारा मुक्‍त हुए मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय की सामूहिक पहलकदमी और हर क़ीमत पर समाजवाद को बचाने की आकांक्षा, दूसरा, क्रान्ति के बाद व्‍यापक जन-भागीदारी से उत्‍पादन, विज्ञान और तकनोलॉजी का विकास, और तीसरा, समाजवाद द्वारा मुक्‍त हुईं स्त्रियों की अकूत सामूहिक शक्ति और सर्जनात्‍मकता का निर्बन्‍ध होना।

स्‍तालिन की मृत्‍यु के बाद सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के बावजूद, समाज में तृणमूल स्‍तर पर समाजवादी संस्‍थाएँ और मूल्‍य लम्‍बे समय तक बने रहे। ख्रुश्‍चेव और ब्रेझनेव काल से लेकर 1980 के दशक तक, आर्थिक संकट, राजनीतिक निरंकुश भ्रष्‍ट तंत्र और सामाजिक-सांस्‍कृतिक विकृतियों के बावजूद, जनता की पहलक़दमी पर स्‍थापित सोवियत संस्‍थाएँ समाज में नीचे के स्‍तरों तक बनी रहीं तथा स्‍त्री-उत्‍पीड़न और स्‍त्री-पुरुष असमानता के‍ नये रूपों के अस्तित्‍व में आने के बावजूद, स्त्रियों की वह सामाजिक प्रगति और स्‍वतंत्रता किसी हद तक सुरक्षित बची रह गयी थी, जो समाजवादी दौर की एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी। 1960 और 1970 के दशकों के दौरान विश्‍वविद्यालय स्‍तर की शिक्षा-प्राप्‍त स्त्रियों की संख्‍या सोवियत संघ में अमेरिका और फ्रांस से अधिक थी। 1971 में पैरामेडिकल क्षेत्र में कुल कार्यरत आबादी में 98 प्रतिशत, मेडिकल और राजकीय स्‍कूलों में 75 प्रतिशत और पुस्‍तकालयों में 90 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। स्त्रियों की जीवन-प्रत्‍याशा 1927 में 30 से बढ़कर 1974 में 74 हो चुकी थी।

क्रुप्‍सकाया ने एक बार कहा था कि समाजवाद का मतलब केवल विशालकाय कारखानों और सामूहिक फार्मों का निर्माण करना नहीं है, बल्कि सर्वोपरि तौर पर एक नये मनुष्‍य का निर्माण करना है। समाजवाद के चन्‍द दशकों ने ही इस धारण को मूर्त रूप में ढाल दिया था। गृहयुद्ध, अकाल और भुखमरी के तीन वर्षों के बीतने के साथ ही रूस और सोवियत संघ के सभी गणराज्‍यों में सांस्‍कृतिक संस्‍थाओं और माध्‍यमों का अभूतपूर्व स्‍तर पर विस्‍तार होने लगा। सिर्फ़ राजधानियों और शहरों में ही नहीं, कारखानों और सामूहिक फार्मों तक में रंगशालाएँ, सिनेमाघर, पुस्‍तकालय, सभागार, संगीत-नाटक आदि के प्रशिक्षण केन्‍द्र स्‍थापित होने लगे। आम लोगों को इतने बड़े पैमाने पर नि:शुल्‍क सांस्‍कृतिक संसाधन कभी नहीं मुहैया कराये गये थे। पुस्‍तकों और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से लेकर फिल्‍म, संगीत, कला आदि सभी सांस्‍कृतिक उत्‍पादन समाजवादी राज्‍य द्वारा वित्‍तपोषित होते थे। ज्ञान, कला और संस्‍कृति तक इस आम पहुँच की बदौलत आम मज़दूरों के बीच से सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों-हजार लेखक और कलाकार उभरकर सामने आये। साहित्‍य-कला-थियेटर-सिनेमा-संगीत आदि का न सिर्फ़ पूरे समाज में क्षैतिज (हॉरिजेण्‍टल) विस्‍तार हुआ, बल्कि इन सभी क्षेत्रों में अतुलनीय ऊर्ध्‍वाधर (वर्टिकल) प्रगति भी हुई। साहित्‍य के क्षेत्र में फ़देयेव, फेदिन, शोलोखोव, अलेक्‍सेई तोल्‍स्‍तोय आदि ने गोर्की की परम्‍परा को आगे विस्‍तार दिया। साहित्‍य-सैद्धान्तिकी के क्षेत्र में लुनाचार्स्‍की के बाद मिख़ाइल लिफ्शित्‍ज़, मार्क रोजे़न्‍थाल, वोरोन्‍स्‍की, वोरोव्‍स्‍की आदि ने तथा भाषा शास्‍त्र के क्षेत्र में वोलोशिनोव ने महत्‍वपूर्ण काम किये और कई ऐतिहासिक वाद-विवाद हुए। रंग-सैद्धान्तिकी के क्षेत्र में स्‍तानिस्‍लाव्‍स्‍की के साथ ही दूसरे ध्रुवान्‍त पर खड़े मेयरहोल्‍ड और वाख्‍तांगोव ने महत्‍वपूर्ण काम किये। सिनेमा के क्षेत्र में मोंताज के सिद्धान्‍त को आइजेंस्‍ताइन और पुदोवकिन ने अलग-अलग ढंग से विकसित किया। डॉक्‍युमेण्‍ट्री सिनेमा के क्षेत्र में द्ज़ीगा वेर्तोव का काम आज भी मील का पत्‍थर माना जाता है। सोवियत संघ में सर्वहारा संगीत के लोकप्रिय रूपों के साथ ही शास्‍त्रीय रूपों को विकसित करने में शास्‍ताकोविच तथा कुछ अन्‍य ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। इसमें सन्‍देह नहीं कि 1930 के दशक के उत्‍तरार्द्ध से लेकर 1940 के दशक के अन्‍त तक सोवियत संघ में साहित्‍य-कला के क्षेत्र में कुछ ऐसी यांत्रिक भौतिकवादी प्रवृत्तियाँ (जिनका घनीभूत रूप ज्‍़दानोव डॉक्ट्रिन – 1946था) हावी थीं, जिन्‍होंने एक दौर में समाजवादी प्रयोगशील सर्जनात्‍मकता की राह में कुछ अड़चनें भी खड़ी कीं और इस भटकाव ने आइजेंस्‍ताइन, मेयेरहोल्‍ड, वाख्‍तांगोव, शास्‍ताकोविच आदि के सामने गम्‍भीर समस्‍याएँ भी खड़ी कीं। इस तथ्‍य का इस्‍तेमाल बुर्जुआ वर्ग के भाड़े के बुद्धिजीवी तरह-तरह से समाजवाद पर कीचड़ उछालने के लिए करते हैं। बेशक यह समाजवाद की बुनियादी समस्‍या का ही एक पहलू था, पर यह पूरे साहित्यिक-कलात्‍मक परिदृश्‍य का मुख्‍य पहलू कत्‍तई नहीं, न ही इसके चलते समाजवाद की सांस्‍कृतिक उपलब्धियों और कलात्‍मक प्रयोगों की ऐतिहासिक महत्‍ता किसी तरह से कम होती है।

अक्‍टूबर क्रान्ति और उत्‍तरवर्ती समाजवादी क्रान्ति की युगान्‍तरकारी, अभूतपूर्व और विस्‍मयकारी उपलब्धियों की चर्चा के बाद यह यक्ष प्रश्‍न और विकट होकर किसी सामान्‍य अध्‍येता के समक्ष खड़ा हो जाता है कि तब फिर इतनी महान क्रान्ति किन आन्‍तरिक अन्‍तरविरोधों के कारण, किन कमजोरियों और ग़लतियों के कारण, किन प्रश्‍नों का उत्‍तर न ढूँढ़ पाने के कारण, या यूँ कहें कि किन मनोगत और वस्‍तुगत कारणों से गतिरोध, विघटन और पराजय का शिकार हुई? जिस समाजवादी सत्ता ने गृहयुद्ध और चौदह साम्राज्‍यवादी देशों के आक्रमण को भी नाकाम कर दिया था, जिसने अकेले ही पूरे यूरोप को बूटों तले रौंद रहे नात्सियों को धूल में मिला दिया था और चन्‍द वर्षों के भीतर विनाश की राख से फीनिक्‍स पक्षी की तरह उठकर फिर से उन्‍नति के नये सोपानों को चढ़ना शुरू कर दिया था, वह फिर बिना किसी सामरिक हमले के ही कैसे ध्‍वस्‍त हो गयी?

इतिहास में क्रान्तियों की सफलता के साथ क्रान्तियों की विफलता या पराजय को भी द्वन्‍द्वात्‍मक भौतिकवादी पहुँच और पद्धति से ही समझा जा सकता है। पहले हम चर्चा कर चुके हैं कि ऐतिहासिक प्रगति का मार्ग सीधे आगे नहीं जाता। उसका प्रगति-पथ कुण्‍डलाकार होता है और उसकी गति इतिहास के सापेक्षत: छोटे-छोटे कालखण्‍डों में आगे-पीछे होते हुए चलती है। क्रान्ति का प्रतिक्रान्ति और विपर्यय के साथ द्वन्‍द्वात्‍मक सम्‍बन्‍ध होता है और उसकी निर्णायक विजय के पूर्व प्रतिक्रान्ति और विपर्यय की शक्तियों के विजय के दौर भी प्राय: आते रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि समाजवादी क्रान्ति चूँकि सिर्फ़ बुर्जुआ समाज के विरुद्ध न होकर सहस्‍त्राब्दियों लम्‍बे समूचे वर्ग-समाज के विरुद्ध लक्षित होती है, इसलिए यह सर्वाधिक आमूलगामी और दीर्घकालिक क्रान्ति होती है। यह वर्ग समाज और वर्ग विहीन समाज के बीच एक लम्‍बे संक्रमण काल के दौरान जारी रहने वाली विश्‍व-क्रान्ति होती है। अलग-अलग देशों में जारी सर्वहारा क्रान्तियाँ इसी विश्‍व क्रान्ति की कड़ी होती हैं। विश्‍व क्रान्ति की इस यात्रा में व्‍यतिक्रम और विपर्यय होते ही हैं। वर्ग समाज के सहस्‍त्राब्दियों लम्‍बे शोषण-शासन के अनुभव से लैस बुर्जुआ समाज से सर्वहारा क्रान्ति के पहले संस्‍करणों की पराजय ऐतिहासिक दृष्टि से आश्‍चर्य की चीज़ नहीं है। लेकिन सिर्फ़ इतनी ही बात करके हम समाजवाद की पराजय के ठोस कारणों को नहीं जान सकते और उन ठोस नतीजों तक नहीं पहुँच सकते कि अब अक्‍टूबर क्रान्ति के नये संस्‍करण के निर्माण का रास्‍ता क्‍या होगा तथा किन ग़लतियों से बचते हुए, किस कार्य दिशा को अपनाकर समाजवाद को कम्‍युनिज़्म की दिशा में आगे ले जाया जा सकता है। विश्‍लेषण के मार्क्‍सवादी उपकरणों की अधकचरी समझ, समाजवादी समाज की प्रकृति एवं राजनीतिक आर्थिकी की नासमझी या ऐतिहासिक तथ्‍यों की नाजानकारी के चलते इन दिनों तमाम नौबढ़ कम्‍युनिस्‍ट संगठन और व्‍यक्ति तथा भाँति-भाँति के अकादमिक मार्क्‍सवादी समाजवाद की पराजय पर तरह-तरह की थीसिसें दे रहे हैं और मार्क्‍सवादी क्‍लासिक्‍स की पतवार फेंककर अटकलपच्‍चू ”मुक्‍त चिन्‍तन” करते हुए तरह-तरह के नीमहक़ीमी नुस्‍खे सुझा रहे हैं। कोई सारी गड़बडि़यों के लिए स्‍तालिन की ”निरंकुशता” को दोषी ठहराते हुए ख्रुश्‍चोव और गोर्बाचोव की तरह सोच रहा है और ऐतिहासिक तथ्‍यों की ऐसी-तैसी कर रहा है। कोई कह रहा है कि लेनिनवादी या बोल्‍शेविक टाइप पार्टी होनी ही नहीं चाहिए, ऐसी पार्टी वर्ग की जगह पार्टी का अधिनायकत्‍व लागू कर देती है। कुल मिलाकर, मार्क्‍स-एंगेल्‍स-लेनिन-स्‍तालिन-माओ के जिन सिद्धान्‍तों पर समाजवादी प्रयोग दशकों तक चलते रहे, उन्‍हें खारिज करते हुए उन लुगदी सिद्धान्‍तों को इतिहास की कचरा-पेटी से निकालकर प्रस्‍तुत किया जा रहा है, जो व्‍यवहार में कहीं लागू ही नहीं हो सके। कोई अक्‍सेलरोद और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ से लेकर ‘काउन्सिल कम्‍युनिज्‍़म तक की अराजकतावादी संघाधिपत्‍यवादी खिचड़ी पका रहा है तो कोई सामाजिक जनवाद और संशोधनवाद के दर्जनों नये-पुराने रूपों का घोल-मट्ठा कर रहा है। इसलिए यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि समाजवादी समाज की प्रकृति और अन्‍तरविरोधों को समझते हुए समाजवादी की समस्‍याओं और पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के कारणों को समझने की कोशिश की जाये। तो आइये, यही करें!

3. समाजवाद की समस्‍याएँ और सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के बुनियादी कारण

सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के बुनियादी कारणों की और वर्तमान विश्‍व-ऐतिहासिक विपर्यय की सुस्‍पष्‍ट और सम्‍यक समझदारी सिर्फ़ तभी बन सकती है जब हम यह जान लें कि समाजवादी समाज की सामाजिक-आर्थिक संरचना कैसी होती है, इसकी बुनियादी अभिलाक्षणिकताएँ क्‍या होती हैं और इसके विकास के नियम क्‍या होते हैं।

पहली बात यह स्‍पष्‍ट होनी चाहिए कि समाजवाद एक स्‍थायी और समेकित सामाजिक-आर्थिक संरचना है ही नहीं। मार्क्‍स-एंगेल्‍स, लेनिन और माओ ने बार-बार इस बात को स्‍पष्‍ट किया है कि यह पूँजीवाद और वर्ग-विहीन समाज के बीच का एक लम्‍बा संक्रमण काल है जिस दौरान समाज में वर्ग मौजूद रहते हैं, वर्ग संघर्ष जारी रहता है और लम्‍बे समय तक इतिहास की धारा के उलट जाने का ख़तरा भी बना रहता है। समाजवादी समाज में भी बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष, विविध रूपों में, निरन्‍तर जारी रहता है। फ़र्क यह होता है कि बुर्जुआ समाज में यह संघर्ष बुर्जुआ अधिनायकत्‍व के अन्‍तर्गत जारी रहता है, जबकि समाजवादी समाज में यह सर्वहारा अधिनायकत्‍व के अन्‍तर्गत जारी रहता है। मानव इतिहास में सर्वहारा क्रान्तियाँ पहली ऐसी क्रान्तियाँ हैं जिनका लक्ष्‍य, विलोपीकरण की प्रक्रिया से वर्ग और राज्‍य को समाप्‍त करके, वर्गविहीन-शोषणविहीन समाज बनाना है। सर्वहारा वर्ग का संघर्ष सिर्फ़ बुर्जुआ वर्ग और उसकी संस्‍कृति के विरुद्ध ही नहीं, बल्कि सभी शोषण वर्गों, सभी वर्गीय प्रवृत्तियों और हजारों वर्षों से क़ायम सभी वर्गीय आदतों और संस्‍कृति से है। समाजवाद का लक्ष्‍य समाज की वर्गीय संरचना को ही समाप्‍त करके कम्‍युनिज़्म की अवस्‍था में संतरण करना होता है। इस बात को अगर गहराई में उतरकर समझ लिया जाये तो समाजवाद की दीर्घकालिक अवधि के दौरान वर्ग संघर्ष की निरन्‍तरता, सतत् क्रान्ति की आवश्‍यकता और हार-जीत के चढ़ावों-उतारों की सम्‍भावनाओं को आसानी से समझा जा सकता है।

1850 में ही मार्क्‍स ने अपनी क्‍लासिकी कृति फ्रांस में वर्ग संघर्ष 1848-50 में स्‍पष्‍ट कर दिया था कि, यह समाजवाद क्रान्ति के स्‍थायित्‍व की घोषणा है, यह आम तौर पर वर्गविभेदों के उन्‍मूलन और जिन उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों पर ये वर्ग-विभेद आधारित हैं, उनके उन्‍मूलन तथा इन उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों के अनुरूप सभी सामाजिक सम्‍बन्‍धों के उन्‍मूलन और इन सामाजिक सम्‍बन्‍धों से पैदा हुए सभी विचारों के क्रान्तिकारीकरण के आवश्‍यक संक्रमण-बिन्‍दु के रूप में सर्वहारा का वर्ग-अधिनायकत्‍व है। पुन: 1875 में गोथा कार्यक्रम की आलोचना में उन्‍होंने लिखा : पूँजीवादी और कम्‍युनिस्‍ट समाज के बीच एक के दूसरे में क्रान्तिकारी रूपान्‍तरण का काल मौजूद रहता है, जिस दौरान राज्‍य केवल सर्वहारा का क्रान्तिकारी अधिनायकत्‍व ही हो सकता है। सर्वहारा अधिनायकत्‍व की मौजूदगी का मतलब ही है कि शत्रु वर्ग अगर मौजूद है तो ज़ाहिर है कि वह पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना की कोशिशें भी जारी रखेगा। वर्ग संघर्ष यदि जारी है तो उसमें सर्वहारा पक्ष की पराजय की सम्‍भावना से भी इन्‍कार नहीं किया जा सकता। लेनिन यह स्‍पष्‍ट लिखते हैं : सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्‍व वर्ग संघर्ष की समाप्ति नहीं, बल्कि इसका नये रूपों में जारी रहना है। सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्‍व एक ऐसे सर्वहारा वर्ग द्वारा चलाया जाने वाला वर्ग-संघर्ष है जो विजयी हुआ है और जिसने ऐसे पूँजीपति वर्ग के ख़ि‍लाफ़ राजनीतिक सत्‍ता अपने हाथों में ले ली है जो पराजित हुआ है पर नष्‍ट नहीं हुआ है, ऐसा पूँजीपति जो विलुप्‍त नहीं हुआ है, जिसने प्रतिरोध करना बन्‍द नहीं किया है, बल्कि अपने प्रतिरोध को तीव्र कर दिया है। (स्‍वतंत्रता और समानता के नारों के द्वारा जनता के साथ धोखाधड़ी नामक प्रकाशित भाषण की भूमिका)। इसी विषय पर अन्‍यत्र लेनिन ने लिखा है, पूँजीवाद से कम्‍युनिज़्म में संक्रमण एक पूरे ऐतिहासिक युग का प्रतिनिधित्‍व करता है। जब तक यह युग समाप्‍त नहीं हो जाता, तब तक शोषक पुनर्स्‍थापना की उम्‍मीद अनिवार्यत: पाले रहते हैं और यही उम्‍मीद पुनर्स्‍थापना के प्रयासों में बदल जाती है।आगे वे लिखते हैं, वर्गों का उन्‍मूलन एक लम्‍बे, कठिन और अटल वर्ग संघर्ष की माँग करता है जो पूँजी की सत्‍ता को उखाड़ फेंकने के बाद, बुर्जुआ राज्‍य के ध्‍वंस के बाद और सर्वहारा अधिनायकत्‍व के स्‍थापित हो जाने के बाद समाप्‍त नहीं हो जाता (जैसा कि पुराने समाजवाद और पुराने सामाजिक जनवाद के भोंड़े प्रतिनिधि कल्‍पना करते हैं), बल्कि केवल अपने रूप बदल लेता है और कई मायनों में तो अधिक प्रचण्‍ड हो जाता है। लेनिन ने स्‍पष्‍ट कहा था कि पूँजीवाद से कम्‍युनिज़्म में संक्रमण का काल अपरिहार्यत: अभू‍तपूर्व उग्र रूपों में जारी अभूतपूर्व हिंसात्‍मक वर्ग संघर्ष का काल है(‘राज्‍य और क्रान्ति)

सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के कारणों एवं परि‍स्थितियों के गहन अध्‍ययन तथा क्रान्ति के बाद चीन में पार्टी और राज्‍य में मौजूद पूँजीवादी पथगामियों से निरन्‍तर जारी दो लाइनों के संघर्ष के अनुभवों के आधार पर माओ ने 1962 में समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की मौजूदगी और पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के ख़तरों के बारे में स्‍पष्‍ट शब्‍दों में बताया था : समाजवादी समाज की काफ़ी लम्‍बी ऐतिहासिक अवधि होती है। समाजवाद की इस पूरी ऐतिहासिक अवधि में वर्ग, वर्ग-अन्‍तरविरोध और वर्ग संघर्ष मौजूद रहते हैं, समाजवादी रास्‍ते और पूँजीवादी रास्‍ते  के बीच वर्ग संघर्ष जारी रहता है और पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना का ख़तरा बना रहता है। हमें इस संघर्ष की दीर्घकालिक और जटिल प्रकृति को अवश्‍य पहचानना चाहिए। हमें अपनी चौकसी को उन्‍नत करना चाहिए। हमें वर्ग-अन्‍तरविरोध और वर्ग संघर्ष को सही ढंग से समझना और संचालित करना चाहिए, हमें अपने और दुश्‍मन के बीच के अन्‍तरविरोधों और जनता के आपसी अन्‍तरविरोधों के बीच फ़र्क करना चाहिए और उन्‍हें सही ढंग से हल करना चाहिए। अन्‍यथा, हमारे देश जैसा एक समाजवादी देश अपने विपरीत में बदल जायेगा, और पतित हो जायेगा, और पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना हो जायेगी।

पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना के कारणों को गहराई में जाकर समझने के लिए जरूरी है कि समाजवादी समाज के बुनियादी आर्थिक ढाँचे, यानी उत्‍पादन सम्‍बन्‍धों और ऊपरी ढाँचे की आन्‍तरिक संरचना में मौजूद उन तत्‍वों और प्रक्रियाओं की हम एक स्‍पष्‍ट समझ बनायें जो इस दौर में वर्ग संघर्ष की दीर्घकालिक प्रकृति के कारक होते हैं।

उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों के तीन पहलू होते हैं : पहला, स्‍वामित्‍व का स्‍वरूप; दूसरा, उत्‍पादन में लोगों की भूमिका और उनके आपसी सम्‍बन्‍ध; और तीसरा, उत्‍पाद के वितरण का स्‍वरूप। सबसे पहले हम स्‍वामित्‍व की व्‍यवस्‍था को लें। सर्वहारा के हाथ में सत्‍ता आते ही निजी स्‍वामित्‍व का पूरी तरह से खात्‍मा नहीं हो जाता। समाजवादी सार्वजनिक स्‍वामित्‍व की प्रणाली के साथ-साथ लम्‍बे समय तक निजी स्‍वामित्‍व के छोटे-छोटे रूपों का अस्तित्‍व बना रहता है, श्रमशक्ति की प्रत्‍यक्ष ख़रीद-फ़रोख़्त पर रोक के बावजूद शोषण का अस्तित्‍व मौजूद रहता है, उद्योगों और कृषि में छोटी मिल्कियत क़ायम रहती है, सहकारी खेती का भी सारतत्‍व पूँजीवादी ही होता है तथा सुनिर्धारित बुर्जुआ हितों के उन्‍मूलन के बाद भी गाँवों और शहरों में व्‍यक्तिगत अर्थव्‍यवस्‍था के अवशेष क़ायम रहते हैं। इसीलिए लेनिन ने बार-बार बताया था कि पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना का ख़तरा केवल अपने खोये हुए ”स्‍वर्ग” की प्राप्ति के लिए प्रयासरत पुराने शोषक वर्गों की ओर से, बुर्जुआ वर्ग के अन्‍तरराष्‍ट्रीय सम्‍बन्‍धों की ओर से और अन्‍तरराष्‍ट्रीय पूँजी की शक्ति की ओर से ही नहीं बल्कि उन बुर्जुआ तत्‍वों और उस पूँजीवाद की ओर से भी है जो छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्‍पादन द्वारा प्रतिदिन, प्रति घण्‍टा, लगातार और स्‍वत:स्‍फूर्त  रूप से पैदा होता रहता है (विशेष रूप से, लेनिन : वामपंथी कम्‍युनिज़्म एक बचकाना मर्ज़‘, ‘सोवियत सरकार के फ़ौरी कार्यभार‘, ‘सर्वहारा अधिनायकत्‍व के युग में अर्थनीति और राजनीति‘) लेनिन ने 1921 में सर्वहारा अधिनायकत्‍व के तहत एक साथ पाँच सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं की मौजूदगी का उल्‍लेख किया था। स्‍वामित्‍व के प्रश्‍न पर चर्चा करते समय यह स्‍पष्‍टता भी बेहद ज़रूरी है कि सामूहिक स्‍वामित्‍व वाली आर्थिक इकाइयाँ (जैसे सामूहिक फॉर्म) समूची जनता की सम्‍पत्ति नहीं होतीं, वे सिर्फ़ उक्‍त सामूहिक उपक्रम के सदस्‍यों की सम्‍पत्ति होती हैं और वे माल का विनिमय करती हैं, जबकि राजकीय स्‍वामित्‍व वाली आर्थिक इकाइयाँ समूची जनता की सम्‍पत्ति होती हैं और वे वस्‍तुओं का विनिमय करती हैं। इस तरह, नियंत्रित और सीमित होते हुए भी समाजवाद के दौर में लम्‍बे समय तक माल का अस्तित्‍व बना रहता है। समाजवादी संक्रमण के जारी रहने की अनिवार्य शर्त है कि मेहनतकश जनता का छोटे पैमाने का समाजवादी सामूहिक स्‍वामित्‍व बड़े पैमाने के समाजवादी सामूहिक स्‍वामित्‍व के रूप में और फिर समाजवादी राजकीय स्‍वामित्‍व के रूप में रूपान्‍तरित होने की दिशा में लगातार विकसित हो।

किसी समाजवादी समाज में स्‍वामित्‍व का स्‍वरूप यदि पूरी तरह से राजकीय समाजवादी स्‍वामित्‍व का हो जाये, तब भी यदि उत्‍पादन-सम्‍बन्‍ध के शेष दो पहलू (यानी उत्‍पादन में लोगों की भूमिका और उनके आपसी सम्‍बन्‍ध तथा उत्‍पाद के वितरण का स्‍वरूप) साथ-साथ रूपान्‍तरित नहीं होते चलते हैं तो पूँजीवाद के फलने-फूलने की ज़मीन मौजूद रहेगी। स्‍वामित्‍व के वैधिक रूपों में परिवर्तन मात्र से उत्‍पादन-सम्‍बन्‍ध नहीं बदलते, जब तक कि विनियोग की सामाजिक प्रक्रिया के रूपों में परिवर्तन न आये, और उन स्थितियों में परिवर्तन न आये जो उत्‍पादन के अभिकर्ताओं के लिए यह प्रक्रिया तैयार करती है। समाजवादी सार्वजनिक स्‍वामित्‍व के निर्णायक रूप से स्‍थापित होने के बाद भी माल-अर्थव्‍यवस्‍था बनी रहती है, अन्‍तरवैयक्तिक असमानताएँ और बुर्जुआ अधिकार बने रहते हैं, मूल्‍य के नियम मौजूद रहते हैं, नये बुर्जुआ तत्‍वों के पैदा होने की ज़मीन मौजूद रहती है, वर्ग संघर्ष जारी रहता है और इस प्रकार पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना का वस्‍तुगत आधार मौजूद रहता है। पूँजीवादी उत्‍पादन सम्‍बन्‍धों और पूँजीपति और सर्वहारा की शत्रुतापूर्ण मौजूदगी के सफ़ाये के लिए केवल सम्‍पत्ति का राजकीयकरण या सामूहिकीकरण ही पर्याप्‍त नहीं हो सकता। इसके बाद भी पूँजीपति वर्ग भिन्‍न रूपों में मौजूद रह सकता है और विशेष तौर पर राजकीय पूँजीपति वर्ग के रूप में पैदा हो सकता है। सर्वहारा अधिनायकत्‍व की ऐतिहासिक भूमिका सिर्फ़ सम्‍पत्ति के रूपों में परिवर्तन लाना नहीं बल्कि विनि‍योग की सामाजिक प्रक्रिया का जटिल एवं दीर्घकालिक रूपान्‍तरण तथा इसके द्वारा पुराने उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों को नष्‍ट करके नये उत्‍पादन-सम्‍बन्‍ध बनाना और इस प्रकार, पूँजीवादी उत्‍पादन-प्रणाली से कम्‍युनिस्‍ट उत्‍पादन प्रणाली में संक्रमण को सुनिश्चित बनाना है।

इस बात को भी समझ लेना बेहद ज़रूरी है कि सम्‍पत्ति के राजकीयकरण का अर्थ सम्‍पत्ति का समाजीकरण नहीं होता। सम्‍पत्ति का राजकीयकरण निजी स्‍वामित्‍व का निषेध तो होता है लेकिन स्‍वामित्‍व की पूरी व्‍यवस्‍था का निषेध नहीं होता। राजकीयकरण की प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी अन्‍तरवैयक्तिक असमानता और बुर्जुआ अधिकार बने रहते हैं और उपभोग की सामग्री के वितरण के सन्‍दर्भ में राज्‍य की भूमिका बनी रहती है। समाजीकरण इसके आगे की मंज़ि‍ल है जब उत्‍पादन और उपभोक्‍ता सामग्री के वितरण को विनियमित करने में राज्‍य की भूमिका समाप्‍त हो जाती है। समाजीकरण की अवस्‍था ज़ाहिरा तौर पर उत्‍पादक शक्तियों के एक सुनिश्चित, उन्‍नत विकास की माँग करती है और इस विकास में सामाजिक चेतना और संस्‍कृति का अत्‍यधिक उन्‍नत होना भी शामिल है।

समाजवाद के उन्‍नत अवस्‍था में संक्रमण तथा सम्‍पत्ति के ज़्यादा से ज़्यादा समाजीकरण होते जाने के साथ, माल का अस्तित्‍व सीमित और नियन्त्रित होता हुआ विलोपन की दिशा में आगे बढ़ता जाता है। लेकिन जब तक माल का अस्तित्‍व बना रहता है, तब तक किसी न किसी रूप में बाज़ार और मूल्‍य के नियम काम करते रहते हैं। समाजवादी उत्‍पादन में अन्‍तरवैयक्तिक सम्‍बन्‍धों के सन्‍दर्भ में, किसान और मज़दूर के बीच, गाँव और शहर के बीच तथा बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच असमानता भी लम्‍बे समय तक बनी रहती है तथा ये असमानताएँ बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी के रूप में प्रतिबिम्बित होती हैं। समाजवादी समाज में श्रम के अनुसार उपभोक्‍ता सामग्री का वितरण भी एक बुर्जुआ अधिकार है जो तब तक मौजूद रहता है जब तक उत्‍पादक शक्तियाँ अति उत्‍पादन की मंज़ि‍ल तक और उत्‍पादन-सम्‍बन्‍ध अत्‍यधिक उन्‍नत स्‍तर तक विकसित न हो जायें। मार्क्‍स ने गोथा कार्यक्रम की आलोचना में बुर्जुआ अधिकारों को असमानता के अधिकार की संज्ञा दी है। एंगेल्‍स ने भी ड्यूहरिंग मत खण्‍डन में इसकी विस्‍तृत विवेचना की है। लेनिन ने राज्‍य और क्रान्ति में बताया है कि समाजवादी समाज में उपभोग की सामग्रियों के वितरण के सन्‍दर्भ में बुर्जुआ अधिकार की मौजूदगी का मतलब बुर्जुआ वर्ग के बगै़र बुर्जुआ राज्‍य की मौजूदगी है। आगे एक महान शुरुआत(1919) नामक अपने सुप्रसिद्ध निबन्‍ध में लेनिन लिखते हैं : वर्गों को पूरी तरह समाप्‍त करने के लिए काफी नहीं है कि शोषकों, भूस्‍वामियों और पूँजीपतियों की सत्‍ता उखाड़ फेंकी जाये, यही काफी नहीं है कि उनके स्‍वामित्‍व के अधिकार छीन लिये जायें, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि उत्‍पादन के साधनों के सभी निजी स्‍वामित्‍व को समाप्‍त कर दिया जाये और यह भी ज़रूरी है कि गाँव और शहर के बीच, तथा शारीरिक और बौद्धिक मज़दूर के बीच के भेद को भी समाप्‍त कर दिया जाये। यह काफी लम्‍बे समय की माँग करता है।चीन में समाजवाद की समस्‍याओं के बारे में चर्चा करते हुए माओ ने भी लेनिन के बुर्जुआ अधिकार विषयक विचारों का उल्‍लेख किया है और लिखा है : हमने खुद ऐसा एक राज्‍य खड़ा किया है जो पुराने राज्‍य से बहुत भिन्‍न नहीं है। यहाँ रैंक और ग्रेड हैं, वेतन के आठ ग्रेड हैं, काम के अनुसार वितरण है और बराबर मूल्‍यों का विनिमय है। ज़ाहिर है कि ये बुर्जुआ अधिकार समाजवादी संक्रमण के दौरान नये बुर्जुआ वर्ग के फलने-फूलने की ज़मीन का काम करते हैं।

उत्‍पादन-सम्‍बन्‍धों के समाजवादी रूपान्‍तरण की जटिलताओं की चर्चा के बाद अब हम अधिरचना के सवाल पर आते हैं। मार्क्‍सवाद की यह सुस्‍पष्‍ट प्रस्‍थापना है कि किसी भी समाज की अधिरचना समग्रता में आर्थिक मूलाधार के अनुरूप होती है, लेकिन दोनों में पूर्णत: समरूपता या समानुपातिकता नहीं होती। दोनों में अन्‍तरविरोध मौजूद रहते हैं और आर्थिक मूलाधार के बदलने के साथ ही पुरानी अधिरचना बदल नहीं जाती। वह लम्‍बे समय तक नये आर्थिक मूलाधार से टकराती हुई मौजूद रहती है और पुराने आर्थिक मूलाधार की फिर से बहाली में एक महत्‍वपूर्ण भूमिका भी निभा सकती है। समाजवादी समाज में राजनीति से लेकिर संस्‍कृति तक विभिन्‍न धरातलों पर बुर्जुआ विचारधारा मौजूद रहती है, बुर्जुआ संस्‍कृति और मूल्‍य-मान्‍यताएँ-संस्‍कृति मौजूद रहती हैं, जनता के बीच पुराने वर्ग समाज की आदतें-प्रवृत्तियाँ मौजूद रहती हैं, राज्‍य के संगठन में बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि मौजूद रहते हैं और नौकरशाहाना कार्यशैलियों के विविध रूप मौजूद रहते हैं। समाज में वर्ग, वर्ग-अन्‍तरविरोधों और वर्ग-संघर्ष की मौजूदगी सर्वहारा वर्ग की पार्टी को और राज्‍य को निरन्‍तर प्रभावित करती रहती है, और पार्टी में तथा समाजवाद की राज्‍य मशीनरी में बुर्जुआ तत्‍व, बुर्जुआ विचारधारा और बुर्जुआ लाइनें निरन्‍तर नाना सूक्ष्‍म और प्रच्‍छन्‍न रूपों में मौजूद रहती हैं, और समय-समय पर निर्णायक संघर्ष की स्थिति पैदा करती रहती हैं। पार्टी के भीतर बुर्जुआ हेडक्‍वार्टर क़ायम होते रहते हैं और यदि इनके विरुद्ध विचारधारात्‍मक वर्ग-संघर्ष न चलाया जाये तो सर्वहारा वर्ग की पार्टी के बुर्जुआ वर्ग की पार्टी बन जाने की, तथा सर्वहारा अधिनायकत्‍व के बुर्जुआ अधिनायकत्‍व में बदल जाने की प्रबल सम्‍भावना बनी रहती है। कुल मिलाकर, अपने खोये हुए “स्वर्ग” की प्राप्ति के लिए प्रयासरत पुराने शासक वर्गों को मदद पहुँचाने के साथ ही समाजवादी संक्रमण के दौरान अधिरचना के क्षेत्र में मौजूद बुर्जुआ अवयव पार्टी कार्यकर्ताओं, राज्य के कर्मचारियों और मज़दूर वर्ग के बीच से नये बुर्जुआ वर्ग के पैदा होने की ज़मीन और माहौल तैयार करते रहते हैं तथा इस संक्रमण-अवधि के दौरान मौजूद पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली को बल प्रदान करते रहते हैं। इसीलिए कार्ल मार्क्स ने पूँजीवादी सामाजिक सम्बन्धों के अनुरूप मौजूद सभी विचारों के क्रान्तिकारीकरण को समाजवाद की एक अभिलाक्षणिकता बताया था। लेनिन ने समाजवादी समाज में मज़दूर वर्ग और आम जनता को भ्रष्ट करने वाले सभी विचारों और पुरानी आदतों के विरुद्ध लगातार संघर्ष की बात की थी और माओ ने सर्वहारा वर्ग का सर्वतोमुखी अधिनायकत्व लागू करते हुए उत्पादन-सम्बन्धों को बदलते जाने के साथ ही अधिरचना के क्षेत्र में भी सतत् क्रान्ति चलाते रहने को अनिवार्यतः आवश्यक बताया था। माओ त्से-तुङ ने सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोग और फिर संशोधनवादी ख्रुश्चेव के नेतृत्व में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के अध्ययन और समाहार तथा चीन में समाजवादी संक्रमण के अनुभवों के आधार पर यह स्पष्ट सूत्रीकरण पेश किया कि बुर्जुआ समाज से प्रकृति और स्वरूप की भिन्नता के बावजूद, उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच का अन्तरविरोध, तथा मूलाधार और अधिरचना के बीच का अन्तरविरोध ही समाजवादी समाज के भी बुनियादी अन्तरविरोध हैं और ये अन्तरविरोध सर्वहारा वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के बीच अन्तरविरोध और संघर्ष के रूप में अभिव्यक्त होते रहते हैं। सर्वहारा अधिनायकत्व बुर्जुआ वर्ग, बुर्जुआ अधिकार और बुर्जुआ उत्पादन सम्बन्धों को लगातार नियंत्रित और सीमित करता है तथा बुर्जुआ विचारों-मूल्यों-संस्कृति और संस्थाओं के विरुद्ध लगातार संघर्ष चलाता है। समाजवादी समाज में बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि छद्मवेषी कम्युनिस्ट तत्वों के रूप में लगातार पार्टी के भीतर ‘बुर्जुआ हेडक्वार्टर’ बनाते रहते हैं और समाजवादी संक्रमण को उल्टी दिशा में मोड़ने के लिए सही लाइन के विरुद्ध संघर्ष चलाते रहते हैं। वे समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की अग्रवर्ती निरन्तरता को रोक देना चाहते हैं, सर्वहारा अधिनायकत्व को बुर्जुआ अधिनायकत्व में बदल देना चाहते हैं और पूँजीवादी की पुनर्स्थापना कर देना चाहते हैं।

समाजवादी समाज की प्रकृति और वर्ग-अन्तरविरोधों की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद इस ऐतिहासिक त्रासदी को आसानी से समझा जा सकता है कि इतिहास की इतनी महान क्रान्ति की इतनी महती उपलब्धियों के बाद भी सोवियत संघ में ऐतिहासिक विपर्यय क्यों हुआ! बेशक, स्तालिन काल में उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व का ख़ात्मा वर्ग समाज के पूरे इतिहास का एक अभूतपूर्व क़दम था। समाजवादी नियोजन का अमली रूप भी इतिहास में पहली बार सोवियत संघ में ही सामने आया। समाजवाद के इन प्रारम्भिक क़दमों ने आम जन समुदाय की अकूत ऊर्जा, पहलक़दमी और सर्जनात्मकता को निर्बन्ध किया और सोवियत संघ की चमत्कारी प्रगति का यही बुनियादी कारण था। लेकिन स्तालिन की सर्वाधिक गम्भीर सैद्धान्तिक ग़लती यह थी कि उन्होंने निजी स्वामित्व के ख़ात्मे को ही निर्णायक तौर पर पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों का ख़ात्मा और समाजवादी उत्पादन-सम्बन्धों की स्थापना मान लिया। ऊपर हम चर्चा कर चुके हैं कि उत्पादन-सम्बन्धों के तीन पहलू होते हैं : स्वामित्व का स्वरूप, उत्पादन में लोगों की भूमिका और उनके आपसी सम्बन्ध तथा उत्पाद के वितरण का स्वरूप। निजी स्वामित्व के ख़ात्मे के बाद भी यदि अन्य दो पहलुओं के सतत् रूपान्तरण पर सर्वहारा सत्ता सचेतन तौर पर ध्यान नहीं देगी तो समाज में बुर्जुआ अधिकार और अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ न केवल बनी रहेंगी, बल्कि विविध रूपों में मज़बूत भी होती रहेंगी। हम ऊपर यह स्पष्ट कर चुके हैं कि स्वामित्व के वैधिक रूपों में परिवर्तन मात्र ही वर्गों व वर्ग संघर्ष की मौजूदगी की परिस्थितियों को समाप्त नहीं कर देता और ये परिस्थितियाँ उत्पादन सम्बन्धों से — विनियोग की सामाजिक प्रक्रिया के रूपों से जुड़ी होती हैं। 1930 के दशक में स्तालिन और सोवियत पार्टी की समझ यह बनी कि निजी स्वामित्व के ख़ात्मे के साथ ही समाजवादी उत्पादन-सम्बन्ध मुख्यतः स्थापित हो चुके हैं और अब उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ-साथ समाजवाद निरन्तर आगे की ओर बढ़ता चला जायेगा। इस तरह की अर्थवादी या “उत्पादकतावादी” सोच दरअसल उन्नीसवीं शताब्दी से ही अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन में मौजूद थी (मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन इसके अपवाद थे) और यह विचलन स्तालिन ने वस्तुतः विरासत में प्राप्त किया था। यह विचलन उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के अन्तर्सम्बन्धों को द्वन्द्वात्मक ढंग से न देखकर अधिभूतवादी ढंग से देखता था। नवम्बर 1936 में सोवियतों की सातवीं कांग्रेस में सोवियत संघ के संविधान के मसौदे पर प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में स्तालिन ने यह सूत्रीकरण प्रस्तुत किया कि 1924-36 के दौरान सोवियत संघ में उद्योग, व्यापार और कृषि के क्षेत्र में वैधिक निजी स्वामित्व की समाप्ति और समाजवादी स्वामित्व के क़ायम होने के बाद वर्गों के बीच के आर्थिक और राजनीतिक अन्तरविरोध अब “घट रहे हैं और समाप्त हो रहे हैं,” शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध अब समाप्त हो चुके हैं और जनता के वर्गों के बीच के मित्रतापूर्ण अन्तरविरोध ही अब मौजूद रह गये हैं, तथा उन्नत समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों और पिछड़ी उत्पादक शक्तियों के बीच का अन्तरविरोध अब  सोवियत समाज का मुख्य अन्तरविरोध है।

यह एक सच्चाई है कि 1936 के बाद भी स्तालिन ने सर्वहारा अधिनायकत्व का इस्तेमाल केवल बाहरी ख़तरों के विरुद्ध ही नहीं बल्कि समाजवाद-विरोधी भीतरी शक्तियों के विरुद्ध भी किया, यानी व्यावहारिक और आनुभविक धरातल पर उन्होंने वर्ग संघर्ष को जारी रखा, लेकिन समाजवादी संक्रमण की प्रकृति और नियम की सुसंगत समझ के अभाव में वे समाजवाद-विरोधी तत्वों को अतीत का अवशेष या साम्राज्यवाद का एजेण्ट मात्र समझते रहे। वे इस बात को नहीं समझ सके कि ऐसे बुर्जुआ तत्व समाजवाद की सामाजिक आर्थिक संरचना के भीतर से लगातार पैदा होते रहेंगे और सतत् क्रान्ति चलाने की जगह ऐसे तत्वों का दमन या सफ़ाया मात्र तात्कालिक कार्रवाई ही हो सकती है। अपनी पहुँच-पद्धति की अधिभूतवादी विच्युति के कारण ही समाजवादी समाज में मूलाधार-अधिरचना के अन्तर्सम्बन्धों की द्वन्द्वात्मकता को समझने में भी स्तालिन विफल रहे। वे मूलाधार के अतिरिक्त अधिरचना में मौजूद पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों को नहीं देख सके। हालाँकि सोवियत समाज में समाजवादी मूलाधार ने अपनी स्वतंत्र गति से नयी समाजवादी अधिरचना को जन्म दिया और मूल्यों-मान्यताओं, कला-साहित्य-संस्कृति के स्तर पर पार्टी और सर्वहारा सत्ता ने महत्वपूर्ण काम किये, लेकिन पार्टी और राज्य से लेकर समाज में तृणमूल स्तर पर सभी संस्थाओं के स्तर पर तथा विचारों व मूल्यों के स्तर पर सतत् क्रान्ति चलाते जाने की अनिवार्यता स्तालिन ने नहीं समझी। उत्पादक शक्तियों के विकास पर अतिरिक्त बल देने और उसे समाजवाद की मूल प्रेरक शक्ति मानने की ही एक तार्किक परिणति यह भी थी कि स्तालिन का ज़ोर तकनीक पर आवश्यकता से अधिक और मनुष्य पर कम था। अपनी पहुँच और पद्धति की अधिभूतवादी विच्युति के ही कारण स्तालिन पार्टी की भीतर जारी दो लाइनों के संघर्ष को समाज में जारी वर्ग संघर्ष के ही एक रूप, विस्तार और परावर्तन के रूप में नहीं देख सके, समाजवाद के दौर में पार्टी के सर्वहारा चरित्र की हिफ़ाज़त के लिए जन समुदाय से लगातार उसका जीवन्त सम्पर्क बनाये रखने तथा जनता से पार्टी के सीखने के सुसंगत रूपों को विकसित नहीं कर सके और राज्य व्यवस्था एवं प्रबन्धन के कामों में समाजवादी चेतना के उनन्त होते जाने के साथ ही मज़दूर वर्ग और मेहनतकश अवाम की क्रमशः बढ़ती भागीदारी को सुनिश्चित करने के स्पष्ट तौर-तरीक़े नहीं ढूँढ़ सके जिसका प्रतिकूल प्रभाव पार्टी और राज्य के विभिन्न संस्तरों पर नौकरशाही के मज़बूत होने के रूप में सामने आया। इस नयी नौकरशाही में कुछ लोग यदि पद्धति-दोष के शिकार जेनुइन कम्युनिस्ट थे तो कुछ ‘पूँजीवादी पथगामी’ भी थे। मूलतः और मुख्यतः, यही कारण था कि पार्टी और राज्य मशीनरी से विजातीय तत्वों का सफ़ाया करते समय स्तालिन काल में, मुख्यतः 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध में दुश्मनों का दायरा थोड़ा विस्तारित हो गया और कई ऐसे जेनुइन तत्व भी उसके दायरे में आ गये जो या तो कुछ विभ्रमों या छोटे-मोटे विचलनों के शिकार थे, या पूरी तरह से निर्दोष थे।

स्तालिन की सैद्धान्तिक ग़लतियों की चर्चा करते हुए कुछ बिन्दुओं को रेखांकित करना ज़रूरी है। पहली बात, सोवियत संघ में समाजवाद का निर्माण विश्व इतिहास का पहला ऐसा प्रयोग था। उसके सामने सीखने के लिए अतीत का ऐसा कोई प्रयोग नहीं था। एक नयी ऐतिहासिक राह निकालने वाले ऐसे किसी भी महान प्रयोग में कुछ ग़लतियों, कुछ अधूरेपन और कुछ अनगढ़पन का होना लाज़िमी होता है। दूसरी बात, पहली बार समाजवादी निर्माण का यह काम साम्राज्यवादी घेरेबन्दी के बीच अकेले खड़े पिछड़ी उत्पादक शक्तियों वाले एक देश में हो रहा था और 1930 के दशक के मध्य में ही यह भी स्पष्ट हो चुका था कि देर-सबेर फ़ासिज़्म के कहर का मुक़ाबला और समाजवाद की हिफ़ाज़त सोवियत संघ को अकेले अपने बूते पर ही करनी होगी। इस तथ्य को कत्तई नहीं भुलाया जाना चाहिए कि स्तालिन को तात्कालिक संकटों के निरन्तर दबाव के बीच काम करना पड़ा जिसके चलते समाजवाद की बुनियादी और दूरगामी समस्याओं पर गहराई से सोचने का उन्हें पर्याप्त अवसर नहीं मिला। तीसरी बात, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, जब आश्चर्यजनक तेज़ रफ़्तार से सोवियत संघ फिर उठ खड़ा हुआ और समाजवादी निर्माण हर क्षेत्र में तेज़ी से आगे बढ़ा, तो विविध अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय समस्याओं की मौजूदगी के बावजूद, स्तालिन को अतीत के प्रयोगों का समाहार करने और समाजवाद की बुनियादी समस्याओं पर चिन्तन-मन्थन का कुछ अवसर मिला। जीवन के अन्तिम वर्षों के दौरान उन्होंने अपनी मूल सैद्धान्तिक ग़लती पर सोचने और उसे सुधारने की शुरुआत कर दी थी। 1952 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘सोवियत संघ में समाजवाद की आर्थिक समस्याएँ’ में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह उल्लेख किया कि सोवियत संघ में माल-उत्पादन की प्रणाली अभी भी जीवित है और मूल्य के नियम भी विविध रूपों में काम कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि स्तालिन का यह चिन्तन 1936 के उनके सूत्रीकरण के निषेध की दिशा में तथा समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की समस्या पर नये सिरे से सोचने की दिशा में आगे बढ़ रहा था। लेकिन इतिहास ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ने का मौक़ा नहीं दिया। 1954 में स्तालिन के निधन के बाद सत्तासीन ख्रुश्चेव ने समाजवादी नीतियों-सिद्धान्तों को तिलांजलि देकर, संशोधनवादी नीतियों-सिद्धान्तों पर अमल की शुरुआत कर दी। 1956 तक पार्टी और राज्य पर अपना निर्णायक नियंत्रण क़ायम कर चुकने के बाद ख्रुश्चेव ने पूँजीवादी पुनर्स्थापना की प्रक्रिया को तेज़ी से आगे बढ़ाया।

यह ख्रुश्चेव-गिरोह उसी नये बुर्जुआ वर्ग का प्रतिनिधि था, जिसने समाजवाद के और आगे की मंज़िलों में संक्रमण न कर पाने के कारण पैदा हुए ठहराव का लाभ उठाकर अपने सामाजिक आधार का विस्तार किया था, पार्टी और राज्य तंत्र के भीतर अपनी स्थिति मज़बूत बनाता चला गया था और अनुकूल अवसर मिलते ही पार्टी और राज्य की नियंत्रणकारी चोटियों पर क़ब्ज़ा जमा लिया था। हर संशोधनवादी की तरह ख्रुश्चेव भी कम्युनिस्ट का मुखौटा लगाये हुए एक बुर्जुआ था। सोवियत संघ में ख्रुश्चेव का दौर समाजवादी मुखौटे वाले राजकीय इज़ारेदार पूँजीवादी का प्रारम्भिक दौर था। यह राजकीय इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग की एक नयी क़िस्म की निरंकुश तानाशाही का प्रारम्भिक दौर था। ब्रेझनेव काल में इस राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद के ढाँचे और उसके अधिरचना-तंत्र के निर्माण की प्रक्रिया मुकम्मल हो गयी, पूँजीवादी सम्बन्ध समाज में मज़बूती से जम गये, सोवियत संघ एक सामाजिक साम्राज्यवादी अतिमहाशक्ति के रूप में विश्व प्रभुत्व के लिए अमेरिका से होड़ करने लगा और नये सोवियत बुर्जुआ वर्ग की सामाजिक फ़ासीवादी तानाशाही ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश होती चली गयी। लेकिन तीस-पैंतीस वर्षों का समय बीतते-बीतते सोवियत संघ के बुर्जुआ समाज के भीतर मूलाधार और अधिरचना के अन्तरविरोध क्रमशः उग्र होते हुए असमाधेय होने की मंज़िल तक जा पहुँचे। अर्थतंत्र के ठहराव और तज्जन्य सामाजिक-आर्थिक संकटों से निजात पाने के लिए मूलाधार और उसकी पूरी अधिरचनात्मक अट्टालिका का पुनर्गठन ज़रूरी था। नये सोवियत बुर्जुआ वर्ग के ही प्रतिनिधि गोर्बाचोव ने 1980 के दशक में इसी दिशा में कुछ क़दम उठाये। लेकिन राजकीय इज़ारेदार पूँजीवादी ढाँचे में निहित प्रतियोगिता का सापेक्षिक अभाव बुर्जुआ दायरे के भीतर उत्पादक शक्तियों के पैरों की बेड़ी बन चुका था और इस संकट से निजात पाने के लिए, निजीकरण और उदारीकरण का सहारा लेना, या यूँ कहें कि, पूँजीवाद को उसके क्लासिकी रूप में स्थापित करना अनिवार्य बन चुका था। इन्हीं गतियों की तार्किक परिणति के तौर पर 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ और रूस सहित उसके सभी घटक गणराज्यों में कमोबेश पश्चिमी ढंग की बुर्जुआ जनवादी संसदीय व्यवस्था स्थापित हुई। यही प्रक्रिया पूर्वी यूरोप के देशों में और अधिक तेज़ी और झटके के साथ पूरी हुई, पर उनकी चर्चा यहाँ हमारे विषय के दायरे में नहीं आती।

सोवियत संघ में इतिहास के पहले समाजवादी प्रयोग की सफलताओं-असफलताओं और उसके सभी सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों के सांगोपांग समाहार के बाद, और इसी परिप्रेक्ष्य में चीन में समाजावादी संक्रमण के प्रयोगों और इस दौरान के संघर्षों के नतीजों के आधार पर माओ त्से-तुङ समाजवादी समाज के वर्ग-अन्तरविरोधों की पहचान करने में तथा उन्हें हल करने का रास्ता निकालने में सफल रहे। उन्होंने पार्टी के भीतर नीचे की इकाइयों से लेकर पोलित ब्यूरो तक में मौजूद पूँजीवादी पथगामियों की, तथा राज्य मशीनरी के भीतर, विविध आर्थिक इकाइयों के भीतर और शिक्षा एवं संस्कृति के क्षेत्र में मौजूद तथा फल-फूल रहे पूँजीवादी तत्वों की पहचान की और उनके विरुद्ध सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत् क्रान्ति चलाने का आह्वान किया। ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ (1966-76) के ज़रिये माओ ने बुर्जुआ वर्ग पर लगातार जीत हासिल करते हुए कम्युनिज़्म की दिशा में संक्रमण सुनिश्चित करने की ‘जनरल लाइन’ से सर्वहारा वर्ग को परिचित कराया। लेकिन अध्ययन, प्रयोग और समाहार करते हुए माओ जबतक इस सुनिश्चित निष्कर्ष तक पहुँचे तबतक चीन में भी सत्रह वर्षों का समय बीत चुका था, पार्टी और राज्य के भीतर ‘पूँजीवादी पथगामी’ अपना आधार काफ़ी मज़बूत बना चुके थे। इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि एक बेहद पिछड़े हुए चीनी समाज में (जहाँ क्रान्ति के समय उद्योग, औद्योगिक सर्वहारा वर्ग, शिक्षा और बौद्धिक समुदाय अत्यन्त सीमित थे और गाँवों में पूँजीवादी सम्बन्ध विकसित ही नहीं हुए थे) जनवादी क्रान्ति के बाद समाजवादी निर्माण की दिशा में आगे बढ़ना वैसे भी काफ़ी दुष्कर और चुनौतीपूर्ण था। पहले से ही साम्राज्यवादी दुनिया की आर्थिक-राजनीतिक घेरेबन्दी का सामना कर रहे माओकालीन चीन के प्रति सोवियत संघ के ख्रुश्चेव और ब्रेझनेवकालीन नेतृत्व के घोर दुश्मनाना रवैये ने भी हालात को और कठिन बनाने का काम किया। 1950 के दशक से ही माओ को लगातार पार्टी के भीतर मौजूद संशोधनवादी गिरोहों के साथ संघर्ष करना पड़ा। इस बात को भी नज़रअन्दाज़ नहीं किया जाना चाहिए कि चीनी पार्टी की कुछ गम्भीर विचारधारात्मक ग़लतियों (जैसे, ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष खुला करने में सात वर्षों का विलम्ब) और आर्थिक नीतियों की कुछ गम्भीर ग़लतियों (जैसे, समाजवादी संक्रमण की मंज़िल शुरू होने के बाद भी, 1952 से 1966 तक राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग को कुछ विशेष रियायतें देना) का भी परोक्ष तौर पर पूँजीवादी पथगामियों को लाभ मिला और वर्ग शक्ति-सन्तुलन पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसके बावजूद, यह बात विश्वासपूर्वक कही जा सकती है कि ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ ने विश्व सर्वहारा को समाजवाद की समस्याओं की प्रकृति और समाधान की आम दिशा से परिचित कराया, पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों को स्पष्ट करते हुए उसे रोकने की राह बतायी तथा पूरे समाजवादी संक्रमण की सुदीर्घ ऐतिहासिक अवधि के दौरान सतत् वर्ग-संघर्ष चलाने की शिक्षा से विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के विचारधारात्मक शस्त्रागार को समृद्ध किया।

4. आज की दुनिया और भविष्य की सम्भावनाएँ

मज़दूर वर्ग ने पूँजी के दुर्गों पर धावा मारने की शुरुआत उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में की थी। तब से लेकर आज तक न जाने कितनी बार मज़दूर संघर्षों को ख़ून के दलदल में डुबो दिया गया, न जाने कितनी क्रान्तियों को कुचल दिया गया, न जाने कितनी बार क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति और विपर्यय की लहर के हावी होने के दौर आये, लेकिन जिस दीर्घकालिक और गहन विश्व ऐतिहासिक विपर्यय, गतिरोध, विभ्रम और बिखराव की स्थिति का सामना आज सर्वहारा वर्ग और उसकी हरावल शक्तियाँ कर रही हैं, वैसा शायद पहले कभी नहीं हुआ था। गत लगभग 180 वर्षों के दौरान, क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर लगातार कभी इतने लम्बे समय तक हावी नहीं बनी रही। विपर्यय और गतिरोध का यह ‘अन्धकार युग’ कमोबेश 1980 के दशक में शुरू हुआ और 1990 के दशक में शिखर पर जा पहुँचा। आज भी इतिहास इसी अँधेरे से गुज़र रहा है।

स्तालिन की मृत्यु के बाद 1956 में सोवियत संघ में ख्रुश्चेव ने जब पूँजीवादी पुनर्स्थापना की नींव डाली, तो चीन में अभी सर्वहारा क्रान्ति महान अग्रवर्ती छलाँगें लगाती हुई आगे बढ़ रही थी। साथ ही पूरी दुनिया में उपनिवेशवाद और नवउपनिवेशवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की उत्ताल तरंगें उठ रही थीं। 1976 में चीन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत एक बड़ा ऐतिहासिक धक्का था, लेकिन उस समय भी एशिया, अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिकी महाद्वीपों के बहुत सारे देशों में राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्षों को एक के बाद एक सफलताएँ हासिल हो रही थीं। इस पूरे दौर में अमेरिका और सोवियत संघ — इन दो अतिमहाशक्तियों के बीच तीखी प्रतिस्पर्द्धा जारी थी, जिसका लाभ किसी हद तक विश्व की मुक्तिकामी शक्तियों को भी मिल रहा था। सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद हालाँकि दुनिया के मुक्ति-संघर्षों में फूट डालने की भी कोशिश करता था, लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवाद से प्रतिस्पर्द्धा के कारण वह मुक्ति-संघर्षों की और नवस्वाधीन देशों की मदद भी करता था।

1980 के दशक में स्थितियाँ बदलने लगीं। राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का दौर अब समापन की ओर अग्रसर था। एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के नवस्वाधीन देशों का शासक बुर्जुआ वर्ग इस समय तक विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में साम्राज्यवादियों के ‘जूनियर पार्टनर’ के रूप में व्यवस्थित होने लगा था। यह सोवियत संघ में गोर्बाचोव के ‘ग्लास्नोस्त’ और ‘पेरेस्त्रोइका’ का दौर था जब स्वयं अपने आन्तरिक अन्तरविरोधों से चरमराता सोवियत राजकीय इज़ारेदार पूँजीवादी तंत्र विघटन की ओर अग्रसर था। अब वह न तो पश्चिमी साम्राज्यवाद को टक्कर देने की स्थिति में था, न ही तीसरी दुनिया के देशों की कोई मदद ही कर सकता था। 1989 से ’91 के दौरान सोवियत संघ के विघटन और उसके घटक गणराज्यों तथा पूर्वी यूरोपीय देशों में समाजवादी मुखौटों वाली राजकीय पूँजीवादी व्यवस्थाओं का पतन हुआ और वहाँ पश्चिमी ढंग की निजी इज़ारेदार पूँजीवादी व्यवस्थाएँ बहाल हुईं। जल्दी ही वियतनाम और कोरिया ने भी चीन जैसे “बाज़ार समाजवाद” की राह पकड़ ली। नयी शताब्दी का दूसरा दशक शुरू होते-होते क्यूबा ने भी “बाज़ार समाजवाद” का झण्डा थाम लिया।

1990 के दशक तक राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का दौर बीत चुका था और अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा इस तरह पार्श्वभूमि में चली गयी थी कि मार्क्सवादी विज्ञान की अधकचरी समझ वाले बहुतेरे बौद्धिकों और अनुभववादी पर्यवेक्षकों को दुनिया एकध्रुवीय नज़र आने लगी थी। इस दौर में अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों ने ‘फण्ड-बैंक-गैट’ के नुस्खों के ज़रिये तीसरी दुनिया के सभी देशों और पूर्वी यूरोप के देशों के बुर्जुआ शासकों पर निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ थोपीं। साम्राज्यवाद के इस नये दौर को “भूमण्डलीकरण” का नाम दिया गया। इस दौर में साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी की वैश्विक आवाजाही के रास्ते की सभी बाधाएँ हटा दी गयीं और पूँजी-निर्यात के नये-नये तौर-तरीक़े ईजाद किये गये। यह औद्योगिक पूँजी पर वित्तीय पूँजी की “अन्तिम विजय” और निर्णायक वर्चस्व का दौर था, जब विश्व-अर्थव्यवस्था का अभूतपूर्व अतिवित्तीयकरण हुआ। उत्पादन के तौर-तरीक़ों में एक महत्वपूर्ण बदलाव यह आया कि ‘फोर्डिस्ट असेम्बली लाइन’ को कई छोटे-छोटे उपक्रमों से लेकर ठेकाकरण की एक श्रृंखला के ज़रिये घरेलू उद्योगों तक में बाँट दिया गया। श्रम-शक्ति के बड़े हिस्से को अनौपचारिक, कैज़ुअल, ठेका और दिहाड़ी की श्रेणी में लाकर मज़दूरों की मोलतोल की ताक़त छीन ली गयी और उनसे ज़्यादा से ज़्यादा अधिशेष निचोड़ा जाने लगा। संशोधनवादी और बुर्जुआ पार्टियों के नेतृत्व में संगठित औद्योगिक मज़दूर वर्ग इसका कारगर विरोध भी नहीं कर पाया और खण्ड-खण्ड बिखरता चला गया।

भूमण्डलीकरण के इस दौर की एक ख़ासियत यह भी है कि एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिका के अधिकांश देशों में (अपवादस्वरूप कुछ बेहद पिछड़े देशों को छोड़कर) राष्ट्रीय जनवाद के ऐतिहासिक कार्यभार पूरे हो चुके हैं। इन देशों में सत्तारूढ़ बुर्जुआ वर्ग साम्राज्यवादियों के ‘जूनियर पार्टनर’ के रूप में नयी विश्व-व्यवस्था में व्यवस्थित हो चुका है। इन देशों में विकृत, खण्डित और विकलांग ही सही, लेकिन बुर्जुआ जनवाद स्थापित हो चुका है तथा प्राक्-पूँजीवादी भूमि-सम्बन्ध अगर कहीं बचे भी हैं तो अवशेष के रूप में बचे हैं। यानी दो, तीन या चार दशक पहले, जो देश राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में ते, वे अब एक नये प्रकार की समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में प्रविष्ट हो चुके हैं और वहाँ प्रधान अन्तरविरोध है — साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद के साथ जनता के तीन वर्गों (शहरी मध्यवर्ग/मध्यम किसान, शहरी-ग्रामीण अर्द्ध सर्वहारा/ग़रीब किसान और शहरी-ग्रामीण सर्वहारा वर्ग) का अन्तरविरोध। यानी प्रधान अन्तरविरोध अब दुनिया के अधिकांश पिछड़े देशों में भी श्रम और पूँजी के बीच ही है। आज की दुनिया का जो दूसरा बुनियादी अन्तरविरोध है, वह है अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा।

पिछली शताब्दी के अन्तिम दो दशकों के दौरान जब विश्व-ऐतिहासिक विपर्यय का दौर शुरू हो रहा था और क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी हो रही थी, तो बुर्जुआ बौद्धिक जगत में ‘इतिहास के अन्त’, ‘समाजवाद की मृत्यु’ आदि नारों का शोर दिग-दिगन्त तक गूँज रहा था। सभी उत्तर-आधुनिकतावादी, उत्तर-मार्क्सवादी आदि-आदि यह कहते नहीं थक रहे थे कि ‘क्रान्तियों के महाख्यानों का विसर्जन’ हो चुका है। यह बार-बार, तरह-तरह से, कहा जा रहा था कि उदार पूँजीवादी जनवाद ही सर्वोन्नत सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था है, जिसकी आन्तरिक गतिकी ऐसी है कि यह अपनी कमियों-कमज़ोरियों को दुरुस्त करता हुआ सदा के लिए बना रहेगा। लेकिन यह सारा आत्मसन्तोष और विजयोल्लास सदी का अंत आते-आते वैश्विक मन्दी और आर्थिक ध्वंस के भूकम्पों से पैदा हुए संत्रास, चीख़-पुकार और अफरातफरी में खो गया। पूरी पृथ्वी पर निर्बन्ध दौड़ती पूँजी ने जितनी तेज़ी से ज़्यादा से ज़्यादा अधिशेष निचोड़ा, मुनाफ़े की गिरती दर के शाश्वत संकट ने अगले ही दौर में उतना ही अधिक विकट होकर धर दबोचा। अतिउत्पादन और अतिसंचय के प्रेतों ने उतना ही अधिक सताना शुरू कर दिया। पीछे मुड़कर यदि देखें तो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पचास और साठ के दशक के सुनहरे वैभवशाली दिनों के बाद, 1970 का दशक शुरू होने के साथ ही विश्व पूँजीवादी अर्थतंत्र जिस दीर्घकालिक मन्दी के भँवर में जा फँसा, उससे वह फिर कभी उबर ही नहीं पाया। कभी हल्की तो कभी गहरी होते हुए, कभी दुश्चक्रीय निराशा तो कभी आर्थिक ध्वंस का रूप लेते हुए, वैश्विक मन्दी लगातार जारी रही। संकट से उबरने की हर कोशिश अगले दौर में और गम्भीर संकट को जन्म देती रही। आज अधिकांश बुर्जुआ अर्थशास्त्री भी विश्व पूँजीवाद के जारी आर्थिक संकट को असाध्य ढाँचागत संकट का नाम दे रहे हैं।

विश्व अर्थतंत्र के अतिवित्तीयकरण और सुदीर्घ आर्थिक मन्दी और बीच-बीच के ध्वंसों के रूप में जारी ढाँचागत संकट का राजनीतिक धरातल पर एक परिणाम यह सामने आया है कि उन्नत से लेकर पिछड़े देशों तक में, पूरब से लेकर पश्चिम तक के सभी समाजों में, बुर्जुआ जनवाद का स्पेस संकुचित हुआ है, बुर्जुआ सत्ताएँ अलग-अलग सीमाओं तक निरंकुश दमनकारी चरित्र अख़्तियार करती चली गयी हैं और उन्नत से लेकर पिछड़े देशों तक के समाजों में एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के रूप में फ़ासिज़्म की लहर ने नये सिरे से ज़ोर पकड़ा है। आज भारत, तुर्की, उक्रेन, फिलिप्पींस आदि कई देशों में फ़ासिस्ट, अर्द्धफ़ासिस्ट या घोर प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ सत्तारूढ़ हैं। रूस में पुतिन के शासन का चरित्र भी निरंकुश दमनकारी है और नये साम्राज्यवादी देश चीन के नकली लाल झण्डा उड़ाने वाले शासकों का व्यापक मेहनतकश आबादी के साथ जितना दमनकारी व्यवहार है, उसके मद्देनज़र उन्हें निस्सन्देह ‘सोशल फ़ासिस्ट’ कहा जा सकता है।

गत शताब्दी के अन्तिम दशक में इस तरह के दावे करने वाले बुर्जुआ और मार्क्सवादी अकादमीशियनों की भरमार हो गयी थी जो भूमण्डीकरण के दौर की दुनिया को ‘एकध्रुवीय’ घोषित कर रहे थे। हालाँकि मुद्रा युद्ध और व्यापार युद्ध आदि विविध रूपों में अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा उस दौर में भी जारी थी। गत क़रीब पन्द्रह वर्षों में रूस ने पुतिन के नेतृत्व में अपने पूँजीवादी अर्थतंत्र को फिर से व्यवस्थित किया है और प्राकृतिक ऊर्जा भण्डार और उन्नत हथियारों के व्यापार को फिर से एक ताक़त के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया है। उधर चीन बहुत तेज़ी से वैश्विक महत्वाकांक्षाओं वाली एक नयी साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में सामने आया है। आज चीन-रूस धुरी अफ़्रीका और लातिन अमेरिका से लेकर एशिया तक में अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी खेमे को आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक स्तर पर प्रभावी चुनौती दे रही है। अन्तरविरोधों के कई और स्तर भी हैं। जैसे यूरोपीय संघ के देशों के आंग्ल-अमेरिकी धुरी से गहरे अन्तरविरोध हैं। एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिकी देशों के बुर्जुआ शासक अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का लाभ उठा रहे हैं और सुविधानुसार रूस-चीन धुरी या पश्चिमी साम्राज्यवादी गुट का पक्ष ले रहे हैं। क्यूबा, उत्तर कोरिया, लातिन अमेरिका की पॉपुलिस्ट रैडिकल बुर्जुआ सत्ताओं, सीरिया, ईरान और भूतपूर्व सोवियत संघ के घटक अधिकांश देशों को साथ लेकर रूस और चीन अमेरिकी खेमे को प्रभावी चुनौती देने लगे हैं। लेकिन आज जिस तरह सभी साम्राज्यवादी देशों में भी एक-दूसरे की पूँजी लगी हुई है और पूरी दुनिया के सभी देशों में जिस तरह सभी साम्राज्यवादी देशों की पूँजी लगी हुई है (यानी उपनिवेशों-नवउपनिवेशों की तरह आज साम्राज्यवादियों के अपने-अपने संरक्षित बाज़ार नहीं हैं); उसे देखते हुए इस बात की सम्भावना बहुत कम है कि अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा अपने उग्रतम रूप में किसी विश्वयुद्ध के रूप में भड़क उठे। ज़्यादातर आर्थिक ताक़त के आधार पर ही फ़ैसले होते रहेंगे और समय-समय पर दुनिया के किसी भूभाग में क्षेत्रीय युद्धों के रूप में साम्राज्यवादी गिरोह परस्पर ज़ोर-आज़माइश करते रहेंगे। जैसे, पूरा अरब क्षेत्र आज एक ऐसा भूभाग बन गया है जहाँ अलग-अलग अरब देशों के बुर्जुआ शासकों के आपसी अन्तरविरोध, साम्राज्यवादी देशों के आपसी अन्तरविरोध और शासक वर्गों के साथ व्यापक जन समुदाय के अन्तरविरोध मिलकर एक संधिस्थल या एक गाँठ का निर्माण कर रहे हैं। ऐसी स्थितियाँ विभिन्न रूपों में अन्यत्र भी पैदा हो सकती हैं। हम कह सकते हैं कि ‘साम्राज्यवाद का अर्थ युद्ध है’ — यह सूत्रीकरण आज भी सही है और माओ का यह सूत्रीकरण भी सही है कि ‘या तो युद्ध क्रान्तियों को जन्म देंगे या क्रान्तियाँ युद्धों को रोकेंगी’, लेकिन विश्वयुद्ध की सम्भावना आज की दुनिया में बहुत कम है। हाँ, पूँजीवादी दुनिया के संकट और गलाकाटू प्रतियोगिता ज़रूर युद्धों को तब तक जन्म देते रहेंगे, जब तक पूँजीवाद रहेगा।

समस्या यह है कि पूँजीवाद अपने असाध्य और गहनतम संकटों के विस्फोट से भी अपने-आप ध्वस्त नहीं हो सकता और समाजवादी समाज अपने-आप अस्तित्व में नहीं आ सकता। सर्वहारा क्रान्तियाँ सचेतन तौर पर संगठित होती हैं, वे स्वतःस्फूर्त नहीं होतीं। जब तक सर्वहारा वर्ग क्रान्ति के विज्ञान और कार्यक्रम की समझ से लैस अपने हरावल दस्ते (क्रान्तिकारी पार्टी) के नेतृत्व में संगठित नहीं होगा, तब तक बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना की ही नहीं जा सकती, और इसके बिना समाजवाद के निर्माण का और कोई शान्तिपूर्ण संक्रमण जैसा मार्ग हो भी नहीं सकता। जब तक नये सिरे से दुनिया के विभिन्न देशों में सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टियों के निर्माण की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ेगी और उनके नेतृत्व में वर्ग-संघर्ष का नया चक्र गति नहीं पकड़ेगा, तब तक पूँजीवादी यूँ ही घिसट-घिसटकर चलता रहेगा, जन समुदाय पर बर्बर दमन, युद्धों और फ़ासिस्ट नरसंहारों का कहर बरपा करता रहेगा और मुनाफ़े की अन्धी हवस में प्रकृति को निचोड़कर और तबाह करके पर्यावरण-विनाश का ऐसा संकट तक पैदा कर देगा कि मनुष्यता का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाये। हमारी सदी का जलता हुआ प्रश्न है : या तो समाजवाद, या फिर मानव जाति का विनाश। आज अँधेरा चाहे जितना गहरा हो, लेकिन वर्ग-संघर्ष और क्रान्तियों के सहस्त्राब्दियों के अनुभव से लैस मानव जाति अन्ततोगत्वा पहले विकल्प को ही चुनेगी, यही सम्भावना अधिक है। इतिहास में हमारा विश्वास हमें यही बताता है।

आज हम जिस दुनिया और जिस ऐतिहासिक समय में जी रहे हैं, उसमें विश्व सर्वहारा के पास ने तो रूस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों जैसी क्रान्तिसिद्ध पार्टियाँ मौजूद हैं, न ही मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन-माओ जैसा परीक्षित और प्राधिकार-सम्पन्न नेतृत्व है और न ही ‘कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल’ जैसा कोई अन्तरराष्ट्रीय संगठन मौजूद है। श्रम और पूँजी के बीच विश्व-ऐतिहासिक महासमर का जो पहला चक्र उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में शुरू हुआ, वह पेरिस कम्यून, अक्टूबर क्रान्ति और चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के ऐतिहासिक मील के पत्थरों से गुज़रता हुआ समाप्त हो चुका है। इस पहले चक्र का समापन श्रम के शिविर की पराजय के साथ हुआ है। आज सर्वहारा वर्ग के पास कोई राज्य तो नहीं है, लेकिन यह ऐतिहासिक शिक्षा ज़रूर है कि समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष चलाने की आम दिशा और पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने का तरीक़ा क्या होगा! श्रम और पूँजी के बीच उन्नततर धरातल पर शुरू होने वाले विश्व-ऐतिहासिक महासमर का दूसरा चक्र अभी भविष्य की बात है। अभी बस यहाँ-वहाँ छिटपुट झड़पें ही हो रही हैं। हम इस विश्व-ऐतिहासिक महासमर के दो चक्रों के बीचे के गहन अन्धकारमय, संक्रमणकालिक कालखण्ड से गुज़र रहे हैं और कोई भी दावे के साथ नहीं कह सकता कि यह कालखण्ड अभी कितना लम्बा होगा। हम इतना ज़रूर कर सकते हैं कि हठी, कठोर और अनवरत प्रयासों से इस कालखण्ड को अधिकतम सीमा तक सिकोड़कर छोटा करने में जुटे रहें।

इस प्रयास में सिर्फ़ वही सर्वहारा क्रान्तिकारी सफल हो सकते हैं जो सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान और बीसवीं शताब्दी की सर्वहारा क्रान्तियों और समाजवादी संक्रमण के प्रयोगों का गहन अध्ययन करें और उनसे भविष्य के लिए ज़रूरी नतीजे निकालें। ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन के बिना चलताऊ ढंग से समाजवाद की विफलता का कारण नेता विशेष को, या तथाकथित पार्टी नौकरशाही को, या समाजवादी समाज में जनवाद के तथाकथित अभाव को, या “वर्ग की जगह पार्टी के अधिनायकत्व की स्थापना” को बताने जैसी सस्ती, दो कौड़ी की, लोकरंजक फतवेबाज़ियों से कुछ भी नहीं हासिल होने वाला! ये सारे सूत्रीकरण या तो बुर्जुआ प्रचारों से प्रभावित होते हैं या कुर्सीतोड़ “मौलिक” बुद्धिजीवियों की हवाई उड़ानें! जेनुइन कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी इन प्रवृत्तियों से घृणा करते हैं।

दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है, वह यह कि अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों की हरावल शक्ति केवल वही पार्टी हो सकती है जो एक सच्चे बोल्शेविक साँचे-खाँचे में ढली हुई पार्टी हो। आज पूरी दुनिया में जो भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन और ग्रुप हैं उनमें से कुछ कठमुल्लावादी ढंग से काम करते हुए अतिवामपंथी संकीर्णतावाद और दुस्साहसवाद के दलदल में धँसे पड़े हैं। दूसरी ओर, कुछ अन्य ऐसे संगठन हैं जो बुर्जुआ संसदीय जनवादी प्रणाली के ‘टैक्टिकल’ इस्तेमाल की बात करते हुए, वस्तुतः उससे आगे बढ़कर दक्षिणपंथी अवसरवादी विचलन का शिकार हो चुके हैं। बहुत सारे ऐसे भी संगठन हैं जो “मुक्त चिन्तन” के भटकाव का शिकार हैं, जन संगठनों के साथ पार्टी संगठन के रिश्ते में पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका की अनदेखी कर रहे हैं तथा अलग-अलग रूपों में अक्सेलरोद, ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ और ‘कौंसिलपंथी कम्युनिस्टों’ की ऐतिहासिक ग़लतियों को ही भौंड़े ढंग से दुहरा रहे हैं। इन सभी विसर्जनवादी प्रवृत्तियों से समझौताहीन संघर्ष करते हुए जो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी एक इस्पाती ढाँचे वाली बोल्शेविक पार्टी खड़ी कर सकेंगे, वही इतिहास द्वारा सौंपे गये कार्यभार को पूरा करने के योग्य साबित होंगे। अन्य सभी कठमुल्लावादी, संशोधनवादी और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी भटकावों की शिकार प्रवृत्तियाँ कालान्तर में विघटन और विसर्जन का शिकार हो जायेंगी।

अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण की सर्जना के लिए हमें अतीत के सभी क्रान्तिकारी प्रयोगों का गहन अध्ययन तो करना ही होगा, पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बुनियादी कारणों को तो समझना ही होगा और मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की मूल अन्तर्वस्तु को तो आत्मसात करना ही होगा, लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं होगा। हम जिस ऐतिहासिक समय में अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण के निर्माण की तैयारी की बात कर रहे हैं, वह समय अक्टूबर क्रान्ति के समय से काफ़ी भिन्न है। हम आज भी साम्राज्यवाद की अवस्था में ही जी रहे हैं, लेकिन विश्व पूँजीवादी की संरचना और कार्यप्रणाली में लेनिन और अक्टूबर क्रान्ति के समय की तुलना में काफ़ी बदलाव आ चुके हैं। आज की विश्व सर्वहारा क्रान्ति की आम दिशा, रणनीति और रणकौशल पर लाज़िमी तौर पर इसका प्रभाव पड़ेगा। एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिका के देश ही अब भी विश्व पूँजीवादी की कमज़ोर कड़ी और क्रान्तियों के तूफ़ानों के केन्द्र हैं। लेकिन ये देश अब उपनिवेश या नवउपनिवेश न होकर पिछड़े पूँजीवादी देश हैं, जहाँ के शासक वर्ग साम्राज्यवादियों के ‘जूनियर पार्टनर’ के रूप में विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में व्यवस्थित हो चुके हैं। अपवादों को छोड़कर, ऐसे सभी देश आज की दुनिया में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की मंज़िल से आगे समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में प्रविष्ट हो चुके हैं। जो कठमुल्लावादी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में 1917 की अक्टूबर क्रान्ति या 1949 की चीनी नवजनवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल को ही थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ लागू करने की बात कर रहे हैं, वे अतीत को दुहराने का प्रहसन करते हुए कालान्तर में अप्रासंगिक और फिर विसर्जित हो जाने के लिए अभिशप्त हैं। जो लोग कुछ तात्कालिक सफलताओं के बाद इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने को व्यग्र होते हैं, उनका हश्र वही होता है जो पेरू और नेपाल की माओवादी पार्टियों के नेतृत्व का हुआ। माओवाद के साथ ‘गोंजालो चिन्तन’ जोड़ने वाली पार्टी विसर्जित हो गयी और नेपाल की माओवादी पार्टी का ‘प्रचण्ड पथ’ संसद में घुसकर निर्वाण को प्राप्त हो गया। ऐसे प्रयोग तुरत कुछ गर्मी और उम्मीद जगाकर अगले ही दौर में जब विसर्जित हो जाते हैं तो क्रान्ति की आकांक्षी आम जनता की निराशा कुछ और गहरी हो जाती है। सच है, मिथ्या आशा तात्कालिक निराशा से भी अधिक ख़तरनाक होती है।

अन्त में, हम एक बार फिर विशेष ज़ोर देकर कहना चाहते हैं कि यह ‘इतिहास का अन्त’ नहीं है। मानवता अन्ततः इस लम्बी अँधेरी सुरंग से बाहर आयेगी और पूँजी और श्रम के शिविरों के बीच विश्व-ऐतिहासिक महासमर का नया चक्र अवश्य शुरू होगा, भले ही इसमें चन्द दशकों का समय और लग जाये। हमारा यह आशावाद नियतिवादी नहीं, बल्कि सकर्मक आशावाद है। हम मानते हैं कि मनोगत शक्तियाँ जितना ही श्रमसाध्य और अनथक उद्यम करेंगी, नयी शुरुआत के समय को खींचकर उतना ही निकट लाया जा सकेगा। हमारी इस क्रान्तिकारी आशावादी स्पिरिट को लेनिन की उस एकमात्र कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ सटीकतम ढंग से अभिव्यक्त करती हैं जो उन्होंने 1905-07 की रूसी क्रान्ति के कुचल दिये जाने के बाद लिखी थी :

पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल

आज नष्ट हो गये हैं

अँधेरे के स्वामी

रोशनी की दुनिया का ख़ौफ़ देख ख़ुश हैं

मगर उस फूल के फल ने

पनाह ली है जन्म देने वाली मिट्टी में

माँ के गर्भ में

आँखों से ओझल गहरे रहस्य में

विचित्र उस कण ने

अपने को जिला रखा है

मिट्टी उसे ताक़त देगी

मिट्टी उसे गर्मी देगी

उगेगा वह एक नया जन्म लेकर

एक नयी आज़ादी का बीज वह लायेगा

फाड़ डालेगा बर्फ़ की चादर वह विशाल वृक्ष

लाल पत्तों को फैलाकर वह उठेगा

दुनिया को रौशन करेगा

सारी दुनिया को, जनता को

अपनी छाँह में इकट्ठा करेगा।

•••

— शशि प्रकाश

(अक्टूबर, 2019)

 

 

1857, आरम्भिक देशभक्ति और प्रगतिशीलता

1857, आरम्भिक देशभक्ति और प्रगतिशीलता

  •  दीपायन बोस

1857 पर, विशेषकर पिछले पचास वर्षों के दौरान, मार्क्सवादी विद्वानों और इतिहासकारों ने काफ़ी कुछ लिखा है। पहले जिन मार्क्सवादियों में मार्क्स के भारत विषयक प्रेक्षणों से ही ऐतिहासिक मूल्यांकन का अपना फ्रेमवर्क निर्धारित करने की आदत थी, उनकी अवस्थिति 1857 को लेकर प्राय: अस्पष्ट या अन्तरविरोधपूर्ण हुआ करती थी। और बाद के मार्क्सवादियों में तथ्यबहुलता और पल्लवग्राहिता की प्रवृत्ति हावी रही है। या तो तथ्यों के मनमाने चयन के आधार पर निष्कर्ष दिये जाते रहे हैं, या फिर तमाम तथ्य देने के बावजूद सामान्य सूत्रीकरणों से बचा जाता रहा है, या फिर इस ऐतिहासिक महाघटना के किसी एक पहलू या कुछ पहलुओं पर विचार करके इतिश्री कर ली जाती है।

भारतीय इतिहास–विषयक विभिन्न बहसों में यूरोकेन्द्रिकता का विरोध करते हुए प्राय: यूरोकेन्द्रिकता का ही शिकार हो जाने की प्रवृत्ति देखने को मिलती है और 1857 के सन्दर्भ में भी ऐसा होता रहा है। यूरोप में, ख़ासकर पश्चिमी यूरोप में पूँजीवाद का विकास–पथ ‘पुनर्जागरण–प्रबोधन–क्रान्ति’ (‘रिनेसाँ–एनलाइटेनमेण्ट–रिवोल्यूशन’) का क्रम था। औपनिवेशिक भारत में भी इसी का समतुल्य या प्रतिरूप ढूँढ़ते हुए कतिपय सुधारवादी राष्ट्रवादी से लेकर मार्क्सवादी इतिहासकारों तक ने ‘बंगाल रिनेसाँ’ का आविष्कार कर डाला, तो हिन्दी पट्टी के गौरव की येन–केन–प्रकारेण स्थापना के लिए व्याकुल रामविलास शर्मा ने हिन्दी नवजागरण की स्थापना प्रस्तुत कर दी और 1857 के महासंग्राम को उसका प्रस्थान–बिन्दु घोषित कर दिया। इन स्थापनाओं के अन्तरविरोधों और इनमें निहित मनोगतता एवं आधिभौतिकता का विश्लेषण एक विशद प्रबन्ध का विषय है और प्रदीप सक्सेना ने इस महत दायित्व का अपनी पुस्तक ‘1857 और नवजागरण के प्रश्न’ में काफ़ी हद तक सफल निर्वाह किया है। राष्ट्रीय गौरव की स्थापना के लिए, भारतीय इतिहास में यूरोपीय इतिहास का प्रतिरूप गढ़ते हुए उपरोक्त श्रेणी के विद्वान इस बात पर ध्यान ही नहीं देते कि पूँजीवादी विकास का पथ और प्रकृति उपनिवेशों में यूरोपीय महाद्वीप से काफ़ी भिन्न थी और अलग–अलग ऐतिहासिक विशिष्टताओं के अनुसार एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिका के देशों में भी इस सन्दर्भ में मूलभूत भिन्नताएँ थीं। भिन्नताएँ इस हिसाब से भी थीं कि कौन देश किस देश का उपनिवेश था, क्योंकि सभी उपनिवेशवादियों की नीतियाँ एक समान न थीं। उपरोक्त इतिहासकार और विद्वान इस तथ्य पर भी ध्यान नहीं देते कि रूस में, कुछ पूर्वी यूरोपीय देशों में, और जापान में भी, पूँजीवादी विकास का रास्ता हू–ब–हू ‘पुनर्जागरण–प्रबोधन–क्रान्ति’ का रास्ता नहीं था। इन देशों में पुनर्जागरण और प्रबोधन के स्थानापन्न सामाजिक–सांस्कृतिक–विचारधारात्मक आन्दोलनों के अन्य रूप देखने को मिलते हैं। यूरोपीय पुनर्जागरण और प्रबोधन के संघटक अवयव इन आन्दोलनों में अलग ढंग से संघटित हुए थे। और सभी जगह पूँजीवाद क्रान्ति के द्वारा आया भी नहीं। कहीं यह ‘नीचे से’ और (मार्क्स के शब्दों में) “क्रान्तिकारी ढंग से” आया तो कहीं ‘ऊपर से’ या ‘क्रमिक विकास’ की प्रक्रिया में या ग़ैर–क्रान्तिकारी ढंग से विकसित हुआ। जहाँ यह दूसरे ढंग से आया, वहाँ पूँजीवाद का चरित्र अधिक जनविरोधी था, वहाँ के राज्य और समाज में जनवाद के तत्त्व बहुत कम थे, वहाँ पूँजीवादी उत्पादन–सम्बन्धों के वर्चस्व के बावजूद, उनके अधीनस्थ प्राक्–पूँजीवादी संरचनाओं की मौजूदगी बनी हुई थी तथा वहाँ प्राक्–पूँजीवादी अधिरचना को पूरी तरह से ध्वस्त करने के बजाय उसके तमाम मूल्यों–संस्थाओं को पूँजीवाद ने अन्तर्भेदन–अधीनीकरण–परिष्कार के द्वारा अपने अनुरूप बनाकर अपना लिया था। यूरोपीय पुनर्जागरण–प्रबोधन की प्रक्रिया के बजाय, उपनिवेशों में जनवाद और राष्ट्रवाद के मूल्य राष्ट्रीय आन्दोलन के अन्तर्गत चलने वाले साम्राज्यवाद–सामन्तवाद विरोधी संघर्षों के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। इनकी वाहक सामाजिक शक्तियाँ उसी औपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना में पैदा हुई थीं, जिसे इन देशों की अपनी सामाजिक–आर्थिक संरचना को व्यवस्थित ढंग से नष्ट करके, इनकी नैसर्गिक आन्तरिक विकास–प्रक्रिया को नष्ट करके, ऊपर से आरोपित किया गया था। औपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना में पैदा हुए और साम्राज्यवादी विश्व–परिवेश में पले–बढ़े, विकलांग–बौने पूँजीवाद के मानववाद, जनवाद, यथार्थवाद और वैज्ञानिक तर्कणा के मूल्य यदि जन्मना ही पक्षाघात के शिकार थे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। उपनिवेशों में, (निश्चय ही अलग–अलग ढंग से और अलग–अलग परिमाण में) पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियों के कार्यभार एक दु:सह–यन्त्रणादायी ढंग से क्रमिक विकास की प्रक्रिया में और आधे–अधूरे ढंग से पूरे हुए और सत्तासीन होने के बाद भी इन देशों के पूँजीपति वर्ग ने साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद नहीं किया। यह इतिहास की वस्तुगत सच्चाई है जिससे मुँह मोड़कर और किसी क़िस्म के काल्पनिक चिन्तन का सहारा लेकर “खोये हुए राष्ट्रीय गौरव” की खोज करना एकदम व्यर्थ है। भारतीय जनता के पास वर्ग–संघर्ष के सातत्य का गौरव है, पर उस गौरव का मनोगत महिमामण्डन करते हुए इतिहास के रंगमंच की सीमाओं और तज्जनित त्रासदियों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। इतिहास की सहस्राब्दियों से जारी दौड़ में कुछ शताब्दियों के लिए कोई क्षेत्र/देश/राष्ट्र आगे रहे तो कभी कोई और। इसका भी अपना एक ऐतिहासिक–वैज्ञानिक तर्क है। पूँजीवाद, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के दौर में पुरातन सभ्यता–संस्कृति वाले तथा प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा एवं सामाजिक सम्पदा वाले कुछ देश (जैसे भारत) विशिष्ट वस्तुगत ऐतिहासिक कारणों से (जिनकी चर्चा यहाँ सम्भव नहीं) पीछे छूट गये। अब ऐसे ही देश विश्व–पूँजीवाद विरोधी सर्वहारा क्रान्ति के नये “हॉट स्पॉट्स” हैं जो भविष्य में “फ्लैश प्वाइण्ट्स” बनेंगे। सर्वहारा क्रान्ति के प्रथम संस्करणों की विफलता से विश्व इतिहास की इस बुनियादी गति पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। भारत जैसे देशों के औपनिवेशिक अतीत के चलते फ़र्क़ बस इतना पड़ा है कि राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान और 1947 के बाद क्रमिक विकास–प्रक्रिया के ग़ैर–क्रान्तिकारी मार्ग से और आधे–अधूरे ढंग से जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों के पूरा होने की जो त्रासदी घटित हुई, उससे पैदा हुई विकृतियों को दूर करने और विगत दौर के छूटे हुए कार्यभारों के ‘बैकलॉग’ को निपटाने की ज़िम्मेदारी अब भावी नयी सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति के कन्धों पर है। सांस्कृतिक–वैचारिक आन्दोलन की एक गहन प्रक्रिया और सुदृढ़ वैचारिक–सांस्कृतिक आधार के बिना इस क्रान्ति की वाहक शक्तियाँ निश्चय ही इस काम को पूरा नहीं कर सकतीं। और इसके लिए मनमाने सूत्रीकरणों और “भारत–व्याकुल–हृदय” होने की जगह इतिहास के प्रति एक वस्तुपरक रुख़ अपनाना ज़रूरी है। दूसरी बात, राष्ट्रीय गौरव–स्थापना के लिए द्रविड़ प्राणायाम करते हुए विश्व–ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की भी अनदेखी और विश्व–इतिहास की मनमानी व्याख्या नहीं की जा सकती। “हिन्दी नवजागरण” के आविष्कर्ता रामविलास शर्मा और उनके अनुयायी तथा मनमाने ढंग से अवस्थितियाँ बदलते रहने वाले और “बंगाल नवजागरण” का महत्त्व–प्रतिपादन करने वाले नामवर सिंह ने तो ऐसा किया ही है, कई मार्क्सवादी इतिहासकार भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। इसी दोष का एक सह–उत्पाद यह है कि विशिष्ट यूरोपीय ऐतिहासिक घटनाओं–परिघटनाओं–प्रवर्गों के जूते के हिसाब से भारतीय ऐतिहासिक तथ्यों के पैर प्रकारान्तर से वे लोग भी काटने लगने हैं जो प्रकटत: “भारतीय गौरव के अतिशय आग्रही” प्रतीत होते हैं। 1857 के महासंग्राम की महत्ता और इतिहास पर पड़े उसके प्रभावों के वस्तुपरक मूल्यांकन के लिए इस प्रवृत्ति–दोष और पद्धति–दोष से मुक्त होना ज़रूरी है।

यहाँ इस ऐतिहासिक घटना के जिन पहलुओं पर विचार किया जा रहा है, वे कम से कम एक सुदीर्घ शोध–निबन्ध के कलेवर का आग्रह करते हैं। यदि पूर्वप्रस्तुत स्थापनाओं को लेकर खण्डन–मण्डन यानी ‘पॉलिमिक्स’ की शैली अपनायी जाये, तब तो एक पुस्तकाकार शोध–प्रबन्ध की दरकार होगी। अत: आग्रह है कि पाठकगण इसे एक शोध–प्रबन्ध की ‘सिनॉप्सिस’ मानकर पढ़ें जिसमें कुछ आधारभूत अवधारणाओं को सूत्रवत प्रस्तुत किया गया है।

1857 के महाविद्रोह की पूर्वपीठिका के रूप में वैज्ञानिक तर्कणा, भौतिकवाद और जनवाद के वैसे नये मूल्य मौजूद नहीं थे, जैसा फ़्रांसीसी क्रान्ति की पृष्ठभूमि के तौर पर दिदेरो, वाल्तेयर, रूसो और मोन्तेस्क्यू के विचारों के रूप में या अमेरिकी क्रान्ति की पृष्ठभूमि के तौर पर टॉमस पेन, बेंजामिन फ़्रैंकलिन, वाशिंगटन, जेफ़र्सन आदि के विचारों के रूप में या फिर उन्नीसवीं शताब्दी के रूस में बेलिंस्की, हर्ज़न, चेर्निशेव्स्की, दोब्रोल्यूबोव जैसे क्रान्तिकारी जनवादी विचारकों के जुझारू भौतिकवादी विचारों के रूप में मौजूद थे। इसके पीछे साम्राज्यवाद–विरोध की वैसी सुसंगत वैचारिक सोच का आधार भी मौजूद नहीं था, जैसा लातिन अमेरिका में साइमन बोलिवार (1783–1830) ने या क्यूबा के विशिष्ट सन्दर्भ में होसे मार्ती (1853–1895) ने तैयार किया था। आज इसे मात्र सैनिक विद्रोह कोई नहीं मानता। इसकी मुख्य ताक़त किसान और फिर छोटे दस्तकार थे। लेकिन उनका कोई ऐसा दृष्टिसम्पन्न केन्द्रीय नेतृत्व नहीं था जिसके पास भविष्य की शासन–व्यवस्था एवं सामाजिक ढाँचे के बारे में कोई सुविचारित रूपरेखा हो। नेतृत्व में मुख्यत: अलग–अलग क्षेत्रों के छोटे–मँझोले सामन्त दिखायी देते हैं। तब फिर सवाल उठता है कि किस आधार पर इसे एक प्रगतिशील ऐतिहासिक घटना माना जाये? क्या यह मात्र एक जनविद्रोह था, जो विगत जनविद्रोहों से सिर्फ़ इस मायने में भिन्न था कि इसका स्वरूप अतीत के उपनिवेशवाद–विरोधी जनविद्रोहों से काफ़ी व्यापक, लगभग देशव्यापी था? यदि यह विद्रोह सफल हुआ होता तो क्या भारत उपनिवेशवाद की आधुनिक बुराई को छोड़कर मध्ययुगीन बुराई की जकड़बन्दी का शिकार हो जाता? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढते हुए हमें इस प्रश्न से भी जूझना ही होगा कि क्या मध्यकालीन भारतीय समाज में पूँजीवादी विकास के भ्रूण या आन्तरिक गतिकी मौजूद थी? 1857 का महासंग्राम क्या ‘पुराने भारत’ का अन्तिम प्रतिरोध–संघर्ष मात्र था या इसमें राष्ट्रवाद की प्रारम्भिक अभिव्यक्ति भी देखी जा सकती है? यहाँ हमें देशभक्ति (पैट्रियाटिज़्म) और राष्ट्रवाद (नेशनलिज़्म) के बीच के अन्तर पर भी ध्यान देना होगा।

1857 के महत्त्व और महानता को सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए उपनिवेशीकरण की परिघटना को, सामान्य और फिर विशिष्ट भारतीय परिप्रेक्ष्य में सांगोपांग समझना होगा। इस सम्भावना पर भी विचार करना होगा कि यदि भारत उपनिवेश नहीं बन जाता तो क्या यहाँ भी अपनी स्वतन्त्र आन्तरिक गति से पूँजीवादी विकास की सम्भावना थी? इसी से जुड़ा प्रश्न यह भी है कि यदि 1857 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की पराजय हो जाती तो फिर भारत की कैसी तस्वीर होती? यह अटकलबाज़ी की बात नहीं है, बल्कि इतिहास के वैज्ञानिक तर्क पर आधारित सम्भावनाओं की प्रायिकता पर विचार करने की बात है। आगे हम देखेंगे कि यह प्रश्न किस प्रकार 1857 की अर्थवत्ता–महत्ता के आकलन से जुड़ा हुआ है।

यहाँ हम मुग़लकालीन भारत की स्थिति पर संक्षेप में अपने विचार रखेंगे और देखेंगे कि उपनिवेश न बनने की स्थिति में, मध्ययुगीन आर्थिक–सामाजिक संरचना के विघटन के साथ ही भारतीय समाज के पूँजीवादी विकास–पथ पर अग्रसर होने की सम्भावना किस हद तक मौजूद थी। मार्क्सवादी इतिहासकारों के बीच एक बहस यह भी रही है कि मध्यकालीन भारत की सामाजिक–आर्थिक संरचना सामन्ती मानी जाये या नहीं। यूरोपीय सामन्तवाद के बारे में मार्क्स की विवेचना के आधार पर इरफ़ान हबीब और हरबंस मुखिया जैसे इतिहासकार मध्ययुगीन भारत में सामन्तवाद की उपस्थिति से इन्कार करते हैं, जबकि अधिकांश सोवियत इतिहासकार, डी.डी. कोसम्बी, सतीश चन्द्र आदि मध्ययुगीन भारत को सामन्ती ही मानते हैं। हमारा भी यही मत है कि यूरोप से भिन्नता और अपनी विशिष्टताओं के साथ, भारतीय इतिहास का मध्ययुग सामन्तवाद का ही युग था, लेकिन यहाँ इस बहस को हम पूरी तरह से छोड़ देते हैं। देखना यह है कि मध्यकालीन भारत में चाहे जिस कोटि की भी प्राक्–पूँजीवादी सामाजिक–आर्थिक संरचना मौजूद थी, उसकी आन्तरिक गतिकी क्या थी और उसमें पूँजीवाद के बीज या विकास–दिशा के संकेतक उपस्थित थे या नहीं!

क्या मुग़लकालीन भारत में पूँजीवादी सम्बन्ध विकसित हो रहे थे! इस प्रश्न के विविध पहलुओं पर गत शताब्दी में साठ के दशक से लेकर अबतक, शायद सबसे सूक्ष्म और व्यापक ढंग से इरफ़ान हबीब ने विचार किया है। उन्होंने मध्यकालीन भारत के गाँवों में किसान आबादी के विभेदीकरण, वर्गों एवं वर्ग संघर्ष के रूप में मौजूद समाज की आन्तरिक गतिकी, नकदी लगान, माल–मुद्रा सम्बन्धों के विकास, शहरों और गाँवों में दस्तकारियों के विकास, विज्ञान और तकनोलॉजी के विकास की समस्याओं आदि की सविस्तार चर्चा की है, लेकिन जहाँ तक मूल प्रश्न का सम्बन्ध है, उसका वे नकारात्मक उत्तर देते हैं। हरबंस मुखिया तो उनसे भी कुछ क़दम आगे जाकर, मध्यकालीन भारतीय समाज में किसी भी प्रकार की ऐतिहासिक गतिशीलता से ही इन्कार करते हैं, यानी उनके लेखे, ब्रिटिश उपनिवेशवाद के बिना प्राक्–औपनिवेशिक भारत में पूँजीवाद का विकास ही सम्भव नहीं था। सतीश चन्द्र और तपन रायचैधुरी जैसे इतिहासकार तथा रेसनर और पाव्लोव जैसे अधिकांश सोवियत इतिहासकार यह तो मानते हैं कि प्राक्–औपनिवेशिक भारत अभी पूँजीवाद के विकास–पथ पर आगे (यानी दस्तकारी से मैन्युफ़ैक्चरिंग के विकास की आम दिशा में) नहीं बढ़ सका था तथा किसी क़िस्म की औद्योगिक क्रान्ति तत्कालीन भारतीय समाज में आसन्न नहीं थी, वे पूँजीवादी विकास के मार्ग की कतिपय बाधाओं–समस्याओं को स्वीकार भी करते हैं, लेकिन साथ ही वे पूँजीवाद के उन भ्रूणों और पूँजीवादी विकास की उन सम्भावनाओं पर भी बल देते हैं, जिन्हें पूर्ण उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया ने कोख में ही कुचल दिया। इन सबसे अलग रामविलास शर्मा और उनके अनुयायी हैं जो उत्पादन–सम्बन्धों की जगह विनिमय–सम्बन्धों पर बल देते हुए तीव्र वाणिज्यिक गतिविधियों को ही वाणिज्यिक पूँजीवाद और फिर वाणिज्यिक पूँजीवाद को ही पूँजीवाद मानते हुए भारत में पूँजीवादी विकास की कालावधि को खींचकर काफ़ी पीछे ले जाते हैं और ऐसा करते हुए वे न केवल मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की ऐसी–तैसी कर डालते हैं बल्कि नवजागरण की अपनी अवधारणा को स्वयं ही अन्तरविरोधों के भँवरजाल में फँसा देते हैं।

यहाँ इन सभी अवस्थितियों पर विचार या इनकी समालोचना प्रस्तुत करना हमारा विषय नहीं है। हम अपनी स्थापना रखते हुए इनकी मात्र प्रसंगवश चर्चा एवं आलोचना करेंगे और इन सबकी शुरुआत कार्ल मार्क्स के बहुविवादित भारत–विषयक विचारों की चर्चा से करना ही सबसे सटीक होगा। सबसे पहली बात यह कि भारत कभी भी मार्क्स के शोध–अध्ययन का केन्द्रीय विषय नहीं था। अपनी स्वाभाविक वैज्ञानिक दृष्टि से, उपलब्ध हो सकी सीमित स्रोत–सामग्री के अध्ययन के आधार पर (विविध प्राक्–पूँजीवादी संरचनाओं पर विचार करते हुए) मार्क्स ने प्राक्–औपनिवेशिक भारत के बारे में, भारतीय ग्राम समुदायों की आत्मनिर्भरता, भूमि के सामूहिक स्वामित्व, एशियाई उत्पादन–प्रणाली और प्राच्य निरंकुशता के बारे में तथा भारत में पूँजीवादी विकास की कारक–शक्ति के रूप में उपनिवेशवाद की भूमिका के बारे में कुछ प्रस्थापनाएँ दी थीं। इन सभी विषयों पर उपलब्ध नयी आधार–सामग्री ने ख़ासकर विगत आधी शताब्दी के दौरान, मार्क्स की उपरोक्त प्रस्थापनाओं में महत्त्वपूर्ण संशोधन को अपरिहार्य और मार्क्सवादी विचारकों के बीच लगभग आम सहमति का विषय बना दिया है। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि इन प्रस्थापनाओं को लेकर स्वयं मार्क्स और एंगेल्स के मन में भी संशय और दुविधा की स्थिति उत्पन्न होती रही और अपने जीवन–काल में ही उन्होंने उनमें कई महत्त्वपूर्ण संशोधन भी किये।

मार्क्स का सामान्य वैज्ञानिक अप्रोच यह था कि भारतीय इतिहास का अध्ययन उसकी विशिष्टताओं के आधार पर किया जाना चाहिए। सबसे पहली विशिष्टता (उपलब्ध स्रोत–सामग्री के आधार पर, 1850 के दशक में) उन्होंने यह देखी कि किसान परिवारों द्वारा निजी रूप में खेती की जाने के बावजूद ग्राम समुदाय और जाति के बन्धन किसानों और देहाती दस्तकारों को एक सामाजिक–आर्थिक इकाई में बाँधकर रखते थे और यहाँ यूरोपीय भूदासता जैसी किसी क़िस्म की व्यक्तिगत अधीनस्थता के बजाय पूरे ग्राम समुदाय की ही अधीनस्थता हुआ करती थी। अब उपलब्ध तथ्य–सामग्री ने लगभग निर्विवाद रूप से यह सिद्ध कर दिया है और अग्रणी मार्क्सवादी इतिहासकारों में इस स्थापना पर आम सहमति है कि एक विच्छिन्न–विशिष्ट आर्थिक–सामाजिक इकाई होने के बावजूद भारतीय गाँवों के जनसमुदाय में श्रेणी–विभाजन या स्तर–विन्यासीकरण मार्क्स की सोच से कहीं बहुत अधिक था और वहाँ के सामुदायिक जीवन में गतिहीनता या निश्चलता की उनकी धारणा ठीक नहीं थी। यहाँ भी वर्ग–विभेद जनित टकरावों की आन्तरिक गति किसी न किसी रूप में मौजूद थी। व्यक्तिगत अधीनस्थता सामूहिक अधीनस्थता के साथ विविध रूपों में जुड़ी हुई थी। राजस्व वसूलने के अधिकार के चलते गाँवों पर नियन्त्रण रखने वाले बड़े लोगों ने कालान्तर में समृद्ध होने के साथ ही (ख़ुदकाश्त और मीरासदार के तौर पर) अपनी ज़मीन पर भाड़े के श्रम से खेती करानी शुरू कर दी थी। व्यक्तिगत अधीनस्थता का प्रमुख उपकरण जाति–व्यवस्था थी जिसने ग्रामीण सर्वहारा का विशाल वर्ग संघटित किया था। इसके अतिरिक्त, छोटे पैमाने के निजी उत्पादन ने भी अनिवार्य तार्किक परिणति के रूप में आर्थिक विभेदीकरण को जन्म दिया था। तथ्य बतलाते हैं कि हालाँकि राज्य के अधिकार जागीरों के सुपुर्ददारों के ज़रिये अमल में आने के नाते किसानों का स्थानान्तरण वैधिक रूप से प्रतिबन्धित था, लेकिन व्यवहारत: किसान वर्ग में पर्याप्त क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर गतिशीलता थी।

भारत में भूदासता की अनुपस्थिति पर बल देते हुए मार्क्स इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि पूरे एशिया में लगान (रेण्ट) और कर (या राजस्व) के एकीभूत हो जाने के कारण यहाँ राज्य ही भूस्वामी था और ऐसी स्थिति में सामान्य अधीनस्थता के दबाव के अतिरिक्त जनता पर किसी अन्य राजनीतिक–आर्थिक दबाव की आवश्यकता नहीं थी। यहाँ फिर, नये शोध मार्क्स की एतद्विषयक अवधारणा में कुछ संशोधन की आवश्यकता उत्पन्न कर देते हैं। मार्क्स की सोच से अलग, गाँवों का अतिरिक्त उत्पादन समग्रत: राज्य (या उसके सुपुर्ददारों) के हाथ में नहीं जाता था, बल्कि वंशानुगत रूप से लगान में हिस्सा बाँटने वाला एक समूचा वर्ग मौजूद था जिसे मुग़लकाल में ज़मींदार कहा जाता था। किसान ज़मींदार को ज़मीन का मालिक समझते थे और ज़मींदार उन्हें ज़मीन से बेदख़ल भी कर सकते थे। सोलहवीं शताब्दी तक ज़मींदारी का अधिकार विक्रेय हो चुका था। ज़ाहिर है कि इसमें सम्पूर्णत: नहीं तो अंशत: निजी भूसम्पत्ति का तत्त्व है (और यही बात मीरासदारों और ख़ुदकाश्तों की ज़मीन के बारे में भी कही जा सकती है)। इस स्थिति का सामंजस्य एशियाई उत्पादन–प्रणाली की मार्क्स द्वारा प्रस्तुत अवधारणा (या किसी भी प्रचलित अवधारणा) के साथ नहीं बैठाया जा सकता। यह उस सामन्ती भूस्वामित्व के साथ अधिक सापेक्षिक निकटता रखता है, जो ‘फ़ीफ़’ और ‘मेनर’ प्रणालियों के लोप के उपरान्त यूरोप में पैदा हुआ था।

यूँ कहें कि ग्राम समुदाय सामुदायिक समरसता और निश्चलता के बजाय स्तर–विन्यास (वर्ग–विभाजन) और अलग–अलग सामाजिक श्रेणियों/वर्गों के अन्तरविरोधों–टकरावों से युक्त था और जहाँ तक पूरे समाज के बुनियादी अन्तरविरोध की बात है, वह सिर्फ़ ग्राम समुदाय के किसानों–दस्तकारों और केन्द्रीभूत राज्य के बीच ही नहीं, बल्कि ग्राम–समुदायों और ज़मींदारों व केन्द्रीभूत राज्य के बीच तथा ज़मींदारों और केन्द्रीभूत राज्य के बीच भी था। आज यह स्थापना निर्विवाद है कि मुग़ल साम्राज्य का पतन मूलत: कृषि संकट के कारण हुआ। केन्द्रीभूत निरंकुश सत्ता पर किसान विद्रोहों का दबाव बढ़ा तो ज़मींदारों ने अक्सर इन विद्रोहों का नेतृत्व (सजातीय बड़े किसानों, मीरासदारों आदि की सहायता से) क़ब्ज़ा लिया और साम्राज्य के केन्द्रीभूत निरंकुशतावाद के पतन के बाद उन्होंने (यानी ज़मींदारों ने) किसानों पर अपने अधिकार को व्यापक एवं सुदृढ़ बना लिया। तात्पर्य यह कि हर समाज की तरह भारतीय समाज में भी वर्ग–संघर्ष की अपनी गतिकी मौजूद थी।

मार्क्स ने समूचे एशिया में सामाजिक संगठन की अपरिवर्तनशीलता के दो प्रमुख आधार माने थे : ग्राम समुदाय और प्राच्य निरंकुशतावाद। ग्राम समुदाय की चर्चा के बाद, प्राच्य निरंकुशतावाद के सन्दर्भ में कुछ बातें। मार्क्स ने राज्य द्वारा सिंचाई के साधनों के विकास को कर–लगान का आर्थिक आधार माना था। लेकिन तथ्य बताते हैं कि कृषि के विस्तार के लिए किये गये सभी उपाय और उनके प्रभाव काफ़ी सीमित थे। यानी राज्य की अधीनस्थता की सामान्य स्वीकृति के बजाय किसानों से कर–लगान की वसूली में विविध दबावों की अहम भूमिका थी। फिर भी यह सही है कि केन्द्रीभूत निरंकुशतावाद कर–लगान की वसूली के लिए ज़रूरी था। इस केन्द्रीभूत निरंकुशतावाद में वित्तीय दबाव लगातार बढ़ाने की प्रवृत्ति थी। इसके विरुद्ध किसान आबादी भी थी और ज़मींदारों के हित भी इससे टकराते थे। किसान विद्रोहों के चलते जब साम्राज्यीय व्यवस्था का विघटन हुआ तो केन्द्रीभूत निरंकुशतावाद का भी पराभव हो गया और ज़मींदारों ने किसानों पर अपने अधिकारों का (सामन्ती ढंग से) विस्तार कर लिया।

यहाँ यह उल्लेख ज़रूरी है कि एशियाई उत्पादन–प्रणाली की परिवर्तन–विषयक मार्क्स–एंगेल्स की अवधारणा में संक्रमणशीलता के द्योतक अन्तरविरोध शुरू से ही मौजूद थे। अपने जीवन के अन्तिम वर्षों तक दोनों अपनी सोच में निरन्तर बदलाव लाते रहे। स्वयं मार्क्स के ही भारत–विषयक लेखन से यह आभास होता है कि ऐसी कोई निश्चल, गतिहीन प्रणाली शायद ही कभी अस्तित्व में रही हो। स्वयं मार्क्स ने इस बात का उल्लेख किया है कि प्राक्–औपनिवेशिक भारत में सामुदायिक कृषि व्यवस्था का व्यक्तिगत कृषि व्यवस्था में रूपान्तरण हुआ था। दूसरे, इस्लामी राज्य व्यवस्थाओं के आगमन के बाद, कर–लगान के सन्दर्भ में राज्य के अधिकार के विस्तार के तथ्य को भी उन्होंने स्वीकार किया था।

तीसरी बात, उपभोक्ता सामग्री के व्यापक प्रसार के बिना केन्द्रीभूत राजस्व ढाँचे की बात नहीं सोची जा सकती। मध्यकाल में वाणिज्य के पर्याप्त विकास, बैंकिंग, बीमा तथा सुदूर बाज़ारों के लिए उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में माहिर शहरी केन्द्रों के विकास को इसी आधार पर समझा जा सकता है। मार्क्स मौद्रिक सम्बन्धों को आर्थिक संगठन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष मानते थे। और समूची उत्पादन प्रणाली में उपरोक्त बदलाव के लिए मुद्रा के रूप में लगान के भुगतान को एक बुनियादी कारक मानते थे (जो समूचे मुग़लकाल की भूमि व्यवस्था की एक बुनियादी अभिलाक्षणिकता थी)। इसी के साथ ज़मींदारी के अधिकार के विक्रेय हो जाने की स्थिति को भी जोड़कर देखा जाना चाहिए। ज़ाहिर है कि प्राक्–औपनिवेशिक भारत में उत्पादन के उपभोक्ता वस्तुओं में रूपान्तरण की जिस परिघटना को मार्क्स ने लक्षित किया था, वह बिना दूरगामी सामाजिक परिवर्तनों के सम्भव नहीं था। यहाँ इस चर्चा को और विस्तार में ले जाये बिना हम मूल विषय से सम्बन्धित इस निष्कर्ष को अब सूत्रवत कहना चाहते हैं कि भारतीय ग्राम समुदायों की निश्चलता के बारे में मार्क्स की सोच अन्तिम न होकर निरन्तर परिवर्तनशील थी। उसे एक सतत विकासमान चिन्तन–प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए। अपने उत्तरवर्ती दौर के लेखन में मार्क्स और एंगेल्स ने भारतीय समाज की आन्तरिक गति को स्पष्ट रूप में लक्षित किया था। निश्चय ही, यहाँ प्राच्य निरंकुशता, उत्पादन–प्रणाली के विकास की मन्थरता जैसी एशियाई उत्पादन–प्रणाली की कुछ ऐसी अभिलाक्षणिकताएँ ज़रूर मौजूद थीं, जिनके चलते प्राक्–औपनिवेशिक भारत में, पूँजीवाद के विकास की कुछ बाधाएँ थीं, लेकिन मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी किसी भी तरह से इन बाधाओं को अलंघ्य–असम्भव नहीं मान सकती। मार्क्स का यह प्रेक्षण भी सही है कि प्राक्–औपनिवेशिक भारत में सामान्यत: अतिरिक्त उत्पादन ही उपभोक्ता वस्तुओं के रूप में रूपान्तरित होता था और कृषि–अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता टूट नहीं पायी थी जिसके चलते नगर और उनका वाणिज्य पूरी तरह से राज्य द्वारा लागू खेती के शोषण की प्रणाली पर निर्भर बने हुए थे, लेकिन उपनिवेश न बनने की स्थिति में, स्वयं अपनी ही आन्तरिक गति से उत्पन्न दबाव इस सीमा को भी तोड़ देता। हमें इस मूल स्थापना को कभी नहीं भूलना चाहिए कि पूँजीवाद विश्व इतिहास की पहली सार्वजनीन (या वैश्विक, या सर्वसमावेशी) उत्पादन–प्रणाली है और इतिहास ने लेनिन की इस प्रस्थापना को सर्वथा सही सिद्ध किया है कि हर प्रकार की प्राक्–पूँजीवादी संरचना को येन–केन–प्रकारेण तोड़ डालने या अधीन कर लेने की क्षमता इसके भीतर निहित है। एक बार जब किसी समाज में माल–उत्पादन की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है और मौद्रिक सम्बन्धों और बाज़ार का विकास होने लगता है तो तमाम बाधाओं के बावजूद पूँजीवाद का विकास होता ही है, भले ही इसकी गति मन्थर और विकास–प्रक्रिया विलम्बित हो। इस बारे में हम आगे ठोस रूप में चर्चा करेंगे।

मध्यकालीन भारतीय समाज को गतिशून्य नहीं मानते हुए भी हरबंस मुखिया कृषि–उत्पादन की प्रणाली और सामाजिक संघर्ष की कतिपय विशिष्टताओं के मद्देनज़र यह मानते हैं कि उपनिवेशवाद के हस्तक्षेप के बिना, यहाँ किसी और उत्पादन–प्रणाली में रूपान्तरण सम्भव ही नहीं था। यह विचार इतिहास की द्वन्द्वात्मक आन्तरिक गति का ही निषेध करता है और सोवियत इतिहासकार रेसनर और पाव्लोव से लेकर तपन रायचैधुरी, इक्तिदार आलम, सतीश चन्द्र आदि द्वारा प्रस्तुत तथ्य भी इसे सिरे से खण्डित करते हैं। यदि मुखिया की मानें तो उपनिवेश न बनने की स्थिति में भारत शताब्दियों तक मध्ययुग में ही खड़ा रहता, चाहे पूरी दुनिया साम्राज्यवाद के उन्नत चरण तक पहुँचकर एकीकृत विश्व–व्यवस्था ही क्यों नहीं बन जाती। उनके लेखे, भारत में पूँजीवाद केवल उपनिवेशवाद के रास्ते ही आ सकता था। इस दृष्टिकोण से 1857 के महासंग्राम का चरित्र ही स्पष्टत: प्रतिगामी सिद्ध होता है क्योंकि यदि इसमें विजय प्राप्त होती तो भारत में पूँजीवाद या किसी अन्य अग्रवर्ती उत्पादन–प्रणाली में संक्रमण सम्भव ही नहीं होता। मुखिया यहाँ पूँजीवाद में संक्रमण विषयक मार्क्स और लेनिन की कुछ बुनियादी प्रस्थापनाओं की ही नहीं बल्कि रूस और पूर्वी यूरोप के कुछ देशों के इतिहास से अर्जित निष्कर्षों की भी अनदेखी करते हैं।

मुखिया के विपरीत इरफ़ान हबीब प्राक्–औपनिवेशिक भारत के इतिहास को वर्ग–संघर्षों से भरा हुआ मानते हैं। वे यह भी मानते हैं कि केन्द्रीकृत शासक वर्ग और किसान वर्ग के बीच प्रमुख अन्तरविरोध के अतिरिक्त यहाँ (i) राज्य और ज़मींदारों के बीच, (ii) बाहरी क्षेत्रों में जनजातियों और आगे बढ़ रहे किसानों के बीच, (iii) सर्वहारा श्रमिक और शेष समाज के बीच (सम्भावित रूप में) और (iv) कारीगर–शहरी श्रमिक और राज्यसत्ता के बीच (गौण रूप में) अन्तरविरोध मौजूद थे। इरफ़ान हबीब ऐसे समाज में, हालाँकि पूँजीवादी विकास की सम्भावनाओं को सिरे से ख़ारिज नहीं करते, लेकिन इस रास्ते की कई बाधाओं का उल्लेख करते हुए इस प्रश्न को और अधिक शोध के तक़ाज़े के साथ खुला छोड़ देते हैं। इससे अलग एक धारा उन इतिहासकारों की है जो यह तो मानते हैं कि उपनिवेश बनते समय तक भारत में दस्तकारी से मैन्युफ़ैक्चरिंग के विकास के रूप में पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पायी थी, लेकिन इसकी सम्भावना, दिशा और पृष्ठभूमि अवश्य ही मौजूद थी।

यहाँ हम इरफ़ान हबीब द्वारा उल्लिखित पूँजीवादी विकास की कुछ प्रतिनिधि समस्याओं–बाधाओं की चर्चा करेंगे और यह स्पष्ट करने की कोशिश करेंगे कि ये समस्याएँ–बाधाएँ पूँजीवादी विकास की गति एवं प्रकृति को प्रभावित तो कर सकती थीं लेकिन रोक नहीं सकती थीं।

प्रो. हबीब के अनुसार, धन निक्षेप, हुण्डियों या विनिमय पत्रों के व्यापक उपयोग, बीमा, वणिक, साहूकारों आदि की व्यापक मौजूदगी और अपार सम्पत्ति एवं जहाज़ों के बेड़ों के मालिक बड़े व्यापारियों की मौजूदगी जैसी विशिष्टताएँ प्राक्–औपनिवेशिक भारत में मौजूद थीं, लेकिन इन्हें व्यावसायिक पूँजीवाद से ही जुड़ा हुआ माना जा सकता है। इनके आधार पर यह कहना कि भारत में पूँजीवाद विकसित हो रहा था, तीव्र वाणिज्यिक क्रिया–कलापों को उत्पादन की पूँजीवादी पद्धति मानने की भूल करना है (और यही भूल रामविलास शर्मा करते हैं)। इरफ़ान हबीब के अनुसार, पूँजीवाद के अंकुरण के लिए आवश्यक बुनियादी पूर्वशर्त – कार्यशाला के अन्तर्गत श्रम का बँटवारा – मौजूद नहीं थी और ऐसी तीव्र गति से तकनीकी सुधार नहीं हो रहे थे कि औज़ार और मशीनें पूँजीपति के नियन्त्रण में आ जायें। दस्तकारी के क्षेत्र में पर्याप्त विकसित व्यापारिक पूँजी दादनी प्रथा के ज़रिये कारीगरों को अपने नियन्त्रण में रखे हुए थी। यानी अर्थव्यवस्था के पर्याप्त मौद्रीकरण के बावजूद घरेलू उद्योग का वर्चस्व क़ायम था। मुग़लकालीन व्यापारियों के कारखानों में मुख्यत: बड़े लोगों के उपभोग की महँगी चीज़ें बनती थीं और ऐसे उत्पादों का कोई बाज़ार ग्रामीण इलाक़ों में था ही नहीं। कारीगरों को दी जाने वाली बहुत कम मज़दूरी के कारण उनमें ऐसी तकनीक और औज़ार अपनाने की प्रवृत्ति ही नहीं थी जिससे कम श्रम में अधिक काम हो सके। साथ ही सत्ताधारियों और उन पर निर्भर बुद्धिजीवियों ने उत्पादन के लिए सहायक तकनोलॉजी के विकास के लिए कोई ठोस नीति नहीं अपनायी।

अब आइये, इन सभी तर्कों पर सिलसिलेवार विचार करें। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि दादनी प्रथा (पुटिंग आउट सिस्टम) के माध्यम से व्यापारियों द्वारा क़र्ज़, कच्चा माल देने और बाज़ार की ज़रूरत के हिसाब से उत्पादन करवाने के ज़रिये कारीगरों पर नियन्त्रण के अतिरिक्त विकास का एक वैकल्पिक मार्ग भी भारत में मौजूद था, भले ही यह उतना व्यापक नहीं था। यह रास्ता था उत्पादन के संगठनकर्ता तथा व्यापारी और महाजन के रूप में उस्ताद कारीगरों की मौजूदगी। इस विषय पर अभी भी काफ़ी कम काम हुआ है और इरफ़ान हबीब के शोध की एक गम्भीर कमी अन्य क्षेत्रों के छिटपुट हवालों के बावजूद उसका मूलत: और मुख्यत: मुग़ल साम्राज्य–केन्द्रित और उत्तर भारत–केन्द्रित होना है। लेकिन यदि मुग़लकाल से सम्बन्धित उपलब्ध तथ्यों को ही देखें तो अबुल फजल ने भी इसकी चर्चा की है कि अमीर–उमरा और योद्धाओं से नीचे, लेकिन धार्मिक कामों में लगे लोगों और पढ़े–लिखे लोगों से ऊपर, व्यापारियों के साथ–साथ उस्ताद कारीगरों की सामाजिक श्रेणी आर्थिक और सामाजिक रूप से विकसित हो चुकी थी। अकबर के दो उपलब्ध फरमानों में दो उस्ताद–कारीगरों को ज़मीन देने के हवाले से भी इस सामाजिक श्रेणी के तत्कालीन सामाजिक महत्त्व का पता चलता है। बंगाल में ऐसे समृद्ध उस्ताद कारीगर मौजूद थे जो अपनी पूँजी लगाकर और शागिर्द कारीगरों के ज़रिये यानी भाड़े के मज़दूरों के ज़रिये उत्पादन करते थे और उसे बेचते थे। अठारहवीं शताब्दी के मध्य में अवध में कपड़ों की छपाई करने वाला एक ऐसा उस्ताद प्रिण्टर मौजूद था जिसकी कार्यशाला में पाँच सौ अप्रेण्टिस काम करते थे। कश्मीर के शाल–उद्योग में ऐसे उस्ताद दस्तकार मौजूद थे जिनके पास अपने तीन सौ तक करघे हुआ करते थे। सूरत में, बंगाल और बिहार में ऐसे उस्ताद बढ़ई भारी तादाद में थे जो अस्थायी कामों के लिए भाड़े पर बढ़इयों को लगाया करते थे। इन आधारों पर, तपन रायचैधुरी का यह कहना सही प्रतीत होता है कि दस्तकारों के पूँजीवादी उद्यमी के रूप में रूपान्तरण के रूप में वाणिज्यिक से औद्योगिक पूँजीवाद में संक्रमण की प्रवृत्ति (जिसे मार्क्स ने पूँजीवादी विकास का ‘सच्चा क्रान्तिकारी मार्ग’ कहा था) भारतीय परिदृश्य पर अनुपस्थित नहीं थी। स्पष्ट है कि भारतीय समाज में यहाँ–वहाँ कृषि से दस्तकारी और दस्तकारी से मैन्युफ़ैक्चरिंग की दिशा में विकास की पूँजीवादी प्रवृत्ति मौजूद थी और लगातार विकसित हो रही थी, जिसकी ओर ध्यान न देना इरफ़ान हबीब की अवधारणा में असन्तुलन पैदा करता है। जब एक बार यह प्रवृत्ति देश में प्रविष्ट हो चुकी थी तो कालान्तर में उसका विकास और सभी प्राक्–पूँजीवादी संरचनाओं पर उसका वर्चस्व क़ायम होना ही था। मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की समझ हमें यही बताती है। इस दिशा में जितनी भी बाधाएँ गिनायी जाती हैं वे पूँजीवादी विकास की स्वतन्त्र आन्तरिक गति को विलम्बित एवं किसी हद तक विरूपित तो कर सकती थीं, लेकिन रोक नहीं सकती थीं। यहीं पर यह उल्लेख भी ज़रूरी है कि प्राक्–औपनिवेशिक भारत में औद्योगिक क्रान्ति न होने के कारणों पर चर्चा के दौरान 1968 में आयोजित एक संगोष्ठी में सतीश चन्द्र ने यह प्रस्थापना दी थी कि प्राक्–औपनिवेशिक काल में गुजरात और सम्भवत: कोरोमण्डलीय तथा मलाबार के समुद्रतटवर्ती क्षेत्र वस्तुत: पूँजीवादी विकास की प्रारम्भिक मंज़िल में प्रविष्ट हो चुके थे। तटवर्ती क्षेत्र पर अंग्रेज़ों के अधिकार के चलते आन्तरिक व्यापार का ढाँचा विश्रृंखलित होने के साथ ही विदेश–व्यापार भी कम होता गया और अन्तत: दस्तकारी उत्पादन ध्वस्त हो गया। इस स्थिति में, अंग्रेज़ उपनिवेशवादियों द्वारा प्रचलित भूमि के मुक्त तथा निर्बाध अलगाव के अधिकार के बल पर, स्थानीय पूँजी भूमि की ख़रीद की ओर प्रवाहित होने लगी।

पाव्लोव ने इस बात पर ठीक ही आश्चर्य प्रकट किया है कि इरफ़ान हबीब ने किसानों और ग्रामीण आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली देहाती दस्तकारियों के अन्दर पूँजीवाद की उत्पत्ति की निहित सम्भावनाओं का विश्लेषण नहीं किया है। इनमें “किसी भी क़िस्म का वास्तविक माल–उत्पादन नहीं हो पाने” के कारण प्रो. हबीब इनमें पूँजीवादी सम्बन्धों के अंकुरण की सम्भावना नहीं देखते। लेनिन ने कृषि और ग्रामीण दस्तकारियों में पूँजीवादी विकास–प्रक्रिया का रूस के सन्दर्भ में विश्लेषण करते हुए पद्धति–विषयक जो सिद्धान्त प्रतिपादित किये, उनके आधार पर यह स्पष्टत: कहा जा सकता है कि माल (यानी सम्भाव्य पूँजीवादी) उत्पादन की परिधि से न केवल बुनाई, तेल–पेराई और शक्कर–उत्पादन को बल्कि परम्परागत ग्रामीण दस्तकारियों को भी बाहर कर देना सर्वथा ग़लत होगा क्योंकि इन्होंने किसानों के साथ माल–मुद्रा सम्बन्धों में संक्रमण के स्पष्ट लक्षण प्रकट किये थे। इसके अतिरिक्त, खेती तथा किसानों के साथ इस तरह के सम्बन्धों का विकास ही दस्तकारों के लिए प्रादेशिक और राष्ट्रीय पैमाने पर सामाजिक श्रम–विभाजन के आधार पर पूँजीवादी सम्बन्धों के परवर्ती विकास की ठोस ऐतिहासिक सम्भावनाएँ प्रदान कर सकता था। ग्राम समुदायों के भीतर देहाती दस्तकारियों के पार्थक्य के ह्रास ने सामाजिक श्रम विभाजन को तीखा बनाया और दस्तकारी में उत्पादन–सम्बन्धों के नये रूपों को जन्म दिया। ग्राम समुदाय में दस्तकारी की स्थिति ने उसमें नये सम्बन्ध प्रकट नहीं होने दिये। इसलिए, इन तमाम सम्बन्धों को भंग करने के बाद ही दस्तकारियाँ ऐतिहासिक दृष्टि से सक्रिय हो सकती थीं तथा पहले छोटे पैमाने के माल–सम्बन्धों और फिर आरम्भिक पूँजीवादी सम्बन्धों को जन्म दे सकती थीं। उपनिवेश न बनने की स्थिति में समाज–विकास की तार्किक गति से यही होता, ऐसा न मानने का कोई ठोस कारण नहीं है।

अब हम एक बार फिर व्यापारिक और औद्योगिक पूँजीवाद के प्रश्न पर वापस लौटते हैं। यह बिल्कुल सही है कि व्यापारिक पूँजीवाद के विकास को पूँजीवादी विकास और तीव्र वाणिज्यिक गतिविधियों को पूँजीवाद का सूचक नहीं माना जा सकता। यह भी सही है कि ‘पूँजी’ के तीसरे खण्ड में मार्क्स ने भी यह अवधारणा प्रस्तुत की थी कि व्यापारिक पूँजी अपने आप में औद्योगिक पूँजी में नहीं बदल सकती। लेकिन मात्र इतने हवाले से, पूँजीवाद में संक्रमण विषयक मार्क्स के विचारों को नहीं जाना–समझा जा सकता। थोड़ा और गहराई में जाने और व्यापक परिप्रेक्ष्य में सोचने की ज़रूरत है। 1840 और 1850 के दशक में (‘जर्मन विचारधारा’ के काल में) पूँजीवाद में संक्रमण की चर्चा करते हुए मार्क्स ने सामन्ती व्यवस्था पर वाणिज्यिक गतिविधियों, विश्व बाज़ार के विकास और नये फैलते हुए शहरों के क्षरणकारी प्रभावों पर अधिक चर्चा करते हुए इस बात पर बल दिया था कि एक स्वायत्त शहरी दायरे के अन्तर्गत, व्यापारिक पूँजीवाद पूँजीवाद की ओर आगे बढ़ने के लिए प्रारम्भिक संवेग विकसित करता है। ‘पूँजी’ में वे पूँजीवाद में संक्रमण के एक दूसरी प्रक्रिया पर केन्द्रित करते हुए आगे बढ़े जिसमें ‘उत्पादक’ ही व्यापारी और पूँजीपति हो जाता है। मार्क्स ने इस दूसरी प्रक्रिया को ‘वास्तविक रूप में क्रान्तिकारी मार्ग’ की संज्ञा दी। इसके बाद मार्क्स का कारणान्वेषी विश्लेषण उन पूर्वस्थितियों के विश्लेषण की दिशा में आगे बढ़ जाता है जिनके अन्तर्गत कुछ उत्पादक पूँजीपति बन जाते हैं जबकि उनका बहुलांश उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व से पृथक्कृत होकर सम्पत्तिविहीन मज़दूर बन जाता है। लेकिन ‘पूँजी’ में मार्क्स ने पूँजीवाद में संक्रमण के दोनों विकल्पों की (एक क्रान्तिकारी और दूसरा ग़ैर–क्रान्तिकारी) चर्चा की। कहा जा सकता है कि इनमें से पहले का ‘सम्पत्ति–सम्बन्ध परिप्रेक्ष्य’ है जब कि दूसरे का ‘विनिमय–सम्बन्ध परिप्रेक्ष्य’ है। 1970 के दशक में पूँजीवाद में संक्रमण को लेकर पश्चिम में हुई बहस में, पॉल स्वीजी, वालेर्स्टीन आदि की अवस्थिति दूसरे परिप्रेक्ष्य पर आधारित थी जबकि मॉरिस डॉब, हिल्टन, बे्रनर आदि की अवस्थिति पहले परिप्रेक्ष्य पर आधारित थी। पेरी एण्डर्सन ने मूलत: ‘सम्पत्ति–सम्बन्ध परिप्रेक्ष्य’ की अवस्थिति अपनायी, लेकिन साथ ही स्वीजी और वालेर्स्टीन के निकट खड़े होकर उन्होंने नगरों और अन्तरराष्ट्रीय व्यापार की महत्त्वपूर्ण भूमिका को भी रेखांकित किया। मार्क्स ने ‘पूँजी’ में संक्रमण के दोनों रास्तों की चर्चा की है, हालाँकि यह स्पष्ट नहीं है कि वाणिज्यिक गतिविधि उत्पादों को तो माल में ज़्यादा से ज़्यादा बदलती जाती है, लेकिन स्वयं श्रम–शक्ति इस दौरान किस प्रकार एक माल में तब्दील हो जाती है। इसीलिए कारणात्मक प्राथमिकता तो विनिमय–सम्बन्धों की जगह उत्पादन के सामाजिक सम्बन्धों की ही बनती है। तब फिर पूँजीवाद में विकास के दूसरे रास्ते की मार्क्स चर्चा ही क्यों करते हैं। हम सोच सकते हैं कि मुख्यत: तो उत्पादन के सामाजिक–सम्बन्ध ही विनिमय–सम्बन्धों को तय करते हैं, लेकिन ऐसा भी सम्भव है कि पूँजीवादी विनिमय–सम्बन्ध (यानी व्यापारिक पूँजीवाद) कुछ समय तक तो उत्पादन के प्राक्–पूँजीवादी सामाजिक सम्बन्धों को अक्षुण्ण बनाये रखे, लेकिन लम्बी अवधि में वह उत्पादन–सम्बन्धों को भी प्रभावित करे। जैसे कि कार्यशालाओं के मालिक व्यापारियों का उद्योगपति चरित्र प्रधान बन जाये, या सामाजिक वर्ग–संघर्ष का कोई रूप व्यापारियों को कार्यशालाओं के स्वामित्व से वंचित कर दे, या माल–अर्थव्यवस्था के प्रभाव से पैदा हुई संस्कृति उद्यमिता की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे और व्यापारियों के कारख़ानों के समान्तर या उनके अधीन घरेलू स्तर पर काम करने वाले कारीगरों की व्यवस्था के समान्तर कुछ उस्ताद कारीगरों की कार्यशालाएँ अस्तित्व में आने लगें जो नयी तकनीक ईज़ाद करने के बूते पर बाज़ार पर अपना वर्चस्व क़ायम कर लें। इन सम्भावनाओं के साथ, यदि हम राजनीतिक अधिरचना को भी जोड़ लें तो व्यापारिक पूँजीवाद, उदीयमान औद्योगिक पूँजीवाद, सामन्त वर्ग और केन्द्रीभूत राजशाही के टकरावों के बीच पूँजीवादी विकास के विविध रूपों और रास्तों की सम्भावनाएँ हमारे सामने उपस्थित हो सकती हैं। बहरहाल, हम कहना यह चाहते हैं कि स्वयं मार्क्स ने पूँजीवादी विकास के एक अन्य मार्ग की भी चर्चा की है, जिसमें कम से कम शुरुआत में, व्यापारिक पूँजी या पूँजीवादी विनिमय–सम्बन्धों की बुनियादी कारक–प्रेरक की भूमिका हो सकती है। भारत में यदि कार्यशालाओं में श्रम–विभाजन का तथ्य एकदम अनुपस्थित भी होता, तो भी वैदेशिक एवं आन्तरिक व्यापार तथा शहरों और माल अर्थव्यवस्था का व्यापक विकास कालान्तर में पूँजीवादी विकास की पूर्वशर्तें उत्पन्न कर सकते थे। वाणिज्यिक पूँजीवाद द्वारा सामन्ती या प्राक्–पूँजीवादी सम्बन्धों को अक्षुण्ण बनाये रखने या संरक्षित करने की स्थिति स्थायी क़तई नहीं थी। इस स्थिति के भी अपने अन्तर्निहित अन्तरविरोध थे जिन्हें आगे विकसित होना ही था।

पूँजीवादी विकास की अन्य जितनी भी बाधाओं की इरफ़ान हबीब या अन्य इतिहासकार चर्चा करते हैं, वे सभी सिद्धान्तत: अलंघ्य कदापि नहीं हैं। उनकी चर्चा से सर्वोपरि तौर पर यह निष्कर्ष निकलता है कि उपनिवेश न बनने की स्थिति में भी, भारत में पूँजीवादी विकास का रास्ता पश्चिमी यूरोप से भिन्न होता। लेकिन ऐसा तो, उदाहरण के तौर पर रूस के “अर्द्धएशियाई” समाज के साथ भी हुआ। भारत में किसान–विद्रोहों और कृषि–संकट के परिणामस्वरूप जब मुग़ल साम्राज्य का पतन हुआ तो ज़मींदारों ने सामान्य रूप से किसानों पर अपने अधिकारों का विस्तार किया। इरफ़ान हबीब ने इंगित किया है कि यह स्थिति यूरोप में सामन्तवाद के पतन से उत्पन्न उस स्थिति से ठीक विपरीत थी – जिसके तहत राष्ट्र–राज्यों का उदय हुआ, वाणिज्य का विस्तार हुआ और लघु उत्पादन का सार्वत्रीकरण हुआ – जिससे पूँजीवाद का जन्म हुआ। बिलकुल ठीक, लेकिन हम सिर्फ़ यह कहना चाहते हैं कि पूँजीवादी विकास की यही प्रक्रिया पूर्वी यूरोप के देशों और रूस में नहीं रही। मुग़ल साम्राज्य के विघटन के बाद विभिन्न क्षेत्रीय शक्तियों के शासनान्तर्गत पूँजीवादी संक्रमण की स्थितियाँ किसी रूप में उत्पन्न ही नहीं हो सकती थीं, ऐसा मानने का कोई सैद्धान्तिक आधार नहीं है। यूरोप और यहाँ तक कि चीन के मुक़ाबले भी, जहाँ तक प्राक्–औपनिवेशिक भारत की तकनीक के पिछड़े होने की बात है, उपनिवेश न बनने की स्थिति में, व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा आगे चलकर इस कमी को दूर करने वाली प्रेरक शक्ति बन सकती थी। यह जब जाकर सम्भव होता जब सस्ती श्रम शक्ति की उपलब्धता के बूते प्रतिस्पर्द्धा में टिके रह पाना सम्भव नहीं रह जाता। यह बात तो इरफ़ान हबीब भी स्वीकार करते हैं कि जाति–व्यवस्था या अन्य कोई भी उपादान कारीगरों द्वारा नयी तकनीक अपनाने की राह में अलंघ्य बाधा नहीं था। इरफ़ान हबीब का यह कहना भी सही है कि मुग़ल शासन के अन्तिम दौर में जब कृषि तन्त्र में संकट उत्पन्न हुआ तो उसने समूची अर्थव्यवस्था को अपने चपेट में ले लिया और चूँकि पूँजी केवल वाणिज्य तक सीमित थी, उसका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था, इसलिए मुग़ल साम्राज्य के पतन के बाद 18वीं शताब्दी में उसके पास से वह विशाल बाज़ार छिन गया जो मुग़ल साम्राज्यकाल में उसके पास था। बिल्कुल ठीक, लेकिन हमारा कहना यह है कि यदि उत्पादक शक्तियों के विकास की श्रेष्ठता के अतिरिक्त छल–बल की कूटनीति और भयंकर रक्तपात के ज़रिये भारत को ब्रिटिश उपनिवेश नहीं बनाया जाता तो यहाँ वाणिज्यिक पूँजीवाद के वैभव के दौर के उपरोक्त अवसान के बाद स्वतन्त्र पूँजीवादी विकास की सम्भावना और अधिक मौजूद थी। यदि उत्पादक शक्तियों की श्रेष्ठता के तर्क को यान्त्रिक व अर्थवादी ढंग से लागू करते हुए कोई भारत के ब्रिटेन के हाथों उपनिवेशीकरण को अनिवार्य बताये, तो हम कहेंगे कि यही तर्क रूस और उन देशों के ऊपर क्यों नहीं लागू होता जो सापेक्षिक पिछडे़पन के बावजूद उपनिवेश नहीं बन सके। साथ ही, हम यह भी याद दिलायेंगे कि 18वीं शताब्दी में तकनीकी पिछड़ेपन के बावजूद, भारत प्रगति की सम्भावनाओं से युक्त था। भारत पर ब्रिटेन की उत्पादक शक्तियों की निर्णायक श्रेष्ठता औद्योगिक क्रान्ति के बाद ही क़ायम हुई जिसके पीछे औपनिवेशिक लूट और भारत की व्यवस्थित तबाही की अहम भूमिका थी। तीसरी बात, भारतीय तकनीक हर मायने में पिछड़ी नहीं थी, आज इसके पक्ष में तमाम तथ्य मौजूद हैं, लेकिन इनकी चर्चा यहाँ सम्भव नहीं है।

प्राक्–औपनिवेशक भारत में पूँजीवादी विकास की सम्भावनाओं पर दिमाग़ खोलकर सोचने के लिए, हम अकादमिक मार्क्सवादियों को सिर्फ़ याद दिलाना चाहते हैं कि उन्हें रूस में ज़ारशाही के अन्तर्गत उद्योगों के विकास तथा 1860 के भूमि सुधारों से लेकर स्तालिपिन के सुधारों तक के लम्बे दौर मेें एक क्रमिक प्रक्रिया में, ग़ैर–क्रान्तिकारी ढंग से कृषि में हुए पूँजीवादी विकास पर ग़ौर करना चाहिए। रूस साम्राज्यवादी दबाव झेलने के बावजूद कभी उपनिवेश नहीं बना और वहाँ पूँजीवाद का विकास पश्चिमी यूरोप से भिन्न ढंग से हुआ। इसके पूर्व जर्मनी में भी कृषि में पूँजीवाद का विकास ग़ैर–क्रान्तिकारी ढंग से हुआ था जिसे मार्क्स और लेनिन ने ‘प्रशियाई मार्ग’ और ‘जुंकर टाइप रूपान्तरण’ का नाम दिया था। जर्मनी और रूस में सामन्ती भूस्वामियों ने ही ख़ु को पूँजीवादी भूस्वामी बना लिया था और साथ ही ज़मीन का मालिक बने बड़े किसानों के बीच से भी कुलक पैदा हुए थे। राजनीतिक स्वतन्त्रता–प्राप्ति के बाद भारत में भी एक अलग ढंग से कृषि में पूँजीवादी विकास का यही ग़ैर–क्रान्तिकारी रूप अमल में आया, लेकिन यह एक अलग प्रसंग है।

मूल बात यह है कि प्राक्–पूँजीवादी सामाजिक–आर्थिक संरचना का रूप चाहे जो भी हो, एक बार समाज में जब माल–अर्थव्यवस्था पैदा हो जाती है, तो वह उसे तोड़ डालने या अपने अधीनस्थ कर लेने के काम को देर–सबेर अवश्य ही पूरा कर लेगी। मार्क्स ने ‘पूँजी’ के तीसरे खण्ड में इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि पूँजी का सर्वाधिक विविध प्रकार मध्ययुगीन और पितृसत्तात्मक भू–सम्पत्ति – भूस्वामित्व के सामन्ती “किसान अलॉटमेण्ट” (यानी बँधुआ मज़दूरों की जोत), गोत्रात्मक, सामुदायिक, राजकीय एवं अनेक दूसरे रूपों से सामना होता है और वह अनेक रास्तों और अनेक तरीक़ों का इस्तेमाल करके इन पर अपना नियन्त्रण स्थापित करती है। रूस में पूँजीवादी विकास का अध्ययन करते हुए लेनिन ने एकाधिक स्थानों पर यह स्पष्ट किया है कि कृषि में पूँजीवादी विकास के लिए भूमि काश्तकारी के किसी ख़ास रूप का होना अथवा मुक्त मज़दूर का मौजूद होना क़तई ज़रूरी नहीं है।

हाँ, इस सच्चाई को ज़रूर स्वीकार किया जाना चाहिए कि भारत में जिस समय उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई, उस समय तक यहाँ दस्तकारी से मैन्युफ़ैक्चरिंग तक की विकास–यात्रा अभी बहुत आगे नहीं बढ़ी थी (हालाँकि इसकी शुरुआत हो चुकी थी)। यहाँ औद्योगिक क्रान्ति जैसी कोई चीज़ नहीं हुई थी। यहाँ क्रान्तिकारी ढंग से पूँजीवादी संक्रमण होने के रास्ते में तमाम बाधाएँ भी थीं, लेकिन उपरोक्त चर्चा के निष्कर्ष के तौर पर हमारा यह मानना है कि उपनिवेश न बनने की स्थिति में भारत में अपनी स्वाभाविक प्रक्रिया में निरन्तर विकसित होती उत्पादक शक्तियाँ अन्ततोगत्वा प्राक्–पूँजीवादी उत्पादन–सम्बन्धों को तोड़ डालतीं और पूँजी भारतीय जीवन और समाज के पोर–पोर में घुस जाती। पुराने समाज की कोख में पूँजीवाद का शिशु पलता–बढ़ता रहता। मध्ययुगीन समाज का मूलाधार क्रमश: कमज़ोर पड़ता जाता। प्राक्–पूँजीवादी सामाजिक–आर्थिक संरचना के परमाणु का नाभिक निरन्तर प्रहारों से विखण्डित हो जाता और ऊर्जा का अजस्र प्रवाह फूट पड़ता। मूलाधार और अधिरचना की निर्णायक टक्कर होती और सामन्ती अधिरचना के बिखरने के साथ ही नये मूल्यों और संस्कृति से पूरा समाज आप्लावित हो जाता। निश्चय ही इस परिवर्तन की अपनी विशिष्टताएँ होतीं, गतियों–रूपों–समस्याओं की अपनी विविधताएँ होतीं, लेकिन विश्व इतिहास के पूँजीवादी युग में परिवर्तन की एकमात्र यही दिशा हो सकती थी। इस स्थिति में, भारत में भी अपनी ज़मीन पर अपनी आन्तरिक गति से पूँजीवाद अपनी भौतिक–आत्मिक समग्रता, शक्ति और संवेग के साथ उद्भूत होता, लेकिन उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया ने इस आन्तरिक गति की ही भ्रूण–हत्या कर डाली। यह एक ऐसी त्रासदी थी, जिसने भारतीय इतिहास पर जो सांघातिक प्रभाव डाला, वह आज तक भारतीय जीवन को प्रभावित कर रहा है और आगे भी लम्बे समय तक करता रहेगा। उपनिवेशीकरण की इस प्रक्रिया को समझने के बाद ही 1857 के ऐतिहासिक महत्त्व को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। लेकिन इसके पहले भक्ति आन्दोलन के बारे में संक्षेप में कुछ बातें।

मध्यकालीन भारत के विशेषज्ञ मार्क्सवादी इतिहासकार और साहित्येतिहास के मार्क्सवादी अध्येता भक्ति आन्दोलन, और विशेष तौर पर निर्गुण भक्ति आन्दोलन (या लोकवादी एकेश्वरवादी आन्दोलन), का विस्तृत अध्ययन विविध पक्षों से प्रस्तुत करते हैं तथा उसके उद्भव एवं पराभव की सामाजिक–राजनीतिक परिस्थितियों की तो विस्तृत चर्चा करते हैं, लेकिन वे इस आन्दोलन के सामाजिक वर्गीय आधार की या तो चर्चा ही नहीं करते या फिर इस बारे में निहायत गोलमोल ढंग से बातें करते हैं। इरफ़ान हबीब सिखों और सतनामियों के किसान संघर्षों के लोकवादी एकेश्वरवादी धार्मिक आन्दोलन से “जुड़” जाने की चर्चा तो करते हैं, लेकिन यह नहीं स्पष्ट करते कि यह धार्मिक आन्दोलन स्वयं (वस्तुत: यह धार्मिक से ज़्यादा एक सामाजिक आन्दोलन था) किन सामाजिक वर्गों के हितों–आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता था और इसका सामाजिक आधार किन वर्गों के बीच था। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि ऐतिहासिक घटनाओं–परिघटनाओं की हर पारस्परिक तुलना लँगड़ी होती है, और विशेष तौर पर मध्यकालीन यूरोप से मध्यकालीन भारतीय समाज की सभी भिन्नताओं तथा तत्कालीन भारतीय स्थितियों की सभी विशिष्टताओंे को ध्यान में रखते हुए, हम कहना चाहते हैं कि लोकवादी एकेश्वरवादी आन्दोलन उन्हीं वर्ग–शक्तियों के हितों–आकांक्षाओं–आवश्यकताओं को अभिव्यक्त कर रहा था जिनके हितों–आकांक्षाओं–आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व यूरोप की परिस्थितियों में धर्म–सुधार आन्दोलन कर रहा था। लोकवादी एकेश्वरवादी आन्दोलन के नेता तत्कालीन समाज में एक छोटे से अभिजन समुदाय में तब्दील हो चुके सत्ताश्रित या जाति व्यवस्था के अन्तर्गत विशेषाधिकार–प्राप्त बुद्धिजीवी वर्ग के सदस्य नहीं थे। वे कठिन श्रम से जीविका अर्जित करने वाले और जनता के बीच सक्रिय रहने वाले लोग थे। वे छीपी, चमार, जुलाहा, धुनिया, नाई जैसी किसी टहलुआ श्रेणी की निम्न जाति या किसानों की किसी जाति में पैदा हुए लोग थे। वर्ग की दृष्टि से वे या तो दस्तकार थे या किसान या छोटे व्यापारी। जाति–व्यवस्था और वर्णाश्रम धर्म के शास्त्रसम्मत आडम्बर तत्कालीन शासक–शोषण वर्ग के सर्वाधिक प्रभावी सांस्कृतिक अधिरचनात्मक अस्त्र थे। एकेश्वरवादी भक्ति आन्दोलन की धारा ने सर्वोपरि तौर पर इन्हीं पर चोट की। उन्होंने वेदों, स्मृतियों, उपनिषदों के प्राधिकार और तमाम स्थापित धार्मिक विधि–विधानों को अपने प्रहार का निशाना बनाया। निश्चय ही जाति व्यवस्था एक हद तक दस्तकारों की क्षैतिज गतिशीलता को बाधित करने के साथ ही किसान आबादी की वर्गीय एकजुटता और वर्ग चेतना के विकास को भी बाधित कर रही थी। इसलिए स्वाभाविक था कि किसानों–दस्तकारों के विचारधारात्मक प्रतिनिधि के रूप में निर्गुण भक्ति आन्दोलन के नेताओं ने सबसे पहले इन्हें ही अपने प्रहार का निशाना बनाया। यूरोप के धर्मसुधार आन्दोलन में उग्रपरिवर्तनवादी (जैसे थामस मुंजर और काल्वें की धारा) और उदारवादी धाराएँ (जैसे लूथर की धारा) साथ–साथ मौजूद थीं, साथ ही ‘रिप़़ॉर्मेशन’ की धारा के जवाब में वहाँ ‘काउण्टर रिप़़ॉर्मेशन’ की धारा भी मौजूद थी। ठीक इसी तरह रैडिकल और सुधारवादी धाराएँ लोकवादी एकेश्वरवादी आन्दोलन में और इनके जवाब में पुनर्स्थापनावादी धाराएँ हमें पूरे भक्ति आन्दोलन में भी देखने को मिलती हैं। यह सही है कि केन्द्रीभूत सत्ता के विरुद्ध मराठा किसानों के जिस विद्रोह का नेतृत्व शिवाजी ने किया, उसके परिणामस्वरूप क़ायम मराठा राज्य किसी भी रूप में “किसान राज्य” नहीं था। इसने वहाँ मराठा ज़मींदारों की सत्ता को जन्म दिया, महाराष्ट्र में मीरास पट्टेदारियों का पर्याप्त विस्तार हुआ और कुनबियों की स्थिति प्राय: वही बनी रही। जाट किसानों का विद्रोह सिख धर्म के गुरुओं की शिक्षाओं से पैदा हुआ था और जाति–निषेध, समानता एवं जनवादी मूल्यों के मामले में सिख धर्म का चरित्र सर्वाधिक रैडिकल और प्रभावी था लेकिन इनके परिणामस्वरूप क़ायम ‘सिख राज्य’ भी किसी क़िस्म का ‘किसान राज्य’ नहीं था। इस तथ्य की ओर इरफ़ान हबीब ने ठीक इंगित किया है, लेकिन ग़ौर करने की बात यह है कि यही परिणति और यही विसंगति हमें कमोबेश यूरोपीय धर्मसुधार आन्दोलन में भी देखने को मिलती है। इसमें भी ईसाई प्लेबियनों के शिविर के साथ–साथ बर्गरों और अभिजातों के शिविर मौजूद थे। मार्टिन लूथर ने एक ओर तो आरम्भिक बुर्जुआ विश्वदृष्टिकोण को प्रकट किया पर दूसरी ओर इसने आरम्भिक बुर्जुआ मानवतावाद और मुक्त व्यापार के सिद्धान्त की आलोचना की तथा 1525 के महान किसान युद्ध में सत्ताधारी वर्गों का पक्ष लिया। दूसरी ओर मुंजर था जो धर्मसुधार आन्दोलन के आमूलगामी किसान–प्लेबियन पक्ष का प्रतिनिधि और महान किसान युद्ध का नेता था जिसका राजनीतिक कार्यक्रम समतावादी यूटोपियाई कम्युनिज़्म के काफ़ी निकट था। फ्ऱांस में काल्वें की धारा सर्वाधिक आमूल परिवर्तनवादी बुर्जुआ वर्ग की माँगों को प्रकट करती थी। हमें यह भी याद रखना होगा कि बाद के दौर में जर्मनी में धर्मसुधार आन्दोलन का इस्तेमाल कई रियासतों के राजकुमारों तथा इंग्लैण्ड और स्कैण्डेनेविया में सामन्त वर्ग ने किया। फ़्रांस में भी राजा की निरंकुश सत्ता के विरुद्ध सामन्ती कुलीनों ने इसका इस्तेमाल किया। तात्पर्य यह कि यूरोप के धर्मसुधार आन्दोलन और भारत के लोकवादी एकेश्वरवादी आन्दोलन – दोनों की ही सामाजिक अन्तर्वस्तु और संरचना जटिल थी। धर्मसुधार आन्दोलन कोई बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति नहीं थी, वह सामन्तवाद के विरुद्ध किसानों, आम ग़रीबों और नवजात बुर्जुआ वर्ग के प्रतिकार की प्रारम्भिक अभिव्यक्ति था। भारत में भी निर्गुण भक्ति आन्दोलन में दस्तकारों, किसानों और गाँवों–शहरों की सर्वाधिक तिरस्कृत–उत्पीड़ित मेहनतकश आबादी की धाराएँ उपस्थित थीं। अलग–अलग क्षेत्रों और अलग–अलग धाराओं में अलग–अलग पक्षों की प्रमुखता के हिसाब से इस आन्दोलन का आमूल परिवर्तनवादी अथवा सुधारवादी चरित्र सामने आता रहा। जैसे सिख धर्म के झण्डे तले पंजाब के जाट किसानों की एकजुटता और सतनामियों के विद्रोह में हम मंुजर की धारा की समतुल्यता देख सकते हैं। यूरोप में मध्य सोलहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के दौरान ‘काउण्टर रिप़़ॉर्मेशन’ की जवाबी धारा प्रभावी रही जिसने यूरोप में प्रोटेस्टेण्ट धर्म के प्रसार को रोक दिया तथा फ़्रांस और पोलैण्ड में तो उसे मिटा ही दिया। भारत में सत्रहवीं शताब्दी में सुधरी हुई जाति व्यवस्था के रख–रखाव की कोशिशों, ब्राह्मणों की सर्वोच्चता (शूद्रों द्वारा धर्मोपदेश की निन्दा) और मूर्ति पूजा के समर्थन में प्रस्तुत तर्कों के साथ तथा मुग़ल साम्राज्य के साथ अधिक व्यापक सहयोग का आधार बनाने वाले के रूप में तुलसी हमें काफ़ी हद तक वैसी ही एक उदारवादी प्रतिगामी धारा के प्रतिनिधि जैसे दीखते हैं, जैसी यूरोप में ‘काउण्टर रिप़़ॉर्मेशन’ की धारा दीखती है। यहाँ फिर यह स्पष्ट कर दें कि हमारा उद्देश्य निर्गुण भक्ति आन्दोलन में हू–ब–हू यूरोपीय धर्म सुधार आन्दोलन का प्रतिरूप ढूँढ़ना नहीं है। लाज़िमी तौर पर दोनों में बहुत सारी भिन्नताएँ हैं, क्योंकि मध्ययुगीन यूरोप और मध्ययुगीन भारत की सामाजिक–आर्थिक संरचनाओं में ही काफ़ी भिन्नताएँ थीं। हम सिर्फ़ यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि प्राक्–औपनिवेशिक भारत में वर्ग–संघर्ष की एक अपनी स्वतन्त्र आन्तरिक गतिकी मौजूद थी, जिसमें (उपनिवेश न बनने की स्थिति में पूँजीवादी विकास की सम्भावनाओं की पहचान की जा सकती है। भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास की दृष्टि से भी राष्ट्रीयताओं के विकास के बीज तत्त्व भी भक्ति आन्दोलन में ढूँढे़ जा सकते हैं, लेकिन यह एक अलग चर्चा का विषय है।

मुमकिन है कि उपनिवेश न बनने की स्थिति में अठारहवीं शताब्दी के गतिरोध के भीतर से मानववाद के मूल्यों के उद्घोषक किसी सामाजिक–सांस्कृतिक आन्दोलन का जन्म होता। या फिर आगे चलकर मानववाद, राष्ट्रवाद और जनवाद के मूल्य रूस की तरह बुर्जुआ वर्ग के विकास के साथ–साथ पुश्किन, गोगोल, लर्मन्तोव, तुर्गनेव, तोल्स्तोय के यथार्थवादी सृजनकर्म तथा बेलिन्स्की, हर्ज़न, चेर्निशेव्स्की, दोब्रोल्यूबोव जैसे क्रान्तिकारी जनवादियों के विचारों के माध्यम से अभिव्यक्त होते। यह तो मात्र अनुमान की बात है। इतना तय है कि अपनी स्वतन्त्र आन्तरिक गति से विकसित भारतीय समाज का इतिहास कुछ और ही होता।

आज इस तथ्य पर कोई भी प्रश्न नहीं उठा सकता कि दो सौ वर्षों की औपनिवेशिक ग़्ाुलामी के दौरान, (पूँजीवादी व्यापार, भू–राजस्व वसूली उद्योगों में श्रम शक्ति के दोहन और फिर वित्तीय पूँजी की जकड़बन्दी के “मान्य” विधि–विधानों के अतिरिक्त राजे–रजवाड़े–व्यापारियों के साथ धोखाधड़ी, छल–कपट और अँधेरगर्दी भरी लूटपाट के ज़रिये भी) ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने भारत को किस तरह से लूटा, निचोड़ा और तबाह किया। श्रम शक्ति और कृषि–उत्पादों की लूट के प्रभाव को तो कालान्तर में समाप्त किया जा सकता है, जनता की अकूत सर्जनात्मकता के बूते पर दौर–विशेष में आर्थिक रूप से पिछड़ गये देश को भी कालान्तर में आगे बढ़ाया जा सकता है, लेकिन लकड़ी और अन्य कच्चे माल के लिए (पूरे यूरोप के पुराने महलों–बंगलों में आज भी भारतीय उपमहाद्वीप से गयी लकड़ी से बने फर्नीचर आदि सामान भरे पड़े हैं) बर्मा से लेकर हिमालय की पर्वतश्रृंखला के अछूते वनों को तबाह करके जो पारिस्थितिक तबाही पैदा की गयी, उसका परिणाम आज भी देश भुगत रहा है और आगे भी भुगतेगा (अब यह एक अलग प्रसंग है कि प्रकृति की तबाही के इस सिलसिले को भारतीय पूँजीवाद ने भी आगे ही बढ़ाया है)। औपनिवेशिक लूट एवं तबाही के इस पहलू पर अभी भी काफ़ी कम शोध हुआ है। मोटे तौर पर भारत की प्राकृतिक एवं सामाजिक सम्पदा की अकूत औपनिवेशिक लूट से अवगत व्यक्ति के सामने भी यदि एक साथ इसके परिमाण–विषयक तथ्य और आँकड़े रख दिये जायें तो वह आश्चर्यचकित रह जायेगा। इन औपनिवेशिक नीतियों के परिणामस्वरूप संसाधन–निर्गम एवं ‘सम्पदा–बहिर्गमन’ के अतिरिक्त अनवरत दुर्भिक्षों, तथा विशेषकर अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और समूची उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान विऔद्योगीकरण (डीइण्डस्ट्रियलाइज़ेशन) और विनगरीकरण (डीअर्बनाइजे़शन) का जो सिलसिला जारी रहा, उससे इतिहास के सभी सजग अध्येता परिचित हैं। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी उल्लेखनीय है कि 1872–81 के बीच भारतीय पुरुषों की जीवन–प्रत्याशा 23–76 वर्ष थी जो 1911–12 के बीच आश्चर्यजनक गिरावट के साथ 19–40 वर्ष के निम्न स्तर तक जा पहुँची थी।

लेकिन उपनिवेशीकरण के अभिशाप की भयावहता मात्र इतनी ही नहीं थी। आर्थिक लूट और तबाही की तुलना में अतुलनीय रूप से अधिक ऐतिहासिक विनाशकारी बात यह थी कि उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया ने प्राक्–औपनिवेशिक भारतीय समाज की नैसर्गिक आन्तरिक गति की निरन्तरता को नष्ट कर दिया। उसने भारत को उसके अतीत से काट दिया और स्वस्थ भविष्य के नैसर्गिक विकास की सम्भावनाओं को कुचल दिया। प्राक्–औपनिवेशिक भारत की सामाजिक–आर्थिक संरचना को व्यवस्थित ढंग से नष्ट करके उस पर एक विशिष्ट औपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना आरोपित कर दी गयी। आगे चलकर इसी औपनिवेशिक सामाजिक आर्थिक संरचना के भीतर से पैदा हुए वर्ग–अन्तरविरोधों ने साम्राज्यवाद–सामन्तवाद विरोधी संघर्षों को जन्म दिया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की अन्तर्भूत कमज़ोरियों और इसके बुर्जुआ नेतृत्व के दोहरे चरित्र एवं मरियलपन को समझने की कुंजीभूत कड़ी इसी प्रक्रिया में ढूँढ़ी जा सकती है। औपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना ने न केवल एक बौने विकलांग शिशु के रूप में पूँजीवाद को जन्म दिया, बल्कि इसी संरचना से उद्भूत होने के चलते ऐतिहासिक जड़ों से विच्छिन्न भारतीय बुद्धिजीवी भी बौद्धिक–वैचारिक उथलेपन एवं दिमाग़ी ग़्ाुलामी के शिकार थे और इस स्थिति ने भारतीय सर्वहारा आन्दोलन को भी प्रत्यक्षत:–परोक्षत: प्रभावित किया। इस औपनिवेशिक विरासत के जन्मचिह्न आज भी भारत के बौद्धिक जगत में और यहाँ तक कि जनसंघर्षों के क्रान्तिकारी नेतृत्व में भी विचारधारात्मक कमज़ोरी और स्वतन्त्र चिन्तन की कमी के रूप में ढूँढ़े जा सकते हैं। उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के परिणाम आज तक भारतीय जीवन को प्रभावित कर रहे हैं और भविष्य इतिहास के रंगमंच पर इतिहास के सर्वाधिक क्रान्तिकारी वर्ग – सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में होने वाली नयी क्रान्ति का कोई सर्वसमावेशी तूफ़ान ही इस ऐतिहासिक अवरोध को रास्ते से हटा सकता है। जिस बुर्जुआ वर्ग ने राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों के ऐतिहासिक दौर में इस काम को अंजाम नहीं दिया और जो ‘समझौता–दबाव–समझौता’ की नीति पर खिसकता हुआ राजनीतिक स्वतन्त्रता की मंज़िल तक पहुँचा, वह भूमण्डलीकरण के इस दौर में न तो साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद कर सकता है, न ही उसके द्वारा सांस्कृतिक–वैचारिक–वैधिक अधिरचनात्मक धरातल पर आत्मिक मूल्यों के स्तर पर, औपनिवेशिक अतीत की प्रेत–बाधा से ही मुक्ति सम्भव है। इस बात को भली–भाँति समझ लेने के बाद ही 1857 के महान जनसंघर्ष के ऐतिहासिक महत्त्व को समझा जा सकता है और तब शायद महिमामण्डित करने के लिए इसे किसी क़िस्म के नवजागरण–पुनर्जागरण का प्रस्थान बिन्दु घोषित करने या ऐसा ही कोई अन्य द्रविड़ प्राणायाम करने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी।

यहाँ उपनिवेशीकरण पर सामान्य और विशिष्ट सन्दर्भों में थोड़ी और चर्चा ज़रूरी है। प्राचीन और मध्यकाल में पूरी दुनिया में इस या उस देश के आक्रान्ता विभिé देशों पर अधिकार करते रहे, साम्राज्य बनते–बिगड़ते रहे और नये–नये देश भी बनते रहे। ये आक्रान्ता आते थे और फिर अपने सैनिकों–अधिकारियों–कर्मचारियों सहित विजित देशों में ही बस जाते थे और धीरे–धीरे वहाँ के जीवन और संस्कृति के साथ आदान–प्रदान करके एकरूप हो जाते थे। ऐसा भी होता था कि कुछ लुटेरे आते थे और लूटपाट के बाद वापस लौट जाते थे। उपनिवेशीकरण इससे एक सर्वथा भिé परिघटना थी। मध्ययुग के अवसान और आधुनिक युग की प्रात:बेला में व्यापारी पूँजीवादी ने व्यापार से आगे बढ़कर इसकी शुरुआत की कि वह देशों पर क़ब्ज़ा जमाकर वहाँ एक नये क़िस्म की शासन–व्यवस्था क़ायम करता था और विविध रूपों में (जहाँ जैसा सम्भव हो) विजित देशों की प्राकृतिक एवं सामाजिक सम्पदा को लूटकर अपने देश भेजता रहता था। इस लूट को व्यवस्थित करने के लिए उपनिवेशों में बाक़ायदा एक सामाजिक–आर्थिक ढाँचा खड़ा किया जाता था और शासन–विधान तैयार किया जाता था। आमतौर पर पूरे यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति को गति देने में उपनिवेशों की लूट की अहम भूमिका रही। “मुक्त प्रतियोगिता” के युग में औद्योगिक पूँजीपति वर्ग ने भी उपनिवेशों की व्यवस्था को अपने वर्गहित के अनुरूप जारी रखा और साम्राज्यवाद के युग में, वित्तीय पूँजी के निर्यात की प्रवृत्ति की प्रमुखता क़ायम होने के बाद भी तब तक, उपनिवेशवाद राष्ट्रों के साम्राज्यवादी शोषण की प्रमुख वैश्विक प्रणाली बना रहा जब तक उपनिवेशों में उठ खड़े हुए जनसंघर्षों के ज्वार ने साम्राज्यवादियों को एक क़दम पीछे हटकर साम्राज्यवादी शोषण की नयी विश्व–व्यवस्था खड़ी करने के लिए बाध्य नहीं कर दिया। उपनिवेशवाद की समाप्ति का एक सहायक कारण स्वयं विश्व पूँजीवाद की संरचना में और उसके विकास के साथ ही अन्तर–साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के विश्वयुद्ध के रूप में भड़क उठने तथा दोनों विश्वयुद्धों में पुरानी औपनिवेशिक ताक़तों के शक्तिह्रास के साथ ही नयी सर्वोच्च साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में अमेरिका के उभार में भी निहित था। पर यह एक अलग प्रसंग है।

उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया सभी जगह प्रकृति एवं परिणाम की दृष्टि से एकसमान नहीं थी। जैसे, स्पेनी उपनिवेशवादियों ने दक्षिण अमेरिकी देशों को उपनिवेश बनाने की प्रक्रिया में वहाँ की मूल आबादी के बहुलांश को बर्बर नरसंहार करके समाप्त कर दिया। वहाँ की खनिज एवं वन्य सम्पदा के दोहन और फार्मों में काम करने के लिए बड़े पैमाने पर अफ़्रीका से अश्वेत दास बनाकर ले जाये गये। यूरोप से समृद्ध और आम लोग भी वहाँ जाकर बसे और वहाँ सभी कालान्तर में घुल–मिल गये। दक्षिण अमेरिका प्राचीन काल में विकसित सभ्यताओं की जन्मस्थली रही थी, पर विशिष्ट कारणों से मध्यकाल तक यह भूभाग विकास की दौड़ में काफ़ी पीछे छूट गया था। वहाँ की जनता की पूरी संरचना ही नयी थी जो औपनिवेशिक दौर में निर्मित हुई थी। इन देशों की आत्मिक–सांस्कृतिक समृद्धि का अतीत काफ़ी पीछे छूट चुका था, अत: उस अतीत से विच्छिéता की प्रक्रिया ने वहाँ उतनी भीषण त्रासदी को जन्म नहीं दिया, जैसी कि भारत में। अश्वेत अफ़्रीका भी यूरोपीय देशों का उपनिवेश बना। यहाँ भी प्राकृतिक सम्पदा की लूट हुई और बर्बरतापूर्वक ग़्ाुलाम बनाकर अश्वेतों को उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका ले जाया गया। लेकिन इन देशों में सामाजिक सम्पदा, वर्गीय सामाजिक संरचना और संस्कृति के विकास का इतिहास प्राक्–औपनिवेशिक काल में लगभग अनुपस्थित था, इसलिए अतीत से विच्छिéता की त्रासदी वहाँ भी नहीं थी। यूरोपीय उपनिवेशवादी जब उत्तरी अमेरिका और आस्ट्रेलिया पहुँचे तो वहाँ उन्हें विशाल भूखण्ड और प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा तो मिली, लेकिन वहाँ के अत्यन्त अविकसित समाजों में सामाजिक सम्पदा–सम्पé ऐसी आबादी थी ही नहीं जिनका शोषण किया जाता। आत्मसमर्पण से इन्कार करने वाली मूल आबादी को वहाँ लगभग समाप्त कर दिया गया और यूरोपीय विस्थापितों से वहाँ एक नया समाज बसा जो जन्म से ही पूँजीवादी समाज था। एशिया, लातिन अमेरिका और अफ़्रीका की लूट से संचित धन से यूरोप ने इन देशों में प्रारम्भिक पूँजीवादी विकास के लिए आदिम पूँजी दी और खेतों–खदानों में तथा पूँजीवादी आधारभूत एवं अवरचनागत ढाँचा खड़ा करने मेंे अफ़्रीका से ले जाये गये ग़्ाुलामों के श्रम का इस्तेमाल किया गया। बाद में यहाँ के विस्थापितों के अपने साझा हितों के आधार पर उनकी राष्ट्रीय चेतना का जन्म हुआ तथा एक राष्ट्र के रूप में संगठित होकर यूरोप के औपनिवेशिक प्रभुत्व से मुक्त होने के बाद ये स्वतन्त्र पूँजीवादी देश बन गये। बहुतेरे देश ऐसे भी थे, जिनकी राजनीतिक आज़ादी बस नाममात्र की ही थी और उनकी आर्थिक लूट भी बेशुमार हुई, लेकिन पूर्ण उपनिवेशीकरण न होने के कारण उनकी समाज विकास की अपनी स्वतन्त्र आन्तरिक गति तमाम विरूपणों–बाधाओं के बावजूद बनी रही, या पूरी तरह से नष्ट नहीं हुई। इन देशों में हमें प्राय: राष्ट्रीय आन्दोलनों के बुर्जुआ नेतृत्व का भी अधिक रैडिकल चरित्र देखने को मिलता है और राष्ट्रीय जनवाद के कार्यभार भी इन देशों में सापेक्षत: अधिक रैडिकल ढंग से पूरे हुए। चीन जैसे कुछ देशों में किसी एक औपनिवेशिक शक्ति की निर्णायक जीत नहीं होने के कारण, पूरा देश कई औपनिवेशिक शक्तियों के प्रत्यक्ष–परोक्ष नियन्त्रण के इलाक़ों में बँटा रहा और अति सीमित सम्प्रभुता वाली एक देशी केन्द्रीय सत्ता भी बनी रही, इसीलिए अर्द्धसामन्ती–अर्द्धऔपनिवेशिक चीन में भी वहाँ की सामाजिक–आर्थिक संरचना को नष्ट करके पूरे देश पर एक औपनिवेशिक सामाजिक संरचना आरोपित नहीं की जा सकी। यही मूल कारण था कि वहाँ साम्राज्यवाद से नाभिनालबद्ध दलाल पूँजीपति वर्ग के साथ ही राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के लिए चेष्टारत और एक हद तक उसको नेतृत्व देने में सक्षम एक ऐसा राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग भी मौजूद था, जिसके अग्रणी प्रतिनिधि एवं सिद्धान्तकार के रूप में सुनयात सेन ने 1911 की राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का नेतृत्व किया जिस क्रान्ति ने अपने अधूरेपन के बावजूद नयी जनवादी क्रान्ति की पूर्वपीठिका तैयार की। चीनी कम्युनिस्टों की सफलता के पीछे भी कहीं न कहीं यह ऐतिहासिक कारण भी मौजूद था कि उनका नेतृत्व पूरी तरह किसी औपनिवेशिक सामाजिक संरचना की कोख से नहीं जन्मा था और अपने समाज–विकास की आन्तरिक गति से पूरी तरह से विच्छिé नहीं था।

भारत की परिस्थिति उपरोक्त श्रेणियों से सर्वथा अलग थी। प्राक्–औपनिवेशिक भारत प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा के साथ ही विपुल सामाजिक सम्पदा और सुदीर्घ–समृद्ध इतिहास से युक्त देश था जो एक ऐसे संक्रमण की दहलीज़ पर खड़ा था, जब सामयिक तौर पर तो गतिरोध, संकट और विघटन की स्थिति बनी हुई थी, लेकिन इस स्थिति के गर्भ में एक नयी सामाजिक आर्थिक–संरचना का स्वस्थ शिशु पल रहा था। अठारहवीं शताब्दी में विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भारत के सापेक्षत: पिछड़ जाने के कारण मध्यकालीन भारत की सामाजिक–आर्थिक विशिष्टताओं में निहित थे, लेकिन यह पिछड़ापन भी पूँजीवादी विकास के साथ किसी न किसी रूप में टूटता, इसकी पूरी सम्भावना थी। यदि पश्चिमी यूरोप जैसी तेज़ गति के साथ नहीं, तो फिर रूस जैसी मन्थर गति के साथ ही सही, लेकिन पूँजीवादी विकास तो यहाँ अवश्यम्भावी था। इतिहास में यहाँ संयोग के पहलू ने भी एक भूमिका निभायी कि ठीक ऐसे ही गतिरोध भरे संक्रमण काल मेंे यहाँ यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने प्रवेश किया और इनके बीच के संघर्षों में ब्रिटिश उपनिवेशीवादी विजयी होकर अपनी उद्देश्य–पूर्ति के लिए तेज़ी से आगे बढ़ गये।

यहीं पर उपनिवेशवाद के एक और पहलू की चर्चा ज़रूरी है। अलग–अलग उपनिवेशवादी शक्तियों की नीतियों में अन्तर का भी उपनिवेशों की स्थिति और नियति पर प्रभाव पड़ा। इस मायने में अंगे्रज़ सबसे दक्ष उपनिवेशवादी सिद्ध हुए। यह दक्षता उन्होंने ब्रिटेन में वर्ग–संघर्ष की संश्लिष्ट और विशिष्ट दीर्घकालिक प्रकृति से अर्जित की थी और इसमें इस तथ्य का भी हाथ था कि व्यापारिक प्रतिस्पर्द्धा में उन्होंने अन्य यूरोपीय ताक़तों को पीछे छोड़ दिया था तथा औद्योगिक क्रान्ति की प्रक्रिया वहाँ अन्य यूरोपीय देशों से पहले प्रारम्भ और सम्पé हो गयी थी। अपने उपनिवेशों में उन्होंने ज़्यादा व्यवस्थित ढंग से औपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना का निर्माण तथा अपनी सत्ता के स्थानीय अवलम्बों के रूप में नये सामाजिक वर्गों का विकास किया था, राष्ट्रीय संघर्षों का अधिक कुशलतापूर्वक, छल–बल से सामना किया था और जब पीछे हटने का समय आया तो कम से कम नुक़सान उठाकर अपने आर्थिक हितों को अधिकतम सम्भव सीमा तक बरक़रार रखते हुए पीछे हटने में भी सफल हुए थे।

भारत में प्रवेश करने के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने व्यापार की आपसी प्रतिस्पर्द्धा में अन्य यूरोपीय कम्पनियों को जल्दी ही पीछे छोड़ दिया और यहाँ की फूट एवं कलह की आन्तरिक स्थिति का लाभ उठाकर व्यापार का एकाधिकार प्राप्त कर लिया। देश के भीतर और बाहर खुले समुद्र में व्यापार की सुरक्षा के लिए कम्पनी को समुद्री बेड़ों, सैन्य–शक्ति और क़िलों की ज़रूरत थी, जिसके लिए पहले उसने अपने नियन्त्रण वाले बम्बई, कलकत्ता और मद्रास के तटीय क्षेत्रों की जनता से बलपूर्वक करों की उगाही शुरू की। प्लासी की लड़ाई के बाद विधिवत उपनिवेशीकरण की शुरुआत हुई। विजित क्षेत्रों के सामन्ती शासकों की धन–सम्पत्ति हड़पने के बाद कम्पनी ने किसानों और दस्तकारों से कर–उगाही की भी शुरुआत कर दी। साथ ही, राजनीतिक शक्ति का लाभ उठाकर किसानों और दस्तकारों से उनका माल भी बलात मनमानी व़़ीमतों पर हड़पा जाने लगा। लूट और व्यापार मिलकर एक हो गये। किसानों–दस्तकारों की तबाही के साथ ही दुर्भिक्षों का भी सिलसिला शुरू हो गया और इस अकूत लूट से संचित पूँजी ने ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी।

उपनिवेशीकरण के दूसरे दौर में, भारत की अपनी सामाजिक–आर्थिक संरचना को सिलसिलेवार नष्ट करके एक नयी संरचना को आरोपित करने की शुरुआत हुई। इस समय तक इंग्लैण्ड में नया उभरता हुआ उद्योगपति इतना शक्तिशाली हो चुका था कि उसने व्यापारी पूँजीपतियों को पीछे धकेलना शुरू कर दिया। 1813 में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करके मुक्त व्यापार के द्वार खोल दिये गये। इस समय तक भारतीय दस्तकारी और उभरते हुए उद्योग तबाह हो चुके थे, ढाका और सूरत वीरान हो चुके थे, कारीगर शहरों को छोड़कर गाँवों की ओर भागने लगे थे और पहले से ही बदहाल खेती पर आबादी का दबाव तेज़ी से बढ़ने लगा था। ब्रिटिश उद्योगपतियों के वर्ग–हित का तक़ाज़ा था कि भारत की लूट से ही शक्तिशाली हो चुके ब्रिटिश उद्योगों के लिए भारत को कच्चे माल के स्रोत और तैयार माल के बाज़ार में बदल दिया जाये। “स्वतन्त्र प्रतियोगिता” के इस दौर में, पिछड़ चुकी और तबाह हो रही भारतीय दस्तकारी की पराजय एवं अन्तिम बर्बादी निश्चित थी और उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक यह प्रक्रिया कमोबेश पूरी हो चुकी थी। भारतीय अर्थव्यवस्था को पूरी तरह ब्रिटिश औद्योगिक पूँजी के अधीन करने के लिए यहाँ की सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था में मूलभूत बदलाव ज़रूरी था। स्थायी बन्दोबस्त, रैयतवारी और महालवारी प्रणाली के द्वारा यहाँ के भूमि–सम्बन्धों को मूलभूत रूप से बदलकर एक ऐसी अर्द्धसामन्ती भूमि व्यवस्था क़ायम की गयी जिसमें राज्य और किसानों के बीच भू–राजस्व इकट्ठा करने वाले बिचैलिये के रूप में ज़मींदारों, काश्तकार ज़मींदारों और बड़े मालिक किसानों का एक वर्ग उभरा जिसके शीर्ष पर पुरानी व्यवस्था के सामन्ती भू–स्वामियों का हिस्सा शामिल था। काश्तकार किसानों और रैयतों के शोषक के रूप में ग्रामीण महाजनों का एक नया वर्ग भी उभरा। लगान की दर और व्यवस्था निर्धारित कर दी गयी। ज़मीन को अब पूरी तरह से बिकाऊ माल बना दिया गया। अपनी सापेक्षिक स्वायत्तता को खोकर भारतीय गाँव उपनिवेशवाद के द्वारा पूरे देश और दुनिया के बाज़ार से जुड़ गये और भारत औद्योगिक ब्रिटेन का एक कृषि प्रधान उपनिवेश बन गया। इस तरह कृषि से दस्तकारी और दस्तकारी से उद्योग तक की भारतीय समाज की स्वाभाविक विकास–यात्रा की सभी सम्भावनाएँ हमेशा के लिए समाप्त हो गयीं। भारत में औपनिवेशिक संरचना और शासन प्रणाली के सुव्यवस्थित संचालन के लिए अब बाबुओं के रूप में पढ़े–लिखे भारतीयों की एक बड़ी संख्या तैयार करने वाली शिक्षा–प्रणाली की तथा एक न्यायिक व्यवस्था की भी ज़रूरत थी। इस प्रक्रिया को उéीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पूरा कर लिया गया जिसके चलते औपनिवेशिक समाज का एक नया मध्य वर्ग अस्तित्व में आया। जिन्हें आज ‘बंगाल नवजागरण’ का पुरोधा कहा जा रहा है, वे इसी मध्य वर्ग के हितों–आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते थे।

औपनिवेशिक काल का तीसरा चरण मोटे तौर पर उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध को माना जा सकता है। इस समय तक औद्योगिक क्रान्ति का काम पूरा हो चुका था और यूरोप में अपनी श्रेष्ठता निर्णायक रूप से स्थापित करने के लिए अब ब्रिटिश कल–कारखानों के लिए और बड़े पैमाने पर कच्चे माल की तथा तैयार माल के लिए बाज़ार की ज़रूरत थी। इसके लिए पूरे देश में पुरानी सड़कों की मरम्मत, नयी सड़कों के निर्माण, रेलों के निर्माण, और नहरों के निर्माण की शुरुआत की गयी। मार्क्स ने पहले इसी प्रक्रिया के दोहरे परिणामों का अनुमान लगाते हुए उपनिवेशवाद द्वारा पूँजीवादी विकास के बीजारोपण की बात की थी। लेकिन व्यवहारत: ऐसा नहीं हुआ (जिस पर बाद के दौर में मार्क्स–एंगेल्स का भी ध्यान गया)। निर्माण का पूरा ख़र्च भारत से ही निचोड़ा गया, लेकिन रेलों ने कच्चे और तैयार माल को लाने–ले जाने के अतिरिक्त भारतीय जीवन पर विकास का कोई प्रभाव नहीं छोड़ा। नहरों ने कपास, गéा, पटसन, तिलहन आदि व्यावसायिक फ़सलों को बढ़ावा दिया, लेकिन इससे किसानों को कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि उत्पादन–वृद्धि से कहीं अधिक लगान में बढ़ोत्तरी कर दी गयी। लगान अभी भी पूर्ववत लूट का एक प्रमुख साधन बना हुआ था। इस समय तक ब्रिटेन में बड़ी मात्रा में अतिरिक्त पूँजी संचित हो चुकी थी, जिसका यदि गृह–उद्योगों में ही निवेश किया जाता तो मज़दूरों की सौदेबाजी की शक्ति बढ़ने से मुनाफ़ा घटने लगता। इसलिए अतिरिक्त पूँजी के सुरक्षित नियोजित निवेश तथा उपनिवेशों में उपलब्ध सस्ती श्रम शक्ति का लाभ उठाने के लिए एक नयी प्रक्रिया की शुरुआत हुई और वह थी – वित्तीय पूँजी का निर्यात। 1860 के बाद भारत में बड़े पैमाने पर जिन क्षेत्रों में ब्रिटिश पूँजी लगी, वह थे : सरकार को ऋण (यानी ब्याज के नाम पर जनता का दोहन), रेल निर्माण, सिंचाई परियोजनाएँ, चाय–कॉफ़ी व रबर के बागान, कोयला ख़ानें, जूट मिलें, ट्राम–वे तथा बैंकिंग व बीमा। लेकिन मुद्रा पूँजी के साथ ही भारत को माल पूँजी का निर्यात भी जारी रहा। साथ ही लूट का पुराना तरीक़ा भी जारी रहा जिसे अब ‘ट्रिब्यूट’ का नाम दे दिया गया और इस धनराशि को ‘गृहशुल्क’ के रूप में इंग्लैण्ड भेजा जाता रहा। 1851 से 1901 के बीच इस रक़म में भी सात गुने की वृद्धि हुई और इससे इंग्लैण्ड में वित्तीय पूँजी के विकास में महत्त्वपूर्ण मदद मिली। इस आर्थिक प्रक्रिया के साथ ही इस बात को भी याद रखना होगा कि 1857 के महासंग्राम के बाद, कम्पनी–शासन की समाप्ति और भारत के सीधे ब्रिटिश क्राउन के मातहत हो जाने (जिसका एक प्रमुख कारण ब्रिटेन में औद्योगिक पूँजी का निर्णायक वर्चस्व था) के बाद भारत में यातायात–संचार के साधनों के तेज़ विकास का एक अहम कारण सम्भावित विद्रोहों को कुचलने के लिए सेना की गतिशीलता को बढ़ाना और औपनिवेशिक सत्ता का सुदृढ़ीकरण भी था। भारत में खड़े हुए ब्रिटिश उद्योगों, सेवा क्षेत्र और शासन तन्त्र के संचालन के लिए ज़रूरी भूमिका निभाने वाले औपनिवेशिक समाज के नये मध्य वर्ग के साथ ही मध्यकाल से भिé एक नया व्यापारी वर्ग भी इस दौर में तेज़ी से फला–फूला जो ब्रिटिश सत्ता के प्रति पूरी तरह से वफ़ादार था।

औपनिवेशिक शासन का अन्तिम दौर तब शुरू होता है जब उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक ब्रिटिश उद्योग पूरी तरह से वित्तीय पूँजी के अधीन हो चुके थे। यह इज़ारेदार पूँजीवाद का – साम्राज्यवाद का दौर था। इस दौर में ब्रिटेन से वित्तीय पूँजी का निर्यात (तैयार माल के निर्यात की तुलना में) प्रधान प्रवृत्ति बन गया, लेकिन साथ ही औपनिवेशिक लूट के पुराने तरीव़़े भी जारी रहे। इस सन्दर्भ में यह तथ्य उल्लेखनीय है कि 1914 तक भारत में लगी ब्रिटिश पूँजी का 97 प्रतिशत भाग सरकारी काम, यातायात, बाग़ानों और बैंकों में लगा था, यानी इनका भारत के औद्योगिक विकास से विशेष सम्बन्ध नहीं था। दूसरी बात, ब्रिटेन से तैयार माल की तुलना में वित्तीय पूँजी का निर्यात भले ही प्रधान पहलू बन गया हो, लेकिन भारत से ब्रिटेन जाने वाली पूँजी भारत में लगायी जाने वाली पूँजी से बहुत अधिक थी।

भारत की औपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना में भारतीय पूँजीपति वर्ग का जन्म, उपनिवेशवादियों की इच्छा और नियति का परिणाम नहीं, बल्कि उनकी इच्छा से स्वतन्त्र गति का परिणाम था। इन भारतीय पूँजीपतियों का जन्म कृषि से उद्योग तक की विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया में बर्गरों के रूप में नहीं हुआ था, बल्कि औपनिवेशिक संरचना के गर्भ से हुआ था। शुरुआत में इनका चरित्र व्यापारिक था और ये ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफ़ादार थे। बाद में, ब्रिटिश सत्ता की मजबूरियों और साम्राज्यवाद के अन्तरविरोधों का लाभ उठाकर इनमें से कुछ ने उद्योगों में भी निवेश की शुरुआत की। पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान (और उनके बीच भी) अन्तर–साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा जनित ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की विवशता का लाभ उठाकर भारतीय पूँजीपतियों ने उद्योगों में निवेश की शुरुआत की और फिर वित्तीय पूँजी के क्षेत्र में भी उनकी घुसपैठ बढ़ी।

हर वस्तु या प्रक्रिया की दो परस्पर–विरोधी गतियाँ होती हैं और फिर एक ही गति के भीतर से फिर दो परस्पर–विरोधी गतियों का जन्म होता है। औपनिवेशिक भारत में पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग का विकास उपनिवेशवादी नीतियों का वांछित परिणाम नहीं था बल्कि उसमें अन्तर्निहित गौण, प्रतिरोधी गति की उपज था। इस पूँजीवादी विकास को रोकने, नियन्त्रित और बाधित करने की भी उपनिवेशवादियों ने हरचन्द कोशिशें कीं और इनके परिणामस्वरूप औपनिवेशिक संरचना से जन्म के नाते पहले से ही दुर्बल और विकृत भारतीय पूँजीवाद के चरित्र में और अधिक विकृति–विरूपण पैदा हुआ।

निष्कर्ष के तौर पर, कहा जा सकता है कि भारत का पूँजीपति वर्ग कृषि–दस्तकारी–उद्योग की स्वाभाविक क्रम–विकास प्रक्रिया मेंे विकसित नहीं हुआ था। यह बर्गरों की सन्तान नहीं बल्कि औपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना की उपज था। भारतीय पूँजीवाद का इतिहास ‘पुनर्जागरण–प्रबोधन–क्रान्ति’ का इतिहास नहीं था। यह रूस जैसा भी नहीं था। यह बुर्जुआ क्रान्ति के कामों को क्रान्तिकारी ढंग से पूरा कर पाने में सर्वथा अक्षम बौना और विकलांग पूँजीपति वर्ग था। न तो यह पूरी तरह से दलाल पूँजीपति वर्ग था, न ही राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग। पूरे स्वतन्त्रता–संग्राम के दौरान इसका दुहरा चरित्र बना रहा। एक ओर अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और दूसरी ओर जनसंघर्षों के ज्वार का लाभ उठाकर इसने राजनीतिक सत्ता हासिल की, लेकिन उसके बाद भी न तो साम्राज्यवाद से आमूलगामी विच्छेद किया, न ही बुर्जुआ भूमि–सुधारों के काम को क्रान्तिकारी ढंग से अंजाम दिया। औपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना मेंे जन्म की त्रासद विडम्बना ने जनता के विभिन्न वर्गों की स्थिति एवं चेतना को भी अलग–अलग नकारात्मक रूपों में प्रभावित किया। भारतीय निम्न पूँजीवादी क्रान्तिकारी धारा का सर्वोच्च रूप हमें भगतसिंह और उनके साथियों के चिन्तन मेंे तथा उनके वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों को अपनाने में दीखता है, लेकिन क्रान्तिकारी जनवाद और भौतिकवाद की दार्शनिक गहराई और सुदृढ़ विकास की प्रक्रिया यहाँ रूस (बेलिन्स्की, हर्ज़न, चेर्निशेव्स्की आदि–––) जैसी नहीं दीखती। भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेतृत्व की वैचारिक कमज़ोरियों और भारत में औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक के सांस्कृतिक–आन्दोलन और साहित्य–कला के क्षेत्र की वैचारिक कमज़ोरियों का भी एक प्रमुख कारण इस ऐतिहासिक तथ्य में देखा जाना चाहिए कि भारतीय बुद्धिजीवी समुदाय औपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना की उपज था और अपने समाज में सुदीर्घ इतिहास की विकास परम्परा और उसकी आन्तरिक गतिकी से विच्छिन्न था। यह बात न केवल भारत में उपनिवेशवाद की विनाशकारी भूमिका को, बल्कि उत्तर–औपनिवेशिक भारतीय इतिहास और आज के भारत को, तथा एक नये भारत के क्रान्तिकारी ढंग से निर्माण के रास्ते की समस्याओं–चुनौतियों को भी समझने की कुंजी है और 1857 के महासंग्राम का वस्तुपरक ऐतिहासिक मूल्यांकन भी इस बात को समझने के बाद ही किया जा सकता है।

1857 का संघर्ष भारतीय इतिहास के एक सन्धिबिन्दु पर लड़ा गया था। पूरे देश पर औपनिवेशिक प्रभुत्व और औपनिवेशक आर्थिक–राजनीतिक–सांस्कृतिक–सामाजिक–शैक्षिक–वैधिक नीतियों के निर्माण एवं क्रियान्वयन के बावजूद, मूलाधार और अधिरचना दोनों ही धरातलों पर उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया अभी मुकम्मल नहीं हुई थी। अभी कुछ बचा हुआ था। प्राक्–औपनिवेशिक आर्थिक मूलाधार की मुख्यत: तबाही के बाद भी न केवल अभी पुरानी ज़मीन पर खड़े होकर लड़ने की चेतना बची हुई थी, बल्कि एक प्रशासनिक इकाई बन जाने के बाद, देशव्यापी रूप से एकजुटता का एक आधार भी बना था और औपनिवेशिक दासता की चरम बर्बरता ने जीवन–मृत्यु के संघर्ष की पूर्वपीठिका निर्मित कर दी थी। इसके पहले अलग–अलग इलाक़ों में किसानों और आदिवासियों ने विदेशी सत्ता के विरुद्ध लगातार विद्रोहों का जो सिलसिला बनाये रखा था, उनकी तुलना में यह जनसंघर्ष न केवल देशव्यापी, बल्कि ज़्यादा संगठित भी था। यह पूरे देश का प्रतिरोध युद्ध था। यह पुराने भारत का अन्तिम प्रतिरोध–युद्ध था। यह लड़ाई मुख्यत: भारत की पुरानी ज़मीन पर लड़ी गयी और पुराने समाज के मानव–उपादान ही इसकी मुख्य और नेतृत्वकारी शक्ति थे। इसमें पुराने भारत की बची–खुची भौतिक–आत्मिक शक्ति पूरी ताक़त से जाग उठी थी और पुराने भारत का शौर्य और पराक्रम अपनी मुक्ति के अन्तिम प्रयास के लिए युद्धभूमि में उतरा था।

दूसरी ओर, ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा आरोपित नयी आर्थिक–सामाजिक संरचना भी उस समय अपने विकास का प्रारम्भिक चरण पूरा कर चुकी थी। इसलिए इस लड़ाई में उसकी भी एक भूमिका थी। इसमें शामिल राजा और सामन्ती भूस्वामी अपनी तबाही का विरोध करते हुए भले ही अपनी पुरानी स्थिति की वापसी का स्वप्न सँजोये हुए थे, लेकिन किसानों, दस्तकारों, शहरी ग़रीबों और आमतौर पर किसान परिवारों से भरती सैनिकों और उनके नेताओं की चेतना दोहरी चेतना थी। एक ओर तो उनकी चेतना का एक पहलू प्राक्–औपनिवेशिक समाज के उत्पादन–सम्बन्धों से (और ग़ौर करें कि उन उत्पादन–सम्बन्धों में भी पूँजीवाद के बीज पड़ चुके थे और राष्ट्रीय संस्कृति के संघटक अवयव भी दीखने लगे थे) से निर्मित हुआ था, तो दूसरा पहलू औपनिवेशिक काल के नये उत्पादन–सम्बन्धों से निर्धारित हो रहा था। उनकी चेतना का जो पहलू पुराने भारत के आर्थिक मूलाधार की उपज था, उसमें भी राष्ट्रीय प्रतिरोध के तत्त्व मौजूद थे क्योंकि प्राक्–औपनिवेशिक भारत पूँजीवादी विकास से सर्वथा अछूता नहीं था। और जो दूसरा पहलू औपनिवेशिक भारत में निर्मित हुआ था वह तो राष्ट्रीय स्वाधीनता की चेतना था ही, भले ही उसकी कोई मुखर अभिव्यक्ति राजनीतिक विचारों और साहित्य की दुनिया में न आयी हो (इसका कारण यह था कि राष्ट्रीय चेतना के सिद्धान्तकार की भूमिका निभाने वाला नया बुद्धिजीवी वर्ग अभी बहुत कम विकसित हुआ था और जिस स्थिति में भी था, पूरी तरह से उपनिवेशवाद के पक्ष में खड़ा था)। यानी, इतिहास के एक विशेष संक्रमण–बिन्दु में लड़े गये 1857 के महासंग्राम का दोहरा चरित्र था। यह पुराने भारत का अन्तिम प्रतिरोध युद्ध था और नये भारत का पहला स्वाधीनता–संग्राम भी। लेकिन इसका मुख्य पहलू पुराने भारत के प्रतिरोध–संघर्ष का ही था।

अकादमिक मार्क्सवादी उपनिवेशीकरण का अध्ययन एक तरह से मध्यकालीन भारत की आर्थिक–सामाजिक निरन्तरता के रूप में करते हैं। वे इस बात को या तो समझते ही नहीं या पर्याप्त महत्त्व नहीं देते कि उपनिवेशीकरण ने भारतीय समाज की स्वतन्त्र आन्तरिक गति को तबाह करके और बाहर से तथा ऊपर से एक नयी गति आरोपित करके एक ऐसी ऐतिहासिक विकृति पैदा की, जिसका प्रभाव आगे शताब्दियों तक विभिé रूपों में भारतीय इतिहास पर पड़ते रहना है। इसी कारण से वे 1857 का सही महत्त्व–प्रतिपादन करने के बजाय या तो इसका अवमूल्यन करते हैं या फिर मिथ्या महत्त्व–प्रतिपादन करते हैं। इसी कारण से खोये हुए राष्ट्रीय गौरव की अतीत में खोज की प्रवृत्ति भी पैदा होती है और इसी कारण से यूरोपीय इतिहास का प्रतिरूप ढूँढ़ते–गढ़ते पुनर्जागरण–प्रबोधन जैसी किसी चीज़ की खोज की जाती रहती है। इसी कारण से राष्ट्रीय आन्दोलन का भी सन्तुलित द्वन्द्वात्मक मूल्यांकन नहीं हो पाता, भारतीय बुर्जुआ वर्ग के दोहरे चरित्र को समझे बिना कभी उसे एकदम दलाल तो कभी एकदम राष्ट्रीय घोषित कर दिया जाता है तथा 1947 में मिली आज़ादी को या तो झूठी बता दिया जाता है या फिर उसे आमूलगामी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति घोषित कर दिया जाता है। 1857 के मूल्यांकन का प्रश्न मध्य काल से लेकर अब तक के भारतीय इतिहास का सही वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करने और निष्कर्ष निकालने से अविभाज्यत: जुड़ा हुआ है।

प्रसंगवश, “पुनर्जागरण–नवजागरण” के बारे में कुछ बातें। “बंगाल रिनेसाँ” या “हिन्दी नवजागरण” का काल ऐसा काल नहीं था जब “राजशाही ने बर्गरों के समर्थन से सामन्ती अभिजात वर्ग की सत्ता चूर कर दी” (एंगेल्स) हो। बर्गरों और सामन्ती अभिजातों के बीच उस समय कोई युद्ध नहीं चल रहा था, न ही उस समय के किसान विद्रोहों से तथाकथित बंगाल पुनर्जागरण के पुरोधाओं का कुछ लेना–देना था। ये लोग यूरोपीय पुनर्जागरण के नायकों की तरह “बुर्जुआ परिसीमाओं से मुक्त महामानव” तो क़तई नहीं थे। ये ब्रिटिश औपनिवेशिक संरचना में पैदा हुए एक ऐसे शहरी मध्य वर्ग के लोग थे, जिसकी पृष्ठभूमि प्राय: लगानजीवी ज़मींदारों की थी। ये लोग स्वामिभक्त ब्रिटिश प्रजा के रूप में आधुनिक पूँजीवादी समाज का फल चखना चाहते थे। सुधारों की इनकी माँग जनता की जागृति, पहलक़दमी और शक्ति के बजाय प्रशासनिक युक्तियों, विधानों और सहारों की मोहताज़ थी तथा इन्हें आम जनता की दुरवस्था से ज़्यादा लेना–देना भी नहीं था। इनके विचारों का प्रेरणा–स्रोत भारतीय इतिहास नहीं, बल्कि यूरोप था। इनकी तर्कणा का कोई स्थानीय भौतिक आधार नहीं था। जो बात राजा राममोहन राय आदि के बारे में कही जा सकती है, कमोबेश वही हिन्दी नवजागरण के पुरोधा भारतेन्दु और उनके मण्डल के बारे में भी कही जा सकती है। यदि इनको भारतीय राष्ट्रीय चेतना का प्रवर्तक मान भी लिया जाये तो भी इनकी धारा को किसी क़िस्म का पुनर्जागरण या उसके समकक्ष नवजागरण जैसी परिघटना नहीं माना जा सकता, क्योंकि उपनिवेशों और बहुराष्ट्रीय देशों में राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद के उद्भव एवं विकास का मार्ग यूरोप से सर्वथा भिन्न था। यदि ये भारतीय बुर्जुआ वर्ग के पूर्वज थे भी तो भारतीय बुर्जुआ वर्ग की उत्पत्ति ही यहाँ भिन्न रूप में हुई थी क्योंकि प्राक्–औपनिवेशिक भारत में जारी कृषि से दस्तकारी और दस्तकारी से उद्योग की विकास प्रक्रिया का गला पहले ही घोंटा जा चुका था। आज़ादी मिलने के साठ वर्षों बाद भी, भारत के बौद्धिक जगत में पीली, बीमार, परोपजीवी बेलों की मौजूदगी भी यही बताती है कि जिसे “भारतीय पुनर्जागरण” कहा जा रहा है, वह ऐसा कुछ भी नहीं था। किसी प्रकार का भ्रम पालने के बजाय इतिहास की वस्तुगत सच्चाई को स्वीकारने के बाद ही नये भविष्य का सृजन किया जा सकता है।

बहरहाल, 1857 की चर्चा पर वापस लौटें। उपनिवेशवाद द्वारा भारतीय समाज की स्वाभाविक आन्तरिक गति की हत्या की जो प्रक्रिया जारी थी, उसके अन्तिम, सर्वाधिक सशक्त और देशव्यापी प्रतिरोध के रूप में ही इस महासंग्राम का ऐतिहासिक महत्त्व सर्वोपरि तौर पर आँका जा सकता है। साथ ही, यह औपनिवेशिक भारत के राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम का भी प्रस्थान बिन्दु था जो अपनी पराजय के बाद भी मुक्तिकामी भारतीय जनता के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत बना रहा और आज भी बना हुआ है। इस महासंग्राम में पराजय के बाद हम अपने अतीत से कट गये, अपनी परम्परा से अलग हो गये। भारतीय समाज की उस समय तक की सकारात्मक उपलब्धियाँ आम जनता की संस्कृति और इतिहास–बोध के निर्माण में सहायक बनने के बजाय विस्मृत अतीत का अध्याय बन गयीं। अब इस कमी को केवल एक प्रचण्ड वेगवाही, सर्वग्रासी सामाजिक–राजनीतिक जनक्रान्ति ही पूरा कर सकती है। उसके बाद भी औपनिवेशिक अतीत के प्रेत से पूरी तरह छुटकारा पाने में एक लम्बा समय लगेगा।

1857 के महासंग्राम के पराजय के कारण इन तथ्यों में ढूँढ़े जा सकते हैं कि यह लड़ाई पुरानी ज़मीन पर खड़े होकर लड़ी गयी थी और उपनिवेशवादी अधिक विकसित उत्पादक शक्तियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। लेकिन मात्र इस आधार पर उस पराजय को अवश्यम्भावी मानना ऐतिहासिक नियतत्त्ववाद का शिकार होना माना जायेगा। आधुनिक विश्व का इतिहास साक्षी है कि पिछड़ी–उत्पादक शक्तियों वाले देशों की जनता ने कई बार बल्कि अधिकांशत: उन्नत उत्पादक शक्तियों वाले साम्राज्यवादी देशों के शासक वर्ग की भीषण सामरिक–शक्ति को भी धूल चटा दी है। एक अंगे्रज़ अफ़सर ने स्वीकार किया था कि यदि सिर्फ़ ग्वालियर ने ही विद्रोहियों का साथ दे दिया होता तो सारे समीकरण उलट सकते थे। युद्ध में सांगठनिक योजनाबद्धता की कमी और ख़ास मौक़ों पर हुई सामरिक रणनीति की कुछ गम्भीर चूकों की भी अहम भूमिका बन गयी। बहरहाल, यह युद्ध जीता भी जा सकता था और तब कैसा भारत होता, इसकी सम्भावनाओं पर विचार करना फ़ालतू बौद्धिक मशक़्व़़त नहीं, बल्कि 1857 के महत्त्व को समझने के लिए ज़रूरी है।

प्रश्न उठाया जा सकता है कि यदि इस महासंग्राम में उपनिवेशवादियों की पराजय होती तो क्या भारत मध्यकालीन अतीत के अँधेरे में वापस नहीं लौट जाता? ऐसा मानना इतिहास के प्रति एक आधिभौतिक नज़रिया होगा। अतीत में हू–ब–हू वापसी कभी सम्भव ही नहीं होती। ब्रिटिश सत्ता की पराजय के बाद, बहुत कम सम्भव था कि भारत में एक सुदृढ़ केन्द्रीय सामन्ती सत्ता स्थापित हो पाती। यदि ऐसा होता भी, यह चाहे जो भी होता, 1857 ने आम जनता की जिस ऊर्जा और पहलक़दमी को निर्बन्ध किया था, उसे समाप्त नहीं किया जा सकता था और उसे इतिहास–निर्माण की सक्रिय शक्ति बन जाने से रोका नहीं जा सकता था। चाहे जो भी होता, इस संग्राम में विजय और औपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना के ध्वंस के बाद, भारतीय समाज की उस मूल आन्तरिक गति का फिर से बहाल हो जाना अवश्यम्भावी था, जिसकी स्वाभाविक परिणति के तौर पर भारत में स्वस्थ ढंग से पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया आगे क़दम बढ़ाती। मुमकिन था कि यदि कोई केन्द्रीय सत्ता होती भी तो नाममात्र की ही होती और पूरा देश कुछ समय के लिए अलग–अलग सामन्ती अधिपतियों के शासन के अन्तर्गत आ जाता, लेकिन इस स्थिति में भी सामाजिक अन्तरविरोधों का क्रमश: उग्र होते जाना और पूँजीवादी विकास–प्रक्रिया का आगे डग भरना लाज़िमी था (जैसा कि प्राक्–औपनिवेशिक भारत में हो रहा था)। मुमकिन था कि कई सामन्ती शासक भी बुर्जुआ तत्त्वों का पक्ष लेते और स्वयं बुर्जुआ चरित्र अपना लेते (ऐसा यूरोप में भी हुआ था कि कई राजकुमारों ने बुर्जुआ क्रान्तियों के पक्ष में भूमिका निभायी थी)। यह भी याद रखना होगा कि कई राजशाहियों ने सामन्ती अभिजातों के विरुद्ध संघर्ष में बर्गरों का पक्ष लिया था। अत: राजतन्त्र व्यवस्था हर हाल में सामन्ती अभिजातों की ही पक्षधर होगी, यह मानना भी ग़लत होगा। यदि कोई केन्द्रीभूत निरंकुश सामन्ती सत्ता क़ायम भी हो जाती, तो उसके अन्तर्गत भी पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया चल पड़ती, जैसा कि उन्नीसवीं शताब्दी में ज़ारशाही के अन्तर्गत रूस में हुआ। लेकिन ज़्यादा सम्भावना इसी बात की थी कि ब्रिटिश सत्ता की पराजय के बाद भी भारत में औपनिवेशिक दख़लन्दाज़ी समाप्त नहीं होती और इस सूरत में पूरा देश अलग–अलग औपनिवेशिक शक्तियों के परोक्ष–प्रत्यक्ष नियन्त्रण के क्षेत्रों में (कुछ–कुछ चीन की तरह) विभाजित हो सकता था। ऐसे में एक अर्द्धसामन्ती–अर्द्धऔपनिवेशिक सामाजिक–आर्थिक संरचना अस्तित्व में आती, लेकिन इसकी विशेषता यह होती कि भारतीय समाज की अपनी स्वतन्त्र आन्तरिक गति को पूरी तरह नष्ट कर पाना सम्भव नहीं होता और तब देश का इतिहास शायद कुछ और ही होता।

1857 के महासंग्राम में हिस्सा लेने वाली आम जनता की ही नहीं, बल्कि राजाओं–नवाबों और सामन्ती भू–स्वामियों की भी भूमिका ऐतिहासिक दृष्टि से प्रगतिशील थी (और उन्हें बेहिचक देशभक्त भी कहा जा सकता है) क्योंकि वे भारतीय समाज की अपनी स्वतन्त्र गति, या कहें कि इतिहास–विकास की आन्तरिक गति की हिफ़ाज़त के पक्ष में खड़े थे। दूसरी बात यह कि तत्कालीन मुख्य अन्तरविरोध को देखते हुए उनका पक्ष जनता का पक्ष था, यानी वे इतिहास की प्रगतिकामी धारा के साथ खड़े थे। यह मानना कि सामन्तों की भूमिका किसी भी स्थिति में प्रगतिशील या देशभक्त नहीं हो सकती, एक वर्ग–अपचयनवादी (क्लास–रिडक्शनिस्ट) या यान्त्रिक भौतिकवादी नज़रिया होगा। इस दृष्टिकोण से देखें तो रूसी इतिहास में भयंकर इवान या पीटर महान का ऐतिहासिक रूप से सकारात्मक मूल्यांकन किया ही नहीं जा सकता। इसी बात को नहीं समझ पाने के कारण ज्योतिबा फुले ने 1857 के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया और दलित जातियों के उत्थान के लिए उपनिवेशवाद का समर्थन किया (बीसवीं शताब्दी में अम्बेडकर भी इसी दृष्टि–दोष के शिकार रहे)। वे यह नहीं देख सके कि जाति प्रथा का कथित तौर पर अंगे्रज़ों ने विरोध किया लेकिन उन्हीं के द्वारा स्थापित भूमि व्यवस्था ने गाँवों में दलित–उत्पीड़न की निरन्तरता का नया आधार तैयार किया। यदि भारत अपनी स्वाभाविक आन्तरिक गति से आगे बढ़ता और यहाँ क्रान्तिकारी ढंग से पूँजीवादी जनवाद और उसके मूल्यों का विकास होता तो जाति व्यवस्था के उन्मूलन की प्रक्रिया ज़्यादा स्वाभाविक ढंग से विकसित होती। इसका पूर्वसंकेत लोकवादी एकेश्वरवादी आन्दोलन ने मध्य काल में ही दे दिया था।

हम समझते हैं कि 1857 के महासंग्राम की महत्ता का आकलन सही ढंग से इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में किया जा सकता है और इसकी प्रगतिशील भूमिका को तभी सही ढंग से पहचाना जा सकता है। परिप्रेक्ष्य को ठीक करने की ज़रूरत है। लेकिन इस विषय पर अभी और विस्तार एवं गहराई से सोचने की ज़रूरत है और बहस भी ज़रूरी है। लेकिन जड़सूत्रवाद से और तयशुदा निष्कर्षों के पक्ष में मनोगत ढंग से तथ्य जुटाने की प्रवृत्ति से मुक्त होने के बाद ही कोई बहस सार्थक हो सकती है।

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नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशक : एक सिंहावलोकन (चौथी किस्त)

नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशक : एक सिंहावलोकन (चौथी किस्त)

  • दीपायन बोस

मार्च 1971 में सुशीतल राय चौधरी का निधन हुआ और उसी महीने चारु मजुमदार की लाइन के प्रबलतम समर्थकों में से एक, सौरेन बसु भी गिरफ़्तार हो गये। उनके दूसरे निकटतम व्यक्त‍ि सरोज दत्त की हत्या पुलिस के हाथों कुछ माह बाद, 5 अगस्त 1971 को हुई। असीम चटर्जी 3 नवम्बर 1971 को गिरफ़्तार होने से पहले ही चारु की लाइन के विरुद्ध खड़े हो चुके थे, जिसकी चर्चा पहले आ चुकी है।

1971 का उत्तरार्द्ध आते-आते चारु मजुमदार के निकटतम माने जाने वाले चार लोगों में से अन्तिम व्यक्त‍ि – सुनीति कुमार घोष के साथ भी उनके मतभेद उठ खड़े हुए, जो गहराते चले गये। इसकी चर्चा आगे यथास्थान की जायेेगी। उसके पहले सौरेन बसु की बहुचर्चित चीन यात्रा और चीनी पार्टी के बिरादराना सुझावों की चर्चा ज़रूरी है, क्योंकि इन सुझावों में वास्तव में वाम दुस्साहसवादी लाइन की, सार रूप में, ऐसी आलोचना निहित थी जिसने एक-एक करके नेतृत्व के अन्य बचे हुए लोगों को भी चारु मजुमदार के विरुद्ध खड़ा कर देने में अहम भूमिका निभायी। लेकिन इसके पहले, नक्सलबाड़ी और भाकपा (माले) के प्रति चीन की पार्टी के रुख़ की संक्षेप में चर्चा ज़रूरी है, क्योंकि किसी-न-किसी रूप में, काफ़ी हद तक चीन की पार्टी के पुरज़ोर समर्थन ने 1967-70 के बीच चारु मजुमदार के नेतृत्व और उनकी लाइन को मज़बूत बनाने में मदद पहुँचायी थी।

नक्सलबाड़ी, भाकपा (माले) और चीन की कम्युनि‍स्ट पार्टी

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने नक्सलबाड़ी विद्रोह का उत्साहपूर्ण समर्थन किया था। नक्सलबाड़ी के बाद शुरू हुई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की एकता का भी चीनी प्रेस और रेडियो ने संशोधनवाद और नवसंशोधनवाद के साथ निर्णायक विच्छेद और एक नयी शुरुआत के रूप में गर्मजोशी भरा स्वागत किया। 28 जून 1967 को रेडियो पीकिङ ने पहली बार नक्सलबाड़ी संघर्ष का स्वागत किया और फिर 5 जुलाई को पार्टी मुखपत्र ‘पीपुल्स डेली’ में ‘भारत में बसन्त का वज्रनाद’ शीर्षक प्रसिद्ध लेख प्रकाशित हुआ। इसके बाद 1970 के शुरुआती महीनों तक चीनी मीडिया द्वारा कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर के घटना-क्रम-विकास और देश के विभिन्न हिस्सों में हो रहे ‘ऐक्शन्स’ के बारे में प्रसारण और मुद्रण का सिलसिला जारी रहा। 1967 में जुलाई के बाद के किसी महीने में कानू सान्याल, खोकन मजुमदार और कुछ अन्य लोग सीमा पार करके चीन भी गये। वहाँ कुछ नेताओं से बातचीत के अतिरिक्त उनकी माओ से भी संक्षिप्त मुलाक़ात हुई जिसमें माओ ने बस इतना कहा कि यहाँ देखी-सीखी गयी बातों को यहीं भूलकर आप लोगों को अपने देश वापस लौटकर वहाँ की ठोस परिस्थितियों का ठोस अध्यन करना चाहिए और उसके हिसाब से संघर्ष को आगे बढ़ाना चाहिए। जब ‘लिबरेशन’ का प्रकाशन शुरू हुआ तो उसके कई लेखों के अनुवाद भी चीनी प्रेस में छपे।

चीनी पार्टी के इस समर्थन से नक्सलबाड़ी के सन्देश को पूरे देश में पहुँचाने में और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को एकजुट करने की प्रक्रिया में निश्चय ही महत्वपूर्ण मदद मिली। लेकिन अगले चरण में इस समर्थन ने, ‘अखिल भारतीय तालमेल कमेटी’ के भीतर क्रान्तिकारी जनदिशा और वामपन्थी दुस्साहसवाद के बीच जारी दो लाइनों के संघर्ष को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया। चीनी प्रकाशनों और प्रसारणों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का साहित्य (विशेषकर ‘लिबरेशन’) उन्हें नियमित प्राप्त होता था। तालमेल कमेटी के दौर में परिमल दासगुप्ता, असित सेन, प्रमोद सेनगुप्ता जैसे कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा और कई छोटे ग्रुपों द्वारा चारु की लाइन पर उठाये गये सवालों और उनके अलग हो जाने की यदि सटीक और विस्तृत जानकारी चीनी पार्टी तक न भी पहुँची हो, लेकिन डी.वी. राव-नागी रेड्डी के नेतृत्व वाली आन्ध्र प्रदेश तालमेल कमेटी और ‘दक्षिण देश ग्रुप’ के अलग होने की जानकारी उस तक न पहुँची हो, यह लगभग असम्भव है। इसके बाद भी पूरे मामले की विस्तृत पड़ताल करने के बजाय चीन की पार्टी चारु मजुमदार को नक्सलबाड़ी संघर्ष और भारतीय क्रान्ति के निर्विवाद नेता के रूप में प्रस्तुत करती रही, जबकि विशेषकर 1969 के प्रारम्भ से ‘लिबरेशन’ में प्रकाशित चारु मजुमदार के लेखों-टिप्पणियों से (और अन्य लेखों से भी) वामपन्थी दुस्साहसवाद की लाइन एकदम खुलकर सामने आने लगी थी। चीन की पार्टी से प्राप्त इस मान्यता ने चारु मजुमदार को अपनी लाइन आगे बढ़ाने में काफ़ी मदद पहुँचायी।

इस दौर में चीनी पार्टी के मीडिया का आचरण कई बार स्वयं माओ त्से-तुङ की शिक्षाओं के भी उलट नज़र आता है। मार्क्स से लेकर माओ तक, विश्व सर्वहारा के सभी महान शिक्षकों ने इस बात को बार-बार रेखांकित किया है कि प्रत्येक देश की कम्युनिस्ट पार्टी को अपने देश की ठोस परिस्थितियों का अध्ययन-विश्लेषण करने के बाद अपनी लाइन और नीतियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक स्वयं निर्धारित करनी चाहिए। कोमिण्टर्न के दौर के कुछ नकारात्मक अनुभवों के बाद चीन की पार्टी इस बात पर हमेशा से बहुत बल देती आयी थी। 1957 में लातिन अमेरिकी देशों की कुछ कम्युनिस्ट पार्टियों के प्रतिनिधिमण्डल से बातचीत के दौरान माओ ने स्पष्ट कहा था : ”चीनी क्रान्ति का अनुभव, यानी देहाती आधार पर इलाक़े बनाने, गाँवों से शहरों को घेरने और अन्तत: शहरों को क़ब्ज़ा करने का रास्ता, आपके बहुतेरे देशों में पूरी तरह लागू नहीं हो सकता है, हालाँकि यह आपके लिए एक सन्दर्भ का काम कर सकता है। मैं आपको विनम्र सुझाव देता हूँ कि चीनी अनुभव को यान्त्रिक ढंग से ‘ट्रांसप्लाण्ट’ न करें। किसी बाहरी देश का अनुभव मात्र सन्दर्भ की तरह काम कर सकता है, और उसे एक जड़सूत्र के समान क़तई नहीं लिया जाना चाहिए। मार्क्सवाद-लेनिनवाद की सार्वभौमिक सच्चाई और आपके अपने देश की ठोस परिस्थितियाँ – इन दोनों को समेकित किया जाना चाहिए।” (‘सम एक्सपीरियेन्सेज़ इन अवर पार्टीज़ हिस्ट्री’, सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 5, पृष्ठ. 326)। ग़ौरतलब है कि चीनी मीडिया में नक्सलबाड़ी और भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन पर छपने वाले लेखों का अप्रोच प्राय: माओ के उपरोक्त अप्रोच से अलग होता था। ‘भारत में बसन्त का वज्रनाद’ लेख में ही इस बात पर बल दिया गया था कि भारतीय क्रान्ति का रास्ता चीन जैसा ही होगा। ‘सिन्हुआ समाचार एजेन्सी’ ने 27 दिसम्बर 1967 को एक लेख छापा : ‘भारतीय क्रान्ति अध्यक्ष माओ द्वारा प्रकाशित दीप्तिमान मार्ग पर अग्रसर है।’ थोड़े परिवर्तनों के साथ यही लेख ‘भारतीय क्रान्ति में ऐतिहासिक मोड़बिन्दु’ नाम से कुछ और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था। लेख के इन दोनों रूपों में ‘अखिल भारतीय तालमेल कमेटी’ की पहली घोषणा और उसके द्वारा घोषित कार्यभारों का हवाला दिया गया था। लेकिन तालमेल कमेटी के चार कार्यभारों में से जिस एक को ग़ायब कर दिया गया था, वह था : ‘मज़दूर वर्ग और अन्य उत्पीडि़त जनगण के जुझारू क्रान्तिकारी संघर्षों को विकसित करना…।’ यहाँ इस सम्भावना से इन्कार नहीं कि यह लोप जानबूझकर किया गया हो और यह कार्रवाई सुझावमूलक हो, क्योंकि चीनी टिप्पणीकार के दृष्टिकोण से यह कार्यभार ‘चीनी रास्ते’ की उनकी सोच के अनुकूल न हो। जो भी हो, यदि यह एक चूक भी थी तो गम्भीर थी और इसका पूरा लाभ वाम दुस्साहसवादी लाइन को ही मिलने वाला था। चीन की पार्टी लगातार इस आशय की बातें कर रही थी कि भारतीय क्रान्ति का रास्ता चीनी क्रान्ति का रास्ता होगा और साथ ही वह चारु मजुमदार को ही भारतीय क्रान्ति का नेता बता रही थी। यही कारण था कि जब चारु ने ‘चीन का रास्ता हमारा रास्ता’ का नारा दिया और फिर उसे आगे बढ़ाते हुए यहाँ तक कहा कि ‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन’ तो तालमेल कमेटी के भीतर से कोई विरोध नहीं आया। जिनके द्वारा विरोध की सम्भावना हो सकती थी, उन्हें पहले ही किनारे लगाया जा चुका था। शेष लोगों की विचारधारात्मक समझ इतनी कमज़ोर थी कि चीन की पार्टी से प्राप्त मान्यता के बाद, कम-से-कम उस समय, उन्होंने इन नारों के औचित्य-अनौचित्य पर कुछ सोचने तक की ज़रूरत नहीं समझी।

जैसाकि इस निबन्ध में पहले उल्लेख आ चुका है, चारु मजुमदार के आठ दस्तावेज़ों में से शुरुआती छह में अतिवामपन्थी विचलन के सूत्र मौजूद थे, लेकिन नक्सलबाड़ी में क्रान्तिकारी जनदिशा पर अमल के बाद से लेकर 1969 के प्रारम्भ तक उन्होंने ‘कॉम्बैट यूनिट्स’ या वर्ग शत्रुओं के गुप्त सफ़ाये की कभी कोई चर्चा नहीं की। मई 1968 की अपनी दूसरी मीटिंग के बाद जारी अपनी घोषणा में तालमेल कमेटी ने स्पष्ट कहा था : ”यदि भारतीय जनता के शत्रुओं को उखाड़ फेंकना है, तो षड्यन्त्र के तौर-तरीक़ों को नहीं, बल्कि सिर्फ़ जनदिशा को अमल में लाना होगा।” यह चर्चा भी आ चुकी है कि श्रीकाकुलम के गिरिजन संघर्ष के नेतृत्व से सम्पर्क होने, फ़रवरी 1969 में आन्ध्र की यात्रा करने और श्रीकाकुलम के साथियों को लेकर आन्ध्र राज्य तालमेल कमेटी बनाने के बाद चारु मजुमदार ने फिर अपनी लाइन को तेज़ी से और खुले तौर पर आगे बढ़ाया। श्रीकाकुलम में शुरुआती दौर में सफ़ाये की लाइन बड़े पैमाने पर सफलता से लागू हुई और अपनी लाइन में चारु का विश्वास और अधिक पुख़्ता हुआ। ‘आठ दस्तावेज़ों’ के ‘कॉम्बैट यूनिट्स’ का स्थान अब ‘गुरिल्ला यूनिट्स’ ने ले लिया। चारु मजुमदार ने ‘छापामार कार्रवाइयों के बारे में कुछ बातें’ शीर्षक टिप्पणी में स्पष्ट किया कि छापामार इकाइयों का गठन षड्यन्त्रकारी तौर-तरीक़ों से होगा और वे जनसमुदाय से और पार्टी इकाइयों से भी गुप्त होंगी ‘जिन्होंने ग़ैर-क़ानूनी कामों के लिए ज़रूरी तौर-तरीक़ों और अनुशासन में अभी महारत नहीं हासिल की है।’ कहने की ज़रूरत नहीं कि चारु मजुमदार की छापामार युद्ध की सोच माओ और चीन की पार्टी से एकदम अलग थी। चीन में छापामार युद्ध लोकयुद्ध की एक मंजि़ल था जो व्यापक जनसमुदाय की सक्रिय सहायता से चलाया गया था और जिसने अपने से अधिक शक्तिशाली दुश्मन को भारी नुक़सान पहुँचाकर, उसकी कमज़ोर पकड़ और पहुँच वाले सुदूर देहाती क्षेत्रों में आधार इलाक़ों के निर्माण को अंजाम दिया। वर्ग-शक्ति-सन्तुलन में अधिक अनुकूल बदलाव होने के बाद लोकयुद्ध चलायमान युद्ध की उन्नततर अवस्था में और फिर अवस्थितियों के युद्ध (‘पोज़ीशनल वारफ़ेयर’) में प्रविष्ट हो गया।

चारु एक निश्चित सीमा तक जनता की लामबन्दी के बाद छापामार युद्ध की शुरुआत की जगह छापामार युद्ध को ही जनता को लामबन्द करने का एकमात्र रास्ता मानते थे और छापामार युद्ध का उनके लिए मतलब था, गुप्त दस्तों द्वारा वर्ग शत्रुओं का सफ़ाया। माओ ने दीर्घकालिक लोकयुद्ध के बारे में लिखते हुए यह स्पष्ट बताया था कि बुर्जुआ वर्ग के सफ़ाये (एनिहिलेशन) का मतलब यह नहीं है कि उसका शारीरिक तौर पर सफ़ाया कर दिया जायेेगा, बल्कि इसका मतलब यह है कि एक वर्ग के रूप में उसका सफ़ाया कर दिया जायेेगा। उन्होंने यह भी कहा था कि शत्रु को तबाह कर देने का मतलब है उसे निश्शस्त्र कर देना और प्रतिरोध करने की ताक़त से वंचित कर देना (सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड पाँच, पृ. 504, और सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड दो, पृ. 156)। माओ ने यह ज़रूर कहा था कि हर काउण्टी में किसानों और ग़रीबों पर बर्बर ज़ुल्म ढाने वाले कुछ भूस्वामी और प्रतिक्रियावादी होते हैं। शत्रुओं को दबाने के लिए इनमें से सर्वाधिक ज़ालिम कुछ लोगों को मृत्युदण्ड दिया जा सकता है, लेकिन अन्धाधुन्ध हत्या सख़्ती से वर्जित है, हत्याएँ जितनी कम हों उतना बेहतर (देखिए, रिपोर्ट ऑन ऐन इनवेस्टिगेशन ऑफ़ द पीज़ेण्ट मूवमेण्ट इन हुनान, सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड एक, और एसेंशियल प्वाइण्ट्स इन द लैण्ड रिफ़ॉर्म इन दि न्यू लिबरेटेड एरिया, सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड चार, पृ. 202)। चीन की पार्टी के पोलित ब्यूरो के एक महत्वपूर्ण सदस्य और भूमि सुधार के विशेषज्ञ जेन पी-शिह ने भी वर्ग शत्रुओं के दमन और हत्या के बारे में माओ के विचारों को ही अपने एक वक़्तव्य में विस्तार दिया है और मज़े की बात यह है कि उनका यह भाषण ‘लिबरेशन’ के मार्च 1968 के अंक (1, अंक 5) में प्रकाशित भी हुआ था (जेन पी-शिह, ‘इम्पॉर्टेण्ट क्वेश्चंस एराइजि़ंग ड्यूरिंग द एग्रेरियन रिफ़ॉर्म इन चाइना’, ‘स्पीच टु ऐन एनलार्ज्ड सेशन ऑफ़ दि नॉर्थ-वेस्ट पीपुल्स लिबरेशन आर्मी’ज़ फ़्रण्ट कमेटी, 12 जनवरी 1948, ‘लिबरेशन’, मार्च 1968, पृ. 34, 37, 38, 42, 43)।

उपरोक्त चर्चा हमने यहाँ चारु मजुमदार की लाइन के वाम दुस्साहसवादी चरित्र को स्पष्ट करने के लिए नहीं की है, यह तो निबन्ध में पहले ही किया जा चुका है। यहाँ यह चर्चा हम चीन की पार्टी के राजनीतिक व्यवहार में आये विचलन को समझने के लिए कर रहे हैं। माओ और चीनी पार्टी के लेखन में छापामार युद्ध की समझ पूरी तरह से क्रान्तिकारी जनदिशा पर आधारित है और वर्ग शत्रुओं की हत्या को संघर्ष का आम रूप बनाने के पक्ष में चीनी पार्टी क़तई नहीं थी। लेकिन उल्लेखनीय है कि जबसे (यानी 1969 के शुरू से) चारु मजुमदार ने अपनी वाम दुस्साहसवादी लाइन को एकदम खुलकर रखना और तेज़ी से आगे बढ़ाना शुरू किया था, उसी समय चीनी मीडिया दिन-रात चारु मजुमदार को उद्धृत कर रहा था और उन्हें भारतीय क्रान्ति के नेता के रूप में प्रस्तुत कर रहा था। सिर्फ़ एक उदाहरण यहाँ काफ़ी होगा। ‘सिनहुआ समाचार एजेन्सी’ ने 28 मार्च 1970 के अपने डिस्पैच में लिखा था : ”भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के नेता चारु मजुमदार ने निर्दिष्ट किया है कि 1969 में संघर्ष के अमल ने सिद्ध कर दिया है कि : ग़रीब और भूमिहीन किसानों पर भरोसा करो। उन्हें माओ त्से-तुङ विचारधारा में शिक्षित करो; सशस्त्र संघर्ष के रास्ते पर दृढ़ता से डटे रहो, छापामार बलों का निर्माण करो और वर्ग शत्रुओं के सफ़ाये के रास्ते पर आगे बढ़ो, केवल तभी संघर्ष का ऊँचा ज्वार अप्रतिरोध्य रूप से आगे बढ़ सकता है” (‘सीपीआई (एमएल) लीड्स इण्डियन पीपुल ऑनवर्ड अलांग द पाथ ऑफ़ सीजिंग पावर बाइ आर्म्ड फ़ोर्स’, ‘लिबरेशन’ में पुनर्मुद्रित, III, अंक 6, अप्रैल 1970)। कहना न होगा कि इस तरह के महिमामण्डन और ”प्रमाण पत्र” ने चारु मजुमदार की वर्ग शत्रुओं के सफ़ाये की लाइन को स्थापित होने में विशेष मदद पहुँचायी। स्मरणीय है कि यही वह समय था जब चारु मजुमदार अपनी और तालमेल कमेटी की पूर्ववर्ती अवस्थिति को पलटते हुए जन संगठनों और जनान्दोलनों का खुलकर विरोध करने लगे थे और उन्हें क्रान्तिकारी संघर्षों के रास्ते की बाधा तथा संशोधनवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाला बताने लगे थे।

तालमेल कमेटी और फिर भाकपा (माले) विश्व परिस्थितियों का अपना आकलन भी आँख मूँदकर चीनी पार्टी के हिसाब से ही करती थीं। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक था कि 1969-70 के दौर में चीनी पार्टी के विश्व-परिस्थितियों के मूल्यांकन में, दो अतिमहाशक्तियों के बीच गहराती प्रतिस्पर्द्धा, तीसरे विश्व युद्ध की सम्भावना और साम्राज्यवाद के ”अन्तिम ध्वंस” की सम्भावना के आधार पर, चन्द दशकों के भीतर विश्व सर्वहारा क्रान्ति की निर्णायक विजय की जो अतिआशावादी और अतिउत्साहवादी भविष्यवाणियाँ प्रस्तुत की जा रही थीं, उनका भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। ‘कन्फ़ेशन इन ऐन इम्पास : ए कमेण्ट ऑन निक्सन्स’ ”इनॉगरल एड्रेस” एण्ड द कण्टेम्प्टिबल एप्लॉज़ बाय द सोवियत रिवीज़निस्ट रीनिगेड क्लिक’, ‘पीकिङ रिव्यू’, अंक 5, 1969 में प्रकाशित हुआ (चीनी भाषा के पार्टी मुखपत्रों में यह पहले प्रकाशित हो चुका था)। इस लेख के अन्त में यह आश्चर्यजनक रूप से बेतुकी भविष्यवाणी की गयी थी कि तीसरी सहस्राब्दी की शुरुआत यानी वर्ष 2001 सर्वहारा क्रान्ति और मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ विचारधारा की विश्वव्यापी विजय के शानदार उत्सव का समय होगा। यह लेख ‘लिबरेशन’ के मई 1969 अंक में भी पुनर्मुद्रित हुआ और फिर माकपा (माले) के भीतर इसी स्पिरिट और भाषा में क्रान्ति के भविष्य के बारे में बातें होने लगीं। बंगला मुखपत्र ‘घटना प्रवाह’ (दूसरा वर्ष, प्रथम अंक) ने भी अपने सम्पादकीय में लिखा कि क्रान्तिकारी चीन ने भविष्यवाणी कर दी है कि 2001 तक पूरी दुनिया में उत्पीड़ि‍त जन मुक्त हो जायेेंगे। 1969 में कलकत्ता में हुई मई दिवस रैली को सम्बोधित करते हुए कानू सान्याल ने भी इसी बात को दुहराया। ‘पीकिङ रिव्यू’ के उपरोक्त लेख का अनुवाद बंगला मुखपत्र ‘देशब्रती’ में 5 जून 1969 को प्रकाशित हुआ। इस आधार पर, एक तरह से अंकगणितीय गणना करते हुए और ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण की मार्क्सवादी पद्धति को धता बताते हुए चारु मजुमदार ने 1970 के दशक को भारतीय जनता की मुक्ति का दशक बनाने का आह्वान कर डाला (‘लिबरेशन’, III, अंक 4, फ़रवरी 1970 में प्रकाशित लेख)। मई 1970 में पार्टी कांग्रेस में प्रस्तुत ‘राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट’ पर बोलते हुए भी उन्होंने इस बात को बल देकर दुहराया। फिर कुछ समय बाद 1975 को भारतीय क्रान्ति का वर्ष घोषित करते हुए उन्होंने चीनी भविष्यवाणी पर आधारित अपनी भविष्यवाणी के बेतुकेपन को चरम तक पहुँचा दिया। ‘लिबरेशन’, सितम्बर-दिसम्बर 1970 में प्रकाशित अपने लेख ‘मार्च ऑनवर्ड, डे ऑफ़ विक्ट्री इज़ नियर’ में उन्होंने लिखा : ”यदि यह डर (अमेरिका और सोवियत संघ द्वारा चीन पर हमले का डर) सच भी हो जायेे तो भी भारत 1975 तक मुक्त हो जायेेगा … चेयरमैन (माओ त्से-तुङ) ने भारत के 50 करोड़ लोगों के प्रचण्ड विस्फोट की सम्भावना जब देखी तभी उन्होंने घोषणा की कि मानव सभ्यता का इतिहास 2001 में एक नये युग में प्रवेश कर जायेेगा।” ज़ाहिर है यह एक अटकलबाज़ी से अधिक कुछ भी नहीं है और जो चीनी भविष्यवाणी इस अटकलबाज़ी का आधार है, वैसी कोई भी बात माओ त्से-तुङ की किसी भी टिप्पणी या वार्ता में कहीं पढ़ने को नहीं मिलती। बल्कि माओ की पहुँच इसके उलट होने के ढेरों प्रमाण मिलते हैं। ‘महान बहस’ के दस्तावेज़ ‘ख्रुश्चेव का नक़ली कम्युनिज़्म और दुनिया के लिए इसके सबक़’ में माओ के इस कथन का हवाला मिलता है कि समाजवाद की निर्णायक विजय होने में एक-दो नहीं बल्कि पाँच-दस पीढ़ि‍यों का या इससे भी अधिक समय लग सकता है। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान, और अपने निधन के ऐन पहले तक माओ ने कई बार इस बात पर बल दिया कि चीन में और पूरी दुनिया के पैमाने पर समाजवाद की अन्तिम विजय सुनिश्चित होने में अभी काफ़ी समय लगेगा और इस दौरान लम्बे समय तक पूँजीवादी पुनर्स्थापना की सम्भावना बनी रहेगी। इसलिए तय है कि चीनी पार्टी की उपरोक्त बेतुकी भविष्यवाणी को माओ की भविष्यवाणी नहीं माना जा सकता।

1975 के वर्ष को क्रान्ति का वर्ष बनाने के उतावलेपन का नतीजा यह हुआ कि पहले से ही अधकचरे, विचारधारात्मक रूप से अपरिपक्व पार्टी नेतृत्व और क़तारों के दिमाग़ से यह बात ओझल हो गयी कि जनवादी क्रान्ति का रास्ता लोकयुद्ध का रास्ता होता है, जो दीर्घकालिक होता है। लोकयुद्ध के दौरों, चढ़ावों-उतारों और सामरिक रणनीतियों के बारे में माओ की सारी शिक्षा को ताक पर रखकर ही 1975 को क्रान्ति का वर्ष बनाया जा सकता था। इसकी एक तार्किक निष्पत्ति यह थी कि सफ़ाया अभियान को तेज़ गति से पूरे देश में चलाया जायेे, क्योंकि चारु के अनुसार, इसी के प्रभाव से जनता को उठ खड़ा होना था। इसकी जो दूसरी तार्किक निष्पत्ति थी, वह कलकत्ता में छात्रों-युवाओं के अतिवामपन्थी उभार के रूप में सामने आयी, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है।

यह सही है कि चारु मजुमदार की वाम दुस्साहसवादी लाइन के पीछे यदि पूरे नेतृत्व का बड़ा हिस्सा खड़ा हो गया तो इसके बुनियादी कारण आन्तरिक ही हो सकते हैं और इसीलिए हमने निबन्ध के शुरू में ही भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की विचारधारात्मक कमज़ोरी, उसके कारणों और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा की है। लेकिन यह भी सही है कि चारु मजुमदार के नेतृत्व को, दो लाइनों के संघर्ष में (जिस हद तक भी उनकी लाइन का विरोध पार्टी के भीतर से और बाहर से उस समय हुआ) उनकी लाइन को आगे बढ़ाने में तथा स्थापित करने में 1969-70 के दौरान, भारतीय कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन के बारे में चीन की पार्टी के मनोगत एवं अपर्याप्त तथ्यों पर आधारित मूल्यांकनों की, भारतीय परिस्थितियों की उसकी ग़लत समझ की और तत्कालीन विश्व परिस्थितियों के आकलन में हुई कतिपय गम्भीर चूकों की एक भूमिका थी। चीनी पार्टी ने व्यवहार में, उस दौरान अपनी ही एक धारणा का किसी हद तक उल्लंघन किया कि किसी बड़ी और अनुभवी पार्टी को भी अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व की भूमिका निभाते हुए किसी अन्य देश की पार्टी को क्रान्ति की आम दिशा बतलाने का काम नहीं करना चाहिए। हालाँकि चीन की पार्टी के अप्रोच में इस मामले में एक क्षीण विच्युति ही थी, मुख्य ग़लती भारतीय नेतृत्व की थी, जो चीनी पार्टी के हर मूल्यांकन को अपने लिए दिशा-निर्देश समझता था।

बहरहाल, भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन के सन्दर्भ में चीन की पार्टी से आकलन-मूल्यांकन सम्बन्धी उपरोक्त ऐसी गड़बडि़याँ कैसे हुईं जो स्वयं माओ द्वारा निर्दिष्ट पहुँच-पद्धति के प्रतिकूल थीं, इसके बारे में निश्चयात्मक भाषा में कोई बात करना विशुद्ध अटकलबाज़ी होगी। ज़्यादा-से-ज़्यादा, कुछ अनुमान लगाये जा सकते हैं और कुछ सम्भावनाओं की बात की जा सकती है। 1966 से 1969 तक, यानी चीनी पार्टी की नवीं कांग्रेस तक, चीन में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का प्रथम चक्र चला, जो एक तूफ़ानी दौर था। इस दौरान, जैसा कि किसी भी पथान्वेषी क्रान्ति के साथ होता है, अतिरेक, असन्तुलन और ग़लतियाँ भी हुईं। माओ के नेतृत्व में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पक्ष ने पूँजीवादी पथगामियों को शिकस्त तो दी, पर पार्टी और राज्य के भीतर हुए ध्रुवीकरण में माओ के पक्ष में कई अधकचरे वाम अतिरेकपन्थी भी आ खड़े हुए थे। और ऐसी स्थिति का लाभ कुछ करियरवादी भी उठाने की ताक में रहते ही हैं। जैसाकि बाद में पता चला, लिन प्याओ स्वयं एक वाम अतिरेकपन्थी और करियरवादी था। नवीं कांग्रेस के पहले ही उसके विरुद्ध अन्दरूनी संघर्ष की शुरुआत हो चुकी थी और 1970 के पूर्वार्द्ध तक पार्टी में उसका प्रभाव काफ़ी हद तक कम हो चुका था। इन्हीं जटिल परिस्थितियों में चीन की पार्टी के ये विचलन सामने आये थे। ग़ौरतलब है कि लिन प्याओ के लेखों में भी एक सैन्यवादी विचलन की निरन्तरता दीखती है। आश्चर्य नहीं कि उसके लेखों से चारु मजुमदार बहुत प्रभावित रहते थे।

ऐसा प्रतीत होता है कि चीन की पार्टी के नेतृत्व ने 1970 के शुरुआती महीनों से, अन्दरूनी तूफ़ान कुछ शान्त होने और चीज़ों के किसी हद तक व्यवस्थित होने के बाद भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन की स्थिति का, उसके दस्तावेज़ों का और मुखपत्रों में प्रकाशित लेखों का व्यवस्थित ढंग से मूल्यांकन किया। वामपन्थी दुस्साहसवादी लाइन इस समय तक अपने बचकाने, नग्न और प्रहसनात्मक रूप में पूरे निखार पर थी और उसके बारे में नतीजे पर पहुँचना बहुत कठिन नहीं था।

सौरेन बसु की चीन यात्रा और चीनी पार्टी के बिरादराना सुझाव

मई 1970 में हुई भाकपा (माले) की पार्टी कांग्रेस के कुछ पहले से ही चीनी मीडिया में भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन के बारे में आने वाली रिपोर्टों की संख्या काफ़ी कम हो गयी थी। 1970 के मध्य से ऐसी रिपोर्टों और ख़बरों का प्रसारण एवं प्रकाशन पूरी तरह से बन्द हो गया। पार्टी कांग्रेस के दस्तावेज़ भी सम्पर्क के ज़रिये चीनी पार्टी तक भेजे गये, लेकिन सन्नाटा फिर भी बरक़रार रहा। और पूछताछ करने पर यह सुझाव मिला कि पार्टी को विचार-विमर्श के लिए अपना एक प्रतिनिधिमण्डल चीन भेजना चाहिए। इसके बाद पार्टी की केन्द्रीय कमेटी ने अपना एक प्रतिनिधिमण्डल चीन भेजने का फ़ैसला लिया। प्रतिनिधिमण्डल में सौरेन बसु, सुनीति कुमार घोष और सरोज दत्त को जाना था, लेकिन कुछ अपरिहार्य तकनीकी कारणों से सुनीति कुमार घोष और सरोज दत्त का जाना सम्भव न हो सका और अकेले सौरेन बसु 25 अगस्त 1970 को पेरिस, लन्दन और अल्बानिया की राजधानी तिराना होते हुए पेइचिंग के लिए रवाना हुए।

लन्दन में 27 अगस्त से 12 सितम्बर तक रुकने के दौरान उनकी मुलाक़ात ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के चेयरमैन रेज़बर्ग, वाइस-चेयरमैन बिल ऐश, पोलित ब्यूरो सदस्य रंजना ऐश और न्यूज़ीलैण्ड की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के चेयरमैन टेलर से हुई। इन नेताओं ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति भाकपा (माले) की निष्ठा को प्रश्नांकित करते हुए कहा कि किसी एक पार्टी की दूसरी बिरादराना पार्टी के प्रति निष्ठा नीति के तौर पर उचित नहीं है। उन्होंने शहरों में की जा रही कार्रवाइयों और सफ़ाये की लाइन की भी आलोचना की और कहा कि शहरी क्षेत्र के ‘ऐक्शन्स’ में काफ़ी क्रान्तिकारी ऊर्जा ज़ाया हो रही है। उन्होंने ‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन’ नारे की भी कठोर आलोचना की और चारु के इस कथन के साथ भी असहमति ज़ाहिर की कि ‘जिसके हाथ वर्ग शत्रु के ख़ून से न रँगे हों, वह कम्युनिस्ट कहलाने के क़ाबिल नहीं है।’ उनका कहना था कि दुनिया की किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता के मुँह से ऐसी चलताऊ टिप्पणी नहीं सुनी गयी है। ब्रिटेन और न्यूज़ीलैण्ड के इन पार्टी नेताओं का विचार था कि भाकपा (माले) के पास देहाती इलाक़ों में किसानों के संघर्षों के अनुरूप कोई भूमि-नीति (एग्रेरियन पॉलिसी) नहीं है और क्रान्तिकारी जनता की सशस्त्र शक्तियों को ठीक से संगठित किये बिना, देहाती इलाक़ों में जो भी उपलब्धियाँ हैं, उन्हें बचाये नहीं रखा जा सकता। उन्होंने चारु मजुमदार के कुछ लेखन की विशेष तौर पर आलोचना की, जिनमें उन्होंने कहा था कि भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन द्वारा अब तक संघर्ष के जो भी तरीक़े विकसित किये गये हैं, वे वर्तमान युग में पूरी तरह अनुपयोगी हो चुके हैं (‘लिबरेशन’, सितम्बर 1969, पृ. 8-9) उनका कहना था कि प्रत्येक देश में जनता के संघर्षों के ज़रिये कार्यशैली का विकास होता है और भारतीय जनता ने अब तक जो कार्यशैली विकसित की है, उसे मात्र इस आधार पर सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि संघर्षों का नेतृत्व ग़लत नेताओं के हाथों में था। उन्होंने चारु मजुमदार की इस प्रस्थापना के साथ भी असहमति ज़ाहिर की कि पार्टी के भीतर के हर भटकाव को ‘संशोधनवाद’ माना जाना चाहिए। उनका कहना था कि भटकाव को ग़लतियों के रूप में देखा जाना चाहिए और ग़लतियाँ नेतृत्व के साथियों सहित किसी से भी हो सकती हैं। ग़लतियों को बातचीत और जाँच-पड़ताल के ज़रिये ठीक किया जा सकता है। इन नेताओं ने इस बात की भी आलोचना की कि भाकपा (माले) की नीतियों और व्यवहार में जनान्दोलन और ट्रेड यूनियन गतिविधि पूरी तरह से अनुपस्थित हैं।

बातचीत के दौरान ब्रिटेन और न्यूज़ीलैण्ड के पार्टी नेताओं ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि लगभग यही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के भी विचार हैं, लेकिन सौरेन बसु को इस बात पर पूरा विश्वास नहीं था। उनकी सारी शंकाओं का निवारण उस समय हो गया, जब पेइचिंग में उनकी बातचीत चाऊ एन-लाई और काङ शेङ से हुई। लन्दन से सौरेन बसु रोम और तिराना होते हुए पेइचिंग पहुँचे। तिराना में अल्बानियाई नेताओं से राजनीतिक मसलों पर उनकी कोई बात नहीं हुई और उन लोगों ने उनके पेइचिंग जाने का प्रबन्ध कर दिया। 24 सितम्बर ’70 को वह पेइचिंग पहुँचे और एक माह बाद, 29 अक्टूबर ’70 को उनकी चाऊ एन-लाई और काङ शेङ से मुलाक़ात और बातचीत हुई। बातचीत के बाद गेस्ट हाउस पहुँचकर सौरेन बसु ने मुख्य बिन्दुओं को कुछ पन्नों पर दर्ज कर लिया था (क्योंकि उन्हें पूरे नोट्स लेकर भारत वापस लौटने से मना किया गया था) और उसी आधार पर बाद में अपनी रिपोर्ट तैयार की। कुछ ही वर्षों बाद चीनी पार्टी के नेतृत्व की ओर से पूरी वार्ता का कार्यवृत्त जारी कर दिया गया, जो न केवल सौरेन बसु की रिपोर्ट की पुष्टि करता था, बल्कि उसमें पूरी बातचीत का अधिक विस्तृत ब्यौरा मौजूद था।

ढाई घण्टे की इस बातचीत की शुरुआत में चाऊ एन-लाई ने भाकपा (माले) की स्थापना, उसकी उपलब्धियों और पहली कांग्रेस के लिए बधाई दी और इसे भारतीय जनता के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए भी एक विजय बताया। उन्होंने कहा कि चीनी जनता की पीठ पर क्रान्ति के पहले तीन पहाड़ लदे थे, जबकि भारतीय जनता की पीठ पर साम्राज्यवाद, सामन्तवाद और दलाल पूँजीवाद के साथ ही एक चौथा पहाड़ – आधुनिक संशोधनवाद भी लदा हुआ है। सोवियत संघ में जिस सामाजिक साम्राज्यवाद का उदय हुआ है, यह पुराने संशोधनवादियों से इस मायने में भिन्न है कि इसके पास राजनीतिक सत्ता और सशस्त्र बल है। इसके बाद उन्होंने भाकपा (माले) की शुरुआती सफलताओं के लिए बधाई देते हुए इसे दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भारत में एक नयी विजय बताया।

इसके बाद चाऊ एन-लाई ने ‘चीन का चेयरमैन हमारा चेयरमैन’ नारे की गम्भीर आलोचना प्रस्तुत की और कहा कि यह एक महत्वपूर्ण उसूली सवाल है। किसी एक पार्टी के चेयरमैन को दूसरी पार्टी का नेता मानना माओ त्से-तुङ विचारधारा के विपरीत है। उन्होंने स्पष्ट  किया कि दो पार्टियों के बीच सम्बन्ध बिरादराना होते हैं और किसी एक पार्टी को अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन का नेता नहीं माना जा सकता। उन्होंने बताया कि वर्तमान परिस्थितियों में चीनी पार्टी तीसरे इण्टरनेशनल जैसे किसी अन्तरराष्ट्रीय संगठन के निर्माण के विचार का विरोध करती है। इतिहास के उदाहरणों से उन्होंने बताया कि इससे किस प्रकार ”बड़ा भार्इवाद” (”बिग ब्रदरिज़्म”) पैदा होता है, जिसे चीनी पार्टी सख़्ती से नापसन्द करती है। उनका यह भी कहना था कि किसी दूसरे देश की पार्टी के चेयरमैन को अपनी पार्टी का चेयरमैन बताना जनता की राष्ट्रीय भावनाओं को भी आहत करता है।

एक सच्ची सर्वहारा पार्टी के निर्माण की आवश्यकता के बारे में बात करते हुए चाऊ एन-लाई ने वामपन्थी दुससाहसवाद की परोक्ष आलोचना यह कहकर की कि कोई भी ऐसी पार्टी अनिवार्यत: जनदिशा का अनुपालन करती है और जनता से निकट सम्पर्क बनाये रखती है। देहातों में काम के अपने अनुभवों को बताते हुए चाऊ एन-लाई ने वर्ग-शत्रुओं की हत्या को संघर्ष की आम लाइन बनाने का विरोध किया और कहा कि ज़रूरत पड़ने पर जन समुदाय की गहरी घृणा के पात्र कुछ सामन्तों और ज़ालिमों को मारा जा सकता है, लेकिन यह जन समुदाय की माँग के आधार पर किया जाना चाहिए और इसके पहले उन पर सार्वजनिक तौर पर मुक़दमा चलाया जाना चाहिए। जब जन समुदाय पूरी तरह से लामबन्द हो जाता है और हम क्रान्ति की उपलब्धियों की हिफ़ाज़त के लिए हथियारबन्द ताक़त का इस्तेमाल करने लगते हैं तथा ज़मीन और अनाज बाँटने भी लगते हैं, तब ऐसी स्थिति में पहुँचकर किसान आबादी आपस में ज़मीन और अनाज ख़ुद बाँटने का साहस जुटा पाती है। खुले तौर पर जन समुदाय को लामबन्द करने के लिए किसी भूमि नीति (एग्रेरियन पॉलिसी) का होना ज़रूरी है, जिसे फिर पार्टी व्यवहार के ज़रिये एक भूमि कार्यक्रम (एग्रेरियन प्रोग्राम) के रूप में विकसित करती है।

अतिवामपन्थी भटकाव के अपने स्वयं के अनुभवों की चर्चा करते हुए चाऊ एन-लाई ने बताया कि पहली क्रान्ति की पराजय के बाद, चीन में भी ”वामपन्थी” भटकाव की लाइन कुछ समय के लिए पैदा हुई थी। थोड़े से लोग हथियार लेकर गाँवों में जाते थे और कुछ भूस्वामियों को मार देते थे। ऐसी कार्रवाई के पहले जनता के बीच प्रचार और लामबन्दी जैसा कोई काम नहीं होता था। कार्रवाई के बाद लोगों से उठ खड़ा होने की अपेक्षा की जाती थी और उनमें ज़ब्त अनाज बाँटने जैसे काम किये जाते थे। लेकिन जल्दी ही आसपास के गाँवों-शहरों का सैन्यबल घटना-स्थल पर पहुँच जाता था, और फिर हथियारबन्द उन्नत तत्वों को या तो भागता पड़ जाता था या फिर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाता था अथवा हत्या कर दी जाती थी। ऐसे ”वामपन्थी” भटकाव के इलाक़ों में पार्टी को काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा। इसलिए, गाँवों में सशस्त्र संघर्ष को नेतृत्व देते समय सबसे बुनियादी मुद्दा पार्टी की राजनीतिक लाइन, उसूलों और नीतियों का होता है और यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हमने व्यापक जनसमुदाय को लामबन्द किया है अथवा नहीं, उन पर भरोसा किया है या नहीं। इसके बिना हम अपने पैर क़तई नहीं जमा सकते।

कहने की ज़रूरत नहीं कि अपने अनुभवों की चर्चा करते हुए चाऊ एन-लाई ने वर्ग शत्रु के सफ़ाये और सभी प्रकार के जनान्दोलनों के निषेध की भाकपा (माले) की लाइन की एक स्पष्ट और दोटूक आलोचना रख दी थी। शहरी ‘ऐक्शन्स’ के बारे में भी चाऊ एन-लाई ने 1927 के अपने अनुभवों का हवाला दिया, जब वह स्वयं शंघाई में ऐसी कार्रवाइयों के इंचार्ज थे। कुछ पुलिस अधिकारियों की हत्या और ग़ैरक़ानूनी पर्चों के वितरण जैसी कार्रवाइयाँ की गयीं, लेकिन अन्ततोगत्वा नतीजा यह निकला कि यह सब कुछ विशुद्ध दुस्साहसवाद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। उन्होंने दोटूक शब्दों में कहा कि खुले ट्रेड यूनियन कार्यों और खुले जनान्दोलनों को ”पुराना पड़ चुका” मानना और दस्ते बनाकर गुप्त तरीक़े से की जाने वाली हत्याओं को (”छापामार युद्ध” मानते हए) क्रान्ति को आगे बढ़ाने का एकमात्र रास्ता मानना ग़लत है और इस पर सोचने की ज़रूरत है। चारु मजुमदार के आत्मबलिदान के आह्वान पर परोक्ष टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा कि पहली बात, दुस्साहसवाद के लिए जान देना आत्म-बलिदान नहीं है, और दूसरी बात, आत्म-बलिदान के साथ-साथ यदि आत्म-परिरक्षण पर भी बराबर ध्यान न दिया जायेे, तो इससे क्रान्ति को ही नुक़सान पहुँचता है। चाऊ एन-लाई ने इस बात पर बल दिया कि जनदिशा लागू करने के साथ ही पार्टी को आलोचना-आत्मालोचना के ज़रिये अपने शुद्धीकरण की प्रक्रिया लगातार चलानी चाहिए। नेतृत्व और क़तारों के बीच इस प्रक्रिया को यदि न चलाया जायेे तो पार्टी का सही रास्ते से विचलन अवश्यम्भावी होता है।

चाऊ एन-लाई ने कहा कि शत्रु को परास्त करने के लिए पार्टी के बाद दूसरा प्रमुख अस्त्र सेना है, जनता की एक ऐसी संगठित सशस्त्र शक्ति, जो पार्टी के नेतृत्व में काम करती हो और सही नीतियों को लागू करती हो। क्रान्ति का तीसरा प्रमुख हथियार सभी क्रान्तिकारी वर्गों का संयुक्त मोर्चा है जिसका अगुवा सर्वहारा वर्ग हो तथा नेतृत्व पार्टी के हाथों में हो। चाऊ एन-लाई ने चारु मजुमदार द्वारा प्रस्तुत इस स्थापना को भी ग़लत बताया कि विभिन्न संश्रयकारी वर्गों का संयुक्त मोर्चा तभी बन सकता है जब कुछ इलाक़ों में सत्ता पर क़ब्ज़ा हो जायेे। उन्होंने बताया कि संयुक्त मोर्चे का निर्माण एक प्रक्रिया होता है। संघर्ष की विभिन्न मंजि़लों में, इसमें कुछ परिवर्तन होते रहते हैं। संयुक्त मोर्चे में उन सभी को शामिल किया जाना चाहिए जिन्हें अपने पक्ष में किया जा सके, और जिन्हें अपने पक्ष में करना सम्भव न हो उन्हें निष्क्रिय या निष्पक्ष बना दिया जाना चाहिए। इस सन्दर्भ में उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि बुर्जुआ वर्ग का ठीक से अध्ययन किया जाना चाहिए और साम्राज्यवाद से अन्तरविरोध रखने वाले राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के हिस्सों की सटीक शिनाख़्त की जानी चाहिए।

चारु एन-लाई के चले जाने के बाद काङ शेङ ने बातचीत के सिलसिले को आगे बढ़ाया। उन्होंने नक्सलबाड़ी संघर्ष की, उस संघर्ष के अन्य इलाक़ों में फैलाव की, क़तारों की बहादुरी की, भाकपा (माले) द्वारा साम्राज्यवाद और संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष की, तथा सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति को दिये जाने वाले समर्थन और माओ विचारधारा के प्रति सम्मान की सराहना करते हुए कहा कि भाकपा (माले) और चीन की पार्टी बिरादर पार्टियाँ हैं, उनके रिश्ते बराबरी के हैं, इसलिए चीनी पार्टी के चेयरमैन को भारतीय पार्टी का चेयरमैन नहीं कहा जा सकता। उन्होंने कहा कि चूँकि भाकपा (माले) एक नयी पार्टी है, इसलिए इसमें कुछ कमज़ोरियों और ग़लतियों का होना स्वाभाविक है। संयुक्त मोर्चे के बारे में चारु मजुमदार की ग़लत सोच को उन्होंने भी रेखांकित किया।

‘लिबरेशन’ में प्रकाशित चारु मजुमदार के लेख ‘चाइना’ज़ चेयरमैन इज़ अवर चेयरमैन, चाइना’ज़ पाथ इज़ अवर पाथ’ को चीनी पार्टी के मुखपत्रों में प्रकाशित नहीं करने के पीछे के कारणों को स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि इस लेख में जो आपत्तिजनक है, वह इसके शीर्षक से ही स्पष्ट है। चारु मजुमदार के दूसरे लेख ‘मार्च ऑनवर्ड बाइ समिंग अप द एक्सपीरियेंस ऑफ़ द पीज़ेण्ट रिवोल्युशनरी स्ट्रगल ऑफ़ इण्डिया’ को प्रकाशित न करने का कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि इस लेख में जन संगठन, जनान्दोलन, ट्रेड यूनियन आदि के बारे में जो स्थापनाएँ दी गयी हैं, उन पर चीनी पार्टी को आपत्ति है। ‘छापामार युद्ध ही जन समुदाय को लामबन्द करने का एकमात्र रास्ता है’ – लिन प्याओ के इस उद्धरण को चारु ने अपनी लाइन के पक्ष में और जनकार्रवाइयों के निषेध के लिए एक तर्क के रूप में प्रस्तुत किया था। काङ शेङ ने स्पष्ट किया कि यह बात सामरिक सन्दर्भों में कही गयी है, युद्ध की उस मंजि़ल के सन्दर्भ में, जब दो सेनाओं की शक्ति असमान हो। उन्होंने कहा कि ‘वर्ग शत्रु के सफ़ाये’ का मतलब यदि जन समुदाय से कटे हुए गुप्त दस्तों द्वारा हत्या की कार्रवाई है, तो यह ख़तरनाक है।

काङ शेङ ने कहा कि भाकपा (माले) की आम दिशा सही है, लेकिन कुछ नीतियाँ ग़लत हैं। चीनी पार्टी के पास भूमि क्रान्ति का एक कार्यक्रम था, जिसके आधार पर उसने सत्ता-दख़ल के लिए किसानों को लामबन्द किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय पार्टी भूमि संघर्ष और छापामार युद्ध के बीच के सम्बन्ध के सवाल को अभी तक हल नहीं कर पायी है। उन्होंने इंगित किया कि यह सूत्रीकरण कि ‘किसान ज़मीन के लिए नहीं, बल्कि राजनीतिक सत्ता के लिए लड़ रहे हैं’ – ग़लत है, क्योंकि भूमि-क्रान्ति का सवाल और राजनीतिक सत्ता का सवाल एक-दूसरे के जुड़े हुए हैं और वे अलग नहीं किये जा सकते। जनान्दोलन और जनसंगठन छापामार युद्ध के लिए बाधा नहीं होते, बल्कि उनका न होना छापामार युद्ध के लिए बाधा होता है।

अन्त में काङ शेङ ने यह सुझाव दिया कि नीतिगत मामलों की इन सभी ग़लतियों को क़दम-ब-क़दम इस तरह ठीक किया जाना चाहिए कि पार्टी क़तारों और जन समुदाय के उत्साह को धक्का न लगे। हमें अपनी ग़लतियों को ठीक करने में अधैर्य से काम नहीं लेना चाहिए और बदलाव एक झटके से नहीं होना चाहिए।

इस बातचीत के बाद 31 अक्टूबर ’70 को सौरेन बसु पेइचिंग से रवाना हुए और शंघाई, कैण्टन, ढाका, कराची, रोम होते हुए तिराना पहुँचे। तिराना और लन्दन में कुछ दिन रुकने के बाद वह 27 नवम्बर को कलकत्ता पहुँचे। सुनीति कुमार घोष (चारु मजुमदार के गुप्त शेल्टर के प्रबन्धन की जि़म्मेदारी उन्हीं की थी) सौरेन बसु को चारु मजुमदार के शेल्टर पर ले गये। सौरेन बसु ने संक्षेप में बताया कि चीनी नेताओं ने पार्टी लाइन की क्या आलोचना रखी है! सुनीति कुमार घोष के अनुसार, बातचीत के दौरान चारु को बेहोशी का दौरा पड़ गया। फिर उन्हें कुछ दवाएँ दी गयीं और बातचीत अगली शाम के लिए टाल दी गयी। सौरेन बसु ने जब अपनी लिखित रिपोर्ट चारु मजुमदार को दी, उस समय सुनीति कुमार घोष वहाँ नहीं थे। वह पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के हिसाब से, असीम चटर्जी से मिलने जा चुके थे।

सुनीति कुमार घोष के अनुसार, 1 या 2 दिसम्बर को वह चारु को एक शेल्टर का इन्तज़ाम करके पुरी ले गये। उस समय चारु अन्दर से इतने हिले हुए थे कि एक दिन रो भी पड़े। सुनीति कुमार घोष को विश्वास था कि चीनी पार्टी के सुझावों को चारु मजुमदार कम-से-कम पार्टी के कुछ नेतृत्वकारी कामरेडों के सामने विचार-विमर्श के लिए रखेंगे। लेकिन उन्होंने ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं रखा। 7 दिसम्बर को जब सुनीति घोष कलकत्ता लौट रहे थे तो चारु ने उन्हें एक टिप्पणी थमायी जिसमें पश्चिम बंगाल में जन मुक्ति सेना के गठन की घोषणा की गयी थी। टिप्पणी में लिखा गया था कि मागुरजान में राइफल छीनने की घटना ने स्पष्ट कर दिया है कि पश्चिम बंगाल के किसानों की जन-मुक्ति सेना का उदय हो गया है, अब से ग़रीब और भूमिहीन किसानों के सभी छापामार दस्ते पार्टी के नेतृत्व वाली जन मुक्ति सेना के ‘कण्टिन्जेण्ट्स’ होंगे और कमाण्डरों का चुनाव करने में ग़रीब और भूमिहीन किसानों को प्राथमिकता दी जायेेगी। शायद दुनिया में पहली बार इस प्रकार जन मुक्ति सेना का गठन हो रहा था। उल्लेखनीय है कि इस घोषणा के पहले चारु मजूमदार ने नेतृत्व के किसी भी साथी से बातचीत तक नहीं की थी। ‘लिबरेशन’ में इस नोट के प्रकाशन के बाद इस पर सुशीतल राय चौधुरी ने भी सवाल उठाया था, इसकी चर्चा पहले की जा चुकी है। चारु मजुमदार के बाद के निर्णयों और गतिविधियों से यह साफ़ हो गया कि चीनी सुझावों के सबके सामने आने के पहले वे अपनी लाइन को ठोस परिस्थितियों के हवाले से धीरे-धीरे बदल कर उसे ज़्यादा-से-ज़्यादा चीनी सुझावों के निकट ला देना चाह रहे थे ताकि चीनी पार्टी की आलोचनाओं से न क़तारों को अधिक झटका लगे, न ही उनके सम्मान को अधिक आँच आये। इसकी चर्चा आगे आयेगी।

सुनीति घोष के कलकत्ता लौटने के बाद सरोज दत्त ने 8 दिसम्बर ’70 की सुबह उनसे कहा कि चीनी नेता हमारी पार्टी लाइन के प्रति आलोचनात्मक रुख़ रखते हैं, यह किसी को बताना नहीं है। इसके बाद सरोज दत्त पुरी गये और उनके लौटने के बाद सौरेन बसु गये जो दिसम्बर के अन्त में चारु को कलकत्ता वापस लिवा लाये। सुनीति घोष के इम्प्रेशन के अनुसार, कलकत्ता में चारु को फिर उन्होंने उनके पुराने आत्मविश्वास के साथ पाया। सरोज दत्त और सौरेन बसु जैसे अपने और अपनी अतिवामपन्थी लाइन के उत्कट समर्थकों से बातचीत और कार्य योजना तय होने के बाद चारु अब द्वन्द्व-मुक्त हो गये थे और उनका खोया आत्मविश्वास वापस आ गया था।

इस तरह, जिस बात की सुनीति घोष को भी क़तई उम्मीद नहीं थी, चीनी पार्टी नेतृत्व के आलोचनात्मक सुझावों को चारु मजुमदार ने पार्टी के नेतृत्वकारी कामरेडों के सामने भी नहीं रखा और उसे एकदम से दबा दिया गया। यह चारु मजुमदार के राजनीतिक अवसरवाद के, एक मुक़ाम पर पहुँचकर, व्यक्तिगत अवसरवाद में परिणत हो जाने का सूचक था। इस मुक़ाम पर पहुँचकर ‘स्व’ का सवाल और आत्मप्रतिष्ठा का सवाल उनके लिए क्रान्ति और पार्टी के हित के ऊपर हो गया था।

निस्सन्देह, यदि चीनी सुझावों को तत्काल पार्टी नेतृत्व के सामने और फिर पूरी पार्टी के भीतर बहस के लिए खुला कर दिया जाता तो वाम दुस्साहसवादी भटकाव के चलते आगे के दौरों में भी, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन को जो नुक़सान उठाने पड़े, उनसे काफ़ी हद तक बचा जा सकता था। फिर यदि जनदिशा की धारा मज़बूत होती, तो संशोधनवादी राजनीति को भी ज़्यादा सांघातिक चोट पहुँचायी जा सकती थी। पर चारु मजुमदार की एक अक्षम्य ऐतिहासिक ग़लती ने ऐसा नहीं होने दिया।

इस पूरे प्रसंग में सबसे दिलचस्प, और सवालों के घेरे में आने वाली भूमिका तो सौरेन बसु की थी। सौरेन बसु और सरोज दत्त ही वे दो व्यक्ति थे, जो इस बात की जीतोड़ कोशिश कांग्रेस के समय से ही करते आ रहे थे कि चारु को भारतीय पार्टी में ‘क्रान्तिकारी प्राधिकार’ का दर्जा दे दिया जायेे, जैसा चीनी पार्टी में माओ का था। इस बात की पीछे कुछ चर्चा आ चुकी है और आगे भी कुछ आयेगी। चीन में बातचीत के दौरान, जैसा कि सौरेन बसु ने स्वीकार किया था कि उनका सारा विश्वास जड़मूल से हिल गया था। भारत लौटकर एक ओर तो वह पूरी मुस्तैदी के साथ अपने को चारु मजुमदार के साथ खड़ा दिखा रहे थे और उन्हें यह मशविरा दे रहे थे कि चीनी सुझावों को अभी पार्टी में खुला करने की ज़रूरत नहीं है, दूसरी ओर वह ख़ुद ही इन सुझावों के बारे में पार्टी में यहाँ-वहाँ थोड़े-बहुत इशारे छोड़ते जा रहे थे।

असीम चटर्जी ने स्वयं बाद में लिखा था कि सौरेन बसु से चीनी सुझावों के बारे में जो थोड़ी-सी जानकारी मिली थी, उसने चारु मजुमदार की लाइन के विरुद्ध उनके विद्रोह में निर्णायक भूमिका निभायी थी। मार्च 1971 में गिरफ़्तारी के बाद सौरेन बसु ने जेल में मौजूद नेतृत्व के साथियों को चीनी सुझावों के बारे में तफ़सील से बताया और उन सुझावों को पूरी पार्टी के समक्ष रखकर उनके अनुरूप पार्टी लाइन में बदलाव करने की अपील करते हुए चारु को पत्र लिखने वाले आठ लोगों में भी शामिल हुए। यह चर्चा निबन्ध में आगे आयेगी।

अब यदि हम पश्चदृष्टि से देखते हुए चीनी पार्टी की आलोचना और सुझावों का मूल्यांकन करें, तो कुछ बातें ग़ौरतलब हैं। पहली बात तो वाम दुस्साहसवादी कार्यदिशा की यह आलोचना लगभग पूरी तरह सही, सटीक और सभी पक्षों को समेटने वाली थी। लेकिन उस दौर के सभी दस्तावेज़ों और इतिहास को देखने के बाद, चीनी पार्टी नेतृत्व का यह आकलन सही नहीं प्रतीत होता कि भाकपा (माले) की आम दिशा सही थी और केवल कुछ नीतियाँ ग़लत थीं। तथ्य तो यह बताते हैं कि पार्टी कांग्रेस के पहले ही, पार्टी में जनदिशा की बात करने वाली हर मुखर आवाज़ को किनारे किया जा चुका था और कांग्रेस की कार्यवाही तक से यही पता चलता है कि बचे-खुचे ढुलमुल और नरमपन्थी व्यक्तियों को ‘मैनेज’ करके पार्टी पर पूरी तरह वाम दुस्साहसवादी लाइन हावी हो चुकी थी। 1969 से ही तालमेल कमेटी और पार्टी अतिवामपन्थी लाइन को ही लागू कर रही थी। यह मार्क्सवाद से एक सुसंगत विचलन था और विचारधारात्मक-राजनीतिक लाइन का सवाल था, न कि सिर्फ़ नीतियों का सवाल था। चीनी पार्टी नेतृत्व ने इन ग़लतियों को क्रमश:, क़दम-ब-क़दम ठीक करने का सुझाव दिया, ताकि जनता और क़तारों में निराशा न फैले। इतिहास बताता है कि विचारधारात्मक ग़लतियाँ इंच-इंच करके क्रमिक प्रक्रिया में ठीक नहीं होतीं, बल्कि विचारधारात्मक रूप से ग़लत लाइन के विरुद्ध तत्क्षण संघर्ष छेड़कर, उस पर ‘फ़्रण्टल अटैक’ करके, एक झटके के साथ ही उसे परास्त या नेस्तनाबूद किया जा सकता है। विजा‍तीय प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष में हमें लेनिन का यही अप्रोच देखने को मिलता है। ख़्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध एक बार संघर्ष खुला करने के बाद चीनी पार्टी ने ‘महान बहस’ के दौरान शानदार भूमिका निभायी थी, लेकिन यह भी सच है कि इस काम में उसने सात वर्षों की देरी की। इस दौरान द्विपक्षीय स्तर पर सोवियत पार्टी को समझाने का काम चलता रहा और ग़लत लाइन के साथ समझौते भी किये जाते रहे। चीनी पार्टी के भीतर के पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध संघर्ष में भी कई बार यह अप्रोच दीखता है। स्थानाभाव के कारण हम इसकी तफ़सील से चर्चा नहीं कर सकते, लेकिन हमारा यह आकलन है कि चीन की पार्टी कई बार सांगठनिक हित और एकता को कमान में रखकर विचारधारात्मक और उसूली संघर्षों को भी क़दम-ब-क़दम करके लड़ने का या खुले संघर्ष में देरी करने का रुख़ अपनाती थी, जो ग़लत है। उपरोक्त सुझाव में भी इस बात की झलक दिखायी देती है।

तीसरी बात, अपने सुझावों में हालाँकि चीन की पार्टी बिरादराना थी और पार्टी लाइन विषयक निर्देश देने का उसका रवैया बिल्कुल नहीं था, लेकिन उसके कुछ मूल्यांकनों का वस्तुगत तौर पर ग़लत प्रभाव पड़ना ही था। चाऊ एन-लाई और काङ शेङ यह मानकर चल रहे थे कि भारत में चीन जैसी ही नवजनवादी क्रान्ति होनी है। सही परामर्श तो इस सम्बन्ध में यह होता कि वे भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को जनदिशा पर काम करने के साथ-साथ भारतीय समाज के उत्पादन-सम्बन्धों, वर्गीय संरचना और अधिरचना का स्वतन्त्र रूप से ठोस अध्ययन करके क्रान्ति की मंज़ि‍ल, प्रकृति और रणनीतिक वर्ग-संश्रय के बारे में नतीजे निकालने की राय देते, जैसा कि तालमेल कमेटी ने तय भी किया था। हालाँकि माओ इस बात पर विशेष बल देते थे कि हर देश के कम्युनिस्टों को अपने देश की विशिष्टताओं का अध्ययन करके क्रान्ति के स्वरूप और रास्ते के बारे में स्वयं तय करना होता है, लेकिन विशेषकर 1960 के दशक में चीन की पार्टी अक़सर इस प्रकार के अतिसामान्यीकरण का शिकार दीखती है कि एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के अधिकांश देशों की क्रान्ति का रास्ता चीनी क्रान्ति का ही रास्ता होगा। दुनिया-भर में 1960 और 1970 के दशक में गठित अधकचरी, अपरिपक्व माले पार्टियों ने इस बात को खींचकर वहाँ पहुँचा दिया कि क्रान्ति की मंज़ि‍ल और कार्यक्रम के सवाल को भी विचारधारा का अंग बना दिया और ऐसे हास्यास्पद सूत्रीकरण देने लगे कि जो कथित तीसरी दुनिया के देशों में नव-जनवादी क्रान्ति को नहीं मानता, वह माओ विचारधारा/माओवाद को ही नहीं मानता। बहरहाल, मूल विषय पर लौटने के लिए इस प्रसंग को भी हमें समेटकर यहीं छोड़ना होगा।

(अगले अंक में जारी)

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

दिशा सन्धान–5, जनवरी-मार्च 2018

दिशा सन्धान–5, जनवरी-मार्च 2018

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सम्‍पादकीय

गुजरात व हिमाचल के चुनाव और फ़ासीवाद के प्रतिरोध की रणनीति का प्रश्न

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन का इतिहास, समस्‍याएं व चुनौतियां

नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशक : एक सिंहावलोकन (चौथी किस्त) : दीपायन बोस
विज्ञान और मार्क्सवादी दर्शन के सम्बन्धों का एक अवैज्ञानिक और अज्ञानतापूर्ण पाठ : एक आलोचना : सनी सिंह

विश्‍व कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन का इतिहास, समस्‍याएं व चुनौतियां

सोवियत समाजवादी प्रयोगों के अनुभव : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पाँचवीं किस्त) : अभिनव सिन्‍हा
उत्तर-मार्क्सवाद के ‘कम्युनिज़्म’ : उग्रपरिवर्तन के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी : शिवानी, बेबी

फासीवाद / दक्षिणपंथ

राजसमन्द हत्याकाण्ड और भारतीय फ़ासीवाद का चरित्र : शिवानी कौल

साम्राज्‍यवाद

चीन : एक उभरती हुई साम्राज्यवादी ताक़त और उसके निहितार्थ : आनन्‍द सिंह
ट्रम्प का यरुशलम दाँव – अमेरिकी साम्राज्यवाद की बौखलाहट की निशानी : आनन्‍द सिंह

अर्थजगत

बिटकॉइन : पूँजीवादी संकट के भँवर में एक नया बुलबुला : उत्‍कर्ष

रिपोर्ट

आज के साम्राज्यवाद पर लखनऊ में आयोजित छठी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट : आनन्‍द सिंह

आपकी बात

पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान – 5, जनवरी-मार्च 2018

पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान – 5, जनवरी-मार्च 2018

आपकी बात

‘दिशा सन्धान’ काफ़ी अन्तराल पर निकल रहा है लेकिन हर अंक विचार और सामग्री की दृष्टि से बेहद समृद्ध है। कम्युनिस्ट आन्दोलन का लम्बे समय से शुभचिन्तक होने के नाते मैं इसकी वर्तमान स्थिति से व्यथित हूँ लेकिन मैं आपके इस विश्लेषण से असहमत होने का कोई आधार नहीं पाता कि आन्दोलन की मूल समस्या वैचारिक-सैद्धान्तिक है। इसके बावजूद पॉलिमिक्स पर ध्यान न देना और वाद-विवाद-संवाद को सही स्पिरिट में न लेना अखरता है। आशा है आपका यह प्रयास ठहराव को तोड़ेगा। मेरी शुभकामनाएँ।

एस.सी. रावत, जयपुर

‘दिशा सन्धान’ के अब तक प्रकाशित चारों अंक पढ़ चुका हूँ। हिन्दी समाज में ऐसी गम्भीर पत्रिका की निश्चय ही ज़रूरत है, विशेषकर जब सैद्धान्तिकी पर इतना कम ध्यान दिया जा रहा है, या फिर सिद्धान्त के नाम पर तमाम तरह का आयातित कचरा परोसा जा रहा है। भारत के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास और सोवियत इतिहास पर दोनों लेखमालाएँ बहुत श्रमसाध्य शोध के साथ लिखी गयी हैं और अपार तथ्यों के साथ गहन विश्लेषण भी प्रस्तुत करती हैं। बेहद विचारोत्तेजक। समकालीन विषयों पर आपकी टिप्पणियाँ भी बहुत संजीदगी और मेहनत के साथ लिखी गयी होती हैं। कृपया इसकी आवर्तिता बढ़ाने का प्रयास करें।

राजशरण वर्मा, कानपुर

मैं ‘दायित्वबोध’ का पुराना पाठक रहा हूँ और मेरा मानना है कि उसके बन्द होने से आन्दोलन की बहुत क्षति हुई। लेकिन ‘दिशा सन्धान’ ने न केवल उसकी कमी पूरी की है बल्कि यह उससे कहीं अधिक समृद्ध पत्रिका है। हालाँकि शायद इससे इसका दायरा कुछ सीमित हुआ होगा। लेकिन मार्क्सवादी विचारधारा पर ऐसे गम्भीर विमर्श के मंच की आज सख़्त ज़रूरत है। बेशक यह पत्रिका ‘मशीन मेकिंग मशीन’ का भी काम करेगी, यानी ऐसे लेखक और कार्यकर्ता तैयार करने का, उनकी वैचारिक समझ को और समृद्ध करने का काम करेगी भी जो इन विचारों को जन-जन तक अपनी भाषा में लेकर जायेंगे। आज सर्वहारा अधिनायकत्व और कम्युनिज़्म के मूल सिद्धान्तों पर तरह-तरह के वैचारिक हमलों ने जैसा धूलगर्द का बवण्डर खड़ा किया है, उसे साफ़ करके मार्क्स, लेनिन और माओ की शिक्षाओं को सही रूप में लोगों तक पहुँचाने के लिए ऐसी पत्रिका की अत्यन्त आवश्यकता है। आज अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक धाराएँ मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के बुनियादी उसूलों को तोड़ने-मरोड़ने में लगी हैं। इनका प्रतिवाद करने और देश के भीतर प्रासंगिक प्रश्नों पर बहस को दिशा देने में हमें आपकी पत्रिका से बहुत अपेक्षाएँ हैं।

श्रीकृष्ण त्यागी, दिल्ली

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

आज के साम्राज्यवाद पर लखनऊ में आयोजित छठी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

आज के साम्राज्यवाद पर लखनऊ में आयोजित छठी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

  • आनन्द सिंह

गत 24 से 28 नवम्बर के बीच लखनऊ के अन्तरराष्ट्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान, गोमतीनगर के सभागार में अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा ‘आज के समय में साम्राज्यवाद: उद्भव, कार्यप्रणाली और गतिकी’ विषय पर पाँच दिवसीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस संगोष्ठी में साम्राज्यवाद के क्लासिकीय मार्क्सवादी सिद्धान्तों की आलोचनात्मक पुनर्विवेचना, साम्राज्यवाद के नव-मार्क्सवादी सिद्धान्तों का आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन, लेनिन का साम्राज्यवाद का सिद्धान्त और नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर का साम्राज्यवाद, साम्राज्यवाद के उत्तर-मार्क्सवादी सिद्धान्त, मौजूदा अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और उसके निहितार्थ, साम्राज्यवाद के संशोधनवादी, सुधारवादी और सामाजिक-जनवादी सिद्धान्त, लातिन अमेरिका में साम्राज्यवाद, साम्राज्यवाद और मौजूदा आर्थिक संकट, साम्राज्यवाद और संस्कृति जैसे विषयों पर विभिन्न शोधात्मक आलेख प्रस्तुत किये गये और उन पर गहन चर्चा और गम्भीर बहस-मुबाहसा हुआ। संगोष्ठी में देश के विभिन्न राज्यों के विद्वानों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ ही नेपाल और अमेरिका से आये लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और कार्यकर्ताओं ने भी भागीदारी की।

संगोष्ठी का पहला दिन
पहले दिन 24 नवम्बर को संगोष्ठी के आयोजक ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ की मुख्य न्यासी मीनाक्षी ने एक स्वागत वक्तव्य के साथ संगोष्ठी की औपचारिक शुरुआत की जिसमें उन्होंने कहा कि आज साम्राज्यवाद के शोषण से एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देशों की जनता तबाह है और कर्ज़ों के बोझ से दबी हुई है। एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देश राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र हैं, परन्तु इन देशों का बुर्जुआ वर्ग साम्राज्यवाद के ‘जूनियर पार्टनर’ की भूमिका अदा करता है और इन देशों के मेहनतकश वर्ग को लूटता है। ख़ासकर मध्य-पूर्व का क्षेत्र अमेरिका की साम्राज्यवादी आक्रामकता का केन्द्र और विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों की होड़ का अखाड़ा बना हुआ है। इन देशों की जनता पिछले कई दशकों से युद्ध की विभीषिका झेल रही है। दुनिया के कई अन्य देशों में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और दबाव ने वहाँ की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है। लगातार जारी वैश्विक आर्थिक संकट ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। साम्राज्यवाद के विभिन्न पहलुओं को समझने तथा इसके प्रतिरोध की रणनीतियों पर आज दुनिया भर में विचार-मन्थन जारी है। उन्होंने उम्मीद जतायी कि संगोष्ठी में पाँच दिनों तक साम्राज्यवाद के विभिन्न पहलुओं पर गहन विचार-विमर्श का सिलसिला जारी रहेगा।
संगोष्ठी का पहला आलेख विश्व भारती विश्वविद्यालय, शान्तिनिकेतन, पश्चिम बंगाल से आये प्रशान्त बनर्जी ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था: ‘साम्राज्यवाद और पूँजीवादी शोषण का विस्तार: एक क्लासिकीय मार्क्सवादी विवेचना’। इस आलेख में श्री बनर्जी ने मार्क्स व एंगेल्स से लेकर लेनिन, काउत्स्की, रोज़ा लग्ज़मबर्ग आदि के साम्राज्यवाद-विषयक विचारों का संक्षिप्त ब्योरा प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि साम्राज्यवाद कोई राजनीतिक या विचारधारात्मक परिघटना नहीं बल्कि उन्नत पूँजीवाद की प्रमुख आवश्यकता है। इसलिए सत्ता संघर्ष और औपनिवेशिक विस्तार के तौर पर साम्राज्यवाद की मार्क्सवादी व्याख्या को अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियों में खोजा जाना चाहिए। पूँजीवाद की प्रकृति ही ऐसी है कि मज़दूर वर्ग पर प्रभुत्व क़ायम करके, उन्हें लूटकर और उनका शोषण करके स्वयं को समृद्ध बनाने की आन्तरिक इच्छा उसके भीतर ही मौजूद है। इसलिए साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ क्रान्ति पूँजीवादी शोषण के ख़िलाफ़ क्रान्ति का ही एक पहलू है।
पहले दिन का दूसरा आलेख विश्व भारती के ही मोहम्मद नज़मुल हसन ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था, ‘साम्राज्यवाद को पॉपुलिस्ट चुनौतियाँ: एक उत्तर-मार्क्सवादी आलोचनात्मक मूल्यांकन’। इस आलेख में उन्होंने साम्राज्यवाद के प्रतिरोध के लोकरंजकतावादी आन्दोलनों की चर्चा करते हुए एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिका में चल रहे विभिन्न आन्दोलनों और साम्राज्यवाद के उत्तर-मार्क्सवादी सिद्धान्तों और उसके ख़िलाफ़ जारी ‘पापुलिस्ट’ संघर्षों पर संक्षेप में बात रखी। उन्होंने कहा कि ‘पॉपुलिज़्म’ कुलीनों को चुनौती देने के लिए किसानों, मज़दूरों और मध्यवर्ग का एक विस्तारित गठबन्धन था। वह सामान्य तौर पर परस्पर विरोधी तत्वों का मिश्रण होता है, मसलन आम लोगों के लिए राजनीतिक अधिकारों और सार्विक भागीदारी की समानता, परन्तु नेतृत्व अक्सर एक करिश्माई व्यक्ति करता है जिसमें एक क़िस्म का निरंकुशता का पुट होता है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की लता कुमारी ने अपने आलेख में लातिन अमेरिका में साम्राज्यवादी शोषण के लम्बे रक्तरंजित इतिहास पर विस्तार से चर्चा की। अपने आलेख में उन्होंने कहा कि अन्तरराष्ट्रीय श्रम विभाजन में लातिन अमेरिका औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक सबसे शोषित क्षेत्र रहा है। लातिन अमेरिका में ही साम्राज्यवादियों ने नवउदारवादी नीतियों के सबसे पहले प्रयोग आज़माये। लता ने अपने आलेख में कोलम्बस के लातिन अमेरिका के तट पर पहुँचने के बाद शुरू हुए औपनिवेशिक काल से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद थोड़े समय तक रहे नव-औपनिवेशिक काल और उसके बाद नवउदारवाद के काल में पूँजी की बर्बर लूट का चित्रण किया। इसके बाद लता ने अपने आलेख में लातिन अमेरिका में साम्राज्यवाद विरोध के आन्दोलनों में प्रभावी विभिन्न सिद्धान्तों, ख़ासकर समूचे ‘डिपेण्डेंसी थियरी स्कूल’ की विवेचना की जिसकी जन्मस्थली लातिन अमेरिका ही रही है। उन्होंने राउल प्रेबिश, आन्द्रे गुण्डर फ्रैंक, एफ़-एच- कार्दोसो, सामिर अमीन और मारिनी जैसे विचारकों के विचारों का आलोचनात्मक विवेचन किया। उन्होंने बताया कि ‘डिपेण्डेंसी थियरी’ उन सिद्धान्तों की प्रजातियों की उप-प्रजाति है जो उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादन के क्षेत्र पर ज़ोर न देकर विनिमय सम्बन्धों व परिचलन के क्षेत्र पर ज़ोर देते हैं।
‘डिपेण्डेंसी थियरी’ विकसित देशों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों के अधिशेष को निचोड़े जाने को उन देशों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण बताती है, परन्तु वह इस बात का उत्तर नहीं देती कि अधिशेष पैदा कैसे होता है। मार्क्सवाद के अनुसार अधिशेष उत्पादन के क्षेत्र में पैदा होता है और वह परिचलन के क्षेत्र में प्रकट होता है। ‘डिपेण्डेंसी थियरी’ देशों के भीतर की उत्पादन पद्धति की अवधारणा के सन्दर्भ में चुप्पी साध लेती है। लता ने यह दलील दी कि पूरी दुनिया में ऐतिहासिक अनुभवों ने ‘डिपेन्डेंसी थियरी’ को ग़लत साबित किया है_ इसके कुछ पैरोकारों के दावों के बावजूद यह एक मार्क्सवादी सिद्धान्त नहीं है। ‘डिपेण्डेंसी परिप्रेक्ष्य’ के विपरीत आलेख में लातिन अमेरिका में साम्राज्यवाद को साम्राज्यवाद के लेनिनवादी सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में विवेचना का प्रयास किया गया।
आलेखों की प्रस्तुति के बाद उनमें उठाये गये मुद्दों पर जीवन्त बहस हुई जिसमें सनी सिंह, अभिनव सिन्हा, शिवानी, मुकेश असीम और सुखविन्दर शामिल हुए। (बहसों के वीडियो जल्द ही अरविन्द स्मृति न्यास के यूट्यूब चैनल पर देखे जा सकेंगे।) पहले दिन के सत्रों की अध्यक्षता न्यूयॉर्क के स्वतन्त्र मार्क्सवादी शोधार्थी व कार्यकर्ता एरिक श्मिट, जागरूक नागरिक मंच, पटना से जुड़े राजनीतिक कार्यकर्ता देवाशीष बराट और कवयित्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता कात्यायनी ने की और संचालन सत्यम ने किया।

संगोष्ठी का दूसरा दिन
संगोष्ठी के दूसरे दिन तीन आलेख प्रस्तुत किये गये। पहले सत्र में गाजियाबाद से आये ट्रेड यूनियन ऐक्टिविस्ट तपीश मैन्दोला ने ‘समकालीन साम्राज्यवादी दुनिया के बुनियादी अन्तरविरोध: कुछ प्रेक्षण’ विषयक अपना आलेख प्रस्तुत किया। इस आलेख में तपीश ने मार्क्स के समय से लेकर अब तक सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल में आये बदलावों का विस्तृत ब्यौरा दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देशों में औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक सत्ताओं के विघटन की प्रक्रिया का भी विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत किया। इसके बाद पूँजीवाद के विकास की प्रक्रिया की संक्षिप्त रूपरेखा देते हुए उन्होंने कहा कि एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देशों में होने वाला पूँजीवादी विकास बेहद जटिल, असमान और उतार-चढ़ाव भरा रहा है। तपीश ने कहा कि समकालीन दुनिया में दो बुनियादी अन्तरविरोध कार्यरत हैं: पहला श्रम और पूँजी के बीच का अन्तरविरोध और दूसरा अन्तरराष्ट्रीय इजारेदारियों के बीच का एवं साम्राज्यवादी देशों के बीच का अन्तरविरोध। इसके अतिरिक्त कुछ विशिष्ट ऐतिहासिक और भूराजनीतिक कारणों से कुछ सापेक्षतया पिछड़े पूँजीवादी देशों और साम्राज्यवादी देशों के बीच का अन्तरविरोध भी उग्र रूप धारण कर रहा है। नतीजतन बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच का अन्तरविरोध प्रधान अन्तरविरोध बन गया है। इसलिए 1963 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रस्तावित सामान्य कार्यदिशा से आगे सोचने की ज़रूरत है।
दूसरे दिन का दूसरा आलेख लेखक और ऐक्टिविस्ट आनन्द सिंह ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था ‘भूमण्डलीकरण के दौर का साम्राज्यवाद: परिवर्तन और निरन्तरता के पहलू’। इस आलेख में 1977 में क्रिश्चियन पैलोया द्वारा दिये गये स्कीमा की आलोचनात्मक विवेचना प्रस्तुत की गयी जिसमें उन्होंने मार्क्स द्वारा ‘पूँजी’ खण्ड दो में प्रस्तुत की गयी अवधारणा ‘पूँजी के परिपथ’ के माध्यम से पूँजी के अन्तरराष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया को समझाया था। आनन्द ने कहा कि हालाँकि यह स्कीमा भूमण्डलीकरण की परिघटना को समझने के लिए उपयोगी है, परन्तु इसकी अपनी सीमाएँ भी हैं। इसके बाद उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से हुए प्रमुख घटनाक्रमों की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की। तत्पश्चात उन्होंने नवउदारवादी भूमण्डलीकरण की प्रमुख अभिलाक्षणिकताओं का वर्णन करते हुए उत्पादन के अन्तरराष्ट्रीयकरण, वित्तीय पूँजी की निर्णायक विजय, मुनाफ़े की गिरती दर के संकट का जारी रहना और राष्ट्रपारीय निगमों का तीव्र विकास परन्तु फिर भी बदले हुए रूप में राष्ट्र-राज्यों की प्रसांगिकता के बरक़रार रहने की चर्चा की। उन्होंने रूस-चीन की साम्राज्यवादी धुरी के उभार के मद्देनज़र अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के वर्तमान स्वरूप पर चर्चा की। भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में साम्राज्यवादी देशों और तीसरी दुनिया के देशों के बीच के सम्बन्धों का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि इन देशों का बुर्जुआ वर्ग साम्राज्यवादी देशों के बुर्जुआ वर्ग का दलाल नहीं बल्कि उनका ‘जूनियर पार्टनर’ है।
दूसरे दिन का तीसरा आलेख भाकपा-माले, रेड स्टार की ओर से विजय कुमार ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था, ‘आज के दौर में साम्राज्यवाद’। लेनिन द्वारा प्रस्तुत साम्राज्यवाद की पाँच बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं की चर्चा करने के बाद विजय ने 1940 के दशक से शुरू हुई विऔपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का वर्णन किया। इस नयी परिस्थिति में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने औपनिवेशीकरण को एक नया स्वरूप और अन्तर्वस्तु दी। इस नवऔपनिवेशीकरण के दौर का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि समूचे साम्राज्यवादी दौर में जहाँ साम्राज्यवाद की गति के नियम बुनियादी तौर पर वही रहते हैं वहीं नवऔपनिवेशीकरण के दौर में कुछ गुणात्मक बदलाव भी हुए हैं जिन्हें चिन्हित करना आवश्यक है। इनमें से एक महत्वपूर्ण बदलाव यह हुआ है कि नवउपनिवेशों में भूमि सम्बन्ध अब सामन्ती नहीं रहे। हालाँकि विजय ने ज़ोर देते हुए कहा कि बुर्जुआ वर्ग का चरित्र अभी भी दलाल का ही है। इसके बाद विजय ने ख्रुश्चेव काल में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा साम्राज्यवाद के प्रति संशोधनवादी पहुँच अपनाये जाने का उल्लेख किया। कीन्सियाई दौर से नवउदारवादी दौर की ओर संक्रमण की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि नवउदारवादी दौर की विशेषता सट्टेबाज़ पूँजी का निर्बाध अन्तरराष्ट्रीय प्रवाह है। उन्होंने पर्यावरण विनाश पर ज़ोर देते हुए कहा कि खाद्य संकट, विस्थापन, जल की कमी आदि उसके लक्षण हैं जो आर्थिक असमानता की वजह से और बढ़ रहे हैं। उन्होंने यह रेखांकित किया कि इस सन्दर्भ में भाकपा-माले, रेड स्टार ने अपने पार्टी दस्तावेज़ में पूँजी और प्रकृति के बीच के अन्तरविरोध को मुख्य अन्तरविरोध के रूप में सम्मिलित किया है।
आलेखों की प्रस्तुति के बाद बहस-मुबाहिसे का दौर शुरू हुआ जिसमें देहरादून से आये अश्विनी त्यागी, लुधियाना से आये बलदेव सिंह, चण्डीगढ़ से आये मानव, बलिया से आये अवधेश सिंह, नेपाल से आयीं सरिता तिवारी, गुरप्रीत, आनन्द सिंह, अभिनव सिन्हा और तपीश मैन्दोला ने हिस्सा लिया। दूसरे दिन के सत्रों की अध्यक्षता सिरसा से आये वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता
डा. सुखदेव हुन्दल, पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर और अरविन्द स्मृति न्यास की अध्यक्ष मीनाक्षी ने की और संचालन शिवानी ने किया।

संगोष्ठी का तीसरा दिन
संगोष्ठी के तीसरे दिन 26 नवम्बर को मज़दूर अख़बार ‘मज़दूर बिगुल’ के सम्पादक अभिनव सिन्हा ने अपना आलेख प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था: ‘मार्क्स के समय से लेकर अब तक साम्राज्यवाद के मार्क्सवादी सिद्धान्त: एक समकालीन आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन’। इस आलेख में अभिनव ने मार्क्स के समय से लेकर अब तक के सिद्धान्तकारों, जैसे हार्वी, वुड आदि के साम्राज्यवाद पर मार्क्सवादी चिन्तन का एक सांगोपांग आलोचनात्मक और समकालीन सर्वेक्षण प्रस्तुत किया। इस आलेख की शुरुआत में उन्होंने विश्व पैमाने पर पूँजीवाद के विस्तार, विकसित पूँजीवादी देशों और साथ ही पिछड़े देशों पर उसके प्रभाव के बारे में मार्क्स के प्रेक्षणों का उल्लेख किया जो उनकी विभिन्न कृतियों में बिखरे हुए मिलते हैं। आलेख में इस पर ज़ोर दिया गया कि पूँजीवाद के इस विस्तार और नतीजतन साम्राज्यवाद के उद्भव का कारण मुनाफ़े की गिरती हुई दर का गिरना था न कि वास्तवीकरण की समस्या। उन्होंने कहा कि जब मार्क्स की मृत्यु हुई उस समय पूँजीवाद के इजारेदारी के युग में प्रवेश करने की प्रकिया अभी जारी ही थी। फिर भी मार्क्स के लेखन में साम्राज्यवाद के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण अन्तर्दृष्टियाँ मिलती हैं। इसके बाद अभिनव ने हिल्फ़र्डिंग की सर्वप्रमुख रचना ‘वित्त पूँजी’ में प्रस्तुत साम्राज्यवाद के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विश्लेषण किया। उन्होंने कहा कि हालाँकि इस पुस्तक ने साम्राज्यवाद के युग में पूँजीवाद की कार्यप्रणाली से सम्बन्धित कई मूल्यवान अन्तर्दृष्टियाँ दीं परन्तु उसमें सामंजस्यवादी और सामाजिक-जनवादी विभ्रम भी मौजूद थे। साम्राज्यवाद के प्रश्न से सम्बन्धित अगली प्रमुख रचना रोज़ा लग्ज़ेम्बर्ग की ‘पूँजी का संचय’ थी। उन्होंने कहा कि लग्ज़ेम्बर्ग का साम्राज्यवाद का सिद्धान्त मूलतः मार्क्सवादी सिद्धान्त नहीं है क्योंकि उसमें अल्पउपभोगवादी अवस्थिति अपनायी गयी है। उसके बाद अभिनव ने बुखारिन की रचना ‘साम्राज्यवाद और विश्व अर्थव्यवस्था’ का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए कहा कि वह साम्राज्यवाद के प्रश्न पर पहली व्यवस्थित मार्क्सवादी रचना थी। इस रचना की त्रुटियों की आलोचना भी की गयी, मसलन बुखारिन की इस त्रुटिपूर्ण अवधारणा की कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा समाप्त होकर विश्व स्तर पर पुनरुत्पादित होती है। इसके बाद उन्होंने साम्राज्यवाद के लेनिन के सिद्धान्त की विवेचना की। उन्होंने कहा कि लेनिन का सिद्धान्त साम्राज्यवाद का अब तक का सबसे पूर्ण सिद्धान्त है जिसमें उच्च स्तर के सामान्यीकरण और द्वन्द्वात्मक पद्धति का उपयोग किया गया है। अभिनव ने 1940 के दशक से लेकर 1970 के दशक के बीच के नव-मार्क्सवादी सिद्धान्तों जैसे स्वीज़ी-बरान के ‘मोनोपोली कैपिटल स्कूल’, आन्द्रे गुण्डर फ्रैंक की ‘डिपेण्डेंसी थियरी’, इमैनुएल वालरस्टीन की ‘वर्ल्ड सिस्टम थियरी’, सामिर अमीन का ‘अल्पविकास’ का सिद्धान्त और अरगिरी एमैनुएल के ‘असमान विनिमय’ का सिद्धान्त आदि का आलोचनात्मक विश्लेषण किया। उन्होंने एलेन मीक्सिन्स वुड, डेविड हार्वी और एलेक्स कैलिनिकोस जैसे तथाकथित ‘नया साम्राज्यवाद’ के नये सिद्धान्तों की भी आलोचना प्रस्तुत की।
अभिनव ने अपने आलेख में इस बात पर ज़ोर दिया कि ख़ास तौर पर 1970 के दशक के बाद से साम्राज्यवाद की कार्यप्रणाली में आये बदलावों की रोशनी में साम्राज्यवाद के एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त के विकास का कार्य अभी पूरा किया जाना बाकी है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी परिप्रेक्ष्य से कई सारी चीज़ों का विश्लेषण करने की ज़रूरत है, जिनमें से कुछ परिमाणात्मक बदलाव हैं जबकि कुछ अन्य गुणात्मक बदलावों से सम्बन्धित हैं। पोस्ट-फ़ोर्डिज़्म के उभार से लेकर वैश्विक असेम्बली लाइन के उभरने, साम्राज्यवादी दुनिया में बहु-ध्रुवीयता के नये आयाम, उच्च स्तर का अनौपचारिकीकरण, विनियमीकरण, अति-वित्तीयकरण, सट्टेबाज़ पूँजी का प्रभुत्व और किसी समाजवादी खेमे की ग़ैर-मौजूदगी, अमेरिका के वर्चस्व में होता ह्रास, चीन-रूस धुरी का उभार, अब पूँजीवादी देश बन चुके पूर्व उपनिवेशों में सर्वहारा क्रान्ति की नयी रणनीति और आम रणकौशल – इन सभी बदलावों का विश्लेषण करने और समझने की ज़रूरत है।
आलेख की प्रस्तुति के बाद एक जीवन्त बहस-मुबाहसे का दौर चला जिसमें लखविन्दर, प्रेमप्रकाश, शिरीष मेढ़ी, हरजिन्दर सिंह, अभिनव सिन्हा और विजय कुमार ने हिस्सा लिया। तीसरे दिन के सत्रों की अध्यक्षता नेपाल के वरिष्ठ वामपन्थी नेता एवं लेखक निनू चपागाईं, पंजाब के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. सुखदेव सिंह और दिल्ली से आयी ट्रेड यूनियन कर्मी और बिगुल मज़दूर दस्ता की सदस्य शिवानी ने की जबकि संचालन आनन्द सिंह ने किया।

संगोष्ठी का चौथा दिन
संगोष्ठी के चौथे दिन का पहला आलेख पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर ने प्रस्तुत किया। आलेख का शीर्षक था ‘अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा, बदलता शक्ति सन्तुलन और भविष्य की सम्भावनाएँ’। आलेख में सुखविन्दर ने कहा कि सोवियत संघ के विघटन के बाद एकध्रुवीय विश्व, साम्राज्यवाद का अन्त, साम्राज्यवाद के लेनिन के सिद्धान्त की अप्रासंगिकता की बातें करने वाले तमाम सिद्धान्त लोकप्रिय होने लगे। काउत्स्की के सिद्धान्त की लेनिन की आलोचना से प्रेरणा लेते हुए सुखविन्दर ने प्रभात पटनायक और एजाज़ अहमद जैसे अकादमीशियनों द्वारा प्रस्तावित समकालीन नव-काउत्स्कीवादी सिद्धान्तों की आलोचना प्रस्तुत की। इन सिद्धान्तों की आलोचना करने के बाद उन्होंने पतनशील अमेरिकी साम्राज्यवाद के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक वर्चस्व के लिए होड़ कर रही नयी साम्राज्यवादी धुरियों का ब्यौरा दिया। उन्होंने कहा कि किस प्रकार यूरोपीय संघ अमेरिकी साम्राज्यवाद को चुनौती देने वाली एक धुरी हो सकता है। उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवाद को सबसे बड़ी चुनौती देने वाले रूस के पुनरुत्थान का ब्यौरा पेश किया। चीन के उभार और उसके साम्राज्यवादी शक्ति बनने की सम्भावना एवं रूस के साथ उसके गठबन्धन ने एक चीन-रूस साम्राज्यवादी धुरी का निर्माण किया है। इसके बाद उन्होंने लातिन अमेरिका और मध्य-पूर्व जैसे क्षेत्रों में चल रहे तनावों और सीरिया, यूक्रेन आदि में चल रहे साम्राज्यवादी तनावों के बारे में बात रखी। अन्त में उन्होंने कहा कि सभी घटनाक्रम ये सन्देश दे रहे हैं कि भविष्य में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने वाली है जो भविष्य में और ज़्यादा अस्थिरता को बढ़ायेगी।
इसके बाद केरल से आये बिपिन बालाराम ने एक प्रस्तुतीकरण दिया जिसमें उन्होंने शुरुआत एजाज़ अहमद, सी.पी. चन्द्रशेखर, इरफ़ान हबीब, जयति घोष जैसे प्रमुख वाम अकादमिशियनों के विचारों पर आलोचनात्मक टिप्पणियों से की। इसके बाद वे प्रभात और उत्सा पटनायक की पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का एक सिद्धान्त’ की आलोचना की ओर बढ़े। उन्होंने इस पुस्तक में दिये गये सिद्धान्त को ‘निम्न बुर्जुआ के लिए/का शोकगीत’ क़रार दिया। उन्होंने कहा कि पटनायक द्वय के सिद्धान्त का सबसे मुख्य पहलू विश्व की भौगोलिक असममिति है जिसमें चाय, कॉफी, गन्ना और कपास जैसे बुनियादी मालों का उत्पादन उष्णकटिबन्धीय देशों में ही होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार उष्णकटिबन्धीय देशों के छोटे उत्पादकों की आय में कमी पैदा करने के लिए मेट्रोपॉलिटन पूँजी द्वारा आज़माये जाने वाले सभी तरीक़े साम्राज्यवाद की परिधि में आते हैं। बिपिन ने कहा कि डेविड हार्वी ने इस सिद्धान्त की असंगतता, उष्णकटिबन्धीय देश जैसी अवधारणाओं को ढीले-ढाले ढंग से परिभाषित करने और भौगोलिक नियतत्ववाद के लिए उचित ही इसकी आलोचना की है, हालाँकि उन्होंने स्वयं भी साम्राज्यवाद का अपना सामाजिक-जनवादी और काउत्स्कीपन्थी सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा कि इस सिद्धान्त से यह हास्यास्पद नतीजा भी निकाला जा सकता है कि कोई उष्णकटिबन्धीय देश कभी साम्राज्यवादी हो ही नहीं सकता और ऐसा नतीजा वर्तमान साम्राज्यवादी दुनिया के कई घटनाक्रमों की व्याख्या नहीं कर पायेगा।
बिपिन के प्रस्तुतीकरण के बाद न्यूयार्क से आये विद्वान और मार्क्सवादी कार्यकर्ता एरिक श्मिट ने अपना आलेख प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था फ्विश्व की परिस्थिति और विश्व क्रान्तिय्। आलेख की शुरुआत में एरिक ने कहा कि विश्व क्रान्ति के लिए आन्तरिक कारणों को जि़म्मेदार ठहराना चाहिए जोकि ऐतिहासिक रूप से निर्धारित होते हैं और विभिन्न वर्गीय परिस्थितियों के अनुरूप होते हैं। साथ ही अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को एक सामान्य दिशा प्रस्तुत करनी चाहिए जिससे हर सर्वहारा विश्व क्रान्ति को आगे बढ़ाने के लिए कार्यभार निर्धारित कर सके। इसके बाद उन्होंने मौजूदा विश्व परिस्थिति की एक विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की। समकालीन विश्व परिस्थिति की व्याख्या करते हुए उन्होंने कुछ विशेषताओं जैसे कि आर्थिक संकट, बुर्जुआ वर्ग का राजनीतिक बिखराव, बुर्जुआ विचारधारा का संकट और राजनीतिक रूप से एक वर्ग के रूप में सर्वहारा की कमज़ोरियों की वजह से क्रान्तिकारी खेमे की विफलता आदि का वर्णन किया। वास्तव में अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की कमज़ोरी आज साम्राज्यवादी खेमे की कमज़ोरियों से कहीं अधिक है। इसके बाद उन्होंने वर्तमान राजनीतिक सन्धि-बिन्दु का कालक्रम प्रस्तुत करते हुए कहा कि आज की विश्व परिस्थिति में साम्राज्यवाद और उत्पीडि़त देशों के बीच का अन्तरविरोध प्रधान अन्तरविरोध है जो यह माँग करता है कि हम अपनी मनोगत ताक़तों को एक स्वायत्त संगठन और कार्यक्रम के निर्माण की दिशा में विकसित करें। आज क्रान्तिकारी सर्वहारा को वर्ग संश्रय बनाने के लिए राष्ट्रीय आन्दोलनों के साथ संयुक्त मोर्चे बनाने चाहिए ताकि वे अपना जनाधार सुदृढ़ कर सकें।
चौथे दिन की बहस में कर्नाटक से रवीन्द्र डी. हालिंगली, लुधियाना से लखविन्दर, महाराष्ट्र से शिरीष मेढ़ी ने हिस्सा लिया। उसके बाद एरिक के आलेख पर एक लम्बी और जीवन्त बहस हुई जिसमें अभिनव और एरिक ने हिस्सा लिया। सत्रों की अध्यक्षता कविता कृष्णपल्लवी, अभिनव सिन्हा और आनन्द सिंह ने की और संचालन नमिता ने किया।

पाँचवाँ और अन्तिम दिन
28 नवम्बर को संगोष्ठी के पाँचवें और अन्तिम दिन तीन आलेख प्रस्तुत किये गये और साम्राज्यवाद पर प्रभात पटनायक की अवस्थिति की आलोचना पर केन्द्रित पीआरसी, सीपीआई (एमएल) पटना के अजय कुमार सिन्हा का आलेख सदन में वितरित किया गया। पाँचवें दिन पहला आलेख विश्व भारती, शान्तिनिकेतन के डॉ. एम.पी. टेरेंस सैमुएल ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था, ‘संस्कृति और साम्राज्यवाद’। इस आलेख में उन्होंने उल्लेख किया कि क्लासिकीय मार्क्सवादी समझ के अनुसार संस्कृति को अस्तित्वमान सामाजिक-आर्थिक संरचना और परिस्थितियों की अधिरचना के रूप में समझा गया। इसलिए यूरोपीय भूदेशों से ग़ैर-यूरोपीय क्षेत्रों में पूँजीवाद के साम्राज्यवादी विस्तार ने औपनिवेशीकृत देशों के लोगों के सांस्कृतिक पहलुओं को प्रभावित किया, हालाँकि यह पूँजीवादी विस्तार मुख्यतया आर्थिक ही था। हालाँकि मार्क्स यह समझते थे कि किस प्रकार सामाजिक-आर्थिक आधार अधिरचना के तत्वों को द्वन्द्वात्मक ढंग से प्रभावित करता है, परन्तु उन्होंने संस्कृति और साम्राज्यवाद/पूँजीवाद के द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों के बारे में बहुत विस्तार से नहीं लिखा। सामाजिक-आर्थिक आधार और अधिरचना के बीच यह सम्बन्ध एकतरफ़ा नहीं होता। होर्खाइमर और अदोर्नो की रचनाओं की चर्चा करते हुए डॉ. सैमुएल ने कहा कि उनके अनुसार आधुनिक काल में ‘संस्कृति उद्योग’ द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकी प्रगति प्रभुत्व का साधन बनती है।
इसके बाद नेपाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन के वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता और जाने-माने साहित्यिक आलोचक निनू चापागाईं ने नेपाल में भारत के साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और उसके दबंग और साम्राज्यवादी आचरण की चर्चा की। उन्होंने कहा कि उनके देश में संसदीय राजनीति अब विभिन्न प्रकार की विकृतियों का शिकार है जिसको लेकर कार्यकर्ताओं में निराशा व्याप्त है। सत्ता के लालच में वहाँ की पार्टी ने उन सिद्धान्तों की तिलांजलि दे दी है जिनके लिए उसने एक लम्बा संघर्ष छेड़ा था। इसके बाद मुम्बई से आये हर्ष ठाकोर ने साम्राज्यवाद के प्रतिरोध से सम्बन्धित वक्तव्य रखा।
अन्तिम दिन का दूसरा आलेख ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट और बिगुल मज़दूर दस्ता से जुड़ी शिवानी कौल ने प्रस्तुत किया। उनके आलेख का शीर्षक था ‘एम्पायर के उत्तर-मार्क्सवादी सिद्धान्त और साम्राज्यवाद का लेनिनवादी सिद्धान्त’। इस आलेख में उन्होंने मुख्यतया माइकल हार्ट और अन्तोनियो नेग्री की चर्चित पुस्तक ‘एम्पायर’ की आलोचना प्रस्तुत की। ‘एम्पायर’ के सिद्धान्त के दार्शनिक मूल की बात करते हुए उन्होंने कहा कि हार्ट और नेग्री उत्तर-मार्क्सवाद की सैद्धान्तिक परम्परा से आते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि हार्ट और नेग्री के सैद्धान्तीकरण में मज़दूरवाद (ऑपराइज़्मो) के इतालवी संस्करण का भी असर साफ़ देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि जिसे ‘एम्पायर’ का नाम दिया गया है वो और कुछ नहीं बल्कि भूमण्डलीकरण ही है, परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि ‘साम्राज्यवाद की मृत्यु’ का दावा करने वाली पुस्तक साम्राज्यवाद के क्लासिकीय सिद्धान्तों के बारे में बिल्कुल मौन है। यह सिद्धान्त साम्राज्यवाद के मौजूदा यथार्थ को नहीं पकड़ पाता है। मार्क्सवाद की पूरी ठोस विश्लेषणात्मक श्रेणियों की जगह अमूर्त अटकलपच्चू श्रेणियों ने ले ली और नतीजा एक बिखरे हुए सैद्धान्तीकरण के रूप में सामने है। शिवानी ने दलील दी कि हार्ट-नेग्री के इस सैद्धान्तीकरण में सबकुछ अवैयक्तिक हो जाता है; सत्ता और संघर्ष दोनों, साम्राज्यवाद का स्थान साम्राज्य ले लेता है; वर्ग का स्थान ‘मल्टीट्यूूड’ ले लेता है। उन्होंने ‘एम्पायर’ के सैद्धान्तीकरण की कुछ अन्तर्निहित समस्याओं को चिह्नित किया और उनकी तुलना लेनिन के साम्राज्यवाद के सिद्धान्त से करते हुए कहा कि मौजूदा साम्राज्यवाद को समझने के लिए लेनिन का सिद्धान्त अभी भी सबसे बेहतरीन परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है।
संगोष्ठी का अन्तिम आलेख अभिनव सिन्हा ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था, ‘मौजूदा साम्राज्यवादी संकट: एक नयी महामन्दी’। पूँजीवाद के मौजूदा संकट के बारे में बात करते हुए अभिनव ने कहा कि यह संकट इस मायने में अतीत के संकट से अलग है कि यह कहीं ज़्यादा दीर्घकालिक और संरचनागत है, भले ही 1930 की महामन्दी जितना प्रलयंकारी न दिखे। यही वजह है कि इसे ‘लॉन्ग डिप्रेशन’ की संज्ञा भी दी जा रही है। इसके बाद उन्होंने माइकल हाइनरिख़ द्वारा किये गये पूँजी के पाठ और उनके द्वारा उठाये गये कुछ विवादित मुद्दों, ख़ासकर मुनाफ़े की दर के गिरने की प्रवृत्ति के मार्क्स के बुनियादी नियम जैसे मुद्दों पर हाइनरिख़ की अवस्थिति, का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने एण्ड्रू क्लिमैन, माइकल रॉबर्ट्स, गुग्लिएल्मो कारचेदी, एलन फ्रीमैन, फ्रेड मोस्ले आदि के दृष्टिकोणों का भी उल्लेख किया। उसके बाद उन्होंने एण्ड्रू क्लिमैन और माइकल रॉबर्ट्स का हवाला देते हुए संकट पर डुमेनिल और लेवी के दृष्टिकोण की आलोचना प्रस्तुत की। इसके पश्चात उन्होंने सैम गिण्डिन और लियो पैनिच, डेविड हार्वी और एलेक्स कैलिनिकोस व अन्य के दृष्टिकोण की भी आलोचना पेश की। उन्होंने संकट पर अनवर शेख के दृष्टिकोण को सही बताया। उन्होंने दलील दी कि हार्वी और हाइनरिख़ के दावों के विपरीत मार्क्स ने संकट का एक सिद्धान्त दिया था और वह सिद्धान्त था मुनाफ़े की दर के गिरने की प्रवृत्ति का नियम। इसे आनुभविक रूप से सिद्ध किया जा सकता है कि यह साम्राज्यवाद के आवर्ती संकटों की अब तक की सबसे वैज्ञानिक और तार्किक व्याख्या है और यह उसके बुनियादी अन्तरविरोध अर्थात उत्पादन के समाजीकरण और विनियोजन के निजीकरण का पर्दाफ़ाश करता है। इसके बाद अभिनव ने विशेष रूप से दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से विश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में मुनाफ़े की दर से सम्बन्धित आँकड़े और ग्राफ़ प्रस्तुत करते हुए दिखाया कि किस तरह से सभी अर्थव्यवस्थाओं में मुनाफ़े की गिरती दर की प्रवृत्ति रही है। अन्त में उन्होंने कहा कि सवाल यह साबित करने का नहीं है कि मुनाफ़े की दर गिरती है या नहीं, बल्कि यह है कि यह दर क्यों गिरती है, और मार्क्स ने ठीक इसी सवाल का जवाब दिया था।
अन्तिम दिन चर्चा में फ़रीदाबाद से आये सत्यवीर सिंह, सुखविन्दर, अभिनव और सत्यम आदि ने प्रमुख रूप से भाग लिया। सत्रों की अध्यक्षता गाजि़याबाद से आये तपीश मैन्दोला, दिल्ली से आये प्रेम प्रकाश तथा लुधियाना से आये लखविन्दर ने की जबकि संचालन लता कुमारी ने किया।
संगोष्ठी के अन्त में शाम को नवगठित क्रान्तिकारी रॉक बैण्ड ‘अनुष्टुप’ ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों के साम्राज्यवाद-विरोधी क्रान्तिकारी गीतों का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। बैण्ड में अनहद, सृजन, अभिनव और शिप्रा शामिल हैं।
‘दायित्वबोध’ पत्रिका के सम्पादक तथा प्रखर वामपन्थी कार्यकर्ता एवं बुद्धिजीवी दिवंगत कॉमरेड अरविन्द सिंह की स्मृति में अरविन्द स्मृति न्यास की ओर से सामाजिक बदलाव के आन्दोलन से जुड़े किसी अहम सवाल पर संगोष्ठी का आयोजन किया जाता है। पहली दो संगोष्ठियाँ दिल्ली व गोरखपुर में मज़दूर आन्दोलन के विभिन्न पहलुओं पर हुई थीं जबकि तीसरी संगोष्ठी भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन के सवाल पर लखनऊ में आयोजित की गयी थी। चौथी संगोष्ठी ‘जाति प्रश्न एवं मार्क्सवाद’ विषय पर चण्डीगढ़ में तथा पाँचवीं संगोष्ठी ‘समाजवाद की समस्याएँ’ विषय पर इलाहाबाद में आयोजित हुई थी। सातवीं वृहत् संगोष्ठी 2019 में भूमि सम्बन्धों के सवाल पर होना प्रस्तावित है।

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

चीन : एक उभरती हुई साम्राज्यवादी ताक़त और उसके निहितार्थ

चीन : एक उभरती हुई साम्राज्यवादी ताक़त और उसके निहितार्थ

  • आनन्द सिंह

14-15 मई 2017 को चीन की राजधानी बीजिंग में सम्पन्न ‘वन बेल्ट वन रोड’ शिखर सम्मेलन में 29 देशों के राष्ट्राध्यक्षों और 130 देशों के व्यावसायिक प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने विश्व के मुक्त व्यापार में चीन की नैतिक और व्यावहारिक नेतृत्वकारी क्षमता का दावा किया। विश्व मीडिया में इस सम्मेलन की व्यापक कवरेज हुई और तमाम बुर्जुआ विश्लेषकों ने भी इसे विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था में चीन के बढ़ते वर्चस्व के रूप में प्रस्तुत किया। इससे पहले जनवरी में डावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की बैठक में भी शी जिनपिंग ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की संरक्षणवादी नीतियों के मद्देनज़र चीन को भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व पूँजीवाद की रहनुमाई करने का दावा ठोंका था। नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में विश्व-पूँजीवाद की रहनुमाई करने की चीनी हुक़्मरानों की आकांक्षा का भौतिक कारण हाल के वर्षों में चीन का उभरती हुई साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में विश्वपटल पर उपस्थिति दर्ज़ कराना है। ऐसे में मात्र तीन दशकों के भीतर एक समाजवादी राष्ट्र के एक उभरते हुए साम्राज्यवादी राष्ट्र में हुए इस संक्रमण की प्रक्रिया और उसके निहितार्थ को समझना बेहद ज़रूरी हो जाता है।

चीन में माओ की मृत्यु के पश्चात 1970 के दशक के अन्त तक पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो चुकी थी। पुनर्स्थापना की इस प्रक्रिया को देङ सियाओ-पेङ ने तथाकथित ”बाज़ार समाजवाद” के ज़रिये औपचारिक स्वरूप दिया। इस प्रक्रिया के तहत गाँवों में पुराने सामूहिक फार्मों की व्यवस्था को समाप्त करके पारिवारिक फार्मों को मंज़ूरी दी गयी जो बाज़ार के लिए पैदा करते थे। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में कस्बा और गाँव उद्यम स्थापित किये गये जो बाज़ार के लिए हल्के-फुल्के औद्योगिक माल बनाते थे। लाखों की संख्या में राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों को बन्द किया गया और इन उद्यमों में काम करने वाले लाखों मज़दूरों को निकाल दिया गया। इसके अतिरिक्त दक्षिण में पर्ल नदी के डेल्टा क्षेत्र (हांगकांग और मकाओ से लगे), फुजिआन प्रदेश (ताइवान के निकट) और शंघाई में नये निर्यातोन्मुख औद्योगिक क्षेत्र स्थापित किये गये। इसकी वजह से पहले हांगकांग में रहने वाले चीनी लोगों और बाद में बड़ी पश्चिमी, जापानी और कोरियाई कम्पनियों की ओर से बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश आना मुमकिन हुआ। ऐसे क़दमों से चीनी विशेषता वाले पूँजीवाद का विकास हुआ जिसके चलते 1980 से लेकर 2014 तक चीन की अर्थव्यस्था की वृद्धि दर अभूतपूर्व तेज़ी से बढ़ी।

विश्व अर्थव्यवस्था में चीन की अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति

चीन की अर्थव्यवस्था इस समय नॉमिनल जीडीपी के अनुसार अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसका नॉमिनल जीडीपी 10 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक है जोकि विश्व की तीसरी व चौथी अर्थव्यवस्थाओं – जापान व जर्मनी – के जीडीपी के योग से भी अधिक है।

चूँकि दुनिया के तमाम देशों में जीवन स्तर और मुद्राओं का मूल्य अलग होता है, इसलिए विश्व अर्थव्यवस्था में किसी देश की वास्तविक स्थिति जानने के लिए उस देश के जीडीपी के अतिरिक्त उसकी मुद्रा के मूल्य को भी ध्यान में रखना चाहिए। परचेज़ि‍ंग पॉवर पैरिटी (पीपीपी) ऐसा ही एक मापदण्ड है जिसके अनुसार चीन की अर्थव्यवस्था पहले ही दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है।[1] 1990 में विश्व अर्थव्यवस्था में चीन की अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी 2 प्रतिशत से भी कम थी जोकि 2014 में बढ़कर 13 प्रतिशत हो गयी।[2] इस समय दुनिया के 80 प्रतिशत एयरकंडीशनर, 70 प्रतिशत मोबाइल फ़ोन और 60 प्रतिशत जूते चीन में बनते हैं।[3] विश्व बैंक के डेटा के अनुसार वैश्विक कपड़ा निर्यात में चीन की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत से भी ऊपर है। मैन्युफै़क्चरिंग सेक्टर, जिसे पूँजीवादी मूल्य उत्पादन का सबसे प्रमुख क्षेत्र माना जाता है, में चीन दुनिया का अग्रणी देश बन चुका है। इस प्रकार चीन ने मैन्युफै़क्चरिंग में 110 वर्षों से चले आ रहे अमेरिका के नेतृत्व को पछाड़ दिया है। दुनिया के कुल कच्चे स्टील के उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा चीन का है। मार्क्सवादी भूगोलशास्त्री डेविड हार्वी ने यह दिखाया है कि वर्ष 2011 और 2013 के बीच चीन में सीमेण्ट की जितनी खपत हुई वह अमेरिका द्वारा समूची बीसवीं सदी में सीमेण्ट की कुल खपत का डेढ़ गुना है।  इसके अतिरिक्त खदान व सेवा क्षेत्रों में भी चीन ने हाल के दशकों मे तेज़ी से विकास किया है। आज दुनिया की कुल आर्थिक वृद्धि का 30 प्रतिशत चीन की बदौलत है।

‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका द्वारा हर वर्ष जारी दुनिया की शीर्ष की 2000 बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर आधारित एक अध्ययन में क्रिश्चियन फुक्स ने यह दिखाया है कि किस प्रकार 2004 और 2014 के बीच संख्या, परिसम्पत्ति और मुनाफ़े के लिहाज़ से अमेरिकी (व यूरोपीय) कम्पनियों की तुलना में चीनी कम्पनियों की ताक़त आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है।                                                                                                                                       2004       2014

शीर्ष की 2000 कम्पनियों में चीन की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ             49          207

शीर्ष की 2000 कम्पनियों में अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ     751         563

चीन की परिसम्पत्तियों का हिस्सा                                           1.1%        13.7%

चीन के मुनाफ़े का हिस्सा                                                    3.6%      14.3%

उत्तरी अमेरिका और यूरोप की परिसम्पित्तियों का हिस्सा               77.4%     63.1%

उत्तरी अमेरिका और यूरोप के मुनाफ़े का हिस्सा                         82.9%     61.7%

ऐसे तमाम आँकड़े दिये जा सकते हैं जो यह निर्विवाद रूप से साबित करते हैं कि चीन दुनिया की अग्रणी पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की क़तार में तमाम पुराने साम्राज्यवादी देशों को मात दे रहा है।

चीन की अर्थव्यवस्था में इज़ारेदारी का विकास और बढ़ता वित्तीयकरण

समाजवादी अतीत की वजह से 1970 के दशक के अन्त में चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना होने के बावजूद 1990 तक चीन की अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक उपक्रमों का ही दबदबा था। लेकिन 1990 के दशक से निजीकरण की प्रक्रिया के ज़ोर पकड़ने की वजह से चीन की अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका क्रमश: कम से कम होती गयी है। सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों में भी निजी कम्पनियों जैसा ही तानाशाहाना प्रबन्धन काम करता है। आज हालात ये हैं कि चीन का अधिकांश उत्पादन निजी क्षेत्र में होता है, हालाँकि अभी भी सार्वजनिक उपक्रम चीन की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सार्वजनिक कंपनियाँ भी निजी कम्पनियों की ही तरह मुनाफ़े के आधार पर काम करती हैं और उनको होने वाला मुनाफ़ा सरकार को न जाकर सार्वजनिक कम्पनियों के लिए विशेष रूप से निर्मित फ़ण्ड में जाता है। इस प्रकार चीन की अर्थव्यवस्था में पूँजीवादी विकास के साथ ही साथ सार्वजनिक और निजी दोनों ही क्षेत्रों में इज़ारेदारी का विकास हुआ है।

चीन की अर्थव्यस्था में इज़ारेदारी का आलम यह है कि दुनिया की 2000 सबसे बड़ी और सबसे ताक़तवर कम्पनियों की सूची फ़ोर्ब्स ग्लोबल 2000 में चीन अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है। इस सूची में 565 कम्पनियाँ अमेरिका की हैं, जबकि 263 कम्पनियाँ चीन की हैं। फ़ॉर्च्यून ग्लोबल 500 सूची में 100 से भी अधिक कम्पनियाँ चीन की हैं, जबकि 2001 में इस सूची में केवल 12 चीनी कंपनियाँ थीं।[4] इनमें से दो-तिहाई से भी अधिक कम्पनियाँ सार्वजनिक क्षेत्र की हैं। दुनिया के दस सबसे बड़े बैंकों में चार बैंक चीन के हैं। यह तथ्य विश्व वित्तीय बाज़ार में चीन के बढ़ते दबदबे की ओर इशारा करता है। औद्योगिक पूँजी और बैंकिंग पूँजी के विलय से चीन में भी वित्तीय पूँजी का एक विराट साम्राज्य खड़ा हुआ है जिसकी अहमियत चीन की अर्थव्यवस्था में समय बीतने के साथ बढ़ती ही जा रही है। अधिकांश बैंक और बीमा कम्पनियाँ अभी भी राज्य के स्वामित्व में हैं। इस प्रकार चीन में एक विशिष्ट क़ि‍स्म का राज्य एकाधिकार पूँजीवाद का निर्माण हुआ है।

पूँजी का निर्यात

पूँजी के निर्यात के मामले में भी चीन की अर्थव्यवस्था ने पिछले कुछ वर्षों में ज़बर्दस्त विकास किया है जो उसके उभरते हुए साम्राज्यवादी शक्ति का संकेत है। चीन का पूँजी निर्यात उत्पादक निवेश (कारख़ानों, सड़कों, बन्दरगाहों आदि के निर्माण के लिए) और वित्तीय पूँजी (बॉण्ड, क़र्ज आदि) दोनों ही रूपों में हो रहा है। पिछले तीन दशकों में उत्पादन के क्षेत्र में तेज़ी से बढ़ते पूँजी संचय के फलस्वरूप चीन में वित्तीय पूँजी का एक विशाल भण्डार एकत्र हुआ है जिसका एक सूचक वहाँ का विपुल विदेश मुद्रा भण्डार है। जहाँ वर्ष 2000 में यह भण्डार 1.65 बिलियन डॉलर था, वहीं अब यह बढ़कर 4 ट्रिलियन डॉलर के आसपास जा पहुँचा है। इस विदेशी मुद्रा भण्डार का बड़ा हिस्सा अमेरिका और यूरोप के तमाम देशों में ट्रेज़री बॉण्ड की ख़रीदारी में लगा है। इन ट्रेज़री बॉण्डों में निवेश की वजह से चीन अमेरिकी सरकार का सबसे बड़ा विदेशी ऋणदाता बन चुका है।

साम्राज्यवादी मुल्कों में वित्तीय पूँजी लगाने के अतिरिक्त चीन अपने देश में मेहनतकशों के शोषण से संचित अपार पूँजी का लाभ उठाते हुए विकासशील या अल्पवि‍कसित देशों में भी विकास क़र्ज़ के रूप में वित्तीय पूँजी का निर्यात कर रहा है। तीसरी दुनिया के देशों को क़र्ज़ देने के मामले में चीन विश्व बैंक को भी पीछे छोड़ चुका है। 16 जनवरी 2016 को चीन के नेतृत्व में एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेण्ट बैंक (एआईआईबी) की शुरुआत हुई जिसका मुख्यालय बीजिंग में है। यह एक बहुपक्षीय विकास बैंक है जिसका विशेष मैंडेट एशिया में इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करना है। 100 बिलियन डॉलर के पेडअप कैपिटल वाले इस बैंक में 50 बिलियन डॉलर का योगदान अकेले चीन ने किया है। यह बैंक शुरुआती पाँच से छह वर्षों में प्रतिवर्ष 10-15 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ देगा। एआईआईबी की शुरुआत के अतिरिक्त चीन पिछले वर्ष यूरोपियन बैंक फ़ॉर रीकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेण्ट (ईबीआरडी) के 67वें सदस्य के रूप में शामिल हुआ। जहाँ एआईआईबी एशिया में इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए फ़ण्डिंग पर ध्यान केंद्रित करेगा वहीं ईबीआरडी मुख्य तौर पर पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के कुछ क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर ज़ोर देगा। इसके अतिरिक्त ब्रिक्स देशों द्वारा निर्मित ब्रिक्स बैंक या न्यू डेवलपमेण्ट बैंक (एनडीबी) की स्थापना में भी चीन की अग्रणी भूमिका रही है। एआईआईबी, ईबीआरडी और एनडीबी में चीन की अग्रणी भूमिका तथाकथित ‘ब्रेटनवुड बहनों’, वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ़ के वर्चस्व में कमी और विश्व वित्तीय तन्त्र में बुनियादी बदलावों की ओर इंगित करती है। चीन पहले ही तीसरी दुनिया के देशों को ऋण देने के मामले में पश्चिमी साम्राज्यवादियों को पीछे छोड़ चुका है। ग़ौरतलब है कि चीनी बैंकों द्वारा दिये गये ऋण पर ब्याज़ की दर अन्य अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिये जाने वाले ऋण पर ब्याज़ की दर से अमूमन अधिक होती है। उदाहरण के लिए श्रीलंका ने चीन से अरबों डॉलर का ऋण लिया है। श्रीलंका का कुल राष्ट्रीय ऋण 64.9 बिलियन डॉलर है जिसमें से चीन से लिये गये ऋण का हिस्सा 8 बिलियन डॉलर है जो बेहद उच्च ब्याज दर से लिया गया ऋण है। उदाहरण के लिए श्रीलंका के हम्बनटोटा बन्दरगाह के निर्माण के लिए वहाँ की सरकार ने चीन से 6.3 प्रतिशत की ब्याज दर पर 301 मिलियन डॉलर का ऋण लिया है जबकि विश्वबैंक और एशियाई विकास बैंक द्वारा 0.25 से 3 प्रतिशत की ब्याज दर पर ऋण दिये जाते हैं। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में मन्दी की वजह से श्रीलंका की सरकार चीन से लिये गये ऋण का भुगतान नहीं कर पा रही है जिसकी वजह से श्रीलंका की सरकार ने इस ऋण को ईक्विटी में बदलने का फ़ैसला किया है। इसकी परिणति उस परियोजना में चीन के मालिकाने के रूप में भी हो सकती है। यही नहीं श्रीलंका की सरकार ने चीन की कम्पनियों को हम्बनटोटा बन्दरगाह के कुल शेयर का 80 प्रतिशत और समूचे बन्दरगाह को 99 साल के पट्टे पर भी देने का फ़ैसला किया है। इसी प्रकार चीन की कम्पनियों को श्रीलंका के मट्टला हवाई अड्डे के परिचालन और प्रबन्धन का पूरा नियन्त्रण दे दिया गया है। ग़ौरतलब है कि मट्टला हवाई अड्डे का निर्माण श्रीलंका की सरकार ने चीन से 300-400 मिलियन डॉलर का ऋण लेकर किया था। चूँकि अब श्रीलंका की सरकार इस हवाई अड्डे के परिचालन व परिवहन में लगने वाला ख़र्च वहन नहीं कर पा रही है इसलिए उसने चीन की कम्पनि‍यों को नियन्त्रण सौंप दिया है।

2007 में शुरू हुई मौजूदा विश्वव्यापी महामन्दी के पहले से ही चीन ने ‘गो ग्लोबल’ (‘दुनिया की ओर जाओ’) नीति के तहत अपनी अर्थव्यवस्था को सस्ते मालों के निर्यात वाली अर्थव्यवस्था से पूँजी निर्यात वाली अर्थव्यवस्था की ओर मोड़ना शुरू कर दिया था। महामन्दी के बाद से तो इस दिशा में वह अभूतपूर्व तेज़ी के साथ आगे बढ़ा है। वर्ष 2011 में चीन ने कुल 4-6 खरब डॉलर की पूँजी निर्यात की थी। यह बात भी सच है कि चीन की अर्थव्यवस्था में विदेशी पूँजी का आयात भी बड़े पैमाने पर होता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से चीन का पूँजी निर्यात पूँजी आयात के मुक़ाबले कहीं तेज़ी से बढ़ा है और आज चीन नेट पूँजी निर्यातक देश बन चुका है।

आज चीन पश्चिमी विकसित मुल्कों से लेकर एशिया, अफ्रीका एवं लातिन अमेरिका के देशों सहित दुनिया के कोने-कोने में अपनी पूँजी लगा रहा है। चीन की कम्पनियाँ बड़े पैमाने पर अमेरिका की कई कम्पनियों में निवेश कर रही हैं और तमाम कम्पनियों को ख़रीद भी रही हैं जिससे अमेरिकी पूँजीपति सकते में आ गये हैं। ऑस्ट्रेलिया में चीन ने खनन, तेल, गैस व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में बड़े पैमाने पर निवेश किया है और हाल के वर्षों में उसने खाद्य, एग्रीबिज़नेस, रियल स्टेट, नवीकरणीय ऊर्जा, हाई टेक एवं वित्तीय सेवाओं में भी निवेश करना शुरू किया है। इसी तरह से कनाडा में भी चीन तेल, गैस व खनन में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है। ब्राजील में चीन का निवेश मुख्य रूप से ऊर्जा एवं धातु उद्योग में हो रहा है। इसी तरह से लातिन अमेरिका के अन्य मुल्कों जैसे पेरू, अर्जेण्टीना, इक्वाडोर आदि में चीन ऊर्जा एवं अवरचनागत क्षेत्र में पूँजी लगा रहा है। अपने पड़ोसी मुल्क वियतनाम में चीन लकड़ी, रबर, खाद्य फसलों एवं खनिज सम्पदा के दोहन में बेतहाशा निवेश कर रहा है और वहाँ से मालों को ढोकर चीन लाने के लिए बड़े पैमाने पर सड़कों एवं रेलमार्ग के विकास में निवेश कर रहा है। इसी तरह चीन हिन्दचीन एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के मुल्कों में भी बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है। दक्षिण एशिया में नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में भी चीन पूँजी निवेश कर रहा है। नेपाल में चीन पूँजी निवेश के मामले में भारत को भी पीछे छोड़ चुका है। यही नहीं चीन ने भारत की ‘मेक-इन-इण्डिया’ स्कीम का लाभ उठाते हुए इसे भारत में पूँजी निर्यात के अवसर के रूप में हाथोहाथ लिया है।

अफ्रीका में चीन पूँजी निवेश करने पर विशेष ज़ोर दे रहा है। ग़ौरतलब है कि माओकालीन चीन अफ्रीकी मुल्कों में बुनियादी ढाँचे के निर्माण से लेकर खनन आदि में निवेश करके मित्रतापूर्ण मदद करता था। लेकिन आज का चीन इस पुरानी दोस्ती का इस्तेमाल अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश करके अपनी अर्थव्यवस्था को सरपट रफ़्तार से दौड़ाने के लिए ज़रूरी तेल और खनिज सम्पदा की लूट के लिए कर रहा है। अंगोला चीन के सबसे बड़े तेल-आपूर्तिकर्ताओं में से एक बन गया है। चीन का पूँजी निवेश नाइज़ीरिया, ज़ाम्बिया, घाना, लाइबेरिया, रवाण्डा, सूडान जैसे अफ्रीकी मुल्कों में सबसे ज़्यादा है। इस वक़्त समूचे अफ्रीका में चीन की 800 से भी अधिक कम्पनियाँ काम कर रही हैं और वहाँ रहने वाले चीनी नागरिकों की संख्या 10 लाख से भी अधिक है। ये तथ्य अपने आप में अफ्रीका में चीन की साम्राज्यवादी दख़ल को दिखा रहे हैं।

‘वन बेल्ट, वन रोड’ परियोजना

चीन की बहुचर्चित ‘वन बेल्ट, वन रोड’ (ओबीओर) परियोजना अपने आप में चीन की साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा का सूचक है। इस परियोजना में 4 अरब से अधिक जनसंख्या वाले 68 देशों के शामिल होने की सम्भावना है जिनका वैश्विक जीडीपी में 40 प्रतिशत का योगदान है।[5] इसके दो हिस्से हैं – सिल्क रोड इकोनॉमिक बेल्ट और ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरी मैरिटाइम सिल्क रोड। सिल्क रोड इकोनॉमिक बेल्ट के तहत चीन से यूरोप के बीच सड़क, रेलमार्ग, तेल और प्राकृतिक गैस पाइपलाइन समेत कई इंफ्रास्ट्रक्‍चर और व्यापारिक परियोजनाएँ शामिल हैं जिसका विस्तार चीन के मध्य में स्थित ज़ि‍यान प्रान्त से शुरू होकर मध्य एशिया से होते हुए मॉस्को, रॉटरडम और वेनिस तक होगा। इस बेल्ट में कई मार्ग होंगे जो चीन-मंगोलिया-रूस, चीन-मध्य और पश्चिम एशिया, चीन-इण्डोचीन प्रायद्वीप, चीन-पाकिस्तान, चीन-बांग्लादेश-म्यांमार से होते हुए गुज़रेंगे। जबकि ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरी मैरिटाइम सिल्क रोड के तहत समूचे एशिया व प्रशान्त में शिपिंग लेन का समुद्र आधारित नेटवर्क और बन्दरगाह विकास की योजना है जिसका विस्तार दक्षिण व दक्षिण-पूर्व एशिया से होते हुए पूर्वी अफ्रीका और उत्तरी भूमध्यसागर तक होगा। चीन की राज्य मीडिया के अनुसार इस परियोजना में 1 ट्रिलियन डॉलर का निवेश पहले ही चुका है और अगले दशक तक कई ट्रिलियन डॉलर के निवेश की योजना है।[6] ग़ौरतलब है कि यह परियोजना केवल इंफ्रास्ट्रक्चर विकास तक ही सीमित नहीं है। इसके विज़न दस्तावेज़ के अनुसार इसमें इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के अतिरिक्त आर्थिक विकास की नीतियों में तालमेल, इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए तकनीकी मानकों में समरूपता, निवेश और व्यापार की बाधाओं को दूर करना, मुक्त व्यापार क्षेत्रों की स्थापना, वित्तीय तालमेल और सांस्कृतिक व अकादमिक लेन-देन के माध्यम से लोगों का लोगों से सम्पर्क स्थापित करना भी शामिल है।[7] इस परि‍योजना के माध्यम से पूँजी निर्यात करके चीन अपने देश में स्टील, एलुमिनियम और सीमेण्ट जैसे भारी उद्योगों में जारी अति-उत्पादन के संकट से उबरने और साथ ही साथ चीन के मालों के नये बाज़ार तैयार करने की फ़ि‍राक में है। आर्थिक प्रभुत्व के साथ ही साथ चीन इस महत्वाकांक्षी परियोजना के ज़रिये अपनी सामरिक शक्ति में भी इज़ाफ़ा करना चाह रहा है। उदाहरण के लिए इस परियोजना के तहत ही चीनी सरकारी कम्पनी कॉस्को ने यूनान के पिरौस बन्दरगाह के 67 प्रतिशत शेयर खरीदकर उसपर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया जिससे उसे यूरोप में अपना पैर जमाने में मदद मिलेगी। इसी प्रकार इस परियोजना के ज़रिये हिन्द महासागर तक अपनी पहुँच बनाने के लिए चीन मलक्का जलडमरूमध्य और सिंगापुर पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए दक्षिण-पश्चिमी चीन से हिन्द महासागर की ओर एक नये समुद्री मार्ग का निर्माण करना चाहता है। पाकिस्तान के ग्वादार बन्दरगाह का निर्माण भी चीन हिन्द महासागर तक अपनी पहुँच के विकल्पों को बढ़ाने के मक़सद से करवा रहा है।

जैसाकि ऊपर उल्लेख किया गया था, श्रीलंका का हम्बनटोटा बन्दरगाह और मट्टला  हवाई अड्डे में काफ़ी हद तक चीन की कम्पनियों का नियन्त्रण स्थापित हो गया है। इससे हिन्द महासागर के समूचे क्षेत्र में चीन का रणनीतिक व सैन्य प्रभुत्व बढ़ेगा। इसी प्रकार चीन-पाकिस्तान-आर्थिक-कॉरिडोर के लिए चीन अब तक  पाकिस्तान को ऊँची ब्याज़ दर पर 50 बिलियन डॉलर से भी अधिक का ऋण दे चुका है। विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान इस ऋण को 40 साल से पहले भुगतान नहीं कर पायेगा। पाकिस्तान के ग्वादार बन्दरगाह के निर्माण में भी चीन की बड़ी भूमिका रही है। इसी प्रकार चीन म्यांमार और बांग्‍लादेश में भी अवरचनागत क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है।

चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति और तीखी होती अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा

अपनी आर्थिक शक्तिमत्ता के विस्तार के अनुरूप चीन अपनी सैन्य शक्ति का ज़बरदस्त विकास कर रहा है। सैन्य सम्बन्धी ख़र्च की दृष्टि से चीन दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर आता है। पिछले दशक के दौरान चीन ने अपनी सैन्य शक्ति का आधुनिकीकरण करने पर विशेष ज़ोर दिया है। एक वैश्विक सैन्य शक्ति बनने के मक़सद से चीन जहाज, पनडुब्बी, हवाई जहाज, इलेक्ट्रॉनिक खुफ़ि‍या तन्त्र और विदेशी चौकियों का निर्माण कर रहा है। वह सुदूर सागर में वायु, धरातल और अधस्तल हर परिवेश के अनुसार अपनी सैन्य क्षमताओं को विकसित कर रहा है। चीन अपनी नाभिकीय शक्ति‍ से लैस पनडुब्बियों में लगातार इज़ाफ़ा कर रहा है। इसके अलावा चीन विदेशों में अपनी चौकियाँ भी स्थापित कर रहा है, मिसाल के लिए अफ्रीका के जिबूती में चीन ने अपनी नयी सैन्य चौ‍की स्थापित की है। इसके अतिरि‍क्त श्रीलंका और पाकिस्तान में चीन जिन बन्दरगाहों का निर्माण कर रहा वे उसकी सामरिक शक्ति में विचारणीय इज़ाफ़ा करेंगे।

हथियारों के निर्यात के मामले में भी चीन ने पिछले दशक में ज़बरदस्त प्रगति की है। अमेरिका और रूस के बाद चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा हथियारों  का निर्यातक देश बन चुका है। इसके अतिरिक्त दुनिया के विभिन्न हिस्सों में संयुक्त राष्ट्र की शान्ति सेना में चीन 2 हज़ार से भी अधिक सैनिक भेजता है जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों में सबसे अधिक है। इससे चीन के सैनिकों को विभिन्न परिस्थितियों में लड़ने के लिए महत्वपूर्ण अनुभव मिलता है।

एक उभरती हुई साम्राज्यवादी ताक़त के रूप में विश्वपटल पर चीन की मौजूदगी और उसकी बढ़ती सैन्य शक्ति से दुनिया के पैमाने पर जारी अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा तीखी हुई है। इस प्रतिस्पर्द्धा की घनीभूत अभिव्यक्ति दक्षिण चीन सागर में जारी तनाव में देखी जा सकती है। ग़ौरतलब है कि दुनिया के कुल कच्चे तेल का एक चौथाई हिस्सा और अन्य व्यापारिक वस्तुओं का आधा हिस्सा दक्षिण चीन सागर से होकर गुज़रता है। चीन के सैन्य रणनीतिकारों ने ‘टू आइलैंड चेन’ की धारणा के तहत समूचे विवादित समुद्री क्षेत्र को टापुओं की दो श्रृंखलाओं में बाँटा है। पहली श्रृंखला, ‘’नाइन डैश्ड लाइन”, को लेकर चीन का विवाद वियतनाम, फ़ि‍लीपींस और मलेशिया से है। चीन दक्षिण चीन सागर के लगभग पूरे हिस्से में अपना वर्चस्व क़ायम करना चाहता है। दूसरी श्रृंखला थोड़ा और आगे से गुज़रती है जिसमें चीन का विवाद जापान जैसे साम्राज्यवादी देश से है। चीन के लिए दक्षिण चीन सागर का महत्व न सिर्फ़ व्यापार की दृष्टि से है, बल्कि संसाधनों की दृष्टि से भी यह क्षेत्र बेहद अहम है। मछलियों व समुद्री जीवों के साथ ही साथ इस क्षेत्र में तेल व गैस के भण्डार की भी प्रचुर सम्भावना जताई जाती है। सामरिक और आर्थिक दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण होने की वजह से इस क्षेत्र में एक तरह से हथियारों की होड़ लगी हुई है और दक्षिण चीन सागर के किनारे स्थित सभी देश अपनी-अपनी सैन्य शक्ति बढ़ा रहे हैं। इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते वर्चस्व को देखकर अमेरिका भी सकते में आ गया है और इसी वजह से वह इस क्षेत्र में स्थित तमाम देशों को सैन्य मदद प्रदान कर रहा है, जिसकी वजह से स्थिति और तनावपूर्ण होती जा रही है।

हालाँकि चीन की सैन्य क्षमता अब भी अमेरिका की तुलना में बहुत कम होने की वजह से वह अमेरिका को अकेले टक्कर तो नहीं दे सकता, लेकिन हाल के वर्षों  में रूस और चीन के संयुक्त नेतृत्व में अमेरिकी साम्राज्यवाद के बरक्स एक नयी साम्राज्यवादी धुरी का उभार साफ़ देखा जा सकता है। मध्य-पूर्व और विशेषकर सीरिया में जारी युद्ध इस अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के तीखे होने की स्पष्ट गवाही दे रहा है। शंघाई कोऑपरेशन काउंसिल और ब्रिक्स जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं का अस्तित्व में आना अपने आप में एकध्रुवीय विश्व के मिथक को ख़ारिज कर रहा है। उधर पश्चिम में भी ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर जाने और अमेरिका में ट्रम्प की संरक्षणवादी नीतियों की वजह से नाटो में भी दरार के संकेत दिख रहे हैं जो इस सम्भावना को बल देते हैं कि यूरोप के कुछ मुल्क भी अपना खेमा बदल सकते हैं। जो भी हो, इतना तो तय है कि आने वाले दिनों में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और तीखी होने वाली है। आज के दौर में विश्वयुद्ध की सम्भावनाएँ भले ही क्षीण हों, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर छोटे पैमाने के युद्धों और हिंसात्मक वारदातों की संख्या में निश्चय ही इजा़फ़ा होगा।

सन्दर्भ सूची

[1]   “Report for Selected Countries and Subjects”. IMF

[2]   http://data.worldbank.org/indicator/NY.GDP.MKTP.CD

[3]   http://www.economist.com/news/leaders/21646204-asias-dominance-manufacturing-will-endure-will-make-development-harder-others-made

[4]   https://www.forbes.com/forbes/welcome/?toURL=https://www.forbes.com/sites/corinnejurney/2017/05/24/the-worlds-largest-public-companies-2017/

[5]   https://eng.yidaiyilu.gov.cn/info/iList.jsp?cat_id=10076&cur_page=1

[6]   https://news.cgtn.com/news/3d63544d3363544d/share_p.html

[7]   http://blogs.worldbank.org/eastasiapacific/china-one-belt-one-road-initiative-what-we-know-thus-far#_ftnref1

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

ट्रम्प का यरुशलम दाँव – अमेरिकी साम्राज्यवाद की बौखलाहट की निशानी

ट्रम्प का यरुशलम दाँव – अमेरिकी साम्राज्यवाद की बौखलाहट की निशानी

 

  • आनन्द सिंह

 

यूरोपीय संघ और अरब जगत के अपने सहयोगियों की चेतावनी के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने गुज़रे 6 दिसम्बर को यरुशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने की घोषणा कर दी। यह घोषणा करते हुए ट्रम्प ने ख़ुद की पीठ थपथपाते हुए कहा कि वह ऐसा क़दम उठाने जा रहा है जिसे उठाने का साहस अब तक अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति नहीं कर सका था। ग़ौरतलब है कि 1995 में अमेरिका कांग्रेस ने ‘यरुशलम एम्बैसी एक्ट’ पारित किया था जिसके तहत इज़रायल में अमेरिका के दूतावास को यरुशलम स्थानान्तरित करने का प्रावधान था। परन्तु इसके गम्भीर निहितार्थ को देखते हुए उसके बाद से सभी अमेरिकी राष्ट्रपति इस फ़ैसले को टालते आ रहे थे। ट्रम्प ने यह फ़ैसला ऐसे समय लिया है जिस समय जहाँ एक ओर अमेरिका के भीतर घरेलू मोर्चे पर फिसड्डीपन की वजह से ट्रम्प की लोकप्रियता दिनो-दिन कम होती जा रही है वहीं दूसरी ओर सीरिया में असद सरकार को गिराने में अमेरिकी साम्राज्यवाद की विफलता और समूचे मध्यपूर्व में रूस-ईरान-सीरिया-हिज़बुल्ला धुरी का पलड़ा भारी होने की वजह से अमेरिकी साम्राज्यवादी खेमे में उहापोह की स्थिति बनी हुई है। ऐसे में यरुशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने का दाँव अमेरिकी साम्राज्यवाद की बौखलाहट की ही अभिव्यक्ति है। इस फ़ैसले के गहरे निहितार्थों के मद्देनज़र इसके पीछे के कारणों को समझना बेहद ज़रूरी है।

यरुशलम सम्बन्धित विवाद : एक पश्चदृष्टि

ग़ौरतलब है कि 1948 में इज़रायल नामक राष्ट्र के जन्मकाल के समय से ही यरुशलम शहर की स्थिति को लेकर चल रहा विवाद फ़ि‍लिस्तीन के प्रश्न का एक अहम पहलू रहा है। 1947 की संयुक्त राष्ट्र की योजना में भी यरुशलम के प्रशासन को एक विशेष अन्तरराष्ट्रीय संस्था के हवाले करने का प्रावधान था जिसे अरब देशों ने ख़ारिज कर दिया था। 1948 में इज़रायल की स्थापना की घोषणा के फ़ौरन बाद इज़रायल और अरब देशों के बीच क़रीब 10 महीने तक युद्ध की स्थिति बनी रही जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में युद्धविराम की संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसके अनुसार यरुशलम के पश्चिमी हिस्से पर इज़रायल का अधिकार हो गया जबकि पूर्वी यरुशलम जॉर्डन के नियन्त्रण में रहा।

ग़ौरतलब है कि पूर्वी यरुशलम इस्लाम, यहूदी और ईसाई तीनों की धर्मों के अनुयायियों द्वारा अपने-अपने धर्म का पवित्र स्थल माना जाता है। पूर्वी यरुशलम में ही पुराने शहर का वह हिस्सा आता है जिसमें ‘हरम-अल-शरीफ़’ मस्जिद स्थित है जो अरब के लोगों के लिए सबसे पवित्र स्थानों में से एक मानी जाती है। यहूदी लोग इस परिसर को ‘टेम्पल माउण्ट’ कहते हैं। इसी परिसर में अल-अक्सा मस्जिद भी स्थित है जिसे इस्लाम की तीसरी सबसे पवित्र मस्जिद के रूप में मान्यता प्राप्त है। 1967 के अरब-इज़रायल युद्ध के बाद पूर्वी यरुशलम का हिस्सा भी इज़रायली क़ब्ज़े में आ गया। हालाँकि इस क़ब्ज़े को अब तक अन्तरराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिली है क्योंकि जेनेवा कन्वेंशन के मुताबिक़ युद्ध के ज़रिये क़ब्ज़ा किये गये भूक्षेत्र की स्थिति सैन्य क़ब्ज़े की होती है। अभी दिसम्बर 2016 में ही संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमें यह साफ़ लिखा था कि फ़ि‍लिस्तीन का भूक्षेत्र इज़रायली सैन्य क़ब्ज़े में है। फ़ि‍लिस्तीन के लोगों का पूर्वी यरुशलम से गहरा भावनात्मक लगाव है और वे उसे भविष्य के स्वतन्त्र और एकजुट फ़ि‍लिस्तीन राज्य की राजधानी के रूप में देखते हैं। यरुशलम की विवादित स्थिति के मद्देनज़र ही 1978 के कैम्प डेविड समझौते और 1993 के ओस्लो समझौते में भी यरुशलम की स्थिति को भविष्य में फ़ैसलाकुन बातचीत के लिए टाल दिया गया था। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2000 में दूसरे इन्तिफ़ादा की चिंगारी उस समय के इज़रायल के विपक्षी नेता और पूर्व राष्ट्रपति एरियल शैरोन द्वारा ‘टेम्पल माउण्ट’ के परिसर में प्रवेश करने के बाद ही भड़की थी।

ग़ौर करने की बात यह भी है 1995 में ‘यरुशलम एम्बैसी एक्ट’ पारित करने के बाद अमेरिकी कांग्रेस ने 2002 में एक बार फिर इज़रायल में अमेरिकी दूतावास को यरुशलम में स्थानान्तरित करने और यरुशलम में पैदा हुए अमेरिकियों के पासपोर्ट में जन्मस्थान के रूप में इज़रायल का नाम डालने से सम्बन्धित एक विधेयक पारित किया था। लेकिन दक्षिणपन्थी अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश भी उसे लागू नहीं कर सका था। ट्रम्प के मौजूदा फ़ैसले से पहले तक अमेरिका की आधिकारिक अवस्थिति यह रही थी कि यरुशलम की स्थिति शान्ति प्रक्रिया के तहत इज़रायलियों और फ़ि‍लिस्तीनियों के बीच बातचीत के ज़रिये तय होनी चाहिए। इसलिए निश्चि‍त रूप से यह अमेरिकी विदेश नीति में एक बड़ा क़दम है जिसके बाद से मध्यपूर्व में शान्ति स्थापित करने के उसके तमाम दावों की असलियत सबके सामने उजागर हो गयी है।

ट्रम्प के फ़ैसले के पीछे के कारण

यरुशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के अमेरिकी फ़ैसले के पीछे के कारणों और निहितार्थों को समझने के लिए पश्चिमी एशिया के क्षेत्र के तेल व गैस संसाधनों पर नियन्त्रण करने और समूचे क्षेत्र में अपना प्रभुत्व क़ायम करने के लिए दो साम्राज्यवादी धुरियों – अमेरिका के नेतृत्व में अरब देशों और इज़रायल की धुरी और रूस के नेतृत्व में ईरान-सीरिया-हिज़बुल्ला धुरी – के बीच चल रही होड़ में वर्तमान रणनीतिक शक्ति सन्तुलन को समझना ज़रूरी है। ग़ौरतलब है कि 2011 से सीरिया में जारी गृहयुद्ध में दखल देकर बशर अल-असद की सरकार को गिराने का अमेरिकी साम्राज्यवाद का दाँव उल्टा पड़ता नज़र आ रहा है। इस प्रक्रिया में खड़ा किया गया इस्लामिक स्टेट नामक भस्मासुर अपने आका को ही काट खाने पर आमादा हो गया है। अमेरिका की इस रणनीतिक विफलता का मुख्य कारण रूसी साम्राज्यवाद का सीरिया के पक्ष में खुले रूप में उतरना रहा है जिसकी वजह से असद सरकार अपने पैरों पर फिर से खड़ी होने में क़ामयाब होती दिख रही है।

सीरिया के अतिरिक्त पश्चिमी एशिया के अन्य देशों में भी अमेरिका के सहयोगी अरब देशों का पलड़ा हल्का होता दिख रहा है और ईरान का दबदबा बढ़ता दिखायी दे रहा है। हाल के वर्षो में इराक़ और यमन में ईरान का प्रभाव बढ़ा है जिसकी वजह से सऊदी अरब और ईरान के रिश्ते भी दिन-ब-दिन बिगड़ते गये हैं। ग़ौरतलब है कि पिछले साल सऊदी अरब ने शियाओं के एक धर्मगुरु को मौत के घाट उतार दिया था और ईरान के साथ अपने कूटनीतिक रिश्ते तोड़ लिए थे। उधर लेबनॉन की संसद व सरकार और ख़ासकर देश के दक्षिणी हिस्से में भी ईरान के सहयोगी हिज़बुल्ला का नियन्त्रण दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। हाल ही में लेबनॉन के प्रधानमन्त्री साद अल-हरीरी ने सऊदी अरब के दौरे के दौरान रियाद से ही अचानक  इस्तीफ़ा दे दिया। अल-हरीरी के अनुसार उसकी ज़ि‍न्दगी ख़तरे में थी क्योंकि लेबनॉन में हिज़बुल्ला ने राज्य के भीतर राज्य बना लिया है और पूरे देश को अपने चंगुल में ले लिया है। उसने यह भी कहा कि अरब के मामलों में ईरान की दखलन्दाज़ी बढ़ती जा रही है। अरब देशों और ईरान-हिज़बुल्ला के बीच तनाव तब और बढ़ गया जब सऊदी अरब और बहरीन ने लेबनॉन से अपने नागरिकों को वापस बुला लिया।

मध्य-पूर्व में ईरान के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सऊदी अरब और इज़रायल के बीच क़रीबी भी बढ़ती जा रही है। सऊदी अरब के नये शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान ने इज़रायल से अपने रिश्तों को और प्रगाढ़ करने के संकेत दिये हैं। इस नये शहज़ादे को ट्रम्प प्रशासन का पूरा सहयोग मिल रहा है। हाल ही में ट्रम्प ने सऊदी अरब का दौरा किया और रियाद से उसका विमान सीधे तेल अवीव गया जोकि अभूतपूर्व था। हालाँकि 1970 के दशक से ही अमेरिका की अगुवाई में अरब देशों और इज़रायल के बीच सम्बन्ध  प्रगाढ़ होते आये हैं, लेकिन अमेरिका के किसी भी अन्य राष्ट्रपति की तुलना में ट्रम्प इन सम्बन्धों को कहीं ज़्यादा खुले रूप में अभिव्यक्त कर रहा है। हाल ही में ट्रम्प ने ओबामा प्रशासन द्वारा ईरान के साथ किये गये नाभिकीय समझौते को रद्दी की टोकरी में फेंकने का भी फ़ैसला किया।

ट्रम्प के यरुशलम सम्बन्धी फ़ैसले को उपरोक्त समीकरणों की रोशनी में ही देखा जाना चाहिए। हालाँकि अपने भाषण में ट्रम्प ने मध्य-पूर्व में शान्ति प्रक्रिया जारी रखने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का दम भरा, लेकिन इज़रायल के पक्ष में इस अभूतपूर्व घोषणा से यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो गया है‍ कि अमेरिका का इरादा मध्य-पूर्व में स्थिरता या शान्ति फैलाना नहीं बल्कि अस्थिरता और अशान्ति फैलाकर इस क्षेत्र में अपनी दखल बढ़ाने का है। इसके अतिरिक्त इस घोषणा के ज़रिये ट्रम्प अमेरिका की घरेलू राजनीति में अपनी लोकप्रियता के घटने के मद्देनज़र अपने दक्षिणपन्थी और रूढ़ि‍वादी सामाजिक आधार को सुदृढ़ करने की फ़ि‍राक़ में भी है। ग़ौरतलब है कि ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान भी यरुशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने का वायदा किया था। अमेरिका में रूढ़ि‍वादी ईसाइयों का अच्छा-ख़ासा हिस्सा ऐसा है जो ‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’ में दी गयी कहानी को सच मानता है। इन ‘इवैंजेलिकलों’ को बाइबल की इस ”जगत के अन्त (end of days)” भविष्यवाणी में शब्दश: भरोसा है कि यरुशलम पर यहूदियों का क़ब्ज़ा होने के बाद सभ्यताओं की एक जंग छिड़ेगी जिसमें यहूदियों को ईसाइयत या मौत में से एक को चुनना होगा। वे यीशू के दूसरी बार धरती पर आने की भवि‍ष्यवाणी (second coming of Christ) को भी सच मानते हैं और यरुशलम पर इज़रायल के नियन्त्रण को उसका संकेत मानते हैं। इन धुर दक्षिणपन्थी रूढ़ि‍वादियों ने ट्रम्प की घोषणा का दिल खोलकर स्वागत किया। इनमें जुआघर चलाने वाला एक अरबपति शेल्डन अडेल्सन भी शामिल है जिसने ट्रम्प के चुनाव में बीस मिलियन अमेरिकी डॉलर का चन्दा दिया था और जो इज़रायल में अमेरिकी दूतावास को यरुशलम में स्थानान्तरित करने के लिए लॉबी करता आया है। इसके अतिरिक्त ‘अमेरिकन इज़रायल पब्लिक अफ़ेयर्स कमेटी’ जैसी ज़ायनवादी लॉबियाँ भी लंबे समय से यह माँग करती आयी हैं।

ट्रम्प के यरुशलम दाँव के निहितार्थ

मध्य-पूर्व के भूराजनीतिक समीकरणों को देखते हुए यह समझना मुश्किल नहीं है कि ट्रम्प के फ़ैसले के बाद पहले से अस्थिर रहे इस क्षेत्र की अस्थिरता और ख़ून-खराबे में निश्चय ही बढ़ोतरी होगी। इस घोषणा के बाद फ़ि‍लिस्तीन के प्रश्न के बहुचर्चित ‘दो राज्यों वाले समाधान (two-state solution)’ का कोई मतलब नहीं रह गया है क्योंकि पूर्वी यरुशलम की स्थिति ऐसे किसी समाधान का अहम अंग थी। शान्ति के पैरोकार के रूप में अमेरिका की छवि इस क्षेत्र में पहले ही संदिग्ध थी, नंगे रूप में इज़रायल के पक्ष में की गयी इस घोषणा के बाद उसकी रही-सही साख़ पर भी बट्टा लग गया है और उसकी तटस्थता का सारा ढोंग उजागर हो गया है। राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रम्प ने अपने युवा और अनुभवहीन दामाद जेर्ड कुशनर को मध्य-पूर्व की शान्ति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की जि़म्मेदारी सौंपी थी। रिपोर्टों के मुताबिक़ कुशनर एक बेहद सीमित सम्प्रभुता वाले फ़ि‍लिस्तीनी राज्य के फॉर्मूले पर काम कर रहा है। अभी हाल ही में ट्रम्प प्रशासन ने वाशिंगटन डीसी में फ़ि‍लिस्तीन मुक्ति संगठन का कार्यालय बन्द करने की धमकी दी थी जिससे स्पष्ट है कि अमेरिका धौंसपट्टी के ज़रिये फ़ि‍लिस्तीनियों को घुटने के बल झुकाना चाहता है। महमूद अब्बास के नेतृत्व वाला फ़‍तह धड़ा भले ही ऐसे सीमित फ़ि‍लिस्तीनी राज्य को स्वीकार कर ले लेकिन फ़ि‍लिस्तीन के अवाम को ऐसा कोई भी समाधान स्वीकार्य नहीं होगा। वैसे भी अब्बास की मौक़ापरस्ती और फ़ि‍लिस्तीनी प्राधिकरण में व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से फ़तह की लोकप्रियता दिनोदिन कम होती जा रही है और उसका सामाजिक आधार खिसकता जा रहा है। ट्रम्प की घोषणा के बाद अब्बास के पास भी फ़ि‍लिस्तीन के आवाम को किसी शान्ति फ़ॉर्मूले के लिए तैयार करने का कोई आधार नहीं बचा है।

अरब जगत के हुक़्मरानों ने ट्रम्प की घोषणा के विरोध में बयान जारी किये और इस्लामिक सहयोग संगठन की आपात बैठक बुलाकर इस घोषणा की मुख़ालफ़त की और पूर्वी यरुशलम को फ़ि‍लिस्तीन की राजधानी के रूप में मंज़ूरी देते हुए एक प्रस्ताव पारित किया। लेकिन अरब जगत के किसी भी देश ने अमेरिका या इज़रायल के ख़ि‍लाफ़ कोई सख़्त कूटनीतिक क़दम उठाने की हिम्मत नहीं दिखायी। उल्टे बहरीन की सरकार ने इस घोषणा के बाद ही एक बहुधर्मीय प्रतिनिधिमण्डल को इज़रायल की यात्रा की अनुमति दे दी।

हुक्‍़मरानों के जबानी जमा खर्च के बावजूद अरब जगत की जनता के बीच इन हुक़्मरानों की अमेरिकापरस्ती और इज़रायल की ओर झुकाव की वजह से जो गुस्सा था वह इस फ़ैसले के बाद फूट पड़ा। जैसाकि उम्मीद थी फ़ि‍लिस्तीन सहित समूचे अरब जगत की सड़कों पर जनाक्रोश देखा गया। ग़ौरतलब है कि यह जनाक्रोश न सिर्फ़ अमेरिका और इज़रायल के ख़ि‍लाफ़ था बल्कि अरब के हुक़्मरानों के ख़ि‍लाफ़ भी था जिन्होंने फ़ि‍लिस्तीन के मसले पर इज़रायल के ख़ि‍लाफ़ कोई सख़्त कार्रवाई करने के बजाय उससे अपनी क़रीबी बढ़ायी है।

यरुशलम के मसले पर अब तक भारत की अवस्थिति यह रहती थी कि वह पूर्वी यरुशलम को स्वतन्त्र फ़ि‍लिस्तीनी राज्य की राजधानी के रूप में मान्यता देने का पक्षधर था। लेकिन ट्रम्प की घोषणा के बाद भारत सरकार की ओर से जो औपचारिक बयान जारी किया गया उसमें अपनी इस पुरानी अवस्थिति को नहीं दोहराया गया। स्पष्ट रूप से यह भारतीय शासकों ‍़के इज़‍रायल की ओर झुकाव और फ़ि‍लिस्तीन से विश्वासघात का एक और प्रमाण है। फिर भी, अमेरिका द्वारा अपना दूतावास यरुशलम ले जाने के फ़ैसले पर 21 दिसम्बर 2017 को संयुक्त राष्ट्र में हुए मतदान में भारत ने 127 अन्य देशों के साथ विरोध में मत दिया जिससे अमेरिका पूरी तरह अलग-थलग पड़ गया। इसका एक प्रमुख कारण अरब देशों में भारत के आर्थिक हितों की चिन्ता थी। उल्लेखनीय है कि मतदान से पहले अरब राजनयिकों का प्रतिनिधिमण्डल भारतीय राजनयिकों से मिला था। हालाँकि, मोदी के सत्ता में आने के बाद इज़रायल की ओर भारत के बढ़ते झुकाव में महज़़ इस वोट से कोई कमी आयेगी, ऐसा नहीं लगता।

ट्रम्प प्रशासन द्वारा बौखलाहट में आकर उठाये गये इस क़दम का लाभ अन्तत: रूस की ओर झुकाव रखने वाली ईरान-सीरिया-हिज़बुल्ला धुरी को ही होगा क्योंकि इससे अमेरिका की ओर झुकाव रखने वाले अरब देशों धुरी का फ़ि‍लिस्तीन के प्रश्न पर विश्वासघात की वजह से उनका सामाजिक आधार और कम होने वाला है। इसने ईरान को अरब की जनता के बीच फ़ि‍लिस्तीन के मसले पर अरब देशों के विश्वासघात को उजागर करने और अपनी प्रतिबद्धता रेखांकित करने का मौक़ा दे दिया है। मध्य-पूर्व में ईरान के बढ़ते प्रभाव से अमेरिका की बौखलाहट की एक और अभिव्यक्ति संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की राजदूत निक्की हेली द्वारा 15 दिसम्बर की एक प्रेस कांफ्रेंस में देखने में आयी जिसमें उसने ईरान पर आरोप लगाया कि उसने यमन के हूती विद्रोहियों को बैलिस्टिक मिसाइल की आपूर्ति की है। हेली ने ईरान के ख़ि‍लाफ़ एक अन्तरराष्ट्रीय गठबन्धन बनाने का आह्वान किया। ज़ाहिर है कि ईरान की धुरी का बढ़ता प्रभाव अमेरिकी साम्राज्यवादियों की बौखलाहट को और बढ़ायेगा जिसकी वजह से आने वाले दिनों में उनकी आक्रामकता और बढ़ने वाली है जिसका खामियाज़ा इस क्षेत्र की जनता को ही उठाना पड़ेगा। लेकिन साथ ही साथ इससे समूचे अरब जगत में जनविद्रोहों की आग को भी हवा मिलेगी और फ़ि‍लिस्तीन के प्रश्न का ज़्यादा से ज़्यादा अन्तरराष्ट्रीयकरण होने से फ़ि‍लिस्तीनी अवाम के बहादुराना संघर्ष को मिल रहे वैश्विक समर्थन में भी इज़ाफ़ा होगा।

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

बिटकॉइन : पूँजीवादी संकट के भँवर में एक नया बुलबुला

बिटकॉइन : पूँजीवादी संकट के भँवर में एक नया बुलबुला

 

  • उत्कर्ष

 

”क्या आप चन्द दिनों में करोड़पति बनना चाहते हैं? क्या आप मर्सिडीज़ खरीदने का सपना देखते हैं? अगर हाँ, तो बिटकॉइन में निवेश करें।” – यह कोई अतिशयोक्ति‍ नहीं है। इस तरह के विज्ञापन इन दिनों इण्टरनेट पर बढ़ते जा रहे हैं। अगर बिटकॉइन के मूल्य में बढ़ोतरी का ग्राफ़ देखा जाये तो यह वाक़ई मुमकिन लगता है। वर्ष 2017 की शुरुआत में एक बिटकॉइन का मूल्य 1000 अमेरिकी डॉलर से भी कम था, लेकिन यह लेख लिखने तक यह बढ़कर 15000 डॉलर से ऊपर जा चुका था। 6 दिसम्बर को इसका मूल्य 24 घण्टे में 13000 डॉलर से बढ़कर 17000 तक पहुँच गया था, हालाँकि 22 दिसम्बर को इसका मूल्य 20000 डॉलर से एकाएक नीचे गिरकर 13000 डॉलर से भी नीचे जा पहुँचा। जिन लोगों ने 2017 की शुरुआत में या उससे पहले बिटकॉइन में निवेश किया होगा उनके लिए उपरोक्त विज्ञापन निश्चय ही अतिशयोक्ति नहीं होगा। मौक़े का फ़ायदा उठाकर बिटकॉइन के मूल्य को लेकर सट्टेबाज़ी भी धड़ल्ले से हो रही है। ये सबकुछ संकट के भँवरजाल में फँसी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में एक नये बुलबुले के फूलने की ओर साफ़ इशारा कर रहा है जो कब फूटेगा यह बताना तो मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि यह फूटेगा और अपने साथ और बड़ी तबाही लायेगा। इसीलिए दुनिया के तमाम देशों के केन्द्रीय बैंक और पूँजीवादी थिंकटैंक सँभलकर निवेश करने की हिदायतें दे रहे हैं।

क्या है बिटकॉइन?

बिटकॉइन एक डिजिटल मुद्रा (करेंसी) है जिसे क्रिप्टोग्राफ़ी की तकनीक के ज़रिये सुरक्षित बनाया जाता है। इसलिए इसे क्रिप्टोकरेंसी कहते हैं। इसे ‘इण्टरनेट का कैश’ भी कहा जा रहा है। बिटकॉइन के अति‍रिक्त कई अन्य क्रिप्टोकरेंसी भी इण्टरनेट पर उपलब्‍ध हैं, मसलन इथिरियम, लाइटकॉइन, रिपल और मोनेरो। बिटकॉइन की खोज 2008 में एक रहस्यमय व्यक्ति ने की थी जो अपना नाम सातोशी नाकामोतो बताता है, हालाँकि अभी तक यह नहीं पता चल पाया है कि वह व्यक्ति कौन है। बिटकॉइन की विशेषता यह है कि यह दुनिया के किसी भी देश या किसी भी संस्था द्वारा विनियमित नहीं होती। यह एक विकेन्द्रीकृत मुद्रा है जो किसी केन्द्रीय संस्था या बैंक द्वारा नहीं बल्कि ब्लॉकचेन नामक तकनीक की बदौलत कम्प्यूटर नेटवर्क के ज़रिये संचालित होती है।

आधुनिक अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रा का लेनदेन प्राय: बैंकों या अन्य ‘थर्ड पार्टी’ के ज़रिये होता है जिसमें बैंक अपने सभी खाताधारकों के बही-खातों का प्रबन्धन करते हैं। चूँकि बैंक सरकार द्वारा विनियमित किये जाते हैं इसलिए बैंकों के ज़रिये मुद्रा का लेनदेन करने की इस प्रणाली में लोगों का विश्वास बना रहता है। ब्लॉकचेन की तकनीक ने यह मुमकिन बनाया है कि बिना किसी बैंक या ‘थर्ड पार्टी’ के मुद्रा का लेनदेन किया जा सकता है। इस प्रकार बिना किसी सांस्थानिक हस्तक्षेप के ज़रिये लेनदेन किये जा सकते हैं और समय व धन दोनों की बचत भी होती है। इस तकनीक में बही-खाते किसी केन्द्रीय संस्था के पास नहीं रहते बल्कि इस नये माध्यम से मुद्रा का लेनदेन करने वाले सभी लोगों के पास उपलब्ध होते हैं। इस क़ि‍स्म का ऑनलाइन लेनदेन करने वाले सभी लोग इण्टरनेट के माध्यम से एक कम्प्यूटर नेटवर्क से जुड़े होते हैं जिसे पियर-टू-पियर नेटवर्क कहते हैं। इस प्रक्रिया से होने वाले लेनदेन को सुरक्षित बनाने के लिए ‘डिजिटल सिग्नेचर’ और क्रिप्टोग्राफ़ी की तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे लेनदेनों के सत्यापन की प्रक्रिया ‘बिटकॉइन माइनिंग’ का अंग है जो एक विशेष कुशलता की माँग करती है। इस कुशलता से लैस विशेषज्ञों को ‘बिटकॉइन माइनर्स’ कहते हैं। बिटकॉइन नेटवर्क में जब भी कोई लेनदेन होता है तो नेटवर्क में उपस्थित सभी ‘माइनर्स’ को अधिसूचना भेजी जाती है। जो ‘माइनर’ लेनदेन का सत्यापन सबसे पहले करता है उसके खाते में ए‍क निश्चित मात्रा में (इस समय 25) बिटकॉइन चले जाते हैं। इस प्रकार ‘माइनर्स’ न सिर्फ़ बिटकॉइन का सत्यापन करते हैं, बल्कि वे उनका निर्माण भी करते हैं। लेनदेन का सत्यापन करने वाले ‘माइनर्स’ क्रिप्‍टोग्राफ़ी की तकनीक में सिद्धहस्त होते हैं। बिटकॉइन नेटवर्क में होने वाले कई लेनदेनों को मिलाकर एक ब्लॉक बनता है। ये ब्लॉक एक-दूसरे से जुड़े होते हैं, इसी वजह से इस तकनीक को ब्लॉकचेन कहते हैं। हर ब्लॉक पर अपने पिछले ब्लॉक की पहचान दर्ज होती है और इस प्रकार सभी ब्लॉक एक श्रृंखला में जुड़े होते हैं। ब्लॉकचेन की इस तकनीक को हैक करना इसलिए मुश्किल है क्योंकि हैकर को सिर्फ़ एक ब्लॉक में नहीं बल्कि बिटकॉइन की शुरुआत से लेकर अबतक के सभी ब्लॉकों में छेड़छाड़ करनी होगी जोकि लगभग असम्भव है।

बिटकॉइन के मूल्य में उतार-चढ़ाव की वजह

हाल के दिनों में बिटकॉइन के मूल्य में जो उछाल देखने में आ रहा है उसका मुख्य कारण इसके भविष्य को लेकर होने वाली अटकलबाज़ी और अफ़वाहों का फैलना है। इण्टरनेट पर भाँति-भाँति के प्रलोभन देकर लोगों को उकसाया जा रहा है कि वे बिटकॉइन में निवेश करें। चूँकि बिटकॉइन की आपूर्ति कम्प्यूटर प्रोग्राम से होने की वजह से सीमित है, इसलिए इस क़ि‍स्म की अटकलबाज़ी और अफ़वाहों से कभी बिटकॉइन का मूल्य आसमान छूने लगते है तो कभी उसका मूल्य धड़ाम से नीचे गिर जाता है। अटकलबाज़ी के इस माहौल में दलालों और सट्टेबाज़ों की चाँदी हो गयी है। मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से जूझ रहे पूँजीवाद में लाभप्रद निवेश के अवसर सीमित हो गये हैं। ऐसे में सट्टेबाज़ी की इस नयी सम्भावना की वजह से तमाम दलाल और हेज फ़ण्ड लार टपकाते हुए इसमें निवेश कर रहे हैं। अमेरिका की सीएमई और सीबीओई जैसे संस्थाओं ने दिसम्बर के महीने से बिटकॉइन में फ़्यूचर्स और डेरिवेटिव ट्रेडिंग भी शुरू कर दी है। सीएनबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ इस समय 120 से ज़्यादा हेज फ़ण्ड बिटकॉइन और अन्य डिजिटल करेंसियों पर निवेश कर रहे हैं। ऐसे में इसमें क़त्तई आश्चय की बात नहीं है कि सट्टेबाज़ी का यह बुलबुला फूलता जा रहा है। ग़ौरतलब है कि 1970 के दशक से ही मुनाफ़े की गिरती दर के संकट की वजह से मृत्युशैया पर लेटे पूँजीवाद में सट्टेबाज़ी के बुलबुलों के सहारे ही समय-समय पर थोड़ी जान आती दिखती है। ये बात दीगर है कि जब ये बुलबुले फूटते हैं तो तबाही का मंज़र छा जाता है।

मुद्रा के रूप में बिटकॉइन का भविष्य

बिटकॉइन के अतिउत्साही समर्थक बिटकॉइन को एक युगपरिवर्तनकारी मुद्रा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार चूँकि बिटकॉइन किसी सरकार या बैंक के नियन्त्रण में नहीं है और चूँकि वह विकेन्द्रीकृत है इसलिए इस मुद्रा के इस्तेमाल से लोग अपने पैसे पर ख़ुद नियन्त्रण कर सकते हैं और सरकार की मौद्रिक नीतियों व बैंकों द्वारा वसूले जाने वाले ख़र्च से बचा जा सकता है। तमाम क़ि‍स्म के ‘लिबर्टेरियन’ और अराजकतावादी विचार रखने वालों को ये बातें बहुत भाती हैं और वे इसको पूँजीवादी संकट के एक रैडिकल समाधान के रूप में प्रस्तुत करते हैं। ऐसे लोग 2007-08 की मन्दी का हवाला देते हुए कहते हैं कि मुद्रा पर बैंकों और सरकार का नियन्त्रण होने की वजह से मन्दी के बाद आम लोगों के पैसे से ही बैंकों को बेलआउट किया गया। इसी प्रकार 2013 में साइप्रस की सरकार द्वारा संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए बैंक खातों में एक निश्चित राशि से अधिक जमा हुए पैसों को ज़ब्त करने के बाद बिटकॉइन के समर्थकों के इस प्रचार को बल मिला कि सरकार और बैंकों के नियन्त्रण में रहने वाली मुद्रा पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह पूँजीवादी संकट की एक निम्न-बुर्जुआ प्रतिक्रिया और समाधान है जो लोभ-लालच और मुनाफ़ाख़ोरी पर टिकी समूची व्यवस्था का विकल्प ढूँढ़़ने के बजाय मौजूदा व्यवस्था के भीतर ही सरकार और बैंकों द्वारा नियन्त्रित केन्द्रीकृत मौद्रिक ढाँचे का विकल्प एक विकेन्द्रीकृत मुद्रा में ढूँढ़़ता है।

ऐसे में यह सवाल लाज़ि‍मी हो जाता है कि क्या बिटकॉइन वास्तव में एक वैश्विक मुद्रा के रूप में प्रचलित हो सकती है। एक तकनीक के रूप में ब्लॉकचेन निश्चय ही एक ऐसा नवोन्मेष है जिसका भविष्य में समाजवादी व्यवस्था में भी बहुआयामी इस्तेमाल होने की सम्भावना हो सकती है, लेकिन पूँजीवाद के रहते यह एक विश्वसनीय विश्वव्यापी मुद्रा बन पायेगी इसकी सम्भावना बहुत कम है। इसकी वजह यह है कि केवल ऐसी ही चीज़ मुद्रा के रूप में प्रभावी हो  सकती है जो एक ऐसे सार्वभौमिक समतुल्य का काम करे जिसके सापेक्ष अन्य मालों के मूल्य को मापा जा सके और जो विनिमय के माध्यम का भी काम कर सके। पारम्परिक रूप से धातुएँ, ख़ासकर सोना, ऐसे सार्वभौमिक समतुल्य और विनिमय के माध्यम का काम करती थीं। यह बात सच है कि आधुनिक दौर में काग़ज़ के नोट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम ने भी मुद्रा का स्थान ग्रहण किया है जिनका स्वयं का मूल्य किसी सुनिश्चित मात्रा में धातु की मुद्रा के बराबर हो ऐसा आवश्यक नहीं है। लेकिन ग़ौरतलब बात यह है कि ऐसा इसलिए मुमकिन हो पाता है कि देशों की सरकारें इसकी गारण्टी देती हैं और उनकी यह क्षमता उनकी अर्थव्यवस्था की स्थिति से निर्धारित होती है। चूँकि बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी किसी भी देश की सरकार और बैंकों द्वारा नियन्त्रि‍त और संचालित नहीं है, इसलिए एक वैश्विक मुद्रा के रूप में इसकी विश्वसनीयता हमेशा सन्दिग्ध बनी रहेगी। इसके अतिरिक्त इसकी एक सीमा यह भी है कि पूँजीवादी ढाँचे में निहित डिजिटल खाई के मद्देनज़र इण्टरनेट का इस्तेमाल न करने वाले दुनिया के अरबों लोगों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है। साथ ही हाल के वर्षों में बिटकॉइन की विनिमय दर में हुए भयंकर उतार-चढ़ाव को देखते हुए भी मुद्रा के रूप में इसकी स्वीकार्यता पर बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न है क्यों‍कि मुद्रा की एक बुनियादी शर्त एक समयान्तराल में उसकी सापेक्षिक स्थिरता होती है। अकेले वर्ष 2107 में ही पाँच बार ऐसा हुआ कि बिटकॉइन के मूल्य में एक दिन के भीतर ही 30 प्रतिशत का फेरबदल हुआ। इसके अतिरिक्त बिटकॉइन के निर्माण की प्रक्रिया भी उसके एक स्वीकार्य मुद्रा के रूप में प्रचलित होने पर प्रश्नचिह्न लगाती है। ग़ौरतलब है कि बिटकॉइन एक कम्प्यूटर प्रोग्राम के ज़रिये निर्मित होती है जिसका मालों के उत्पादन से कोई समानुपातिक सम्बन्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त बिटकॉइन की सुरक्षा के लिए इस्तेमाल होने वाली क्रिप्टोग्राफ़ी की तकनीक के बावजूद यह हैकिंग, चोरी और धोखाधड़ी से पूरी तरह से मुक्त नहीं है। अबतक के छोटे-से जीवनकाल के दौरान ही बिटकॉइन की चोरी और धोखाधड़ी के कई मामले सामने आ चुके हैं जिनकी वजह से चीन और रूस जैसे कई देशों में इस पर तमाम क़ि‍स्म की पाबन्दियाँ भी लगायी जा चुकी हैं। साथ ही बिटकॉइन के नाम पर दुनिया भर में चल रही सट्टेबाज़ी का बुलबुला क़ाबू से बाहर होने पर तमाम सरकारें इसपर निश्चित ही नकेल कसना शुरू करेंगी जिससे सरकारों के हस्तक्षेप से  स्वायत्त होने का बिटकॉइन समर्थकों का दावा खोखला साबित हो जायेेगा। इतनी सीमाओं को देखते हुए अगर भविष्य का अनुमान लगायें तो पूँजीवाद के दायरे में अधिक से अधिक यह हो सकता है कि मुद्रा के रूप में बिटकॉइन का उपयोग एक अत्यन्त सीमित रूप में होने लगे जिसके कुछ उदाहरण दिखने भी लगे हैं।

बिटकॉइन के कुछ अतिउत्साही समर्थक इसके न सिर्फ़ सरकार के नियन्त्रण से मुक्त होने का दावा करते हैं बल्कि इसके विकेन्द्रीकृत स्वरूप का हवाला देते हुए इसे कॉरपोरेट नियन्त्रण से भी मुक्त बताते हैं। यह बात सच है कि बिटकॉइन के निर्माण और संचालन की प्रक्रिया में किसी केन्द्रीय ढाँचे या केन्द्रीकृत संसाधन जैसे कि बड़े-बड़े सर्वर आदि की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि निर्माण और संचालन का काम फि़लहाल दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में काम कर रहे बिटकॉइन ‘माइनर्स’ करते हैं। परन्तु इस विकेन्द्रीकृत ढाँचे में भी केन्द्रीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। ग़ौरतलब है कि बिटकॉइन ‘माइनिंग’ का काम साधारण कम्प्यूटर पर नहीं किया जा सकता है, इसके लिए बहुत अधिक प्रोसेसिंग रफ़्तार वाले विशेष क़ि‍स्म के कम्प्यूटर की आवश्यकता होती है जिसमें बहुत ज़्यादा ऊर्जा की खपत होती है। एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक़ फि़लहाल बिटकॉइन ‘माइनिंग’ में लगने वाली बिजली का कुल खर्च आयरलैण्ड जैसे देश के कुल बिजली खर्च से अधिक है। बिटकॉइन ‘माइनिंग’ की प्रतिस्पर्द्धी प्रक्रिया में बिटकॉइन लेनदेन को सत्यापित करने के लिए ‘माइनर्स’ के बीच होड़ लगी रहती है क्योंकि सबसे पहले सत्यापित करने वाले ‘माइनर्स’ के खाते में कुछ बिटकॉइन जाते हैं। इस होड़ में अपनी सफलता की सम्भावना बढ़ाने के लिए कई ‘माइनर्स’ ने अपने संसाधनों की पूलिंग करना शुरू कर दिया है जोकि स्पष्ट रूप से केन्द्रीकरण की प्रक्रिया की ओर इंगित कर रहा है। ऐसे में अगर भविष्य में बिटकॉइन का प्रचलन बढ़ता भी है तो इस सम्भावना से हरगिज़ इनकार नहीं किया जा सकता है कि बिटकॉइन ‘माइनिंग’ करने वाली बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ खुलने लगें। इस प्रकार कॉरपोरेट के नियन्त्रण से मुक्त होने का दावे का भी कोई आधार नहीं रह जायेेगा।

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित